बृहत्तर आयामों की समझ

पुस्तक: समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन

लेखक: रजनी तिलक, रजनी अनुरागी

मूल्य: 600 रुपये 

पृष्ठ: 322

प्रकाशन: स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली

युवा कवयित्रियों रजनी तिलक और रजनी अनुरागी के संपादन में ‘समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन’ का पहला खंड आ चुका है. इसमें करीब 28 दलित महिला हस्ताक्षरों को शामिल किया गया है. यह अपनी तरह की अकेली पहल है. यह किताब भारतीय समाज के बिखराव को भी दिखलाती है, कि किस तरह यहां शोषण की भी श्रेणियां हैं. अब महादलित की बात भी उठने लगी है. जब तक ये पीड़ित तबके खुद अपनी आवाज बुलंद नहीं करते तब तक उनकी ओर हमारा समर्थ तबका देखता तक नहीं. आवाज उठाने पर भी मात्र तुष्टीकरण की नीयत से काम लिया जाता है.
नतीजा दलित लेखन से दलित महिला लेखन को खुद को अलगाना पड़ता है. इस बारे में रजनी संपादकीय में  लिखती हैं, ‘दलित साहित्यकारों की इसमें रुचि भी नहीं थी कि दलित लेखिकाओं को ढूंढ़ा जाए और उन्हें नरचर किया जाए.’ उनका आरोप है कि ‘अन्यथा’, ‘अपेक्षा’ और ‘हंस’ जैसी ख्यातिनाम पत्रिकाओं ने भी दलित पुरुष लेखकों के संपादन में जो दलित विशेषांक निकाले उनमें भी दलित महिला लेखन की उपस्थिति सांकेतिक ही रही. उनकी आपत्ति है कि ‘पितृसत्तात्मक सोच वाले दलित साहित्यकारों ने अपने वैचारिक भटकावों को ‘पंथ’ का नाम दे दिया है. अंतर्जातीय विवाहों को ‘जारकर्म’ का ठप्पा देते फिर रहे, बेहतर होता कि वे खुद को ‘भगवा’ घोषित कर देते.
दलित साहित्यकारों की ‘वैचारिक उठापटक’ और ‘खेमेबंदी’ भी उनके संघर्ष को कमजोर कर रही है. आश्चर्यजनक है कि इतने बंटवारे के बाद भी हमारे रहनुमा शाइनिंग इंडिया के नारे लगाते नहीं थकते. पर यह कैसा शाइनिंग भारत है, इसकी बाबत अनुरागी अपनी कविता में लिखती हैं, ‘गतिशील भारत में रोते-बिलखते, मजदूर जीवन जीते/ लूले, लंगडे़, अंधे, कुबडे़ भारत की सही तस्वीर दिखाते भारतीय.’ और यह भारत की राजधानी दिल्ली में आइटीओ की तस्वीर है. पुस्तक की संपादकीय सोच सही है कि इस बंटवारे से बाहर आकर आंबेडकरवादी दृष्टिकोण के संदर्भ में  ‘बृहत्तर समाज के साथ संवाद चाहिए ताकि हम दुनिया बदलने में अपनी संगत दे सकें.’ पुस्तक में साहित्य और विमर्श के तमाम मुद्दों पर सामग्री इकट्ठी की गई है. इससे गुजरना भारतीय समाज के बृहत्तर आयामों की एक सही समझ देता है.
-कुमार मुकुल