ताम्र पत्र पर नोटों वाले गांधी की हसरत

मंत्री जी ने इबारत पढ़ी. शेर और गांधी के चित्र देखे. मुंह बिचकाया. कहा कि ये तो गांधी जी जैसे नहीं लगते.किस्सा यूं इतना पुराना नहीं है, पर थोड़ी बास तो इससे आ ही सकती है.कोई चार बरस पहले की बात है. केंद्र में यही सरकार थी, पर तब किसी राजा, किसी रानी या किसी लोकपाल के संग्राम नहीं चल रहे थे. रामलीला ग्राउंड में बस राम की ही लीला होती थी. ऐसे शांत वातावरण में सरकार को अचानक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की याद आ गई. सरकार भावुक हो गई थी. अचानक उसे कर्तव्य ने पुकारा कि बिना वक्त गंवाए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का सम्मान कर डालना चाहिए.

सरकार ने इतना शानदार सपना देखा था पर उसके सपने इतनी आसानी से पूरे नहीं हो सकते. उन्हें पूरा करने के लिए एक समिति बनानी पड़ती है. लोकतंत्र का तकाजा है – सबसे पूछकर, राय लेकर काम करो.

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी शायद नहीं जानते होंगे कि इस देश को आजाद करने के लिए उन्होंने जो अपनी जवानी, अपनी जान झोंकी थी, तो आजादी के बाद उनकी ये सारी सेवाएं कहां दर्ज होने वाली हैं. पुलिस के पास! आजादी के दीवानों की सारी जानकारी आज पुलिस के दीवान के पास ही दर्ज है. पहले फाइल में उनका नाम एक अपराधी की तरह दर्ज था. आजादी के बाद उस पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पर्ची चिपका दी गई.

सब कुछ बहुत जल्दी ही कर देना था. 60-62 बरस पहले जो संग्राम लड़ा गया था उसमें कोई क्रांतिकारी यदि दस बरस की उम्र में भी शामिल हुआ होगा तो अभी उसकी उम्र 80 के पार होनी चाहिए. ऐसे सेनानियों के सामने सिर झुका कर अपना आभार प्रकट करने के लिए उत्सुक खड़ी सरकार को यह भी पता था कि एक-एक दिन कितना कीमती है. देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने वालों को भगवान लंबी उम्र दे, पर सरकार को यह आशंका भी थी कि उस संग्राम को जीतने वाले ये सेनानी अब किसी भी दिन जीवन संग्राम हार सकते हैं.

इसलिए सारे फैसले आनन-फानन में लिए गए. इस समिति में कौन-कौन, किस-किस कारण से होगा – इसका बड़ी बारीकी से ध्यान रखा गया. गठजोड़ सरकार की मजबूरी आड़े नहीं आने दी गई और न भाड़े के लोग. बड़े भत्तों पर आने वाले विशेषज्ञ रखे गए. फोन पर ही सदस्यों को इस पुनीत काम की जानकारी दी गई. तभी उनके योगदानों की चर्चा की गई और सदस्य बनने की हामी ले ली गई. सरकारी मुहर वाले पत्र बहुत बाद में भेजे गए. इन सदस्यों के नाम? ये ज्यादा नामी लोग नहीं थे. एक-आध ऐसे नाम थे भी तो वे शुरू की तैयारी में अपनी व्यस्तता के कारण आ ही नहीं पाए. समिति के अध्यक्ष स्वयं गृहमंत्री और सदस्य सचिव गृह मंत्रालय के सचिव थे. समिति में शेष लोग ऐसे ही रखे गए थे जो बिना वक्त गंवाए सरकार को बता सकें कि यह सम्मान का सपना कैसे पूरा होगा.

एक बार फिर दोहरा लें कि समय बहुत कम था. गृहमंत्री बहुत ज्यादा व्यस्त थे. इसलिए उत्साही गैरसरकारी सदस्यों ने गृह-सचिव को सुझाव दिया कि प्रारंभिक बैठकें बिना अध्यक्ष के हो जाएं तो कोई हर्ज नहीं. एक साफ-सुथरी रूपरेखा या ढांचा बन जाए तो फिर उस पर गृहमंत्री की मुहर लगती रहेगी.

सबसे जरूरी बातें शुरू की दो बैठकों में तय हुईं जो गृह मंत्रालय के बदले गैरसरकारी सदस्यों के छोटे-मोटे दफ्तरों में दो-चार कुर्सियां यहां-वहां से खींचकर संपन्न की गई थीं. तय हुआ कि सम्मान में स्वतंत्रता सेनानी को एक सुंदर ताम्र पत्र देना चाहिए. उसका नाप, तौल, वजन, लंबाई, चौड़ाई सब दर्ज हो गया. पांच पंक्तियों के पचास सुंदर शब्दों में इबारत लिख ली गई. एक तरफ शासन का प्रतीक तीन शेर थे तो दूसरी तरफ गांधी जी का ‘एकला चलो’ वाला श्री नंदलाल बसु का गरिमा भरा रेखाचित्र.

सारे निर्णय फटाफट होते रहे. अचानक तीन बातों पर जाकर सारी बातचीत अटक गई. ताम्र पत्र पर दस्तखत किसके होंगे, कुल कितने ताम्र पत्र छपेंगे और शासन की तरफ से किस जगह पर सेनानियों का सम्मान किया जाएगा? मिली जुली सरकार पर संकट के कई मिले जुले बादल आ गए. दस्तखत प्रधानमंत्री के होंगे या गृहमंत्री के. ताम्र पत्र पर एक बार दस्तखत हो गए तो वे फिर न ही मिटाए जा सकते और न ही बदले जा सकते हैं.

तय हो गया था कि तीन शेर राज्य का प्रतिनिधित्व करेंगे और दांडी वाले गांधी समाज का. इसलिए समिति की राय थी कि शासन की तरफ से किसी का दस्तखत न भी हो तो काम चलना चाहिए. इतनी सारी चीजें तैयार करने के बाद तीसरी बैठक में पहली बार गृहमंत्री आए. उनके सामने रखी फाइल खोली सचिव महोदय ने. मंत्री जी ने इबारत पढ़ी. शेर और गांधी के चित्र देखे. मुंह बिचकाया. कहा कि ये तो गांधी जी जैसे नहीं लगते.

बैठक में सन्नाटा छाया रहा थोड़ी देर. एक गैरसरकारी सदस्य ने पटाने की कोशिश की कि ये गांधी जी शांति निकेतन से निकले महान कलाकार नंदलाल बसु के बनाए हुए हैं. बेदाग, कड़क सफारी पहने मंत्री जी पर इस कलाकार के नामी ब्रश का कोई धब्बा भी नहीं पड़ सका. बिना प्रभावित हुए उन्होंने कहा, ‘नोटों पर गांधी जी जैसे साफ-साफ दिखते हैं वैसा बनाइए.’ इबारत, दस्तखत आदि की बारीकियों में गए बिना बैठक खत्म हो गई. चार मिनट चली यह बैठक.

अगली बैठक में मंत्रालय के सचिव बदल गए. नए जो आए उन्हें सदस्यों ने फिर पूरी कहानी बताई. यह भी कि नोट वाले गांधी कागज पर छपते हैं, ताम्र पत्र पर वैसे बारीक गांधी छप नहीं सकते. नंदलाल जी वाले गांधी सबसे सुंदर और व्यावहारिक दिखेंगे. सचिव को बात नहीं जमी. मंत्री जी की राय से उनकी राय भला कैसे अलग होती.

इसी बीच मुंबई में आतंकवादियों ने जगह-जगह हमले किए. गृहमंत्री भी वहां गए और कीचड़ में उतरे या नहीं, इसे लेकर बड़ा विवाद उठा. गृहमंत्री जी भी बदल दिए गए. नए जो आए उन पर और भी कई जिम्मेदारियां थीं. सो, इस पुरानी समिति की फाइल नए गृहमंत्री की मेज पर कभी दोबारा नहीं रखी गई.

ताम्र पत्र, राष्ट्र की तरफ से कृतज्ञता भरी छोटी-सी प्यार भरी इबारत और नंदलाल बसु के गांधी जी अकेले ही चलते रहे. और नोट पर छपे गांधी!

इस बीच कुछ लाखों-करोड़ों के हुए घोटाले की बास इतनी तेजी से उठी है कि इस छोटे से किस्से की बास भला किसे आने वाली.