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गुंडे चढ़ रहे छाती पर!

 

सात जून. गोरखपुर डिविजनल जेल. जेल से थोड़ी ही दूरी पर मैं और मेरा फोटोग्राफर दो घंटे से खड़े हैं. राइफल के साथ एक दर्जन के करीब पुलिसकर्मी जेल के विशाल गेट पर तैनात हैं. जेल परिसर के बाहर भी पुलिस का एक दल तैनात किया गया है. किसी को हम पर शक न हो इसलिए हमने अपनी गाड़ी जेल की दीवार से थोड़ी दूर एक पेड़ के नीचे खड़ी कर रखी है.

लगभग एक बजे काले शीशों वाली एक सफेद टाटा सूमो (UP 53 AS 8797) जेल के बाहर आकर रुकती है. दो लोग इसमें से निकलते हैं. दोनों की बेल्ट पर वॉकी-टॉकी लगे हैं. अगले आधे घंटे तक उनके और जेल गार्डों के बीच बातचीत होती रहती है. इस दौरान कभी-कभी सम्मिलित ठहाके भी सुनाई देते हैं. 

दो बजे के आस-पास नीले रंग का एक मिनी ट्रक वहां आकर रुकता है. इस पर लिखा है 207 वज्र. तीन कांस्टेबल और एक सब इंस्पेक्टर बाहर आते हैं. वॉकी-टॉकी वाले दोनों व्यक्तियों से थोड़ी देर की बातचीत के बाद सब इंस्पेक्टर जेल के भीतर चला जाता है. 15 मिनट बाद वह अमरमणि त्रिपाठी के साथ बाहर आता है. त्रिपाठी उत्तर प्रदेश के खतरनाक गैंगस्टर और अब समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता हैं. 58 साल का यह शख्स मधुमिता शुक्ला की हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा काट रहा है. मधुमिता गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली एक नवोदित कवयित्री थी जिसकी 22 साल की उम्र में लखनऊ स्थित उसके घर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. यह मई, 2003 की घटना है. हत्या इसलिए हुई क्योंकि मधुमिता ने अपने पेट में पल रहे अमरमणि त्रिपाठी के बच्चे को गिराने से इनकार कर दिया था. हत्या के वक्त उसे छह महीने का गर्भ था. त्रिपाठी तब बसपा सरकार में मंत्री थे. हत्याकांड पर बवाल मचने के बाद मायावती ने त्रिपाठी को न सिर्फ सरकार और पार्टी से रुखसत कर दिया था बल्कि इस मामले को सीबीआई के सुपुर्द भी कर दिया था. जांच में त्रिपाठी को दोषी पाया गया था.

लेकिन जब से अखिलेश यादव ने राज्य के नए मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता संभाली है, तब से त्रिपाठी सजा सिर्फ कागजों पर काट रहे हैं. सही मायने में देखा जाए तो वे आजाद हैं. पिछले तीन महीने से हर दोपहर पुलिस की एक गाड़ी त्रिपाठी को लेने जेल में आती है. ऊपर-ऊपर से इसका मकसद होता है उन्हें इलाज के लिए बीआरडी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर ले जाना. लगभग इसी समय त्रिपाठी का निजी वाहन भी जेल पहुंचता है. जेल से बाहर निकलने के बाद त्रिपाठी पुलिस की गाड़ी में नहीं बल्कि अपनी आरामदेह गाड़ी में सवार होते हैं. पुलिस वाहन उनके पीछे चलता है. गाड़ी बीआरडी मेडिकल कॉलेज पहुंचती है जहां त्रिपाठी एक प्राइवेट लक्जरी रूम में भर्ती होते हैं. तहलका के पास पुख्ता जानकारी है कि इसके बाद अगले कई घंटों तक इस कमरे में एक दरबार लगता है. इसमें उनके गैंग के सदस्य और समर्थक भी होते हैं. रोज की इस पंचायत में त्रिपाठी शिकायतें सुनते हैं, फोन लगाते हैं, अफसरों को चिट्ठियां लिखते हैं, प्रॉपर्टी के सौदों का मोलभाव करते हैं, जमीन के झगड़ों में मध्यस्थता करते हैं और अपने गैंग के साथ बैठक भी करते हैं. शाम को उन्हें फिर जेल पहुंचा दिया जाता है ताकि उम्र कैद का दिखावा जारी रखा जा सके.

उम्रकैद का मतलब है आजीवन कैद. लेकिन व्यवहार में देखा जाए तो कोई अपराधी 14 साल के बाद अपनी रिहाई के लिए अपील कर सकता है जो ज्यादातर मौकों पर मंजूर भी हो जाती है. बहुमत पाई समाजवादी पार्टी की सरकार का कार्यकाल 2017 में पूरा होना है. त्रिपाठी 2003 से जेल में हैं. इसलिए यह माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के साथ ही त्रिपाठी की कैद एक तरह से खत्म हो गई है.

त्रिपाठी के जेल के गेट से बाहर निकलते ही एक आदमी फुर्ती से टाटा सूमो के दरवाजे के पास खड़ा हो जाता है. नीला कुरता, चमड़े की चप्पल और काला चश्मा पहने त्रिपाठी गाड़ी की ओर बढ़ते हैं. हम तस्वीरें खींचना शुरू कर देते हैं. त्रिपाठी की नजर हम पर पड़ जाती है. वे पीछे मुड़ते हैं और सीधे हमारी तरफ आते हैं.

धमकी भरे अंदाज में कहते हैं, ‘किसी की इजाजत के बगैर उसकी तसवीरें लेना ठीक बात नहीं है.’

‘मैं अपनी हद जानता हूं. मैं एक सार्वजनिक सड़क पर खड़ा हूं और सार्वजनिक हित का काम कर रहा हूं.‘ मैं कहता हूं.

‘कौन हैं आप’, उधर से सवाल दागा जाता है.

 ‘मैं एक पत्रकार हूं. दिल्ली से आया हूं, ‘यह कहने के साथ ही त्रिपाठी को अपना विजिटिंग कार्ड थमाता हूं.

‘आप पहले मुझसे क्यों नहीं मिले?’, त्रिपाठी फिर पूछते हैं.

इसके बाद वे मेरे सहयोगी की तरफ मुड़ते हैं और उसे तुरंत पहचान लेते हैं. वह एक स्थानीय फोटो पत्रकार है. त्रिपाठी कहते हैं, ‘बचवा, तुम तो यहीं के हो. सब अच्छा है?’ वे उसके चेहरे पर अपने दोनों हाथ रखते हैं और जोर से दबाते हैं. तब तक पुलिसकर्मी और त्रिपाठी के आदमी भी हमें चारों तरफ से घेर चुके हैं.

त्रिपाठी फोटो पत्रकार को आदेश देते हैं, ‘पिक्चरें डिलीट कर दो.’

मैं हस्तक्षेप करते हुए कहता हूं, ‘तस्वीरें डिलीट नहीं होंगी.’

त्रिपाठी मेरी तरफ मुड़ते हैं. कुछ देर सोचते हैं और फिर कहते हैं, ‘प्लीज, अब आप चले जाएं.’

मैं कहता हूं, ‘पहले आप.’

जवाब आता है, ‘नहीं, हम आपके प्रोटोकाल में खड़े हैं.’

मैं कार में बैठता हूं और ड्राइवर से चलने के लिए कहता हूं. 100 मीटर आगे जाने के बाद हम रुकते हैं और कुछ और फोटो खींचते हैं. 

हमारी योजना अस्पताल में त्रिपाठी के दरबार की तस्वीरें लेने की भी थी. लेकिन बाद में हमने यह विचार त्याग दिया. हमें लगा कि चूंकि हमें देख लिया गया है इसलिए ऐसा करना सुरक्षित नहीं होगा. 

त्रिपाठी का पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक व्यवस्थित अपराध सिंडीकेट है. उनका रिकॉर्ड खंगालने पर तीन दर्जन से भी ज्यादा मामलों के बारे में पता चलता है जिनमें उन पर हत्या, फिरौती वसूलने, अपहरण, हत्या की कोशिश जैसे संगीन आरोप रहे हैं. मधुमिता हत्याकांड की सीबीआई जांच से पहले किसी भी स्थानीय अदालत में उनके खिलाफ कोई फैसला नहीं हो पाया था. इन मामलों में अक्सर गवाह या तो बयान से मुकर जाते या फिर सबूत गायब हो जाते थे. केस स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से चले, यह सुनिश्चित करने के लिए फरवरी, 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि मधुमिता हत्याकांड की जांच एक विशेष सीबीआई जज द्वारा देहरादून में की जाए. त्रिपाठी के गढ़ गोरखपुर से 800 किमी दूर. 

लेकिन जहां सुप्रीम कोर्ट ने  न्याय की प्रक्रिया में त्रिपाठी को एक खतरा माना वहीं 2007 के चुनावों में समाजवादी पार्टी ने उन्हें महाराजगंज जिले की लक्ष्मीपुर विधानसभा सीट से टिकट दे दिया. त्रिपाठी ने जेल से ही चुनाव लड़ा और 20,000 वोट से जीत गए. इसके छह महीने बाद अक्टूबर, 2007 में देहरादून स्थित अदालत ने उन्हें मधुमिता शुक्ला हत्या मामले में उम्रकैद की सजा सुना दी. 

मायावती के पांच साल के शासनकाल के दौरान त्रिपाठी देहरादून जेल में ही रहे. जून, 2011 में अदालत ने उन्हें उनकी मां के अंतिम संस्कार के लिए गोरखपुर आने की इजाजत दे दी. बताया जाता है कि अंतिम संस्कार के दौरान बीमारी का बहाना बनाकर वे बीआरडी मेडिकल कॉलेज में भर्ती हो गए. अस्पताल के कुछ अधिकारियों की मदद के चलते वे दो महीने से भी ज्यादा समय तक अस्पताल में रहने में सफल हो गए. जब यह बात प्रकाश में आई तो मायावती सरकार ने वापस उन्हें देहरादून जेल में भेज दिया. यही नहीं, इस मामले में एक पुलिस इंस्पेक्टर और चार कांस्टेबलों के खिलाफ विभागीय कार्रवाई भी हुई. इसके साथ ही यह भी आदेश हुआ कि उन डॉक्टरों के खिलाफ जांच हो जिन्होंने त्रिपाठी को उनके मनमुताबिक मेडिकल रिपोर्टें दीं. 

लेकिन 15 मार्च को एक तरफ अखिलेश सूबे के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले रहे थे और दूसरी ओर त्रिपाठी को देहरादून से गोरखपुर डिविजनल जेल ले लाया जा रहा था. यादव प्रभुत्व वाली समाजवादी पार्टी में त्रिपाठी एक अहम ब्राह्मण नेता हैं. चूंकि उन पर आपराधिक आरोप साबित हो चुके थे, इसलिए वे कोई चुनाव नहीं लड़ सकते थे. ऐसे में सपा ने 2012 के विधानसभा चुनाव में उनके बेटे अमनमणि त्रिपाठी को महाराजगंज जिले की ही नौतनवा सीट से टिकट दे दिया. लेकिन माना यही जा रहा था कि असली उम्मीदवार तो अमरमणि त्रिपाठी ही हैं. उन्होंने जेल से ही एक वीडियो भी जारी किया जिसमें उन्होंने वोटरों से उनके बेटे को वोट देने की अपील की थी. वीडियो में उन्होंने कहा था कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनाए और गिराए हैं. वोटरों से वे कह रहे थे कि उन्होंने हमेशा अपने लोगों की रक्षा की और अब उनकी बारी है कि वे इसका बदला चुकाएं और उनके सम्मान की रक्षा करें. 

15 मार्च को एक तरफ अखिलेश मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले रहे थे और दूसरी ओर त्रिपाठी को देहरादून से गोरखपुर डिविजनल जेल ले लाया जा रहा था

तहलका को पता चला है कि गोरखपुर वापस आने के लिए त्रिपाठी ने अपने खिलाफ गोरखपुर और इसके आस-पास के जिलों में चेक बाउंस होने संबंधी तीन फर्जी केस दर्ज करवाए. स्थानीय पुलिस अधिकारी बताते हैं कि इन मामलों में शिकायत करने वाले त्रिपाठी के अपने ही लोग हैं. इसके बाद त्रिपाठी के वकीलों ने अदालत को बताया कि अदालती कार्यवाही के लिए ज्यादा व्यावहारिक यह होगा कि पेशी के लिए उनका मुवक्किल देहरादून के बजाय गोरखपुर से आए. अदालत से इस संबंध में एक आदेश भी ले लिया गया. इसके बाद त्रिपाठी गोरखपुर जेल में आ गए जहां वे कैदी से ज्यादा एक आजाद व्यक्ति हैं. नाम गोपनीय रखने की शर्त पर एक पुलिस अधिकारी बताते हैं, ‘अगर स्वतंत्र जांच हो तो चेक बाउंस होने के इन फर्जी मामलों की सच्चाई सामने आ सकती है. इससे पता चल जाएगा कि कैसे अमरमणि त्रिपाठी न्याय का मखौल उड़ा रहे हैं.’

चेक बाउंस संबंधी ये मामले फर्जी थे, यह बात गोरखपुर में सभी जानते हैं. हर चेक के मामले में धनराशि 50 हजार से एक लाख रु तक थी. देखा जाए तो करोड़ों रु के आसामी त्रिपाठी के लिए यह रकम कुछ भी नहीं. गोरखपुर में बहुत-से लोग मिलते हैं जो दबी जबान में बताते हैं कि कैसे ये मामले बनाए गए ताकि त्रिपाठी गोरखपुर में रह सकें. स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि त्रिपाठी जब चाहें, कोई भी जेल में उनसे मिलने आ सकता है. यह भी कि वे जेल के भीतर मोबाइल और कंप्यूटर का बेझिझक इस्तेमाल करते हैं. जब त्रिपाठी जेल परिसर से बाहर निकल रहे थे तो हमने खुद भी उनके एक सहयोगी के हाथ में एक लैपटॉप बैग देखा था.

बीती 20 अप्रैल को गोरखपुर के एसएसपी आशुतोष कुमार ने गृह विभाग को एक गोपनीय रिपोर्ट भेजकर जेल से बाहर त्रिपाठी की अवैध आवाजाही के बारे में बताया था. सूत्रों के मुताबिक एसएसपी ने जेल के बाहर त्रिपाठी के समर्थकों के अवैध जमावड़े और जेल में उनकी निर्बाध पहुंच की वीडियोग्राफी भी की थी. लेकिन अब तक कुमार की रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है.

त्रिपाठी के बेटे अमनमणि 7,837 वोटों के मामूली अंतर से चुनाव हार गए थे. उन्हें कांग्रेस उम्मीदवार कौशल किशोर ने हराया था. लेकिन इससे पिता-पुत्र की इस जोड़ी पर कोई फर्क नहीं पड़ा. जिला प्रशासन को उनकी दबंगई अब भी झेलनी पड़ती है. जेल के भीतर से ही त्रिपाठी खुल्लमखुल्ला जिले के अधिकारियों को निर्देश देती चिट्ठियां भेजते हैं. जैसे कि वे सजायाफ्ता अपराधी न होकर कोई मंत्री हों. तहलका के पास मौजूद ऐसे दो पत्र बताते हैं कि जिला प्रशासन को न सिर्फ त्रिपाठी की तरफ से ऐसे पत्र मिल रहे हैं बल्कि वह उनके निर्देशों के हिसाब से कार्रवाई भी कर रहा है. 

उदाहरण के लिए, चार मई को त्रिपाठी ने महाराजगंज की जिला पंचायत के अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी को एक पत्र लिखा. इसके शब्द हैं : ‘राज्य वित्त आयोग योजना के तहत, मैं अपने विधानसभा क्षेत्र में निम्नलिखित चार कार्यों का प्रस्ताव करता हूं. कृपया जनहित में इन्हें प्राथमिकता के आधार पर करवाएं.’ करीब हफ्ते भर बाद 12 मई को त्रिपाठी ने इन्हीं अधिकारी को एक और पत्र लिखा. इसमें उन्होंने करीब आधा दर्जन कार्यों की एक सूची देते हुए उन्हें पूरा करने के लिए कहा था. अधिकारी ने इंजीनियर को निर्देश दिए जिसमें कहा गया था कि त्रिपाठी द्वारा बताए गए कार्यों को मंजूरी दी जाए. 

विकास कार्यों में दखलअंदाजी तो त्रिपाठी की कारगुजारियों का छोटा पहलू है. महाराजगंज से कांग्रेस विधायक कौशल किशोर मुख्यमंत्री को लिख चुके हैं कि सपा की सरकार बनने के बाद त्रिपाठी के गैंग ने 68,000 वर्गफुट क्षेत्रफल वाली सरकारी जमीन के एक टुकड़े पर कब्जा कर लिया है. किशोर कहते हैं, ‘अगर सरकार पूर्व विधायक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करती तो मैं यह मुद्दा विधानसभा में उठाऊंगा’.

अमरमणि त्रिपाठी अकेले अपराधी नहीं हैं जिन्हें अखिलेश यादव के बागडोर संभालने के बाद राहत मिली है. उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के कुख्यात अपराधी और समाजवादी पार्टी के विधायक अभय सिंह भी अब पुरानी रंगत में लौट आए हैं.मायावती के शासनकाल के एक बड़े हिस्से में अभय सिंह हमीरपुर जेल में रहे. यह उनके विधानसभा क्षेत्र फैजाबाद से 300 किलोमीटर दूर है. अभय को हमीरपुर जेल में रखने के पीछे बसपा सरकार का तर्क यह था कि इससे उन्हें उनके गैंग से दूर रखा जा सकेगा और जिले में कानून व्यवस्था भी बेहतर होगी. लेकिन अखिलेश की ताजपोशी के दो दिन बाद यानी 17 मार्च, 2012 अभय सिंह को हमीरपुर से स्थानांतरित करके फैजाबाद डिविजनल जेल में भेज दिया गया. राज्य सरकार का दावा था कि हमीरपुर जेल में अभय सिंह की जिंदगी को खतरा है. अपने इलाके की जेल में लौटने के बाद सिंह वहां राजसी ठाठ-बाठ से रहने लगे. 

नवभारत टाइम्स के जिला संवाददाता वीएन दास कहते हैं,‘फैजाबाद जेल में अभय सिंह से हर रोज 100-150 समर्थक मिलने आते हैं.’ नियम कहते हैं कि एक सप्ताह में किसी भी कैदी से छह से ज्यादा लोग मिलने नहीं आ सकते. दास आगे बताते हैं, ‘चर्चा यह भी है कि सिंह जेल में कंप्यूटर और मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं.’ दास ने अपनी एक खबर में इस बात का भी जिक्र किया था कि सिंह जेल में भी गैर-कानूनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं. लेकिन न जेल अधिकारियों ने और न ही जिला प्रशासन ने उस खबर को संज्ञान में लिया. 

24 मई को समाजवादी पार्टी की सरकार ने यह निर्णय लिया कि फैजाबाद जिले में यूपी गैंगस्टर एक्ट के तहत दर्ज एक मामला वापस लिया जाए (पत्र संख्या 104 डब्ल्यूसी/सेवन-जस्टिस-5-2012-42). सिंह के खिलाफ लंबित 18 मामलों में से यही एक ऐसा मामला है जिसमें उन्हें जमानत नहीं मिली थी जिसके चलते वे जेल में दिन गुजार रहे हैं. राज्य सरकार ने फैजाबाद न्यायालय में कहा कि इस मामले को ‘न्याय के हित’ में वापस लिया जा रहा है. जिला पुलिस के नए एसएसपी रमित शर्मा ने राज्य सरकार की इस इच्छा पर अपनी सहमति जाहिर की है. हालांकि दो साल पहले इसी जिला पुलिस ने अभय सिंह के खिलाफ यूपी गैंगस्टर एक्ट के तहत मामला दर्ज किया था. दो साल पहले दर्ज की गई प्राथमिकी संख्या (677/10) में यह कहा गया था, ‘सिंह का आतंक आम लोगों में इस कदर व्याप्त है कि वे उनके खिलाफ गवाही देने तक से डरते हैं.’ 

राज्य चुनाव आयोग के सामने पेश किया गया सिंह का हलफनामा भारतीय दंड संहिता की धाराओं का संग्रह लगता है. यह बताता है कि सिंह के खिलाफ 18 आपराधिक मामले दर्ज हैं जिनमें उनके खिलाफ हत्या, उगाही, सार्वजनिक कर्मचारियों को प्रताड़ित करने, दंगा, गैर-कानूनी तरीके से भीड़ जुटाने, अवैध हथियार रखने जैसे आरोप हैं. 

उत्तर प्रदेश में किसी माफिया डॉन के खिलाफ आरोप साबित करना असंभव सा है. अपराधियों के खिलाफ चल रही जांच-पड़ताल की कार्रवाइयों में या तो ढिलाई बरती जाती है या फिर गवाह बयान से मुकर जाते हैं. सिंह को लखनऊ जेल के अधीक्षक आरके तिवारी की हत्या के मामले में बरी किया जा चुका है. गौरतलब है कि इस मामले में सभी 36 गवाह अपने बयान से पीछे हट चुके हैं. सिंह के गैंग का संबंध पूर्वी उत्तर प्रदेश के खतरनाक मुख्तार अंसारी गैंग से भी है. दोनों गैंग हत्या, अपहरण और जबरन वसूली जैसे अपराधों में लिप्त हैं. 

लेकिन समाजवादी पार्टी के टिकट और बीएसपी के खिलाफ चुनावी लहर ने अभय सिंह को फैजाबाद के गोसाईंगंज विधानसभा क्षेत्र से विधायक बनवा दिया. सिंह ने चुनाव भारी अंतर से जीता था. मामला वापस लेकर सरकार ने सिंह की जेल से रिहाई का रास्ता भी साफ कर दिया. न्याय का मजाक उड़ाते हुए फैजाबाद में तैनात सब-इंस्पेक्टर संजय नागवंशी ने न्यायालय के समक्ष 28 मई को कहा कि इस मामले को वापस लिया जाता है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है. एक साल पहले इन्हीं संजय नागवंशी ने अभय सिंह को नामजद करने की सिफारिश की थी. सिंह को 28 मई को ही हवालात से छोड़ दिया गया. 

सिंह पर फैजाबाद में ही गैंगस्टर एक्ट के दो अन्य मामले (संख्या 361/05 और 2808/05) भी चल रहे हैं. इसी एक्ट के तहत लखनऊ में दर्ज चार और मामलों (केस संख्या 428/1999, 269/2000, 224/2001, 310/2008, ) में भी उनके खिलाफ कभी-भी सुनवाई शुरू हो सकती है. पुलिस द्वारा दर्ज इन मामलों पर नजर डालें – जोकि 1999 से 2012 के बीच भाजपा, बीएसपी और सपा की सरकारों के शासनकाल में दर्ज किए गए हैं – तो पता चलता है कि सिंह की आमदनी का मुख्य जरिया उगाही, हफ्ता वसूली और सरकारी टेंडरों पर जबरन कब्जा रहा है.

सपा सरकार का सिंह के खिलाफ मामले को वापस लेने का निर्णय हैरान करने वाला है. सिंह के खिलाफ छह मामलों में सरकारी वकील यह साबित करने में लगे हुए हैं कि वे संगठित अपराधों के सरगना रहे हैं जबकि जिस एक मामले में उन्हें न्यायालय से जमानत नहीं मिली उसी में सपा सरकार ने उनके खिलाफ लगे आरोप वापस ले लिए. राज्य सरकार अभय सिंह पर छह मामलों में गैंगस्टर का आरोप सिद्ध करना चाहती है और एक विशेष मामले में उन्हें आरोप से मुक्त करना चाहती है. सवाल उठता है कि यह कैसा विरोधाभास है.

हम यह सवाल फैजाबाद के एसएसपी रमित शर्मा से करते हैं

उनके कार्यालय में मैं शर्मा से सवाल करता हूं, ’अभय सिंह के मामले को वापस लेने के पीछे क्या वजह है?’

शर्मा कहते हैं, ‘यह अदालत और पुलिस के बीच का मामला है. हमने अदालत को अपनी राय दे दी है.’

‘जो कि जहां तक मेरा अंदाजा है, उन्हें फायदा पहुंचाने वाली है.’, मैं कहता हूं.

शर्मा गुस्से में कहते हैं, ‘आप यह सवाल करने वाले कौन होते हैं?’

‘मेरे हिसाब से जनहित में यह जानना जरूरी है कि आखिर क्यों दो मामलों में पुलिस अभय सिंह को कानून और व्यवस्था के लिए खतरा मानती है मगर तीसरे में नहीं.  ’

‘नोटबुक उठाइए और जाइए’, जवाब आता है.

अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार इस्तेमाल करने की मैं एक और कोशिश करता हूं, ‘लेकिन मेरा मानना है कि लोगों को यह जानने का अधिकार है.’

‘जाते हैं कि मैं आपके खिलाफ कारवाई करूं?’, सिपाही को मुझे बाहर करने का संकेत करते हुए शर्मा कहते हैं. नोटबुक उठाकर मैं वहां से निकल जाता हूं. लेकिन फैजाबाद में दो दिन पड़ताल करने के दौरान तहलका को पता चला कि एक ओर अभय सिंह पर लगे आरोपों को वापस लिया जा रहा है तो दूसरी ओर उनके विरोधियों पर झूठे मामले लादे जा रहे हैं.

18 मई को सिंह गैंग के एक सदस्य विजय गुप्ता ने जबरन वसूली का आरोप पुलिस में दर्ज कराया. विचित्र बात तो यह है कि गुप्ता पर पहले से ही गुंडा टैक्स की वसूली के आरोप हैं. गुप्ता पर यूपी गैंगस्टर एक्ट के तहत हत्या का मामला चलाया जा रहा है. लेकिन रमित शर्मा के नेतृत्व में जिला पुलिस ने गुप्ता की शिकायत पर 30 मई को चार लोगों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश मातंबर सिंह ने यह पाया कि पुलिस गुप्ता के आरोपों की पुष्टि के लिए कोई भी ठोस सबूत नहीं जुटा पाई. गुप्ता ने अपनी शिकायत में विनय सिंह का उल्लेख किया है. विनय, अभय सिंह के गांव के ही रहने वाले हैं. वे कहते हैं, ‘विधानसभा चुनाव में हमने अभय सिंह के खिलाफ प्रचार किया था. जिला पुलिस उनके इशारों पर काम कर रही है और राजनीतिक वजहों से हमारे खिलाफ मामले चलाए जा रहे हैं.’

अखिलेश की ताजपोशी के दो दिन बाद यानी 17 मार्च 2012 को अभय सिंह को हमीरपुर से स्थानांतरित करके फैजाबाद डिविजनल जेल में भेज दिया गया

फैजाबाद के विकास कार्य से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि पीडब्ल्यूडी, सिंचाई, राजकीय निर्माण निगम और जिला जल निगम से जुड़े ठेके अभय सिंह और उसके गैंग के सदस्यों को सौंपे जा रहे हैं. यह कोई अचरज की बात नहीं है. पिछले 15 साल के दौरान राज्य की सभी पुलिस एजेंसियों ने अभय सिंह और उसके गैंग के सदस्यों के मामले में यह पाया है कि वे विकास कार्यों से जुड़े अधिकारियों और ठेकेदारों को धमकियां देते रहे हैं और उनसे कमीशन वसूलते रहे हैं.मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी पारी की शुरुआत में कहा था कि उनकी यह सरकार सबसे अलग होगी. सपा की पिछली सरकारों का कार्यकाल सरकार और अपराधी तत्वों के बीच गठजोड़ का उदाहरण बन गया था. ऐसे में जब अखिलेश ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबली डीपी यादव को अपनी पार्टी में नहीं आने दिया तो यह धारणा बनी कि वे जो कह रहे हैं उस पर अमल करने की दिशा में भी वे गंभीर हैं.  

लेकिन साफ था कि अपने पिता मुलायम, चाचा शिवपाल और वरिष्ठ नेता आजम खान जैसे कई सत्ता केंद्रों के बीच में खड़े अखिलेश के हाथ पूरी तरह से खुले नहीं थे. ऐसे में जब उन्होंने कम से कम ऐसे आठ लोगों को टिकट दिए जो पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक पक्के अपराधी हैं तो मीडिया का एक बड़ा वर्ग इस पर सवाल उठाने में नाकामयाब रहा.

1. शेरबाज खान- दर्जन भर से ज्यादा आपराधिक मामलों के इतिहास वाले खान को चांदपुर से टिकट मिला. इनमें फर्जीवाड़े से लेकर यूपी गैंगस्टर एक्ट तक आरोप थे. खान को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा.

2. भगवान शर्मा उर्फ गुड्डू पंडित को डिबाई, बुलंदशहर से टिकट दिया गया. पंडित पर बलात्कार, अपहरण, फिरौती वसूलने आदि जैसे कई आरोपों में मुकदमे दर्ज हैं जिनका उनके चुनावी शपथ पत्र में भी जिक्र है. पंडित को जीत मिली.

3. कुख्यात डकैट लाला राम के बेटे रामेश्वर सिंह यादव का रिकॉर्ड 50 से भी ज्यादा आपराधिक मामलों का है. यादव को एटा के अलीगंज से उतारा गया और उन्हें भी जीत मिली.

4. एक समय दो दर्जन से ज्यादा मामलों में आरोपी हिस्ट्रीशीटर दुर्गा प्रसाद यादव को आजमगढ़ से सपा का टिकट मिला. आठ साल पहले यादव पर एक अस्पताल में चार लोगों की हत्या का आरोप लगा था. यादव न सिर्फ चुनाव जीते बल्कि उन्हें मंत्री पद भी दिया गया. हाल ही में उन्होंने मीडिया से कहा था, ‘उत्तर प्रदेश में अपराध नहीं रुकेगा चाहे भगवान भी यहां सरकार बना ले.’

5. मित्रसेन यादव को दिसंबर 2011 में फैजाबाद के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी ने एक मामले में सात साल की कड़ी सजा सुनाई थी. एक समय वे दो दर्जन से भी ज्यादा मामलों में आरोपी थे. उन्हें फैजाबाद की बीकापुर सीट से टिकट मिला और वे जीते भी.

6. महबूब अली- 1999 से 2011 के बीच दर्ज हुए 12 आपराधिक मामलों के आरोपी अली को ज्योतिबा फुले नगर की अमरोहा सीट से टिकट दिया गया था. एक स्टिंग ऑपरेशन में वे यह कहते हुए दिखे थे कि वे अपने आधिकारिक वाहन में ड्रग्स लेकर जा सकते हैं. वे अब कपड़ा और रेशम उत्पादन मंत्री हैं. 

­7. अभय सिंह

8. माफिया डॉन विजय मिश्रा—25 आपराधिक मामलों के इतिहास वाले मिश्रा को संत रविदास नगर की ज्ञानपुर विधानसभा सीट से टिकट मिला था. मिश्रा पर हत्या से लेकर फर्जीवाड़े, दंगा फैलाने, लूटपाट जैसे कई आरोप हैं. 2002 और 2007 में भी सपा के टिकट पर इसी सीट से विधायक रहे हैं. इस बार भी वे जीते.

जिन आठ नामों का जिक्र ऊपर हुआ है, इनमें से तीन-अभय सिंह, शेरबाज खान और विजय मिश्रा ने जेल से ही चुनाव लड़ा. सिंह अब आजाद हैं. मिश्रा जेल में हैं मगर यह नाम की ही जेल है. इस स्टोरी के लिखे जाने तक दो हफ्ते से वे लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल के प्राइवेट एसी रूम में थे. अदालत ने मिश्रा को बजट सत्र के लिए विधानसभा जाने की इजाजत भी दे दी थी, मगर इस शर्त के साथ कि उन्हें लखनऊ जिला जेल की साधारण बैरक में रखा जाएगा और रोज विधानसभा की कार्यवाही खत्म होते ही वापस जेल पहुंचा दिया जाएगा. लेकिन बीमारी के बहाने मिश्रा ने खुद को अस्पताल में भर्ती करवा लिया. पुलिस वाहन के बजाय अपनी टोयोटा फॉर्च्यूनर गाड़ी में सवार होकर वे रोज विधानसभा जाते थे. ये दोनों गाड़ियां मिश्रा के प्राइवेट वार्ड के बाहर खड़ी थीं. 

मायावती सरकार के कार्यकाल में मिश्रा के 13 महीने मेरठ जेल में कटे. यह जगह उनके प्रभाव वाले इलाहाबाद, वाराणसी और संत रविदास नगर जैसे इलाकों से सैकड़ों किलोमीटर दूर थी. उन पर 12 जुलाई, 2010 को इलाहाबाद में बम से एक हमला करने का आरोप था. यह हमला मायावती सरकार मंे मंत्री नंद गोपाल गुप्ता ‘नंदी’ पर किया गया था. इसमें इंडियन एक्सप्रेस अखबार के फोटोग्राफर की मौत हो गई थी. नंदी और उनके सुरक्षा अधिकारी इस घटना में गंभीर रूप से घायल हो गए थे. आठ महीने तक मिश्रा फरार रहे. आखिरकार यूपी स्पेशल टास्क फोर्स ने दिल्ली पुलिस की मदद से उन्हें दिल्ली के ही उनके एक ठिकाने से 11 फरवरी , 2011 को गिरफ्तार किया था. अखिलेश यादव के शपथ लेने के थोड़ी ही देर बाद 15 मार्च को सरकार ने एक आदेश पारित किया. इसमें कहा गया था कि मिश्रा को उनके गृहनगर इलाहाबाद की नैनी जेल लाया जाए. 

जब हम मिश्रा से उनके प्राइवेट रूम में मिले तो उन्होंने अस्पताल में रहने के कई कारण गिनाए. उन्होंने बताया कि उन्हें स्पोंडिलाइटिस, स्लिप डिस्क और हाई कोलेस्ट्राल की शिकायत है. लेकिन एक घंटे की बातचीत के दौरान हमें उनमें दर्द के कोई लक्षण नहीं दिखे. वे बेड पर सीधे बैठे हुए थे. बातचीत के दौरान वे बेड से उछलकर सोफे पर हमारे बगल में बैठ गए. इस दौरान उनका प्राइवेट स्टाफ उन्हें सूखे मेवे, चाय और सिगरेट पेश करता रहा. हमें पता चला कि मिश्रा अस्पताल में मरीजों के लिए परोसा जाने वाला खाना नहीं खाते. बाद में हमें यह भी पता चला कि सरकार मिश्रा पर चल रहा बम हमले वाला मामला वापस ले सकती है. मिश्रा द्वारा लिखे गए वे दो पत्र तहलका के पास हैं जिनमें उन्होंने मुख्यमंत्री से मांग की है कि उनके खिलाफ दर्ज 15 आपराधिक मामले वापस लिए जाएं.

जिस दिन तहलका ने अमरमणि त्रिपाठी को अवैध तरीके से जेल से बाहर जाते पकड़ा, उसी दिन प्रदेश के जेल राज्य मंत्री इकबाल महमूद भी गोरखपुर में थे. हम गोरखपुर सर्किट हाउस में उनसे मिले और उन्हें वह सब बताया जो देखा था. महमूद का जवाब था कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. हमने उन्हें बताया कि त्रिपाठी ने हमें अप्रत्यक्ष रूप से धमकी दी और हमसे तस्वीरें डिलीट करने के लिए कहा. इसके जवाब में उनका भाषण तैयार था, ‘हमारे युवा मुख्यमंत्री को बदनाम करने के लिए साजिश हो रही है. विरोधियों को लग गया है कि कम से कम अगले 20 साल तक इस नौजवान को सत्ता से नहीं उखाड़ा जा सकता. इसलिए वे झूठी अफवाहें फैला रहे हैं. ‘ जैसे ही हम जाने को हुए उन्होंने पूछा, ‘तो क्या आपने तस्वीरें डिलीट कर दीं?’ आखिर में हम अंबिका चौधरी से मिले. चौधरी, अखिलेश की कोर टीम में होने के साथ-साथ राजस्व मंत्री भी हैं. जब हमने उन्हें अपनी पड़ताल के बारे में बताया तो उन्होंने हमें आश्वासन दिया कि अपराधियों को खुला छोड़ना सरकार की नीति नहीं है. उनका कहना था, ‘मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि किसी भी तरह की अवैध गतिविधि को ऊपर से कोई मंजूरी नहीं है. मायावती के कार्यकाल में प्रशासन पूरी तरह से ढह गया था. चीजों को पटरी पर लाने के लिए नई सरकार को कम से कम छह महीने चाहिए.’

(वीरेंद्र नाथ भट्ट के सहयोग के साथ)

 

दुश्मनी का दांव

बिहार के गांव-देहात में एक कहावत बहुत प्रचलित है. जब टनाटन धूप निकली रहे, बादल का कहीं कोई अता-पता न हो और अचानक टपाटप बारिश होने लगे तो कहीं सियार की शादी हो रही होगी. पिछले पखवाड़े जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने सबसे भरोसेमंद राजनीतिक परिवार के खांटी सदस्य नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा और उसके बाद दोनों दलों के शब्दवीर बयानों का बाणयुद्ध करने लगे तो एक बड़े वर्ग का यही कहना था- कुछ नहीं, यह सियार की शादी है.

दरअसल अब तक नीतीश इतनी बार मोदी पर निशाना साध चुके हैं कि अब उनके कहे को गुड़ खाए-गुलगुले से परहेज कहकर चुटकी ली जाती है. राजनीतिक प्रेक्षक कहते हैं कि अपनी राजनीतिक यात्रा आगे बढ़ाते रहने के लिए मोदी को रोमांटिक दुश्मन बनाए रखना और उसका अहसास कराते रहना नीतीश की जरूरत और मजबूरी दोनों है. कुछ वैसे ही जैसे बिहार में लालू प्रसाद की सक्रियता नीतीश को कुछ अलग और नई उम्मीदों का नेता बनाने में रामबाण की तरह काम करती रही है. 

जानकार मानते हैं कि नीतीश ने राष्ट्रपति चुनाव में प्रधानमंत्री की बात छेड़कर और मोदी को निशाने पर लेकर यह एक गहरी चाल भी चली है. दरअसल बिहार की राजनीति में वे इन दिनों लगातार चक्रव्यूह में घिरते नजर आ रहे थे. बक्सर के चैसा में सेवायात्रा के दौरान उनके काफिले पर हमला हुआ. रणवीर सेना सुप्रीमो मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद पटना में हुई गुंडागर्दी से उनके सुशासन पर सवाल उठे. इसके अलावा एक साल पहले फारबिसगंज में हुए पुलिस गोलीकांड के बाद भी न्याय न मिलने से अल्पसंख्यक समुदाय के एक हिस्से में बढ़ते आक्रोश और दिल्ली में सारी जोर आजमाइश के बाद बिहार लौटे लालू प्रसाद की सक्रियता ने भी नीतीश को परेशान कर रखा था. दूसरी ओर मीडिया का एक खेमा भी उनके निष्पक्ष आकलन में लग गया था. ऐसे में नीतीश ने मोदी कार्ड का इस्तेमाल करके सभी सवाल हाशिये पर धकेल दिए और सबको उलझे रहने के लिए एक झुनझुना भी थमा दिया.  

एक-दूसरे को घेरने का नीतीश और मोदी का यह खेल 2008 में शुरू हुआ था. यह बात अलग है कि दरमियान दोनों नेता हाथ मिलाकर मीडिया में पोज भी देते रहे. 2008 में कोसी बाढ़ के बाद नरेंद्र मोदी ने बिहार को पांच करोड़ रुपये दिए थे. नीतीश ने यह रकम लौटा दी. नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की दोस्ती का पोस्टरमार प्रचार हुआ तो नीतीश इतने गुस्से में आए कि उन्होंने भाजपा के केंद्रीय नेताओं के साथ पटना में आयोजित भोज रद्द कर दिया था. नीतीश ने बाद में भी मोदी फोबिया बनाए रखा. 2009 में लोकसभा और 2010 में विधानसभा चुनाव के दौरान नीतीश ने मोदी को बिहार में प्रचार के लिए नहीं आने दिया. 

इस बीच मौका पाकर नरेंद्र मोदी भी नीतीश पर निशाना साधते रहे. पिछले पखवाड़े से जिन बयानों को लेकर सियासी गरमी बढ़ी है, उनकी शुरुआत भी मोदी ने ही की. 10 जून को मोदी ने गुजरात में भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में कहा कि बिहार कभी शानदार राज्य हुआ करता था लेकिन वहां की जातिवादी राजनीति और जातीय नेताओं ने उसे पीछे धकेला है. इसके बाद नीतीश ने तुरंत मोदी का नाम लिए बगैर कहा कि लोगों को अपना घर देखना चाहिए. लेकिन जानकारों के मुताबिक इतना भर कह देने से मोदी को जवाब नहीं दिया जा सका था, इसलिए 15 जून को जब अपनी पार्टी के राज्य कार्यकारिणी की बैठक की बारी आई तो नीतीश ने दूसरा राग छेड़ मोदी को कुरेदा. बिहार प्रदेश जदयू कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने कहा कि देश का प्रधानमंत्री सेक्युलर होना चाहिए और बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश की चिंता करने वाला भी. लेकिन मीडिया में यह बयान उभर न सका. नीतीश ने फिर इसी बात को थोड़ा और विस्तारित करते हुए एक अखबारी इंटरव्यू के जरिए प्रसारित किया तब जाकर हो-हंगामा शुरू हो सका. 

मोदी बनाम नीतीश के नाम पर शुरू हुआ यह उफानी खेल भले ही अतीत की तरह जल्द ठंडा पड़ जाए लेकिन इससे उठे सवालों की आग जल्द शांत नहीं होने वाली

हो सकता है मोदी बनाम नीतीश के नाम पर शुरू हुआ यह उफानी खेल पहले की तरह शीघ्र ही नेपथ्य में चला जाए. लेकिन इस बार का यह रगड़ा-झगड़ा कई सवालों को खड़ा कर चुका है और आगे भी करेगा. नीतीश ने प्रधानमंत्री पद के लिए धर्मनिरपेक्षता का हवाला दिया है तो इससे उनके सामने भी कई ऐसे सवाल खड़े होंगे, जिनका जवाब वे आसानी से नहीं दे पाएंगे. नीतीश कुमार और भाजपा का जोड़ काफी पुराना है. यह 1996 में तब हुआ था जब जदयू के बजाय नीतीश समता पार्टी के नेता थे. तब बिहार में समता पार्टी के छह सांसद हुआ करते थे और भाजपा के 18. आज भाजपा के 12 सांसद हैं और जदयू के 20. बेशक बिहार में जदयू बड़े भाई की भूमिका में है, और नीतीश का कद बहुत बड़ा हो चुका है, लेकिन इस सफर तक पहुंचने में नीतीश से कई गलतियां ऐसी भी हुई हैं जिनकी भरपाई सिर्फ नरेंद्र मोदी से दूरी बना लेने से होने की गुंजाइश नहीं दिखती. नीतीश के पुराने साथी व निष्कासित विधान पार्षद प्रेम कुमार मणि पूछते हैं कि जब गुजरात कांड हुआ था तब नीतीश केंद्रीय मंत्री थे. गुजरात कांड के खिलाफ इस्तीफा वगैरह देने की बात तो दूर, उन्होंने मोदी के खिलाफ या गुजरात कांड के खिलाफ एक बयान तक नहीं दिया था. लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख रामविलास पासवान कहते हैं, ‘नीतीश कुमार को यह बताना होगा कि तब वे क्यों चुप्पी साधे हुए थे?’

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि नीतीश के लिए गुजरात कांड के बाद वर्षों तक मोदी पर मौन एक सवाल की तरह रहेगा. स्थानीय स्तर पर वैसी ही एक गलती उन्होंने एक साल पहले तब की थी जब राज्य में फारबिसगंज गोली कांड हुआ था. इस घटना में पुलिस की गोली से अल्पसंख्यक समुदाय के पांच लोगों की मौत हो गई थी. नीतीश ने तब भी इस घटना पर मौन साध लिया था जो आज भी जारी है.  

और इन घटनाओं को भी छोड़ दें तो आज जो एनडीए है उसमें चार दल ही प्रमुख हैं. जदयू के अलावा जो तीन दल हैं वे क्रमशः भाजपा, अकाली दल और शिवसेना हैं. भाजपा को छोड़ भी दें तो शिवसेना और अकाली दल धर्मनिरपेक्ष राजनीति करते हैं या धर्मसापेक्ष, यह सबको पता है. इन तीन दलों के साथ बने रहकर नीतीश धर्मनिरपेक्षता को अहम औजार बनाते हैं तो कहा जाता है कि उन्हें इनसे अलग होकर बात करनी चाहिए. और फिर यदि भाजपा की ही बात करें तो मोदी से परहेज रखने वाले नीतीश पिछले दिनों आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी रैली में मेजबान की तरह घूम चुके है, जिसमें आडवाणी रामरथ यात्रा का गौरवगान करते फिर रहे थे. लालू प्रसाद यादव तो यहां तक कहते हैं कि नीतीश जो अभी कह रहे हैं, वह आडवाणी के इशारे पर ही हो रहा है. हालांकि जदयू के वरिष्ठ नेता व राज्यसभा सदस्य वशिष्ठ नारायण सिंह का कहना है कि नीतीश या जदयू ने धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री की बात कोई अलग से नहीं कही है. वे कहते हैं, ‘यह तो संविधान में ही वर्णित है और इस मांग से भला किसी को क्या आपत्ति होगी?’  

अब भाजपा की बात. भाजपा के कुछ नेता पहली बार इस तरह नीतीश के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए देखे गए वरना इसके पहले भी नीतीश भाजपा को दरकिनार कर राज्य में अभियान चलाते रहे हैं और गुजरात वाले मोदी को निशाने पर लेते रहे हैं. भाजपा की ओर से भी गठबंधन तक तोड़ देने की बात कही गई. बिहार प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष डॉ सीपी ठाकुर बेपरवाही वाले अंदाज में कहते हैं कि जब गठबंधन टूटना होगा, टूट जाए लेकिन हमें दूसरे से सर्टिफिकेट की दरकार नहीं.

जानकार कहते हैं कि बिहार में भाजपा के नेता यदि इस कदर साहस जुटाकर बयान देने की स्थिति में हैं तो इसके पीछे भाजपा सवर्णों और शहरमिजाजी मतदाताओं के सहारे अपनी मजबूती का आकलन कर रही है. लेकिन यह भी एक किस्म का भ्रम जैसा ही है. पिछले सात साल में नीतीश कुमार भाजपा के इस किले में भी सेंधमारी कर चुके हैं. अभी हाल ही में पटना नगर निगम चुनाव में मेयर पद के चुनाव में भी यह देखा गया. भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान होने की भी गुंजाइश है. एनडीए में जदयू भरोसेमंद साथी की तरह 16 साल से बना हुआ है. भाजपा 2014 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बीजू जनता दल, अन्नाद्रमुक, असम गण परिषद, तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों की ओर निगाह लगाए हुए है, लेकिन सत्ता के लिए भानुमति का कुनबा बनाना तभी संभव होगा जब पुराने साथी भाजपा के साथ बने रहेंगे.

बहरहाल, दोनों दलों के शब्दवीर मौन साध रहे हैं. बयानों की लड़ाई की धार कुंद पड़ती जा रही है. संभव है फिलहाल गठबंधन चलता रहे और प्रधानमंत्री का मुद्दा गुजरात विधानसभा चुनाव तक हाशिये पर रखा जाए, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में जदयू का प्रणब के पक्ष में जाना दूसरी रणनीति का संकेत भी दे रहा है. 

नीतीश के बारे में यह सबको पता है कि वे हनुमान चालीसा पाठ की तरह रट्टामार अंदाज में केंद्र सरकार, कांग्रेस और कांग्रेस की नीतियों को कोसते रहते हैं. कभी बिहार के साथ नाइंसाफी के सवाल पर तो कभी किसी और मसले पर. उसी कांग्रेस के बड़े चेहरे प्रणब मुखर्जी के पक्ष में जदयू का जाना और फिर मजबूत तर्कों को भी गढ़ना आगे का संकेत दे रहा है. जदयू के प्रवक्ता शिवानंद तिवारी ने कहा कि आज जो महंगाई है वह भाजपा के नेता भी नियंत्रित नहीं कर सकते. लगे हाथ तिवारी ने प्रणब की तारीफ भी की. हालांकि बाद में शरद यादव ने इसके लिए तिवारी को घुड़की दी और कहा कि केंद्र सरकार ही महंगाई के लिए जिम्मेवार हैं लेकिन यादव की इस बात का असर निचले स्तर तक नहीं हो सका. महंगाई के खिलाफ जब भाजपा ने बंद का एलान किया तो जदयू कार्यकर्ता इससे अलग रहे. 

राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘असल मामला प्रणब मुखर्जी के साथ जाने का है. ऐसा करके नीतीश भाजपा को यह बता चुके हैं कि वे अलग राह अपनाने की स्थिति में हैं. आगामी लोकसभा चुनाव तक वे कांग्रेस से इसी आधार पर मोलतोल करने की स्थिति में रहेंगे और भाजपा से अलग होने की स्थिति आएगी तो केंद्र सरकार से विशेष पैकेज वगैरह लेकर अपने आधार को मजबूत करेंगे, जो कांग्रेस के सहयोग से ही संभव है.’ वे आगे जोड़ते हैं,  ‘आप ऐसे भी तो देखिए कि यदि कल नीतीश यूपीए के साथ चले जाते हैं तो उन्हें कितने फायदे होंगे. एक तो लालू की धार कमजोर पड़ जाएगी. कांग्रेस जो बिहार में अपना सब कुछ गंवा चुकी है, वह नीतीश के सहारे फिर अपनी जमीन तैयार करने की कोशिश में लग जाएगी. अगर अगली लोकसभा में  भंवरजाल बनता है तो कांग्रेस के बाहरी समर्थन से शीर्ष पद पर विराजमान होने की गुंजाइश को एकदम से नकारा  भी तो नहीं जा सकता न!’

बदलाव के इंतजार में…

सौ दिन किसी सरकार की समीक्षा के लिए ज्यादा नहीं होते तो कुछ मोर्चों पर कम भी नहीं होते. अखिलेश यादव ने भी सत्ता के सौ दिन पूरे कर लिए हैं. चुनाव से ठीक पहले और ठीक बाद तहलका से उन्होंने बात की थी. उस दौरान अखिलेश की नई राजनीति की बड़ी चर्चा थी. डीपी यादव को सपा में आने से रोककर उन्होंने बड़ा नाम कमाया था. सपा को हाईटेक बनाने का सेहरा उनके सिर बंधा था. उस साक्षात्कार में उन्होंने कई बड़े वादे किए थे. सौ दिन बाद उनके तब के वादों के आधार पर उनके शासन का विश्लेषण किया जा सकता है. अखिलेश का पहला वादा था कि जनता की पहुंच हम तक बहुत आसान रहेगी, वे मायावती जी की तरह महलों के बंधक नहीं बनेंगे. पर आज अखिलेश कितने उपलब्ध हैं इसकी बानगी लखनऊ के एक पत्रकार पेश करते हैं, ‘चुनाव से पहले रोज-रोज हेलीकॉप्टर में बैठा कर घुमाने का प्रस्ताव भेजते थे. अब उनके चेले-चपाटे भी नहीं सुनते.’

सौ दिन के उनके शासन में कोसी कलां और प्रतापगढ़ में सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं, मुसलिमों की 40-50 झोपड़ियां जलाई जा चुकी हैं, कानपुर में सपा कार्यकर्ता सौरभ यादव पर सरेआम गोलियां चलाई जा चुकी हैं, सुल्तानपुर में पुराने पत्रकार शीतल सिंह के बेटे पीयूष सिंह से दस लाख रुपये की लूट हो चुकी है और कार्रवाई करने गई पुलिस और डीएम को लोग पीट चुके हैं. आखिरी दोनों जुड़े हुए मामलों में अखिलेश सरकार के राज्य मंत्री शंखलाल माझी का नाम सामने आ रहा है. कानून व्यवस्था वह मसला था जिसे लेकर सबके मन में सपा के प्रति हमेशा से आशंका बनी हुई थी. तब उन्होंने तहलका के माध्यम से लोगों को विश्वास दिलाया था कि सूबे की कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए वे अपने प्रिय चाचा रामगोपाल यादव के नेतृत्व में एक कमेटी गठित करेंगे. खुद अखिलेश भी उस कमेटी के सदस्य रहेंगे. उन्होंने इस कमेटी को आईटी इनेबल्ड बनाने का वादा भी किया था ताकि पूरे सूबे की जनता अपनी परेशानी सीधे लखनऊ तक पहुंचा सके. आज सौ दिन बाद किसी को नहीं पता कि कमेटी किस दशा में है और चाचा रामगोपाल जी उस कमेटी के बारे में क्या राय रखते हैं. 

अखिलेश की बोहनी ही खराब हो गई थी. जिस दिन नतीजे आ रहे थे उसी दिन झांसी में सपाइयों ने पत्रकारों और मतगणना कर्मियों को बंधक बना लिया. वे दबंगई के दम पर हार को जीत में बदलने पर आमादा थे. फिरोजाबाद में सपा कार्यकर्ता फायरिंग करने लगे जिसमें एक 13 साल की बच्ची की मौत हो गई. बाद में शपथ ग्रहण का उत्पात तो पूरे देश ने देखा ही. इसके बाद बदायूं की पुलिस चौकी में लड़की के साथ बलात्कार हो गया. लिस्ट बहुत लंबी है. भ्रष्टाचार के मसले पर मायावती से अखिलेश की तुलना करने के लिए तो कम से कम दो-तीन साल चाहिए लेकिन कानून व्यवस्था की बात करने के लिए तीन महीने पर्याप्त हैं. उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के तीन महीने के भीतर ही अपने विधायक उमाकांत यादव को जेल भेज दिया था. अखिलेश के शासन में तीन महीने के भीतर ही जेल में बंद कई अपराधियों को बाहर पहुंचाने का बंदोबस्त कर दिया गया है.

नई राजनीति के जहाज पर सवार होकर लखनऊ पहुंचे अखिलेश यादव को भी शायद नरेंद्र मोदी की तरह राजधर्म सीखने की जरूरत है

राजा भैया को मंत्री बनाकर जो शुरुआत हुई थी वह रुकी नहीं. 15 मार्च को अखिलेश का शपथ ग्रहण हुआ और 17 मार्च तक अमरमणि त्रिपाठी और अभय सिंह जैसे अपराधियों का उनके गृह जिलों में पुनर्वास कर दिया गया. अभय सिंह के ऊपर लगा गुंडा एक्ट सरकार के इशारे पर वापस ले लिया गया है. अमरमणि त्रिपाठी जैसा अपराधी, जिसे उम्र कैद की सजा हो चुकी है, जिसका बेटा सपा के टिकट पर पिछला विधानसभा चुनाव लड़कर हार चुका है, वह सपा के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है?  

18 मई को अखिलेश ने पूरे सूबे के पुलिस अधिकारियों की बैठक बुलाई और उन्हें 15 दिन के भीतर कानून व्यवस्था सुधारने की चेतावनी दी. मगर महीने भर के भीतर ही दो-दो सांप्रदायिक दंगे हो गए. कोसी कलां में 22 दिन तक बाजार बंद रहा. लोग घरों से बाहर नहीं निकले. वहां के एक व्यक्ति ने तहलका दफ्तर में फोन करके विनती की कि हम वहां आएं, खुद हालात देखें और तब कुछ लिखें. पुलिस की एकतरफा कार्रवाई से वह इतना डरा हुआ था कि अपना नाम-पता तक बताने को तैयार नहीं था. ऐतिहासिक रूप से 1,300 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ, 156 लोगों को जेल में डाल दिया गया. जिन लोगों की दुकानेण फूंक दी गई तो वे ही आरोपित बनाए गए हैं. एक पक्ष के लोगों को जेल में रखकर दूसरे पक्ष को खुश किया जा रहा है. स्थानीय निवासी कुलदीप गुर्जर कहते हैं, ‘प्रशासन के लोग हमारे खिलाफ काम कर रहे हैं. चुन-चुन कर एक ही समुदाय को जेल में डाला जा रहा है. आप चाहें तो गिरफ्तार लोगों की लिस्ट उठाकर देख लीजिए.’

नई राजनीति के जहाज पर सवार होकर लखनऊ पहुंचे अखिलेश यादव को भी शायद नरेंद्र मोदी की तरह राजधर्म सीखने की जरूरत है. प्रशासन निष्पक्ष व्यवहार करना नहीं सीख पाया है. प्रतापगढ़ जिले का अस्थान गांव भी इसी स्थिति से गुजर रहा है. एक समुदाय की 40-50 झोपड़ियां जला कर राख कर दी गईं. जिले के एसपी ओपी सागर ने बलात्कार की शिकार लड़की की शव यात्रा उसी बस्ती से निकालने की इजाजत दे दी जहां के लोगों पर इस अपराध का शक जताया जा रहा था. बाद में वे सफाई दे रहे थे, ‘मुझे उम्मीद नहीं थी कि मामला इतना बढ़ जाएगा.’ इन मामलों को देखकर अखिलेश के बारे में एक राय यह भी बनती है कि कुछ मामलों में वे बिल्कुल अपने पिता जैसे ही हैं. 2007 में सपा को सत्ता से बाहर करवाने में एक भूमिका मऊ के दंगों की भी थी. उस दौरान मुलायम सिंह ने भी आज के अखिलेश जैसा ढीला रुख ही अपनाया हुआ था.   

साक्षात्कार में अखिलेश ने एक और महत्वपूर्ण बात कही थी. सपा बदले की राजनीति नहीं करेगी. मूर्तियां और पार्क नहीं तोड़े जाएंगे. आज अखबारों में छपी वह फोटो सबके लिए कौतूहल का विषय है जिसमें एक कर्मचारी लखनऊ के आंबेडकर पार्क की लाइटें उखाड़ कर लिए जा रहा है. आंबेडकर ग्रामसभा विकास विभाग का नाम बदल कर राममनोहर लोहिया समग्र ग्राम विकास विभाग कर दिया गया है. दलितों को ठेकों में आरक्षण समाप्त कर दिया गया, प्रोन्नति में आरक्षण व्यवस्था समाप्त हो गई. कहने का मतलब है कि बाकी कुछ हो न हो मगर चुन-चुन कर मायावती के कार्यकाल में शुरू हुई परियोजनाओं पर कैंची चलाई जा रही है. कुल 23 योजनाएं जो मायावती सरकार ने शुरू की थीं उन्हें खत्म कर दिया गया है.  

अखिलेश के आगमन के बाद उत्तर प्रदेश में एक और गौर करने लायक बदलाव दिख रहा है. पिछले डेढ़ दशकों के दौरान लोग चुनावों के दरमियान होने वाला लाउडस्पीकरों का कानफोड़ू शोर भूल गए थे. वे दिन फिर से लौट आए हैं. आजमगढ़ में स्थानीय निकाय के चुनाव के लिए खड़े एक सपा समर्थित प्रत्याशी कहते हैं, ‘सब अखिलेश भइया की कृपा है. उन्होंने सबको लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करने की छूट दिला दी है.’ जैसा कि उत्तर प्रदेश का पुराना अनुभव रहा है, छूट और सपा की कोई सीमा नहीं होती. क्या रात में बारह बजे और क्या भोर में पांच बजे, गली-गली में कर्मठ, निर्भीक, युवा, ईमानदार और हरदिल अजीज उम्मीदवार अपने मुंह मिट्ठू, तोता, मैना बने हुए हैं. वे शहर-बाजारों की दीवारें जितनी बदसूरत हो सकती हैं उससे ज्यादा करने में लगे हुए हैं, इस वादे के साथ कि जब वे जीतेंगे तब हमारे नगर और ज्यादा स्वच्छ, चमकदार, आदर्श पानी-बिजली से भरपूर हो जाएंगे. ऐसा लगता है जैसे उत्तर प्रदेश में चुनाव आयोग भी अपना कामकाज भूल गया है. 

चुनाव से पहले वाले साक्षात्कार में अखिलेश को एक बात बहुत नागवार गुजरी थी. आजम खान और शिवपाल यादव के साथ उनके रिश्तों के सवाल पर उन्होंने यह कह कर बात बीच में काट दी थी कि ‘नहीं, हमारे बीच लट्ठ चल रहे हैं. आज सौ दिन बाद लखनऊ के हर बड़े पत्रकार, अधिकारी और जानकार की जुबान पर यही बातें हैं. आजम खान की अपनी सत्ता है, शिवपाल की अपनी. सरकार के भीतर रस्साकशी की एक लकीर इस एक घटना के जरिए खींची जा सकती है. 17 जून को शिवपाल यादव ने बाकायदा घोषणा की कि सात बजे के बाद सूबे के शहर, मॉल और बाजार बंद हो जाएंगे क्योंकि राज्य के पास बिजली नहीं है. इसके लिए बाकायदा सरकारी विज्ञप्ति और प्रेस नोट भी जारी हुआ. जानकार बताते हैं कि इस आदेश को मुख्यमंत्री की हरी झंडी भी थी. लेकिन 18 जून को आजम खान विधानसभा को जानकारी देते हैं कि यह महज प्रस्ताव है कानून नहीं. जो चीज सरकारी विज्ञप्ति का हिस्सा बन चुकी थी, उसके बारे में आजम खान का यह बयान बड़ा अजीब था.

बिजली से याद आया. उत्तर प्रदेश में जिसकी लाठी उसी की बिजली हो गई है. इटावा, कन्नौज, मैनपुरी और औरैया जैसे सपा के गढ़ों को 24 घंटे बिजली मिल रही है. बची- खुची रामपुर (आजम खान), हरदोई (नरेश अग्रवाल), बाराबंकी (जिले से तीन मंत्री) चली जा रही है. सपा राष्ट्रपति चुनाव के समीकरण बिठाने में व्यस्त हैं और दीदारगंज विधानसभा के निवासी तीन दिन से बिजली को तरस रहे हैं. जिस आजमगढ़ ने दस की दसों विधानसभा सीटें सपा को दी थीं वे अपना दोष पूछ रहे हैं. संजरपुर में चाय की दुकान पर बीड़ी पीकर लू को मात देने की कोशिश कर रहे नूरुद्दीन अंसारी की सुनिए, ‘इहो अपने बापै के तरह एकदम फेल बाटे.’ यानी ये भी अपने पिता जी की तरह असफल है. 

­उत्तर प्रदेश कोई गुजरात, तमिलनाडु जैसा समृद्ध राज्य तो है नहीं. दो लाख करोड़ से ज्यादा का तो कर्ज का बोझ है. एक दूरदर्शी नेता, प्रचंड बहुमत और पांच साल दूर खड़े चुनाव के मद्देनजर होना यह चाहिए था कि सरकार बजट में इस समस्या से निपटने के उपाय करती. कर्ज के कुचक्र से उत्तर प्रदेश को बाहर निकालने के लिए कुछ कड़े फैसलों की दरकार थी. लेकिन अखिलेश ने जो बजट पेश किया उससे ऐसा लगा मानो चुनाव पांच साल बाद नहीं पांच महीने बाद होने वाले हैं. छूट, लैपटॉप और बेरोजगारी भत्ते की बरसात हुई और असल मुद्दे छूट गए. 

एक संदेश अखिलेश की प्रशासनिक अक्षमता को लेकर भी जा रहा है. आलम यह है कि जिन अधिकारियों का ट्रांसफर अखिलेश के इशारे पर हुआ उन्हें 24 घंटे के भीतर ही वापस लेना पड़ा. आईएएस अधिकारी माजिद अली और संजय प्रसाद के मामले सबके सामने हैं. पंचम तल (मुख्यमंत्री सचिवालय) पर अनीता सिंह की लॉबी का दबदबा है. उनसे बाहर का अधिकारी बाहरी है फिर चाहे वह कोई अली हों या प्रसाद.  जिस तरह से नौकरशाही काबू से बाहर है, उसी तरह अखिलेश के मंत्री भी बेकाबू हैं. बड़े जतन से उन्होंने नई ट्रांसफर नीति बनाई थी. इसके मुताबिक मंत्री अपने विभाग के 15 फीसदी से ज्यादा कर्मचारियों का ट्रांसफर नहीं कर सकते, वह भी समूह ग और घ के कर्मचारी. इससे ज्यादा ट्रांसफर के लिए मुख्यमंत्री की सहमति लेनी होगी. पंचम तल में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘हार्टीकल्चर मंत्री राज किशोर सिंह, लोक निर्माण राज्य मंत्री सुरेंद्र पटेल और स्टांप एवं न्यायालय शुल्क मंत्री दुर्गा यादव ने इसके खिलाफ न सिर्फ विद्रोह कर दिया बल्कि इसके खिलाफ जाकर ट्रांसफर भी किए.’ 

मुलायम सिंह यादव ने सौ दिन पूरे होने पर अखिलेश यादव को सौ नंबर दिए हैं. यह उनका पुत्रप्रेम ही होगा क्योंकि कुछ दिन पहले तक वे यह आरोप लगा रहे थे कि पिछली सरकार के विश्वासपात्र नौकरशाह अखिलेश को काम नहीं करने दे रहे हैं, उन्हें अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं. अगर मुलायम सिंह के पिछले बयान को सही मान लें तो यह अखिलेश की प्रशासनिक क्षमता पर सवाल खड़े कर देता है. और उनके बाद के बयान पर भी. अचानक ही उन्होंने ऐसा क्या कर दिया कि उन्हें 100 नंबर दे दिए जाएं?

बदलाव का वाहक?

क्या उत्तर प्रदेश की जनता को उस बदलाव की झलक भी दिखाई दे रही है जिसकी उम्मीद वे अखिलेश से लगाए बैठे हैं?

राजनीति की कई विशेषताओं में से एक यह भी है कि यह कई बार अपनी सहूलियत के हिसाब से भविष्य का अंदाजा लगाती है, उसे हम पर थोपती है और फिर उसी के आधार पर हमारे वर्तमान के साथ खिलवाड़ भी करती है. इस बात को 105 दिन पुरानी सरकार वाले उत्तर प्रदेश के नजरिये से देखते हैं.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है. यहां महत्वपूर्ण पदों पर बैठे कई ऐसे लोग हैं जो गंभीर आरोपों के घेरे में हैं. थोड़ा खुलकर कहें तो उत्तर प्रदेश में कई अपराधों के कई आरोपितों और दागियों को, उनके सारे किए-धरे को नजरअंदाज करके, जनता के सर-माथे पर बिठा दिया गया है. ऐसा क्यों हो रहा है, का मानक जवाब कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारी राजनीति में एक ही है – उन्हें किसी अदालत ने अब तक अपराधी घोषित नहीं किया है.

माना कि हमारा संविधान कहता है कि जब तक किसी को सजा न हो उसे अपराधी न माना जाए मगर वह यह तो नहीं कहता कि बड़े और जघन्य अपराधों के आरोपितों को तब तक लाखों-करोड़ों लोगों के भाग्य का विधाता बना कर रखा जाए. एक व्यक्ति को जब तक उसका अपराध सिद्ध न हो अपराधी न मानना अलग बात है, लेकिन इस पर कोई अदालती फैसला आने तक उसे सरकारी खजाने और लोगों के अच्छे-बुरे की चाबी सौंपे रखना कितना सही है? अगर बाद में वह अपराधी साबित हो जाता है तो? तब तक क्या वह देश और इसके वासियों का काफी नुकसान नहीं कर चुका होगा? मगर राजनीति के अनुमान उसे कभी वह अपराधी भी हो सकता है, मानने को तैयार नहीं होते. या मानते भी हैं तो यह नहीं मानते कि उन्हें इसके लिए अदालत से सजा भी मिल सकती है. या फिर वे इस बात को तवज्जो देने लायक ही नहीं समझते.

ऐसे अनर्थ की आराधना में उत्तर प्रदेश का हमेशा से ही एक मुकाम रहा है. मगर इस बार अब तक सामान्य-सी मानी जाने वाली यह बात उतनी सामान्य भी नहीं.

अखिलेश यादव को उनकी पार्टी और मीडिया बदलाव का वाहक, नई राजनीति का प्रतीक, प्रयोगवादी समाजवादी, उत्तर प्रदेश का नीतीश कुमार, देश का भविष्य, राहुल का सपाई जवाब और न जाने क्या-क्या विशेषणों से विभूषित करते रहे हैं. अब अगर वही अखिलेश, राजा भैया को पहली खेप में ही सरकार के जेल और खाद्य सरीखे विभागों का सिरमौर बना देते हैं तो बात सामान्य कैसे रह जाती है? इसके बाद अमरमणि, अभय यादव और विजय मिश्रा जैसे सपा के अपराधी या दागी राजनेता जेल को अपना घर समझ लें तो इसमें आश्चर्य कैसा? अगर नौकरशाही के शीर्ष पर बैठे सचिवालय के सबसे महत्वपूर्ण अफसरों पर ही तरह-तरह के आरोप हों और उनकी नियुक्ति का आधार पिछली सरकार ने उनके साथ कितना बुरा किया और जाति-धर्म आदि हों तो आप ऐसों से चलने वाले प्रशासन से स्वच्छता की कितनी उम्मीदें बांध सकते हैं?

आज उत्तर प्रदेश में सुशासन के मुद्दे पर कोई भी सवाल उठाने पर पहला जवाब मिलता है कि नई सरकार है, नया मुख्यमंत्री है उसे हमें थोड़ा समय देना चाहिए. कम से कम छह महीने. यानी फिर से अपनी सहूलियत वाला अनुमान. भविष्य में सब अच्छा होने वाला है अभी चिंता क्यों करना? चलो मान लिया कि अभी अखिलेश यादव की सरकार को ज्यादा समय नहीं हुआ है मगर उनकी सरकार ने बनते ही अपराधियों को उपकृत करते वक्त यह क्यों नहीं सोचा? उनके लिए क्यों सरकार बदलते ही वक्त बदलने का दौर शुरू हो गया? सवाल यह भी है कि इस राज में कानून व्यवस्था पहले से ज्यादा क्यों बिगड़ गई है. माना कि उसे पिछली सरकार के मुकाबले बेहतर करने में थोड़ा वक्त लग सकता है मगर वह कम से कम यथास्थिति में तो रहे.

हो सकता है कि अब तक की जमी-जमाई राजनीति की कुछ ‘व्यावहारिक मजबूरियां हों जिनके चलते अखिलेश इतनी जल्दी चीजों को बदलने की स्थिति में नहीं हों. हो सकता है चीजें पूरी तरह से उनके नियंत्रण में अभी नहीं हो. मगर उन्हें कम से कम कुछ ‘पूत के पांव पालने में’ दिख जाने वाले कदम उठाने से किसने रोका है. प्रबंधन का एक बड़ा सिद्धांत है कि चीजों को शुरुआत से ही नियंत्रित करना होता है. कुछ संदेश शुरुआत से ही जाने चाहिए और ये जुबानी नहीं बल्कि आपके कदमों और क्रियाओं के होने चाहिए. अगर ऐसा न हो तो चीजों के स्थायी रूप से हाथ से निकल जाने का खतरा खड़ा हो जाता है.

हालांकि अखिलेश से पूरी तरह मोहभंग होने जितनी देर कम से कम अभी नहीं हुई है.

मगर इसमें उतनी देर भी नहीं है.

नीतीश में कितने नरेंद्र ?

गौर से देखा जाए तो नीतीश कुमार खेल नरेंद्र मोदी वाला ही खेल रहे हैं, लेकिन कुछ ज्यादा सयानेपन से.

नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार में क्या अंतर है? यह सवाल किसी भी नीतीश प्रेमी को आहत कर सकता है. आखिर नरेंद्र मोदी पर जिस तरह गुजरात दंगों के दाग हैं, उस तरह का कोई दाग नीतीश कुमार पर नहीं लगा है. नरेंद्र मोदी के विरुद्ध सामाजिक संगठनों, संवैधानिक संस्थाओं और अदालतों तक की जैसी और जितनी टिप्पणियां हैं, नीतीश कुमार को अभी तक वैसी टिप्पणियों का सामना नहीं करना पड़ा है. नरेंद्र मोदी के गुजरात में अल्पसंख्यक मारे गए हैं, नीतीश कुमार के बिहार में अल्पसंख्यक विकास के नए एजेंडे का हिस्सा हैं. नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक हैं तो नीतीश कुमार समाजवादी. 

इस सवाल को चाहें तो पलट कर भी पूछ सकते हैं- नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी में क्या समानताएं हैं? दोनों पिछले कई वर्षों से- कम से कम 15 वर्षों से- एक ही राजनीतिक गठबंधन एनडीए को मजबूत करते रहे हैं और उसके महत्वपूर्ण स्तंभ रहे हैं. नरेंद्र मोदी अपने लिए गुजरात के विकास पुरुष की छवि चाहते हैं तो नीतीश कुमार बिहार के विकास पुरुष की. अब तो नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार, दोनों एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी हैं. ना ना करते नीतीश कुमार ने अपने पत्ते खोल भी दिए हैं- एनडीए से मांग की है कि वह जल्दी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा करे और ऐसे किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बनाए जो धर्मनिरपेक्ष हो और सभी समूहों को स्वीकार्य हो. 

ऐसा व्यक्ति एनडीए कहां से लाएगा? बीजेपी के भीतर उसकी यह तलाश पूरी नहीं होनी है. इस कसौटी पर शिवसेना और अकाली दल जैसे सहयोगी भी नहीं उतरते. ले-देकर एक नीतीश कुमार का नाम बचता है- यानी एनडीए या तो उनका नाम प्रस्तावित करे या फिर वे अलग से अपनी राजनीतिक बिसात बिछाएंगे.फिलहाल नीतीश कुमार सिर्फ यह इशारा कर रहे हैं कि 2014 के चुनावों की कमान नरेंद्र मोदी को दी गई तो वे एनडीए से अलग हो जाएंगे. जेडीयू के भीतर उनका समर्थक खेमा यहां तक कह रहा है कि अगर 2002 में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को बाहर कर दिया होता तो 2004 में एनडीए की यह हालत नहीं होती. 

बेशक, नरेंद्र मोदी को 2002 में बाहर कर दिया जाना चाहिए था- इसलिए नहीं कि उनके चलते चुनावों के नतीजों में फर्क पड़ा, बल्कि इसलिए कि वे भारतीय लोकतंत्र के एक बड़े अपराधी हैं. उन्होंने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा मुहैया न कराके, मुख्यमंत्री के पद को कलुषित किया है. लेकिन जेडीयू का तर्क यह है कि उनकी वजह से एनडीए 2004 का चुनाव हारा. यानी क्या अगर 2004 में एनडीए जीत जाता- जैसे गुजरात में मोदी जीतते गए- तो क्या जेडीयू इस फैसले का समर्थन करती? 

नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी में अगर कोई अंतर है तो नीतीश ही इस अंतर को सबसे पहले मिटाते नजर आ रहे हैं

दरअसल जेडीयू ने अभी तक इस फैसले का समर्थन ही किया था. वरना अगर बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को बाहर नहीं किया तो नीतीश कुमार एनडीए में क्यों बने रहे? दस साल पुराना अपराध उन्हें अचानक अब क्यों सालने लगा है? क्या सिर्फ इसलिए कि अब जेडीयू को भान हुआ है कि नरेंद्र मोदी को साथ रखने का सौदा नुकसानदेह साबित हुआ? या उसे यह लग रहा है कि नरेंद्र मोदी के साथ रहने के नहीं, उनके साथ दिखने के नुकसान कहीं ज़्यादा हैं? आखिर नीतीश कुमार कुछ साल पहले मोदी के साथ अपनी एक तस्वीर के इस्तेमाल पर जिस तरह बौखलाए थे, उसका तो संदेश बस यही था कि मोदी साथ भले रहें, लेकिन नजर न आएं. 

दरअसल नीतीश कुमार खेल नरेंद्र मोदी वाला ही खेल रहे हैं, लेकिन कुछ ज़्यादा सयानेपन से. जिस तरह नरेंद्र मोदी गुजरात के सामाजिक अन्याय के सवाल को गुजरात के विकास के नारे से कुचल डालते हैं, कुछ उसी तरह नीतीश कुमार भी बिहार के विकास की बात करते हुए बिहार के सामाजिक टकरावों से जुड़े सवालों की अनदेखी करते हैं. यही नहीं, 2002 में मारे गए अल्पसंख्यकों के इंसाफ के साथ जो रवैया नरेंद्र मोदी का रहा है, वही 1996 में बथानी टोला में मारे गए दलितों के इंसाफ के साथ नीतीश कुमार का रहा है. बथानी टोला के इंसाफ के सवाल से बिहार सरकार कई स्तरों पर आंख चुराती रही. पटना उच्च न्यायालय से आए फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने में भी सरकार को तीन महीने लग गए. बीच में इस हत्याकांड के मुख्य आरोपित ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या हो गई तो पटना में मुखिया समर्थकों को उपद्रव मचाने की ठीक वैसी ही खुली छूट दी गई जैसी 2002 में नरेंद्र मोदी ने अपने यहां के दंगाइयों को दी थी. जाहिर है, अपने राज्य में न्याय को लेकर जो संवेदनशीलता किसी मुख्यमंत्री में होनी चाहिए, वह कम से कम इस मामले में नीतीश कुमार नहीं दिखा रहे.  

दरअसल नीतीश कुमार कहने को अतिपिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महादलितों को लेकर एक समावेशी राजनीति साध रहे हैं, लेकिन उनकी अपनी सरकार के ढेर सारे मंत्री उसी सामंती पृष्ठभूमि और मानसिकता के हैं जिनसे रणवीर सेनाएं बनती हैं और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर प्रहार करती हैं. अगर नीतीश ऐसे तत्वों को बढ़ावा देते हैं तो वाकई इस लेख के शुरू में उठाया गया यह सवाल जायज हो जाता है- कि नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी में आखिर क्या अंतर है?  अगर कोई अंतर है- जो इन पंक्तियों के लेखक को भी लगता है कि है- तो नीतीश कुमार ही इस अंतर को सबसे पहले मिटाते दिख रहे हैं. बिहार के विकास का सवाल वैध है, लेकिन नीतीश जैसे समाजवादी को याद रखना चाहिए कि वह सड़कें बना देने और शहरों में रात के पहरे बिठा देने भर से पूरा नहीं होगा, उसके लिए भूमि सुधार से लेकर खेती-बाड़ी और उद्योग-धंधे तक दुरुस्त करने होंगे. 

नीतीश ठीक कहते हैं कि बिहार के विकास की चुनौती गुजरात के विकास से कहीं ज्यादा बड़ी है. लेकिन बिहार की उद्यमिता और प्रतिभा को देखते हुए यह नामुमकिन नहीं है, बशर्ते विकास के सवाल को महज राजनीति के सवाल में न बदल दिया जाए.

ब्रिटिश राज की वापसी

कंपनी के तीन दर्जन से अधिक लोगों ने मेरे घर पर आकर नारेबाजी की, शीशा व दरवाजा तोड़ा और मुझे धमकी दी कि बांध का विरोध करना बंद कर दो नहीं तो तुम्हें जिंदा जला देंगे.

बीते 22 जून को जल पुरुष राजेन्द्र सिंह एवं स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद उत्तराखंड के श्रीनगर शहर के पास कलियासौड़ में गंगा तट पर स्थित सिद्धपीठ धारी देवी के दर्शनों को पहुंचे. यह मंदिर जीवीके कंपनी द्वारा निर्माणाधीन श्रीनगर जल विद्युत परियोजना की 30 किलोमीटर लंबी झील के डूब क्षेत्र में आता है. उन्हें स्थानीय प्रशासन ने गिरफ्तार करके हरिद्वार भेज दिया. इनके पीछे बांध कंपनी के सुरक्षाकर्मियों, कर्मचारियों और ठेकेदारों का काफिला इन्हें खदेड़ता हुआ-सा पुलिस के साथ चल रहा था. इसी मार्ग पर मेरा निवास स्थान पड़ता है. मेरे निवास के सामने से स्वामी सानंद के निकल जाने के बाद कंपनी के कर्मचारियों और पुलिस के बीच कुछ गुफ्तगू हुई. इसके बाद कंपनी के लगभग 40 लोग मेरे निवास पर उतर आए. इन लोगों ने नारेबाजी की, शीशा व दरवाजा तोड़ा और मुझे धमकी दी कि दो दिन के अंदर बांध का विरोध करना बंद कर दो नहीं तो तुम्हें इस घर में जिंदा जला देंगे. 

मामला श्रीनगर परियोजना की अवैधता का है. परियोजना को 1985 में पर्यावरण स्वीकृति मिली थी. 1994 में पर्यावरण मंत्रालय ने नोटिफिकेशन जारी किया जिसके अनुसार पहले दी गई स्वीकृतियों की क्षमता बढ़ाने पर नई स्वीकृति लेना अनिवार्य बना दिया गया. पांच वर्ष में निर्माण कार्य चालू न होने की स्थिति में भी नई स्वीकृति लेने की व्यवस्था दी गई. इसके बाद मंत्रालय ने एक और नोटिफिकेशन जारी किया जिसके अनुसार 2004 तक कंस्ट्रक्शन प्लिंथ लेवल तक नहीं आने की स्थिति में भी नई स्वीकृति लेना अनिवार्य होगा. पर अपने ही इन आदेशों को नजरअंदाज करते हुए, पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारियों ने 2006 में 20 वर्ष पहले श्रीनगर परियोजना को दी गई स्वीकृति को वैध घोषित कर दिया.

उत्तराखंड हाई कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय के इस निर्णय को अवैध ठहराया और कंपनी से नई पर्यावरण स्वीकृति लाने को कहा. लेकिन कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट से स्टे ले लिया और गंगा पर बांध का निर्माण करती रही. इसी दौरान पर्यावरण मंत्रालय को भाजपा की नेता उमा भारती से शिकायत मिली. जून, 2011 में  मंत्रालय ने कंपनी को परियोजना पर कार्य बंद करने का आदेश जारी किया जो आज भी लागू है. लेकिन अधिकारियों की मिलीभगत से कंपनी परियोजना का काम करती रही. इन अनियमितताओं के बावजूद परियोजना का निर्माण जारी रहने के विरोध में मैं विभिन्न न्यायालयों में याचिकाएं दायर करता रहा हूं. मेरे इस काम से कंपनी और उसमें लगे स्थानीय ठेकेदार नाखुश हैं, इसलिए उन्होंने मुझ पर हमला किया.

स्थानीय लोगों की आपत्ति है कि परियोजना का विरोध पहले क्यों नहीं किया गया? सच यह है कि परियोजना के खिलाफ 2008 में मैंने पहली याचिका डाली थी. इसके बाद क्रमवार तीसरी याचिका पर चार साल के बाद उच्च न्यायालय ने पर्यावरण स्वीकृति को अवैध ठहराया है. सिद्धपीठ धारी देवी के सदस्य 700 से अधिक दिन से धरने पर बैठे हुए हैं. इस बीच राज्य सरकार को ज्ञापन भी दिए गए. पर्यावरण मंत्रालय एवं राज्य सरकार ने इन विरोधों को अनदेखा किया.  

दूसरी आपत्ति है कि परियोजना बंद होने की स्थिति में स्थानीय लोगों के रोजगार और ठेकों का हनन होगा. यह सही है. पर ये रोजगार के अवसर कंस्ट्रक्शन के दौरान मात्र पांच साल तक रहते हैं. इससे ज्यादा दीर्घकालीन रोजगार का हनन खुद परियोजना से हो रहा है. लगभग 400 हेक्टेयर जमीन डूब क्षेत्र में आ रही है. इस भूमि पर जंगल और कृषि से उत्पन्न होने वाले रोजगार का हनन होगा. उत्तराखंड की बहती नदियों के नैसर्गिक सौंदर्य के बीच अस्पताल, विश्वविद्यालय और सॉफ्टवेयर पार्क बनाए जा सकते हैं जो हजारों स्थायी रोजगार उत्पन्न कर सकते हैं. क्षेत्र के सौंदर्य एवं पर्यावरण के नष्ट होने से विकास की इस संभावना पर ब्रेक लग जाएगा. उत्तराखंड की पहचान चारधाम यात्रा से है. तमाम होटल और टैक्सी चालक इस देवत्व की रोटी खाते हैं. गंगा को बांधने, सुखाने और सड़े हुए पानी की झीलों में तब्दील करने से उत्तराखंड का यह देवत्व समाप्त हो जाएगा और चारधाम यात्रा प्रभावित होगी. 

तीसरी आपत्ति यह है कि उत्तराखंड के आर्थिक विकास के लिए जल विद्युत अति उपयुक्त स्त्रोत है. मेरा विरोध जल विद्युत का नहीं है. मैंने सुझाव दिया था कि 30 किलोमीटर लंबी झील बनाने के स्थान पर रुद्रप्रयाग से नहर लाकर जल विद्युत बनाई जा सकती है. इससे गंगा का स्वच्छंद बहाव कायम रहेगा और धारी देवी मंदिर भी नहीं डूबेगा. मैने ऐसी परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों का आर्थिक आकलन किया है. मैंने पाया कि झील में पनपते मलेरिया के कीटाणु, मछली और बालू के नुकसान आदि की गणना की जाए तो ऐसी परियोजनाओं के कारण देश को 700 करोड़ रुपये की हानि होगी जबकि 155 करोड़ रुपये का लाभ होगा. फिर भी इस परियोजना को बनाया जा रहा है. नुकसान आम आदमी उठाता है लेकिन लाभ दिल्ली और देहरादून के नागरिकों एवं नौकरशाहों को होता है. सरकार द्वारा कंपनी को दिया जा रहा समर्थन अनुचित है. सरकार को चाहिए कि बांध समर्थकों और विरोधियों के बीच संवाद स्थापित कराए, दोनों पक्षों को सुने और ऐसा रास्ता निकाले जो दोनों पक्षों के सही तर्कों को जोड़े.

जनहित स्वतंत्र एवं पारदर्शी रूप से तय किया जाना चाहिए. सरकार का मंसूबा राज्य के प्राकृतिक संसाधनों को दिल्ली और देहरादून पहुंचाना है. इसके लिए सरकार जनता को अस्थायी रोजगार का प्रलोभन देकर अपनी संस्कृति, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को नष्ट करने को उकसा रही है बिल्कुल वैसे ही जैसे ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को प्रलोभन देकर स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलवाई थी.

माही से मनोज तक

प्रशासन और गांववालों की तमाम कोशिशों और न्यूज चैनलों की दुआओं के बावजूद 70 फुट गहरे बोरवेल में गिरकर फंसी चार साल की बच्ची माही को नहीं बचाया जा सका. गुड़गांव (हरियाणा) के पास कासना गांव की माही को बोरवेल से सुरक्षित निकालने के लिए 86 घंटे से भी ज्यादा लंबा अभियान चला और उसे 24 घंटे के न्यूज चैनलों के जरिए पूरे देश ने देखा. हालांकि माही की किस्मत कुरुक्षेत्र के प्रिंस जैसी नहीं थी. उसे बचाया नहीं जा सका. लेकिन चैनल माही को बचाने के अभियान में पीछे नहीं रहे. उनके एंकरों और रिपोर्टरों ने माही के लिए दुआएं मांगीं और बचाव ऑपरेशन के बारे में ब्रेकिंग न्यूज देते रहे.

लेकिन शायद पिछली आलोचनाओं और खिल्लियों का असर था कि इस बार चैनलों में वह उत्साह नहीं दिखा जो उन्होंने 2006 में कुरुक्षेत्र में बोरवेल में गिरे पांच साल के प्रिंस के बचाव अभियान के दौरान दिखाया था. तब चैनलों ने लगातार 50 घंटे से अधिक की लाइव कवरेज की थी. लेकिन कुछ शर्माते- कुछ हिचकते हुए भी चैनलों ने माही बचाओ ऑपरेशन की अच्छी-खासी कवरेज की. असल में, चैनलों की ऐसे मामलों को ‘तानने और उससे खेलने’ में अत्यधिक दिलचस्पी रहती है जिसमें भावनाएं हों, सस्पेंस और उसका तनाव हो, खासकर जिसमें किसी की जान अटकी हो. चैनलों को उसे ‘रीयलिटी शो’ में बदलने में देर नहीं लगती है.

दिल्ली में हर साल 50 से ज्यादा सीवरकर्मी अपने काम के दौरान दुखद और अनजान मौत मरते हैं लेकिन चैनल कभी उनकी सुध नहीं लेते

लेकिन न्यूज चैनलों की इस ‘जन्मजात विकृति’ को एक पल के लिए नजरअंदाज कर दिया जाए तो इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि ऑपरेशन स्थल पर दर्जनों चैनलों के ओबी वैन और कैमरों और उनके उत्साही रिपोर्टरों की मौजूदगी ने जिला प्रशासन और राज्य सरकार पर माही बचाओ ऑपरेशन को तेज करने के लिए लगातार दबाव बनाए रखा. याद रहे, ऐसे मामलों में चैनलों की अति सक्रियता के कारण ही सुप्रीम कोर्ट ने कुछ साल पहले बोरवेल की खुदाई और रखरखाव को लेकर राज्य सरकारों को कड़े निर्देश दिए ताकि माही जैसे मासूमों को बचाया जा सके. यह और बात है कि प्रशासन और बोरवेल खुला छोड़ने वाले लोगों की आपराधिक लापरवाही जारी है और किसी माही के उसमें गिरने से पहले न्यूज चैनलों की नजर भी उधर नहीं जाती.  

लेकिन न्यूज चैनलों की नजर 19 साल के मनोज और 40 साल के शंकर की मौत की ओर भी नहीं गई जो किसी दूरदराज के गांव या शहर में नहीं बल्कि दिल्ली के रोहिणी इलाके में डीडीए (दिल्ली विकास प्राधिकरण) के सीवर की सफाई करने के दौरान मेनहोल की जहरीली गैस के शिकार हो गए. मनोज और शंकर मेनहोल में उतरकर सीवर की सफाई करते हुए मारे जाने वाले अकेले सफाईकर्मी नहीं हैं. दिल्ली में सिर्फ जून महीने में चार से ज्यादा सफाईकर्मी मारे गए हैं. यही नहीं, अकेले दिल्ली में हर साल 50 से ज्यादा सीवर सफाईकर्मी ऐसी ही दुखद और अनजान मौत मरते हैं. अफसोस उनकी मौत किसी चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती, कोई लाइव रिपोर्ट और स्टूडियो चर्चा नहीं होती. 

यहां तक कि उनकी मौत चैनलों के टिकर में भी जगह नहीं पाती. नतीजा यह कि सीवर सफाईकर्मियों के मेनहोल में सेफ्टी गियर के साथ उतरने जैसे हाई कोर्ट के कड़े निर्देशों के बावजूद उन्हें निहायत ही अमानवीय और असुरक्षित स्थितियों में काम करना पड़ रहा है. उनमें से कई को जान से हाथ धोना पड़ रहा है और बाकी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. क्या ‘सबसे तेज’ और ‘आपको आगे रखने वाले’ चैनलों के कैमरे और रिपोर्टर कभी उनका भी दुख-दर्द पूछेंगे? या उनकी दिलचस्पी सिर्फ मौत के रीयलिटी शो में है? जरा सोचिए.

चुनाव में भेदभाव

राष्ट्रपति चुनाव 1971 की जनगणना पर आधारित मतों के आधार पर होने से बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों को राष्ट्रपति चुनाव में वाजिब प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.

1971 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि उस वक्त देश की कुल आबादी 54.81 करोड़ थी. वहीं 2011 की जनगणना  में आबादी बढ़कर 121.01 करोड़ हो गई है. इसके बावजूद राष्ट्रपति चुनाव में वोट देने वाले जनप्रतिनिधियों के मतों का निर्धारण 1971 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ही किया जा रहा है. अगर आधार वर्ष को 1971 के बजाय 2011 कर दिया जाए तो पिछले 40 साल में बढ़ी आबादी को देखते हुए कई राज्यों के विधायकों के मतों की संख्या काफी बढ़ जाएगी और कुल मतों में उनकी हिस्सेदारी भी.

संविधान के जानकारों का मानना है कि 1971 की आबादी के आधार पर राष्ट्रपति चुनाव करवाए जाने से इस चुनाव में उन राज्यों को वाजिब प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाएगा जिनकी आबादी इस दौरान दूसरे राज्यों की तुलना में तेजी से बढ़ी है. दरअसल, संविधान में राष्ट्रपति चुनाव के लिए जनप्रतिनिधियों के मतों के निर्धारण को लेकर यह साफ था कि यह काम सबसे नई जनगणना के आंकड़ों के आधार पर होगा. इसलिए 1952 का राष्ट्रपति चुनाव 1951 की जनगणना के आधार पर हुआ. जबकि 1961 की जनगणना के आंकड़े समय पर उपलब्ध नहीं होने की वजह से 1962 में राष्ट्रपति का चुनाव भी 1951 की जनगणना के आधार पर ही हुआ. इसके बाद 70 के दशक में हुए राष्ट्रपति चुनावों का आधार 1971 की जनगणना बनी. 

1971 की जनगणना पर ही लोकसभा और विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन हुआ. 2008 से पहले तक के लोकसभा और विधानसभा चुनाव उसी परिसीमन के आधार पर हुए. इस दौरान हुए सभी राष्ट्रपति चुनाव 1971 की जनगणना के आधार पर ही होते रहे. जबकि परिसीमन का राष्ट्रपति चुनाव से कोई संबंध ही नहीं है. जब इस गड़बड़ी की ओर कुछ लोगों ने 2001 में सरकार का ध्यान आकृष्ट किया तो अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार ने संविधान संशोधन करके यह तय कर दिया कि 2026 तक के सभी राष्ट्रपति चुनाव 1971 की जनगणना के आधार पर ही होंगे.

संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के महासचिव रहे सुभाष कश्यप तहलका को बताते हैं, ‘उस वक्त जब यह बात चली तो पता चला कि नया आधार वर्ष लेते ही राष्ट्रपति चुनाव में तमिलनाडु व केरल जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों के मतों की हिस्सेदारी घटेगी वहीं उत्तर भारत के कुछ राज्यों  की हिस्सेदारी बढ़ जाएगी. तब दक्षिण भारत के राज्यों ने केंद्र से कहा कि जनसंख्या नियंत्रण का काम सफलता से करने का पुरस्कार उन्हें इस रूप में मिलना चाहिए कि राष्ट्रपति चुनाव का आधार वर्ष पुराना ही रखा जाए.’

जानकार बताते हैं कि उस वक्त केंद्र सरकार के इस फैसले का ज्यादा विरोध नहीं हुआ क्योंकि तब तक विधायकों और सांसदों का निर्वाचन भी 1971 की जनगणना के आधार पर हुए परिसीमन के आधार पर ही हो रहा था. लेकिन 2008 से विधानसभाओं के चुनाव नए परिसीमन के आधार पर शुरू हुए. नए परिसीमन के लिए आधार बनी 2001 की जनगणना. 2009 का लोकसभा चुनाव भी नए परिसीमन के आधार पर हुआ. इस आधार पर होना तो यह चाहिए था कि इस बार के राष्ट्रपति चुनाव के लिए भी 2011 को न सही 2001 की जनगणना को आधार बनाया जाता. क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव में मत डालने वाले ज्यादातर जनप्रतिनिधि 2001 की जनगणना के आधार पर हुए परिसीमन के तहत निर्वाचित हुए हैं.

सोसायटी फॉर एशियन इंटीग्रेशन ने इस बाबत चुनाव आयोग के पास शिकायत की है. संविधान विशेषज्ञ सीके जैन तहलका को बताते हैं, ‘अब अगर  2001 की जनगणना को राष्ट्रपति चुनाव का आधार बनाना है तो इसके लिए संविधान में फिर से संशोधन करना होगा.’ चुनाव आयोग के पास भेजी गई शिकायत की एक प्रति लेकर जब कुछ लोग जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव से मिले तो उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की बैठक में वे इस मसले पर चर्चा करने के बाद इस मामले को उठाएंगे. सूत्र बताते हैं कि जब शरद यादव ने यह मामला राजग की बैठक में उठाया तो भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने कहा कि यह संशोधन तो अपनी ही सरकार ने किया था इसलिए इस मामले को लोगों के बीच उठाना ठीक नहीं है. इसके बाद राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन को लेकर भाजपा और जदयू दोनों अलग-अलग राह चल पड़े और यह मामला जहां था वहीं रह गया.

इस गड़बड़ी की वजह से हो रहे भेदभाव की ओर ध्यान दिलाते हुए सोसायटी फॉर एशियन इंटीग्रेशन ने अपनी शिकायत में चुनाव आयोग को लिखा है, ‘बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की अनदेखी करके दक्षिण भारतीय राज्यों के विधायकों के मतों को अधिक महत्व मिलना जनप्रतिनिधित्व की जमीनी हकीकतों के अनुरूप नहीं है.’

संविधान और राजनीति के जानकार मानते हैं कि राष्ट्रपति की चयन प्रक्रिया में मौजूद इस खामी का असली प्रभाव उस वक्त दिखेगा जब कभी दो उम्मीदवारों के बीच कांटे की टक्कर होगी. इस बार अगर प्रणब मुखर्जी के खिलाफ एपीजे अब्दुल कलाम चुनाव मैदान में उतर जाते तो शायद इसका असर दिख सकता था. क्योंकि कांटे की टक्कर की स्थिति में कुछ सौ वोट भी बने खेल को बिगाड़ने और बिगड़े खेल को बनाने की कुव्वत रखते हैं. ऐसी स्थिति पैदा होने पर वह उम्मीदवार फायदे में रहेगा जिसे दक्षिण भारत के राज्यों के विधायकों का समर्थन हासिल हो. जबकि उत्तर भारतीय राज्यों के विधायकों के समर्थन वाला उम्मीदवार घाटे में रहेगा. 

1971 की आबादी के हिसाब से राष्ट्रपति चुनाव में पड़ने वाले राज्यों के कुल मतों में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार की हिस्सेदारी क्रमशः 4.69, 15.25 और 7.65 फीसदी है. जबकि अगर 2001 की जनगणना को आधार बनाया जाए तो इन तीनों राज्यों के कुल मतों की संख्या तकरीबन दोगुनी हो जाएगी और हिस्सेदारी बढ़कर क्रमशः 5.5, 16.19 और 8.08 फीसदी हो जाएगी. नया आधार वर्ष तय होने के बाद घाटे में रहने वाले तीन प्रमुख राज्य होंगे तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश. 1971 की जनगणना के हिसाब से इन राज्यों की हिस्सेदारी क्रमशः 7.49,  3.87 और 7.91 फीसदी थी. जो 2001 की जनगणना के आधार पर घटकर क्रमशः 6.04, 3.09 और 7.39 फीसदी रह जाएगी.  

ऐसे चुने जाते हैं महामहिम

भारत के राष्ट्रपति का चुनाव सांसद और विधायक करते हैं. अलग-अलग राज्यों के विधायकों की वोट की कीमत अलग-अलग होती है. विधायकों के वोट की कीमत तय करने के लिए राज्य की कुल आबादी को हजार से विभाजित किया जाता है. इसके बाद जो संख्या आती है उसे राज्य के कुल विधायकों की संख्या से विभाजित  करने पर जो संख्या आती है वही संबंधित राज्य के एक विधायक के वोट की कीमत होती है. राज्यों के सभी वोटों को जोड़कर उसे संसद के दोनों सदनों के सदस्यों की संख्या से विभाजित करने पर जो संख्या आती है वह एक सांसद के वोट की कीमत होती है. राष्ट्रपति बनने के लिए कुल वोटों के आधे से अधिक वोट के कोटे को हासिल करना जरूरी होता है. सांसदों और विधायकों को राष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवारों को वरीयता देनी होती है. दो से अधिक उम्मीदवार होने की स्थिति में पहले दौर की गिनती में अगर किसी उम्मीदवार को जीतने के लिए जरूरी वोट नहीं मिलते तो सबसे कम वोट पाने वाले के दूसरी वरीयता के वोट बाकी सभी उम्मीदवारों में बंटेंगे और ऐसा तब तक होगा जब तक किसी को कोटा नहीं हासिल हो जाए. चयन प्रक्रिया में मौजूद इस खामी का असली प्रभाव उस वक्त दिखेगा जब कभी दो उम्मीदवारों के बीच कांटे की टक्कर होगी

एक तीर दो शिकार

पीए संगमा ने 2008 में जब तूरा लोकसभा सीट से इस्तीफा देकर विधानसभा चुनाव लड़ा था तब उनका एजेंडा साफ था. मेघालय की राजनीति में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को मजबूत करना और अपने बच्चों (पुत्र कॉनरेड और जेम्स व पुत्री अगाथा) का राजनीतिक भविष्य सुरक्षित करना. 2008 में एनसीपी ने क्षेत्रीय पार्टियों से गठजोड़ कर सरकार तो बनाई लेकिन यह गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चला. राज्य की बागडोर फिर कांग्रेस के हाथ में आ गई. तब संगमा तूरा विधानसभा क्षेत्र के विधायक तो बने रहे लेकिन राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर हाशिये पर पहुंच गए. हाल के दिनों तक जब राष्ट्रपति पद की दौड़ में वे शामिल नहीं हुए थे, ऐसा माना जा रहा था जैसे उनकी सारी योजना पर पानी फिर गया हो. लेकिन अब राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने के बाद राजनीतिक हलकों में  उनके इस कदम के कई निहितार्थ निकाले जा रहे हैं. 

वरिष्ठ पत्रकार और मेघालय के विधायक मानस चौधरी कहते हैं, ‘संगमा के राष्ट्रपति भवन की दौड़ में शामिल होने की खबर सुनते ही मेरी तरह बहुत सारे लोग अचरज में पड़ गए. अगले साल होने वाले चुनाव में संगमा परिवार को गारो हिल्स में ही कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. जबकि यह संगमा परिवार का गढ़ है. कांग्रेस शासन में यहां काफी बढ़िया काम हुआ हैं.’ शिलांग के एक बड़े तबके का मानना है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन में पिछले चुनाव से ज्यादा गिरावट दिख सकती है. दरअसल डॉ मुकुल संगमा के नेतृत्व में कांग्रेस ने राज्य में स्थिर सरकार दी है. अन्यथा 1998-2003 के दौरान मेघालय चार मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में छह सरकारें देख चुका है. 

अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए इस बार एनसीपी को खासी और जयंती हिल्स की छोटी पार्टियों के साथ गठजोड़ करना होगा. पर पिछले महीनों में मुख्यमंत्री मुकुल संगमा ने गारो हिल्स अपनी पकड़ काफी मजबूत की है. यही वजह है कि घर वापसी करने के बाद संगमा की चिंताओं में इजाफा हुआ है. क्षेत्रीय सहयोगी पार्टियों का भरोसेमंद नहीं होना भी इसकी एक वजह है. संगमा के बच्चे अभी तक वे अपने-अपने राजनीतिक क्षेत्र में प्रभाव नहीं जमा पाए हैं. संगमा को भी पता है कि वे अपनी लोकप्रियता का लबादा ओढ़कर लंबे समय तक काम नहीं चला सकते. मेघालय में एनसीपी के 13 विधायक हैं और 2013 में मेघालय के 60 सदस्यों वाली विधानसभा में बड़ी भूमिका निभाने के लिए एनसीपी को कम से कम 20 सीटों की दरकार होगी. संगमा का लोकप्रिय होना भी कुछ हद तक उनके लिए दिक्कत पैदा करता है. मानस चौधरी कहते हैं, ‘राजनीति में संगमा के कुछ करीबी मित्र उन्हें आदिवासियों की तुलना में तेज-तर्रार मानते हैं. यही वजह है क्षेत्रीय पार्टियां उन्हें विश्वसनीय नहीं मानतीं. इससे वे राज्य की राजनीति में पिछड़ते जा रहे हैं.’ 

राष्ट्रपति चुनाव की दौड़ में होने की वजह से फिलहाल संगमा और उनका परिवार सुर्खियों में हैं. भाजपा और दक्षिण से जयललिता का समर्थन उन्हें मिल रहा है. क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां शिरोमणि अकाली दल और उड़ीसा में पटनायक का समर्थन मिलने से उनकी स्वीकार्यता राष्ट्रीय स्तर की हो गई है. वे जानते हैं कि गारो के मतदाताओं की नजरें उनपर हैं. राष्ट्रपति चुनाव में आदिवासी और ईसाइयों के प्रतिनिधि के तौर पर खुद को पेश करना मेघालय में उन्हें फायदा पहुंचा सकता है. संगमा ने अपनी पार्टी एनसीपी को भी अच्छी तरह टटोल लिया है. एनसीपी का केंद्रीय नेतृत्व भी उत्तर-पूर्व में अपनी बुनियाद को हिलने नहीं देेगा. गारो हिल्स के एनसीपी के एक विधायक तहलका को बताते हैं, ‘उत्तर-पूर्व में संगमा के बगैर पार्टी को आगे बढ़ाना मुश्किल है. पार्टी का दरवाजा उनके लिए खुला रहेगा.’ राष्ट्रपति चुनाव के दौरान संभव है कि अब संगमा क्षेत्रीय आदिवासियों के मंच के विचार को आगे बढ़ाएं. इससे उन्हें नवीन पटनायक और यहां तक कि ममता बनर्जी से भी समर्थन मिल सकता है. उन्हें इस बात का भी भरोसा हो चुका है कि भाजपा खुद को धर्मनिरपेक्ष दिखाने के लिए उनके समर्थन में जरूर खड़ी रहेगी. 

मुख्यमंत्री डॉ मुकुल संगमा कहते हैं, ‘पीए संगमा राज्य की राजनीति में असफल हो चुके हैं. यह कदम उनकी हताशा के परिणामस्वरूप लिया गया जान पड़ता है. उनके निर्वाचन क्षेत्र गारो हिल्स में अराजकता का आलम पसरा हुआ है. गारो को छोड़ दें. संगमा या उनकी पत्नी के गांव चले जाएं तो देखेंगे कि उन्होंने अपने क्षेत्र को क्या दिया है.’ आरोप-प्रत्यारोपों को एक किनारे कर दें तो फिलहाल रायसीना की दौड़ में संगमा द्वारा लगाए गए जोर का असर 2013 में मेघालय के विधानसभा चुनाव पर पड़ने की संभावना तो है लेकिन इससे संगमा परिवार की राज्य की राजनीति में वापसी होगी यह कहना मुश्किल जान पड़ता है.

जीर्णोद्धार का बंटाढार

‘क्या आपने कभी बिना तराशा हुआ हीरा देखा है?’ 70 वर्षीय नवरतन कोठारी पूछते हैं. जिस अनगढ़ हीरे की बात कोठारी कर रहे हैं वह 18वीं सदी में आमोद-प्रमोद के लिए जयपुर में बनाया गया जल महल है. इसका ऐसा नाम पड़ा मान सागर नाम की देश की सबसे बड़ी मानव निर्मित झीलों में से एक के बीचोंबीच इसके बने होने की वजह से. जब तक कोठारी ने इसे नहीं तराशा था तब तक जल महल और 17वीं सदी में बनी झील शहर भर की गंदगी को ठिकाने लगाने की जगह थे. उस वक्त यहां पक्षियों के बजाय सुअर घूमते पाए जाते थे. छह साल की कड़ी मेहनत और साफ-सफाई के बाद, वर्ष 2010 में मान सागर झील 40 से ज्यादा प्रजाति के पक्षियों के प्रवास की जगह बन गई. यहां के साफ पानी में तैरती हुई बतखें देखी जा सकती थीं और कछुए भी. जलमहल सही मायनों में महल बन चुका था. पहले की तरह भव्य और सुंदर.

मगर आपराधिक षड्यंत्र, धोखाधड़ी और अनमोल विरासत को हड़पने के लिए दस्तावेजों की जालसाजी करने का आरोप लगाकर तीन याचिकाकर्ता, नवरतन कोठारी को अदालत में ले गए. राजस्थान पुलिस ने तीन बार इन आरोपों की जांच की और तीनों बार राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष किसी भी गड़बड़ी की आशंका से इनकार कर दिया. मगर अदालत ने न केवल इसे नहीं माना बल्कि कोठारी और राजनेताओं के बीच मिलीभगत को न देख पाने के लिए पुलिस को फटकार भी लगाई. 16 नवंबर, 2011 को अदालत ने कोठारी के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी कर दिया. इस साल 17 मई को मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्रा ने कोठारी की कंपनी द्वारा किए गए काम को फिर पहले वाली स्थिति में पहुंचाने का फैसला सुनाया. दूसरे शब्दों में कहें तो अब हर तरह की गंदगी को सीधे ही झील में डाला जा सकता था. मगर 25 मई को सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाई कोर्ट के आदेश पर स्टे लगा दिया और कोठारी की संस्था जल महल रिसोटर्स प्रा लि को मान सागर और जल महल से संबंधित उसके काम जारी रखने की इजाजत भी दे दी. कोठारी ने कुछ गलत किया हो या नहीं मगर उनकी कहानी के इर्द-गिर्द विकास, इतिहास, संस्कृति और संरक्षण से जुड़े कई बुनियादी सवाल बुने हुए हैं – क्या हम अपनी ऐतिहासिक धरोहर की कीमत समझते हैं? क्या हम अपने शहरों को कंक्रीट, लोहे और शीशे के जंगलों में तब्दील कर उन्हें एक ही जैसा बना देना चाहते हैं? या फिर हम पुरानी तहजीब, रवायत और ऐतिहासिक विरासत वाले लखनऊ, हैदराबाद, दिल्ली और जयपुर सरीखे शहरों की पहचान को बनाए रखना चाहते हैं?

1596 में राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा था. ऐसा दुबारा न हो ऐसा सोचकर आमेर के राजा मान सिंह प्रथम ने 1610 में मान सागर झील बनाने के लिए दर्भावती नदी पर एक बांध बनाया था. राजा जय सिंह ने 1727 में किलानुमा शहर जयपुर की स्थापना की. इसके बाद उन्होंने 1734 में अपने आमोद-प्रमोद के लिए जल महल का निर्माण करवाया. आजादी के बाद झील और महल राजस्थान सरकार की संपत्ति होकर धीरे-धीरे तबाह होते गए. 1962 तक आते-आते जयपुर शहर की जरूरतें इतनी बढ़ीं कि शहर की तमाम गंदगी दो नालों – नागतलाई और बृह्मपुरी – की मदद से मान सागर झील में डाली जाने लगी. झील के किनारे बसी हजरत अली कॉलोनी में रहने वाले रफीक अहमद उस समय की हालत बयान करते हुए कहते हैं, ‘जब मेरी बेटी का निकाह 21 बरस पहले हुआ था तब मेहमानों का कहना था कि खाने-पीने से अच्छा होता कि आप हमें इत्र दे देते.’

लेकिन हर कोई खुश नहीं था. जब यह महल पर्यटकों की पहली टोली की बाट जोह रहा था. ठीक उसी वक्त कुछ लोग इससे नाराज हो गए.

जल महल की दशा को सुधारने के प्रयासों की शुरुआत 1999 में तब हुई जब राज्य सरकार ने पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी के जरिए ऐसा करने की सोची. इसमें सरकार की भूमिका राष्ट्रीय झील विकास फंड के 25 करोड़ रुपये के जरिए झील को साफ करने की थी. निजी संस्था को जल महल का पुनरुद्धार करना था और झील व जल महल दोनों के रखरखाव का सालाना खर्च भी वहन करना था. इसके एवज में कंपनी को पास की 100 एकड़ जमीन पर्यटक केंद्र विकसित करने के लिए दी जानी थी जिसके एक छोटे हिस्से पर वह निर्माण कार्य कर सकती थी. नीलामी से पहले की बैठक में इस तरह के काम का लंबा अनुभव रखने वाले नीमराणा समूह जैसी कई कंपनियां शामिल हुई थीं. लेकिन जैसा कि नीमराणा के संस्थापक फ्रैंकिस वैक्जर्ग का कहना था कि इस तरह की परियोजनाओं पर काम करना काफी परेशानी भरा हो सकता है. ‘यह बेहद जटिल और खर्चे वाला काम था और हमारे पास झील को साफ करने के लिए जरूरी धन भी नहीं था. अपने अनुभवों से हम जानते हैं कि पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी में प्राइवेट का पी तो काम करता है मगर पब्लिक का पी ठीक से काम नहीं करता.’

इसलिए वे और इसमें शुरुआती रुचि दिखाने वाली ज्यादातर कंपनियां दौड़ से अपने आप ही बाहर हो गईं. आखिर में केवल तीन कंपनियां बच गईं और कोठारी के नेतृत्व वाली केजीके कंसोर्टियम ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से 39 फीसदी ज्यादा बोली लगाकर नीलामी में बाजी मार ली. कंपनी ने नीलामी के लिए जरूरी न्यूनतम राशि की डेढ़ गुना – 2.5 करोड़ – दी थी. केजीके कंसोर्टियम कई कंपनियों का एक समूह था जिससे द जल महल रिजॉर्ट्स प्रा लि बनी. कोठारी की टीम को जल्दी ही अंदाजा हो गया कि पब्लिक के पी के काम न करने की वैक्जर्ग की बात सही थी. झील फंड के 25 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद जब सरकार ने उन्हें 2004 में झील और जल महल सौंपे तो झील की हालत कमोबेश पहले जैसी ही थी. उस वक्त सरकार का कहना था कि अगर कोठारी झील के लिए कुछ और करना चाहते हैं तो उन्हें ऐसा अपने पैसों से करना होगा. इसके बाद परियोजना निदेशक राजीव लुंकड़ ने एक ऐसे व्यक्ति की तलाश करनी शुरू की जो मानव निर्मित झीलों की दशा सुधारना जानता हो. उनकी खोज उन्हें जर्मन इंजीनियर हैरल्ड क्राफ्ट के पास ले गई. एक नजर झील पर डालने के बाद क्राफ्ट का कहना था, ‘ऐसा करना असंभव है. आप लोग पागल हैं जो इसे साफ करने की कोशिश कर रहे हैं.’ मगर क्राफ्ट ने झील का काम करना स्वीकार कर लिया. पहले पहल क्राफ्ट की टीम ने दो नालों को आपस में जोड़ने का फैसला किया ताकि सारी गंदगी एक जगह इकट्ठी की जा सके. इस पानी को ट्रीटमेंट के बाद एक सेडीमेंटेशन टैंक में भेजा गया जिसे झील के ही एक कोने में बनाया गया था. यहां से निकला पानी झील में गया. लेकिन यह काफी नहीं था. 250 एकड़ में फैली झील 1960 के बाद से लगातार गंदगी सोखती आ रही थी इसलिए इसे ठीक से साफ करने के लिए इसे पूरी तरह से खाली करने की आवश्यकता थी.  इसके बाद जब पहली बारिश हुई तो आश्चर्यजनक नतीजे देखने को मिले. जल महल रिसॉर्ट के अधिकारियों ने 2007 की गर्मियों में झील के पानी की जांच विशेषज्ञों से करवाई. जांच के नतीजों में सामने आया कि टैंक में जाने से पहले जहां पानी में ऑर्गेनिक कचरे की मात्रा 450 बीओडी (बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड) थी वहीं बाहर निकलने वाले पानी में यह मात्र 25 बीओडी ही रह गई थी. ई-कोलाई बैक्टीरिया की संख्या में भी काफी कमी आई थी. साल 2000 में पानी में प्रति यूनिट इसकी संख्या जहां 24 लाख थी वहीं 2009 से 2011 के बीच यह प्रति यूनिट केवल 7,000 रह गई. मान सागर के आसपास रहने वाले लोग अब खुद को शान से जल महल का पड़ोसी बताने लगे थे.

इस बीच टीम अब-भी जल महल के पुनरुद्धार में व्यस्त थी. जयपुर के इतिहास पर काफी विस्तार से लिख चुके इतिहासकार गाइल्स टिलोस्टन इस पर रोशनी डालते हैं. ‘अगर आप किसी भवन को जिंदा करना चाहते हैं तो आपको उसे पूरी तरह से बदलना होगा. आप समय को उल्टा नहीं चला सकते.’ इसका मतलब था भवन की मूल संरचना को सुरक्षित रखते हुए बेहद चतुराई से इसके नये उपयोग ढूंढ़ना. बस, जल महल की आंतरिक सज्जा आनंद में रची-बसी पिछली दो सदियों की कलाकृतियों की जीती-जागती यात्रा बन गई. कला पक्ष का जिम्मा विभूति सचदेव के सिर था. उन्हें इसमें जीर्णोद्धार विशेषज्ञ मिशेल अब्दुल करीम क्राइट्स का भी सहयोग मिला. सचदेव बताते हैं कि किस तरह से उन शिल्पकारों को इस योजना के साथ जोड़ा गया जिनमें से ज्यादातर को अब तक सिर्फ टूट-फूट दुरुस्त करने का काम ही मिलता था. शिल्पकारों को संभालने वाले दीपेंद्र सिंह, यह सब कैसे हुआ, इस बारे में बताते हुए भावुक हो जाते हैं. समय और अनदेखी के कारण फर्श बुरी तरह टूटा-फूटा था, छतें उखड़ी हुई थीं और दीवारों की हालत बेहद खराब थी. इन जगहों पर बढ़िया संगमरमर और जालियां लगाई गईं जिससे भवन फिर अपने पुराने सौंदर्य में दमकने लगा. सबसे बड़ी चुनौती थी महल के बागीचे के पुनरुद्धार की जो पूरे महल की शोभा था. इसकी जिम्मेदारी क्राइट्स के सिर पर थी. उन्होंने बाग को सजाने के लिए सफेद खुशबूदार फूलों – चमेली, चंपा और श्वेत कमल – को लगाने का फैसला किया. इसका नाम रखा गया चमेली बाग. बागीचा अठारहवीं सदी के भारत की छाप है. इसमें फव्वारों और रोशनी के शानदार इस्तेमाल से भी इसे नाटकीय बनाने की कोशिश की गई है. 

रोशनी का काम ध्रुवज्योति घोष के जिम्मे था. इन्हीं की कंपनी ने दिल्ली के हुमायूं मकबरे और सिडनी के ओपेरा हाउस की लाइटिंग की है. सूर्यास्त के बाद उनके द्वारा की गई प्रकाश व्यवस्था जल महल को एक अलग ही जादुई आकर्षण देती है. बागीचे का काम खत्म होने से पहले ही इसने बीबीसी द्वारा प्रायोजित पुस्तक अराउंड द वर्ल्ड इन एट्टी गार्डेन्स में अपनी जगह बना ली. झील को साफ कर लेने के बाद परियोजना के निदेशक राजीव लुंकड़ एक दिन दीपेंद्र सिंह के पास जा पहुंचे. वह शुक्रवार का दिन था. उन्होंने एक असंभव सी मांग रख दी, ‘मुझे सोमवार तक इस झील में एक नाव चाहिए?’. दीपेंद्र तुरंत बनारस के लिए रवाना हो गए. वहां उन्होंने एक नाव वाले – आशु – को अपनी नाव के साथ जयपुर आने के लिए बड़ी मुश्किल से मनाया. चार सदियों में हुए नुकसान की भरपाई छह सालों में कर ली गई थी. लेकिन हर कोई खुश नहीं था. जब यह महल पर्यटकों की पहली टोली की बाट जोह रहा था ठीक उस वक्त कुछ लोग इससे नाराज हो गए. 30 साल के भागवत गौर उच्च न्यायालय में वकालत करते हैं. उनकी नाराजगी की वजह यह बनी कि आखिर कैसे प्राकृतिक संसाधनों में शुमार की जाने वाली झील की जमीन एक निजी डेवलपर को दे दी गई. और वह भी बहुत कम पैसे में. गौर का मानना था कि ठेका देने की पूरी प्रकिया ठीक नहीं थी क्योंकि यह झील संरक्षित वन क्षेत्र के बीच में पड़ती है और परियोजना के लिए ठेका देते वक्त इससे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन नहीं किया गया था. गौर का आरोप था कि सरकार ने कोठारी की कंपनी को 100 एकड़ जमीन लीज पर देने के लिए झील के 13 बीघा क्षेत्र का भराव करवा दिया था. जब गौर ने इस संबंध में 2010 में राजस्थान उच्च न्यायालय में याचिका दायर की तो उस वक्त इस 100 एकड़ जमीन की कीमत 3,500 करोड़ रुपये थी. उनके मुताबिक किराये के तौर पर इससे हर साल 2.5 करोड़ रुपये सरकार को मिलना ऊंट के मुंह में जीरे के समान है.

जल महल संरक्षित स्मारक नहीं है और यह उपेक्षा का शिकार था. ऐसे में कोई भी निजी कंपनी बगैर किसी फायदे के इसकी सेहत सुधारने का काम क्यों करेगी?

 गौर का यह दावा भी था कि गाद का टैंक लगाने से झील का आर्किटेक्चर और इकोलॉजी बर्बाद हो गई है. ठेके के दस्तावेजों में कहा गया था कि इस परियोजना का काम या तो सरकारी या फिर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी को दिया जाएगा. लेकिन कोठारी की कंपनी इन दोनों श्रेणियों में नहीं आती. इसका मतलब यह हुआ कि कानूनों का उल्लंघन करके दिया गया यह ठेका अवैध था. हालांकि, कोठारी के वकीलों ने इन दावों का अदालत में विरोध किया जिसका समर्थन राज्य सरकार ने भी किया. राज्य सरकार की कई एजेंसियों पर भी इस गड़बड़ी में शामिल होने का आरोप लगा है. इनका तर्क था कि मान सागर झील संरक्षित वन क्षेत्र में नहीं आती है और इस परियोजना के लिए सभी जरूरी मंजूरियां ले ली गई हैं. इन एजेंसियों और कोठारी के वकील का यह भी कहना था कि 1975 में जब जयपुर का मास्टर प्लान बना था तो उस वक्त भी इस झील को सार्वजनिक-निजी भागीदारी वाली श्रेणी में रखा गया था. अगर सरकार ने लीज पर देने वाली जमीन को 100 एकड़ बनाने के लिए 13 बीघा जमीन का अधिग्रहण किया तो यह देखना चाहिए कि अब यह झील पहले की तुलना में कहीं ज्यादा क्षेत्र में फैल गई है. राजस्व विभाग के दस्तावेज बताते हैं कि पहले के 250 एकड़ की तुलना में यह झील अब 300 एकड़ से ज्यादा में है. कोठारी के वकील इस बात को भी काटते हैं कि उन्हें यह जमीन कौड़ियों के भाव सरकार ने दी थी. वे कहते हैं कि जब 2003 में कंपनी को ठेका मिला था तो उस वक्त इस जमीन की कीमत 900 करोड़ रुपये थी न कि 3,500 करोड़ रुपये. इसके अलावा इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कंपनी को सिर्फ छह फीसदी जमीन पर निर्माण कार्य करने की छूट है. इसका मतलब यह हुआ कि जितनी जमीन पर उन्हें निर्माण की छूट मिली है उसकी वास्तविक कीमत 50 करोड़ रुपये से अधिक नहीं है.

इसी तरह से वे याचिकाकर्ता के इस तर्क को भी काटते हैं कि झील से सटी किसी संपत्ति को लीज पर नहीं दिया जा सकता है. कोठारी की टीम कहती है कि जल महल संरक्षित स्मारक नहीं है और यह उपेक्षा का शिकार था. ऐसे में कोई भी निजी कंपनी बगैर किसी फायदे के इसकी सेहत सुधारने का काम क्यों करेगी? इस पूरे काम को अंजाम देने में कोठारी की कंपनी को 80 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े. सरकार ने भी झील से सटी जमीन को बेचने के बजाय यह रास्ता चुनना बेहतर समझा कि हर साल एक निश्चित रकम लेकर इसे 99 साल के लिए लीज पर दे दिया जाए. इन लोगों का यह भी कहना है कि गाद हटाने वाला ये टैंक झील की गंदगी को निकालने और इसकी इकोलॉजी को ठीक करने के मकसद से लगाया गया है न कि किसी और वजह से. ये टैंक झील के पूरे झेत्र के सिर्फ पांच फीसदी में लगा हुआ है. इसके अलावा सरकार ने साझेदारों वाली कंपनी को नीलामी में शामिल होने की अनुमति इसलिए दी क्योंकि इस कंपनी की वित्तीय व्यवस्था बिलकुल दुरुस्त थी और इससे निविदा की प्रक्रिया में प्रतिस्पर्धा और बढ़ गई. हालांकि, यह बात अलग है कि कोठारी की टीम की तरफ से दिए गए तर्कों से उच्च न्यायालय संतुष्ट नहीं हुआ. अदालत ने साफ तौर पर कहा कि यह ठेका देने का तरीका गलत और असंवैधानिक था और ऐसा जनता के भरोसे को तोड़कर किया गया. लेकिन अगर कोई सिर्फ जल महल मामले की कानूनी पेंचों में ही फंसा रहेगा तो वह एक जरूरी बिंदु को समझ नहीं पाएगा. मान सागर झील और जल महल के जीर्णोद्धार की राह में सबसे बड़ी बाधा रही है राजनीति. इस पूरी कहानी के इस हिस्से की तस्वीर उतनी साफ नहीं है जितनी लगती है. सबसे पहले इस सवाल का जवाब तलाशना जरूरी है कि याचिका दायर करने वाले लोग कौन हैं और आखिर क्यों अचानक भागवत गौर को यह लगा कि जीर्णोद्धार के मुद्दे पर उन्हें कानूनी लड़ाई लड़नी चाहिए? तहलका से बातचीत में गौर ने इस बात को स्वीकार किया कि जीर्णोद्धार होने के बाद उन्होंने न तो झील में कदम रखा है और न ही जल महल में. आखिरी बार वे वहां तब गए थे जब वे पढ़ाई करते थे. झील और महल की सेहत सुधारने का काम चार साल चलने के बाद 2010 में गौर को इस बात का ख्याल आया कि कुछ गड़बड़ हो रहा है. वे कहते हैं, ‘धरोहरों को संरक्षण के लिए निजी क्षेत्र को नहीं देना चाहिए. सिर्फ जल महल ही नहीं बल्कि अलवर के नीमराणा किले को भी निजी कंपनी को दे दिया गया है. मैं इसके भी खिलाफ हूं.’

गौर ने एक सोसाइटी का गठन किया जिसका नाम रखा धरोहर बचाओ समिति (डीबीएस) और इसे 2010 के मार्च महीने में पंजीकृत कराया. इसके दो महीने बाद उन्होंने राजस्थान उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की. ऐसा लगता है कि याचिका दायर करने से मात्र दो महीने पहले ही उनकी इस मामले में दिलचस्पी जागी. गौर कहते हैं कि सोसाइटी की अनौपचारिक बैठकें पहले से हो रही थीं. लेकिन जब मामला जल महल का आया तो उन्हें लगा कि संस्था का पंजीयन करा लेना चाहिए. क्या उन्होंने यह मामला उठाने से पहले किसी पर्यावरणविद या झील विशेषज्ञ से बातचीत की थी? एक अजीबोगरीब जवाब मिलता है कि कुछ चीजों पर से पर्दा नहीं हटाया जा सकता. याचिका दायर करने के कुछ दिनों बाद गौर और डीबीएस के अध्यक्ष वेद प्रकाश शर्मा के बीच विवाद पैदा हो गया. गौर ने शर्मा पर तरह-तरह के आरोप लगाते हुए उन्हें संगठन छोड़ने के लिए कहा. इसके बाद अलग होकर शर्मा ने हेरिटेज कंजर्वेशन सोसायटी बनाई और इस परियोजना के खिलाफ एक अलग याचिका दायर की. इन दोनों याचिकाओं के दायर होने के साल भर बाद एक तीसरी याचिका प्रोफेसर केपी शर्मा ने दायर की. वे राजस्थान विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं. उन्होंने अपनी याचिका में यह कहा कि जीर्णोद्धार के बाद झील का खारापन खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. उनकी रिपोर्ट अब तीनों याचिकाओं का हिस्सा बन गई है.

वसुंधरा राजे और उनके दफ्तर को इस बात का बिल्कुल अंदाज नहीं था कि यह ईमेल उन्हें सीधे-सीधे याचिकाकर्ताओं से जोड़ देगा

वनस्पति विज्ञान के जानकार कहते हैं कि यह एक तथ्य है कि शहरी इलाके की झीलों का खारापन समय के साथ बढ़ता ही है. मान सागर झील शहर के बीचोबीच है और यहां का भूजल काफी प्रदूषित है. केपी शर्मा का यह तर्क वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है कि खारापन बढ़ने से एक दिन यह झील पूरी तरह से सूख जाएगी. जर्नल ऑफ हाइड्रोलॉजिकल रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट में प्रकाशित एक अध्ययन भी शर्मा के दावों पर पानी फेरता है. जल महल रिसॉर्ट से मिले और कुछ अपने आंकड़ों के आधार पर वैज्ञानिक एबी गुप्ता और उनके तीन सहयोगियों ने यह निष्कर्ष निकाला है, ‘झील के पुनरुद्धार के लिए अपनाए गए तरीकों जैसे कि ट्रीटमेंट प्लांट से कचरा निकालना और सेडीमेंटेशन टैंक की व्यवस्था से झील के पानी की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है.’ जल महल मामले के पीछे जारी राजनीति का सुराग याचिकाकर्ताओं की पृष्ठभूमि के साथ-साथ याचिका में उनके द्वारा उठाए बिन्दुओं से भी मिलता है. अपनी याचिका में उन्होंने साफ बताया है कि कोठारी का सबसे बड़ा अपराध यह था कि उन्हें अशोक गहलोत की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार का समर्थन प्राप्त था. याचिका में इस बात को रेखांकित किया गया है कि लीज के कागजों पर गहलोत सरकार का कार्यकाल समाप्त होने से ठीक एक दिन पहले दिसंबर 2003 में हस्ताक्षर किए गए थे. उसके बाद आई भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान झील के आसपास की 100 एकड़ ज़मीन पर प्रस्तावित तमाम विकास योजनाओं पर कभी दस्तखत नहीं हुए.  यह भी कहा जाता है कि कोठारी को प्रोजेक्ट दिलवाने में कल्पतरु नामक गहलोत की करीबी फर्म की मुख्य भूमिका रही. नतीजतन, एक ऐसा महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट जिसे जयपुर के एक हिस्से को उसे ही लौटाने के लिए शुरू किया गया था, राजनीतिक मल्लयुद्ध में फंस गया. 

यह बात सही है कि गहलोत सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिन लीज पर दस्तखत किए हुए थे. मगर वसुंधरा राजे की सरकार ने लगभग 10 महीने तक इस प्रोजेक्ट की समीक्षा भी तो की थी. इसके बाद, 27 अक्टूबर, 2004 को लीज और लाइसेंस के कागज़ातों पर दस्तखत किए गए. दोनों नालों को मिलाने और झील की गाद हटाने के लिए पर्यावरण मंत्रालय और राज्य के शहरी विकास सचिव ने भी अपनी मजूरी दे दी थी. जब मरम्मत का काम लगभग पूरा हो गया और कोठारी ने झील के आसपास की ज़मीन को विकसित करके कुछ मुनाफा कमाना चाहा, तब उन्हें तुरंत अदालती समन भेज दिए गए. हालांकि मरम्मत का काम भाजपा कार्यकाल में भी चलता रहा, पर झील के सामने बनाए जाने वाले होटल, रेस्तरां और क्राफ्ट बाज़ार अनुमति मिलने की बाट जोहते रहे.  इन सभी योजनाओं को सन 2009 में कांग्रेस सरकार के आते ही स्वीकृति मिल गयी. इस मुद्दे पर राज्य विधानसभा में काफ़ी बहस भी हुई थी.  फरवरी, 2011 के विधानसभा सत्र के दौरान राजस्थान पर्यटन मंत्री बीना काक ने जल महल विकास योजनाओं को सन 2006 से 2008 तक रोकने के पीछे राजे सरकार के मंतव्यों पर सवाल उठाये थे.

उन्होंने भाजपा सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि जल महल से जुड़ी सभी विकास योजनाएं इसलिए रोक दी गयीं कि प्रोजेक्ट में एक गैरकानूनी भागीदारी की मांग को पूरा नहीं किया गया था.इन सवालों ने ही तहलका को भी याचिकाकर्ताओं और वसुंधरा राजे सरकार के बीच संभावित संबंधों को टटोलने के लिए मजबूर किया.

याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने बताया कि जल महल के मुद्दे पर उनकी पूर्व-मुख्यमंत्री से कभी कोई मुलाकात ही नहीं हुई है. जब तहलका ने इस बारे में वसुंधरा राजे से बात की तो उन्होंने कहा, ‘मेरा ऑफिस आपको मामले से संबंधित सभी दस्तावेज़ भेज देगा. आप पहले उन्हें पढ़िए, फिर हम बात कर सकते हैं.’ उनके प्रेस सचिव ने तहलका को जलमहल से सम्बंधित दस्तावेजों का ईमेल भेजा. इस ईमेल में ‘जल महल समरी’ नामक एक दस्तावेज़ भी मौजूद था. राजे और उनके दफ्तर को इस बात का बिल्कुल अंदाज नहीं था कि यह ईमेल उन्हें सीधे-सीधे याचिकाकर्ताओं से जोड़ देगा. यह ईमेल राजे के ईमेल अकाउंट से फॉरवर्ड किया गया था, जहां उसके मूल सेंडर के तौर पर भागवत गौर के वकील अजय जैन का नाम था. तहलका ने जब इस बारे में पूछताछ की तो राजे के प्रेस सचिव का कहना था, ‘आप जो चाहें वह लिख सकती हैं पर हमारा याचिकाकर्ताओं से कोई संबंध नहीं है.’ एक कहानी जिसकी शुरुआत मान सागर और जल महल के जीर्णोद्धार के लिए हुई थी, अब राजनीतिक रंगमंच में तब्दील हो चुकी है. कोठारी के साथ-साथ, उन तीन सरकारी कर्मचारियों को भी अपराधी और षड्यंत्रकारी घोषित कर दिया गया जिन्होंने जल महल के जीर्णोद्धार से संबंधित कागजों पर हस्ताक्षर किए थे. लेकिन सरकार और कोठारी को इस कहानी का खलनायक मानना पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और इसके जरिए हो सकने वाले ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं.

कंज़र्वेशन आर्किटेक्ट अनिशा शेखर मुखर्जी बताती हैं कि जंतर-मंतर के संरक्षण पर काम करते वक्त उन्हें भी कोठारी जैसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा था. अपने अनुभव बताते हुए वे कहती हैं, ‘हर बार जब भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का मुखिया बदलता, हमें हमारा पूरा काम उसे नए सिरे से दोबारा समझाना पड़ता था.’  आगा खान ट्रस्ट प्रोजेक्ट के निदेशक रत्नीश नंदा कहते हैं, ‘हम आज भी अपनी धरोहर को एक बोझ की तरह देखते हैं,  निधि की तरह नहीं. उदाहरण के लिए, अगर आगरा यूरोप में होता, तो यहां के लोगों का जीवन स्तर काफी बेहतर होता. जबकि अभी इसका उल्टा है.’ इसी बीच कन्सेर्वेशनिस्ट गुरमीत राय एक महत्वपूर्ण बिंदु की तरफ ध्यान खींचते हैं. कल्चरल रिसोर्स कंजर्वेशन इनिशिएटिव के निदेशक के तौर पर कार्य कर रहे राय बताते हैं कि दुनिया भर में जितनी भी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप  होती हैं वह सब उस देश की धरोहरों को बचाने के लिए विकसित की गई एक सोच का परिणाम होती हैं. वे कहते हैं, ‘भारत में तो हमारे पास ऐसा कोई रोड मैप ही नहीं है. मैं भी पंजाब के नाभा फोर्ट वाले प्रोजेक्ट के दौरान अदालती कार्यवाहियों में उलझ गया था. असल में वह प्रोजेक्ट नाभा के महाराज के पड़पोते ने शुरू करवाया था पर मेरे खिलाफ याचिका दायर करने वाले व्यक्ति को लगा कि मैं किले को एक मॉल में तब्दील करने जा रहा हूं. लेकिन पंजाब हाई-कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा कि धरोहर को बचाने के लिए निजी क्षेत्र का इस्तेमाल करना अच्छी बात है.’ अब सुप्रीम कोर्ट इस बात का निर्णय करेगा कि कोठारी ने जल-महल का जीर्णोद्धार करके सही किया या गलत. या फिर उन्होंने 80 करोड़ रुपये खर्च करके जल महल और उसके आसपास के क्षेत्र को जिस तरह सजाया है, उससे एक शहर के तौर पर जयपुर को कुछ वापस मिलता है या नहीं.  या फिर गौर जैसे लोगों की सीवेज के नालों में झील को वापस खोलने की मांग कितनी जायज है.