‘आने वाला पल जाने वाला है’

सौ साल की कोई भी यात्रा शुरू तो शून्य से ही होती है. तब बंबई था पर बॉलीवुड नहीं. अरब सागर के तट पर बसी इस बस्ती में कुछ हजार किलोमीटर दूर से आने वाली लहरें टकरा रही थीं. अमेरिका के पश्चिमी तट से उठी कुछ लहरें उसके लिए कुछ संदेशा ला रही थीं. ये बर्बादी की सुनामी नहीं, हॉलीवुड जैसी नामी जगह से आ रही थीं. रचना का, प्यार का, सर्जना का एक बेहद रंगीन, मगर बस दो रंग में रंगा- काले-सफेद में रंगा एक सुंदर सपना लेकर. यह सपना खूब मुखर था पर था मौन. ये लहरें बड़े हौले-हौले, आहिस्ता-आहिस्ता कोई छह बरस में हॉलीवुड से बंबई आई थीं.

हॉलीवुड की इन नामी लहरों के कोमल स्पर्श से बंबई का अनाम घराना एक नया नाम पाने जा रहा था. उसे एक नया काम मिलने वाला था – काम नए नित गीत बनाना, गीत बनाकर जहां को हंसाना.

हॉलीवुड से लहरें चलीं सन 1906 में. सन 1912 में वे बंबई के किनारे लगीं. कैमरे का आविष्कार कुछ पहले हो ही गया था. पर वह निश्चल ठहरे हुए चित्र खींचता था. चलती-फिरती जिंदगी के चित्रों को यह कैमरा निश्चल रूप में कैद कर लेता था. और फिर उन चित्रों को स्मृतियों के विशाल संसार में आजाद छोड़ देता था. अब यही कैमरा हॉलीवुड में जीवन की गति को और आगे दौड़ाने लगा था.

यह धरती एक बड़ा रंगमंच है. इस पर अवतरित होने वाला विविधता भरा जीवन खुद एक विशाल नाटक है. इस नाटक में शास्त्रों की गिनती के नौ रसों से ज्यादा रस हैं, रंग हैं, भदरंग भी हैं. नायक-नायिका, खलनायक-नायिका जैसे पात्र-कुपात्र, खरे से लेकर खोटे गोटे सब कुछ है. कोई चार-पांच हजार बरसों से लोगों ने इस जीवन नामक लंबे धारावाहिक की न जाने कितनी कड़ियां देखी होंगी. उन्हें अपनी कुशलता से छोटे-छोटे नाटकों में बदला होगा. इन नाटकों को देखते, पढ़ते, सुनते हुए समाज ने अपने वास्तविक जीवन के नाटक की कथा को थोड़ा-बहुत ठीक-ठाक भी किया ही होगा.

देववाणी के नाटक ज्यादा नहीं होंगे. लिखे भी कम गए, खेले भी कम ही गए. पर एक अच्छे बीज की तरह देववाणी के इन नाटकों ने लोकवाणी के नाटकों की एक अच्छी फसल खड़ी कर दी. नाटकों में जैसे पंख लग गए. वे नौटंकी, जात्रा, यशोगान, भवई, कथककली, रासलीला, रामलीला बन कर जगह-जगह उड़ने लगे, जाने लगे.  नाटकों का यह रूप लोकरंजन, मनोरंजन के देवता का अंशावतार ही था.

इस देवता का पूर्णावतार हुआ 1912 में – जब हॉलीवुड की लहरों ने बंबई को बॉलीवुड में बदल दिया. लोक के मनोरंजन को ऐसी पांख लगी कि देखने वालों की आंखें खुली की खुली रह गई. फिर इन पंखों से किस्से कहानी की कल्पना ने ऐसी गति, ऐसी ऊंचाई पकड़ी कि उसने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

मनमोहक मनमोहन बॉलीवुड का गठबंधन राजनीति के गठबंधन से ज्यादा गोरा नहीं तो ज्यादा काला भी नहीं है. वह एक क्षण तक को पहचानता है

तब तक साहित्य को समाज का आईना कहा जाता था. बॉलीवुड ने इस आईने के आगे एक और आईना रख दिया. इन दो आईनों के बीच खड़े समाज को अब सचमुच अनगिनत छवियां दिखने लगी थीं. राजा हरिश्चंद्र से लेकर रावण और तो और रा.वन तक की छवियां सामने थीं. इसने समाज को पूरी दुनिया दिखा दी और फिर यह खुद पूरी दुनिया घूम आया. देश के दक्षिण से लेकर सात समंदर पार पश्चिम में, उत्तर में, पूरब में, और तो और तरह-तरह की खटपट में लगे पड़ोसी पाकिस्तान तक में इस बॉलिवुड ने झटपट अपनी धाक जमा ली.

आप चाहें तो चोरी-चोरी, चुपके-चुपके इस बॉलीवुड के दोष देखने निकलेंगे तो न जाने कितने दोष मिलते जाएंगे. सामने दोषों का पहाड़ खड़ा हो जाएगा. मुंबई में जमीन के ऊपर लोकल रेल की जितनी पटरियां दौड़ती हैं, उससे ज्यादा पटरियां बॉलीवुड के भीतर ‘अंडरवर्ल्ड’ की मिल जाएंगी. लेकिन गुण देखने चलेंगे तो गुणों की एक सुंदर नदी भी दोषों के इस पहाड़ में अविरल बहती मिल जाएगी.

साहित्य, संगीत, कला, छाया, विज्ञापन के सबसे सधे हाथों ने इस बॉलीवुड को न भूल सकने वाली सेवाएं दी हैं. यह बॉलीवुड का अचूक व्याकरण ही तो है, जो हमारे देश के प्यारे बच्चों को हिंदुस्तान की झांकी दिखाते हुए उन्हें ‘प्यारे बच्चो’ कहता है, ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ कहता है. उसे पता है कि हिंदी में संबोधन के बहुवचन में अनुस्वार या बिंदी नहीं लगती. व्याकरण के इस छोटे-से सबक में हमारे आज के कई बड़े पत्रकार, संपादक, साहित्यकार और सरकारी अधिकारी भी चूक कर जाते हैं.

किसी भी कैनवास पर एक करोड़ रुपये का कीमती दस्तखत कर देने वाले मकबूल फिदा हुसैन जैसे बड़े कलाकार भी बॉलीवुड के छोटे-छोटे पोस्टर पोतने से ही ऊपर उठे थे. यहीं के संगीत में पीछे बजने वाले दस-बीस सेकंड के सरोद और सितार बंबई की इस छोटी-सी गुड़िया की इतनी लंबी कहानी कह जाते हैं कि आज ‘सैम्संग गैलेक्सी’ जैसे महंगे गैजट, यंत्रों में रिकॉर्ड हो सकने वाले डेढ़ लाख गाने दो कौड़ी के साबित हो सकते हैं. गाने तो गाने यहां की पटकथाओं में लिखे गए संवाद तक गली मोहल्लों में लाउडस्पीकरों से शोलों की तरह बरसते रहे हैं.

इस बॉलीवुड में अंगों का प्रदर्शन मिलेगा तो आत्मा का दर्शन भी. वह जानता है कि ‘आने वाला पल जाने वाला है.’ उसने इन सौ बरसों में वह सब देखा-समझा है जो उसे बनाता है, बिगड़ता है. उसने खुद चोरी भी की है, अंग्रेजी, हॉलीवुड की फिल्मों से तो उसकी खुद की कीमती धरोहर भी चोरी गई है. वीडियो और फिर डीवीडी ने उसे तरह-तरह के झटके दिए हैं. इन सबको उसने गा-बजा कर ही सहा है.

इसे सबके साथ मिल कर काम करना आता है और इसे आता है सबसे काम भी लेना. निर्देशक तरह-तरह के नखरे वाले नायक-नायिका, कलाकार, गुमनाम एक्सट्रा, हाथी, घोड़े कुत्ते अपनी ढफली अलग न बजाने वाले संगीतकार, परदे के पीछे से, बिना दिखे अपनी सुनहरी आवाज देने वाले प्लेबैक सिंगर, परदे पर ओंठ चलाने वाले मुंह – वहां सब लोग एक बेहतर गठबंधन में काम करना जानते हैं. उनके लिए यह गठबंधन मजबूरी नहीं है. इस मनमोहक मनमोहन बॉलीवुड का गठबंधन राजनीति के गठबंधन से ज्यादा गोरा नहीं तो ज्यादा काला भी नहीं है. हमारे नेता, सामाजिक नेता भी आने वाले पल को तो क्या आने वाले कल को भी नहीं समझ पाते. वे तो आज को भी कल में बदलता नहीं देख पाते और जब वह बदल ही जाता है तो वे इस बदलाव को समझ नहीं पाते.

सौ साल का बॉलीवुड एक क्षण तक को पहचानता है. वह जानता है कि आने वाला पल (कल) जाने वाला है.