एक सहेली का शिकायतनामा

­­­­बबीता। माधुरी, १ मई १९७०

चिट्ठी किसी लड़की की थी. फोटो साथ नहीं भेजा था, वरना अंदाज लगाती कि सुंदर कहने लायक है या नहीं. भाषा से लगता था विद्रोहिणी है. लिखावट उसके संयत और सुसंस्कृत होने का भास देती थी. फिल्में देखने की वह बहुत शौकीन थी और फिल्म कलाकारों के बारे में जानकारी हासिल करना अपनी ‘हॉबी’ बनाई थी.

चिट्ठी पढ़कर मुझे उस पर प्यार आ गया. उसकी सारी ईर्ष्या, सारी जलन इस बात पर थी, मैं जो अपनी प्रसिद्धि की कैदी आप हूं, जिसे फिल्मों में काम करने के अपराध में नजरबंद किया गया है.

चंद्रमा का सा पहलू

आसमान पर चमकता हुआ चंदा हमें सिर्फ एक पहलू से दिखाई देता है. वैसे ही जैसे दूसरे जो कलाकार हैं, इसी चंद्रमा की तरह सिर्फ एक पहलू से पहचाने जाते हैं- चमकने वाले; पैसा, प्रसिद्धि, शान और ऐश आराम में डूबे हुए. दूसरी तरफ क्या हैं, चांद के बारे में चाहे लोगों को न मालूम हो, कलाकारों के बारे में कई लोग जानते हैं. वही सब मैं अपनी इस बहन को बताना चाहती हूं जो मुझ पर खफा है.

इन्होंने लिखा है,’ ईश्वर का इंसाफ अंधा है. उसने आपको खूबसूरती बख्शी, ठीक किया. बंबई जैसी महानगरी में पढ़ने-पनपने का मौका दिया, वह भी ठीक. लेकिन क्या आपके घर में पैसे की कमी थी, जो उसने आपको लाखों रुपया कमाने वाली हीरोइन बना दिया? क्या पहनने को कपड़ा पूरा नहीं पड़ता था, जो खूबसूरत से खूबसूरत लिबास आपके होने लगे? खाने-पीने की बात छोड़ दीजिए- रोज-रोज नई जगहें घूमने का हक उसने आपके ही भाग्य में क्यों लिखा?…’

जाकर भी न जाने की मजबूरी

चिट्ठी बहुत लंबी है. भगवान की और बहुत-सी शिकायतें उन्होंने उससे की हैं, जिसने उसकी मर्जी के आगे सिर झुका रखा है. मैं अभिनेत्री बनी, यह मैं भगवान की ही मर्जी मानती हूं, वरना मेरी मर्जी, मेरा इरादा यह नहीं था. मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि जो हुआ, गलत है. पर जो हुआ उतना ही नहीं, जितना उन्होंने समझा है. मैं सुंदर हूं, यह उन्होंने समझा है. इसके लिए मैं धन्यवाद ही दे सकती हूं. वरना सौंदर्य तो मैंने वह देखा है कि बस देखते ही रहो, पलक झपकना भी समय की बरबादी मालूम पड़े. वह सौंदर्य यहां बंबई में मैंने नहीं देखा, जहां रहने के लिए वे मुझे सौभाग्यशाली मानती हैं. यहां तो बंबई की सजी-संवरी पाउडरी खूबसूरती भर नजर आती है. वह सौंदर्य उसकी तरह की दूरदराज जगहों में मिलता है. जहां से उनकी शिकायत आई है.

कोई बताए मुझे कि किस्मत वाली वे हैं या मैं? मैं तो चाह कर भी वहां नहीं जा सकती, जहां, जिस बस्ती में ऐसा सौंदर्य बसता है. वहीं की क्यों कहूं? मैं जब तक कश्मीर नहीं गई थी, गुलमर्ग, खिलनमर्ग, चश्मेशाही, जाने कितने नाम थे, जो मैंने रट लिए थे. पर हुआ क्या है? हुआ यह है कि कश्मीर मैं कई बार हो आई हूं और ये नाम मेरे लिए आज भी उतने ही अजनबी हैं, जितने तब थे. किसी बढ़िया होटल में मुझे ठहरा दिया जाता है, जिसके अहाते तक में घूमना मुझे मना होता है. होटल से मैं तब निकल पाती हूं जब शूटिंग की हर तैयारी हो चुकी होती है. होटल के दरवाजे तक आई हुई कार मुझे ले जाती है और फिर रिफ्लैक्टरों, माइक, कैमरा और कंटीन्यूटीइटी का यही सिलसिला दिन भर चलता रहता है, जिससे बंबई में निजात नहीं. जब तक सूरज की उमंग में पीलापन नहीं आता, निर्देशक की ‘स्टार्ट’ और ‘कट’ गूंजती रहती है. फिर गाड़ी में छिपकर होटल पहुंच जाओ और खाना खाकर जल्दी ही सो जाओ, ताकि अगली सुबह जब मेरी क्रोधित सहेली जैसी लड़कियां सुबह-सुबह के कश्मीरी जाड़े काे धता बताकर मीठी नींद में सपने बुन रही हों, मैं शीशे से सामने बैठ कर चेहरे पर बर्फ घिस सकूं, जिससे मेकअप सारे दिन खराब न हो!

रुई के फाहों-सी नर्म बर्फ जब बेआवाज गिर कर पेड़, पत्ती, सड़क और मकान सब का एक जैसा श्रृंगार करती जाती है तो मेरा मन दौड़-दौड़ कर हर गिरते हुए फाहे को पकड़ लेने का करता है. दूर तक बिछी उस सफेद चादर पर चलते हुए हर कदम अपना निशान गहरा छोड़ता जाता है. एक समय के बाद तय कर लिया कि कदमों के निशान छोड़ते हुए दूर तक निकल जाऊं. लेकिन हुआ यह कि मुझे बाहर जाने की तैयारी करता देख निर्माता, निर्देशक घबराकर मुझे रोकने लगे. क्योंकि अगले दिन शूटिंग थी और मुझे कुछ हो जाता तो? प्रसिद्धि के समंदर ने मेरे सपनों को निगल लिया.

एक बुलावा उस पार से

गनीमत की बात है कि मैं सिर्फ सपने निगल जाने तक सीमित रही, वरना एक बार यहीं काल ने अपना विकराल गाल मुझे लील जाने को खोल लिया. बर्फ पर ही दृश्य लिया जा रहा था. फिसलकर गिर जाना था. जब तक रिहर्सल चल रही थी. पर जब दृश्य फिल्माया जाने लगा, मैं सचमुच फिसल-फिसल कर भुरभुरी बर्फ पर कलाबाजियां खाती हुई लुढ़कती चली गई और यूनिट के लोग खड़े वाह-वाह कर रहे थे कि क्या शॉट दिया है. पहाड़ी ज्यादा खड़ी थी., लुढ़के तो फिर भगवान मालिक. पता नहीं कहां रुकें और रुकें तो पता चले कि तब आप अनंत यात्रा शुरू कर चुके हों. मेरी ये यात्रा रोकने के लिए देहाती की शक्ल वाले भगवान ने अपना प्रतिनिधि भेजा. वह पगडंडी पर चढ़ा आ रहा था. उससे टकराकर रुक न जाती तो कई शिकायतें छोड़कर चली जाती. किसी की सफाई देने का मौका भी न मिलता.

यह तो शहर से दूर की बात है. दिल्ली शायद हर डेढ़ दो महीने में चक्कर लग जाता है, पर कुतुब मीनार मैंने उतनी ही देखी, जितनी हवाई जहाज से दिखाई देती है. लाल किले के बारे में जानकारी अब भी किताबी है. चांदनी चौक ओर चांदनी का फर्क देखने का मौका कभी नहीं मिला. दिल्ली तो खैर दूर की बात है, बंबई के मेरे वे प्रिय रेस्तरां जो स्कूल-कॉलेज के जमाने में सहेलियों के साथ गपबाजी के अड्डे थे, पराए हो गए. जिन दुकानों के बाहर बार-बार सिर्फ इसलिए चक्कर काटा करती थी कि उनका सामान मुझे बहुत पसंद था, आज पैसा होने पर भी मेरे लिए पहुंच से बहुत दूर हो गई हैं.

मेरी अनजान सहेली, अब भी तुम्हें मुझे से ईर्ष्या है? माना कि मेरे पास पहले की अपेक्षा पैसा ज्यादा है, पर मैं उसका क्या करूं? मैं उससे कोई शौक पूरा नहीं कर सकती. मैं कई जगह जाती हूं, घूम-फिर नहीं सकती. मेरी हस्ती वैसी ही है, जैसी किसी आर्क लैंप, कैमरा सोलर या दूसरी किसी भी प्रॉपर्टी की. उसकी भी तो खूब देख-रेख, साज-संभाल होती है! कीमती पोशाकों का क्या लालच? वे स्टूडियो पहुंच कर पहनी जाती हैं, वहीं उतार कर रख दी जाती हैं. उन्हें बबीता कहां पहनती हैं?  कहानी का चरित्र पहनता है.