इस रफ्तार से हम कहां जा रहे हैं?

सभ्यता के विकास का सबसे महत्वपूर्ण मानक क्या है? इस प्रश्न के बहुत सारे उत्तर हो सकते हैं. एक मानक उन बहुत सारे आविष्कारों के सिलसिले से बनता है जिन्होंने हमारा जीवन बिल्कुल बदल कर रख दिया है- पहिये से लेकर सुपरसोनिक विमान तक, सुई से लेकर तलवार और तरह-तरह की आधुनिक तोपों और मिसाइलों तक, और आग और शीशे की खोज से लेकर उन उपग्रहों तक जिन्होंने सूचना और संचार के एक जादुई संसार को संभव बनाया है.

हमारे समय का सबसे बड़ा तनाव उस प्रतिस्पर्द्धा का तनाव है, जिसमें पीछे छूट जाने का डर हमें दौड़ाता रहता है

दूसरी कसौटी उन सामुदायिक-सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं से बनती है जो हमने इन सदियों में विकसित की है. निश्चय ही धर्म और राजनीति इनमें सबसे बड़े नियामक की भूमिका निभाते रहे हैं- इन्होंने हमारे सामाजिक-आर्थिक व्यवहार भी तय किए हैं.
हो सकता है, कुछ दूसरे लोगों के दिमाग में विकास की और भी कई कसौटियां आएं, जिनका वास्ता मनुष्य के गरिमापूर्ण और एक समान जीवन से हो या फिर हिंसा के विरुद्ध लगातार बढ़ती और हिंसा से लड़ती मानवीय चेतना से हो.

लेकिन अगर बहुत ध्यान से देखें तो विकास का यह पूरा सफर असल में रफ्तार का खेल है- बल्कि विकास और गति जैसे एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं. पहिये के आविष्कार ने इस रफ्तार को पहले पंख दिए. आने वाले दिनों में यह रफ्तार बिल्कुल अतिमानवीय हदों के पार जाती दिखी. आज की तारीख में रफ्तार ने खुद को तरक्की और बेहतरी का पर्याय बना लिया है. रफ्तार जैसे माध्यम या जरिया नहीं रही, सीधे मूल्य हो गई है. सबसे अच्छी कार वह है जो सबसे तेज दौड़ सके. सबसे अच्छे फोन वे हैं जिनमें सबसे तेज डाटा ट्रांसफर हो सके, सबसे अच्छा टीवी चैनल वह है जो सबसे तेजी से ख़बर पहुंचा सके. ये बहुत स्थूल उदाहरण हैं, ज़्यादा गहराई से देखेंगे तो लगेगा कि हमने समय की शिला को जैसे चूर-चूर कर डाला है और उसके एक-एक मिनट और सेकंड का नहीं, नैनो सेकंड तक का इस्तेमाल कर लेने पर तुले हैं.

आखिर इतनी रफ्तार का फायदा क्या है?  पहला और सीधा जवाब तो यही हो सकता है कि रफ्तार हमारा समय बचाती है. इस रफ्तार से ही दुनिया बिल्कुल मुट्ठी में आ गई है. अब हम वहां घंटों में पहुंच जाते हैं जहां पहुंचने में पहले महीनों और उससे भी पहले साल लगते थे. अब हम मिनटों में इतना सारा सामान तैयार कर लेते हैं जो पहले कई दिन में होता था. इस तर्क से हम इस नतीजे तक पहुंच सकते हैं कि हमारी रफ्तार जितनी ज्यादा होगी, हमारे पास समय उतना ही ज़्यादा होगा.

लेकिन जीवन का, सभ्यता का और विकास का अनुभव इसकी पुष्टि नहीं कर रहा. जो जितनी तेजी से भाग रहा है, उसके पास समय की उतनी ही कमी हुई जा रही है. यह व्यक्तियों का भी सच है और समाजों का भी. हम अपने पुराने सुस्त रफ्तार समाज को याद करते हैं और पाते हैं कि वहां आदमी के पास समय काफी ज्यादा था. साफ है कि रफ्तार की उस विडंबना को हम समझने को ठीक से तैयार नहीं हैं जिसे गांधी जी ने सौ साल पहले समझ लिया था, जब उन्होंने ट्रेनों की आलोचना की थी. उनका कहना था कि जब हम पैदल या बैलगाड़ी पर एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं तो हमें उस परिवेश को समझने का पूरा समय मिलता है. सफर में आने वाले गांव-देहातों और बस्तियों की बोली-बानी और उनकी जीवन शैली से हमारा परिचय इतना प्रगाढ़ होता चलता है कि हम किसी भी इलाके में परायापन महसूस नहीं करते. महात्मा गांधी के मुताबिक दरअसल ये तेज रफ्तार से चलने वाली रेल हैं जिन्होंने देश को बांटा है, हिंदुस्तान के भीतर कई राष्ट्र बना दिए हैं.

टहलते हुए आप हर तरफ देखते हैं, हर किसी का हालचाल ले लेते हैं, दौड़ते हुए आप बस एक तरफ देखते हैं, अपनी भी सांस अपने वश में नहीं रहती

सच है कि यह तर्क आसानी से पचता नहीं क्योंकि हम यह मानने के आदी हो गए हैं कि यह रफ्तार हमें करीब ला रही है. अब हजारों मील दूर बैठे लोगों का हालचाल लिया जा सकता है, उनसे सीधी बातचीत की जा सकती है और जरूरत पड़ने पर उन तक तत्काल पहुंचा भी जा सकता है. लेकिन खुद यह रफ्तार क्या इतनी आसानी से हासिल होती है? इस रफ्तार की एक आर्थिक कीमत है जो आपको अपना समय लगाकर हासिल करनी है. दरअसल जब यह समय खर्च हो जाता है तो हमें रफ्तार अपरिहार्य लगने लगती है. हर कोई जैसे जल्दी में रहता है. कभी दफ्तर पहुंचने की हड़बड़ी, कभी घर भागने की जल्दबाजी तो कभी किसी पार्टी में जाने की बेताबी- इन सबके बीच दबाव, तनाव और थकान के ऐसे कोलाहल भरे लम्हे हैं जो जीवन को लगभग असह्य बना डालते हैं. इस असहनीयता से भागने के लिए भी हमने ढेर सारे उपाय कर लिए हैं. पर्यटन और होटल उद्योग इन दिनों खूब फूल-फल रहे हैं क्योंकि लोगों के पास पैसा है और वे गर्मियों में पहाड़ पर और सर्दियों में समंदर के किनारे जाकर मौसम का लुत्फ उठाते हैं.

लेकिन यहां भी रफ्तार उनका पीछा नहीं छोड़ती. उनके पास गिनती के कुछ दिन होते हैं जिनके बीच सब कुछ देख लेना और घूम लेना होता है- और अब तो देखने-घूमने से ज्यादा बेताबी इस पर्यटन के अनुभव को तत्काल साझा करने की होती है. पहाड़ पर पहुंचे नहीं, बर्फ देखी नहीं कि उसके धड़ाधड़ फोटो फेसबुक पर अपलोड करने लग गए. यह लगातार आम बनता हुआ चलन बताता है कि हड़बड़ी पहले मजबूरी थी, अब आदत बन गई है. ऐल्विन टॉफलर ने अपनी किताब फ्यूचर शॉक में इस संकट की तरफ बड़ी खूबसूरती से इशारा किया है. अब लोगों के पास किसी अनुभव को ठीक से महसूस करने, उसे जज्ब करने, उसकी अलग-अलग रंगतों को पहचानने का सब्र नहीं रह गया है- या शायद इसकी जरूरत भी नहीं रह गई है. हर अनुभव जैसे पूर्व निर्धारित है, जैसे पैकेज्ड टूर होते हैं जहां आपको बिल्कुल मालूम होता है कि सुबह किसी प्वाइंट से सूर्योदय देखेंगे और शाम को किसी प्वाइंट से सूर्यास्त. यह भी पता होता है कि वह सूर्योदय या सूर्यास्त कैसा होगा.

जाहिर है, अनुभव में दो तरह के तत्व ख़त्म हो गए हैं- वह धीरज नहीं बचा है जिससे किसी चीज को उसकी बारीकियों या ब्योरों के साथ समझा जाए. जबकि यह कहावत पुरानी है कि खुदा बारीकियों में बसता है. सूक्ष्मता के इस विलोप से आस्वाद की संपूर्णता खत्म हो गई है. दूसरी तरफ अनुभव का अनूठापन भी नहीं बचा हुआ है – यानी कोई ऐसा दृश्य जिसकी आपने उम्मीद न की हो, कोई ऐसा पहलू जो आप पहली बार देख रहे हों.

अनुभव संसार में इस बदलाव की छाप संस्कृति, साहित्य और कला से जुड़े माध्यमों में भी बहुत साफ नजर आ रही है. फिल्मों में धीरे-धीरे बनता कोई दृश्य अब नज़र नहीं आता. चीजें बिल्कुल धड़धड़ाती हुई आती हैं और वे हमारे संवेदन तंत्र को छूना नहीं, बिल्कुल उस पर ख़ुद को आरोपित कर लेना चाहती हैं. मुश्किल यह है कि हमें इससे भी तृप्ति नहीं मिलती. हम फिर रफ्तार का सहारा लेते हैं- इसमें वह रोमांच मिलता है जो हमारे शिथिल स्नायु तंत्र में बिजली भरता है. लेकिन यह रोमांच भी उतनी ही देर टिकता है जितनी देर गाड़ी अपनी पूरी रफ्तार पर होती है. जहां आपके पांव ब्रेक पर होते हैं, वह अनुभव भाप की तरह उड़ जाता है. 
लेकिन हमारे समय में इस रफ्तार के असली मूल्य को समझना जरूरी है. वह समय बचाने का, वक्त पर कहीं पहुंच जाने का माध्यम भर नहीं है, वह दूसरों को पीछे छोड़ने, उनसे आगे निकल जाने का खेल भी हो गई है. हमारे समय का सबसे बड़ा तनाव उस प्रतिस्पर्धा का तनाव है, जिसमें पीछे छूट जाने का डर हमें दौड़ाता रहता है. यहां रफ्तार और सफलता एक-दूसरे के हमसफर हो जाते हैं.

इस रफ्तार की विडंबनाएं और भी हैं. टहलते हुए आप हर तरफ देखते हैं, हर किसी का हालचाल ले लेते हैं, दौड़ते हुए आप बस एक तरफ देखते हैं, अपनी भी सांस अपने वश में नहीं रहती. हमारे देखते-जानते ही इस रफ्तार ने हमारी सामाजिकता तार-तार कर दी है. जीवन में वह अवकाश बचा ही नहीं कि आप दूसरों से मिलें, उनसे बात कर लें, उनके बारे में कुछ याद रखें. मनुष्य वह सामाजिक प्राणी नहीं रहा जिसने कभी समाज बनाया था. हालांकि यह सामाजिकता हमारी प्रकृति है, इसलिए किसी न किसी बहाने हम लोगों से जुड़ना चाहते हैं. फेसबुक, ऑरकुट या ट्विटर जैसे माध्यम यों ही लोकप्रिय नहीं हो गए. इन्होंने हमारे लिए वे चौराहे और मोहल्ले फिर बसाए जिन्हें हम आगे बढ़ने की होड़ में कहीं छोड़ आए हैं. उनके माध्यम से हम अपने संबंधों को पुनर्जीवित करने की कोशिश में हैं.

लेकिन इन माध्यमों पर होने वाली ये वायवीय मुलाकातें क्या वास्तविक मेलजोल की जगह ले सकती हैं?  अंततः एक सीमा के बाद फेसबुक थका देता है, ऊब पैदा करने लगता है, क्योंकि शब्दों या तस्वीरों के लेन-देन का अपना एक मोल है, लेकिन वह बिल्कुल प्रामाणिक आत्मीयता नहीं है जिसमें हम दूसरे का चेहरा पहचानते हैं, उसमें पहली बार आ रही मूंछों या बाद के दौर में उस पर पड़ रही झुर्रियों और सफेदियों को देखते हैं, उसकी आवाज को उसके उतार-चढ़ावों के साथ पहचानते हैं, उसके साथ मिलकर ठहाके लगाते हैं. फेसबुक में हा हा हा लिखकर काम चलाना पड़ता है.

लेकिन हम जिस तरह के बदले हुए आदमी हैं, उसमें इतना भी हमें काफी लग रहा है. रफ्तार ने हमारे भीतरी अवयवों को बदल डाला है. अब शायद किसी से मिलने पर भी हमारा ध्यान भटकता रहता है- बातचीत के सिरे टूटते रहते हैं, रिश्तों से जुड़े पुराने ब्योरे करीने से याद तक नहीं आते. यहां भी एक हड़बड़ी जैसे हमारे पीछे लगी रहती है. दरअसल यह उस सभ्यता की कीमत है जो हमने रफ्तार के माध्यम से बनाई है- यह समझे बिना कि इस रफ्तार ने सबसे ज्यादा हमें ही कुचला है. हम बस दौड़ते जा रहे हैं, यह जाने बिना कि हम जा कहां रहे हैं.