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‘सत्यमेव जयते’ का सच

अफसोस, सत्य फिर पराजित होता दिख रहा है

आजाद भारत के निर्माताओं ने पता नहीं क्या सोचकर राष्ट्र का आदर्श वाक्य चुना : ‘सत्यमेव जयते’. इसके साथ ही, थाने-कचहरियों से लेकर तमाम सरकारी इमारतों और दफ्तरों पर तीन सिंहों के सिर वाले अशोक स्तंभ के ठीक नीचे यह आदर्श वाक्य चुन दिया गया : ‘सत्यमेव जयते’. यह और बात है कि इन सरकारी इमारतों में सच का गला सबसे ज्यादा घोंटा गया. समय के साथ सच परेशान ही नहीं, पराजित दिखने लगा. कुछ इस हद तक कि लोगों की निराशा और हताशा बेकाबू होने लगी. उनका गुस्सा अलग-अलग शक्लों में फूटने लगा.

इस तरह स्टेज पूरी तरह सेट हो चुका था. ‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत…’ यानी अब भारत को जरूरत थी एक अवतार की जो उसे इस अधर्म से निकाले और सत्य की जीत में खोई आस्था को बहाल करे. लेकिन अब समय बदल चुका है. यह कलियुग यानी मीडियायुग है. इस युग में अवतार पैदा नहीं होता बल्कि गढ़ा जाता है. अब ईश्वरीय गुणों वाले महानायक देवलोक से नहीं आते, टीवी स्टूडियो या ओबी वैन में जन्म लेते हैं. वे आसमान से नहीं उतरते बल्कि आकाश- तरंगों से घर-घर पहुंच जाते हैं.

इस तरह मीडिया के कंधे पर चढ़ पहले अन्ना हजारे और अब आमिर खान आए हैं, एयरटेल और एक्वागार्ड के सौजन्य से स्टार प्लस और दूरदर्शन पर ‘सत्यमेव जयते’ लेकर. यह कहते हुए कि ‘जब दिल पर लगेगी, तभी बात बनेगी’ .जबरदस्त प्रचार और मार्केटिंग अभियान के साथ शुरू हुए ‘सत्यमेव जयते’ के पहले एपीसोड में आमिर ने कन्या भ्रूण हत्या का मुद्दा जोर-शोर से उठाया.

इस शो में क्या नहीं है? एक ज्वलंत मुद्दा है. ओफ्रा विनफ्रे शैली में पीड़ितों की सच्ची आपबीतियां हैं. आमिर का पर्सनल टच और स्टारडम है. डाॅक्टरों की पोल खोलने वाला एक पुराना स्टिंग और उसके पत्रकारों की हकीकत बयानी है. कन्या भ्रूण हत्या के सामाजिक पहलुओं और डाॅक्टरी खेल पर विशेषज्ञों की राय थी. कुछ तथ्य और तर्क थे और बहुत ज्यादा भावनाएं और आंसू थे. सबसे बढ़कर मुद्दे का तुरत-फुरत और आसान ‘फास्टफूड’ समाधान है. इस तरह दर्शकों के लिए विरेचन (कैथार्सिस) का पूरा इंतजाम है.

नतीजा, जैसा कि दावा था, ‘बात दिल पर ही लगी’ और मीडिया पंडितों की मानें तो ‘बात बन भी गई.’ ‘सत्यमेव जयते’ को टीवी का नया गेम चेंजर माना जा रहा है. किसी को यह व्यावसायिक टीवी पर लोकसेवा प्रसारण की वापसी दिखाई दे रही है. कोई इसे टीवी में सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास जगना बता रहा है. कुछ अति उत्साहियों को इसमें कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ एक नई सामाजिक क्रांति की शुरुआत दिखाई दे रही है. टीवी और आमिर खान को इस सामाजिक क्रांति का माध्यम बताया जा रहा है.

आमिर का ‘सत्य’ उस पितृसत्तात्मक सामंती-पूंजीवादी ढांचे तक नहीं पहुंच पाया जो महिलाओं को समाज में अवांछित या एक वस्तु भर बना देता है

चलिए, मान लिया कि टीवी का ह्रदय परिवर्तन होने लगा है. लेकिन यह भी तो बताइए कि रातों-रात टीवी की अंतरात्मा कैसे जग गई? यह सवाल इसलिए भी है कि कल तक टीवी को उसकी सामाजिक जिम्मेदारी की याद दिलाने पर चैनलों के जो संपादक/प्रबंधक उसे लोगों के मनोरंजन और बहलाव का माध्यम बताते नहीं थकते थे और दुनियावी परेशानियों में उलझे अपने दर्शकों को गंभीर मुद्दों से और परेशान करने के लिए तैयार नहीं थे, उनके अचानक ह्रदय परिवर्तन की वजह क्या है? सवाल इसलिए भी मौजूं है कि महिला अधिकारों और जागरूकता की बातों के बावजूद चैनलों और खुद स्टार पर अब भी सामाजिक रूप से ऐसे अनुदार और प्रतिगामी धारावाहिकों की भरमार है जिनमें महिलाओं की पितृ-सत्तात्मक/सामंती जकड़बंदियों का महिमामंडन होता है.

हैरानी की बात नहीं है कि आमिर के कन्या भ्रूण हत्या पर ‘सामाजिक क्रांतिकारी’ शो का नतीजा शंकराचार्य और धर्मगुरुओं की इस मांग के रूप में सामने आया कि गर्भपात पर पूरी तरह से रोक लगाया जाए. अब यह कौन याद दिलाये कि महिला आंदोलन ने लंबी लड़ाई के बाद अपने शरीर पर अपना हक और बच्चा पैदा करने या न करने का यानी गर्भपात का अधिकार पाया! इस अधिकार का मिलना सामाजिक क्रांति थी. लेकिन यहां तो इसे छीनने की मांग उठने लगी है. लेकिन इसका मौका ‘सत्यमेव जयते’ ने ही दिया है. आखिर कन्या भ्रूण हत्या जैसे जटिल और गंभीर सामाजिक अपराध के लिए आमिर ने कुछ लालची डाॅक्टरों, अल्ट्रासाउंड मशीनों, बेटा चाहने वाले सास-ससुर-पतियों को खलनायक और जिम्मेदार ठहराकर कानून के कड़ाई से पालन और अपराधियों के खिलाफ फास्ट ट्रैक कोर्ट का आसान समाधान पेश कर दिया. गोया जब डाॅक्टर और अल्ट्रा साउंड मशीनें नहीं थीं, बेटियों की हत्याएं नहीं होती थीं! और यह भी कि लोग कुलदीपक क्यों चाहते हैं? जाहिर है कि आमिर का ‘सत्य’ उस पितृसत्तात्मक सामंती-पूंजीवादी ढांचे तक नहीं पहुंच पाया जो महिलाओं को समाज और परिवार में अवांछित या एक वस्तु भर बना देता है. इस ढांचे को तोड़े और चुनौती दिए बगैर कन्या भ्रूण हत्या से लेकर दहेज हत्या तक महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार रोकना मुश्किल है.

लेकिन ‘सत्यमेव जयते’ का सच इससे मुंह चुराता दिखता है? यह व्यावसायिक टीवी की सीमा है. वह सामाजिक क्रांति का नहीं, उपभोक्ता क्रांति का माध्यम है. वह बदलाव का नहीं, यथास्थिति का माध्यम है. वह उसे चुनौती नहीं दे सकता जिससे उसे खाद-पानी मिलता है. इसीलिए वह सत्य में नहीं, आधे-अधूरे और सतही ‘सच’ में हल खोजता है जो वास्तव में हल नहीं, हल का आभास भर होता है.

शाह की बादशाहत

 

जिस तरह के काम इस कंपनी ने किए थे उन्हें देखते हुए स्वाभाविक तो यह होता कि इसे ब्लैकलिस्ट कर दिया जाता. लेकिन सरकारें इस पर मेहरबान रहीं. मामला इन दिनों बहुचर्चित हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट से जुड़ा है. इसके केंद्र में अंडरवर्ल्ड डॉन बबलू श्रीवास्तव के सहयोगी नितिन शाह की भूमिका मुख्य रूप से सामने आ रही है. शाह हत्या के एक मामले में बबलू के साथ सहआरोपी हैं. इस बड़े व्यापारी पर उत्तर प्रदेश की पूर्व बसपा सरकार की कृपा तो रही ही, केंद्र में कांग्रेसनीत सरकार का रुख भी इसके लिए उदार ही दिखता है.

सरकारों की मेहरबानी शाह पर किस तरह बरसती है इसकी एक मिसाल यह है कि उत्तर प्रदेश में वाहनों पर हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट लगाने का ठेका शाह की कंपनी शिमनित उच इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को देने के लिए पूर्ववर्ती बसपा सरकार ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. वह भी तब जब कंपनी ने अपने बारे में सही जानकारी नहीं दी थी और वह इस काम के लिए दूसरे राज्यों की तुलना में कहीं ज्यादा रकम वसूल रही थी. इसके बावजूद तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती की अध्यक्षता में आनन-फानन में बाई सर्कुलेशन जारी करके कंपनी को कैबिनेट से हरी झंडी दे दी गई.

अगर हरियाणा, राजस्थान या अन्य राज्यों में हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट का ठेका लेने वाली कंपनियों की बोली की तुलना करें तो पता चलता है कि शिमनित ने टेंडर के लिए जो कीमत तय की थी वह दूसरे राज्यों की तुलना में कई गुना ज्यादा थी. इसके बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार ने इस तथ्य को नजरअंदाज करके शिमनित उच को ठेका देने की कोशिश की. आखिरकार इस मनमानी के विरोध में कोलकाता की कंपनी सेलेक्स टेक्नोलॉजी प्राइवेट लिमिटेड ने इलाहाबाद हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जिसने टेंडर में खामियां पाते हुए पूरा टेंडर निरस्त कर दिया.

केंद्रीय मोटर गाड़ी नियमावली – 1989 के नियम 50 में मोटर वाहनों में लगने वाले नंबर प्लेट के आकार, रंग और साइज के संबंध में स्पष्ट प्रावधान हैं. अधिकांश राज्यों में यही प्रावधान लागू हैं. साल 2001 में केंद्र सरकार ने इन नियमों में व्यापक फेरबदल किए थे. ऐसा वाहनों की बढ़ती चोरी और आतंकी घटनाओं में चोरी के वाहनों के प्रयोग को देखते हुए किया गया था. इसी बदलाव के तहत तमाम विशिष्टताओं वाली सुरक्षा लाइसेंस प्लेट वाहनों के आगे और पीछे लगाने का नियम भी बनाया गया. इसे हाई सिक्योरिटी रजिस्ट्रेशन प्लेट के नाम से जाना जाता है. देश भर में हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट लगाने के काम में 18 कंपनियां लगी हुई हैं. ये भारत सरकार की ओर से अधिकृत हैं. इन्हीं में से एक कंपनी नितिन शाह की शिमनित उच इंडिया प्राइवेट लिमिटेड भी है.

20 मई, 2011 को बसपा सरकार ने राज्य में हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट की टेंडर की प्रक्रिया शुरू की. इस प्रक्रिया में शिमनित उच इंडिया प्रा. लि. सहित कुल सात कंपनियों ने हिस्सा लिया. एक महीने बाद यानी 20 जून को टेक्निकल बिड सार्वजनिक होनी था. लेकिन अज्ञात कारणवश उस दिन बिड नहीं खोली गई. गड़बड़ी की शुरुआत यहीं से हुई. सरकार ने अगले ही दिन  यानी 21 जून को बिड के संबंध में कुछ नई शर्तें जोड़ दीं. इसमें यह शर्त भी थी कि उसी कंपनी का टेंडर वैध माना जाएगा जिसके पास देश के किसी राज्य में हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट लगाने का कम-से-कम एक साल का अनुभव हो. अचानक थोपी गई इस नई शर्त को परिवहन विभाग के अधिकारी सरकार की चाल मानते हैं. विभाग के अधिकारी दबी जुबान में यह भी बताते हैं कि सरकार ने बेहद चालाकी से पहले सारे टेंडर देख लेने के बाद आखिरी समय में यह खेल खेला था. टेक्निकल बिड खोलने की नई तारीख पांच जुलाई घोषित की गई. इस बार भी शिमनित सहित उन्हीं सात कंपनियों ने टेंडर डाला. उसी दिन कंपनी के प्रतिनिधियों के सामने टेंडर खोला गया. टेंडर खुलने पर शिमनित उच इंडिया प्राइवेट लिमिटेड एवं टान्जेज ईस्टर्न सिक्योरिटी टेक्नोलॉजी प्राइवेट लिमिटेड ही सरकार द्वारा लगाई गई शर्त को पूरा कर सकी.

कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ने परिवहन विभाग के प्रमुख अधिकारियों की एक बैठक बुलाकर शिमनित उच को टेंडर आवंटन का लेटर जारी कर दिया

यहां एक नई कहानी सामने आती है. जिन दो कंपनियों ने एक साल के अनुभव की शर्त पूरी की थी उनमें से शिमनित उच तो शाह की कंपनी है पर दूसरी कंपनी टान्जेज ईस्टर्न सिक्योरिटी प्राइवेट लिमिटेड भी कहीं न कहीं शाह से ही जुड़ी हुई पाई गई. बसपा के एक वरिष्ठ नेता का दावा है कि दोनों ही कंपनियां असल में नितिन शाह की हैं. 23 नवंबर, 2011 को निविदा उपसमिति की तकनीकी मूल्यांकन रिपोर्ट प्रस्तुत की गई. इसके मुताबिक मैसर्स टान्जेज ईस्टर्न सिक्योरिटी ने परिवहन आयुक्त गंगटोक, सिक्किम द्वारा जारी प्रमाण दाखिल किया था जिसके मुताबिक यह कंपनी हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट के क्षेत्र में जुलाई, 2009 से कार्य कर रही थी. इसी तरह शिमनित उच ने परिवहन आयुक्त शिलांग, मेघालय द्वारा जारी प्रमाण पत्र पेश किया था जिसके मुताबिक वह 11 अगस्त 2006 से  हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट के क्षेत्र में काम कर रही थी. बाद में यह कंपनी नागालैंड में इस क्षेत्र में काम करती रही जिसका कार्यकाल 15 जून, 2011 से शुरू होता था.

टेंडर दाखिल करने की एक अनिवार्यता और भी थी. इसके मुताबिक टेंडर डालने वाली कंपनी के लिए यह जरूरी था कि उसका कोई टेंडर किसी अन्य राज्य में कभी निरस्त न हुआ हो. पर शाह की कंपनी शिमनित उच ने टेंडर फॉर्म में उक्त कॉलम में कोई जानकारी नहीं दी. जबकि दस्तावेज बताते हैं कि उसका टेंडर गोवा, कर्नाटक और राजस्थान में विभिन्न अनियमितताओं के कारण रद्द हो चुका था. सूत्र बताते हैं कि गोवा में सत्तारूढ़ नई भाजपा की सरकार ने तो शाह की कंपनी के खिलाफ आपराधिक मामले की जांच तक शुरू कर दी है. बाद में जब टेंडर कमेटी के सामने जब इस बात का खुलासा हुआ कि शिमनित उच ने फॉर्म में कई तथ्यों को छिपाया है और टेंडर की शर्तों का उल्लंघन किया है तो उसे राज्य के न्याय विभाग की ओर से कारण बताओ नोटिस जारी किया गया. न्याय विभाग ने पूछा कि कर्नाटक एवं गोवा सरकार द्वारा शिमनित उच इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के टेंडर खारिज करने की जानकारी कंपनी ने क्यों छिपाई. उसका यह कृत्य न्याय विभाग के अनुसार धोखाधड़ी के दायरे में आता है.

इसके जवाब में कंपनी ने न्याय विभाग को बताया कि कर्नाटक एवं गोवा सरकार ने हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट लगाने संबंधी करार पर आपत्ति जताई है लेकिन दोनों ही मामले अदालत में विचाराधीन हैं. कंपनी के इस जवाब पर न्याय विभाग ने टिप्पणी की कि कंपनी को स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख करना चाहिए था कि किन कारणों से उनके करार पर राज्य सरकारों ने आपत्ति जताई थी और वर्तमान में उनकी विधिक दशा क्या चल रही है. इस लिहाज से कंपनी ने फॉर्म में असत्य कथन किया है. कहने का अर्थ यह है कि न्याय विभाग ने कहीं न कहीं शिमनित उच को दोषी पाया और गलतबयानी के चलते उसका टेंडर निरस्त होना चाहिए था.

पर हैरानी की बात है कि इसी न्याय विभाग ने कुछ ही दिन बाद अपना रुख बिल्कुल बदल लिया. न जाने ऐसी कौन-सी स्थितियां बनीं कि राज्य के प्रमुख सचिव न्याय ने शिमनित के उक्त कृत्य को धोखाधड़ी की गतिविधि मानने से ही इनकार कर दिया. पहले जहां न्याय विभाग ने अपने दस्तावेजों में शिमनित की गतिविधि को गड़बड़ माना था बाद में उसे सही मान लिया और उसे धोखाधड़ी मानने से इनकार कर दिया.

इतनी सारी गड़बड़ियों के बावजूद इस प्रस्ताव को 21 दिसंबर, 2011 को मंत्रिपरिषद के सामने मुख्यमंत्री के आदेशानुसार भेज दिया गया. परिवहन विभाग की ओर से तैयार किए गए अनुमोदन में बताया गया कि निविदा समिति द्वारा टेक्निकल बिड में योग्य पाई गई दो कंपनियों को अब फाइनेंशियल बिड हासिल करनी है. 21 दिसंबर, 2011 को फाइनेंशियल बिड खोली गई. इसमें शिमनित की दरें दूसरी कंपनी से कम पाई गईं.  परिवहन विभाग ने मंत्रिमंडल को अवगत कराया कि उनके पास इस कार्य हेतु अन्य राज्यों द्वारा स्वीकृत दरें उपलब्ध नहीं हैं, इस वजह से यह जांचना संभव नहीं है कि शिमनित द्वारा दी गई न्यूनतम दरें उचित हैं या नहीं. गौरतलब है कि उस समय शिमनित उच कंपनी की न्यूनतम निविदा का वेटेड एवरेज 530.17 रु था. जबकि उसी समय तमिलनाडु में शिमनित का एवरेज 102.74 रुपये का था. यानी उसी काम के लिए उत्तर प्रदेश में कंपनी पांच गुना से भी ज्यादा पैसा वसूलना चाहती थी.

हाल ही में जब सपा सरकार ने नए सिरे से ठेका आवंटित करने के लिए कंपनियों की बैठक की तो उसमें शिमनित के प्रतिनिधि भी मौजूद थे

टेंडर समिति ने अपनी संस्तुति में कहा कि परिवहन विभाग पहले अन्य राज्यों में चल रही दरों की सूचना जुटाए और इसके बाद न्यूनतम निविदादाता से मोलभाव करके अंतिम दर तय करे. इन टिप्पणियों को परिवहन मंत्री को दिखाने के बाद मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिमंडलीय समिति के सामने प्रस्तुत किया गया. समिति ने यह प्रस्ताव परिवहन विभाग के पास यह कहते हुए भेज दिया कि वह सात दिन के भीतर निर्णय लेकर सरकार को बताए.

लेकिन मंत्रिमंडल में एक तरह से शिमनित का टेंडर पास हो जाने के बाद परिवहन विभाग ने अन्य राज्यों से रेट लेने की जहमत तक नहीं उठाई. विभाग के सूत्र बताते हैं कि सरकार के दबाव में 22 दिसंबर को ही कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह के सचिवालय स्थित कक्ष में परिवहन विभाग के प्रमुख सचिव सहित कई बड़े अधिकारियों की एक बैठक बुलाई गई. इसके तुरंत बाद शिमनित उच को टेंडर आवंटन का लेटर जारी कर दिया गया. बाई सर्कुलेशन द्वारा जिस प्रस्ताव को पास करके एक सप्ताह का समय सरकार की ओर से दिया गया था उसका भी इंतजार करने की जरूरत नहीं समझी गई. कंपनी की ओर से अंतिम वेटेड एवरेज रेट 425.27 रुपये तय कर दिया गया. कैबिनेट सचिव की बैठक के बाद ही कंपनी को अनुबंध पत्र भी जारी कर दिया दिया.

दिलचस्प बात यह है कि ठेके की इस प्रक्रिया में अब तक जितनी भी कमियां उजागर हुई थीं वे सब मुख्यमंत्री की अगुवाई में हुई कैबिनेट की बैठक में रखी गईं. लेकिन न तो मुख्यमंत्री मायावती और न ही किसी मंत्री ने इस पर कोई आपत्ति दर्ज कराई. जब कोलकाता की कंपनी सेलेक्स टेक्नोलाजी मामला लेकर हाई कोर्ट गई तब अदालत ने ठेका रद्द किया.

हैरानी की बात यह भी है कि शिमनित का ठेका रद्द होने के बाद भी उसे आगे बोली लगाने से रोका नहीं जा सकता. हाल ही में जब समाजवादी पार्टी की सरकार ने नए सिरे से हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट का ठेका आवंटित करने के लिए कंपनियों की बैठक की थी तब उसमें शिमनित के प्रतिनिधि भी मौजूद थे. राज्य के एक बड़े अधिकारी बताते हैं कि शाह इस सरकार में भी अपनी पैठ बनाने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं. वे इसके लिए लखनऊ की यात्रा भी कर चुके हैं. उन्होंने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलने के लिए कई लोगों से संपर्क किया लेकिन सफल नहीं हुए. इस दौरान सपा के एक मंत्री से भी शाह की मुलाकात के चर्चे हैं.

सवाल उठता है कि आखिर इतनी गड़बड़ियों के बावजूद आखिर क्यों शिमनित को ब्लैकलिस्ट नहीं किया जा रहा है.  एसोसिएशन ऑफ रजिस्ट्रेशन प्लेट मैनुफैक्चरर्स ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रवि सोमानी कहते हैं,  ‘शाह पर उत्तर प्रदेश सरकार ही मेहरबान नहीं है बल्कि केंद्र सरकार उसकी सबसे बड़ी ढाल बन गई है. तीन-तीन राज्यों में शाह की कंपनियों का ठेका निरस्त होने के बावजूद उसे केंद्र सरकार ने ब्लैक लिस्ट नहीं किया है. हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेट लगाने संबंधी प्रमाणपत्र जारी करने का काम केंद्र सरकार का ही है. राज्यों से इसका कोई लेना-देना नहीं. ऐसे में केंद्र से शिमनित उच को बार-बार क्लीन चिट मिलना केंद्र सरकार की ईमानदारी पर भी सवाल खड़े करता है.’

 

सड़न के संकेत

डेंटल काउंसिल ऑफ इंडिया या भारतीय दंत चिकित्सा परिषद (डीसीआई) जिस ढर्रे पर चलती दिखती है उससे तो लगता है कि इसे खुद ही फौरन किसी चिकित्सा की जरूरत है. देश भर में दंत चिकित्सा और इसकी पढ़ाई कराने वाले संस्थानों के नियमन के मकसद से 12 अप्रैल, 1949 को स्थापित इस संस्था पर आज कई तरह की अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं.

डीसीआई का एक अहम काम है देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे डेंटल कॉलेजों को मान्यता देना. इसकी मान्यता के बगैर कोई भी कहीं डेंटल कॉलेज नहीं चला सकता. आरोप है कि कॉलेजों को मान्यता देने के मामले में डीसीआई नियम-कानूनों का पालन नहीं कर रही और गलत ढंग से मान्यता देने व रद्द करने का खेल चला रही है. इसकी वजह है इसके अधिकारियों का भ्रष्टाचार में लिप्त होना.

वैसे डीसीआई पर भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के आरोप नए नहीं हैं. कुछ समय पहले तक डॉ अनिल कोहली इसके अध्यक्ष हुआ करते थे. जब उनके खिलाफ शिकायतों का पिटारा सीबीआई के पास पहुंचा तो जांच एजेंसी ने कोहली के कई ठिकानों पर छापामारी की थी. उन पर यह आरोप था कि उन्होंने गलत ढंग से डेंटल कॉलेजों को मान्यता दी और इस खेल में काफी पैसे बनाए. इन आरोपों की वजह से ही कोहली को डीसीआई का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था. हालांकि, यह बात और है कि कई ठिकानों पर छापेमारी और कई तरह के आरोपों के बावजूद आज तक सीबीआई कोहली का कुछ कर नहीं पाई है.

कोहली के डीसीआई के अध्यक्ष पद से हटने के बाद नए अध्यक्ष के तौर पर कोलकाता के डॉ आर अहमद डेंटल कॉलेज के प्राचार्य डॉ दिव्येंदु मजूमदार ने काम-काज संभाला. डीसीआई से जुड़े सूत्र बताते हैं कि तब उम्मीद जगी थी कि कोहली के कार्यकाल में परिषद के काम-काज पर जिस तरह के दाग लगे हैं, मजूमदार उन्हें मिटाने का काम करेंगे. लेकिन आज ये लोग नाराज हैं. इनका आरोप है कि डीसीआई में व्याप्त अनियमितताएं अब तक खत्म नहीं हुई हैं.

मजूमदार पर आरोप है कि उन्होंने कॉलेजों को मान्यता देने के मामले में पक्षपात की नीति को बढ़ावा दिया है. सूत्रों के मुताबिक जिस कॉलेज ने भी मजूमदार को खुश किया उसे मान्यता मिलने में देर नहीं हुई लेकिन जिसने भी उनकी बात नहीं मानी उसकी मान्यता में डीसीआई ने कई रोड़े अटकाए. इन आरोपों की पड़ताल के दौरान तहलका को जो दस्तावेजी सबूत मिले हैं उनसे भी डीसीआई की मान्यता संबंधी निर्णय प्रक्रिया में अनियमितता के आरोपों की पुष्टि होती है.

एक ऐसा ही मामला है बिहार की राजधानी पटना के बीआर अंबेडकर इंस्टीट्यूट ऑफ डेंटल साइंसेज ऐंड हॉस्पिटल का. इसके संस्थापक राघवेंद्र नारायण राय हैं. बताते हैं कि एक बार किसी बात को लेकर राघवेंद्र नारायण राय और मजूमदार के बीच कहा-सुनी हो गई थी. इसके बाद मजूमदार ने यह सुनिश्चित कराया कि इस कॉलेज को फिर मान्यता नहीं मिले. 27 अप्रैल, 2011 को डीसीआई की एक समिति ने इस कॉलेज की निरीक्षण रिपोर्ट तैयार की. इस दो सदस्यीय जांच समिति में नागपुर के डॉ. रामकृष्ण शिनॉय और नवी मुंबई के डॉ ओंकार शेट्टी शामिल थे. इस रिपोर्ट पर चर्चा करके इसके आधार पर किसी निर्णय पर पहुंचने के मकसद से 14 मई, 2011 को डीसीआई की कार्यकारी समिति की एक बैठक हुई. इस बैठक में इस रिपोर्ट के अलावा इस डेंटल कॉलेज के प्राचार्य की 26 अप्रैल, 2011 की उस चिट्ठी पर भी चर्चा हुई जिसमें उन्होंने स्वास्थ्य मंत्रालय से डीसीआई को यह निर्देश देने का भी आग्रह किया था कि आगे कोई निरीक्षण न करवाया जाए. इसके बाद 14 जून, 2011 को डीसीआई ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को एक पत्र लिखा जिसमें सिफारिश की गई कि रिपोर्ट और प्राचार्य के पत्र के आधार पर डीसीआई की कार्यकारी समिति ने यह फैसला किया है कि कॉलेज को 2011-12 सत्र में नए छात्रों को दाखिला देने की अनुमति नहीं दी जाए.

जो डीसीआई एक दिन पहले पटना के इस कॉलेज को नया बैच शुरू करने लायक नहीं समझ रही थी, उसी डीसीआई का रुख एक दिन में ही बिल्कुल पलट गया

फिर अचानक अगले दिन यानी 15 जून, 2011 को जो हुआ वह डीसीआई के कामकाज में अनियमितता और पक्षपात के आरोपों की पुष्टि करता हुआ दिखता है. 15 जून को डीसीआई ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को जो पत्र लिखा उसमें 14 जून के पत्र के फैसले को पलटने की सिफारिश की गई और कहा गया कि इस कॉलेज को नए सत्र में छात्रों को दाखिला देने की अनुमति दी जानी चाहिए. तहलका के पास इन दोनों पत्रों की प्रति है. इनसे पता चलता है कि जो डीसीआई एक दिन पहले पटना के इस कॉलेज को इस लायक नहीं समझ रहा था कि वह नया बैच शुरू कर सके उसी डीसीआई को एक दिन बाद यह लग रहा था कि कॉलेज सभी मानकों को पूरा करता है इसलिए उसे नए बैच में छात्रों के दाखिले के लिए अनुमति दी जानी चाहिए. 24 घंटे के अंदर रुख में इस तरह का बदलाव इस ओर इशारा करता है कि संस्था की निर्णय लेने की प्रक्रिया में सब कुछ ठीक नहीं है.

वैसे यह कोई अकेला मामला नहीं है जिसमें डीसीआई ने बहुत कम समय में अपने ही फैसले को पलट दिया हो. बिहार के दरभंगा के सरजुग डेंटल कॉलेज के मामले में भी डीसीआई ने यही किया. इस कॉलेज का निरीक्षण भी 28 अप्रैल, 2011 को रामकृष्ण शिनॉय और ओंकार शेट्टी की दो सदस्यीय समिति ने ही किया था. इस समिति की रिपोर्ट पर चर्चा करने और कोई फैसला करने के लिए डीसीआई की कार्यकारी समिति की बैठक 30 मई, 2011 को हुई. इस समिति के निर्णयों से कॉलेज को अवगत कराने के लिए डीसीआई की तरफ से सात जून, 2011 को एक पत्र कॉलेज को भेजा गया. इसके मुताबिक निरीक्षण में यह पाया गया था कि कॉलेज के पास बुनियादी सुविधाओं व उपकरणों का घोर अभाव है, इलाज में इस्तेमाल होने वाली सामग्री अपर्याप्त है और निरीक्षण के दिन कई प्राध्यापक और शिक्षक मौजूद नहीं थे. पत्र में यह भी लिखा गया कि कॉलेज के कई प्राध्यापक और शिक्षक ऐसे हैं जिनकी उम्र तय सीमा से अधिक है.

लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से ठीक एक सप्ताह बाद यानी 14 जून, 2011 को डीसीआई ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को पत्र लिखकर यह बताया कि दरभंगा के सरजुग डेंटल कॉलेज एक स्थापित डेंटल कॉलेज के बुनियादी ढांचे से संबंधित सारे मानकों को पूरा करता है इसलिए इस कॉलेज को नए सत्र में छात्रों को दाखिला देने की अनुमति दी जानी चाहिए. तहलका के पास इन दोनों पत्रों की प्रति है. डीसीआई ने यह भी लिखा कि यह कॉलेज स्थापित डेंटल कॉलेज की श्रेणी में आता है इसलिए नए सत्र में दाखिले की मंजूरी देने के लिए इस कॉलेज के निरीक्षण की जरूरत ही नहीं है.

अब सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर कैसे इस कॉलेज ने एक सप्ताह के भीतर उन सारी खामियों को दूर कर लिया जिन पर डीसीआई ने सवाल उठाए थे. सवाल यह भी उठता है कि एक सप्ताह के भीतर आखिर क्या हुआ कि संस्था का रुख बिल्कुल बदल गया. जो डीसीआई एक सप्ताह पहले निरीक्षण के आधार पर खामियों को रेखांकित कर रहा था, उसी ने एक सप्ताह बाद न सिर्फ इस कॉलेज को नए सत्र में दाखिला देने की अनुमति देने की सिफारिश की बल्कि यह भी कहा कि इस कॉलेज को तो निरीक्षण की भी कोई जरूरत नहीं है. हफ्ते भर के भीतर अपना ही फैसला खुद पलट देना डीसीआई में व्याप्त गड़बडि़यों की ओर इशारा करता है.

सूत्रों के मुताबिक ये दो उदाहरण इस बात के हैं कि तमाम आपत्तियों के बावजूद अगर डीसीआई और खास तौर पर उसके अध्यक्ष दिव्येंदु मजूमदार प्रसन्न हो जाएं तो किसी कॉलेज को मान्यता मिलने में देर नहीं होती.

डीसीआई में व्याप्त अनियमितता का दूसरा पहलू यह है कि जो कॉलेज डीसीआई अधिकारियों की इच्छाओं को पूरा नहीं करते उन्हें मान्यता देने के लिए तरह-तरह से परेशान किया जाता है. इसका उदाहरण है बिहार में दरभंगा जिले में बहेड़ा का डॉ नकी इमाम डेंटल कॉलेज. इसके संचालक जफर इमाम हैं. इमाम ने पहले भी डीसीआई में व्याप्त अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई थी. उन्होंने इसकी शिकायत न सिर्फ केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद से की थी बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी पत्र लिखा था.

यह भी आरोप है कि जो कॉलेज डीसीआई अधिकारियों की इच्छाओं को पूरा नहीं करते उन्हें मान्यता देने के लिए तरह-तरह से परेशान किया जाता है

इमाम ने बाकायदा शपथ पत्र देकर कहा था कि डीसीआई में किस तरह से धांधली और भ्रष्टाचार का दबदबा है. उन्होंने बताया था कि डेंटल कॉलेजों को मान्यता देने में डीसीआई ने किस तरह से नियमों की अनदेखी की है और भ्रष्ट तरीकों से कॉलेजों को मान्यता देने का काम किया है. अपने शपथ पत्र में उन्होंने इन मामलों की निष्पक्ष जांच की मांग करते हुए कहा था, ‘मैं शपथ पत्र देकर ये आरोप लगा रहा हूं इसलिए अगर मेरे आरोप गलत साबित होते हैं तो आप मुझ पर कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं.’ जाहिर है कि यह बात डीसीआई के अधिकारियों को नागवार गुजरी. खास तौर पर इसलिए भी कि डीसीआई की मान्यता से ही डेंटल कॉलेज चलाने वाले व्यक्ति ने ऐसा किया था.

इसके बाद से डीसीआई ने लगातार इमाम के कॉलेज की मान्यता अटकाने का काम किया. इस संस्थान को केंद्र सरकार ने 2007 में स्पष्ट तौर पर बताया था कि इस कॉलेज को तब तक हर साल निरीक्षण की प्रक्रिया से गुजरना होगा जब तक 2007 बैच के छात्र अपनी आखिरी परीक्षा न दे दें. इस निरीक्षण का आधार 1993 में तय मानक होंगे. इसी आधार पर कॉलेज ने डीसीआई को निरीक्षण कराने के लिए पत्र लिखा और 25 जनवरी, 2012 की तारीख अपनी तरफ से प्रस्तावित की. कॉलेज की तरफ से यह तारीख इसलिए दी गई कि अंतिम परीक्षा इसी दिन से शुरू होनी थी. यह कॉलेज दरभंगा के ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय से संबद्ध है. 24 जनवरी, 2012 को डीसीआई ने सीधे विश्वविद्यालय को पत्र लिखकर उससे परीक्षा की तिथि बढ़ाने और नई तिथि की सूचना कम-से-कम तीन सप्ताह पहले देने को कहा. इस पर अमल करते हुए विश्वविद्यालय ने परीक्षा की नई तिथि 27 फरवरी, 2012 तय की और इसकी सूचना 6 फरवरी, 2012 को डीसीआई को दे दी.

इसके बाद डीसीआई ने 24 फरवरी को नकी इमाम डेंटल कॉलेज को पत्र लिखकर बताया कि आपके कॉलेज का निरीक्षण 27 फरवरी, 2012 को कराया जाएगा. लेकिन कॉलेज प्रबंधकों का कहना है कि निरीक्षण करने के लिए दो सदस्यीय टीम 25 फरवरी को ही कॉलेज पहुंच गई और उन्होंने 1993 के मानकों की बजाय नए मानकों के आधार पर निरीक्षण करने की बात कही. इस पर कॉलेज प्रबंधन का पक्ष यह था कि उनकी मान्यता में पुराने यानी 1993 के मानकों की बात की गई है. इस सबके बीच इस निरीक्षण दल ने अपना काम पूरा किया.

इसके दो दिन बाद यानी पहले से तय 27 फरवरी की तारीख पर फिर से डीसीआई की एक टीम निरीक्षण के लिए पहुंच गई. इसने भी अपना काम किया. इसके बाद 28 फरवरी, 2012 को डीसीआई ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के पास यह अनुशंसा भेज दी कि 25 फरवरी के निरीक्षण के आधार पर डीसीआई का यह मत है कि इस कॉलेज को नए सत्र में दाखिला देने की अनुमति नहीं दी जाए. डीसीआई ने अपनी अनुशंसा में 25 फरवरी के निरीक्षण का जिक्र तो किया लेकिन 27 फरवरी के निरीक्षण का कोई जिक्र नहीं किया.

इससे कई सवाल खड़े होते हैं. पहली बात तो यह कि आखिर डीसीआई ने पहले से अपने ही द्वारा निरीक्षण की तय तारीख को क्यों बदला? जब इस कॉलेज को मान्यता देते समय ही यह साफ कर दिया गया था कि इसे पहले 1993 के मानकों को पूरा करना है तो फिर पहले निरीक्षण में नए मानकों को आधार बनाने का मतलब क्या है? जब एक निरीक्षण दल ने 25 फरवरी को निरीक्षण पूरा कर लिया तो फिर 27 फरवरी को दूसरा निरीक्षण दल भेजने का क्या औचित्य है? अगरा दूसरा निरीक्षण दल भेजा गया तो फिर इसकी जांच रिपोर्ट को भी अनुशंसा का आधार क्यों नहीं बनाया गया? आखिर क्यों सिर्फ पहले निरीक्षण दल की रिपोर्ट के आधार पर  अनुशंसा कर दी गई? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो इस ओर इशारा करते हैं कि देश में दंत चिकित्सा और इसे पढ़ाने वाले संस्थानों के नियमन के लिए गठित डीसीआई में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है.

तमाम आरोपों पर डीसीआई का पक्ष जानने के लिए ‘तहलका’ ने संस्था के अध्यक्ष मजूमदार से संपर्क करने की कोशिश की. लेकिन उनसे बार-बार यही जवाब मिला कि वे अभी व्यस्त हैं.

तो आखिर में सवाल यही कि डीसीआई पर उठते सवालों का जवाब कौन देगा.

 

'मुझे ईश्वर से काफी मानसिक शक्ति मिली है'

मणिपुर में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफ्स्पा) नाम का कठोर कानून हटाने को लेकर इरोम शर्मिला का आमरण अनशन अपने बारहवें वर्ष में प्रवेश कर चुका है. सालों के उपवास का असर उनके क्षीण शरीर पर साफ दिखता है. इसके बावजूद उनकी दृढ़ता और अपने उद्देश्य के प्रति उनके समर्पण में जरा भी कमी नहीं आई है. उर्मि भट्टाचार्य के साथ हुई उनकी बातचीत के अंश

बारह साल से आपने अन्न-जल त्याग रखा है. नाक के रास्ते जबरन आपको खाना दिया जाता है. सामान्य आदमी के लिए यह संभव नहीं है. आप कैसे कर पाती हैं?

मुझे ईश्वर से काफी मानसिक शक्ति मिली है. एक बार अगर आप किसी लक्ष्य पर अपना ध्यान केंद्रित कर लें तो कोई भी चीज आपको भटका नहीं सकती, भूख भी नहीं. यह ध्यान जैसी स्थिति है. मुझे अपने अंतर में ईश्वर की अनुभूति होती है. उस ईश्वर की जो मुझे मानवता, सच्चाई और प्रेम के लिए संघर्ष करने की ताकत देता है. देर-सबेर महात्मा गांधी की इस धरती से अफ्स्पा हटेगा. 

आपकी दृढ़ता बहुत-से लोगों की प्रेरणा है, पर आप किससे प्रेरित होती हैं? क्या आपने किसी को अपना आदर्श बनाया है?

(मुस्कुराते हुए) मैंने उन तमाम योगियों की जीवनगाथा पढ़ी है जिन्होंने सालों साल तक हिमालय में चिंतन-मनन किया. स्वामी राम द्वारा लिखी गई ‘लिविंग विद द हिमालयन मास्टर्स’ नाम की किताब का मुझ पर काफी प्रभाव है. उनके वास्तविक जीवन के अनुभवों से मुझे बड़ी प्रेरणा मिलती है. मुझे पता है कि हर घटना के पीछे कोई न कोई मकसद होता है. मुझे थोड़ा धैर्य रखना चाहिए और सच की लड़ाई में कभी हार नहीं माननी चाहिए.

आपको मणिपुर की लौह महिला कहा जाता है. यह संबोधन आपको अच्छा लगता है?

मैं मणिपुरी लोगों के लिए जी रही हूं, वही मेरी ताकत हैं. अगर वे मेरी कोशिशों को स्वीकार कर रहे हैं तो मुझे खुशी है. इससे मुझे अपनी जिम्मेदारियों का अहसास और बढ़ जाता है. मेरी प्रार्थना है कि मेरे प्रयास उन्हें न्याय दिला सकें.

‘मणिपुर से अफ्स्पा का उन्मूलन भ्रष्टाचार खत्म करने की दिशा में पहला कदम होगा. इससे राज्य में स्वस्थ लोकतंत्र का रास्ता तैयार होगा’

आपके व्यक्तिगत रिश्तों को लेकर तमाम खबरें उड़ीं. इस वजह से आपके राज्य में काफी खलबली भी मची. इस पर क्या कहेंगी?

मेरी समझ में नहीं आता कि इससे मेरा मकसद कैसे प्रभावित होता है. मैं इस पर ध्यान नहीं देती. अगर मीडिया वास्तव में संवेदनशील है तो उसे इस मकसद के लिए आवाज उठानी चाहिए. यहां लोग कष्ट में हैं, हम ऐसी तुच्छ बातों पर समय बर्बाद नहीं कर सकते. 

आपके निरंतर प्रतिरोध के बावजूद सरकार इस कानून को हटाने की इच्छुक नहीं दिखती. क्या आपका विरोध धीमा पड़ रहा है? क्या विरोध के अहिंसावादी तरीके में आपका अभी भी विश्वास है?

ऐसा नहीं है, विरोध अब और भी फैल रहा है. भले ही सरकार इच्छुक नहीं दिख रही हो लेकिन हाल के दिनों तक जिस अफ्स्पा के बारे में ज्यादातर लोगों को कुछ पता ही नहीं होता था आज देश का हर आदमी उस बर्बर कानून के बारे में जानता है. सरकार भी अंतत: इसे स्वीकार करेगी. मैं कभी भी अहिंसा का रास्ता नहीं छोड़ूंगी. 

आप बारह साल से आमरण अनशन कर रही हैं. क्या कभी कोई क्षण ऐसा आया जब आपको निराशा ने घेर लिया हो?

मैं हमेशा सकारात्मक सोचती हूं. जब तक हमारे यहां सामाजिक बुराई और भ्रष्टाचार है मेरा संघर्ष जारी रहेगा. सच्चाई पर मेरी आस्था है और यही मुझे प्रेरित करती है. लोग इस बात को समझ रहे हैं और जल्द ही स्थितियां बदलेंगी. 

राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखते हुए क्या आपको लगता है कि यह कानून हटने से मणिपुर के लोगों के अधिकार बहाल हो जाएंगे?

अफ्स्पा हटने भर से मानवाधिकारों का उल्लंघन, सामाजिक पतन और भ्रष्टाचार नहीं रुकेगा. हालांकि यह भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में पहला कदम होगा और इससे राज्य में स्वस्थ लोकतंत्र का रास्ता तैयार होगा. यहां लोगों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है लेकिन फिर भी उन्हें नौकरी पाने के लिए घूस देनी पड़ती है.    

कहा जा रहा था कि आपके आंदोलन के मुकाबले अन्ना हजारे के आंदोलन को जरूरत से ज्यादा तवज्जो दी गई. आपको क्या लगता है?

अन्ना के आंदोलन को शायद ज्यादा तवज्जो मिली हो क्योंकि लोगों ने खुद को इससे जुड़ा पाया. सभी राज्यों ने अफ्स्पा के बर्बर रूप को नहीं झेला है. इसकी आड़ में सेना किसी के भी घर में बिना किसी वारंट के घुस सकती है और जो चाहे मनमानी कर सकती है. मुझे पूरा विश्वास है कि अगर हर भारतीय यह देख ले कि उग्रवाद पर काबू पाने के नाम पर किस तरह बलात्कार, हत्या और यातना जैसी चीजें होती हैं तो उसकी रूह कांप जाएगी. मैं केंद्र सरकार के दमनात्मक रवैये के भी खिलाफ हूं क्योंकि कानून की निगाह में हम सभी बराबर हैं.

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में भारत से आग्रह किया गया है कि वह अफ्स्पा हटाए?

मुझे खुशी है कि उन्होंने अफ्स्पा को स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरा माना है. मुझे उम्मीद है कि हमारी सरकार इस संदेश को गंभीरता से लेगी. मैं ज्यादा से ज्यादा आरटीआई कार्यकर्ताओं से अपील करती हूं कि वे यहां आएं और यहां फैले अन्याय और कुशासन को सार्वजनिक करें.

धोखाधड़ी से डॉक्टरी

 

यदि आपका बच्चा पढ़ने में कमजोर हो, 10वीं या 12वीं थर्ड डिवीजन में पास हुआ हो, आप उसे डॉक्टर बनाना चाहते हों लेकिन यह भी समझते हों कि वह मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में पास नहीं हो पाएगा तो चिंता न करें. आपका यह सपना पूरा हो सकता है.

यह फर्जी डॉक्टर बनाने वाले किसी संस्थान का विज्ञापन लग सकता है. लेकिन उत्तराखंड के दोनों सरकारी मेडिकल कॉलेजों का कोई विज्ञापन बने तो वह भी कुछ ऐसा ही होगा. अपनी पड़ताल में तहलका के हाथ जो जानकारियां लगीं वे साफ इशारा करती हैं कि यहां पढ़ रहे छात्रों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो प्रतिभा नहीं बल्कि जुगाड़ के बल पर यहां आया है. कई छात्र ऐसे हैं जिनका स्कूली शिक्षा का रिकॉर्ड दयनीय है, लेकिन ये न सिर्फ इन कॉलेजों में प्रवेश पा गए बल्कि प्रवेश परीक्षा की लिस्ट में अव्वल भी आए. तहलका की  पड़ताल यह संकेत भी देती है कि यह गोरखधंधा इन कॉलजों की शुरुआत से ही चल रहा है. इस पूरे मामले में सबसे ज्यादा हैरानी और चिंता की बात यह है कि फर्जीवाड़े का पैमाना इतना बड़ा होने पर भी सरकार ने अब तक किसी उच्च स्तरीय जांच की घोषणा नहीं की है. जो जांच चल रही है और जिस हिसाब से चल रही है उससे लगता नहीं कि सरकार को इस गोरखधंधे के असली खिलाड़ियों को पकड़ने और उन्हें दंडित करने में कोई दिलचस्पी है.

उत्तराखंड में केवल दो सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं.  एक हल्द्वानी और दूसरा श्रीनगर नाम के कस्बे में. 200 की क्षमता वाले इन कॉलेजों में हर साल 170 छात्रों का चयन उत्तराखंड सरकार द्वारा तय एजेंसी प्रदेश स्तरीय मेडिकल परीक्षा के माध्यम से करती है. बाकी छात्र आॅल इंडिया पीएमटी परीक्षा के जरिए चुनकर आते हैं. प्रवेश परीक्षा कराने वाली एजेंसी का चयन चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग करता है.

बताया जाता है कि यह घोटाला तब खुला जब हल्द्वानी स्थित मेडिकल कॉलेज के प्रधानाचार्य को शक हुआ कि प्रवेश परीक्षा पास करके आ रहे छात्रों का एक बड़ा हिस्सा शैक्षणिक प्रतिभा के मामले में उस स्तर का नहीं है जैसा होना चाहिए. इसके बाद जांच हुई तो 17 छात्र ऐसे निकले जिन्होंने फर्जीवाड़ा करके प्रवेश परीक्षा पास की थी. फिलहाल स्थिति यह है कि ऐसे 33 छात्र मेडिकल कॉलेजों से निकाले जा चुके हैं. इनमें से 16  श्रीनगर (गढ़वाल) स्थित मेडिकल कॉलेज में थे. इनमें दो छात्राएं भी हैं. इन्हें 2011 में हुई राज्य पीएमटी परीक्षा के जरिये प्रवेश मिला था. इन सभी के खिलाफ संगीन धाराओं में मुकदमे भी दर्ज कर लिए गए हैं. आरोप यह है कि इनकी जगह किसी और ने प्रवेश परीक्षा दी थी इसलिए प्रवेश परीक्षा के दिन ली गई इनके अंगूठे की छाप और मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के समय ली गई  अंगूठे की छाप अलग-अलग निकली. छात्रों की बर्खास्तगी का फैसला फॉरेंसिक जांच के नतीजों के आधार पर लिया गया. इनके अलावा श्रीनगर मेडिकल कॉलेज के  40 और छात्र भी शक के दायरे में हैं. ये भी 2011 बैच के हैं. इसी बैच के हल्द्वानी में पढ़ रहे दर्जनों छात्रों पर भी शक की तलवार लटक रही है. ये ऐसे छात्र हैं जिनके अंगूठे के निशान स्पष्ट नहीं हैं और इसलिए इनके मामले में चल रही फॉरेंसिक जांच अभी खत्म नहीं हो पाई है.

दोनों कॉलेजों का मकसद यह था कि गरीब परिवारों से ताल्लुक रखने वाली प्रतिभाएं भी डॉक्टर बन सकें. पर हुआ उल्टा. यानी यह बड़ी नीतिगत असफलता भी है

2011 के बैच में जब इतनी बड़ी संख्या में फर्जीवाड़ा करके आए छात्र पकड़े गए तो श्रीनगर मेडिकल काॅलेज ने फैसला किया कि साल 2010 की परीक्षा के जरिए यहां प्रवेश पाने वाले 89 छात्रों की भी जांच करवाई जाए. कॉलेज ने उस साल प्रवेश परीक्षा कराने वाली एजेंसी उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय को लिखा कि वह परीक्षा कक्ष में ली गई इन छात्र की अंगूठे की छाप भेजे. लेकिन कोई जवाब नहीं आया. छह बार रिमाइंडर देने के बावजूद स्थिति यही रही. कई महीने बाद विश्वविद्यालय ने मेडिकल कॉलेज से ही कॉलेज में प्रवेश के समय ली गई छात्रों के अंगूठे की छाप अपने पास मंगवाई. बताया गया कि विश्वविद्यालय खुद जांच करवाना चाहता है. लेकिन महीनों बीत गए और मसला वहीं का वहीं है. यानी आगे बढ़ने की कोई इच्छा नहीं.

वैसे इसकी पूरी कोशिश हुई थी कि दाखिले के दो साल बाद होने वाली जांच में भी छात्रों को संदेह का लाभ मिल जाए. प्रवेश परीक्षा के समय परीक्षा कक्ष में लिए गए अंगूठे के निशानों के नीचे परीक्षा कक्ष निरीक्षक के हस्ताक्षर नहीं थे. इनके अलावा छात्रों के विवरणों में कई गलतियां भी थीं. यही हाल मेडिकल काॅलेज का भी था. यहां भी प्रवेश देते समय लिए गए अंगूठों के निशानों की पुष्टि करने वाले विश्वविद्यालय के किसी भी अधिकारी के हस्ताक्षर मौजूद नहीं हैं. एक प्राध्यापक बताते हैं, ‘परीक्षा प्रक्रिया में इस तरह की गलतियां जान-बूझ कर किसी गिरोह को मदद करने के लिए की गई होंगी.’ गौरतलब है कि तकनीकी विश्वविद्यालय पहले भी कई गलत वजहों से सुर्खियों में रहा है.

2011 में फर्जी ढंग से प्रवेश पाने वाले इतने सारे छात्र पकड़े गए. प्रवेश परीक्षा के पीछे एक रैकेट सक्रिय है, ऐसी खबरें तो बहुत पहले से ही उड़ रही थीं. इसके बावजूद हैरानी की बात है कि उत्तराखंड शासन ने कभी भी मेडिकल कॉलेजों से यह नहीं कहा कि पुराने बैचों के छात्रों की भी जांच की जाए. गौरतलब है कि पिछले पांच साल के दौरान राज्य में मेडिकल चिकित्सा विभाग ज्यादातर मुख्यमंत्रियों के पास ही रहा है.

इस घोटाले के बारे में न सरकार में कोई कुछ बोलने को तैयार है और न ही मेडिकल कॉलेज या परीक्षा कराने वाली एजेंसी का कोई अधिकारी इस मसले पर कुछ कहना चाहता है. एक जांच अधिकारी बताते हैं, ‘पहली नजर में ही ज्यादातर छात्र फर्जी दिखते हैं , लेकिन परीक्षा आयोजित कराने वालों ने हर स्तर पर ऐसी गलतियां की हैं कि उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर निकाले गए छात्रों को भी अदालत में फर्जी साबित करना मुश्किल होगा.’

तहलका ने 2011 की राज्यस्तरीय मेडिकल मेरिट सूची के पहले 30 अभ्यर्थियों की जांच की. इन 30 में  से  केवल 21 ने ही  राज्य के मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लिया था. जांच के बाद इन 21 टॉपर छात्रों में से 12 यानी करीब 60 फीसदी छात्र निकाले जा चुके हैं. चार और छात्र शक के दायरे में हैं. ये वही हैं जिनके अंगूठे की छाप अस्पष्ट है. तहलका ने निकाले गए और संदेह का लाभ ले रहे इन 16 छात्रों के हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के अंकों की खोज-बीन की तो पाया ये सभी छात्र इन दोनों परीक्षाओं में द्वितीय श्रेणी में पास हुए थे. इन टॉपर  21 छात्रों में से केवल पांच यानी 25 फीसदी छात्र ही ऐसे थे जिन्हें हाई-स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा में 80 प्रतिशत के पास या उससे ऊपर अंक मिले थे. इन पांच प्रतिभाशाली छात्रों को अंगूठे की जांच में कोई परेशानी नहीं हुई. तहलका को पता चला कि 2011 में जो 33 छात्र निकाले गए उनमें से इक्का-दुक्का ही ऐसे हैं जो हाई स्कूल या इंटर की परीक्षा में प्रथम श्रेणी से पास हुए हैं.

तहलका ने 2011 से पहले के वर्षों में दाखिला लेने छात्रों की भी पड़ताल की. इनके हाई स्कूल व इंटरमीडिएट परीक्षा के रिकॉर्ड, मेडिकल प्रवेश परीक्षा की मेरिट और मेडिकल काॅलेज में इनके प्रदर्शन पर गौर किया जाए तो फर्जीवाड़ा खुद-ब-खुद बोलता है. उदाहरण के तौर पर, साल 2009 में श्रीनगर मेडिकल काॅलेज में प्रवेश पाने वाले एक छात्र के हाईस्कूल की परीक्षा केवल 39.20 प्रतिशत अंक थे. यह छात्र इंटरमीडिएट की परीक्षा 58.80 प्रतिशत अंकों के साथ पास हुआ. लेकिन मेडिकल प्रवेश परीक्षा में उसकी 58वीं रैंक थी जिसे बहुत अच्छा कहा जाता है. हमने मेडिकल काॅलेज की परीक्षाओं में इस छात्र के प्रदर्शन की जांच की. पता चला कि प्रवेश परीक्षा में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाला यह ‘प्रतिभाशाली’ छात्र दो विषयों की परीक्षा में हाजिरी कम होने के कारण नहीं बैठ पाया और जिन दो विषयों की परीक्षा में वह वैठा, उन दोनों ही में वह फेल हो गया.

ऐसे और भी कई उदाहरण हैं. इसी बैच में हाई-स्कूल की परीक्षा 38.10 और इंटर की परीक्षा 55.80 फीसदी अंक के साथ पास करने वाला एक छात्र मेडिकल प्रवेश परीक्षा में 79वीं रैंक लाया. लेकिन अब उसकी कहानी भी खराब है. प्रवेश परीक्षा में इतना बढ़िया प्रदर्शन करने वाले ये छात्र अभी पहले ही वर्ष की परीक्षा पास करने के लिए जूझ रहे हैं, जबकि इन्हें तीसरे वर्ष में होना चाहिए था. दूसरी ओर इसी बैच में हाईस्कूल व इंटर की परीक्षाओं में 80 से लेकर 90 फीसदी अंक लाने वाली चारु जखवाल और इशिता गुप्ता की रैंक प्रवेश परीक्षा में 128 व 149 आई थी. यह रैंक पहले दो उदाहरणों से काफी पीछे है. प्रवेश परीक्षा में काफी पीछे रहने के बावजूद ये छात्राएं मेडिकल काॅलेज की परीक्षाओं में टॉपर हैं.

हैरानी स्वाभाविक ही है कि पढ़ाई में हमेशा फिसड्डी रहने वाले सारे छात्र अचानक जिंदगी में एक परीक्षा यानी मेडिकल प्रवेश परीक्षा में बेहतरीन प्रदर्शन कर जाएं. इस बैच में दोनों काॅलेजों में दर्जनों ऐसे छात्र हैं जिन्हें हाईस्कूल और इंटर की परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी भी नहीं मिली पर मेडिकल प्रवेश परीक्षा की मेरिट सूची में ये सभी अव्वल स्थान पर रहे. अब ये सभी छात्र मेडिकल काॅलेज में पढ़ाई में फिसड्डी हैं. कॉलेज के एक प्रोफेसर बताते हैं, ‘ये किसी तरह घिसटते-घिसटते 8- 10 सालों में एमबीबीएस पास कर ही लेंगे. फिर सरकार को इन्हें जब नौकरी देनी ही है तो फिर भला इन्हें क्या चिंता?’

मेडिकल कॉलेजों में फर्जी प्रवेश कराने वाला रैकेट और डॉक्टर बनने की हसरत रखने वाले प्रत्याशी उत्तराखंड में कितने बेखौफ होकर काम कर रहे थे इसका एक उदाहरण देखिए. साल 2008 में हरिपाल नाम के एक छात्र को हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज में निष्कासित कर दिया गया था. इस छात्र ने उत्तराखंड राज्य का गलत मूल निवास प्रमाण पत्र बनाकर दाखिला लिया था. लेकिन यही हरिपाल एक बार फिर 2011 में परीक्षा देकर श्रीनगर स्थित राज्य के दूसरे मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने में सफल रहा. यहां भी हरिपाल अंगूठे की जांच में पकड़ा गया और बाहर हो गया. हल्द्वानी कॉलेज में पकड़े जाने पर हरिपाल के शैक्षिक प्रमाण पत्र वहीं जब्त कर लिए गए थे. अब सवाल उठता है कि फिर उसने किन शैक्षिक प्रमाण पत्रों के आधार पर प्रवेश लिया. हरिपाल की 2008 में 48वीं रैंक थी. 2011 में मेडिकल प्रवेश परीक्षा में 180वें स्थान पर आए हरिपाल के प्रमाणपत्र बताते हैं कि उसने हाईस्कूल की परीक्षा 49 और इंटरमीडिएट परीक्षा 59 फीसदी अंकों के साथ पास की है.

 

इसकी पूरी कोशिश हुई है कि जांच में भी छात्रों को संदेह का लाभ मिल जाए. देखा जाए तो प्रवेश परीक्षा से लेकर दाखिले की प्रक्रिया तक कई गड़बड़ियां हैं

 

मेडिकल कॉलेज, तकनीकी विश्वविद्यालय और उत्तराखंड शासन का इस फर्जीवाड़े के प्रति जो रुख है और पुलिस की जांच जिस गति से चल रही है उसे देखकर अंदाजा हो जाता है कि उत्तराखंड में काम कर रहे इस गिरोह की जड़ें बहुत गहरी हैं. सूत्र बताते हैं कि इस गिरोह की पैठ शासन से लेकर कॉलेज तक और पेपर आयोजित कराने वाली एजेंसी से लेकर मेडिकल कॉलेजों तक हर स्तर पर है. यह गिरोह उन छात्रों को अपनी गिरफ्त में लेता है जो कई सालों से कोचिंग कर रहे हैं. डॉक्टर बनने की चाहत रखने वाली धनी मां-बाप की जो संतानें मेहनत से प्रवेश परीक्षा नहीं निकाल सकतीं उन्हें लालच देने का काम होता है. इस सारी प्रक्रिया में कोचिंग कराने वाले संस्थानों की भूमिका भी संदेहास्पद है. देहरादून के एक कोचिंग संस्थान ने तो अपने विज्ञापनों में अभी भी शान के साथ उन छात्रों की फोटो और नाम छापे हुए हैं जो 2011 में मेरिट में आए लेकिन फर्जीवाड़ा पकड़े जाने पर जिन्हें बाद में निकाल दिया गया.

एक मायने में देखा जाए तो यह एक बड़ी नीतिगत असफलता भी है. 2008 में श्रीनगर में मेडिकल कॉलेज के उद्घाटन के समय तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने वादा किया था कि इससे आस-पास के पहाड़ी जिलों के प्रतिभाशाली छात्र यहां मेडिकल की पढ़ाई करके इन दुर्गम क्षेत्रों की सेवा करेंगे. परंतु हुआ उल्टा. शुरुआती वर्षों में यहां प्रवेश लेने वाले छात्रों में से उंगली पर गिनने लायक छात्र ही इन जिलों के थे. पहले तीन सालों तक शक के दायरे में आने वाले अधिकांश छात्र ऊधमसिंह नगर, हरिद्वार और देहरादून के थे. इस बात के फैलने पर इस गिरोह ने अब पहाड़ी जिलों में भी अपना शिकार खोजना शुरू कर दिया था. पिछले साल निष्कासित 33 छात्रों में से चार-पांच छात्र ही इन पहाड़ी जिलों के निवासी हैं.

काॅलेजों से निष्कासित मुन्ना भाइयों के अभिभावकों की चिंता है कि अब उनके बच्चे घर से बाहर निकलने की स्थिति में नहीं हैं. उधर, ऐसे सैकड़ों प्रतिभावान छात्र-छात्राएं भी हैं जो स्कूल में अच्छा प्रदर्शन करने और जी-तोड़ तैयारी के बाद भी मेडिकल प्रवेश परीक्षा पास नहीं कर पाने के कारण अवसादग्रस्त हो गए हैं. इनके अभिभावकों में से कई ने कर्ज लेकर इन्हें कोचिंग कराई है. फर्जी छात्रों के प्रवेश परीक्षा में निकलने के कारण इन मेधावी बच्चों का समय बर्बाद हुआ और इनके अभिभावकों का पैसा व्यर्थ गया. सवाल यह भी है कि धीरे-धीरे राज्य की मेडिकल सेवा में प्रवेश करने वाले ये मुन्ना भाई गरीबों का कैसा इलाज करेंगे.

वक्त के साथ बदले तरीके

80 के दशक में मेडिकल प्रवेश परीक्षा का पेपर बाहर भेज कर हल कराया जाता था. यह सुविधा बहुत सीमित छात्रों को मिल पाती थी. समय के साथ फर्जीवाड़े के तरीके भी बदले हैं.  अब सारी परीक्षा और हर छात्र को परीक्षा में पास कराने का ठेका एक ही गैंग का होता है. यह गिरोह फॉर्म भराने से लेकर काउंसलिंग से आगे बढ़ाने तक का ठेका लेता है. परीक्षार्थी के बदले कोई और परीक्षा देता है. परीक्षा देने वाले युवक-युवतियों को देश के नामी मेडिकल काॅलेजों का छात्र बताया जाता है. लेकिन हकीकत यह है कि गैंग के ये सदस्य साधारण साइंस पढ़े होते हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि इतनी बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली छात्रों का मिलना असंभव है. एक साल तक मेडिकल की पढ़ाई के साथ प्रवेश परीक्षा में बढ़िया नतीजे देना भी आसान नहीं है इसलिए अधिक संभावना यह है कि रैकेट की पहुंच प्रवेश परीक्षा के पेपर तक होती होगी. गिरोह के सदस्य  छात्र की हैसियत के हिसाब से उससे पैसा वसूलते हैं. 10 से लेकर 25 लाख तक का सौदा होता है. कोई एडवांस नहीं. लिखित परीक्षा के बाद काउंसलिंग के समय पैसा लेकर छात्र का प्रवेश पत्र वापस किया जाता है. इसके बाद की जिम्मेदारी रैकेट की बजाय प्रवेश लेने वाले छात्र की होती है. सारा पैसा गिरोह के मुखिया के पास पहुंचता है और वही सबको बांटता है.(महिपाल कुंवर और गरिमा सिंह के सहयोग से)

 

संकट और सवाल

कांग्रेस का कहना है कि वह पीछे नहीं देखेगी, आगे बढ़ेगी. लेकिन मुश्किल यह है कि न उसके पास पीछे देखने लायक कुछ बचा है और न आगे बढ़ने लायक. तो फिर?

पांच राज्यों में अपने खराब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस आत्मनिरीक्षण की तरह-तरह की मुद्राएं दिखा रही है. नतीजों के कुछ दिन बाद राहुल गांधी ने बड़ी सख्त भाषा में कहा था कि इस प्रदर्शन की जिम्मेदारी तय होगी और बड़ी कुर्बानियां होंगी. सोनिया गांधी ने कहा था कि पार्टी में नेता ज्यादा हो गए हैं और कार्यकर्ता कम. यह खबर भी आई कि सरकार के चार मंत्रियों ने पद छोड़कर संगठन में काम करने की इच्छा जताई है. अब इस प्रदर्शन के कारणों की समीक्षा के लिए बैठाई गई ऐंटनी कमेटी की रिपोर्ट के हिस्से बाहर आए हैं.

लेकिन इन हिस्सों से भी यही लग रहा है कि कमेटी आधा सच बोल रही है और उसे पूरा करते-करते सहम जा रही है. वह बता रही है कि पार्टी में भाई-भतीजावाद के आधार पर टिकट नहीं बांटे जाने चाहिए, लेकिन जिन लोगों ने बांटे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हो या नहीं, इस पर खामोश है. वह बता रही है कि नेता और कार्यकर्ता के बीच बढ़ती दूरी उत्तर प्रदेश में हार की वजह बनी, लेकिन वह उन नेताओं की शिनाख्त नहीं कर रही जो इसके लिए जिम्मेदार हैं. रिपोर्ट में कुल मिलाकर जो एक ठोस आरोप दिखता है, वह मुसलिम आरक्षण के सवाल पर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के बयान से और बटला हाउस के सवाल पर महासचिव दिग्विजय सिंह के बयान से होने वाले नुकसान का है. बाकी रिपोर्ट भ्रष्टाचार, महंगाई और कमजोर सांगठनिक ढांचे के वे जाने-पहचाने तर्क जुटाती है जो पहले से सबको मालूम हैं.

बहरहाल, सवाल है कि कांग्रेस इसके आगे क्या करेगी. इस सवाल का जवाब सोनिया गांधी ने दे दिया है. पिछले दिनों कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में उन्होंने आह्वान किया कि कांग्रेसी आपस में लड़ना छोड़ें और विरोधियों का मुकाबला करें. यही नहीं, उन्होंने यह भी इशारा किया कि 2014 के चुनाव बहुत दूर नहीं रह गए हैं और पार्टी को अब उनकी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए.

यानी साफ है कि न राहुल गांधी के कहे मुताबिक बड़ी कुर्बानियां हो रही हैं और न ही ऐंटनी कमेटी की सिफारिशों के बाद किसी पर कार्रवाई होने जा रही है. पार्टी पीछे नहीं देखेगी, आगे बढ़ेगी. लेकिन मुश्किल यह है कि न उसके पास पीछे देखने लायक कुछ बचा है न आगे बढ़ने लायक. कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल यह है- एक पार्टी के तौर पर उसका जो भी जीर्ण-शीर्ण ढांचा बचा हुआ है, वह पूरी तरह सोनिया और राहुल गांधी को समर्पित है, उनके किसी अनजाने जादू से अपने पुनरुद्धार की उम्मीद पाले बैठा है. संगठन अपने नेताओं को ताकत देने की जगह उनका परजीवी होने की जिद पर अड़ा  है. इसका खमियाजा जितना पार्टी को भुगतना पड़ रहा है, उतना ही नेताओं को भी.

लेकिन क्या यह संकट सिर्फ इस बात का है कि नेता कांग्रेस को जमीन पर फैलाने की जगह नेहरू-गांधी परिवार के आसमान से उम्मीद लगाए बैठे हैं? या इसका वास्ता कांग्रेस के किसी अंदरूनी संकट से भी है? दरअसल एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस की ऐतिहासिक भूमिका पूरे भारत और भारतीयता को जोड़ने की रही. उसके भीतर सभी विचारों और क्षेत्रों के हित जैसे सुरक्षित रहा करते थे- वह कई बार परस्पर विरोधी लक्ष्यों का साझा मंच भी दिखा करती थी. लेकिन जैसे-जैसे उसमें नेतृत्व की केंद्रीयता बढ़ी, यह लोकतांत्रिकता तार-तार होती गई, उसका लचीलापन क्षार-क्षार होता गया. 2004 में जब कांग्रेस सत्ता में लौटी तो उसकी एक वजह यह भी थी कि पहली बार उसने एकला चलो की नीति छोड़कर गठजोड़ की राजनीति का दामन थामा था. सोनिया गांधी अलग-अलग पार्टियों को जोड़कर उस लोकतांत्रिक सर्वानुमति को वापस लाने में कामयाब रही थीं जो कांग्रेस का पुराना चरित्र हुआ करती थी. 2009 में कांग्रेस की फिर से वापसी में इस चरित्र का भी हाथ रहा और इसकी वजह से पैदा हुए उन जनपक्षीय रुझानों का भी जिनके असर में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और सूचना का अधिकार जैसे कानून संभव हुए और अमल में लाए गए.

लेकिन 2009 के बाद अचानक कांग्रेस की चाल बदलती दिखती है.बल्कि इसकी शुरुआत 2008 में ऐटमी करार के सवाल पर वामदलों से चला आ रहा रिश्ता तोड़ने के साथ ही होती है. यही वह दौर है जब कांग्रेस के भीतर उदारीकरण की हामी शक्तियां निर्णायक ढंग से सिर उठाने को बेकरार हैं. इसके आस-पास वे घोटाले परवान चढ़ रहे हैं जिनकी मार अब कांग्रेस भुगत रही है. यही वह दौर है जब सरकार महंगाई और मुद्रास्फीति को विकास का अनिवार्य नतीजा बता रही है, माओवाद को देश का सबसे बड़ा दुश्मन व विदेशी निवेश के विस्तार को हमारी अपरिहार्य जरूरत.

देखा जाए तो अभी तक यह साफ ही नहीं है कि कांग्रेस की लाइन क्या है- वह देश के गरीबों के साथ खड़ी है या अमीरों के साथ

कहने को इसी दौर में राहुल गांधी दलितों और आदिवासियों के बीच पहचान और अस्मिता की नई राजनीति करने की कोशिश में हैं. लेकिन इस कोशिश के साथ न पार्टी की नीतियां दिखती हैं न सरकार का रवैया. अभी तक यह साफ ही नहीं है कि कांग्रेस की लाइन क्या है- वह देश के गरीबों के साथ खड़ी है या अमीरों के साथ.

कांग्रेस को इस दुविधा के पार जाना होगा. एक बड़ी अखिल भारतीय पार्टी के रूप में उसकी भूमिका खत्म हो चुकी है. नेताओं के पास नया एजेंडा नहीं है, इसलिए वे या तो सतही लोकलुभावन राजनीति के चक्कर में पड़ते हैं या फिर राहुल-सोनिया की तरफ देखते हैं. अब यह इन दोनों को तय करना है कि वे कोई नया राजनीतिक खाका तैयार करते हैं या पार्टी को लुंजपुंज यथास्थितिवाद के उसी दलदल में छोड़ देते हैं जो उसे राजनीतिक समझौतों के लिए वेध्य बनाता है और जनता की निगाह में अविश्वसनीय.

हार के नतीजों पर फौरी रिपोर्ट देखने-बांचने से पार्टी आगे नहीं जाएगी. उसके लिए वैचारिक और सांगठनिक दोनों स्तरों पर एक पूरी लड़ाई की जरूरत पड़ेगी. यह लड़ाई खाते-पीते नेता-पुत्रों के सहारे नहीं, वंचितों के बीच उभरने वाले नए नेतृत्व के साथ ही मिल कर लड़ी जा सकती है.

भाजपा-कांग्रेसः आवाज 2 हम 1

 

स्वीडन के पूर्व पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्टोर्म ने बोफोर्स मामले में तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को पत्र लिखकर फरवरी, 2004 में ही सब कुछ बता दिया था. मगर उनके हालिया बयान पर हो-हल्ला करने वाली भाजपा ने तब इस पर कुछ नहीं किया. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट

स्वीडन में बोफोर्स मामले की जांच करने वाले और स्वीडन पुलिस के प्रमुख रहे स्टेन लिंडस्टोर्म ने बीते दिनों जब एक साक्षात्कार दिया तो बोफोर्स का मसला एक बार फिर संसद और मीडिया में जोर-शोर से उठा. मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने संसद में इस मामले को बड़ी मजबूती से उठाया और नए सिरे से पूरे मामले की जांच कराने की मांग की. लेकिन कम लोगों को पता है कि लिंडस्टोर्म ने जो बात अपने साक्षात्कार में कही हैं, वही बात उन्होंने देश के रक्षा मंत्री रहे जॉर्ज फर्नांडिस को फरवरी, 2004 में ही पत्र लिखकर बताई थीं. इसके बावजूद इस मसले पर कोई कार्रवाई नहीं की गई.

इस मामले की जांच से संबंधित तथ्य और घटनाक्रम बताते हैं कि देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस मामले की तह तक जाकर दूध का दूध और पानी का पानी करने की बजाए अपनी सुविधानुसार इसके सियासी इस्तेमाल को तरजीह दी. इस मसले के सियासी इस्तेमाल को समझने के लिए 4 फरवरी, 2004 के बाद के घटनाक्रम को जानना और समझना जरूरी है. यह वही तारीख है जिस दिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने बोफोर्स मामले में आरोपित सभी अभियुक्तों को घूस और भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त कर दिया था. इनमें इस घोटाले का मुख्य किरदार माना जाने वाला ओतावियो क्वात्रोकी भी शामिल था.

जिस दिन दिल्ली उच्च न्यायालय का बोफोर्स के अभियुक्तों को आरोपों से बरी करने का फैसला आया, उसके हफ्ते भर के अंदर ही उस समय के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस के पास एक पत्र आया. यह पत्र लिखा था स्टेन लिंडस्टोर्म ने. लिंडस्टोर्म स्वीडन पुलिस के प्रमुख रहे हैं और उनकी अगुवाई में ही स्वीडन में बोफोर्स मामले की जांच हुई थी. लिंडस्टोर्म ने फर्नांडिस को भेजे अपने पत्र में साफ-साफ और काफी विस्तार में लिखा कि बोफोर्स मामले की जांच में किस तरह से उनके साथ असहयोग किया गया और किस तरह से बड़े-बड़े नामों पर इस मामले में शामिल होने के संदेह की सुई घूमती है.

उस वक्त जॉर्ज फर्नांडिस एक ऐसे गठबंधन वाली केंद्र सरकार के रक्षा मंत्री थे जिसकी सियासत का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के विरोध पर टिका था. इसलिए लिंडस्टोर्म को उम्मीद थी कि वे और उनकी सरकार इस मामले से रहस्य का पर्दा उठाना चाहेंगे ही. लेकिन इस पत्र के बावजूद उस वक्त जॉर्ज फर्नांडिस ने इस मामले में कुछ नहीं किया और चुप्पी साध ली. बोफोर्स मामले में कांग्रेस कुछ नहीं करे, यह तो सबकी समझ में आता है क्योंकि इस घोटाले के आरोपों के छींटे उसके प्रथम परिवार के दामन पर भी हैं. लेकिन इस पर भाजपा की अगुवाई वाली सरकार की चुप्पी हैरान करने वाली थी.

सवाल यह उठता है कि आखिर फर्नांडिस ने रक्षा मंत्री रहते हुए उस वक्त कुछ क्यों नहीं किया? इसका जवाब आया तीन साल बाद. 11 मार्च, 2007 को दिए एक साक्षात्कार में फर्नांडिस ने कहा कि वाजपेयी ने उन्हें बोफोर्स मामले को छूने से मना किया था. फर्नांडिस के करीबी सहयोगी रहे एक सज्जन इसके आगे-पीछे की बात को समझाते हुए बताते हैं, ‘जब फर्नांडिस ने इस पत्र के बाद रक्षा मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी को बोफोर्स की फाइल लाने का निर्देश दिया तो उसने पहले तो काफी टालमटोल की. इसके बाद एक दिन फर्नांडिस के पास प्रधानमंत्री कार्यालय में तैनात एक बड़े ताकतवर व्यक्ति का फोन आया. इस व्यक्ति ने फर्नांडिस को कहा कि प्रधानमंत्री चाहते हैं कि बोफोर्स की फाइल से आप दूर ही रहें.’

यहां से दो बातें साफ हैं. पहली बात तो यह कि भाजपा की अगुवाई वाली उस वक्त की केंद्र सरकार भी यह नहीं चाहती थी कि बोफोर्स मामले की सच्चाई दुनिया के सामने आए. दूसरी यह कि देश के रक्षा मंत्री ने प्रधानमंत्री कार्यालय के ‘ताकतवर व्यक्ति’ की बात मानकर इस मामले में चुप्पी साध ली.

बोफोर्स का सच सामने लाने को लेकर भाजपा की अनिच्छा का एक और प्रमाण इसके बाद के घटनाक्रम से मिलता है. फरवरी, 2004 में दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद केंद्र की भाजपानीत सरकार के पास करीब 60 दिन का समय था मगर उसने इस फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील करवाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली. मई में भाजपा की सरकार चली गई और कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार आ गई. इसके बाद सीबीआई ने अपील ही नहीं की.

लिंडस्टोर्म के हालिया साक्षात्कार के बाद जब नए सिरे से बोफोर्स का मामला गरमाया तो राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेतली ने इस मामले की फिर से जांच कराने की मांग की. जब 2004 में अदालत का फैसला आया था तब जेतली देश के कानून मंत्री थे और अगर वे चाहते तो ऊपरी अदालत में फैसले के खिलाफ समय रहते अपील की जा सकती थी. इस बारे में पूछे जाने पर जेटली का एक साक्षात्कार में कहना था, ‘सीबीआई ने अपील करने की पूरी तैयारी कर ली थी. लेकिन अदालत की छुट्टियों और लोकसभा चुनावों की वजह से हमारी सरकार समय रहते अपील नहीं कर पाई. इसके बाद नई सरकार आ गई और उसने पुरानी सरकार के फैसले को बदलते हुए कहा कि अपील नहीं की जानी चाहिए.’

मगर सच यह है कि उच्च न्यायालय के फैसले की कॉपी मिलने के बाद अपील करने की 90 दिन की समय सीमा 20 जून, 2004 के आसपास पूरी हो रही थी. सरकार को कॉपी मिलने से पहले भी अदालत के फैसले की जानकारी तो थी ही. इसका मतलब जेतली जिस सरकार के कानून मंत्री थे उसके पास अपील करने के लिए तकरीबन तीन महीने का वक्त था. 13 मई, 2004 को लोकसभा चुनावों के परिणाम आए और जनादेश वाजपेयी सरकार के खिलाफ था. इसके बाद 21 मई, 2004 को मनमोहन सिंह की अगुवाई में केंद्र में कांग्रेस की गठबंधन सरकार बनी. इसके बाद सीबीआई ने फैसले के खिलाफ अपील न करने का फैसला किया. यानी अपील करने की मियाद के दौरान केंद्र में दोनों प्रमुख दलों की सरकार रही लेकिन दोनों की दिलचस्पी बोफोर्स के रहस्य से पर्दा उठाने में थी ही नहीं.

एक तरफ भारत के दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं जो बोफोर्स घोटाले को रहस्य बनाकर ही रखना चाहते हैं, वहीं दूसरी तरफ स्वीडन के एक पुलिस अधिकारी हैं जो पत्रों और साक्षात्कारों के जरिए इस मामले की पूरी जांच कराने और इसमें अपना पूरा सहयोग देने का प्रस्ताव दे रहे हैं. लिंडस्टोर्म के पत्र और साक्षात्कार को पढ़ने से पता चलता है कि उन्हें भारत के विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रमुख लोगों ने आश्वासन तो खूब दिए लेकिन किया कुछ नहीं. चित्रा सुब्रमण्यम को दिए साक्षात्कार में लिंडस्टोर्म कहते हैं कि आज उनका देश कई मामलों में दुनिया में शीर्ष पर है लेकिन सैद्घांतिक भटकाव भी आया है और इस वजह से भ्रष्टाचार जैसी बुराइयां बढ़ी हैं. एक तरफ लिंडस्टोर्म एक दूसरे देश से संबंधित मामले में हुए भ्रष्टाचार को लेकर इस कदर चिंतित हैं और सच्चाई को सामने लाना चाहते हैं लेकिन दूसरी तरफ भारत का राजनीतिक वर्ग है जो हो-हल्ला तो खूब मचाता है लेकिन जब कार्रवाई करने की बात आती है तो तकनीकी बहानों का आवरण ओढ़ लेता है.

लिंडस्टोर्म द्वारा जॉर्ज फर्नांडिस को लिखे पत्र के अंश

फरवरी, 2004

… बोफोर्स मामले का मैं प्रमुख जांच अधिकारी था. मुझे नहीं पता कि क्यों मैं भूत काल का प्रयोग कर रहा हूं क्योंकि अब तक मामले की जांच पूरी नहीं हुई. लगता है जांच कभी पूरी भी नहीं होगी. ऐसा इसलिए कि स्वीडन और भारत के लोग ऐसा ही चाहते हैं…..

… इस मामले की जांच का जिम्मा मुझे 18 साल पहले सौंपा गया था. पुलिस अधिकारी होने के नाते मुझे इस बात का भरोसा है कि सच एक दिन जरूर सामने आएगा. क्योंकि सच्चाई के साथ बुरी बात यह है कि जब हम बिल्कुल नाउम्मीद हो जाते हैं तो सच सामने आ जाता है….

… बोफोर्स मामले की जांच के दौरान हर तरह से मेरे काम को मुश्किल बनाने की कोशिश की गई. भारत से बने दबाव का नतीजा यह हुआ कि स्वीडन में एक जांच बंद हो गई. फिर जब दबाव बना तो स्वीडिश नैशनल ऑडिट ब्यूरो ने आधी-अधूरी रिपोर्ट भारत भेजी. मूल रिपोर्ट के वे महत्वपूर्ण हिस्से हटा दिए गए जिनमें पैसों के लेन-देन का ब्योरा था. मेरे पास पूरी रिपोर्ट थी और यह देखकर मुझे बड़ा दुख हुआ कि किस तरह से अधूरी रिपोर्ट के आधार पर राजनीतिज्ञ यह दावा कर रहे थे कि पैसे का कोई लेन-देन नहीं हुआ….

… बोफोर्स के वरिष्ठ अधिकारियों की टीम जब भारत की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के सामने अपना पक्ष रखने आई तो उन्हें ऐसा करने से रोका गया. उनकी मुलाकात अधिकारियों के एक छोटे समूह से कराई गई जिसे उन लोगों ने कोई नाम नहीं दिया. मुझे बताया गया कि वहां अगर नाम बताया भी जाता तो उन पर कोई यकीन नहीं करता….

…इतालवी बिचौलिए ओतावियो क्वात्रोकी से पूछताछ होनी चाहिए क्योंकि उसी ने एई सर्विसेज के जरिए राजनीतिक रिश्वत तय की थी. सोनिया गांधी से अवश्य पूछताछ होनी चाहिए….

… बोफोर्स सौदे के मुख्य मध्यस्थ मार्टिन अर्डबो ने मुझसे कहा था कि रिश्वत की सच्चाई उसके साथ ही कब्र में दफन हो जाएगी. वह आखिरी वक्त पर एई सर्विसेज के साथ हुए करार पर बिलकुल शांत था जो उसने खुद अपनी देख-रेख में किया था. स्पष्ट था कि यह राजनीतिक रिश्वत थी….

… अर्डबो इस बात को लेकर बेहद चिंतित था कि लोगों को इस बात का पता चल रहा था कि ‘क्यू’ और ‘आर’ कौन है और उनके आपसी संबंध क्या हैं. ‘क्यू’ क्वात्रोकी के लिए और ‘आर’ राजीव गांधी के लिए लिखा गया था. अर्डबो ने मुझे बताया कि बड़े लोगों को बचाने के लिए मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है. …

… जिन आपराधिक मामलों में राजनीतिक रिश्वत चुकाई जाती है उनमें पूरी कहानी किसी के पास नहीं होती. लोग आते हैं, अपनी भूमिका निभाते हैं और चले जाते हैं. यह कभी कोई समस्या पैदा होने पर बचाव के लिहाज से किया जाता है. बोफोर्स मामले में ऐसा ही हुआ है. इस पूरे मामले के सारे रहस्यों को जानने वाला सिर्फ एक ही आदमी है और वह है मार्टिन अर्डबो….

… इस घोटाले में शामिल भारतीय राजनीतिज्ञों ने हमेशा इससे इनकार किया, नोट्स भेजे, अधिकारियों को भेजा और वहां भ्रम पैदा किया जहां इसकी कोई जरूरत ही नहीं थी. पुलिस अधिकारी आपको बताएंगे कि किसी मामले की लीपापोती का यह पुराना तरीका है. जहां आरोप से ज्यादा जोरदार ढंग से उनका विरोध किया जा रहा हो वहां आप यकीन के साथ कह सकते हैं कि बोलने वाला ही अपराधी है. उस समय के भारत के प्रधानमंत्री ने भारतीय संसद में यह कहा कि न ही वे और न ही उनके परिवार के किसी सदस्य ने इस मामले में रिश्वत ली है. मेरी समझ से यह उनकी पहली सबसे बड़ी गलती थी जिसने हमें कई सुराग दिए. उन्हें यह पता नहीं था कि जिस वक्त वे बोल रहे थे उसी वक्त स्वीडन की एक एजेंसी कई दस्तावेजों को खंगाल रही थी. इनमें इस बात का प्रमाण था कि कैसे आखिरी वक्त में क्वात्रोकी की एजेंसी एई सर्विसेज को रिश्वत दी गई. अर्डबो की चुप्पी और राजीव गांधी का इनकार साथ-साथ चल रहे थे….

… यह कहना भी गलत नहीं होगा कि मैं उन गिने-चुने लोगों में से एक हूं जिसने इस मामले से संबंधित सारे दस्तावेजों को देखा है. सोनिया गांधी से अनिवार्य तौर पर पूछताछ होनी चाहिए. मुझे पता है कि मैं क्या बोल रहा हूं.

ज्ञानपीठ अपमान !

अपने पत्र में गौरव ने ज्ञानपीठ से यह आग्रह भी किया है कि वह खुद को कुछ लोगों की संकीर्ण राजनीति का गढ़ न बनने दे और अपनी प्रतिष्ठा बचाए.

 

आदरणीय …… ,

भारतीय ज्ञानपीठ

खाली स्थान इसलिए कि मैं नहीं जानता कि भारतीय ज्ञानपीठ में इतना ज़िम्मेदार कौन है जिसे पत्र में सम्बोधित किया जा सके और जो जवाब देने की ज़हमत उठाए. पिछले तीन महीनों में मैंने इस खाली स्थान में कई बार निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया का नाम भी लिखा और ट्रस्टी श्री आलोक जैन का भी, लेकिन नतीजा वही. ढाक का एक भी पात नहीं. मेरे यहां सन्नाटा और शायद आपके यहां अट्टहास.

 खैर, कहानी यह जो आपसे बेहतर कौन जानता होगा लेकिन फिर भी दोहरा रहा हूं ताकि सनद रहे.

 पिछले साल मुझे मेरी कविता की किताब सौ साल फिदाके लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा की थी और उसी ज्यूरी ने सिफारिश की थी कि मेरी कहानी की किताब सूरज कितना कमभी छापी जाए. जून, 2011 में हुई उस घोषणा से करीब नौ-दस महीने पहले से मेरी कहानी की किताब की पांडुलिपि आपके पास थी, जो पहले एक बार अज्ञातकारणों से गुम हो गई थी और ऐन वक्त पर किसी तरह पता चलने पर मैंने फिर जमा की थी.

मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह ‘अश्लीलता’ पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं

ख़ैर, मार्च में कविता की किताब छपी और उसके साथ बाकी पांच लेखकों की पांच किताबें भी छपीं, जिन्हें पुरस्कार मिले थे या ज्यूरी ने संस्तुत किया था. सातवीं किताब यानी मेरा कहानी-संग्रह हर तरह से तैयार था और उसे नहीं छापा गया. कारण कोई नहीं. पन्द्रह दिन तक मैं लगातार फ़ोन करता हूं और आपके दफ़्तर में किसी को नहीं मालूम कि वह किताब क्यों नहीं छपी. आखिर पन्द्रह दिन बाद रवीन्द्र कालिया और प्रकाशन अधिकारी गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि उसमें कुछ अश्लील है. मैं पूछता हूं कि क्या, तो दोनों कहते हैं कि हमें नहीं मालूम. फिर एक दिन गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि किताब वापस ले लीजिए, यहां नहीं छप पाएगी. मैं हैरान. दो साल पांडुलिपि रखने और ज्यूरी द्वारा चुने जाने के बाद अचानक यह क्यों? मैं कालिया जी को ईमेल लिखता हूं. वे जवाब में फ़ोन करते हैं और कहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है, बस एक कहानी ग्यारहवीं ए के लड़केकी कुछ लाइनें ज्ञानपीठ की मर्यादा के अनुकूल नहीं है. ठीक है, आपकी मर्यादा तो आप ही तय करेंगे, इसलिए मैं कहता हूं कि मैं उस कहानी को फ़िलहाल इस संग्रह से हटाने को तैयार हूं. वे कहते हैं कि फिर किताब छप जाएगी.

 लेकिन रहस्यमयी ढंग से फिर भी कभी हां कभी ना कभी चुप्पीका यह बेवजह का चक्र चलता रहता है और आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है, इसलिए मुझे तुम्हें बता देना चाहिए कि तुम्हारी कहानी की किताब नहीं छप पाएगी. मैं हैरान हूं. शत्रुतापूर्णएक खतरनाक शब्द है और तब और भी खतरनाक, जब देश की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्थाका मुखिया पहली किताब के इंतज़ार में बैठे एक लेखक के लिए इसे इस्तेमाल करे. मुझसे थोड़े पुराने लेखक ऐसे मौकों पर मुझे चुप रहने की सलाह दिया करते हैं, लेकिन मैं फिर भी पूछता हूं कि क्यों? शत्रुतापूर्ण क्यों? हम यहां कोई महाभारत लड़ रहे हैं क्या? आपका और मेरा तो एक साहित्यिक संस्था और लेखक का रिश्ता भर है. लेकिन इतने में आलोक जैन तेज आवाज में कुछ बोलने लगते हैं. कालिया जी कहते हैं कि चाहे तो सीधे बात कर लो. मैं उनसे पूछता हूं कि क्या कह रहे हैं सर‘?

तो जो वे बताते हैं, वह यह कि तुम्हारी कहानियां मां-बहन के सामने पढ़ने लायक कहानियां नहीं हैं. आलोक जी को मेरा फ्रैंकनैसपसंद नहीं है, मेरी कहानियां अश्लील हैं. क्या सब की सब? हां, सब की सब. उन्हें तुम्हारे पूरे एटीट्यूडसे प्रॉब्लम है और प्रॉब्लम तो उन्हें तुम्हारी कविताओं से भी है, लेकिन अब वह तो छप गई. फ़ोन पर कही गई बातों में जितना अफसोस आ सकता है, वह यहां है. मैं आलोक जी से बात करना चाहता हूं लेकिन वे शायद गुस्से में हैं, या पता नहीं. कालिया जी मुझसे कहते हैं कि मैं क्यों उनसे बात करके खामखां खुद को हर्ट करना चाहता हूं? यह ठीक बात है. हर्ट होना कोई अच्छी बात नहीं. मैं फ़ोन रख देता हूं और सन्न बैठ जाता हूं.

 जो वजहें मुझे बताई गईं, वे थीं अश्लीलताऔर मेरा एटीट्यूड.

अश्लीलता एक दिलचस्प शब्द है. यह हवा की तरह है, इसका अपना कोई आकार नहीं. आप इसे किसी भी खाली जगह पर भर सकते हैं. जैसे आपके लिए फिल्म में चुंबन अश्लील हो सकते हैं और मेरे एक साथी का कहना है कि उसे हिन्दी फिल्मों में चुम्बन की जगह आने वाले फूलों से ज़्यादा अश्लील कुछ नहीं लगता. आप बच्चों के यौन शोषण पर कहानी लिखने वाले किसी भी लेखक को अश्लील कह सकते हैं. क्या इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप उस विषय पर बात नहीं होने देना चाहते. आपका यह कृत्य मेरे लिए अश्लील नहीं, आपराधिक है. यह उन लोकप्रिय अखबारों जैसा ही है जो बलात्कार की खबरों को पूरी डीटेल्स के साथ रस लेते हुए छापते हैं, लेकिन कहानी के प्लॉट में सेक्स आ जाने से कहानी उनके लिए अपारिवारिक हो जाती है (मां-बहन के पढ़ने लायक नहीं), बिना यह देखे कि कहानी की नीयत क्या है.

 मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह अश्लीलतापढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं.मेरा एक पुराना परिचित कहता था कि वह खूब पॉर्न देखता है, लेकिन अपनी पत्नी को नहीं देखने देता क्योंकि फिर उसके बिगड़ जाने का खतरा रहेगा. क्या यह मां-बहन वाला तर्क वैसा ही नहीं है? अगर हमने उनके लिए दुनिया इतनी ही अच्छी रखी होती तो मुझे ऐसी कहानियां लिखने की नौबत ही कहाँ आती? यह सब कुछ मेरी कहानियों में किसी जादुई दुनिया से नहीं आया, न ही ये नर्क की कहानियां हैं. और अगर ये नर्क की, किसी पतित दुनिया की कहानियां लगती हैं तो वह दुनिया ठीक हम सबके बीच में है. मैं जब आया, मुझे दुनिया ऐसी ही मिली, अपने तमाम कांटों, बेरहमी और बदसूरती के साथ. आप चाहते हैं कि उसे इगनोर किया जाए. मुझे सच से बचना नहीं आता, न ही मैंने आपकी तरह उसके तरीके ईज़ाद किए हैं. सच मुझे परेशान करता है, आपको कैसे बताऊं कि कैसे ये कहानियां मुझे चीरकर, रुलाकर, तोड़कर, घसीटकर आधी रात या भरी दोपहर बाहर आती हैं और कांच की तरह बिखर जाती हैं. मेरी ग़लती बस इतनी है कि उस कांच को बयान करते हुए मैं कोमलता और तथाकथित सभ्यता का ख़याल नहीं रख पाता. रखना चाहता भी नहीं. 

आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है 

 लेकिन इसी बीच मुझे याद आता है कि भारतीय ज्ञानपीठ में अभिव्यक्तिकी तो इतनी आज़ादी रही कि पिछले साल ही नया ज्ञानोदयमें छपे एक इंटरव्यू में लेखिकाओं के लिए कहे गए छिनालशब्द को भी काटने के काबिल नहीं समझा गया. मेरी जिस कहानी पर आपत्ति थी, वह भी नया ज्ञानोदयमें ही छपी थी और तब संपादकीय में भी कालिया जी ने उसके लिए मेरी प्रशंसा की थी. मैं सच में दुखी हूं, अगर उस कहानी से ज्ञानपीठ की मर्यादा को धक्का लगता है. लेकिन मुझे ज़्यादा दुख इस बात से है कि पहले पत्रिका में छापते हुए इस बात के बारे में सोचा तक नहीं गया. लेकिन तब नहीं, तो अब मेरे साथ ऐसा क्यों? यहां मुझे खुद पर लगा दूसरा आरोप याद आता है- मेरा एटीट्यूड.

मुझे नहीं याद कि मैं किसी काम के अलावा एकाध बार से ज़्यादा ज्ञानपीठ के दफ़्तर आया होऊं. मुझे फ़ोन वोन करना भी पसंद नहीं, इसलिए न ही मैंने कैसे हैं सर, आप बहुत अच्छे लेखक, संपादक और ईश्वर हैंकहने के लिए कभी कालिया जी को फ़ोन किया, न ही आलोक जी को. यह भी गलत बात है वैसे. बहुत से लेखक हैं, जो हर हफ़्ते आप जैसे बड़े लोगों को फ़ोन करते हैं, मिलने आते हैं, आपके सब तरह के चुटकुलों पर देर तक हँसते हैं, और ऐसे में मेरी किताब छपे, पुरस्कार मिले, यह कहाँ का इंसाफ़ हुआ? माना कि ज्यूरी ने मुझे चुना लेकिन आप ही बताइए, आपके यहाँ दिखावे के अलावा उसका कोई महत्व है क्या?

ऊपर से नीम चढ़ा करेला यह कि मैंने हिन्दी साहित्य की गुटबाजियों और राजनीति पर अपने अनुभवों से तहलकामें एक लेख लिखा. वह शायद बुरा लग गया होगा. और इसके बाद मैंने ज्ञानपीठ में नौकरी करने वाले और कालिया जी के लाड़ले राजकुमारलेखक कुणाल सिंह को नाराज कर दिया. मुझे पुरस्कार मिलने की घोषणा होने के दो-एक दिन बाद ही कुणाल ने एक रात शराब पीकर फ़ोन किया था और बदतमीजी की थी. उस किस्से को इससे ज़्यादा बताने के लिए मुझे इस पत्र में काफ़ी गिरना पड़ेगा, जो मैं नहीं चाहता. ख़ैर, यही बताना काफ़ी है कि हमारी फिर कभी बात नहीं हुई और मैं अपनी कहानी की किताब को लेकर तभी से चिंतित था क्योंकि ज्ञानपीठ में कहानी-संग्रहों का काम वही देख रहे थे. मैंने अपनी चिंता कालिया जी को बताई भी, लेकिन ज़ाहिर सी बात है कि उससे कुछ हुआ नहीं.   

वैसे वे सब बदतमीजी करें और आप सहन न करें, यह तो अपराध है ना? वे राजा-राजकुमार हैं और आपका फ़र्ज़ है कि वे आपको अपमानित करें तो बदले में आप सॉरीबोलें. यह अश्लील कहाँ है? ज्ञानपीठ इन्हीं सब चीजों के लिए तो बनाया गया है शायद! हमें चाहिए कि आप सबको सम्मान की नज़रों से देखें, अपनी कहानियां लिखें और तमाम राजाओं-राजकुमारों को खुश रखें. मेरे साथ के बहुत से काबिल-नाकाबिल लेखक ऐसा ही कर भी रहे हैं. ज्ञानपीठ से ही छपे एक युवा लेखक हैं जिन पर कालिया जी और कुणाल को नाराज़ कर देने का फ़ोबिया इस कदर बैठा हुआ है कि दोनों में से किसी का भी नाम लेते ही पूछते हैं कि कहीं मैं फ़ोन पर उनकी बातें रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा और फिर काट देते हैं. अब ऐसे में क्या लिक्खा जाएगा? हम बात करते हैं अभिव्यक्ति, ग्लोबलाइजेशन और मानवाधिकारों की.

ख़ैर, राजकुमार चाहते रहे हैं कि वे किसी से नाराज़ हों तो उसे कुचल डालें. चाहना भी चाहिए. यही तो राजकुमारों को शोभा देता है. वे किसी को भी गाली दे सकते हैं और किसी की भी कहानी या किताब फाड़कर नाले में फेंक सकते हैं. कोलकाता के एक कमाल के युवा लेखक की कहानी आपकी पत्रिका नया ज्ञानोदयके एक विशेषांक में छपने की घोषणा की गई थी, लेकिन वह नहीं छपी और रहस्यमयी तरीके से आपके दफ़्तर से, ईमेल से उसकी हर प्रति गायब हो गई क्योंकि इसी बीच राजकुमार की आंखों को वह लड़का खटकने लगा. एक लेखक की किताब नवलेखन पुरस्कारों के इसी सेट में छपी है और जब वह प्रेस में छपने के लिए जाने वाली थी, उसी दिन संयोगवश उसने आपके दफ़्तर में आकर अपनी किताब की फ़ाइल देखी और पाया कि उसकी पहली कहानी के दस पेज गायब थे. यह संयोग ही है कि उसकी फ़ाइनल प्रूफ़ रीडिंग राजकुमार ने की थी और वे उस लेखक से भी नाराज़ थे. किस्से तो बहुत हैं. अपमान, अहंकार, अनदेखी और लापरवाही के. मैं तो यह भी सुनता हूं कि कैसे पत्रिका के लिए भेजी गई किसी गुमनाम लेखक की कहानी अपना मसाला डालकर अपनी कहानी में तब्दील की जा सकती है.

लेकिन अकेले कुणाल को इस सबके लिए जिम्मेदार मानना बहुत बड़ी भूल होगी. वे इतने बड़े पद पर नहीं हैं कि ऊपर के लोगों की मर्ज़ी के बिना यह सब कर सकें. समय बहुत जटिल है और व्यवस्था भी. सब कुछ टूटता-बिगड़ता जा रहा है और बेशर्म मोहरे इस तरह रखे हुए हैं कि ज़िम्मेदारी किसी की न रहे.

नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी सम्मानितकी गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है.

मैं फिर भी आलोक जैन जी को ईमेल लिखता हूं. उसका भी कोई जवाब नहीं आता. मैं फ़ेसबुक पर लिखता हूं कि मेरी किताब के बारे में भारतीय ज्ञानपीठ के ट्रस्टी की यह राय है. इसी बीच आलोक जैन फ़ोन करते हैं और मुझे तीसरी ही वजह बताते हैं. वे कहते हैं कि यूं तो उन्हें मेरा लिखा पसंद नहीं और वे नहीं चाहते थे कि मेरी कविताओं को पुरस्कार मिले (उन्होंने भी पढ़ी तब प्रतियोगिता के समय किताब?), लेकिन फिर भी उन्होंने नामवर सिंह जी की राय का आदर किया और पुरस्कार मिलने दिया. (यह उनकी महानता है!) वे आगे कहते हैं, “लेकिन एक लेखक को दो विधाओं के लिए नवलेखन पुरस्कार नहीं दिया जा सकता.” लेकिन जनाब, पहली बात तो यह नियम नहीं है कहीं और है भी, तो पुरस्कार तो एक ही मिला है. वे कहते हैं कि नहीं, अनुशंसा भी पुरस्कार है और उन्होंने ‘कालिया’ को पुरस्कारों की घोषणा के समय ही कहा था कि यह गलत है. उनकी आवाज ऊंची होती जाती है और वे ज्यादातर बार सिर्फ ‘कालिया’ ही बोलते हैं. 

वे कहते हैं कि एक बार ऐसी गलती हो चुकी है, जब कालिया ने कुणाल सिंह को एक बार कहानी के लिए और बाद में उपन्यास के लिए नवलेखन पुरस्कार दिलवा दिया. अब यह दुबारा नहीं होनी चाहिए. तो पुरस्कार ऐसे भी दिलवाए जाते हैं? और अगर वह ग़लती थी तो क्यों नहीं उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया जाता और वह पुरस्कार वापस लिया जाता? मेरी तो किताब को ही पुरस्कार कहकर नहीं छापा जा रहा. और यह सब पता चलने में एक साल क्यों लगा? क्या लेखक का सम्मान कुछ नहीं और उसका समय?

यह सब पूछने पर वे लगभग चिल्लाने लगते हैं कि वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे, कालिया जी जो भी गंदगीछापना चाहें, छापें और भले ही ज्ञानपीठ को बर्बाद कर दें. नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी सम्मानितकी गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है. इसके बाद आलोक जी गुस्से में फ़ोन काट देते हैं. ज्ञानपीठ का ही एक कर्मचारी मुझसे कहता है कि चूंकि तकनीकी रूप से मेरे कहानी-संग्रह को छापने से मना नहीं किया जा सकता, इसलिए मुझे उकसाया जा रहा है कि मैं खुद ही अपनी किताब वापस ले लूं, ताकि जान छूटे.

सब कुछ अजीब है. चालाक, चक्करदार और बेहद अपमानजनक. शायद मेरे बार-बार के ईमेल्स का असर है कि आलोक जैन, जो कह रहे थे कि वे कभी ज्ञानपीठ के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करते, मुझे एक दिन फ़ोन करते हैं और कहते हैं, “मैंने कालिया से किताब छापने के लिए कह दिया है. थैंक यू.” वे कहते हैं कि उनकी मेरे बारे में और पुरस्कार के बारे में राय अब तक नहीं बदली है और ये जो भी हैं – बारह शब्दों के दो वाक्य – मुझे बासी रोटी के दो टुकड़ों जैसे सुनते हैं. यह तो मुझे बाद में पता चलता है कि यह भी झूठी तसल्ली भर है ताकि मैं चुप बैठा रहूं.

फ़ोन का सिलसिला चलता रहता है. वे अगली सुबह फिर से फ़ोन करते हैं और सीधे कहते हैं कि आज महावीर जयंती है, इसलिए वे मुझे क्षमा कर रहे हैं. लेकिन मेरी गलती क्या है? तुमने इंटरनेट पर यह क्यों लिखा कि मैंने तुम्हारी किताब के बारे में ऐसा कहा? उन्हें गुस्सा आ रहा है और वे जज्ब कर रहे हैं. वे मुझे बताते जाते हैं, फिर से वही, कि मेरी दो किताबों को छापने का निर्णय गलत था, कि मैं खराब लिखता हूं, लेकिन फिर भी उन्होंने कल कहा है कि किताब छप जाए, इतनी किताब छपती हैं वैसे भी. मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूं कि मेरी क्या गलती है, मुझे आप लोगों ने चुना, फिर जाने क्यों छापने से मना किया, फिर कहा कि छापेंगे, फिर मना किया और अब फिर टुकड़े फेंकने की तरह छापने का कह रहे हैं. और जो भी हो, आप इस तरह कैसे बात कर सकते हैं अपने एक लेखक से? लेकिन मैं जैसे ही बोलने लगता हूं, वे चिल्लाने लगते हैं- जब कह रहा हूं कि मुझे गुस्सा मत दिला तू. कुछ भी करो, कुछ भी कहो, कोई तुम्हारी बात नहीं सुनेगा, कोई तुम्हारी बात का यक़ीन नहीं करेगा, उल्टे तुम्हारी ही भद पिटेगी. इसलिए अच्छा यही है कि मुझे गुस्सा मत दिलाओ. यह धमकी है. मैं कहता हूं कि आप बड़े आदमी हैं लेकिन मेरा सच, फिर भी सच ही है, लेकिन वे फिर चुप करवा देते हैं. बात उनकी इच्छा से शुरू होती है, आवाज़ें उनकी इच्छा से दबती और उठती हैं और कॉल पूरी. 

कभी तू, कभी तुम, कभी चिल्लाना, कभी पुचकारना, सार्वजनिक रूप से सम्मानित करने की बात करना और फ़ोन पर दुतकारकर बताना कि तुम कितने मामूली हो- हमारे पैरों की धूल. मुझे ठीक से समझ नहीं आ रहा कि नवलेखन पुरस्कार लेखकों को सम्मानित करने के लिए दिए जाते हैं या उन्हें अपमानित करने के लिए. यह उनका एंट्रेंस टेस्ट है शायद कि या तो वे इस पूरी व्यवस्था का कुत्ताबन जाएं या फिर जाएं भाड़ में. और इस पूरी बात में उस गलतीकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, जब आप अपने यहां काम करने वाले लेखक को यह पुरस्कार देते हैं, दो बार. और दूर-दराज के कितने ही लेखकों की कहानियां-कविताएं-किताबें महीनों आपके पास पड़ी रहती हैं और ख़त्म हो जाती हैं. बहुत लिख दिया. शायद यही एटीट्यूडऔर फ्रैंकनैसहै मेरा, जिसकी बात कालिया जी ने फ़ोन पर की थी. लेकिन क्या करूं, मुझसे नहीं होता यह सब. मैं इन घिनौनी बातचीतों, मामूली उपलब्धियों के लिए रचे जा रहे मामूली षड्यंत्रों और बदतमीज़ फ़ोन कॉलों का हिस्सा बनने के लिए लिखने नहीं लगा था, न ही अपनी किताब को आपके खेलने की फ़ुटबॉल बनाने के लिए. माफ़ कीजिए, मैं आप सबकी इस व्यवस्था में कहीं फिट नहीं बैठता. ऊपर से परेशानियां और खड़ी करता हूं. आपके हाथ में बहुत कुछ होगा (आपको तो लगता होगा कि बनाने-बिगाड़ने की शक्ति भी) लेकिन मेरे हाथ में मेरे लिखने, मेरे आत्मसम्मान और मेरे सच के अलावा कुछ नहीं है. और मैं नहीं चाहता कि सम्मान सिर्फ़ कुछ हज़ार का चेक बनकर रह जाए या किसी किताब की कुछ सौ प्रतियाँ. मेरे बार-बार के अनुरोध जबरदस्ती किताब छपवाने के लिए नहीं थे सर, उस सम्मान को पाने के लिए थे, जिस पर पुरस्कार पाने या न पाने वाले किसी भी लेखक का बुनियादी हक होना चाहिए था. लेकिन वही आप दे नहीं सकते. मैं देखता हूं यहाँ लेखकों को – संस्थाओं और उनके मुखियाओं के इशारों पर नाचते हुए, बरसों सिर झुकाकर खड़े रहते हुए ताकि किसी दिन एक बड़े पुरस्कार को हाथ में लिए हुए खिंचती तस्वीर में सिर उठा सकें. लेकिन उन तस्वीरों में से मुझे हटा दीजिए और कृपया मेरा सिर बख़्श दीजिए. फ़ोन पर तो आप किताब छापने के लिए तीन बार हांऔर तीन बार नाकह चुके हैं, लेकिन आपने अब तक मेरे एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया है. आलोक जी के आख़िरी फ़ोन के बाद लिखे गए एक महीने पहले के उस ईमेल का भी, जिसमें मैंने कालिया जी से बस यही आग्रह किया था कि जो भी हो, मेरी किताब की अंतिम स्थिति मुझे लिखकर बता दी जाए, मैं इसके अलावा कुछ नहीं चाहता. उनका एसएमएस ज़रूर आया था कि जल्दी ही जवाब भेजेंगे. उस जल्दी की मियाद शायद एक महीने में ख़त्म नहीं हुई है.

मैं जानता हूं कि आप लोग अपनी नीयत के हाथों मजबूर हैं. आपके यहां कुछ धर्म जैसा होता हो तो आपको धर्मसंकट से बचाने के लिए और अपने सिर को बचाने के लिए मैं ख़ुद ही नवलेखन पुरस्कार लेने से इनकार करता हूं और अपनी दोनों किताबें भी भारतीय ज्ञानपीठ से वापस लेता हूं, मुझे चुनने वाली उस ज्यूरी के प्रति पूरे सम्मान के साथ, जिसे आपने थोड़े भी सम्मान के लायक नहीं समझा. कृपया मेरी किताबों को न छापें, न बेचें. और जानता हूं कि इनके बिना कैसी सत्ता, लेकिन फिर भी आग्रह कर रहा हूं कि हो सके तो ये पुरस्कारों के नाटक बन्द कर दें और हो सके, तो कुछ लोगों के पद नहीं, बल्कि किसी तरह भारतीय ज्ञानपीठ की वह मर्यादा बचाए रखें, जिसे बचाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.

सुनता हूं कि आप शक्तिशाली हैं. लोग कहते हैं कि आपको नाराज़ करना मेरे लिए अच्छा नहीं. हो सकता है कि साहित्य के बहुत से खेमों, प्रकाशनों, संस्थानों से मेरी किताबें कभी न छपें, आपके पालतू आलोचक लगातार मुझे अनदेखा करते रहें और आपके राजकुमारों और उनके दरबारियों को महान सिद्ध करते रहें, या और भी कोई बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़े. लेकिन फिर भी यह सब इसलिए ज़रूरी है ताकि बरसों बाद मेरी कमर भले ही झुके, लेकिन अतीत को याद कर माथा कभी न झुके, इसलिए कि आपको याद दिला सकूं कि अभी भी वक़्त उतना बुरा नहीं आया है कि आप पच्चीस हज़ार या पच्चीस लाख में किसी लेखक को बार-बार अपमानित कर सकें, इसलिए कि हम भले ही भूखे मरें लेकिन सच बोलने का जुनून बहुत बेशर्मी से हमारी ज़बान से चिपककर बैठ गया है और इसलिए कि जब-जब आप और आपके साहित्यिक वंशज इतिहास में, कोर्स की किताबों में, हिन्दी के विश्वविद्यालयों और संस्थानों में महान हो रहे हों, तब-तब मैं अपने सच के साथ आऊं और उस भव्यता में चुभूं.

तब तक शायद हम सब थोड़े बेहतर हों और अपने भीतर की हिंसा पर काबू पाएँ.

गौरव सोलंकी

11/05/2012

मसखरी का अंत

किशोर कुमार। फिल्मफेयर, १९६०

कुछ महीने पहले काम से थोड़ी फुरसत लेकर मैं कश्मीर गया. बहुत पहले मैंने अपनी पत्नी और खुद से भी वादा किया था कि मैं कश्मीर जाऊंगा. मुझे खुशी है कि आखिरकार मैंने वह वादा निभाया. खुशी इसलिए भी है कि बर्फ से ढकी चोटियों, गहरी घाटियों और इस जगह की शांति ने मुझ पर अनोखा असर किया. अचानक ही मुझे अहसास हुआ कि मैं कौन था और क्या हो गया हूं. मैंने यह भी देखा कि मैं कहां बढ़ा जा रहा हूं. मैंने कई चीजें साफ-साफ अनुभव कीं. इसने मुझे हिलाकर रख दिया.

पर इससे पहले कि मैं आगे बढ़ूं, यह जरूरी है कि थोड़ा पीछे लौटा जाए और जो बात मैं कह रहा हूं उसकी पृष्ठभूमि समझी जाए.

यह एक नौजवान की कहानी है. एक ऐसे संजीदा नौजवान की जिसे एक जोकर बना दिया गया. वह कहानी सुनाने का वक्त आ गया है. इसलिए क्योंकि अब वह नौजवान उस पड़ाव पर पहुंच गया है जहां उसकी यह मसखरी खत्म होनी चाहिए.

यह किशोर कुमार की कहानी है. मेरी कहानी.

एक आदर्शवादी लड़का जल्द ही एक मगरूर और दूसरों में दोष ढूंढ़ने वाला नौजवान बन गया. परंपराओं के लिए अब मेरे मन में सम्मान नहीं था. मैं हर चीज का मजाक उड़ाने लगा था. कुल मिलाकर कहूं तो मैं बहुत तेजी से वह किशोर कुमार बन रहा था जिसे आप सब जानते हैं

सालों पहले जब मैंने फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था तो मैं एक दुबला-पतला गंभीर नौजवान था. मुझमें अच्छा काम करने का जुनून था. मैं गाता था. मेरे आदर्श केएल सहगल और खेमचंद प्रकाश थे. ऐसे नाम जिनकी गूंज तब तक रहेगी जब तक फिल्म इंडस्ट्री का वजूद रहेगा. मैं हमेशा इन दोनों हस्तियों को अपने लिए मिसाल के तौर पर देखता.

एक प्लेबैक सिंगर के तौर पर मेरी शुरुआती कोशिशें खासी कामयाब रहीं थी. खेमचंद प्रकाश के साथ मैंने जो गाने गाए वे गंभीर और सहज थे. इनमें कोई जटिलता नहीं थी. खेमचंद प्रकाश को मैं एक ऐसा नौजवान लगता था जो एक दिन बहुत अच्छा गाने लगेगा. उनका सोचना गलत नहीं था.

यहीं मेरी डोर ‘दूरदृष्टि’ वाले कुछ लोगों के हाथ में आ गई. उन्होंने फैसला किया कि इस नौजवान को कुछ सलीका सिखाना चाहिए. उन्हें लगता था कि मैं खुद को एक ऐसी शैली में ढाल रहा हूं जो जल्द ही किसी काम की नहीं रहेगी. उसी तरह जैसे कल का अखबार आज के लिए बेकार की चीज हो जाता है. उन्हें लगा कि कि मुझे आने वाले कल के हिसाब से ढलना चाहिए.

उनमें से एक ने मुझे सलाह दी, ‘ऐसे मत गाओ. यह कुछ ज्यादा ही सादा है. इसमें थोड़ा मसाला डालो. कुछ बूम चिक टाइप चीज करो. इसमें जैज और यॉडलिंग डालो.’

दूसरे ने कहा, ‘प्लेबैक सिंगिग में कोई भविष्य नहीं है. एक्टिंग में आ जाओ. पैसा इसी में है.’

तो सलाहें आती गईं और मैं उन पर अमल करता गया. खुद को बदलने में मुझे ज्यादा वक्त नहीं लगा. गंभीर और आदर्शवादी लड़का जल्द ही एक मगरूर और दूसरों में दोष ढूंढने वाला नौजवान बन गया. परंपराओं के लिए अब मेरे मन में सम्मान नहीं था. मैं हर चीज का मजाक उड़ाने लगा था. कुल मिलाकर कहें तो मैं बहुत तेजी से वह किशोर कुमार बन रहा था जिसे आप सब जानते हैं.

उस दिन को मैं जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा जब मैं अपने गुरु खेमचंद प्रकाश पर हंसा था. मैंने उनसे कहा था, ‘इन गंभीर चीजों को भूल जाइए खेमराज जी. अब ये नहीं चलेंगी. अब लोग जैज चाहते हैं. उन्हें यॉडलिंग अच्छी लगती है.’

यॉडलिंग के लिए मैंने उनके सामने एक नमूना भी पेश किया था. वे बहुत नाराज हुए. उन्होंने मुझे न सिर्फ खूब फटकारा बल्कि चेताया भी कि मैं एक दिन पछताऊंगा.

आज समझ में आया है कि वे सही थे. लेकिन तब मुझे इसमें कोई शक नहीं था कि वे गलत हैं. हालात ने भी तो मेरा साथ दिया था. इसलिए मैंने गानों में यॉडलिंग और जैज के प्रयोग किए. गाने भी हिट रहे.

प्रयोग का यह भूत सिर्फ गाने तक ही नहीं रहा. अभिनेता के तौर पर भी मैंने इसे दोहराया. अब तक मैं सामान्य तरीके से ही अभिनय करता आ रहा था. मुझे वह दिन याद है जब एक जाने-माने निर्माता-निर्देशक ने एक दिन सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए कहा था, ‘तुम जो कर रहे थे वह 25 साल पुरानी चीज है. अब जब तुम्हें बात समझ में आ गई है तो मैं तुम्हें कुछ बनाकर ही रहूंगा.’

मेरे दिमाग में ये रहस्यमयी शब्द गूंज रहे थे. शूटिंग के दिन जब मैंने अपने डायलॉग बोले तो निर्देशक साहब बोले, ‘ऐसे नहीं बच्चे. इसमें कुछ स्पेशल डालो.’

मैं एक ऐसा बंदर बन गया जिसे भारी मेहनताना मिलता था. मैं भी पैसा कमा रहा था और मेरे प्रोड्यूसर भी. मेरी फिल्में हिट हो रही थीं और जनता खुश थी

शॉट फिर से हुआ. निर्देशक साहब अब भी संतुष्ट नहीं थे. सारा दिन रीटेक में ही चला गया. हर बार मैं पहले से ज्यादा घबरा जाता. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर यह शख्स मुझसे डायलॉग कैसे बुलवाना चाहता है.

जब दिन खत्म हुआ तो मेरी हालत देखकर सेट पर मौजूद एक कर्मचारी ने मेरे पास आकर कहा, ‘उनके दिमाग में चार्ली चैप्लिन घूम रहा है. डायलॉग उसी स्टाइल में बोलो.’

किस्मत से मैंने चार्ली चैप्लिन की कई फिल्में देखी हुई थीं. अगले दिन जब शूटिंग शुरू हुई तो मैंने उसी अंदाज में अपने डायलॉग बोल दिए.

‘बहुत अच्छे’, निर्देशक साहब चिल्लाए और मुझे गले लगाते हुए बोले, ‘मेरा सपना पूरा हो गया है.’

फिर तो एक के बाद एक फिल्में मेरे पास आती गईं और मैं अपनी कॉमेडी भूमिकाओं को जोश से निभाता गया. फॉर्मूला यही था कि मुझे बेवकूफाना से बेवकूफाना हरकतें करनी होती थीं. कूदना-फांदना, धड़ाम से गिरना, चेहरे बनाना और कुल मिलाकर कहें तो एक बंदर की तरह बर्ताव करना. मुझे यकीन था कि जनता भी यही चाहती है. मेरी फिल्में हों या गीत, लगातार हिट हो रहे थे. मुझे लगता था कि आलोचक कौन होते हैं यह कहने वाले कि अभिनय की मेरी शैली खराब है. आखिर मैं तो वही कर रहा हूं जो जनता चाहती है.

समय के साथ मुझे और भी लोग मिलते गए जो इस शैली को समर्पित थे. उनमें मेरे साथी भी थे और निर्माता-निर्देशक भी. इस तरह मैं एक ऐसा बंदर बन गया जिसे भारी मेहनताना मिलता था. मैं भी पैसा कमा रहा था और मेरे प्रोड्यूसर भी. मेरी फिल्में हिट हो रही थीं और जनता खुश थी. इससे ज्यादा किसी को क्या चाहिए?

एक फिल्म का उदाहरण याद आ रहा है. इस फिल्म में कुछ ऐसे दृश्य थे जिनमें मेरा किरदार अपने बड़े भाई को गालियां दे रहा है. उसे जलील कुत्ते जैसे शब्द कह रहा है. मुझे लगा कि जनता निश्चित तौर पर इसे पसंद नहीं करेगी. छोटा भाई अपने बड़े भाई को गालियां दे, यह भला किसे अच्छा लगेगा. मैंने निर्देशक से यह बात कही. उसका कहना था, ‘चिंता मत करो किशोर. तुम जो भी करोगे जनता उसे स्वीकार कर लेगी.’

और जब फिल्म के प्रीमियर के दौरान ये दृश्य स्क्रीन पर आए तो दर्शकों ने तालियां बजाईं.

मुझे पक्का यकीन हो गया था कि एक्टिंग का मेरा यह स्टाइल सही है, इसलिए मैं इसमें पूरी तरह से डूब गया. वह ऐसा वक्त था जब मैं कहा करता था कि पैसा ही सब कुछ है.

फिर एक दिन मैंने अपनी ही फिल्म लांच की. इसका नाम था चलती का नाम गाड़ी. अपने सही होने पर मुझे इतना यकीन था कि जब संगीतकार एसडी बर्मन ने इसके लिए बनाई हुई कुछ मौलिक धुनें मुझे सुनाईं तो मैंने उन्हें हड़का दिया. मैंने कहा, ‘क्या आपको लगता है जनता यह सुनना चाहती है? कृपा करके आप किसी म्यूजिक स्टोर में जाएं और कुछ रॉक एंड रोल रिकॉर्ड्स खरीदें. लेकिन

ध्यान रखें कि ऐसे रिकॉर्डस न खरीद लीजिएगा जो दूसरे संगीतकार भी खरीद रहे हों.’

इसके बाद एक बड़ी अजब चीज हुई. इस फिल्म में मैं एक गायक का किरदार निभा रहा था. मेरे एक गीत के लिए संगीतकार ने कहा कि इसे मेरी नहीं बल्कि किसी प्लेबैक सिंगर की आवाज में रिकॉर्ड किया जाएगा. मैंने एतराज किया तो जवाब आया कि यह शास्त्रीय गीत है और मैं शास्त्रीय गीत नहीं गा सकता. यह बात उस शख्स के लिए कही जा रही थी जिसने अपना करियर ही शास्त्रीय गीतों से शुरू किया था. सफलता और घमंड से बनी मेरी दुनिया की बुनियाद पर यह पहली चोट थी.

फिर मेरी फिल्म बंदी आई. ईमानदारी से कहूं तो इसे लेकर मैं सशंकित था क्योंकि इसके दूसरे हिस्से में मुझे एक बूढे़ व्यक्ति की भूमिका अदा करनी थी. यह एक गंभीर भूमिका थी. मुझे लगा कि जनता को यह पसंद नहीं आएगी. इसलिए इसकी भरपाई के चक्कर में मैंने फिल्म के पहले हिस्से में अपनी चिरपरिचित एक्टिंग की अति कर दी. लेकिन मुझे हैरानी हुई जब पहले हिस्से की आलोचना और दूसरे हिस्से की तारीफ हुई.

हो सकता है कि मैं असफल हो जाऊं और मुझे इंडस्ट्री छोड़नी पड़े. पर मुझे इस बात के लिए तो याद किया जाएगा कि मैंने कुछ अच्छा करने की कोशिश की

इसके बाद आंखें खोलने वाली एक और घटना हुई. मेरी एक फिल्म आई थी आशा. यह इस सिद्धांत के साथ बनाई गई थी कि जितनी अति उतना अच्छा. इसमें वह सब कुछ था जो जनता चाहती थी. रिलीज होने के बाद यह उम्मीदों पर बमुश्किल आधी ही खरी उतर पाई. इसके बाद एक आलोचक ने लिखा कि अगर मैं इसी रास्ते पर चलता रहा तो मेरे लिए अपना दायरा बढ़ाना और दूसरी तरह की भूमिकाएं करना मुश्किल होगा. मुझे लगा कि उसकी बात सही है.

फिर कश्मीर में मैंने खुद को अपने असली रूप में देखा. मुझे लगा कि मैं एक बेमतलब मसखरा हूं. ऐसा आदमी जिसे बस मसखरी के लायक ही समझा जाता है. मुझे लगा कि मैं पैसे के पीछे भागने वाला एक ऐसा इंसान हूं जिसने इस यकीन में अपना स्तर सबसे नीचे कर दिया है कि उसकी फिल्में लोगों द्वारा सराही जाती हैं. मुझे अहसास हुआ कि मैं एक ऐसा कलाकार हूं जिसने इतना काम सिर पर ले लिया है कि वह लगभग पागल हो गया है. वह मानसिक रूप से अशांत रहता है. चिंता करता रहता है. उसे नींद नहीं आती.

मैं उस असीम मूर्खता के बारे में सचेत हो गया था जो मैं और मुझसे जुड़े लोग फिल्म निर्माण के नाम पर रच रहे थे. मुझे महसूस हुआ कि समकालीन फिल्म संगीत एक तमाशा बन कर रह गया है. मुझे यह  अहसास हुआ कि मैं ही नहीं मेरे बड़े भाई अशोक कुमार भी उस नाव पर सवार हैं. उन्हें ऐसी फिल्में दी जा रही हैं जो उनकी महान प्रतिभा के साथ न्याय नहीं करतीं.

मुझे एक किस्सा और याद आता है. मैं एक म्यूजिक स्टोर में था. सेल्समैन ने मुझे बताया कि आजकल विदेशी जब पूछते हैं कि इंडियन रिकॉर्ड्स में क्या नई चीज आई है तो उसे समझ में नहीं आता कि वह क्या करे. उसका कहना था, ‘मैं उन्हें क्या दिखाऊं? नए के नाम पर या तो मशहूर उस्तादों की कुछ रिकॉर्डिंग्स हैं या फिर केएल सहगल के गानों के रिकॉर्ड. मैं उन्हें फिल्म संगीत वाले रिकॉर्ड कैसे दिखाऊं? उन्हें तो झटका लग जाएगा.’

इसलिए जब मैं अपनी छुट्टी से लौटा तो तब तक मैं फैसला कर चुका था. मैंने सोच लिया था कि अगर अब मुझे ऐसी भूमिकाओं के प्रस्ताव आते हैं तो मैं सीधे उन्हें ठुकरा दूंगा.

बांबे वापस आने के बाद जल्द ही दो फिल्मकारों ने यह कहते हुए मुझसे संपर्क किया कि वे मुझे अपनी फिल्म में लेना चाहते हैं. वे सुबह-सुबह मेरे घर आए. मेरा सेक्रेटरी भी घर पर था. मेरी पत्नी पोर्च में एक सब्जीवाले से सब्जियां खरीद रही थीं. इन निर्देशकों ने बात मेरी तारीफ से शुरू की. उनका कहना था कि मैं एक जीनियस हूं और उनके पास मेरे लिए एक भूमिका है. उनमें से एक ने कहा, ‘आप सिचुएशन सुनिए. आप हीरोइन के बेडरूम में घुसते हैं. आपको पता है किस तरह? हा हा हा…आप एक साड़ी पहनकर कमरे में घुसते हैं. है न शानदार? इसके बाद आपको पता है क्या करना है?’

मैंने उनको बीच में रोकते हुए कहा, ‘एक मिनट. मैं आपको बताता हूं कि मैं क्या करूंगा.’

वे कुछ समझते इसके पहले मैंने छलांग लगाई और दो कलाबाजियां खाते हुए पोर्च में पहुंच गया. दोनों लोग चकरा गए. मैंने अपने सेक्रेटरी से कहा कि आगे वह उन दोनों से बात कर ले. फिर मैं बिना कुछ कहे भीतर चला गया. थोड़ी देर बाद जब मैं बाहर आया तो दोनों लोग जा चुके थे.

मैंने सेक्रेटरी से पूछा, ‘क्या हुआ?’

‘उन्हें लगा कि आप पागल हो गए हैं. वे बहाना बनाकर निकल गए.’, सेक्रेटरी ने कहा.

मुद्दा यह है कि मेरे लिए बेकार की चीज के पीछे भागने की यह अंधी और गलत दौड़ छोड़ने का वक्त आ गया है. मैं अब सीधा चलना चाहता हूं. अगर कॉमेडी है तो वह गूढ़ होनी चाहिए. संगीत

वास्तव में भारतीय होना चाहिए. फिल्मों का कोई मतलब होना चाहिए.

मैं खुद एक फिल्म बनाना चाहता हूं. मैं इस पर जल्द ही काम शुरू करूंगा. मैं खुद इसे निर्देशित करूंगा और इसमें संगीत भी दूंगा. यह मेरी उन फिल्मों से बिल्कुल अलग होगी जिनके दर्शक आदी हो चुके हैं. मुझे पता है कि मेरे कई दोस्त और शुभचिंतक यह सुनते ही मेरी तरफ दौड़ेंगे और सलाह देंगे कि मैं ऐसी बेवकूफी न करूं. वे मुझे मनाने की कोशिश करेंगे कि मैं वही करता रहूं जो मैं अब तक सफलतापूर्वक करता आ रहा हूंं. पूरी कोशिश करूंगा कि उनकी बात न सुनूं.

अगर फिल्म चल जाती है तो बहुत अच्छा. अगर नहीं चली तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता. एक फिल्म फ्लॉप हो सकती है, दूसरी भी और फिर तीसरी-चौथी भी. हो सकता है मैं अपना सारा पैसा गंवा दूं. वह पैसा जिसकी कभी मैंने इतनी पूजा की है. हो सकता है कि मैं असफल हो जाऊं और मुझे इंडस्ट्री छोड़नी पड़े. पर कम से कम मुझे इस बात के लिए तो याद किया जाएगा कि मैंने कुछ अच्छा करने की कोशिश की. लोग शायद कहेंगे कि ‘बेचारा किशोर कुमार, जोकर बनकर अच्छा-खासा चल रहा था. फिर उसने कुछ अलग और अच्छा करने की कोशिश की. देखो क्या हाल हो गया उसका.’

भले ही ऐसा हो जाए मगर मुझे लगता है कि मेरे लिए यह भी अच्छा होगा.

आर्यसमाजी अध्यापक का बेटा. मैं…

 

धर्मेन्द्र । माधुरी

अस्सी रुपये महीना? मैंने यह देखा बाबू जी को यह देखकर सदमा पहुंचा. उनका बेटा जवान था, तंदुरुस्त था, खूबसूरत था. उनके कहने पर ही उसने सूट पहना था, टाई लगाई थी. जब शहर में आई ट्यूबवैल कंपनी के अधिकारियों ने कह दिया कि उनके पास मजदूरी का काम है और उसमें अस्सी रुपये से ज्यादा नहीं मिल सकते, तो बाबू जी को सचमुच में बुरा लगा.

और उनसे ज्यादा बुरा मुझे लगा. मैंने सोचकर देखा तो लगा कि मैंने उनके साथ बहुत ज्यादती की है, उनकी उम्मीदों पर पानी फेरा है, तमन्नाओं पर ठेस लगाई है. वे पक्के आर्यसमाजी, तिस पर अध्यापक. दुनिया भर की सेवा करना और समाज हित कर गुजरना उनका एकमात्र ध्येय था; कहीं पाठशाला, कहीं धर्मशाला, कहीं गुरुद्वारा, कहीं समाजभवन, जहां जो सुधार हो सके वे करने को तैयार थे और आज उन्हें लगता होगा कि सब किया-धरा व्यर्थ है, अपने बेटे को तो वे सुधार नहीं पाए. दो कौड़ी का लड़का निकला! मुझे याद आया कि हाई स्कूल तक तो मैं भी आर्यसमाज मंदिर में सुबह-शाम प्रार्थना करता था, झाड़ू-बुहारी तक बड़ी श्रद्धा से कर आता था! फिर पढ़ने बाहर गया और फिल्म का भूत सिर पर चढ़ गया. इंटर और बीए में फिर फेल, फिर फेल, फिर फेल…, और अब काम मिल रहा है तो मजदूरी का! मैं यह काम करूंगा?

मैंने एक बार बाबू जी की तरफ देखा, एक बार अधिकारियों की तरफ. कोट टाई निकाल दी, कहा, ‘मुझे मंजूर है. मैं मजदूरी का काम करूंगा.’

उस एक पल को जो चमक बाबूजी की आंखों में आई, मैं उससे धन्य हो गया. खुशी-खुशी काम पर चला गया. दूसरे दिन मैंने ट्यूबवैल लगाए जाते देखा. तीसरे दिन मैंने खुद एक ट्यूबवैल फिट कर दिखाया. अधिकारी बहुत खुश हुए. बोले, ‘मजदूरों का काम करने के लिए बहुत से हैं. तुम फिटिंग में लगो. हमारे साथ जगह-जगह चलोगे और काम सुपरवाइज करोगे. तंदुरुस्त हो, खूबसूरत हो!… आं… तुम्हारी तनख्वाह तीन सौ रुपये होगी. मंजूर? ‘

मैं फिर कोट-टाई पहन कर बाबूजी के पास आया. उनके पांव छुए. बताया कि मुझे तीन सौ महीना मिलेगा. बाबू जी हैरत से देखते रहे- कौन-सा जादू जानता है उनका लड़का, जो तीन दिन में तीन सौ की तरक्की ले आया? उस पल उनके चेहरे का संतोष नहीं भूलता. मेरी वह पहली तरक्की जिंदगी की सबसे बड़ी तरक्की थी, आज की लाखों की तरक्की से भी बड़ी.

मगर फिर बाबूजी ने ही मुझे रोक लिया, वे लोग बहुत तरक्की देने को तैयार हो गए थे और अपने साथ विदेश ले जाने को कहते थे. उनके घरों में मेरा आना-जाना था. बाबूजी डरते होंगे कि कही विदेश जाकर उनका आर्यसमाजी बेटा रंग-ढंग न बदल ले. लेकिन यहां रह-रहकर फिल्म के सपने करवटें बदलने लगते. बाबूजी की पसंद नहीं थी यह सब. अपनी जान उन्होंने मेरा नशा उतारने की तरकीब निकाल ली. मेरी शादी कर दी. एक बार मुझे भी लगा कि अब स्थिर होना चाहिए, घर-गृहस्थी है, जिम्मेदारियां हैं, जुआ खेल पाने का वक्त गया. बहुतेरी कोशिश की कि कहीं जम जाऊं, पर तभी ‘फिल्मफेयर-यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स’ के प्रतिभा चुनाव की घोषणा पढ़ी. एक बार फिर मन उछला. एक स्टूडियो में जाकर फोटो खिंचवा आया, भेज दिए. बाबूजी को अच्छा नहीं लगा और मां को भी शायद, क्योंकि उनके लिए सब अच्छा-बुरा वही था, जो बाबूजी के लिए था. एक बार सोच में पड़ा, इन्हें दुख पहुंचाकर क्या अच्छा कर रहा हूं? मगर मुझ पर मेरा बस न था. साक्षात्कार के लिए बुलाया गया, तो चला गया. चुन लिया गया तो खुशी से फूला न समाया. पर जल्दी ही लगने लगा कि वह खुशी झूठी थी.

जिन लोगों ने चुना था, उन्हीं ने काम नहीं दिया. कितना तो वक्त और कितना सारा आत्मविश्वास गल गया, गलता गया. निराशा ने घेरा और काली छाया चहुं ओर नजर आने लगी. चक्कर काटते चेहरा हताश और बदन फीका होने लगा. एक बार और आखिरी बार फैसला कर लिया – यह दुनिया मेरे लिए नहीं है, मैं वापस खेतों में चला जाऊंगा. तभी वह मोड़ आ गया, जिसने मेरा रास्ता तय कर दिया, जिस पर अब तक चल रहा हूं. मुझे ‘ दिल भी तेरा, हम भी तेरे ‘ के लिए बुलाया गया और वह काम मिल गया. फिर विमल दा ने ‘बंदिनी’ के लिए बुला लिया.

खैर, यह सारा किस्सा पहले ही आपको मालूम होगा. क्यों न किस्से को किस्से की तरह कहूं, जो सुनने में मजेदार लगे? तब एक बात है, किस्से में नाम नकली होते हैं, इसलिए आगे से मैं सब नाम नहीं लूंगा, माफी चाहता हूं.

शुरू-शुरू का एक वाकया सुनिए. एक फिल्म के तीन भागीदार निर्माता थे. मुझे बुलाकर साक्षात्कार किया. एक बोला, ‘लड़का तो अच्छा है.’

दूसरा बोला, ‘हीरा है हीरा!’

तीसरा बोला, ‘लाखों का’

एक बोला, ‘तो अनुबंध कर लो, साइनिंग पैसा दे दो- एक हजार एक रुपया’

दूसरा बोला, ‘क्या करते हो! एक हजार एक? नहीं, नहीं, पांच सौ एक ठीक हैं.’

तीसरा बोला, ‘ चलो तो तुम जल्दी से पैसे दे दो.

‘दूसरा बोला, ‘मेरे पास तो इतने नहीं हैं.’

तीसरा बोला, ‘सब मिलकर निकालो.’

सबने पैसे निकाले, कुल इक्यावन रुपये. हीरो साइन हो गया- इक्यावन रुपये में.

जिनके यहां पेइंग गेस्ट था वे उकता गए थे. अच्छा लड़का है! खाता-पीता है और धेला नहीं देता! कुछ भी करके इसे अब जाना चाहिए. या काम पा कर पैसा देना चाहिए. कायदे की बात है!

तभी विमल दा का बुलावा आया. जाकर मिला. वे बोलते बहुत कम थे, धर्मेंद्र की जगह धर्मेंदु पुकारते थे. उस दिन भी कुछ न बोले. आते वक्त एक वाक्य कहा, ‘जो काम किया है उसकी रीलें दिखाओ.’

निर्माता से कहूंगा तो बिगड़ जाएगा! लैबोरेटरी में जाकर एडीटर को मक्खन लगाया. किसी तरह स्मगल करके अपने काम की रीलें ले जा कर विमल दा को दिखाईं. उन्होंने देख लीं, बोले कुछ नहीं.

फिर एक दिन बुलावा आया. वे मिले, वैसे ही चुपचाप. कहा, ‘बाहर बैठो.’ दिन भर बैठा रहा. शाम हताश होकर लौट रहा था कि वे नीचे उतरे. बोले, ‘तुम को हीरो लिया है, साइनिंग एक हजार एक, ऊपर से चैक ले लो.’

क्रॉस चैक लेकर उड़ा-उड़ा घर पहुंचा. मालूम हुआ, इसके पैसे भुनाने के लिए तो बैंक में खाता चाहिए! वो तो नहीं है. फिर…?

फिर तो ‘बंदिनी’ के बनते-बनते मैं चल निकला. एक छोटी ‘फिएट’ गाड़ी ले ली. रंग हरा, नंबर ‘एमआरएक्स- ९१४४’ भागा-भागा स्टूडियो आया, विमल दा से कहा, ‘दादा, मैंने गाड़ी ली है!’

वे कुछ नहीं बोले. बाहर चले गए. दिल दुखा. लगा कि न मेरे दुख का कोई हिस्सेदार है, न सुख का. पहली बार गाड़ी ली है, कितने चाव से बताने लगा था और वे सुने बिना ही चले गए? घंटों उदास फिरता रहा. तभी किसी ने कंधे पर हाथ रखा, विमल दा थे, ‘तुम कुछ कह रहे थे धर्मेंद्र?’

‘जी, नहीं तो!’

‘झूठ. तुम कह रहे थे, गाड़ी ली है? कहां है? दिखाओ!’

मैंने उन्हें गाड़ी दिखाई और उन्होंने इतना उत्साह दिखाया, जैसे उन्होंने पहली बार गाड़ी देखी हो. इसके बाद मालूम हुआ कि इन घंटों में वे कितने बड़े मानसिक तनाव में से गुजर कर आए थे- वह मैं कहना नहीं चाहता. पर तब बिमल दा के आगे सर झुक गया था. वे छोड़ गए तो मैं फूट-फूट कर रोया था. इधर-उधर देखा, सब तो नहीं रो रहे! क्या केवल मुझसे ही उनका नाता था, या मैं ही अतिभावुक हूं?

एक किस्सा और सुनाता हूं. एक दिन सुबह-सुबह एक आदमी चिट्ठी दे गया, लिखा था, ‘ शाम के सात बजे, सात लाख रुपये एक थैले में रखकर अपने दरवाजे पर मिलना. घर की बत्तियां बुझी हों. मैं आऊंगा और थैली ले जाउंगा. जरा भी मामला इधर-उधर हुआ या पुलिस को इसकी खबर मिली तो पूरे परिवार को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा.’

मैंने वह चिट्ठी अपने सहयोगी को दे दी कि पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दे. पर मुझे पता था कि होनाहवाना क्या है. ऐहतियात के तौर पर ये जरूर किया कि घरवालों को इसके बारे में बता दिया. फिर मैं इसे भूल गया. घरवालों ने भी गंभीरता से नहीं लिया.

… और रात को मैं देर से लौटा तो एक सरदार जी दरवाजे पर मिले. बोले, ‘मेरी चिट्ठी मिली?’

ओह तो ये महाशय थे! मैं ठहरा जाट आदमी. घुमाकर एक दिया तो महाशय नाली में जा गिरे. घर के और लोग भी आ गए और उन्हें पीटने लगे. मैंने बहुत रोका, कहा, ‘ बहुत हुआ. ‘ लेकिन कौन सुनने वाला था वहां. सरदार जी को पुलिस में दे आए.

वह बेवकूफ इतना कि पुलिस ने कहा चिट्ठी की नकल करो तो उसने चिट्ठी की हूबहू उसी लिपि में नकल कर दी. और बराबर कहता रहा कि उसकी पूरी टोली है. उसके साथ ठीक नहीं हो रहा.

बाद में पता लगाकर उसके घर गया. उसके पिता जी ने कहा कि हमारे मुंडे को छुड़वा दो… पुलिस वालों ने मेरे कहने पर भी उसे नहीं छोड़ा. मुझे उसकी जमानत लेनी पड़ी.

खूब ऊंच-नीच देखे, रोचक लगती है- फिल्मी दुनिया. क्या नहीं है यहां. लोग हैं, प्रतिभा है, जोश है, दिलीप, राज, शशि कपूर, मीना कुमारी, शर्मिला, लीना (लीना का नाम लिया तो चौंकिए मत आगे-आगे देखिए… मुझे उनकी प्रतिभा पर पूरा यकीन है) हैं… और मैं नाचीज भी हूं जिसे आप सबने इतना प्यार दिया. मैं कैसे आपका शुक्रिया         अदा करूं.