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‘डाकुओं के डर से मेरे परिवार को कोई भी बचाने नहीं आया’

मध्य प्रदेश के सतना जिले के बिरसिंहपुर नामक कस्बे की रहने वालीं 22 वर्षीय प्रभात कुमारी डाकुओं के आतंक से पीड़ित लोगों में सबसे लोमहर्षक उदाहरण हैं. वे जब 18 साल की थीं तब डाकुओं ने उनके परिवार के 13 लोगों को उनके ही घर में बंद कर के जिंदा जला दिया था. बिछियन नरसंहार के नाम से जाने जाने वाले इस हत्याकांड में प्रभात के पिता लल्लू सिंह गोंड जिंदा बच गए थे. लेकिन चार महीने बाद डाकुओं ने उनकी भी गोली मार कर हत्या कर दी.  

मई, 2009 में हुए बिछियन नरसंहार को अंजाम देने वाला सुंदर पटेल उर्फ रगिया इस घटना के बाद चंबल का सबसे कुख्यात डाकू बन गया था. ददुआ और ठोकिया जैसे गिरोहों का हिस्सा रहा यह डकैत पांच महीने पहले सतना के जंगलों में पुलिस मुठभेड़ में मारा जा चुका है. अपने जीवन की सबसे डरावनी रात को याद करते हुए प्रभात बताती हैं, ‘हमारा परिवार जलता रहा पर गांववालों ने डाकुओं के डर से उनकी मदद नहीं की. मेरी मां, दो भाई,  भाभियां, छोटे भाई-बहन और एक भतीजा, सब जल के मर गए. पिताजी को भी बाद में गोली मार दी.’ 

प्रभात कुमारी अब अपने अतीत की भयावह स्मृतियों से निकलकर एक नई जिंदगी शुरू करना चाहती हैं. तहलका से बातचीत में वे कहती हैं, ‘ मैं ये तो चाहती हूं कि सरकार और पुलिस डाकुओं को पूरी तरह खत्म कर दे पर अब मैं अपना अतीत भूल जाना चाहती हूं.’ अपने पिता के एक मित्र ज्ञानेद्र सिंह के परिवार को ही अपना अभिवावक मान कर उनके साथ रहने वाली प्रभात फिलहाल स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षाएं दे रहीं हैं और भविष्य में सरकारी अधिकारी बनना चाहती हैं.

‘चंबल का पानी बहुत तेज है’

अपने डकैत जीवन के दौरान लगभग 250 लोगों की हत्या कर पूरी चंबल घाटी को आतंकित करने वाले 80 वर्षीय मोहर सिंह आज भी अपनी बंदूक  कंधे से नीचे नहीं उतारते. भिंड जिले मेंे मेहगांव स्थित अपने भैसों के तबेले में बैठे इस पूर्व डकैत से जब हमने उनकी बंदूक की चर्चा छेड़ी तो उनके बेटे शक्ति सिंह ने चंद घंटे पहले घटी एक घटना के बारे में हमें बताया, ‘अभी कुछ देर पहले इन्होंने एक कौवे को गोली मार दी.असल में वह कौआ बार-बार सामने खड़ी भैसों की पीठ में अपनी चोंच मारकर उन्हें परेशान कर रहा था. इन्हें गुस्सा आ गया और गोली से उड़ा दिया उसको.’

चंबल के डाकुओं की दूसरी पीढ़ी के प्रमुख दस्यु सरगनाओं में से एक और बीहड़ों में कुल 12 सालों तक अपने आतंक का डंका बजाने वाले मोहर सिंह घाटी में सक्रिय आज के डकैतों को डकैत ही नहीं मानते. वे कहते हैं, ‘ हम 60 में बागी हुए और 72 में हाजिर हो गए (आत्मसमर्पण कर दिया). हमारे गांव में जमीन का विवाद हो गया था. पुलिस सुन नहीं रही थी, इसलिए बागी बनना पड़ा. पर हम लोग बागी थे और ये आज के डाकू तो हिजड़े हैं. अगर ‘पकड़'(अपहृत व्यक्ति) गरीब हो तो उससे ज्यादा पैसा नहीं लिया जाता था. गावंवालों से जो भी समान लेना होता, गांव के बाहर ही मंगवा लेते. न हम किसी गांव के भीतर जाते थे और न हमें औरतों से ही कोई मतलब था.’

सन 1960 में पहली बार कल्ला-पुतली के गैंग में शामिल हुए मोहर सिंह ने बाद में अपना अलग गैंग बना लिया और भिंड-मुरैना से लेकर गुना-शिवपुरी तक के जंगलों में लगभग 1,000 से ऊपर वारदातों को अंजाम दिया. सरेंडर के बाद मोहर सिंह स्थानीय राजनीति में भी सक्रिय रहे और उन्होंने दो बार मेहगांव नगरपालिका का चुनाव निर्विवाद रूप से जीता. चंबल में इतने ज्यादा डाकुओं के होने के कारणों के बारे में पूछने पर वे क्षेत्र की पुलिस और राजनीतिज्ञों के साथ-साथ चंबल के पानी को भी दोष देते हुए कहते हैं, ‘चंबल का पानी बहुत तेज है. यहां के लोग बहादुर भी होते हैं, इसलिए अन्याय बर्दाश्त नहीं कर पाते और बागी बन जाते हैं.’

‘तब डाकू होना रुतबे की बात हुआ करती थी’

भिंड शहर के वाटर-वर्क्स रोड पर बने एक सामान्य से घर के दरवाजे पर बच्चों के साथ खेलते 90 वर्षीय लोकमान दीक्षित अपनी पीढ़ी के ‘बागियों’ में शायद अंतिम हैं. चंबल के इतिहास के सबसे नामी, डाकू मान सिंह गिरोह के इस सदस्य ने 1948 में बीहड़ों को अपना ठिकाना बनाया था. 1950 के दौर के चंबल की तस्वीर याद करते हुए वे बताते हैं, ‘ हम और दाऊ (डाकू मान सिंह) के बच्चे साथ ही पढ़ते थे. फिर जब वे लोग दाऊ के गैंग में शामिल हुए, तो हम भी हो गए. याद नहीं पड़ता, पर कोई लड़ाई हो गयी थी या कोइ मर गया था इसलिए हमने ऐसा किया. सन 1948 में हम बागी हुए और 60 में हाजिर हो गए (आत्मसमर्पण कर दिया). पर हमारे समय में लोग सिर्फ अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए बागी बनते थे, आज के लड़कों की तरह नहीं कि किसी से पैसे ऐठने के लिए डकैती डाल दी.’

दीक्षित आगे बताते हैं कि उनके गैंग में कोई शराब नहीं पीता था और न ही मांस खाता था. औरतों को गैंग से दूर रखने के भी सख्त निर्देश थे. जंगलों में अपने बागी जीवन को याद करते हुए वे आगे कहते हैं, ‘ हमारे समय में बागी का जीवन बहुत मुश्किल था. धूप, बरसात और सर्दी में भी हम लोग पत्थरों पर सोते थे, खाने का कुछ हिसाब नहीं और पुलिसवालों से जब-तब मुठभेड़ होती सो अलग. हम अपने दुश्मनों, अत्याचारियों और मुखबिरों को मार डालते थे. पर आम गरीब लोगों, उनकी औरतों और लड़की-बच्चों को कभी नहीं छूते थे.’

चंबल में आज भी पैदा हो रहे नए गैंगों के बारे में उनकी  ज्यादा रूचि नहीं है. पर अपने गैंग के डकैतों की कार्यप्रणाली पर उन्हें गर्व है, ‘हमारा आतंक हुआ करता था और हम अपने इलाके के राजा हुआ करते थे. उस समय मैं बिल्कुल नया लड़का था और डाकू होना बहुत रुतबे वाला काम लगता था. पर इस बीच हमने कई लोगों को मारा पर अब वह सब अच्छा नहीं लगता. मैं भूल जाना चाहता हूं बीहड़ों  और डाकुओं को.’

यह पूछने पर कि उन्होंने अपने डकैती जीवन में कितनी हत्याएं कीं, वे खामोश हो जाते हैं. फिर कुछ क्षणों के बाद वह एक ऐसा रोचक किस्सा सुनाते है जो 50 के दशक के दौरान घाटी में फैले डाकुओं के आतंक को बखूबी बयान करता है.  सरेंडर के बाद अपनी अदालती सुनवाई को याद करते हुए वे कहते हैं, ‘जज साहब ने पूछा कि लुक्का तुमने कितने आदमियन को मारा? हमने कहा कि जज साहब क्या आपको याद है कि आज तक आपने कितनी रोटियां खाईं? वैसे ही कोई हिसाब थोड़े ही होता है कि एक डाकू ने कितने आदमियन को मारा.’ 

‘पुलिस और नेता नहीं चाहते कि बागी खत्म हों’

70 के दशक में चंबल के सबसे बड़े गैंग के दुर्दांत सरगना के तौर पर कुख्यात रहे मलखान सिंह अब किसान बन चुके हैं. मध्य प्रदेश के गुना जिले की आरोन तहसील में रहने वाले मलखान घाटी में रोजाना पनपने वाले छोटे-छोटे डाकू गिरोहों को एक खतरनाक ट्रेंड बताते हुए कहते हैं, ‘अगर आज चंबल में असली बागी जिंदा होते तो यहां कभी इतनी अराजकता नहीं होती. अब आए दिन अखबारों में पढता हूं कि डाकुओं ने डकैती डालने के बाद घर की लड़कियों का बलात्कार कर दिया. बहुत अफसोस होता है. ये आजकल के नए लड़के हमारा नाम खराब कर रहे हैं. अगर आज हम बीहड़ में होते तो ऐसे गिरोहों के सरगनाओं को जिंदा नहीं छोड़ते.’

मलखान सिंह का जन्म भिंड जिले के बिलाव नामक गांव में हुआ था और वे भी जमीन के एक विवाद के चलते 1970 में ‘बागी’ बन गए थे.  लगभग 12 साल तक पुलिस और प्रशासन को चकमा देने वाला मलखान सिंह का गैंग भिंड, मुरैना के साथ-साथ शिवपुरी के जंगलों में भी सक्रिय था. सन 1982 में हथियार डालने के बाद से स्थानीय राजनीति में सक्रिय मलखान चंबल घाटी में जारी डकैतों के आतंक के पीछे राजनेताओं को जिम्मेदार मानते हैं. बीहड़ और डकैतों के कभी न खत्म होने वाले संबंधों पर वे कहते हैं, ‘ हमने भी अपने महाराजा सा (माधव राव सिंधिया) के कहने पर हथियार डाले थे. पर मैं यह साफ कहना चाहता हूं कि दरअसल पुलिस और नेता ही कभी नहीं चाहते कि बागी खत्म हों. पहले तो पुलिस गरीबों की सुनवाई नहीं करती, लोगों पर अत्याचार होते हैं और फिर जब हम विद्रोह कर बागी बन जाते हैं तो नेता हमारा इस्तेमाल करते हैं. इस दुष्चक्र में सबके अपने-अपने हित छिपे हुए हैं, इसलिए चंबल से डाकू कभी खत्म नहीं हो सकते.’

उत्पीड़न, प्रेम और पराभव

चंबल की महिला डकैतों की कहानी फूलन देवी के अस्तित्व में आने के दशकों पहले शुरू हो चुकी थी और सीमा परिहार की गिरफ्तारी के सालों बाद तक चलती रही. मगर अब स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है. महिलाओं के चलते  हुई कई नामी डकैतों की मौत के बाद चंबल घाटी में सक्रिय आज के गैंग इन्हें पहले की तरह अपने गिरोहों में शामिल नहीं करना चाहते.

आज भी चंबल की दस्यु सुंदरियों का जिक्र आते ही जेहन में सबसे पहला नाम फूलन देवी का ही उभरता है. माथे पर लाल पट्टा,  खाकी कमीज के ऊपर बंधी बारूदी गोलियां और कंधे पर राइफल लटका कर चलने वाली यह महिला हमारे मानस में बैठी महिला डाकुओं की प्रतिनिधि छवि है. मगर महिला डकैतों की ‘अन्याय के खिलाफ हथियार उठाने वाली दुर्गा’ जैसी मीडिया निर्मित छवि और चंबल में उनके किस्से-कहानियों से उभरने वाली छवि में जमीन आसमान का अंतर है.

‘मीडिया में बैंडिट क्वीन और फूलन देवी को मिली अपार लोकप्रियता ने महिलाओं के डाकू गिरोहों में शामिल होने की प्रवृत्ति को काफी बढ़ावा दिया’

फूलन देवी सहित दर्जनों महिला डकैतों से बातचीत कर उनपर शोध करने वाले लेखक मनमोहन कुमार तमन्ना के अनुसार ज्यादातर डाकू गैंगों में महिलाओं का इस्तेमाल सिर्फ एक उपभोग की वस्तु की तरह ही किया जाता रहा है. वे कहते हैं, ‘ यह धारणा कि चंबल की औरतें अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए डाकू बनतीं हैं, पूरी तरह से गलत है. फूलन देवी जैसे एक अपवाद के आधार पर यह भ्रम मीडिया ने फैलाया है. औरतें कभी अपना प्रतिशोध लेने के लिए खुद हथियार उठाकर बीहड़ में नया गैंग बनाने नहीं आईं. 50 के दशक में सक्रिय रही भारत की पहली महिला डकैत पुतली बाई से लेकर सन 2000 में आत्मसमर्पण करने वाली सीमा परिहार तक सभी का पुरुष डाकुओं द्वारा अपहरण किया गया था. उनके लिए ये उपभोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं थीं.’

महिला डाकुओं के जीवन को देखें तो साफ हो जाता है कि चंबल के डाकू जिस सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ अपना तथाकथित विद्रोह दर्ज करने के लिए ‘बागी’ बनते रहे, वही सारी बुराइयां उनके गिरोह में भी मौजूद थीं. 50 के दशक में सुल्ताना डाकू द्वारा बीहड़ के गावों में नाचने-गाने वाली पुतली बाई के अपहरण से लेकर सन 1970-80 के बीच हुए कुसमा नाइन, फूलन देवी और सीमा परिहार के अपहरण तक घाटी ऐसे कई बड़े उदाहरणों से भरी पड़ी है. ज्यादातर महिला डकैतों का गैंग में शामिल होना एक नियत पैटर्न के आधार पर ही होता रहा है. क्षेत्र के प्रभावशाली अपराध सरगना बीहड़ के पास बसे गावों से सुंदर औरतों का अपहरण करके उन्हें जंगल में ले आते. यहां उनका शारीरिक शोषण किया जाता. कुछ हफ्तों के संघर्ष और विरोध के बाद ज्यादातर महिलाएं अपनी इस बदली स्थिति को मजबूरी में स्वीकार कर लेतीं. अपने घरों और गांवों में वापसी के सभी रास्ते बंद होने बाद इन महिलाओं का डकैत बन जाना मजबूरी होती थी.

चंबल में ऐसे भी कुछ उदाहरण हैं जहां पुलिस एनकाउंटर में गैंग के पुुरुष सरगना की मौत होने के बाद महिला डकैतों ने दूसरे डाकू के साथ मिलकर नया गैंग बनाया. चंबल की पहली महिला डाकू के नाम से मशहूर पुतली बाई ने सुल्ताना डाकू की मौत के बाद कल्ला गुर्जर के साथ अपना गैंग बनाया था. इसी तरह विक्रम मल्लाह की मौत के बाद फूलन देवी ने मान सिंह के साथ मिलकर बीहड़ का सबसे खतरनाक गैंग बनाया था.

चंबल घाटी में महिला डाकुओं की उपस्थिति के लिहाज से 90 का दशक बेहद खास रहा है. इसी समय चंबल में गुर्जर डाकुओं की एक नई खेप उभरी जिसने घाटी का पूरा परिदृश्य बदल दिया. वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली बताते हैं, ‘गुर्जरों ने पहली बार बड़ी संख्या में औरतों को अपने गैंगों में शामिल करना शुरू किया. 70 के दशक तक तो पुराने डाकू औरत और शराब, दोनों से तौबा करते थे. गुर्जरों ने इस परिपाटी को बदल दिया. इनके सफाए की एक बड़ी वजह भी यही रहीं. सुंदर औरतें डाकुओं की प्रतिष्ठा और ताकत का प्रतीक थीं, इसलिए उन्हें हासिल करने के लिए होने वाली लड़ाइयों में अक्सर डाकुओं की मुखबिरी होने लगी और वे पुलिस एनकाउंटर में मारे जाने लगा. आपसी गैंगवार में भी कई डाकू मारे गए. मान सिंह जैसे पुराने डाकू तो 30 -30 साल बीहड़ में रहे और पुलिस उन्हें पकड़ नहीं पाई और ये नए डाकू पांच साल भी नहीं टिक सके.’

गुर्जर डाकुओं में सलीम गुर्जर और निर्भय गुर्जर ने सबसे पहले महिलाओं को अपने गैंग में शामिल किया था. सलीम गुर्जर के गैंग में अनीसा बेगम, सुनीता उर्फ स्नेहलता और डॉली तिवारी समेत नौ महिलाएं रहीं, वहीं निर्भय गुर्जर के सीमा परिहार, मुन्नी पांडेय, पार्वती उर्फ चमको, नीलम और सरला जाटव से प्रेम संबंध काफी चर्चित रहे हैं. यूं तो घाटी में आने वाली महिला डकैत कभी मर्जी और कभी मजबूरी की वजह से गैंग के साथ साथ अपने पुरूष साथी भी बदलती रहीं पर चंबल के आम लोगों के बीच रज्जन गुर्जर-लवली पाण्डेय, चंदन यादव-रेणु यादव, फक्कड़-कुसमा नाइन, जगन गुर्जर-कोमेश और श्याम जाटव-नीलम गुप्ता जैसी जोड़ियों को उनकी प्रेम कहानी के लिए भी याद किया जाता है.

इन महिला डकैतों में भी अपने क्रूर तौर-तरीकों के साथ-साथ प्रेम में अपने समर्पण के मामले में कुसमा नाइन, सीमा परिहार और लवली पांडेय सबसे नामचीन हैं. कुसमा घाटी की सबसे दुर्दांत डकैतों में से थी जो प्रेम और हिंसा, दोनों में ही अपने चरम और विस्फोटक स्वभाव के लिए जानी जाती थी. फूलन देवी द्वारा बेहमई में मारे गए 22 ठाकुरों का बदला लेने के लिए कुसमा ने उत्तर प्रदेश के औरैया में 13 मल्लाहों की हत्या की थी. शुरुआत में कुसमा लालाराम के साथ रहती थी पर सीमा परिहार से लालाराम की बढ़ती निकटता के चलते वह फक्कड़ के गैंग में शामिल हो गई. फक्कड़ के साथ बीहड़ में बिताए गए 10  सालों के दौरान कुसमा फक्कड़ की ढाल बनकर उसकी सुरक्षा भी करती रही और घायल हो जाने पर उसका इलाज भी करवाया.

इसी दशक के मध्य में एक दौर ऐसा आया जब महिला डकैतों की मौजूदगी अचानक चंबल में बढ़ने लगी और डाकुओं के गैंग में शामिल होने वाली महिलाओं में एक नई प्रवृत्ति देखी गई. अब दिल्ली-इंदौर जैसे शहरों की पढ़ी लिखी लड़कियां सिर्फ रोमांच और डाकुओं के तथाकथित ग्लैमर से आकर्षित होकर बीहड़ों का हिस्सा बन गईं. राजकन्या, स्नेहलता, लवली पांडेय, मनोरमा, सरला जाटव, डॉली तिवारी और सुनीता पांडेय ऐसी ही महिला डकैत थीं. स्नेहलता को उसी आदमी ने सलीम गुर्जर के गैंग को सौंपा था जिसके साथ वह घर से भागी थी. दिल्ली की इस लड़की की शुरुआती शिक्षा कॉन्वेंट स्कूल में हुई थी. उसने विज्ञान में स्नातक की डिग्री भी हासिल की थी. कहा जाता है कि सलीम गुर्जर उसे छोड़ने को तैयार था लेकिन उसने खुद ही बीहड़ में रहने का फैसला किया.

सुनीता पांडे और सरला जाटव जैसी महिला डकैत बीहड़ में इसलिए आईं क्योंकि वे यहां वे सभी सुखसुविधाएं पा रही थीं जो उन्हें अपने घरों में नसीब नहीं हुईं. सरला ने अपनी गिरफ्तारी के बाद पुलिस के सामने बयान दिया था कि गैंग में  उसका बहुत ध्यान रखा जाता था इसलिए उसे बीहड़ पसंद था. चंबल रेंज के पुलिस महानिरीक्षक गाजी राम मीणा तहलका को बताते हैं, ‘ लवली पांडेय के गांव तो मैं खुद भी गया था. उसके घर-वालों ने यह जानकारी दी थी कि उसके साथ कोई अत्याचार नहीं हुआ था. रज्जन गुर्जर उनके गांव आता था और एक दिन वह उसके साथ खुद ही चली गई. इसी तरह सरला जब बीहड़ों में पहुंची तब वह 13 -14 साल की छोटी-सी आदिवासी लड़की थी. उसके साथ कोइ अत्याचार नहीं हुआ था. गिरफ्तारी के बाद उसने कहा भी कि निर्भय उसका बहुत ख्याल रखता था. इस तरह के कई मामले हैं. ये बहुत आम लड़कियां थीं जिन्हें गहने, कपड़े और डाकू बनने का ‘थ्रिल’ बीहड़ में ले गया. और हां,  फूलन देवी को मिली  लोकप्रियता ने भी इस ट्रेंड को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.’

परिणीति की परीकथा

अहमदाबाद, इंदौर, जयपुर और फिर दिल्ली. वे अपनी फिल्म प्रोमोशन के लिए धुआंधार दौरे करके इन जगहों से लौटी हैं. यह यशराज फिल्म स्टूडियो है- सपने देखने वालों का तीर्थ और 24 साल की परिणीति चोपड़ा फिलहाल इसी जगह अपने सपने सच होते हुए देख रही हैं.

प्रियंका चोपड़ा की यह चचेरी बहन एक साल पहले लंदन से मुंबई लौटी थीं. वे भी उन हजारों भारतीय प्रवासियों में शामिल थीं जिन्हें वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते भारत वापस लौटना पड़ा. इसे संयोग माना जाए या अच्छी किस्मत, उन्हें तुरंत ही यशराज फिल्म्स की मार्केटिंग टीम में मिड लेवल एक्जिक्यूटिव की नौकरी मिल गई. फिल्मों में काम करने के सपने देखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए परिणीति से जलन की यह पर्याप्त वजह हो सकती है कि मार्केटिंग में नौकरी करने वाली इस लड़की को कुछ ही दिनों बाद आदित्य चोपड़ा की तीन फिल्मों के लिए अनुबंधित किया गया है. परिणीति के लिए सुखद संयोगों का चक्र शायद अभी रुका नहीं है क्योंकि इसी महीने की 11 तारीख को उनकी फिल्म इशकजादे रिलीज हो चुकी है.

आज के व्यस्त दिन में वे 18 इंटरव्यू दे चुकी हैं और 19 वें में हमारे साथ हैं. इसके बाद भी उनमें हम वह झलक नहीं देख पा रहे जो आम तौर पर बॉलीवुड सेलीब्रिटियों में देखने के आदी हैं. परिणीति उस खूबसूरत लड़की की तरह हैं जिसे अपने किशोरवय में अचानक किसी दिन एहसास होता है कि वह खूबसूरत है और ढेरों लोग उसकी तरफ ध्यान देते हैं. हर इंटरव्यू के बाद वे कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर भागते हुए जाती हैं. कॉरीडोर में पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने गाती हैं. इसी उत्साह के साथ वे इशकजादे की टीम के सदस्यों के साथ हंसी-मजाक करती हैं और बाहर उनका इंतजार कर रहे पत्रकारों के साथ हंसते-मुस्कराते हुए बात भी. उनकी एजेंट पारुल हमें बताती हैं, ‘परिणीति को आप हमेशा इतने ही अच्छे मूड में देखेंगे.’

यशराज फिल्म की पूरी मशीनरी प्रतिभावान युवाओं के हाथ में है. इनके साथ पूरी तरह से घुल-मिलकर काम कर रही परिणीति को देखकर यह यकीन करना मुश्किल होता है कि वे फिल्मों में नई हैं. हालांकि उनके सहयोगी मानते हैं कि वे कुछ समय पहले तक खुद को ऑफिस के माहौल में ढाल नहीं पाती थीं. बेसिरपैर यहां-वहां घूमने की प्रवृत्ति, सहयोगियों से बेहतर काम लेने के लिए उनके काम में हस्तक्षेप और कहीं भीतर लाइमलाइट में आने की इच्छा उन्हें अक्सर चलायमान रखती थी.

‘मार्केटिंग की लड़की और फिल्म की हीरोइन?’ आदित्य चोपड़ा को पहली बार में यह निहायत ही बेतुकी सलाह लगी

लगभग छह महीने पहले की बात है जब परिणीति ने यशराज फिल्म्स की नौकरी छोड़ने का फैसला कर ही लिया था. वे एक एेक्टिंग स्कूल में दाखिला लेना चाहती थीं. तभी बैंड, बाजा, बारात के निर्देशक मनीश शर्मा ने आदित्य चोपड़ा को यह सलाह दी कि उन्हें यशराज की किसी फिल्म में परिणीति को लेना चाहिए. ‘मार्केटिंग की टीम से कोई हीरोइन!’ आदित्य चोपड़ा के लिए तब  यह एक बेतुकी सलाह ज्यादा कुछ नहीं थी. यह समझने के बाद की इस नई लड़की को फिल्म में काम करने का मौका तभी मिल सकता है जब वह फिल्म की रील में दिख जाएं, मनीष ने परिणीति को सलाह दी कि वे यशराज फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर से मिले और उनसे अपने एक्टिंग करियर पर ‘सलाह’ मांगे. परिणीति चहकते हुए बताती हैं, ‘ उस दिन हम कैमरे के सामने बस यूं ही घूम रहे थे. मैंने जब वी मैट की कुछ लाइनें कैमरे के सामने बोलीं और फिर वहां से निकल गई. अगले दिन मुझे बुलाया गया और मनीष ने बताया कि यशराज के साथ तीन फिल्मों के लिए मुझे चुना गया है. मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूं. मैंने पूछ भी लिया कि, अब मैं क्या करूं?’ परिणीति हंसती हैं. वे हमें कैमरे के सामने किए अपने एेक्ट को दोहराकर बताती हैं. वे खुद अंबाला की रहने वाली हैं इसलिए उन्होंने जब वी मैट  की गीत- एक पंजाबी लड़की जो बेहद बातूनी है, का किरदार ऑडिशन के लिए चुना था. लेडीज वर्सेज रिकी बहल में डिंपल चड्ढा की भूमिका के लिए गीत के किरदार का चुनाव काफी चतुराई भरा फैसला साबित हुआ. लेडीज वर्सेज रिकी बहल  में अपनी भूमिका पर बात करते हुए परिणीति कहती हैं, ‘आप मुझे आत्मकेंद्रित समझ सकती हैं लेकिन रिकी बहल… फिल्म का मैं महज पांचवां हिस्सा नहीं थी.’ वे यह बात समझती हैं कि उनका किरदार किसी स्टार के लिए नहीं लिखा गया था. परिणीति मुस्कुराते हुए बताती हैं, ‘ इस बात का मुझे कोई तनाव नहीं था कि सिर्फ एक पखवाड़े पहले तक मैं अनुष्का और रणवीर के लिए पब्लिसिटी का काम संभाल रही थी या यह कि मेरे अलावा फिल्म में तीन और खूबसूरत महिलाएं हैं, जिनमें मुझे एक छोटे शहर की लड़की का किरदार निभाना है. मार्केटिंग के पेशे से ऐक्टिंग में घुसना एक अजीब बदलाव था लेकिन मुझे यह पता था कि यशराज के साथ काम कर रही हूं.’

इस फिल्म में डिंपल चड्ढा का गंवईपन इतनी सहजता के साथ उनके अभिनय में दिखता है कि सीन में आते ही दर्शक उनके संवादों को सुनने का इंतजार करते हैं. और यही वजह रही कि अपनी पहली फिल्म में ही उन्हें पिछले साल की सर्वश्रेष्ठ नवोदित कलाकार श्रेणी के 11 पुरस्कार मिले. और इशकजादे  की मुख्य भूमिका भी. अब तक अपने करियर के प्रति उतनी गंभीर नहीं हो पाई परिणीति के लिए इशकजादे  की जोया का किरदार बेहद महत्वपूर्ण था, यह बात उन्हें तुरंत ही समझ में आ गई. इस फिल्म के लिए अपने नए लुक पर बात करते हुए वे बताती हैं, ‘ मुझसे किसी ने नहीं कहा था कि जोया को हॉट दिखना चाहिए लेकिन मैंने इस रोल के लिए अपना वजन कम किया क्योंकि यह किरदार बहुत एनर्जेटिक है. जोया एक मजबूत लड़की है. परमा (अर्जुन कपूर) जब उसे बंदूक दिखा रहा है तब आप इस लड़की के घूरने के अंदाज से ही समझ सकते हैं कि वह किरदार कैसा है. अब ऐसी लड़की कुछ मोटी हो तो कितनी अजीब लगेगी.’

लेडीज वर्सेज रिकी बहल  की सफलता के बाद परिणीता का सबसे बड़ा खर्च एक नए अपार्टमेंट में शिफ्ट होने पर आया है. ऐसा अपार्टमेंट जहां से समंदर दिखाई दे. यानी मुंबई में एक मुकाम पर पहुंचने की निशानी. हालांकि बाहरी दुनिया के लिए उनके फिल्म इंडस्ट्री में पहुंचने की सबसे बड़ी निशानी ये हो सकती थी कि वे हिंदी फिल्मों की बाकी हीरोइनों जैसे रटे रटाए जुमले इस्तेमाल करें लेकिन ऐसा है, नहीं. फिलहाल  वे अपनी दुनिया में अचानक आए इस बड़े बदलाव से लगभग अवाक दिखती हैं. अपने नए घर के बारे में परिणीति की बातें इस ओर इशारा भी करती हैं, ‘ अरे उस घर में तो अभी किराये पर रह रही हूं. लेकिन अब मैं पैसे कमा रही हूं इसलिए इसे खरीद भी सकती हूं…. बहुत बड़ा घर है.’ इस बात में ‘बड़ा’ शब्द को वे खूब खींचकर बोलती हैं. बिलकुल एक स्कूल की लड़की की मासूमियत के साथ. परिणीति अपने आसपास से गुजरने वाले लोगों को, जो उन्हें ध्यान से देखने और पहचानने की कोशिश करते हैं, के पास जाकर खुद बताती हैं कि वे परिणीति हैं. वे कहती हैं, ‘ अरे अभी मैं उस मुकाम पर नहीं हूं कि अपना शिष्टाचार भूल जाऊं.  मैं यह उम्मीद करती हूं कि ऐसा कभी नहीं होगा. मुझे लगता है कि जिस दिन मैंने जिंदगी के प्रति लापरवाही बरती, वह मुझसे छिटक जाएगी.

‘इस क्षण वे रुकती हैं और दार्शनिक होते-होते खुद को संतुलित कर लेती हैं. इंटरव्यू खत्म हो रहा है और हम उनकी अगली हरकत के इंतजार में हैं. वे बाहर देखती हैं और उन्हें इशकजादे के कोरियोग्राफर दिख जाते हैं. यानी अगला व्यक्ति जिसके साथ वे मजाक करने के मूड में दिखने लगी हैं. और हम फिर यह सोचने लगते हैं कि सिर्फ जुमलों में ही नहीं बल्कि ये लड़की अपनी हरकतों में भी बॉलीवुड की परंपरागत नखरे वाली हीरोइनों से अभी बिलकुल जुदा है.

चंबल घाटी की ‘बागी’ सभ्यता

उत्तर भारत में बुंदेलखंडी ही शायद ऐसी बोली होगी जिसका लहजा और शब्द बाहरी लोगों को अभद्र और अक्खड़ लगते हों. हम चंबल में हैं. और हर बार लोगों से बातचीत में यह महसूस कर रहे हैं. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की सीमाओं में फैले ये बीहड़ उतने उजाड़ नहीं हैं जितने यहां से गुजरने वाली ट्रेनों से दिखते हैं. पर यहां की जटिल भौगोलिक संरचना बीहड़ों के बीच बसे गांवों तक पहुंचना मुश्किल बना देती है. हमें मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में बसे मुरावन गांव तक जाने के लिए जंगल में लगभग 12 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है. गांव में घुसते ही हम अपनी कल्पनाओं वाले चंबल में पहुंच जाते हैं.

डाकू पप्पू गुर्जर ने अपनी गैंग की दहशत फैलाने के लिए मोहर सिंह के हाथ और नाक काटकर पुलिस अधीक्षक को भिजवा दिए

पिछले साल अक्टूबर माह में पप्पू गुर्जर नाम के एक डाकू ने मुरावन गांव के मोहर सिंह के दोनों हाथ और नाक काट दिए थे. हम जब उनके घर पहुंचते हैं तो लगभग धमकी भरे अंदाज में बताया जाता है कि हम मोहर सिंह से नहीं मिल सकते. बोली का उजड्डपन और डराने वाला अंदाज अब लोगों के व्यवहार में खुलकर दिखता है. तमाम तरह की आशंकाओं के बीच गांव के एक बुजुर्ग बताते हैं, ‘डकैतों ने हमारा जीना दूभर कर दिया है. जब से पप्पू गुर्जर ने मोहर के हाथ काटे हैं तब से लोग बहुत डरे हुए हैं. उसने धमकी दी है कि उसके गिरोह के सरगना राजेंद्र गट्टा के नाम का चबूतरा मुरावन में नहीं बना और दूसरी मांगें पूरी नहीं हुईं तो वह हमारे और हतेड़ी गांव के सभी लोगों को मार डालेगा.’

डकैत पप्पू गुर्जर चंबल के डाकुओं की फेहरिस्त में शामिल सबसे ताजा नाम है. वह यहां के एक दुर्दांत डाकू राजेंद्र गुर्जर उर्फ गट्टा का भाई है. गट्टा 2009-10 के दौरान मध्य प्रदेश में श्योपुर, शिवपुरी और अशोकनगर जिले के साथ-साथ राजस्थान के धौलपुर, बारां और सवाई-माधोपुर जिलों में सक्रिय इनामी डकैत था. दर्जनों हत्याओं, अपहरणों और डकैतियों के आरोपित गट्टा की उसी के गैंग के सदस्यों ने हत्या कर दी थी. जनवरी, 2011 में मुरावन गांव के पास हुए इस हत्याकांड के बाद पुलिस ने मंदिर से गट्टा की लाश बरामद की थी. इसके बाद गट्टा का भाई पप्पू इस गैंग का मुखिया बन गया. चंबल रेंज के पुलिस उपमहानिरीक्षक डीपी गुप्ता बताते हैं, ‘इस गिरोह ने एक राजस्थानी व्यापारी का अपहरण किया था. उसको छोड़ने के बाद मिली बीस लाख रुपये की रकम डाकुओं के बीच लड़ाई का कारण बन गई जिसमें गट्टा की हत्या कर दी गई.’ पप्पू गुर्जर का कहना है कि उसके भाई की लाश के पास लगभग तीन लाख रुपये, पांच तोला सोना और 159 जिंदा कारतूस थे और इस सामान को मुरावन गांव के लोगों ने चुरा लिया है.

इसी वजह से पप्पू गुर्जर ने मोहर सिंह के हाथ-नाक काटकर श्योपुर के जिला पुलिस अधीक्षक महेंद्र सिंह सिकरवार को भिजवाए थे. इसके साथ ही उसने एक पत्र भी भेजा जिसमें धमकी दी गई थी कि यदि गट्टा की लाश के पास से उठाया गया सामान वापस नहीं किया गया तो वह मुरावन और हतेड़ी गांव के सभी लोगों की हत्या कर देगा. हतेड़ी, मुरावन से करीब आठ किमी दूर स्थित एक आदिवासी गांव है जहां के लोगों से डाकू आए दिन रसद की मांग करते रहते हैं. पप्पू ने मुरावन में राजेंद्र गट्टा के नाम पर एक चबूतरा बनवाने के अलावा उसकी बरसी पर गांव में भोज करवाने की मांग भी रखी थी. इन धमकियों के चलते नवंबर, 2011 में हतेड़ी गांव में रहने वाले सहरिया आदिवासी अपना गांव, घर और खड़ी फसल छोड़कर वहां से पलायन कर गए.

इस मामले पर हुई पुलिस कार्रवाई और वर्तमान स्थिति के बारे में बात करते हुए गुप्ता कहते हैं, ‘हमने पूरे इलाके की सुरक्षा बढ़ाने के साथ-साथ मुरावन और हतेड़ी में कुछ सिपाही तैनात किए हैं. गट्टा की हत्या के बाद इस पूरी बेल्ट में पप्पू गुर्जर और कल्ली गुर्जर, दो सबसे प्रमुख गैंग सक्रिय हैं. हमारी एंटी डकॉइट (डकैत उन्मूलन) टीम इनके खिलाफ रणनीति बना रही है और जल्दी से जल्दी हम इन्हें पकड़ने की तैयारी में जुटे हैं.’

महिलाओं का डाकू गिरोहों से जुड़ना उनकी प्रतिष्ठा का विषय तो था लेकिन बाद में यही इन गिरोहों के पतन का कारण भी बना…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें उत्पीड़न, प्रेम और पराभव 

मगर पुलिस के इन आश्वासनों के बावजूद हतेड़ी के लोगों के मन में बैठे भय को आसानी से महसूस किया जा सकता है. मुख्य सड़क मार्ग से 18 किलोमीटर दूर पालपुर-कूनो जंगलों के बीच कूनो नदी के किनारे बसे हतेड़ी में कभी सहरिया आदिवासियों के 40 परिवार रहा करते थे. अब यहां सिर्फ दस परिवार बचे हैं. गांव के मंठा आदिवासी बताते हैं, ‘ हम डकैतों से बहुत परेशान हैं. वे जब चाहे आकर आटा-चावल और रसद मांगते हैं. यहां हमें ही दो जून की रोटी मुश्किल से मिल पाती है. उन्हें कहां से देंगे. न दें तो गोली मारने पर उतारू हो जाते हैं. दे दें तो कल को पुलिस पकड़कर ले जाएगी. हम गरीबों को दोनों तरफ से गोली ही खानी है.’ गांववालों का कहना है कि पिछले साल पप्पू गुर्जर के डर से उन्हें अपनी खड़ी फसल छोड़कर गांव से भागना पड़ा था. गांव से पलायन कर चुके परिवारों के बारे में बात करते हुए बनिया आदिवासी कहते हैं, ‘ उस दिन शाम को लगभग आठ बजे पप्पू गुर्जर अपने साथियों के साथ यहां आया और मोहर सिंह के हाथ-नाक काट डाले. उसने हम लोगों से पैसे भी मांगे. हमारे पास तो कुछ है ही नहीं इसलिए जान बचाकर हम लोग यहां से भाग गए. अभी यहां आठ-दस परिवार ही वापस लौटे हैं.’

मुरावन और हतेड़ी पिछले साल इसलिए थोड़े-बहुत चर्चा में आए क्योंकि यहां हुई डाकुओ से जुड़ी कुछ घटनाएं ठीक वैसी ही थीं जैसी अतीत में हुआ करती थीं. लेकिन इनके अलावा भी यहां कई ऐसे गांव हैं जहां देश के संविधान से ज्यादा डाकुओं का कानून चलता है.

अपनी ही तरह के इस सामाजिक-भौगोलिक क्षेत्र को कुख्यात बनाने वाली वजहों में से एक सबसे महत्वपूर्ण यहां से बहने वाली चंबल नदी भी है. इंदौर के पास बसे एक शहर महू से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित विंध्याचल की पहाड़ियां में इस नदी का उदगम स्थल है. इसके बाद राजस्थान के कुछ हिस्सों को पार करते हुए चंबल मध्य प्रदेश के भिंड-मुरैना क्षेत्रों में बहती है, फिर उत्तर प्रदेश के इटावा जिले की तरफ रुख कर लेती है. पानी के कटाव से चंबल के किनारे-किनारे मीलों तक ऊंचे-ऊंचे घुमावदार बीहडों की संरचना हुई है. ये दशकों से डाकुओं के छिपने के अभेद्य ठिकाने रहे हैं.

70 के दशक में सबसे कुख्यात रहे डाकू मलखान सिंह कहते हैं कि चंबल में आज असल बागी होते तो इतनी अराजकता नहीं होती’…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें ‘पुलिस और नेता नहीं चाहते कि बागी खत्म हों’

पिछले कुछ समय की बात करें तो मध्य प्रदेश में डाकुओं का प्रभाव बुंदेलखंडी इलाकों, रीवा-सतना-छतरपुर से बढ़कर गुना-अशोकनगर तक फैल गया है. पांच महीने पहले ही सतना के जंगलों में हुई पुलिस मुठभेड़ में सुंदर पटेल उर्फ रगिया डाकू मारा गया था जिसका खौफ इन सभी इलाकों में था. इसके पहले इन इलाकों से छिटपुट डकैतियों की खबरें ही आती थीं. रगिया ही ठोकिया के बाद कुख्यात डकैत ददुआ के गैंग को चला और बढ़ा रहा था. आजकल उसकी जगह  सुदेश कुमार उर्फ बालखड़िया ने ले ली है. इस गैंग में शामिल पीलवन उर्फ मदारी गौंड और छुग्गी पटेल को काफी दुर्दांत डाकू माना जाता है.

चंबल घाटी और उससे लगे इलाके की सबसे दुखती रग यह है कि यहां डाकुओं की सक्रियता और उनके भय को आम ग्रामीणों के बीच तो हमेशा देखा जा सकता है लेकिन उनकी चर्चा – मीडिया में या राजनीतिक स्तर पर – तब ही होती है जब पुलिस मुठभेड़ में कोई बड़ा डाकू मारा जाए, आत्मसमर्पण कर दे या फिर कोई बड़ी वारदात को अंजाम दे दे.

हाल-फिलहाल यहां पुलिस मुठभेड़ और वारदातों का सिलसिला तो काफी बढ़ा है लेकिन डाकुओें के आत्मसमर्पण की घटनाएं वैसे नहीं होती जैसा चंबल का इतिहास रहा है. नब्बे के दशक से साल दर साल मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश पुलिस मुठभेडों में डाकुओं को मारती रही है. पिछले एक दशक में पुलिस ने यहां जगजीवन परिहार, निर्भय गुर्जर, गड़रिया बंधुओं जैसे कई दुर्दांत डाकुओं को मुठभेडों में मारा है लेकिन उसके बाद भी यहां डाकुओं और उनके गिरोहों की कभी कमी नहीं रही. इस बीच जो हुआ वह यह कि चंबल की धरती ने अपने यहां पैदा होने वाले अपराधी सरगनाओं को ‘स्वाभिमानी बागी’ से ‘स्वार्थी डाकू’ और ‘स्वार्थी डाकू’ से ‘सस्ते शहरी उठाईगीरों’ में तब्दील होते देखा. अन्याय और शोषण के खिलाफ बंदूक उठाने वाले चंबल के तथाकथित बागियों की छवि और यहां की सामाजिक स्थितियों ने अपराध पर नैतिकता का ऐसा मुलम्मा चढ़ाया कि यह पूरा क्षेत्र डाकुओं की उर्वरा भूमि सरीखा बन गया.

अस्सी के दशक के डाकुओं और 2012 के डकैतों की कार्यप्रणाली और तकनीक में बड़े परिवर्तन आए हैं. चंबल रेंज के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक रहते हुए डकैतों से लगभग 25 मुठभेड़ करने वाले संजय राणा इस पूरे दुष्चक्र पर बात करते हुए कहते हैं, ‘ चंबल में डाकुओं के लगातार पैदा होने के पीछे मीडिया की बड़ी भूमिका रही है. मीडिया ने इनको बागी और अन्याय के खिलाफ लड़ने वाला रॉबिनहुड बनाकर मामला बहुत बिगाड़ दिया. इसमें कोइ शक नहीं कि 60 -70 के दशक के कुछ डाकू ऐसे थे जिन्होंने अपने जीवन में अत्याचार झेले पर ऐसे लोग बहुत कम हैं. ज्यादातर मामलों में डाकुओं ने मीडिया द्वारा गढ़ी गयी अपनी रॉबिनहुड वाली छवि का इस्तेमाल आसानी से धन कमाने के लिए किया. इस तरह धीरे-धीरे डकैती एक ऐसे व्यवसाय में तब्दील हो गई जिसमें निवेश सिर्फ एक बंदूक का था. पहले ये लोग ‘पकड़’ से फिरौती वसूलते थे. अब सीधे-सीधे शहरी ठगों और गुंडों की तरह व्यवहार करने लगे हैं. नए लड़कों को यह आसानी से पैसा कमाने, शराब पीने, गांव से लड़कियां उठवा लेने, अपनी जाति का हीरो बन जाने और मीडिया में गरीबों के मसीहा के तौर पर मशहूर हो जानेवाला पेशा लगने लगा. इसलिए बड़ी संख्या में नौजवान लड़के डाकू बनते रहे.’

250 हत्याओं के आरोपित रहे मोहर सिंह का कहना है कि चंबल के लोग अन्याय बर्दाश्त नहीं कर पाते…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें ‘चंबल का पानी बहुत तेज है’

चंबल के डाकुओं में दिलचस्पी रखने वाले लोगों में से ज्यादातर के लिए इनका इतिहास मान सिंह, मलखान सिंह, फूलन देवी व हाल के कुछ चर्चित डाकुओं तक ही सीमित होता हैै. लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक चंबल में लूटमार की प्रवृत्तियां सैकडों साल पहले से मौजूद रही हैं. डाकुओं पर कई लोकप्रिय उपन्यास और कहानियां लिखने वाले स्थानीय लेखक मनमोहन कुमार तमन्ना बताते हैं, ‘ यहां के रहस्यमयी बीहड़ सदियों से गोरिल्ला युद्धों के सबसे उपयुक्त स्थान रहे हैं. हर्षवर्धन के काल में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्येन सांग को वर्तमान धौलपुर के आसपाल लूट लिया गया था. पृथ्वीराज चौहान ने भी दिल्ली में हारने के बाद चंबल में ही रहकर बागी का जीवन बिताया था.’

चंबल में घूमते हुए मुगलकाल से जुड़ी एक मशहूर किवदंती भी सुनने को मिलती है. कहा जाता है कि एक यात्रा के दौरान नूराबाद के आसपास मुगल बादशाह अकबर के काफिले के 40 घोड़े चुरा लिए गए थे. जब सेना के कुछ लोग इन्हें नहीं ढूंढ़ पाए तो अकबर ने उन्हें फांसी लगवा दी. आज भी यहां के स्थानीय लोग गर्व से बताते हैं कि वे घोड़े गुर्जरों ने चुराए थे इसलिए अकबर के सैनिक उन्हें नहीं ढूढ़ पाए.

भारत में अंग्रेजों की हुकूमत के दौर में गुर्जर और जाटों के साथ एक नई जाति पिंडारी के डकैतों ने चंबल को अपना ठिकाना बनाया था. कैंब्रिज युनिवर्सिटी से प्रकाशित अपने शोधपत्र – ए नोट ऑन डकॉइट्स ऑफ इंडिया, में लेखक जॉर्ज फ्लोरिस लिखते हैं कि 1920 के आसपास सक्रिय हुआ डोंगर-बटूरी गैंग चंबल का पहला व्यवस्थित गैंग था. वे लिखते हैं, ‘ शुरुआती दौर में डाकू जंगल से गुजर रहे ऊंटों और घोडों के काफिलों को लूट लिया करते थे. चंबल में 1940 के आसपास वह दौर भी आया जब कई राजा डाकू बने और इनमें ठाकुर मानसिंह का नाम सबसे पहले आता है.’

गुलाम भारत से लेकर सन 1960 तक सक्रिय रही चंबल के डाकुओं की इस पहली पीढ़ी में डाकू मान सिंह, तहसीलदार सिंह, सूबेदार सिंह, लुक्का डाकू, सुल्ताना डाकू, पन्ना और पुतली बाई जैसे बड़े नाम शामिल हैं. इनमें से कई बड़े डकैतों ने 1960 में विनोबा भावे के शांति अभियान के चलते आत्मसमर्पण किया था और बाकी पुलिस मुठभेडों में मारे गए. वैसे 1920 में माधोराव सिंधिया ( ग्वालियर से लोकसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के परदादा) द्वारा करवाए गए 97 डकैतों के आत्मसमर्पण को चंबल के इतिहास का पहला आधिकारिक आत्मसमर्पण माना जाता है .पर 1960 में शुरू हुई विनोबा भावे की प्रसिद्ध शांति पहल स्वतंत्र भारत का पहला बड़ा डकैत आत्मसमर्पण अभियान था. इसके बाद 1985 तक मलखान सिंह, माधो-मोहर, माखन-चिड्डा, बाबा मुस्तकीन, फूलन देवी-विक्रम मल्लाह, श्रीराम-लालाराम और ददुआ जैसे दुर्दांत डाकुओं ने चंबलघाटी पर राज किया.

चंबल के इतिहास के सबसे नामी डाकू मानसिंह के गैंग के सदस्य रहे लोकमान दीक्षित उर्फ लुक्का डाकू आज अपनी बीहड़ की जिंदगी याद नहीं करना चाहते…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें ‘तब डाकू होना रुतबे की बात हुआ करती थी’

इस बीच जयप्रकाश नारायण और डॉ सुब्बाराव ने सन 1972 में लगभग 511 डकैतों को आत्मसमर्पण के लिए राजी कर बीहड़ के इतिहास में सबसे विशाल आत्मसमर्पण अभियान चलाया. फिर 80 के दशक में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने भी कई बड़े डकैतों ने आत्मसमर्पण किया और राज्य-सरकारों ने अपने अपने प्रदेशों से डकैती की समस्या के खात्मे के दावे भी शुरू कर दिए. ठीक इसी समय गुर्जर डाकुओं की एक पूरी पीढ़ी का उदय हुआ. निर्भय गुर्जर, सलीम गुर्जर, रज्जन गुर्जर, पंजाब सिंह गुर्जर और अरविंद गुर्जर जैसे दुर्दांत गुर्जर डाकुओं के साथ ही जगजीवन परिहार जैसे क्रूर ठाकुर गैंग भी इसी समय मजबूत होना शुरू हुए.

अब तक ठाकुर और गुर्जर गैंग से आबाद रहने वाले चंबल ने सन 2005 के आसपास, एक नया बदलाव देखा. पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करने वाला कुख्यात गड़रिया गैंग यहां के सबसे क्रूर और दुर्दांत डाकू गैंग के रूप में उभर कर आया. इस समय हजरत रावत, शक्ति-कच्छी, भारत यादव-दामोदर और लाखन लोधी जैसे कई छोटे-छोटे गैंग भी सक्रिय रहे. इस दौर में जातिगत दमन और श्रेष्ठता के नाम पर अपराधियों ने जाति को आधार बनाकर भी अपने गैंग बनाए. पहली बार नाथू जाटव, मेहराम जाटव, राजू आदिवासी और इंदर आदिवासी जैसे अनुसूचित जाति-जनजाति से जुड़े नाम भी डकैतों की इस घाटी में मशहूर हुए. फिलहाल तो इनमें से ज्यादातर डाकू मारे जा चुकी हैं लेकिन उनके गैंग के सदस्य आज भी घाटी में सक्रिय हैं. चंबल घाटी में एक दशक से भी लंबे समय तक काम कर चुके चंबल रेंज के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक विजय यादव बीहड़ की संरचनाओं के साथ-साथ जाति को नए डाकुओं के पनपने और बने रहने की वजह बताते हैं. वे कहते हैं, ‘ इनके पास अपनी-अपनी जाति का जबर्दस्त लोकल सपोर्ट होता है. एक बड़ा डाकू हमेशा अपनी जाति के लिए गर्व का विषय होता है. और जाहिर है जहां जाति है वहां राजनीति और उसका प्रभाव भी होता है.’

चंबल के कटाव से लगातार कम हो रही भूमि व उससे उपजे संघर्ष और बड़ी मात्रा में बंदूकों की मौजूदगी यहां डाकुओं के लगातार पैदा होने और बने रहने की एक प्रमुख वजह है. भिंड जैसे छोटे से जिले में इस समय 23,000 से ज्यादा लायसेंसी बंदूकें हैं वहीं मुरैना में ये संख्या 15, 000 और शिवपुरी में लगभग 11,000 बंदूकें हैं. जानकार बताते हैं कि इलाके में इससे कहीं ज्यादा गैरलायसेंसी बंदूकें हैं. चंबल के बारे में यह किंवदंती मशहूर है कि यहां आदमी के पास खाने को रोटी हो न हो, बंदूक जरूर होगी. बीहड़ की पगडंडियों पर फटे जूते पहने हुए मजदूर भी कंधे पर 60-60 हजार रुपये की कीमत वाली दोनाली बंदूक टांगे आसानी से देखे जा सकते हैं.

गड़रिया गैंग के सरगना रामबाबू गड़रिया की बहन रामश्री डाकुओं के परिवार का सदस्य होने की व्यथा बता रही हैं…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें ‘आईजी पहले अपने भाई को मरवाकर दिखाते’

ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में लगभग 30 वर्षों से काम कर रहे वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली बताते हैं, ‘ जमीन और औरत को लेकर ही यहां सबसे ज्यादा झगड़ा होता है. लगभग हर आदमी के पास बंदूकें हैं इसलिए छोटी-मोटी लड़ाई में भी गोली चल जाती है. यहां जैसे ही शोर होता है लोग लड़ने लगते हैं. फिर गोली चलने की आवाज आती है और पता चलता है किसी की हत्या हो गई. फिर पुलिस से बचने के लिए हत्यारे जंगल का रुख करते हैं और बीहड़ में एक और डाकू पैदा हो जाता है. पुलिस और ऊंची जाति वालों के अत्याचारों से तंग आकर बागी बनने वाले डाकू तो 60 -70 के दशक में हुआ करते थे. आज तो ये सिर्फ पैसे और दूसरे ऐशोआराम के लिए के लिए डाकू बन रहे हैं.’ पिछले सालों में हुई कुछ घटनाएं इस बात की पुष्टि भी करती है. सबसे ताजा घटना इसी साल 20 फरवरी की है जब शिवपुरी जिले के मानपुरी गांव में पांच डकैतों ने एक परिवार के यहां लूटपाट करने के बाद दो महिलाओं से बलात्कार किया था.

चंबल क्षेत्र में अपराध करके जंगल भागने वाले ज्यादातर लोग सबसे पहले तो बीहडों में सक्रिय किसी बड़े गैंग से जुड़ते हैं, फिर बाद में कुछ अपनी अलग गैंग भी बना लेते हैं. इन नए डाकुओं की कोशिश होती है कि हर अपराध को जातिगत संघर्ष की तरह प्रचारित किया जाए ताकि वे अपनी जाति की सहानुभूति बटोर सकें और क्षेत्र में मजबूत आधार बना सकें. इस तरह चंबल में एक जाति के डाकुओं के अत्याचार के खिलाफ दूसरी जाति के डाकुओं की नई पौध खड़ी हो जाती है. अतीत में चंबल ने ठाकुरों के खिलाफ गुर्जर और मल्लाह, गुर्जरों के खिलाफ गड़रियों, गड़रियों और गुर्जरों के खिलाफ रावत, और इन सभी के खिलाफ ठोकिया, गया कुर्मी, ददुआ और राजू आदिवासी जैसे अनुसूचित जाति के डाकूओं को बनते और कुख्यात होते देखा है. अपनी जाति के लोगों में उस जाति के डाकू की छवि रक्षक और तारणहार की तरह होती है.

जानकार मानते हैं कि क्षेत्रीय लोगों द्वारा डाकुओं के महिमामंडन और सरकार के रवैये ने भी चंबल में डाकुओं के पनपने में बड़ी मदद की है. तमन्ना कहते हैं, ‘ जिस आदमी ने दसियों लोगों की हत्याएं की हों उसे फूल-माला, नौकरी और जमीन का प्लॉट और जिनकी हत्याएं हुईं, उन्हें कुछ नहीं? यह कैसा इंसाफ है? और यह तर्क कि ये लोग अत्याचार की वजह से डाकू बने, एकदम फिजूल है. सवाल यह है कि अन्याय के खिलाफ खड़ा होनेवाला अगर खुद ही अन्याय कर रहा हो तो उसे अच्छा कैसे कहा जा सकता है? इनमें से कोई डाकू कभी उन लोगों से माफी मांगने नहीं गया जिनके परिवार-वालों को इन्होंने मारा और न ही किसी ने उन बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी ली जिन्हें इन्होंने अनाथ बना दिया. इन्हें हमेशा अपने अपराधी होने पर नाज रहा और सरकार के रवैए ने भी इसका मौन समर्थन कर दिया.’

साल 2009 में प्रभात कुमारी के पूरे परिवार को डाकुओं ने जलाकर मार डाला था…आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें ‘डाकुओं के डर से मेरे परिवार को कोई भी बचाने नहीं आया’ 

चंबल क्षेत्र भारत के सबसे अविकसित और पिछड़े इलाकों में से है. सत्तर के दशक में चंबल नहर के आ जाने से यहां के लोगों को खेतीबाड़ी में थोड़ी-बहुत सुविधा तो मिली पर बीहड़ों की वजह से इलाके की ज्यादातर जमीन आज भी बंजर और असिंचित ही है. शिक्षा और रोजगार के अवसरों की भारी कमी को भी यहां लगातार पैदा होने वाले डाकुओं के पीछे एक कारण माना जाता रहा है. लेकिन इस राष्ट्रव्यापी संकट से इतर यहां बसने वाले लोगों की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना डकैतों की अंतहीन पैदाइश के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. अपराध और अपराधी के प्रति गौरव का भाव रखने वाली चंबल घाटी में, ‘जाके बैरी जीवित घूमें बाके जीवन को धिक्कार’ जैसे मुहावरे प्रचलित हैं. तमन्ना कहते हैं, ‘ यह दुनिया का शायद एक मात्र समाज है जहां एक लंबे अरसे तक मांएं बदला लेने के लिए अपने बेटे को ही अपराधी बनवाती रही हैं. कुछ जातियों में तो उन लोगों के यहां लड़कियां ब्याहने का रिवाज ही नहीं है जिनके यहां लड़के ने किसी की हत्या न की हो. ऐसा न करने वाले को मर्द नहीं माना जाता. असल में यहां के लोगों में पयाप्त क्षमाशीलता नहीं है. यहां लोग पूरी जिंदगी सिर्फ बदला लेने के लिए स्वाहा कर सकते हैं. पुलिस और राजनेता हमेशा इनका इस्तेमाल करते रहे हैं. नेता वोट जुटवाने के लिए और पुलिस तमगों के लिए.’

पिछले एक दशक में यहां डकैत कम भले नहीं हुए हों मगर मोबाईल फोन और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग (ईवीएम) मशीनों के आने से पुलिस को डकैतों के सफाए में बड़ी मदद मिली है. एक ओर जहां ईवीएम की वजह से वोटिंग बूथ लूटने के लिए नेताओं द्वारा पोषित और संरक्षित किए जाने वाले डाकुओं का राजनीतिक महत्व समाप्त हो गया वहीं मोबाईल टावरों को ट्रेस करके पुलिस ने भी कई बड़े डाकुओं का एनकाउंटर करने में सफलता हासिल की है.

चंबल में डाकुओं के लगातार बने रहने की समस्या के पीछे क्षेत्रीय पुलिस के असंवेदनशील रवैये पर भी सवाल उठते रहे हैं. मध्यप्रदेश सरकार के डकैत उन्मूलन विभाग के प्रसिद्ध एनकाउंटर स्पेशलिस्ट और वर्तमान में रीवा रेंज के पुलिस महानिरीक्षक गाजी राम मीणा यह स्वीकारते हुए कहते हैं कि निचले स्तर पर काम करने वाले पुलिस बल को आम लोगों के प्रति संवेदनशील बनाना डकैती की समस्या को खत्म करने के लिए सबसे जरूरी है. तहलका से बातचीत वे कहते हैं, ‘ हम मुठभेड़ में डाकुओं को मारते जाते हैं और नए डाकू फिर पैदा हो जाते हैं. इसीलिए इस समस्या से निपटने के लिए अब हम लोग मल्टी-एजेंसी एफर्ट पर ध्यान दे रहे हैं. हम थानेदारों के लिए सेन्सेटाइजेशन प्रोग्राम चला रहे हैं. सभी को सख्त निर्देश दिए गए हैं कि एक भी फरियादी बिना अपनी शिकायत दर्ज करवाए वापस न जाने पाए. हर एक की शिकायत पर ध्यान देकर तुरंत कार्रवाई की जाए ताकि लोग ऐसा न महसूस करें कि उन्हें न्याय पाने के लिए उन्हें डाकू बनना पड़ेगा. विकास के और दूसरे काम और लोगों को समझ कर उनकी परेशानी दूर करने की यह कोशिशें हमें कम-से-कम अगले 10 साल तक लगातार करनी होगी, तभी हम नए डकैतों को पनपने से रोक सकते हैं.’

शहर अंदर ‘समंदर’

 

यह राजस्थान में जोधपुर शहर के यूएस बूट हाउस का एक जादुई बेसमेंट है. जादुई इसलिए कि यह शहर शुष्क रेगिस्तान के मुहाने पर बसा है लेकिन इस बेसमेंट में बारहमासी पानी रिसता रहता है. हालांकि इसकी नींव में कई सालों से पानी रिसता रहा है, लेकिन बीते दो साल से पानी इस स्तर तक बढ़ गया कि पांच पंपों से 24 घंटे पानी उलीचने पर भी यह कम होने का नाम नहीं लेता. हैरानी की बात है कि यह हाल बरसात के पानी से नहीं बल्कि जमीन से रिसने वाले पानी की वजह से हुआ है. इस बेसमेंट के मालिक हरीश मखीजानी की परेशानी यह है कि अगर उन्होंने पंपों को थोड़ा भी आराम दिया तो उनका पूरा माल पानी में तैर जाएगा. उनकी दूसरी परेशानी यह है कि उनकी दुकान शहर के एक प्रमुख स्थान पर है यानी उनके लिए कहीं दूर जाने का मतलब है उनका धंधापानी चौपट हो जाना. इसलिए जब कभी बिजली जाती है तो उन्हें जेनरेटर से पंप चलाकर पानी नालियों में बहाना पड़ता है. यह परेशानी सोजती गेट, त्रिपोलिया, चांदपोल, नवचौकिया, पावटा और घंटाघर सहित पुराने शहर के उन तमाम दुकानदारों और मकान मालिकों की भी है जिन्हें पंपों से रात और दिन तलघरों से पानी उलीचने के सिवाय कोई दूसरा चारा दिखाई नहीं देता.

थार मरुस्थल का हृदय जोधपुर कभी पानी का मोहताज हुआ करता था. आज यही शहर पानी-पानी हो गया है. विशेषज्ञों के मुताबिक थार सहित उत्तर भारत के कई इलाकों का भूजल दो से चार मीटर सालाना की दर से नीचे उतर रहा है लेकिन इसके उलट जोधपुर का भूजल एक से डेढ़ मीटर ऊपर चढ़ रहा है. आलम यह है कि कुएं मीठे पानी से लबालब हैं. नलकूप खोदो तो पूरा समंदर मिल जाता है और छोटे से छोटा निर्माण करो तो जमीन से पानी का फव्वारा फूट पड़ता है. सोजती गेट के एक प्राइवेट स्कूल में कुछ महीने पहले जमीन से पानी अपने आप फूट पड़ा. स्कूल प्रबंधन द्वारा कई पंप चलाने पर भी पानी आने का सिलसिला है कि टूटता ही नहीं. जल जमाव के चलते ही राजस्थान हाई कोर्ट में 60 वकीलों के चैंबर वाला जुबली चैंबर बदलना पड़ा. राज्य का भूजल विभाग बताता है कि शहर में भूजल स्तर कम होने की बजाय तेजी से बढ़ ही रहा है. कहीं-कहीं तो यह जमीन से कुछ सेंटीमीटर ही नीचे रह गया है. यानी इन इलाकों की जमीन हमेशा गीली ही बनी रहती है.

आज यकीन करना मुश्किल है कि डेढ़ दशक पहले तक इन्हीं इलाकों का भूजल पाताल छुआ करता था.  1995 तक जोधपुर की जलापूर्ति पूरी तरह भूजल पर निर्भर थी. लेकिन इसके बाद इंदिरा सागर नहर (इस नहर में सतलुज और व्यास नदी का पानी आता है) से निकली एक शाखा के जोधपुर पहुंचने पर शहर में भूजल का उपयोग लगभग बंद हो गया. साथ में यह भी हुआ कि 19वीं सदी में बनाई गई जोधपुर की कायलाना झील उसकी वास्तविक क्षमता से कहीं अधिक भरी जाने लगी. पीएचईडी के मुताबिक अब शहर में 20 करोड़ लीटर प्रतिदिन की दर से जलापूर्ति की जाती है. इन दिनों एक आदमी पर रोजाना 140 लीटर पानी खर्च किया जाता है. जाहिर है शहर में जल का उपयोग कई गुना बढ़ा है. मगर रेगिस्तान को हरा बनाने के लिए भारी मात्रा में लाए गए हिमालयी पानी का उचित प्रबंधन नहीं कर पाने का खामियाजा जोधपुर को भुगतना पड़ रहा है. यही पानी अपनी अधिकता की वजह से शहर के लिए अभिशाप बन गया है. जोधपुर में बढ़ते जलस्तर की समस्या को वैज्ञानिकों द्वारा राजीव गांधी नहर परियोजना से जोड़कर देखा जा रहा है. मगर वैज्ञानिकों के कई निष्कर्ष एक-दूसरे से अलग-थलग और विरोधाभासी हैं जिससे स्थिति रहस्यपूर्ण और समाधान और मुश्किल बन रहा है.

‘ऐसा लगता है कि जोधपुर की कई कमजोर इमारतें पानी के ऊपर तैर रही हैं. डर है कि भूकंप का मामूली झटका भी कहीं इस ऐतिहासिक शहर को पानी के साथ बहा न ले जाए’

2009 से शहर के गोदामों (बेसमेंट) में आया पानी जब वापस जमीन में नहीं गया और समस्या विकराल होने लगी तो जोधपुर विकास प्राधिकरण ने शहर के भीतर नए गोदाम बनाने पर सख्ती से रोक लगा दी. जोधपुर के एक बिल्डर नगराज कोठारी का मानना है कि गोदामों से तो फिर भी पानी उलीच लिया जाता है लेकिन शहर में कई नई-पुरानी इमारतों की नींव में भी पानी जमा हो रहा है और उसकी वजह से वे बहुत कमजोर हो गई हैं. यहां कई इमारतों में सीलन की परतें और दीवारों पर दरारें साफ दिखती हैं. शहर के चेतानिया की गली में मकानों के धंसने की घटनाएं भी हो चुकी हैं. मालवीय नगर प्रोद्यौगिकी संस्थान, जयपुर के प्रोफेसर और सिविल इंजीनियर अजय जेठू के कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि जोधपुर की कई कमजोर इमारतें पानी के ऊपर तैर रही हैं. डर है कि भूकंप का मामूली झटका भी कहीं इस ऐतिहासिक शहर को पानी के साथ बहा न ले जाए.’

जोधपुर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का विधानसभा क्षेत्र भी है.  2009 में राज्य सरकार ने भूजल रिसाव से निजात पाने के लिए एक आपातकालीन योजना के तहत 12.27 करोड़ रुपये मंजूर किए थे. तब से पीएचईडी द्वारा शहर के चार जोन में दस हॉर्सपवर के 89 पंप लगाकर रात-दिन भूजल उलीचने का काम चालू है. विभाग के मुख्य अभियंता बीसी माथुर के मुताबिक इस तरह प्रतिदिन 3.5 करोड़ लीटर भूजल उलीचा जा रहा है. विभाग द्वारा भूजल कम करने की इस दिलचस्प कवायद में बीते साल 48 लाख रुपये बिजली का बिल जमा किया गया. विभाग ने अभी तक इस तस्वीर का अंदाजा नहीं लगाया है कि जब शहर में पंपिंग पूरी तरह से रोक दी जाएगी तब क्या स्थिति होगी.

आखिर जोधपुर का भूजल खतरनाक स्तर तक क्यों बढ़ रहा है? बीते एक दशक में इस सवाल को लेकर कई नामी संस्थानों के विभिन्न अध्ययन सामने आए हैं. इनमें केंद्रीय भू-जल बोर्ड, जोधपुर विश्वविद्यालय, राजस्थान भू-जल विभाग, इसरो का आरआरएसएससी यानी राजस्थान रीजनल रिमोट सेंसिंग सर्विस सेंटर, बार्क यानी भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (मुंबई), राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान (हैदराबाद) और राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (रुड़की) खास हैं.  2001 में केंद्रीय भूजल बोर्ड और जोधपुर विश्वविद्यालय ने जोधपुर के भूजल में आ रहे बदलाव को लेकर एक अध्ययन किया था. उन्होंने समस्या के तीन कारण बताए. पहला यह कि जोधपुर में राजीव गांधी नहर आने के बाद जल का उपयोग कई गुना बढ़ गया और यह पानी भारी मात्रा में रिसकर जमीन के भीतर ही जा रहा है.  हिमालयी पानी मिलने से शहर के सैकड़ों पारंपरिक जलस्त्रोतों का उपयोग बंद होना दूसरा कारण बताया जाता है. तीसरा कारण यह बताया जा रहा है कि समय के साथ शहर की आबादी और जलापूर्ति में भारी बढ़ोतरी से पाइपलाइनों पर जबरदस्त दबाव बना और ये जगह-जगह लीक हो रही हैं. जोधपुर के भूजल विशेषज्ञ  स्व. बीएस पालीवाल के एक अध्ययन के मुताबिक इन कारणों ने मिलकर जोधपुर में जलरिसाव को गंभीर बनाया है.

लेकिन कुछ जानकारों की दलील है कि गोदामों में आने वाला पानी इतना साफ और बदबूरहित है कि इसे पाइपलाइन से लीक हुआ पानी नहीं माना जा सकता. उधर, कुछ का मानना है कि तीनों कारणों से जलरिसाव बढ़ तो सकता है लेकिन इस हद तक भी नहीं.  2001 में ही राजस्थान भूजल विभाग और इसरो के आरआरएसएससी का अध्ययन बताता है कि कायलाना झील की ऊंचाई शहर से काफी अधिक है और झील से शहर की तरफ 40 मीटर की एक ढलान है. सेटलाइट चित्रों में पाया गया कि झील और शहर के बीच भूगर्भीय दरारें हैं. 1995 के बाद झील का जलस्तर जब 45 मीटर की ऊंचाई से बढ़ाकर 55 मीटर तक कर दिया गया तो भूगर्भीय चट्टानों में बहुत अधिक दबाव पड़ने से उनमें दरारें बढ़ गईं. झील का पानी इन्हीं दरारों से रिसकर शहर के भूजल स्तर को बढ़ा रहा है. आरआरएसएससी के वैज्ञानिक डॉ बीके भद्र बताते हैं कि उन्होंने अपनी बात को पुख्ता करने के लिए झील से एक किलोमीटर दूर और दरारों के बीच दो कुएं खोदे. उन्होंने जल की माप की निगरानी के दौरान इन कुओं की तुलना उनके आस-पास और बिना दरारों पर स्थित बाकी कुओं से की. उन्होंने पाया कि बाकी कुओं का पानी खारा है लेकिन इन दोनों कुओं का पानी हिमालयी यानी झील का है. बाकी कुओं का जलस्तर बहुत नीचे है लेकिन दोनों कुंओं का जलस्तर काफी ऊपर है. उसके बाद बार्क (मुंबई) ने भी पाया कि झील और शहर के गोदामों में आया पानी समान है और कायलाना झील के रिसाव को समस्या की एक बड़ी वजह माना जा सकता है.

2009 में जब जोधपुर का भूजल स्तर अचानक तेजी से बढ़ने लगा तो देश के दो अन्य संस्थानों से अध्ययन कराए गए. इन संस्थानों ने राज्य भूजल विभाग, आरआरएसएससी और बार्क के निष्कर्षों से असहमति जताई. 2010 में राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान (हैदराबाद) ने सेटलाइट चित्रों से बताया कि कायलाना झील और शहर के बीच की चट्टानों में कुछ दरारें जरूर हैं लेकिन ये इतनी बारीक हैं कि उन्हें जोधपुर में जल रिसाव के लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता. इस संस्थान के मुताबिक जोधुपर के भूजल की स्थिति पर अब तक की समझ काफी नहीं है और इस पर और अधिक काम करने की जरूरत है.

2011 में राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान (रूड़की) ने अपने अध्ययन में जलापूर्ति और निकासी के बीच भारी असंतुलन को समस्या की वजह माना. इस संस्थान के वैज्ञानिक डॉ एनसी घोष के मुताबिक जोधपुर में 16 साल से भूजल का उपयोग बंद है. दूसरी तरफ बाहरी स्त्रोत से बड़े पैमाने पर जलापूर्ति जारी है. इससे भूगर्भ में पानी कई परतों के बीच तालाब की तरह जमा हो रहा है. इसलिए जमीन में जल का संतुलन बिगड़ गया है और वह पहले की तरह बाहर नहीं निकल पाने से बढ़ता जा रहा है.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी फिलहाल जमीन में जल असंतुलन को समस्या की मुख्य वजह मानते हुए प्रशासन को युद्ध स्तर पर काम करने की हिदायत दी है.  प्रशासन ने भी बीते दो साल में काफी भूजल उलीच डाला है. वहीं रहवासियों का मानना है कि जब मटकी से पानी पिया जाता है तो उसमें पानी कम होता ही है. मगर लंबे अंतराल तक भूजल उलीचने पर भी कोई विशेष अंतर नहीं आने से स्थिति उलझ गई है.  ऐसे में शहर की दुर्दशा को दूर करने का कोई दूरदर्शी समाधान खोजने की मांग उठ रही है क्योंकि भूजल उलीचने की इस सतत क्रिया में भारी बिजली तो खर्च हो ही रही है, बड़े स्तर पर निवेश करके हिमालय से जोधपुर तक लाए गए पानी की बर्बादी भी बढ़ती जा रही है.

 

मर्ज कुछ, दवा कुछ

झारखंड में राजधानी रांची से लेकर संथाल परगना के किसी सुदूरवर्ती जिला मुख्यालय तक इन दिनों कई नए किस्म के नारों के साथ कुछ होर्डिंग जरूर देखने को मिलते हैं. ये होर्डिंग झारखंड में लडकियों को तरजीह देने की अपील वाले हैं. बिटिया को खास मानने की अपील से भरे हुए. झारखंड में अचानक लड़कियों पर स्नेह की बारिश होने लगी है. सरकार महिलाओं को केंद्र में रख कुछ-कुछ करने की कोशिश करती दिख रही है.

मिसाल के तौर पर लाडली बिटिया योजना को ही लें. सरकार ने चालू वर्ष को लाडली बिटिया वर्ष घोषित किया है. उसके मुताबिक इस योजना का मकसद है लड़कियों का भविष्य संवारना. इस योजना के तहत किसी बच्ची के जन्म पर 6,000 रु डाक घर में जमा करके उसके नाम पर एक खाता खोला जाएगा. अगले चार साल तक हर साल इसमें इतनी ही रकम जमा की जाएगी.

इतना ही नहीं, बच्ची के कक्षा सात में पहुंचते ही उसे एकमुश्त 2,500 रु दिए जाएंगे. कक्षा नौ में यह आंकड़ा चार हजार और कक्षा 11 में साढ़े सात हजार रु हो जाएगा. 11वीं और 12वीं कक्षा की छात्राओें को 200 रु अतिरिक्त दिए जाएंगे. फिर 21 साल की आयु पूरी होने और बारहवीं पास करने पर उसे एक लाख आठ हजार रूपये एक मुश्त दिए जाएंगे ताकि उसका ठीक से विवाह हो सके. शर्त यही है कि विवाह के समय उसकी उम्र कम-से-कम 18 साल होनी चाहिए. सरकार ने इस योजना को चलाने के लिए बजट में अलग से 54 करोड़ रु पारित भी किए हैं. सरकारी दस्तावेज के अनुसार यह योजना पूरे राज्य में बीते 15 नवंबर से लागू हो चुकी है.

लेकिन असल पेंच इस योजना के लागू होने के बाद से ही शुरू हुए हैं. दुमका की चांदमुनी बताती हैं,  ‘हमारी बिटिया का जन्म तीन महीने पहले हुआ है. जन्म के बाद से ही रजिस्टर में उसका नाम चढ़वाने के लिए यहां-वहां धक्के खा रहे हैं लेकिन अब तक सफलता नहीं मिल पाई है.’ थक-हारकर चांदमुनी ने योजना से तौबा कर ली है. वे बताती हैं, ‘तीन-तीन फॉर्म भरने पड़ते हैं. उसके बाद आंगनबाड़ी सेविका से लिखवाना पड़ता है. फिर समाज कल्याण विभाग को एक कापी जमा करनी पड़ती है. फिर उस पर उपायुक्त का रिकमेंडेशन आता है. तब जाकर डाकघर में खाता खुल पाता है.’ झारखंड के अलग-अलग हिस्सों मंे चांदमुनी जैसी कई महिलाएं हैं जिन्होंने दुरूह प्रक्रिया की वजह से इस योजना से तौबा कर ली है.

और बात सिर्फ उलझाऊ प्रक्रिया भर की भी नहीं है. बहुतों को इस तरह की योजना में ही खोट नजर आ रही है. जैसा कि बोकारो में बच्चों के अधिकार पर काम करने वाली ज्योति कहती हैं, ‘यह भूल-भुलैया वाली योजना है. अब तक तो झारखंड के ग्रामीण इलाकों में दहेज का चलन नहीं था लेकिन जब एकमुश्त पैसे आएंगे तो दहेज प्रथा का आरंभ यहां हो जाएगा.’

असल मुद्दा

हालांकि इन चीजों को एकबारगी परे भी कर दें तो  झारखंड की महिलाओं को भविष्य का ख्वाब दिखाने से ज्यादा अहम जरूरत इस बात की है कि उनका वर्तमान सुरक्षित और समृद्ध किया जाए. फिलहाल तो यह कई मायनों में भयावह है. सबसे अहम मानक स्वास्थ्य की बात करते हैं. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि राज्य की 70 फीसदी से अधिक महिलाएं अनीमिया (खून की कमी ) की शिकार हैं. किशोर उम्र की लड़कियों की बात करें तो उनकी आबादी में तीन चौथाई से अधिक अनीमिया ग्रस्त हैं. आंकड़े यह भी बताते हैं कि बाल विवाह के मामले में भी राज्य देश में सबसे अगली पांत में है. महिलाओं की तस्करी भी सबसे ज्यादा यहीं से होती है. पिछले दस वर्षों के आंकड़े देखें तो यहां यौन उत्पीड़न 7,563, अपहरण 3,854, दहेज हत्या 2,707 और दहेज उत्पीड़न के 3,398 मामले सामने आए हैं. झारखंड स्टेट लीगल सर्विसेज अथॉरिटी की मानें तो अब भी राज्य में प्रतिवर्ष औसतन 175 महिलाएं डायन बताकर मारी जा रही हैं. यूनीसेफ की एक रिपोर्ट बताती है कि झारखंड में आधी आबादी के पास अब भी शौचालय नहीं है और न ही पीने का साफ पानी. ऐसे में महिलाओं की अधिकांश आबादी पानी के फेरे में ही अपना अधिकांश समय खपा देती हैं.

झारखंड में 70 फीसदी से अधिक महिलाएं अनीमिया की शिकार हैं जबकि हर साल यहां से लगभग सवा लाख लड़कियां दूसरे राज्यों में पहुंच जाती हैं

अब यदि शिक्षा की स्थिति देखें तो सरकारी आंकड़ों में यह खुशनुमा-सी दिखती है. आंकड़े बताते हैं कि यहां  महिलाओं की साक्षरता दर 56 फीसदी है लेकिन सच यह भी है कि मात्र 11 प्रतिशत लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाती हैं. यूनीसेफ की रिपोर्ट को आधार बनाएं तो प्राथमिक शिक्षा में स्कूल छोड़ने की दर यहां काफी ज्यादा है.

महिलाओं की तस्करी के मसले पर कार्यरत संस्था एटसेक के सचिव संजय मिश्र कहते हैं कि झारखंड से हर वर्ष सवा लाख लड़कियां दूसरे राज्यों में पहुंच जाती हैं. लेकिन इस पर अब तक लगाम नहीं लगायाी जा सकी है. इस कारण अधिकांश लड़कियां शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न की शिकार होती हैं. जिन लड़कियों को इस मकड़जाल से छुड़ाया जाता है उनके लिए भी कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है. बात आगे बढ़ाते हुए समाज कल्याण विभाग के अवर सचिव चंद्रशेखर झा कहते हैं कि सरकार की मंशा में महिलाएं शामिल हैं ही नहीं. वे बताते हंै, ‘राज्य महिला आयोग महिलाओं के सहयोग के लिए है लेकिन उसके पंख कतर दिए गए हैं ताकि वह उड़ान न भर सके. फिर भी हम सीमित संसाधनों में पिछले डेढ़ सालों मे लगभग 600 मामलों को निपटा चुके हैं.’

झारखंड राज्य में 2006 से ही महिला नीति बन कर तैयार है पर सरकार अब तक उसे लागू नहीं करवा सकी है. महिला आयोग की सदस्य वासवी किड़ो कहती हैं, ‘सरकार की मंशा साफ नहीं है. वह महिलाओं को सिर्फ लॉलीपॉप दिखा कर इस्तेमाल करना चाहती है. आयोग के पास सबसे अधिक मामले घरेलू हिंसा के सामने आते रहे हैं. उसके बाद बलात्कार, डायन और संपत्ति के मामले पर सरकार को शायद यह पता ही नहीं है कि राज्य में किस समस्या का समाधान पहले किया जाना है.’ झामुमो विधायक सीता सोरेन कहती हैं, ‘यह योजना तो ठीक है. यह योजना नाउम्मीद के बीच  उम्मीद की एक लौ की तरह दिखती है. लेकिन इसकी पेचीदगियां इतनी हैं कि लगता है यह सिर्फ शहरी लड़कियों के लिए है, ग्रामीण क्षेत्र के लिए नहीं.’ वे यह भी आरोप लगाती हैं कि दलाल इस योजना का बंटाधार करने पर तुले हैं.

क्या है दरकार

सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि झारखंड में लाडली बिटिया योजना बनते समय ही कई सवाल थे लेकिन आनन-फानन में इसे तैयार करके लागू करवा दिया गया. बिना कुछ मौलिक बातों पर गौर किए. उनका यह कहना सही भी लगता है. झारखंड के मूलवासियों में तो परंपरागत रूप से बेटियों को हमेशा से ही ज्यादा तरजीह मिलती रही है. लेकिन इस अधिकारी की मानें तो राज्य सरकार दूसरे राज्यों के नकल के चक्कर में फंस गई. दरअसल पड़ोसी राज्य बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी महिलाओं को केंद्र में रखकर कई योजनाएं शुरू की हैं. लेकिन झारखंड सरकार यह भूल गयी कि बिहार और झारखंड में कुछ चीजों में मौलिक फर्क है. दोनों राज्यों का सामाजिक परिवेश अलग है. झारखंड में लड़कियों को अलग से लक्ष्मी और लाडली कहकर विशेष स्नेह या दयामयी कहने की कभी जरूरत ही नहीं रही. उदाहरण के तौर पर, बिहार में लड़कियों को साइकिल की सवारी करते देखना एक बड़े बदलाव की तरह माना जा सकता है. लेकिन झारखंड के ग्रामीण अंचल में किशोरवय आदिवासी लड़कियां पीढि़यों से सरपट साइकिल दौड़ाती रही हैं.

इसी तरह यहां यदि महिलाओं को अलग-अलग मोर्चे पर सक्रिय देखना हो तो आबादी के अनुपात में चर्चित चेहरे झारखंड में ज्यादा मिलते हैं. तीरंदाज दीपिका, पूर्व महिला हॉकी कप्तान असुंता, हॉकी खिलाड़ी सावित्री पूर्ति, समुराय टेटे, सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बरला, मुक्केबाज अरुणा मिश्रा, रेल चलाने वाली रूपाली जैसी कई महिलाएं यहां सहजता से पनपती रही हैं. राज्य ऐसी कई प्रतिभाओं की खान रहा है. जानकार कहते हैं कि ऐसी प्रतिभाओं को बढ़ावा देने की जरूरत है, लेकिन सरकार लड़कियों को लाडली, बिटिया, लक्ष्मी आदि की शब्दावली में फंसाकर सभी मुश्किलों से पार पाने की पुरजोर कवायद में दिखती है.

नाक की लड़ाई

 

बिहार में गया और मोतिहारी दो अलग-अलग हिस्सों में बसे हुए शहर हैं. दोनों इलाकों के निवासियों में काफी भिन्नता है. मोतिहारी ठेठ भोजपुरी भाषी इलाका है तो गया मगही भाषा और संस्कृति का गढ़. मोतिहारी वालों को इस बात की मुग्धता रहती है कि उनकी ही धरती पर महात्मा गांधी के सत्याग्रह की बुनियाद पड़ी और बाद में वे मोहनदास से महात्मा बन गए. गया वालों को गुमान रहता है कि गया की धरती ने ही ज्ञान की तलाश में भटक रहे राजकुमार सिद्धार्थ को बुद्ध बनने का अवसर दिया. इन दोनों इलाकों में सांस्कृतिक-सामाजिक और भौगोलिक दूरी इतनी ज्यादा है कि आपस में रोटी-बेटी का संबंध न के बराबर होता है. इन दोनों में अड़ोसी-पड़ोसी जैसा कोई संबंध नहीं है. बावजूद इसके आजकल बिहार के इन दोनों इलाकों में एक-दूसरे के लिए सौतिया डाह जैसी भावना चरम पर है. दोनों इलाकों का दौरा करने और स्थानीय लोगों से बातचीत करने पर यह साफ महसूस होता है कि यहां क्षेत्रीय अस्मिता का भाव बिहारी होने के गर्व पर भारी पड़ रहा है. अपनी लड़ाई के समर्थन में मोतिहारी और गया के लोग मानव श्रींखलाएं बना रहे हैं, परचेबाजी कर रहे हैं और दिल्ली दौड़ लगा रहे हैं.

इस अलगाव के केंद्र में है एक केंद्रीय विश्वविद्यालय. वही केंद्रीय विश्वविद्यालय, जिसके स्थान चयन को लेकर देश के मानव संसाधन मंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री मूंछ की लड़ाई लड़ रहे हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मोतिहारी के पक्ष में खड़े हैं तो दूसरी ओर देश के मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल हैं जो गया के पक्ष में अपने वकालत के पेशे वाले अनुभव से तर्क-वितर्क करते हैं.

इस लड़ाई का राजनीतिक असर जो होना है वह तो होगा ही, फिलहाल सबसे ज्यादा हास्यास्पद स्थिति उन छात्र-छात्राओं की हो गई है जो पिछले तीन साल से कहने को तो केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहे हैं लेकिन उन्हें पटना के बीआईटी परिसर के एक कोने में अपने भविष्य का ताना-बाना बुनना पड़ रहा है. उस कोने की व्यथा यह है कि अक्सर विश्वविद्यालय के कुलपति और बीआईटी प्रबंधन के बीच तू-तू मैं-मैं की नौबत आ जाती है और बीआईटी प्रबंधन उन्हें बाहर निकाल देने की धमकी देता रहता है.

बिहार सरकार के मानव संसाधन मंत्री पीके शाही का कहना है, ‘हमें एक नहीं चार केंद्रीय विश्वविद्यालय चाहिए.’ विपक्षी नेता राष्ट्रीय जनता दल के सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘बिहार को चाहिए कि वह गया और मोतिहारी, दोनों जगह केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की मांग तो करे ही, साथ ही पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की पुरानी मांग को भी दुहराए.’ लेकिन इन बिहारी नेताओं की भावना के उलट केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल बार-बार एक ही बात दोहरा रहे हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालय गया में ही खुलेगा, मोतिहारी में उसका एक्सटेंशन सेंटर खोला जा सकता है. साथ में सिब्बल यह सुझाव भी देते हैं कि अगर राज्य सरकार चाहे तो मोतिहारी में एक राज्यस्तरीय विश्वविद्यालय की स्थापना करे, केंद्र सरकार हर संभव सहयोग करेगी. इन सबके बीच प्रस्तावित केंद्रीय विश्वविद्यालय जिसको लेकर सारी लड़ाई जारी है, उसके कुलपति जनक पांडेय ने यह कहकर नया पेंच फंसा दिया है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत बिहार के सभी प्रमंडलों में एक-एक कम्युनिटी कॉलेज खोलना चाहिए. यानी हर जिम्मेदार व्यक्ति के पास अपना-अपना फॉर्मूला है.

मोतिहारी बनाम गया की मौजूदा लड़ाई के अतीत में झांकने पर दिलचस्प जानकारियां मिलती हैं. 2004 में केंद्र में बनी यूपीए सरकार ने देश भर में 15 केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की योजना बनाई. बिहार के हिस्से में भी एक आया. पटना के बीआईटी परिसर में इसकी शुरुआत हुई. राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उसी दौरान मोतिहारी में इंजीनियरिंग कॉलेज का उद्दघाटन करने गए. यह नीतीश का उत्कर्ष काल था. भारी संख्या में मोतिहारी की जनता उन्हें सुनने के लिए इकट्ठा थी. भीड़ के जोश और मोतिहारी इलाके से एनडीए को मिली भारी सफलता के आवेग में नीतीश ने मंच से उनके लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय की घोषणा कर दी बशर्ते जमीन मोतिहारी के लोग उपलब्ध करवा दें. लगे हाथ जनता ने जमीन देने के लिए हामी भर दी. झगड़े के बीज यहीं से पड़े. मुख्यमंत्री ने अपना प्रस्ताव दिल्ली भेजा. दिल्ली ने तीन सदस्यीय टीम मोतिहारी भेजी. टीम ने मोतिहारी के पिछड़ेपन, आवागमन की दुरूहता और आबादी वगैरह को आधार बनाकर नीतीश का प्रस्ताव खारिज कर दिया. लगे हाथ केंद्र सरकार ने गया में सेना की जमीन पर विश्वविद्यालय परिसर स्थापित करने का अपना वैकल्पिक प्रस्ताव भी पेश कर दिया. यहां से नीतीश और केंद्र सरकार के बीच नाक की लड़ाई की बुनियाद पड़ी, जो अब तक चल रही है.

मोतिहारी वालों को मुख्यमंत्री का आसरा था तो गया वालों में उम्मीद केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ने जगा दी. जाहिर-सी बात है दोनों इलाकों के लोगों ने अपने-अपने हिसाब से नायक-खलनायक तय कर लिए और लड़ाई शुरू कर दी. अब यह मामला इतना जटिल हो चुका है कि इन दोनों जगहों को अगर लॉलीपॉप जैसा कुछ नहीं दिया गया तो हर हाल में राजनीतिक नुकसान राज्य में सत्ताधारी एनडीए गठबंधन को उठाना पड़ेगा. दोनों इलाकों में राजनीतिक वर्चस्व एनडीए का ही है. राजनीतिक हैसियत के मामले में राज्य में अप्रासंगिक हो चुकी कांग्रेस के पास यहां खोने के लिए कुछ नहीं, इसलिए केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री राज्य के मुख्यमंत्री को हर हाल में अंगूठा दिखाने पर आमादा हैं. मोतिहारी जिस पूर्वी चंपारण का मुख्यालय है, उस इलाके की 11 विधानसभा सीटों में से नौ और तीन संसदीय सीटों पर एनडीए का कब्जा है. दूसरी ओर गया में संसदीय सीट पर भाजपा का कब्जा होने के साथ-साथ 10 में से नौ विधानसभा सीटों पर एनडीए ही काबिज है. जाहिर-सी बात है, शिक्षा के एक केंद्र को लेकर यदि सियासी लड़ाई चल रही है तो अब दोनों में से जहां केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं बन सकेगा, वहां एनडीए को नुकसान उठाना होगा.

शिक्षा के इस सियासी खेल में शिक्षा से जुड़े असल सवाल हाशिये पर चले  गए हैं. संसद में बिहार के सांसद मोतिहारी में केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर गांधी का अपमान बंद करो जैसे नारे लगा रहे हैं,. शिक्षाविदों के एक वर्ग का सवाल है कि चंपारण में गांधी के नाम से एक केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित कर देने से क्या गांधी का मान रह जाएगा. अपने चंपारण प्रवास के दिनों में गांधीजी ने शिक्षा के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण काम किए थे. पश्चिमी चंपारण में वृंदावन नाम की एक जगह पर उन्होंने 28 बुनियादी विद्यालयों की शुरुआत करवाई थी. इन विद्यालयों में वर्षों से शिक्षक नहीं हैं. लेकिन यह मुद्दा उठाने वाला कोई नहीं. पश्चिम चंपारण में ही कुमारबाग नामक स्थान में कभी राज्य ही नहीं राष्ट्रीय स्तर का मॉडल स्कूल खुला था. वह खंडहर बना हुआ है, लेकिन उसकी भी कोई सुध लेने वाला नहीं. बुनियादी विद्यालय खोलने के लिए चंपारणवासियों ने उदारता से जो जमीनें दी थीं उनका क्या हो रहा है, यह सवाल भी महत्वपूर्ण है.

दूसरी ओर गया वाले  एक केंद्रीय विश्वविद्यालय से करिश्मे की उम्मीद लगाए हुए हैं. उनके मन में यह सवाल नहीं आ रहा कि उनके यहां तो पहले से ही मगध विश्वविद्यालय के नाम से राज्य का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय मौजूद है. वह क्यों नहीं उत्कृष्ट संस्थान बन सका? गया और मोतिहारी की लड़ाई में ऐसे कई सवाल लुप्त हो गए हैं.

पटना विश्वविद्यालय देश के गिने-चुने विश्वविद्यालयों में एक रहा है. वहां क्या हालत है? शिक्षाविद विनय कंठ कहते हैं, ‘वहां कैडर स्ट्रेंथ अब मात्र 40 प्रतिशत रह गई है, इसके लिए क्या हो रहा है? 90 से ज्यादा कोर्स शुरू हो गए हैं, लेकिन न आधारभूत ढांचा है, न शिक्षक. इसके लिए क्या कोशिश हो रही है?’ बिहार के नौ विश्वविद्यालयों में पिछले नौ सालों से एक भी नियुक्ति का नहीं होना भी कोई कम महत्वपूर्ण सवाल नहीं है. ऐसा नहीं कि इन सबके लिए सिर्फ वर्तमान सरकार दोषी है. लेकिन जब नीतीश कुमार के काल में ही शिक्षा सियासत का मसला बनी है और केंद्रीय और प्रांतीय विश्वविद्यालय का पेंच फंस गया है तब स्थानीय विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता की चर्चा होना भी लाजिमी है. रही बात एक केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर लड़ाई लड़ रहे लोगों की तो उन्हें इसके संदर्भ में कुछ जानकारियां भी रखनी चाहिए. बिहार में इस वक्त नौ राज्य संचालित विश्वविद्यालय हैं जबकि एक भी केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं है. राज्य से बाहर जाकर और तकनीकी शिक्षा ग्रहण कर रहे छात्रों को छोड़ दिया जाए तो लगभग 75 फीसदी छात्र इन्हीं संस्थानों से शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और इनकी दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है.’

कंठ के सवालों को परे भी करें तो बिहार के बारे में सामान्य-सी जानकारी रखने वाले भी जानते हैं कि यहां दो दशक पहले तक कई उत्कृष्ट शिक्षण संस्थान हुआ करते थे. भागलपुर में टीएनबी कॉलेज, दरभंगा में सीएम साइंस कॉलेज, गया में गया कॉलेज, मुजफ्फरपुर में एलएस कॉलेज, मोतिहारी में एमएस कॉलेज, आरा में जैन कॉलेज, पटना में साइंस कॉलेज, आर्ट्स कॉलेज, कॉमर्स कॉलेज जैसे कई नामी संस्थान थे. इन कॉलेजों में पढ़ना गर्व की बात भी माना जाता था. आज ये सभी संस्थान बस नाम ढो रहे हैं.

सबसे अधिक छात्र राज्यों के विश्वविद्यालयों में जाते हैं और इन विश्वविद्यालयों की सेहत की चिंता किसी को नहीं है. केंद्रीय विश्वविद्यालयों को यूजीसी के बजट का करीब 60 प्रतिशत हिस्सा दिया जाता है और राज्य के विश्वविद्यालयों को 40 प्रतिशत. यह केंद्र की योजना है. अब राज्य के निवासियों को तय करना चाहिए कि किसकी मजबूती में उनकी भलाई है. जानकार कहते हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालय तो चाहिए लेकिन राज्य के विश्वविद्यालयों का क्या होगा, इस पर भी इतनी ही मजबूती से बात हो, तभी तस्वीर और तकदीर बदल सकती है.