सबसे बड़ी अदालत में पैरवी के पेंच

न्याय व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने के मकसद से न्यायिक सुधारों की बात चल रही है. न्यायाधीशों की जवाबदेही तय करने के लिए न्यायिक जवाबदेही विधेयक लाने की बात भी हो रही है. लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत की स्थितियां देखी जाएं तो साफ लगता है कि सुधार की जरूरत सिर्फ जजों के स्तर पर नहीं बल्कि वकीलों के स्तर पर भी है.

सभी वकीलों को उच्चतम न्यायालय में मुकदमा लड़ने का अधिकार देने वाला कानून एडवोकेट्स ऐक्ट (अधिवक्ता अधिनियम) 1961 में बना था. इस कानून की धारा 30 के तहत सभी वकीलों को बगैर किसी भेदभाव के देश के सभी अदालतों में वकालत करने का अधिकार देने का प्रावधान किया गया था. लेकिन 50 साल बाद भी यह अधिकार दूर की कौड़ी बना हुआ है. इसकी वजह यह है कि 50 साल तक तो इस धारा से संबंधित अधिसूचना जारी नहीं हुई. काफी जद्दोजहद के बाद 2011 में अधिसूचना तो जारी हो गई मगर एक और नियम के पेंच में फंसकर मसला वहीं का वहीं है. यानी सर्वोच्च न्यायालय में बगैर भेदभाव के सभी वकीलों को मुकदमा लड़ने का अधिकार अब तक नहीं मिला है. इसके चलते यहां वकीलों की एक खास श्रेणी का एकाधिकार बना हुआ है. कानून के जानकार बताते हैं कि इस वजह से देश की सर्वोच्च अदालत में वकीलों के स्तर पर कई तरह की गड़बड़ियां हो रही हैं. सम्मानपूर्वक वकालत करने के अपने हक के लिए सुप्रीम कोर्ट के हजारों वकील कानूनी संघर्ष कर रहे हैं.

उच्च न्यायालय तक के स्तर तक कोई भी वकील मुकदमा पेश कर सकता है और उसकी पैरवी कर सकता है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में आपको किसी एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के रूप में पंजीकृत वकील को ही अपना वकील नियुक्त करना होगा. एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड अदालत और आपके बीच का माध्यम होता है. सिर्फ वही अदालत में कोई मुकदमा या आवेदन, दस्तावेज, जवाब आदि पेश कर सकता है. यदि उसी मुकदमे में आपकी तरफ से कोई दूसरा वकील भी बहस के लिए उपस्थित होने वाला है तो उसकी सूचना अदालत को लिखित में आपका एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड ही देगा.

लेकिन ऐसा क्यों है? इसे समझने के लिए उच्चतम न्यायालय के गठन और यहां वकालत करने के नियमों की पृष्ठभूमि जानना जरूरी है. ब्रिटिश राज के दरम्यान काफी समय तक भारत में सर्वोच्च अदालत जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी. भारत से संबंधित मामलों में आखिरी न्यायिक फैसले का अधिकार ब्रिटेन स्थित ज्यूडिशियल कमिटी ऑफ प्रिवी काउंसिल के पास था. इसके काम-काज के लिए पहले 1920 में एक कानून बना और बाद में फिर 1925 में एक कानून बनाया गया. इसके तहत ‘एजेंट’ की व्यवस्था कायम की गई. इस व्यवस्था के तहत होता यह था कि जिसका भी मुकदमा सुनवाई के लिए लंदन जाता था उसका वकील वहां एक ‘एजेंट’ नियुक्त करता था. आसान शब्दों में समझें तो यह ‘एजेंट’ प्रिवी काउंसिल और वकील के बीच की कड़ी होता था. कोई भी दस्तावेज न्यायालय को देना हो या फिर न्यायालय को कोई सूचना संबंधित वकीलों तक पहुंचानी होती थी तो इसका माध्यम ‘एजेंट’ था.

कानून के जानकार बताते हैं कि इस वजह से देश की सर्वोच्च अदालत में वकीलों के स्तर पर कई तरह की गड़बड़ियां हो रही हैं

1937 में भारत में फेडरल कोर्ट की स्थापना हुई. यह दिल्ली में था. उस वक्त दिल्ली में किसी उच्च न्यायालय की कोई पीठ नहीं थी, इसलिए यहां नए सिरे से बार के गठन की जरूरत महसूस की गई. इसके बाद फेडरल कोर्ट ने खुद ही अपने नियम बनाए और वकीलों को तीन श्रेणियों में बांटा–सीनियर एडवोकेट, एडवोकेट और एजेंट. इसमें एजेंट की भूमिका वही रखी गई जो प्रिवी काउंसिल में थी. आजादी के बाद फेडरल कोर्ट को प्रिवी काउंसिल के सारे अधिकार दे दिए गए.

28 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान के अंतर्गत दिल्ली में ही सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई. संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत उच्चतम न्यायालय को अपने काम-काज के संचालन के लिए नियम बनाने का अधिकार दिया गया है. इसी अधिकार के तहत शीर्ष अदालत ने 1950 में ‘सुप्रीम कोर्ट रूल्स’ बनाए. वकीलों के काम-काज के लिए यहां भी फेडरल कोर्ट के नियमों को आधार मानकर फेडरल कोर्ट के सारे एजेंटों को सुप्रीम कोर्ट ने भी एजेंट का दर्जा दे दिया. गौरतलब है कि उस समय भी यह व्यवस्था कायम रखी गई कि न तो एजेंट वकील का काम कर सकता है और न ही वकील एजेंट का काम कर सकता है. 1951 में फिर एक कानून बना जिसके जरिए सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहे वकीलों को उच्च न्यायालयों में वकालत करने की भी अनुमति दे दी गई. 1954 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने नियमों में संशोधन किया और ‘एजेंट’ का नाम बदलकर ‘एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड’ कर दिया. दरअसल उस वक्त कई लोग यह मांग उठा रहे थे कि एजेंट शब्द सुनने में अच्छा नहीं लगता इसलिए इसे बदला जाए. इस संशोधन के जरिए एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को वकीलों वाले अधिकार यानी मुकदमा लड़ने का अधिकार भी मिल गया. लेकिन वकीलों को एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड का अधिकार नहीं मिला. इसके बाद 1958 में लॉ कमीशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट आई जिसमें यह सिफारिश की गई कि भारत के हर वकील को हर कोर्ट में वकालत करने का अधिकार दिया जाना चाहिए. इस सिफारिश के आधार पर संसद ने 1961 में एडवोकेट्स एेक्ट बनाया. इसकी धारा 30 के तहत हर वकील को देश की हर अदालत में वकालत करने का अधिकार देने का प्रावधान किया गया. लेकिन 50 साल से अधिक वक्त गुजरने के बावजूद इस प्रावधान को अब तक लागू नहीं किया जा सका है. इसकी वजह यह रही कि कानून बनाने के 50 साल बाद भी पहले तो सरकार ने इसकी अधिसूचना जारी नहीं की. पिछले साल अधिसूचना जारी हुई भी तो इसके बाद मामला एक और कानूनी पेंच में अटका हुआ है.

अपने इस अधिकार को हासिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने जो संस्था बनाई है उसके एक प्रमुख सदस्य रवि शंकर कुमार आरोप लगाते हैं, ‘धारा 30 की अधिसूचना जारी करने में सरकारों ने तो हीलाहवाली की ही लेकिन सबसे नकारात्मक भूमिका रही सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड की. उनका आरोप है कि इस धारा के लाभ से देश भर के वकीलों को वंचित रखने के लिए एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन तरह-तरह के हथकंडे अपनाती रही है.’

इस बीच 1985, 1988 और 2003 में कम से कम तीन मौके ऐसे आए जब सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान पर टिप्पणी करके इस ओर कार्यपालिका का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की. इसके बावजूद उस प्रावधान को लागू करने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई. 19 अप्रैल, 2011 को वरिष्ठ अधिवक्ता और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के उस समय के अध्यक्ष राम जेठमलानी ने कानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली को पत्र लिखकर उस प्रावधान की अधिसूचना जारी करने का अनुरोध किया. इस पत्र में जेठमलानी ने लिखा था, ‘देश में वकालत करने वाले सभी लोगों को इस बात पर घोर आपत्ति है कि कानून पारित होने के 50 साल से अधिक वक्त गुजरने के बावजूद धारा 30 लागू नहीं की गई. यह संसद का अपमान है और कानूनी पेशे का गंभीर नुकसान है.’ उन्होंने आगे लिखा, ‘आपके रूप में एक ऐसा कानून मंत्री है जिसने खुद वकालत की है. इसलिए आपसे मुझे यह उम्मीद है कि आप इन आपत्तियों की कानूनी वैधता को समझेंगे और बगैर समय गंवाए इस बारे में जरूरी कदम उठाएंगे.’

जेठमलानी की चिट्ठी के बाद कानून मंत्रालय हरकत में आया और दो महीने के भीतर भारत सरकार ने धारा 30 लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी. तारीख थी नौ जून, 2011. अधिसूचना में कहा गया कि एडवोकेट्स एक्ट, 1961 की धारा-30 को 15 जून, 2011 से लागू किया जाता है. इसके बाद 1966 के सुप्रीम कोर्ट रूल्स का वह नियम अप्रासंगिक हो गया जिसके तहत एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को विशेष अधिकार दिए गए थे. इसके तहत सीनियर एडवोकेट और अन्य एडवोकेट को सुप्रीम कोर्ट में वकालत का अधिकार तो था लेकिन वे कोई मुकदमा खुद दायर नहीं कर सकते थे और इसके लिए उन्हें एडवोकेट ऑन रिकॉर्डस का सहारा अनिवार्य तौर पर लेना था. जबकि एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड मुकदमा दायर करने के अलावा खुद ही उसकी पैरवी भी कर सकते थे

धारा 30 को लागू करवाने के लिए संघर्षरत वकीलों का आरोप यह भी है कि एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड का दर्जा देने की प्रक्रिया में भी कई खामियां हैं

अधिसूचना के बाद मसला हल हो जाना था. लेकिन समस्या जस की तस है. सवाल उठता है कि अधिसूचना जारी होने, हजारों वकीलों के संघर्षरत रहने और इस व्यवस्था में इतनी खामी होने के बावजूद नई व्यवस्था क्यों नहीं कायम हो रही है? इस बारे में बात करते हुए रवि शंकर कुमार कहते हैं, ‘आधिकारिक वजह यह है कि धारा-30 लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट रूल्स में संशोधन करना अनिवार्य है और इसके लिए संबंधित सुझावों को रूल्स कमिटी के पास भेजा गया है. लेकिन अनाधिकारिक वजह यह है कि एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन अब भी इस बात को लेकर सक्रिय है कि किसी भी तरह इसे लागू नहीं होने दिया जाए ताकि उसका एकाधिकार बना रहे. यही वजह है कि अधिसूचना जारी होने के बाद नौ महीने से अधिक वक्त गुजरने के बावजूद अब तक इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है.’

मुकदमा दायर करने के मामले में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के एकाधिकार की वजह से कई तरह की दिक्कतें पैदा हो रही हैं. कुमार कहते हैं, ‘कई मौकों पर अदालत ने इस बात को स्वीकार किया है कि इस श्रेणी के वकील याचिका पर दस्तखत करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ले रहे हैं और इसका नतीजा यह हो रहा है कि याचिका दायर करने वाले, उसके वकील और अदालत के बीच में कई मामलों में खाई पैदा हो रही है. मुकदमों को लेकर किसी जिम्मेदारी का अहसास एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड में नहीं रह रहा है.’ इसका खामियाजा उन लोगों को भुगतना पड़ रहा है जो न्याय की आस में उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाते हैं. भारतीय संविधान के तहत हर नागरिक को समान न्याय और अपनी पसंद का वकील रखने का अधिकार मिला हुआ है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के नियम इस अधिकार के आड़े आ रहे हैं. क्योंकि मौजूदा व्यवस्था के तहत न चाहते हुए भी लोगों को एक एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के पास जाना पड़ रहा है, भले ही वह मुकदमा लड़े या नहीं. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट से न्याय हासिल करने में उन पर दोहरा आर्थिक बोझ भी पड़ रहा है. उन्हें पहले तो अपनी पसंद के वकील को फीस का भुगतान करना पड़ रहा है और तकनीकी वजहों से एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को भी पैसा देने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है.

धारा-30 को लागू करवाने के लिए संघर्षरत वकीलों का आरोप यह भी है कि एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड का दर्जा देने की प्रक्रिया में भी कई खामियां हैं. एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के तौर पर खुद को पंजीकृत करवाने के लिए वकीलों को एक लिखित परीक्षा से गुजरना पड़ता है जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति लेती है. कुमार कहते हैं, ‘इस समिति के कई सदस्य ऐसे हैं जो दशकों से अपने पद पर बने हुए हैं. इस प्रक्रिया की एक सबसे बड़ी खामी यह है कि समिति के सदस्यों की नियुक्ति के लिए कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं हैं. बुक कीपिंग और अकाउंट्स जैसे कई ऐसे विषयों की परीक्षा ली जाती है जिनकी अब कोई प्रासंगिकता नहीं है.’ इन वकीलों का आरोप है कि इन खामियों की वजह से एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड की नियुक्ति में मनमानी चल रही है और परीक्षा की पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है. उनका दावा है कि अगर इस परीक्षा की जिम्मेदारी किसी निष्पक्ष एजेंसी को दे दी जाए तो आधे से अधिक एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड फेल हो जाएंगे. इन वकीलों का यह भी आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट में जो चैंबर एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को आवंटित किए गए हैं उन्हें किराये पर चढ़ाकर कमाई की जा रही है. उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट के नियमों के मुताबिक दस चैंबरों में से सात एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड को, एक वरिष्ठ वकील को और दो अन्य वकीलों को आवंटित करने का प्रावधान है. इस नियम की वजह से अधिक चैंबर एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड के पास हैं. कुमार कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने वाले वकीलों की कुल संख्या तकरीबन 10,000 है. वहीं सर्वोच्च अदालत में अब तक करीब 2,000 एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड बने हैं. इनमें से बमुश्किल अभी 1,200 एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड सुप्रीम कोर्ट में सक्रिय हैं. इस तरह से देखा जाए तो देश की सबसे बड़ी अदालत में मुकदमा लड़ने का रास्ता इन्हीं 1,200 लोगों के हाथों से होकर जाता है.’