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आंदोलन की आंच

सालाना परीक्षाएं अनिश्चितकाल के लिए टल गई हैं और सारा काम-काज ठप पड़ा है. यह हाल उत्तराखंड स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय का है जो पिछले एक पखवाड़े से आंदोलन की आग में जल रहा है. विश्वविद्यालय के छात्रों और कर्मचारियों के बाद अब सामाजिक संगठन और राजनीतिक दल भी इस आंदोलन में कूद गए हैं. नतीजा यह है कि इस विश्वविद्यालय से जुड़े डेढ़ लाख से भी ज्यादा छात्र परेशान हैं.

आंदोलनकारी संगठनों का आरोप है कि ये हालात कुलपति प्रो एसके सिंह की हठधर्मिता के कारण हुए हैं. हालांकि सिंह इससे इनकार करते हुए कहते हैं कि वे नियमों के हिसाब से काम कर रहे हैं. स्थिति जिस तरह की है उससे लगता है कि अब यह आग उच्चस्तरीय राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना शांत होने वाली नहीं.

आंदोलन का फौरी कारण बनीं विश्वविद्यालय में नियुक्तियों के लिए हो रही परीक्षाएं और साक्षात्कार. 28 मार्च को सहायक कुलसचिव के पांच और जनसंपर्क अधिकारी के एक पद के लिए लिखित परीक्षा होनी थी. इसके नतीजे भी उसी दिन आने थे. अगले दिन साक्षात्कार होना था. परीक्षार्थियों को लिखित परीक्षा में कई खामियां नजर आईं. उन्होंने फौरन इस बारे में कुलपति को एक लिखित ज्ञापन दे दिया. परीक्षार्थियों का आरोप है कि देर शाम लिखित परीक्षा के नतीजे घोषित होते ही साफ-साफ नजर आने लगा कि इन खामियों का संबंध भाई-भतीजावाद से है.

इस परीक्षा का समन्वयक प्रो एके श्रीवास्तव को बनाया गया था. श्रीवास्तव मूल रूप से विश्वविद्यालय में कॉमर्स के प्रोफेसर हैं. विश्वविद्यालय में कोई पूर्णकालिक वित्त नियंत्रक नियुक्त नहीं है और उन्हें ही इस ताकतवर और मलाईदार पद का भी अतिरिक्त भार दिया गया है. छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और अब विश्वविद्यालय में ही काम कर रहे मनोज नेगी ने कुलपति को भेजे ज्ञापन में आरोप लगाया है कि लिखित परीक्षा का पैटर्न विश्वविद्यालय द्वारा जारी किए गए विज्ञापन में बताए गए पैटर्न से उलट था. ज्ञापन में यह भी आरोप लगाया गया है कि आवेदकों की न तो स्क्रूटनी की गई थी न ही उन्हें रोल नंबर दिए गए थे. विश्वविद्यालय ने  परीक्षार्थियों को भेजे प्रवेश पत्रों पर न तो उनके नाम लिखे थे और न ही फोटो चिपकाए थे. यानी परीक्षार्थी की सही पहचान के लिए कुछ भी सुनिश्चित नहीं किया गया था. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी के बदले कोई और भी आसानी से परीक्षा दे सकता था. परीक्षा में शामिल हुए कई लोग आशंका जताते हैं कि यह सब समन्वयक ने अपने चहेते प्रत्याशियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया.

विज्ञापन के अनुसार परीक्षा में सारे प्रश्न बहुविकल्पीय आने थे. लेकिन परीक्षार्थियों के मुताबिक प्रश्नपत्र में खाली स्थान भरो और सही व गलत के विकल्प वाले प्रश्न भी थे. प्रश्नपत्र के फोटो स्टेट होने से भी गंभीर सवाल खड़े होते हैं. इस परीक्षा के उत्तर का विकल्प भरने के लिए दी गई ओएमआर शीट में रोल नंबर के साथ-साथ नाम भी लिखे गए. जबकि इस शीट का मकसद ही परीक्षार्थी की पहचान को हर तरह से छिपाना होता है. एक परीक्षार्थी कहते हैं, ‘जब बहुविकल्पीय प्रश्नों के अलावा अन्य प्रश्नों के उत्तर  प्रश्नपत्र पर ही लिखने थे तो ओएमआर शीट देने का नाटक क्यों किया गया?

यह परीक्षा उन पदों के लिए हो रही थी जिन पर चुने जाने वाले परीक्षार्थी भविष्य में विश्वविद्यालय में होने वाली हर परीक्षा की जिम्मेदारी संभालेंगे. यही वजह है कि विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ प्रोफेसर मायूसी के साथ कहते हैं, ‘इस तरह पास होकर आए लोग कैसे परीक्षा की गोपनीयता और मर्यादा को समझ पाएंगे?’

आंदोलनकारियों का सीधा आरोप है कि परीक्षा समन्वयक श्रीवास्तव ने इस परीक्षा में अपने करीबियों को पास कराने के लिए यह सब किया था. यह भी एक संयोग ही था कि सहायक कुलसचिव और जनसंपर्क अधिकारी दोनों पदों पर लिखित परीक्षा में अच्छे अंक पाने वाले कुछ अभ्यर्थी श्रीवास्तव ही थे. आरोप लग रहे हैं कि इन प्रशासनिक पदों पर अपने नजदीकियों को घुसा कर एक लॉबी भविष्य में भी विश्वविद्यालय प्रशासन पर अपना कब्जा जमाए रखना चाहती है.

29 मार्च को परीक्षार्थियों ने साक्षात्कार होने नहीं दिए और विश्वविद्यालय में तालाबंदी कर दी. इसके बाद कुलपति ने लिखित परीक्षा में हुई गड़बड़ियों के लिए एक जांच समिति बना दी. शाम को जांच समिति ने परीक्षा में गड़बड़ी की आशंका को तो नकार दिया लेकिन स्वीकार किया कि प्रश्नपत्र का  पैटर्न अलग था. इस रिपोर्ट के आधार पर कुलपति ने इस परीक्षा की प्रक्रिया को निरस्त कर दिया.

लेकिन इससे लोगों का गुस्सा शांत होने की बजाय और भड़क गया. परीक्षार्थियों ने 30 मार्च से आंदोलन का एलान कर दिया. कर्मचारी संघ, संविदा पर काम करने वाले अध्यापकों और विश्वविद्यालय के अध्यापकों का एक बड़ा वर्ग भी अपनी-अपनी मांगों के साथ आंदोलन में कूद पड़ा. वित्त नियंत्रक श्रीवास्तव को उनके अतिरिक्त पदभार से हटाने के अलावा आंदोलनकारियों की मांगें में नौ और मांगें जुड़ गईं. 31 मार्च को वित्त नियंत्रक ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया.

सूत्रों के मुताबिक राजनीतिक आकाओं के हस्तक्षेप से नियुक्ति पाए एक-एक परिवार के कई कर्मियों के समूह विश्वविद्यालय में मौजूद हैं

अब स्थिति यह है कि विश्वविद्यालय बचाओ आंदोलन एक सूत्रीय कुलपति हटाओ आंदोलन में बदल गया है. आंदोलनकारियों का आरोप है कि कुलपति हठधर्मी हैं और उन्हें एक चौकड़ी ने घेर रखा है, जिसमें शामिल होने की शर्त योग्यता नहीं बल्कि चाटुकारिता है. पूर्व छात्र नेता और आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष इंद्रेश मैखुरी आरोप लगाते हैं कि कुलपति ने संदेहास्पद अंक तालिका वाले प्रो एलजे सिंह को परीक्षा ओएसडी बना रखा है. वे कहते हैं, ‘संदेहास्पद अंक तालिका के बल पर नौकरी पाने वाले व्यक्ति से निष्पक्ष परीक्षा संपन्न कराने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?’

हालांकि तहलका से बातचीत में कुलपति सिंह इन आरोपों से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘विश्वविद्यालय में कई पदों पर पूर्णकालिक अधिकारी नियुक्त नहीं हैं. इसलिए जो भी इन अतिरिक्त जिम्मेदारियों को कार्यकुशलता और निष्पक्षता के साथ निबाहे मैं उसे जिम्मेदारी देने को तैयार रहता हूं.’ सिंह आगे कहते हैं कि वे खुद के ऊपर लगने वाले आरोपों की जांच सीबीआई तक से कराने के लिए तैयार हैं.

आंदोलनकारियों ने कुलपति के विरुद्ध 18 आरोपों वाली एक चार्जशीट जारी करके उसे ज्ञापन के रूप में राष्ट्रपति भवन और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय भेजा है. चूंकि यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए कुलपति को उनके पद से हटाने का अधिकार राष्ट्रपति को ही है. आंदोलनकारी संगठनों ने नौ अप्रैल, 2012 को मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से मिलकर आरोप पत्र उन्हें भी सौंपा. मुख्यमंत्री ने उनकी मांगों पर केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल से वार्ता करके निष्पक्ष जांच का भरोसा दिया.

वैसे गहराई से देखा जाए इस आंदोलन की जड़ें, सहायक कुलसचिव के पदों के लिए परीक्षा दे रहे  500 लोगों की शिकायत से कहीं आगे जाती हैं. 1976 में खुला गढ़वाल विश्वविद्यालय 36 साल तक राज्य विश्वविद्यालय था. तब दाखिले से लेकर नियुक्ति और प्रमोशन तक हर नियम यहीं बदला जा सकता था. हर आंदोलन की सुनवाई राज्य में ही हो जाती थी. लेकिन 15 जनवरी, 2009 को इसके केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद ऐसा होना संभव नहीं रह गया. अब अनियमितताओं की शिकायत राज्य की बजाय दिल्ली में ही हो सकती थी.

केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद विश्वविद्यालय में छात्रों ने उत्तराखंड मूल के छात्रों के लिए दाखिले में निश्चित कोटा रखे जाने की मांग को लेकर भी आंदोलन किए. स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार नियुक्तियों को लेकर भी कई बार मांगें उठीं और आंदोलन हुए. लेकिन आंदोलनकारियों के पास ऐसा कोई माध्यम नहीं था जिसके जरिए वे दिल्ली तक अपनी बात दमदार तरीके से पहुंचा पाते. जानकार बताते हैं कि तीन साल के दौरान कई गलत फैसलों से अंदर ही अंदर पनप रहे गुस्से का लावा इस बार धमाके से फूट पड़ा है.

मौजूदा आंदोलन के कुछ तार गुटबंदी से भी जुड़ते हैं. जानकार बताते हैं कि राज्य विश्वविद्यालय के समय अनेक पद भाई-भतीजों को दिए गए. सूत्रों के मुताबिक पूर्व कुलपतियों के नातेदारों और राजनीतिक आकाओं के हस्तक्षेप से नियुक्ति पाए एक-एक परिवार के कई कर्मियों के समूह विश्वविद्यालय में मौजूद हैं. इस सिफारिशी लॉबी को भी केंद्रीय विश्वविद्यालय के कड़े कानून पसंद नहीं हैं.

एक वर्ग का मानना है कि इस विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने के फैसले में ही खामी थी. गढ़वाल विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष डॉ हेमंत बिष्ट बताते हैं, ‘इसकी बजाय तब एक नया केंद्रीय विश्वविद्यालय किसी दूरस्थ पर्वतीय स्थान पर  बनाया जाना चाहिए था. इसलिए ताकि केंद्र सरकार के पैसे से बनने वाला वह विश्वविद्यालय कार्यकाल की शुरुआत से ही केंद्र के कड़े मानकों का पालन करता.’ गढ़वाल विश्वविद्यालय के साथ उस समय 13 नए केंद्रीय विश्वविद्यालय बने थे और केवल दो अन्य को राज्य से केंद्रीय विश्वविद्यालय में बदला गया. केंद्रीय विश्वविद्यालय में गढ़वाल विश्वविद्यालय की लगभग 18,00 करोड़ रु की संपत्ति भी शामिल की गई है, जबकि नए बनने वाले विश्वविद्यालयों को पूरा धन केंद्र ने दिया. इसलिए भी स्थानीय स्तर पर आक्रोश है.

फिलहाल सभी पक्ष अपनी-अपनी शिकायतों पर सुनवाई की बाट जोह रहे हैं और डेढ़ लाख से ज्यादा छात्र विश्विविद्यालय खुलने की.

कैग पर कोहराम

 

केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों को संकट में डालने के बाद अब लग रहा है कि नियंत्रकमहालेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्टों से छत्तीसगढ़ सरकार की जान सांसत में फंसने वाली है. कैग की हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि सूरजपुर जिले में भटगांव स्थित दो कोल ब्लॉकों के ठेके पर राज्य को भविष्य में 1052.20 करोड़ रुपये की हानि होगी. छत्तीसगढ़ में इन ब्लॉकों की नीलामी से हुए नुकसान पर जितना बवाल मच रहा है उससे ज्यादा सरकार इस वजह से संकट में है कि यह ठेका एसएमएस इन्फ्रास्ट्रक्चर-सोलार एक्सप्लोसिव को मिले हैं. नागपुर की इन दोनों कंपनियों के संयुक्त उपक्रम में से एसएमएस इन्फ्रास्ट्रक्चर के मालिक अजय संचेती हैं. महाराष्ट्र विधानसभा से राज्यसभा सांसद संचेती भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के व्यापारिक मित्र और भाजपा के करीबी माने जाते हैं. राज्य की भाजपा सरकार के सामने एक और बड़ी दिक्कत यह है कि खुद पार्टी के एक मजबूत धड़े ने रमन सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.

हाल ही में इस मसले ने राजनीतिक स्तर पर इतना तूल पकड़ा कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भी सफाई देनी पड़ी है. पार्टी के बचाव में पार्टी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद का तर्क था कि जब कोयला खनन के लिए टेंडर निकाला गया था तब न तो नितिन गडकरी अध्यक्ष थे और न ही अजय संचेती सांसद बने थे.

हालांकि तहलका के पास उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि संचेती की कंपनी को ठेके मिलने की प्रक्रिया में ऐसे कई अनुत्तरित सवाल हैं जो भाजपा सरकार के खुद को पाकसाफ बताने के दावों की पोल खोलते हैं.

25 जुलाई, 2007 को भारत सरकार ने छत्तीसगढ़ मिनरल डेवलपपमेंट कॉर्पोरेशन को अनुशंसा की थी कि इन कोल ब्लॉकों के दोहन और विपणन के लिए किसी सरकारी अथवा कोल मांइस एेक्ट 1973 के तहत काम करने वाली कंपनी को खनन का काम सौंपा जाए या उसे इस काम में भागीदार बनाया जाए. इसके तहत कॉर्पोरेशन ने तीन जुलाई, 2008 को निविदाएं आमंत्रित कीं. दोनों कोल ब्लॉकों को हासिल करने के लिए कुल 34 कंपनियों द्वारा तीन करोड़ दस लाख के कुल 62 निविदा प्रपत्र खरीदे गए. कॉर्पोरेशन ने जब 25 जुलाई, 2008 को निविदा खोली तो भटगांव-दो के लिए नागपुर की कंपनी एसएमएस इन्फ्रास्ट्रक्चर-सोलार एक्सप्लोसिव तथा रायपुर के जिंदल स्टील पावर लिमिटेड के प्रस्ताव को विचार योग्य पाया.  चूंकि जिंदल ने 540 एवं एसएमएस इन्फ्रास्ट्रक्चर-सोलार एक्सप्लोसिव ने 552 रुपये प्रति मीट्रिक टन की दर से खनन का प्रस्ताव दिया था सो भटगांव दो में खनन का ठेका एसएमएस इन्फ्रास्ट्रक्टर-सोलार को सौंप दिया गया.

भटगांव दो (एक्सटेंशन) को हासिल करने के लिए यूं तो 14 कंपनियों ने प्रपत्र खरीदा था लेकिन कॉर्पोरेशन ने इस ब्लॉक के लिए सिर्फ दो कंपनियों एसएमएस इन्फ्रास्ट्रक्चर-सोलार एक्सप्लोसिव और मुंबई की एसीसी को इस प्रस्ताव के योग्य पाया. इसके बाद एसीसी को यह कहकर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया कि उसके पास भूमिगत खनन का अनुभव शून्य है. इस तरह कॉर्पोरेशन के प्रस्ताव के लिए सिर्फ एसएमएस इन्फ्रास्ट्रक्चर-सोलार बची और उसे 129.60 रुपये प्रति मीट्रिक टन की दर पर खनन का ठेका दे दिया गया. कैग ने अपनी रिपोर्ट में इसी बात पर आपत्ति जताई है कि एक कोल ब्लॉक 552 रुपये प्रति मीट्रिक टन की दर पर आवंटित कर दिया गया जबकि दूसरा 129.60 रुपये प्रति मीट्रिक टन की दर पर. कैग की रिपोर्ट के मुताबिक दोनों कोल ब्लॉक आसपास ही हैं और जब भटगांव दो (एक्सटेंशन)   के प्रस्ताव के लिए सिर्फ एक कंपनी अंतिम चरण में थी तो स्वच्छ और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिए नए सिरे से टेंडर क्यों नहीं बुलाए गए.

जब महाराष्ट्र की शिवसेना-भाजपा सरकार में नितिन गडकरी लोकनिर्माण मंत्री थे तब अजय संचेती की कंपनियों ने उनकी कई सरकारी परियोजनाओें में मदद की थी

तहलका के पास कॉर्पोरेशन की मीटिंगों के कुछ मिनट्स भी हैं. इनमें जिक्र है कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के आधार पर कार्पोरेशन ने माना था कि भटगांव दो एक्सटेंशन के 12.43 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 366.82 लाख टन के उच्च श्रेणी का कोयला मौजूद है. कैग ने भी अपनी रिपोर्ट में यह माना है कि भटगांव दो एक्सटेंशन में ‘अ’ से ‘स’ श्रेणी का ऐसा कोयला मौजूद है जो बेहद कम, लेकिन दुर्लभ और उच्च मूल्य का है. हालांकि कॉर्पोरेशन यह भी मानता है कि खनन योग्य रिजर्व कोल 249.1 लाख टन ही है.

इस मामले का एक दिलचस्प पहलू और है. जब छत्तीसगढ़ मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने एसएमएस इन्फ्रास्ट्रक्चर-सोलार एक्सप्लोसिव से कोल खनन का एग्रीमेंट किया तो उसने पर्यावरण विभाग की मंजूरी लेने के लिए साल 2009 में यह दावा किया था कि भटगांव दो और भटगांव दो एक्सटेंशन का 57 फीसदी आरक्षित कोयला उच्च गुणवत्ता का है. कॉर्पोरेशन ने यह भी माना था कि 90 से 95 फीसदी कोयला ऐसी जगह है जिसे कम खर्चीली पद्धति के जरिए निकाला जा सकता है, लेकिन  अप्रैल, 2011 में एक निजी कोयला सलाहकार एनपी भाटी जो नागपुर के रहने वाले हैं, के हवाले से यह बात सामने आई कि खदान में ‘डी’ श्रेणी का ऐसा कोयला मौजूद है जिसे निकालने का खर्चा ज्यादा हो सकता है. कॉर्पोरेशन के अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल कोयला सलाहकार की बातों पर मुहर लगाते हुए कहते हैं, ‘भटगांव दो कोल ब्लॉक ‘महान नदी’ से दूर है जबकि भटगांव दो (एक्सटेंशन) नदी के पास है इसलिए जब कभी भी भटगांव दो की एक्सटेंशन योजना पर काम प्रारंभ होगा तो नदी और कोल ब्लॉक को संरक्षित करना होगा. यह संरक्षण खर्च बढ़ाने वाला साबित होगा लेकिन अभी ऐसा कुछ नहीं है.’  गौरीशंकर अपनी बातों में यह भी इशारा करते हैं कि अभी जब खनन शुरू ही नहीं हुआ तो हानि कैसी? लेकिन इसी बात का दूसरा अर्थ यह भी है कि जब कोयले का खनन प्रारंभ होगा तब नुकसान तय है. यही बात कैग ने मानी है कि 32 साल के लिए खनन योग्य रिजर्व कोयले (249.1 लाख मीट्रिक टन) और कंपनियों के द्वारा किए जाने वाले दोहन से निगम को 1052.20 करोड़ की राजस्व हानि संभावित है.

इस पूरे प्रकरण से जुड़ा एक पेंच यह भी है कि कोयला खदान आवंटन को कॉर्पोरेशन ‘आवंटन‘ नहीं मानता. कॉर्पोरेशन में मांइस शाखा के महाप्रबंधक पीएस यादव कहते हैं, ‘हमने इन्फ्रास्ट्रक्चर-सोलार एक्सप्लोसिव को महज भागीदार बनाया है. जब कभी भी खनन से लाभ होगा तो कॉर्पोरेशन को 51 फीसदी हिस्सा मिलेगा जबकि कंपनियों को 49 फीसदी.’ जबकि कैग के मुताबिक इन कोल ब्लॉकों का आवंटन किया गया है.

इस पूरे प्रकरण से अचानक चर्चा में आए संचेती के लिए यह पहला मौका नहीं है जब वे विवादों में आए हों.  इसके पहले उनकी कंपनी ने वर्ष 1999 से 2003 के मध्य बिल्ड, ओन, ऑपरेट एंेड ट्रांसफर (बूट) पद्धति से दुर्ग- राजनांदगांव जिले के बीच एक बायपास का निर्माण किया था. बायपास बनने के बाद जब कंपनी ने सरकार को टैक्स नहीं चुकाया तो प्रदेश के वाणिज्यिक कर विभाग ने 17 करोड़ 35 लाख रुपये की वसूली के लिए संपत्ति को कुर्क करने का आदेश जारी कर दिया. विभाग ने कार्रवाई भी की लेकिन 15 सितंबर, 2011 को कुर्क की गई सारी संपत्ति जिसमें विभिन्न बैंकों के 21 खाते थे, लौटा दी गई. कुछ दिनों बाद इस रहस्य से पर्दा उठा कि वाणिज्यिक कर महकमे ने जिस कंपनी की संपत्ति कुर्क की थी उसने कागजों में अपने नाम में हेरफेर करके खुद को नई कंपनी बता दिया और सारी संपत्ति वापस पा ली.

छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता शैलेष नितिन त्रिवेदी आरोप लगाते हुए कहते हैं,‘संचेती बंधुओं पर सरकार लगातार मेहरबान रही है. संचेती ग्रुप का छत्तीसगढ़ में न तो कोई कारखाना है और न ही निकट भविष्य में कारखाना स्थापित होने की संभावना है. इसके बावजूद उन्हें केवल नितिन गडकरी का करीबी होने के कारण औने-पौने दर पर कोल ब्लॉक दे देना सवाल तो खड़े करता ही है.’  दूसरी ओर कॉर्पोरेशन के अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल कैग की रिपोर्ट को ही काल्पनिक कहकर खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘लाभ या हानि की गणना कोल ब्लॉक में काम की शुरूआत होने के बाद ही की जा सकती है. कैग का आकलन केवल कल्पना है.’ इधर  गौरीशंकर के इस तर्क को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी एवं पूर्व भाजपा सांसद करूणा शुक्ला नकारते हुए कहती हैं, ‘ यह कहना ठीक नहीं है कि कैग की रिपोर्ट काल्पनिक है क्योंकि कैग अपनी आपत्तियों से सरकार को चार-छह महीने पहले अवगत कराता है.’ कुछ इसी तरह की बात पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं भाजपा सांसद रमेश बैस भी करते हैं. वे कहते हैं, ‘ एक संवैधानिक संस्था की रिपोर्ट को अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता.’ बैस ने कुछ दिन पहले ही निजी चैनलों को दिए गए अपने बयान में भाजपा अध्यक्ष नितिन गड़करी और संचेती बंधुओं को आड़े हाथों लिया था लेकिन उसके बाद वे अपने बयान से मुकर गए.

भाजपा की संचेती से निकटता और उन्हें पक्षपाती तरीके से कारोबारी सहयोग मिलने की बात इससे भी जाहिर होती है कि महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार के दौरान जब गड़करी लोकनिर्माण मंत्री थे तब उनके विभाग ने 55 फ्लाईओवर और मुंबई पुणे एक्सप्रेसवे बनाया था. उनके इस काम में सबसे ज्यादा मदद संचेती की कंपनी ने ही की थी. वर्ष 1998 में जब गडकरी राष्ट्रीय राजमार्ग कमेटी के चेयरमैन थे तब भी संचेती की कंपनी ने कई प्रोजेक्ट हासिल किए थे.

हो सकता है छत्तीसगढ़ सरकार आने वाले दिनों में नियम कानूनों की पेचीदगी का हवाला देकर संचेती प्रकरण को भ्रष्टाचार न मानने के तर्क दे. लेकिन ‘विश्वसनीय छत्तीसगढ़’ का नारा देने वाली भाजपा सरकार की कैग रिपोर्ट के आने बाद पहली बार हिलती हुई जरूर दिख रही है.

 

आज नकद कल रियायत

 

 

राजस्थान में अलवर जिले के कोटकासिम ब्लॉक का यह ओजली गांव है. यहां ग्राम सेवा सहकारी समिति की उचित मूल्य की दुकान पर तीन महीने पहले तक केरोसिन के लिए उपभोक्ताओं की भीड़ जमा हो जाती थी. पर अब उसी केरोसिन के नाम पर चारों ओर सन्नाटा पसर जाता है. दुकान के कर्मचारी महावीर यादव के मुताबिक इस सन्नाटे की वजह यह है कि जिला कलेक्टर के निर्देश पर केरोसिन अब पहले से तीन गुना अधिक कीमत पर बेचा जा रहा है.

बीते दिसंबर के पहले तक ओजली सहित कोटकासिम ब्लॉक की सभी दुकानों पर हर उपभोक्ता को 15 रु प्रति लीटर की दर से तीन लीटर केरोसिन मिल जाता था. मगर अब इस ब्लॉक के लोगों के लिए एक लीटर केरोसिन पर 45 रु चुकाने का आदेश जारी हुआ है. ओजली के बलवीर चौधरी कहते हैं कि उनके लिए हर लीटर पर सीधे-सीधे 30 रु और तीन लीटर पर कुल 90 रु अतिरिक्त खर्च करना किसी भी तरह संभव नहीं.

आने वाले दिनों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत देश के अन्य उपभोक्ताओं को भी केरोसिन पर कई गुना अधिक रुपया खर्च करना पड़ सकता है. दरअसल योजना आयोग की अनुशंसा पर भारत सरकार रोजमर्रा की जरूरत की सभी चीजों पर दी जाने वाली सब्सिडी में से अधिक से अधिक बचत की तैयारी कर रही है. फिलहाल इसकी शुरुआत घरेलू उपयोग में काम आने वाले केरोसिन से हो रही है. इसके लिए बीते साल यूआईडीएआई यानी भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने केरोसिन पर सीधी सब्सिडी का फॉर्मूला भारत सरकार के हवाले किया था. यह फॉर्मूला कहता है कि पहले राशन की दुकानों पर उपभोक्ताओं को केरोसिन पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म की जाए. फिर सरकार पहले यह तय करे कि वह किन उपभोक्ताओं को सब्सिडी के लायक मानती है. जिन उपभोक्ताओं को वह सब्सिडी के लायक मानती है उनके बैंक खाते खोले जाएं और उसके बाद जो उपभोक्ता राशन की दुकान से बाजार की दर पर केरोसिन खरीद सकता है उसकी सब्सिडी को बैंक खाते में स्थानांतरित किया जाए.

बीते साल भारत सरकार के पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने राजस्थान सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में केरोसिन पर सीधी यानी बैंक खातों के जरिए सब्सिडी देने की पायलट परियोजना लागू कराने का प्रस्ताव दिया था. इसे राजस्थान सरकार ने तुरंत स्वीकार किया और बीते दिसंबर में प्रयोग के तौर पर अलवर जिले के कोटकासिम ब्लॉक को चुना.

जब आम आदमी के भले के नाम पर जमीनी हकीकतों से आंखें मूंदकर योजनाएं बनाई जाती हैं तो उनकी मार उसी आम आदमी पर पड़ती है

कई उपभोक्ताओं के लिए बाजार की दर पर रोजमर्रा की चीजों को खरीद पाना संभव नहीं है. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए राजस्थान सरकार द्वारा उपभोक्ताओं को बाजार में 45 रु प्रति लीटर की दर से मिलने वाले केरोसिन पर 30 रु की सब्सिडी दी जाती है. मगर कोटकासिम ब्लॉक में चलाई जा रही इस परियोजना के तहत जिला प्रशासन हर उपभोक्ता से एक लीटर केरोसिन के लिए 45 रु वसूल रहा है. हालांकि वह हर उपभोक्ता से वसूली गई 30 रु की अतिरिक्त राशि को उपभोक्ता के बैंक खाते में स्थानांतरित कराने का दावा कर रहा है, लेकिन इस सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं कि तीन लीटर के हिसाब से क्या हर उपभोक्ता 135 रु का केरोसिन खरीद ही लेगा. कोटकासिम ब्लॉक के कई उपभोक्ता बताते हैं कि उनके लिए बाजार दर पर केरोसिन खरीदने का मतलब है या तो केरोसिन की मात्रा में और अधिक कटौती करना या फिर केरोसिन खरीदना ही बंद कर देना.

कोटकासिम का तजुर्बा बताता है कि सरकार ने गरीबों के आर्थिक व्यवहार के तौर-तरीकों को उपेक्षित किया है. इस परियोजना के अध्ययन से जुड़े वीरेंद्र विद्रोही कहते हैं, ‘एक गरीब उपभोक्ता अपने हिस्से की सब्सिडी बैंक खाते में आने का इंतजार नहीं करना चाहता. उसका खाता कहां खुलेगा, कब खुलेगा, कब उसमें रुपया आएगा और कब वह बैंक से रुपया निकालेगा, ऐसे कई सवालों में कोई भी उपभोक्ता उलझना नहीं चाहता.

यह परियोजना लागू करने से पहले ही भारत सरकार जोर-शोर से प्रचार कर रही है कि अगर केरोसिन बचाने का यह तरीका सफल साबित होता है तो इसे राजस्थान सहित देश के अन्य राज्यों में भी दोहराया जाएगा. अलवर कलेक्टर आशुतोष एटी पेडणेकर की मानंे तो इस तरीके से केवल तीन महीने के भीतर बड़े पैमाने पर सब्सिडी बची भी है. कोटकासिम ब्लाॅक में पहले हर महीने 84 हजार लीटर केरोसिन आवंटित होता था. मगर पेडणेकर का दावा है कि परियोजना लागू होने के पहले ही महीने (दिसंबर) में मात्र 18 हजार लीटर केरोसिन की खपत हुई.

यह और बात है कि सीधी सब्सिडी परियोजना के तहत पहले महीने में खोले गए बैंक खातों का आकड़ा पेडणेकर के दावे की हवा निकाल देता है. कोटकासिम ब्लॉक में उपभोक्ताओं की संख्या 26 हजार है, जबकि दिसंबर महीने में जिला प्रशासन ने यहां केवल छह हजार बैंक खाते खोले. यानी उसने परियोजना के पहले महीने ही 20 हजार उपभोक्ताओं से सीधे-सीधे उनका केरोसिन छीन लिया और 66 हजार लीटर की सब्सिडी नहीं पहुंचाई. इसी तरह, जिला प्रशासन के मुताबिक जनवरी और फरवरी में क्रमशः 23 हजार और 13 हजार लीटर केरोसिन की खपत हुई. दूसरे शब्दों में परियोजना के दूसरे और तीसरे महीने में उसने क्रमशः उपभोक्ताओं को 61 हजार और 71 हजार लीटर की सब्सिडी नहीं पहुंचाई. कुल मिलाकर उसने कोटकासिम ब्लॉक के उपभोक्ताओं से तीन महीने के भीतर 198 हजार लीटर की सब्सिडी छीन ली. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि केरोसिन की खपत में गिरावट की एक बड़ी वजह केरोसिन की दर में भारी बढ़ोतरी हो सकती है. इससे सिद्ध होता है कि कोटकासिम ब्लॉक की तर्ज पर अगर सरकार सब्सिडी ‘बचाने’ का यह फॉर्मूला पूरे अलवर में अपनाए तो वह जिले में सालाना 46 करोड़ और राजस्थान में सालाना 900 करोड़ रु की सब्सिडी तो केवल केरोसिन पर ही ‘बचा’ सकती है.

हालांकि आम उपभोक्ता के लिए केरोसिन आटा और चावल की तुलना में तुरंत जरूरत की चीज नहीं है. मगर भारत सरकार ने कोटकासिम के प्रयोग को एक औजार के तौर पर इस्तेमाल किया और आटे-दाल में भी इसी तरह सब्सिडी ‘बचाने’ पर उतर आई तो कई और गरीबों की थाली से कल आटा और परसों चावल भी गायब हो सकता है.

कोटकासिम का तजुर्बा बताता है कि सरकार का यह तरीका व्यावहारिक भी नहीं है. इस ब्लॉक की 24 ग्राम पंचायतों में 34 राशन की दुकानों पर 26 हजार उपभोक्ता हैं. जबकि इस परियोजना के लिए केवल छह बैंक हैं. इनमें से भी उपभोक्ताओं के बैंक खाते जीरो बैलेंस पर खोले जाने पर दो बैंकों (एसबीआई और एसबीबीआई) ने अपनी असमर्थता जता दी है. हालांकि राजस्थान ग्रामीण बैंक ने कुछ उपभोक्ताओं को पासबुक जारी की हैं, लेकिन इस कवायद को लेकर लोगों का तजुर्बा अच्छा नहीं है. कोटकासिम से 20 किलोमीटर दूर जाटवा गांव के कालूराम धनपत बताते हैं कि वे बीते तीन महीने में चार बार बैंक जा चुके हैं लेकिन हर बार बैंक से उनके केरोसिन का नकद पैसा नहीं आने की सूचना मिलती है.

राजस्थान उपभोक्ता संरक्षण समिति के प्रांतीय महासचिव आरके सिद्ध बताते हैं कि कोटकासिम में बैंको से सब्सिडी लेने की हकीकत यह है कि बीते तीन महीनों से अधिकतर उपभोक्ताओं का पैसा बैंक खातों में आया ही नहीं. वहीं बैंक सब्सिडी के चक्कर में कई ग्राम पंचायतों (मकड़ावा, बिलाहेड़ी और तिगावा आदि) के उपभोक्ताओं को 15 से 20 किलोमीटर का फासला भी तय करना पड़ता है. इससे उपभोक्ताओं का आर्थिक नुकसान तो होता ही है उनका काफी समय भी खर्च हो जाता है. इसलिए मार्च से उपभोक्ताओं ने केरोसिन के लिए राशन की दुकानों पर जाना बहुत कम कर दिया है.

कोटकासिम ब्लॉक में एक अजीब स्थिति बन चुकी है. यहां केरोसिन का भंडार है लेकिन बैंकों में सब्सिडी नहीं पहुंची है  इसलिए जनता केरोसिन खरीद नहीं सकती. राजस्थान अधिकृत विक्रेता संघ ने इस स्थिति पर आपत्ति जताई है. संघ के प्रांतीय महासचिव ओपी शर्मा कहते हैं, ‘प्रशासनिक अनियमितता के चलते केरोसिन विक्रेता बेरोजगार बैठे हैं.’ दूसरी तरफ राजस्थान खाद्य विभाग के प्रमुख शासन सचिव जेसी मोहंती आश्वासन देते हैं कि केरोसिन विक्रेताओं को हुए नुकसान की भरपाई की जाएगी. उधर, स्थानीय विधायक रामहेत यादव का आरोप है कि योजना लागू करने से पहले मोहंती ने भरोसा दिलाया था कि जनप्रतिनिधियों की राय ली जाएगी. वे कहते हैं, ‘लेकिन योजना लागू होते ही जिला कलेक्टर से लेकर प्रमुख शासन सचिव तक बेरुखी दिखाई जा रही है’. यह प्रशासनिक बेरुखी का नतीजा ही है कि बीती 29 जनवरी को  कोटकासिम ब्लॉक के सभी 24 सरपंचों ने स्थानीय विधायक की अगुवाई में एक बैठक की और उसके बाद इस परियोजना से जुड़ी अनियमितताओं को लेकर राजस्थान हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की.

अब देखना यह है कि उनकी यह कवायद क्या रंग लाती है.

रिपोर्ट पर रार

बीती जनवरी की बात है. राष्ट्रीयकृत बैंक के एक अधिकारी बिहार विधानसभा में विपक्षी दल के एक वरिष्ठ नेता के सरकारी आवास में बैठे थे. बैंक के अधिकारी नेता जी को इस बात के लिए मना रहे थे कि अगर वे कोशिश करें तो सरकार अपने विशाल धन का कुछ हिस्सा उनके बैंक में जमा कर देगी. उनका कहना था कि इससे बैंक के आला अधिकारी काफी खुश होंगे और उनके करियर का ग्राफ भी ऊंचा होगा.

इसी बातचीत के दौरान हमारा वहां पहुंचना हुआ. नेता जी से साक्षात्कार के सिलसिले में हमारा पहले से समय निर्धारित था. बैंक अधिकारी अपनी रौ में थे. वे नेता जी को यह बार-बार याद दिला रहे थे कि उनका बैंक मोटी रकम जमा करने वाले ग्राहकों का विशेष सम्मान करने में हमेशा तत्पर रहता है. नेता जी का जवाब था, ‘देखिए, अब हम तो विपक्ष में हैं. सरकार हमारी सुनती कहां है. किसी सत्ताधारी नेता से बात कीजिए.’  बैंक अधिकारी की बातों से लग रहा था कि उनका सत्ताधारी दल के किसी प्रभावी नेता से सीधा संपर्क नहीं था इसलिए वे विपक्षी दल के नेता के यहां पहुंचे थे. शायद उनकी सोच रही हो कि उनके माध्यम से ही सत्ताधारी नेताओं तक पहुंच बनाई जा सकती है. हालांकि यह कोई चकित करने वाली घटना नहीं है. बैंक अधिकारी करोड़ों या कई बार लाखों रुपये जमा करने की हैसियत रखने वाले आम ग्राहकों का भी दरवाजा खटखटाते रहते हैं ताकि उनके बैंक में जमा रकम का आंकड़ा बढ़े. ऐसे ग्राहकों को बैंक काफी सुविधाएं भी देते हैं और उपहार भी. बैंक की भाषा में वे इसे कस्टमर रिलेशनशिप कहते हैं.

इस घटना का जिक्र एक विशेष कारण से महत्वपूर्ण है. जब तहलका ने पटना स्थित भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा तीन अप्रैल को बिहार सरकार द्वारा आमद और खर्च पर जारी की गई रिपोर्ट पर जानकारी लेनी चाही तो लेखाकार भवन से जुड़े एक अधिकारी ने कुछ ऐसी ही कहानी सुनाई. इसके बाद उस अधिकारी ने उस घटना का भी उल्लेख किया जिसके कारण पिछले एक पखवाड़े से राज्य में तूफान मचा हुआ है. यह घटना है बिहार सरकार द्वारा सरकारी खजाने से महज चार दिन में 937 करोड़ रुपये निकाल लिए जाने की. यह घटना 28 मार्च 2011 से 31 मार्च, 2011 के बीच की है. यानी वित्त वर्ष समाप्त होने के दिन तक. ये अधिकारी विधानमंडल के उन नियमों का हवाला देते हैं जिनके तहत राज्य सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह सरकारी कोष से पैसे निकालने के बाद उन पैसों का इस्तेमाल संबंधित वित्त वर्ष में जरूर कर ले. वर्ना उसे ये पैसे फिर से सरकारी कोष में जमा कराने पड़ते हैं. सूत्रों के मुताबिक चूंकि ये पैसे वित्त वर्ष के अंतिम चार दिन में निकाले गए इसलिए संभावना बनती है कि सरकार ने इस रकम का उपयोग नहीं किया होगा बल्कि इसे किसी बैंक में जमा कर दिया होगा. कैग के अधिकारी कहते हैं, ‘ये पैसे बैंक में आम तौर पर दो ही तरह से रखे जा सकते हैं. बचत खाते में या चालू खाते में. बचत खाते के पैसे पर बैंक ब्याज देते हैं. चालू खाते पर ब्याज अदा नहीं किया जाता. अगर ये पैसे चालू खाते में होंगे (कैग अधिकारी के अनुसार इसकी पूरी गुंजाइश है) तो सरकारी रुपये को इस रकम पर सालाना मिल सकने वाले ब्याज यानी कम-से-कम 37 करोड़ का नुकसान होगा और संबंधित बैंक को इतना या इससे भी अधिक का मुनाफा.

सवाल यह है कि वित्त वर्ष के अंतिम चार दिन में जब सरकार को यह पता है कि वह इन पैसों का इस्तेमाल नहीं कर पाएगी तो आखिर उन पैसों को निकाला ही क्यों गया. कैग के ये अधिकारी कहते हैं, ‘बैंकों के ‘कस्टमर रिलेशनशिप’ की कहानी को आप इस घटना से जोड़ कर देखिए. सब समझ जाएंगे.’

कैग अधिकारी बताते हैं कि हड़बड़ी में ऐसे बिल भी जमा करा दिए गए हैं जिनमें निकाली गई रकम से ज्यादा के खर्च का हिसाब दिया गया है

सवाल उठता है कि क्या सचमुच बैंक और सरकार के कुछ लोग ऐसा करते हैं. कैग के अधिकारी इस सवाल का सीधा जवाब तो नहीं देते पर इतना जरूर कहते हैं, ‘हम इसकी जांच में जुट गए हैं.’ यहां जनवरी महीने में विपक्षी दल के उन नेता और बैंक अधिकारी की बातचीत के पहलुओं को थोड़ा विस्तार दिया जाये तो शक की सुई पिछली सरकारों की तरफ भी जाती है. कैग रिपोर्ट 2011 कहती है कि राज्य सरकार ने निकाले हुए काफी पैसों के खर्च का हिसाब 2003 से नहीं दिया है और 2011 तक यह रकम 22 हजार करोड़ रुपये हो गई है.

तीन अप्रैल को जब यह रिपोर्ट राज्य विधान परिषद और विधानसभा में पेश हुई तो काफी हंगामा हुआ. राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव, लोक जनशक्ति पार्टी प्रमुख रामविलास पासवान और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शकीलुर्रहमान ने मार्च के अंतिम चार दिनों में निकाली गई 937.75 करोड़ रुपये की रकम के मामले की सीबीआई से कराने की मांग तक कर डाली. अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी कहते हैं, ‘सैकड़ों करोड़ रुपये का निकाला जाना और उन पैसों का हिसाब तक नहीं देना. सरकार की अक्षमता की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है?’

लेकिन इन सब मुद्दों पर राज्य के वित्त विभाग के मंत्री सुशील कुमार मोदी का एक अलग ही तर्क है. वे कहते हैं ‘कैग का यह आरोप सौ फीसदी सही नहीं है, क्योंकि कैग के दफ्तर में एसी (निकाली गई रकम) और डीसी (खर्च की गई रकम) बिल बोरियों में रखे पड़े हैं लेकिन कैग में मानवसंसाधन की कमी के कारण इसकी जांच नहीं हो सकी है.’ हालांकि मोदी की इस बात पर कैग के अधिकारी कहते हैं, ‘जब बिल तैयार था तो सरकार ने इसे आखिरी क्षण में क्यों भेजा.’  कैग के अधिकारियों का तो यहां तक कहना है कि हड़बड़ी में सरकारी कर्मियों ने खर्च के सैकड़ों ऐसे बिल भी जमा करा दिए हैं जिनमें निकाली गई रकम से ज्यादा के खर्च का हिसाब दिया गया है. अधिकारी सवाल करते हैं कि जो अतिरिक्त रकम मिली ही नहीं उसे खर्च कैसे कर दिए?

घोटाले की गूंज

कैग की यह सालाना रिपोर्ट इस लिहाज से भी राज्य सरकार की मंशा और ईमानदारी पर करारा प्रहार है कि इस बार संस्था ने घोटाले, घपले और चोरी की बात साफ-साफ कही है. इस बार कैग का लहजा कितना सख्त है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस दिन यानी तीन अप्रैल को 11 बजे कैग की रिपोर्ट बिहार विधानमंडल में पेश की गई उसी दिन शाम को तीन बजे पटना स्थित भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक आरबी सिंह ने प्रेस कान्फ्रैंस बुला ली और साफ साफ घपलों, घोटालों और सरकारी धन की लूट की बात कही. उन्होंने कहा कि मार्च, 2011 तक गबन, हानि और चोरी के एक हजार से भी अधिक मामलों में सरकार को 409 करोड़ से भी अधिक की चपत लग चुकी है. ऐसी स्थिति में सरकार को अपना वित्तीय प्रबंधन सुधारने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि आम जनता को भी इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है.

कैग की इस रिपोर्ट से जहां विरोधी दल आक्रमक हो गए हैं वहीं सत्ताधारी गठबंधन रक्षात्मक मुद्रा में है. सुशील मोदी ने सदन में बयान दिया कि इस मामले में सीबीआई की बजाय पब्लिक अकाउंट कमेटी से जांच कराई जाएगी.

2010 में जारी कैग रिपोर्ट के बाद भी बिहार प्रशासन में कोहराम मच गया था. अदालती हस्तक्षेप के बाद एक सरकारी कर्मचारी काम-काज छोड़कर हर प्रखंड कार्यालय में  बाकायदा शामियाना लगा कर डीसी बिल भरने में लग गए थे. लेकिन इस बार की रिपोर्ट से साफ हो गया है कि राज्य सरकार ने पिछले अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है.

ताम्र पत्र पर नोटों वाले गांधी की हसरत

मंत्री जी ने इबारत पढ़ी. शेर और गांधी के चित्र देखे. मुंह बिचकाया. कहा कि ये तो गांधी जी जैसे नहीं लगते.किस्सा यूं इतना पुराना नहीं है, पर थोड़ी बास तो इससे आ ही सकती है.कोई चार बरस पहले की बात है. केंद्र में यही सरकार थी, पर तब किसी राजा, किसी रानी या किसी लोकपाल के संग्राम नहीं चल रहे थे. रामलीला ग्राउंड में बस राम की ही लीला होती थी. ऐसे शांत वातावरण में सरकार को अचानक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की याद आ गई. सरकार भावुक हो गई थी. अचानक उसे कर्तव्य ने पुकारा कि बिना वक्त गंवाए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का सम्मान कर डालना चाहिए.

सरकार ने इतना शानदार सपना देखा था पर उसके सपने इतनी आसानी से पूरे नहीं हो सकते. उन्हें पूरा करने के लिए एक समिति बनानी पड़ती है. लोकतंत्र का तकाजा है – सबसे पूछकर, राय लेकर काम करो.

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी शायद नहीं जानते होंगे कि इस देश को आजाद करने के लिए उन्होंने जो अपनी जवानी, अपनी जान झोंकी थी, तो आजादी के बाद उनकी ये सारी सेवाएं कहां दर्ज होने वाली हैं. पुलिस के पास! आजादी के दीवानों की सारी जानकारी आज पुलिस के दीवान के पास ही दर्ज है. पहले फाइल में उनका नाम एक अपराधी की तरह दर्ज था. आजादी के बाद उस पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पर्ची चिपका दी गई.

सब कुछ बहुत जल्दी ही कर देना था. 60-62 बरस पहले जो संग्राम लड़ा गया था उसमें कोई क्रांतिकारी यदि दस बरस की उम्र में भी शामिल हुआ होगा तो अभी उसकी उम्र 80 के पार होनी चाहिए. ऐसे सेनानियों के सामने सिर झुका कर अपना आभार प्रकट करने के लिए उत्सुक खड़ी सरकार को यह भी पता था कि एक-एक दिन कितना कीमती है. देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने वालों को भगवान लंबी उम्र दे, पर सरकार को यह आशंका भी थी कि उस संग्राम को जीतने वाले ये सेनानी अब किसी भी दिन जीवन संग्राम हार सकते हैं.

इसलिए सारे फैसले आनन-फानन में लिए गए. इस समिति में कौन-कौन, किस-किस कारण से होगा – इसका बड़ी बारीकी से ध्यान रखा गया. गठजोड़ सरकार की मजबूरी आड़े नहीं आने दी गई और न भाड़े के लोग. बड़े भत्तों पर आने वाले विशेषज्ञ रखे गए. फोन पर ही सदस्यों को इस पुनीत काम की जानकारी दी गई. तभी उनके योगदानों की चर्चा की गई और सदस्य बनने की हामी ले ली गई. सरकारी मुहर वाले पत्र बहुत बाद में भेजे गए. इन सदस्यों के नाम? ये ज्यादा नामी लोग नहीं थे. एक-आध ऐसे नाम थे भी तो वे शुरू की तैयारी में अपनी व्यस्तता के कारण आ ही नहीं पाए. समिति के अध्यक्ष स्वयं गृहमंत्री और सदस्य सचिव गृह मंत्रालय के सचिव थे. समिति में शेष लोग ऐसे ही रखे गए थे जो बिना वक्त गंवाए सरकार को बता सकें कि यह सम्मान का सपना कैसे पूरा होगा.

एक बार फिर दोहरा लें कि समय बहुत कम था. गृहमंत्री बहुत ज्यादा व्यस्त थे. इसलिए उत्साही गैरसरकारी सदस्यों ने गृह-सचिव को सुझाव दिया कि प्रारंभिक बैठकें बिना अध्यक्ष के हो जाएं तो कोई हर्ज नहीं. एक साफ-सुथरी रूपरेखा या ढांचा बन जाए तो फिर उस पर गृहमंत्री की मुहर लगती रहेगी.

सबसे जरूरी बातें शुरू की दो बैठकों में तय हुईं जो गृह मंत्रालय के बदले गैरसरकारी सदस्यों के छोटे-मोटे दफ्तरों में दो-चार कुर्सियां यहां-वहां से खींचकर संपन्न की गई थीं. तय हुआ कि सम्मान में स्वतंत्रता सेनानी को एक सुंदर ताम्र पत्र देना चाहिए. उसका नाप, तौल, वजन, लंबाई, चौड़ाई सब दर्ज हो गया. पांच पंक्तियों के पचास सुंदर शब्दों में इबारत लिख ली गई. एक तरफ शासन का प्रतीक तीन शेर थे तो दूसरी तरफ गांधी जी का ‘एकला चलो’ वाला श्री नंदलाल बसु का गरिमा भरा रेखाचित्र.

सारे निर्णय फटाफट होते रहे. अचानक तीन बातों पर जाकर सारी बातचीत अटक गई. ताम्र पत्र पर दस्तखत किसके होंगे, कुल कितने ताम्र पत्र छपेंगे और शासन की तरफ से किस जगह पर सेनानियों का सम्मान किया जाएगा? मिली जुली सरकार पर संकट के कई मिले जुले बादल आ गए. दस्तखत प्रधानमंत्री के होंगे या गृहमंत्री के. ताम्र पत्र पर एक बार दस्तखत हो गए तो वे फिर न ही मिटाए जा सकते और न ही बदले जा सकते हैं.

तय हो गया था कि तीन शेर राज्य का प्रतिनिधित्व करेंगे और दांडी वाले गांधी समाज का. इसलिए समिति की राय थी कि शासन की तरफ से किसी का दस्तखत न भी हो तो काम चलना चाहिए. इतनी सारी चीजें तैयार करने के बाद तीसरी बैठक में पहली बार गृहमंत्री आए. उनके सामने रखी फाइल खोली सचिव महोदय ने. मंत्री जी ने इबारत पढ़ी. शेर और गांधी के चित्र देखे. मुंह बिचकाया. कहा कि ये तो गांधी जी जैसे नहीं लगते.

बैठक में सन्नाटा छाया रहा थोड़ी देर. एक गैरसरकारी सदस्य ने पटाने की कोशिश की कि ये गांधी जी शांति निकेतन से निकले महान कलाकार नंदलाल बसु के बनाए हुए हैं. बेदाग, कड़क सफारी पहने मंत्री जी पर इस कलाकार के नामी ब्रश का कोई धब्बा भी नहीं पड़ सका. बिना प्रभावित हुए उन्होंने कहा, ‘नोटों पर गांधी जी जैसे साफ-साफ दिखते हैं वैसा बनाइए.’ इबारत, दस्तखत आदि की बारीकियों में गए बिना बैठक खत्म हो गई. चार मिनट चली यह बैठक.

अगली बैठक में मंत्रालय के सचिव बदल गए. नए जो आए उन्हें सदस्यों ने फिर पूरी कहानी बताई. यह भी कि नोट वाले गांधी कागज पर छपते हैं, ताम्र पत्र पर वैसे बारीक गांधी छप नहीं सकते. नंदलाल जी वाले गांधी सबसे सुंदर और व्यावहारिक दिखेंगे. सचिव को बात नहीं जमी. मंत्री जी की राय से उनकी राय भला कैसे अलग होती.

इसी बीच मुंबई में आतंकवादियों ने जगह-जगह हमले किए. गृहमंत्री भी वहां गए और कीचड़ में उतरे या नहीं, इसे लेकर बड़ा विवाद उठा. गृहमंत्री जी भी बदल दिए गए. नए जो आए उन पर और भी कई जिम्मेदारियां थीं. सो, इस पुरानी समिति की फाइल नए गृहमंत्री की मेज पर कभी दोबारा नहीं रखी गई.

ताम्र पत्र, राष्ट्र की तरफ से कृतज्ञता भरी छोटी-सी प्यार भरी इबारत और नंदलाल बसु के गांधी जी अकेले ही चलते रहे. और नोट पर छपे गांधी!

इस बीच कुछ लाखों-करोड़ों के हुए घोटाले की बास इतनी तेजी से उठी है कि इस छोटे से किस्से की बास भला किसे आने वाली.

सबसे बड़ी अदालत में पैरवी के पेंच

न्याय व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने के मकसद से न्यायिक सुधारों की बात चल रही है. न्यायाधीशों की जवाबदेही तय करने के लिए न्यायिक जवाबदेही विधेयक लाने की बात भी हो रही है. लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत की स्थितियां देखी जाएं तो साफ लगता है कि सुधार की जरूरत सिर्फ जजों के स्तर पर नहीं बल्कि वकीलों के स्तर पर भी है.

सभी वकीलों को उच्चतम न्यायालय में मुकदमा लड़ने का अधिकार देने वाला कानून एडवोकेट्स ऐक्ट (अधिवक्ता अधिनियम) 1961 में बना था. इस कानून की धारा 30 के तहत सभी वकीलों को बगैर किसी भेदभाव के देश के सभी अदालतों में वकालत करने का अधिकार देने का प्रावधान किया गया था. लेकिन 50 साल बाद भी यह अधिकार दूर की कौड़ी बना हुआ है. इसकी वजह यह है कि 50 साल तक तो इस धारा से संबंधित अधिसूचना जारी नहीं हुई. काफी जद्दोजहद के बाद 2011 में अधिसूचना तो जारी हो गई मगर एक और नियम के पेंच में फंसकर मसला वहीं का वहीं है. यानी सर्वोच्च न्यायालय में बगैर भेदभाव के सभी वकीलों को मुकदमा लड़ने का अधिकार अब तक नहीं मिला है. इसके चलते यहां वकीलों की एक खास श्रेणी का एकाधिकार बना हुआ है. कानून के जानकार बताते हैं कि इस वजह से देश की सर्वोच्च अदालत में वकीलों के स्तर पर कई तरह की गड़बड़ियां हो रही हैं. सम्मानपूर्वक वकालत करने के अपने हक के लिए सुप्रीम कोर्ट के हजारों वकील कानूनी संघर्ष कर रहे हैं.

उच्च न्यायालय तक के स्तर तक कोई भी वकील मुकदमा पेश कर सकता है और उसकी पैरवी कर सकता है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में आपको किसी एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के रूप में पंजीकृत वकील को ही अपना वकील नियुक्त करना होगा. एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड अदालत और आपके बीच का माध्यम होता है. सिर्फ वही अदालत में कोई मुकदमा या आवेदन, दस्तावेज, जवाब आदि पेश कर सकता है. यदि उसी मुकदमे में आपकी तरफ से कोई दूसरा वकील भी बहस के लिए उपस्थित होने वाला है तो उसकी सूचना अदालत को लिखित में आपका एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड ही देगा.

लेकिन ऐसा क्यों है? इसे समझने के लिए उच्चतम न्यायालय के गठन और यहां वकालत करने के नियमों की पृष्ठभूमि जानना जरूरी है. ब्रिटिश राज के दरम्यान काफी समय तक भारत में सर्वोच्च अदालत जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी. भारत से संबंधित मामलों में आखिरी न्यायिक फैसले का अधिकार ब्रिटेन स्थित ज्यूडिशियल कमिटी ऑफ प्रिवी काउंसिल के पास था. इसके काम-काज के लिए पहले 1920 में एक कानून बना और बाद में फिर 1925 में एक कानून बनाया गया. इसके तहत ‘एजेंट’ की व्यवस्था कायम की गई. इस व्यवस्था के तहत होता यह था कि जिसका भी मुकदमा सुनवाई के लिए लंदन जाता था उसका वकील वहां एक ‘एजेंट’ नियुक्त करता था. आसान शब्दों में समझें तो यह ‘एजेंट’ प्रिवी काउंसिल और वकील के बीच की कड़ी होता था. कोई भी दस्तावेज न्यायालय को देना हो या फिर न्यायालय को कोई सूचना संबंधित वकीलों तक पहुंचानी होती थी तो इसका माध्यम ‘एजेंट’ था.

कानून के जानकार बताते हैं कि इस वजह से देश की सर्वोच्च अदालत में वकीलों के स्तर पर कई तरह की गड़बड़ियां हो रही हैं

1937 में भारत में फेडरल कोर्ट की स्थापना हुई. यह दिल्ली में था. उस वक्त दिल्ली में किसी उच्च न्यायालय की कोई पीठ नहीं थी, इसलिए यहां नए सिरे से बार के गठन की जरूरत महसूस की गई. इसके बाद फेडरल कोर्ट ने खुद ही अपने नियम बनाए और वकीलों को तीन श्रेणियों में बांटा–सीनियर एडवोकेट, एडवोकेट और एजेंट. इसमें एजेंट की भूमिका वही रखी गई जो प्रिवी काउंसिल में थी. आजादी के बाद फेडरल कोर्ट को प्रिवी काउंसिल के सारे अधिकार दे दिए गए.

28 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान के अंतर्गत दिल्ली में ही सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई. संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत उच्चतम न्यायालय को अपने काम-काज के संचालन के लिए नियम बनाने का अधिकार दिया गया है. इसी अधिकार के तहत शीर्ष अदालत ने 1950 में ‘सुप्रीम कोर्ट रूल्स’ बनाए. वकीलों के काम-काज के लिए यहां भी फेडरल कोर्ट के नियमों को आधार मानकर फेडरल कोर्ट के सारे एजेंटों को सुप्रीम कोर्ट ने भी एजेंट का दर्जा दे दिया. गौरतलब है कि उस समय भी यह व्यवस्था कायम रखी गई कि न तो एजेंट वकील का काम कर सकता है और न ही वकील एजेंट का काम कर सकता है. 1951 में फिर एक कानून बना जिसके जरिए सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहे वकीलों को उच्च न्यायालयों में वकालत करने की भी अनुमति दे दी गई. 1954 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने नियमों में संशोधन किया और ‘एजेंट’ का नाम बदलकर ‘एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड’ कर दिया. दरअसल उस वक्त कई लोग यह मांग उठा रहे थे कि एजेंट शब्द सुनने में अच्छा नहीं लगता इसलिए इसे बदला जाए. इस संशोधन के जरिए एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को वकीलों वाले अधिकार यानी मुकदमा लड़ने का अधिकार भी मिल गया. लेकिन वकीलों को एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड का अधिकार नहीं मिला. इसके बाद 1958 में लॉ कमीशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट आई जिसमें यह सिफारिश की गई कि भारत के हर वकील को हर कोर्ट में वकालत करने का अधिकार दिया जाना चाहिए. इस सिफारिश के आधार पर संसद ने 1961 में एडवोकेट्स एेक्ट बनाया. इसकी धारा 30 के तहत हर वकील को देश की हर अदालत में वकालत करने का अधिकार देने का प्रावधान किया गया. लेकिन 50 साल से अधिक वक्त गुजरने के बावजूद इस प्रावधान को अब तक लागू नहीं किया जा सका है. इसकी वजह यह रही कि कानून बनाने के 50 साल बाद भी पहले तो सरकार ने इसकी अधिसूचना जारी नहीं की. पिछले साल अधिसूचना जारी हुई भी तो इसके बाद मामला एक और कानूनी पेंच में अटका हुआ है.

अपने इस अधिकार को हासिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने जो संस्था बनाई है उसके एक प्रमुख सदस्य रवि शंकर कुमार आरोप लगाते हैं, ‘धारा 30 की अधिसूचना जारी करने में सरकारों ने तो हीलाहवाली की ही लेकिन सबसे नकारात्मक भूमिका रही सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड की. उनका आरोप है कि इस धारा के लाभ से देश भर के वकीलों को वंचित रखने के लिए एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन तरह-तरह के हथकंडे अपनाती रही है.’

इस बीच 1985, 1988 और 2003 में कम से कम तीन मौके ऐसे आए जब सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान पर टिप्पणी करके इस ओर कार्यपालिका का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की. इसके बावजूद उस प्रावधान को लागू करने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई. 19 अप्रैल, 2011 को वरिष्ठ अधिवक्ता और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के उस समय के अध्यक्ष राम जेठमलानी ने कानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली को पत्र लिखकर उस प्रावधान की अधिसूचना जारी करने का अनुरोध किया. इस पत्र में जेठमलानी ने लिखा था, ‘देश में वकालत करने वाले सभी लोगों को इस बात पर घोर आपत्ति है कि कानून पारित होने के 50 साल से अधिक वक्त गुजरने के बावजूद धारा 30 लागू नहीं की गई. यह संसद का अपमान है और कानूनी पेशे का गंभीर नुकसान है.’ उन्होंने आगे लिखा, ‘आपके रूप में एक ऐसा कानून मंत्री है जिसने खुद वकालत की है. इसलिए आपसे मुझे यह उम्मीद है कि आप इन आपत्तियों की कानूनी वैधता को समझेंगे और बगैर समय गंवाए इस बारे में जरूरी कदम उठाएंगे.’

जेठमलानी की चिट्ठी के बाद कानून मंत्रालय हरकत में आया और दो महीने के भीतर भारत सरकार ने धारा 30 लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी. तारीख थी नौ जून, 2011. अधिसूचना में कहा गया कि एडवोकेट्स एक्ट, 1961 की धारा-30 को 15 जून, 2011 से लागू किया जाता है. इसके बाद 1966 के सुप्रीम कोर्ट रूल्स का वह नियम अप्रासंगिक हो गया जिसके तहत एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को विशेष अधिकार दिए गए थे. इसके तहत सीनियर एडवोकेट और अन्य एडवोकेट को सुप्रीम कोर्ट में वकालत का अधिकार तो था लेकिन वे कोई मुकदमा खुद दायर नहीं कर सकते थे और इसके लिए उन्हें एडवोकेट ऑन रिकॉर्डस का सहारा अनिवार्य तौर पर लेना था. जबकि एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड मुकदमा दायर करने के अलावा खुद ही उसकी पैरवी भी कर सकते थे

धारा 30 को लागू करवाने के लिए संघर्षरत वकीलों का आरोप यह भी है कि एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड का दर्जा देने की प्रक्रिया में भी कई खामियां हैं

अधिसूचना के बाद मसला हल हो जाना था. लेकिन समस्या जस की तस है. सवाल उठता है कि अधिसूचना जारी होने, हजारों वकीलों के संघर्षरत रहने और इस व्यवस्था में इतनी खामी होने के बावजूद नई व्यवस्था क्यों नहीं कायम हो रही है? इस बारे में बात करते हुए रवि शंकर कुमार कहते हैं, ‘आधिकारिक वजह यह है कि धारा-30 लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट रूल्स में संशोधन करना अनिवार्य है और इसके लिए संबंधित सुझावों को रूल्स कमिटी के पास भेजा गया है. लेकिन अनाधिकारिक वजह यह है कि एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन अब भी इस बात को लेकर सक्रिय है कि किसी भी तरह इसे लागू नहीं होने दिया जाए ताकि उसका एकाधिकार बना रहे. यही वजह है कि अधिसूचना जारी होने के बाद नौ महीने से अधिक वक्त गुजरने के बावजूद अब तक इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है.’

मुकदमा दायर करने के मामले में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के एकाधिकार की वजह से कई तरह की दिक्कतें पैदा हो रही हैं. कुमार कहते हैं, ‘कई मौकों पर अदालत ने इस बात को स्वीकार किया है कि इस श्रेणी के वकील याचिका पर दस्तखत करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ले रहे हैं और इसका नतीजा यह हो रहा है कि याचिका दायर करने वाले, उसके वकील और अदालत के बीच में कई मामलों में खाई पैदा हो रही है. मुकदमों को लेकर किसी जिम्मेदारी का अहसास एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड में नहीं रह रहा है.’ इसका खामियाजा उन लोगों को भुगतना पड़ रहा है जो न्याय की आस में उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाते हैं. भारतीय संविधान के तहत हर नागरिक को समान न्याय और अपनी पसंद का वकील रखने का अधिकार मिला हुआ है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के नियम इस अधिकार के आड़े आ रहे हैं. क्योंकि मौजूदा व्यवस्था के तहत न चाहते हुए भी लोगों को एक एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के पास जाना पड़ रहा है, भले ही वह मुकदमा लड़े या नहीं. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट से न्याय हासिल करने में उन पर दोहरा आर्थिक बोझ भी पड़ रहा है. उन्हें पहले तो अपनी पसंद के वकील को फीस का भुगतान करना पड़ रहा है और तकनीकी वजहों से एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को भी पैसा देने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है.

धारा-30 को लागू करवाने के लिए संघर्षरत वकीलों का आरोप यह भी है कि एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड का दर्जा देने की प्रक्रिया में भी कई खामियां हैं. एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के तौर पर खुद को पंजीकृत करवाने के लिए वकीलों को एक लिखित परीक्षा से गुजरना पड़ता है जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति लेती है. कुमार कहते हैं, ‘इस समिति के कई सदस्य ऐसे हैं जो दशकों से अपने पद पर बने हुए हैं. इस प्रक्रिया की एक सबसे बड़ी खामी यह है कि समिति के सदस्यों की नियुक्ति के लिए कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं हैं. बुक कीपिंग और अकाउंट्स जैसे कई ऐसे विषयों की परीक्षा ली जाती है जिनकी अब कोई प्रासंगिकता नहीं है.’ इन वकीलों का आरोप है कि इन खामियों की वजह से एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड की नियुक्ति में मनमानी चल रही है और परीक्षा की पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है. उनका दावा है कि अगर इस परीक्षा की जिम्मेदारी किसी निष्पक्ष एजेंसी को दे दी जाए तो आधे से अधिक एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड फेल हो जाएंगे. इन वकीलों का यह भी आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट में जो चैंबर एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को आवंटित किए गए हैं उन्हें किराये पर चढ़ाकर कमाई की जा रही है. उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट के नियमों के मुताबिक दस चैंबरों में से सात एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को, एक वरिष्ठ वकील को और दो अन्य वकीलों को आवंटित करने का प्रावधान है. इस नियम की वजह से अधिक चैंबर एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के पास हैं. कुमार कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने वाले वकीलों की कुल संख्या तकरीबन 10,000 है. वहीं सर्वोच्च अदालत में अब तक करीब 2,000 एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड बने हैं. इनमें से बमुश्किल अभी 1,200 एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड सुप्रीम कोर्ट में सक्रिय हैं. इस तरह से देखा जाए तो देश की सबसे बड़ी अदालत में मुकदमा लड़ने का रास्ता इन्हीं 1,200 लोगों के हाथों से होकर जाता है.’

‘लाल झंडों का एक होना संभव नहीं है’

पार्टी के महाधिवेशन के दौरान निकले जुलूस में समर्थकों की भारी संख्या, उनके जज्बे और अनुशासन ने लोगों को हैरान किया. यह ताकत चुनावी राजनीति में क्यों आपके पक्ष में नहीं बदल पा रही?

 यह सही है कि चुनावी राजनीति में कम्युनिस्ट पार्टी और बाकी वाम दलों का प्रदर्शन जिस तरह का होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा. लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी का काम सिर्फ चुनावी परिणामों से ही नहीं मापा जा सकता. लोगों को संगठित करने, समस्याओं पर उन्हें उतारने, संघर्ष के लिए उन्हें तैयार करने की शक्ति पार्टी में आज भी बरकरार है. बेशक कुछ विभेदकारी आंदोलनों ने मसलन संप्रदायवाद, जातिवाद, प्रादेशिकता की राजनीति आदि ने क्षति पहुंचाई है, लेकिन हम देख रहे हैं कि एक बार फिर नवयुवक पार्टी की तरफ आ रहे हैं. अब कम्युनिस्ट पार्टी में सिर्फ सफेद बाल- दाढ़ीवाले नहीं दिख रहे हैं. उम्मीद है कि दो-एक वर्षों में पार्टी फिर उठ खड़ी होगी.

यह तो अपनी कमी का दोष दूसरे पर मढ़ना हुआ कि क्षेत्रवाद, जातीयता, सांप्रदायिक राजनीति ने कमजोर कर दिया!

 हमारी कमी यही रही कि हम इन सबके खिलाफ सही रणनीति के साथ संघर्ष नहीं कर सके.

आप आंदोलनों में उम्मीद देख रहे हैं. देखा गया है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने रूस, चीन, क्यूबा आदि में युवा अवस्था में ही क्रांति की. भारत में कम्युनिस्ट पार्टी अब 90 पार की है और समाजवाद अब भी  सपना…!

भारत उन देशों की तरह नहीं है. यहां की भाषा, संस्कृति, जाति, मजहब, जीवनशैली आदि में व्यापक विविधता है. इसमें कई विभेदकारी तत्व भी हैं इसलिए यहां वैसी क्रांति संभव नहीं और उन देशों की तरह कम समय में तो कतई नहीं.

बुरे वक्त में एक बार फिर से वाम दलों के एकीकरण की बात कही जा रही है.

एकीकरण से अगर आपका अभिप्राय एक हो जाने का है तो हम समझते हैं कि उस तरह के एकीकरण की फिलहाल कोई संभावना नहीं है. लेकिन ज्वाइंट एक्शन, जनता के मसले पर आंदोलन, जनविरोधी नीतियों का विरोध आदि हम दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां साथ मिलकर करंे, जिसकी बहुत जरूरत है.

बंगाल में सीपीएम श्रेष्ठताबोध की राजनीति करती है. बिहार में भाकपा माले खुद को श्रेष्ठ मानती है. एक-दूजे का स्पेस मारने की होड़ है. क्या ऐसी राजनीति करते हुए वाम दलों में साझे अभियान की गुंजाइश है?

जब तक ये पार्टियां अलग-अलग हैं, तब तक चुनावी अखाड़े में कई बार एक-दूसरे की दुश्मन बनकर भी उतरती रहेंगी. वे भी लाल झंडे लेकर उतरते हैं, हम भी. लोगों में लाल झंडे को लेकर भ्रम भी होता है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. हम चाहते हैं कि टकराव कम हो.

महाराष्ट्र के जैतापुर में आप परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे हैं और तमिलनाडु के कोडनकुलम में इसे शीघ्र शुरू करने की मांग कर रहे हैं. यह द्वंद्व क्यों?

यह सही है कि तमिलनाडु में सीपीआई और सीपीएम दोनों यह चाहते हैं कि अगर न्यूक्लियर पावर प्लांट तमाम सुरक्षा उपायों के साथ शुरू हो तो कोई हर्ज नहीं है. लेकिन इसे लेकर अभी भी एक राय नहीं है. जो फंडामेंटलिस्ट हैं वे समझते हैं कि परमाणु ऊर्जा होनी ही नहीं चाहिए. कुछ समझते हैं कि हर किस्म की सावधानी बरतने के बाद यदि हो तो कोई दिक्कत नहीं. इसके बारे में एक राय नहीं बन सकी है. लेकिन इस संबंध में एक राय है कि जोर-जबरदस्ती सरकार ना करे. स्थानीय लोगों की राय को तरजीह दे.

 

संघर्ष और आंदोलन ही यदि आपकी ताकत है तो हिंदी पट्टी में पिछले कई सालों से संभावनाओं के बावजूद आप कोई बड़ा आंदोलन क्यों नहीं खड़ा कर पा रहे?

मैं इसे स्वीकारता हूं. हम भी उसी बात पर मंथन कर रहे हैं कि जन आंदोलन क्यों नहीं खड़ा कर पा रहे हैं.

वाम दलों की एकजुटता के अलावा किसी और मोर्चे की बात भी की जा रही है?

मैं तीसरे मोर्चे जैसी किसी अवधारणा विरोध करता रहा हूं. इस तरह के मोरचे में कई दफा यही होता है कि कुछ विरोधी पार्टियां एक जगह बैठती हैं और कुछ सीटों का आदान-प्रदान कर लेती हैं. उसमें जनता की समस्याएं कहां हैं, उसमें क्या भूमिका होगी, इन बातों पर चर्चा नहीं होती. कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर कुनबा बनाने के पक्ष मंे मैं नहीं हूं. इसलिए तीसरा मोर्चा न कहते हुए वाम जनवादी मोर्चे की बात कर रहे हैं जिसके मिलान का आधार संघर्ष होगा. तब जनता को विश्वास होगा कि ये हमारे सवालों पर लड़ने वाले हैं. वरना यह संदेश साफ जाएगा कि सारी लड़ाई सत्ता के लिए ही है.

क्या यह भी मानें कि आगे सत्ता के लिए ही कोई वैकल्पिक मोर्चा जैसा बनता है तो आप उसमें शामिल नहीं होंगे?

जब बनेगा, तब देखेंगे.

हालिया चुनाव में गोवा में भाजपा के टिकट से छह ईसाई विधायक बने. पंजाब में अकालियों ने हिंदुओं को टिकट दिया और वे अच्छी संख्या में जीते भी. यह एक नयी परिघटना मानी जा रही है. क्या राजनीति में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के मसले की प्रासंगिकता कम हो रही है?

सिर्फ चंद ईसाइयों को गोवा में भाजपा द्वारा टिकट देने से या पंजाब में चंद हिंदुओं को अकालियों द्वारा टिकट देने से उनका जो सांप्रदायिक चरित्र है, वह बदलता नहीं है. वैसे तो भाजपा में भी केंद्रीय स्तर पर दो-चार मुसलमान दिखते ही हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि वे हिंदू-मुसलमान या मंदिर-मस्जिद में झगड़ा नहीं लगाएंगे. वे तो लोगों को लड़ाने के लिए हर मौके की तलाश में लगे रहते हैं. उनकी राजनीति की यही मूल रणनीति भी है और वे समझते हैं कि उनके वोट बैंक का आधार भी यही है.

आपने क्षेत्रवाद की बात की. लेकिन अब तो उसी का जोर है. ममता सिर्फ बंगाल सोचती हैं, नरेंद्र मोदी सिर्फ गुजरात, नीतीश सिर्फ बिहार आदि-आदि. राष्ट्रीय राजनीति तो हाशिये पर है. भविष्य में इसका असर कैसा होगा?

क्षेत्रीय राजनीति में और क्षेत्रीय पार्टियों की इन भावनाओं के पीछे कुछ आंशिक सत्य भी है. केंद्र का दोहरा रवैया अपनाने से ऐसा होता है. कुछ यह भी सच है कि पूंजीवादी व्यवस्था में विकास हमेशा असमतल होता है. महाराष्ट्र को ही देखिए. विदर्भ और मराठवाड़ा अपने हाल में रह गए लेकिन मुंबई में सारा विकास हो गया. यह पूंजीवादी विकास का मार्ग है, इसकी वजह से क्षेत्रीय पार्टियों का और क्षेत्रवाद का उभरना स्वाभाविक है. लेकिन यह पूरी तरह सच भी नहीं है. मैं यह चाहता हूं कि ये जो क्षेत्रीय पार्टियां हैं, वे सारे देश के हित और स्वार्थ को भी ध्यान में रखें. कटु भावनाएं पैदा न करें. बिहारी-बंगाली न करें.

चीन के समाजवादी माडॉल पर क्या कहेंगे?

चीन तो कभी हमारा माॅडल रहा ही नहीं है. हमने तो बहुत पहले ही उसे खारिज कर दिया था. एक समय में पार्टी में बात चली थी कि रूस या चीन का मार्ग अपनाया जाए लेकिन तभी हम लोगों ने मजबूती के साथ कहा था कि न हमको उनका मार्ग अपनना है न इनका. हमें अपने देश के इतिहास, उसकी खूबसूरती, आंदोलन आदि के आधार पर ही आगे बढ़ना है.

देखा तो यह जा रहा है कि कट्टर माओवादी धारा ने लोकतांत्रिक वामपंथ को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया!

आप बिल्कुल सही कह रहे हैं. बंदूक की नोक पर लोग समाजवाद की ओर अग्रसर नहीं होंगे बल्कि यह चेतना और जनजागृति के आधार पर ही संभव होगा. अब हो यह रहा है कि वे एक बंदूक दिखाते हैं तो शासक दल जवाब में दस बंदूक निकालते हैं. दोनों के बीच में लोगों पर दमन बढ़ता है.

झारखंड जैसे राज्य में तो दो दर्जन माओवादी संगठन बन गए हैं. क्या आप मानते हैं कि माओवादियों का चरित्र भी कई जगह अपराधियों जैसा होता जा रहा है?

यह डीजेनेरेशन की प्रक्रिया है. आप लोगों के हाथ में बंदूक थमा देंगे और यह भावना पैदा कर देंगे कि बंदूक की नोक पर सब होता है तो इससे आगे चलकर फिरौती, डकैती, अपहरण, धमकी, वसूली आदि की प्रवृत्तियां पैदा होंगी ही.

मीडिया से वाम दलों को बहुत शिकायत रहती है, लेकिन कहीं न कहीं मीडिया आज एक ताकत के रूप में है. आपके पास लाखों कैडर हैं. बड़ा संगठन है. क्यों नहीं अपना वैकल्पिक मीडिया खड़ा कर पा रहे हैं?

मीडिया की भूमिका बहुत बड़ी है और बढ़ी भी है. लेकिन यह भी सच है कि मीडिया में अब कॉरपोरेट घराने आगे आ गए हैं. मीडिया की जो स्वतंत्रता थी, धीरे-धीरे उसका क्षय हो रहा है. रही बात हमारी तो इस वक्त हमारे पांच दैनिक चल रहे हैं पांच राज्यों में. हिंदी इलाके में एक भी नहीं है, यह अफसोस की बात है. हम चाह रहे हैं कि वहां भी एक दैनिक शुरू करें.

हिंदी इलाके में तो पार्टी का अस्तित्व ही दांव पर लगा दिखता है.

हां यह सही है, लेकिन हमने अपना सम्मेलन इस बार हिंदी इलाके के गढ़ पटना में किया है तो इसे भी एक कदम ही मानिए. हिंदी इलाके में कम्युनिस्ट को बढ़ाने के लिए प्लान और संकल्प दोनों है. 

आरोप लग रहे हैं कि बिहार में सम्मेलन होने के बावजूद सीपीआई बिहार के ठोस मुद्दे इसलिए नहीं उठा रही क्योंकि कल को नीतीश यदि भाजपा का साथ छोड़ेंगे तो आप साथ होंगे.

नहीं, ऐसा नहीं होगा. कम्युनिस्ट पार्टी अपने दम पर, अपनी शक्ति जुटाकर पुराने तेवर में आएगी.

 

लाली बचाने की अकुलाहट में लाल

 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के महासचिव बनाए जाने की घोषणा के ठीक बाद एस सुधाकर रेड्डी मीडिया से रूबरू होने बैठे. सहज सवालों का सिलसिला शुरू हुआ. मसलन, एकताबद्ध आंदोलन चलाने में वाम दलों के लिए क्या परेशानियां फंसती हैं? अगर किसी अन्य पार्टी के साथ मिलकर फ्रंट बनाना चाहते हैं तो ऐसे एक-दो दलों के संभावित नाम भी बताएं जो कांग्रेस अथवा भाजपा के खेमे में न हों, क्षेत्रवाद, जातिवाद से परे राजनीति कर रहे हों और आपके साथ आने को तैयार भी हों? हिंदी इलाके में आपके पास कभी बड़ा आकाश था, अब टिमटिमाते तारे हैं, क्या तैयारी है?

पता नहीं क्यों, इन सहज सवालों से ही रेड्डी असहज-से होते गए. हर सवाल के बाद बगल में बैठे पार्टी नेता अतुल कुमार नए महासचिव के कान में कुछ फुसफुसाते और रेड्डी जवाब दे देते. किसी बच्चे की तरह, जिसे गाय, नदी, हमारा देश आदि पर भाषण रटा दिया जाता है और स्कूल में वह बच्चा चढ़ती-उतरती सांस में उसे जल्दी-जल्दी बोलकर निश्चिंत-सा हो जाता है.

इस प्रसंग के जिक्र का आशय यह कतई नहीं कि भारत की सबसे पुरानी वामपंथी पार्टी का महासचिव बन जाने के बाद भी सुधाकर रेड्डी में राजनीति के ऐसे मसलों की अभी समझ नहीं आ सकी है. भाकपा के कैडर-कार्यकर्ताओं के अलावा अन्य लोग भी जानते और मानते हैं कि रेड्डी कुशल संगठनकर्ता रहे हैं. पिछले चार साल से वे एबी बर्धन के साथ उपमहासचिव के तौर पर पार्टी में काम करते रहे हैं. पार्टी में उनका योगदान भी महत्वपूर्ण रहा है. लेकिन यह प्रसंग इसका एक इशारा जरूर दे देता है कि खुद में बदलाव लाकर मजबूती की तरफ बढ़ने की इच्छा के बावजूद वाम दलों के पास कोई स्पष्ट खाका नहीं है कि यह होगा कैसे.

27 से 31 मार्च तक पटना में चले भाकपा के 21वें महाधिवेशन में ये संकेत कई बार दिखे. भाकपा, माकपा, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक और भाकपा माले के शीर्षस्थ नेताओं द्वारा छेड़े गए राग के बाद भाकपा नेता रटते रहे कि अब सभी वामदल एकताबद्ध संघर्ष करेंगे, आंदोलन करेंगे, खोई ताकत वापस पाएंगे. नई जमीन तलाशेंगे. लेकिन यह सब होगा कैसे, इसका कोई स्पष्ट खाका पेश किए बगैर महाधिवेशन निपट गया.

भाकपा के महाधिवेशन में तो फिर भी एकता की बात हुई. सभी प्रमुख वामदल एक मंच पर दिखे भी. लेकिन इसके चार दिन बाद ही केरल के कोझीकोड़ में एकता का यह राग टूटता-सा दिखा. मौका था सबसे बड़ी सत्ताधारी वाम पार्टी माकपा के 20वें महाधिवेशन का. माकपा महासचिव प्रकाश करात यह भूल गए कि चार दिन पहले ही हिंदी पट्टी के अहम गढ़ पटना में भाकपा, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक औप भाकपा माले के शीर्षस्थ नेताओं के साथ उन्होंने मंच पर हाथ उठाकर कहा था कि सब भेद भुलाकर वे एकता दिखाएंगे. लेकिन अपनी पार्टी के महाधिवेशन में उन्होंने भाकपा माले जैसी पार्टी को न्योता नहीं दिया. यह जानते हुए भी कि पिछले दो दशक से माले ही बिहार-झारखंड में वामदलों का मुख्य चेहरा बनी हुई है और अपने तरीके से संघर्षरत भी है. जानकारों के मुताबिक यह बात भाकपा माले के नेता को न्यौता देने से ज्यादा नजरिये की है. देश के अलग-अलग हिस्से में कई छोटे-बड़े वाम दल अपने तरीके से राजनीतिक आंदोलन चला रहे हैं और जमीन भी तैयार कर रहे हैं. भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य कहते हैं, ‘बंगाल-केरल में सत्ता गंवाने के बाद अब तो माकपा को संकीर्ण नजरिया बदलकर दादागिरी को कम करना चाहिए ताकि एकताबद्ध होने के द्वार खुल सकें.’

फिलहाल वाम दलों ने चुनावी राजनीति में लगातार अपनी जमीन गंवाई है. आगे अंधेरा दिख रहा है. बहुत हद तक इसीलिए दोनों प्रमुख वामदलों में लाल झंडे की लाली बचाए रखने की अकुलाहट और बेचैनी भी परवान पर दिख रही है. लेकिन दोनों दल आज भी आगे की रपटीली राह पर चलने के लिए दुविधा और असमंजस से बाहर नहीं निकल पा रहे. न ही वे अपनी कमजोरियों के आकलन में ईमानदारी दिखा पा रहे हैं.

पटना के भाकपा अधिवेशन में जब आगे संघर्ष के जरिए रास्ता तलाशने की बात हुई तो इसका जवाब नहीं तलाशा जा सका कि जिस बिहार में कभी भाकपा के 30 से अधिक विधायक हुआ करते थे, वहां अपनी किन-किन गलतियों की वजह से अब पार्टी सिर्फ एक सीट पर सिमट गई है. हिंदी पट्टी के सबसे बड़े गढ़ उत्तर प्रदेश में 2002 के बाद से वाम दल खाता भी क्यों नहीं खोल पा रहे हैं. भाकपा ने अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में यह भी याद नहीं किया कि कभी उत्तर प्रदेश में उनकी इतनी पकड़ हुआ करती थी कि 1989 में जब राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा उफान मचा रही थी तब भी फैजाबाद से लोगों ने भाकपा का सांसद चुनकर भेजा था और देश को चौंका दिया था. खिसकी हुई मजबूत जमीन फिर कैसे हासिल होगी इसके जवाब में बार-बार रटी-रटाई शब्दावलियों का इस्तेमाल किया जाता रहा. हर बार संघर्ष की बात होती और फिर एक रटा-रटाया वाक्य कि सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता और जातीयता ने हमारी जमीन को मारा. भाकपा के नए महासचिव सुधाकर रेड्डी इस बात का जवाब भी नहीं दे सके कि आज जब देश भर में पंचायत से लेकर संसद तक की राजनीति में महिलाओं को प्रमुखता देने की परंपरा बन रही है तो पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में महिलाओं की संख्या रखने में औपचारिकता-सी क्यों निभाई गई. देश की आबादी में 55 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले युवाओं को पार्टी से जोड़ने के लिए एबी बर्धन जैसे नेता ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन और ऑल इंडिया यूथ फेडरेशन मंच की दुहाई देते रहे. जबकि यह सच वे भी जानते हैं कि युवाओं में एक बड़ी आबादी पेशेवरों की भी है और वह भी इस नवउदारवादी व्यवस्था से त्रस्त है. उसे भी वाम का कोई मंच चाहिए, लेकिन आज के हिसाब से. हाल के वर्षों में उभरा मध्यवर्ग इस धारा से कैसे जुड़ेगा, यह मसला भी दरकिनार रहा. और इस सबके बाद हिंदी इलाके के लिए अलग से कोई कार्यक्रम तक तय नहीं हो सका कि आखिर अपने पुराने गढ़ के लिए क्या रणनीति होगी. इस बाबत पूछने पर भाकपा के नए महासचिव सुधाकर रेड्डी बस इतना भर कहते हैं कि वे महिलाओं को प्रमुखता देंगे, युवाओं के लिए भी अलग से सोचेंगे और हिंदी इलाके के लिए एक अलग प्रोग्राम तैयार करेंगे!

गा-गे-गी यानी भविष्यकाल के वाक्यों में उलझाए रखने की राजनीति वामदलों की परंपरा में नहीं रही है लेकिन भाकपा इसका सहारा लेते हुए साफ दिखी.

कोई भी वाम दल अपने स्पेस में दूसरे वाम दल की सेंधमारी के लिए कतई तैयार नहीं

माकपा के महाधिवेशन में भी वाम दलों के एकताबद्ध आंदोलन का संकल्प दुहराया गया लेकिन वह एक किस्म का भाषण जैसा ही लगा. जानकारों का मानना है कि लगातार सत्ता में रहने की वजह से माकपा अब भी वाम दलों में खुद के श्रेष्ठताबोध से बाहर नहीं निकल पाई है. और यह तय है कि उसकी अकड़ अगर बरकरार रही तो फिर वही वामदल एकताबद्ध होंगे जो वर्षों से सत्ता के लिए एकताबद्ध होते रहे हैं.

भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच कब-कब, किन बिंदुओं पर असहमति के स्वर उभरे और फटाफट अलग पार्टियों का निर्माण हो गया, इस पर नजर दौड़ाने पर दिलचस्प तथ्य सामने आते हैं. भाकपा से टूटकर माकपा बनी. माकपा से  माले वाया आईपीएफ. फिर उससे 17 अलग-अलग पार्टियां. इसी धारा से माओवादियों वाली पार्टी भी. अब माओवादियों के भी दो दर्जन समूह हैं. सभी अपने-अपने तरीके से जिंदा हैं, अपने-अपने लाल झंडे के साथ. लोकतांत्रिक वाम दलों की बात करें तो चुनाव के दौरान इन सबके घोषणा पत्र देखने पर बहुत हद तक समानता नजर आती है. लेकिन एक ही मूल से निकलने के बावजूद एक महीन रेखा इन्हें अलग-अलग छोर पर बनाए रखती है. भाकपा या माकपा जब एकताबद्ध होने की बात दुहराती हैं तो दो दलों की बात ही प्रमुखता से आती है या अधिक से अधिक फॉरवर्ड ब्लॉक और आरएसपी मिलाकर चार दलों की, जो पश्चिम बंगाल, केरल या यूपीए वन में सत्ता की साझेदार रही हैं. इससे देश के अलग-अलग हिस्से में संघर्षरत छोटे वाम दल खुद को किनारे कर लेते हैं. भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य कहते हैं कि सत्ता और मोल-तोल के लिए वामदल साझा मंच पर तो आते ही रहे हैं लेकिन संघर्ष के लिए साथ आने का स्वरूप अलग होता है. यह देखा भी गया है कि जब देश में चार वाम दल सत्ता की साझेदारी निभा रहे थे तब कई वाम दल एक अलग से कोऑर्डिनेशन कमेटी बनाकर अलग-अलग हिस्सों में संघर्ष भी कर रहे थे. इसमें बिहार-झारखंड के इलाके में सक्रिय भाकपा माले, पंजाब में सीपीएम पंजाब, दार्जिलिंग के इलाके में सीपीआरएम, महाराष्ट्र में महाराष्ट्र लाल मिशन पार्टी आदि शामिल हैं.

पहचान की राजनीति के युग में वाम दलों के बीच एकताबद्ध होने में जो पहला पेंच फंसता है, उसके मूल में दो-चार बनाम अन्य आड़े आते हैं. दूसरे, एकता के नाम पर कोई वाम दल अपने स्पेस में दूसरे वाम दल की सेंधमारी के लिए कतई तैयार नहीं. भाकपा के एबी बर्धन कहते भी हैं, ‘यही तो सबसे बड़ा असमंजस है कि सभी वाम दल लाल झंडे के साथ उतरते हैं और आपस में लड़ते हैं. जनता लाल झंडे को लेकर दुविधा में पड़ जाती है.’

हालांकि तमाम मुश्किलों के बीच भी संभावनाओं की कई खिड़कियां दिखती हैं. इस साल 28 फरवरी को राष्ट्रव्यापी एक दिन की मजदूरों की हड़ताल हुई तो उससे साफ हुआ कि वाम दलों में अब भी ताकत बची हुई है. उस रोज देश का एक बड़ा हिस्सा ठहर गया था. हालांकि उस हड़ताल में सभी ट्रेड यूनियनें शामिल थीं, लेकिन इसकी अगुवाई वाम संचालित यूनियनें ही कर रही थीं. भाकपा के वरिष्ठ नेता गुरुदास दास गुप्ता कहते हैं, ‘भले ही चुनावी राजनीति में हम पीछे रह गए लेकिन आज ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन बन गई है. इससे संभावना बेहतर दिखती है. ‘वाम विचारधारा वाली पत्रिका जनशक्ति के संपादक यूएन मिश्र कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में अचानक अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के उभार से यह साफ हुआ है कि नब्ज पर उंगली रखी जाए तो जनता कभी भी करवट लेकर साथ आ सकती है. अगर खेती, रोजगार, भूमि सुधार, विस्थापन आदि सवालों के साथ नव उदारवादी व्यवस्था से नित्य उभर रहे खतरों से जनता को आगाह करने में हम सफल रहे तो जनता फिर हमारे साथ आएगी. समाज में बढ़ती बेचैनी, असमानता, बेरोजगारी और धार्मिकता तथा उग्रवादियों का अतिवाद सेचुरेशन की स्थिति में पहुंच रहा है. ऐसे में वाम एक विकल्प दिखता है.’

मिश्र बात तो सही कहते हैं. आज भारतीय राजनीति में नेताओं और दलों के भ्रष्टाचार का दलदल जिस तरह से बढ़ता दिख रहा है उसमें वाम दल और वाम नेता आज भी कतार से अलग खड़े नजर आते हैं. लेकिन आखिर में फिर वही बात कि बच्चे की तरह रटकर पढ़ने वाला स्टाइल बदलना होगा. सिर्फ संघर्ष-संघर्ष रटते रहने की बजाय सृजन के रास्ते भी दिखाने होंगे. वरना ऊहापोह और भटकाव वाले इस युग में बहुतेरे यह भी समझ बैठेंगे कि समग्रता में 90 की उम्र पार करने के बावजूद भारत में वामपंथी दल उस स्कूली बच्चे की तरह हो गए हैं, जिसे सिर्फ गाय पर लेख लिखना आता है. स्कूल की परीक्षा में नदी पर भी लेख लिखने का प्रश्न आने पर वह घुमा-फिराकर गाय पर ही पहुंचने की कोशिश करता है, जैसे- मेरे गांव के पास एक नदी बहती है, उसके किनारे एक गाय चरने आती है, उसके चार पांव होते हैं, वह घास खाती है..

 

सौदों के बाद शोध में सड़ांध

सेनाध्यक्ष वीके सिंह ने कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया कि उन्हें विदेशी कंपनी के साथ होने वाले एक रक्षा सौदे में रिश्वत की पेशकश की गई थी. इसके बाद एक बार फिर से हर तरफ यह चर्चा हो रही है कि किस तरह से रक्षा सौदों में दलाली बदस्तूर जारी है और ज्यादातर रक्षा सौदों को विदेशी कंपनियां अपने ढंग से प्रभावित करने का खेल अब भी खेल रही हैं. इसके बाद सेनाध्यक्ष का प्रधानमंत्री को लिखा वह पत्र लीक हो गया जिसमें बताया गया है कि हथियारों से लेकर तैयारी के मामले तक में सेना की स्थिति ठीक नहीं है. नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की रिपोर्ट भी सेना की तैयारियों की चिंताजनक तस्वीर सामने रखती है.

रक्षा सौदों में दलाली और तैयारी के मोर्चे पर सेना की बदहाली के बीच एक मामला ऐसा है जो इशारा करता है कि विदेशी कंपनियां अपनी पहुंच और पहचान का इस्तेमाल न सिर्फ रक्षा सौदों के लिए कर रही हैं बल्कि इस क्षेत्र के शोध और विकास की प्रक्रिया को बाधित करने के खेल में भी शामिल हैं ताकि उनके द्वारा बनाए जा रहे रक्षा उपकरणों के लिए भारत एक बड़ा बाजार बना रहे.
यह मामला है 1972 में शुरू हुई उस परियोजना का जिसके तहत मिसाइल में इस्तेमाल होने वाला एक बेहद अहम उपकरण विकसित किया जाना था. इसमें शामिल एक बेहद वरिष्ठ वैज्ञानिक का कहना है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहल पर शुरू हुई यह परियोजना जब अपने लक्ष्य को हासिल करने के करीब पहुंची तो इसे कई तरह के दबावों में जानबूझकर पटरी से उतार दिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि आज भी भारत इस तरह के उपकरण बड़ी मात्रा में दूसरे देशों से खरीद रहा है. इंदिरा गांधी के बाद के चार प्रधानमंत्रियों के संज्ञान में इस मामले को लाए जाने और एक प्रधानमंत्री द्वारा जांच का आश्वासन दिए जाने के बावजूद अब तक इस मामले की उचित जांच नहीं हो सकी है.

साठ के दशक में चीन से चोट खाने और फिर 1971 में पाकिस्तान के साथ हुई लड़ाई के बाद यह महसूस किया गया कि रक्षा तैयारियों के मामले में अभी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है. फिर से भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के उस सपने का जिक्र हो रहा था जिसमें उन्होंने कहा था कि वे रक्षा जरूरतों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं. तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रक्षा से संबंधित अहम स्वदेशी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए उन भारतीय वैज्ञानिकों की सेवा लेने पर जोर दिया जो दूसरे देशों में काम कर रहे थे.इन्हीं कोशिशों के तहत अमेरिका की प्रमुख वैज्ञानिक शोध संस्था नासा में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिक रमेश चंद्र त्यागी को भारत आने का न्योता दिया गया. त्यागी ने देश के लिए काम करने की बात करते हुए नासा से भारत आने के लिए मंजूरी ले ली. इसके बाद भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की एक लैब सॉलिड स्टेट फिजिक्स लैबोरेट्री में उन्हें प्रमुख वैज्ञानिक अधिकारी (प्रिंसिपल साइंटिफिक ऑफिसर) के तौर पर विशेष नियुक्ति दी गई. उन्हें जो नियुक्ति दी गई उसे तकनीकी तौर पर ‘सुपर न्यूमरेरी अपवाइंटमेंट’ कहा जाता है. यह नियुक्ति किसी खास पद या जरूरत को ध्यान में रखकर किसी खास व्यक्ति के लिए होती है और अगर वह व्यक्ति इस पद पर न रहे तो यह पद खत्म हो जाता है.

दुश्मन के जहाज को गिराने के लिए भारत उस समय जिस मिसाइल का इस्तेमाल करता था उसमें एक उपकरण होता था ‘इन्फ्रा रेड डिटेक्टर’. इसकी अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे आम बोलचाल की भाषा में ‘मिसाइल की आंख’ कहा जाता है. मिसाइल कैसे अपने लक्ष्य तक पहुंचेगी, यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि यह उपकरण कैसे काम कर रहा है. पर इस उपकरण के साथ गड़बड़ी यह है कि इसकी उम्र महज छह महीने होती है. मिसाइल का इस्तेमाल हो या न हो लेकिन हर छह महीने में यह उपकरण बदलना पड़ता है. उन दिनों भारत रूस से यह डिटेक्टर आयात करता था. जानकार बताते हैं कि कई बार रूस समय पर यह डिटेक्टर देता भी नहीं था. इंदिरा गांधी ने इस समस्या को समझा और तय किया कि भारत ऐसा उपकरण खुद विकसित करेगा. नासा में काम करते हुए त्यागी ने दो पेटेंट अर्जित किए थे और वहां वे इसी तरह की एक परियोजना पर काम कर रहे थे. सेमी कंडक्टर टेक्नोलॉजी और इन्फ्रा रेड डिटेक्शन पर त्यागी के काम को अमेरिका में काफी सराहा भी गया था. इसी वजह से उन्हें इस परियोजना का कार्यभार सौंपा गया.

1972 में भारत आकर त्यागी ने इस परियोजना पर काम शुरू किया. भारत सरकार ने इस परियोजना को ‘सर्वोच्च प्राथमिकता यानी टॉप प्रायोरिटी’ की श्रेणी में रखा था. औपचारिक तौर पर इसे ‘पीएक्स एसपीएल-47’ नाम दिया गया. त्यागी के सहयोगी के तौर पर अमेरिका के नेब्रास्का विश्वविद्यालय में काम कर रहे वैज्ञानिक एएल जैन को भी भारत लाया गया. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहद प्रतिष्ठित समझी जाने वाली फुलब्राइट स्कॉलरशिप हासिल कर चुके जैन भी देश के लिए कुछ करने का भाव मन में रखकर यहां आए थे. जैन के पास अमेरिकी सेना की कुछ ऐसी परियोजनाओं में काम करने का अनुभव भी था. इन दोनों वैज्ञानिकों ने मिलकर कुछ ही महीनों के अंदर वह उपकरण विकसित कर लिया और बस उसका परीक्षण बाकी रह गया था. इसी बीच पहले एएल जैन को विभाग के अधिकारियों ने परेशान करना शुरू किया. डीआरडीओ की मैनेजमेंट इन्फार्मेशन रिपोर्ट (एमआईआर) में भी इस बात का जिक्र है कि उन्हें परेशान इसलिए किया जा रहा था कि उन्होंने केमिकल बाथ मेथड से डिटेक्टर विकसित करने की परियोजना को लेकर आपत्ति जताई थी और इस तथ्य को भी उजागर किया था कि इसकी क्षमता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है. लेकिन जैन की बात को परखने की बजाय उन्हें इस कदर परेशान किया गया कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया. त्यागी बताते हैं कि कुछ समय के बाद जैन अमेरिका वापस चले गए. इसके बाद तरह-तरह से उन्हें भी परेशान किया जाने लगा. इसकी शिकायत उन्होंने उस वक्त के रक्षा मंत्री वीएन गाडगिल से भी की. त्यागी कहते हैं कि गाडगिल ने उपयुक्त कदम उठाने की बात तो कही लेकिन किया कुछ नहीं.

डीआरडीओ ने उपकरण के परीक्षण की दिशा में काम आगे बढ़ाने की बजाय एक दिन त्यागी को बताया कि आपका स्थानांतरण पुणे के सैनिक शिक्षण संस्थान में कर दिया गया है. इस तरह से रहस्यमय ढंग से उस परियोजना को पटरी से उतार दिया गया जिसके लिए इंदिरा गांधी ने विदेश में काम कर रहे दो वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों को विशेष आग्रह करके भारत बुलाया था. इसका नतीजा यह हुआ कि आज भी भारत इस तरह के उपकरणों के लिए काफी हद तक दूसरे देशों पर निर्भर है. जानकारों का कहना है कि इस तरह के जो उपकरण भारत में बाद में विकसित भी हुए उनकी हालत गुणवत्ता के मामले में बहुत अच्छी नहीं है.
त्यागी कहते हैं,  ‘इस परियोजना को तहस-नहस करने का काम उस लॉबी ने किया जो इस उपकरण के सौदों में शामिल थी. इस उपकरण के आयात पर 20 फीसदी दलाली की बात उस वक्त होती थी. इसलिए इन सौदों में शामिल लोगों ने यह सोचा कि अगर स्वदेशी उपकरण विकसित हो गया तो उन्हें मिल रहा कमीशन बंद हो जाएगा. यह बात तो किसी से छिपी हुई है नहीं कि रक्षा सौदों में किस तरह से दलाली का दबदबा है. लेकिन मेरे लिए सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि रक्षा क्षेत्र से संबंधित शोध और विकास कार्यों पर भी किस तरह से विदेशी कंपनियां, कमीशन खाने वाली लॉबी और उनके इशारे पर काम करने वाले अधिकारी असर डाल रहे थे.’ इसके बाद त्यागी ने तय किया कि वे हारकर अमेरिका नहीं लौटेंगे बल्कि भारत में रहकर ही यह लड़ाई लड़ेंगे.

अब तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठा कि आखिर वह कौन-सी ताकत थी जिसने त्यागी की अगुवाई में शुरू हुई अहम रक्षा परियोजना का बेड़ा गर्क कर दिया

लंबी लड़ाई के पहले कदम के तौर पर त्यागी ने अपने स्थानांतरण के आदेश को मानने से इनकार कर दिया. वे कहते हैं,  ‘मुझे एक परियोजना विशेष के लिए लाया गया था तो फिर स्थानांतरण स्वीकार करने का सवाल ही नहीं उठता था. खुद पुणे के उस संस्थान के निदेशक ने कहा था कि रमेश चंद्र त्यागी के पास जिस क्षेत्र की विशेषज्ञता है उससे संबंधित वहां कोई काम ही नहीं है.’ बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में इस बात को दोहराया. त्यागी को स्थानांतरण का यह आदेश 1977 की फरवरी में मिला था. इसे मानने से इनकार करने पर उन्हें दो साल के लिए आईआईटी में प्रतिनियुक्ति पर भेजा गया. उन्होंने यहां 1978 से 1980 तक काम किया और इसी दौरान उन्हें बेहद प्रतिष्ठित श्री हरिओम प्रेरित एसएस भटनागर पुरस्कार मिला. यह पुरस्कार उन्हें सोलर कंसन्ट्रेटर विकसित करने के लिए मिला था. यह रक्षा मंत्रालय के किसी वैज्ञानिक को मिलने वाला पहला राष्ट्रीय पुरस्कार था. प्रतिनियुक्ति पूरी होने के बाद उन्हें फिर से पुणे जाने के लिए कहा गया. जब उन्होंने ऐसा करने से मना किया तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया. त्यागी कहते हैं, ‘मैं भारत का पहला ऐसा वैज्ञानिक बन गया था जिसे बर्खास्त किया गया था और मैं इस कलंक के साथ मरना नहीं चाहता था. मैं उस नापाक गठजोड़ को भी उजागर करना चाहता था जिसने भारत की एक प्रमुख स्वदेशी रक्षा परियोजना को सफलता के मुहाने पर पहुंचने के बावजूद ध्वस्त कर दिया था.’

उस समय से लेकर अब तक त्यागी इस मामले को विभिन्न सक्षम अदालतों, एजेंसियों और व्यक्तियों के सामने उठाते रहे हैं लेकिन अब तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठा है कि आखिर वह कौन-सी ताकत थी जिसने त्यागी की अगुवाई में शुरू हुई उस परियोजना का बेड़ा गर्क कर दिया. इस बात को सिर्फ यह कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है कि स्थानांतरण और बाद में बर्खास्तगी की खीझ में त्यागी इस तरह के आरोप लगा रहे हैं. सच्चाई तो यह है कि डीआरडीओ की एमआईआर में भी यह माना गया है कि इस परियोजना को जानबूझकर बाधित किया गया. त्यागी की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि रमेश चंद्र त्यागी के साथ अन्याय हुआ. दुनिया के प्रमुख रिसर्च जर्नलों ने भी माना कि त्यागी जिस पद्धति से इन्फ्रा रेड डिटेक्टर विकसित कर रहे थे सिर्फ उसी के जरिए उच्च गुणवत्ता वाला यह उपकरण विकसित किया जा सकता है. ये तथ्य इस ओर इशारा कर रहे हैं कि कोई न कोई ऐसी ताकत उस वक्त रक्षा मंत्रालय और खास तौर पर डीआरडीओ में सक्रिय थी जिसके हित त्यागी की परियोजना की सफलता से प्रभावित हो रहे थे. यह ताकत शायद अब भी डीआरडीओ और रक्षा मंत्रालय में सक्रिय है और इसी वजह से अब तक इस मामले में दूध का दूध और पानी का पानी नहीं हो पाया है.
1977 में डीआरडीओ ने जो एमआईआर तैयार की थी उसे सॉलिड फिजिक्स लैबोरेट्री के निदेशक को 17 जनवरी, 1977 को सौंपा गया था. यह रिपोर्ट उस समय के रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार एमजीके मेनन को भी भेजी गई थी लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. सॉलिड फिजिक्स लैबोरेट्री में टेक्नीकल मैनेजमेंट डिविजन के प्रमुख रहे जीके अग्रवाल द्वारा तैयार की गई एमआईआर बताती है, ‘इस परियोजना को बाधित करने के लिए बार-बार डॉ त्यागी और डॉ जैन को परेशान किया गया. परियोजना पर काम करने के लिए त्यागी खुद के द्वारा अमेरिका में विकसित किया गया जो यंत्र नासा की विशेष अनुमति से लेकर आए थे उसका नाम था इपिटैक्सियल रिएक्टर. सर्वोच्च प्राथमिकता वाली परियोजना में लगे रहने के बावजूद इसका स्थान बदलकर परियोजना को बाधित करने की कोशिश की गई. अतः इस निष्कर्ष से बचा नहीं जा सकता कि किसी षड्यंत्र के तहत जानबूझकर डॉ जैन और डॉ त्यागी को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई गई.’ जिस अपरेटस का यहां जिक्र है उसे त्यागी ने अमेरिका में विकसित किया था और भारत में ऐसा अपरेटस नहीं होने की वजह से नासा से विशेष अनुमति लेकर वे उसे अपने खर्चे पर भारत लाए थे.

सामरिक दृष्टि से इस बेहद महत्वपूर्ण परियोजना को मटियामेट करने की पूरी कहानी अपनी रिपोर्ट में बयां करना जीके अग्रवाल पर भारी पड़ा. पहले स्थानांतरण और बाद में उन्हें निलंबित कर दिया गया. यह घटना भी त्यागी के उन आरोपों की पुष्टि करती है कि कोई न कोई अदृश्य शक्ति बेहद प्रभावशाली ढंग से उस वक्त से लेकर अब तक रक्षा मंत्रालय और डीआरडीओ में सक्रिय है जो नहीं चाहती कि भारत रक्षा उपकरणों के मामले में आत्मनिर्भर बने.

जब 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो उस वक्त कई सांसदों ने सामरिक दृष्टि से बेहद अहम इस परियोजना से संबंधित सभी पहलुओं की जांच करने की मांग करते हुए एमआईआर को सार्वजनिक करने की मांग भी रखी थी. उस समय के रक्षा मंत्री ने मामले की जांच कराने की बात तो कही लेकिन एमआईआर को यह कहते हुए तवज्जो नहीं दी कि यह एक निजी रिपोर्ट है और ऐसी कोई रिपोर्ट तैयार करने के लिए अग्रवाल को नहीं कहा गया था. जबकि डीआरडीओ ने 3 जून, 1976 को बाकायदा चिट्ठी लिखकर अग्रवाल को एमआईआर तैयार करने का काम सौंपा था. जगजीवन राम के ही समय में इस पूरे मामले की जांच के लिए रक्षा क्षेत्रों के शोध से संबंधित इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलपमेंट पैनल ने जांच का काम जनरल सपरा को सौंपा. त्यागी कहते हैं, ‘सपरा ने भी एमआईआर की बातों को माना. फिर भी न तो किसी की जवाबदेही तय हुई और न ही मुझे दोबारा उस परियोजना पर काम आगे बढ़ाने के लिए बुलाया गया.’

इस बीच कुछ सांसदों ने रक्षा मंत्री से लेकर संसद तक में इस मामले से संबंधित जानकारियां मांगीं जवाब में सरकार ने जिनके चार अलग-अलग जवाब दिए. 27 नवंबर, 1980 को राज्यसभा में सत्य पाल मलिक के सवाल के जवाब में उस समय के रक्षा राज्यमंत्री शिवराज पाटिल ने कहा, ‘इस परियोजना को 1977 के जुलाई माह में बंद कर दिया गया. क्योंकि इसके तहत विकसित किए जा रहे डिटेक्टर की कोई जरूरत ही नहीं थी.’ इसी दिन भाई महावीर समेत तीन अन्य सांसदों के सवाल पर पाटिल ने ही अपना जवाब बदल दिया. उन्होंने कहा, ‘इस परियोजना के तहत विकसित किए जाने वाले इन्फ्रा रेड डिटेक्टर को विकसित करने का काम और बड़े पैमाने पर चल रहा है.’ सरकार की तरफ से विरोधाभासी बयानों का सिलसिला यहीं नहीं थमा. संसद की पिटिशन कमेटी के अध्यक्ष बिपिनपाल दास ने अपनी रिपोर्ट में 13 फरवरी, 1981 को कहा, ‘परियोजना को न तो बाधित और न ही बंद किया गया. इसे सफलतापूर्वक 1977 में पूरा किया गया.’ सांसद संतोष गंगवार ने इस मामले में 1992 में एक पत्र उस समय के रक्षा मंत्री शरद पवार को लिखा. इसके जवाब में शरद पवार ने 6 फरवरी, 1992 को एक पत्र लिखकर बताया, ‘इस प्रोजेक्ट की प्रगति की देखरेख के लिए गठित पैनल की सिफारिश पर वर्ष 1976 में इसे बंद कर दिया गया था.’ अब इसमें यह तय कर पाना किसी के लिए भी काफी कठिन है कि इनमें से किस जवाब को सही माना जाए.

इस बीच न्याय के लिए अदालतों का चक्कर काटते हुए त्यागी के हाथ निराशा ही लगती रही. एक समय ऐसा आया जब उन्हें ऐसा लगा कि अगर न्याय हासिल करना है तो खुद ही कानून को जानना-समझना होगा और नासा में काम कर चुके इस वैज्ञानिक ने बाकायदा एलएलबी की पढ़ाई की. उनका मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंचा और वहां फैसला उनके पक्ष में आया. सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि त्यागी का पुणे में स्थानांतरण किया जाना अनधिकृत था और उनकी बर्खास्तगी भी गैरकानूनी थी. जस्टिस आरएम सहाय और एएस आनंद की खंडपीठ ने 11 फरवरी, 1994 के अपने फैसले में यह उम्मीद जताई थी कि डीआरडीओ त्यागी जैसे वैज्ञानिक की विशेषज्ञता और अनुभव को देखते हुए उनकी सेवाओं पर अधिक सकारात्मक रुख अपनाएगा.

त्यागी कहते हैं, ‘इसके बाद मैं डीआरडीओ गया. उस समय डीआरडीओ के प्रमुख एपीजे अब्दुल कलाम थे. उन्होंने मुझे कोई अहम जिम्मेदारी देने और किसी महत्वपूर्ण परियोजना से जोड़ने का भरोसा दिलाया. लेकिन हुआ इसका उलटा. मैं तो कलाम के आश्वासन के बाद समुद्र के अंदर काम करने वाला डिटेक्टर विकसित करने की योजना का खाका तैयार कर रहा था और इसका प्रस्ताव डीआरडीओ को भी दिया था. लेकिन 2 सितंबर, 1994 को टेलेक्स से मुझे सेवानिवृत्त करने की सूचना दे दी गई. जबकि उस वक्त मेरी उम्र 60 साल हुई नहीं थी.’ अब्दुल कलाम की छवि बेहद साफ-सुथरी रही है लेकिन उनके आश्वासन के बावजूद त्यागी को समय से पहले सेवानिवृत्त किया जाना इस बात की ओर इशारा करता है कि इस पूरे मामले में कोई न कोई ऐसी शक्ति काम कर रही थी जिस पर न तो कोई   हाथ डालने की हिम्मत जुटा पा रहा है और न ही उस पर से रहस्य का पर्दा उठाने का साहस कर रहा है.

रक्षा मंत्रालय ने इसपर चुप्पी साधकर रहस्य को और गहरा करने का काम किया कि खुद डीआरडीओ और जनरल सपरा की रिपोर्ट पर अब तक क्या कार्रवाई हुई

इसके बाद संतोष गंगवार समेत आधे दर्जन से अधिक सांसदों ने उस समय के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को 8 अगस्त, 1995 को पत्र लिखकर जानकारी दी. इन सांसदों ने अपने पत्र में इस मामले को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील बताते हुए मांग की कि शुरुआत से लेकर अब तक इस पूरे मामले की विस्तृत जांच की जाए और इस पर श्वेत पत्र लाया जाए. इसके जवाब में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने 16 अगस्त 1995 को लिखित में यह कहा, ‘इस मामले की मैं छानबीन कराऊंगा.’ लेकिन इस बार भी कोई नतीजा नहीं निकला.

1996 में प्रधानमंत्री बने एचडी देवगौड़ा ने भी सांसदों द्वारा यह मसला उठाए जाने पर उचित कार्रवाई की बात की लेकिन हुआ कुछ नहीं और जो मामला देशद्रोह का हो सकता है उस पर से रहस्य का पर्दा नहीं हटाया गया. त्यागी कहते हैं कि 1998 में प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी को इस मामले की जानकारी शुरुआती दिनों से ही थी और खुद उनके मंत्रिमंडल में शामिल तकरीबन आधा दर्जन मंत्रियों ने समय-समय पर इस मामले को उठाया था लेकिन वाजपेयी ने भी इस मामले में कुछ नहीं किया. 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्हें भी कुछ सांसदों ने विस्तृत जांच की मांग करते हुए 8 दिसंबर, 2004 को पत्र लिखा. मनमोहन सिंह ने इसका जवाब भी 13 दिसंबर, 2004 को दिया. 8 दिसंबर का पत्र लिखने वाले सांसदों में शामिल चंद्रमणि त्रिपाठी ने 21 मार्च, 2005 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को फिर से पत्र लिखकर बताया, ‘अभी तक मुझे कोई और जानकारी नहीं मिल पाई है जिससे मेरे पत्र लिखने का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया है. इस बीच रक्षा मंत्रालय के किसी अधिकारी ने मेरे निवास पर फोन द्वारा यह जानना चाहा था कि आपको प्रेषित मेरा पत्र क्या वास्तव में मेरे द्वारा लिखा गया था. जांच के दायरे में आए संबंधित विभाग द्वारा ऐसी परिस्थितियों में सांसद से संपर्क करना विचित्र लगा.’ रक्षा मंत्रालय का जो व्यवहार चंद्रमणि त्रिपाठी को विचित्र लगा और जिसकी जानकारी उन्होंने शिकायत के लहजे में प्रधानमंत्री को दी वह आरसी त्यागी के उस आरोप को मजबूती देती है कि इस मामले को दबाने के लिए कोई ताकतवर लॉबी अदृश्य तौर पर काम कर रही है.

इस बीच जब उस समय के रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी को पत्र लिखकर जांच की मांग की गई तो उन्होंने उन्हीं बातों को दोहराया जो बातें 1992 में उस समय के रक्षा मंत्री शरद पवार कह रहे थे. हालांकि 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने त्यागी के पक्ष में फैसला देकर शरद पवार को गलत साबित किया था लेकिन प्रणव मुखर्जी इसके बावजूद रहस्य पर पर्दा डालते रहे और उन्होंने त्यागी पर बेवजह सरकार को परेशान करने का आरोप लगाया. मुखर्जी ने भी शरद पवार की तरह ही इस सवाल पर चुप्पी साधकर रहस्य को और गहरा करने का काम किया कि खुद डीआरडीओ की एमआईआर और जनरल सपरा की रिपोर्ट पर रक्षा मंत्रालय ने अब तक क्या कार्रवाई की. त्यागी कहते हैं, ‘जब एके एंटोनी रक्षा मंत्री बने तो फिर मैंने इस पूरे मामले की जांच के लिए एक पत्र लिखा लेकिन अब तक मुझे इस पत्र का जवाब नहीं मिला है.’
इतना सब होने के बावजूद सरकार का इस मामले में विस्तृत जांच नहीं करवाना कई सवाल खड़े करता है. क्या विस्तृत जांच के लिए सरकार उस मौके का इंतजार कर रही है जब सेनाध्यक्ष वीके सिंह सरीखा कोई व्यक्ति सामने आकर कहे कि रक्षा सौदों में ही नहीं, रक्षा शोध एवं विकास में भी अदृश्य शक्तियां सक्रिय हैं? क्या मौजूदा प्रधानमंत्री के लिए उस वैज्ञानिक की बातों का कोई महत्व नहीं है जिसे खुद उन्हीं की पार्टी की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विशेष आग्रह के साथ नासा से भारत वापस बुलाया था?

रमेश चंद्र त्यागी के साथ जो कुछ हुआ उसका खामियाजा देश को कई तरह से भुगतना पड़ रहा है. इसमें मिसाइल के लिए जरूरी डिटेक्टर के लिए दूसरे देशों पर निर्भरता, बढ़े रक्षा खर्चे और कमजोर सैन्य तैयारी प्रमुख हैं. लेकिन इस घटना की वजह से नासा में काम कर रहे कई भारतीय वैज्ञानिकों ने भारत सरकार द्वारा अपने वतन लौटकर देशप्रेम की भावना के साथ काम करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया है. त्यागी कहते हैं, ‘नासा में एक तिहाई भारतीय काम करते हैं. इनमें कई ऐसे हैं जो अपने वतन के लिए काम करते हैं. सरकार समय-समय पर इनमें से कुछ को भारत वापस लाने की कोशिश भी करती है. लेकिन जिस वैज्ञानिक को भी मेरा हाल पता चलता है वह नासा में ही बने रहने का विकल्प चुनता है.’ खुद रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने 2008 में संसद में एक सवाल के जवाब में यह जानकारी दी थी कि डीआरडीओ हर साल तीन-चार बार विदेशों में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिकों को यहां लाने की कोशिश करता है.