तुम्हीं से करार तुम्हीं से तकरार

कथाकार शैवाल की एक कहानी है- ‘अक्स दरबार’. उसमें एक प्रसंग रेड लाइट एरिया का है. एक दफा एक आदमी वहां पहुंचता है. वहां खड़ी दो महिलाएं अपने-अपने अंदाज में उसे बुलाती हैं. एक खुद के जवान होने का वास्ता देकर, दूसरी उम्र के अनुभव को बताकर. दुविधाग्रस्त अजनबी जवान लड़की पर मोहित होता है. दूसरी कहती है, ‘जा करमजलउ, तेरे नसीब में सुजाक ही है, तो क्या कहें! अजनबी डर जाता है. भागना चाहता है.’ उसे पलटते देख दोनों फट से गलबहियां करती हैं. हंसते हुए कहती हैं, ‘एकदम  बेवकूफ है, हमने मजाक में सुजाक की बात कही, यह सच मान बैठा. डर गया. अनाड़ी है.’ लजाया अजनबी कहता है, ‘मैं भी मजाक ही मान रहा हूं. डरा नहीं हूं.’ अबकी वह अधेड़ की तरफ बढ़ता है. लड़की फुफकारकर कहती है, ‘जा बुढ़ऊ, लेकिन पूछ तो, वह बुढि़या मेरी मां है कि नहीं..!’

पिछले कुछ समय पर निगाह डालें तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दो प्रमुख और सबसे पुराने घटकों भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड के रिश्ते की कहानी भी कुछ इसी अंदाज में चल रही है. हालांकि उसे राजनीति की सामान्य प्रक्रिया के आवरण से ढकने की कोशिशें हो रही हैं, लेकिन कई बार दिख जाता है कि मामला उतना सामान्य है नहीं. शैवाल कहते भी हैं, ‘अस्तित्व बनाए-बचाए रखने के लिए गलबहियां करने और मौका मिलते ही एक-दूजे का अस्तित्व मिटा देने की फिराक में किसी भी हद तक जाने की प्रक्रिया हर क्षेत्र में चलती रहती है.’

करीब 14 साल पहले राष्ट्रीय राजनीति के जरिए देश में राज करने के लिए एक-दूजे के करीब आकर सहयोगी बने जदयू और भाजपा अब बिहार में सत्ता के सवाल पर साझा अस्तित्व को बचाए रखने की मजबूरी तक ही मजबूती दिखा पाते हैं. उसके बाद वे एक-दूजे को आईना दिखाने और कमजोर करने के हर मौके की तलाश करते नजर आ रहे हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान और उसके पहले झारखंड में एक उपचुनाव के दरम्यान यह साफ दिखा. उत्तर प्रदेश मंे भी भाजपा और जदयू में इस बार गठबंधन नहीं था. नीतीश भी वहां प्रचार करने गए. सभा में भाषण हुआ- कमल खिला तो उत्तर प्रदेश कीचड़-कीचड़ हो जाएगा. यह बात स्थानीय अखबारों के पन्ने में उभरी, लेकिन दबकर रह गई. लेकिन इसका असर आगे हुआ. भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी और शाहनवाज हुसैन ने उत्तर प्रदेश के एक चुनावी सभा में कहा कि जदयू से गठबंधन होने के कारण प्रदेश में भाजपा का जनाधार घटा है. इसके बाद तो तूफान ही मच गया. लगे हाथ जदयू के प्रवक्ता नीरज कुमार ने उत्तर प्रदेश के ही संत कबीरनगर जिले के मेंहदावल में प्रेसवार्ता आयोजित करके भाजपा और आडवाणी-शाहनवाज की आलोचना की. उन्होंने कहा कि संाप्रदायिक चरित्र, माफिया चरित्र और भ्रष्टाचारियों को संरक्षण दिए जाने के कारण भाजपा गति से दुर्गति प्राप्त कर रही है. अन्य जदयू नेताओं ने बिहार में भाजपा को औकात बताए जाने की चेतावनी भी दे डाली.

जुबानी तल्खी जारी रही. जदयू नेताओं ने कहा कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा अपने नरेंद्र मोदी के सांप्रदायिक मॉडल, मध्य प्रदेश के शिवराज मॉडल या छत्तीसगढ़ के रमण सिंह मॉडल का प्रचार करे लेकिन बिहार मॉडल का सहारा न ले क्योंकि वह नीतीश कुमार मॉडल है और बिहार में भाजपा जदयू और नीतीश के नाम पर ही अस्तित्व में है. लेकिन भाजपा इससे बेअसर दिखी. नीतीश उत्तर प्रदेश के जिन इलाकों में चुनाव प्रचार करने गये, उनमें उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी बिहार मॉडल के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे.

वैसे दोनों दलों के बीच दूरियां बढ़ने और एक-दूजे को पटखनी देने के इस खेल की शुरुआत बिहार में दूसरी पारी में साथ मिलकर सरकार बनाने से ही हो गई थी. उत्तर प्रदेश चुनाव में यह खेल तेज हो गया.  कुछ माह पहले झारखंड में मांडू विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में भी यह खेल दिखा था. मांडू जदयू की सीट थी लेकिन जब विधायक के निधन के बाद वह सीट खाली हुई तो भाजपा ने प्रदेश में जदयू से सत्ता का गठबंधन रहने के बावजूद अपना खुला समर्थन सरकार के दूसरे सहयोगी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा को दे दिया था. तब नीतीश कुमार ने तहलका से बातचीत में कहा भी कि झारखंड में यह ठीक नहीं हुआ. बताया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में दोनों दलों के बीच चली जुबानी जंग एक तरह से झारखंड मंे भाजपा द्वारा किए गए विश्वासघात का बदला लेने की प्रक्रिया की तरह रही. जानकारों के मुताबिक इसमें नीतीश कुमार और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव की मौन सहमति थी. इसके पहले बिहार में भी दोनों दलों के बीच अंदरखाने में एक-दूजे को घेरने और पटखनी देने की कोशिशें दिखती रही हैं. पिछले साल के आखिर में बिहार के बेगुसराय में हुए सिमरिया अर्धकुंभ के मसले पर भी दोनों दल बंटे रहे थे.

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक भाजपा गैरसवर्ण वोट में सेंधमारी की कोशिश कर रही है और जद यू सवर्ण वोटों में. रिश्ते में उठापटक की जड़ यही है

बिहार में दूसरी पारी की सरकार शुरू होने के बाद भाजपा ने राजनीति और सत्ता के मोर्चे पर भी कई नई योजनाएं शुरू की हैं. बिहार में जदयू के मुकाबले सफलता दर ज्यादा रहने और मजबूत स्थिति होने के कारण भाजपा खुलकर अपने अभियान को चला भी पा रही है. बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सोमवार को जनता के दरबार में उपस्थित होते हैं तो अब मंगलवार को उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी अपने अहाते में जनता के दरबार में आते हैं. जदयू की ओर से महापुरुषों को जाति के खोल में समेटकर जयंती और पुण्यतिथि मनाने का सिलसिला चला तो भाजपा ने भी उसे अपने ढंग से परवान चढ़ाया. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘यह अकारण नहीं है कि भाजपा दलितों की बस्ती में सहभोज का अभियान चला रही है, मुजफ्फरपुर में मल्लाहों का सम्मेलन कर रही है और कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की मांग कर रही है.’ सुमन कहते हैं कि लड़ाई दूसरी दिशा में है. उनके मुताबिक भाजपा यह मानकर चल रही है कि सवर्णों के वोट पर उसका अधिकार है इसलिए वह पिछड़ों-अति पिछड़ों व दलितों के वोट में सेंधमारी की कोशिश करके जदयू को कमजोर करना चाहती है. उधर, जदयू यह मानकर चल रही है कि सवर्णों में आधार मजबूत किए बगैर अकेले सत्ता में आने की गुंजाइश नहीं रहेगी. अभी हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक सम्मेलन में जब यह घोषणा की िक वे अब जातीय सभाओं/सम्मेलनों में नहीं जाएंगे तो उसे भी इसी से जोड़कर देखा गया कि ऐसा वे सवर्णों के बीच पैठ बनाने के लिए कह रहे हैं.

हालांकि जदयू और भाजपा में हो रही इस रस्साकशी में कभी एक भारी दिखता है तो कभी दूसरा. कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घटक संगठन डंके की चोट पर मनमाना आयोजन करके पटना से चले जाते हैं तो कभी नीतीश के बूते जदयू का पलड़ा भारी दिखता है. इधर हाल के दिनों में कांग्रेस के जयराम रमेश जैसे नेताओं ने बिहार से लेकर झारखंड तक के मंच पर नीतीश का गुणगान अचानक शुरू कर दिया है तो उसके भी राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं.

हालांकि कहा जा रहा है कि अभी दोनों दलों के बीच रिश्ता ‘तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई’ की तर्ज पर ही चलता रहेगा. बीच में कई मौकों पर इसका लिटमस टेस्ट होता रहेगा. अगले माह बिहार में विधान परिषद और राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव होना है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश चुनाव के परिणामों और चारा घोटाला मुकदमे में लालू प्रसाद यादव के संदर्भ में आए फैसले की कसौटी पर भी दोनों दलों के रिश्ते की परीक्षा होगी. कुछ और तल्खी आई तो भी यह रिश्ता घिसट-घिसटकर लोकसभा चुनाव तक चलेगा.

जानकारों के मुताबिक उस बिंदु पर तय होगा कि तमाम मतभिन्नताओं और अवरोध-विरोध के बावजूद इन पुराने दोस्तों का रिश्ता कोई नई शक्ल लेता है या नहीं.