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बैलगाड़ी पर मायालोक

आज की ‘मल्टीप्लेक्स पीढ़ी’ को उस दौर की बातें एक पीरियड फिल्म की तरह लग सकती हैं जब सिनेमाहॉल में दर्शक नहीं जाते थे बल्कि सिनेमाहॉल ही उनके द्वार पर पहुंचता था. वह टूरिंग टॉकीजों का दौर था. फिल्म वितरक एक बैलगाड़ी पर पूरी टॉकीज को बिठाकर  कर गांव-गांव ले जाते थे. बांस और कपड़े की मदद से अस्थायी टॉकीज बनती थी और बनते थे देश के सेलीब्रिटी. छत्तीसगढ़ में रायपुर के ललित तिवारी और मुंगेली के बल्लभभाई सोलंकी (हाल ही में दिवंगत हुए) और उनके पुत्र धनेश सोलंकी इसी
पीढ़ी के सदस्य हैं जिन्होंने गांव-देहातों में पहली बार हिंदी सिनेमा की पैठ बनाई.

तहलका से इन लोगों ने उस दौर की फिल्मों, टूरिंग टॉकीजों की मुश्किलों, दर्शकों की प्रतिक्रियाओं सहित कई अनुभवों को साझा किया. ललित तिवारी बताते हैं, ‘जब चालीस-पचास साल पहले फिल्मों के प्रदर्शन का काम प्रारंभ किया तब लोगों के साथ-साथ घरवालों ने भी यह मान लिया था कि हमारी लाइन बिगड़ गई है. उन्हें बहुत बाद में समझ आया कि फिल्में दशा और दिशा भी बदल सकती हैं.’ इसका एक उदाहरण देते हुए वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं , ‘जब वी शांताराम की  फिल्म दुनिया ना माने  सिनेमा हॉल में लगी थी तब बेमेल विवाह करने वाले लोगों के बीच हलचल मच गई थी. फिल्म ‘दहेज’ ने तो समाज के एक बड़े वर्ग को आंदोलित-सा कर दिया था.’ 24 मार्च, 1939 को जन्मे ललित तिवारी अब तो काफी वृद्ध हो गए हैं लेकिन मौका मिलते ही वे अपने पुराने दिनों के सफर में लौटना नहीं भूलते. एक फिल्म प्रदर्शक की हैसियत से छत्तीसगढ़ के छोटे-बड़े इलाकों में रामराज्य, पनघट, भरत-मिलाप, हर-हर महादेव, स्वर्ण सुंदरी, नागिन  जैसी कई सुपरहिट फिल्मों का प्रदर्शन करने वाले ललित तिवारी ने फोटोफोन, बावर, केली और सुपर सिम्पलेक्स ( फिल्म दिखाने वाली मशीन) जैसी कई मशीनों वाला सुनहरा दौर देखा है. फिल्म के वितरण और प्रदर्शन के क्षेत्र में लंबा समय व्यतीत कर चुके तिवारी को कुछ फिल्मों का अनोखा प्रचार अब भी याद है. जेमिनी प्रोडक्शन की रंजन अभिनीत फिल्म चंद्रलेखा  का उल्लेख करते हुए वे बताते हैं कि फिल्म की पहली पेटी रायपुर रेलवे स्टेशन से हाथी-घोड़ों के जुलूस के साथ लाई गई थी.

धनेश सालंकी ने भी फिल्मों के प्रचार के इस तरीके को काफी करीब से देखा है. देश के सबसे बड़े सेंट्रल सर्किट सिने एसोसिएशन के प्रारंभिक सदस्य एवं छत्तीसगढ़ में टूरिंग सिनेमा के जन्मदाता के रूप में विख्यात मुंगेली के बल्लभभाई सोलंकी के बेटे धनेश बताते हैं कि वे बचपन से अपने पिता के साथ बैलगाड़ी में रील की पेटी के साथ चावल-आटा-दाल बांधकर गांव-देहात घूमा करते थे. वे बताते हैं, ‘एक फिल्म बारात  जिसमें अजीत थे, के प्रदर्शन के दौरान उनके पिता ने अचानक यह तय किया कि बारात निकाली जानी चाहिए. उनके इस फैसले के बाद एक टूरिंग टॉकीज के गेटकीपर को दूल्हा बनाया गया तो दूसरी टाकीज के गेटकीपर को दुल्हन. बारात निकली और धूम से निकली. कई गांव के लोग बाराती बने और फिल्म बारात  चल निकली. इसी तरह फिल्म पतंग  के प्रचार के लिए बच्चों के बीच पतंग बांटी गई थी.’  धनेश मानते हैं कि पुराने फिल्म वितरक एवं प्रदर्शक अश्लीलता के विरोधी हुआ करते थे. वे ऐसी ही एक घटना का जिक्र करते हैं, ‘एक फिल्म में हीरोइन नलिनी जयवंत हीरो को आंख मारकर रिझाती थीं. इस दृश्य के आते ही दर्शक हो-हल्ला मचाते हुए जमीन पर लोटने लगते थे. वितरक कुछ दिनों तक हो-हल्ला बर्दाश्त करते रहे अंततः उन्होंने सेंसर की परवाह किए बगैर आंख मारने वाले दृश्य पर कैंची चला दी.’  सोलंकी मानते हैं कि जब तक फैशन धोती-कुर्ते, पैंट-शर्ट यहां तक बैलबाटम में सीमित था तब तक तो सब कुछ ठीक-ठाक था लेकिन जब पैंट की जगह हाफपैंट और साड़ी की जगह बिकनी ने ले ली तब गड़बड़ियां शुरू हो गईं. तब फिल्में देखने के लिए काफी दर्शक जुटने लगे. टूरिंग टॉकीजें बिककर टॉकीजें बन गईं. लेकिन बाद में जब दर्शकों को किनारे करके फिल्में बनने लगीं तो इन टाॅकीजों के एक गोदाम में तब्दील होने में भी देर नहीं लगी. रायपुर के ललित तिवारी अपने संघर्ष के बाद शारदा, मनोहर, लक्ष्मी और अमर छविगृह के प्रोप्राइटर बन बैठे थे. अब उनके पास मात्र एक छविगृह श्याम मौजूद है. इसी तरह मुंगेली के बल्लभभाई सोलंकी की आखिरी ख्वाहिश राधाकृष्ण छविगृह ने भी हाल ही में दम तोड़ दिया है. सोलंकी के पुत्र धनेश कहते हैं, ‘पिता जी के सिनेमाई जुनून ने हमारे परिवार के आठ लोगों का पेट पाला, लेकिन हम आठ लोग उनके एक सिनेमाहॉल को नहीं बचा पाए.’ 

‘गांव के गुंडों को फ्री में फिल्म दिखाते थे’

किसी गांव में लगने वाले मेले को एक भरा-पूरा मेला तब तक नहीं माना जाता था जब तक वहां सिनेमा का प्रदर्शन न हो. एक खुले मैदान को बांस-बल्लियों और बोरे से घेरने के बाद मचान पर खड़े होकर कोई चिल्लाता था- चले आइए.. चले आइए… हाजिर की हुज्जत नहीं, गैर की तलाश नहीं. हंसने-हंसाने के लिए हो जाइए तैयार. सिर्फ दो आने का खेला है साहेब… पूरे परिवार को गुदगुदाने के लिए आ गए हैं शेखचिल्ली भगवान दादा. साथ में है महिपाल और आपके रातों का कत्ल करने वाली हसीना श्य..या…य्यामा.

टाकीज के बाहर निर्मित किए एक मचान पर एक व्यक्ति टिन वाली पेटी जिसमें फिल्म वितरक कंपनी का नाम अंकित रहता था, लेकर मौजूद रहता था. पेटी के एक हिस्से में दो आने (बारह पैसे)  रखे जाते थे और फिर दर्शकों को टिकट थमा दी जाती थी. फट्टा टॉकीज के भीतर प्रवेश करने के बाद बीड़ी-सिगरेट सुलगाने की छूट इस चेतावनी के साथ दी जाती थी कि परदा जला तो जुर्माना भुगतना होगा. जुर्माना नहीं देने पर जेल की हवा खानी होगी. हां एक बात और यह कि फट्टा टॉकीज जिस जगह लगती थी उस इलाके के कुंदन-सुंदन मसलन छुरे-चक्कू और कटार रखने वाले दादाओं को फोकट में फिल्म दिखाई जाती थी. कुछ इलाकों में वहां के रसूखदार व्यक्ति को प्रत्येक रात के लिए बतौर मुख्य अतिथि के तौर पर बुक कर लिया जाता था. मुख्य अतिथि प्रोजेक्टर के बगल में बैठकर चाय-नाश्ता तो करता ही था हर शो में वह एक ही बात दोहराता था- चुपचाप सनेमा देखो बे… दिमाग मत खराब करो… क्यों गांव के नाम को बट्टा लगा रहे हो सालो… बस चारमीनार सुलगाने के बाद मूंछों पर ताव देने वाली इतनी घुड़की सबके लिए पर्याप्त होती थी.

                                                                                                                                    – ललित तिवारी

 

 

‘महिलाओं को लगता था कि सारे हीरो बाएं हाथ से ही घूंसे चलाते हैं’

रायपुर के ललित तिवारीटाकीज के बीचोबीच सफेद परदा टांगा जाता था. मर्द सामने बैठते थे जबकि महिलाएं पर्दे के पीछे. अमिताभ बच्चन ने तो बहुत बाद में उल्टे हाथ से घूंसे चलाए. हकीकत यह थी कि प्रोजेक्टर के दूसरे छोर में बैठने वाली औरतों को हमेशा से यही लगता था कि जो हीरो होता है वह उल्टे हाथ से ही सब कुछ करता है. कुंआरी लड़कियां रूमालों में हीरो का नाम काढ़ती थीं. जबकि कुंआरे लड़के हीरोइनों के दीवाने हुआ करते थे. कोई अपने आपको खुर्शीद का दीवाना बताकर खुश होता था तो कोई स्वर्णलता के पीछे पागल था. फिल्म शुरू होती थी तो फिल्म आनंदमठ का एक गीत चोंगे में जरूर बजता था- हरे मुरारे मधु कैटभ हारे.. गोपाल गोविंद मुकुंद शौरे….जय जगदीश हरे. इस गीत के बाद प्रोजेक्टर चालक एक बार फिर चोंगे से चेतावनी देता था- ‘मेहरबान. सावधान. हम आज का खेला शुरू करने जा रहे हैं. फिल्म में रील बदलने के दौरान दो छोटे और एक बड़ा मध्यांतर किया जाएगा. कृपया शांति बनाए रखिएगा. जो शोर मचाएगा उसे बाहर कर दिया जाएगा.’ रील बदली जाती थी तो सिसकारियों और चीखों के साथ सीटियां बजती ही थीं. कई बार तो बात मादर-फादर से होते हुए सिनेमा मालिक के खानदान के कपड़े उतारने तक पहुंच जाती थी. इसी एक मुद्दे पर गेटकीपर की एंट्री होती थी. वह हर चेहरे पर रोशनी फेंककर यह जानने की कोशिश करता था कि आखिर वह शख्स कौन हैं. आखिर में इस ड्रामे का अंत ऐसे होता था कि शख्स दर्शकों के बीच मौजूद किसी जासूस की वजह से पकड़ा जाता या बोरे को चीरते हुए भाग खड़ा होता.

                                                                                                                                                                                      -धनेश सोलंकी

 

छोटी-सी कहानी है…

तीन मई को भारतीय सिनेमा अपने सौवें बरस में दाखिल हो जाएगा. हिंदी के कथा संसार की उम्र भी लगभग इसके बराबर है- शायद कुछ बरस ज्यादा, लेकिन दोनों समकालीन कहे जा सकते हैं. हिंदी की पहली आधुनिक कहानी कहलाने की होड़ जिन रचनाओं में दिखती है, उनमें से एक चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ पर फिल्म भी बनी. कायदे से हिंदी साहित्य और सिनेमा के बीच एक पुल यह कहानी भी बनाती है. 1960 में बिमल राय प्रोडक्शंस के बैनर तले बनी इस फिल्म का निर्देशन मणि भट्टाचार्य  ने किया था और इसमें सुनील दत्त और नंदा जैसे कलाकारों ने मुख्य भूमिकाएं अदा की थीं.

अनायास यह खयाल आता है कि साठ के दशक में कई दूसरी महत्वपूर्ण रचनाओं पर भी फिल्में बनीं. हिंदी की किसी साहित्यिक कृति पर बनी इस दौर की सबसे कामयाब फिल्म ‘तीसरी कसम’ रही, जो फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर बनी थी. फिल्म का निर्देशन बासु भट्टाचार्य ने किया था. हालांकि उसके पहले 1963 में प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ पर फिल्में बनीं. बाद में सत्यजित रे ने प्रेमचंद की ही ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सदगति’ पर फिल्में बनाईं.

हालांकि 1934 में जब प्रेमचंद खुद मुंबई- तब के बंबई- पहुंचकर फिल्मी दुनिया में काम करना चाहते थे तो इतने कामयाब नहीं हुए. वैसे फिल्मी दुनिया में उनका संक्षिप्त प्रवास बताता है कि उनके व्यावसायिक लेखन में भी उनकी अपनी प्रतिबद्धताएं नजर आती रहीं. 1934 में वे मुंबई पहुंचे और उन्होंने अजंता सिनेटोन में 8,000 रुपये सालाना वेतन पर बतौर पटकथा लेखक की नौकरी शुरू की. उन्होंने ‘मज़दूर’ फिल्म की कहानी लिखी जिसका निर्देशन मोहन भवनानी ने किया था. फिल्म के केंद्र में मजदूरों की बदहाली थी और एक प्रभावशाली व्यवसायी ने मुंबई में फिल्म के प्रदर्शन के खिलाफ स्टे ले लिया. फिल्म लाहौर और दिल्ली में प्रदर्शित हुई, लेकिन जब इसने मज़दूरों को मिल मालिकों के खिलाफ आंदोलन के लिए प्रेरित करना शुरू किया तो इन शहरों में भी इस पर पाबंदी लग गई. फिल्म में प्रेमचंद ने भी मजदूर नेता की छोटी सी भूमिका अदा की थी. बहरहाल, उस दुनिया में प्रेमचंद का दिल नहीं लगा और हिमांशु राय के समझाने के बावजूद वे बंबई से लौट आए.

हिंदी की जिन दूसरी कृतियों को फिल्मी दुनिया ने कुछ अहमियत दी, उनमें भगवतीचरण वर्मा का उपन्यास ‘चित्रलेखा’ रहा. पाप और पुण्य की अवधारणा पर लिखे गए इस उपन्यास पर दो बार फिल्में बनीं- पहली बार 1941 में और दूसरी बार 1964 में. दोनों बार केदार शर्मा ने ये फिल्में बनाईं. दूसरी बार बनी ‘चित्रलेखा’ का एक गीत काफी चर्चित भी हुआ- ‘संसार से भागे फिरते हो’.

यह सत्तर का दशक है जब हिंदी सिनेमा हिंदी साहित्य का हाथ थामने की कुछ कोशिश करता है. फिल्म लेखक दिनेश श्रीनेत तो मानते हैं कि हिंदी में नई कहानी और नया सिनेमा दोनों साथ-साथ चले. बेशक, इसके कई प्रमाण दिखते भी हैं. 1969 में मणि कौल ने मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ पर जो फिल्म बनाई, उससे हिंदी में नए सिनेमा की शुरुआत मानी जाती है. इस फिल्म को बेहतरीन फिल्म का फिल्मफेयर समीक्षक सम्मान भी मिला. दो साल बाद मणि कौल ने मोहन राकेश के ही नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ पर भी फिल्म बनाई और 1974 में विजयदान देथा की कहानी दुविधा पर. हिंदी साहित्य से मणि कौल का रिश्ता और दूर तक जाता है. मुक्तिबोध की कहानी ‘सतह से उठता आदमी’ पर भी उन्होंने अपनी तरह की एक अलग सी फिल्म बना डाली.

यह शायद 1972 का साल था, जब कुमार शाहनी ने निर्मल वर्मा की कहानी ‘मायादर्पण’ पर इसी नाम से फिल्म बनाकर ठीक वही पुरस्कार जीता जो ‘उसकी रोटी’ पर मणि कौल जीत चुके थे. मणि कौल और कुमार शाहनी के अलावा बासु चटर्जी वे तीसरे निर्देशक हैं जो नई कहानी से जुड़े लेखकों की कृतियों पर फिल्म बनाते नजर आते हैं. उन्होंने राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ पर इसी शीर्षक से और मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर ‘रजनीगंधा’ नाम से फिल्में बनाईं.

वैसे फिल्मी दुनिया में किसी हिंदी लेखक का जो सबसे कामयाब हस्तक्षेप रहा, वह नई कहानी की त्रयी के तीसरे हस्ताक्षर कमलेश्वर की तरफ से दिखता है. उन्होंने समांतर सिनेमा और व्यावसायिक सिनेमा दोनों में बराबर अधिकार के साथ काम किया- एक तरफ ‘आंधी’, ‘मौसम’, ‘अमानुष’, ‘छोटी सी बात’ जैसी फिल्में लिखीं तो दूसरी तरफ ‘राम बलराम’, ‘द बर्निंग ट्रेन’, ‘साजन की सहेली’ और ‘सौतन’ जैसी कारोबारी और सितारों से सजी फिल्में भी. मनोहर श्याम जोशी ने भी ‘पापा कहते हैं’, ‘अपु राजा’, ‘भ्रष्टाचार’ जैसी कुछ फिल्मों की पटकथाएं या संवाद लिखे. बरसों बाद श्याम बेनेगल ने धर्मवीर भारती की किताब ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ पर इसी नाम से एक यादगार फिल्म बनाई. वैसे 80 के दशक में ही केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर ‘नदिया के पार’ के नाम से एक सफल फिल्म भी बनी. सदी के इस पहले दशक में विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ पर ही शाहरुख खान ने ‘पहेली’ के नाम से एक कारोबारी फिल्म बनाई जो खूब चली भी.

दो-तीन साल पहले उदय प्रकाश के उपन्यास ‘मोहनदास’ पर बनी फिल्म इस सिलसिले की बस आखिरी कड़ी की तरह दिखाई पड़ती है. हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्य का साथ इससे आगे नहीं जाता. अंततः ये सारे लेखक साहित्य की दुनिया में लौट आते हैं. फिल्मी दुनिया से मायूसी या मोहभंग के बाद लौटने वाले लेखकों में हमारे वरिष्ठ उपन्यासकार अमृतलाल नागर भी दिखाई पड़ते हैं. सवाल है, आखिर हिंदी के ये बड़े लेखक फिल्मों में कामयाब क्यों नहीं हो पाए?  एक जवाब तो साफ है – लेखन एक स्वतंत्र और एकांतिक विधा है जिसमें आप अपनी मर्जी से, अपनी प्रतिबद्धता और संवेदना के हिसाब से काम करते हैं, जबकि सिनेमा मूलतः एक कारोबार है जिसमें लेखक बहुत सारी दूसरी विधाओं के बीच तालमेल बिठाकर चलता है, यही नहीं कई बार उसमें व्यावसायिक समझौते भी करने पड़ते हैं. दूसरी बात, कहानी या उपन्यास लेखन के मुकाबले फिल्म लेखन कहीं ज्यादा जटिल विधा है जो एक तरह का पेशेवर प्रशिक्षण भी मांगती है.

लेकिन चाहे फिल्म लिखनी हो या उपन्यास लिखना हो- विधा तो वह शब्दों की है और उसमें कई रचनात्मक लोग भी लगे हुए हैं जिन्होंने बहुत अच्छा काम किया है. फिर क्या हिंदी साहित्य और सिनेमा के बीच की दूरी का कुछ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है जहां तक मैं देख पाता हूं. दरअसल जिसे हम हिंदी सिनेमा कहते हैं, एक तरह से उसकी शुरुआत उर्दू सिनेमा के रूप में हुई. ज्यादातर पटकथा-लेखक या गीतकार उर्दू की पृष्ठभूमि से आए या फिर हिंदी-उर्दू दोनों की साझा विरासत से. हिंदी के मुकाबले उर्दू लेखकों सआदत हसन मंटो, कृष्णचंदर, राजेंदर सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, राही मासूम रजा, इस्मत चुगतई, गुलजार, जावेद अख्तर की आवाजाही सिनेमा की दुनिया में ज्यादा रही. इसी तरह गीतकारों में शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, जांनिसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी आदि मूलतः उर्दू की पृष्ठभूमि से आए लोग रहे. हालांकि यह फिल्मी दुनिया ही याद दिलाती है कि इन लेखकों के संदर्भ में हिंदी और उर्दू का फर्क देखना बेमानी है- आखिरकार ये एक ही जुबान के नुमाइंदे हैं. बेशक इनके समांतर पंडित प्रदीप और भरत व्यास जैसे कुछ गीतकारों ने तत्समनिष्ठ हिंदी में कई सफल गीत लिखे, लेकिन अंततः हिंदी सिनेमा जिस पूरी पृष्ठभूमि से आता दिखाई पड़ता है, वह नाच-गानों से भरी वाजिद अली शाह के दरबार में चलने वाली इंदर सभा से बनती है, बाद के दौर में पारसी थिएटर के नाटकों से जुड़ती है और अंततः उस परंपरा से, जिसका नाम उर्दू है.

बेशक, आजादी के बाद जब मुल्क बंटते हैं तो सिनेमा भी बंटता है, कलाकार-लेखक सब सरहद के इधर-उधर दिखते हैं. धीरे-धीरे एक नई पीढ़ी सामने आती है जो हिंदी के कथा संसार में अपनी कहानियां खोजती है. लेकिन हकीकत यह है कि यह संसार उसकी बहुत मदद नहीं करता.

उर्दू में किस्सागोई की जो लोकप्रिय परंपरा रही, हिंदी का साहित्य उसके मुकाबले कहीं ज्यादा भारी-भरकम किस्म के यथार्थ का वाहक बना रहा. शायद यह हिंदी साहित्य पर सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति का दबाव भी रहा जिसने उसे फिल्मों के अपेक्षया रोमांटिक संसार से दूर रखा. अब यह बात बहसतलब है कि इस प्रवृत्ति ने हिंदी साहित्य का भला किया है या बुरा. सच्चाई सिर्फ इतनी है कि आज का हिंदी लेखक एक बेचेहरा शख्स है जिसे उसका समाज ठीक से पहचानता नहीं. इसमें शक नहीं कि हिंदी की गरीब बहन उर्दू इस मामले में अपने गद्य और पद्य दोनों में- अपने अफसानों में भी और अपनी शायरी में भी हिंदी के मुकाबले अपने समाज के कहीं ज्यादा करीब है.

बहरहाल, हिंदी सिनेमा और हिंदी साहित्य में बन रहा रिश्ता अब लगभग टूटा हुआ दिखता था. फिल्मों में आई नई पीढ़ी हिंदी साहित्य से कोसों दूर है और उसकी प्रेरणाएं या तो पश्चिम के सिनेमा से आती हैं या फिर अंग्रेजी के साहित्य से. विशाल भारद्वाज ‘मैकबेथ’ और ‘ऑथेलो’ के अनूठे देसी संस्करण तैयार कर सकते हैं या रस्किन बॉन्ड की कृतियों पर ‘ब्लू अंब्रेला’ या ‘सात खून माफ’ जैसी फिल्में बनाते हैं. विधु विनोद चोपड़ा चेतन भगत के औसत से उपन्यास ‘फाइव प्वाइंट समथिंग’ पर ‘3 इडियट्स’ जैसी शानदार फिल्म बना डालते हैं. मगर यह विडंबना ही है कि जिस दौर में हिंदी सिनेमा अपने शिल्प में ज्यादा यथार्थ-सजग और सूक्ष्म हो रहा है उस दौर में वह अपने समय की समर्थ हिंदी कहानियों से कटा हुआ है. चाहें तो इसके लिए कुछ हद तक उस हिंदी लेखक को भी जिम्मेदार ठहरा सकते हैं जो सामाजिक यथार्थ के अपने घिसे-पिटे खोल में रहकर लिख रहा है और अपनी विधा का ऐसा पुनराविष्कार करने की कोशिश तक नहीं कर रहा जिसमें वह फिल्म जैसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय माध्यम को कुछ प्रीतिकर और पौष्टिक दे सके.

‘मुझे मालूम है कि जो मुझे अच्छा लगता है, वह पब्लिक को भी अच्छा लगता है’

‘लगान’ का निर्माण आपका अहम फैसला था. उस फिल्म से इंडस्ट्री में कई बदलाव आए. आज के आमिर खान को बनाने में ‘लगान’ का कितना बड़ा योगदान रहा?

 ‘लगान’ मेरे करियर का माइलस्टोन है. इसके निर्माण में मेरा जुड़ाव एक्टर, क्रिएटिव पर्सन और प्रोड्यूसर के  रूप में था. उन सभी जिम्मेदारियों को मैंने निभाया. ‘लगान’ ने भी हमें बहुत कुछ दिया. मेनस्ट्रीम सिनेमा में उस मैग्नीट्यूड की फिल्में नहीं बनती थीं. उस फिल्म से हिम्मत मिली कि एक्सपेरिमेंट और बड़े पैमाने पर नए विषय की फिल्म भी दर्शक पसंद कर सकते हैं. उस फिल्म ने हमारे दिमाग की खिड़कियां खोल दीं. मेरे प्रोडक्शन को सेटअप करने में ‘लगान’ का योगदान है. दरअसल, मैं तो प्रोडक्शन करना ही नहीं चाहता था.

ऐसा क्यों?

 बतौर अभिनेता जब मैं इंडस्ट्री में आया तो मेरे चाचा जान (नासिर हुसैन) और अब्बा जान (ताहिर हुसैन) फिल्में बना रहे थे. उनको देख कर मैंने तय किया था कि प्रोडक्शन से दूर ही रहना है. बहुत खतरे का काम है प्रोडक्शन. आप तब के मेरे इंटरव्यू पढ़ें तो मैं कहा करता था कि जिंदगी में कभी कोई फिल्म प्रोड्यूस नहीं करूंगा.

फिर कैसे मन बदला और आप ‘लगान’ के निर्माण के लिए तैयार हुए?

 आशुतोष गोवारीकर ने मुझे एक्टर के तौर पर लेने के लिए स्क्रिप्ट सुनाई थी. तब तक मैंने कोई फिल्म प्रोड्यूस नहीं की थी. ‘लगान’ की कहानी मुझे बहुत पसंद आई थी. मेरी चिंता थी कि ऐसी फिल्म को कौन प्रोड्यूस करेगा. एक तो आशुतोष दो फ्लॉप दे चुके थे और दूसरे ‘लगान’ में चलन के हिसाब से कुछ भी नहीं था. मैंने आशुतोष को सलाह दी कि पहले तू कुछ प्रोड्यूसर से मिल. यह मत बताना कि मैं फिल्म कर रहा हूं. मेरा नाम सुनते ही वे तैयार हो जाएंगे. वे गलत वजह से… स्टार की वजह से तैयार होंगे. तू कहानी सुना और देख कि लोग क्या कहते हैं. मैं तो हूं ही तुम्हारे साथ. उसने कई प्रोड्यूसरों को कहानी सुनाई. फिल्म किसी की समझ में नहीं आई. तब मुझे गुरुदत्त, बीआर चोपड़ा, महबूब खान और के आसिफ जैसे फिल्ममेकर्स से प्रेरणा मिली. उनकी हिम्मत ने जोश दिया. तब तक मुझे एक्टिंग करते दस-बारह साल हो गए थे. मैंने फैसला किया कि मैं रिस्क लूंं. एक ही जिंदगी है, जो करना है कर लूं. उस वक्त मैंने फैसला किया था कि एक ही फिल्म बनाऊंगा.

कह सकते हैं कि ‘लगान’ की सफलता ने आपको निर्भीक कर दिया. उसके बाद से आपने काफी अलग किस्म की फिल्में कीं…

 निर्भीक तो मैं शुरू से था. ‘कयामत से कयामत तक’ से मैंने शुरुआत की. तब वैसी फिल्म कोई नहीं कर सकता था. ‘अंदाज अपना अपना’ देख लें. उस समय मुझे ऐसी फिल्मों की जरूरत नहीं थी. मैं तो स्टार था. ‘जो जीता वही सिकंदर’ या ‘सरफरोश’ नाॅर्मल फिल्में नहीं हैं. यहां तक कि ‘दिल’ भी… लेकिन हां, ‘लगान’ अलग लेवल की फिल्म थी. उससे हिम्मत बढ़ गई. आप जिस निर्भीकता की बात कर रहे हैं, वह मेरे एटीट्यूड में पहले से था. दुनिया की नजरों में हमेशा से पंगे लेता रहा हूं. वास्तव में अपनी पसंद का काम करता रहा हूं. मुझे मालूम है कि जो मुझे अच्छा लगता है वह पब्लिक को भी अच्छा लगता है.

कोई एक टर्निंग पॉइंट रहा होगा, जब आप को एहसास हुआ होगा कि आप अपनी मर्जी का काम करें तो भी दर्शक पसंद करेंगे?

 नहीं, कोई टर्निंग पॉइंट नहीं है. यह एक्सपीरिएंस ‘कयामत से कयामत तक’ के समय ही हो गया था. बड़ी सीख मिली थी. फिल्म सफल रही थी. उसके बाद मैंने नौ फिल्में साइन की थीं. सारी फिल्में मैंने यही सोच कर साइन की थीं कि अच्छी होंगी. उसी दौरान मैंने डायरेक्टर के महत्व को समझ लिया. उन दिनों मुझे जिन डायरेक्टरों का काम अच्छा लगता था और मैं जिनके साथ काम करना चाहता था, वे मुझे साइन नहीं कर रहे थे. वजह जो भी रही हो… तब खुद को प्रूव करना आसान नहीं था. मैं तब तक स्टार नहीं बना था. फिर मैंने नए डायरेक्टर चुनने शुरू किए. मैंने परखा कि कौन-कौन डायरेक्टर नए हंै और अच्छा काम कर रहे हैं. एक फिल्म की शूटिंग में पता चल गया कि डायरेक्टर ही सब कुछ है. स्कि्रप्ट कितनी भी अच्छी हो, डायरेक्टर उसे कहीं भी पहुंचा सकता है. फिल्म बुरी हो सकती है. तभी मैंने फैसला किया कि तीन चीजों (स्क्रिप्ट, डायरेक्टर और प्रोड्यूसर) से संतुष्ट होने पर ही फिल्में साइन करूंगा. प्रोड्यूसर अगर उन्नीस हो तो चीजें संभाली जा सकती हैं, लेकिन स्क्रिप्ट और डायरेक्टर कमजोर हों तो कुछ नहीं किया जा सकता. वैसे टर्निंग पॉइंट बताना ही है तो ‘लगान’ को मान सकते हैं.

‘दर्शकों का प्यार सुनामी की तरह आता है. आप सावधान न रहें तो बह जाएंगे. कुछ पकड़ कर रखना पड़ता है. जमीन में पांव धंसा कर रखना पड़ता है’

‘लगान’ के बाद की आपकी फिल्मों में ‘गजनी’ और ‘फना’ दो फिल्में अलग किस्म की हैं. दोनों भटकाव लगती हैं.

मैं नहीं मानता. ‘गजनी’ और ‘फना’ दोनों के बारे में कई लोगों की राय है कि ये मुझे नहीं करनी चाहिए थीं. मैं सहमत नहीं हूं. मैंने दोनों फिल्में इसलिए कीं क्योंकि दोनों की स्क्रिप्ट मुझे अच्छी लगी. मैं बहुत ज्यादा इंटेलेक्चुअलाइज नहीं करता. मैं दिल की सुनता हूं. जो मुझे अच्छा लगता है, वही करता हूं. मैं जानता हूं कि ‘फना’ की तुलना ‘रंग दे बसंती’ से नहीं की जा सकती. ऐसे ही ‘गजनी’ की तुलना ‘तारे जमीन पर’ से नहीं की जा सकती. मैंने जब ओरिजनल ‘गजनी’ देखी तो मुझे बहुत मजा आया था. मनोरंजन की जब हम बात करते हैं तो उसकी कई किस्में होती हैं. दर्शक भी कई प्रकार के होते हैं. ‘फना’ और ‘गजनी’ उस लेवल पर आपको अच्छी नहीं लगी होंगी, लेकिन बहुत सारे दर्शकों के लिए ‘गजनी’ ‘फना’ नंबर वन फिल्में हैं.

ऐसा लगता है कि आप अपने स्टारडम का सही इस्तेमाल करते हैं. आप लगातार हिट फिल्में दे रहे हैं. कुछ नया कर रहे हैं. सफल हैं. इन सारी उपलब्धियों के बावजूद हर मुलाकात में मैंने महसूस किया है कि आप किसी आम आदमी की तरह व्यवहार करते हैं. आपके घर में भी ताम-झाम नहीं है?

 वास्तव में अपने स्टारडम को मैंने कभी सीरियसली नहीं लिया. स्टारडम का मतलब कि लोग आपको पसंद करते हैं. आपको प्यार और आदर देते हैं. इन बातों में मुझे भी मजा आता है. मैं जानता हूं कि मेरे काम की वजह से ही यह सब हो रहा है. पर्सनल लाइफ मेरी कैसी है, इसके बारे में उन्हें कुछ नहीं मालूम. वे मुझे मिले भी नहीं हैं. आप लगातार नायक की भूमिका निभाते हैं. उन भूमिकाओं में नेक काम करते हैं. आपके बारे में उनके मन में अच्छे विचार बनते हैं. लाखों की तादाद में लोग फिल्में देखते हैं. उनकी पॉजीटिव एनर्जी आपकी तरफ आती है. दर्शकों का प्यार सुनामी की तरह आता है. आप सावधान न रहें तो बह जाएंगे. कुछ पकड़ के रखना पड़ता है. जमीन में पांव धंसाना पड़ता है. इस सुनामी में कई स्टार बहक जाते हैं. उन्हें भ्रम हो जाता है कि वे इंसान से बढ़ कर हैं. मैं इस भ्रम में कभी नहीं पड़ा.

लेकिन यह सीख और समझ कहां से मिली? आंतरिक गुण है या आपने औरों से सीखा?

हम-आप ऐसे क्यों है, उसकी खास वजह होती है. बचपन में या ग्रोइंग एज में जैसे प्रभाव पड़ते हैं, उनसे ही हमारी पर्सनैलिटी बनती है. ज्यादातर माता-पिता का असर होता है. परिवार के अन्य सदस्यों और रिश्तेदारों का भी असर होता है. दोस्तों का असर सबसे ज्यादा होता है. स्कूल-कॉलेज का असर होता है. एक बार पर्सनैलिटी बन जाए तो उसे बदलना बहुत मुश्किल होता है. बहुत कम लोग हैं जो 40-45 की उम्र के बाद भी अपनी सोच और नजरिया बदलने की कोशिश करते हैं. उसके लिए बहुत स्ट्रांग विल चाहिए. मेरे ऊपर माता-पिता का असर है. मेरे खयाल से अम्मी ने बहुत कुछ सिखाया-बताया. एक और खास बात रही है कि मेरे इर्द-गिर्द स्ट्रांग वीमेन रही हैं. मैं उनकी तरफ जल्दी आकर्षित होता हूं. मेरी अम्मी फौलादी महिला हैं. उनकी फूफी, जिन्हें मैं नानी जान बोलता था, उनकी बहुत स्ट्रांग पर्सनैलिटी थी. नुजहत, इमरान की अम्मी… मैं ऐसी औरतों के बीच रहा और पला हूं.

पापा के साथ कैसे संबंध थे. 

अब्बा जान… बचपन में मैं उनसे बहुत डरता था. हम चारों भाई-बहन डरते थे. वे तुनकमिजाज थे. उन्हें जल्दी गुस्सा आता था. अब्बा जान का गुस्सा बहुत तेज होता था. फैमिली में उनका गुस्सा मशहूर था. हम लोगों में उन्हें लेकर इतना डर था कि हम दूर-दूर ही रहते थे. वे घर पर आते थे तो हम अपने कमरों में छिप जाते थे. बाहर नहीं निकलते थे. डर रहता था कि सामने पड़े तो किसी न किसी बात पर डांट पड़ जाएगी. हां, कभी प्यार करते थे तो बहुत लाड़-प्यार दिखाते थे. तब हम सरप्राइज होते थे. अरे, आज क्या हो गया? हमलोग इमोशनली अम्मी के ज्यादा नजदीक थे. अब्बा जान के लिए दिल में इज्जत थी और मन में डर. बड़े होने पर यह डर धीरे-धीरे कम हुआ, लेकिन वह पूरी तरह से नहीं गया. सच है कि मैं इमोशनली उनके ज्यादा करीब नहीं था. यह भी हो सकता है कि तब परिवार के पुरुष सदस्य बच्चों से ज्यादा लाड़-प्यार नहीं दिखाते थे. वे अपने बच्चों से ज्यादा घुलते-मिलते नहीं थे. पढ़ाई के अलावा उनके पास सवाल नहीं होते थे या कहीं से कोई शिकायत मिली हो तो हमारी जवाबतलबी होती थी. 

अपने बच्चों से कैसे संबंध हैं आपके? कितना जरूरी मानते हैं कि बच्चों को पालन-पोषण के साथ प्यार भी मिलना चाहिए?

 बच्चों के साथ मेरा रिश्ता दोस्ती का है. मैं उनके साथ दोस्तों जैसा ही व्यवहार करता हूं. बहुत नजदीक हूं उनके. पहले की पीढ़ी के पुरुष इस मामले में थोड़े कटे और सख्त थे. वे खयाल नहीं रखते थे भावनाओं का. मां तो तब भी सीने से चिपकाए रहती थी. बच्चे बड़े हो जाएं तो भी उनके लिए छोटे ही रहते हैं. हमारी सोसायटी में पुरुष जल्दी इमोशन नहीं दिखाते. मैं अपने इमोशन तुरंत बता देता हूं. कुछ भी छिपाता नहीं. किसी बात पर रोना आ जाए तो रो देता हूं. खुशी होती है तो उसे भी नहीं छिपाता.

‘सरफरोश’  या यूं कहें कि  ‘गुलाम’  के समय से आप किरदार पर अधिक मेहनत करने लगे. आपकी मेहनत पर्दे पर भी नजर आई. उन किरदारों का दर्शकों से रिश्ता बना…

 किरदार तो मैंने ‘राजा हिंदुस्तानी’ में भी बहुत सही पकड़ा था. ‘जो जीता वही सिकंदर’ के संजय लाल के बारे में क्या कहेंगे? ‘रंगीला’ का किरदार देख लीजिए. ‘राजा हिंदुस्तानी’ में स्माल टाउन के युवक का रोल प्ले किया था. वह नैरो माइंडेड है, मेल शोवेनिस्ट है… लोगों को मैं बहुत पसंद आया था. अभी किरदार पर खास ध्यान देता हूं. उसके साथ रहना और उसे जीना… यह सब ज्यादा अच्छी तरह होता है. मैं भी थोड़ा मैच्योर हुआ हूं और अपनी फिल्मों की तैयारी के लिए पूरा समय निकालता हूं. किरदार की हर बारीकी पर ध्यान देता हूं.

‘मेरा कॉमन सेंस कहता है कि मैं समझ जाऊंगा कि अब दर्शक मुझे पसंद नहीं कर रहे हैं. यह महसूस होते ही मैं काम छोड़ दूंगा. आप देख लीजिएगा’

क्या करियर को लेकर कोई खास प्लानिंग रही या जब जो फिल्म आई वह कर ली?

 मैं लांग टर्म प्लानिंग नहीं कर सकता. मुझे क्या मालूम कि साल-दो साल में मेरे पास कौन-सी स्क्रिप्ट आएगी. अपना काम मेहनत और ईमानदारी से जरूर करता हूं. कोशिश रहती है कि अच्छा परिणाम मिले.

आप और बाकी दोनों खान (शाहरुख-सलमान) आगे-पीछे आए और अभी तक चल रहे हैं. चिंता तो होती होगी कि आखिर कब तक? क्या आप मानसिक तौर पर तैयार हैं कि कुछ साल बाद आप आज की स्थिति में नहीं रहेंगे?

मैं तो नहीं तैयार हूं. मेरे खयाल में तैयार होना भी नहीं चाहिए. मैं अपनी बात करूं तो बहुत आगे की सोचता ही नहीं. इस वक्त जो जी रहा हूं, उस पर मेरा ध्यान रहता है. शॉर्ट टर्म में सोचता हूं. अभी रीमा कागटी की फिल्म ‘तलाश’ पूरी कर रहा हूं. मेरा टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ आ रहा है. उसकी वजह से मेरी फिल्मों का शेड्यूल आगे खिसक गया है. ‘सत्यमेव जयते’ जरूरी और महत्वाकांक्षी टीवी शो है. फिर ‘धूम 3’ करूंगा. उसके आगे का मुझे भी नहीं मालूम. मेरा कॉमन सेंस कहता है कि मैं समझ जाऊंगा कि अब दर्शक पसंद नहीं कर रहे हैं. यह महसूस होते ही मैं काम बंद कर दूंगा.  इसे समझने का सिंपल तरीका है, जिस दिन मुझे अपना काम करने में खुशी नहीं होगी उस दिन से काम बंद कर दूंगा. आप खुश नहीं हैं, फिर भी आप साबित करना चाह रहे हैं कि आप स्टार हैं. अब भी आप अच्छा काम कर सकते हैं. यह खामखयाली है. या यह लगने लगे कि मेरा काम दर्शक नहीं समझ पा रहे हैं तो इसका मतलब है कि मैं डिस्कनेक्ट हो चुका हूं. मुझे अंदाजा नहीं है कि मैं कब तक सफल रहूंगा. जिस दिन मुझे या मेरे दर्शकों को मेरा काम पसंद नहीं आएगा, उस दिन से सब कुछ बंद… आप देख लीजिएगा. मैं बिल्कुल कैलकुलेटिव नहीं हूं. मैं शुद्ध रूप से अपने इमोशन पर चलता हूं.

आपकी बिरादरी में यह धारणा है कि आमिर कुछ भी यों ही नहीं करते?

यह सही है कि मैं यों ही कुछ नहीं करता. और फिर क्यों करूं? एक जिंदगी है और इतने सारे काम हैं. मेरा एक फोकस है लाइफ में. अपने प्रोफेशन में मैं अच्छा काम करना चाहता हूं. अच्छा काम करने के लिए जब जिससे मिलना होता है, मिलता हूं. मेरी जबान पर वही बात होती है जो मेरे दिल में होता है. मैं दोमुंहा नहीं हूं. अगर मुझे आपका काम अच्छा नहीं लगा तो बोल दूंगा कि आपका काम अच्छा नहीं लगा. मेरे साथ काम कर चुके प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, एक्टर हैं. उनसे बात करें. अभिनय देव से पूछ लीजिए. उनके शूट किए सीन पसंद आने पर अच्छा कहा. पसंद नहीं आया तो मैंने कहा कि मजा नहीं आया. जो बात मेरे दिल में होती है, वही कहता हूं. मेरे इंटरव्यू में भी आपको यह बात दिखेगी.

लेकिन कभी क्या खतरा महसूस नहीं होता? अपनी लोकप्रियता और स्वीकृति से व्यक्ति आत्मकेंद्रित और निरंकुश भी हो जाता है. फिर आस-पास के लोग डर या खौफ में रजामंदी जाहिर करने लगते हैं. गलत निर्णयों को भी सही बताने लगते हैं.

मेरे साथ अभी तक ऐसा नहीं हुआ है. मेरी हर फिल्म की टीम के सदस्य को पूरी छूट रहती है. ‘डेल्ही बेली’, अनुषा रिजवी की फिल्म ‘पिपली लाइव’, ‘तारे जमीन पर’, किरण की फिल्म ‘धोबी घाट’ या ‘लगान’ में आशुतोष… जब भी कोई सवाल मन में आता है तो मैं सभी से पूछता हूं. भैया, ऐसा लग रहा है. मैं यह सोच रहा हूं. तुम लोग क्या सोच रहे हो? उन्हें जो फील होता है वे बताते हैं. मेरे सामने लोग खुल कर अपनी बातें कहते हैं. यह मेरी स्ट्रेंथ है. अब यह अलग बात है कि मैं उनकी राय से सहमत होऊं या न होऊं. मेरी फिल्मों के आडियंस टेस्ट के समय आए हुए दर्शक मुझे भला-बुरा कहते हैं. मैं मजाक नहीं कर रहा हूं. कभी आपको ऐसे शो में बुलाऊंगा. कई बार पहली दफा मिल रहे व्यक्ति भी बेबाक राय देते हैं कि आपकी फिल्म पसंद नहीं आई. मजा नहीं आया. इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि मेरी प्रेजेंस में भी वे झिझकते नहीं हैं.

फिल्मों की समीक्षा के बारे में क्या राय है?

रिव्यू पढ़ते समय मेरी उम्मीद रहती है कि समीक्षक फिल्म की आत्मा को समझ सका कि नहीं. अगर वह वहां तक नहीं पहुंच सका तो हमें बताए कि उसे क्या दिक्कत हुई. उसे क्या कमी लगी. फिल्म के दिल तक पहुंचना जरूरी है. मैं यह मान कर चलता हूं कि मेरी हर फिल्म के बारे में समीक्षकों की राय अलग-अलग होगी. सभी अपने हिसाब से लिखते हैं. मैं सिर्फ यह देखता हूं कि समीक्षक मेरी फिल्म के दिल और आत्मा तक पहुंच सका कि नहीं. मेरी कमियों को ढंग से जाहिर कर सका कि नहीं? मुझे अपने काम में जो कमजोरी नजर आ रही है, क्या वही आपको भी नजर आ रही है? या आप कोई नई बात बता रहे हैं, जिस से मेरी आंखें खुल रही हैं. कई बार फिल्म की व्याख्या अलग लेवल पर हो जाती है.

क्या दर्शक हर फिल्म सही ढंग से समझ पाते हैं?

मेरे खयाल में दर्शक हमेशा फिल्म को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं. ऐसा नहीं होता कि किसी फिल्म को दर्शक न समझ पाएं. उनकी समझ हमेशा सही होती है. वे सिर्फ अपनी राय देते हैं. हम लोग अपनी राय में दूसरों की राय जोड़ने की कोशिश करते हैं. मैं अपनी फिल्म के बारे में ऐसा नहीं कह सकता कि उसे सारे रिव्यू अच्छे मिले. ‘लगान’ ज्यादातर लोगों को अच्छी लगी थी.

मुझे याद है कि एस आनंद ने  ‘लगान’  पर लिखते समय कचरा को दलित एंगल से समझने की कोशिश की थी और फिल्म की आलोचना की थी?

शायद आशुतोष ने भी इतना नहीं सोचा होगा कि मैं कचरा को क्यों ला रहा हूं. कचरा दलित है. वह विकलांग क्यों है? कई बार फिल्म की व्याख्या उसके विषय और चरित्रों को अलग संदर्भ दे देती है.

मुझे लगता है कि आपके अभिनय में निखार आने के साथ आपकी संवाद अदायगी भी बदली है.

हां, मैं मानता हूं इस बात को. आपका यह आब्जर्वेशन सही है. पहले मेरी स्पीच तेज थी. मैं बहुत जल्दी-जल्दी बोलता था. समय के साथ मैंने उसे नियंत्रित किया और जरूरी सुधार लाया. अपनी गलतियों से सीखा. मैंने संवाद अदायगी में किसी की नकल नहीं की है.

भाषा का ज्ञान और उसकी समझ की जरूरत पर कुछ बताएं. इन दिनों हिंदी फिल्मों में ही हिंदी शब्दों का सही उच्चारण नहीं होता.

एक्टर के लिए भाषा बहुत जरूरी है. आप जिस भाषा में अभिनय कर रहे हैं उस भाषा पर अधिकार तो होना ही चाहिए. आप पिछली पीढ़ी, हमारी पीढ़ी और आज की पीढ़ी को देखें तो यह फर्क समझ में आएगा. हिंदी क्षेत्रों से आए एक्टर और बड़े शहरों के एक्टर की भाषाएं अलग-अलग हैं. उनके बोलने के लहजे की बात नहीं कर रहा हूं. शब्दों और वाक्य को समझना और उसे सही ठहराव के साथ बोलना जरूरी है. लहजा तो किरदार के साथ बदलता है. वजन सही हो तो दिमाग में चल रही सोच और बोले गए अल्फाज में एक रिश्ता बनता है.

क्या आप जो बोल रहे होते हैं उसे समझ भी रहे होते हैं? कई सारे एक्टर सिर्फ संवाद बोल देते हैं. वे शब्दों के अर्थ नहीं समझते तो चेहरे पर भाव भी नहीं आता…

इतना तो बुरा नहीं हूं मैं. मैं अपने संवादों को समझने के बाद ही बोलता हूं. समस्या है कि युवा पीढ़ी के ज्यादातर एक्टर शहरों के हैं. उनकी पढ़ाई-लिखाई और परवरिश अलग माहौल में हुई है. वे हिंदी में उतने कंफर्टेबल नहीं हैं. चूंकि वे ढंग से नहीं समझते, इसलिए पर्दे पर मिसमैच दिखाई पड़ता होगा. उनके संवादों में जान नहीं आ पाती. 

एक खास ट्रेंड देख रहा हूं मैं कि इंडस्ट्री के पुराने या नए डायरेक्टर रीमेक, सीक्वल या कही गई कहानियों को िफर से कहने में लगे हैं, जबकि बाहर से आए डायरेक्टर नई कहानी लेकर आ रहे हैं….

मैं मानता हूं यह बात. आप काफी हद तक सही हैं. ये आपका ऑब्जर्वेशन सही है कि फिल्म परिवारों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी के डायरेक्टर के रेफरेंस पॉइंट फिल्में ही हैं. वे इतनी फिल्में देख चुके हैं. उन्हें जिंदगी का तजुर्बा भी फिल्मों के जरिए ही मिला है. उनके सारे रेफरेंस पॉइंट और कैरेक्टर भी वहीं से आते हैं. जो लोग बाहर की जिंदगी जीकर आते हैं, उनके रेफरेंस पॉइंट में रियल लाइफ होती है. किरदार रियल होते हैं. मुझे लगता है कि रियल लाइफ से जुडे़ रहना जरूरी है. क्रिएटिव इंसान के लिए कामयाबी के साथ यह लगाव कम होता जाता है.

‘धोबीघाट’  का ही उदाहरण लें. ऐसी फिल्म आप नहीं सोच सकते थे.

सही कहा आपने. उसमें किरण की जिंदगी से अनुभव हैं. मैं वैसे अनुभवों से नहीं गुजरा. फिर भी आप ऐसा न समझें कि मैं रियल लाइफ से कटा हुआ  हूं.

 

सौ ग्राम सिनेमा

जब बोफोर्स का जिन्न 25 साल बाद और ऑपरेशन वेस्टएंड (तहलका कांड) का 11 साल बाद बड़े धूम-धमाके के साथ बोतल से बाहर आ गया हो, संसद की कार्यवाही जोर-शोर से ज्यादा सिर्फ शोर से चल रही हो, माओवादियों ने कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों का अपहरण कर लिया हो और तहलका के संवाददाता हमेशा की तरह नई-नई स्टोरी करने के प्रस्ताव रख रहे हों तो ऐसे में सिनेमा पर विशेषांक के औचित्य को कैसे ठहराया जाए? कैसे खुद और पाठकों को यह समझाया जाए कि बॉलीवुड पर एक पूरा अंक निकालना तहलका जैसी एक खांटी समाचार पत्रिका के लिए जरूरी न भी हो तो कोई अजीब बात भी नहीं है.

मगर शायद ऐसा करना उतना मुश्किल भी नहीं. इस विशेषांक के औचित्य को एक ही मगर जरा से लंबे वाक्य में भी समझाया जा सकता है: जिस सिनेमा ने, जब भी हम इससे जुड़े, हमारे उस समय को एक उत्सव में बदल दिया क्या उसके सौंवें साल में प्रवेश करने का उत्सव मनाना किसी भी लिहाज से अनुपयुक्त माना जा सकता है? क्या ऐसा करना तहलका की हमेशा की राजनीतिक और कई तरह के गड़बड़झालों को उजागर करने वाली पत्रकारिता के मध्य उसी तरह की ठंडी बयार जैसा नहीं होगा जिस तरह की बयार बीच-बीच में फिल्में हमारे जीवन में लाती रही हैं? वैसे भी हमने अक्सर फिल्मों, फिल्मी सितारों और इस तरह की अन्य कहानियों के साथ अन्याय ही किया है: इस बार यह इतना महत्वपूर्ण घट गया इसलिए फिल्म वाली स्टोरी ड्रॉप कर दो; कोई अपनी फलाना कांड वाली स्टोरी पांच पेज में नहीं कर पा रहा तो दो पन्नों वाली फीचर स्टोरी को एक पेज का कर दो, फिर चाहे वह कितने ही सुंदर तरीके से लिखी और सहेजी क्यों न गई हो. इस तरह तो तहलका साहित्य, कला आदि से जुड़ा कोई भी विशेषांक निकालने की स्थिति में कभी भी नहीं होगा.

एक बार जब इस विशेषांक को लाने का फैसला हो गया तो इसे करना भी कुछ हटकर ही होगा. तो इस विशेषांक में कहीं-कहीं से भी इकट्ठा करके कुछ बेहद अद्भुत और दुर्लभ चीजों का संकलन किया गया है और उन्हें एक फिल्म के महत्वपूर्ण हिस्सों के छोटे-छोटे खंडों के रूप में सजाया गया है.

कहने का मतलब यह कि हमने इस अंक को एक फिल्म का स्वरूप देने जैसी एक अजीबोगरीब कोशिश की है और इसमें मौजूद सारी सामग्री को कुछ इस प्रकार से संयोजित किया है मानो वे किसी भारतीय फिल्म का हिस्सा हों. मसलन पत्रिका का कवर, कवर न होकर एक मसाला फिल्म के पोस्टर जैसा है और पत्रिका की शुरुआत (जो आप अभी पढ़ रहे हैं) एक सेंसर बोर्ड के प्रमाण पत्र सरीखी है. फिल्म रूपी इस पत्रिका में एक मध्यांतर भी है जो इसे दो भागों में विभाजित करता है. इसके अलावा इस फिल्म में कास्टिंग, क्लाइमैक्स और ट्रेलर भी आपको कमोबेश अपने सही स्थानों पर नजर आएंगे.

मगर इस ‘फिल्मी’ विशेषांक का असली नायक इसकी सामग्री ही है. इसमें कुछ बहुत बढि़या लेख, साक्षात्कार और ऐतिहासिक दस्तावेज हैं. इस अंक में अनुपम जी जैसे पर्यावरणविद, गांधीवादी और लेखक ने फिल्मों पर लिखा है. इसमें फिल्म संसार से जुड़े छत्तीसगढ़ के दो ऐसे महानुभावों के संस्मरण हैं जो सिनेमा के शुरुआती दिनों में बैलगाड़ी पर इसे गांव-गांव पहुंचाने का काम करते रहे. अंक में भारतीय सिनेमा के पितृ पुरुष दादा साहब फालके और राजकपूर, संजीव कुमार, किशोर कुमार जैसे महानायकों के विभिन्न फिल्मी पत्रिकाओं में समय-समय पर छपे लेख तो हैं ही साथ ही आमिर और शाहरुख, दो खान भी हैं.

हिंदी के वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज ने अपने संस्थान दैनिक जागरण से विशेष अनुमति लेकर इस आयोजन को अपना सहयोग दिया, उनका और उनके संस्थान का धन्यवाद.

पाठकों के पत्रों का इंतजार रहेगा, यह जानने के लिए कि हम अपने इस प्रयास में कितना असफल रहे.

निर्मल बाबा की तीसरी और चैनलों की बंद आंख

न्यूज चैनल ही निर्मल बाबा के फर्जी कारोबार को बढ़ाने में लगे हुए हैं

कहते हैं कि भक्ति में बहुत शक्ति है. लेकिन भक्ति से ज्यादा शक्ति बाबाओं, बापूओं, स्वामियों में है. विश्वास न हो तो चैनलों को देखिये, जहां भक्ति से ज्यादा बाबा, बापू, स्वामी छाए हुए हैं. आधा दर्जन से अधिक धार्मिक चैनलों पर चौबीसों घंटे इनका अहर्निश प्रवचन और उससे अधिक उनकी लीलाएं चलती रहती हैं. लेकिन इन बाबाओं का साम्राज्य सिर्फ धार्मिक चैनलों तक सीमित नहीं है. मनोरंजन चैनलों से लेकर न्यूज चैनलों तक पर भी सुबह की कल्पना उनके बिना संभव नहीं है.

नए दौर के इन साधुओं की सबसे बड़ी खासियत यह है कि धर्म और ईश्वर भक्ति से उनका बहुत कम लेना-देना है. वे भक्तों को ईश्वर भक्ति की सही राह दिखाने से ज्यादा उनकी समस्याओं का हल बताने में दिलचस्पी लेते हैं. वे लाइलाज बीमारियों की दवाइयां बेचते हैं. यही नहीं, उनमें से कई शनिवार को काली बिल्ली को पीला दूध और काले तिल के सफेद लड्डू जैसे टोटकों से विघ्नों को साधने के रास्ते सुझाते हैं. ये नए जमाने के बाबा हैं जिन्हें चैनलों ने बनाया और चढ़ाया है, और अब वे चैनलों को बना-चढ़ा रहे हैं.

इन्हीं में से एक निर्मल बाबा आजकल सुर्खियों में हैं. कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदी के अधिकांश न्यूज चैनलों पर वे छाए हुए हैं. हिंदी न्यूज चैनलों पर उनका प्रायोजित कार्यक्रम थर्ड आई ऑफ निर्मल बाबा  इन दिनों सबसे हिट कार्यक्रमों में से है. रिपोर्टों के मुताबिक, यह कार्यक्रम हिंदी न्यूज चैनलों के टॉप 50 कार्यक्रमों की सूची में ऊपर से लेकर नीचे तक छाया हुआ है. कहने की जरूरत नहीं है कि उनके कार्यक्रम की ऊंची टीआरपी और बदले में बाबा से मिलने वाले मोटे पैसों के कारण इन दिनों चैनलों में निर्मल बाबा की तीसरी आंख दिखाने की होड़-सी लगी हुई है.

बाबा का कारोबार न्यूज चैनलों पर फैल चुका है. ऐसा लगता है कि चैनलों ने बाबा की तीसरी आंख के चक्कर में अपनी आंखें बंद कर ली हैं

लेकिन एक सच यह भी है कि देश को निर्मल बाबा और उनकी तीसरी आंख देने का बड़ा श्रेय चैनलों को जाता है. हालांकि चैनलों ने देश को पहले भी कई बापू-स्वामी दिए हैं लेकिन निर्मल बाबा शायद पहले ऐसे बाबा हैं जिनका पूरा कारोबार चैनलों के आशीर्वाद से फला-फूला है. उनसे पहले इंडिया टीवी और कुछ और चैनलों के सहयोग से दाती महाराज उर्फ शनिचर बाबा ने खासी लोकप्रियता और दान-दक्षिणा बटोरा था. वैसे चैनलों की मदद से कारोबार चमकाने वाले बाबाओं, स्वामियों में स्वामी रामदेव का कोई जवाब नहीं है.

इसके बावजूद मानना होगा कि रामदेव कम से कम योग पर मेहनत करते हैं. लेकिन निर्मल बाबा को अपना शरीर भी बहुत हिलाना-डुलाना नहीं पड़ता है. वे हर मायने में ‘अद्भुत’ और अनोखे हैं. वे मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के नए ‘एगोनी आंट’ या ‘संकटमोचक’ हैं जिसके पास शादी न होने से लेकर नौकरी न मिलने और कारोबार न चलने से लेकर पति के दूसरी महिला के चक्कर में फंसने जैसे आम मध्यमवर्गीय समस्याओं का बहुत आसान और शर्तिया इलाज है. यह इलाज बटन धीरे-धीरे खोलने से लेकर दायें के बजाय बाएं हाथ से पानी पीने और दस की बजाय बीस रुपये का भोग चढाने तक कुछ भी हो सकता है.

असल में, निर्मल बाबा के इलाज बहुत आसान, सस्ते और दिलचस्प हैं. इन टोटकों पर अमल करने में किसी ऐब या आदत को छोड़ना नहीं पड़ता और समस्या के हल होने की ‘उम्मीद’ बनी रहती है. ये नए किस्म के अंधविश्वास हैं. बाबा चैनलों की ‘साख’ का सहारा लेकर उन्हें आसानी से भक्तों के गले में उतार देते हैं. नतीजा, बाबा के निर्मल दरबार में भक्तों की भीड़ लगी हुई है.

बाबा के इन शंका समाधान शिविरों में प्रवेश के लिए दो हजार रुपये देने पड़ते हैं. कहा जा रहा है कि इसी के दम से बाबा करोड़पति हो गए हैं. हालांकि पैसा देकर आने वाले इन दुखियारों में से बहुत कम को ही सवाल पूछने का मौका मिल पाता है क्योंकि आरोप हैं कि ज्यादातर सवाल पूछने वाले बाबा के ही चेले और यहां तक कि मासिक तनख्वाह पर काम करने वाले टीवी के जूनियर आर्टिस्ट होते हैं. बाबा की दुकान सजाने में इनकी बहुत बड़ी भूमिका है.

बाबा का कारोबार एक चैनल से शुरू होकर अनेक चैनलों पर पहुंच चुका है. लेकिन ऐसा लगता है कि चैनलों ने बाबा की तीसरी आंख के चक्कर में अपनी आंखें बंद कर ली हैं. उन्हें बाबा की दिन-दहाड़े की ठगी नहीं दिख रही है. चैनल अंधविश्वासों को मजबूत कर रहे हैं. यह ठीक है कि निर्मल बाबा का यह कार्यक्रम प्रायोजित या एक तरह का विज्ञापन कार्यक्रम है. लेकिन क्या प्रायोजित कार्यक्रमों की कोई आचार संहिता नहीं होती है?

क्या यह ड्रग ऐंड मैजिकल रिमेडीज (ऑब्जेक्शनल ऐडवर्टीजमेंट) कानून के उल्लंघन का मामला नहीं है? आखिर बाबा मैजिकल रिमेडीज नहीं तो और क्या बेचते हैं? आखिर चैनलों की आंख सरकार के डंडे के बिना क्यों नहीं खुलती है? सबसे अफसोस की बात यह है कि यह कार्यक्रम देश के कुछ प्रतिष्ठित न्यूज चैनलों पर चल रहा है जो स्व-नियमन के सबसे अधिक दावे करते हैं. अच्छी बात यह है कि एक बार फिर सोशल और न्यू मीडिया में इस मुद्दे पर चैनलों की खूब थू-थू हो रही है. देखें, चैनलों के ‘ज्ञान चक्षु’ कब खुलते हैं?

‘ऐसी कोई किताब नहीं जहां जिंदगी के सारे सवालों के जवाब लिखे हों’

गुलजार के बारे में कहा जाता है कि उनके शब्दों पर उनकी मुहर लगी होती है. इस चर्चित शायर, गीतकार और फिल्मकार का कहानी संग्रह ‘ड्योढ़ी’ हाल ही में वाणी प्रकाशन से छपकर आया है. स्वतंत्र मिश्र की उनसे बातचीतः

आपने  ‘ड्योढ़ी’  सलीम आरिफ को समर्पित की है. उनके बारे में कुछ बताएं.

 सलीम आरिफ थियेटर से जुड़े रहे हैं. वे मेरे साथ फिल्मों में सहायक रहे हैं. ‘गालिब’ में भी वे मेरे साथ रहे. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से वे गोल्ड मेडलिस्ट हैं. बड़े काबिल आदमी हैं. दिल्ली में उनके नाटकों का फेस्टिवल हो चुका है. मेरी कहानी का उन्होंने कोलाज बनाकर नाटक किया. वे जब मेरे पास इस योजना को लेकर आए तब उनकी बात मेरे समझ में नहीं आ रही थी. वे नाटक में मेरी कहानी, कविता और नज्म को शामिल करना चाहते थे. वे दंगों को लेकर मेरी लिखी कहानियों और कविताओं को लेकर कोलाज तैयार करना चाहते थे. मैंने उनसे कहा कि भाई नाटक में मेरी कहानी होगी तो फिर कविता क्यों और अगर कविताएं सुनेंगे तो फिर कहानी क्यों? वे मुस्कुराते रहे. कहते रहे कि आपने इस विषय पर बहुत लिखा है. विभाजन से लेकर गुजरात दंगों को उन्होंने नाटक में समेटा. मैंने सन 1947 के विभाजन से लेकर अब तक हुए दंगों पर हमेशा रिएक्ट किया है. रिएक्ट करने के साथ कुछ लिखता भी रहा हूं. हालांकि जब नाटक देखा तो मैं दंग रह गया. मेरे रिएक्शन हर बार किताब में ही रह जाते थे, लेकिन इस बार जिंदा रिएक्शन लोगों के सामने आया. लोगों ने उस पर रिएक्ट भी किया. मैं समझता हूं कि वे इसके हकदार हैं.

आपने कुछ इस अंदाज में  ‘सलीम आरिफ और सलीम आरिफ और सलीम आरिफ के नाम!’  किताब उन्हें समर्पित की है?

 हां. यह कहने का एक अंदाज है. तीनों एक ही आदमी के नाम हैं. ऐसा नहीं है कि ये तीन अलग-अलग लोग हैं. कबूल करने का एक तरीका है. बांग्ला में भी ‘तीन सोत्ती’ का चलन है. ‘तीन सोत्ती’ का मतलब तीन बार कहो. मैं तुम्हें प्यार करता हूं. मैं तुम्हें प्यार करता हूं. मैं तुम्हें प्यार करता हूं. तीन बार नहीं कहेंगे तो कोई यकीन करने को तैयार नहीं होगा.

एक इंटरव्यू में आपने कहा था कि आपको बांग्ला जुबान से बेहद लगाव है. क्या इस लगाव की वजह सचिन देव बर्मन, हृषिकेष दा आदि के साथ काम करना तो नहीं है?

नहीं, ऐसा नहीं है. बांग्ला देश के लोगों की एक जुबान है. मैं बंगालियों से स्कूल के दिनों से मिलता रहा हूं. स्कूल से ही बांग्ला अच्छी लगती है. बांग्ला पढ़ी है. मैंने सब कुछ फिल्मों से ही नहीं सीखा है. फिल्मों के अलावा भी मेरी जिंदगी में बहुत कुछ है. 

 

‘ड्योढ़ी’  में भारत-पाक के विभाजन का दर्द बयान किया गया है. विभाजन की टीस आपके भी दिल में गहरे उतरी हुई है.

मेरी कहानियों में विभाजन का दर्द बार-बार दिखता है. उसकी वजह यह है कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय में मैं कोई ग्यारह-बारह साल का रहा होऊंगा. इस उम्र के जख्म जिंदगी भर नहीं जाते हैं. इस मामले में मैं अपने पिता जी का बड़ा शुक्रगुजार हूं. वे बड़े धर्मनिरपेक्ष आदमी थे. वर्ना मैंने लोगों का कत्ल-ए-आम होते देखा. लोगों को उजड़ते देखा. ऐसे हालात में आदमी कट्टरता की तरफ बढ़ सकता है. मेरे पिता जी बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे. लेकिन जिंदगी की तालीम बहुत बड़ी होती है. उन्होंने मुझे पूर्वाग्रही नहीं होने दिया. मां-बाप की प्रवृत्तियों का असर उनके बच्चों पर बहुत गहरा पड़ता है. ऐसे हादसे आपके भीतर पलते-पनपते रहते हैं. वे आपको परेशान करते हैं. उसे अभिव्यक्त करने के लिए कोई-न-कोई साधन चाहिए होता है. मेरी अभिव्यक्ति का जरिया लिखना हो गया और विभाजन की टीस इसके जरिए बाहर आती रही.

संग्रह में बदहवासी का जिक्र है. अपनी एक कविता में भी आप कहते हैं कि एक जिंदगी नौवें आसमान में और दूसरी जिंदगी दलदल में है. गरीबी कम होने की बजाय बढ़ी है.

जी हां, ऐसा हुआ है. लेकिन कहानी की कथावस्तु यह नहीं है. अन्ना हजारे पर जब कहानी लिखूंगा तब इस बारे में कहूंगा. मेरी कहानियां गरीब लोगों के संघर्ष के बारे में हैं. मैं इस जिंदगी के अनुभवों से होकर गुजरा हूं. मैंने उन्हें महसूस किया है. ऐसा नहीं है कि मैंने सिर्फ नोट्स लेकर कहानियां लिखी हैं. इस संग्रह में मेरी ‘शाप’, ‘झड़ी’ और ‘बास’ गरीबी की कहानियां नहीं हंै. गरीबी में लोग कैसे जिंदा रहते हैं, उस बारे में ये कहानियां हैं. झोपड़पट्टी तोड़कर पक्के मकान बना दिए गए हैं. लेकिन वहां भी इन कहानियों के पात्र जिंदगी ढूंढ़ते हैं. वे वहां भी फलियां और करेले ढूंढ़ते हैं. वे इस बात को लेकर चिंतित हैं कि यहां मंजी (खटिया) नहीं बिछाई जा सकती है. समझने की बात यह है कि जिंदगी महल और बिल्डिंग में नहीं है. खोई हुई चीज को जिंदगी ढूंढ़ती रहती है. ये आर्थिक तंगी के सवाल नहीं हैं. यहां तो हर हाल में जिंदगी पाने की ख्वाहिश है. ऐसा नहीं है कि किसी के दोनों पैर कट गए हों और पटि्टयां बंधी हों और रेहड़ी पर चलता हो तो वह कभी हंसा नहीं होगा. वे रोते भी हैं, हंसते भी हैं और गालियां भी देते हैं.

कहानी  ‘सारथी’  में मुख्य किरदार मारुति है. उसकी माली हालत बहुत खराब है. काम के बाद घर लौटने पर अपने बेटे को चोटिल देख कहता है –  ‘साला रोज पिट के आता है. घाटी कहीं का. मराठीयांचि नाक कापली.’  ऐसी प्रतिक्रिया का क्या मतलब?

मराठों की नाक कटा दी. आप पाएंगे सरदार भी अपने बच्चों से ऐसे ही कहते हैं. ‘ओए मार खाके आ गया. सरदारां दी बेसती करा दीत्ती.’ लोग ऐसे ही रिएक्ट करते हैं. दूसरी ओर बीवी मना करती है और कहती है कि क्यों उलटा-सीधा सिखाता है. बाप बेटे से कहता है कि चल छोड़. कौन सा तुझे तुकाराम बनना है. मालिश कर. मार खाके आ जाता है. इसमें कोई दर्शन मत ढूंढि़ए. यह जीवन में घटने वाली सामान्य बातें हैं. ऐसा थोड़े ही होता है कि हर समय आप किताब देखकर जवाब ढूंढ़ते हैं. शिव कुमार रे की एक बहुत ही खूबसूरत नज्म है – ‘कि मुझे वह किताब हाथ लग गई जिसमें जिंदगी के हर सवाल का जवाब लिखा हो.’ वे लिखते हैं कि मुझे जब भी मुश्किल पेश आती है तब मैं उसमें जवाब ढूंढ़ लेता हूं. मुश्किल तब हुई जब मेरे पीछे एक पागल सांड लग गया और मैं किताब के पन्ने पलटता रहा. जिंदगी एक सांड की तरह है जो पता नहीं कहां सींग मार बैठे. 

‘तलाश’  कहानी आपने हुमरा कुरैशी को समर्पित की है. हुमरा कौन हैं?

हुमरा कुरैशी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने कश्मीर के बारे में बहुत लिखा है. वे अंग्रेजी अखबारों में सालों से कॉलम लिखती रही हैं. कश्मीर के बारे में अंग्रेजी में उनकी एक बहुत अच्छी किताब (कश्मीरः द अनटोल्ड स्टोरी) भी है. उनकी कई किताबें छप चुकी हैं. कश्मीर को लेकर मेरी उनसे बातचीत होती रही है. वे बहुत अच्छा लिखती हैं.

कहानी  ‘ओवर’  में राजस्थान के  ‘पोचीना’  गांव का जिक्र है. एक कमरा है जिसमें एक सिपाही बंदूक लिए खड़ा है. आप लिखते हैं कि  ‘खामख्वाह’  खड़ा है. ऐसा क्यों कहते हैं?

सिपाही की ड्यूटी है. हर चार घंटे में बदलती रहती है. बोरे वगैरह रखे हुए हैं. सिपाही पाकिस्तान की ओर बंदूक ताने खड़ा है. ड्यूटी पर जो आदमी है वही सिर्फ वरदी में है. बाकी सब कच्छे और बनियान में घूमते रहते हैं. यहां से वहां तक कोई नहीं दिखता है. लेकिन उसकी ड्यूटी है कि बस नजर रखो. पता नहीं कहां से कौन आ जाए? इधर और उधर दोनों ओर खालीपन पसरा हुआ है. दोनों ओर एक-एक पत्थर लगा दिए गए और एक ओर भारत, दूसरी ओर पाकिस्तान लिखा है. न कोई तार लगी है. कोई लकीर भी नहीं है. कोई दीवार नहीं है. यहां से वहां तक सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है. फिर दीवार खड़ी करके उसमें छेद बनाकर सिपाही के खड़े रहने की कोई वजह बनती है? जाहिर-सी बात है कि जिसकी वजह नहीं बनती है उसको हम खामख्वाह ही कहते हैं. बॉर्डर पर बिजली नहीं है. रात भर फौजी लालटेन में पहरा देते हैं. झगड़े कोई नहीं हैं. बस सियासतदानों के झगड़े चलते रहते हैं. इधर का सैनिक उधर जाता है तब एक गोली हवा में चलाई जाती है. उधर से कोई आता है तो दो गोली चलाता है. इशारों में बातचीत होती है. महीने में दोनों ओर के फौजियों के बीच मीटिंग होती है. इस मीटिंग में उनके बीच जानवर की आपसी-वापसी होती है. रात में वे एक साथ बैठकर शराब पीते हैं. बार्डर के दोनों पार एक से गाने गाए जाते हैं. वे आपस में रोटियां भी बांटते हैं. वे बहुत दिलचस्प तरीके से जीते हैं. लोग, लोगों की तरह जीना चाहते हैं. उनके एक तरह के गाने हैं. खाने भी एक तरह के हैं. मैं समझता हूं कि वे जिस तरह जीते हैं, वह बहुत ही खूबसूरत है. हम अखबारों में रोज पढ़ते हैं कि वहां गोलियां चल रही हैं. उनकी सेना हमारी सीमा में घुस आई. वगैरह, वगैरह. लेकिन आप इन सबके बीच झांककर देखिए कि वे कितना खूबसूरत जीवन जीते हैं. जिंदगी ने वहां अपनी खूबसूरती बनाई हुई है. बाकी सुर्खियां हैं. मेरी भूमिका लेखक होने के नाते यह बनती है कि मैं अपने पाठकों को उन खूबसूरत जिंदगियों के बारे में बताऊं.

आपने बहुत सारे फॉर्मेटों पर काम किया है. गाने लिखे. फिल्म की पटकथा लिखी. नज्म लिखे. इस संग्रह में आप कहानियाें के साथ आए हैं. ये सच्ची मालूम पड़ती हैं.

जी हां. संग्रह की सारी कहानियां मेरे अनुभव की कहानियां हैं. पश्चिमी देशों में ‘बायोग्राफिकल नॉवेल’ लिखने का चलन बहुत ज्यादा रहा है. मिसाल के तौर पर, ‘लस्ट फॉर लाइफ’, ‘एगॉनी ऐंड एक्सटेसी’, ‘सेलर ऑन द हॉर्स बैक’. बायोग्राफिकल नॉवेल में तथ्य तो होते हैं लेकिन उसकी तस्वीर भी बना दी जाती है. मैंने मंजरकशी करने की कोशिश की है. मैं समझता हूं कि अगर बायोग्राफिकल नॉवेल लिखे जा सकते हैं तब बायोग्राफिकल शॉर्ट स्टोरीज क्यों नहीं लिखी जा सकती हैं? इससे पहले भी मैंने माइकल एजेंलो पर इस तरह की एक कहानी लिखी थी जो सीबीएससी के पाठ्यक्रम में लगी हुई है.

 

हमने क्या खोया हमने क्या पाया

 

क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि बीते दो-तीन दशकों के भीतर हमारे घरों के स्थापत्य कितने बदल गए हैं?  क्या आपको अपने छोटे-छोटे शहरों और कस्बों के वे बड़े-बड़े घर याद आते हैं जिनमें सामने खुला बरामदा होता था, भीतर आंगन और कुआं और फिर पिछवाड़े में अमरूद, अनार, जामुन और मुनगे तक के पेड़? बहुत बचपन में जब पहली बार मैंने बड़े शहरों के ऐसे घरों के बारे में सुना था जिनमें कमरों के साथ ही बाथरूम जुड़ा होता है तो अजीब सी हैरानी हुई थी. फिर जब यह जानकारी मिली कि लोगों को घर के साथ जमीन नहीं मिलती- यानी नीचे वाला हिस्सा किसी और का हो सकता है, ऊपर वाला किसी और का, तो यह हैरानी कुछ और बढ़ गई.

आज 30 साल बाद मैं ऐसे ही फ्लैट में सहजता से रहता हूं जिसकी कल्पना ने कभी मुझे हैरान किया था. कुछ साल पहले जब मेरा बेटा छोटा था तो उसे रांची ले जाकर मैंने कुआं दिखाया. वह जमीन के इतने भीतर छलछलाता पानी देखकर कुतूहल से भरा हुआ था. मैंने उसे बताया कि गर्मियों की सुबह इस कुएं का पानी ठंडा हुआ करता है और सर्दियों की सुबह गर्म- छतों पर लगी हमारी टंकियों से उलट, जहां गर्मी में पानी बिल्कुल खौल जाता है और सर्दी में वह बिल्कुल ठंडा होता है.

इस लेख का मकसद कोई नॉस्टैल्जिया, कोई स्मृतिजीवी उछाह- पैदा करना नहीं है, बस इस तरफ ध्यान खींचना है कि हमारी बेखबरी में हमारा पूरा शहरी जीवन लगभग बदल चुका है. वे आंगन नहीं बचे, जिन्हें किसी ने हार्ट ऑफ द हाउस- घर का हृदय- कहा था. इन आंगनों में दोपहर को अनाज सुखाया जाता था, तार पर कपड़े टांगे जाते थे और सर्दियों की दोपहर और गर्मियों की शाम में परिवार एक साथ बैठा करता था. आंगन के चारों तरफ कमरे होते थे, अलग-सा कोई ड्राइंगरूम या बेडरूम नहीं होता था, जिसमें मेहमान अपनी हैसियत या आत्मीयता के हिसाब से दाखिल हो सकें. घरों के पीछे कोई न कोई ‘बारी’- जो कहीं बाड़ी भी कही जाती है- हुआ करती थी जिसमें कई तरह के पेड़ होते थे. इन पेड़ों पर चढ़ना भी एक कौशल का काम था और जो फुनगी के जितने करीब पहुंचता था वह उतना ही तेज माना जाता था. लोगों को पेड़ों की पहचान बची हुई थी. अब हालत यह है कि पेड़ों से भी हमारा रिश्ता टूटा हुआ है- हमारे लिए सब पेड़ हैं- उलझे हुए हरे धूसर रंग की एक मौजूदगी, जिन्हें बच्चे आम, अमरूद, अनार, इमली, नीम, बेल, पीपल, बड़, मुनगा, सखुआ जैसे नामों से नहीं पहचान पाते.

रसोईघर भी पूरी तरह बदल चुका है. वहां अब डेकची या देगची, लोटे, मथनी, फूल और कांसे की भारी-भरकम थालियों की जगह नहीं है. अब स्टील की नफीस प्लेटें हैं, प्रेशर कुकर है, तरह-तरह के टोस्टर हैं और माइक्रोवेव ओवन भी है. कभी रसोईघर के लिए निहायत जरूरी माना जाने वाला घड़ा गायब हो चुका है और उसकी जगह फ्रिज ने ले ली है. सबसे बड़ा बदलाव यह है कि पुराने चूल्हे खत्म हो गए हैं, उनकी जगह गैस बर्नर और गैस सिलिंडर या पाइपलाइन हैं.

हमारा समय एक विस्थापित समय है. अपनी जड़ों से उखड़ा हुआ. हमारी ज्यादातर ऊर्जा खुद को इस समय के मुताबिक ढालने में जा रही है

फिर दुहराऊं कि इन पुरानी चीजों की याद दिलाने का मकसद यह बताना नहीं है कि जो पुराना था वह अच्छा था और जो नया है वह बुरा है. सच इसका उल्टा भी है. हमारी समृद्धि ने हमारी सहूलियत बढ़ाई है. गैस चूल्हा आया तो महिलाओं के लिए मुंह अंधेरे उठकर गीली आंखों से सीली लकड़ियों को फूंक मारकर जलाने की मजबूरी खत्म हो गई. रघुवीर सहाय की मशहूर कविता का बिंब जैसे बेकार हो गया- ‘पढ़िए गीता, बनिए सीता, फिर इन सबमें में लगा पलीता, किसी मूर्ख की हो परिणीता, निज घर बार बसाइए. होंय कंटीली अंखियां गीली, लकड़ी सीली, तबीयत ढीली, घर की सबसे बड़ी पतीली भर कर भात पसाइए.‘ अब चावल प्रेशर कुकर में पकता है जिसकी सीटी बता देती है कि खाना तैयार है. फ्रिज ने बार-बार दूध औटाने की मजबूरी खत्म कर दी है और बचपन में जो बर्फ हमें किसी अचरज की तरह दिखती और मिलती थी वह अब बड़ी आसानी से सुलभ है. सिलबट्टे की जगह आ गई मिक्सी की वजह से कई तरह के शेक संभव होने लगे हैं और माइक्रोवेव ओवन के साथ मिलने वाली रेसिपी बुक्स ने डाइनिंग टेबल पर कांटिनेंटल डिशेज की नई गुंजाइश पैदा की है जो हमारे पुराने रसोईघरों में कल्पनातीत थी.

बेशक, इन नए बनते घरों की अपनी सहूलियतें हैं- लोगों को अपना-अपना ‘स्पेस’ मिल रहा है. बच्चे कम हैं और उनके पास सहूलियतें ज्यादा हैं. पहले एक ही मेज पर एक ही टेबल लैंप के नीचे सिर झुकाकर तीन-चार बच्चों को पढ़ना पड़ता था और कई घरों में तो पढ़ने की मेजें भी अलग से नहीं हुआ करती थीं, वहां बिस्तर ही मेज का काम करती थी. अब सबकी अपनी मेज है, और मेज के साथ पूरी व्यवस्था जुड़ी हुई है. इस ढंग से देखें तो जो लोग पुराने दिनों, पुराने घरों, पुरानी रसोई को याद करते हैं वे भावुक स्मृतिजीवी लोग हैं, वे तरक्की को कोसने वाले पोंगापंथी हैं और हर बदलाव को शक की निगाह से देखने वाले परंपराभीरू हैं.

मुश्किल यह है कि यह कह कर हम काम चला नहीं पाते. एक तरफ हम अपना-अपना ‘स्पेस’ बना रहे हैं और दूसरी तरफ पा रहे हैं कि घुटन बढ़ती जा रही है. यह घुटन किस चीज की है?  पारिवारिक या सामाजिक सामूहिकता की जगह जिस निजता का हमने वरण किया था उससे वह एकांत हासिल नहीं होता जिससे सुकून का एहसास हो, उससे अकेलापन मिलता है जो असुरक्षा बोध देता है.

दूसरी बात यह कि हमने जो असबाब जुटा लिया है वह हमारे काम नहीं आ रहा, हमारी जरूरत के मुताबिक नहीं ढल रहा, हम उसके काम आ रहे हैं, उसकी जरूरत के मुताबिक ढल रहे हैं. यह ज्यादातर लोगों का अनुभव है कि जब पहली बार उन्होंने फ्रिज में रखा पानी पिया तो उसके बेस्वाद ठंडेपन ने उन्हें कुछ मायूस किया. इसके मुकाबले सुराहियों और घड़ों में रखा पानी कितना शीतल, मीठा और मिट्टी की खुशबू देने वाला हुआ करता था, अब यह ठीक से याद भी नहीं है. जाड़ों में नौबत यह आ जाती है कि फ्रिज डब्बा हो जाता है और दूध-पानी, फल-सब्जी, आटा, सब मौसम की सहजता के साथ बाहर पड़े रहते हैं.

ऐसे उदाहरण ढेर सारे हैं. रसोईघर की पुरानी जानी-पहचानी खुशबू नहीं बची है. वहां दादी और मां के जमाने में जितनी तरह के व्यंजन चले आते थे, अब नहीं दिखते. सब्ज़ी बनाने की कई विधियां लगता है खत्म होती जा रही हैं. जो नया रेसिपी कल्चर पैदा हो रहा है उसमें उत्सवप्रिय और आयोजनबद्ध उत्साह तो है, वह दैनिक सहजता नहीं है जिसमें कई तरह के मीठे-नमकीन-खट्टे व्यंजनों में खाने की थाली छोटी पड़ जाती थी. फिलहाल यहां मैं सिर्फ स्वाद की बात कर रहा हूं- स्वास्थ्य या साधनों का पक्ष इसमें शामिल नहीं है- क्योंकि मैं यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि क्या यह जीवन हमारे लिए ज्यादा उल्लास, ज्यादा सहजता लेकर आया है, या इसने हमारी मुश्किलें बढ़ाई हैं, हमारा आस्वाद घटाया है.

बेशक, साधनों के हिसाब से कोई कमी आज नहीं है- उल्टे वे बढ़ गए हैं. बच्चों के हाथों में आज इतने और इतनी तरह के खिलौने हैं जिनकी हम कल्पना तक नहीं करते थे. लेकिन अपने सारे अभावों के बावजूद लट्टू नचाते, पतंग उड़ाते, गिल्ली-डंडा से लेकर फुटबॉल, क्रिकेट तक खेलते हुए हमारा जो बचपन कटा, क्या वह आज के मुकाबले कम रचनात्मक या उल्लसित था?  पहले घरों में साइकिल आम होती थी, स्कूटर भी बड़ी बात मानी जाती थी, अब छोटी कार छोटी बात मानी जाती है. लेकिन इन गाड़ियों से हम कहां जाते हैं? ज्यादातर ऐसे दफ्तरों में जिनकी ऊब, यंत्रणा और एकरसता को कोसने में हमारा काफी वक्त जाता है या फिर ऐसे चमचमाते बाजारों में, जहां कोई सामान ख़रीद कर, जहां कुछ खाकर हम अपने भीतर का खालीपन भरने की कोशिश करते हैं.

क्या यह जीवन हमारे लिए ज्यादा उल्लास, ज्यादा सहजता लेकर आया है, या इसने हमारी मुश्किलें बढ़ाई हैं?

लोगों से मिलना-जुलना कम हुआ है. सिर्फ इसलिए नहीं कि हमारे पास समय नहीं है- अगर समय नहीं होता तो हम बाजार और रेस्टोरेंट और सिनेमाघरों में क्यों होते- बल्कि इसलिए कि हमारे पास सरोकार नहीं बचे हैं. न हम किसी को बुलाना चाहते हैं न किसी के घर जाना चाहते हैं- क्योंकि ऐसा आना-जाना हमें अपना और उसका दोनों का वक्त बर्बाद करने जैसा लगता है. आखिर हम एक-दूसरे के बारे में एक-दूसरे को जानकर और बता कर करेंगे भी क्या, क्योंकि वह दूसरा हमारा कोई लगता तो नहीं.

दरअसल कायदे से सोचें तो हमारा समय एक विस्थापित- अपनी जड़ों से उखड़ा हुआ- समय है. हमारी ज्यादातर ऊर्जा खुद को इस समय के मुताबिक ढालने में जा रही है. हम पुराने मकानों को बेच कर छोटे फ्लैट ले रहे हैं, हम घड़ा छोड़कर फ्रिज ले रहे हैं, हम कुओं और आंगनों की जगह बालकनी और गराज जुटा रहे हैं, हम अपनी भाषा छोड़ रहे हैं, अपने गीत-नृत्य, अपनी कलाएं सब भूल रहे हैं- इस भयानक शून्य में हिंदी की औसत फिल्में और टीवी चैनल हमारा इकलौता सहारा रह गए हैं. जीवन बस हमारे लिए शैली है, दृष्टि नहीं.

मैंने यह सब किसी निर्णायक ढंग से नहीं लिखा है. इस दौर में हमने जो पाया है, वह तो बहुत स्पष्ट है. यह लेख इस बात का हिसाब लगाने की कोशिश है कि जो कुछ हमने हासिल किया है उसकी किस-किस रूप में कैसी-कैसी कीमत चुकाई है क्योंकि कोई चीज़ मुफ़्त में नहीं मिलती- कम से कम इस नई अर्थव्यवस्था में तो नहीं ही. अगर सारी तरक्की के बावजूद कोई तनाव हमें तोड़ रहा है, सारी संपन्नता के बावजूद कोई कमी हमें साल रही है तो उसका हिसाब भी लगाना जरूरी है. हो सकता है, यह हिसाब पक्का न हो, या आधा-अधूरा हो लेकिन इसके बारे में सोचिए.

 

‘हम पैसे, बाहुबल और जाति वाली राजनीति बदलने आए हैं’

वी बालाकृष्णन. उम्र-49 वर्ष. पूर्व सीएफओ, इंफोसिस. बैंगलोर सेंट्रल
वी बालाकृष्णन. उम्र-49 वर्ष. पूर्व सीएफओ, इंफोसिस. बैंगलोर सेंट्रल.
फोटोः केपीएन

शुरुआत से ही आम आदमी पार्टी का विचार मेरे दिल के बहुत करीब था. दिल्ली विधानसभा चुनावों में पार्टी की सफलता एक अहम मोड़ थी. तभी मैंने सोचा कि मुझे इस नई धारा समर्थन करना चाहिए. यह सिर्फ एक पार्टी नहीं थी. मेरा यकीन कीजिए, मैं किसी पारंपरिक पार्टी में जा ही नहीं सकता था.

मीडिया में कहा जा रहा है कि लोग जाति और दूसरे कई समीकरणों के आधार पर वोट करते हैं. मेरी पृष्ठभूमि मध्यवर्ग की है इसलिए यह मानना कि अलग-अलग वर्गों के लोग मुझे किसी अलग तरह से देखेंगे, गलत होगा. दिल्ली ने चीजें बदल दी हैं और आगे के लिए रास्ते खोले हैं. अब तक राजनीति पैसे, बाहुबल और जाति की ताकत के आधार पर चलती रही. हम उसे बदलने आए हैं.

एक तरफ दो नेता हैं जो खुद को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की तरह पेश कर रहे हैं. यह अमेरिकी शैली है. लेकिन अमेरिका के उलट उनमें आपस में कोई बहस नहीं हो रही. बहस की छोड़िए. हमारे नेता तो एक खुले इंटरव्यू तक के लिए तैयार नहीं होते. कोई उनसे कैसे भी सवाल पूछेगा, इस विचार से ही वे असहज महसूस करते लगते हैं. सवाल उठता है कि ऐसे लोग अपने को नेता कैसे कहते हैं.

इस तरह से देखें तो अरविंद केजरीवाल ने लोगों को दिखाया है कि जवाबदेही क्या होती है. मीडिया में कहा जा रहा है कि हम आर्थिक विकास के खिलाफ हैं. जबकि देखा जाए तो हमारी वित्तीय नीति सबसे उदार है.जहां तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सवाल है तो वह निश्चित तौर पर एक विवादास्पद मुद्दा है. यहां तक कि भाजपा भी इसका समर्थन नहीं कर रही जैसा हमने राजस्थान में देखा. हम हर उस व्यक्ति के साथ हैं जो ईमानदारी से कारोबार करना चाहता है. हम एक ऐसा माहौल बनाएंगे जहां हर आदमी ईमानदारी से कारोबार कर सके.

यह सिर्फ मुकेश अंबानी और रिलायंस की बात नहीं है. हमें क्रोनी कैपिटलिज्म (कॉरपोरेट और सरकार के गठजोड़) के खिलाफ खड़ा होना होगा. आप ही देखिए. हमसे से कौन जानता है कि राजनीतिक पार्टियों को फंड कहां से मिलता है. यही वह जगह है जहां हमें एक लकीर खींचनी है.

हम यह सुनिश्चित करेंगे कि लोग इज्जत से रह सकें. हम साफ फुटपाथ और बेहतर सड़कें देंगे. हम लोगों की उम्मीदें पूरी करेंगे और इसके लिए हम भाषा, जाति या इस तरह के किसी राजनीतिक पैंतरें का सहारा नहीं लेंगे.

(जी विष्णु से बातचीत पर आधारित)

मंझधार से अखबार तक

2001 भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. इस साल तहलका ने ऑपरेशन वेस्ट एंड के जरिए तमाम महत्रवपूर्ण लोगों को रक्षा सौदों में दलाली के लिए रिश्वत लेते हुए अपने खुफिया कैमरों में कैद किया. पहली बार ऐसी सच्चाइयां दुनिया के सामने आईं जिन्नेहोंने सबूतों की दुहाई देकर बच निकलने के रास्ते सीमित कर दिए. मगर तब की केंद्र सरकार ने इन उघड़ी सच्चाइयों पर कोई कार्रवाई करने की बजाय उल्टा तहलका के खिलाफ ही एक अभियान छेड़ दिया. तरह-तरह की संस्थाओं से तहलका की हर तरह की जांचें करवाई गईं और उसे बंद होने के लिए मजबूर कर दिया गया. आज ग्यारह साल बाद उसी ऑपरेशन वेस्ट एंड से जुड़े एक मामले में बंगारू लक्ष्मण को अदालत ने दोषी करार दिया है. उन्हें चार साल की सजा सुनाई गई है.

बंगारू लक्ष्मण अकेले नहीं हैं. समता पार्टी की तत्कालीन अध्यक्षा जया जेटली भी रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिज के सरकारी आवास में धन लेते हुए कैमरे की जद में आईं. उनकी पार्टी के कोषाध्यक्ष आरके जैन भी पैसा लेते हुए पकड़े गए. घूस का दलदल सिर्फ राजनीति महकमे तक ही सीमित नहीं था. सेना और नौकरशाही के तमाम आला अधिकारी भी पैसे लेते हुए नजर आए. लेफ्टिनेंट जनरल मंजीत सिंह अहलूवालिया, मेजर जनरल पीएसके चौधरी, मेजर जनरल मुर्गई, ब्रिगेडियर अनिल सहगल इनमें से कुछेक नाम हैं. रक्षा मंत्रालय के दूसरे सबसे बड़े अधिकारी आईएएस एलएम मेहता भी इसी सूची में हैं.

इस भ्रष्टाचार की परतें जब उखड़नी शुरू हुई तो सामने आया कि आरएसएस के ट्रस्टी आरके गुप्ता और उनके बेटे दीपक गुप्ता जैसे लोग भी हथियारों की खरीद में दलाली करते हैं. सीबीआई ने तहलका के ऑपरेशन वेस्ट एंड से जुड़े नौ मामले दर्ज कर रखें हैं. इसके अलावा दो मानहानि के दावे तहलका के खिलाफ उन लोगों ने दायर किए हैं जो इस मामले में घूस लेते हुए पकड़े गए थे.

2004 में तहलका की अंग्रेजी अखबार के रूप में वापसी के पहले अंक में इसकी यात्रा पर लिखा गया मैनेजिंग एडिटर शोमा चौधरी का यह लेख तहलका की अब तक की यात्रा और संघर्षों पर समग्र रोशनी डालता है.

तहलका के पहले अंक तक का इंतजार हमारे लिए बहुत लंबा रहा. इंतजार के इस सफर में काफी मुश्किलें भी आईं. दो बार तो ऐसा हुआ कि पूरी तैयारी के बावजूद हम शुरुआत में ही लड़खड़ा गए. महीने गुजरते गए और मुश्किलों का अंधेरा कम होने के बजाय और घना होता गया. लेकिन अब तीस जनवरी को हम फिर एक नई शुरुआत कर रहे हैं. नए ऑफिस में टाइपिंग की खटखट शुरू हो चुकी है.खिड़की से नजर आ रहा अमलतास का पेड़ मुझे पुराने और बंद हो चुके आफिस की याद दिला रहा है. हर किसी को बेसब्री से कल का इंतजार है.कल सुबह लोग जब तहलका अखबार पढ़ रहे होंगे तो यह केवल हमारी जीत नहीं होगी, ये उन हजारों भारतीयों की भी जीत होगी जिन्होंने हम पर भरोसा किया.

इस जीत के मायने महज एक अखबार निकाल लेने की सफलता से कहीं ज्यादा गहरे होंगे.शायद इस जीत का मतलब उस सफर से भी निकलता है जो हमने तय किया. तहलका अब सिर्फ एक अखबार की कहानी नहीं रही. जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, तहलका के साथ हुई घटनाओं ने तहलका शब्द को लोगों के दिल में बसा दिया. तहलका कास‌फर गुस्सा, निराशा, ऊर्जा और स‌पनों के मेल से बना है. ये सिर्फ हमारी कहानी नहीं है. ये उम्मीद, आत्मविश्वास और आदर्शवाद की ताकत की कहानी है.उससे भी ज्यादा ये एकता और सकारात्मक सोच की ताकत का स‌बूत है. तहलका का अखबार के रूप में लोगों तक पहुंचना कोई छोटी बात नहीं है. इससे यह साबित होता है कि आम लोग सही चीजों के लिए लड़ स‌कते हैं, और न केवल लड़ सकते हैं बल्कि जीत भी स‌कते हैं.

तहलका का अखबार के रूप में लोगों तक पहुंचना कोई छोटी बात नहीं है. इससे यह साबित होता है कि आम लोग सही चीजों के लिए लड़ स‌कते हैं, और न केवल लड़ सकते हैं बल्कि जीत भी स‌कते हैं.पिछले दो साल के दरम्यान ऐसे कई ऐसे लम्हे आए जब तहलका का नामोनिशां मिट सकता था. रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार को उजागर करते स्टिंग आपरेशन से हमें सुर्खियां तो मिलीं पर दूसरी तरफ हमें स‌रकार से दुश्मनी की कीमत भी चुकानी पड़ी. जान से मारने की धमकियां, छापे, गिरफ्तारियां और पूछताछ के उस भयावह सिलसिले की याद आज भी रूह में सिहरन पैदा कर देती है. बढ़ते कर्ज के बोझ के बाद ऑफिस भी बस किसी तरह चल पा रहा था. लेकिन जिस चीज ने हमें सबसे ज्यादा तोड़कर रख दिया वो थी ‘बड़े’ लोगों का डर और हमारे मकसद के प्रति उनकी शंका. हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीन था कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया. लोग पूछते थे कि हमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा. कइयों ने ये भी पूछा कि तहलका में किस बड़े आदमी का पैसा लगा है. कोई ये यकीन करने को तैयार नहीं था कि ये काम केवल पत्रकारिता की मूल भावना के तहत किया गया जिसका मकसद है स‌च दिखाना.

स‌रकार ने हम पर सीधा हमला तो नहीं किया लेकिन हमें कानूनी कार्रवाई के एक ऎसे जाल में उलझा दिया जिससे हमारा सांस लेना मुश्किल हो जाए.तहलका में पैसा निवेश करने वाले शंकर शर्मा को बगैर कसूर जेल में डाल दिया गया और कानूनी कार्रवाई की आड़ में उनका धंधा चौपट करने की हर मुमकिन कोशिश की गई. हमने कई बार खुद से पूछा कि तहलका और उसके अंजाम को कौन सी चीज खास बनाती है. जवाब बहुत सीधा है- शायद इसका असाधारण साहस. भ्रष्टाचार को इस कदर निडरता से उजागर करने की कोशिश ने ही शायद तहलका को तहलका जैसा बना दिया.तहलका लोगों के जेहन में रच बस गया. अरुणाचल की यात्रा कर रहे एक दोस्त ने हमें बताया कि उसने एक गांव की दुकान में कुछ साड़ियां देखीं जिन पर तहलका का लेबल लगा हुआ था. एक और मित्र ने हमें बीड़ी के एक विज्ञापन के बारे में बताया जिसमें तहलका शब्द का प्रमुखता से इस्तेमाल किया गया था. हमें ऎसा लगा कि लोग अब हमें कम से कम जानने तो लगे हैं. तहलका नैतिकता की लड़ाई की एक कहानी बन चुका था. हमें लगा कि बिना लड़े और बगैर प्रतिरोध हारने का कोई मतलब नहीं. इसी विचार ने हमें ताकत दी.हालांकि ये काम आसान नहीं था. स‌रकार के हमारे खिलाफ रुख के चलते लोग हमसे कतराते थे.थोड़े शुभचिंतक-जिनमें कुछ वकील और कुछ दोस्त शामिल थे-हमारे साथ खड़े रहे लेकिन ज्यादातर प्रभावशाली लोग तहलका का नाम सुनते ही किनारा कर लेते थे. उद्योगपति, बैंक, बड़े लोग…..हमने स‌ब जगह कोशिश की लेकिन चाय के लिए पूछने से ज्यादा तकलीफ हमारे लिए कोई नहीं उठाना चाहता था.

तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता था तो उसका अंजाम हमारे लिए अभिशाप भी बन जाता था. इस बात पर स‌ब एक राय थे कि तहलका एक तूफानी ब्रांड है लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोल ले. लगातार मिल रही नाकामयाबी ने हमारे भीतर कहीं न कहीं फिर से वापसी का जज्बा पैदा कर दिया. मुझमें, स‌बमें, लेकिन खासकर तरुण में. तरुण फिर से वापसी के लिए इरादा पक्का कर चुके थे. लेकिन इस काम में कोई थोड़ी सी भी मदद के लिए तैयार नहीं था.हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीन था कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया. लोग पूछते थे कि हमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा.फिर से वापसी के बुलंद इरादे और इसमें आ रही मुसीबतों ने हमारे भीतर कुछ बदलाव ला दिए. मुश्किलें जैसे-जैसे बढती गईं, गुस्से और हताशा की जगह उम्मीद लेने लगी. हर एक मुश्किल को पार कर हम हैरानी से खुद को देखते थे और सोचते थे “अरे ये तो हो गया, हम ऎसा कर स‌कते हैं.”कहानी आगे बढ रही थी. तरुण जमकर यात्रा कर रहे थे. त्रिवेंद्रम, उज्जैन,नागपुर, भोपाल, गुवाहाटी, कोच्चि, राजकोट, भिवानी, इंदौर में वो लोगों से मिलकर स‌मर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे.तरुण के जोश की बदौलत तहलका को लोगों की ऊर्जा मिलती गई. यह एक कैमिकल रिएक्शन की तरह हुआ.

लोगों की ऊर्जा और उम्मीदों ने हमारे इरादे को ताकत दी. ये अब केवल हमारी लड़ाई नहीं रह गई थी. इसने एक बड़ी शक्ल अख्तियार कर ली थी.मुझे आज भी वो दिन अच्छी तरह याद है जब तरुण ने हमें बुलाया और कहा कि हम अखबार निकालने वाले हैं. ये काफी हिम्मत का काम था. पैसे तो बहुत पहले ही खत्म हो गए थे. जनवरी 2002 तक तो ऎसा कोई भी दोस्त नहीं था जिससे हम उधारन ले चुके हों. मई आते-आते आफिस भी बंद हो गया. उसके बाद कई महीने पैसे जुटाने की भागा दौड़ी और जांच कमीशन से निपटने के लिए कानूनी रणनीति बनाने में निकल गए. अब हम केवल छह लोग रह गए थे. तरुण, उनकी बहन नीना, मैं,हमारे एकाउंटेंट बृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर.स‌बका मकस‌द एक ही था. तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही स‌ही, पर काफी मजबूत हो चुका था.

तब तक हम पुराने वाले आफिस में ही थे यानी D-1,स्वामीनगर. लेकिन हमारे पास दो छोटे से कमरे ही बचे थे और पेट्रोल का खर्चा चुकाने के लिए हमें कुर्सियां बेचनी पड़ रही थीं. मकान मालिक के भले स्वभाव का हम काफी इम्तहान ले चुके थे. हमें जगह बदलनी थी और कोई हमें रखने के लिए तैयार नहीं था.लेकिन हमारा उत्साह कम नहीं हुआ. हम एक महत्वपूर्ण मोड़ के पार निकल चुके थे. एक हफ्ता पहले हमने जांच कमीशन से अपना पल्ला झाड़ लिया था.राम जेठमलानी ने बड़ी ही कुशलता से तहलका और इसकी निवेशक कंपनी फर्स्टग्लोबल के खिलाफ स‌रकारी केस के परखच्चे उड़ा दिए थे. जस्टिस वेंकटस्वामी अपनी अंतरिम रिपोर्ट तैयार कर चुके थे. डरी हुई स‌रकार ने जस्टिस वेंकटस्वामी को बदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी. खबरें आ रहीं थीं कि जांच एक बार फिर से शुरू होगी. लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्त करना मुमकिन नहीं था. हमने जांच में पूरा स‌हयोग किया था. लेकिन स‌रकार ये गतिरोध खत्म करने के मूड में ही नहीं थी. हमने फैसला किया कि बहुत हो चुका, अब इस अन्याय को बर्दाश्त करने का कोई मतलब नहीं. हमने नए कमीशन से हाथ पीछे खींच लिए.

ये तहलका की कहानी के पहले अध्याय या कहें कि तहलका-1 का अंत था. इसने एक तरह से हमें बड़ी राहत दी. हम मानो मौत के चंगुल से आजाद हो गए. बचाव के लिए दौड़-धूप करने में ऊर्जा बर्वाद करने की बजाय हम अब अपने मकसद पर ध्यान दे स‌कते थे.पैसा जुटाने के लिए एक साल की दौड़-धूप के बाद तरुण को दो ऑफर मिले जिसमें से हर एक में दस करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी. लेकिन तरुण ने उन्हें ठुकरा दिया क्योंकि वे तहलका की मूल भावना के खिलाफ जाते थे. अब तरुण ने कुछ नया करने की सोची. उन्होंने सुझाव दिया कि लोगों के पास जाए और एक राष्ट्रीय अभियान चलाकर आम लोगों से तहलका शुरू करने के लिए पैसा जुटाया जाए. मैंने कमरे में एक नजर डाली. हम सब लोग तो लगान की टीम जितने भी नहीं थे.वो एक अजीब सा दौर था. कुछ स‌मय पहले हमारी जिंदगी में गुजरात के एक व्यापारी और राजनीतिक कार्यकर्ता निरंजन तोलिया का आगमन हुआ था.(तहलका की कहानी में ऎसे कई सुखद पल आए जब अलग-अलग लोगों ने इस लड़ाई में हमारे साथ अपना कंधा लगाया. इससे हमें कम से कम ये आभास हुआ कि हम अकेले नहीं हैं.) तोलिया जी ने साउथ एक्सटेंशन स्थित अपने ऑफिस में हमें दो कमरे दे दिए. तहलका को फिर से शुरुआत के लिए थोड़ी सी जमीन मिली. हम रोज आफिस में जमा होते, चर्चा करते और योजनाएं बनाते. हमें यकीन था कि अखबार शुरू करने के लिए लाखों लोग पैसा देने के लिए तैयार हो जाएंगे.

अब स‌वाल था कि उन तक पहुंचा कैसे जाए. कई आइडिये सामने आए-स्कूलों, पान की दुकानों,एसटीडी बूथ्स और एसएमएस के जरिये कैंपेन, मानव श्रंखला अभियान आदि. रोज एक नया आइडिया सामने आता था. इनमें से कुछ तो अजीबोगरीब भी होते थे,मिसाल के तौर पर गुब्बारे और स्माइली बटन जिन पर तहलका लिखा हो. हमने उनलोगों की सूची बनाना शुरू किया जिनसे मदद मिल स‌कती थी. रोज होती बहस के साथ हमारा प्लान भी बनता जाता था. आखिरकार एक दिन हमारा मास्टर प्लान तैयार हो गया. जोश की हममें कोई कमी नहीं थी. दिल्ली में स‌ब्स‌क्रिप्शन का टारगेट रखा गया 75,000 कापियां. तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता था तो उसका अंजाम हमारे लिए अभिशाप भी बन जाता था. इस बात पर स‌ब एक राय थे कि तहलका एक तूफानी ब्रांड है लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोल ले.लेकिन अस‌ली इम्तहान तो इसके बाद होना था. हमारे पास न पैसा था और न ही संसाधन. यहां तक कि आफिस में एक एसटीडी लाइन भी नहीं थी. इसके बगैर योजना को अमली जामा पहनाने के बारे में सोचना भी मुश्किल था.

कल जब अखबार निकलेगा तो डेढ़ लाख एडवांस कापियों का आर्डर चार महानगरों के जरिये पूरे देश के पाठकों तक पहुंचेगा. तहलका का पुनर्जन्म बिना थके आगे बढ़ने की भावना की जीत है. देखा जाए तो कर्ज में डूबे चंद लोगों द्वारा दो कमरों से एक राष्ट्रीय अखबार निकालने की बात किसी स‌पने जैसी ही लगती है. लेकिन हमारे भीतर एक अजीब सा उत्साह भरा हुआ था. कभी भी ऎसा नहीं लगा कि ये नहीं हो पाएगा. इसका कुछ श्रेय तरुण के बुलंद इरादों को भी जाता है और कुछ हमारे जोश को. कभी-कभार हम अपनी इस हिमाकत पर खूब हंसते भी थे. स‌च्चाई यही थी कि हमें आने वाले कल का जरा भी अंदाजा नहीं था. तरुण ने एक मंत्र अपना लिया था. वे अक्सर कहते थे- ये होगा, जरूर होगा, शायद उन्होंने स‌कारात्मक रहने की कला विकसित कर ली थी.

लेकिन 26 जनवरी 2003 की तारीख हमारे लिए एक बड़ा झटका लेकर आई. हमारे स्टेनोग्राफर अरुण नायर की एक स‌ड़क हादसे में मौत हो गई. दुख का एक साथी, जिसने तहलका के भविष्य के लिए हमारे साथ ही स‌पने देखे थे, महज स‌त्ताईस साल की उम्र में हमारा साथ छोड़ गया. इस घटना ने हमें तोड़कर रख दिया. अखबार निकालने की तैयारी कर रहे हम लोगों को उस स‌मय पहली बार लगा कि शायद अब ये नहीं हो पाएगा. हमें महसूस हुआ मानो कोई अभिशाप तहलका का पीछा कर रहा है. तहलका की कहानी के कई मोड़ हैं. इनमें एक वो मोड़ भी है जब जनवरी के दौरान बैंगलोर की एक मार्केटिंग कंपनी एरवोन ने हमसे संपर्क किया. कंपनी के पार्टनर्स में से एक राजीव नारंग तरुण के कालेज के दिनों के दोस्त थे. तरुण के इरादों से प्रभावित होकर उन्होंने तहलका को अपनी सेवाएं देने का प्रस्ताव रखा. हमारी उम्मीद को कुछ और ताकत मिली. राजीव ने जब हमारा प्लान देखा तो उन्होंने कहा कि इसे फिर से बनाने की जरूरत है. उन्होंने सुझाव दिया कि हम बैंगलोर जाएं और उनके पार्टनर्स को तहलका कैंपेन की जिम्मेदारी लेने के लिए राजी करें.अब कमान एरवोन के प्रोफेशनल्स के हाथ में थी. ये हमारे साथ तब हुआ जब हमें इसकी स‌बसे ज्यादा जरूरत थी. एरवोन के काम करने के तरीके ने हममें नया जोश भर दिया. योजना बनी कि पूरे देश में एक जबर्दस्त स‌ब्सक्रिप्शन अभियान शुरू किया जाए. मार्केटिंग के मामले में अनुभवी एरवोन की टीम ने अनुमान लगाया कि तहलका के नाम पर ही कम से कम तीन लाख एडवांस स‌ब्सक्रिप्शंस मिल जाएंगे. लेकिन कैंपेन चलाने के लिए भी तो पैसे की जरूरत थी. ऎसे में हमारे दोस्त और शुभचिंतक अलिक़ पदमसी ने हमें एकरास्ता सुझाया. ये था- फाउंडर स‌ब्सक्राइबर्स का, यानी ऎसे लोग जो इस कामके लिए एक लाख रुपये का योगदान कर स‌कें.

एक बार फिर तरुण की देशव्यापी यात्रा शुरू हुई. महीने में 25 दिन तरुण ने लोगों से बात करते हुए बिताए. नाइट क्लबों, आफिसों और ऎसी तमाम जगहों में, जहां कुछ फाउंडर स‌ब्सक्राइबर्स मिल स‌कते थे, बैठकें रखी गईं. हालांकि उस वक्त तक भी स‌रकार से पंगा लेने का डर लोगों के दिलों में तैर रहा था. अप्रैल में हमें विक्रम नायर के रूप में पहला फाउंडर स‌ब्सक्राइबर मिला. इसके बाद दूस‌रा फाउंडर स‌ब्सक्राइबर मिलने में तीन हफ्ते लग गए. फिर धीरे-धीरे ये सिलसिला बढने लगा. हालांकि इस दौरान तरुण लगभग अकेले ही थे. मां बनने की वजह से मैं घर पर ही रहती थी. तोलिया जी जगह बदलकर पंचशील आ गए थे इसलिए हमें भी आफिस बदलना पड़ा था. ये जिम्मेदारी नीना के कंधों पर आ गई थी. तरुण की पत्नी गीतन घर संभालने की पूरी कोशिश कर रही थीं. बृज और प्रवाल भी अपनी जिम्मेदारी संभाल रहे थे.इसके बाद मोर्चा संभालने का काम एरवोन का था.हम केवल छह लोग रह गए थे. तरुण, उनकी बहन नीना, मैं, हमारे एकाउंटेंट बृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर. स‌बका मकस‌द एक ही था. तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही स‌ही, पर काफी मजबूत हो चुका था. धीरे-धीरे एरवोन की योजना रंग लाने लगी. मई के आखिर में जब मैंने फिर से ज्वाइन किया तब तक चौदह अच्छी खासी कंपनियों ने तहलका कैंपेन के लिए मचबूती से मोर्चा संभाल लिया था. इनमें O&M, Bill Junction, Encompass जैसे बड़े नाम शामिल थे. एडवरटाइजिंग कंपनियां, कॉल सेंटर्स, SMS सेवाएं,साफ्टवेयर कंपनियां हमारे इस अभियान को स‌फल बनाने के लिए तैयार थीं. और इसके लिए उन्हें स‌फलता में अपना हिस्सा चाहिए था.

जिस अंधेरी सुरंग से हम गुजर कर आए थे उसे देखते हुए ये उम्मीद की किरण नहीं बल्कि आशाओं की बड़ी दीवाली थी. मैंने थोड़ा राहत की सांस ली. हमने अपनी नियति को कुशल प्रोफेशनल्स के हाथ में सौंप दिया था. आखिरकार हम उस अंधेरी सुरंग के बाहर निकल आए थे. कैंपेन की तारीख 15 अगस्त 2003 तय की गई. फिर शुरू हुआ तैयारी का दौर.प्लान बना कि इस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चार हजार जागरूक नागरिकों की फौज तैयार की जाए. इन लोगों को हमने ‘क्रूसेडर’ नाम दिया यानी अच्छाई के लिए लड़ने वाले लोग. क्रूसेडर्स को ट्रेनिंग दी जानी थी और तहलका के प्रचार के साथ उन्हें स‌ब्सक्रिप्शन जुटाने का काम भी करना था जिसके लिए कमीशन दिया जाना तय हुआ. अभियान सात शहरों में चलाया जाना था. हवा बनने लगी. ट्रेनिंग मैन्युअल्स, प्रोडक्ट ब्राशर, टीशर्ट जैसी प्रचार सामग्रियां तैयार की गईं. उधर फाउंडर स‌ब्सक्राइबर्स अभियान भी ठीकठाक चल रहा था. यानी अभियान को स‌फल बनाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई.तारीख कुछ आगे खिसकाकर 22 अगस्त कर दी गई. अखबार 30 अक्टूबर को आना था.21 अगस्त को दिल्ली में कुछ होर्डिंग्स लगाए गए. उन पर लिखा था कि तहलका एक अखबार के रूप में वापस आ रहा है. हम पूरी रात शहर में घूमे और इनहोर्डिंग्स को देखकर बच्चों की तरह खुश होते रहे. अगले दिन प्रेस कांफ्रेंस के बाद हम एक स्कूल आडिटोरियम में इकट्ठा हुए. जोशो खरोश के साथ 1200 क्रूसेडर्स की टीम को संबोधित किया गया. अगले दो दिन तक हमें स‌ब्सक्रिप्शंस का इंतजार करना था.लेकिन हमारी सारी उम्मीदें औंधे मुंह गिरीं. 1200 क्रूसेडर्स की जिस टीम को बनाने में छह महीने लगे थे वह जल्द ही गायब हो गई. किसी भी कंपनी का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा. आने वाले हफ्तों में हम लांच अभियान के तहत चंडीगढ़, मुंबई, पुणे, बेंगलौर, चेन्नई गए मगर स‌ब जगह वही कहानी देखने को मिली. आशाओं का महल भर भराकर गिर गया. इससे बुरा हमारे साथ कुछ नहीं हो स‌कता था. हर एक ने अपना हिस्सा मांगा और अलग हो गया.

हालांकि एरवोन हमारे साथ खड़ी रही. लेकिन तहलका का दूसरा अध्याय पहले से ज्यादा कष्टकारी था. एक साल बीत चुका था और हमारा आत्मविश्वास लगभग टूट चुका था. हमें लगा कि हम और भी अंधेरी सुरंग में फंस गए हैं. ये सुरंगपहली वाली से कहीं ज्यादा लंबी थी.

तहलका-3, यानी अखबार शुरू होने की कहानी के तीसरे भाग की अवधि सिर्फ तीन महीने है. किसी को भी पूरी तरह ये अंदाजा नहीं था कि हार कितनी पास आ गई थी.मंझधार से अखबार तक भाग-3 ये सितंबर का आखिर था. और हम स‌भी अब भी यकीन नहीं कर पा रहे थे कि हमारा कैंपेन नाकामयाब हो चुका है. सच्चाई तो ये थी कि कैंपने ढंग से शुरू ही नहीं हो पाया था. तहलका में पहली बार ऎसा दौर आया था कि जी हल्का करने के लिए हंसना भी बड़ी हिम्मत का काम था. हमें मालूम था कि अब हमारे पास कोई मौका नहीं है. धीरे-धीरे हमारी ताकत खत्म हो रही थी. हालात काफी अजीब हो गए थे. अब ऎसा कोई नहीं था जिसका दरवाजा खटखटाया जाए. एरवोन ने दिल से हमारे लिए काम किया था. वे ऎसे वक्त में हमसे जुड़े थे जब कोई भी हमारे पास आने की हिम्मत नहीं कर रहा था. बिना कोई फीस लिए उन्होंने हमारे लिए काफी कुछ करने की कोशिश की थी. लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ. लड़ाई जारी थी और हमारे हथियार खत्म हो चुके थे. अक्टूबर आते-आते हम ग्रेटर कैलाश स्थित अपने आफिस में जस्टिस वेंकटस्वामी अपनी अंतरिम रिपोर्ट तैयार कर चुके थे. डरी हुई स‌रकार ने जस्टिस वेंकटस्वामी को बदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी. खबरें आ रहीं थीं कि जांच एकबार फिर से शुरू होगी. लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्त करना मुमकिन नहीं था. दलदल में गहरे धंसने के बावजूद हमें आगे बढ़ना था. इसलिए कि हमें अपने वादों की लाज रखनी थी. कुछ अच्छे पत्रकार हमारे साथ जुड़े. फाउंडर स‌ब्सक्राइबर्स से अब भी कुछ पैसा आ रहा था. लेकिन ज्यादातर पैसा कैंपेन में खर्च हो चुका था.

15 अक्टूबर को तरुण ने हम स‌बको बुलाया और कहा कि हम 15 नवंबर को अखबार निकालेंगे. तब ये मानना मुश्किल था लेकिन अब लगता है कि ये हताशा में उठाया गया हिम्मत भरा कदम था. हमें लग रहा था कि अब इस लड़ाई का अंत निकट है. लेकिन हमारे लिए और उन स‌भी लोगों के लिए जिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कम जरूरी था. दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हम अखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए. आशावाद को हमने जीवन का मंत्र बना लिया. एरवोन ने प्लान बी का सुझाव दिया लेकिन तब तक हम बंद कमरे में लैपटाप पर बनाए गए प्लान के नाम से ही डरने लगे थे. हमारे पास सिर्फ योजनाओं के बूते अच्छे स‌पने देखने की ऊर्जा खत्म हो गई थी. हम 15 नवंबर की तरफ बढते गए. अचानक तरुण के एक दोस्त स‌त्याशील का हमारी जिंदगी में आगमन हुआ. दिल्ली के इस व्यवसायी ने बुरे वक्त के दौरान कई बार तरुण की मदद की थी. स‌त्या को ये जानकर धक्का लगा कि हम कहां पहुंच गए थे. उन्होंने तरुण को सुझाव दिया कि तीन साल की मेहनत और मुसीबतों को यूं ही हवा में उड़ाना ठीक नहीं और बेहतर है कि एक नए प्लान पर काम किया जाए. हमने स‌भी पार्टनर्स के साथ एक मीटिंग की.स‌त्या इसमें मौजूद थे. ये शोर शराबे से भरी मीटिंग थी जिसके बाद हमारे कुछ दिन बेकार की दौड़-धूप में बीते. हालांकि इसका एक फायदा ये हुआ कि हमारी अफरातफरी और डर खत्म हो गया. एक बार फिर हमारा ध्यान बड़े लक्ष्य पर केंद्रित हो गया. तहलका के अनुभव इससे जुड़े हर एक शख्स के लिए कई मायनों में कायापलट की तरह रहे. इन अनुभवों ने हमें कई चीजें सिखाईं. तहलका-2 से स‌बसे महत्वपूर्ण बात जो हमने सीखी वो ये थी कि बड़े स‌पनों को साकार करने के लिए अच्छी योजनाओं के साथ-साथ काम करने वाले लोग भी चाहिए. हमने इसी दिशा में काम शुरू किया.

अक्टूबर के आखिर तक हम अपने बिखरे स‌पनों के टुकड़े स‌मेटने में लगे थे.एरवोन भी अब तक जा चुकी थी. हमने फिर से लांच की एक नई तारीख तय की-30जनवरी 2004. धीरे-धीरे, कदम दर कदम काम शुरू होने लगा. अफरा तफरी का दौर अब पीछे छूट चुका था. संसाधन बहुत ज्यादा नहीं थे लेकिन अब हमारे साथ कई लोगों की किस्मत भी जुड़ी थी. तरुण ने एक बार फिर हमें बिना थके आगे बढने का संकल्प याद दिलाया. हम स‌ब ने फिर कंधे मिला लिए. पत्रकारों,डिजाइनर्स, प्रोडक्शन-प्रिंटिंग-सरकुलेशन एक्सपर्ट्स, एड सेल्समैन आदि की एक टीम तैयार की गई. ये एक जुआ था. लेकिन इसमें जीत की अगर थोड़ी सी भी संभावना थी तो वो तभी थी जब हम मैदान छोड़े नहीं. हमें लग रहा था कि अब इस लड़ाई का अंत निकट है. लेकिन हमारे लिए और उन स‌भी लोगों के लिए जिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कम जरूरी था. दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हम अखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए.फाउंडर स‌ब्सक्राइबर्स का सिलसिला बना हुआ था. ये स‌चमुच किसी ऎतिहासिक घटना की तरह हो रहा था. अक्सर हमें तहलका में भरोसा जताती चिट्ठियां मिलती थीं. एक रिटायर कर्नल ने तो फाउंडर स‌ब्सक्राइबर बनने के लिए अपने पेंशन फंड से एक लाख रुपये दे दिये. दूसरी तरफ चांदनी नाम की एक बीस सालकी लड़की ने स‌ब्सक्रिप्शंस कमीशन से मिलने वाली रकम से फाउंडर स‌ब्सक्राइबर बनने जैसा अनूठा कारनामा कर दिखाया. इन अनुभवों ने हमें आगे बढने की ताकत दी. हमें महसूस हुआ कि हम अकेले नहीं हैं. नए साल की शुरुआत के साथ ही हमारी किस्मत के सितारे भी फिरने लगे. अब काम ज्यादा कुशलता से होने लगा था.

17 जनवरी यानी पहला एडिशन लॉंच होने से ठीक बारह दिन पहले हमें एक युवा जोड़ा मिला जो तहलका के विचारों से प्रभावित होकर इसमें पैसा लगाना चाहता था. कुछ दूसरे निवेशकों की भी चर्चा चल रही थी. लगने लगा था कि बुरे दिन बीत चुके हैं. कल तहलका का विचार एक अखबार की शक्ल अख्तियार कर लेगा. कौन जाने वक्त के साथ ये कमजोर पड़ जाए या फिर धीरे-धीरे, खबर दर खबर, इश्यू दर इश्यू इसकी ताकत बढ़ती जाए. हालांकि अभी ये ठीक वैसा नहीं है जैसा हमने सोचा था, लेकिन ये काफी कुछ वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए. हम फिर एक नए स‌फर की शुरुआत कर रहे हैं और अंधेरी सुरंग पीछे छूट चुकी है. फिलहाल हमारे लिए उम्मीद का ये हल्का उजाला ही किसी बड़ी जीत से कम नहीं ….

शोमा चौधरी, जनवरी 2004

राजा ने लूटी रंकों की रोटी

यह किसी केंद्रीय मंत्री और बड़े औद्योगिक घराने के बीच हुए अनैतिक लेन-देन की कहानी नहीं है. यह कहानी है हमारे समाज के सबसे वंचित और शोषित तबके के मुंह से निवाला छीनने की. यह कहानी राजनीति, अपराध और भ्रष्टाचार के गंदे गठजोड़ की है. करीब डेढ़ महीने पहले उम्मीद की साइकिल पर सवार होकर अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल की थी. जब उन्होंने डीपी यादव को पार्टी का टिकट देने से मना किया तो लोगों में उनके सुशासन के दावों के प्रति विश्वास की लहर पैदा हो गई थी. मगर उन्होंने राजा भैया को जेल और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री बना कर उस लहर की तीव्रता को खत्म-सा कर दिया है. जिस खाद्य और आपूर्ति विभाग की जिम्मेदारी राजा भैया को सौंपी गई है उसी विभाग में पिछली बार उन्होंने ऐसा कारनामा किया था कि उन्हें किसी भी विभाग का मंत्री बनाने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. इस कहानी में तहलका उनके कारनामों के जिन पुख्ता सबूतों का जिक्र करने जा रहा है, उन्हें देखने के बाद स्पष्ट है कि उनकी सही जगह जेल में है, जेल मंत्री के ऑफिस में नहीं.

राजा भैया के बेहद करीब रहे उनके एक सहयोगी ने सीबीआई और सर्वोच्च न्यायालय के सामने चौंकाने वाले रहस्योद्घाटन किए हैं. उनका कहना है कि अपनी पिछली पारी में राजा भैया ने एक बेहद व्यवस्थित अवैध तंत्र की मदद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज आदि की जमकर लूटपाट की. राजा भैया के इस सहयोगी का दावा है कि इस अनाज की अवैध बिक्री से उन्होंने 4 साल में करीब 100 करोड़ रुपये बनाए. अपने दावे को सच्चा साबित करने के लिए इस गवाह ने एक सनसनीखेज डायरी  भी सीबीआई को दी है जिसमें बड़ी तरतीब से अवैध धन के लेन-देन को दर्ज किया गया है. सबसे ज्यादा विस्फोटक बात यह है कि इस गवाह का दावा है कि अवैध धन की हर प्रविष्टि के नीचे राजा भैया की पत्नी के हस्ताक्षर भी हैं.

बीते साल के दिसंबर महीने की बात है. 38 वर्षीय राजीव यादव लखनऊ के हजरतगंज में स्थित सीबीआई दफ्तर पहुंचे. यादव कुछ साल पहले तक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया के जनसंपर्क अधिकारी हुआ करते थे. उन्होंने वहां सीबीआई अधिकारियों को एक डायरी की प्रति सौंपी. यह डायरी यादव और सचिवालय के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी अशोक कुमार ने साल 2004 से 2007 के बीच तैयार की थी. उस वक्त ये दोनों राजा भैया के आधिकारिक स्टाफ का हिस्सा हुआ करते थे. राजा भैया तब मुलायम सिंह यादव की सरकार में खाद्य और आपूर्ति विभाग के काबीना मंत्री थे.

लगभग चार साल तक यादव और अशोक पूरी सावधानी से डायरी में उस पैसे का हिसाब-किताब लिखते रहे जो राशन की दुकानों को मिलने वाले रियायती अनाज और केरोसिन आदि की चोरी के बाद उन्हें बेचने से मिला करता था. विभाग का मंत्री होने के नाते राजा भैया की यह जिम्मेदारी थी कि वे सार्वजनिक वितरण विभाग के काम-काज पर नजर रखते और अनाज आदि की पहुंच ईमानदारी से शहरी और ग्रामीण गरीबों तक सुनिश्चित करते. जिस तबके के लिए यह सुविधा है उसका ज्यादातर हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करता है. ‘चोरी का यह राशन या तो बांग्लादेश और नेपाल में तस्करी के जरिए भेजा जाता था या फिर पड़ोसी राज्यों में बेच दिया जाता था’, यादव सीबीआई को दिए शपथपत्र में कहते हैं.

यादव के मुताबिक सारा पैसा राजा भैया के चार सहयोगी अक्षय प्रताप सिंह उर्फ गोपाल सिंह (ये उस वक्त प्रतापगढ़ से सपा के सांसद थे), यशवंत सिंह (तत्कालीन एमएलसी), जयेश प्रसाद और रोहित सिंह (राजा भैया का ड्राइवर) इकट्ठा करते थे. यह सारा पैसा लाकर चारों यादव को सौंप देते थे. तब यादव अक्सर राजा भैया के लखनऊ स्थित शाहनजफ रोड वाले आधिकारिक आवास में रहा करते थे.

राजा भैया के करीबी रहे राजीव यादव ने सीबीआई को एक डायरी सौंपी है जिसमें उनके अवैध लेन-देन का लेखा-जोखा हैं. इस पर राजा भैया की पत्नी के हस्ताक्षर भी हैं

अखिलेश यादव के साफ-सुथरी सरकार के दावों के बावजूद राजा भैया एक बार फिर से उसी खाद्य और आपूर्ति विभाग के मंत्री बना दिए गए हैं. ‘2004 में मंत्री बनने के बाद मंत्री जी ने मुझसे कहा कि हर महीने के पहले हफ्ते में उक्त चारों व्यक्ति वितरण विभाग के अधिकारियों और माफियाओं से इकट्ठा की गई रकम मुझे सौंपेंगे. मुझे यह सारा पैसा मंत्री जी की पत्नी भान्वी कुमारी को सौंपना था’, यादव  तहलका को बताते हैं.

कुमारी को पैसा सौंपने से पहले यादव सारे पैसे का लेखा-जोखा एक डायरी में दर्ज कर लेते थे. ‘हिसाब-किताब दुरुस्त रखने और किसी तरह के विवाद से बचने के लिए जो भी पैसा दर्ज होता था उस पर भान्वी कुमारी अक्सर दस्तखत भी कर दिया करती थीं’, यादव ने सीबीआई के एसपी संजय रतन को यह बात पिछले साल दिसंबर में बताई थी. इसके तीन महीने बाद यादव ने अंदर तक हिला देने वाली यह कहानी तहलका को सुनाई.

डायरी में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक राजा भैया ने 2006 से 2007 के बीच 15 महीनों के दौरान अनाज और मिट्टी के तेल की तस्करी, अपने विभाग के अधिकारियों की नियुक्ति और स्थानांतरण और माप-तौल विभाग से मिलने वाली एक निश्चित रकम को मिलाकर करीब 40 करोड़ रुपये कमाए. राजा भैया लगभग 40 महीने तक मंत्री रहे. अगर पंद्रह महीनों में 40 करोड़ के आंकड़े को मानक मानें तो अपने मंत्रित्वकाल में उन्होंने गरीबों के लिए जारी किए गए अनाज और मिट्टी के तेल की चोरी करके कम से कम 100 करोड़ रुपये तो कमाए ही होंगे.

यादव के मुताबिक पैसा मिलने के बाद तुरंत ही इसे भान्वी कुमारी को सौंपना पड़ता था. जब तहलका ने यादव से पूछा कि पैसा सीधे-सीधे कुमारी को क्यों नहीं दिया जाता था तो उनका जवाब था कि राजा भैया के परिवार में महिलाएं बाहरी लोगों के साथ बातचीत नहीं करती हैं. इसीलिए इस काम के लिए उसे इस्तेमाल किया जाता था. ‘इसके अलावा शायद राजा भैया को यह ठीक नहीं लगता होगा कि उनकी पत्नी इस तरह के लेन-देन में शामिल हो’, यादव कहते हैं.

इस पैसे का कुछ हिस्सा अचल संपत्ति और कारें खरीदने में लगाया गया. यादव ने ऐसी दो संपत्तियों की जानकारी दी है. नई दिल्ली के ग्रीन पार्क में एक बंगला और एक लखनऊ के एमजी रोड पर.

‘2004-05 में रामजानकी नाम से एक ट्रस्ट का पंजीकरण इलाहाबाद में करवाया गया. इसमें राजा भैया और उनके परिजन ट्रस्टी थे. कुछ पैसा इस ट्रस्ट के नाम ट्रांसफर कर दिया गया जिससे एमजी मार्ग पर स्थित 214 नंबर के बंगले को लीज पर लिया गया. 2007 में दिल्ली के ग्रीन पार्क एक्सटेंशन में राजा की पत्नी भान्वी कुमारी के नाम से 7-बी नंबर का बंगला खरीदा गया’, यादव ने अपने शपथपत्र में बताया है.

कथित तौर पर राजा ने इस काले धन में से कुछ को सफेद बनाने का एक नायाब तरीका भी ईजाद कर रखा था. यादव ने अपने शपथपत्र में फर्जी जीवन बीमा पॉलिसी और बैंक खातों का जिक्र किया है जो राजा भैया और उनके परिवार द्वारा चलाए जा रहे निजी स्कूलों के अध्यापकों और दूसरे कर्मचारियों के नाम पर हैं. ‘इन बीमा पॉलिसियों में चार सालों के दौरान 7.5 करोड़ रुपयों का निवेश किया गया जिसे  अवधि पूरा होने पर राजा के परिजनों को सौंप दिया गया. ऐसी ही एक पॉलिसी मेरे नाम पर भी थी’, यादव ने यह बात सीबीआई के समक्ष पेश अपने शपथपत्र में कही है. यादव ने सीबीआई को उस बीमा कंपनी और एजेंट के नाम भी बताए हैं जिनसे ये पॉलिसियां ली गई थीं.

सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दर्ज है जिसमें कोर्ट की निगरानी में इस घोटाले की जांच की मांग की गई है. यह शपथपत्र अब उसी याचिका का हिस्सा है. इसी शपथपत्र में यादव ने बताया है कि इस पैसे से राजा भैया ने लेक्सस, फोर्ड एंडेवर, टोयटा फॉर्चुनर और मित्शुबिशी पजेरो जैसी लग्जरी गाड़ियां खरीदीं जिनमें से ‘अधिकतर कारें फर्जी नामों से खरीदी गई थीं.’

डायरी के मुताबिक राजा भैया ने 2006 से 2007 के बीच 15 महीनों के दौरान अनाज, चीनी और मिट्टी के तेल की तस्करी से करीब 40 करोड़ रुपये बनाए

यह सनसनीखेज डायरी भी अब सुप्रीम कोर्ट में पहुंच चुकी है. तहलका के पास भी इस डायरी की एक कॉपी है. इसमें अलग-अलग जिलों से मिले पैसों का तारीख दर तारीख विवरण है. डायरी में अलग-अलग कॉलम में अलग-अलग स्रोतों से मिले पैसे का जिक्र है. उदाहरण के तौर पर डायरी का एक पेज चार कॉलम में बंटा है. इसका शीर्षक है पीडीएस यानी जन वितरण प्रणाली. इस पन्ने पर लखनऊ, मुरादाबाद, कानपुर और बरेली डिवीजन से आए पैसे का ब्यौरा है. इसके मुताबिक जनवरी से जुलाई 2006 के दौरान रियायती अनाज की चोरी करके लखनऊ, मुरादाबाद और कानपुर से 58 लाख रुपये वसूले गए. उसी पन्ने पर बरेली से फरवरी से जुलाई, 2006 के बीच वसूली गई रकम थी 13.6 लाख रुपये. अगले पन्ने पर फरवरी से जुलाई, 2006 के बीच मेरठ, सहारनपुर, इलाहाबाद और वाराणसी डिवीजन से इकट्ठा किए गए 13.5 लाख रुपये का जिक्र है. इसके अगले पन्ने पर गोरखपुर, बस्ती और देवीपाटन जिलों से मिले 40.70 लाख रुपये दर्ज हैं.

एक और पन्ने पर माप-तौल विभाग से आने वाले  धन का विवरण है. इसके मुताबिक मई से दिसंबर, 2006 के बीच प्रति महीने चार लाख रुपये मिले. एक पन्ने पर लखनऊ के रीजनल मार्केटिंग अधिकारी द्वारा दी गई मासिक रकम का विवरण है.

रीजनल मार्केटिंग अधिकारी का काम है राज्य सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से की जा रही चावल और गेहूं की खरीद की निगरानी करना. इस खरीद का मकसद है छोटे किसानों की उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद कर उनकी सहायता करना.

लेकिन यादव के मुताबिक राजा भैया के दौर में किसानों से ज्यादातर खरीद सिर्फ कागजों पर हुई. ‘तरीका बहुत आसान था. जिन मिल मालिकों के ऊपर छोटे किसानों से अनाज खरीदने की जिम्मेदारी थी वे या तो फर्जी खरीद की एंट्री करवा देते थे या फिर कभी-कभी वितरण विभाग से चुराए गए अनाज को खरीद के रूप में दिखा दिया जाता था. इसके एवज में मिल मालिक को सरकार चेक दे देती थी और मिल मालिक मंत्रीजी को उनका हिस्सा पहुंचा देते थे’ यादव ने तहलका को बताया.

तहलका ने राजा भैया के दफ्तर में फोन करके पूरी स्टोरी उन्हें बताई और उनसे इस संबंध में स्पष्टीकरण मांगा. पर राजा भैया ने खुद जवाब देने की बजाय अपने जनसंपर्क अधिकारी ज्ञानेंद्र सिंह की मार्फत जवाब देना उचित समझा. ‘यह सच है कि यादव पिछले कार्यकाल में मंत्री जी के जनसंपर्क अधिकारी थे. पर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था. कोई अपनी डायरी में कुछ भी लिख सकता है. वो दुर्भावना के चलते ऐसा कर रहे हैं’, सिंह ने तहलका को बताया.

जब तहलका ने उनसे पूछा कि क्या कोई राजा भैया की पत्नी के हस्ताक्षर भी कर सकता है, तो सिंह का जवाब था कि यह जांच का विषय है.

यादव प्रतापगढ़ के गोतनी गांव के रहने वाले हैं. यह गांव राजा भैया के पैतृक गांव बेंती से छह किलोमीटर दूर है. यादव के मुताबिक वे राजा भैया के साथ 1993 से जुड़े हुए हैं. तहलका ने उनके इस दावे की जांच की. उत्तर प्रदेश पुलिस के रिकॉर्ड बताते हैं कि यादव 1993 से राजा भैया के सक्रिय सहयोगी रहे थे. इसी साल राजा भैया पहली बार विधायक बने थे.

राजा भैया और उनके लोगों पर चल रहे तमाम आपराधिक मामलों में यादव भी नामजद हैं. इनमें गैंगस्टर ऐक्ट से लेकर हत्या तक के मामले शामिल हैं. तहलका ने अपनी पड़ताल में पाया कि यादव को 2004 में राजा भैया के काबीना मंत्री बनने के साथ ही उनका जनसंपर्क अधिकारी नियुक्त किया गया था. तब से लेकर 2007 तक वे राजा भैया के जनसंपर्क अधिकारी बने रहे.

यादव को लगातार सरकारी खाते से मासिक वेतन मिलता रहा. (तहलका के पास यादव के एसबीआई बैंक वाले उस खाते की जानकारी है जो सिविल सेक्रेटरिएट ब्रांच लखनऊ में है. इस खाते में हर महीने सचिवालय प्रशासनिक विभाग द्वारा वेतन जमा किया जाता था).

यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यादव का राजा से मोहभंग कब और कैसे हुआ. यह भी स्पष्ट नहीं हो सका है कि इतने सालों बाद अब यादव ने अपना मुंह क्यों खोला. यादव तहलका को सफाई में बताते हैं कि उन्होंने ऐसा अपनी अंतरात्मा की आवाज पर किया क्योंकि गरीब और बेसहारा लोगों का हक मार कर इकट्ठा की गई संपत्ति उनके मन पर बोझ बन गई थी.

मौजूदा वित्त वर्ष में भारत सरकार ने देश से भूख मिटाने के लिए 75,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी अनाज पर दी है. देश का सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य उत्तर प्रदेश इसका सबसे बड़ा हिस्सा पाता है. जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत उत्तर प्रदेश को 2001 से 2011 के बीच एक लाख करोड़ का अनुदान केंद्र सरकार ने दिया है. पीडीएस के अलावा अन्त्योदय, मिडडे मील, बीपीएल और एपीएल के तहत राज्य सरकारों को केंद्र सरकार सब्सिडी देती है.

दिसंबर, 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पीडीएस और अनाज वितरण में व्यापक भ्रष्टाचार को देखते हुए कोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच के आदेश जारी किए

संपूर्ण रोजगार योजना जिसका नाम बाद में महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) कर दिया गया था और काम के बदले अनाज योजना को यदि छोड़ दिया जाए तो उपर्युक्त सभी योजनाओं को लागू करने और निगरानी करने की जिम्मेदारी सीधे खाद्य और आपूर्ति विभाग की है.

यादव ने तहलका को बताया कि पीडीएस और दूसरी योजनाओं के तहत आने वाले गेहूं और चावल को चुराकर या तो खुले बाजार में बेच दिया गया या फिर उन्हें तस्करी के जरिए नेपाल और बांग्लादेश में बेच दिया गया. खुले बाजार में चुराए गए चावल की कीमत 20-35 रुपये प्रति किलो और गेंहू की कीमत 20-25 रुपये प्रति किलो तक वसूली गई.

‘हर महीने मंत्री जी जिले के अधिकारियों की एक मीटिंग लिया करते थे. जो अधिकारी ज्यादा पैसा देते थे वे कम पैसा देने वालों से बेहतर माने जाते थे. इन अधिकारियों के ट्रांसफर और उनकी पोस्टिंग उनकी पैसा इकट्ठा करने की क्षमता के आधार पर किए जाते थे’, यादव तहलका को बताते हैं. उन्होंने ऐसे चार अधिकारियों के नाम अपने हलफनामे में शामिल किए हैं जिन्हें भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों और विभागीय कार्रवाइयों की सिफारिशों के बावजूद पदोन्नतियां दे दी गई यादव के मुताबिक, ‘रीजनल मार्केटिंग अधिकारी वीके सिंह, जिला आपूर्ति अधिकारी(डीएसओ) रामपलट पांडेय, डीएसओ छत्तर सिंह और मार्केटिंग इंस्पेक्टर वीवी सिंह को उनके खिलाफ लंबित विभागीय जांचों के बावजूद पदोन्नति दे दी गई.’

इस घोटाले के संबंध में 2004 से लेकर अब तक इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में जितनी भी जनहित याचिकाएं दायर हुई हैं उनके हिसाब से कम से कम एक लाख करोड़ रुपये का घपला हुआ है. मायावती के शासनकाल में इस घोटाले को आंशिक तौर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष स्वीकार किया गया और राज्य सरकार 2007 के अंत में इस मामले की सीबीआई जांच कराने के लिए राजी हो गई थी.

वर्ष 2002 से लेकर 2007 तक यानी मुलायम सिंह यादव और मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में यह घोटाला अपने चरम पर था (राज्य में बहुजन समाज पार्टी की सरकार मई, 2002 से लेकर अगस्त, 2003 तक रही. उसके बाद मई, 2007 के मध्य तक मुलायम सिंह का शासन रहा).

लखनऊ के सामाजिक कार्यकर्ता विश्वनाथ चतुर्वेदी का कहना है, ‘यह ठीक है कि घोटाला बीएसपी और एसपी की देन है. लेकिन इसके लिए कांग्रेस भी बराबर की जिम्मेदार है क्योंकि सब्सिडी का आवंटन उसी ने किया है. एफसीआई के गोदामों की व्यवस्था करने और राज्य के निगमों को अनाज आवंटन के मामले में कांग्रेस सीधे-सीधे जिम्मेदार है. हतप्रभ करने वाली बात तो यह है कि केंद्र सरकार ने 2004 में घोटाला सामने आने के बाद से लेकर अब तक इस मामले में अपने रुख को स्पष्ट करने वाला एक भी शपथपत्र दाखिल नहीं किया है.’

यह घोटाला पहली बार 2004 में एक अधिकारी के साहस की वजह से उजागर हुआ था. वर्ष 2004 के नवंबर में खाद्य और सार्वजनिक आपूर्ति विभाग के विशेष सचिव एचएस पांडेय ने एक विभागीय जांच की थी. इस जांच में उन्होंने पाया कि गोंडा जिला प्रशासन के रिकॉर्ड में वर्ष 2001 से 2004 के बीच संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना और बीपीएल के तहत आवंटित 457 करोड़ रुपये के अनाज का कोई हिसाब-किताब ही नहीं था. हालांकि कागजों में जिले के 14 प्रखंडों को अनाज दिए जाने का विवरण था, मगर इसके बाद वह अनाज कहां गया इसका कोई अता-पता नहीं था.

हैरत तो यह है कि जिले के जिम्मेदार अधिकारियों मसलन परियोजना विकास अधिकारी और मुख्य विकास अधिकारी ने गायब अनाज के उपयोग का  प्रमाण-पत्र भी जारी कर दिया था. इस प्रमाण-पत्र का सीधा मतलब होता है कि खरीदा गया अनाज पूरी तरह से जरूरतमंदों और योग्य लोगों के बीच वितरित कर दिया गया है. इन प्रमाण-पत्रों को वरिष्ठ अधिकारियों मसलन आयुक्त, उपायुक्त और खाद्य और सार्वजनिक आपूर्ति विभाग के विशेष सचिवों से सत्यापित करवाने के बाद केंद्र सरकार को भेज दिया गया.

पांडेय की रिपोर्ट ने राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया था. चारों ओर से दबाव बनने के बाद मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने सीबीआई जांच के आदेश दे दिए. लेकिन कुछ ही हफ्तों के बाद उन्होंने जांच के आदेश को वापस ले लिया. लेकिन जब चतुर्वेदी इस मामले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में लेकर चले गए और इस मामले की सीबीआई जांच की मांग की तब सरकार के लिए स्थिति हास्यास्पद हो गई. मुलायम सरकार कोर्ट को इस बात का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाई कि उसने एक बार सीबीआई जांच का आदेश देने के बाद उसे वापस क्यों ले लिया. इसकी बजाय सरकार ने एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन कर दिया.

एसआईटी का कभी हिस्सा रहे एक अधिकारी ने तहलका को बताया कि एसआईटी असल में अधिकारियों को सजा देने का जरिया बन गया है. अधिकारी के अनुसार, ‘एसआईटी के पास न तो इतने संसाधन हैं और न ही वह इतने बड़े घोटाले की जांच कर पाने में सक्षम है. यह घोटाला 2001 से चल रहा है और इसका दायरा पूरे प्रदेश में फैला हुआ है.’ न्यायालय समय-समय पर एसआईटी जांच की सुस्त रफ्तार पर अपनी नाराजगी व्यक्त करता रहा है.

राजा भैया के दौर में किसानों से सिर्फ कागजों पर अनाज खरीदा गया. कभी-कभी वितरण विभाग से चुराए गए अनाज को खरीद के रूप में दिखा दिया गया

दिसंबर, 2007 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सभी जिलों में अनाज घोटाले की सीबीआई जांच के आदेश दे दिए. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सीबीआई ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता जताते हुए केवल तीन जिलों- बलिया, लखीमपुर खीरी और सीतापुर- की जांच शुरू कर दी.

इस बीच उत्तर प्रदेश की जन वितरण प्रणाली में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार और माफिया, नेता व  नौकरशाहों के बीच बने मजबूत गठजोड़ से जुड़े सबूत सामने आते रहे. दिसंबर, 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की दो जजों की पीठ ने पीडीएस और अनाज वितरण से जुड़ी तमाम योजनाओं में व्यापक भ्रष्टाचार को देखते हुए कोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच के आदेश जारी किए. कोर्ट ने सीबीआई को अपनी जांच का दायरा बढ़ाकर इसमें तीन अन्य जिलों- गोंडा, लखनऊ और वाराणसी- को भी शामिल करने का आदेश दिया. अपने फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा कि जिन मामलों में एसआईटी को राज्य या देश से बाहर तस्करी के सबूत मिले हैं उन्हें सीबीआई के सुपुर्द कर दिया जाए. कोर्ट ने पाया कि राज्य सरकार अधिकारियों की जांच और उन पर मुकदमे चलाने के लिए जरूरी अनुमति देने में आनाकानी करके जांच की राह में बाधा खड़ी कर रही है.  इसलिए जांच को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए कोर्ट ने इस मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि सीबीआई और राज्य एजेंसियों को इस मामले में सरकार से किसी तरह की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है. कोर्ट के आदेश से लैस सीबीआई ने अपनी जांच के दायरे में गोंडा, लखनऊ और वाराणसी को भी शामिल कर लिया लेकिन जांच की रफ्तार सुस्त की सुस्त बनी रही.

आज की तारीख तक सीबीआई ने इस मामले में सिर्फ दो आरोप पत्र दाखिल किए हैं जिनमें सिर्फ निचले स्तर के अधिकारियों को मात्र दो मामलों में आरोपित बनाया गया है (सिर्फ ओपी गुप्ता नाम के पूर्व विधायक की गिरफ्तारी को छोड़कर).

इस मामले को लटकाने में सिर्फ सीबीआई की  भूमिका नहीं है. पिछली मायावती सरकार ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. सरकार को पहली दिक्कत कोर्ट की निगरानी में जांच से थी, इसके अलावा उसे सरकारी आज्ञा के बिना सरकारी कर्मचारियों की जांच और उन्हें गिरफ्तार करने के कोर्ट के आदेश से भी परेशानी थी. सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल, 2011 में उच्च न्यायालय के आदेश पर स्टे लगा दिया है. तब से जांच जहां की तहां अटकी हुई है.

हाल में याचिकाकर्ता चतुर्वेदी ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष याचिका दायर करके मांग की है कि सीबीआई राजनीतिक दबावों के चलते इस मामले की जांच में हीलाहवाली कर रही है लिहाजा पूरे मामले की जांच कोर्ट की निगरानी में करवाई जाए. यादव के शपथपत्र को चतुर्वेदी ने अपने आवेदन का हिस्सा बनाया है. मामले की सुनवाई इस हफ्ते किसी दिन हो सकती है. इस बीच सीबीआई ने सत्ता में बैठे लोगों पर दो बार छापे मारे हैं.

पिछले साल दिसंबर में सीबीआई ने वरिष्ठ सपा नेता विनोद कुमार सिंह उर्फ पंडित सिंह के दफ्तर और आवास पर छापे मारे थे. पंडित इस समय राजस्व मंत्री हैं. इसके बाद फरवरी महीने में सीबीआई ने दलजीत सिंह के खिलाफ छापे की कार्रवाई की. दलजीत उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं.

अनाज घोटाले की जांच में हो रही देरी की अगर कोई एक वजह ढूंढ़ी जाए तो शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि इस मामले में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के हाथ काले हैं. कोई भी सरकार, चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की इस मामले की जांच को आगे नहीं बढ़ाना चाहती है.

पिछले महीने जब अखिलेश यादव ने सूबे की सत्ता संभाली थी तब उन्होंने तमाम जन दबावों और विरोधों को दरकिनार करते हुए राजा भैया को काबीना मंत्री के तौर पर अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था. उनका जवाब था कि राजा भैया के खिलाफ सारे आरोप पूर्ववर्ती मायावती सरकार ने दुर्भावना के तहत लगाए  हंै. लेकिन यह स्टोरी किसी विपक्षी खेमे से नहीं छपी है, यह विशुद्ध प्रमाणों और अंदरूनी लोगों की जुबानी पर आधारित है.

अगर नए मुख्यमंत्री इतने पुख्ता सबूतों को नजरअंदाज करते हैं तो उनके साफ-सुथरे और ईमानदार होने के दावे का क्या होगा? (वीरेंद्रनाथ भट्ट के सहयोग के साथ)