शब्दों का सफर

हिंदुस्तानी फिल्मों के मिजाज को हिंदुस्तानी इसके गीत ही बनाते हैं. हमारी फिल्मों के साहस की सबसे पहली निशानी भी इसके गीत ही हैं. भारत में फिल्मों की विकास यात्रा में बोलती फिल्मों से पहले तक पश्चिमी परिपाटी का जबरदस्त असर था. लेकिन बोलने वाली फिल्मों से भारतीय सिनेमा ने जो राह पकड़ी वह बिल्कुल नई थी. यह पश्चिम के गीत-रहित सिनेमा की बजाय हिंदुस्तान की अपनी, गीतों से लबालब रहने वाले लोक-माध्यमों की डगर थी. इसीलिए 1931 में आई भारत की सबसे पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ में सात गाने थे. शायद आलम आरा के हिस्से में आई कुल चर्चा उसके हिट गानों की वजह से ही थी.

हालांकि आलम आरा के संगीत में जादू जैसा कुछ नहीं था, मगर इसने अगर धूम मचाई तो इसके पीछे सबसे बड़ी वजह आसान धुनों पर सजे असरदार अल्फाज़ थी. असल में यह फिल्म पारसी थिएटर के लबो-लहजे वाली फिल्म थी जिसमें लेखन का विभाग हमेशा मार्के के शायरों से सजा होता था. इसके बाद अगले चार-पांच साल तक आने वाली हर फिल्म में गीतों की भरमार रही.

आरंभिक दौर के ज्यादातर गीतकार असल में पारसी थिएटर या अन्य नाट्य मंडलियों से जुड़े हुए शायर-कवि थे. इनमें राधेश्याम कथावाचक, डीएन मधोक, आरजू लखनवी, गोपाल सिंह नेपाली, तनवीर नकवी, आगा कश्मीरी, पंडित सुदर्शन आदि प्रमुख थे. इनमें फिल्मी गीतों के क्षेत्र में सबसे बड़ा योगदान आरजू लखनवी का है. साहिर कहा करते थे कि आरजू ने ही फिल्मी गीतों को उसका सबसे पहला मुहावरा, सांचा और ज़ुबान दी. आरजू का दिया यह मुहावरा नब्बे के दशक तक चलन में रहा. 1935 के आस-पास जब विशेषज्ञ संगीतकारों जैसे आरसी बोराल, पंकज मलिक, तिमिर बरन ने फिल्मी दुनिया में कदम जमाए तब पहली बार सिनेमा को जादुई धुनें मिलना शुरू हुआ और यहीं से यादगार गीतों का सिलसिला भी शुरू हो गया.

हमारे फिल्मी गीतों की विषयवस्तु शुरुआत में तीन प्रवृत्तियों के इर्द-गिर्द घूमती थी. इनमें सबसे पहली थी प्रेम. अन्य दो धाराएं भक्ति और देश-प्रेम की थी. प्रेम की प्रवृत्ति आज तक हिंदी फिल्म गीतों की रीढ़ बनी हुई है. आरजू लखनवी ने आरंभिक दौर के ज्यादातर रूमानी नगमे और गजलें सिनेमा को दीं. इस सिलसिले में दूसरा नाम केदार शर्मा का आता है. न्यू थिएटर के गीतकारों में सबसे ज्यादा चर्चित केदार शर्मा ही थे. इसी समय बहुमुखी प्रतिभा के धनी डीएन मधोक भी प्रेम और भक्ति की उम्दा रचनाओं से हिंदी फिल्मों को धनी कर रहे थे. पीएल संतोषी भी इस कड़ी में एक अहम नाम थे. लेकिन आरंभिक फिल्मी गीतों का जिक्र अधूरा है अगर इनमें मौजूद राष्ट्रीय धारा वाले गीतों की बात न हो. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में आई फिल्म किस्मत के लिए लिखे गए प्रदीप के गीत दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है ने अंग्रेजी शासन की नींद हराम कर दी थी. बाद के वर्षों में भी कवि प्रदीप ने राष्ट्रीय चेतना और देशप्रेम को समर्पित ऐसे-ऐसे उम्दा गीत लिखे कि वे एक तरह से हमारे देश के लिए राष्ट्रीय गीतकार ही बन गए.

भारतीय फिल्मों की विकास यात्रा पर बारीक नजर डाली जाए तो पता चलता है कि हिंदुस्तानी सिनेमा के साहस की सबसे पहली निशानी इसके गीत ही हैं

लेकिन असल मायनों में हिंदी सिनेमा के कभी न भुलाए जा सकने वाले गीतों का दौर 1945 के बाद शुरू हुआ. संगीत के साथ गीतों का स्वर्ण-युग भी यही है. इस दौर में उर्दू-हिंदी के पहली श्रेणी के शायरों ने फिल्म इंडस्ट्री का रुख किया. इनमें साहिर लुधियानवी, शकील बदायूंनी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, खुमार बाराबंकवी, जांनिसार अख्तर, राजा मेंहंदी अली खान, हसरत जयपुरी या फिल्मों में हिंदी धारा लाने वाले पंडित नरेंद्र शर्मा, इंदीवर, भरत व्यास, राजेंद्र कृष्ण, प्रेम धवन, शैलेंद्र आदि सबसे प्रभावी नाम रहे. इन सभी ने अगले तकरीबन 25 साल तक फिल्मी गीतों को साहित्य की कसौटी पर ढीला नहीं पड़ने दिया. इस दौर में भी फिल्मी गीतों की सबसे मुख्य अभिव्यक्ति प्रेम की ही रही. देशभक्ति और भक्ति दो अन्य मुख्य विषय थे. मगर अब एक और बिल्कुल नया रंग फिल्मों गीतों को मिल गया था. यह रंग था प्रगतिशील विद्रोह का. फिर भी इस पूरे दौर के गीतों की सबसे बड़ी खासियत प्रेम के अलग-अलग रंगों की छटा ही रही. 1946 की फिल्म शाहजहां में मजरूह के लिखे गम दिए मुस्तकिल का सोज आज भी बरकरार है. वहीं शकील बंदायूनी के दर्द (1947) के लिए लिखे अफसाना लिख रही हूं को कौन भूल सकता है. वहीं शैलेंद्र के 1949 में बरसात के लिए लिखे गए बरसात में हमसे मिले तुम, 1951 में आवारा के लिए लिखे गए आवारा हूं और घर आया मेरा परदेसी आदि गीतों ने इनमें सादगी और सुख की अनुभूति को भी खूब आगे बढ़ाया. इसी वक्त शकील बदायूंनी ने बैजू बावरा, अमर जैसी फिल्मों में जितने सुंदर भजन लिखे उसने देश को कौमी एकता की एक नई मिसाल दी. शकील की ही तरह बाद के वर्षों में साहिर लुधियानवी की कलम से भी सीमा, नया दौर जैसी फिल्मों के लिए कुछ बेहद लोकप्रिय भक्ति गीत निकले.

अगले कुछ वर्ष साहिर, शकील, कैफी, राजेंद्र कृष्ण और शैलेंद्र के ही नाम रहे. साहिर लुधियानवी ने प्यासा से हिंदी फिल्मों के गीतों को एक नया तेवर और बेबाकी दी. जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां है और ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है जैसे गाने साहित्य के फिल्मों से मिलन की अनूठी मिसाल थे. इसके अलावा धूल का फूल के तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा और साधना के औरत ने जनम दिया मर्दों को गीत के साथ साहिर ने अपनी विद्रोही अभिव्यक्ति जारी रखी. साधना का गीत तो औरत को समर्पित फिल्मी गीतों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. साहिर की निजी जिंदगी से निकला यह गीत वास्तव में रोंगटे खड़े कर देने वाली रचना था. वहीं शकील ने इसी साल आई मदर इंडिया में गंवई लोकसंस्कारों से सजे गीत जितने लालित्य के साथ पेश किए उसने उन्हें भी साहिर के कद का ही गीतकार बनाए रखा. शैलेंद्र भी यहूदी और मधुमती जैसी फिल्मों के जरिए अपने अलग अंदाज के गीत सिनेमा को दे रहे थे. गीतकारों के लिए पहला फिल्मफेयर भी शैलेंद्र को ही यहूदी के अद्भुत गाने ये मेरा दीवानापन है के लिए मिला. वहीं इस समय भी पंडित भरत व्यास और कवि प्रदीप अपने भक्ति गीतों की वजह से लोगों की जुबान पर थे. 1957 में आई वी शांताराम की दो आंखें बारह हाथ में भरत व्यास का लिखा ऐ मालिक तेरे बंदे हम आज भी भक्ति गीतों में सबसे यादगार माना जाता है. 1959 में कैफी आजमी ने भी गुरुदत्त के साथ जुड़ कर कागज के फूल के लिए अमर गीत लिखे. लेकिन अगले साल 1960 में आई मुगले आजम के गीतों की ऐतिहासिक कामयाबी ने मुख्य मुकाबला फिर साहिर लुधियानवी और शकील बदायूंनी के बीच कर दिया. इसी साल साहिर के फिल्म बरसात की रात के लिए लिखे गाने जबरदस्त धूम मचा रहे थे. मुगले आजम के गीतों में शकील ने पारंपरिक प्रेम के साथ विद्रोह को भी मिला दिया जो अभी तक साहिर की विशेषता थी. फिल्म के जब प्यार किया तो डरना क्या और ऐ मुहब्बत जिंदाबाद जैसे गीत इसकी बानगी हैं. मुगले आजम के साथ ही कोहिनूर और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्मों में लिखे गए खूबसूरत नगमों ने भी शकील को साहिर के मुकाबले कुछ बड़ा ही किया. बाद के सालों में यह पूरी बहस यह कहकर खत्म करनी पड़ी कि शकील रूमानियत के तो बादशाह हैं लेकिन अपने विद्रोही तेवरों के चलते फिल्मी गीतों के विशाल फलक पर साहिर का कद उनसे ज्यादा बड़ा नजर आता है. साहिर के बड़े होने की एक वजह उर्दू अदब में उनका शकील से बड़ा होना भी रही.

1960 के बाद के वर्षों में साहिर, शकील, शैलेंद्र के अलावा मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी और राजेंद्र कृष्ण ने अपने रूमानी नगमों से लोगों का दिल जीता. यहां साहिर के ताजमहल, गजल, गुमराह, हमराज, शकील के गंगा जमुना, लीडर, राम और श्याम, शैलेंद्र के गाइड, तीसरी कसम और मजरूह के दोस्ती, चिराग के लिए लिखे गीत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. इनके साथ एक अन्य गीतकार जो बेहद लोकप्रिय रहे वे थे गजलों के बादशाह मदन मोहन के जोड़ीदार राजा मेहंदी अली खान. जिन्होंने वो कौन थी? अनपढ़, मेरा साया आदि फिल्मों में बेहद खूबसूरत गीत लिखे. लेकिन इस पूरे दशक को प्रेम के नगमों से पहले इस वजह से याद किया जाना चाहिए कि इसमें देशभक्ति को समर्पित सबसे अच्छे गीत लिखे गए. इन गीतों में सबसे पहला नाम प्रेम धवन के गीतों का आएगा जिन्होने छोड़ो कल की बातें…, ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ वतन ऐ वतन, मेरा रंग दे बसंती चोला जैसे बेहद लोकप्रिय देशभक्ति गीत फिल्मों को दिए. इसके अलावा कैफी आजमी ने भी फिल्म हकीकत में देशभक्ति का जोश भर देने वाला गीत कर चले हम फिदा लिखा. हकीकत कैफी के लिखे रूमानी नगमों जैसे हो के मजबूर मुझे और मै ये सोचकर … के लिए भी याद रखी जाएगी. कैफी ने ही मेरी आवाज सुनो जैसा मार्मिक गीत भी लिखा. इसी दशक में शकील बदायूंनी ने भी अपनी आजादी को हम, नन्हा मुन्ना राही हूं और इंसाफ की डगर पे.. जैसे गीत फिल्मों को दिए. 1965 के बाद के सालों में इंदीवर ने मनोज कुमार की फिल्म पूरब और पश्चिम के लिए है प्रीत जहां की रीत सदा जैसे कालजयी देशभक्ति गीत लिखे और मनोज कुमार की ही फिल्म उपकार में गुलशन बावरा के लिखे मेरे देश की धरती सोना…को भुलाया नहीं जा सकता.

समीर के नाम सबसे ज्यादा फिल्मों के लिए गीत लिखने का गिनीज बुक रिकाॅर्ड तो आया लेकिन अच्छे गीतों की रिकॉर्ड-बुक में वे सबसे पिछले पन्नों में चले गए

इसी दौर में कुछ और नए, पैर जमाने की कोशिश में लगे गीतकारों ने भी बहुत खूबसूरत गीत लिखे. इनमें हिंदी के लोकप्रिय गीतकार गोपालदास नीरज, आनंद बख्शी और गुलज़ार के नाम प्रमुख हैं. बाद वाले दोनों नाम 1970 के बाद के बीस वर्षों में सबसे बड़े फिल्मी गीतकार बनकर उभरे. 1970-80 के बीच कई पुराने गीतकार सक्रिय भी नहीं रहे थे, संगीत ने बदलकर गीतों को पीछे ढकेलना शुरू कर दिया था. फिर भी साहिर, मजरूह, और नरेंद्र शर्मा जैसे पुराने गीतकारों के साथ आनंद बख्शी, गुलजार और योगेश ही गीतों का स्तर बचाने में कामयाब रहे. 1975 की फिल्म जय संतोषी मां के भजनों के जरिए प्रदीप मुश्किल दौर में भी भक्ति गीतों को हिट कराने में कामयाब रहे. इस दौर में भी प्रेम की प्रधानता तो गीतों में बनी रही लेकिन देशप्रेम और भक्ति गायब से हो गए. प्रेम भी पचास और साठ के दशक का न रहकर लाउड होने लगा था. 1980 के बाद के वर्षों में जब स्वर्ण युग खत्म हो चुका था और शोर ने शब्दों को दबा लिया था, तब भी गुलजार और आनंद बख्शी के साथ जावेद अख्तर खूबसूरत गीत लिख रहे थे. गुलजार ने इजाजत, मासूम तो आनंद बख्शी ने कर्ज, एक दूजे के लिए और जावेद अख्तर ने सिलसिला, सागर आदि फिल्मों के लिए गोल्डन इरा की बराबरी वाले गीत लिखे.

1990 में भी यही तीन लोग गीतों के मेयार का झंडा थामे रहे, हालांकि आनंद बख्शी भी अब चोली के पीछे लिख रहे थे और गुलजार में भी संवेदना का पहले जैसा स्तर नहीं था और जावेद अख्तर की प्रतिभा जागती-बुझती रहती थी. लेकिन फिर भी समीर के जाने जाना-जाने तमन्ना टाइप गीतों के दौर में ये ठंडी हवा की तरह थे. 1990 से लेकर 2000 का पूरा दौर समीर का था जिन्होंने दीवाना, साजन और आशिकी जैसी कुछ फिल्मों में कुछ सुंदर गाने भी लिखे लेकिन ज्यादा काम करने की हवस ने उनके गीतों का जादू खत्म कर दिया. ज्यादातर गीत ऐसे होते थे मानो उन्हीं पुराने शब्दों और उपमाओं को किसी मशीन में डालकर गीत निकाल लिया हो. समीर के नाम सबसे ज्यादा फिल्मों के लिए गीत लिखने का गिनीज बुक रिकॉर्ड तो आया लेकिन अच्छे गीतों की रिकॉर्ड-बुक में वे सबसे पिछले पन्नों में चले गए.

हलांकि 2000 के बाद से अभी तक के दौर में भी संगीत ने शब्दों को दबा रखा है और आइटम सांग के चलन के कारण खारिज करने लायक गीत भी हिट हो रहे हैं लेकिन बदनाम होती मुन्नियों और जवान होती शीला के बीच भी इस दौर में 90 के दशक की अपेक्षा कहीं ज्यादा उम्मीद दिखाई देती है. इस दशक में हमें तारे जमीन पर लिखते प्रसून जोशी मिलते हैं और जो भी मैं कहना चाहूं, बर्बाद करें अल्फाज मेरे लिखने वाले इरशाद कामिल भी. मौला मेरे ले ले मेरी जान वाले जयदीप साहनी भी हैं, खोया खोया चांद  लिखने वाले स्वानंद किरकिरे भी और सबसे नए अमिताभ भट्टाचार्य जिन्होंने डीके बोस के भागने के बीच उड़ान के अविस्मरणीय गीत लिखे हैं. ये सब अपने नए शब्दकोशों, अभिव्यक्तियों और मुहावरों को फिल्मी गीतों में लाने वाले गीतकार हैं और फिर से फिल्मी गीतों को कविता के करीब ले जाते हैं. गुलजार भी दिल तो बच्चा है जी की अपनी ताजगी के साथ नयों के बराबर और कभी-कभी उनसे ज्यादा सक्रिय हैं. 2009 में आई गुलाल के एक गीत में पीयूष मिश्रा लिखते हैं- जिस कवि की कल्पना में जिंदगी हो प्रेमगीत, उस कवि को आज तुम नकार दो. रूमानियत की इस नकार में साहिर के गुस्से की खुशबू है और यही सबसे उम्मीद भरी बात है.