लाली बचाने की अकुलाहट में लाल

 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के महासचिव बनाए जाने की घोषणा के ठीक बाद एस सुधाकर रेड्डी मीडिया से रूबरू होने बैठे. सहज सवालों का सिलसिला शुरू हुआ. मसलन, एकताबद्ध आंदोलन चलाने में वाम दलों के लिए क्या परेशानियां फंसती हैं? अगर किसी अन्य पार्टी के साथ मिलकर फ्रंट बनाना चाहते हैं तो ऐसे एक-दो दलों के संभावित नाम भी बताएं जो कांग्रेस अथवा भाजपा के खेमे में न हों, क्षेत्रवाद, जातिवाद से परे राजनीति कर रहे हों और आपके साथ आने को तैयार भी हों? हिंदी इलाके में आपके पास कभी बड़ा आकाश था, अब टिमटिमाते तारे हैं, क्या तैयारी है?

पता नहीं क्यों, इन सहज सवालों से ही रेड्डी असहज-से होते गए. हर सवाल के बाद बगल में बैठे पार्टी नेता अतुल कुमार नए महासचिव के कान में कुछ फुसफुसाते और रेड्डी जवाब दे देते. किसी बच्चे की तरह, जिसे गाय, नदी, हमारा देश आदि पर भाषण रटा दिया जाता है और स्कूल में वह बच्चा चढ़ती-उतरती सांस में उसे जल्दी-जल्दी बोलकर निश्चिंत-सा हो जाता है.

इस प्रसंग के जिक्र का आशय यह कतई नहीं कि भारत की सबसे पुरानी वामपंथी पार्टी का महासचिव बन जाने के बाद भी सुधाकर रेड्डी में राजनीति के ऐसे मसलों की अभी समझ नहीं आ सकी है. भाकपा के कैडर-कार्यकर्ताओं के अलावा अन्य लोग भी जानते और मानते हैं कि रेड्डी कुशल संगठनकर्ता रहे हैं. पिछले चार साल से वे एबी बर्धन के साथ उपमहासचिव के तौर पर पार्टी में काम करते रहे हैं. पार्टी में उनका योगदान भी महत्वपूर्ण रहा है. लेकिन यह प्रसंग इसका एक इशारा जरूर दे देता है कि खुद में बदलाव लाकर मजबूती की तरफ बढ़ने की इच्छा के बावजूद वाम दलों के पास कोई स्पष्ट खाका नहीं है कि यह होगा कैसे.

27 से 31 मार्च तक पटना में चले भाकपा के 21वें महाधिवेशन में ये संकेत कई बार दिखे. भाकपा, माकपा, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक और भाकपा माले के शीर्षस्थ नेताओं द्वारा छेड़े गए राग के बाद भाकपा नेता रटते रहे कि अब सभी वामदल एकताबद्ध संघर्ष करेंगे, आंदोलन करेंगे, खोई ताकत वापस पाएंगे. नई जमीन तलाशेंगे. लेकिन यह सब होगा कैसे, इसका कोई स्पष्ट खाका पेश किए बगैर महाधिवेशन निपट गया.

भाकपा के महाधिवेशन में तो फिर भी एकता की बात हुई. सभी प्रमुख वामदल एक मंच पर दिखे भी. लेकिन इसके चार दिन बाद ही केरल के कोझीकोड़ में एकता का यह राग टूटता-सा दिखा. मौका था सबसे बड़ी सत्ताधारी वाम पार्टी माकपा के 20वें महाधिवेशन का. माकपा महासचिव प्रकाश करात यह भूल गए कि चार दिन पहले ही हिंदी पट्टी के अहम गढ़ पटना में भाकपा, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक औप भाकपा माले के शीर्षस्थ नेताओं के साथ उन्होंने मंच पर हाथ उठाकर कहा था कि सब भेद भुलाकर वे एकता दिखाएंगे. लेकिन अपनी पार्टी के महाधिवेशन में उन्होंने भाकपा माले जैसी पार्टी को न्योता नहीं दिया. यह जानते हुए भी कि पिछले दो दशक से माले ही बिहार-झारखंड में वामदलों का मुख्य चेहरा बनी हुई है और अपने तरीके से संघर्षरत भी है. जानकारों के मुताबिक यह बात भाकपा माले के नेता को न्यौता देने से ज्यादा नजरिये की है. देश के अलग-अलग हिस्से में कई छोटे-बड़े वाम दल अपने तरीके से राजनीतिक आंदोलन चला रहे हैं और जमीन भी तैयार कर रहे हैं. भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य कहते हैं, ‘बंगाल-केरल में सत्ता गंवाने के बाद अब तो माकपा को संकीर्ण नजरिया बदलकर दादागिरी को कम करना चाहिए ताकि एकताबद्ध होने के द्वार खुल सकें.’

फिलहाल वाम दलों ने चुनावी राजनीति में लगातार अपनी जमीन गंवाई है. आगे अंधेरा दिख रहा है. बहुत हद तक इसीलिए दोनों प्रमुख वामदलों में लाल झंडे की लाली बचाए रखने की अकुलाहट और बेचैनी भी परवान पर दिख रही है. लेकिन दोनों दल आज भी आगे की रपटीली राह पर चलने के लिए दुविधा और असमंजस से बाहर नहीं निकल पा रहे. न ही वे अपनी कमजोरियों के आकलन में ईमानदारी दिखा पा रहे हैं.

पटना के भाकपा अधिवेशन में जब आगे संघर्ष के जरिए रास्ता तलाशने की बात हुई तो इसका जवाब नहीं तलाशा जा सका कि जिस बिहार में कभी भाकपा के 30 से अधिक विधायक हुआ करते थे, वहां अपनी किन-किन गलतियों की वजह से अब पार्टी सिर्फ एक सीट पर सिमट गई है. हिंदी पट्टी के सबसे बड़े गढ़ उत्तर प्रदेश में 2002 के बाद से वाम दल खाता भी क्यों नहीं खोल पा रहे हैं. भाकपा ने अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में यह भी याद नहीं किया कि कभी उत्तर प्रदेश में उनकी इतनी पकड़ हुआ करती थी कि 1989 में जब राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा उफान मचा रही थी तब भी फैजाबाद से लोगों ने भाकपा का सांसद चुनकर भेजा था और देश को चौंका दिया था. खिसकी हुई मजबूत जमीन फिर कैसे हासिल होगी इसके जवाब में बार-बार रटी-रटाई शब्दावलियों का इस्तेमाल किया जाता रहा. हर बार संघर्ष की बात होती और फिर एक रटा-रटाया वाक्य कि सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता और जातीयता ने हमारी जमीन को मारा. भाकपा के नए महासचिव सुधाकर रेड्डी इस बात का जवाब भी नहीं दे सके कि आज जब देश भर में पंचायत से लेकर संसद तक की राजनीति में महिलाओं को प्रमुखता देने की परंपरा बन रही है तो पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में महिलाओं की संख्या रखने में औपचारिकता-सी क्यों निभाई गई. देश की आबादी में 55 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले युवाओं को पार्टी से जोड़ने के लिए एबी बर्धन जैसे नेता ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन और ऑल इंडिया यूथ फेडरेशन मंच की दुहाई देते रहे. जबकि यह सच वे भी जानते हैं कि युवाओं में एक बड़ी आबादी पेशेवरों की भी है और वह भी इस नवउदारवादी व्यवस्था से त्रस्त है. उसे भी वाम का कोई मंच चाहिए, लेकिन आज के हिसाब से. हाल के वर्षों में उभरा मध्यवर्ग इस धारा से कैसे जुड़ेगा, यह मसला भी दरकिनार रहा. और इस सबके बाद हिंदी इलाके के लिए अलग से कोई कार्यक्रम तक तय नहीं हो सका कि आखिर अपने पुराने गढ़ के लिए क्या रणनीति होगी. इस बाबत पूछने पर भाकपा के नए महासचिव सुधाकर रेड्डी बस इतना भर कहते हैं कि वे महिलाओं को प्रमुखता देंगे, युवाओं के लिए भी अलग से सोचेंगे और हिंदी इलाके के लिए एक अलग प्रोग्राम तैयार करेंगे!

गा-गे-गी यानी भविष्यकाल के वाक्यों में उलझाए रखने की राजनीति वामदलों की परंपरा में नहीं रही है लेकिन भाकपा इसका सहारा लेते हुए साफ दिखी.

कोई भी वाम दल अपने स्पेस में दूसरे वाम दल की सेंधमारी के लिए कतई तैयार नहीं

माकपा के महाधिवेशन में भी वाम दलों के एकताबद्ध आंदोलन का संकल्प दुहराया गया लेकिन वह एक किस्म का भाषण जैसा ही लगा. जानकारों का मानना है कि लगातार सत्ता में रहने की वजह से माकपा अब भी वाम दलों में खुद के श्रेष्ठताबोध से बाहर नहीं निकल पाई है. और यह तय है कि उसकी अकड़ अगर बरकरार रही तो फिर वही वामदल एकताबद्ध होंगे जो वर्षों से सत्ता के लिए एकताबद्ध होते रहे हैं.

भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच कब-कब, किन बिंदुओं पर असहमति के स्वर उभरे और फटाफट अलग पार्टियों का निर्माण हो गया, इस पर नजर दौड़ाने पर दिलचस्प तथ्य सामने आते हैं. भाकपा से टूटकर माकपा बनी. माकपा से  माले वाया आईपीएफ. फिर उससे 17 अलग-अलग पार्टियां. इसी धारा से माओवादियों वाली पार्टी भी. अब माओवादियों के भी दो दर्जन समूह हैं. सभी अपने-अपने तरीके से जिंदा हैं, अपने-अपने लाल झंडे के साथ. लोकतांत्रिक वाम दलों की बात करें तो चुनाव के दौरान इन सबके घोषणा पत्र देखने पर बहुत हद तक समानता नजर आती है. लेकिन एक ही मूल से निकलने के बावजूद एक महीन रेखा इन्हें अलग-अलग छोर पर बनाए रखती है. भाकपा या माकपा जब एकताबद्ध होने की बात दुहराती हैं तो दो दलों की बात ही प्रमुखता से आती है या अधिक से अधिक फॉरवर्ड ब्लॉक और आरएसपी मिलाकर चार दलों की, जो पश्चिम बंगाल, केरल या यूपीए वन में सत्ता की साझेदार रही हैं. इससे देश के अलग-अलग हिस्से में संघर्षरत छोटे वाम दल खुद को किनारे कर लेते हैं. भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य कहते हैं कि सत्ता और मोल-तोल के लिए वामदल साझा मंच पर तो आते ही रहे हैं लेकिन संघर्ष के लिए साथ आने का स्वरूप अलग होता है. यह देखा भी गया है कि जब देश में चार वाम दल सत्ता की साझेदारी निभा रहे थे तब कई वाम दल एक अलग से कोऑर्डिनेशन कमेटी बनाकर अलग-अलग हिस्सों में संघर्ष भी कर रहे थे. इसमें बिहार-झारखंड के इलाके में सक्रिय भाकपा माले, पंजाब में सीपीएम पंजाब, दार्जिलिंग के इलाके में सीपीआरएम, महाराष्ट्र में महाराष्ट्र लाल मिशन पार्टी आदि शामिल हैं.

पहचान की राजनीति के युग में वाम दलों के बीच एकताबद्ध होने में जो पहला पेंच फंसता है, उसके मूल में दो-चार बनाम अन्य आड़े आते हैं. दूसरे, एकता के नाम पर कोई वाम दल अपने स्पेस में दूसरे वाम दल की सेंधमारी के लिए कतई तैयार नहीं. भाकपा के एबी बर्धन कहते भी हैं, ‘यही तो सबसे बड़ा असमंजस है कि सभी वाम दल लाल झंडे के साथ उतरते हैं और आपस में लड़ते हैं. जनता लाल झंडे को लेकर दुविधा में पड़ जाती है.’

हालांकि तमाम मुश्किलों के बीच भी संभावनाओं की कई खिड़कियां दिखती हैं. इस साल 28 फरवरी को राष्ट्रव्यापी एक दिन की मजदूरों की हड़ताल हुई तो उससे साफ हुआ कि वाम दलों में अब भी ताकत बची हुई है. उस रोज देश का एक बड़ा हिस्सा ठहर गया था. हालांकि उस हड़ताल में सभी ट्रेड यूनियनें शामिल थीं, लेकिन इसकी अगुवाई वाम संचालित यूनियनें ही कर रही थीं. भाकपा के वरिष्ठ नेता गुरुदास दास गुप्ता कहते हैं, ‘भले ही चुनावी राजनीति में हम पीछे रह गए लेकिन आज ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन बन गई है. इससे संभावना बेहतर दिखती है. ‘वाम विचारधारा वाली पत्रिका जनशक्ति के संपादक यूएन मिश्र कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में अचानक अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के उभार से यह साफ हुआ है कि नब्ज पर उंगली रखी जाए तो जनता कभी भी करवट लेकर साथ आ सकती है. अगर खेती, रोजगार, भूमि सुधार, विस्थापन आदि सवालों के साथ नव उदारवादी व्यवस्था से नित्य उभर रहे खतरों से जनता को आगाह करने में हम सफल रहे तो जनता फिर हमारे साथ आएगी. समाज में बढ़ती बेचैनी, असमानता, बेरोजगारी और धार्मिकता तथा उग्रवादियों का अतिवाद सेचुरेशन की स्थिति में पहुंच रहा है. ऐसे में वाम एक विकल्प दिखता है.’

मिश्र बात तो सही कहते हैं. आज भारतीय राजनीति में नेताओं और दलों के भ्रष्टाचार का दलदल जिस तरह से बढ़ता दिख रहा है उसमें वाम दल और वाम नेता आज भी कतार से अलग खड़े नजर आते हैं. लेकिन आखिर में फिर वही बात कि बच्चे की तरह रटकर पढ़ने वाला स्टाइल बदलना होगा. सिर्फ संघर्ष-संघर्ष रटते रहने की बजाय सृजन के रास्ते भी दिखाने होंगे. वरना ऊहापोह और भटकाव वाले इस युग में बहुतेरे यह भी समझ बैठेंगे कि समग्रता में 90 की उम्र पार करने के बावजूद भारत में वामपंथी दल उस स्कूली बच्चे की तरह हो गए हैं, जिसे सिर्फ गाय पर लेख लिखना आता है. स्कूल की परीक्षा में नदी पर भी लेख लिखने का प्रश्न आने पर वह घुमा-फिराकर गाय पर ही पहुंचने की कोशिश करता है, जैसे- मेरे गांव के पास एक नदी बहती है, उसके किनारे एक गाय चरने आती है, उसके चार पांव होते हैं, वह घास खाती है..