एक ‘टैं टैं टों टों’ लड़की जिसे संगीत से चित्र बनाने हैं

वह एक लड़की थी, स्कूल बस के लंबे सफर में चेहरा बाहर निकालकर गाती हुई, ‘रंगीला’ का कोई गाना और इस तरह उसके संगीत की धुन पर कोर्स की कविताएं याद करती हुई, जिन्हें स्कूल के वाइवा एग्जाम में सुना जाता था. वाइवा पूरी क्लास के सामने होता था. ऐसे ही एक दिन वह टीचर के पास खड़ी थी और कविता उस संगीत से इतना जुड़ गई थी कि पहले उसे उसी धुन पर कविता गुनगुनानी पड़ रही थी और तभी बिना धुन के टीचर के सामने दोहरा पा रही थी. ‘याई रे’ की धुन टीचर ने सुनी तो उन्होंने डांट दिया. लेकिन घर में ऐसा नहीं होता था. कभी कोई मेहमान आता, कोई फंक्शन होता या पिकनिक पर जाते तो गाना सुनाने को कहा जाता था. गाते हुए अच्छे से चेहरे और हाथों की हरकतें कर दो तो घरवाले बहुत खुश होते थे- अरे, आशा से अच्छा गाया है तुमने यह गाना. और वह कहती है कि अच्छा गाती भी थी. मगर आप उसके कहने पर मत जाइए. एक फिल्म आई है ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’. उसमें सुनिए कि कैसे वह चुनौती और बदले से भरा ‘कह के लूंगा’ गाती है, और उसी के साथ बच्चों-सी प्यारी आवाज में ‘टैं टैं टों टों’. उसका नाम स्नेहा खानवलकर है. ऐसी मराठी संगीतकार, जो ‘जिया तू बिहार के लाला’ कंपोज करती है और आप अब भी कहते हैं कि मोहब्बत, दूसरों की इज्जत और बराबरी संविधान के रास्ते से आएगी. 

लेकिन फिलहाल दुनिया बदल डालने की बड़ी-बड़ी बातें करने के बजाय हमें अपनी कहानी पर लौटना चाहिए, जहां स्नेहा से गाना गाने के लिए कहा गया है और वह अच्छी बच्ची की तरह गरदन झुकाकर बैठ गई है, दोनों हथेलियां गोद में रखकर, और गाना शुरू कर रही है. गाने में उसका हमेशा अलग जोन में आ जाना इसलिए भी है कि उसे हमेशा लगता रहा कि जो परंपरागत अच्छी मानी जाने वाली आवाज है, लता, आशा, चित्रा या कविता की, या सुनिधि की, वह उससे बहुत दूर है. यूं तो बचपन से ही तारीफ मिलती थी और कहा जाता था कि सिंगर बनो तुम, लेकिन उसे कहीं न कहीं लगता रहा कि उसकी आवाज को स्वीकार नहीं किया जाएगा. और उसे दूसरों के हिसाब से ढलने और उन्हें खुश करते रहने में जिंदगी नहीं बितानी थी. लेकिन जिंदगी बितानी कैसे थी? एक मध्यवर्गीय मराठी परिवार था. पिता इंजीनियर थे, भाई भी इंजीनियर. स्नेहा की ड्रॉइंग अच्छी थी तो कहते थे कि इसे आर्किटेक्ट बनाएंगे. पर स्नेहा तो म्यूजिक को लेकर ‘टची’ होती जा रही थी. सब मेटल सुन रहे हैं तो उसे क्यों नहीं समझ आ रहा? ‘संगीत मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ जैसी यह भावना ही उसे संगीत में और डुबोती गई. 

उसकी एक और खासियत थी कि जब भी बातें करती थी, उनमें ध्वनियां बहुत स्वाभाविक ढंग से आती थीं. मोटरसाइकिल पर कहीं जाने की बात करनी हो तो उसके ‘ढक ढक ढर्र’ स्टार्ट होने की आवाज के बिना पूरी नहीं होती थी. किसी अंग्रेजी गाने के बोल नहीं आते थे तो ‘टैंग टैंग टिंग टिंग’ या ऐसी ही किसी मजेदार ध्वनि से रीप्लेस करके गाती रहती थी. उसे इसमें मजा आता था कि कितने सारे वाद्ययंत्रों की आवाजों की हम नकल करते हैं, कर सकते हैं और तब वह नकल अलग ही आवाज बन जाती है और उस इंस्ट्रूमेंट का चरित्र ही बदल देती है. तब उसे नहीं पता था कि उसे कुछ साल बाद ‘साउंड ट्रिपिंग’ नाम का एक टीवी शो करना है, जिसमें वह भारत के गली-मोहल्लों-गांवों-खेतों-मैदानों-पहाड़ों में जाकर आवाजें ढूंढ़ेगी और उनसे संगीत रचेगी. उसने पंजाब की प्रतिभावान नूरा बहनों के साथ मिलकर और उसमें स्पोर्ट्स कमेंट्री मिलाकर तुंबी का ‘टुंग टुंग’ बनाया. एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी की आवाजों से ‘स्क्रैप रैप’ बनाया और अफ्रीकन मूल की कर्नाटक में रहने वाली एक जनजाति के कोंकणी गीत से ‘येरे येरे’ बनाया. उसके गानों में झाडू की आवाजें भी आईं, कपड़े धोने की आवाजें भी और मुर्गे की बांग भी.  उसने ट्रक की सारी आवाजों से ‘ट्रकां वाला गीत’ रचा और वही ‘कु कु कु कु फुतर फू’ जैसे कोरस लाई. 

लेकिन तब वह दसवीं में थी और ठीक से नहीं जानती थी कि उसे क्या करना है. उन्हीं दिनों उसका परिवार मुंबई शिफ्ट हो गया. वे तो शायद बेटी को इंजीनियर या आर्किटेक्ट बनते देखना चाहते थे, लेकिन मुंबई में बेटी ने चारों तरफ मास कम्युनिकेशन और एनिमेशन जैसी चीजों का शोर देखा. पढ़ाई के साथ एनिमेशन का कोर्स करने लगी. लेकिन उसे उन एनिमेटर्स की तरह नहीं बनना था जो एक कंप्यूटर के सामने स्थिर बैठे-बैठे, चाइनीज फूड खाते-खाते पूरा दिन गुजार देते थे. उसे वहां घुटन होने लगी. तब एनिमेशन से निकलकर वह ‘इश्क विश्क’ के आर्ट डायरेक्टर उमंग कुमार की इंटर्न बन गई. वे बारहवीं की छुट्टियों के दिन थे. वहां वह सबसे छोटी थी और उसे कोई गंभीरता से नहीं लेता था. उसका इतना महत्व तो था कि वह वहां काम कर रहे मजदूरों से अच्छे से कम्युनिकेट कर लेती थी और काम करवा लेती थी. लेकिन वहां लड़की के छाता लेकर आने के सीन के लिए छाते को पोंछते-सजाते हुए वह जान गई थी कि वह उसकी दुनिया नहीं थी. 

‘ओए लकी ओए’ की धुन व गायकों की खोज में स्नेहा खानवलकर पंजाब के गली-कूचों में घूमीं तो ‘जिया हो बिहार के लाला’ के लिए त्रिनिदाद और टोबैगो

मां-पिता उन दिनों तक तंग आ गए थे. वह बार-बार फील्ड बदल रही थी और उन्हें लग रहा था कि बस भाग रही है. पिता चाहते थे कि इससे अच्छा तो गायकी में ही कुछ करे, लेकिन उसने साफ मना कर दिया था. वे उसे एनिमेशन की पढ़ाई के लिए अमेरिका भेजना चाहते थे, लेकिन इसके लिए किया जाने वाला तामझाम, पेपरवर्क और बहुत सारा खर्च उसके स्वभाव से बिल्कुल उलट था. इसलिए वह चुप होकर घर बैठ गई. उसने इस बार नहीं बताया कि वह संगीतकार बनने की सोच रही है. 

तो स्नेहा घर में ही वॉकमैन में अपनी धुनें रिकॉर्ड करने लगी, कभी-कभी दो-तीन हजार में आ जाने वाले कीबोर्डिस्ट्स को घर बुलाकर अपनी स्क्रैच धुनें तैयार करने लगी. उन्हीं दिनों उसने कहीं तिग्मांशु धूलिया का एक इंटरव्यू पढ़ा और कहीं से उनका फोन नंबर ढूंढ़कर फोन किया. उन्होंने मिलने बुलाया और फिर अपनी फिल्म ‘किलिंग ऑफ अ पोर्न फिल्ममेकर’ के दो गाने बनाने को कहा. वे गाने रिकॉर्ड भी हुए. लेकिन वह फिल्म बीच में ही रुक गई. यह थोड़ा परेशान करने वाला तो था लेकिन इसी रास्ते से उसे रामगोपाल वर्मा और अनुराग कश्यप मिले. उसके बाद उसने रुचि नारायण की फिल्म ‘कल’ का एक गाना बनाया और मनीष श्रीवास्तव की फिल्म ‘गो’ में संगीत दिया. लेकिन दिबाकर बनर्जी की ‘ओए लकी लकी ओए’ उसकी पहली सोलो फिल्म थी. 

वह कोई और फिल्म थी जिसके लिए उन्होंने काम शुरू किया था लेकिन बनी ‘ओए लकी लकी ओए’. फिल्म में दो ही गाने होने थे. एक टाइटल गीत और एक ‘तू राजा की राजदुलारी’. स्नेहा उन्हें तलाशने पंजाब गई. ‘ओए लकी’ गाने के लिए उसे देशराज लचकानी को खोजना था. खोजने के लिए वह गांवों, कस्बों, शहरों में बेपरवाह घूमती है. किसी भी नुक्कड़ पर ठहरकर चाय या पान वाले से पूछती हुई कि यहां आस-पास कोई गायक रहता है क्या? कोई कुछ बताता है तो गाड़ी में साथ बिठा लेती है और इस तरह किसी के भी घर पहुंच जाती है, उसे सुनती है. यह उसका अपना टैलेंट हंट है जिसमें वह वे आवाजें खोजती है जो उसे बांधकर अपने आंगन में बिठा लें. 

 खैर, पंजाब और हरियाणा के उसके खजाने से ‘ओए लकी’ का संगीत निकला और हिंदी सिनेमा की चौथी महिला संगीतकार के कदमों की बेपरवाह आवाज. पुरुषों के वर्चस्व वाले एक क्षेत्र में जहां यह उपलब्धि थी, वहीं चुनौती भी थी. और इकलौती चुनौती नहीं. ‘शुरू में किसी ने कहा था कि अभी तो तुम फीमेल की तो बात ही मत करो. अभी तो ना तुम्हारी उम्र तुम्हारे साथ है, ना तुम फिल्म या संगीत के बैकग्राउंड से हो. तीसरा लड़की हो और चौथा, दुबली-पतली सी हो. डांटोगी, तो भी कितना सीरियसली लेगा कोई? पुराने इंडस्ट्री के म्यूजिशियन लगातार ढूंढ़ते रहते हैं कि कुछ अलग होगा इसमें. मुझे फील होता रहता है कि मुझे जज किया जा रहा है. ऐसा भी कई बार हुआ कि रिकॉर्डिंग हो रही है और सब सिगरेट पीने बाहर चले गए या आपस में बातें करने लगें. लेकिन यही सब इसे एक्साइटिंग बनाता है. मेरी रिकॉर्डिंग पर कुछ भी आम नहीं रहता.’ 

इसके बाद उसने दिबाकर की ही ‘लव सेक्स और धोखा’ का संगीत दिया. इसी बीच अनुराग कश्यप ने उसे मिलने के लिए बुलाया और अपनी फिल्म का संगीत देने का प्रस्ताव रखा जिसमें उन्हें बिहारी लोकसंगीत रखना था. फिर से ‘लोकसंगीत’ सुनकर वह एक मिनट हिचकिचाई, लेकिन उसे त्रिनिदाद टोबैगो का वह चटनी संगीत याद आया जो उसे बहुत पसंद था और जिसे उन्नीसवीं सदी में वहां जाने वाले बिहारियों की अगली पीढ़ियों ने बिहारी और हिंदी फिल्मों के संगीत में वहां का कुछ मिलाकर बनाया था. उसने कहा कि वह एक ही शर्त पर संगीत बनाएगी कि उसे त्रिनिदाद जाने दिया जाए. अनुराग ने तुरंत हामी भर दी. 

अब नया सफर शुरू हुआ. उसने त्रिनिदाद और टोबैगो की गलियों में वैसे ही संगीत ढूंढ़ा, जैसे पंजाब में ढूंढा था. पूरे एलबम के गीत उसने बाद में बिहार में ही खोजे. चटनी म्यूजिक ने उन्हें बस एक रंग दिया. इस बार स्नेहा ने और भी ऐसी आवाजें चुनीं जिन्हें मुख्यधारा का हिंदी सिनेमा स्वीकार नहीं करता. स्नेहा को इलेक्ट्रॉनिक संगीत बहुत पसंद है और असल दुनिया की हदों तक जाने की तो वह कोशिश कर ही रही है, लेकिन उसे इलेक्ट्रॉनिक संगीत की हदों तक भी जाना है. वह कहती है कि तकनीक ने उसका बहुत साथ दिया है. उसे आगे भी साउंड्स के साथ इसी तरह खेलते रहना है. वह सब करना है जो संगीत में पहले कभी नहीं हो सका. 

और जब उसके हाथ में एक हॉर्न है, जिसे मेरे मोहल्ले में गन्ने बेचने वाला बजाया करता था, और वह नियम से रोज तीन बार अपने घर में खाना खाने के लिए आने वाली गली की गर्भवती बिल्ली को गोद में लेकर पुचकार रही है, वह कहती है कि एक दिन देखना, म्यूजिक से इस हाथ को भी ड्रा किया जा सकेगा. 

मुझे उसकी बात पर पूरा यकीन है. आपको है? 

-गौरव सोलंकी