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आगे रास्ता खराब है

अपना ही खेल बिगाड़ना कोई कांग्रेस से सीखे. उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव की तैयारियों और फिर नतीजों के बाद जो हुआ उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है. अपनी चूकों से पार्टी ने पहले तो एकतरफा लग रहे मैच को रोमांचक बना दिया. फिर किसी तरह भाजपा से एक सीट ज्यादा जीतकर मैच उसके हाथ आया भी तो उसके बाद उसने ऐसे फैसले लिए कि उसकी खासी फजीहत होगई है. फिलहाल अंदरूनी खींचातानी के बावजूद भले ही विजय बहुगुणा सरकार के पास बहुमत दिख रहा हो, लेकिन घटनाएं जिस तरह से घटी हैं उससे साफ लगता है कि मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के लिए आगे की राह मुश्किल होगी.

सबसे पहले तो बहुगुणा को छह महीने के भीतर विधानसभा का चुनाव लड़ना है. पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी लोकप्रियता के शिखर पर होने के बावजूद चुनाव हार गए थे. इसलिए मुख्यमंत्री की जीत सुनिश्चित मान कर चलना अब कठिन है. अगले ही साल यानी 2013 में राज्य में स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव होंगे. इनमें भी नए मुख्यमंत्री की परीक्षा होगी. इसके बाद सबसे बड़ी चुनौती का नंबर है यानी 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव. इस समय राज्य की पांचों सीटों पर कांग्रेसी सांसद हैं. गौरतलब है कि पिछली बार भाजपा की खंडूड़ी सरकार के खिलाफ पहले दिन से चल रहा आंतरिक असंतोष सत्ता परिवर्तन में तभी बदला जब लोकसभा चुनाव के नतीजे पार्टी के खिलाफ गए.

बहुगुणा के सामने सभी गुटों और निर्दलीयों के बीच संतुलन बैठाना भी बड़ी समस्या होगी. उनकी कैबिनेट में अनुभवी इंदिरा हृदयेश, यशपाल आर्य, सुरेंद्र सिंह नेगी और प्रीतम सिंह जैसे कद्दावर नेता हैं. पिछली विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे हरक सिंह रावत के कैबिनेट में शामिल होने के बाद तो स्थितियां और भी चुनौतीपूर्ण होंगी. हाल के घटनाक्रमों से साफ है कि पार्टी के भीतर हरीश रावत गुट को तरजीह दी जा रही है. सूत्रों के मुताबिक इसकी वजह से बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने में समर्थन देने वाले कांग्रेस नेता सतपाल महाराज और राज्य में पार्टी के अध्यक्ष यशपाल आर्य के गुट खुलेआम अपना असंतोष प्रकट करने लगे हैं. उधर, मझोले कद के दर्जन भर कांग्रेसी विधायकों के दिल में मंत्री न बन पाने की कसक भी है. इसके अलावा बहुगुणा को सबसे पहले समर्थन देने वाले निर्दलीय दिनेश धनै भी मंत्री न बन पाने के बाद असंतुष्टों की भाषा बोल रहे हैं.

उत्तराखंड राज्य का निर्माण विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण हुआ था. लेकिन नए मंत्रिमंडल में राज्य के 13 में से छह धुर पहाड़ी जिलों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है

भले ही हरीश रावत और विजय बहुगुणा अब बयान दे रहे हों कि सरकार पूरे पांच साल चलेगी, लेकिन महीने भर की घटनाओं और इस दौरान आए असंतुष्ट कांग्रेसियों के बयानों से किसी को भी सरकार के स्थायित्व की गारंटी वाले नए बयानों पर भरोसा नहीं हो रहा. 12 मार्च को कांग्रेस आलाकमान ने विजय बहुगुणा को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में मनोनीत किया था. इसके अगले ही दिन ही केंद्र में मंत्री हरीश रावत अपने समर्थक विधायकों सहित कोप भवन में चले गए थे. 15 मार्च को विधानसभा में जब नवनिर्वाचित विधायकों को शपथ दिलाई गई तो वहां कांग्रेस के 32 में से सिर्फ 15 विधायक मौजूद थे. शपथ न लेने वाले दिग्गजों में इंदिरा हृदयेश, नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत और नए विधानसभा अध्यक्ष बने गोविंद सिंह कुंजवाल भी थे. हरक सिंह ने तो बयान भी दे डाला था कि यह सरकार ज्यादा दिन नहीं चलेगी.

एक सप्ताह की अनिश्चितता के बाद मुख्यमंत्री और असंतुष्ट खेमे में बातचीत का दौर शुरू हुआ.  इस बीच कांग्रेस आलाकमान ने हरीश रावत के समर्थक महेंद्र सिंह माहरा को उत्तराखंड से राज्यसभा  के लिए कांग्रेस का उम्मीदवार घोषित कर दिया. हालांकि 19 मार्च को राज्यसभा के नामांकन के समय भी न तो हरीश रावत और न ही उनके कैंप के 11 विधायक पहुंचे. अगले दिन मुख्यमंत्री कैबिनेट में विस्तार करके दिल्ली चले गए. दिल्ली में हरीश रावत और विजय बहुगुणा की फिर बातचीत हुई . कैबिनेट में अपने समर्थकों के लिए जगह पक्की करने के बाद रावत ने नरमी का संकेत दिया.उनका कहना था, ‘मेरी ओर से संकट खत्म हो गया है, लेकिन विजय बहुगुणा को कुछ कदम उठाने होंगे.’ संकेत साफ था कि रावत अपने खेमे के लिए अधिक-से-अधिक पद सुनिश्चित कराना चाहते थे. जानकार बताते हैं कि उनके सामने अपने समर्थकों को राजनीतिक रूप से पदस्थापित करने के साथ-साथ हरक सिंह को भी सम्मानपूर्वक कांग्रेस की राजनीति में जिंदा रखने की चुनौती थी.

खबर लिखे जाने तक इस मामले में कुछ भी फैसला नहीं हुआ है. सूत्रों के अनुसार हरीश रावत खेमा हरक सिंह को उपमुख्यमंत्री बनाने की जिद कर रहा है लेकिन आलाकमान छोटे-से राज्य में सत्ता के दो केंद्र नहीं चाहता. रावत यह भीचाहते हैं कि कांग्रेस के अध्यक्ष पद से यशपाल आर्य को हटवा कर यह कुर्सी उनके समर्थक और सांसद प्रदीप टम्टा को दे दी जाए.

बहुगुणा को चिंता है कि राज्य गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है. उन्हें यह भी लगता है कि राज्य में क्षेत्रीय असंतुलन है और इस कारण पलायन हो रहा है. हरीश रावत की भी चिंता सीमांत क्षेत्रों से होने वाला पलायन है. लेकिन उनकी पार्टी की सरकार का आगाज जैसे हुआ है वही ढर्रा अगर जारी रहा तो साफ है कि ये चिंताएं बस जुबानी कवायद बनकर रह जाएंगी.

मौत से उठते सवाल

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में तैनात पुलिस कप्तान राहुल शर्मा की  खुदकुशी के मामले ने कई तरह के सुगबुगाते सवालों को जन्म दे डाला है. राहुल के परिजन उनकी मौत को हत्यारी व्यवस्था का परिणाम मानते हैं तो राजनीतिक दलों को पूरे प्रकरण में गहरी साजिश नजर आती है.  भारतीय पुलिस सेवा 2002 बैच के राहुल ने अपने एक मित्र हरिमोहन ठाकुरिया से फेसबुक पर बातचीत के दौरान यह स्वीकारा था कि उन्हें चुनावी खर्चों का टारगेट दिया गया था. इस बातचीत ने प्रदेश की रमन सरकार को भी आरोपों के कटघरे में खड़ा कर दिया है.

गौरतलब है कि राहुल शर्मा बीती 12 मार्च को बिलासपुर स्थित पुलिस ऑफिसर्स मेस में मृत पाए गए थे. उन्हें नजदीक से जानने-समझने वाले एक साहित्यकार गोपनीयता की शर्त पर बताते हैं, ‘बड़े साहब जीपी सिंह (आईजी) ने उनके तमाम अधिकार छीन लिए थे. यहां तक कि उन्हें किसी की छुट्टी को मंजूर करने का अधिकार भी नहीं रह गया था. परेशान होकर राहुल शर्मा ने नवीन जिंदल के यहां नौकरी करने की बात कही थी.’ साहित्यकार ने अपनी बातचीत में एक जज का उल्लेख तो किया ही यह भी बताया कि जमीन हथियाने के एक मामले में राहुल शर्मा ठोस कार्रवाई करना चाहते थे लेकिन आला अफसरों और नेताओं के दबाव की वजह से वे कुछ कर नहीं पा रहे थे.

इधर राहुल शर्मा के परिजनों ने उनकी खुदकुशी के लिए उनके बॉस और एक जज को दोषी माना है. परिजनों का आरोप है कि राहुल शर्मा अपने बॉस के व्यवहार से प्रताड़ित तो थे ही, जज ने भी उन्हें ट्रैफिक व्यवस्था में सुधार के लिए फटकारा था. राहुल शर्मा के पिता राजकुमार शर्मा  कहते हैं, ‘ मेरा बेटा अक्सर यह कहता था कि बॉस का व्यवहार अच्छा नहीं है.’ राहुल शर्मा की पत्नी और रेलवे अधिकारी गायत्री शर्मा का भी कहना है कि बेहद दबाव की वजह से उनके पति स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पा रहे थे. वैसे पुलिस ने जो सुसाइड नोट बरामद किया है उसमें राहुल शर्मा ने यह लिखा है, ‘हद से ज्यादा अड़चनें पैदा करने वाले बॉस और हठधर्मी जज ने शांति छीन ली है और उनके परिवार को मुश्किल में डाल दिया है.’ राहुल ने अपने सुसाइड नोट में अपने बॉस और जज के नाम का उल्लेख तो नहीं किया है लेकिन उनकी पत्नी ने सिविल लाइन थाने के प्रभारी आरआर कश्यप को दिए गए बयान में हाई कोर्ट के एक जज का नाम लिखवाया है. इस बात की पुष्टि थाना प्रभारी आरआर कश्यप ने भी तहलका से की है.

राहुल शर्मा की मौत के बाद कई सवाल रहस्य के आवरण में लिपटे हुए नजर आ रहे हैं. हादसे से एक दिन पहले यानी 11 मार्च, 2012 की रात आठ से नौ बजे के बीच राहुल ऑफीसर्स मेस में रहने के लिए आ गए थे. सवाल उठ रहा है कि जब उनकी पत्नी का घर रेलवे कालोनी में मौजूद था तो फिर उन्हें आफीसर्स मेस में रहने की जरूरत क्यों पड़ी? इसके जवाब में उनकी पत्नी कहती हैं, ‘पता नहीं किसने यह प्रचारित कर दिया था कि हमारे बीच कुछ अनबन चल रही है. सच्चाई यह है कि  वे मुझे मेस में रुकने की जानकारी देकर ही गए थे.’ गायत्री विलंब से दी गई सूचना को लेकर भी सवाल उठाती हंै. वे कहती हैं, ‘जब घटना एक से डेढ़ बजे के आसपास की बताई जा रही है तब मुझे लगभग तीन बजे इसकी सूचना क्यों दी गई? इस बीच पुलिस क्या करती रही?’ मनोनीत सांसद इंग्रिड मैक्लाड भी घटना के बाद आनन-फानन में की गई पुलिसिया कार्रवाई को लेकर संदेह जताती हैं. पुलिस पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए मैक्लाड आशंका जताती हैं कि मामला खुदकुशी की बजाय हत्या का भी हो सकता है.

राहुल शर्मा का शव 12 मार्च को मेस के बाथरूम में मिला. पुलिस ने उनका सुसाइड नोट 13 मार्च की शाम एक  सूटकेस से बरामद किया. लेकिन इस नोट की बरामदगी से पहले ही पुलिस ने 12 मार्च को यह मान लिया था कि उन्होंने आइने के सामने खड़े होकर खुद को गोली मार ली है? शर्मा ने कब गोली चलाई? मेस में मौजूद कर्मचारियों ने गोली चलने की आवाज क्यों नहीं सुनी? इन सवालों पर भी रहस्य कायम है. पिस्टल से खुद को खत्म कर लेने के तरीके और सुसाइड नोट के सूटकेस में रखे होने को लेकर भी कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं. सुसाइड नोट किसी खुली जगह की बजाय सूटकेस के भीतर से मिलने से भी सवाल उठ रहे हैं.  पुलिस ने मौके पर जिन सामानों की जब्ती बनाई है उसे लेकर भी संदेह कायम है. पुलिस को मौके पर पिस्टल तो मिल गई है लेकिन उसका होल्स्टर ( कवर ) नहीं मिला है. इसी तरह लैपटॉप के कवर की बरामदगी दिखाई गई है,  लेकिन लैपटाप कहां है इसे लेकर कोई भी अफसर कुछ बोलने को तैयार नहीं है. गायत्री शर्मा लैपटॉप में महत्वपूर्ण दस्तावेज होने की संभावना से इनकार नहीं करतीं.

राहुल शर्मा प्रकरण से जुड़ा एक अबूझ तथ्य यह भी है कि पुलिस ने अब तक किसी के खिलाफ भी आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने का मामला दर्ज नहीं किया है

एसपी राहुल शर्मा और आईजी जीपी सिंह के बीच टकराव को लेकर भी कई तरह की बातें सामने आ रही हंै. तहलका ने इस संबंध में कई पुलिस कर्मियों और अफसरों से चर्चा करनी चाही तो ज्यादातर इससे बचते नजर आए. एक-दो अफसरों ने दबी जुबान में माना कि सिंह और शर्मा के बीच सब कुछ ठीक नहीं था. एक अफसर की मानें तो इन दोनों अधिकारियों के बीच तनाव की शुरुआत तभी हो गई थी जब दोनों नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर में तैनात थे. दोनों के बिलासपुर आने के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा.

इधर राहुल शर्मा से चुनावी फंड के लिए रकम जुटाने के संबंध में एक बातचीत के सार्वजनिक हो जाने के बाद राजनीतिक भूचाल आ गया है. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का यह आरोप है कि सरकार ने अफसरों को उगाही करने वाले कार्यकर्ताओं में तब्दील कर दिया है.  विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष एवं कांग्रेस विधायक धर्मजीत सिंह का आरोप है कि सरकार ने चंदा उगाही करने वाले तत्वों का सेल गठित कर रखा है जिसमें कुछ अफसर और नेता शामिल हैं. हालांकि अभी यह साफ नहीं है कि प्रदेश के किस नेता या अफसर ने राहुल शर्मा से चुनावी फंड के लिए तैयार रहने को कहा था लेकिन राहुल शर्मा ने अपने एक मित्र हरिमोहन ठाकुरिया से फेसबुक पर बातचीत करते हुए जो कुछ लिखा उसके चलते सरकार कटघरे में जरूर खड़ी हो गई है. इस मामले में सरकार की तरफ से कोई सफाई तो प्रस्तुत नहीं की गई है अलबत्ता सीबीआई जांच की घोषणा कर आरोपों की आंच को कम करने की कोशिश जरूर हुई है. राहुल ने फेसबुक पर जो टिप्पणी की थी वह कुछ इस तरह से है –  ‘यार बहुत बेगार करवाते हैं. कोई सेल्फ रिसपेक्ट है ही नहीं. इलेक्शन के खर्चों का टारगेट अभी से दे दिया है. क्या इसलिए इतनी पढ़ाई करके आईपीएस बना था.’ ठाकुरिया ने बातचीत के इस अंश को अपने वाल पर चस्पा भी किया था. जब इस मामले में कांग्रेस ने हो-हल्ला मचाया तब सनसनीखेज अंश डिलीट कर दिया गया. ठाकुरिया कहते हैं, ‘मैंने वॉल पर जो कुछ चस्पा किया था दरअसल वह मेरा अपना निजी विचार था कि शायद राहुल शर्मा को चुनावी खर्चों का लक्ष्य पूरा करने के लिए कहा गया था. विवाद के बाद इसे डिलीट कर दिया गया.’

हालांकि छत्तीसगढ़ कांग्रेस के मीडिया विभाग के मुख्य प्रवक्ता शैलेष नितिन त्रिवेदी इसे दबाव में दिया गया वक्तव्य मानते हैं. वे कहते हैं, ‘घटना के पहले दिन से सबूतों को नष्ट करने वाली ताकतें सक्रिय हैं. यदि ठाकुरिया के वक्तव्य का निहितार्थ कुछ अलग था तो उन्हें किसी दूसरी टिप्पणी के जरिए यह साफ करना था कि उनके कथन का गलत अर्थ निकाला जा रहा है.’ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी कहते हैं, ‘ठाकुरिया की बात सही है या गलत इसकी जांच होनी चाहिए और यह देखने की कोशिश भी होनी चाहिए कि इसके पीछे कौन-कौन लोग शामिल हैं.’
वैसे राहुल शर्मा प्रकरण का एक खौफनाक सच यह भी है कि पुलिस ने अब तक ज्ञात-अज्ञात किसी भी शख्स के खिलाफ आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने का मामला दर्ज नहीं किया है. एक वरिष्ठ पुलिस अफसर बीएस मरावी कहते हैं, ‘किसी भी मामले को दर्ज करने के पहले सभी पहलुओं पर विचार करना होता है. राहुल शर्मा के मामले में यह तो देखना ही होगा कि उन्हें आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने का काम किसने और किसके सामने किया था. यदि शर्मा किसी तनाव में चल रहे थे तो छुट्टी ले सकते थे अथवा स्थानांतरण के लिए आवेदन लगा सकते थे.’ मरावी यह भी कहते हैं कि जब सरकार ने सीबीआई को प्रकरण सौंप ही दिया है तो फिर अब मामला सीबीआई ही दर्ज करेगी.

साफ है कि पुलिस ने कौन -सा ट्रैक पकड़ लिया है. राहुल शर्मा की खुदकुशी को खुदकुशी की बजाय सिस्टम के द्वारा की गई हत्या मानने वाले सामाजिक कार्यकर्ता आंनद मिश्रा मरावी के कथन को दोषियों को बचाने का एक तरीका मानते हैं. अंचल के वरिष्ठ लेखक मोहन राव का भी मानना है कि व्यक्ति के भीतर आत्महत्या की परिस्थितियां अपमान से ज्यादा आत्मसम्मान पर किए गए चोट पर निर्भर करती हैं. राव मानते हैं कि पूरे प्रकरण में यह देखना भी बेहद  जरूरी है कि आखिर ऐसी कौन सी बात थी जिसने राहुल शर्मा की गैरत को रोने के लिए मजबूर कर दिया था. जिस रोज इस बात का पता चल जाएगा उस दिन मामला पूरी तरह साफ हो जाएगा.

महिलाओं का मध्य युगीन प्रदेश

हाल ही में मध्य प्रदेश के गृह मंत्री उमा शंकर गुप्ता ने विधानसभा में जानकारी दी थी कि पिछले तीन साल के दौरान राज्य में कुल 9926 बलात्कार की घटनाएं दर्ज की गईं. 2009 में 3,071, 2010 में 3,220 और 2011 में बलात्कार के 3381 मामले. ये सरकारी आंकड़े हैं और सच छिपाने की अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के बावजूद बेहद भयावह. एक सामान्य गुणा भाग के बाद ही आप समझ सकते हैं कि प्रदेश महिलाओं के रहने के लिए किस हद तक खतरनाक जगह बन चुका है. इन आंकड़ों के हिसाब से आज राज्य में हर दिन तकरीबन 10 महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं.

सरकारी आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि पिछले तीन साल में यौन उत्पीड़न की शिकार 1,961 महिलाओं की हत्या भी की गई. इस चलन का ताजा उदाहरण 24 मार्च को देखने को मिला जब बैतूल की एक 50 वर्षीय, महिला की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि उसने अपनी नाबालिग बेटी के साथ हुए बलात्कार की शिकायत दर्ज करवाई थी. यह मामला राष्ट्रीय स्तर के मीडिया में काफी समय से सुर्खियों में है. इसके अलावा भी महिलाओं के यौन उत्पीड़न से जुड़ी ऐसी कई घटनाएं बीते दिनों में हुईं जिनकी वजह से प्रदेश लगातार चर्चा में रहा है. इसी साल 18 फरवरी को इंदौर के पास एक कस्बे बेतमा में 16 लोगों द्वारा दो युवतियों के साथ सामूहिक बलात्कार की बात सामने आई थी. आरोपितों में भाजपा व कांग्रेस पार्षदों के बेटे और स्थानीय दुकानदारों से लेकर खेतों में काम करने वाले अधेड़ किसानों तक सभी शामिल थे.

राज्य सरकार इस घटना पर सफाई देने की पूरी स्थिति में आ भी नहीं पाई थी कि देपालपुर क्षेत्र में एक 36 वर्षीय मूक-बधिर महिला के साथ चाकू की नोक पर किए गए सामूहिक बलात्कार का मामला सामने आ गया. राज्य में महिलाओं के यौन उत्पीड़न और उनके प्रति अपराध की एक अनवरत श्रंखला चल रही है. और इनको रोक पाने में सरकार की यह असफलता ही है जिसके चलते महिलाओं के खिलाफ अपराधों की सूची में मध्य प्रदेश पिछले तीन साल से पहले स्थान पर बना हुआ है. इस साल के आंकड़ों पर ही गौर करें तो पता चलता है कि जनवरी से लेकर अभी तक राज्य में बलात्कार के तकरीबन 797 मामले सामने आए हैं. इनमें से 76 मामलों में महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था. इस पूरी तस्वीर का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इनमें से 414 नाबालिग लड़कियां थीं.

कमोबेश एक शांत राज्य की छवि वाले मध्य प्रदेश में ऐसी घटनाएं कई सवाल खड़े कर रही हैं. पहला तो यही कि मध्य प्रदेश बलात्कार या महिला के खिलाफ हिंसा के सबसे दुर्दांत अपराध में अव्वल क्यों है? क्यों राज्य के लगभग हर जिले से इस तरह की घटनाओं की खबरें आ रही हैं?  यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि राज्य सरकार की महिला कल्याण के लिए चलने वाली बेहद प्रचारित-प्रसारित योजनाओं के बावजूद इन घटनाओं पर रोक नहीं लग पा रही है.

‘बुंदेलखंड और चंबल में बलात्कार के आरोपित इसलिए छूट जाते हैं कि उनमें से ज्यादातर को राजनीतिक प्रश्रय मिला हुआ होता है’

जब हमने इन सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की तो हमें कमजोर पुलिस-प्रशासन, अपराधियों को मिल रहे राजनीतिक प्रश्रय और आपराधिक मानसिकता को संबल प्रदान करने वाले ‘लो कन्विक्शन रेट (आरोपितों के दोषी साबित होने की दर) ‘ जैसे कई कारणों का पता चला. ये सारी वजहें राज्य को एक मध्य युगीन कबीलाई समाज में तब्दील कर रही हैं. इस मसले पर खुल कर आवाज उठाने वाले मध्य प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक दिनेश जुगरान इन हालात के लिए राज्य में बढ़ रही अराजकता को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘ पिछले 2 -3 साल के दौरान पूरे राज्य में एक अजीब तरह की अराजकता फैल गई है. ऐसा लगता है जैसे कानून का कोई भय ही नहीं बचा. और ऐसे सामंती मानसिकता के अपराधी जब अपराध करने के बाद भी छूट जाते हैं तो नए अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाते हैं. जाहिर है महिलाएं समाज का सबसे कमजोर तबका हैं और इसलिए इस बढ़ती अराजकता का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव भी उन्हीं पर पड़ रहा है.’

मध्य प्रदेश में महिला अधिकारों के लिए लंबे समय से काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता सारिका सिन्हा का मानना है कि वर्तमान भाजपा सरकार महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को गंभीरता से नहीं लेती. प्रदेश में सक्रिय इस राजनीतिक-आपराधिक कॉकटेल की ओर इशारा करते हुए वे कहती हैं, ‘जब भी बलात्कारों के बढ़ते आंकड़ों पर सवाल उठाओ, सरकार रटा-रटाया जवाब दे देती है कि हमारे यहां मामले दर्ज ज्यादा होते हैं इसलिए नजर भी ज्यादा आते हैं. पर हमारी ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर फर्क बस इतना आया है कि पहले 100 में से चार मामले दर्ज होते थे और अब लगभग 10 दर्ज हो जाते हैं. वर्तमान भाजपा सरकार महिलाओं के मामले में काफी फासीवादी रही है. बुंदेलखंड और चंबल जैसे क्षेत्रों में सरकारी संरक्षण की वजह से ही अपराधी लगातार छूट रहे हैं.’

मध्य प्रदेश में अपराधों के इस चलन के लिए जानकार कई भौगोलिक और सामाजिक कारणों को भी दोषी ठहराते हैं. गौर करने वाली बात है कि मध्य प्रदेश में भारत के कुछ सबसे पिछड़े इलाके आते हैं. लगभग 22 प्रतिशत आदिवासी जनसंख्या वाले इस राज्य में बुंदेलखंड और चंबल जैसे सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्र भी शामिल हैं. जातिगत द्वेष और पुरातन परंपराओं में जकड़े समाज को महिलाओं के साथ हो रही हिंसा की प्रमुख वजह बताते हुए अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की प्रदेश अध्यक्ष संध्या शैली कहती हैं, ‘ज्यादातर मामलों में एक जाति या समाज को नीचा दिखाने  या फिर बदला लेने के लिए महिलाओं का इस्तेमाल किया जाता रहा है. इन लोगों का मानना है कि किसी भी जाति को शर्मसार करना हो तो उनकी औरतों का बलात्कार कर दो.’

राज्य महिला आयोग ने हाल की घटनाओं को देखते हुए कुल 11 सिफारिशों का एक ड्राफ्ट प्रदेश सरकार को सौंपा है. आयोग की अध्यक्ष उपमा राय तहलका से बातचीत में कड़ी पुलिसिंग और सख्त जांच प्रक्रिया की पैरोकारी करते हुए कहती हैं, ‘ ज्यादातर मामलों में अपराधी सबूतों की कमी की वजह से छूट रहे हैं. गवाहों और पीड़ित महिला को भी डरा-धमका कर पक्षद्रोही बना दिया जाता है. वजह यह भी है कि पुलिस सामने दिखने वाले सबूतों को भी नजरंदाज कर देती है. कड़ी जांच और सघन तहकीकात से दोषियों को सजा दिलवाई जा सकती है. और यही किसी भी बलात्कार पीड़ित महिला के लिए सबसे बड़ी सांत्वना है.’

धर्म से हारी राजनीति

कहते हैं पंजाब में धर्म और राजनीति का चोली दामन का साथ रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों में राजनीति ने धर्म से अलग हटकर अपनी एक पहचान स्थापित की. दोनों अलग होकर अपने-अपने रास्ते पर बढ़ते गए. उसी के उदाहरण के तौर पर हम पाते हैं कि शिरोमणि अकाली दल (बादल) इस बार विधानसभा चुनाव में पिछले 46 साल के सत्ता विरोधी चलन को समाप्त करते हुए दोबारा सत्ता में आया. एक पंथिक पार्टी होने के अपने इतिहास के बावजूद  पंथ को पीछे छोड़ते हुए उसने विकास और सुशासन के आधार पर इस बार चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. पूरे चुनाव में पार्टी ने किसी तरह का पंथिक मामला नहीं उठाया. ऐसा लग रहा था मानो अब पंजाब में भावनात्मक और पंथिक राजनीति के दिन पूरे हो गए हैं. लेकिन जल्द ही यह भ्रम टूट गया.

पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के आरोपित बलवंत सिंह राजौना के मामले ने पंजाब की राजनीति और उस राजनीति की रगों में बह रहे धर्म रक्त के प्रभाव और उसके वर्चस्व को भी रेखांकित किया है. जब से राजौना का मामला प्रकाश में आया प्रदेश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था एक अंजाने से भय से ग्रसित दिखी. नेता धर्मगुरुओं के फरमानों पर फड़फड़ाते देखे गए.

चंड़ीगढ़ की एक स्थानीय अदालत ने जिस दिन राजौना को फांसी की सजा सुनाई, उसी दिन से ही राज्य में राजौना की फांसी को लेकर छोटे स्तर पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया था. शुरुआत में इसमें सिर्फ कुछ कट्टर सिख संगठन ही शामिल दिखे लेकिन जैसे-जैसे 31 मार्च का दिन जब पटियाला जेल में बंद राजौना को फांसी दी जानी है, करीब आया वैसे-वैसे पूरे राज्य में मामला फैलता गया.

हाल में गठित हुई प्रदेश की नई सरकार ने इस मामले में शुरुआत में कोई रुचि नहीं दिखाई. लेकिन सिख धर्म की सर्वोच्च संस्था अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी गुरुबचन सिंह के पटियाला जेल में राजौना से मिल कर आने के बाद तो मानो राजनीतिक दलों (खासकर अकाली दल (बादल)) के हाथ पांव फूल गए. राजौना से मिलकर आने के बाद मीडिया से मुखातिब ज्ञानी गुरबचन सिंह ने सरकार और विशेष तौर पर उसके मुखिया प्रकाश सिंह बादल को आदेश देते हुए कहा कि वे राष्ट्रपति से तुरंत मिलें और राजौना की फांसी पर रोक लगाने की मांग करें.

गुरुबचन के इसी बयान के बाद प्रदेश की राजनीति ने हरकत में आने में ही अपनी भलाई समझी. अकाली दल ने अपनी कोर कमिटी की मीटिंग बुलाकर मामले को आगे बढ़ाने अर्थात राजौना की फांसी रुकवाने संबंधी मुहिम की शुरुआत की.  दूसरी तरफ प्रदेश कांग्रेस, जिसके मुख्यमंत्री की हत्या का राजौना के ऊपर आरोप है,  शुरु-शुरु में कानून अपना काम करेगा सरीखी बातें करती दिखी.

एक वर्ग का मानना है कि राजौना के फैसले के बाद उन लोगों के अभियान को जरूर बल मिलेगा जो अफजल गुरू के लिए भी माफी की मांग कर रहे हैं

विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष एवं वरिष्ठ कांग्रेसी नेता बलराम जाखड़ के पुत्र सुनील जाखड़ ने राजौना को माफी दिए जाने संबंधी मुद्दे पर शुरुआत में कानून की दुहाई दी. लेकिन जैसे ही मामले ने धार्मिक और भावनात्मक रंग लिया वैसे ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पार्टी की तरफ से एक पत्र जारी कर कहा कि प्रदेश कांग्रेस राजौना को माफी दिए जाने की मांग का समर्थन करती है. यहां तक कि बेअंत सिंह के परिवारवालों ने बयान देकर राजौना को माफी दिए जाने पर कोई आपत्ति न होने की बात की. इस पूरे मामले पर भाजपा का ही रुख अलग रहा जिसने कानून प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करने की बात की. इस मामले में एक तरफ धर्म का प्रदेश की राजनीति पर वर्चस्व स्थापित होते दिखा तो दूसरी तरफ पूरे मामले में एक संवैधानिक संकट भी खड़ा होते दिखाई दिया.

यह स्थिति तब पैदा हुई जब पटियाला जेल अधीक्षक लखविंदर सिंह जाखड़ ने कई कानूनी अड़चनों का हवाला देते हुए चंडीगढ़ की उस स्थानीय अदालत का फैसला मानने से इनकार कर दिया जिसमें उसने राजौना को 31 मार्च को फांसी देने की बात की थी. कोर्ट ने दो बार अपना आदेश जेल अधीक्षक को भेजा और दोनों बार अधीक्षक ने उसे वापस लौटा दिया. अधीक्षक को अदालत ने अवमानना का नोटिस भी जारी किया. लेकिन अधीक्षक का कहना था, ‘हम नोटिस का जवाब देंगे, लेकिन राजौना को फांसी नहीं.’
अधीक्षक ने मामले को लेकर हाई कोर्ट में अपील करने की बात कही. कोर्ट और जेल अधीक्षक के बीच के विवाद ने एक नई बहस को जन्म दिया. सवाल उठने लगे कि क्या कोई कार्यपालिका अदालत का आदेश लागू करने से इनकार कर सकती है. जानकारों का मानना है कि पंजाब का यह उदाहरण भविष्य में अन्य राज्यों तथा संस्थाओं के लिए नज़ीर बन सकता है. अगर ऐसा हुआ तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न होते देर नहीं लगेगी और फिर न्याय के शासन का स्थान ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ में बदल जाएगा. चूंकि न्यायालयों के पास कानून का पालन कराने या उसे लागू कराने के लिए कोई बल नहीं है ऐसे में न्यायालय का जो फैसला राज्यों के खिलाफ होगा उसे लागू करने में वे वर्तमान उदाहरण का सहारा ले सकते हैं.

इस पूरे मामले का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह रहा है कि जिस बलवंत सिंह राजौना की फांसी की सजा को माफ करवाने के लिए प्रदेश के विभिन्न धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं के प्रमुख लगे थे वह खुद माफी नहीं चाहता था.  राजौना को जब चंडीगढ़ की स्थानीय अदालत ने फांसी की सजा सुनाई तो उसने इसके खिलाफ अपील करने से साफ इंकार कर दिया. उसने कहा कि उसने जो किया उसकी पूरी जिम्मेदारी वह लेता है. उसने यह भी कहा कि वह आगे इस मामले में कोई अपील नहीं करना चाहता, उसे सजा मंजूर है. वहीं दूसरी तरफ मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या में सह-अभियुक्त जगतार सिंह हवारा जिसे अदालत ने राजौना के साथ ही फांसी की सजा सुनाई थी, ने इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की और अदालत ने उसकी सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया. कानून के जानकार बताते हैं कि अगर राजौना ने अपनी फांसी के खिलाफ अपील की होती तो उसकी सजा भी उम्रकैद में बदल गई होती.

ऐसे में सवाल उठ रहा है कि ऐसा व्यक्ति जिसके पास अपनी सजा को उम्र कैद में बदलवाने का कानूनी विकल्प मौजूद है लेकिन वह फिर भी फांसी पर चढ़ना चाहता है, उस व्यक्ति को लेकर इतनी बेचैनी कहां तक उचित है. राजौना ने न केवल माफी संबंधी किसी भी तरह की मांग भारतीय राज्य के सामने करने से साफ इनकार दिया बल्कि उसने यहां तक कहा कि उसे भारतीय राज्य एवं संविधान पर कोई विश्वास नहीं और किसी को उसके लिए माफी की भीख मांगने की जरूरत नहीं है. यहां तक कि राजौना ने उन विभिन्न राजनीतिक दलों के उन लोगों की आलोचना भी की जो उसे माफी दिलाने को लेकर अभियान चलाए हुए थे. शिरोमणि अकाली दल (बादल) जिसके मुखिया प्रकाश सिंह बादल के राष्ट्रपति से मिलने के बाद राजौना की फांसी पर रोक लगी है, उन्हीं बादल को राजौना ने काफी भला बुरा कहा.

ऐसा माना जा रहा है कि राजौना को फांसी की सजा पर रोक लगाकर केंद्र सरकार ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है. पिछले कुछ समय में कई अपराधियों की इसी आधार पर सजा माफ करवाने की कोशिश की गई है कि अगर सजा दी गई तो शांति व्यवस्था प्रभावित हो सकती है. अफजल गुरु का उदाहरण हमारे सामने है जिसको लेकर जम्मू कश्मीर की विधानसभा में आए दिन बवाल होता रहता है. वहां एक वर्ग ऐसा है जिसका तर्क है कि अफजल को फांसी की सजा से माफी दी जानी चाहिए. क्योंकि अगर उसे फांसी पर लटकाया गया तो राज्य में अमन चैन प्रभावित हो सकता है. इसी आशय से संबंधित एक प्रस्ताव भी वहां की विधानसभा में पास कराने का प्रयास किया गया. एक वर्ग का मानना है कि राजौना के फैसले के बाद उन लोगों के अभियान को जरूर बल मिलेगा जो अफजल के लिए भी माफी की मांग कर रहे हैं. तमिलनाडु की विधानसभा ने राजीव गांधी के हत्यारों को माफी देने संबंधी प्रस्ताव को पहले ही पारित कर दिया है. बाकी मामलों और राजौना के मामले में एक बड़ा अंतर यह है कि अन्य मामलों में अपराधियों के मामले विभिन्न न्यायिक प्रक्रियाओं से गुजर कर अंतिम पड़ाव अर्थात राष्ट्रपति के पास पहुंचे हैं. यानी उन्होंने पूरी न्यायिक प्रक्रिया का पालन किया. लेकिन राजौना के मामले में ऐसा नहीं है. राजौना ने पहली अदालत के फैसले के बाद आगे अपील करने से ही इनकार कर दिया. जिस माफीनामे की अर्जी पर विचार करने हेतु स्वीकारते हुए राष्ट्रपति ने फांसी पर अनिश्चितकाल के लिए रोक लगा दी है उस माफी का आवेदन भी राजौना ने नहीं पेश किया है बल्कि उसकी जगह दूसरे लोगों ने माफी की अर्जी राष्ट्रपति को दी है.

यह मामला इस मायने में बहुत खास है कि इसमें जो कुछ भी हो रहा है, चाहे राष्ट्रपति के पास दया याचिका लेकर जाना, या फिर पुलिस अधीक्षक का हाईकोर्ट में निचली अदालत के फांसी संबंधी निर्णय को चुनौती देना. यह सबकुछ न तो बलवंत सिंह राजौना कर रहा है और न ही उसकी इस मामले में कोई लिखित सहमति है. यहां तक कि उसने उसे लेकर चलाई जा रही माफी संबंधी प्रक्रिया का विरोध करते हुए बार-बार आगे अपील न करने (राष्ट्रपति के सामने भी नहीं) की बात कही है. ऐसे में यह मामला कानूनी रूप से और अधिक जटिल बन जाता है.

कुल मिलाकर इस वाकये ने यह पुरानी बहस फिर जिंदा कर दी है कि भावना बड़ी है या कानून. अहम बात यह भी है कि इस मामले ने न सिर्फ व्यवस्था का खोखलापन दिखाया है बल्कि राजनीति पर धर्म का वर्चस्व फिर से स्थापित भी किया है.

‘जोड़ने’ में न टूटें लक्ष्मण रेखाएं

लगता है लक्ष्मण रेखाएं तोड़ने का यह स्वर्ण-युग आ गया है. जिसे देखो वह अपनी मर्यादाएं तोड़कर न जाने क्या-क्या जोड़ना चाहता है.

देश की बड़ी अदालत ने नदी जोड़ने के लिए सरकार को आदेश दिया है. एक समिति बनाने को कहा है और उसकी संस्तुतियां भी एक निश्चित अवधि में सरकार के दरवाजे पर डालने के लिए कहा है. और शायद यह भी कि सरकार संस्तुतियां पाते ही तुरंत सब काम छोड़कर नदी जोड़ने में लग जाए.

यह दूसरी बार हुआ है. इससे पहले एनडीए के समय में बड़ी अदालत ने अटल जी की सरकार को कुछ ऐसा ही आदेश दिया था. तब विपक्ष में बैठी सोनिया जी और पूरी कांग्रेस उनके साथ थीं. एनडीए के भीतरी ढांचे में भी आज की तरह किसी भी घटक ने इसका कोई विरोध नहीं किया था. सबसे ऊपर बैठे राष्ट्रपति भी इस योजना को कमाल का मानते थे. प्रधानमंत्री जी ने भी देश भर की नदियों को तुरंत जोड़ देने के लिए एक भारी-भरकम व्यवस्थित ढांचा बना दिया था और उसको चलाए रखने के लिए एक भारी-भरकम राशि भी सौंप दी थी. इसके संयोजक बनाए गए थे – श्री सुरेश प्रभु. तब किसी ने मुझसे कुछ पूछा था. मेरा उत्तर दो वाक्यों का था. नदी जोड़ना प्रभु का काम है, इसमें सुरेश प्रभु न पड़ंे. सब कुछ होने के बाद भी अटल जी के समय में यह योजना लगातार टलती चली गई. इतनी टली कि यूपीए-1 और फिर निहायत कमजोर यूपीए-2 को भी पार करके वापस बड़ी अदालत के दरवाजे पर पहुंच गई. अब बड़ी अदालत ने फिर से वह पुलिंदा सरकार के दरवाजे पर फेंका है.

देश का भूगोल इसकी इजाजत नहीं देता. यदि यह कोई करने लायक काम होता तो प्रकृति ने कुछ लाख साल पहले इसे करके दिखा दिया होता.  लेकिन उसने ऐसा कोई काम नहीं किया क्योंकि कुछ करोड़ साल के इतिहास में देश का उतार-चढ़ाव, पर्वत, पठार और समुद्र की खाड़ी बनी है और उसमें देश के चारों कोनों से नदियों को जोड़कर बहाने की गुंजाइश नहीं थी.

ऐसा नहीं है कि प्रकृति खुद नदी नहीं जोड़ती है. जरूर जोड़ती है लेकिन उसके लिए कुछ लाख साल धीरज के साथ काम करना होता है. हिमालय का नक्शा ऊपर से देखें तो गंगा और यमुना का उद्गम बिल्कुल पास-पास दिखाई देगा लेकिन यह पर्वत का भूगोल ही है कि दोनों नदियों को प्रकृति ने अलग-अलग घाटियों में बहाया और फिर बहुत धीरज के साथ पर्वत को काट-काटकर प्रयाग तक पहुंच कर इनको मिलाया. समाज भी प्रकृति के इस कठिन परिश्रम को समझता था इसलिए उसने ऐसी जगहों को कोई एक्स, वाई, जेड जैसे अभद्र नाम देने के बदले तीर्थ की तरह मन में बसाया.

कचहरियों का काम अन्याय सामने आने पर न्याय देने का होता है. यह काम भी किसी भावुकता के आधार पर नहीं होता. न्याय देने वाला पक्ष-विपक्ष की लंबी-लंबी दलीलें सुनता है और तब वह नीर, क्षीर, विवेक के अनुसार फैसला सुनाता है. दूध का दूध और पानी का पानी. लेकिन नदी जोड़ो प्रसंग में अदालत ने दोनों बार दूध भुला दिया और पानी को पानी से जोड़ने का आदेश दे दिया है.

यह संभव है और यह स्वाभाविक है कि अदालत का ध्यान पानी की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों और नागरिकों की तरफ जाए. लेकिन इसमें ऐसे आदेशों से किसी ऐसे इलाकों पर कैसा अन्याय होगा, लगता है कि इसकी तरफ उसका ध्यान गया ही नहीं है. अदालत अगर अपने मुकदमों के रजिस्टरों की धूल झाड़कर देखे तो उसे पता चलेगा कि उसके यहां नदियों के पानी के बंटवारों को लेकर अनेक राज्य सरकारों के मामले पड़े हैं. इनमें से कुछ पर अभी फैसला आना बाकी है और जिन भाग्यशाली मुकदमों में फैसले सुना दिए गए हैं, उन्हें सरकारों ने मानने से इनकार कर दिया या यह अवमानना जैसा लगे तो उसे ढंग से लागू नहीं होने दिया है. यह सूची लंबी है और इसमें सचमुच कश्मीर से कन्याकुमारी तक विवाद बहता मिल जाएगा.

हमारे देश में प्रकृति ने हर जगह एक सा पानी नहीं गिराया है. जैसलमेर से लेकर चेरापूंजी में रहने वाले लोगों को जितना पानी मिला उन्होंने उसी में अपना काम बखूबी करके दिखाया था. लेकिन अब विकास का नया नारा सब जगह एक से सपने बेचना चाहता है और दुख की बात यह है कि इसमें न्याय देने वाले लोग भी शामिल होना चाह रहे हैं. ऐसे लोगों और संस्थाओं को अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाओं के भीतर रहना चाहिए और कभी रेखाओं को तोड़ना भी पड़े तो बहुत सोच-समझकर ऐसा करना चाहिए.

जीरा या धीमा जहर!

यदि नमक में आयोडीन की हल्की-सी मात्रा आपको कई बीमारियों से बचा सकती है तो हर रोज खाने में इस्तेमाल होने वाले किसी मसाले में बेहद खतरनाक जहर की हल्की-सी मात्रा आपके स्वास्थ्य के लिए घातक भी साबित हो सकती है. हाल ही में आई एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक आप जिस जीरे को हर दिन खाने में इस्तेमाल कर रहे हैं उसमें मिले कीटनाशक भविष्य में आपको कई जानलेवा बीमारियों का शिकार बना सकते हैं. भारत सरकार के कृषि एवं सहकारिता विभाग की पहल पर तैयार की गई एक रिपोर्ट बताती है कि राजस्थान में कई प्रतिबंधित कीटनाशकों के इस्तेमाल से यहां उत्पादित होने वाला जीरा जहरीला हो चुका है. उल्लेखनीय है कि राजस्थान देश में जीरे का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक राज्य है.

ऑल इंडिया नेटवर्क प्रोजेक्ट ऑन पेस्टीसाइड रेजिड्यू  नामक परियोजना के तहत 5 साल तक हुए इस अनुसंधान की रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है. लेकिन तहलका के पास मौजूद रिपोर्ट की प्रति में खुलासा किया गया है कि जीरे में न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से कई गुना अधिक मात्रा तक जहर घुला हुआ है.

जीरा ओस और कोहरे में पैदा नहीं होता. इसलिए राजस्थान के मारवाड़ इलाके की सूखी जलवायु में यह खूब पैदा किया जाता है. भारत के कुल 429 हजार हेक्टेयर में से अकेले राजस्थान में 169 हजार हेक्टेयर यानी देश में जीरा उत्पादन के कुल क्षेत्रफल के 40 प्रतिशत भाग पर जीरा पैदा किया जाता है. बीते साल भारत में कुल 127 हजार टन जीरा उत्पादित हुआ और उसमें से अकेले राजस्थान का हिस्सा 43 हजार टन था. राज्य का जीरा कई छोटी मंडियों से होते हुए गुजरात की ऊंझा और दिल्ली की खारीबावली जैसी बड़ी मंडियों तक पहुंचता है. और यहां से ज्यादातर भारतीयों की थाली में.

जीरे में कीटनाशकों की जांच के लिए गठित अनुसंधान दल के प्रभारी एनएस परिहार अध्ययन से जुड़े तथ्य तहलका से साझा करते हुए बताते हैं, ‘ बीते पांच साल में राजस्थान के जीरा उत्पादक सात जिलों (जोधपुर, अजमेर, बाड़मेर, जालौर, पाली, भीलवाड़ा और नागौर) से हर महीने चार-चार नमूने लिए गए थे. इस दौरान जीरा के 60 प्रतिशत नमूनों में कई खतरनाक कीटनाशकों के भारी मात्रा में पाए जाने की पुष्टि हुई है.’ दल के मानकों के हिसाब से कीटनाशकों की न्यूनतम स्वीकृत मात्रा एक पीपीएम (दस लाख में एक हिस्सा) यानी एक किलोग्राम जीरे में एक मिलीग्राम से कम होनी चाहिए. मगर इन नमूनों में कीटनाशकों की मात्रा खतरनाक स्तर को पार करते हुए 2 से 4 पीपीएम यानी एक किलोग्राम जीरे में 2 से 4 मिलीग्राम तक पाई गई. परियोजना से जुड़े कृषि वैज्ञानिक बीएन शर्मा इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं, ‘राज्य के जीरा उत्पादक कई कीटनाशकों को तयशुदा मात्रा से चार गुना तक इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे कि मेनकोजेब नामक फफूंदीनाशक को एक लीटर पानी में दो ग्राम की जगह आठ ग्राम तक डाला जा रहा है. जीरे की फसल में झुलसा नामक फंफूद जब आती है तब बीज पककर तैयार हो जाता है और ऐसे में मेनकोजेब का अंधाधुंध छिड़काव करने से यह जहर के तौर पर बीज में रह जाता है.’  राजस्थान में जीरे की फसल पर एक के साथ चार-चार कीटनाशकों का छोटे-छोटे अंतराल पर छिड़काव किया जा रहा है. मगर इससे भी खतरनाक तथ्य यह है कि जीरे की फसल में कई प्रतिबंधित कीटनाशकों का भी इस्तेमाल हो रहा है. इनमें शरीर के कई अहम अंगों में बीमरियां फैलाने वाले आरगेनोक्लोरिन, आरगेनोफास्फेट और सिंथेटिक पाइरेथ्रोइड से भी बेहद जहरीले कीटनाशक शामिल हैं.

प्रतिबंधित कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर कीटनाशक एजेंसी चलाने वाले पंकज जोशी बताते हैं कि राजस्थान के जीरा उत्पादकों को सरकार की ओर से परामर्श की कोई व्यवस्था नहीं है. इसलिए जीरा उत्पादक को जीरे में होने वाली बीमारियों के लिए कृषि विभाग के अधिकारी की बजाय कीटनाशक विक्रेता से संपर्क करना पड़ता है. यह विक्रेता कंपनी द्वारा बताए गए कई महंगे कीटनाशकों की सूची जीरा उत्पादक को थमाता रहता है और उसकी जेब से पैसा निकालता रहता है. जाहिर है इस धंधे में सबसे ज्यादा मुनाफा जीरे को अपनी बेहिसाब कमाई का जरिया बनाने वाली कीटनाशक कंपनियों को ही होता है.

‘जीरे में मिल रहा मोनोक्रोटोफास किडनी और लीवर को हानि पहुंचा रहा है तो फारेट से कैंसर का खतरा बढ़ता जा रहा है’

राज्य कृषि विभाग ने राजस्थान में मोनोक्रोटोफास जैसे जहरीले कीटनाशक को केवल कपास में इस्तेमाल करने की छूट दी है. मगर सरकारी स्तर पर कोई निगरानी और नियंत्रण नहीं होने से जीरे में इसे बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा रहा है. इसी तरह फारेट नामक जहरीले कीटनाशक पर तो पूरी तरह से रोक लगाई गई है. बावजूद इसके यह यहां के बाजारों में आसानी से उपलब्ध है. प्रतिबंधित कीटनाशकों के खुलेआम बिकने के मसले पर जब तहलका ने राजस्थान कृषि विभाग के आयुक्त से संपर्क किया तो उनके पास भी इस मामले में गोल-गोल बातों के बीच सिर्फ जांच कराने का आश्वासन था.

फिजीशियनों की राय में इस प्रकार से जहर का रोज और नियमित मात्रा में शरीर में पहुंचते रहना एक ऐसा धीमा लेकिन खतरनाक हादसा है जो हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को ही खत्म कर देता है. चित्तौड़गढ़ के डॉ नरेंद्र गुप्ता कहते हैं, ‘ मोनोक्रोटोफास का किडनी और लीवर पर बहुत बुरा असर पड़ता है. वहीं सिंथेटिक पाइराथ्रोइड से एलर्जी और फारेट से कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है.’  भारत में कई जगहों पर जीरा कच्चे तौर पर और औषधियों के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. विशेषज्ञों की राय में कच्चे तौर पर इस्तेमाल में लाया गया जीरा अपेक्षाकृत अधिक जहरीला होता है.

राजस्थान में जीरे की फसल में कीटनाशकों का प्रयोग न सिर्फ इसकी पूरी खेती को ही जहरीला बना रहा है बल्कि मिट्टी की संरचना पर भी इसके कई घातक असर पड़ रहे हैं. जोधपुर में कृषि शोधकार्यों से जुड़े नासिर खिलजी बताते हैं, ‘ कुछ साल पहले तक हम जब नंगे पैर खेतों में काम करते थे तब शरीर को कोई नुकसान नहीं होता था. मगर अब मिट्टी भी इस कदर जहरीली होती जा रही है कि जीरा उत्पादन में लगे किसानों की त्वचा में कोई न कोई बीमारी लगी ही रहती है.’ खिलजी को आशंका है कि अगर जीरे के खेतों में जहर इसी तरह से जड़ें जमाता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मारवाड़ के जीरे के खेतों की तुलना पंजाब के उन खौफनाक खेतों से की जाएगी जो कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण फिलहाल जहरीली फसल उगल रहे हैं और कैंसर मरीजों के बड़े केंद्र बन चुके हैं. मारवाड़ के कई जीरा उत्पादक यह भी बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में मिट्टी की उर्वरता भी तेजी से घटी है. पाली जिले के जैतारन गांव के जीरा उत्पादक हरिनारायण चौधरी बताते, ‘ कीटनाशकों को लेकर जीरे की भूख हर साल बढ़ती ही जाती है. मगर अब कीटनाशकों की प्रचुरता के चलते इस इलाके के कुछ खेतों की उर्वरता इस हद तक घटी है कि जीरा उगना ही बंद हो रहा है. इसी के साथ कीटनाशकों के भारी छिड़काव से जीरे के दुश्मन कीट के साथ केंचुआ सहित कई मित्रकीट भी मारे जा रहे हैं.’ कृषि विज्ञान के जानकार बताते हैं कि लेडीबायराबीटल जीरे का एक ऐसा मित्रकीट है जो उसकी फसल को नुकसान पहुंचाने वाले चेपा यानी एफिड (पौधा चूसने वाला मच्छर) को खाता है. मगर इनदिनों कई हानिकारक रसायनों से लेडीबायराबील जैसे कई मित्रकीट का ही तेजी से सफाया किया जा रहा है.

इन भयावह हालात की सारी जिम्मेदारी अकेले जीरा उत्पादकों के कंधों पर नहीं डाली जा सकती. कृषि विश्वविद्यालय, उदयपुर के पूर्व कुलपति डॉ वीबी सिंह के मुताबिक इसके लिए सरकार की वह नीति भी जिम्मेदार है जिसने जीरा उत्पादकों को आधुनिकता के नाम पर खतरनाक कीटनाशकों की ओर धकेला है. वे कहते हैं, ‘ इसी आधुनिकता के मार्फत बाजार की ताकतें शामिल हुईं और उन्होंने जीरे की खेती को पूरी तरह से कीटनाशकों पर ही निर्भर बना दिया. इससे एक ओर कीट की प्रतिरोधकता बढ़ने से कीटनाशक अपना असर खोते जा रहे हैं और दूसरी तरफ जीरा उत्पादक भी अपनी फसल बचाने के लिए ज्यादा से ज्यादा कीटनाशकों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हुए हैं.’

तहलका से बातचीत में कई जीरा उत्पादक बताते हैं कि मारवाड़ में कीटनाशकों की ज्यादा मात्रा डालना अब उनकी मजबूरी है; क्योंकि अगर वह ऐसा नहीं करेंगे तो फसल बर्बाद होने का खतरा है. इससे जीरा उत्पादकों का नुकसान यह हो रहा है कि कीटनाशकों की खरीद कई गुना तक बढ़ गई है. इसकी वजह से जीरा उत्पादन की लागत साल दर साल बढ़ती जा रही है. वहीं जीरे की गुणवत्ता में भी गिरावट आ रही है.

कुल मिलाकर यह ऐसा दुष्चक्र है जिसमें एक तरफ राजस्थान के जीरा उत्पादक किसान फंस चुके हैं तो दूसरी तरफ देश के वे तमाम उपभोक्ता हैं जिन्हें जीरे के तौर पर जहर मिल रहा है.

सिद्दीकी की सल्तनत

मायावती सरकार में कृषि, आबकारी और लोकनिर्माण जैसे महत्वपूर्ण विभागों के मुखिया रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने अपने रुतबे के सहारे अपने करीबियों को तरह-तरह के अनैतिक लाभ पहुंचाए. तहलका के पास मौजूद लोकायुक्त की जांच रिपोर्ट उनके काले कारनामों का कच्चा-चिट्ठा उजागर करती है. जय प्रकाश त्रिपाठी की पडताल

बहुजन समाज पार्टी के कद्दावर नेता व पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी बसपा सुप्रीमो मायावती के सबसे करीबियों में से हैं. जब तक प्रदेश में बसपा की सरकार थी, सिद्दीकी सरकार की आंख, नाक और कान थे. सरकार में सिद्दीकी का जितना बड़ा कद था, नियम-कानूनों के साथ खेलने की उनकी आदत भी उतनी ही बड़ी थी. उनके नियम विरुद्ध कारनामों की फेहरिस्त पत्नी हुस्ना सिद्दीकी के नाम फर्जी शिक्षण सोसाइटी बनाने से लेकर शराब कारोबार से जुड़े लोगों तक फैली है.

लखनऊ निवासी जगदीश नारायण शुक्ला की शिकायत पर लोकायुक्त एनके मल्होत्रा ने जब सिद्दीकी की पड़ताल शुरू की तो प्याज के छिलके की तरह परत-दर-परत उनके कारनामे खुलते चले गए.

सबसे पहले हुस्ना सिद्दीकी की एजुकेशनल सोसाइटी की बात करते हैं. क्यूएफ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट 49, श्यामनगर, खुर्रमनगर, लखनऊ के नाम से यह सोसाइटी 10 जुलाई, 2007 को रजिस्ट्रार कार्यालय में पंजीकृत कराई गई थी. 10 जुलाई, 2011 को संस्था के सदस्यों ने पांच साल की अवधि के लिए इसका नवीनीकरण करवाया. समिति में अध्यक्ष सीमा अग्निहोत्री, उपाध्यक्ष मूल चंद्र, सचिव हुस्ना सिद्दीकी पत्नी नसीमुद्दीन सिद्दीकी सहित 11 लोगों को शामिल किया गया. दस्तावेजों में प्रबंधकारिणी के तीन सदस्यों सीमा अग्निहोत्री, संजीव कुमार अग्निहोत्री और पंकज अग्निहोत्री का पता बान वाली गली, चौक लखनऊ दर्ज है, जबकि सचिव हुस्ना सिद्दीकी का पता 1102, लाप्लास लखनऊ दर्ज है. बाकी सदस्यों का पता बांदा का है. साल 2006 से 2010 तक के संस्था के बहीखातों की जांच में पता चला कि सोसाइटी को 3,62,48,417 रुपये की रकम मिली. यह रकम चंदे, दान और अनुदान के रूप में मिली थी.

सोसाइटी को करोड़ों रुपया किन लोगों की तरफ से दिया गया, इसका पता लगाने के लिए लोकायुक्त ने जब अध्यक्ष सीमा अग्निहोत्री को नोटिस जारी किया तो उनका जवाब दिलचस्प था. सीमा ने लोकायुक्त को बताया कि 28 नवंबर, 2011 को उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया है. इतना ही नहीं, उनका यह भी कहना था कि अनुदान देने वाले लोगों के बारे में वे कोई भी दस्तावेज देने में असमर्थ हैं. अध्यक्ष का यह जवाब लेकर उनके भाई व संस्था के सदस्य पंकज अग्निहोत्री लोकायुक्त कार्यालय में उपस्थित हुए. हद तो तब हो गई जब कागजों में संस्था का सदस्य होने के बावजूद पंकज अग्निहोत्री ने लोकायुक्त को पूछताछ में बताया कि सोसाइटी के बारे में उन्हें कोई जानकारी ही नहीं है. संस्था के दूसरे सदस्य व अध्यक्ष सीमा के एक और भाई संजीव कुमार अग्निहोत्री ने 28 दिसंबर, 2011 को अजीबोगरीब बयान लोकायुक्त कार्यालय में दर्ज कराया. उनके मुताबिक उन्होंने 49, श्यामनगर, खुर्रमनगर के पते पर सोसाइटी का कार्यालय कभी देखा ही नहीं. संजीव ने साथ में यह भी बताया कि संस्था को उन्होंने भी एक लाख रुपये दान के रूप में दिए हंै, लेकिन यह रुपया आया कहां से इसका जवाब वे आज तक लोकायुक्त को नहीं दे सके हैं.

नसीमुद्दीन की पत्नी हुस्ना सिद्दीकी ने अपनी सोसाइटी को जिस पते पर रजिस्टर करवाया वह पता ही फर्जी निकला

चूंकि संस्था की अध्यक्ष सीमा अग्निहोत्री ने नवंबर में ही अपने पद से इस्तीफा देने की बात कही थी इसलिए नियमत: यह जरूरी था कि सोसाइटी ने कोई-न-कोई कार्यवाहक अध्यक्ष या प्रभारी बनाया हो. इसके मद्देनजर संस्था के पते पर कार्यवाहक अध्यक्ष के नाम दूसरा नोटिस भेजा गया ताकि दानकर्ताओं और चंदा देने वालों की सूची से उनके नाम व आय के स्रोतों की जानकारी मिल सके. इस बार स्थिति और भी चौंकाने वाली हो गई. जिस खुर्ररमनगर पुलिस चौकी के जिम्मे नोटिस तामील कराने का जिम्मा था, उसने लोकायुक्त कार्यालय को लिख कर दे दिया कि लिफाफे पर दिया गया पता गलत है और इस नाम का कोई कार्यालय या बिल्डिंग मौजूद ही नहीं है. पुलिस के इस जवाब और संजीव अग्निहोत्री के बयान से यह बात तो साफ हो गई कि संस्था का जो पता दिखा कर पंजीकरण कराया गया है वहां क्यू एफ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट नाम की कोई सोसाइटी ही नहीं है.

संस्था का कोई अध्यक्ष न मिलने पर जांच का दायरा पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी की पत्नी हुस्ना सिद्दीकी पर आ टिका. लोकायुक्त ने हुस्ना से दानकर्ताओं की सूची मांगी. हुस्ना की ओर से जो सूची दी गई वह 2007-2011 की थी. वित्तीय वर्ष 2006-2007 के दानकर्ताओं की सूची उन्होंने लोकायुक्त को नहीं दी. सूची में चंदे की कुल धनराशि 1,82,46,793 रुपये बताई गई थी. इस सूची के अनुसार अधिकांश धनराशि चेक और ड्राफ्ट द्वारा और कुछ नकद भी प्राप्त की गई थी. बाकी की रकम के बारे में उन्होंने लोकायुक्त को कोई जानकारी नहीं दी. लोकायुक्त अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, ‘यह साबित हो चुका है कि क्यूएफ शैक्षणिक संस्थान हुस्ना सिद्दीकी पत्नी नसीमुद्दीन सिद्दीकी की अपनी निजी सोसाइटी है. जिन लोगों को सदस्य के रूप में दिखाया गया है वे केवल पंजीकरण कराने के उद्देश्य से इसमें सम्मिलित किए गए मालूम होते हैं.’

मंत्री जी की पत्नी पर उंगली सिर्फ संस्था बना कर करोड़ों रुपये का गोलमाल करने के लिए ही नहीं उठ रही बल्कि संस्था के लिए खरीदी गई जमीन में भी बड़ा हेर-फेर हुआ है. शिक्षण संस्था के नाम बाराबंकी जिले की कुर्सी तहसील के गांव निंदूरा में लगभग 14 एकड़ जमीन 2006 में खरीदी गई. इसमें से गाटा संख्या 1206, 1207, 1208, 1209, 1210, 1223 और 1224 के कुल रकबा 1.102 हेक्टेयर पर क्यूएफ महाविद्यालय का निर्माण हुआ है. इसमेंें से 0.240 हेक्टेयर आच्छादित क्षेत्रफल व 0.862 अनाच्छादित क्षेत्रफल चारदीवारी के अंदर है. इसके अलावा गाटा संख्या 1425  में भी 0.33 हेक्टेयर पर निर्माण हो चुका है और 0.50 क्षेत्रफल निर्माणाधीन है.

लोकायुक्त ने जब सोसाइटी की जमीन की जांच शुरू की तब और भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. जांच में पता चला कि संस्था के नाम जो 14 एकड़ जमीन खरीदी गई है उसका मूल्य कागजों में करीब 46 लाख दिखाया गया है जबकि उसकी वास्तविक कीमत 10 करोड़ के आस-पास होती है. जमीन खरीदने के बाद एक बार फिर शुरू हुआ ताकत और रसूख का खेल. शिकायत के बाद मौके पर लोकायुक्त की ओर से भेजे गए जांच दल ने पाया कि सोसाइटी के नाम करीब 14 एकड़ जमीन खरीदी गई है जबकि मौके पर टीम ने पाया कि इसके आस-पास की 10 एकड़ अतिरिक्त जमीन पर भी विद्यालय का ही कब्जा है. सूत्र बताते हैं कि जिस 10 एकड़ अतिरिक्त जमीन पर विद्यालय का कब्जा है उसमें से अधिकांश संपत्ति नसीमुद्दीन सिद्दीकी के मंत्री रहते हुए बेनामी तरीके से उनके लोगों द्वारा खरीदी गई है. जांच के बाद लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि गांव में जो भी संपत्ति क्रय की गई है उसकी खरीद कम कीमत में दर्शाकर आय के अज्ञात स्रोतों से कमाई गई धनराशि का प्रयोग अवश्य हुआ है. कितनी धनराशि का इसमें इस्तेमाल हुआ, कितने लोगों के नाम बेनामी संपत्ति खरीदी गई, किन लोगों से खरीदी गई, यह सारी जांच किसी बड़ी अपराध अन्वेषण एजेंसी द्वारा करवाई जानी चाहिए.

ताकत के बल पर घपले-घोटालों का यह खेल सिर्फ राजधानी लखनऊ और पड़ोसी जिले बाराबंकी तक सीमित नहीं रहा. पूर्व मंत्री के गृह जिले बांदा में भी उनके परिजनों ने नियम-कानूनों के साथ जमकर खिलवाड़ किया. बांदा शहर से सटे लड़ाकापुरवा गांव की गाटा संख्या 3235 का कुल रकबा 2.389 हेक्टेयर है. इसमें से 18 सितंबर, 2008 को उपमा गुप्ता पत्नी कृष्ण चंद गुप्ता ने भगवान दीन से दो हेक्टेयर भूमि पांच लाख रुपये में खरीदी थी. इसका सर्किल रेट 12 लाख रुपये प्रति एकड़ दिखाया गया. सर्किल रेट के हिसाब से जमीन पर 4,06,000 रुपये स्टांप ड्यूटी अदा की गई. तीन सप्ताह बाद ही 10 अक्टूबर को नसीमुद्दीन सिद्दीकी के भाई जमीरूद्दीन की पत्नी अकरमी बेगम ने उपमा गुप्ता की दो हेक्टेयर जमीन में से 1.050 हेक्टेयर जमीन तीन लाख रुपये में खरीद ली. इसी दिन जमीरूद्दीन की पुत्रवधू अर्शी सिद्दीकी ने इसी गाटा संख्या वाली 0.950 हेक्टेयर जमीन को उपमा गुप्ता से ढाई लाख रुपये में खरीदा.

सिद्दीकी के परिजनों ने गरीब किसानों के लिए शुरू की गई राज्य सरकार की परियोजना का गलत फायदा उठाया

यहां यह बताना जरूरी है कि उपमा गुप्ता के पति कृष्ण चंद गुप्ता सिंचाई विभाग के इंजीनियर हैं और बांदा के ही रहने वाले हैं. गुप्ता पिछले दो साल से निर्माण निगम में प्रतिनियुक्ति पर कार्यरत हैं. सिंचाई विभाग व निर्माण निगम दोनों ही मंत्रालय नसीमुद्दीन सिद्दीकी के पास थे. यहां सवाल यह उठता है कि क्या नसीमुद्दीन सिद्दीकी के परिजनों को दिलाने के लिए ही पहले उनके ही विभाग के एक इंजीनियर की पत्नी के नाम जमीन कराई गई और फिर तीन सप्ताह बाद उसे मंत्री जी के परिजनों के नाम कर दिया गया. अगर यह मान भी लिया जाए कि यह महज संयोग है और इसमें कुछ गलत भी नहीं हुआ तो असली खेल कहां हुआ?

इसी गाटा संख्या 3235 से 89.22 वर्ग मीटर जमीन भगवान दीन ने 14 अगस्त, 2008 को 1,40,000 रुपये में ममता यादव पत्नी पप्पू यादव एवं दीन दयाल यादव को बेचा है. इस खरीद के आधार पर जमीन के दाम का असली मूल्यांकन किया जाए तो यह डेढ़ करोड़ प्रति हेक्टेयर से कुछ ज्यादा होता हैै. इसका अर्थ यह हुआ कि उपमा गुप्ता ने जो दो हेक्टेयर जमीन खरीदी थी उसका बाजार मूल्य तीन करोड़ से भी ज्यादा होता है. मगर उपमा गुप्ता को यह जमीन सिर्फ पांच लाख रुपये में मिल गई थी. उसपर अगली विचित्रता यह कि कौड़ियों के भाव खरीदी गई इतनी महंगी जमीन उन्होंने तीन सप्ताह बाद ही  मंत्री के परिजनों को मात्र साढ़े पांच लाख रुपये में बेच भी दी. लोकायुक्त ने अपनी जांच में लिखा है कि इस भूमि की खरीद में काले धन का इस्तेमाल हुआ है और जमीन की कीमत कम दिखा कर इस संपत्ति को नसीमुद्दीन सिद्दीकी के संबंधियों ने खरीदा है.

घपले-घोटालों का यह दायरा सिर्फ जमीन खरीदने और संस्था के नाम पर करोड़ों रुपये डकारने तक ही सीमित नहीं है. बसपा के सबसे ताकतवर मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी के परिजनों ने बुंदेलखंड के गरीब किसानों के लिए शुरू की गई राज्य सरकार की विशेष परियोजना से भी जमकर फायदा उठाया. केंद्र सरकार की ओर से बुंदेलखंड के किसानों को करोड़ों का पैकेज दिया गया. इससे किसानों को सब्सिडी पर ट्रैक्टर, डिस्क, हैरो, थ्रेशर और कल्टीवेटर बंटने थे. नियम के अनुसार सब्सिडी का लाभ सिर्फ गरीब किसानों को ही मिलना था. लेकिन जब घर में ही कृषि मंत्री हो तो सब्सिडी का लाभ मिलना भला कौन-सा मुश्किल काम है. लिहाजा पूर्व कृषि मंत्री के दो भतीजों जुबैरूद्दीन व बजाहुद्दीन पुत्र जमीरूद्दीन सिद्दीकी ने एक-एक ट्रैक्टर हथिया लिए. वह भी तब जबकि वे किसान भी नहीं थे. लोकायुक्त ने अपनी जांच में लिखा है कि जो अनुदान दिया गया उसमें नियमों का पालन नहीं किया गया. कितने लोगों ने आवेदन किया, उनमें से कौन पहले आया और कौन बाद में, इसका लेखा-जोखा भी कृषि विभाग के पास नहीं है. प्रक्रिया में गड़बड़ी हुई है और इसके लिए कृषि विभाग उत्तरदायी है.

नसीमुद्दीन पर टिप्पणी करते हुए लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ‘उनके सीधे शामिल होने का कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है, लेकिन कृषि मंत्री होने के नाते व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए और कृषि विभाग को आवंटित धनराशि पात्र अभ्यर्थियों को दिलवाने का दायित्व उनका था.’ वैसे भी कोई सामान्य सा बुद्धि वाला व्यक्ति भी यह आसानी से सोच सकता है कि यदि आपके मातहत विभाग से आपके परिजनों को कोई लाभ पहुंचाया जाता है तो निश्चित ही इसके पीछे आपकी भूमिका होनी चाहिए.

नसीमुद्दीन सिद्दीकी आबकारी विभाग के भी मंत्री थे और इसके जरिये भी उन्होंने कितने नियम विरुद्ध काम किए इसके बारे में भी लोकायुक्त की रिपोर्ट में  कड़ी टिप्पणियां की गई हैं. लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सिद्दीकी ने आबकारी नीति में मनमाने बदलाव किए जिससे कुछ खास लोगों को  जबर्दस्त फायदा हुआ.

पूर्व बसपा सरकार में नसीमुद्दीन सिद्दीकी पर मेहरबानियों का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आय से अधिक संपत्ति के मामले की जांच करने के बाद पूरे प्रकरण पर जब लोकायुक्त ने सरकार से सीबीआई जांच की सिफारिश की तो सरकार ने इसे सिरे से ही खारिज कर दिया. जबकि इसी तरह की कई शिकायतों में लोकायुक्त की सिफारिश पर ही मायावती ने अपने दर्जन भर मंत्रियों को चुनाव से पहले बाहर का रास्ता दिखा दिया था.

क्या लाइलाज है सपाई अराजकता?

जो युवा आज सपा के गले की हड्डी बन गए हैं, जिनसे आज मुलायम सिंह बार-बार अनुशासित रहने की अपील कर रहे हैं कभी वे मुलायम के आह्वान पर हल्ला बोला करते थे. गोविंद पंत राजू का विश्लेषण

23 मार्च 1997 की सुबह विक्रमादित्य मार्ग स्थित लोहिया ट्रस्ट की इमारत के प्रांगण में लोहिया जयन्ती के कार्यक्रम की तैयारियां चल रही थीं. लोहिया ट्रस्ट के पिछवाड़े वाले बरामदे में कुरता पायजामा पहने एक नौजवान हाथ में कागज लेकर उसे पढ़ते-पढ़ते याद करने की कोशिश कर रहा था. वह बार बार रूमाल से अपने माथे का पसीना भी पोंछ रहा था. तभी उसकी नजर हम पर पड़ी और वह थोड़ा शर्माते हुए सफाई देने लगा, ‘नेताजी भी रहेंगे. उनके सामने ही भाषण देना है. जरा भी गलती हो गई तो सारी मेहनत बर्बाद हो जायगी. इसीलिए ठीक से याद करने की कोशिश कर रहा हूं.’ यह नौजवान समाजवादी युवजन सभा का प्रदेश पदाधिकारी था और नेता जी के सामने लोहिया जी के बारे में ठीक से बोल सके, इसके लिए किसी बड़े नेता से लिखवाए गए भाषण को रट रहा था.

नवम्बर 2011 की एक और सुबह. समाजवादी पार्टी के कार्यालय में अखिलेश यादव के कमरे के अंदर 5-6 युवाओं की एक मंडली दो तीन कम्प्यूटर और लैपटाप पर काम करते हुए गंभीर चिन्तन में लीन थी. समाजवादी पार्टी की भावी योजनाओं पर विचार करते हुए, पहले दृश्य वाला नौजवान अब भी समाजवादी पार्टी से जुड़ा हुआ है और विधानसभा चुनाव भी लड़ चुका है जबकि दूसरे दृश्य वाले नौजवान अब उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री की कोर टीम के सदस्य माने जाते हैं.

इन दो उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि समाजवादी पार्टी के लिए नौजवानों की क्या अहमियत है. मुलायम सिंह यादव ने 4 अक्टूबर 1992 को समाजवादी पार्टी की स्थापना के वक्त से ही युवाओं को न सिर्फ पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण भूमिकाएं दी थीं बल्कि पार्टी को आगे बढ़ाने में भी उनका खूब इस्तेमाल किया. मुलायम सिंह यादव छात्रों और युवाओं के बीच जाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद पर अपने पहले दो कार्यकालों में विश्वविद्यालयों में छात्रों के कार्यक्रमों में सबसे अधिक बार जाने वाले मुख्यमंत्री बन गए थे. मुलायम सिंह ने राममनोहर लोहिया की विचारधारा को जिन जिन क्षेत्रों में पूरी तरह अपनाया उनमें युवाओं से संबंधित विचारधारा भी एक थी. आज भी समाजवादी पार्टी के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों में 25 फीसदी से अधिक ऐसे हंै जो छात्र या युवा राजनीति से किसी न किसी रूप में जुडे़ रहे हैं. अपने पिछले कार्यकाल में भी मुलायम ने युवा बेरोजगारों को 500 रुपये प्रतिमाह का बेराजगारी भत्ता देने की घोषणा कर युवाओं के प्रति अपने मोह का प्रमाण दिया था. लेकिन समाजवादी पार्टी की यही ताकत उसकी सबसे बड़ी मुसीबत भी है. पिछले कार्यकाल में इसी युवा शक्ति के कारण समाजवादी पार्टी को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा था और उसे ‘गुण्डाराज’ जैसे तमगे भी मिले थे. इसी ताकत को नियंत्रित रखने के लिए मुलायम सिंह यादव अपने कार्यकाल के अंतिम छह महीने में अपने हर सार्वजनिक कार्यक्रम में कार्यकर्ताओं से अनुशासन में रहने, पार्टी की छवि को सुधारने और जनता के बीच फिर से इज्जत वापस हासिल करने का प्रयास करने की भीख मांगते दिख रहे थे. लेकिन समाजवादी पार्टी की ‘ताकत’ पर इसका कोई असर नहीं हो पाया और उनका परिणाम समाजवादी पार्टी के 5 साल के निर्वासन के रूप में सामने आया.

अखिलेश यादव ने जो रणनीति बनाई थी उसमें युवाओं को बेलगाम न छोड़ने पर खास ध्यान दिया गया था. बावजूद इसके कानून का राज शत प्रतिशत स्थापित नहीं हो सका है

2011 में भी यही ‘ताकत’ एक बार फिर समाजवादी पार्टी को मजबूत करती दिखाई दी. लेकिन कहावत है कि दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है ठीक उसी तरह समाजवादी पार्टी ने भी इस बार ‘ताकत’ के इस्तेमाल में कई सावधानियां रखीं. अखिलेश यादव के खेमे में चुनाव की जो रणनीति बनाई जा रही थी उसमें युवाओं को बेलगाम न छोड़ने पर खास ध्यान दिया गया. पार्टी से सक्रिय रूप से जुड़ने वाले युवा नेताओं की छवि का भी खासा ध्यान रखा गया और पूरे चुनाव अभियान में सबसे ज्यादा जोर इसी बात पर रहा कि इस बार अगर पार्टी सत्ता में आई तो शत प्रतिशत कानून का राज स्थापित किया जाएगा. अखिलेश की उदार और लचीली छवि के कारण भी युवाओं का जबर्दस्त ध्रुवीकरण पार्टी के पक्ष में हुआ. चुनाव अभियान के दौरान अखिलेश की सभाओं में युवाओं की सबसे अधिक उपस्थिति इसका प्रमाण थी. लोगों को भी लगने लगा था कि शायद इस बार सब कुछ बदल जाएगा.

लेकिन चुनावी नतीजे आने और सरकार बनने के शुरुआती दिन ही ऐसा लगने लगा कि मामला वही ‘ढाक के तीन पात’ वाला हो गया है. शपथ ग्रहण समारोह में समाजवादी पार्टी की ‘ताकत’ ने मंच पर कब्जा कर जिस तरह की उद्दण्डता दिखाई थी उसने अखिलेश जैसे ‘कूल’ मुख्यमंत्री को भी कठोर कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा. एक के बाद एक कार्यकर्ता और नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने, झंडे बैनर के इस्तेमाल के लिए कड़े नियम बनाने और समाजवादी कार्यकर्ताओं को साफ चेतावनी देने के बाद भी सब कुछ ठीक हो गया है, यह कहा नहीं जा सकता और यही बात अब समाजवादी पार्टी के लिए सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती हो गयी है.

समाजवादी पार्टी यह बात भलीभांति जानती है कि उसकी राजनीति के लिए युवा कितने महत्वपूर्ण हैं. इसीलिए अपने घोषणा पत्र में भी उसने छात्र संघों की बहाली, बेरोजगारी के लिये भत्ता, खेलों के लिए विशेष प्रयास तथा स्कूल से कॉलेज स्तर तक वाद विवाद प्रतियोगिताओं के आयोजन आदि अनेक वायदे भी किए थे. सरकार बनते ही इनमें से कई वायदे पूरे भी कर दिए गए. पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी कहते हैं, ‘युवा तो हमारी पार्टी का आधार हैं. नेता जी ने भी कहा है कि इस बार की जीत में युवाओं के संघर्ष का बड़ा योगदान है. समाजवादी पार्टी की संघर्षयात्रा में नौजवानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. नौजवानों के बिना समाजवादी पार्टी अधूरी है.’ मगर समाजवादी पार्टी का आधार कही जाने वाली युवा शक्ति पार्टी के लिये दुधारी तलवार की तरह है. समाज विज्ञानी डॉ. राजेश कुमार कहते हैं, ‘छात्र संघों की बहाली बेशक स्वागत योग्य है लेकिन छात्रसंघों की गतिविधि कालेजों के भीतर तक ही सीमित रहे तो बेहतर होगा. यह अगर परिसर के बाहर फैल गई तो सत्ताधारी दल के लिए आफत बन सकती है.’
अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी की लाल गांधी टोपी को लाल रंग की स्पोर्ट्स कैप में बदल कर पार्टी के युवा चेहरे को बाहर से बदलने का काम तो शुरू कर दिया है. मगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर और समाजवादी पार्टी के लिए 2014 में दिल्ली की सत्ता का रास्ता तैयार करने वाले नायक के रूप में उनकी भूमिका की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे पार्टी की ‘ताकत’ पर कितनी लगाम रख सकते हैं और युवाओं की असीम ऊर्जा को किस हद तक सकारात्मक दिशा में ले जा सकते हैं.

‘हुनर’ और ‘औजार’ पर प्रहार

अच्छी नीयत से शुरू की गई हुनर और औजार नाम की योजनाओं का मकसद यह था कि बिहार की हजारों मुसलिम लड़कियां अपने पांवों पर खड़ी हों. लेकिन प्रतिष्ठित मुसलिम मजहबी संगठनों से जुड़े लोगों ने ही इन योजनाओं को पलीता लगा दिया. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

सात सितंबर, 2009 का वह दिन फुलवारी शरीफ की नूरी परवीन की जिंदगी में खुशियों की सौगात लेकर आया था. उस दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक भव्य कार्यक्रम में उसे ढाई हजार रुपये का चेक अपने हाथों से दिया था. नूरी ने हुनर योजना के तहत सिलाई में एक साल की ट्रेनिंग ली थी. मुख्यमंत्री ने उसे यह चेक इसलिए दिया था ताकि वह अपने हुनर के बूते अपने पैरों पर खड़ी हो सके. नूरी के सपनों को जैसे पर लग गए थे. वह सोच रही थी कि उन पैसों से खरीदी गई सिलाई मशीन से वह काम करेगी और पैसे कमाएगी.

वह क्षण मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए भी यादगार था. वे खुश थे और संतुष्ट भी. इसी खुशी में उन्होंने यह घोषणा कर दी थी कि ‘हुनर’ और ‘औजार’ योजना का विस्तार होगा. इसका लाभ 25 हजार की बजाय 50 हजार बच्चियों तक किया जाएगा और इसमें दलित बच्चियों को भी शामिल किया जाएगा.

सितंबर, 2009 के  उस कार्यक्रम को बीते आज ढाई साल हो चुके हैं. स्याह नकाब की चिलमन के पीछे से झांक रहा नूरी का खुशियों से चमकता वह चेहरा और उस दिन मुख्यमंत्री के माथे पर उभरा संतोष का भाव, फिल्मों की फ्लैश-बैक घटना की तरह कहीं गुम-से हो गए हैं. इस फिल्म की आगे की पात्र जैसे भोजपुर की शमा, नसरीन, फारबिसगंज की तब्बसुम, शबाना और गोपालगंज की जमीला जैसी हजारों लड़कियां नूरी जैसी खुशकिस्मत नहीं हैं. क्योंकि इस फिल्म के विलेन इनके सपनों को चकनाचूर कर रहे हैं.

तीनों ही संगठनों को राज्य सरकार ने करोड़ों रुपये दिए ताकि वे अपने संसाधनों, नेटवर्क और विशेषज्ञों की मदद से यह कार्यक्रम लागू करें

जुलाई, 2008 में केंद्र के सहयोग से राज्य सरकार ने अल्पसंख्यक बालिकाओं के स्वरोजगार और प्रशिक्षण के लिए ‘हुनर’  योजना शुरू की थी. इसके बाद हुनरमंद होने वाली बालिकाओं के लिए ‘औजार’ योजना के तहत 2,500 रुपये दिए जाने थे ताकि वे अपने हुनर का इस्तेमाल करने के लिए औजार खरीद सकें. लेकिन 40-45 हजार बालिकाओं के स्वरोजगार और सपनों से जुड़ी इस योजना पर घोटाले का ग्रहण लग गया.

इस योजना के लिए राज्य सरकार ने बिहार के तीन बड़े मजहबी संगठनों- इमारत शरिया, एदारा शरिया और रहमानी फाउंडेशन को नोडल एजेंसी के रूप में चुना था. उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपने के पीछे नीतीश सरकार की यही मंशा थी कि ये संगठन न सिर्फ मुसलमानों के प्रतिनिधि संगठन हैं बल्कि वे भलीभांति जानते हैं कि मुसलिम समाज को कैसे आगे बढ़ाया जा सकता है. पटना स्थित इमारत शरिया जहां दारुल उलूम देवबंद के समानांतर एक ऐसी मजहबी संस्था है जिसके पैरोकार बिहार, उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल समेत अनेक राज्यों में  हैं. विभिन्न मुद्दों पर फतवा देने में इस संस्था की महत्वपूर्ण भूमिका है. पूर्वी राज्यों के मुसलमानों का इस संस्था पर इतना भरोसा है कि वे ईद का चांद दिखने की तस्दीक भी इस संस्था द्वारा ही करते हैं. इसी तरह पटना के सुल्तानगंज इलाके में स्थित इदारा शरिया बिहार समेत अन्य पूर्वी राज्यों में मुसलमानों का प्रतिनिधि संगठन है जिसे मुसलमान सम्मान की नजर से देखते हैं.  तीसरी संस्था रहमानी फाउंडेशन हाल के वर्षों में गरीब मुसलिम छात्रों को आईआईटी प्रवेश परीक्षा के लिए मुफ्त कोचिंग करवाने और इन छात्रों की सफलता के लिए चर्चित हुई है.

इन तीनों ही संगठनों को राज्य सरकार ने करोड़ों रुपये दिए ताकि वे अपने संसाधनों, नेटवर्क और तकनीकी विशेषज्ञों की मदद से हुनर कार्यक्रम को लागू करें. कार्यक्रम के तहत बालिकाओं को सिलाई, पेंटिंग, ब्यूटीशियन और चाइल्ड केयर आदि का प्रशिक्षण देना था. पहले ही साल इस कार्यक्रम में लगभग 13 हजार लड़कियों को शामिल कर लिया गया. इस प्रकार राज्य के 38 में से अधिकतर जिलों तक इस कार्यक्रम की पहुंच हो गई. लेकिन पिछले दो-तीन महीनों के प्रयास में तहलका को मिले दस्तावेज, सबूत और तथ्य बताते हैं कि गरीब और अनाथ बच्चियों के हुनर के विकास के लिए शुरू की गई यह योजना लूट खसोट और घपलों घोटालों की भेंट चढ़ चुकी है.

गड़बड़ियों का खेल

lरहमानी फाउंडेशन : रहमानी फाउंडेशन बिहार के पूर्वी जिलों में दर्जनों छोटे-छोटे मदरसों या गैरसरकारी संस्थाओं के माध्यम से हुनर कार्यक्रम चला रहा है.  तहलका ने कुछ केंद्रों का जायजा लिया तो चौंकाने वाले मामले सामने आए. अररिया जिले का मदरसा आलिया दारुल कुरआन, दरभंगिया टोला का केंद्र मो. फिरोज की देखरेख में चलता है. यहां चलने वाले पहले सत्र में 31 बालिकाओं ने प्रशिक्षण लिया. इस साल सफल बालिकाओं को औजार खरीदने के लिए प्रत्येक को ढाई-ढाई हजार की रकम मिल भी गई. पर दूसरे सत्र में स्थितियां बिल्कुल उलट गईं. फिरोज की देखरेख में चलने वाले प्रशिक्षण केंद्रों पर 121 बालिकाओं ने प्रशिक्षण तो लिया पर उनमें से कइयों को औजार के लिए पैसे नहीं मिले. उदाहरण के लिए, फाउंडेशन ने फारबिसगंज के रामपुर मुहल्ले के मो इलियास अंसारी की बेटी तबस्सुम परवीन के नाम 31 अक्टूबर, 2009 को एक चेक जारी किया था.  तकनीकी या किसी अन्य कारण से इसका भुगतान नहीं हो सका. फिरोज की शिकायत के बाद रहमानी फाउंडेशन ने फिर दो नवंबर, 2010 को चेक जारी किया. लेकिन दोबारा इस चेक का वही हस्र हुआ. हालांकि रहमानी फाउंडेशन से जुड़े अधिकारी आरिफ रहमानी तहलका से कहते हैं कि चेक से पैसे नहीं मिलने का जिम्मेदार फाउंडेशन नहीं हैं. वे कहते हैं,  ‘हो सकता है कि चेक को समय पर जमा नहीं करवाया गया होगा.’

लेकिन तबस्सुम तो सिर्फ एक उदाहरण है. रामपुर के ही गुलाम रब्बानी की बेटी शबाना परवीन के नाम 10 जून, 2011 को उसी बैंक से एक चेक जारी किया गया. पर शबाना को भी भुगतान नहीं हो सका. फिरोज का आरोप है कि इस तरह के अनेक चेक बेकार हो गए और बालिकाओं को भुगतान से वंचित होना पड़ा. इस संबंध में जब रहमानी से बात की गई तो जवाब मिला कि अगर चेक से भुगतान नहीं हुआ तो प्रभावित लोगों को उनसे शिकायत करनी चाहिए थी. पर तबस्सुम के पिता इलियास अंसारी कहते हैं, ‘हमने  कई बार शिकायत की. एक बार दूसरा चेक बनवाया भी गया. फिर भी पैसे नहीं मिले. अब हम कितना दौड़ें और किसके पास गुहार लगाते फिरें. हम थक चुके हैं.’

रहमानी फाउंडेशन द्वारा अनेक लाभार्थियों को पैसे न देने के आरोपों को उसके अधिकारी गलत तो बताते ही हैं साथ ही वे सरकार द्वारा आवंटित राशि के सदुपयोग का दावा भी करते हैं. पर सरकारी दस्तावेज कुछ और ही किस्सा बयान करते हैं. सरकार ने 2010-11 में फाउंडेशन को औजार कार्यक्रम के तहत 66 लाख 35 हजार रुपये दिए थे. पर दो दिसंबर, 2012 को जो दस्तावेज विभाग ने जारी किया उसके अनुसार रहमानी फाउंडेशन ने सरकार को इसका कोई उपोयगिता प्रमाण पत्र नहीं दिया. हालांकि फाउंडेशन के अधिकारी आरिफ रहमानी का दावा है कि उन्होंने एक-एक पाई का उपयोगिता प्रमाण पत्र दे दिया है.

इमारत शरिया : इमारत शरिया वेलफेयर सोसाइटी की तरफ से हुनर और औजार का काम देख रहे इस संस्था के सचिव मो. मोजाहिर कहते हैं कि सरकार की तरफ से लगभग पूरी आवंटित राशि उनकी संस्था को मिल गई और इस रकम का सदुपयोग भी कर लिया गया. वे यह भी बताते हैं कि इस संबंध में उपयोगिता प्रमाण पत्र भी सरकार को दे दिया गया. पर विभिन्न जिलों में चल रहे प्रशिक्षण केंद्रों के संचालकों और प्रशिक्षकों की शिकायतें हैं कि उन्हें समुचित भुगतान नहीं मिला. गोपालगंज के भोरे में प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले नथुनी मियां कहते हैं कि उनको वर्ष 2010-11 में एक साल की बजाय मात्र पांच महीने का मानदेय प्रति महीने 1,500 रुपये की दर से दिया गया. जबकि यह आंकड़ा 2,000 रुपये प्रति माह होना चाहिए था.हालांकि इमारत के अधिकारी मो. मोजाहिर इस आरोप को बेबुनियाद बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने प्रत्येक संचालक को प्रति माह के हिसाब से 2,000 रुपये दे दिए. वे इस गड़बड़ी का जिम्मेदार गोपालगंज के जिला कोऑर्डिनेटर को ठहराते हैं. पर मोजाहिर भूल जाते हैं कि जिला कोऑर्डिनेटर की जवाबदेही इमारत के प्रति है, इसलिए इमारत खुद को इससे अलग नहीं कर सकता. इमारत की कार्यप्रणाली पर इस मामले में राज्य भर से उंगलियां उठी हैं. जब कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सूचना के अधिकार के तहत सरकार से इस संबंध में सूचना मांगनी शुरू की तो इमारत शरिया में हड़कंप मच गया. इमारत ने अपनी बदनामी से बचने के लिए पहले कोऑर्डिनेटर इफ्तेखार काजमी को उनके पद से हटा दिया. इसके बावजूद स्थिति बिगड़ती चली गई तो अचानक पिछले दिनों हुनर कार्यक्रम को बंद करने का फैसला कर लिया गया. मामले की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस कार्यक्रम को छोड़ने का फैसला इमारत शरिया के शीर्ष नेतृत्व, जिसमें मौलाना निजामुद्दीन शामिल हैं, के कहने पर लिया गया.

लेकिन क्या कार्यक्रम बंद कर देने से इमारत की खोई हुई प्रतिष्ठा वापस आ जाएगी? इस संबंध में आरटीआई ऐक्ट के तहत सूचना मांगने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शरीफ कुरैशी कहते हैं, ‘इमारत ने तीन वित्तीय वर्ष तक लगातार गड़बड़झाला किया है. और अब जाकर हमारे दबाव से उनकी नींद टूटी है. लेकिन इससे इमारत के पदाधिकारी अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते क्योंकि गया, भोजपुर समेत राज्य के अनेक जिलों में सैकड़ों केंद्र संचालकों और प्रशिक्षकों को उनकी मजदूरी नहीं मिली. वे अपना हक अब भी मांग रहे हैं.’

अच्छी-भली योजनाओं का सत्यानाश होने से मुस्लिम समाज में निराशा है और आक्रोश भी

कुरैशी की इन बातों की तस्दीक राज्य के अनेक जिलों में केंद्र संचालकों के आक्रोश से हो जाती है. गया जिले के गुरुवा क्षेत्र में प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले मौलवी कौसर तब्बसुम की बानगी से कुछ ऐसा ही एहसास होता है. कौसर कहते हैं, ‘इमारत के अधिकारियों ने हमें सूचित किया था कि मेरे प्रशिक्षण केंद्र के लिए तीन सिलाई मशीनें 2010 में ही भेजी गईं. डेढ़ साल बीत गए पर वे मशीनें रास्ते में ही हैं.’

ऐसे सवालों या आरोपों का जवाब इमारत के अधिकारियों के पास बस रटा-रटाया ही मिलता है. इमारत के अधिकारी मो. मोजाहिर इन आरोपों के जवाब में कहते हैं, ‘जब मशीनें नहीं मिलीं तो उन्हें अपने जिला कोऑर्डिनेटर से पूछना चाहिए.’

एदारा शरिया : हुनर कार्यक्रम को संचालित करने वाली नोडल एजेंसियों में रहमानी फाउंडेशन और इमारत शरिया के अलावा तीसरी नोडल एजेंसी एदारा शरिया है. एदारा द्वारा संचालित प्रशिक्षण केंद्रों के प्रशिक्षकों- भोजपुर के मो. ताबिश और समस्तीपुर की रेहाना खातून के एक जैसे आरोप हैं कि उन्हें आधे-अधूरे पैसे दिए गए. इसी तरह प्रशिक्षण प्राप्त करने वाली बालिकाओं के आरोप भी कुछ ऐसे ही हैं. अगर थोड़ी देर के लिए इन आरोपों को महज आरोप मान लिया जाए और इसके बदले एदारा शरिया के दस्तावेजों पर ही भरोसा किया जाए तो भी इन दस्तावेजों से प्राप्त तथ्य कई गंभीर सवाल खड़े करते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता और पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति के पूर्व अध्यक्ष शरीफ कुरैशी कई महीनों से इन गड़बड़ियों की तह तक जाने के प्रयास में जुटे हैं. शिक्षा विभाग से सूचना के अधिकार के तहत उन्होंने यह पूछा था कि इन नोडल एजेंसियों से अब तक किन-किन बालिकाओं को औजार कार्यक्रम के तहत ढाई-ढाई हजार रुपये दिये गये हैं. कुरैशी के इस सवाल के जवाब में शिक्षा विभाग ने जो आंकड़े इन नोडल एजेंसियों से लेकर दिये वे जवाब से ज्यादा भ्रम पैदा करने वाले ही हैं. एदारा शरिया के दस्तावेजों के मुताबिक उसने अब तक 1989 बालिकाओं को ढाई हजार रुपये की दर से कुल 49 लाख 72 हजार रुपये बांटे हैं. पर एदारा ने न तो इस सूची में लाभान्वित होने वाली लड़कियों का नाम उजागर किया है और न ही उनके पते ही बताए हैं. कुरैशी सवाल करते हैं, ‘अगर तमाम बालिकाओं को पैसे मिले तो एदारा उनके नाम क्यों छुपा रहा है?’ कुरैशी की तरह इस कार्यक्रम पर पैनी निगाह रखने वाले गुलाम सरवर आजाद ऐसी कई बालिकाओं के नाम गिनाते हैं जिन्होंने प्रशिक्षण तो पूरा कर लिया पर उन्हें मशीन खरीदने के लिए पैसे नहीं मिले. इसी तरह भोजपुर में प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले मो. ताबिश अपने रजिस्टर से उन लड़कियों के नाम छांट कर बताते हैं जिन्हें आज तक पैसे नहीं मिले.

हुनर और औजार जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों से गरीब और पिछड़े तबके की हजारों मुसलिम बालिकाओं की जिंदगी में स्वरोजगार के अवसर मिलने की उम्मीद जगी थी. पर इस कार्यक्रम को लागू करवाने वाली नोडल एजेंसियों के कुछ अधिकारियों ने काफी हद तक इसकी बदहाली की दास्तान लिख दी है. इससे मुसलिम समाज में निराशा भी है और आक्रोश भी.

किंगमेकर किंग

वे ऐसे किंग हैं जिनकी चर्चा आम तौर पर मीडिया में नहीं होती. पर मध्य बिहार के राजनीतिक गलियारे और गंवई चौपालों की सियासी बहस का वे लाजिमी हिस्सा हुआ करते हैं. लोग उनके असल नाम की बजाय उन्हें किंग कह कर ही संबोधित करते हैं. वे सार्वजनिक मंचों पर नहीं दिखते. सरकारी-गैरसरकारी समारोहों से दूर का वास्ता भी नहीं रखते. भाषणबाजी तो जैसे उनके लिए  है  ही नहीं. राजनीतिक और नीतिगत फैसले भी नहीं लेते, पर फैसले को अपनी जरूरतों और इच्छाओं के हिसाब से प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं. एक धनाढ्य उद्योगपति होने के बावजूद वे खुद को एक राजनेता ही कहलाना पसंद करते हैं. बिहार की सत्ताधारी राजनीति जब भी गरमाती है तो पर्दे के पीछे से उनके सियासी रसूख की तपिश को महसूस तो किया जा सकता है, पर उन्हें न तो देखा जा सकता है और न ही सुना. इसलिए देश भर की तो बात ही छोड़िए, बिहारी जनमानस की बड़ी आबादी के लिए भी वे अनजाने ही हैं.

पर वे राजनीतिक रूप से कितने महत्वपूर्ण हैं इसका अंदाजा लगाने के लिए सिर्फ यह जानना काफी है कि संसद में पहुंचने के लिए जो तीन संवैधानिक रास्ते हैं वे उन सब पर टहल चुके हैं. जनता के वोट से चुन कर वे लोकसभा पहुंचे हैं. यह 1980 की बात है जब वे कांग्रेस के टिकट पर जहानाबाद से जीते थे. 1984 में वे चुनाव हार गए, लेकिन राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन के रास्ते वे राज्यसभा पहुंच गए. इसके बाद वे पहले राष्ट्रीय जनता दल और बाद में जनता दल यूनाइटेड के सहारे ऊपरी सदन पहुंचते रहे. 1980 से 2012 तक का उनका यही राजनीतिक सफर है. राज्यसभा में यह उनकी सातवीं पारी है.

उनका नाम  है महेंद्र प्रसाद. हालांकि वे खुद को किंग महेंद्र कहलवाना पसंद करते हैं. फिलहाल वे सिर्फ इसलिए चर्चा में नहीं हैं कि वे सातवीं बार राज्यसभा के सदस्य बने हैं, बल्कि इसलिए भी कि उनकी वजह से उनके दल के दो ऐसे नेता भी राज्यसभा की सदस्यता दोबारा पा गए जिन्होंने शायद खुद के लिए ईश्वर-अल्लाह से प्रार्थना करना भी छोड़ दिया था. ये हैं अली अनवर और अनिल साहनी. अनवर और साहनी पहले भी सत्ताधारी जदयू से राज्यसभा के सदस्य थे.  पिछले सात साल में जब भी राज्यसभा के चुनाव हुए हैं, जदयू यह घोषित करता रहा है कि किसी नेता को लगातार दो बार राज्यसभा भेजना उसकी परंपरा नहीं है. ऐसे में अली अनवर और अनिल साहनी के लिए दोबारा ऊपरी सदन का सदस्य बनने की संभावना नहीं थी. पर पार्टी की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले विश्लेषकों के अनुसार यह किंग महेंद्र ही थे जिनके लिए जदयू को यह परंपरा तोड़नी पड़ी. किंग महेंद्र राज्यसभा में खुद के जाने के प्रति कितना आश्वस्त थे इसका अंदाजा उनकी उस बात से लगाया जा सकता है जो उन्होंने निर्विरोध चुने जाने के बाद कही. उनका कहना था, ‘अगर राज्यसभा की एक सीट के लिए भी चुनाव होता तो हमारी जीत पक्की होती.’

देखा जाए तो बिहार में राजनीति के खेल में चित और पट, दोनों किंग महेंद्र की रही है. 1980 से आज तक वे हर सत्ताधारी पार्टी से सांसद रहे हैं. जब कांग्रेस सत्ता में थी तब वे घोर कांग्रेसवादी हुआ करते थे. फिर मंडल के दौर में पिछड़े नेताओं का उभार हुआ तो भी भूमिहार जाति से ताल्लुक रखने वाले किंग का रुतबा बरकरार रहा. 1990 में लालू ने सत्ता संभाली तो भी किंग लालू की आंखों का तारा बने और राज्यसभा पहुंचते रहे. वह भी तब लालू के इस दौर को उच्चवर्ग के राजनीतिक पतन के दौर के रूप में देखा गया. फिर 2005 में लालू के घोर विरोध का बिगुल बजा कर जब नीतीश सत्ता में आए तब भी किंग महेंद्र, किंग ही बने रहे और नीतीश की तरफ से 2006 में राज्यसभा पहुंचाए गए. अब 2012 में वही इतिहास दोहराया गया है.

पिछले लगभग 32 साल में से कम-से-कम 25 साल किंग महेंद्र रसायन और उर्वरक मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति के सदस्य जरूर रहे हैं

सवाल उठता है कि आखिर क्यों बिहार का हर सत्ताधारी दल एक चर्चित दवा कंपनी एरिस्टो के इस मालिक को इतनी तरजीह देता रहा है क्या इसकी वजह आर्थिक मदद है? इस सवाल का जवाब जदयू के बैंक खातों की जानकारी रखने वाले एक वरिष्ठ नेता गोपनीयता की शर्त पर देते हैं. वे कहते हैं, ‘हम काले और सफेद धन की बहस में नहीं जाना चाहते. सीधी बात यह है कि चुनाव या इस तरह के दीगर अवसरों पर, जब भी पार्टी को जरूरत पड़ती है वे खुल कर आर्थिक सहायता करते हैं. यह सहायता निश्चित तौर पर निर्धारित नियमों के अनुसार चेक से की जाती है. इससे उन्हें भी टैक्स छूट का फायदा तो मिलता ही है’.

लेकिन क्या सचमुच उनकी किसी भी सत्ताधारी पार्टी के लिए महज इतनी ही उपयोगिता है  कि उनसे पार्टी फंड में पैसे लिए जाएं? जदयू के ही सांसद और हाल के दिनों में किंग से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले जगदीश शर्मा भी इस सवाल पर बेहद सावधान दिखते हैं. वे कहते हैं, ‘किंग महेंद्र गहरी समझ वाले नेता हैं. समय-समय पर पार्टी को उनके राजनीतिक अनुभवों का लाभ मिलता रहता है. सिर्फ फंड ही एक मामला नहीं है जिसके कारण पार्टी उन्हें पसंद करती है. उन्होंने अपनी कंपनी के माध्यम से हमारे क्षेत्र के सैकड़ों लोगों को रोजगार दिया है’.

किंग महेंद्र 1980 से यानी पिछले लगभग 32 साल में से कम-से-कम 25 साल संसद की एक खास समिति के सदस्य जरूर रहे हैं. यह संसदीय समिति है रसायन और उर्वरक मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति. इस समिति के सदस्य रहने के कारण कई लोग आरोप लगाते रहे हैं कि वे अपनी दवा कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए इस समिति से जुड़े रहते हैं. हालांकि जगदीश शर्मा कहते हैं कि ऐसे आरोप ईर्ष्या रखने वाले लोग ही लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘उनकी दवा कंपनी एक स्थापित कंपनी है जिसे वे 30 सालों से सरकार के भरोसे ही नहीं चला रहे. जहां तक संसदीय सलाहकार समिति की सदस्यता की बात है तो यह सब जानते हैं कि ज्यादातर सांसद किसी-न-किसी संसदीय समिति के सदस्य होते ही हैं. इसमें क्या अजूबा है?’
जहानाबाद में गोविंदपुर गांव के मूल निवासी 72 वर्षीय किंग महेंद्र के नाम विश्व भ्रमण के कई रिकॉर्ड भी हैं और जुबान न खोलने का भी उनका रिकॉर्ड अद्भुत रहा है. दूसरे शब्दों में कहें तो संसद में चुप बैठने का अगर रिकॉर्ड निर्धारित किया जाए तो किंग इसमें भी शायद सब पर भारी पड़ें. आंकड़े बताते हैं कि अपने 30 साल  के संसदीय करियर में किंग ने अब तक मात्र पांच सवाल पूछे हैं. शुरुआत से ही वे प्रेस से बात करने से परहेज करते रहे हैं. यही वजह है कि काफी कोशिशों के बाद भी तहलका की उनसे बात नहीं हो सकी. उनके दल के राज्यसभा सांसद  अली अनवर  कहते हैं, ‘महेंद्र जी सार्वजनिक जीवन में खामोश रहना पसंद करते हैं पर निजी बातचीत में वे काफी शालीन, हंसमुख और यात्रापसंद इंसान हैं.’ वे आगे कहते हैं ‘किंग महेंद्र को एक हद तक राज्यसभा की वेबसाइट में छपी जानकारियों से समझा जा सकता है.’

राज्यसभा की वेबसाइट से किंग के बारे में जो जानकारी सामने आती है, उसका विश्लेषण भी काफी दिलचस्प है. अगर आप अंग्रेजी अक्षरमाला के तमाम 26 अक्षरों से शुरू होने वाले देशों के नामों की सूची देखें तो इनमें सिर्फ ‘एक्स’ ही वह अक्षर है जिससे शुरू होने वाले देश का भ्रमण किंग ने नहीं किया है. वह भी इसलिए कि ‘एक्स’ अक्षर से दुनिया के किसी भी देश का नाम शुरू नहीं होता. किंग के नाम एक रिकॉर्ड यह भी है कि उन्होंने एक वित्तीय वर्ष यानी अप्रैल 2002 से अप्रैल 2003 के दौरान 84 देशों का भ्रमण किया था. सबसे ज्यादा यात्रा करने वाले सांसद होने का गौरव उन्हें हासिल है. वे लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स की राष्ट्रीय रिकॉर्ड श्रेणी में भी हैं. यहां उन्होंने 2004 से 2010 तक सबसे ज्यादा देशों का भ्रमण करने वाले भारतीय का रिकॉर्ड भी अपने नाम किया है.

एक साल पुरानी जानकारी के अनुसार किंग दुनिया के कुल 258 में से 205 देशों में अपने पांव रख चुके हैं. उनके इस रिकॉर्ड के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कायल हैं. पिछले दिनों जब किंग महेंद्र राज्यसभा के लिए नामांकन भरने पटना पहुंचे तो उनका परिचय कराते हुए मुख्यमंत्री ने अपने चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘महेंद्र जी सोमालिया छोड़कर दुनिया के सभी देशों का दौरा कर चुके हैं. अबकी बार वे वहां भी पहुंच जाएंगे.’ मुख्यमंत्री के इस रहस्योद्घाटन से लगा कि इस एक साल में किंग ने कम-से-कम 50 और देशों का भ्रमण कर लिया है.

सादा जीवन पर शाही अंदाज के शौकीन महेंद्र प्रसाद खान पान में अब भी बिहारी जरूर हैं पर वे बिहार में कम ही दिखते हैं. इसी तरह भले ही उनकी दवा फैक्टरियों में सैकड़ों बिहारी काम करते हैं पर उनके कारोबार का बड़ा हिस्सा बिहार से बाहर ही है. इसके बावजूद बिहार के हर सत्ताधारी राजनीतिक दल को उनके फंड का लाभ जरूर मिलता रहता है. हालांकि यह भी कहा जाता है कि जैसे उनकी फैक्ट्रियां गुजरात से वियतनाम तक फैली हुई हैं, वैसे बिहार में भी होतीं तो कुछ लाभ बिहारी जनता को भी जरूर होता.