भारत रत्न, सचिन और सांस्कृतिक शून्य

ऑस्ट्रेलिया में भारतीय क्रिकेट टीम के लचर प्रदर्शन और अभी तक शतक- बाजार की भाषा में महाशतक- बना पाने में सचिन तेंदुलकर की नाकामी की वजह से फिलहाल उन्हें भारत रत्न दिलाने का वह अभियान कुछ ठंडा पड़ गया है जो पिछले कुछ दिनों तक मीडिया में छाया रहा. इस अभियान की एक कामयाबी यह तो है ही कि इसकी वजह से भारत रत्न प्रदान करने से जुड़े नियम बदले गए. पहले साहित्य-कला, विज्ञान या समाज सेवा के नाम पर दिया जाने वाला भारत रत्न अब किसी भी क्षेत्र में प्रतिभा के विशिष्ट प्रदर्शन पर दिया जा सकेगा. खेल मंत्रालय आधिकारिक तौर पर मान चुका है कि यह परिवर्तन उसके प्रयासों की वजह से हुआ है. सचिन को भारत रत्न दिलाने की मुहिम में अब इकलौती बाधा वे खिलाड़ी हैं जो सचिन तेंदुलकर से पहले भारत रत्न के दावेदार हैं. इनमें बाकायदा सचिन और ध्यानचंद के बीच प्रतियोगिता-सी चलाई जा चुकी है और इस क्रम में कई दूसरे खिलाड़ियों, सुनील गावस्कर, कपिलदेव, विश्वनाथन आनंद और प्रकाश पादुकोण से लेकर मिल्खा सिंह के नाम याद किए जा चुके हैं. फिलहाल खेल मंत्री अजय माकन यह सुझाव भी दे चुके हैं कि एक ही साल सचिन तेंदुलकर और ध्यानचंद को भारत रत्न प्रदान किया जा सकता है.
इस पूरी बहस में एक तरह का छिछलापन है जिसे समझना जरूरी है. सचिन तेंदुलकर की पात्रता और भारत रत्न की प्रासंगिकता दोनों पर विचार करते हुए शायद हम अपने लिए कुछ जरूरी सूत्र तलाश सकें. निश्चय ही सचिन तेंदुलकर भारत के सबसे बड़े खिलाड़ी हैं. वाकई ध्यानचंद के जादू को छोड़ दें तो सचिन के करिश्मे का कोई सानी नहीं है. बल्लेबाजी के बहुत सारे रेकार्ड सचिन के नाम हैं. लेकिन क्या भारत रत्न की कसौटी इतने भर से पूरी हो जाती है? जो हमारा सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान है, क्या उसके लिए उपलब्धियों के अलावा कुछ और मानक नहीं होने चाहिए?

सच तो यह है कि राष्ट्र के इस सर्वोच्च सम्मान का जितना भयानक राजनीतिकरण हुआ है उतना किसी दूसरे सम्मान का नहींजैसे यह कल्पना करें कि सचिन कल को भारत रत्न हो जाएं और फिर परसों हमारा भारत रत्न पेप्सी-कोक के विज्ञापन करता दिखे तो हमें कैसा लगेगा? या हम पाएं कि आईपीएल की निहायत कारोबारी मजबूरियों में मुंबई इंडियंस के हाथ बिके सचिन किसी ऐसे विवाद में घिरे हुए हैं जिसमें उनकी बेचारगी या उपेक्षा दिख रही है तो हम कैसा महसूस करेंगे?

फिलहाल ऐसा होता नहीं लगता, क्योंकि सचिन मुंबई इंडियंस के आइकन खिलाड़ी हैं. लेकिन कोलकाता नाइटराइडर्स, रायल चैलेंजर्स बेंगलुरु या किंग्स इलेवन पंजाब ने अपने आइकन खिलाडियों सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़ और युवराज सिंह के साथ जो सलूक किया वह बहुत पुराना नहीं पड़ा है. अंततः इन खिलाड़ियों को फिर से बोली और नीलामी के लिए जाना पड़ा और नई टीमें चुननी पड़ीं. सचिन तेंदुलकर इसलिए नहीं बचे रहे कि मुंबई इंडियंस के कर्ता-धर्ता उनका कुछ ज्यादा सम्मान करते हैं, बल्कि इसलिए कि उन्होंने आईपीएल में अपना प्रदर्शन बेहतर रखा. कल को वे नहीं खेल पाएंगे तो उनके साथ भी वही सलूक होगा जो उनके दूसरे साथियों के साथ हुआ.

कायदे से भारत रत्न अगर इस देश का आखिरी- सबसे बड़ा- सम्मान है तो उसका कुछ ज्यादा मतलब होना चाहिए. भारत रत्न अर्जित करने वाले से हमें सब कुछ पाने नहीं, कुछ छोड़ने की भी अपेक्षा रखनी चाहिए. कम से कम उसे कारोबारी किस्म की प्रवृत्तियों से ऊपर उठना होगा, खुद को विज्ञापनबाज मानसिकता से दूर रखना होगा. कह सकते हैं कि यह बड़ी कड़ी और निर्मम अपेक्षा है. लेकिन फिर वह भारत रत्न कैसा जो त्याग को आदर्श मानने वाले देश में इतनी भर अपेक्षा पूरी न करे. निश्चय ही सचिन तेंदुलकर के व्यवहार में अपनी तरह की शालीनता है. वे कई मामलों में आदर्श हैं. अपनी तरफ से उन्होंने कभी भारत रत्न जैसे किसी सम्मान के लिए उतावलापन प्रदर्शित किया हो, यह किसी को याद नहीं आता. लेकिन फिर भी भारत रत्न जैसे सम्मान की श्रेणी उनसे कुछ और अपेक्षाएं रखती है.

हालांकि फिर कहा जा सकता है कि आखिर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न क्यों चाहिए. उनकी धवल कीर्ति का आसमान वैसे भी काफी विस्तृत है. क्या उसमे भारत रत्न कोई नई आभा जोड़ेगा? कम से कम क्रिकेटर अपनी तात्कालिक लोकप्रियता से इतने प्रमुदित रहते हैं कि वे किसी और सम्मान की- जिसमें पैसा न हो- परवाह करते हैं, ऐसा नजर नहीं आता. हाल के दिनों में हरभजन सिंह और महेंद्र सिंह धोनी जैसे जिन क्रिकेटरों को पद्मश्री देने की घोषणा हुई, उन्होंने इसका कोई विशेष मान नहीं रखा. सचिन शायद ऐसा न करें, क्योंकि अपनी छवि और राष्ट्रीयता को लेकर अब तक वे दूसरों से ज्यादा संवेदनशील नजर आते हैं, लेकिन फिर भी अगर ऐसा हो तो इसमें अचरज क्या है?

अफसोस की बात है कि हमने धीरे-धीरे अपने सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बेजान और थोथी प्रदर्शनप्रियता का शिकार बना डाला है

दरअसल इसी बिंदु पर इस पूरी बहस को दूसरे सिरे से समझने की जरूरत है. महेंद्र सिंह धोनी या किसी दूसरे खिलाड़ी ने पद्मश्री का मान क्यों नहीं समझा? क्या सिर्फ इसलिए कि इसमें पैसा नहीं है? या इसलिए भी कि एक सम्मान के रूप में पद्म पुरस्कार अपनी वह सार्थकता बनाए रखने में नाकाम रहे हैं जो उसे एक तरह की राष्ट्रीय छवि प्रदान करे और उसे लेते हुए लोग अलग-सा गर्व महसूस करें. मूल तौर पर ये सरकारी सम्मान रह गए हैं जिनका मंत्री और अफसर अपने लोगों को उपकृत करने तक के लिए इस्तेमाल करते हैं. भारतीय जनता पार्टी के समय अटल बिहारी वाजपेयी की तुकबंदीनुमा कविताएं गाने वाले, उन पर नृत्य करने वाले और यहां तक वाजपेयी के घुटनों का ऑपरेशन करने वाले भी पद्म सम्मान पाते चले गए.

दुर्भाग्य से भारत रत्न भी ऐसा ही सम्मान रह गया है. सच तो यह है कि राष्ट्र के इस सर्वोच्च सम्मान का जितना भयानक राजनीतिकरण हुआ है उतना किसी दूसरे सम्मान का नहीं. यह अचरज की बात है कि भारत रत्न के लिए पहले जो कसौटियां निर्धारित थीं उनकी पूरी तरह उपेक्षा करके यह सम्मान सीधे-सीधे नेताओं के हवाले कर दिया गया. पुरानी कसौटी के मुताबिक साहित्य के लिए यह सम्मान दिया जा सकता था. लेकिन साहित्य के खाते में अब तक एक ही भारत रत्न दिया गया और वह भी संस्कृत के विद्वान भगवान दास को. रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, निराला, महादेवी, सुब्रह्मण्यम भारती या वल्लतोल जैसे कवि लेखकों को भारत रत्न प्रदान किए जाने लायक नहीं समझा गया. अब तक जो 42 भारत रत्न दिए गए हैं उनमें 23 या 24 भारत रत्न या तो स्वाधीनता सेनानियों को दिए गए या राजनेताओं को. जाहिर है, इन सबके लिए चूंकि अलग से कोई श्रेणी नहीं थी इसलिए इन्हें समाजसेवा के खाते में भारत रत्न मिला. इस सूची में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीवी गिरि, कामराज, एमजी रामचंद्रन जैसे कुछ ऐसे भी नाम हैं जिनकी पात्रता पर पहले भी सवाल उठे, आगे भी उठते रहेंगे.

निश्चय ही आखिरी कुछ वर्षों में संगीत से जुड़ी कई विभूतियों- एमएस सुबुलक्ष्मी, लता मंगेशकर, रविशंकर, बिस्मिल्ला खां, भीमसेन जोशी और फिल्मकार सत्यजित रे को भारत रत्न देकर हमारी सरकारों ने अपनी सांस्कृतिक संवेदनशीलता का कुछ परिचय देने की कोशिश की, लेकिन यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह समझ भी एक तरह के लोकप्रियतावाद से आक्रांत है. एपीजे अब्दुल कलाम को भारत रत्न देना इसी लोकप्रियतावाद का एक दूसरा आयाम था क्योंकि कलाम साहब ने देश को भले कुछ मिसाइलें दी हों, लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में उनका मौलिक योगदान ऐसा बड़ा नहीं है कि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की कीर्ति में कुछ योगदान करें. मदर टेरेसा या अमर्त्य सेन को भारत रत्न के लायक सरकार ने तब माना जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल गया. निश्चय ही कल को भारत के किसी साहित्यकार को नोबेल पुरस्कार मिल जाए तो अगले साल उसे भारत रत्न भी प्रदान कर दिया जाएगा. समकालीन भारतीय चित्रकला का भी कोई मूर्धन्य अब तक भारत रत्न प्राप्त नहीं कर सका है तो इसीलिए कि समकालीन कला चाहे जितनी भी महत्वपूर्ण हो, वह लोकप्रियता के लिहाज से पीछे है.

भारत रत्न की दुर्गति का आलम यह है कि हाल के दिनों में राजनीतिक दलों ने और नेताओं ने अपनी विचारधारा और विरासत के हिसाब से भारत रत्न की मांग की. भारतीय जनता पार्टी ने बाकायदा अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न देने की मुहिम चलाई तो बीएसपी ने कांशीराम को भारत रत्न देने की मांग की. खेल यहां तक पहुंचा कि लोगों ने बेशर्मी से अपने पिताओं के लिए भारत रत्न मांगा.

दरअसल इस तरह की मांग से भी पता चलता है कि हमने भारत रत्न का या अपने सम्मानों का क्या हाल बना रखा है. जो विकट संस्कृतिहीनता हमारे पूरे सार्वजनिक प्रतिष्ठान में छाई हुई है, उसने हमारे सर्वोच्च सम्मान को भी ग्रस रखा है. सचिन तेंदुलकर को भी भारत रत्न देने की मांग के पीछे क्रिकेट की समझ और संवेदनशीलता कम, बाजार का दबाव ज्यादा है. यह दबाव सचिन तेंदुलकर पर भी हावी है और हमारे सरकारी तंत्र पर भी, यह बात प्रत्यक्ष है. सचिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का अपना सौवां शतक और बाजार की भाषा में कहें तो महाशतक नहीं बना पा रहे हैं, जबकि उन्हें भारत रत्न देने के नाम पर देश के सर्वोच्च सम्मान की कसौटी के साथ खिलवाड़ हो चुका है. ऐसे में अगर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिल भी जाए तो वह बाजार को जश्न का एक मौका जरूर देगा, शायद कुछ क्षण के लिए एक भावुक राष्ट्रवाद का खुमार भी पैदा करेगा, लेकिन अंततः इससे न सचिन तेंदुलकर की प्रतिष्ठा बढ़ेगी न भारत रत्न की कीर्ति पर असर पड़ेगा.

सोच कर अफसोस होता है कि हमने धीरे-धीरे अपने सांस्कृतिक आदान-प्रदान को कितना बेजान और थोथी प्रदर्शनप्रियता का शिकार बना डाला है. यह अफसोस यह सोचकर कुछ और बढ़ जाता है कि इस प्रवृत्ति के लिए जो राजनीतिक अपसंस्कृति जिम्मेदार है वह लगातार निरंकुश, अभेद्य और बहुत हद तक स्वीकार्य होती जा रही है.