पेड न्यूज का पाप

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ चुनावी पेड न्यूज का जिन्न लौट आया है. वैसे वह कहीं गया नहीं था क्योंकि मुनाफे की बढ़ती भूख के बीच न्यूज मीडिया में पेड न्यूज ही शाश्वत सत्य है. रिपोर्टों के मुताबिक, चुनाव आयोग को पंजाब में पेड न्यूज की कोई 523 शिकायतें मिलीं. 339 मामलों में आयोग ने उम्मीदवारों को नोटिस जारी किया. जवाब में 201 उम्मीदवारों ने स्वीकार किया कि उन्होंने खबरों के लिए पैसे दिए और वे उसे अपने चुनाव खर्च में जोड़ेंगे. अन्य 78 उम्मीदवारों ने इन आरोपों को नकारा है जबकि 38 मामलों में उम्मीदवारों या संबंधित मीडिया संस्थान ने आरोपों को चुनौती दी है.

समाचार माध्यम सिर्फ अपने धंधे और लोकतंत्र के चौथे खंभे को ही दांव पर नहीं लगा रहे बल्कि खुद लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं

अब इन 201 मामलों में मीडिया संस्थानों की प्रतिक्रिया या उन पर प्रेस काउंसिल की कार्रवाई का इंतजार है. कहते हैं कि इस बार पंजाब में पेड न्यूज का आलम यह था कि सत्ता की दावेदार पार्टियों का शायद ही कोई ऐसा उम्मीदवार हो जिसने अखबारों/चैनलों के पैकेज न लिए हों. ऐसे में 523 शिकायतें कुछ नहीं हैं. एक आरोप यह भी लगाया गया है कि उम्मीदवारों को ब्लैकआउट का डर दिखाकर पेड न्यूज पैकेज खरीदने के लिए ब्लैकमेल किया गया.  

पंजाब कोई अपवाद नहीं है. पिछले साल एक पत्रकार ने गोवा में सबसे अधिक प्रसार वाले अंग्रेजी दैनिक के मार्केटिंग मैनेजर को एक स्टिंग ऑपरेशन में चुनावों के एक संभावित उम्मीदवार से ‘अनुकूल और सकारात्मक खबर’ के बदले में पैसे मांगते हुए पकड़ लिया. इस घटना से साफ हो गया कि अवैध खनन से लेकर विधायकों और वोटरों की खरीद-फरोख्त के लिए कुख्यात हो चुके गोवा के अखबार और चैनल भी बिकाऊ हैं.  

ऐसे में, चुनावी पेड न्यूज  की प्रयोगभूमि उत्तर प्रदेश के अखबार और चैनल भी कहां पीछे रहने वाले हैं? खबरें हैं कि यहां भी बहती चुनावी गंगा में अखबार और चैनल जमकर हाथ धो रहे हैं. अखबारों  और चैनलों के चुनावी पैकेजों की खूब चर्चाएं हैं. अलबत्ता कहते हैं कि इस बार पेड न्यूज का तरीका थोड़ा बदला हुआ है. अखबार और चैनल उम्मीदवारों के पक्ष में प्रशंसात्मक खबरों की बजाय इस बार नकारात्मक या उनकी असलियत बताने वाली खबरें न छापने के लिए पैसे ले रहे हैं. असल में, इन चुनावों को 2014 के आम चुनावों से पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है. इस कारण इन पर बड़े राजनीतिक दांव लगे हुए हैं. नतीजा, पैसा पानी की तरह बह रहा है. चैनल/अखबार भी दोनों हाथों से बटोरने में जुटे हुए हैं. कहने का अर्थ यह कि पिछले काफी दिनों से पेड न्यूज को लेकर मचे हो-हंगामे, विरोधों और चुनाव आयोग/प्रेस काउंसिल की सक्रियता के बावजूद चुनावी पेड न्यूज न सिर्फ जिंदा है बल्कि बदले तौर-तरीकों के साथ और मोटी और मजबूत हुई है.

हालांकि उत्तर प्रदेश में एक विधायक की सदस्यता रद्द करने के चुनाव आयोग के फैसले और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अखबारों/चैनलों की उत्साहपूर्ण भागीदारी के बाद एक बार उम्मीद जरूर जगी थी कि चुनावी पेड न्यूज अब रुक जाएगी. लेकिन लगता है कि अखबारों/चैनलों को पेड न्यूज का ऐसा स्वाद लग गया है कि उनकी भूख बढ़ती ही जा रही है. इस भूख ने उनसे सोचने-समझने की शक्ति छीन ली है. खबरों को बेचकर या छिपाकर वे अपने पाठकों/दर्शकों के विश्वास के साथ धोखा कर रहे हैं.

इस खेल में वे सिर्फ अपने धंधे और लोकतंत्र के चौथे खंभे को ही दांव पर नहीं लगा रहे बल्कि खुद लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए जनता के पास अपने राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के बारे में पूरी और सच्ची जानकारी होना जरूरी शर्त है? लेकिन क्या अखबार/चैनल लोगों को पूरी और सच्ची जानकारी दे रहे हैं? कुछ अपवाद हो सकते हैं लेकिन आरोप है कि इस बार अखबार/चैनल उम्मीदवारों की असलियत छिपाने के लिए पैसे ले रहे हैं.  आश्चर्य नहीं कि सभी उम्मीदवारों  द्वारा दाखिल संपत्ति और आपराधिक रिकॉर्ड के सार्वजनिक  ब्योरों के बावजूद अखबारों/चैनलों ने उसे विस्तार से छापने/दिखाने में भी संकोच किया. उम्मीदवारों के हलफनामों की बारीकी से छानबीन, उनके आय के स्रोतों की पड़ताल, उनके आपराधिक मामलों की पुलिस जांच से लेकर कोर्ट की कार्रवाई तक की ताजा स्थिति से लेकर उनके अन्य कारनामों को सामने लाना तो बहुत दूर की बात है. क्या यह सिर्फ अखबारों/चैनलों के पत्रकारों की काहिली/उदासीनता है या इसके पीछे कोई निश्चित पैटर्न है? गौर से देखें तो पैटर्न साफ दिखता है.  

इसके कारण ही राजनीति और संसद/विधानसभाओं में कृपा शंकर सिंह जैसे माननीयों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनकी संपत्ति न जाने किस जादू से देखते-देखते न्यूनतम दस से लेकर सौ और हजार गुने तक बढ़ जा रही है. आखिर इसे सामने कौन लाएगा? कहते हैं कि कभी एक खोजी पत्रकारिता नाम की चीज हुआ करती थी. लगता है, पेड न्यूज के साथ वह इतिहास का हिस्सा बन चुकी है. इस कैंसर ने पत्रकारिता की आत्मा से लेकर उसकी आवाज तक को मारना शुरू कर दिया है.  बीमार मीडिया लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं. डर यह है कि कहीं पेड न्यूज से निकला रास्ता पेड लोकतंत्र की राह न बनाने लगे.