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एक सहेली का शिकायतनामा

­­­­बबीता। माधुरी, १ मई १९७०

चिट्ठी किसी लड़की की थी. फोटो साथ नहीं भेजा था, वरना अंदाज लगाती कि सुंदर कहने लायक है या नहीं. भाषा से लगता था विद्रोहिणी है. लिखावट उसके संयत और सुसंस्कृत होने का भास देती थी. फिल्में देखने की वह बहुत शौकीन थी और फिल्म कलाकारों के बारे में जानकारी हासिल करना अपनी ‘हॉबी’ बनाई थी.

चिट्ठी पढ़कर मुझे उस पर प्यार आ गया. उसकी सारी ईर्ष्या, सारी जलन इस बात पर थी, मैं जो अपनी प्रसिद्धि की कैदी आप हूं, जिसे फिल्मों में काम करने के अपराध में नजरबंद किया गया है.

चंद्रमा का सा पहलू

आसमान पर चमकता हुआ चंदा हमें सिर्फ एक पहलू से दिखाई देता है. वैसे ही जैसे दूसरे जो कलाकार हैं, इसी चंद्रमा की तरह सिर्फ एक पहलू से पहचाने जाते हैं- चमकने वाले; पैसा, प्रसिद्धि, शान और ऐश आराम में डूबे हुए. दूसरी तरफ क्या हैं, चांद के बारे में चाहे लोगों को न मालूम हो, कलाकारों के बारे में कई लोग जानते हैं. वही सब मैं अपनी इस बहन को बताना चाहती हूं जो मुझ पर खफा है.

इन्होंने लिखा है,’ ईश्वर का इंसाफ अंधा है. उसने आपको खूबसूरती बख्शी, ठीक किया. बंबई जैसी महानगरी में पढ़ने-पनपने का मौका दिया, वह भी ठीक. लेकिन क्या आपके घर में पैसे की कमी थी, जो उसने आपको लाखों रुपया कमाने वाली हीरोइन बना दिया? क्या पहनने को कपड़ा पूरा नहीं पड़ता था, जो खूबसूरत से खूबसूरत लिबास आपके होने लगे? खाने-पीने की बात छोड़ दीजिए- रोज-रोज नई जगहें घूमने का हक उसने आपके ही भाग्य में क्यों लिखा?…’

जाकर भी न जाने की मजबूरी

चिट्ठी बहुत लंबी है. भगवान की और बहुत-सी शिकायतें उन्होंने उससे की हैं, जिसने उसकी मर्जी के आगे सिर झुका रखा है. मैं अभिनेत्री बनी, यह मैं भगवान की ही मर्जी मानती हूं, वरना मेरी मर्जी, मेरा इरादा यह नहीं था. मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि जो हुआ, गलत है. पर जो हुआ उतना ही नहीं, जितना उन्होंने समझा है. मैं सुंदर हूं, यह उन्होंने समझा है. इसके लिए मैं धन्यवाद ही दे सकती हूं. वरना सौंदर्य तो मैंने वह देखा है कि बस देखते ही रहो, पलक झपकना भी समय की बरबादी मालूम पड़े. वह सौंदर्य यहां बंबई में मैंने नहीं देखा, जहां रहने के लिए वे मुझे सौभाग्यशाली मानती हैं. यहां तो बंबई की सजी-संवरी पाउडरी खूबसूरती भर नजर आती है. वह सौंदर्य उसकी तरह की दूरदराज जगहों में मिलता है. जहां से उनकी शिकायत आई है.

कोई बताए मुझे कि किस्मत वाली वे हैं या मैं? मैं तो चाह कर भी वहां नहीं जा सकती, जहां, जिस बस्ती में ऐसा सौंदर्य बसता है. वहीं की क्यों कहूं? मैं जब तक कश्मीर नहीं गई थी, गुलमर्ग, खिलनमर्ग, चश्मेशाही, जाने कितने नाम थे, जो मैंने रट लिए थे. पर हुआ क्या है? हुआ यह है कि कश्मीर मैं कई बार हो आई हूं और ये नाम मेरे लिए आज भी उतने ही अजनबी हैं, जितने तब थे. किसी बढ़िया होटल में मुझे ठहरा दिया जाता है, जिसके अहाते तक में घूमना मुझे मना होता है. होटल से मैं तब निकल पाती हूं जब शूटिंग की हर तैयारी हो चुकी होती है. होटल के दरवाजे तक आई हुई कार मुझे ले जाती है और फिर रिफ्लैक्टरों, माइक, कैमरा और कंटीन्यूटीइटी का यही सिलसिला दिन भर चलता रहता है, जिससे बंबई में निजात नहीं. जब तक सूरज की उमंग में पीलापन नहीं आता, निर्देशक की ‘स्टार्ट’ और ‘कट’ गूंजती रहती है. फिर गाड़ी में छिपकर होटल पहुंच जाओ और खाना खाकर जल्दी ही सो जाओ, ताकि अगली सुबह जब मेरी क्रोधित सहेली जैसी लड़कियां सुबह-सुबह के कश्मीरी जाड़े काे धता बताकर मीठी नींद में सपने बुन रही हों, मैं शीशे से सामने बैठ कर चेहरे पर बर्फ घिस सकूं, जिससे मेकअप सारे दिन खराब न हो!

रुई के फाहों-सी नर्म बर्फ जब बेआवाज गिर कर पेड़, पत्ती, सड़क और मकान सब का एक जैसा श्रृंगार करती जाती है तो मेरा मन दौड़-दौड़ कर हर गिरते हुए फाहे को पकड़ लेने का करता है. दूर तक बिछी उस सफेद चादर पर चलते हुए हर कदम अपना निशान गहरा छोड़ता जाता है. एक समय के बाद तय कर लिया कि कदमों के निशान छोड़ते हुए दूर तक निकल जाऊं. लेकिन हुआ यह कि मुझे बाहर जाने की तैयारी करता देख निर्माता, निर्देशक घबराकर मुझे रोकने लगे. क्योंकि अगले दिन शूटिंग थी और मुझे कुछ हो जाता तो? प्रसिद्धि के समंदर ने मेरे सपनों को निगल लिया.

एक बुलावा उस पार से

गनीमत की बात है कि मैं सिर्फ सपने निगल जाने तक सीमित रही, वरना एक बार यहीं काल ने अपना विकराल गाल मुझे लील जाने को खोल लिया. बर्फ पर ही दृश्य लिया जा रहा था. फिसलकर गिर जाना था. जब तक रिहर्सल चल रही थी. पर जब दृश्य फिल्माया जाने लगा, मैं सचमुच फिसल-फिसल कर भुरभुरी बर्फ पर कलाबाजियां खाती हुई लुढ़कती चली गई और यूनिट के लोग खड़े वाह-वाह कर रहे थे कि क्या शॉट दिया है. पहाड़ी ज्यादा खड़ी थी., लुढ़के तो फिर भगवान मालिक. पता नहीं कहां रुकें और रुकें तो पता चले कि तब आप अनंत यात्रा शुरू कर चुके हों. मेरी ये यात्रा रोकने के लिए देहाती की शक्ल वाले भगवान ने अपना प्रतिनिधि भेजा. वह पगडंडी पर चढ़ा आ रहा था. उससे टकराकर रुक न जाती तो कई शिकायतें छोड़कर चली जाती. किसी की सफाई देने का मौका भी न मिलता.

यह तो शहर से दूर की बात है. दिल्ली शायद हर डेढ़ दो महीने में चक्कर लग जाता है, पर कुतुब मीनार मैंने उतनी ही देखी, जितनी हवाई जहाज से दिखाई देती है. लाल किले के बारे में जानकारी अब भी किताबी है. चांदनी चौक ओर चांदनी का फर्क देखने का मौका कभी नहीं मिला. दिल्ली तो खैर दूर की बात है, बंबई के मेरे वे प्रिय रेस्तरां जो स्कूल-कॉलेज के जमाने में सहेलियों के साथ गपबाजी के अड्डे थे, पराए हो गए. जिन दुकानों के बाहर बार-बार सिर्फ इसलिए चक्कर काटा करती थी कि उनका सामान मुझे बहुत पसंद था, आज पैसा होने पर भी मेरे लिए पहुंच से बहुत दूर हो गई हैं.

मेरी अनजान सहेली, अब भी तुम्हें मुझे से ईर्ष्या है? माना कि मेरे पास पहले की अपेक्षा पैसा ज्यादा है, पर मैं उसका क्या करूं? मैं उससे कोई शौक पूरा नहीं कर सकती. मैं कई जगह जाती हूं, घूम-फिर नहीं सकती. मेरी हस्ती वैसी ही है, जैसी किसी आर्क लैंप, कैमरा सोलर या दूसरी किसी भी प्रॉपर्टी की. उसकी भी तो खूब देख-रेख, साज-संभाल होती है! कीमती पोशाकों का क्या लालच? वे स्टूडियो पहुंच कर पहनी जाती हैं, वहीं उतार कर रख दी जाती हैं. उन्हें बबीता कहां पहनती हैं?  कहानी का चरित्र पहनता है.

संकट अविश्वास का

संजीव कुमार। माधुरी

अकबर बादशाह कब हुए और गर्मियों में आगरा का तापमान कितना रहता है, इन दाे सवालों के बीच सिवा इसके क्या फर्क है कि दोनों मास्टर जी का खाैफ पैदा करते हैं. मुझे आज तक ठीक से नहीं मालूम. ठीक इसी तरह मुझे यह भी मालूम नहीं कि किसी फिल्म में हीरो की भूमिका के बीच मूल भेदभाव क्या होता है. मैं पढ़ने में बहुत तेज होता, प्रथम श्रेणी में पास हुआ करता तो आज प्रोफेसर, वकील, इंजीनियर या डॉक्टर हो जाता. मेरे शौक ने मुझे अभिनेता बना दिया. आज मेरे पास बहुत सी फिल्में हैं,  बहुत सा काम है. लोग इसे मेरी सफलता मानते हैं. मुझे बधाई देते हैं. मैं मन ही मन संकोच अनुभव करता हूं.

मैंने इतिहास को भूगोल में औैर साइंस को संस्कृत में न मिलाया होता, मन लगा कर पढ़ा होता तो हर बरस पास होने का गर्व होता. यहां मैं पास हुआ तो कुछ इस तरह कि पांचवीं की बेसिक परीक्षा और बीए के यूनिवर्सिटी वाले इम्तहान में बैठने को साथ-साथ पढ़ा औैर एक ही पढ़ाई से दोनों पास कर गया.

मैं फिल्मों में आया था तो एक्स्ट्रा बनाया गया, जिसे भीड़ में खड़े रहकर अभिनय का अपना शाैक पूरा करना पड़ता है. अब इसे किस्मत ही कहना चाहिए कि उस भीड़ से उठ कर मुझे कुछ छोटी-छोटी भूमिकाएं करने का मौका मिला. यहां मेरी हालत उन क्लासों जैसी थी जिनमें हिस्ट्री और ज्योग्राफी, अर्थशास्त्र और समाज शास्त्र सभी कुछ पढ़ाया जाता है और जिनमें मास्टर जी कुछ सवाल पूछ कर चपत या छड़ी रसीद कर सकते हैं. पढ़ाई के समय में कुछ भी बता नहीं पाता था पर यहां मैं आसानी से छोड़ने वाला नहीं था क्योंकि यह काम मेरे शौक का था. इसमें मेरी तबीयत अनायास ही लगती थी. इसलिए फिर मुझे कुछ और बड़ी भूमिकाएं मिलने लगीं. जब पांच-सात फिल्मों में छोटा काम था तब तीन-चार फिल्में अपेक्षाकृत बड़े काम की भी मेरे पास थीं. यानी मैं छोटे-बड़े दाेनों तरह के काम के लिए साथ ही अनुबंधित किया जा रहा था.

कोई काम छोटा नहीं होता

एक बात, जिसका मैंने शुरू से ध्यान रखा, यह थी कि किसी भी तरह के काम को छोटा समझ कर इंकार न करो. काम न करके नाम बढ़ेगा यह तर्क मेरी समझ में नहीं आ सका. इसकी वजह यह भी हो सकती है कि औैर बहुत से लोगों की तरह मुझे शुरू में ही बड़ा काम पाने का सौभाग्य नहीं मिल सका. मैं छोटे रोलों के लिए ही चुना गया. मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं थी. मगर मुझे हैरत तब से होने लगी जब मुझे बड़ी फिल्में मिलने लगीं. अर्थात उसी स्तर का अभिनय मैं छोटी भूमिका में भी कर रहा था, बड़ी में भी. तब इस बात की कसौटी क्या है कि कौन अच्छा अभिनेता है, कौन नहीं? यहीं से मेरे मन में यह सवाल भी उठने लगा कि चरित्र कलाकार की भूमिका और नायक की भूमिका के बीच क्या मूल भेद है? अगर सचमुच कुछ भेद है तो विदेशों में प्रसिद्ध अभिनेता एक फिल्म में नायक, दूसरी में खलनायक औैर तीसरी में कोई चरित्र अभिनेता बने कैसे दिखाई देते हैं? और अगर नहीं है तो नायक की जगह चरित्र प्रधान फिल्में हमारे यहां क्यों नहीं बनतीं?

यह सवाल मैंने अपने यहां अनेक लोगों के सामने अनेक ढंग से रखा पर कोई निश्चित उत्तर मुझे कहीं से नहीं मिल सका. मैंने सोचा है कि विदेश में जहां ऐसा होता है वहां की रुचि, वहां की परिस्थितियांे का अध्ययन करके कोई नतीजा निकालने की कोशिश करूंगा. लोगबागों से जब मैं यह कहता हूं कि अमरीका में मुझे हालीवुड के अलावा और कुछ देखने की चाह नहीं और इंग्लैंड में मेरे लिए सिर्फ एक आकर्षण है स्टेज तो उन्हें मेरी बातें दिखावा लगती हैं. फिल्मों में अाने के पहले मैं नाटकों में काम करता रहा. जो लेश मात्र अभिनय मैं सीख पाया वह यहीं से. उस समय से मेरी इच्छा यह रही है कि दुनिया के श्रेष्ठ नाटक देखूं, रंगमंच के मशहूर कलाकारों से मिलूं. इसलिए किसी फिल्म की सिलवर जुबली की खबर से मुझे उतनी प्रसन्नता नहीं हुई जितनी किसी ड्रामे के सौ बार खेले जाने की खबर से होती है.

कोई भी यह पूछ सकता है कि इतनी फिल्में मैं स्वीकार क्यों करता हूं, जो मुझे ज्यादा व्यस्त कर देती हैं. सामान्य आदमी के मुकाबले कलाकारों की, सिर्फ फिल्मों में अभिनय करने वाले कलाकारों की हालत एकदम उलटी है. पढ़-लिख कर मैं प्रोफेसर बना होता तो आगे बढ़ कर यूनिवर्सिटी का बड़ा पद पाता, मेरे नाम का दूसरों पर प्रभाव पड़ता. डॉक्टर होता तो गंभीर रोगी मेरे हाथों अच्छे होते. वकालत में उलझे हुए केस मैं सुलझाने में माहिर होता जाता. अब ज्यों ज्यों मैं अभिनय जैसी गूढ़ कला को समझता जाऊंगा मेरी कद्र कम होती जाएगी. आज मुझे नायक लिया जाता है. कल चरित्र अभिनेता बना दिया जाऊंगा.  हो सकता है इसके योग्य भी न गिना जाऊं. यहां हर कलाकार का यही हश्र होता है. इसलिए जो थोड़ा-बहुत समय मिलता है, उसके हर मिनट का सदुपयोग कर लेने की इच्छा होना स्वाभाविक ही है. इसी प्रयत्न में यह कमी काम में आ जाती है कि कई फिल्मों में अभिनय एक सा लगता है.

चरित्रों का अभाव

इस कमी को दूर रख सकने का एक तरीका यह है कि कहानियों में विविधता हो ताकि अलग-अलग तरह के चरित्र अलग-अलग फिल्मों में मिलें. हमारी फिल्मों का नायक हर फिल्म में एक ही सा काम करता है. कहानी अगर ‘ऑफ बीट’, सही अर्थों में फिल्म लीक से हटी हुई, न हो तो नायक को कुछ करने को नहीं रह जाता. गा दो, मुस्करा दो, छेड़ो-रूठो-मनाओ. इसलिए नायक बनने के साथ-साथ मैं वह सब भी बन लिया जिसका मुझे मौका मिल सका-हास्य कलाकार, खलनायक, सहनायक और तलवारबाज. अपनी ओर से मैंने कभी किसी भूमिका को छोटी नहीं माना और न कभी किसी फिल्म को छोटी-बड़ी के पैमाने पर रखा. मेरा ख्याल है कि जहां कहीं भी कला का सवाल आता है, कोई वर्गीकरण बेमानी ही है. हर कोई अपनी और से सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयत्न करता है लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं ही हो सकता कि कोरी कला कहीं जीवित नहीं रह सकती जब तक उसे व्यापार का आश्रय प्राप्त न हो.फिल्म जगत में यह बात सामने खुलकर ही नजर आती है.

नयों को अवसर की जरूरत

जिस तरह छोटी-बड़ी फिल्मों का वर्गीकरण किसी भी कलाकार के लिए किसी महत्व का नहीं होना चाहिए उसी तरह सहकलाकारों को भी किसी भी सीमा से मुक्त रखा जाना जरूरी है. आज नया हीरो नयी नायिका के साथ काम करने से हिचकिचाता है औैर नामवर नायिका नये आए अभिनेता को नायक लेने पर आपत्ति करती है. कलाकार नये निर्देशक से घबराते हैं, नामी निर्देशकों को नए कलाकार फिजूल मालूम देते हैं. यह परस्पर नहीं बल्कि स्वयं पर अविश्वास का प्रतीक है, अौर कुछ नहीं. यह दूसरों के सहारे खड़े होने का प्रयत्न है. इस बातों को भूलकर बस अपना काम मजबूत करने की काेशिश करनी चाहिए. ऐसा होगा तो कोई असफलता असफलता नहीं गिनी जाएगी. कोई हतोत्साहित नहीं हो सकेगा. फिल्म उद्योग का जो संकट है वह अविश्वास का संकट है. फिल्मों की कमियां ठीक तरह से समझने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है. छोटे बजट की फिल्में बनाने के इच्छुक औैर नयों के हिमायती अनेक हैं पर परिस्थितिजन्य अविश्वास उन्हें मन की करने नहीं देता. विश्वास पैदा होने पर ही परिवर्तन आ सकेगा.

 

तू क्यों रोती है दुल्हन…

प्रदीप। माधुरी, १ ० जनवरी १९६८

 मीना कुमारी के बाग में मैंने – मुझे उसका नाम नहीं मालूम – वह पौधा देखा था, जिसके पत्तों का रंग मुस्कराहट की तरह दिलकश था और कोरे दुलहन की साड़ी की गोट की याद दिलाती थीं; बेसाख्ता खिंच कर मैं उस पौधे के करीब चला गया और तब…तब मैंने देखा कि उस पौधे के कलेजे में छलनी की तरह छेद थे.

हर जख्म के साथ तो ऐसा होता है कि बार-बार कुरेदा जाकर वह दुखना बंद हो जाता है! मीना के साथ क्यों ऐसा नहीं होता? क्यों हर बार वह फिर पूरे अपनापे से दुख को पलक-पांवड़े बिछाती है. जैसे यही अब प्राप्य है, यही उद्देश्य है, जीना अगर यही है तो आत्मा उड़ेल कर क्यों न जिएं?

क्या कुछ उसने नहीं झेला? सफेद कपड़े पहने और मुस्कराहट और अदब के मुखौटे पहने लोगों को अपनी तारीफ में शेर पढ़ते भी देखा है और – आखिर तो इन मुखौटों के पीछे आदमी भी जानवर है, प्राकृतिक, स्वाभाविक – यह बात भी दीवारों, कानों-जबानों, हवाओं से टकरा कर मीना के पास से गुजरी है कि ‘माफ कीजिए, पर मीना जी में अब वह बात नहीं रही.’ ‘अल्लाह! क्या हुआ है इन्हें! जब देखो, नशे में डूबी रहती हैं! लोगों से मिलने तक में कतराती हैं!’ ‘सुना आपने, अब मीना जी का फलां’ से चल रहा है! कम से कम अपनी पोजीशन का तो ख्याल करतीं!’ और भी न जाने क्या कितना कुछ कि जिसे सुनने के बाद हर कान बहरा हो जायेगा और दिल पत्थर. इतना होने के बाद कोई बर्फ की सिल पर लिटा दे, नाखून के पोरों में कीलें ठोक दे, तो ‘उफ’ नहीं निकलेगी. काश! मीना के साथ भी ऐसा होता!

पर हुआ तो है! अब उस पर बिजली गिरे तो उसकी आंख नहीं झपकेगी, मगर उसकी आया को कोई नींद से लगा भी दे तो वह बिगड़ खड़ी होगी. अब सहेली के पांव में कांटा लगने से और स्टूडियो के कारीगरों के मीना की गाड़ी के आगे नारियल फोड़ने से और किसी दिवंगत दोस्त का जिक्र छिड़ने से मीना की आंखों में आंसू छलछला जाते हैं. दर्द को महसूस करने का मीना का माद्दा इतना बड़ा है कि सर्वकालीन, सार्वजनीन हो गया है. और फिर कानों-जबानों से टकराकर लौटी खुसर-पुसर मीना सुनती है – ‘इतनी भी क्या भावुकता? कोई इतनी-इतनी बात पर रोता है! खुदा झूठ न बुलवाये, हमें तो भई, ढोंग लगता है!’

आपके दुख के लिए

ढोंग और मीनाकुमारी! चार साल की उम्र में जिसे घर के फाकों ने कैमरे के आगे ला खड़ा किया, जिसके रोने पर लाखों आंखे रोयीं और जिसके मुस्कराने का इंतजार उन्हीं लाखों आंखों ने तीस लंबे सालों तक किया, वह अब ढोंग कर रही है? किसी ने यह सोच कर नहीं देखा कि नशे में आदमी हंसता है तो हंसता जाता है, बात- बेबात; और नशा है होश खोने का नाम. और तीस साल तक रो कर भी होश खो जाता है और आदमी बात-बेबात पर रो पड़े तो… यह क्या ढोंग है?

इस सारे नाम और शोहरत (बस, इसके अलावा और कुछ नहीं) की वजह मीना कुमारी की कला नहीं है, न ही उसकी शकल. इसकी वजह आप हैं, जो सभ्य हैं, सुसंस्कृत हैं, जो खुले आम हंस तो सकते हैं, रो नहीं सकते. हंसना कमजोरी नहीं है, रोना कमजोरी है. आपने अपनी सारी कमजोरियों को जीतने का संकल्प किया है और इसलिए आप अपने दुख के लिए भी कोई और रोने वाला चाहते हैं – आप का यह काम मीनाकुमारी ने किया है और मेहनताने के तौर पर आपने उसे इतना नाम शोहरत, इज्जत दी है; बस न? इससे ज्यादा तो कुछ नहीं दिया? वह कुछ, जो उसे चाहिए था, जिसकी तलाश अब भी उसे है – जिसका नाम तो वह नहीं जानती, मगर- जिसके लिए वह रातों जागती है, जिसके लिए वह क्या से क्या हो गयी?

क्या चाहिए तुम्हें? हमसे कहो

ओह! माफ कीजिए, मैं भूल गया कि आपने मीना की मदद करनी तो चाही थी. उसकी सरपरस्ती की आत्म-प्रवंचना का सुख पाने के लिए आपने हमदर्दी दिखाते हुए मीना से पूछा था, ‘क्यों परेशान हो? क्या चाहिए तुम्हें? किस चीज की तलाश है, हमसे कहो!’

मीना ने कहा था, ‘जो भी तलाश मुझे है, है. मैं आपको क्यों बताऊं?’

आपने बड़प्पन का गौरव लेकर कहा था,

‘क्योंकि हम तुम्हारी मदद करने को तैयार हैं. तुम कह कर तो देखो!’

मीना ने पहले कुछ नहीं कहा था, क्योंकि जो तलाश उसे है, वह मांग कर हासिल करने की चीज नहीं है. फिर आपके बहुत उकसाने पर उसने बजाय आपके मुंह पर थप्पड़ मारने के कहा था, ‘नहीं, यह मर्द की तलाश नहीं है. मर्द की तलाश वह चीज ही नहीं, जिसके लिए कोई औरत परेशान होती है.’

मर्द और औरत

आपने समझने की कोशिश की? मर्द उस दोपाये जानवर का नाम नहीं है, जो बहुतायत से जरा सी कीमत पर प्राप्य है, जिसे आप रात-दिन देखते हैं. मर्द एक भावना का नाम है. और मर्द और औरत के बीच का रिश्ता? वह भी एक ‘फीलिंग’ है. न कि तौर-तरीका.

एक बार मीना ने कहा था, ‘पुराने जमाने से मर्द ने औरत को बराबरी का दर्जा देने की बखानी है, जबकि मैं नहीं मानती कि औरत किसी तरह से मर्द से कम होती हैं. ज्यादा होती है, यह कहूंगी तो फिर उलझाव पैदा होगा, इसे टाल ही जाऊं. और बराबरी का दर्जा देने के दंभ के पीछे की गयी जो साफ बेइज्जती है कि यूं तो औरत छोटी है ही…, उसका भी अर्थ कोई नहीं. कम से कम मैं किसी तरह खुद को मर्द से छोटा महसूस नहीं करती. मगर फिर भी मैं औरत हूं, जिसने हमेशा यह चाहा है कि मर्द उससे बड़ा हो. मेरा मर्द अगर कभी मेरे आगे रो दे तो मुझे उस पर बहुत प्यार आयेगा, पर अगर वह किसी और के आगे रो पड़े तो मुझे कभी बर्दाश्त नहीं होगा!’ आपने समझा? मीना का मतलब शरीर से मर्द या औरत होने से नहीं है, और जो भी हो. और मीना ने कहा भी उसकी तलाश, जिसके लिए वह रातों जागती है, मर्द की तलाश नहीं है. तो फिर? आपने अक्ल लगा कर कहा, ‘बच्चे की तलाश?’ (हा, हा! जैसे यह आपके बस की बात हो!)

नहीं. वह भी नहीं. मीना ने कहा, ‘मैं सारी दुनिया को झुठला सकती हूं, जो कहती कि औरत को ‘अपना’ बच्चा चाहिए होता है. मेरे घर में बच्चों की कमी नहीं और वे मुझे अपने बच्चों की तरह प्यारे हैं और उन्हें उनकी मां की तरह प्यारी हूं. इसमें शक नहीं कि अगर मेरे बच्चे होते…’

मीना चुप होकर सोचने लगी हैं… बेशकीमती शीशा हाथ से छूट गया. इंतजार ही रहा कि वह झन्ना कर दिल हिला देने वाली आवाज करेगा, मगर वह बेआवाज ही टूट गया. उस रात मीना कुमारी ने सपना देखा था; वहीं –मां सामने खड़ी है, हर बार की तरह चुपचाप, सर पर चूनर लिये, सफेद कपड़े पहने. निकाह के बाद वाली रात भी मां सपने में दिखी थी, मगर तब उसने सर पर लाल चूनर डाल रखी थी और कुरान शरीफ पढ़ रही थी. आज की तरह दीवार से सटी सिर झुकाये नहीं खड़ी थी. मां को इस तरह खड़ा देख कर मीना को घबराहट हुई. बत्ती जलाने की कोशिश की, मगर बेकार, मीना उठ कर मां के पास गयी – ‘मां! नहीं, यह मां नहीं है, यह तो मीना खुद है, और उसके मुंह पर लहू पुता हुआ है. मीना चीख कर बेहोश हो गयी और वहीं गिर पड़ी… सुबह लोगों ने उसे वहां से उठाया – मां बनने का हौसला टूट गया था, बेआवाज!

देखो मुन्ना! तुम्हारा दूल्हा आ गया

 फिर उस हौसले का सर बार-बार कुचला गया और फिर मीना ने अपने दरवाजे पर उसकी दस्तक पहचानी भी तो दरवाजा नहीं खोला. अब मीना को वह ख्वाब नहीं आता कि वह सफेद कपड़े पहने हुए बड़े-बड़े नक्काशीदार खंभों और प्राचीन मूर्तियों वाले विशाल मंदिर में चकित सी घूम रही है और मंदिर की छत खुली है, जिसमें से गिरते हुए आबशार में वह भीग रही है, उसका मन भी भीग रहा है. अब ख्वाब नहीं आते. अब नींद ही नहीं आती, वरना मीना की तमन्ना तो है कि एक बार फिर वह ख्वाब देखे और इस बार उसकी आंख न खुले ः एक बार उसने देखा था – सफेद संगमरमर का फैला हुआ फर्श, संगमरमर के सीधे-सपाट खंभे, संगमरमर की ऊंची आसमान जैसी छत, मीना सीधी बढ़ती हुई उस कोने में बैठे यहूदी जैसे शख्स के करीब चली जा रही है, जो एक मेज कुर्सी लगाये बैठा है… लो, उसकी मेज पर बहुत से फल रखे हैं, उसने मीना को एक सेब उठा कर दिया और इशारा किया, ‘वहां बैठ कर खाओ!’ वहां एक लाल रंग का कोच रखा है. मीना यंत्रचालित सी फल ले कर वहां बैठ गयी और तब देखा, मां भी पास बैठी है. ‘मां’ मीना ने कहा. मां कभी सपने में बोली न थी. आज पहली बार बोली, ‘वो देखो, मुन्ना तुम्हारा दूल्हा आ गया…’ मीना ने देखा, दूर दरवाजे के बाहर घोड़े पर उसका दूल्हा बैठा है… उसकी पीठ मीना की तरफ है, घोड़ा मचल रहा है…अभी वह घूमेगा और मीना को दूल्हे की शकल दिखेगी…, मगर तभी आंख खुल गयी. अपने ‘दूल्हे’ का मुंह ही मीना नहीं देख पायी, …और इस देखने न देखने में फल भी नहीं खा सकी – स्वप्न में फल खाना; शास्त्रों के अनुसार जिसका अर्थ गर्भ धारण करना होता है.

पर मीना ने कहा तो कि उसकी तलाश यह भी नहीं है ! ‘यह’ कभी तमन्ना थी, अब हसरत ही रह गयी है. मगर हसरतों का पूरा न होना कोई नहीं जीता, वह कुछ और जीता है, कोई आशा, कोई महत्वाकांक्षा.

बेशकीमती शीशा हाथ से छूट गया. इंतजार ही रहा कि वह झन्ना कर दिल हिला देने वाली आवाज करेगा, मगर वह बेआवाज ही टूट गया

एक बेचैन कस्तूरी मृग की तलाश

 कहते हैं, हम जिस तरह जीते हैं उससे अलग कुछ नहीं होते ः मीना ने अपनी जिंदगी यूं जी, जैसे वह उसकी अपनी न थी. कहते हैं, अभिव्यक्ति का भाषा से अच्छा माध्यम नहीं हैः मीना ने चुप रह कर भाषा को करारी मात दी है. कहते हैं, विरोधियों के खेमे में हिम्मत टूटती है, अपने घर में पैदा होती है. मीना ने उस घर में अपना आप न खोया, जहां उसका कोई न था और उस घर से निकल आयी, तो उसे लगता है, अब तो वह खुद भी अपनी नहीं है, बल्कि कोई बताये, क्या यह है भी – अगर उसकी तलाश न हो..!

अब यह बड़ी मुश्किल बात है कि वह कुछ खोज रही है, जिसका नाम-पता नहीं जानती. जानती तो है, पर यूं नहीं जानती कि किसी तरह बता सके – जैसे कस्तूरी मृग बेचैन सा किसी गंध को ढूंढ़ता फिर रहा हो… ; फिर यह कस्तूरी सिर्फ मीना के भीतर नहीं है – यह किसी रासायनिक प्रतिक्रिया की तरह किसी और कस्तूरी के संयोग से रंग लायेगी…

आपने मीना को बहुत सम्मान दिया – उसके बिना शायद उसका काम चल जाता ; उसे बहुत यश और धन मिला – धन कभी उसके पास नहीं रहा और यश को अपयश में बदलते पल भी नहीं लगता; उसकी ‘इमेज’ मीना कुमारी नहीं है, मीना कुमारी एक नाम विशेष, व्यक्ति विशेष है, जो प्यार करने की पहुंच के बहुत बाहर, बहुत बड़ा नजर आया या बहुत छोटा, बहुत अनुपयुक्त. मीना की तलाश यही है – अपनेपन की तलाश, स्नेह की, तादात्म्य की तलाश, जो मांगने की चीज नहीं है और मांगने पर मिलती है तो अहसान होती है…मीना अहसान नहीं उठा सकती.

वो लोग, जिन्होंने उस पर बेशुमार इल्जाम लगाये हैं, जज की तरह ऊपर की कुर्सी पर बैठे हुए लोग हैं, उन्होंने कहा कि मीना बहुत किताबी बातें करती है, शराब पीकर होश खोये रहती है, लोगों से मिलने में कतराती है, पुरुषों की तरफ जरा में झुक आती है, उसमें मातृत्व की क्षमता नहीं है

इन लोगों का कसूर नहीं, उस कुर्सी पर से मोटा हिसाब ही लग सकता है. सच पूछिए, तो गणित केवल सिद्धांत है, गणित कला नहीं है, जीवन या मुद्दा या भावना भी नहीं है. जज की कुर्सी से उतर कर वे लोग कठघरे में आ कर खड़े हों तो मैं उनसे पूछूं – उनमें कौन ऐसा है, जिसने किताब से व्यवहार नहीं सीखा है, जिसने शराब पी हो और खुद को न महसूसा हो, जो मीना के कतराने पर खुद कतरा कर नहीं निकल आया, उनमें से कौन वह पुरुष है, जिसकी तरफ मीना ने झुकाव दिखाया, या कौन है वह, जिसने खुद मीना की कोख से जन्म लेना चाहा?

सबसे बड़ी शिकायत

 पर मीना को शिकायत नहीं है. इस जिंदगी ने उसे जो दिया, वह मामूली से बहुत अलग था. उसे आदमी को पहचानने का मौका मिला है, जो सफेद कपड़े पहन कर हंसता मुखौटा लगाये हुए भी आदिम है, जो बड़ी मछली से डरता है और छोटी को निगल जाता है, जो प्यार भी ‘देने’ के दंभ से करता है और परायी आग पर ‘च् च् !’ करते हुए भी हाथ सेक लेता है. मीना ने यह सभी कुछ जी कर देखा है, और जब मैंने उससे पूछा, ‘अगर तुम्हें यह जिंदगी फिर से एकदम अपनी मर्जी के मुताबिक जीने का अख्तियार मिल जाये तो?’

मीना ने कहा था, ‘तो मैं फिर एक बार बिल्कुल इसी तरह जीना चाहूंगी. मुझे कोई शिकायत नहीं.’

इससे बड़ी कोई शिकायत आपने सुनी है? मीना मुस्करायी. उसके बगीचे में मैंने – मुझे उसका नाम नहीं मालूम – वह पौधा देखा था, जिसके पत्तों का रंग मुस्कराहट की तरह दिलकश था और जिसकी कोरें दुलहन की साड़ी की गोट की याद दिलाती थीं और जिसके कलेजे में छलनी से छेद थे – मैं यकीन के साथ कह सकता हूं, इस तरह मुस्कराना उसने मीना कुमारी से सीखा है.

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‘सेक्सुअलिटी से पुरुषों को ही क्यों परेशानी होती है?’

‘दैट गर्ल इन यलो बूट्स’ के समय सब बोल रहे थे कि क्यों बना रहे हो. मत बनाओ. मुझे जितने ज्यादा लोग बनाने से मना करते हैं मुझे उतना ही लगता है कि मुझे यह फिल्म जरूर बनानी चाहिए.

एक समय था, जब सब लोग चाहते थे कि मैं कुछ और करूं. जितने लोग चाहते थे कि मैं रास्ता बदल दूं, मैं उन लोगों को छोड़कर अलग हो गया. आरती भी तभी छूट गई. उस समय मैं दबाव में फालतू-फालतू फिल्में लिखता था, सिर्फ इसलिए कि गाड़ी की किस्त भर सकूं. मैं तो गाड़ी में घूमता नहीं हूं. लाइफ स्टाइल वही था. घर भी उतना ही बड़ा चाहिए. अगर घर छोटा होता तो दबाव कम होता. मैं जितना फालतू काम करता, जितनी घटिया फिल्म लिखता, अंदर गुस्सा उतना बढ़ जाता. मैं अंदर ही अंदर ब्लेम करने लग गया था अपने चारों तरफ लोगों को. घर पर कोई काम नहीं करता था. सब लोग बैठे रहते थे, सब इंतजार करते थे कि मेरी फिल्म कब शुरू होगी. कोई काम नहीं करता था. ‘सरकार’ हुई तो उसमें केके निकल गया. मैं तो सबकी जिम्मेदारी लेकर चल रहा था. अंदर वो गुस्सा आ जाता है फिर. सब लोगों का अपना-अपना वजूद बन गया तो वही होता है. केके के पास पैसे तो मेरे पास क्यों नहीं? मैंने कहा, यार मैं तो इतने साल लेकर घूमा. नारियल पानी का बोझ मैं अपने कंधे पर लेकर घूमा. फिर धीरे-धीरे मैंने वे सब चीजें उठा कर फेंक दीं जो पीठ पर लेकर घूमता था.

हर फिल्म के साथ जो ग्रुप बना है, उससे मैं हर बार निकल गया. बाद में सब का कंसर्न एक जैसा हो जाता है. सब इस बात के लिए लड़ने लगते हैं कि हमारा पैसा कोई और खा रहा है. मैं कहता हूं कि खाने दे न यार, पिक्चर बनाने को मिल रही है.

जब मैं राइटर एसोसिएशन का मेंबर बनने जाता था तो वहां पर एक सरदार जी हुआ करते थे. वो मुझसे एक्स्ट्रा पैसा मांगते थे, ‘अच्छा बेटा, आपका ‘सत्या’ का नॉमिनेशन हमारे हाथ में है. ‘शूल’ का अगले साल आपको आठ हजार देना पड़ेगा.‘मैं बोलता था, भाड़ में जाओ, मुझे नहीं चाहिए अवॉर्ड. उस समय सब बोलते थे कि मैं बेवकूफ हूं. और तो और, कितनी बार मुझसे मेरा क्रेडिट तक ले लिया गया, लेकिन जिन लोगों ने क्रेडिट लिया, आज वे लोग कहां हैं? मेरी तो जिंदगी की आधी चीजें इसीलिए हुई हैं कि पैसा या ऐसी बाकी चीजें मुद्दा ही नहीं बनीं. अगर मुद्दा बनतीं तो मेरी आधी फिल्में नहीं बनतीं.

मेरे साथ दूसरी समस्या थी कि मैं बहुत ही बिखरा हुआ आदमी था. शादी जब हुई तो एक ही लड़की थी जो पसंद भी करती थी और शादी भी करना चाहती थी. जिस लड़की का पहली बार हाथ पकड़ा, उसी से शादी भी की. और शादी के बाद से ही गड़बड़ चालू हो गई. आरती की तरफ से कम, मेरी तरफ से ज्यादा. मैं थोड़ा बिखरने लगा था और बहुत ज्यादा बिखरने लगा था. मैं कनफ्यूज हो गया था. ‘सत्या’ तक सब ठीक था. मेरा वो केस तब से चालू हुआ जब ‘पांच’ बनी . मेरी जो ऐंठ थी, न जाने कहां-कहां ले गई. आरती तो मेरे हिसाब से हमेशा बहुत खयाल रखने वाली थी लेकिन इमोशनल कनेक्ट एक अलग होता है. मेरा कुछ चीजों को महत्व नहीं देना भी बहुत बड़ी समस्या रहा. पता नहीं, वही छोटे शहर से आना, ब्वॉयज हॉस्टल में पढ़ना, अचानक लड़कियों को देखना, ऐसा लड़का रहना जो अठारह-उन्नीस साल की उम्र में लड़की सिगरेट पिए तो कहे कि गलत बात है, हाथ पकड़े, कहे शादी कर लें, कहे नहीं करनी चाहिए. ऐसे आदमी से ऐसा आदमी बना जिसने ‘देव डी’ बनाई. मिडिल क्लास के एक छोटे शहर के आदमी ने अचानक एक ऐसी चीज को काबू किया जो खतरा भी थी और आकर्षण भी और रहस्य भी थी. आधी जिंदगी निकल गई वो रहस्य सुलझाने में कि क्या है, आखिर है क्या ये चीज.

उसी आधी जिंदगी में 2000-2001 था, जब मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था और कोई मुझे समझने वाला भी नहीं मिल रहा था. फिर ये होता है न कि कहीं मैं ही तो गलत नहीं हूं. रामू से मिलने से पहले मैं कहां शराब पीता था. सिगरेट भी नहीं पीता था. एकदम क्लीन था. तब मैं दुबला-पतला सा था. वो अलग ही है जोन, बहुत मुश्किल है अब वहां जाना. इतना जरूर बोल सकता हूं कि मैं वफादार नहीं रहा था. बहुत बुरी तरह बिखरा था. इमोशन चला जाता है. इमोशनली बिखरा हुआ था. मेरा ये था कि कोई ट्रेन की घटना होती थी कि ये आदमी गया, कहीं किसी के साथ सो के आ गया. मैं कहीं चला जाता था तो चला जाता था. मैं लौटता नहीं था. फिर लौटता था तो लौट के आ जाता था. फिर कब तक ऐसे कोई डील करेगा? फिर शराब में मैं बहुत बुरी तरह जा चुका था. तब मैं कहां होता था, मुझे नहीं मालूम. यह अंदर काम को लेकर भी था और आदमी को लेकर भी. वो हर चीज को लेकर था. मैं वो समझ नहीं पा रहा था. एक ही चीज मुझे पकड़े हुए थी, वो थी मेरी बेटी आलिया. आलिया थी, इसीलिए हम लोग इतना लंबा ला सके. एक होता है पति-पत्नी का रिश्ता, वो तो आलिया के जन्म के बाद ही खत्म हो गया था. हम वहीं अलग कमरे में रहते थे. वहीं गद्दे पर सोया रहता था, वहीं दारू पीता था, वहीं बातें करता था. लेकिन उससे पहले भी शायद आरती को मैंने कभी उस तरह से प्यार नहीं किया जिस तरह से उसने मुझे किया. तकलीफ भी उसकी थी, पैशन भी उसका था, प्यार भी उसका था मेरे प्रति. मेरा सब कुछ सिनेमा ही था.

कल्कि का महत्व यह रहा कि उसकी जिंदगी भी लगभग मुझ जैसी ही थी. वो भी बिखरी हुई थी. उसके मां-बाप का तलाक हुआ था बारह साल की उम्र में. वह अपनी मां की मां बनी हुई थी. मां को खाना खिलाना, मां को संभाल के बैठाना. कल्कि ने वो सब देखा है. कल्कि मेरी जिंदगी में आई तो उसमें क्या दिख रहा है? उसमें मुझे लगता है कि उसको ऐसा कोई चाहिए था जो उसका विरोध करे. मुझे कोई ऐसा चाहिए था जो मुझमें स्थायित्व लाए. उसने धीरे-धीरे मेरे सिस्टम से ड्रग्स और बाकी चीजों को निकाला, संयम लाई. यह निर्भरता निकालते ही मैं आजाद हो गया. फिर कल्कि की भी ऐंठ थी क्योंकि वो भी ऐसी चीजों से डील कर रही थी. सब उसको गोरी की तरह देखते हैं. वो गोरी भले ही है लेकिन पली-बढ़ी तो तमिलनाडु के गांव में ही. वो तो गोरी चमड़ी में ठेठ देहाती है. कोई तमिल बोलने वाला मिल जाए तो ऐसे घुलमिल जाती है कि जैसे उसके गांव का हो. वो तो फिट ही नहीं होती हाई सोसायटी में. न हाई सोसायटी में फिट होती है, न आम समाज में फिट होती है. वह इन सब चीजों से जूझ रही थी. उसकी ऐंठ को कंट्रोल करने में मेरी ऐंठ खत्म हो गई.

मेरी फिल्मों के लिए लोग कहते हैं कि कोई समाधान तो दिखाओ. मैं कहता हूं, आप समाधान किसके लिए ढूंढ़ रहे हो? समाधान दुनिया के लिए ढूंढ़ रहे हो तो मैं दुनिया को तो संतुष्ट नहीं कर सकता. क्या मैं खुद संतुष्ट होना चाहता हूं? नहीं. तब क्यों दिखाऊं? मुझे समस्या ज्यादा दिखानी है. मैं चाहता हूं कि लोग उसके बारे में सोचें और ज्यादा बहस करें. मैं नहीं चाहता कि मैं चैप्टर को वहीं बंद कर दूं और किताब खत्म होने पर आप बोलें कि अंत में अच्छा सॉल्यूशन था. वो मुझे नहीं करना है. ‘यलो बूटस’ में हमने शूट किया था कि वो किरदार अंत में मरता है. पिक्चर एडिट हुई तो हमने निकाल दिया उसका मरना. वो भीड़ में खो जाता है. लोग बोलते हैं, यार ऐसे आदमी को, साले को मारना चाहिए. मैं कहता हूं कि ऐसे आदमी अक्सर मरते नहीं हैं. उसी मोड़ पर मैं फिल्म को खत्म करना चाहता था. अगर उस किरदार को मार दिया तो कहानी उस लड़की की रह गई. जहां उस कैरेक्टर को नहीं मारा, वहां वो एक अलग लेवल पर चली गई कि ये सबकी प्रॉब्लम हैं और ऐसे लोग हैं अभी भी. यह डराता है. फिर वो एक आदमी की कहानी नहीं लगती, लोग उसको भूलते नहीं. वो बहुत जरूरी है मेरे लिए कि आदमी अपने अंदर ढूंढ़े. अपने अंदर का पाप ढूंढ़े या समस्या ढूंढ़े या समाधान ढूंढ़े.

मैं नहीं चाहता कि मैं चैप्टर को वहीं बंद कर दूं और किताब खत्म होने पर आप बोलें कि अंत में अच्छा सॉल्यूशन था. वो मुझे नहीं करना है

बाहर के दर्शकों की मेरे काम के प्रति जो प्रतिक्रिया रही है, वो हिंदुस्तान से ज्यादा अच्छी रही है. मेरी ‘देव डी’ सबसे ज्यादा सफल रही है लेकिन वो बाहर उस तरह नहीं सराही गई जिस तरह ‘ब्लैक फ्रायडे’ या ‘नो स्मोकिंग’ सराही गई थीं या ‘गुलाल’ भी.

पश्चिम में चीजों को देखने का तरीका अलग है. उनकी काम करने की पूरी संस्कृति भी हमसे अलग है. वहां पर निर्देशक अपना मॉनीटर खुद लेकर चलता है. उसके पास पांच स्पॉट ब्वॉय नहीं होते जो उसका सामान उठाएं और चाय पिलाएं. चाय भी लेनी होती है तो खुद जाकर लेता है. कैमरामैन अपना कैमरा खुद लेकर चलता है. चार अटैंडेंट नहीं चलते, फोकस कूलर नहीं चलता. साउंड वाला अपना साउंड का सामान खुद साथ लेकर चलता है. बारह लोगों की टीम होती है. जब मैं इंग्लैंड गया था और डैनी बॉएल को फोन किया तो वह बोला, ‘यार कल घर की टंकी ठीक करूंगा, इसलिए कल नहीं मिल पाऊंगा.’ मैंने पूछा, ‘आप ठीक करोगे? बोला, हां कौन ठीक करेगा?’ उसका ‘कौन करेगा’ इतना स्वाभाविक था कि मेरा घर है तो मैं ही ठीक करूंगा न. हमारे यहां ऐसा नहीं होता. मैं मुरारी को फोन करूंगा कि एक प्लंबर ढूंढ़ कर लाओ और टंकी ठीक करवा दो. ठीक करवाते समय भी मुरारी खड़ा रहेगा और मेरा सर्वेंट खड़ा रहेगा. वहां पर आदमी खाना खुद बनाता है, घर खुद साफ करता है. और जो घर साफ करते हैं या ड्राइविंग करते हैं, लोगों के काम करते हैं, वो हर घंटे 20 पाउंड मतलब 1400 रुपए एक घंटे के लेते हैं. यहां जितने भी बड़े लोग हैं, उनके घर में बाई आती है कपड़े धोने के लिए. अगर वो इतना ही आसान काम है तो खुद धो लें. वे पाले ही इसी तरह गए हैं. हमारे देश की समस्या यह है. यहां कोई भी कोई बात खड़े होकर समझना नहीं चाहेगा, चाहे उसे कैसे भी समझाया जाए. हर आदमी लाट साहब है. वो होटल में आकर चुटकी बजा कर वेटर को बुलाने वाला. वहां पर जाकर देखिए कि कोई भी वेटर को चुटकी बजा कर नहीं बुलाएगा. वहां वेटर का अपना व्यक्तित्व होता है. वो आपके ऊपर कमेंट भी करेगा, आपके जोक पर हंस भी देगा और आपके ऊपर जोक भी कर देगा.

यहां पर तो वेटर मतलब ऐसे ही मक्खी है, उसे फाड़ देते हैं हम लोग. यहां पर रिक्शा अगर ब्लॉक कर दे तो लड़ जाते हैं कि रिक्शा आ गया मेरी गाड़ी के सामने. वहां पर जो पब्लिक ट्रांसपोर्ट की गाड़ी होती है उसके लिए अलग लेन होती है. वे कहीं से भी यू टर्न ले सकते हैं. आम आदमी नहीं ले सकता. यह सब बहुत अंतर है हमारी संस्कृति में, सोच में और इसीलिए दर्शकों और समाज में भी.

प्रॉब्लम यह है कि हमारे यहां जब कोई बच्चा नहीं सीख रहा है तो उससे बच्चे को तोला क्यों जाता है? प्रॉब्लम मेरा वहां है. प्रॉब्लम यह है कि आप ने मापदंड तय कर लिया है और चाहते हैं कि सब उसमें फिट हों. मुझे उसमें दिक्कत नहीं है कि बच्चा जा रहा है और जाकर सीख रहा है. वो तो अच्छी बात है, बहुत बढ़िया बात है. लेकिन जो बच्चा नहीं सीख रहा है, वो मेरा विषय है. जो अपनी जिन्दगी ढर्रे पर चला रहा है, उसमें मुझे दिलचस्पी नहीं है. उसमें है, जो आदमी लीक से हट के जा रहा है और वो कुछ भी नहीं कर रहा है जो उससे उम्मीद की जा रही है. हम क्यों तय कर लेते हैं कि यह कुछ करेगा ही नहीं.

चीजों में परफेक्शन क्यों होना चाहिए? जैसे मेरी फिल्मों के गानों के लिए कुछ लोग बोलते हैं कि गाने एकदम सधे हुए नहीं है, और अच्छे गाए जा सकते थे. सबसे बड़ा प्रोडयूसर बोलता है, यार ये गाना वडाली ब्रदर से गवाओ तो एक अलग लेवल पर जाएगा. मैं कहता हूं कि लेवल पर नहीं ले जाना है मुझे. तानसेन थोड़े न बैठा हुआ है. तानसेन होता तो मैं गवाता किसी आज के तानसेन से. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में हम लोगों ने एक हाउस वाईफ से गाना गवाया है, वहां के लोकल सिंगर से गाना गवाया है.

एक और दिक्कत है कि सब को हर बार सामाजिक क्रांति वाला कटाक्ष ही चाहिए. उन्हें कठोरता हजम नहीं होती. वो जो पहले था, वो गुस्सा था. ‘शूल’ का मनोज बाजपेयी हो या जो ‘पांच’ में था, वो गुस्सा था, जिससे युवा जुड़ते हैं. युवाओं को बार-बार वही चाहिए कि कोई उनके इतिहास पर बोले. उन्हें ‘यलो बूट्स’ की कठोरता हजम नहीं होती है क्योंकि उस में कोई सामाजिक स्टैंड लेने वाली चीज या क्रांति नहीं है. उसमें ऐसी सच्चाई है जिसे लोग स्वीकार नहीं करना चाहते. बहुत सारे दर्शकों को दिक्कत यही रही है कि आप अपनी फिल्मों में सेक्स को लेकर इतना असहज करने वाली बातें क्यों करते हैं? ऐसे लोग हमेशा पूछते हैं कि आपकी सेक्स लाइफ कैसी है? तो दमन उनके अंदर इतना भरा पड़ा हुआ है कि वे स्वीकार नहीं कर पाते. कहते हैं कि यह आपका चरित्र है. मैं कहता हूं कि हम विस्थापित हैं और हमारे विस्थापन में जिस तरह की सेक्सुएलिटी है, वही आएगी. बाहर ये चीजें इतनी नॉर्मल है कि चीजें बाहर आती नहीं है. वह मेरी फिल्मों में है क्योंकि हमारी जिन्दगी में है. आप सड़क पर चले जाइए, आप मंदिर-मस्जिद जाएंगे, आप देखेंगे कि कोई लडक़ी वहां से निकली या कुछ हुआ तो अचानक लोगों की नजरें कैसे घूम जाती हैं. आप गुजर रहे होते हैं तो देखते हैं लड़की को. क्यों देखते हैं? वो क्या चीज है, जिसे आपने दबाया है लेकिन फिर भी आप आकर्षित होते हैं. कहीं न कहीं वो आपके अंदर है. मुझे लगता है कि सेक्सुअली मैं बाकी लोगों से ज्यादा भाग्यशाली हूं क्योंकि मैं इस बारे में खुल कर बात कर सकता हूं.

जब आप चीजों को ऐसे देखते हैं कि यह गंदा है तो प्रॉब्लम हमेशा रहेगी. लेकिन एक बात देखिए, सेक्सुअलिटी के बारे में हमेशा आदमी को क्यों परेशानी होती है? औरतों ने कभी सवाल नहीं किया. ‘देव डी’ या ‘गुलाल’ देखने के बाद मुझे औरतों ने कहीं पर आकर पकड़ कर यह नहीं बोला कि ये क्या दिखाया तुमने और क्यों दिखाया? हमेशा आदमियों ने बोला है. यह एक तरह का तालिबान है.

 

‘आने वाला पल जाने वाला है’

सौ साल की कोई भी यात्रा शुरू तो शून्य से ही होती है. तब बंबई था पर बॉलीवुड नहीं. अरब सागर के तट पर बसी इस बस्ती में कुछ हजार किलोमीटर दूर से आने वाली लहरें टकरा रही थीं. अमेरिका के पश्चिमी तट से उठी कुछ लहरें उसके लिए कुछ संदेशा ला रही थीं. ये बर्बादी की सुनामी नहीं, हॉलीवुड जैसी नामी जगह से आ रही थीं. रचना का, प्यार का, सर्जना का एक बेहद रंगीन, मगर बस दो रंग में रंगा- काले-सफेद में रंगा एक सुंदर सपना लेकर. यह सपना खूब मुखर था पर था मौन. ये लहरें बड़े हौले-हौले, आहिस्ता-आहिस्ता कोई छह बरस में हॉलीवुड से बंबई आई थीं.

हॉलीवुड की इन नामी लहरों के कोमल स्पर्श से बंबई का अनाम घराना एक नया नाम पाने जा रहा था. उसे एक नया काम मिलने वाला था – काम नए नित गीत बनाना, गीत बनाकर जहां को हंसाना.

हॉलीवुड से लहरें चलीं सन 1906 में. सन 1912 में वे बंबई के किनारे लगीं. कैमरे का आविष्कार कुछ पहले हो ही गया था. पर वह निश्चल ठहरे हुए चित्र खींचता था. चलती-फिरती जिंदगी के चित्रों को यह कैमरा निश्चल रूप में कैद कर लेता था. और फिर उन चित्रों को स्मृतियों के विशाल संसार में आजाद छोड़ देता था. अब यही कैमरा हॉलीवुड में जीवन की गति को और आगे दौड़ाने लगा था.

यह धरती एक बड़ा रंगमंच है. इस पर अवतरित होने वाला विविधता भरा जीवन खुद एक विशाल नाटक है. इस नाटक में शास्त्रों की गिनती के नौ रसों से ज्यादा रस हैं, रंग हैं, भदरंग भी हैं. नायक-नायिका, खलनायक-नायिका जैसे पात्र-कुपात्र, खरे से लेकर खोटे गोटे सब कुछ है. कोई चार-पांच हजार बरसों से लोगों ने इस जीवन नामक लंबे धारावाहिक की न जाने कितनी कड़ियां देखी होंगी. उन्हें अपनी कुशलता से छोटे-छोटे नाटकों में बदला होगा. इन नाटकों को देखते, पढ़ते, सुनते हुए समाज ने अपने वास्तविक जीवन के नाटक की कथा को थोड़ा-बहुत ठीक-ठाक भी किया ही होगा.

देववाणी के नाटक ज्यादा नहीं होंगे. लिखे भी कम गए, खेले भी कम ही गए. पर एक अच्छे बीज की तरह देववाणी के इन नाटकों ने लोकवाणी के नाटकों की एक अच्छी फसल खड़ी कर दी. नाटकों में जैसे पंख लग गए. वे नौटंकी, जात्रा, यशोगान, भवई, कथककली, रासलीला, रामलीला बन कर जगह-जगह उड़ने लगे, जाने लगे.  नाटकों का यह रूप लोकरंजन, मनोरंजन के देवता का अंशावतार ही था.

इस देवता का पूर्णावतार हुआ 1912 में – जब हॉलीवुड की लहरों ने बंबई को बॉलीवुड में बदल दिया. लोक के मनोरंजन को ऐसी पांख लगी कि देखने वालों की आंखें खुली की खुली रह गई. फिर इन पंखों से किस्से कहानी की कल्पना ने ऐसी गति, ऐसी ऊंचाई पकड़ी कि उसने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

मनमोहक मनमोहन बॉलीवुड का गठबंधन राजनीति के गठबंधन से ज्यादा गोरा नहीं तो ज्यादा काला भी नहीं है. वह एक क्षण तक को पहचानता है

तब तक साहित्य को समाज का आईना कहा जाता था. बॉलीवुड ने इस आईने के आगे एक और आईना रख दिया. इन दो आईनों के बीच खड़े समाज को अब सचमुच अनगिनत छवियां दिखने लगी थीं. राजा हरिश्चंद्र से लेकर रावण और तो और रा.वन तक की छवियां सामने थीं. इसने समाज को पूरी दुनिया दिखा दी और फिर यह खुद पूरी दुनिया घूम आया. देश के दक्षिण से लेकर सात समंदर पार पश्चिम में, उत्तर में, पूरब में, और तो और तरह-तरह की खटपट में लगे पड़ोसी पाकिस्तान तक में इस बॉलिवुड ने झटपट अपनी धाक जमा ली.

आप चाहें तो चोरी-चोरी, चुपके-चुपके इस बॉलीवुड के दोष देखने निकलेंगे तो न जाने कितने दोष मिलते जाएंगे. सामने दोषों का पहाड़ खड़ा हो जाएगा. मुंबई में जमीन के ऊपर लोकल रेल की जितनी पटरियां दौड़ती हैं, उससे ज्यादा पटरियां बॉलीवुड के भीतर ‘अंडरवर्ल्ड’ की मिल जाएंगी. लेकिन गुण देखने चलेंगे तो गुणों की एक सुंदर नदी भी दोषों के इस पहाड़ में अविरल बहती मिल जाएगी.

साहित्य, संगीत, कला, छाया, विज्ञापन के सबसे सधे हाथों ने इस बॉलीवुड को न भूल सकने वाली सेवाएं दी हैं. यह बॉलीवुड का अचूक व्याकरण ही तो है, जो हमारे देश के प्यारे बच्चों को हिंदुस्तान की झांकी दिखाते हुए उन्हें ‘प्यारे बच्चो’ कहता है, ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ कहता है. उसे पता है कि हिंदी में संबोधन के बहुवचन में अनुस्वार या बिंदी नहीं लगती. व्याकरण के इस छोटे-से सबक में हमारे आज के कई बड़े पत्रकार, संपादक, साहित्यकार और सरकारी अधिकारी भी चूक कर जाते हैं.

किसी भी कैनवास पर एक करोड़ रुपये का कीमती दस्तखत कर देने वाले मकबूल फिदा हुसैन जैसे बड़े कलाकार भी बॉलीवुड के छोटे-छोटे पोस्टर पोतने से ही ऊपर उठे थे. यहीं के संगीत में पीछे बजने वाले दस-बीस सेकंड के सरोद और सितार बंबई की इस छोटी-सी गुड़िया की इतनी लंबी कहानी कह जाते हैं कि आज ‘सैम्संग गैलेक्सी’ जैसे महंगे गैजट, यंत्रों में रिकॉर्ड हो सकने वाले डेढ़ लाख गाने दो कौड़ी के साबित हो सकते हैं. गाने तो गाने यहां की पटकथाओं में लिखे गए संवाद तक गली मोहल्लों में लाउडस्पीकरों से शोलों की तरह बरसते रहे हैं.

इस बॉलीवुड में अंगों का प्रदर्शन मिलेगा तो आत्मा का दर्शन भी. वह जानता है कि ‘आने वाला पल जाने वाला है.’ उसने इन सौ बरसों में वह सब देखा-समझा है जो उसे बनाता है, बिगड़ता है. उसने खुद चोरी भी की है, अंग्रेजी, हॉलीवुड की फिल्मों से तो उसकी खुद की कीमती धरोहर भी चोरी गई है. वीडियो और फिर डीवीडी ने उसे तरह-तरह के झटके दिए हैं. इन सबको उसने गा-बजा कर ही सहा है.

इसे सबके साथ मिल कर काम करना आता है और इसे आता है सबसे काम भी लेना. निर्देशक तरह-तरह के नखरे वाले नायक-नायिका, कलाकार, गुमनाम एक्सट्रा, हाथी, घोड़े कुत्ते अपनी ढफली अलग न बजाने वाले संगीतकार, परदे के पीछे से, बिना दिखे अपनी सुनहरी आवाज देने वाले प्लेबैक सिंगर, परदे पर ओंठ चलाने वाले मुंह – वहां सब लोग एक बेहतर गठबंधन में काम करना जानते हैं. उनके लिए यह गठबंधन मजबूरी नहीं है. इस मनमोहक मनमोहन बॉलीवुड का गठबंधन राजनीति के गठबंधन से ज्यादा गोरा नहीं तो ज्यादा काला भी नहीं है. हमारे नेता, सामाजिक नेता भी आने वाले पल को तो क्या आने वाले कल को भी नहीं समझ पाते. वे तो आज को भी कल में बदलता नहीं देख पाते और जब वह बदल ही जाता है तो वे इस बदलाव को समझ नहीं पाते.

सौ साल का बॉलीवुड एक क्षण तक को पहचानता है. वह जानता है कि आने वाला पल (कल) जाने वाला है.

मैं और मेरी दुनिया

अतीत

मुझे लगता है कि मेरी सोच में मेरे पिता का आदर्शवाद बसा हुआ है. वे एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे. लेकिन उन्होंने कभी अपने संपर्कों का इस्तेमाल नहीं किया. उस जमाने में वे एमए-एलएलबी थे मगर वे एक दुकान चलाते थे. पहले विलिंगटन हॉस्पिटल के पीछे उनकी एक छोटी-सी दुकान हुआ करती थी. बाद में उन्होंने एनएसडी में कैंटीन खोली. एक बार तो किराया न चुका पाने की वजह से हमें अपने फ्लैट से भी निकाल दिया गया था. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, ऊंची तालीम पाया एक शख्स जिसे मोहम्मद यूनुस से लेकर इंदिरा गांधी जैसी हस्तियां तक जानती थीं, लेकिन उसने कभी इस जान-पहचान का इस्तेमाल नहीं किया. अपनी चाय की दुकान चलाता रहा. इसलिए अपनी किताब में मैंने उन्हें सबसे कामयाब नाकामयाब कहा है. जैसे वे मेरे लिए थे वैसा ही मैं अपने बच्चों के लिए हूं—एक दोस्त, एक शिक्षक और हमेशा उन्हें खुश रखने की कोशिश करने वाला शख्स.

मैं 15 साल का था जब कैंसर के चलते मेरे पिता गुजर गए. एक तो उनकी थोड़ी कमाई और दूसरे उनकी असमय मौत ने शायद मेरी मां को ज्यादा व्यावहारिक बना दिया. उन्हें अहसास था कि बच्चों को पालने-पोसने और अच्छी शिक्षा देने की जिम्मेदारी उनके ही कंधों पर है. उनकी मौत भी बहुत मुश्किल परिस्थितियों में हुई. तब वे बस 47 या 48 साल की थीं और मुझे लगता है कि अगर उन्होंने इतनी हाड़तोड़ मेहनत न की होती तो वे और जीतीं. तब मेरी उम्र 25 साल थी.

पिता की मौत के बाद ही मेरी बहन बीमार रहने लगी थी. तब मनोचिकित्सा के बारे में इतनी जानकारी नहीं हुआ करती थी. उसके लिए ठीक इलाज ढूंढ़ने में हमें चार-पांच साल लगे. इसके बाद उसे उबरने में पांच साल लगे जिस दौरान वह मां पर निर्भर हो गई थी. फिर मां भी गुजर गईं जिससे वह बुरी तरह टूट गई. हालांकि अब वह पहले से काफी बेहतर है और मेरे ही साथ रहती है.

मां-बाप के गुजरने के बाद मुझे अहसास हुआ कि आदर्शवाद और व्यावहारिकता दोनों जरूरी हैं. तो मुझमें मेरे पिता का आदर्शवाद भी है और मां की व्यावहारिकता भी. इसलिए मैं खुद को एक ईमानदार व्यक्ति कहता हूं जो व्यावहारिक भी है.

पैसे और शादियों में नाचने पर

मैंने कभी नहीं कहा कि मैं शादियों में नाचता हूं. मैं एक परफॉर्मर हूं और इसके मायने समझे जाने चाहिए. मैं शादियों में परफॉर्म करता हूं लेकिन उसका खर्च उठाना चुनिंदा लोगों के बूते की ही बात है. हम इसे एक शो की तरह करते हैं और इसकी कुछ शर्तें होती हैं. मसलन यह एक ऐसे एरिया में होना चाहिए जहां खाना-पीना न हो रहा हो. परफॉर्मेंस रात को नौ बजे शुरू होगा और साढ़े ग्यारह बजे खत्म हो जाएगा. मंच 30 बाई 40 फुट का होगा. हम किसी के साथ बात नहीं करेंगे. न ही हम आपका खाना खाएंगे. हम आपके रिश्तेदारों के साथ तस्वीरें नहीं खिंचवाएंगे जब तक  हम खुद ऐसा न करना चाहें. हम आएंगे, परफॉर्म करेंगे और चले जाएंगे. यानी इसका एक स्तर होता है. बहुत कम लोग ही इसका खर्च उठा सकते हैं मसलन लक्ष्मी निवास मित्तल जैसी हस्तियां. मैं शादी के संगीत में नहीं नाचता.

जब मैं युवाओं को अपने जैसा होने को कहता हूं तो मैं वास्तव में मानता हूं कि मैं कुछ ऐसा कर रहा हूं जो किसी भी भारतीय को करना चाहिए. उसे कोशिश करनी चाहिए, कड़ी मेहनत करनी चाहिए, पैसा कमाना चाहिए और अच्छी तरह से जिंदगी गुजारनी चाहिए.

धर्म

मैं नास्तिक नहीं हूं. मैं ऊपरवाले पर यकीन करता हूं. मैं जन्म से मुसलमान हूं तो मैं इस्लाम को और धर्मों की तुलना में थोड़ा बेहतर जानता हूं. हालांकि अब तक मेरी जिंदगी के ज्यादातर हिस्से में मेरे इर्द-गिर्द हिंदू ही रहे हैं. रामलीला मुझे बड़ी अच्छी लगती थी. जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ी है और मैं देख रहा हूं कि दुनिया में इस्लाम को लेकर क्या हो रहा है, मुझे यह अहम लगता है कि इस्लाम के बारे में पूरी तरह से जाने बिना भी मुझे इसकी अच्छाई के साथ खड़े रहने की जरूरत है. एआर रहमान ने एक बार मुझे एक एसएमएस भेजा था. इसमें लिखा था कि आप इस्लाम के दूत हैं. मुझे लगता है कि मैं वास्तव में हूं. मैं इस्लाम के सिद्धांतों पर चलता हूं. ये हैं अमन, अच्छाई और मानवता के लिए करुणा. कुछ लोग हैं जो ऐसी हरकतें करते हैं जो उनके मुताबिक इस्लामिक हैं. उनसे मुझे बहुत चिंता होती है. लेकिन मुझे लगता है कि हम भी बहुत जल्दी ही लोगों को खांचों में रख देते हैं. जैसे वह बंगाली है तो ऐसा ही होगा. मुझे लगता है कि हमें वर्गीकरण पसंद है क्योंकि इससे हमें एक तरह का सुरक्षा बोध होता है. मैं वैसा ही हूं जैसा एक आधुनिक मुसलमान को होना चाहिए. मेरी शादी एक हिंदू से हुई है. मेरे बच्चे दोनों धर्मों के साथ बड़े हो रहे हैं. मैं जब इच्छा करती है, नमाज पढ़ता हूं. कई दूसरी चीजें भी हैं जो अब प्रासंगिक नहीं रही हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कुरान पर सवाल कर रहा हूं. मैं चाहता हूं लोग जानें कि इस्लाम का मतलब सिर्फ उन्माद या गुस्सा नहीं है. न ही इसके मायने किसी ऐसे शख्स से हैं जो सिर्फ जिहाद करता है. जिहाद का असल मतलब है अपने भीतर की हिंसा और कमजोरी पर विजय पाना.

काम

जहां तक काम का सवाल है तो मुझे काम की बीमारी है जो अच्छी बात नहीं है. मैं जरूरत से ज्यादा ही काम करता हूं. मेरे सामने जो अवसर आते हैं उनमें से मैं 95 फीसदी लपक लेता हूं. मैं कोई भी चीज हाथ से नहीं जाने देता. मैं हमेशा ऊर्जावान रहता हूं. हर समय काम करता रहता हूं. जबकि मुझे इसकी जरूरत नहीं है. मेरे पास अब बहुत पैसा है. खूबसूरत बच्चे हैं. अच्छी बीवी है. बढ़िया मकान है. कारोबार बढ़िया चल रहा है. मैं जानता हूं कि सब कुछ ठीक है. मगर मुझे हमेशा यह लगता है कि यह भी कर लूं, वह भी कर लूं. यह सिर्फ पैसे की बात नहीं है. लोगों को लगता है कि मैं सिर्फ पैसे के लिए काम करता हूं. लेकिन ऐसा नहीं है. मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि यह मेरी फितरत ही नहीं है कि कोई मौका मेरे हाथ से निकल जाए. तो काम करते रहना मेरी जरूरत है. मेरे पास जो चीजें हैं मैं उनका लुत्फ उठाता हूं और मैं उन्हें खोना नहीं चाहता. लेकिन अगर यह सब चला भी जाए तो कोई बात नहीं. मेरा इससे कोई मोह नहीं है. अगर मेरे पास यह कार नहीं होगी तो मैं थ्रीव्हीलर से काम चला लूंगा. लेकिन काम के बिना मैं नहीं रह सकता. फिर भले ही वह चूहेदानी बनाने का काम हो.

मेरी जिंदगी में कोई कमी नहीं है. फिर भी जब मैं अकेला होता हूं तो उदास हो जाता हूं. मेरे मां-बाप को गुजरे कई साल हो गए हैं. अब तो मैं यह तक भूल गया हूं कि वे कैसे दिखते थे. क्या यह उदासी उनकी वजह से है? पता नहीं. लेकिन अकेले में मैं उदास हो जाता हूं. इसीलिए मैं रात-दिन काम करता रहता हूं.

अपने बारे में

मैं बहुत परंपरावादी हूं. मुझे लगता है कि मेरी फिल्में पूरी दुनिया में इसलिए चलती हैं कि मेरे मूल्य अब भी वही हैं जिन्हें पुराने दौर के कहा जाता है. मैं महिलाओं से शर्माता हूं. आप सुनकर हैरान होंगे मगर अपनी बेटी की सहेलियों के साथ भी मैं ज्यादा देर तक नहीं रह पाता. मुझे लगता है कि आपको लड़कियों की दुनिया में ज्यादा नहीं घुसना चाहिए. मैंने कभी अपनी पत्नी की अलमारी या उसके हैंडबैग में झांककर नहीं देखा. मेरा मानना है कि एक महिला को ज्यादा से ज्यादा प्राइवेसी मिलनी चाहिए. कभी-कभी लड़कियां मुझसे कहती हैं कि वे मुझे पसंद करती हैं. मुझे समझ में नहीं आता कि मैं क्या कहूं. इसलिए इससे पहले कि वे मुझे बेवकूफ समझें मैं कुछ मजाकिया बात कह देता हूं. रोमांस के मामले में मुझे यह भी लगता है कि किसी लड़की को पहल नहीं करनी चाहिए. अपने मामले में भी मैं सोचता हूं कि काश मैंने गौरी को प्रपोज किया होता. तो मैं बहुत परंपरावादी हूं.

प्रशंसक

मुझे लगता है कि बड़ी उम्र की बहुत-सी महिलाएं, मांएं, मुझे पसंद करती हैं. मेरा मानना है कि मर्दाना छवि पसंद करने वाले पुरुषों को मैं अच्छा नहीं लगता. उनमें से आधे से ज्यादा तो यही सोचते हैं कि मैं समलैंगिक हूं. लोगों को लगता है कि मैं अच्छा आदमी हूं. वे मुझे प्यार करते हैं. जर्मनी, फ्रांस, अफगानिस्तान, तुर्की, पोलैंड, जापान, मोरक्को और चीन में कई जगहें हैं जहां लोग मुझे चाहते हैं. जर्मनी में लोग मुझसे कहते हैं कि हमारे पास हर चीज के लिए एक बटन है. ऊपर जाने के लिए, नीचे आने के लिए, कार चलाने के लिए. लेकिन हमारे पास रोने के लिए कोई बटन नहीं है. हम बहुत रुखे हो गए हैं. रोने के लिए हमारा बटन आप हो. हम आपकी फिल्में देखते हैं और रोते हैं. मुझे भीड़ बहुत अच्छी लगती है. मेरे आस-पास 10 लोग हों तो मैं असहज रहूंगा. मगर 10,000 लोग हों तो मैं सहज महसूस करूंगा. मैं कोई और होता हूं तो सहज होता हूं. मैं जब मैं होता हूं तो बहुत असहज हो जाता हूं.

शब्दों का सफर

हिंदुस्तानी फिल्मों के मिजाज को हिंदुस्तानी इसके गीत ही बनाते हैं. हमारी फिल्मों के साहस की सबसे पहली निशानी भी इसके गीत ही हैं. भारत में फिल्मों की विकास यात्रा में बोलती फिल्मों से पहले तक पश्चिमी परिपाटी का जबरदस्त असर था. लेकिन बोलने वाली फिल्मों से भारतीय सिनेमा ने जो राह पकड़ी वह बिल्कुल नई थी. यह पश्चिम के गीत-रहित सिनेमा की बजाय हिंदुस्तान की अपनी, गीतों से लबालब रहने वाले लोक-माध्यमों की डगर थी. इसीलिए 1931 में आई भारत की सबसे पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ में सात गाने थे. शायद आलम आरा के हिस्से में आई कुल चर्चा उसके हिट गानों की वजह से ही थी.

हालांकि आलम आरा के संगीत में जादू जैसा कुछ नहीं था, मगर इसने अगर धूम मचाई तो इसके पीछे सबसे बड़ी वजह आसान धुनों पर सजे असरदार अल्फाज़ थी. असल में यह फिल्म पारसी थिएटर के लबो-लहजे वाली फिल्म थी जिसमें लेखन का विभाग हमेशा मार्के के शायरों से सजा होता था. इसके बाद अगले चार-पांच साल तक आने वाली हर फिल्म में गीतों की भरमार रही.

आरंभिक दौर के ज्यादातर गीतकार असल में पारसी थिएटर या अन्य नाट्य मंडलियों से जुड़े हुए शायर-कवि थे. इनमें राधेश्याम कथावाचक, डीएन मधोक, आरजू लखनवी, गोपाल सिंह नेपाली, तनवीर नकवी, आगा कश्मीरी, पंडित सुदर्शन आदि प्रमुख थे. इनमें फिल्मी गीतों के क्षेत्र में सबसे बड़ा योगदान आरजू लखनवी का है. साहिर कहा करते थे कि आरजू ने ही फिल्मी गीतों को उसका सबसे पहला मुहावरा, सांचा और ज़ुबान दी. आरजू का दिया यह मुहावरा नब्बे के दशक तक चलन में रहा. 1935 के आस-पास जब विशेषज्ञ संगीतकारों जैसे आरसी बोराल, पंकज मलिक, तिमिर बरन ने फिल्मी दुनिया में कदम जमाए तब पहली बार सिनेमा को जादुई धुनें मिलना शुरू हुआ और यहीं से यादगार गीतों का सिलसिला भी शुरू हो गया.

हमारे फिल्मी गीतों की विषयवस्तु शुरुआत में तीन प्रवृत्तियों के इर्द-गिर्द घूमती थी. इनमें सबसे पहली थी प्रेम. अन्य दो धाराएं भक्ति और देश-प्रेम की थी. प्रेम की प्रवृत्ति आज तक हिंदी फिल्म गीतों की रीढ़ बनी हुई है. आरजू लखनवी ने आरंभिक दौर के ज्यादातर रूमानी नगमे और गजलें सिनेमा को दीं. इस सिलसिले में दूसरा नाम केदार शर्मा का आता है. न्यू थिएटर के गीतकारों में सबसे ज्यादा चर्चित केदार शर्मा ही थे. इसी समय बहुमुखी प्रतिभा के धनी डीएन मधोक भी प्रेम और भक्ति की उम्दा रचनाओं से हिंदी फिल्मों को धनी कर रहे थे. पीएल संतोषी भी इस कड़ी में एक अहम नाम थे. लेकिन आरंभिक फिल्मी गीतों का जिक्र अधूरा है अगर इनमें मौजूद राष्ट्रीय धारा वाले गीतों की बात न हो. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में आई फिल्म किस्मत के लिए लिखे गए प्रदीप के गीत दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है ने अंग्रेजी शासन की नींद हराम कर दी थी. बाद के वर्षों में भी कवि प्रदीप ने राष्ट्रीय चेतना और देशप्रेम को समर्पित ऐसे-ऐसे उम्दा गीत लिखे कि वे एक तरह से हमारे देश के लिए राष्ट्रीय गीतकार ही बन गए.

भारतीय फिल्मों की विकास यात्रा पर बारीक नजर डाली जाए तो पता चलता है कि हिंदुस्तानी सिनेमा के साहस की सबसे पहली निशानी इसके गीत ही हैं

लेकिन असल मायनों में हिंदी सिनेमा के कभी न भुलाए जा सकने वाले गीतों का दौर 1945 के बाद शुरू हुआ. संगीत के साथ गीतों का स्वर्ण-युग भी यही है. इस दौर में उर्दू-हिंदी के पहली श्रेणी के शायरों ने फिल्म इंडस्ट्री का रुख किया. इनमें साहिर लुधियानवी, शकील बदायूंनी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, खुमार बाराबंकवी, जांनिसार अख्तर, राजा मेंहंदी अली खान, हसरत जयपुरी या फिल्मों में हिंदी धारा लाने वाले पंडित नरेंद्र शर्मा, इंदीवर, भरत व्यास, राजेंद्र कृष्ण, प्रेम धवन, शैलेंद्र आदि सबसे प्रभावी नाम रहे. इन सभी ने अगले तकरीबन 25 साल तक फिल्मी गीतों को साहित्य की कसौटी पर ढीला नहीं पड़ने दिया. इस दौर में भी फिल्मी गीतों की सबसे मुख्य अभिव्यक्ति प्रेम की ही रही. देशभक्ति और भक्ति दो अन्य मुख्य विषय थे. मगर अब एक और बिल्कुल नया रंग फिल्मों गीतों को मिल गया था. यह रंग था प्रगतिशील विद्रोह का. फिर भी इस पूरे दौर के गीतों की सबसे बड़ी खासियत प्रेम के अलग-अलग रंगों की छटा ही रही. 1946 की फिल्म शाहजहां में मजरूह के लिखे गम दिए मुस्तकिल का सोज आज भी बरकरार है. वहीं शकील बंदायूनी के दर्द (1947) के लिए लिखे अफसाना लिख रही हूं को कौन भूल सकता है. वहीं शैलेंद्र के 1949 में बरसात के लिए लिखे गए बरसात में हमसे मिले तुम, 1951 में आवारा के लिए लिखे गए आवारा हूं और घर आया मेरा परदेसी आदि गीतों ने इनमें सादगी और सुख की अनुभूति को भी खूब आगे बढ़ाया. इसी वक्त शकील बदायूंनी ने बैजू बावरा, अमर जैसी फिल्मों में जितने सुंदर भजन लिखे उसने देश को कौमी एकता की एक नई मिसाल दी. शकील की ही तरह बाद के वर्षों में साहिर लुधियानवी की कलम से भी सीमा, नया दौर जैसी फिल्मों के लिए कुछ बेहद लोकप्रिय भक्ति गीत निकले.

अगले कुछ वर्ष साहिर, शकील, कैफी, राजेंद्र कृष्ण और शैलेंद्र के ही नाम रहे. साहिर लुधियानवी ने प्यासा से हिंदी फिल्मों के गीतों को एक नया तेवर और बेबाकी दी. जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां है और ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है जैसे गाने साहित्य के फिल्मों से मिलन की अनूठी मिसाल थे. इसके अलावा धूल का फूल के तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा और साधना के औरत ने जनम दिया मर्दों को गीत के साथ साहिर ने अपनी विद्रोही अभिव्यक्ति जारी रखी. साधना का गीत तो औरत को समर्पित फिल्मी गीतों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. साहिर की निजी जिंदगी से निकला यह गीत वास्तव में रोंगटे खड़े कर देने वाली रचना था. वहीं शकील ने इसी साल आई मदर इंडिया में गंवई लोकसंस्कारों से सजे गीत जितने लालित्य के साथ पेश किए उसने उन्हें भी साहिर के कद का ही गीतकार बनाए रखा. शैलेंद्र भी यहूदी और मधुमती जैसी फिल्मों के जरिए अपने अलग अंदाज के गीत सिनेमा को दे रहे थे. गीतकारों के लिए पहला फिल्मफेयर भी शैलेंद्र को ही यहूदी के अद्भुत गाने ये मेरा दीवानापन है के लिए मिला. वहीं इस समय भी पंडित भरत व्यास और कवि प्रदीप अपने भक्ति गीतों की वजह से लोगों की जुबान पर थे. 1957 में आई वी शांताराम की दो आंखें बारह हाथ में भरत व्यास का लिखा ऐ मालिक तेरे बंदे हम आज भी भक्ति गीतों में सबसे यादगार माना जाता है. 1959 में कैफी आजमी ने भी गुरुदत्त के साथ जुड़ कर कागज के फूल के लिए अमर गीत लिखे. लेकिन अगले साल 1960 में आई मुगले आजम के गीतों की ऐतिहासिक कामयाबी ने मुख्य मुकाबला फिर साहिर लुधियानवी और शकील बदायूंनी के बीच कर दिया. इसी साल साहिर के फिल्म बरसात की रात के लिए लिखे गाने जबरदस्त धूम मचा रहे थे. मुगले आजम के गीतों में शकील ने पारंपरिक प्रेम के साथ विद्रोह को भी मिला दिया जो अभी तक साहिर की विशेषता थी. फिल्म के जब प्यार किया तो डरना क्या और ऐ मुहब्बत जिंदाबाद जैसे गीत इसकी बानगी हैं. मुगले आजम के साथ ही कोहिनूर और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्मों में लिखे गए खूबसूरत नगमों ने भी शकील को साहिर के मुकाबले कुछ बड़ा ही किया. बाद के सालों में यह पूरी बहस यह कहकर खत्म करनी पड़ी कि शकील रूमानियत के तो बादशाह हैं लेकिन अपने विद्रोही तेवरों के चलते फिल्मी गीतों के विशाल फलक पर साहिर का कद उनसे ज्यादा बड़ा नजर आता है. साहिर के बड़े होने की एक वजह उर्दू अदब में उनका शकील से बड़ा होना भी रही.

1960 के बाद के वर्षों में साहिर, शकील, शैलेंद्र के अलावा मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी और राजेंद्र कृष्ण ने अपने रूमानी नगमों से लोगों का दिल जीता. यहां साहिर के ताजमहल, गजल, गुमराह, हमराज, शकील के गंगा जमुना, लीडर, राम और श्याम, शैलेंद्र के गाइड, तीसरी कसम और मजरूह के दोस्ती, चिराग के लिए लिखे गीत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. इनके साथ एक अन्य गीतकार जो बेहद लोकप्रिय रहे वे थे गजलों के बादशाह मदन मोहन के जोड़ीदार राजा मेहंदी अली खान. जिन्होंने वो कौन थी? अनपढ़, मेरा साया आदि फिल्मों में बेहद खूबसूरत गीत लिखे. लेकिन इस पूरे दशक को प्रेम के नगमों से पहले इस वजह से याद किया जाना चाहिए कि इसमें देशभक्ति को समर्पित सबसे अच्छे गीत लिखे गए. इन गीतों में सबसे पहला नाम प्रेम धवन के गीतों का आएगा जिन्होने छोड़ो कल की बातें…, ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ वतन ऐ वतन, मेरा रंग दे बसंती चोला जैसे बेहद लोकप्रिय देशभक्ति गीत फिल्मों को दिए. इसके अलावा कैफी आजमी ने भी फिल्म हकीकत में देशभक्ति का जोश भर देने वाला गीत कर चले हम फिदा लिखा. हकीकत कैफी के लिखे रूमानी नगमों जैसे हो के मजबूर मुझे और मै ये सोचकर … के लिए भी याद रखी जाएगी. कैफी ने ही मेरी आवाज सुनो जैसा मार्मिक गीत भी लिखा. इसी दशक में शकील बदायूंनी ने भी अपनी आजादी को हम, नन्हा मुन्ना राही हूं और इंसाफ की डगर पे.. जैसे गीत फिल्मों को दिए. 1965 के बाद के सालों में इंदीवर ने मनोज कुमार की फिल्म पूरब और पश्चिम के लिए है प्रीत जहां की रीत सदा जैसे कालजयी देशभक्ति गीत लिखे और मनोज कुमार की ही फिल्म उपकार में गुलशन बावरा के लिखे मेरे देश की धरती सोना…को भुलाया नहीं जा सकता.

समीर के नाम सबसे ज्यादा फिल्मों के लिए गीत लिखने का गिनीज बुक रिकाॅर्ड तो आया लेकिन अच्छे गीतों की रिकॉर्ड-बुक में वे सबसे पिछले पन्नों में चले गए

इसी दौर में कुछ और नए, पैर जमाने की कोशिश में लगे गीतकारों ने भी बहुत खूबसूरत गीत लिखे. इनमें हिंदी के लोकप्रिय गीतकार गोपालदास नीरज, आनंद बख्शी और गुलज़ार के नाम प्रमुख हैं. बाद वाले दोनों नाम 1970 के बाद के बीस वर्षों में सबसे बड़े फिल्मी गीतकार बनकर उभरे. 1970-80 के बीच कई पुराने गीतकार सक्रिय भी नहीं रहे थे, संगीत ने बदलकर गीतों को पीछे ढकेलना शुरू कर दिया था. फिर भी साहिर, मजरूह, और नरेंद्र शर्मा जैसे पुराने गीतकारों के साथ आनंद बख्शी, गुलजार और योगेश ही गीतों का स्तर बचाने में कामयाब रहे. 1975 की फिल्म जय संतोषी मां के भजनों के जरिए प्रदीप मुश्किल दौर में भी भक्ति गीतों को हिट कराने में कामयाब रहे. इस दौर में भी प्रेम की प्रधानता तो गीतों में बनी रही लेकिन देशप्रेम और भक्ति गायब से हो गए. प्रेम भी पचास और साठ के दशक का न रहकर लाउड होने लगा था. 1980 के बाद के वर्षों में जब स्वर्ण युग खत्म हो चुका था और शोर ने शब्दों को दबा लिया था, तब भी गुलजार और आनंद बख्शी के साथ जावेद अख्तर खूबसूरत गीत लिख रहे थे. गुलजार ने इजाजत, मासूम तो आनंद बख्शी ने कर्ज, एक दूजे के लिए और जावेद अख्तर ने सिलसिला, सागर आदि फिल्मों के लिए गोल्डन इरा की बराबरी वाले गीत लिखे.

1990 में भी यही तीन लोग गीतों के मेयार का झंडा थामे रहे, हालांकि आनंद बख्शी भी अब चोली के पीछे लिख रहे थे और गुलजार में भी संवेदना का पहले जैसा स्तर नहीं था और जावेद अख्तर की प्रतिभा जागती-बुझती रहती थी. लेकिन फिर भी समीर के जाने जाना-जाने तमन्ना टाइप गीतों के दौर में ये ठंडी हवा की तरह थे. 1990 से लेकर 2000 का पूरा दौर समीर का था जिन्होंने दीवाना, साजन और आशिकी जैसी कुछ फिल्मों में कुछ सुंदर गाने भी लिखे लेकिन ज्यादा काम करने की हवस ने उनके गीतों का जादू खत्म कर दिया. ज्यादातर गीत ऐसे होते थे मानो उन्हीं पुराने शब्दों और उपमाओं को किसी मशीन में डालकर गीत निकाल लिया हो. समीर के नाम सबसे ज्यादा फिल्मों के लिए गीत लिखने का गिनीज बुक रिकॉर्ड तो आया लेकिन अच्छे गीतों की रिकॉर्ड-बुक में वे सबसे पिछले पन्नों में चले गए.

हलांकि 2000 के बाद से अभी तक के दौर में भी संगीत ने शब्दों को दबा रखा है और आइटम सांग के चलन के कारण खारिज करने लायक गीत भी हिट हो रहे हैं लेकिन बदनाम होती मुन्नियों और जवान होती शीला के बीच भी इस दौर में 90 के दशक की अपेक्षा कहीं ज्यादा उम्मीद दिखाई देती है. इस दशक में हमें तारे जमीन पर लिखते प्रसून जोशी मिलते हैं और जो भी मैं कहना चाहूं, बर्बाद करें अल्फाज मेरे लिखने वाले इरशाद कामिल भी. मौला मेरे ले ले मेरी जान वाले जयदीप साहनी भी हैं, खोया खोया चांद  लिखने वाले स्वानंद किरकिरे भी और सबसे नए अमिताभ भट्टाचार्य जिन्होंने डीके बोस के भागने के बीच उड़ान के अविस्मरणीय गीत लिखे हैं. ये सब अपने नए शब्दकोशों, अभिव्यक्तियों और मुहावरों को फिल्मी गीतों में लाने वाले गीतकार हैं और फिर से फिल्मी गीतों को कविता के करीब ले जाते हैं. गुलजार भी दिल तो बच्चा है जी की अपनी ताजगी के साथ नयों के बराबर और कभी-कभी उनसे ज्यादा सक्रिय हैं. 2009 में आई गुलाल के एक गीत में पीयूष मिश्रा लिखते हैं- जिस कवि की कल्पना में जिंदगी हो प्रेमगीत, उस कवि को आज तुम नकार दो. रूमानियत की इस नकार में साहिर के गुस्से की खुशबू है और यही सबसे उम्मीद भरी बात है.

 

हाउस खाली जेब फुल

हिंदी फिल्म उद्योग में असफलता की कहानियां इन फिल्मों की तरह ही नाटकीय और मनोरंजक हैं. कागज के फूल के असफल होने (कहा जाता है कि कुछ दर्शकों को यह फिल्म इतनी बुरी लगी कि उन्होंने टॉकीजों के पर्दे पर पत्थर बरसाए थे) पर गुरुदत्त का निर्देशन से मोहभंग होना या राजकपूर की अति महत्वाकांक्षी फिल्म मेरा नाम जोकर  पर दर्शकों की ठंडी प्रतिक्रिया के बाद उनका अभिनय छोड़ना और स्टूडियो गिरवी रखने के लिए मजबूर होना, ऐसी ही कहानियां हैं. उस दौर में निर्देशक जी-जान लगाकर फिल्में बनाते थे और उनकी किस्मत सर्वशक्तिमान दर्शकों के हाथ में होती थी.

लेकिन इस बीच फिल्म उद्योग काफी समझदार हुआ. इसने समझा कि दर्शक ही मनोरंजन के इस कारोबार के विधाता हैं. यह भी कि जब ऐसा है तो इस अबूझ पहेली पर इतना भरोसा क्यों किया जाए. इसी सोच का नतीजा है कि आज फिल्म उद्योग के इस विधाता की ताकत आधी से भी कम हो चुकी है. कुछ मामलों में तो दर्शकों को बिलकुल भुला ही दिया गया है. वे अब निर्माता-निर्देशकों-कलाकारों की जेब को प्रभावित करने की ताकत नहीं रखते. फिल्मी कारोबार में कमाई के नए तौर-तरीके ईजाद होने के बाद फिल्म की कमाई का आधा हिस्सा बॉक्स ऑफिस से आता है तो बाकी फिल्म रिलीज होने के पहले ही उसके गीत-संगीत और प्रसारण के अधिकारों की बिक्री से. और यदि फिल्म में खान तिकड़ी में से कोई एक काम कर रहा है तो फिल्म की शूटिंग के पहले ही वह मुनाफा कमा लेती है. जैसे कुछ खबरों के मुताबिक स्टार नेटवर्क ने दबंग-2 के अधिकार पहले ही 50 करोड़ में खरीद लिए हैं.

फिल्मों के बदले कारोबार का एक पहलू और भी है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में एक सिनेमाघर के मालिक बहुत नाराज हैं. उन्होंने रा.वन  के लिए पांच लाख रुपये दिए थे. पहले हफ्ते में उन्हें डेढ़ लाख रुपये वापस मिले. दूसरे हफ्ते तक फिल्म पिटने लगी. नतीजा? इस हफ्ते उनकी कमाई 50 हजार रुपये तक सिमट गई और तीसरे हफ्ते उनके शो देखने कोई नहीं आया. उन्हें इस फिल्म में लगभग तीन लाख रुपये का घाटा हुआ और वे आज भी शाहरुख खान को कोस रहे हैं.

वहीं दूसरी तरफ मुंबई में शाहरुख ने रा.वन हिट होने की खुशी में एक पार्टी आयोजित की थी. अखबारों में एक पृष्ठ के विज्ञापन के साथ यह घोषणा भी की गई कि फिल्म का सीक्वेल बनाने की तैयारी चल रही है. उत्तर प्रदेश के सिनेमाघर मालिक से उलट मुंबई में शाहरुख के घर पर हुई इस पार्टी की अपनी वजहें थीं. 150 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने रिलीज के पहले ही न सिर्फ अपनी लागत वसूल कर ली बल्कि कुछ करोड़ का मुनाफा भी बटोर लिया था. रा.वन  ने रिलीज के पहले ही वितरण अधिकार बेचकर 77 करोड़, टीवी प्रसारण अधिकार से 35 करोड़ और संगीत अधिकार से 15 करोड़ रुपये कमा लिए थे. 10 करोड़ की अतिरिक्त कमाई म्यूजिक लॉन्च के प्रसारण अधिकार से भी हुई और 50 करोड़ की कमाई विभिन्न ब्रांडों से टाइअप से हुई. इन आंकडों की एक चौंकाने वाली व्याख्या यह है कि जब शाहरुख खान और उनकी टीम के पास इतना पैसा पहले ही आ चुका था तब भारत में यदि एक भी आदमी उनकी फिल्म देखने नहीं जाता तो भी वह हिट थी.

शाहरुख की हालिया फिल्म डॉन 2 की लागत भी 75 करोड़ रुपये थी. इसे रिलायंस एंटरटेनमेंट ने 80 करोड़ रुपये में खरीदा और फिल्म ने 37 करोड़ रुपये टीवी अधिकार बेचकर हासिल किए और 10 करोड़ रुपये संगीत अधिकार के जरिए.

जिस व्यापार में कम जोखिम पर अच्छा मुनाफा होगा, वहां जाहिर है कई कारोबारी भी आएंगे. हिंदी फिल्म उद्योग में भी यही हो रहा है

कुछ इसी तरह की खबरें सलमान खान की एक था टाइगर  के टीवी प्रसारण अधिकार के बारे में भी आ रही हैं. आमिर खान की तलाश, जिसका बजट 40 करोड़ रुपये है, के बारे में कहा जा रहा है कि अपनी लागत के बराबर राशि में ही फिल्म के टीवी प्रसारण अधिकार बिके हैं और रिलायंस एंटरटेनमेंट ने इसे 90 करोड़ में खरीदा है.

फिल्मी कारोबार का यह नया गणित किसी को भी हैरान कर सकता है. यूटीवी मोशन पिक्चर्स में इंटरनेशनल डिस्ट्रीब्यूशन एंड सिंडीकेशन की उपाध्यक्ष अमृता पांडे कहती हैं, ‘दस साल पहले तक बॉक्स ऑफिस से होने वाली कमाई किसी फिल्म के कारोबार का 90 फीसदी होती थी. अब ये 40-50 फीसदी तक सिमट गई है.’ एक मोटे अनुमान के मुताबिक किसी फिल्म के टीवी प्रसारण अधिकार से फिल्म की कमाई का तीस फीसदी मिल जाता है. बीस फीसदी हिस्सा फिल्म के विदेशों में प्रसारण, संगीत और इंटरनेट अधिकार की बिक्री से निकल आता है. पिछले दस सालों में फिल्मों से कमाई के ढेरों तैयार हुए हैं. अकेले संगीत प्रसारण से कमाई के अब कई विकल्प हैं जैसे रेडियो, केबल व टीवी प्रसारण अधिकार और मोबाइल रिंगटोन. हिंदी फिल्मों को अब नए बाजार भी मिल रहे हैं. ब्रिटेन और अमेरिका जैसे परंपरागत विदेशी बाजारों के अतिरिक्त हिंदी फिल्मों का भावनात्मक पक्ष ब्राजील, पोलैंड ओर चेकोस्लावकिया के दर्शकों को भी लुभा रहा है. पांडे स्वीकार करती हैं, ‘अगर फिल्म थियेटरों में न चले तब भी हमारे पास कई तरीके हैं जिससे हम कोशिश करते हैं दर्शकों के मनचाहे समय और जगह पर हम इसे उपलब्ध करा दें, इसके लिए टीवी, इंटरनेट और वीडियो ऑन डिमांड जैसे विकल्प हैं.’

फिल्मों के कारोबार से जुड़े वित्त विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हर एक विकल्प के माध्यम से ही फिल्म को पांच फीसदी दर्शक मिल जाएं तो फिल्म मुनाफा कमा लेती है. यही वह तरीका है जिसकी बदौलत यूटीवी ने पिछले दिनों तीस मार खां, वी आर फैमिली  और आई हेट लव स्टोरीज  जैसी फिल्मों के बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट जाने के बावजूद मुनाफा कमाया था.

तो आखिर बॉलीवुड में इस बदलाव का निर्णायक मोड़ कहां था? असल में फिल्मों से जुड़े जोखिम को खत्म करने की शुरुआत आज से बारह-पंद्रह साल पहले मानी जा सकती है. तब बॉलीवुड में व्यावसायिक साझेदारी और समझदारी से फिल्में बनने की शुरुआत हुई. इससे पहले माना जाता था कि हिंदी फिल्मों में कहीं न कहीं संदिग्ध फायनेंसरों और माफिया समूहों का पैसा लगा हुआ है. कंपनियों के फिल्म निर्माणक्षेत्र में उतरने के बाद वितरण और मार्केटिंग में भी व्यावसायिकता दिखने लगी. पहले किसी फिल्म के 400 प्रिंट रिलीज होना एक बड़ी बात मानी जाती थी. आज रा.वन और अग्निपथ जैसी फिल्में शुरुआती 4,000 और 2,700 प्रिंटों के साथ रिलीज हो रही हैं. आज फिल्मों की लागत का एक तिहाई हिस्सा उसकी मार्केटिंग पर खर्च होता है. जाहिर है ये किसी रोजमर्रा की वस्तु मार्केटिंग नहीं है जिसे सालों तक के लिए अपना बाजार बनाकर रखना है. इसलिए फिल्म की अपने बजट के हिसाब से इतनी आक्रामक मार्केटिंग होती है ताकि कम से कम पहले हफ्ते के आखिरी तीन दिन तो दर्शकों को बॉक्स ऑफिस तक लाया जा सके. फिल्म कारोबार विश्लेषक इंदु मिरानी बताती हैं, ‘आज फिल्मों का धंधा इतना सुरक्षित हो गया है कि किसी निर्माता की फिल्म फ्लॉप होने की स्थिति में उसके दिवालिया होने की नौबत नहीं आती.’

जिस व्यापार में कम जोखिम पर अच्छा मुनाफा होगा, वहां जाहिर है कई कारोबारी भी आएंगे. हिंदी फिल्म उद्योग में भी यही हो रहा है. अब हमारे यहां थोक में फिल्में (हर साल लगभग 1,000 फिल्में) बन रही हैं. इनमें से ज्यादातर में इस फॉर्मूले का ध्यान रखा जा रहा है कि दर्शकों को रिझाने के लिए ऐसा कोई आकर्षण जरूर हो जिससे फिल्म रिलीज होने के कम से कम दो दिन बाद तक ये थियटरों में भीड़ जुटाती रहे. आइटम नंबर, फाइट सीक्वेंस और नायक की बजाय महानायक की उपस्थिति इन फिल्मों की जान है (बॉडीगार्ड, सिंघम, अग्निपथ और आने वाली फिल्में राउडी राठौर, एक था टाइगर, दबंग 2 और धूम 3).

फिलहाल ज्यादातर प्रोडक्शन हाउसों ने अपने निवेश को तीन तरह की फिल्मों के लिए बांट कर रखा है. बिग, मीडियम और स्मॉल बजट फिल्में. सबसे ज्यादा निवेश बड़े सितारों वाली और एक्शन थीम की फिल्मों के लिए रखा जाता है. मीडियम बजट कॉमेडी और बॉलीवुड की परंपरागत रोमांस वाली फिल्मों के लिए होता है. इनके बारे में समझा जाता है कि इनमें निवेश अधिक सुरक्षित है. छोटा निवेश प्रयोगवादी फिल्मों के लिए होता है. वायाकॉम 18 ने बड़े बजट की फिल्म प्लेयर्स (हाल की सबसे फ्लॉप फिल्म) बनाई थी लेकिन इसका घाटा सुजॉय घोष की कहानी से पूरा कर लिया. यूटीवी अक्षय कुमार की राउडी राठौर बना रहा है. लेकिन इसी प्रोडक्शन हाउस ने पान सिंह तोमर भी बनाई थी. इसी तरह से यशराज फिल्म्स आमिर खान के साथ धूम 3 बना रहा है और इसके साथ ही नए निर्देशक हबीबी फैजल की पहली फिल्म इशकजादे  का भी निर्माता है.

फिल्म लेखिका नंदिना रामनाथ कहती हैं, ‘फिल्मों में एक बड़ा बदलाव उनके बजट में आया है. आजकल एक औसत बजट की फिल्म से आप बेहतर बिजनेस की उम्मीद कर सकते हैं. एक ऑफबीट फिल्म के लिए एक 300 सीट के मल्टीप्लेक्स को भरना आसान है बजाय 900 सीट के एक सिंगल स्क्रीन के. लेकिन मल्टीप्लेक्स अपने भारी खर्चे की वजह से बड़ी फिल्मों को दिखाने में ही दिलचस्पी दिखाते हैं.’

फिल्मों के इस बदलते कारोबार में बेशक दर्शक हाशिये पर पहुंच रहे हैं लेकिन आज भी एक बात जो नहीं बदली वह यह कि उनके लिए फिल्में एक टाइमपास हैं. और वह उन्हें नहीं मिलेगा तो उनके पास भी अब टीवी शो- क्रिकेट सहित कई विकल्प हैं.

‘मेरे लिए तो मेरा कच्चा रास्ता उनकी सड़क से बेहतर है’

मेरा बचपन मेरठ में गुजरा. मेरे पिता कवि थे और एक सरकारी दफ्तर में काम करते थे. सिनेमा ही हमारे मनोरंजन का इकलौता साधन था. बचपन की देखी फिल्में याद करूं तो मुझे ‘परदे के पीछे’ याद आती है. उसमें विनोद मेहरा और नंदा थे. लेकिन फिल्मों में असली रुचि ‘शोले’ से जगी. तब हम पांचवीं-छठी कक्षा में पढ़ते थे. उसके बाद तो अमिताभ बच्चन के ऐसे दीवाने हुए कि उनकी ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘नसीब’, ‘सुहाग’, हर फिल्म देखी. ऐसी फिल्में ही हम देखते थे. इन फिल्मों ने ही असर डालना शुरू किया. श्याम बेनेगल की एक-दो फिल्में भी देखी थीं. कॉलेज में आते-आते ‘उत्सव’ और ‘कलयुग’ आ गई थीं. उस दौर की फिल्म ‘विजेता’ याद है. ज्यादातर फिल्में दोस्तों के साथ देखीं. फिल्मों में इंटरेस्ट था, लेकिन मैं इतना सीरियस दर्शक नहीं था. सच कहूं तो बहुत बाद में म्यूजिक डायरेक्टर बन जाने के बाद भी फिल्मों और डायरेक्शन का खयाल नहीं आया था.

मेरे पिता जी ने मुंबई आकर फिल्मों के लिए कुछ गाने भी लिखे. उनकी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से दोस्ती थी. मेरे पिता जी का नाम राम भारद्वाज हुआ. वे शौकिया तौर पर गाने लिखते थे. वे छुट्टी लेकर मुंबई आते. बाद में उन्होंने बिजनेस में आने की भी कोशिश की. फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन में उतरे, लेकिन नाकाम रहे. उस वजह से घर कर्ज में आ गया. मेरा तो तब संगीत का भी इरादा नहीं था. मैं क्रिकेट खेलता था और उसी में आगे बढ़ना चाहता था. तब मैं स्कूल की टीम में खेलता था और उत्तर प्रदेश की तरफ से खेलने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी भी गया था. दिल्ली आने पर एक दोस्त की वजह से संगीत में दिलचस्पी हुई. मेरी दिलचस्पी थी संगीत में, लेकिन संगीतकार बनने के बारे में नहीं सोचा था. यह इंटरेस्ट बाद में इतना सीरियस हो गया कि क्रिकेट छूट गया.

उन दिनों गजलों का दौर था. हम सभी गजल गाते थे. एक दोस्त पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के जानकार थे. उनके साथ रहने से पश्चिमी संगीत का ज्ञान बढ़ा. मैंने ‘पेन म्यूजिक’ रिकॉर्डिंग कंपनी ज्वाइन कर ली. उसी जॉब में ट्रांसफर लेकर मुंबई आ गया. एक-डेढ़ साल यहां स्ट्रगल किया. तभी दिल्ली में गुलजार साहब से मुलाकात हुई. दरअसल मैं लंबे अरसे से उनसे मिलना चाहता था. उसके लिए युक्ति की थी. उन्होंने हौसला बढ़ाया और पीठ पर हाथ रखा. गुलजार भाई की वजह से ही मैं कुछ बन पाया. वे मेरे पिता की तरह हैं. उन्हीं के साथ ‘चड्डी पहन के फूल खिला है’ गीत की रिकॉर्डिंग की. उसके बाद ‘माचिस’ का ऑफर मिला और मैं फिल्मों के लिए संगीत बनाने लगा.

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. लोग मेरे काम को पसंद भी कर रहे थे, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में स्पॉट ब्वॉय से लेकर प्रोड्यूसर तक के मन में डायरेक्टर बनने की ख्वाहिश रहती है. मैं अक्सर कहता हूं कि हिंदुस्तान में फिल्म और क्रिकेट दो ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में हर किसी को लगता है कि उससे बेहतर कोई नहीं जानता. सचिन को ऐसा शॉट खेलना चाहिए और डायरेक्टर को ऐसे शॉट लेना चाहिए. हर एक के पास अपनी एक कहानी रहती है. रही मेरी बात तो संगीतकार के तौर पर जगह बनाने के बाद मैं फिल्मों की स्क्रिप्ट पर निर्देशकों से बातें करने लगा था. स्क्रिप्ट समझने के बाद ही आप बेहतर संगीत दे सकते हैं. स्क्रिप्ट सेशन में निर्देशकों से ज्यादा सवाल करने लगा था. उन बैठकों से मुझे लगा कि जिस तरह का काम ये लोग कर रहे हैं, उससे बेहतर मैं कर सकता हूं. इसी दरम्यान संगीत निर्देशन के लिए फिल्मों का मिलना कम हो गया तो लगा कि इस रफ्तार से तो दो साल के बाद मेरे लिए काम ही नहीं रहेगा. मेरा काम और एटीट्यूड भी आड़े आ रहा था. उन्ही दिनों संयोग से मुंबई में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल हुआ. तब यह देश के विभिन्न शहरों में हुआ करता था. गुलजार साहब की वजह से मैं फेस्टिवल देखने गया. वे अपने साथ ले जाते थे. उस फेस्टिवल में किस्लोवस्की की फिल्म ‘रैड’, ‘ब्लू’ और ‘व्हाइट’ देखी. उसे देखने के बाद झटका लगा. एहसास हुआ कि फिल्में तो ऐसी ही होनी चाहिए. अगले साल त्रिवेंद्रम में किस्लोवस्की की ‘डे के लॉग’ देखी. उसे देखकर मेरा दिमाग खराब हो गया. मुझे लगा कि सिनेमा इतनी बड़ी मानवीय अभिव्यक्ति है. उससे पहले सिनेमा मेरे लिए सिर्फ मनोरंजन था. सिनेमा का वास्तविक असर उस फिल्म को देखने के बाद ही हुआ. उसके बाद मैंने फिल्म फेस्टिवल मिस नहीं किए. फेस्टिवल की फिल्में देख-देख कर फिल्मों के बारे में जाना और समझा. फिल्म फेस्टिवल ही मेरा फिल्म स्कूल रहा.

उससे पहले जो सिनेमा देखा था, उसे और उसके असर को भूला (अनलर्न) तो नहीं जा सकता. हमारे अवचेतन में सारे अनुभव जमा हो जाते हैं, लेकिन सही में सिनेमा की शक्ति, अभिव्यक्ति और मीडियम की समझ फेस्टिवल की फिल्मों के बाद ही आई. बहुत बड़ा कंट्रास्ट था. उन फिल्मों ने हिला कर रख दिया कि फिल्में इस तरह से भी असर कर सकती हैं. हमारी कमर्शियल फिल्में मुख्य रूप से मनोरंजन होती हैं. विषय और प्रभाव के स्तर पर वे सतह पर ही रहती हैं. जबकि अच्छी फिल्में तो सीने में कुछ जोड़ देती हैं. सत्यजित राय की फिल्में देखीं. उनकी ‘चारुलता’ कई बार देखी. इतने बड़े फिल्मकार को लोगों ने बदनाम कर दिया कि वे केवल गरीबी बेचते हैं. हिंदुस्तान में अगर गरीबी है तो क्यों नहीं दिखायी जाए? हमें गरीबी पर शर्म नहीं आती, उन पर बनी फिल्मों पर आती है. उन्होंने 40-50 साल पहले जैसी फिल्में बनाईं, वैसी फिल्में आज भी फिल्ममेकर नहीं बना पा रहे हैं. उनकी ‘चारुलता’ की छवियां ‘देवदास’ की ऐश्वर्या राय में दिखती हैं.

अवसर कब आपके सामने आ जाएगा, आपको पता नहीं चलेगा. आपको हमेशा अपनी क्रिएटिविटी की बंदूक लोड करके रखनी होगी

इन सब फिल्मकारों के असर और अपने भीतर की बेचैनी में मैंने निर्देशन पर किताबें पढ़नी शुरू कर दीं. खासकर ‘आर्ट ऑफ रोमांटिक राइटिंग’ का बहुत असर हुआ. उन दिनों जीटीवी के लोग ‘गुब्बारे’ के संगीत के लिए मेरे पास आए. मैंने एक शर्त रखी कि मैं आपका म्यूजिक कर दूंगा लेकिन आप मुझे एक शॉर्ट फिल्म बनाने के लिए दो. एक तरह से उन्हें ब्लैकमेल किया और मुझे दो शॉर्ट फिल्में मिल गईं. उन फिल्मों को करने के बाद लगा कि मैं कितना खराब लेखक हूं. सबसे पहले मुझे लिखना सीखना होगा.

उत्तराखंड का मेरा एक दोस्त प्रेम कहानियों की एक सीरीज कर रहा था. मैंने उसे दो और कहानियों के बीच अपनी कहानी रख कर दे दी. उसे कहानी पसंद आई तो फिर स्क्रीनप्ले और संवाद मैंने ही लिखे. फिर भी लगा कि लेखन पर पढ़ना जरूरी है. बहुत पढ़ने के बाद नए विषय की खोज में निकला. अब्बास टायरवाला के पास एक थ्रिलर कहानी थी ‘मेहमान’. मैं मनोज बाजपेयी से मिला. वह मेरा दोस्त था. उसे बड़ी रेगुलर टाइप की कहानी लगी. उस वक्त मेरे पास हिंदुस्तान-पाकिस्तान के दो सैनिकों की एक कहानी थी. उन्होंने कहा कि इस पर काम करते हैं. वे फिल्म के लिए राजी हो गए. इसी बीच रॉबिन भट्ट ने मुझे अजय देवगन से मिलवा दिया. उन्हें कहानी पसंद आ गई और वे फिल्म प्रोड्यूस करने के लिए तैयार हो गए. फिल्म के गाने रिकॉर्ड हो गए, एक्टर साइन हो गए और लोकेशंस देखी जाने लगीं. मगर इस बीच उनकी ‘राजू चाचा’ फ्लॉप हो गई. एक महीने बाद मेरी फिल्म की शूटिंग थी, लेकिन वह ठप हो गई. उस फिल्म की स्क्रिप्ट और गानों पर मैंने एक साल से अधिक समय तक काम किया था.

उसके बाद मैंने हर डायरेक्टर को कहानी सुनाई. एक्टर कहानी सुनने के नाम पर भाग जाते थे और प्रोड्यूसर मेरी कहानी समझ नहीं पाते थे. मुंबई में ज्यादातर प्रोड्यूसर को नाम समझ में आता है, काम समझ में नहीं आता है. एक साल की कोशिश के बाद भी कुछ नहीं हुआ तो मैं चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी गया. वहां ‘मकड़ी’ की स्क्रिप्ट जमा की. वह उन्हें पसंद आ गई. वह स्क्रिप्ट मजबूरी में मैंने स्वयं लिखी थी. तब मेरे दोस्त अब्बास टायरवाला व्यस्त थे और मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि किसी लेखक को दूं.

‘मकड़ी’ के साथ दूसरे किस्म का हादसा हुआ. फिल्म बन जाने के बाद सोसायटी ने फिल्म रिजेक्ट कर दी. कहा, बहुत ही खराब फिल्म है. मैंने गुलजार साहब और दोस्तों को दिखाई. सभी को फिल्म अच्छी लगी. मैंने फिल्म को स्वयं रिलीज करने का फैसला किया. दोस्तों से पैसे उधार लेकर चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी के पैसे वापस किए. उन दिनों मल्टीप्लेक्स शुरू हो रहे थे. मेरी फिल्म डेढ़ घंटे की थी. ऐसी फिल्म के लिए कोई स्लॉट नहीं था. उसे बेचने और रिलीज करने में नानी याद आ गई. लेकिन ‘मकड़ी’ रिलीज होने के बाद कल्ट फिल्म बन गई और मेरा सफर शुरू हुआ.

यूं तो ‘मकड़ी’ और ‘मकबूल’ भी जैसी मैं चाहता था, वैसी ही बनीं लेकिन उनके बाद अड़चनें कम हो गईं. ‘मकड़ी’ के बारे में ज्यादातर लोग मानते हैं कि वह बच्चों की फिल्म है. ‘मकड़ी’ में मुझे 12 लाख का नुकसान हुआ था. ‘मकबूल’ के साथ मामला अलग हुआ. उसे बनाने के लिए पैसे नहीं मिल रहे थे. एक्टर भी तैयार नहीं हो रहे थे. मैंने तब एनएफडीसी भी संपर्क किया तो उन्हें फिल्म का बजट ज्यादा लगा. मैंने बैंक लोन की कोशिश की तो वह अटका रहा. तभी संयोग से बॉबी बेदी से मुलाकात हो गई. बॉबी बेदी उस फिल्म के निर्माण के लिए तैयार हो गए. उन्होंने कहा कि फिल्म का बजट ज्यादा है, लाभ हुआ तभी तुम्हें पैसे दूंगा. इस तरह मैंने फ्री में ही काम किया. इस फिल्म से मुझे कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ, लेकिन फिल्म पसंद आई और मुझे पांव टिकाने की जगह मिल गई. डायरेक्टर के तौर पर मुझे स्वीकार कर लिया गया. उस फिल्म की वजह से मुझे आमिर खान ने बुलाया. हालांकि वह फिल्म नहीं बन पाई. उसके बाद ‘ओमकारा’ में मेरे साथ सारे एक्टर काम करना चाहते थे.

 हमारे यहां एक अजीब-सा सिस्टम है जिसमें सबके लिए जगह है. ‘इश्किया’ भी हिट होती है और ‘वो आती जवानी रात में’ भी चलती है अब तक मेरी समझ में आ गया था कि यह माध्यम निर्देशक का ही है. निर्देशक गलत भी बोल रहा हो तो सभी को बात माननी पड़ेगी. साथ ही यह भी लगा कि फिल्म मेकिंग से बड़ा कोई क्रिएटिव एक्सप्रेशन नहीं है. यह सारे फाईन आर्ट्स का समागम है. इसमें संगीत, कविता, नाटक, सब कुछ है. फिल्ममेकर होने पर सर्जक की फीलिंग आ जाती है. हां, कभी-कभी तानाशाह भी बनना पड़ता है, लेकिन कभी-कभी बच्चे की तरह सुनना भी पड़ता है. निर्देशक को हर तरह की सलाह और विचार के लिए खुला रहना होता है. आप अपने फैसलों पर दृढ़ रहें, लेकिन अहंकार और डिक्टेटरशिप आ गई तो आपके हाथ से कमान छूट भी सकती है.

लेकिन यहां तक पहुंचना इतना आसान नहीं था. मुझे भी जल्दी अवसर नहीं मिला. लंबा संघर्ष करना पड़ा. एक बात गुलजार साहब ने समझाई थी कि अवसर टारगेट की तरह होते हैं. वह कब आपके सामने आ जाएगा, आपको पता नहीं चलेगा. आपको हमेशा अपनी क्रिएटिविटी की बंदूक लोड करके रखनी होगी. अगर आप यह सोचते हैं कि अवसर आएगा तो गन साफ करके, गोली भरकर, फिर फायर करेंगे तो टारगेट निकल जाएगा. इसलिए हमेशा तैयार रहना होगा और धैर्य भी बनाए रखना होगा.

संघर्ष लंबा तो था लेकिन मुझे लगता है कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बाहर से आने वाले लोगों के जितने विरोधी हैं, उससे ज्यादा समर्थक हैं. मैं अपनी ही फिल्मों की बात करूं तो अब मेरी ऐसी कमाल की जगह बन गई है कि मुझे हिट या फ्लॉप की चिंता नहीं रहती. अब फर्क नहीं पड़ता कि कौन क्या बोल रहा है. सच तो बाहर आ ही जाता है. यह नैचुरल प्रोसेस है. यह सभी के साथ होगा, इसलिए बगैर घबराए ईमानदारी से अपनी सोच पर काम करने की जरूरत है. अगर सभी लोग सड़क पर चल रहे हों और आप निकल कर कच्चे रास्ते पर आ जाएंगे तो लोग कहेंगे कि उल्लू का पट्ठा है. वे आपको खींच कर सड़क पर लाने की कोशिश करेंगे. उन्हें डर रहेगा कि कच्चे रास्ते से ही कहीं यह आगे न निकल जाए. वे चाहेंगे कि हम उनकी चाल में आ जाएं. लेकिन मेरे लिए तो अपना चुना कच्चा रास्ता ही ज्यादा अच्छा है.

लेकिन इस कच्चे का अर्थ डार्क फिल्म नहीं था. यह संयोग से ही हुआ कि मेरी फिल्में डार्क होती हैं. बस लोगों को पसंद आ गईं फिल्में. मुझे मानव मस्तिष्क में चल रही खुराफातें आकर्षित करती हैं. इंसानी दिमाग की अंधेरी तरफ जबरदस्त ड्रामा रहता है. हमलोग सिनेमा में उसे दिखाने से बचते हैं. हम लोग डील ही नहीं कर पाते. मुझे लगता है कि इस पर काम करना चाहिए. अगर ‘मैकबेथ’ और ‘ओथेलो’ चार सौ साल से लोकप्रिय है तो उसकी अपील का असर समझ सकते हैं. सच कहूं तो मैं तो कॉमेडी फिल्म बनाने की पूरी तैयारी कर चुका था. ‘मिस्टर मेहता और मिसेज सिंह’ की स्क्रिप्ट तैयार थी, लेकिन वह फिल्म नहीं बन सकी.

अब भी मैं देश-विदेश की फिल्में देखता रहता हूं. मुझे व्यक्तिगत तौर पर स्कॉरसीज, कपोला, वांग कार वाई और किस्लोवस्की की फिल्में पसंद हैं.

राजकुमार हिरानी की ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ देख कर बहुत जोश आया और प्रेरणा मिली. ‘लगान’ या ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ बना पाना बहुत मुश्किल है जिसमें मुख्यधारा में भी रहंे और अपने सेंस भी ना छोड़ें. आप पूरी डिग्निटी के साथ एक बड़ी फिल्म बना दें, यह बड़ा मुश्किल काम है. दर्शकों में जहां एक्सपोजर है, जहां अच्छी पढ़ाई-लिखाई है, उनकी समझ अलग है. जहां रोटी-पानी के लिए ही दिक्कत है, उनको फिर आप उस तरह से सिनेमा कैसे दिखा सकते हैं? हमारे यहां ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ भी हिट होती है, ‘इश्किया’ भी हिट होती है. ‘वो आती जवानी रात में’, वो भी चलती है अपने लेवल पर. हमारे यहां दर्शकों के तीन-चार प्रकार हैं. एक अजीब-सा सिस्टम है जिसमें सबके लिए जगह है. आप जिस तरह के लोगों से आयडेंटीफाई करते हैं, अगर उन्हीं से आप प्रशंसा चाहते हैं तो फिर आपको उन्हीं के लिए फिल्म बनानी चाहिए.

लेकिन मेरे खयाल से अब भी हिंदी सिनेमा में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है. हम अभी भी जीरो हैं. आप्रवासी भारतीयों की संख्या ज्यादा है. वे फिल्में देखने के लिए ज्यादा पैसे खर्च करते हें. किसी भी फिल्म का बिजनेस 75 और 100 करोड़ हो जाता है, लेकिन क्वालिटी जीरो रहती है. मेरे खयाल से ‘बैंडिट क्वीन’ के बाद कोई भी हिंदी फिल्म इंटरनेशनल स्टैंडर्ड की नहीं बनी है. मीरा नायर की फिल्में अच्छी होती हैं. अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारा कमर्शियल सिनेमा ‘लाफिंग स्टॉक’ ही है. माना जाता है कि हम केवल हंसते-नाचते और गाते रहते हैं. धारणा ऐसी बन गई है कि हमारी फिल्मों को गंभीरता से नहीं लिया जाता. अजीब बात तो यह है कि टोरंटो फेस्टिवल में ‘कभी अलविदा ना कहना’ चुन ली जाती है और ‘ओमकारा’ रिजेक्ट हो जाती है. मैं यह नहीं कहता कि एक ही प्रकार का सिनेमा बने. हर कोई ‘ओमकारा’ बनाने लगेगा तो माहौल रूखा हो जाएगा. लेकिन ऐसा चुनाव मेरी समझ में नहीं आता और मैं कनफ्यूज्ड हो जाता हूं.

इस पर यह और कि मुंबई में जान-पहचान के लोग केवल फिल्मों की ही बातें करते हैं. बचने के लिए मैं अक्सर मुंबई से बाहर निकल जाता हूं. आम आदमी की तरह रहने और जीने की कोशिश करता हूं. टिकट की कतार में लग जाता हूं, किसी रेस्तरां में बैठ जाता हूं. बाहर निकलो तो दुनिया के आम लोगों से मेलजोल होता है और अपनी भी खबर लगती है. पता चलता है कि अभी क्या और कैसे हो रहा है. वैसे तो सूचना के इतने माध्यम आ गए हैं, लेकिन दुनिया से सीधे जुड़ने का अब भी कोई विकल्प नहीं है.

इन दिनों एक बहुत अच्छा परिवर्तन यह आया है कि मल्टीप्लेक्स के आने की वजह से छोटी और गंभीर फिल्में भी हिट हो रही हैं. मुझे लगता है कि राज कपूर के समय में श्याम बेनेगल और सत्यजीत रे की फिल्मों के दर्शक बिल्कुल नहीं थे. अब 25 प्रतिशत दर्शक वैसे हैं. उस वक्त विश्व सिनेमा का बिल्कुल एक्सपोजर नहीं था. यूरोपियन फिल्में आती नहीं थीं. फेस्टिवल में खास प्रतिशत में ही लोग देखते थे. करोड़ों की आबादी में चार हजार लोग ही ढंग की विदेशी फिल्में देख पाते थे. अब एक्सपोजर के बाद दर्शक और फिल्ममेकर दोनों बदले हैं. पहले शायद मजबूरी में राज कपूर को व्यावसायिक फिल्में बनानी पड़ती होंगी. हमें नहीं पता. हो सकता है कि राज कपूर यूरोप में जाकर देखते हों तो उनको लगता हो कि यार मैं ऐसी फिल्में बना पाता, पर मेरे देश में दर्शक ही नहीं हैं यह देखने के लिए. आज वे होते तो बहुत खुश होते.

जादू की क्लिप

हिंदी सिनेमा में स्त्री

 रा.वन की शुरुआत के एक दृश्य में बहुत सारे मेकअप और कम कपड़ों के साथ सलीब पर लटकी प्रियंका ‘बचाओ बचाओ’ की गुहार लगा रही हैं और तब हीरो शाहरुख उन्हें बचाने आते हैं. यह सपने का सीन है लेकिन हमारे सिनेमा के कई सच बताता है. एक यह कि हीरोइन की जान (और उससे ज्यादा इज्जत) खतरे में होगी तो हीरो आकर बचाएगा और इस दौरान और इससे पहले और बाद में हीरोइन का काम है कि वह अपने शरीर से, पुकारों से और चाहे जिस भी चीज से, दर्शकों को पर्याप्त उत्तेजित करे. लेकिन अच्छा यही है कि इज्जत बची रहे और लड़की इस लायक रहे कि हीरो उसे साड़ी पहनाकर मां के सामने ले जा सके.

हिंदी फिल्मों में ‘इज्जत’ सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले शब्दों में से है और जैसा ‘जब वी मेट’ का स्टेशन मास्टर अपनी बिंदास नायिका से कहता भी है कि अकेली लड़की खुली तिजोरी की तरह होती है. यह हैरान करने वाली बात है कि नायिका की इज्जत अगले कुछ ही क्षणों में खतरे में पड़ जाती है और नायक न हो तो अब तक साहसी लग रही नायिका के साथ कुछ भी हो सकता है. इसीलिए वह बार-बार पुरुष के कदमों में गिरती है. अधिकतर जगह नायिका को नायक के बराबर दिखाने वाली ‘बॉबी’ की नायिका भी ‘झूठ बोले कव्वा काटे’ गाने में अपने प्रेमी के पैरों की धूल अपने माथे पर लगाती है. क्योंकि जब वह मायके जाने की बात करती है तो प्रेमी दूसरा ब्याह रचाने को कहता है और लड़की तुरंत कदमों में – ‘मैं मायके नहीं जाऊंगी’.

‘इंसाफ का तराजू’ की जीनत अपने पति से कहती है, ‘हां, शादी के बाद मैं मॉडलिंग नहीं करूंगी.’ ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ की सिमरन कहती है कि सपने नहीं देखूंगी. ‘अभिमान’ की जया कहती है कि गाना नहीं गाऊंगी. बहुत सारी फिल्मों की नायिकाएं खुशी-खुशी नौकरी छोड़ने और बेडरूम के अलावा कहीं भी छोटे कपड़े न पहनने के लिए तैयार हो जाती हैं और ‘साहिब बीवी और गुलाम’ की छोटी बहू कहती है कि जब तक कोठे पर शराब के नशे में धुत्त पड़े पति के पैरों की धूल नहीं मिलेगी, उपवास नहीं तोड़ेगी.

’जो हुक्म मेरे आका’ वाले इस ‘नहीं’ और पैरों की धूल की बात बार-बार होती है. ‘बंदिनी’ की प्रगतिशील लगती नायिका फिल्म के सब मुख्य पुरुष किरदारों के पैर बार-बार छूती है. ‘मुकद्दर का सिकंदर’ के आखिर में जब सिकंदर अपनी रामकहानी सुनाता है तो राखी उसे भगवान कहते हुए पैरों में गिर जाती हैं.

‘कभी कभी’ में राखी और अमिताभ की शादी नहीं हो पाती क्योंकि अमिताभ नहीं चाहते कि अपनी खुशी के लिए मां-बाप को दुखी किया जाए. इसके बाद आखिर तक फिल्म दुखी अमिताभ को नैतिक रूप से ज्यादा सही दिखाती है और राखी के मन में अपराधबोध रहता है. यह अपराधबोध हमारे समाज और सिनेमा की उन सब लड़कियों में भी है, जो खूबसूरत नहीं हैं, जिनके पिता उनकी शादी के लिए दहेज नहीं जुटा पा रहे या जिनकी तथाकथित इज्जत लुट गई है. ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ की जीनत का चेहरा जला हुआ है, इसलिए वह अभागी है और मंदिर में ज्यादा वक्त बिताती है. ‘गाइड’ सबसे विद्रोही फिल्मों में से है, जिसकी नायिका बिना तलाक लिए अपने पति को छोड़ती है और एक गाइड के साथ लिव-इन में रहती है, लेकिन उसमें भी देव आनंद जब वहीदा को अपनी मां के पास ले जाते हैं तो कहते हैं कि मां, यह एक अभागन है.

वे अब भी प्रेम करती हैं और गाने गाती हैं, लेकिन उनके पास जादू की एक क्लिप भी है जिससे वे बाल भी बांधती हैं, ताले भी खोलती हैं और सिर भी

जैसा अमिताभ ‘कभी कभी’ में राखी से कहते हैं, वैसा ही कुछ ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के शाहरुख काजोल से कहते हैं. वह भागना चाहती है, उसकी मां भी चाहती है कि वे भाग जाएं, लेकिन शाहरुख ‘हिंदुस्तानी’ हैं, उन्हें ‘हिंदुस्तानी लड़कियों’ की इज्जत की फिक्र है. लंदन में पली बढ़ी सिमरन भी ‘मेरे ख्वाबों में जो आए’ गाती है और जब ख्वाब वाला आता है, तब कबूतरों को उड़ाते और बेटियों को बांधते बाउजी की पालतू गाय बनकर अपने पंजाब आ जाती है. जहां खूब सरसों है, गाने हैं, खुशी है लेकिन आजादी नहीं है. ऊपर से उसका प्रेमी उसे यह बता रहा है कि तुम अपने पिता की संपत्ति हो इसलिए उनके साइन के बिना तुम्हें नहीं ले सकता. आखिर में मार खाते हुए वह सिमरन को बाउजी को सौंप भी देता है – आपकी अमानत है – और चूंकि हैप्पी एंडिंग है, लड़की अपने प्रेमी के रूप में दूसरे बाउजी के साथ चली जाती है.

यही फिल्मों की अच्छी भारतीय लड़की की परिभाषा है. ‘कुछ कुछ होता है’ के शाहरुख को भी यही चाहिए, इसीलिए माइक्रो मिनी स्कर्ट वाली रानी ‘ओम जय जगदीश हरे’ गाकर अपनी पवित्रता सिद्ध करती हैं. अच्छी लड़कियों को इसी तरह पवित्र रहना होगा क्योंकि जैसा अधिकांश हिंदी फिल्मों की तरफ से ‘जख्मी औरत’ की डिंपल अदालत में कहती हैं कि औरत की इज्जत एक बार लुट गई तो कभी नहीं लौट सकती या ‘इंसाफ का तराजू’ की नायिका कहती है कि औरत के मन की पवित्रता से बड़ी उसके तन की पवित्रता है. यह तब, जब ये फिल्में उन औरतों की कहानियां हैं, जो ‘एंग्री यंग मैन’ के से तेवरों से अपने बलात्कारियों को खत्म करती हैं. इसी साल आई ‘हेट स्टोरी’ की नायिका ऐसे एक हादसे के बाद कहती है कि शहर तो बदला जा सकता है, शरीर नहीं.

हालांकि नायिका की इज्जत तो आम तौर पर बचा ली जाती है, लेकिन नायक की बहनें अक्सर नहीं बच पातीं. वे इस तरह कहानी में मकसद पैदा करती हैं. साथ ही खलनायक या नायक के विरोधी पक्ष के किसी भी आदमी की बेटियां, बहनें किसी बहाने से नायक के करीब आने की कोशिश करें तो उसे उनसे कैसा भी सलूक करने का पूरा हक है. ‘बाजीगर’ में वह उनसे प्यार करके उनकी हत्या कर सकता है और ‘बंदिनी’ में तो खुद नूतन एक औरत की इसलिए हत्या कर देती हैं क्योंकि उनके देशभक्त प्रेमी ने उनसे शादी न करके उस औरत से की. फिल्म उस प्रेमी से कभी सवाल नहीं करती और नूतन ने तो खैर अच्छा काम किया ही.

हीरोइन के नहाने, तैरने या कपड़े बदलने के दृश्य अक्सर उसे चाहने वाले पुरुष की मौजूदगी में और सिर्फ उसकी मौजूदगी में ही होते हंै. ऐसा नहीं कि वह हेलन की तरह आधे-अधूरे कपड़ों में भीड़ के सामने कैबरे में नाचने लगे. तब उसे अपने प्रेमी के साथ कुर्सी पर बैठकर वह नाच देखना चाहिए और जब कैबरे डांसर नाचती हुई आकर प्रेमी को यहां-वहां छुए तो मुस्कुराते रहना चाहिए या ज्यादा से ज्यादा कुछ सेकंड का झूठा गुस्सा दिखाना चाहिए. नायिका ‘शोले’ में खलनायक के सामने नाचेगी तो नायक की जान बचाने के लिए. तब सब चलता है. तब वह ‘चोली के पीछे क्या है’ पर भी नाच सकती है, भले ही वह पुलिस ऑफिसर हो. नायक की जान बचाना महान काम है और उसके जीवन का जरूरी कर्तव्य. इसके बदले में वह कभी भी ‘डर’ के सनी की तरह खून से उसकी मांग भरेगा और कहेगा, ‘तुम कहीं भी जाओ, रहोगी तो किरण सुनील मल्होत्रा ही.’

‘तुम मेरी हो’ का यह अधिकार अनगिनत गानों के बोलों में भी देखा जा सकता है और ‘ब्लड मनी’ के कुणाल खेमू अपने सच्चे प्यार का ऐलान करते हैं, ‘तेरे जिस्म पे, तेरी रूह पे, बस हक है मेरा.’

रूह का तो कहना मुश्किल है, लेकिन नायिका के इसी जिस्म पर हिंदी सिनेमा का इतना हक रहा है कि वह जैसे ही आजाद होकर इसे अपने सुख के लिए इस्तेमाल करना चाहती है तो संस्कृति घोर खतरे में पड़ जाती है. ‘फायर’ इसीलिए प्रतिबंधित होती है. ऐसा शायद नहीं मिलेगा कि स्पष्ट शारीरिक इच्छाओं के साथ भी वह ‘अच्छी’ लड़की के किरदार में हो और हीरो उससे प्यार करे. संभव है कि यह यथार्थ की विडंबना ही हो कि ‘ओए लकी लकी ओए’ की नायिका की बहन कभी हिन्दी फिल्मों की नायिका नहीं हो पाती. ‘जिस्म’ की बिपाशा या ‘गुलाल’ की आयशा मोहन भी शारीरिक पहलें करती हैं लेकिन यह उनके षड्यंत्र का हिस्सा है और इस तरह वे बुरी हैं, भले ही दूसरी वजहों से. ‘रॉकस्टार’ की नरगिस अपनी जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं करती लेकिन हिंदी सिनेमा के लिए यही बड़ी बात है कि हीरोइन हीरो के साथ जाकर ‘जंगली जवानी’ देखे, और वह भी तब, जब वे प्यार न करते हों. इसी तरह ‘ख्वाहिश’ की मल्लिका लाज-शरम को कूड़ेदान में फेंकती है और कंडोम खरीदने जाती है. ‘नो वन किल्ड जेसिका’ एक कदम आगे जाती है और पत्रकार रानी की प्रेमकहानी दिखाए बिना उन्हें एक लड़के के साथ अंतरंग होते हुए दिखाती है. तभी फोन बजता है और सब कुछ बीच में छोड़कर रानी निकल पड़ती हैं. काम प्यार या सेक्स से ज्यादा जरूरी है या नहीं, ऐसा पहले अक्सर पुरुष ही तय करते आए हैं.

लेकिन ऐसा कम है कि वे काम करती हों या उनका काम, प्रेम या पुरुषों से इतर भी कहानी का हिस्सा हो. अस्सी के दशक की कई फिल्मों में हेमा, डिंपल और रेखा पुलिसवाली बनी हैं, लेकिन वे अक्सर औरतों के या अपने ऊपर हुए अन्याय का बदला ले रही होती हैं. अन्याय और उसकी लड़ाई की कहानियों के अलावा स्त्रियों की मजबूत या मुख्य भूमिकाओं वाली फिल्मों में वे सबसे ज्यादा बार वेश्या या नर्तकी होती हैं. और जहां कहानी अपने मुख्य किरदार के लिंग पर निर्भर नहीं है, वहां निन्यानवे फीसदी संभावना है कि पुरुष ही मुख्य भूमिका में होगा. स्त्री की ‘चमेली’, ‘बवंडर’, ‘पाकीजा’ या ‘डर्टी पिक्चर’ तो हैं लेकिन उसकी कोई ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ या ‘रंग दे बसंती’ नहीं. उनमें वह बस सहायक है. यूं तो ‘आवारा’ में नरगिस और ‘ऐतराज’ में करीना वकील बनी हैं लेकिन दोनों का पेशा फिल्म के लिए तभी अहमियत रखता है, जब उन्हें अपने प्रेमियों/पतियों को बचाना हो. आम फिल्मों में वैसे तो उनका पेशा दिखाने की जरूरत नहीं समझी जाती लेकिन दिखाया जाता है तो सबसे ज्यादा बार वे टीचर या डॉक्टर बनती हैं. वे ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी कई फिल्मों में कम्प्यूटर साइंस पढ़ती बताई जाती हैं लेकिन कम्प्यूटर के पास भी नहीं फटकतीं. नायिका को ज्यादा दिमाग के काम करते नहीं दिखाया जाता और अक्सर उसके बेवकूफ होने को उसका ‘क्यूट’ होना कहकर बेचा जाता है. अगर हीरोइन चश्मा लगाती है, खूब पढ़ती है तो या तो फिल्म के अंत तक उसका मेकओवर हो जाएगा और वह आपको एक तड़कते-भड़कते गाने पर नाचकर दिखाएगी या हीरो को दूसरी ‘सुन्दर’ हीरोइन से प्रेम हो जाएगा. चश्मे वाली, पढ़ने-पढ़ाने वाली लड़कियां/औरतें बहुत नाखुश रहेंगी, अतिवादी होंगी और ‘मासूम’ जैसी कई फिल्मों में वे मासूम नायिका को आजादी और स्त्री-समानता जैसी बातों से बरगलाने की भी कोशिश करेंगी लेकिन नायिका झांसे में नहीं आएगी. आखिर में वे लौटकर आएंगी और कहेंगी कि तुम सही थी, पति के बिना जीवन नर्क है. सबक यह कि पढ़ने और सोचने से दिमाग खराब हो जाता है. चश्मा लगाने से चेहरा खराब होता है इसलिए उसे उतरवाने के लिए ‘कल हो न हो’ का शाहरुख जान लगा देगा. इन्हीं सब वजहों से ‘प्यासा’ की माला सिन्हा से ‘चुपके चुपके’ की जया और ‘दिल’ की माधुरी तक वे किताबें लेकर तो बहुत घूमती है, लेकिन उनका खास महत्व नहीं होता. प्यार और शादी के बाद तो बिल्कुल भी नहीं.

अपने करियर में ज्यादा महत्वाकांक्षी होकर ‘आंधी’ या ‘कॉर्पोरेट’ जैसी फिल्मों में वह अपने साथ के पुरुषों जैसे काम करने लगती है तो हारती है, अकेली रह जाती है. यथार्थ क्या सिर्फ इतना ही है या यह उसे सबक है? ‘बन्दिनी’ के अशोक कुमार की वही हिदायत कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने की कोई जरूरत नहीं है, यह तुम्हारे लिए बहुत खतरनाक होगा.

सबक बहुत हैं. मसलन बहुत बार वह गुरूर में होगी और गोविन्दा जैसे नायक उसके गुरूर को जूते तले कुचलकर उसे सुधारेंगे और तब प्यार करेंगे. वह किसी ‘भली’ औरत का घर तोड़ने की कोशिश करेगी तो आखिर में लानतें मिलेंगी और मियां-बीवी खुश रहेंगे, भले ही वह ‘सिलसिला’ हो या ‘बीवी नंबर वन’. सबक ‘प्यार का पंचनामा’ जैसी लड़कों की दोस्ती की फिल्में भी हैं, जिनमें उनके ‘बराबर’ काम करने वाली सब लड़कियां संवेदनहीन और बुरी सिद्ध की जाती हैं और लड़के उन्हें गाली देते हुए उनके बिना खुशी से रहना तय करते हैं. लड़कियों की दोस्ती की इक्का-दुक्का ‘टर्निंग थर्टी’ या ‘आयशा’ हैं लेकिन उनमें जय-वीरू की मिसालें कहां!

खैर, नाउम्मीदी की यह पुरुष-सत्तात्मक उमस तो है लेकिन इसमें समय-समय पर ठंडी हवा के झोंके और कभी-कभी एयर कंडीशनर भी हैं. ‘मदर इंडिया’ है जो भूखी औलाद के लिए खाना लाने को कीचड़ में भी उतर सकती है लेकिन साथ ही उस औलाद के कीचड़ होने पर उसे गोली भी मार सकती है. ‘चक दे इंडिया’ है, जिसकी लड़कियों को उन सब चीजों से लड़ने और जीतने की जिद है जो उन्हें चूल्हों और परदों में झोंकना चाहती हैं. ‘डोर’ की गुल पनाग और ‘कहानी’ की विद्या बालन हैं जो भले ही उस परम कर्तव्य यानी पति की जान बचाने या जान का बदला लेने के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर जाएं, लेकिन औरत होना उनके रास्ते में नहीं आता. शरीर न उनकी बाधा बनता है, न हथियार. दिलचस्प यह है कि उनकी कहानियों में पुरुष वैसे ही चुप और भले सहायक हैं, जैसे औरतें ज्यादातर फिल्मों में रहती आई हैं. ‘लव आजकल’ की नायिका शादी से अगले दिन भी शादी तोड़कर किसी और के पास जा सकती है और इस बार उसे मंडप छोड़कर भागने पर ‘कटी पतंग’ की आशा पारेख की तरह उम्र भर पछताना नहीं पड़ता. ‘अर्थ’ की शबाना और ‘लक बाय चांस’ की कोंकणा को कोई शिकवा नहीं, लेकिन वे अपने पुरुषों के बिना अलग रहना चुनती हैं, और इस निर्णय के बाद वे दुखी नहीं हैं. नई पारो भी अपने शक्की और स्वार्थी देव के बिना रो-रोकर नहीं मरती और शादी कर लेती है. ‘एक हसीना थी’ की उर्मिला, ‘खून भरी मांग’ की रेखा और ‘ओमकारा’ की कोंकणा अपने साथ बुरा करने वाले पुरुषों को खत्म करते हुए इस बात का बिल्कुल लिहाज नहीं करतीं कि वे उनके प्रेमी या पति थे. ‘सात खून माफ’ की प्रियंका तो ऐसा छह बार करती हैं. ‘सीता और गीता’ की हेमा और ‘चालबाज’ की श्रीदेवी एक फिल्म के भीतर ही एक कमजोर औरत को निडर औरत का जवाब हैं. ‘आई एम’ की नंदिता दास को बच्चा चाहिए, लेकिन इसके लिए भी उसे किसी की जरूरत नहीं. ‘जूली’ से लेकर ‘क्या कहना’ तक वे बिना शादी के अकेली अपने बच्चे को पालने को तैयार हैं, लेकिन घुटने टेकने के लिए नहीं. ‘चीनी कम’ की तब्बू और ‘जॉगर्स पार्क’ की पेरिजाद को जब प्यार होता है तो उन्हें अपने प्रेमी की उम्र और समाज की तिनका भर भी परवाह नहीं है. ‘वेक अप सिड’ में वह लापरवाह बच्चे जैसे अपने दोस्त को बेहतर जीना सिखाती है और ‘प्यासा’ में वह एक वेश्या है लेकिन पूरे सभ्य समाज के बीच वही है जो उसके नायक को पहचानती है और उसे उसके लक्ष्य तक पहुंचाती है. ‘देव डी’ की चंदा है जो अपनी मर्जी से वेश्या बनती है और पढ़ती भी है, खुश भी रहती है और ‘शोर इन द सिटी’ बिना झिझक के कहती है कि उसकी गृहिणी नायिका ने ‘द एल्केमिस्ट’ अपने प्रकाशक पति से पहले और बेहतर ढंग से पढ़ी है. ‘जुबैदा’ अपने ऊपर लगे सब तालों को तोड़कर फेंकना चाहती है और ‘मम्मो’ देशों के बीच लगे तालों को. ‘तनु वेड्स मनु’ की कंगना शादी के लिए देखने आए लड़के से पव्वा चढ़ाकर मिलती है, जेसिका छूकर गुजरने वाले मनचलों को गालियां देते हुए मारती है और ‘ये साली जिंदगी’ की चित्रांगदा खुद को मारने वाले अपहरणकर्ता को जान से मार देती है.

वे अब भी प्रेम करती हैं और गाने गाती हैं लेकिन उनके पास जादू की एक क्लिप भी है जिससे वे बाल भी बांधती हैं, ताले भी खोलती हैं और सिर भी. उनकी आवाज अब भी नर्म है लेकिन उन्होंने नाखूनों की धार तेज कर ली है.

बाहर देखिए, उजाला हो रहा है.