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सुर कलश छलके…

नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज ही पहचान है—गर याद रहे
                                   (फिल्म: किनारा, गीतकार: गुलजार)

असीम श्रद्धा और भावुकता के साथ ही लता मंगेशकर के बारे में कोई बात शुरू की जा सकती है. पिछली कई सदियों से संगीत की जो महान परंपरा हम मीराबाई, बैजू बावरा, स्वामी हरिदास और तानसेन के माध्यम से सुनते-गुनते आ रहे हैं, उसमें लता मंगेशकर का नाम बिना किसी हीला-हवाली के जोड़ा जा सकता है. इसी वर्ष 28 सितंबर को जब वे 83वें वर्ष में प्रवेश करेंगी तब उनके बारे में कुछ भी नये सिरे से बताने का प्रयास इस देश के 125 करोड़ लोगों को कमतर समझने की हिमाकत भी माना जा सकता है. कहा जा सकता है कि इस देश में चारों ओर रहने वाले सवा अरब लोग जिस समानता की डोर से कहीं न कहीं जुड़े दिखाई देते हैं वह लता मंगेशकर की आवाज के रेशमी धागे के कारण भी संभव हुआ है.

‘महल’ फिल्म के इतिहास बन चुके गीत ‘आएगा आने वाला’ से लता जी का हिंदी फिल्म संगीत में कुछ-कुछ वैसा ही प्रादुर्भाव हुआ जैसा इस फिल्म का सनसनीखेज कथानक था. इस गीत के मुखड़े की शुरुआती पंक्तियां हैं – ‘खामोश है जमाना चुपचाप हैं सितारे/आराम से है दुनिया बेकल हैं दिल के मारे/ऐसे में कोई आहट इस तरह आ रही है/जैसे कि चल रहा हो मन में कोई हमारे/या दिल धड़क रहा है इस आस के सहारे…’ आज जब उन्हें एक किंवदंती बने लगभग सत्तर साल बीत चुके हैं तो लगता है कि जैसे ये पंक्तियां फिल्म संगीत के आंगन में उनके लिए बिछाया गया लाल गलीचा हों. जैसे सबको उनके आने की आहट सुनाई दे रही थी और उनके आने से पहले सारा जमाना खामोश था.

बतौर पार्श्व गायिका सबसे पहला गीत लता जी ने मराठी फिल्म किती हसाल के लिये महज साढ़े बारह साल की अवस्था में रिकॉर्ड करवाया था. गीत के बोल थे नाचू या आडे खेलू सारी, मनी कौस भारी. संगीतकार थे सदाशिवराव नेवरेकर. किन्तु यह गीत फिल्म में शामिल नहीं किया गया.लता जी मात्र छह साल की रही होंगी जब उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर ने उनकी संगीत शिक्षा का विधिवत आरंभ उन्हें पूरिया धनाश्री राग सिखाते हुए किया था. उन्होंने उस समय नन्ही लता से कहा था – ‘जिस तरह कविता में शब्दों का अर्थ होता है, वैसे ही गीत में सुरों का भी अर्थ होता है. गाते समय दोनों अर्थ उभरने चाहिए.’ इसे आज तक अपने सुर संसार में जस का तस निभाते हुए लता मंगेशकर पिता को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि दिए जा रही हैं. आज के दौर के युवाओं से लेकर तीन पीढ़ी ऊपर तक के बुजुर्गों में लता मंगेशकर की आवाज का साम्राज्य कुछ इस कदर पसरा हुआ है कि उसके प्रभाव का आकलन पूरी तरह कर पाना शायद किसी के लिए संभव नहीं है. कई बार ऐसा लगता है कि वे एक ऐसी जीवंत उपस्थिति हैं जिनके लिये कहा जा सकता है कि वे पुराणों व मिथकीय अवधारणाओं के किसी गंधर्व लोक से निकलकर आई हैं. एक ऐसी स्वप्निल और जादुई दुनिया से जिसमें सिर्फ देवदूतों और गंधर्वों को आने-जाने की आजादी है. लता मंगेशकर जैसी अदम्य उपस्थिति के लिए प्रख्यात गीतकार जावेद अख्तर का यह कथन बहुत दुरुस्त लगता है – ‘हमारे पास एक चांद है, एक सूरज है, तो एक लता मंगेशकर भी हैं.’

लता मंगेशकर ने अपनी आवाज की चिरदैवीय उपस्थिति से पिछले करीब छह दशकों को इतने खुशनुमा ढंग से रोशन किया है कि हम आज अंदाजा तक नहीं लगा सकते कि यदि उनकी 1947 में आमद न होती तो भारतीय फिल्म संगीत कैसा होता. संगीत जगत में लता मंगेशकर के आगमन का समय भारतीय राजनीतिक इतिहास के भी नवजागरण का काल था. स्वाधीनता के बाद जैसे-जैसे भारतीय जनमानस अपनी नयी सोच और उत्साह के साथ आगे बढ़ता जा रहा था, लता जी की मौजूदगी में हिंदी फिल्म संगीत भी आनंद और स्फूर्ति के साथ उसी रास्ते जा रहा था. यह अकारण नहीं है कि 1948 में गुलाम हैदर के संगीत से सजी मजबूर फिल्म का लता-मुकेश का गाया हुआ गीत ‘अब डरने की बात नहीं अंग्रेजी छोरा चला गया’ उस वक्त जैसे हर भारतीय की सबसे मनचाही अभिव्यक्ति बन गया था. उन्हीं मास्टर गुलाम हैदर ने भारत में अपने संगीत कॅरियर का अंतिम गाना (‘बेदर्द तेरे दर्द को सीने से लगा के’) 1948 में लता से पद्मिनी में गवाया. वे उसी दिन भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए. लता जी के संगीत जीवन के साथ इस तरह की न जाने कितनी ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में बदल चुकी तिथियां भी जुड़ी हुई हैं, जो आज भारतीय समाज में अपना कुछ दूसरा ही मुकाम रखती हैं.

लता मंगेशकर को महल (1948) के जिस गीत ‘आएगा आने वाला’ ने शोहरत दिलाई, उसके लिए उन्हें 22 रीटेक देने पड़े थे. ‘महल’ के वास्तविक रिकॉर्ड पर गायन का श्रेय कामिनी को दिया गया है. यह फिल्म के उस किरदार का नाम था, जिस पर गीत फिल्माया गया था. उन दिनों पार्श्व गायकों-गायिकाओं के नाम की जगह किरदार का नाम दिये जाने का चलन था.यह देखने की बात है कि उनके संगीत के दृश्यपटल पर आने वाले साल में ही केएल सहगल का इंतकाल हो चुका था और मलका-ए-तरन्नुम नूरजहां विभाजन के बाद पाकिस्तान जा चुकी थीं. यह एक प्रकार से फिल्म इतिहास का ऐसा नाजुक दौर था जिसमें इन दो मूर्धन्यों की भरपाई का अकेला जिम्मा जिन लोगों के कंधे पर आया उनमें से सबसे प्रमुख लता मंगेशकर हैं. जाहिर है, संक्रमण के इस काल में लता के भीतर छिपी हुई किसी बड़ी प्रतिभा की पहचान खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल-भगतराम, नौशाद और शंकर-जयकिशन जैसे दिग्गज संगीत निर्देशकों ने की और 1948-49 के दौरान ही उनकी चार बेहद महत्वपूर्ण फिल्में हिंदी सिनेमा के संगीत परिदृश्य को एकाएक बदलने के लिए आ गईं. ये फिल्में थीं महल, बड़ी बहन, अंदाज और बरसात.

इसके बाद पुरानी मान्यताओं, स्थापित शीर्षस्थ गायिकाओं एवं संगीतप्रधान फिल्मों के स्टीरियोटाइप में बड़ा परिवर्तन दिखने लगता है. लता खुशनुमा आजादी की तरह ही एक नये ढंग की ऊर्जा, आवाज के नये-नये प्रयोग एवं शास्त्रीय संगीत की सूक्ष्म पकड़ के साथ हिंदी फिल्म संगीत के लिए सबसे प्रभावी व असरकारी उपस्थिति बनने लगती हैं. ‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ (बरसात) जैसा गीत उसी बहाव, दिशा और नये क्षितिज की ओर फिल्म संगीत को उड़ा ले जाता है, जो अभी तक भारी-भरकम आवाजों के घूंघट में पल रहा था.

लता मंगेशकर आवाज की दुनिया की एक ऐसी घटना हैं जिसके घटने से इस धारणा को प्रतिष्ठा मिली कि गायन का क्षेत्र सिर्फ मठ-मंदिरों, हवेलियों और नाचघरों तक सीमित न रहकर एक चायवाले या बाल काटने वाले की दुकान में भी अपने सबसे उज्जवल अर्थों में अपने पंख फैला सकता है. उनके आने के बाद से ही लोगों की बेपनाह प्रतिक्रियाओं से तंग आकर रिकॉर्ड कंपनियों ने पहली बार फिल्मों के तवों पर पार्श्वगायकों एवं गायिकाओं के नाम देना शुरू किया. वे भारत में फिल्म संगीत का उसी तरह कायाकल्प करती दिखाई देती हैं, जिस तरह पारंपरिक नृत्य-कलाओं में क्रांतिकारी बदलाव ढूंढ़ने का काम रुक्मिणी देवी अरुंडेल, बालासरस्वती एवं इंद्राणी रहमान जैसी नर्तकियों ने अपने समय में किया. स्वाधीनता के बाद उनकी आवाज संघर्षशील तबके से आने वाली उस स्त्री की आवाज बन गई जिसे तब का समाज बिल्कुल नए संदर्भों में देख-परख रहा था.

लता जी से पहले स्थापित गायिकाओं कानन देवी, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अंबालेवाली, सुरैया, राजकुमारी, शमशाद बेगम के विपरीत लता मंगेशकर का स्वर एक ऐसे उन्मुक्त माहौल को रचने में सफल होता दिखाई पड़ा जिसकी हिंदी फिल्म जगत को भी बरसों से दरकार थी. उनके गायन की विविधता में स्त्री किरदारों के बहुत-से ऐसे प्रसंगों को पहली बार अभिव्यक्ति मिली जो शायद सुरैया या जोहराबाई जैसी आवाज में संभव नहीं थी. उस दौर की अनगिनत फिल्मों में एकाएक उभर आए औरत के प्रगतिशील चेहरे के पीछे लता जी की आवाज ही प्रमुखता से सुनाई पड़ती है. 1952 में आई जिया सरहदी की ‘हम लोग’ का ‘चली जा चली जा छोड़ के दुनिया, आहों की दुनिया’ से लेकर ‘मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए’ (पतिता), ‘औरत ने जनम दिया मरदों को’ (साधना), ‘सुनो छोटी-सी गुडि़या की लंबी कहानी’ (सीमा), ‘वंदे मातरम्’ (आनंद मठ), ‘फैली हुई है सपनों की बांहें’ (हाउस नं- 44), ‘जागो मोहन प्यारे’ (जागते रहो), ‘सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला’ (दो आंखें बारह हाथ), ‘तेरे सब गम मिलें मुझको’ (हमदर्द), ‘हमारे बाद महफिल में अफसाने बयां होंगे’ (बागी) ऐसे ही कुछ गीत हैं.

लता मंगेशकर ने अपने पिताजी मास्टर दीनानाथ मंगेशकर का दिया हुआ तम्बूरा (तानपूरा) और संगीत की नोटेशन पुस्तिका आज तक संभाल कर रखी है.यह स्थिति दिनोंदिन सुदृढ़ ही होती गई. साठ के दशक तक आते-आते तो इस बात की होड़-सी मच गई कि किस फिल्म का स्त्री किरदार दूसरी फिल्मों की तुलना में कितना मजबूत, केंद्रीय और भावप्रवण है. जिन फिल्मों में सीधे ही औरत की कोई ऐसी भूमिका नहीं थी, वहां ऐसी गुंजाइश गीतों के बहाने निकाली जाने लगी. ऐसे में लता मंगेशकर एक जरूरत या जरूरी तत्व की तरह भारतीय सिनेमा जगत पर छा गईं. शायद इसी वजह से साठ का दशक सिनेमा के अधिकांश अध्येताओं को लता जी का स्वर्णिम दौर लगता है. इस दौर की कुछ फिल्में इस संदर्भ में भी याद करने लायक हैं कि इनमें लता मंगेशकर की मौजूदगी अकेले ही इतिहास रचने में सक्षम नजर आती है. ऐसे में आसानी से हम गजरे, परख, अनुपमा, छाया, ममता, बंदिनी, दिल एक मंदिर, मधुमती, गाइड, माया, चित्रलेखा, डॉ. विद्या, अनुराधा, आरती, मान, अनारकली, यास्मीन, दुल्हन एक रात की, अदालत, गंगा-जमुना, सरस्वतीचंद्र, वो कौन थी, आजाद, संजोग, घूंघट, भीगी रात, बेनजीर, कठपुतली, पटरानी, काली टोपी लाल रुमाल एवं मदर इंडिया जैसी फिल्मों के नाम ले सकते हैं. इस दौर में बहुत सारे संगीतकारों के साथ बनने वाली उनकी कला की ज्यामिति ने जैसे कीर्तिमानों का एक अध्याय ही रच डाला. आज भी उनका नाम मदन मोहन के साथ अमर गजलों, नौशाद के साथ विशुद्ध लोक-संगीत, एसडी बर्मन के साथ राग आश्रित नृत्यपरक गीतों, सी रामचंद्र के साथ बेहतर आर्केस्ट्रेशन पर आधुनिक ढंग की मेलोडी, सलिल चौधरी के साथ बांग्ला एवं असमिया लोक संगीत और विदेशी सिंफनीज पर आधारित कुछ मौलिक प्रयोगों, रोशन के साथ शास्त्रीयता एवं रागदारी, खय्याम के साथ प्रयोगधर्मी धुनों तथा लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ सदाबहार लोकप्रिय एकल गीतों के लिए असाधारण ढंग से याद किया जाता है.

यह देखना भी दिलचस्प है कि पिछले साठ-सत्तर सालों में बनने वाली ढेरों ऐतिहासिक एवं पौराणिक फिल्मों में लता मंगेशकर एक स्थायी तत्व की तरह शामिल रही हैं. उनकी यह उपस्थिति, सामाजिक सरोकारों वाली फिल्मों से अलग, एक दूसरे ही किस्म का मायालोक रचने में सफल साबित हुई है. यह लीक बैजू बावरा, अनारकली, नागिन, रानी रूपमती जैसी फिल्मों से शुरू होकर, मुगले आजम, शबाब, सोहनी महिवाल, कवि कालिदास, झनक-झनक पायल बाजे, संगीत सम्राट तानसेन, ताजमहल से होती हुई बहुत बाद में आम्रपाली, नूरजहां, हरिश्चंद्र तारामती, सती-सावित्री, पाकीजा और अस्सी के दशक तक आते-आते रजिया सुल्तान एवं उत्सव तक फैली हुई है. इन फिल्मों के गीतों का उल्लेख होने भर से तमाम अमर धुनों और लता जी की आवाज का जादू मन-मस्तिष्क में घुलने लगता है. इस तरह की पीरियड फिल्मों के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इनके गीतों को सुनते हुए यह ध्यान ही नहीं आता कि इनकी पृष्ठभूमि में कोई पौराणिक, मिथकीय या ऐतिहासिक कथा आकार ले रही है. वहां सिर्फ गीत की अपनी स्नेहिल मौजूदगी में वही जादू घटता है जो किसी दूसरे और निहायत अलग विषय-वस्तु के सिनेमा में भी महसूस किया जाता रहा है. मसलन, ‘आजा भंवर सूनी डगर’ (रानी रूपमती), ‘शाम भई घनश्याम न आए’ (कवि कालिदास), ‘खुदा निगहबान हो तुम्हारा’ (मुगले आजम), ‘जुर्मे उल्फत पे हमें लोग सजा’ (ताजमहल), ‘तड़प ये दिन रात की’ (आम्रपाली), ‘ऐ दिले नादां’ (रजिया सुल्तान), ‘नीलम के नभ छाई’ (उत्सव) जैसे गाने सिर्फ किरदारों की जद में कैद नहीं रहते. इस तरह की कोई स्थिति या संभावना तक पहुंचने की प्रतिष्ठा शायद किसी कलाकार के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है. यहां प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर की यह उक्ति ध्यान देने योग्य है, ‘लड़की एक रोज गाती है. गाती रहती है अनवरत. यह जगत व्यावहारिकता पर चलता है, तेरे गीतों से किसी का पेट नहीं भरता. फिर भी लोग सुनते जा रहे हैं पागलों की तरह.’

लताजी संगीतकार मदन मोहन द्वारा रचित गीत बैरन नींद न आये (चाचा जिन्दाबाद, 1959) को अपने संगीत यात्रा की एकमात्र त्रुटिहीन गायिकी और सम्पूर्ण रचना के रूप में देखती हैं.शायद इसीलिए एक से बढ़कर एक कालजयी फिल्में, बड़े नामचीन कलाकार, सिल्वर व गोल्डन जुबलियां, गीतकार, संगीत निर्देशक, सभी लता मंगेशकर के खाते में आने वाली उनकी अचूक प्रसिद्धि की चमक को फीका नहीं कर पाते. उन सफल फिल्मों में शायद लता ही एक ऐसी स्थायी सच्चाई हैं, जिसका कोई दूसरा पर्याय नहीं उभर पाता. अब इतिहास बन चुका राजकपूर के साथ उनका रॉयल्टी का झगड़ा, और बाद में इस सोच के चलते कि लता का रिप्लेसमेंट नहीं हो सकता, उन्हें अपने कैंप में वापस लाना या दादा एसडी बर्मन का यह सोचना कि लता अगर गाएगी, तो हम सेफ हैं; बेहद अनुशासनप्रिय संगीतज्ञ मास्टर गुलाम हैदर का यह कथन ‘अगर उसका दिमाग संतुलित रहा तो वह आसमान को छू जाएगी’ या फिर वायलिन वादक यहूदी मेन्यूहिन की स्वीकारोक्ति ‘शायद मेरी वायलिन आपकी गायिकी की तरह बज सके’ और उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की जगप्रसिद्ध सूक्ति ‘कमबख्त, कभी बेसुरी नहीं होती’ आवाज की सत्ता का एहतराम करने जैसे हैं.

लता मंगेशकर पर अक्सर नुक्ताचीनी करने वाले यह आरोप लगाते रहे हैं कि उनका गायन फिल्मों तक सीमित है, उसमें शास्त्रीयता के लिए कोई जगह नहीं है. उनके लिए, जिन्होंने कभी भी फिल्म संगीत को स्तरीय न मानने की जबरन एक गलतफहमी पाल रखी है, लता एक चुनौती से कम नहीं हैं. भेंडी बाजार घराने के मशहूर उस्ताद अमान अली ख़ां तथा उस्ताद अमानत ख़ां देवास वाले से बकायदा गंडा बंधवाकर लता जी ने संगीत की शिक्षा ली है. बाद में उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के शागिर्द पं तुलसीदास शर्मा ने भी उन्हें शास्त्रीय संगीत की तालीम दी. लता मंगेशकर की ख्याति भले ही फिल्म संगीत की वजह से रही हो, पर इससे कौन इनकार कर सकता है कि उन्होंने फिल्मी गीतों में उसी तरह शास्त्रीयता का उदात्त रंग भरा है, जिस तरह देवालयों, नौबतखानों एवं राजदरबारों में बजने वाली शगुन की शहनाई में उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने राग और आलापचारी भरे.

लता जी की संगीत यात्रा को देखने पर यह महसूस होता है कि उनके गायन की खूबियों के साथ चहलकदमी करने में सितार प्रमुखता से उनके साथ मौजूद रहा है. सितार की हरकतों, जमजमों और मींड़ों का काम देखने के लिए लता के गाए ढेरों सुंदर गीत याद किए जा सकते हैं. ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ (परख), ‘हाय रे वो दिन क्यूं न आए’ (अनुराधा), ‘मेरी आंखों से कोई नींद लिए जाता है’ (पूजा के फूल), ‘हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे’ (दिल एक मंदिर), ‘मैं तो पी की नगरिया जाने लगी’ (एक कली मुस्काई), ‘आज सोचा तो आंसू भर आए’ (हंसते जख्म) जैसे तमाम गीतों में सितार की हरकतों के साथ उनकी आवाज को पकड़ना एक बेहद मनोहारी खेल बन जाता है. लता की गायन शैली का अध्ययन करने पर यह बात खुलती है कि किस तरह शास्त्रीय संगीत की रागदारी, तालों, मात्राओं और लयकारी के अलावा प्रमुख भारतीय वाद्यों सितार, सरोद, बांसुरी, शहनाई और वीणा ने भी उनके गले के साथ जबर्दस्त संगत की है. इस तरह के ढेरों गीत याद किए जा सकते हैं जिनमें पन्नालाल घोष की बांसुरी, उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई, उस्ताद अली अकबर खां का सरोद, उस्ताद अल्लारक्खा का तबला, पं रामनारायण की सारंगी, उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खां एवं रईस खां का सितार लता मंगेशकर की आवाज़ के सहोदर बनकर फिल्म संगीत को शास्त्रीयता के बड़े फलक पर ले जाते हैं. बांसुरी के साथ आत्मीय जुगलबंदी के लिए मैं पिया तेरी तू माने या न माने (बसंत बहार), सरोद की लय पर आवाज की कशिश के लिए ‘सुनो छोटी-सी गुडि़या की लंबी कहानी’ (सीमा) एवं शहनाई के छंद को समझने के लिए ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ (गूंज उठी शहनाई) सुने और महसूस किए जा सकते हैं. हम चकित होते हुए यह सोचते रह जाते हैं कि आवाज के विस्तार और उसकी लोचदार बढ़त में वाद्य किस तरह सहधर्मी बन सकता है.

लता मंगेशकर को कारों से विशेष लगाव है. शेवरले, मर्सीडीज, ब्यूक क्रेस्लर से लेकर आज की लगभग सभी प्रमुख कारें उनके गैरेज की शोभा बन चुकी हैं. कभी उनके पास तीन-तीन शेवरले हुआ करती थीं.यदि लता जी के संगीत में शास्त्रीयता की नुमाइंदगी खोजनी हो, तब बहुतेरे ऐसे गीतों को याद किया जा सकता है, जिनमें रागदारी और आलापचारी, तानें और मुरकियां, मींड़ और गमक अपने सर्वोत्तम रूपों में मिलती हैं – ‘घायल हिरनिया मैं बन-बन डोलूं’ (मुनीम जी) में सरगम की तानें अपने शुद्ध रूप में मौजूद पाई जा सकती हैं. मींड़ के बारीक काम के लिए ‘रसिक बलमा’ (चोरी-चोरी) को बार-बार सुना जा सकता है. आलाप के एकतान सौंदर्य के लिए ‘डर लागे चमके बिजुरिया’ (रामराज्य) को कोई कैसे भूल सकता है. लयदार तानों और गमक का एहसास लिए हुए ‘सैंया बेईमान’ (गाइड) अनायास ही याद आते हैं. उनके असंख्य गीत ऐसे हैं जिनमें रागदारी अपने शुद्धतम एवं मधुर रूप में व्यक्त हुई है. मसलन ‘ज्योति कलश छलके’ – ‘भाभी की चूडि़यां’ (राग भूपाली), ‘अल्लाह तेरो नाम’ – हम दोनों (राग मिश्र खमाज), ‘पवन दीवानी न माने’ – डॉ विद्या (राग बहार), ‘गरजत बरसत भीजत अइलो’ – मल्हार (राग गौड़ मल्हार), ‘मनमोहना बड़े झूठे’ – सीमा (राग जयजयवंती), ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे – मुगले आजम (राग मिश्र गारा), ‘चाहे तो मोरा जिया लइले सांवरिया’ – ममता (राग पीलू), ‘राधा न बोले न बोले रे’ – आजाद (राग बागेश्री), ‘नैनों में बदरा छाये’ – मेरा साया (राग मधुवन्ती), ‘ए री जाने न दूंगी’ – चित्रलेखा (राग कामोद), ‘कान्हा-कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार’ – शागिर्द (राग मांझ खमाज), ‘नदिया किनारे’-अभिमान (राग पीलू) तथा ‘मेघा छाए आधी रात’ – शर्मीली (राग पटदीप). यह अंतहीन सूची है, जिसमें अभी तकरीबन हजारों ऐसे ही उत्कृष्ट गीतों को बड़ी आसानी से शामिल किया जा सकता है.

यह देखना लता मंगेशकर के गायन में बहुत महत्त्व रखता है कि पिछले साठ साल में उनकी आवाज में शंकर-जयकिशन की अनगिनत भैरवियों, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की ढेरों पूरिया धनाश्रियों और शिवरंजनियों, एसडी बर्मन की अधिसंख्य बिहाग, तोड़ी और बहारों के साथ मदन मोहन की तमाम छायानटों एवं भीमपलासियों ने आकार लिया है. तमाम सारे दिग्गज एवं अगली पंक्ति के इन बड़े संगीतकारों के साथ-साथ लता की आवाज ने चित्रगुप्त, दत्ताराम, एसएन त्रिपाठी, रामलाल, रवि, स्नेहल भाटकर, हंसराज बहल, जीएस कोहली, सुधीर फड़के, पंडित अमरनाथ और एन दत्ता जैसे संगीतकारों के साथ भी शास्त्रीय ढंग के कुछ बेहद अविस्मरणीय गीत गाए हैं. शायद इसीलिए सालों पहले शास्त्रीय गायक पं कुमार गंधर्व ने लता जी पर पूरा एक लेख उनकी गायकी की खूबी बखानने के उद्देश्य से लिखा था. उनका मानना था, ‘जिस कण या मुरकी को कंठ से निकालने में अन्य गायक और गायिकाएं आकाश-पाताल एक कर देते हैं, उस कण, मुरकी, तान या लयकारी का सूक्ष्म भेद वह सहज ही करके फेंक देती है.’

लता मंगेशकर विधिवत शिक्षा तो नहीं ले सकीं, मगर न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी तथा यॉर्क यूनिवर्सिटी, कनाडा के अलावा देश भर के दस विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद डी.लिट. की उपाधि से विभूषित किया है. लता जी के जीवन में एक दौर ऐसा भी आया जब जिस फिल्म में उनका गाना न होता, समझा जाता कि वह पिट गई अगर एक गाना भी उन्होंने गाया, तो सबसे ज्यादा लोकप्रिय वही होता. लता के गानों की वजह से कई बार ऊलजलूल और अति साधारण फिल्मों तक का बाजार चल पड़ता था. बहुतेरी फिल्में दूसरे-तीसरे दरजे की भी हों, तो भी गाने ऐसे होते कि जी करता सुनते रहें और वे रेडियो पर बार-बार फरमाइशों के दौर तले ऐतिहासिक बनते जाते. जिस जमाने में नयी फिल्मों के गानों को रेडियो पर सुनने की होड़ लगी रहती थी, उनमें भी सबसे ज्यादा दीवाने लता की आवाज के ही होते थे. सबसे मजेदार बात तो यह है कि जिन प्रणय गीतों पर हमारे दादा-दादी के जमाने के लोग आनंदित और तरंगित हो जाते थे, आज बरसों बाद हम भी उन्हीं गीतों को सुनकर उतने ही रोमांचित हो उठते हैं. आज के युवाओं में से शायद ही कोई कहेगा कि आवारा, श्री 420, चोरी-चोरी, गाइड, अनाड़ी, आराधना, शागिर्द, आपकी कसम, कभी-कभी और अनामिका जैसी फिल्मों के प्रणय गीत उनमें कोई हरारत पैदा करने में अक्षम हैं. ‘आजा सनम मधुर चांदनी में हम’ (चोरी-चोरी), ‘गाता रहे मेरा दिल’ (गाइड), ‘आसमां के नीचे’ (ज्वैलथीफ,  ‘कोरा कागज था ये मन मेरा’ (आराधना), ‘तेरे मेरे मिलन की ये रैना’ (अभिमान) या ‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए’ (सिलसिला) जैसे शाश्वत अमर प्रेम गीतों को याद करने के लिए भी क्या किसी उम्र, दौर, शहर की जरूरत है?

लता जी ने चार फिल्मों बादल (मराठी, 1953), झांझर (हिन्दी, 1953, सहनिर्माता सी. रामचन्द्र), कंचन (हिन्दी, 1955) और लेकिन (हिन्दी, 1989) का निर्माण भी किया है.लता मंगेशकर के संगीत जीवन के ब्यौरों को खंगालने पर ढेरों ऐसी बातों से भी हम रूबरू होते हैं, जो उनके अडिग चरित्र की एक सादगी भरी बानगी व्यक्त करती हैं. कुछ सिद्धांतों व मान्यताओं पर पिछले साठ-सत्तर साल में कोई भी व्यक्ति उन्हें डिगा नहीं सका. उन्होंने यह तय कर रखा था कि फूहड़ व अश्लील शब्दों के प्रयोग वाले गीत वे नहीं गाएंगी. इसका परिणाम यह हुआ कि सिचुएशन के लिहाज से जरूरी ऐसे गीतों में भी गरिमापूर्ण शब्द इस्तेमाल किए जाने लगे. यह भी लता मंगेशकर के फिल्मी सफर का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा कि जिस मर्यादा और गरिमा को चुनते हुए उन्होंने अपनी निराली राह बनाई, उसमें संगीत का सफरनामा उनकी तयशुदा शर्तों पर ही संभव होता रहा. किसी संगीत निर्देशक की यह हिम्मत ही नहीं होती थी कि वह कुछ सस्ते जुमले वाले गीतों को लेकर उनके पास जाए. राजकपूर निर्देशित ‘संगम’ फिल्म का गीत ‘मैं का करूं राम मुझे बुढ्ढा मिल गया’, जैसे इक्का-दुक्का गीतों के गाने को वे आज भी अपनी भारी भूल मानती हैं. उन्होंने अपने पूरे संगीत कॅरियर में केवल तीन कैबरे गीत गाए, जो उनके शालीन ढंग के गायन के चलते, ठीक से कैबरे भी नहीं माने जा सकते. ये तीन कैबरे गीत थे ‘मेरा नाम रीटा क्रिस्टीना’ (अप्रैल फूल, 1964), ‘मेरा नाम है जमीला’-(नाइट इन लंदन, 1967) एवं ‘आ जाने जां’-(इंतकाम, 1969). इस एक बात का जिक्र भी बेहद जरूरी है कि फिल्मों में प्रयुक्त होने वाले मुजरा गीतों को गाने में वे कभी सहजता महसूस नहीं करती थीं, बावजूद इसके सबसे ज्यादा लोकप्रिय एवं स्तरीय मुजरा गीत उन्हीं के खाते में दर्ज हैं. पुराने दौर में नौशाद से लेकर एसडी बर्मन, रोशन, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन, गुलाम मोहम्मद एवं एन दत्ता जैसे प्रमुख संगीतकारों ने लता से बेहद मेलोडीयुक्त, संवेदनशील एवं साहित्यिक किस्म के मुजरा और महफिल गीत गवाए. इस तरह के गीतों में, जिनसे लता की एक अलग ही और गंभीर किस्म की छवि बनती है. कुछ गीत हैं ‘यहां तो हर चीज बिकती है कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे’ (साधना), ‘उनको ये शिकायत है’ (अदालत), ‘रहते थे कभी जिनके दिल में’ (ममता), ‘कभी ऐ हकीकते मुंतजर’ (दुल्हन एक रात की), ‘ठाढे़ रहियो ओ बांके यार’ (पाकीजा), ‘राम करे कहीं नैना न उलझे’ (गुनाहों का देवता), ‘सनम तू बेवफा के नाम से’ (खिलौना), ‘सलामे इश्क’ (मुकद्दर का सिकंदर) आदि. इन गीतों को जिसने भी सुना होगा वे सहमत होंगे कि फिल्म संगीत से हटकर बैठकी महफिल में गाई जाने वाली ठुमरी और दादरों की तरह की अदायगी का लता मंगेशकर ने इन मुजरा गीतों में पुनर्वास किया है. इनमें से कई तो बरबस रसूलनबाई, बड़ी मोतीबाई, विद्याधरी एवं सिद्धेश्वरी देवी के बोलबनाव के दादरों एवं ठुमरियों की याद दिलाते हैं.

लता की आवाज की चरम उपलब्धि के रूप में अधिकांश वे दर्द भरे गीत भी गिने जा सकते हैं जिन्हें पूरी शास्त्रीय गरिमा, मंदिर की सी निश्छल पवित्रता एवं मन की उन्मुक्त गहराई से उन्होंने गाया है. ऐसे गीत एक हद तक मनुष्य जीवन की तमाम त्रासदियों, विपदाओं, दुख, वेदना और पीड़ा को कलाओं के आंगन में जगह देते से प्रतीत होते हैं. उनकी इस तरह की गायिकी की एक बिल्कुल अलग और व्यापक रेंज रही है, जिसमें कई बार भक्ति संगीत भी स्वयं को शामिल पाता है. यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हृदयनाथ मंगेशकर के बेहद प्रयोगधर्मी संगीत पर गाए हुए उनके मीरा भजन, वेदना और टीस की उतनी ही सफल अभिव्यक्ति करते हैं जितना कि सिनेमा में पीड़ा के अवसरों पर गाए गए उनके मार्मिक गीत. ‘जो तुम तोड़ो पिया’ (झनक-झनक पायल बाजे), ‘जोगिया से प्रीत किए दुख होए’ (गरम कोट), ‘पिया ते कहां गए नेहरा लगाय’ (तूफान और दीया), ‘हे री मैं तो प्रेम दीवानी’ (नौबहार), ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ (राजरानी मीरा) जैसे अद्भुत मीरा-भजनों के बरक्स हम बड़ी सहजता से उन गीतों को याद कर सकते हैं, जहां नायिका का गम लता की आवाज में बहुत ऊपर उठकर अलौकिक धरातल को स्पर्श कर जाता है. ऐसे में ‘न मिलता गम तो बरबादी के अफसाने’ (अमर), ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए’ (सजा), ‘हम प्यार में जलने वालों को’ (जेलर), ‘वो दिल कहां से लाऊं’ (भरोसा), ‘तुम क्या जानो तुम्हारी याद में’ (शिन शिनाकी बूबला बू), ‘ये शाम की तनहाइयां’ (आह), ‘हाय जिया रोए पिया नाहीं आए’ (मिलन), ‘मेरी वीणा तुम बिन रोए’ (देख कबीरा रोया), ‘फिर तेरी कहानी याद आई’ (दिल दिया दर्द लिया), ‘दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’ (बहू बेगम) जैसे गीतों को याद करना भक्ति और पीड़ा के समवेत भाव को एक ही मनोदशा में याद करना है. यह लता मंगेशकर के यहां ही संभव है कि एक ही आवाज का सुर संसार इतना विस्तृत हो सका कि उसमें जीवन के तमाम पक्षों की अप्रतिम अदायगी भजन, लोरी, गजल, कव्वाली, हीर, जन्म, सोहर, ब्याह, विदाई, प्रार्थना, प्रणय, मुजरा, लोक-संगीत, देश-प्रेम, होली, विरह, नात, नृत्य आदि के माध्यम से श्रेष्ठतम रूपों में अभिव्यक्त होती रही.

अपना नाम बदलकर आनन्दघन नाम से लता मंगेशकर ने चार मराठी फिल्मों में संगीत भी दिया है.यह लता मंगेशकर के जीवन का ही सुनहरा पन्ना है कि तमाम सारे कर्णप्रिय सफलतम गीतों के बीच कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों में भी वे समय-समय पर मुब्तिला रहीं जिन्होंने उन्हें एक अलग ही प्रकार की गरिमा और सम्मान का अधिकारी बना दिया. इस बात को कौन भूला होगा कि भारत-चीन युद्ध के उपरांत शहीदों के प्रति आभार जताने के क्रम में पंडित प्रदीप का लिखा और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध ऐतिहासिक गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ को गाने का सौभाग्य न सिर्फ लता के खाते में आया बल्कि पंडित नेहरू का उसे सुनकर रो पड़ना, उनके कद को बहुत गरिमा के साथ कई गुना बढ़ा गया. यह लता ही थीं कि जब पहली बार क्रिकेट का विश्वकप जीतकर कपिल देव भारत आए, टीम की हौसला अफजाई करने एवं उसके सदस्यों को आर्थिक सहायता पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने एक चैरिटी कार्यक्रम आयोजित करके उसमें स्वयं गाया. उन्होंने विदेश में पहली बार 1974 में लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल में अपनी प्रस्तुति मात्र इस कारण दी कि विदेशों में नेहरू सेंटर की गतिविधियों की खातिर धन एकत्र किया जा सके. एक ओर वे बीमार महबूब खान को पूरे हफ्ते भर फोन पर ‘रसिक बलमा’ सुनाती रहीं, तो दूसरी ओर लंदन में नूरजहां के घर में उनके अनुरोध पर लिफ्ट में ही ‘ऐ दिले नादां’ गाकर उन्हें प्रसन्न किया.

यह लता के गायन की विविधता ही है कि साहिर लुधियानवी की जनवादी कलम से निकली शाहकार रचना ‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम’ में उन्होंने उतने ही लय, गमक और प्राण डाले जितने कि भक्त कवि तुलसीदास के पद ‘ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां’ में आस्था के सुर. एक तरफ वे हृदय को चीर देने वाला बेधक नात ‘मेरा बिछड़ा यार मिला दे सदका रसूल का’(सोहनी महीवाल) गाकर दुख के सात आसमान रच देती हैं, तो ठीक उसी क्षण कुछ शोख, कुछ नटखट ढंग से ‘सायोनारा’ (लव इन टोकियो) कहती हुई बहुतेरे युवाओं को घायल कर डालती हैं. जयदेव के संगीत पर एक बार फिर से शहीदों को नमन करते हुए बेहद श्रुतिमधुर ‘जो समर में हो गए अमर मैं उनकी याद में’ जैसा गीत गाकर एक बार फिर से देशप्रेम का जज्बा उकेरने में सफल रहती हैं, तो पंडित भीमसेन जोशी के सुर में सुर मिलाते हुए ‘राम का गुन गान करिए’ जैसा मनोहारी भजन रचने में व्यस्त हो जाती हैं.

लता जी ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित मुसाफिर (1957) फिल्म के लिये प्रख्यात कलाकार दिलीप कुमार के साथ एक युगल गीत गाया था, जिसके बोल हैं लागी नाहीं छूटे रामा.लता जहां बेगम अख्तर की गाई गजल ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे’ के प्रति आसक्त हैं, तो वहीं बेगम अख्तर उनकी गाई हुई दस्तक फिल्म की गजल ‘हम हैं मताए कूचा ओ बाजार की तरह’ पर दिलोजान से कुर्बान हैं. रीमिक्स और कवर वर्जन के दौर में जब प्रतिभाशाली संगीतकार तक उनके गाए हुए गीतों की नकल करके एक नया बाज़ार तैयार कर रहे हैं, स्वयं लता बहुत पहले ऐसे ढेरों सलोने गीतों को अपने विशुद्ध मौलिक अंदाज में गाकर मकबूल बना चुकी हैं. यह तथ्य भी उनकी मेडलों की फेहरिस्त में इजाफा करता है कि अपने से आधी उम्र से कम के युवा गायकों एवं संगीतकारों के साथ कदम से कदम मिलाते हुए वे आज भी जीवंत रूप से सक्रिय और कर्मशील हैं. सबसे शानदार क्षण तो उनके सांगीतिक संसार में तब दिखता है, जब भारत की विविधवर्णी सांस्कृतिक छवि को दिखाने वाली एक छोटी-सी प्रस्तुति के अंत में ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गाते हुए वे अपने बायें कंधे पर तिरंगा आंचल की तरह पसारती हैं. तब अचानक ऐसा लगता है कि शायद यही उनकी सबसे महत्वपूर्ण और मुकम्मल पहचान है.

यह अकारण नहीं है कि जीवन भर संगीत, रिकॉर्डिंग स्टूडियो एवं मंचों को मंदिर मानने वाली इस गायिका के यहां गुरु से सीखा हुआ वही भूपाली राग सर्वाधिक प्रिय रहा जिसमें घर-आंगन और मंदिर को पवित्र करने वाला प्रार्थना गीत रचा गया है. ‘ज्योति कलश छलके, हुए गुलाबी लाल रुपहले रंग-दल बादल के, ज्योति यशोदा धरती मैया नील गगन गोपाल कन्हैया, श्यामल छवि झलके’ की अद्भुत अलौकिक सृष्टि के धरातल में घर-आंगन को धोते हुए रंगोली सजाने, तुलसी के बिरवे पर जल चढ़ाने के साथ जिस दीपदान की कल्पना रची गई है, शायद वह भारतीय समाज की सबसे प्रासंगिक सांस्कृतिक छवि है.
अनगिनत मानद उपाधियां, फिल्म ट्रॉफियां, देश-विदेश के तमाम नागरिक सम्मान सहित ‘भारत रत्न’ जैसे अलंकरण चाहे कितने भी बड़े क्यों न हों उनकी एक सुरीली आहट पर फीके पड़ जाते हैं. लता जी बारे में एक बार उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने कहा था कि अगर सरस्वती होंगी तब वह उतनी ही सुरीली होंगी जितनी कि लता मंगेशकर हैं. हम सभी गर्व कर सकते हैं कि हम उस हवा में सांस ले सकते हैं जिसमें साक्षात सरस्वती की आवाज भी सुर लगाते हुए सांस ले रही है.   

‘मुझे गाना मिला है, वही मेरा ईश्वर है’

विषाद, प्रेम और विरह, पीड़ा और आनंद को आत्मीय और मर्मस्पर्शी स्वर देने वाली लता मंगेशकर की उपस्थिति एक किंवदंती की तरह रही है. सुर-साम्राज्ञी, संगीत की देवी, सरस्वती-पुत्री, गानसरस्वती जैसे प्रतीक उनकी शख्सियत के आगे अदने ही लगते हैं. युवा कवि एवं संस्कृतिकर्मी यतीन्द्र मिश्र से भारतरत्न  सुश्री लता मंगेशकर की बातचीत के अंश

आपके लिए सरस्वती की क्या परिभाषा है?

(हंसते हुए) बड़ा मुश्किल सवाल है. हम लोग इस तरह मानते हैं कि गाने की देवी हैं वे. इसके अलावा उनके बारे में मैं कुछ बोल नहीं सकूंगी, क्योंकि वे तो देवी हैं, साक्षात ज्ञान की मूर्ति. मैं हमेशा उनसे यही कामना करती हंू कि जो तुमने दिया है मुझे, वह ऐसे ही रखो, उसमें कभी कमी न आए और अगर कमी हो, तो फिर मैं न रहूं.

कौन-कौन से राग हैं, जो आपके दिल के करीब हैं?

मुझे दो राग बहुत अच्छे लगते हैं भूपाली और मालकौंस. मैंने अपने गुरू जी उस्ताद अमान अली खां भेंडी बाजारवाले से भूपाली की यह बंदिश सीखी थी, जो आज भी मुझे बेहद प्रिय है. (गाकर बताती हैं) ‘अब मान ले री प्यारी.’ मुझे भूपाली इसलिए भी बहुत पसंद है क्योंकि हमारे यहां सुबह की शुरुआत जब होती है, तब भूपाली में ही अकसर भजन वगैरह गाये जाते हैं. मैं बचपन से पिता जी के द्वारा और घर-परिवार में भजन के समय भूपाली सुनती रही हूं, शायद इसी कारण यह राग मेरे दिल के बहुत करीब है. बहुत बाद में मैंने हृदयनाथ के संगीत निर्देशन में ‘चला वाही देस’ के लिए भूपाली में ही ‘सांवरे रंग राची’ गाया था.

आपने  ‘भाभी की चूडि़यां’  फिल्म में भी भूपाली का बहुत सुंदर रूप  ‘ज्योति कलश छलके’  गीत में दर्शाया है.

आप सही कह रहे हैं. मेरे अपने गाए हुए गीतों में ‘ज्योति कलश छलके’ मुझे बहुत प्रिय है. यह गीत भी उसी तरह बनाया और फिल्म में दिखाया गया है जिसकी चर्चा मैंने अभी आपसे की. हमारे यहां सुबह घरों में पानी डाला जाता है, रंगोली सजाते हैं और तुलसी के पास जल देते हुए भजन गाते हैं. इसे ‘सड़ा’ कहते हैं. ‘ज्योति कलश छलके’ में यही सड़ा करना दिखाया गया है. चूंकि इस फिल्म के संगीत निर्देशक भी सुधीर फड़के जैसे खांटी मराठी संगीतकार थे, इसलिए उन्हें महाराष्ट्र की इस परंपरा का बहुत अच्छे ढंग से ज्ञान था, जो गीत में भी उतर सका.

आपने  ‘राग रंग’  फिल्म में यमन की एक प्रचलित बंदिश को बहुत सुंदर ढंग से गाया है,  ‘ये री आली पिया बिन’  इस पद को गाते हुए कैसा लगा?

(हंसती हैं) आपको ‘राग रंग’ की वह बंदिश याद है. रोशन साहब ने बहुत अच्छे ढंग से इसे कंपोज कराया था. रागों के लिहाज से यदि आप पूछते हैं, तो एक बात बहुत सच्चे मन से कहना चाहूंगी कि लगभग सभी राग मुझे कहीं न कहीं बेहद अच्छे लगते हैं. किसी खास राग को लेकर कभी कोई परेशानी हुई हो, या मुझे कम पसंद आता हो ऐसा मुझे कभी नहीं लगा. मुझे यमन, जयजयवंती, मधुवंती, बहार, मल्हार और बहुतेरे राग पसंद हैं. मैंने रागों पर इतने गाने गाए हैं कि अभी तुरंत यह याद कर पाना थोड़ा मुश्किल लगता है कि कौन-से गाने फिल्मों से चुनकर याद करूं. हां, ‘सीमा’ फिल्म में जयजयवंती की बंदिश ‘मनमोहना बड़े झूठे’ मुझे बहुत अच्छी लगती है. इसके अलावा अनिल विश्वास के निर्देशन में ‘सौतेला भाई’ में मेरा गाया हुआ ठुमरी और दादरे के अंदाज का गाना ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूं’ भी मुझे शास्त्रीय ढंग के गीतों में महत्वपूर्ण लगता है.

यह उन बड़े लोगों की कृपा है कि मेरे बारे में ऐसा सोचते थे. वरना मेरा उनकी गायिकी के आगे वजूद क्या?अगर कभी आपको केएल सहगल के साथ गाने का अवसर मिलता, तो उनका कौन-सा युगल गीत उनके साथ गाने के लिए चुनतीं और उनका कौन-सा एकल गीत आप स्वयं गाना चाहतीं?

मुझे सहगल साहब के ढेरों गाने पसंद रहे हैं. आज भी उन्हें सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता है. मैंने जब अपने समय के बड़े संगीतकारों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक रिकॉर्ड तैयार किया था, तब उनके बहुत सारे गाने चुनकर गाए थे. उसमें मुझे ‘सो जा राजकुमारी’, (जिंदगी), ‘मैं क्या जानूं क्या जादू है’ (जिंदगी) और ‘नैनहीन को राह दिखा प्रभु’ (भक्त सूरदास) जैसे तीन गीत बेहद अच्छे और सहगल साहब के संदर्भ में महत्वपूर्ण लगते थे. ये तीनों गाने आज भी उतने ही नये और ताजे लगते हैं. इसके अलावा ‘बालम आय बसो मोरे मन में’ (देवदास), ‘दो नैना मतवारे तिहारे हम पर जुलुम करें’ (मेरी बहन), ‘दुख के अब दिन बीतत नाहीं’ (देवदास) और ‘सप्त सुरन तीन ग्राम गाओ सब गुणीजन (तानसेन) भी अत्यंत प्रिय हैं. सप्त सुरन… लक्षण गीत है और शुद्ध रूप से राग आधारित है, इसलिए भी यह मुझे काफी पसंद है.

अगर एक गाना चुनना हो, तो वह कौन-सा होगा?

पंकज मलिक जी के संगीत निर्देशन में संभवतः धरतीमाता फिल्म में उनका गाया हुआ ‘अब मैं काह करूं कित जाऊं’.

यदि कोई ऐसा मौका आपके सामने होता कि अपने गाए गीतों में से किसी को नूरजहां की आवाज में सुन सकतीं, तो ऐसे में कौन-सा गीत आप उनसे सुनना पसंद करतीं?

‘ऐ दिले नादां’. मुझे ख़य्याम साहब की बहुत मधुर धुन के कारण भी यह गीत अच्छा लगता है. नूरजहां जी की आवाज में इसे सुनना अवश्य पसंद करती. एक बात आपको बताऊं, एक बार मैं और वे दोनों लंदन में थे. मैं उनसे मिलने उनके घर पर गई हुई थी. जब वे मुझे बाद में दरवाजे तक छोड़ने आईं, तो मुझसे बोलीं ‘बेटा! मुझे ऐ दिले नादां सुना दो.’ तब मैंने जल्दी में ही लिफ्ट में गाने का मुखड़ा और एक अंतरा गाया. वे बहुत खुश हो गईं और मुझसे बोलीं, ‘बेहद सुंदर गाया तुमने. जीती रहो, अल्लाह तुमको लंबी उम्र दे.’

यदि आप इतनी महत्त्वपूर्ण पार्श्वगायिका न होतीं, तो किस शास्त्रीय गायक या गायिका की तरह बनना चाहतीं?

उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब की तरह.

कोई खास वजह? उनके साथ का कोई आत्मीय संस्मरण, जो आप बताना चाहें?

खास बात बस इतनी है कि वे बहुत बड़े और महान गायक थे. हर चीज को इतनी खूबसूरती से गाते थे कि बस उसका सुनना अच्छा लगता था. आज भी उतना ही अच्छा लगता है. उनकी गाई हुई ठुमरियों में जैसे जादू था. एक वाकया याद आता है. सन 1962 में कलकत्ता में एक प्रोग्राम था, जिसमें मुझे भी गाना था और वहां खां साहब पहले से ही आए हुए थे. उन्हें भी उसी कार्यक्रम में गाना था. हम लोग जब कार्यक्रम के हॉल की तरफ अंदर गए तो देखा, वहां विंग में खां साहब बैठे थे. बंगाल की गायिका संध्या मुखर्जी भी मौजूद थीं. उन्होंने जब मुझे देखा तो बोले ‘आओ बेटा, गाओ मेरे साथ.’ मैं सकपकाई और थोड़ा संकोच में कहा ‘मुझे बहुत डर लगता है, मैं आपके बराबर कैसे गा सकती हूं?’ तब वे बोले, ‘अरे, इसमें डरने की क्या बात है? मुझे पता है तुम मेरे साथ गा सकती हो. आओ बैठो और मेरे साथ गाओ.’ वे अपने हाथ में स्वरमंडल छेड़ रहे थे और इशारे से मुझे और संध्या को बुलाने लगे. मैंने फिर इसरार से कहा, ‘खां साहब मैं इतनी बदतमीज नहीं हूं कि आपके बराबर बैठकर गाऊं. मुझे लगता है कि मुझे आपको सुनना चाहिए न कि आपके साथ मिलकर गाना.’ हालांकि संध्या उनके बगल में डरकर बैठ गई और थोड़ी देर साथ गाती रही. बात यह नहीं है कि मैं उनके साथ गा नहीं सकती थी. मुझे आज भी लगता है कि वे बड़े लोग थे और हम लोगों को उनका पूरा आदर करते हुए कभी भी बराबरी से बैठकर गाना नहीं चाहिए था. जब वे मुंबई में रहते थे, तो मैं उनके घर अकसर चली जाती थी. उनका बहुत लाड़ मुझे मिला है.

आपके बारे में सबसे मुकम्मल और ऐतिहासिक बात तो उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब ने ही कही थी कि  ‘कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती.’

(हंसती हैं) यह उन बड़े लोगों की कृपा है कि मेरे बारे में ऐसा सोचते थे. वरना मेरा उनकी गायिकी के आगे वजूद क्या? मुझे ऐसे बड़े लोगों का प्यार और आशीर्वाद मिला है और समय-समय पर सराही या टोकी गई हूं, इसे अपना सबसे बड़ा धन मानती हूं.

आपको उनकी कौन-सी ठुमरी भाती है?

कई हैं. ‘आए न बालम’ खासकर याद आती है. एक देस राग में बहुत अद्भुत ढंग से उन्होंने गाया था ‘पैंया परूं तोरे श्याम’. उसका असर आज तक महसूस करती हूं.

गांधी जी को आपने कभी देखा है?

देखा तो नहीं, कई मर्तबा सुना जरूर है. मुझे याद पड़ता है कि चालीस के दशक में मुंबई में शिवाजी पार्क और चौपाटी पर उन्हें जनसभा को संबोधित करते हुए सुना था. इस बात का मलाल भी है मन में कहीं कि मैं व्यक्तिगत रूप से उनसे मिल न सकी.

गांधी जी की जब हत्या हुई तब उस समय के बारे में आपकी क्या स्मृति है? उस समय कैसा लगा था?

मुझे अच्छी तरह याद है, उस दिन गोरेगांव में फिल्मिस्तान स्टूडियो में ‘शहनाई’ फिल्म की सिल्वर जुबली पार्टी हो रही थी. वैसे मैं इस तरह के फंक्शन में कम जाती थी, मगर उस दिन वहां मौजूद थी. मुझे याद पड़ता है कि वहां कई लोग आए थे, जिनमें फिल्मिस्तान के मालिक राय बहादुर चुन्नीलाल जी भी मौजूद थे, जो मशहूर संगीतकार मदन मोहन के पिता थे. कार्यक्रम समाप्त भी नहीं हुआ था, जब मैं वहां से निकलकर लोकल ट्रेन में सफर के लिए स्टेशन आई. तब मैंने देखा कि स्टेशन पर जल्दी ही अंधेरा हो गया था, लोग भाग रहे थे इधर-उधर. पूरे स्टेशन और बाहर तक अफरातफरी का माहौल था, लोग चिल्ला रहे थे गांधी जी की हत्या हो गई. मुझे बहुत बुरा लगा, थोड़ा डर भी. मैं चुपचाप जब घर आई, तो बहुत रोई. मन बहुत उदास हो आया था, उस समय यह बहुत गहरे सदमे की स्थिति थी. एकबारगी लगा कि जैसे अपने भीतर ही कुछ एकदम से खत्म हो गया है. मन बुझ गया था. मेरी मां जितना मुझे समझाती थीं, उतना ही रोना आता था. गांधी जी की हत्या से उबरने में भी काफी दिन लगे. आज भी जब वह दिन याद आता है, तो सारा का सारा मंजर दिमाग में बहुत साफ ढंग से घूम जाता है.

मां जितना समझातीं, उतना ही रोना आता था. गांधी जी की हत्या से उबरने में काफी दिन लग गएआपको आजादी का दिन कैसा लगा था? क्या वह आम दिनों से कुछ अलग था?

15 अगस्त, 1947 बहुत अच्छी तरह से याद है. हम लोग घर पर ही थे, मगर शाम को पूरे परिवार के साथ बाहर घूमने निकले. जगह-जगह रोशनी और पटाखों का इंतजाम था. हम देर तक उसे देखते रहे और मुंबई की सड़कों पर घूमते रहे. जहां तक मुझे याद है, थोड़ी देर के लिए ट्रकों पर बैठकर भी हम लोग मुंबई में आजादी का नजारा ले रहे थे. बहुत सारे ट्रकों पर लोग झुंड के झुंड बैठकर खुशियां मनाते आ-जा रहे थे. घर में उत्सव जैसा माहौल था. मेरी मां ने उस दिन कुछ मीठा बनाया था, जिसे हम सभी ने खुशी में मिल-बांटकर खाया. मैं प्रसन्न थी और आज भी ईश्वर का धन्यवाद देती हूं कि अपने देश की आजादी के दिन को देखने के लिए इतिहास में कहीं मैं भी मौजूद थी.

आजादी के समय मिली खुशियों के बरक्स बाद में विभाजन का दंश भी आपने देखा होगा. उसे किस तरह याद करती हैं?

वह दर्द तो हर एक भारतवासी का रहा है. मुझे विभाजन की तकलीफ है, क्योंकि अधिकांश बड़े फनकार और संगीतकार भी उससे प्रभावित हुए और एकाएक मुंबई फिल्म इंडस्ट्री को छोड़कर पाकिस्तान चले गए. उसमें ‘खजांची’ फिल्म के निर्माता दलसुख पंचोली, संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर साहब और गायिका नूरजहां जी की विशेष कमी खलती है. गुलाम हैदर साहब मुझे बहुत मानते थे, उनके संगीत निर्देशन में मैंने कई गाने गाए. उनका जाना मुझे खराब लगा था. विभाजन की त्रासदी को दोनों ओर के लोगों ने जिस तरह भोगा और झेला है, उसको सोचकर आज भी अच्छा नहीं लगता. मुंबई से भी कई लोग गए और वापस मुंबई लौट आए. कुछ नये लोग भी आए. उन दिनों ऐसा लगता था कि भले ही पार्टीशन हो गया है, मगर हम कलाकारों के मन में तो कोई फांस किसी पाकिस्तान के कलाकार या नागरिक के लिए नहीं है, कभी आई भी नहीं, उसके साथ यह भी था कि कभी डर भी नहीं लगा. हमेशा यह लगता था कि सब अपने हैं, और अपनों से कैसा पराया जैसा सोचना.

जीवन का सबसे आत्मीय और मार्मिक क्षण आपके लिए क्या रहा?

कई दफा जब हम लोग स्टेज पर गाते हैं और ऑडियंस में बैठे हुए तमाम लोग बहुत सहज और नेचुरल ढंग से सराहते हैं, तब वही क्षण हमारे लिए बहुत अहम और बड़ा होता है. वही शायद मेरे लिए सबसे मार्मिक क्षण भी है.

दुनिया लता मंगेशकर की दीवानी है, स्वयं लता जी मिस्र की गायिका उम कुलसुम की. कुलसुम की गायिकी में ऐसा क्या है जो आपको इतना प्रभावित करता है?

एक समय था, जब मैं उम कुलसुम को बेहद पसंद करती थी. उनकी आवाज बुलंद थी और जिस तरह के गीत उन्होंने गाए हैं, वे मुझे कुछ दूसरे ढंग के, बहुत मौलिक लगते थे. शायद इसीलिए उम कुलसुम को सुनना मेरी पसंद की गायकी में शुमार था. उनके अलावा लेबनीज की फैरूज भी मुझे अच्छी लगती थीं. उनकी आवाज कुछ अलग दमखम लिए हुए थोड़ी भारी-सी थी. शंकर जयकिशन साहब द्वारा कंपोज किया गया ‘आवारा’ फिल्म का गीत ‘घर आया मेरा परदेसी’ उम कुलसुम के एक प्रचलित गीत ‘अला बलाड एल महबूब’ की धुन पर रचा गया था, जिसे उन्होंने 1936 में प्रदर्शित मिस्र की फिल्म ‘वीदाद’ से लिया था. मुझे ‘घर आया मेरा परदेसी’ गाते हुए अलग किस्म का आनंद आया. जब मुझे पता लगा कि यह असल में कुलसुम की धुन पर आधारित है तो मैंने बाद में ढूंढ़कर उनके ढेरों ऐसे मधुर गीतों को बहुत ध्यान से सुना. एक महत्वपूर्ण बात इसी संदर्भ में यह भी याद आती है कि अब्दुल वहाब नाम से एक बहुत सम्मानित संगीत निर्देशक मिस्र में हुए, जिनकी ढेरों धुनों का भारत में फिल्म संगीत में इस्तेमाल हुआ. खुद मैंने उनकी एक प्रचलित धुन पर नौशाद साहब द्वारा बनाया हुआ ‘उड़नखटोला’ फिल्म का गीत ‘मेरा सलाम ले जा दिल का पयाम ले जा’ गाया था.

मुझे एक मजेदार बात यह ध्यान में आती है कि मैंने विदेशों में भ्रमण के दौरान यह पाया है कि हमारे भारतीय फिल्म संगीत की बहुत लोकप्रियता वहां रही है. उसका शायद एक प्रमुख कारण यह भी रहा होगा कि विदेशी लोग हमारे फिल्म संगीत पर इसलिए उत्साह से प्रतिक्रिया जताते हैं कि उन्हें लगता है कि जिन धुनों पर हम अपना हिंदी गीत गा रहे हैं, वह कहीं उनका गाना ही है, जिसे हम अपनी भाषा में गा रहे हैं. (हंसती हैं)

खाली समय में अपना गाया हुआ कौन-सा गाना सुनना पसंद करती हैं?

जब अकेले होती हूं, तब मीरा के भजन सुनना अच्छा लगता है. मैंने ‘चला वाही देस’ के गानों को बहुत तन्मयता से डूबकर गाया था. आज भी मुझे ‘सांवरे रंग राची’ और ‘उड़ जा रे कागा’ भाते हैं. इन्हीं गीतों को सुनकर खाली वक्त गुजारती हूं.

जितने संगीतकारों के साथ आपने गाया है, उनमें वे कौन लोग रहे हैं, जिनकी जटिल धुनों पर कुछ मेहनत करते हुए आपको आनंद आया?

मेरे लिए जटिल गाने मदन मोहन, सलिल चौधरी और सज्जाद हुसैन बनाते थे. सज्जाद साहब की धुन पर ‘ऐ दिलरुबा नजरें मिला’ (रुस्तम सोहराब) जैसा गाना मेरे लिए मेहनत भरा था. मगर उतना ही पसंद का भी. सलिल चौधरी बहुत काबिल म्यूजिक डायरेक्टर थे. उनके निर्देशन में गाते वक्त गायक को ही मालूम हो सकता था कि दरअसल वह क्या गाने जा रहा है. इनके अलावा हृदयनाथ ने भी मेरे लिए कुछ जटिल धुनों पर अच्छे गाने तैयार किए, जिनमें ‘हरिश्चंद्र तारामती’ का ‘रिमझिम झिमिवा’ और ‘लेकिन’ का ‘सुनियो जी अरज म्हारी’ काफी मुश्किल गीत थे.

संगीत के अतिरिक्त साहित्य के प्रति कैसा लगाव रहा है? कौन-सा साहित्य ऐसा है, जो रुचिकर लगता है?

मैंने किताबें बहुत पढ़ी हैं. पर मैं आपको कैसे बताऊं कि पसंद मेरी बहुत अलग-अलग है. सबसे ज्यादा दिल के करीब शरतचंद्र का साहित्य लगता है. उनका श्रीकांत और देवदास उपन्यास मैंने कई बार पढ़ा है, मगर सबसे ज्यादा उत्कृष्ट मैं उनके उपन्यास विप्रदास को मानती हूं. प्रेमचंद बाबू की किताबें भी पसंद हैं. मराठी का अधिकांश साहित्य पढ़ा है, जिसमें भजन और अभंग पद मुझे भाते हैं. उसमें भी ज्ञानेश्वरी सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, हालांकि उसकी जुबान कम समझ में आती है. वह थोड़ी जटिल मराठी में है, बावजूद इसके मुझे बेहद पसंद है और इसीलिए मैंने उसे गाया भी है. हिंदी का भक्ति साहित्य, खासकर मीराबाई, सूरदास और कबीर मुझे बेहद सुंदर लगते हैं. तुलसीदास भी पसंद हैं. और सबसे ज्यादा मुझे गालिब, मीर, जौक और दाग की शायरी अच्छी लगती है. मैं इन बड़े शायरों को अकसर पढ़ती रहती हूं.

फिल्मों में भी मुझे कुछ लोगों का काम साहित्य के स्तर का लगता है, जिसमें साहिर लुधियानवी और मज़रूह सुलतानपुरी की नज्में बेहद प्रिय हैं. इसके अलावा शकील बदायूंनी और हसरत जयपुरी की भी शायरी अच्छी लगती है. एक बात मुझे बहुत आकर्षित करती है कि शैलेंद्र जी हिंदी के बहुत बेहतर कवि थे और उसी के साथ उर्दू में भी बहुत सुंदर लिखते थे. इसी तरह साहिर साहब और मज़रूह सुलतानपुरी उर्दू के बड़े शायर रहे, मगर हिंदी में भी गीत लिखते वक्त उन्होंने कमाल की कलम चलाई है. यह चीज मुझे खास तौर से भाती है. मज़रूह साहब से तो मेरा पारिवारिक रिश्ता और दोस्ताना था, वे जितने बड़े शायर थे, उससे भी ज्यादा बड़े इंसान थे. आजकल गुलजार साहब हैं, जिनकी शायरी और कविता बहुत शानदार है. इसमें कोई शक नहीं कि पुराने समय से लेकर आज तक वे उतनी ही कमाल की शायरी करते रहे हैं.

एक अपनी पसंद का नाम आप भूल रही हैं, पं नरेंद्र शर्मा.

आप सही कह रहे हैं. मेरे ध्यान से उतर गया था. वे हिंदी के उत्कृष्ट कवि थे. मुझे बेटी मानते थे और मैं उनकी बेटियों की तरह ही उनके घर में आती-जाती थी. मेरा आत्मीय रिश्ता उनसे जीवन भर निभा. मैंने उनके बहुत सारे फिल्मी और गैरफिल्मी गीत गाए हैं. मुझे सबसे ज्यादा उनका लिखा ‘सुबह’ फिल्म का प्रार्थना गीत ‘तुम आशा विश्वास हमारे रामा’ पसंद है. इसी के साथ मुझे ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ का टाइटिल सांग व्यक्तिगत तौर पर प्रिय रहा है. ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ के साथ की एक घटना है कि जब राज कपूर यह फिल्म बना रहे थे, तब वे पं नरेंद्र शर्मा के पास गए और उनसे कहा, ‘पंडित जी मैं ‘सत्यम शिवम सुन्दरम’ नाम से एक फिल्म बना रहा हूं, जिसमें मुझे एक ऐसा गीत चाहिए जिसमें एक साथ ही सत्य, शिव और सुंदर का अर्थ तथा परिभाषा मिल सके.’ तब उस फिल्म का शीर्षक गीत पंडित जी ने लिखा, जिसे मैंने गाया है. आज भी इस गीत को मेरा गाने का मन करता है.

आपने सैकड़ों फिल्मों के लिए तकरीबन हजारों अप्रतिम गाने गाए हैं. अगर आपसे उनमें से कुछ एक फिल्मों को चुनने को कहा जाये, तो वे कौन-सी फिल्में होंगी जिनके गीत सबसे ज्यादा याद रखने लायक आपको आज भी लगते हैं?

बहुत सारी फिल्में हैं, जिनको याद रखना चाहूंगी. कई फिल्मों के गाने तो अकसर मन में बने रहते हैं. फिर भी आप पूछ रहे हैं, तो मैं ऐसी फिल्मों में ‘मधुमती’, ‘मुगले आज़म’ और ‘पाकीज़ा’ का नाम लेना चाहूंगी. हां, एक फिल्म और है, जो मुझे बहुत पसंद है ‘जहांआरा’. इसके गाने बहुत अच्छे थे, मगर फिल्म नहीं चली. कमाल अमरोही की ‘महल’ फिल्म तो हमेशा से मुझे प्रिय रही. इसके सारे गाने, जो दूसरों ने भी गाए मुझे आज भी अच्छे लगते हैं. इस फिल्म के मेरे तीनों गीत ‘आएगा आने वाला’, ‘मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना’ और ‘दिल ने फिर याद किया’ तो हमेशा से ही मेरे पसंदीदा रहे.

बेसुरा और बेताला गाना सुनकर आपकी क्या प्रतिक्रिया होती है?

(हंसते हुए) मैं आपको सच्ची बात बताऊं, एक बार बेताला तो सुन सकती हूं, मगर बेसुरा नहीं सुन सकती. बेसुरा गाना जैसे मुझे ईश्वर को नाराज करने जैसा लगता है. अगर कभी बेसुरे गायन के चक्कर में पड़ती हूं, तो बहुत पीड़ा होती है, गुस्सा भी आता है.

आशा भोंसले द्वारा गाए हुए किस गाने पर आप रश्क करती हैं, जो आप अपने संगीत करियर में खु़द गाना चाहतीं?

आशा के ढेरों ऐसे गाने हैं जो कमाल के हैं. मुझे कई गाने उसके ऐसे लगते हैं जिन्हें बार-बार सुनने का मन होता है. कई सारे गाने तो एकाएक याद नहीं कर पा रही हूं, मगर ‘मेरे सनम’ का ‘ये है रेशमी जु़ल्फों का अंधेरा’, ‘दिल ही तो है’ का ‘निगाहें मिलाने को जी चाहता है’, ‘हावड़ा ब्रिज का ‘आइए मेहरबान’ और ‘उमराव जान’ का ‘दिल चीज क्या है..’ जैसे गाने तो भूलते ही नहीं. एक गाने का जिक्र अवश्य करना चाहूंगी, जिसे आरडी बर्मन ने कंपोज किया था. वह ‘तीसरी मंजिल’ फिल्म में रफी साहब के साथ गाया हुआ वेस्टर्न आर्केस्ट्रेशन पर ‘आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा’ है. मैं बेहिचक बहुत खुशी से स्वीकारना चाहती हूं कि आशा ने जिस सुंदरता और लोच से इस गाने को गाया है, वह शायद मैं कभी भी उस तरह गा न पाती.

आपके संगीत का अगर इम्तिहान होना तय हो, तो परीक्षक किसे चुनना पसंद करेंगी?

जो चीज मैं गाती हूं, उसके लिए तो किसी गायक को ही लूंगी. मैं हमेशा यही समझती हूं जब भी फिल्म के लिए गाती हूं, माइक के सामने होती हूं, प्राइवेट रिकॉर्डिंग्स में या मंच और कंसर्ट में मेरा गाना हो रहा होता है, वही मेरा एग्जाम है. अगर सुनने के बाद लोगों ने कहा कि बहुत अच्छा गाया, तो लगता है कि मैं पास हो गयी. यह हर बार होता है और हर बार यही लगता है कि मेरा इम्तिहान हो रहा है, जिसमें मुझे पास होना है. लोग तो बीए, एमए करते हुए डिग्री लेकर स्वतंत्र हो जाते हैं, मगर हमारे लिए तो हर प्रोग्राम और हर रिकॉर्डिंग में पास या फेल होने की डिग्री जारी होती है.

एक कलाकार के लिए उसका सबसे बड़ा सत्य क्या होता है?

अगर कोई सच्चा कलाकार है, तो वह अपनी कला से प्यार करे, ज्यादा से ज्यादा रियाज करे और अपनी कला के मूल्यों के प्रति बड़े से बड़ा बलिदान देने से पीछे न हटे. यही शायद सबसे बड़ी सच्चाई होगी, जिसको एक गुणवंत कलाकार के अंदर होना चाहिए.

क्या आपको कभी एकांत में ईश्वर मिला है?

मुझे गाना मिला है, वही मेरा ईश्वर भी है.

ऐ मेरे वतन के लोगों…

ऐसा तो हो नहीं सकता कि लता बाई का गाया कोई गाना आपका अपना गाना न हो. कहीं कोई धुन, कहीं कोई बोल और कहीं कोई पूरा गाना ही जीवन की पगथली में कांटे की तरह चुभ कर टूट जाता है. मर्म में खुबी हुई नोक रह जाती है और जो जब-तब या कभी-कभी अकारण ही कसकने लगती है. तब वह धुन, वह बोल और वह गाना बार-बार घुमड़ता है और आप गुनगुनाते रहते हैं. ऐसा होने के लिए जरूरी नहीं कि आप गाना सुनने वाले या गाने वाले हों. हर व्यक्ति गुनगुनाता है -बाथरूम हो या कमरा या सड़क या सुनसान बियाबान या भीड़ भरा चौराहा. याद कीजिए आपने अपने को कभी न कभी तो गाते हुए पाया या पकड़ा ही होगा. है न?

लता मंगेशकर होने की सार्थकता यह है कि पचास साल में उन्होंेने इतनी परिस्थितियों में और इतनी भाषाओं में इतने गीत गाए हैं कि शायद ही कोई भारतीय होगा जिसके निजी जीवन को उनके स्वर ने छुआ न हो. गाने में यश है, कीर्ति है और अब तो धन भी है. लेकिन ये तीनों तो आप प्रतिभाशाली और मेहनती और अपनी धुन के पक्के हों तो और कई क्षेत्रों में भी पा सकते हैं. जैसे लता मंगेशकर के गाने की स्वर्ण जयंती पर बंबई के शिवाजी पार्क समारोह में बोलने आए सुनील गावसकर. बल्लेबाजी के इस वामन अवतार ने तीन डग से क्रिकेट की दुनिया नाप ली है. यश, कीर्ति और धन उन्हें भी भरपूर मिला है और उनकी कीर्ति ध्रुव तारे की तरह रहनी है. लेकिन एक मामूली भारतीय के जीवन को उसकी निजता में जिस तरह लता मंगेशकर के स्वर ने छुआ है वैसा सुनील गावसकर के बल्ले ने तो नहीं छुआ.

गाना क्रिकेट खेलने से कहीं अधिक स्वाभाविक, व्यापक और सार्थक है. कोई आदमी-औरत नहीं है जिसने गाया न हो – प्रेम में, सुख में, दुख में, विषाद में, समर्पण में, शरारत में यानी भावावेग की कोई न कोई अभिव्यक्ति तो ऐसी है ही जो किसी के जीवन में गाने से हुई हो. गाने में ऐसा कुछ आदिम है जो हम सब के जीवन में है. भारतीयों के जीवन के इस आदिम तत्व में लता मंगेशकर कहीं न कहीं स्वर की तरह घुली और खुबी हुई हैं. इतना व्यापक और गहरा स्पर्श इस देश के और किसी भी गाने वाले या गाने वाली का नहीं है.

फिल्मों की टीन टप्परी दुनिया में वैसे भी कोई ज्यादा देर तक नहीं टिकता. पचास साल तो बहुत बड़ा काल है. इतने में कम से कम पांच पीढ़ियां बीत जाती हैं. सदाबहार कहे जाने वाले हीरो, हमेशा सोलह साल की बनी रहने वाली तारिकाएं, संगीत निर्देशक, गायक, गीतकार, कहानीकार सभी मौसम के साथ चढ़ते और उतर जाते हैं. उस बाजार में कोई किसी का नहीं होता. बॉक्स ऑफिस पर जो जितना चल जाए उतना ही उसका करियर है. लता मंगेशकर ने जब पहला गाना गाया तो वे तेरह बरस की थीं. और हालांकि उनके घर में गाने-बजाने की परंपरा थी और पिता मास्टर दीनानाथ का तो ट्रूप ही था और वही लता मंगेशकर के पहले गुरु थे. लेकिन यह घर और घराना उनके काम नहीं आया. पहले माता साथ छोड़ गईं और फिर पिता. लता मंगेशकर के काम आई उनकी अद्भुत और जन्मजात प्रतिभा, कंठ और लगातार रियाज करते रहने और अपने को बेहतर बनाते रहने की लगन. फिल्मी दुनिया की लगातार खिसकती रेत में लता जी बचपन से ले कर अब बुढ़ापे के तिरसठ साल तक अगर पैर जमाए मजबूती से खड़ी रहीं तो इसका कारण उनका अपना गाना ही है. अगर उन्होंने कहीं समझौता नहीं किया और अपने आत्म-सम्मान को कहीं आंच नहीं आने दी तो सिर्फ इसलिए कि इस चरित्रवान स्त्री को अपनी प्रतिभा पर गजब का भरोसा था और है.

पचास साल से वे गा रही हैं और गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में सबसे ज्यादा गीत गाने के कीर्तिमान को छोड़ भी दें तो भारतीय सिने संगीत में वे हमेशा शिखर पर रही हैं. इतने साल कोई शिखर पर नहीं रहा, लेकिन लता मंगेशकर को कोई चुनौती नहीं मिली. बहुत कहा गया कि उन्होंने अपना एकाधिकार जमा रखा है. वे अपनी प्रतिभा और अपने स्थान का दुरुपयोग करती हैं और संगीतकारों और निर्माताओं को धौंस पट्टी में रखती हैं. वे नयी गायिकाओं को उभरने और जमने का मौका नहीं मिलने देतीं. सिने संगीत में उनकी छवि सर्वसत्तावादी और तानाशाह महिला की बनाई गई और तमाम नयी गायिकाओं को उनकी ज्यादती की शिकार. बंबई की फिल्मी दुनिया में और उनकी गलाकाटू होड़ में सारे हथियार और हथकंडे जायज हैं. इनको लता मंगेशकर जैसी समझौता न करने वाली और अपनी प्रतिभा की ऐंठ पर बल खाए खड़ी रहने वाली महिला को कीचड़ में रगड़ने और धूल में मिला देने में अपार आनंद ही मिल सकता है. उन्होंने कोशिश भी बहुतेरी की लेकिन लता मंगेशकर ने न तो मैदान छोड़ा न अपनी गरिमा से नीचे उतर कर गाना गाया.

लता की आवाज बर्फीले पहाड़ों को काट कर आती और ठंडी धार की तरह अंदर उतर जाती हैफिल्मी दुनिया की उस काजल की कोठरी में अगर अभी भी वे अपनी सफेद धोती में ठसके से बैठ कर गाती हैं तो यह उनकी चारित्रिक और धारणा शक्ति की विजय है. फिल्मी दुनिया की शायद ही किसी हस्ती का भीतर और बाहर इतना दबदबा और सम्मान हो जितना लता मंगेशकर का है. उन्होंने ज्यादातर सिनेमा के लिए गाया और फिल्मी संगीत को संगीत के संसार में कोई महत्व नहीं मिलता. लेकिन भीमसेन जोशी जैसे हमारे जमाने के दिग्गज गायक लता मंगेशकर का सम्मान करने शिवाजी पार्क आए थे और कहा कि लता बाई तो महाराष्ट्र को भगवान की देन हंै. कुमार गंधर्व भी पिछले पचास साल के सर्जक गायकों के अग्रणी थे और उनके मन में भी लता मंगेशकर के लिए प्रेम और सम्मान था. अमीर खां साहब क्या सोचते थे मुझे मालूम नहीं. लेकिन शायद ही ऐसा कोई शास्त्रीय गायक हुआ है जिसको लता मंगेशकर ने प्रभावित न किया हो. यह सम्मान फिल्मी दुनिया की किसी गाने वाली या गाने वाले को ही मिला हो, ऐसा नहीं. देश के सभी क्षेत्रों के सभी अग्रणी लोगों में लता मंगेशकर की इज्जत है. सिर्फ सिनेमा के गाने गा कर कोई ऐसी सर्वमान्य लोकमान्यता पा ले तो इसे अद्भुत ही माना जाना चाहिए.

मामूली सड़क छाप आदमी से लेकर अपने क्षेत्र के शिखर पर बैठे व्यक्ति तक का कोई न कोई गाना है जिसे लता मंगेशकर ने गाया है. लेकिन मैं पाता हूं कि सिनेमा का ऐसा कोई गाना नहीं है जो मेरे मर्म में कांटे की तरह खुबा हो और जिसे बार-बार गुनगुना कर मैं राहत और मुक्ति पाता हूं. अपन संगीत के मामले में कोई नकचढ़े आदमी नहीं हैं कि फिल्मी यानी लोकप्रिय संगीत को हिकारत की नजर से देखें. यह भी नहीं कि जिस इंदौर में अमीर खां साहब और देवास में कुमार गंधर्व का गाना सुना उसी इंदौर में जन्मी लता बाई के लिए अपने मन में कोई मोह और सम्मान नहीं है. मेरे एक मामा हारमोनियम अच्छा बजाया करते थे और दफ्तर के बाद के टाइम में संगीत की ट्यूशन किया करते थे. उनका दावा था कि उन्होंने लता को बचपन में गाना सिखाया. मैं तब भी मानता था कि यह गप है क्योंकि लता मंगेशकर का तो जन्म ही सिर्फ इंदौर में हुआ था. उनके पिता अपना ट्रूप ले कर आए थे और चले गए थे. फिर भी इंदौर वालों को गर्व है कि लता मंगेशकर उनके  यहां जन्मीं. वहां उनके नाम पर उनके जन्मदिन पर सुगम संगीत का एक लखटकिया पुरस्कार भी दिया जाता है. अब शायद वहां निराशा हुई होगी कि खुद लता बाई अपने को महाराष्ट्र की कन्या मानती हैं.

लता मंगेशकर का जो गाना मुझे आज भी विचलित करता है वह उन्होंने फिल्म में नहीं गाया. बत्तीस साल पहले दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में चीनी आक्रमण के बाद लता मंगेशकर ने प्रदीप जी का लिखा -ऐ मेरे वतन के लोगों- गाया था जिसे सुन कर जवाहरलाल जी की आंखों से आंसू टपकने लगे थे. उन्होंने लता मंगेशकर को कहा भी था -‘बेटी, तूने आज मुझे रुला दिया.’  वे एक पराजित प्रधानमंत्री के आंसू नहीं थे. वे विश्व शांति के एक ऐसे महापुरुष के आंसू थे जिसे राष्ट्रहित की हिंसक राजनीति ने छल लिया था. मैं उस कार्यक्रम में नहीं था. इंदौर  में बैठा नई दुनिया अखबार निकालता था और चीनी आक्रमण से अपने को उसी तरह छला हुआ और घायल पाता था जैसे जवाहरलाल और अपना पूरा देश. नेफा में हुई पराजय पर रोना नामर्दी लगता था. लेकिन मोर्चे की खबरें पढ़-पढ़ कर और छाप-छाप कर मन में तो रुलाई आती ही थी. लता मंगेशकर का -ऐ मेरे वतन के लोगो- सुन कर और गा कर मन पानी-पानी हो जाता. लगता कि अपन वह शहीद भी हैं जो संगीन पर माथा रख कर सो गए और वह वतन के लोग भी हैं जो अमर बलिदानी को याद करके रो रहे हैं. एक राष्ट्र की आहत आत्मा की आवाज थी जो लता मंगेशकर के गीले गले से निकली थी और करोड़ों लोगों को रुला रही थी. मैं हमेशा गाती हुई लता मंगेशकर और रोते हुए पितृ पुरुष जवाहरलाल को अपनी डबडबाई आंखों के सामने पाता और रुलाई दबाता.

चीन से पराजय का वह अपमान अब समय के कागज पर धुंधला हो कर बहुत हलका पड़ गया है. लेकिन आज भी – ऐ मेरे वतन के लोगों – सुनता हूं तो जैसे घाव में खून भर आता हो और टपकने लगता हो. ठंड और अंधेरे और हताशा के दिन आसपास मंडराने लगते हैं. एक जवान होता लड़का अधेड़ शरीर में देव की तरह आ कर कांपने लगता है. लता मंगेशकर की आवाज बर्फीले पहाड़ों को काट कर आती और ठंडी धार की तरह अंदर उतर जाती है बल्कि आर-पार हो जाती है. लता मंगेशकर ने और भी कई सदाबहार गीत गाए हैं. अपन भी कोई ऐसे लाइलाज देशभक्त नहीं हैं कि हमेशा राष्ट्रीय अपमान की ही याद करते रहें. लेकिन मेरे मन में लता मंगेशकर कुरबानी से जुड़ी हुई हैं. मुझे लगता है कि तेरह बरस की उमर से गाने वाली इस महिला ने मां-बाप का वियोग सहा. अपने भाई-बहनों को पाल-पोस कर बड़ा किया. अविवाहित रहीं. अपना जीवन संग्राम एक क्षत्राणी की तरह अपने गाने से लड़ते हुए जीता. सरहद पर लड़ने वाले वीर जवानों से कोई कम नहीं है यह वीरांगना. इसलिए जब किसी पत्रिका में पढ़ा कि लता मंगेशकर ने राजसिंह डूंगरपुर से चुपचाप शादी कर ली तो ऐसा लगा कि उन्हें अपवित्र करने की कोशिश की गई हो. राजसिंह भी हमारे इंदौर में क्रिकेट खेलते थे और संगीत के शौकीन हैं. और लता मंगेशकर भी हमारे इंदौर में जन्मीं और अनन्य गायिका हैं और उन्हें भी क्रिकेट का बेहद शौक है. अपने परिवार और गायन के लिए अपने मौज-मजे को कुरबान करने वाली कोयल पर कोई कीचड़ कैसे उछाल सकता है? उनका गाना सुन कर आंखें गर्व और आनंद से उठ जाती हैं. क्यों नहीं लगता कि वे एक फिल्मी गायिका हैं?   

नौकरशाही में वर्चस्व

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का 2009 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बनना बिहार में उतना चर्चा का विषय नहीं था जितना उनकी कैबिनेट में बिहार कोटे से मंत्री बनने वालों पर सस्पेंस. इसकी दो-तीन वजहें थीं. एक कांग्रेस कोटे के मंत्री रहे शकील अहमद की मधुबनी सीट से हार और दूसरी लालू प्रसाद यादव और पासवान की पार्टियों का लगभग सफाया. ऐसे में सासाराम संसदीय सीट से जीत दर्ज करके आई मीरा कुमार को मंत्रिमंडल में जगह देकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बिहारी कोटे की लाज रखी. लेकिन फिर तुरंत ही हालात ऐसे बदले कि कुमार का लोकसभा अध्यक्ष बनना तय हुआ और नतीजतन उन्हें दो दिन बाद ही मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा. तब से आज तक गाहे-बगाहे होने वाली सुगबुगाहटों के बावजूद मंत्रिमंडल से बिहार गायब ही रहा है.

लेकिन इस कमी की भरपाई उस दबदबे से होती दिखती है जो इन दिनों बिहार कैडर के नौकरशाहों का विभिन्न मंत्रालयों में दिखता है. गृह, रक्षा, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग और ग्रामीण विकास सहित तमाम अहम मंत्रालयों में बिहार कैडर के कई नौकरशाह प्रमुख पदों पर हैं. इनमें से नौ सचिव हैं, 17 संयुक्त सचिव और छह अपर सचिव. बिहार की गिनती देश के पिछड़े राज्यों में की जाती है. इस लिहाज से बिहार के लोगों को उनके बीच से ही काम करके गए इन हुक्मरानों से बड़ी उम्मीदें हैं. यह वर्चस्व एकबारगी 70 और 80 के दशक की याद भी दिलाता है जब केंद्र सरकार के मंत्रालयों में बिहार कैडर का कुछ ऐसा ही जलवा होता था. दरअसल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बिहार मूल के या बिहार कैडर के अधिकारियों को बहुत पसंद करती थीं.

राज कुमार सिंह भारत सरकार के गृह सचिव हैं. बिहार कैडर के आईएएस अधिकारी सिंह 1975 बैच  के हैं. बिहार के आपदा प्रबंधन विभाग के प्रधान सचिव ब्यास जी के मुताबिक सिंह अपनी कार्यकुशलता के लिए बिहार-झारखंड ही नहीं, दूसरे राज्यों के आईएएस अधिकारियों मंे भी चर्चित हैं. वे पटना के डीएम भी रह चुके हैं और बिहार के गृह सचिव भी. 2008 में जब कोसी में बाढ़ आई थी तो राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग की जिम्मेदारी उनके ही पास थी. उस समय उनके काम की काफी सराहना हुई थी. लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा चर्चा मिली सड़क निर्माण विभाग में सचिव रहते हुए. कहा जाता है कि बिहार में सड़कों की स्थिति में जो अभूतपूर्व सुधार हुआ है उसका श्रेय काफी हद तक राज कुमार सिंह को ही जाता है. अपने कड़क मिजाज के लिए जाने जाने वाले सिंह ने सड़क निर्माण विभाग में सचिव रहते सत्ताधारी दलों के कई विधायकों की कंस्ट्रक्शन कंपनियों को ब्लैकलिस्ट कर दिया था. बिहार सरकार लंबे समय से मांग कर रही है कि नक्सल प्रभावित जिलों में स्पेशल टास्कफोर्स का गठन हो. सिंह के गृह सचिव होने के बाद इस मांग के पूरा होने की उम्मीद जताई जा रही है.

यह वर्चस्व 70 और 80 के दशक की याद भी दिलाता है जब केंद्र के मंत्रालयों में बिहार कैडर का ऐसा ही जलवा होता था

बिहार कैडर के एक और प्रमुख अधिकारी हैं रक्षा सचिव शशिकांत शर्मा. 1976 बैच के आईएएस अधिकारी शर्मा ने प्रदीप कुमार का स्थान लिया है जो अब नये केंद्रीय सतर्कता अायुक्त हैं. साल 2002 से 2010 तक शर्मा रक्षा मंत्रालय के विभिन्न पदों पर काम कर चुके हैं. इसके अलावा उनके पास आईटी सचिव, सचिव, वित्त सेवा विभाग जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर काम करने का अनुभव है. शर्मा के रक्षा सचिव बनने से बिहार के राजगीर में 3000 एकड़ में फैले वर्षों से लंबित आयुध कारखाने के शुरू होने की संभावना बढ़ गई है. ब्राजील सरकार से सहयोग से बने इस कारखाने को भारत सरकार ने बोफोर्स कांड के सामने आने के बाद ब्लैकलिस्ट कर दिया था.

1975 बैच के आईएएस अधिकारी बीके सिन्हा ग्रामीण विकास मंत्रालय जैसे विभाग की अगुवाई कर रहे हैं. गौरतलब है कि यही वह विभाग है जहां से भारत सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी और बहुआयामी योजना मनरेगा चलाई जा रही है. सिन्हा इससे पहले बिहार में कोऑपरेटिव बैंक के प्रशासक के रूप में बिहार में काफी चर्चित हुए थे. उनके सचिव बनने से बिहार में प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना में काफी काम होने की संभावना है.

1975 बैच के आईएएस अधिकारी ए के उपाध्याय भूतल परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के सचिव पद पर काम कर रहे हैं. उनके बारे में कहा जाता है कि वे जमीन से जुड़े आदमी हैं. केंद्र में काम करने का उनका अनुभव आठ साल का है. उनके सचिव बनने से  बिहार में नेशनल हाइवे की 3,738 किलोमीटर लंबी सड़कों का कायाकल्प होने की उम्मीद की जा रही है. एएनपी सिन्हा पंचायती राज मंत्रालय में सचिव हैं. उनकी पत्नी भी आईएएस अधिकारी रह चुकी हैं. 1974 बैच के सिन्हा पटना में एनएमसीएच में स्वास्थ्य कमिश्नर रहते काफी सुर्खियां बटोर चुके हैं. 1975 बैच के आईएएस अधिकारी नवीन कुमार हाल तक शहरी विकास मंत्रालय के सचिव पद पर थे. पर सरकार ने पिछले हफ्ते इनका तबादला पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के सचिव पद पर कर दिया है.  उधर, 1976 बैच के आईएएस अधिकारी पीके बसु कृषि विभाग के सचिव पद पर काम कर रहे हैं. इससे पहले वे कृषि विभाग में ही अतिरिक्त सचिव पद संभाल चुके हैं.

1972 बैच के आईएएस अधिकारी एमएन प्रसाद रिटायरमेंट के बाद भी प्रधानमंत्री कार्यालय में सचिव पद पर काम कर रहे हैं. हालांकि हाल ही में मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति ने उन्हें विश्व बैंक में कार्यकारी निदेशक नियुक्त कर दिया है. प्रसाद विश्व बैंक में पुलक चटर्जी का स्थान लेंगे जिन्हें वापस पीएमओ लाया जा रहा है. बिहार में कई विभागों सहित केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय में सचिव जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके प्रसाद काफी सुलझे अधिकारी के रूप में जाने जाते हैं.

इससे एक पांत पीछे भी बिहार कैडर के अधिकारियों की कमी नहीं. बीबी श्रीवास्तव, अरविंद प्रसाद, एसपी सेठ और अरुणिश चावला जैसे अधिकारी विभिन्न मंत्रालयों में अतिरिक्त सचिव स्तर  पर काम कर रहे हैं . चावला, सेठ और प्रसाद योजना आयोग में तैनात हैं. जो अधिकारी केंद्र में संयुक्त सचिव का पद संभाल रहे हैं वे हैं गिरीश शंकर (खाद्य और सार्वजनिक वितरण), चैतन्य प्रसाद (औद्योगिक नीति), रश्मि वर्मा और सुभाष शर्मा (दोनों रक्षा उत्पादन),  केके पाठक (घर), आरके महाजन (कोयला), भानु प्रताप शर्मा (अल्पसंख्यक), सुनील कश्मीर सिंह (आवास और शहरी गरीबी)  और अरुण झा (फार्मास्यूटिकल्स).

हालांकि इस सफलता का एक दूसरा पक्ष भी है. एक तरफ बिहार कैडर के आईएएस अधिकारी केंद्र में झंडे गाड़ रहे हैं और दूसरी तरफ खुद बिहार पिछले कई वर्षों से आईएएस अधिकारियों की कमी से त्रस्त है. आंकड़े बताते हैं कि बिहार-झारखंड जब एक था तो उस समय राज्य में 325 आईएएस अधिकारी हुआ करते थे. बंटवारे के बाद एक चौथाई आईएएस अधिकारियों की संख्या झारखंड में चली गई और बिहार में तकरीबन 206 अधिकारी बचे. अभी हर साल बिहार को 10 आईएएस अधिकारी मिल रहे हैं. राज्य विभाजन से पहले यह कोटा 14 अधिकारियों का हुआ करता था. बिहार सरकार का कहना है कि वर्तमान में राज्य में आईएएस अधिकारियों की काफी कमी है और यह कोटा बढ़ना चाहिए.

जानकार बताते हैं कि लालू-राबड़ी के राज में खराब कानून-व्यवस्था और राजनीतिक दखलंदाजी की वजह से बिहार कैडर के कई अधिकारियों ने अपनी नियुक्ति दिल्ली या फिर देश के दूसरे राज्यों में करवा ली थी. पर नीतीश कुमार की सरकार आने के बाद ये अधिकारी अपने गृह राज्य वापस आने की इच्छा जता रहे हंै. आज बिहार कैडर के लगभग 35-40 आईएएस अधिकारी केंद्र या दूसरे राज्यों में सेवा दे रहे हैं.

लूट से बेपरवाह

चारा घोटाले के वक्त बिहार में अक्सर कहा जाता था कि नेता-अधिकारी जानवरों का चारा तक डकार गए. पिछले दिनों झारखंड विधानसभा में पेश कैग रिपोर्ट के बाद कहा जा सकता है कि राज्य में भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों के गठजोड़ ने सड़कें भी निगल लीं. देखा जाए तो झारखंड की शासन व्यवस्था घपले-घोटाले और हेरफेर की अभ्यस्त-सी होती जा रही है. शायद तभी 29 अगस्त को झारखंड विधानसभा में थोड़ी हलचल के बाद धीरे-धीरे सब-कुछ शांत हो गया. जिस सदन में बात-बात पर लड़ने-भिड़ने जैसी स्थिति हो जाती है उसी सदन में 29 अगस्त को कंट्रोलर ,एंड अकाउंटेंट जनरल यानी कैग की रिपोर्ट पेश होने के बाद सवालों की बौछार से सरकार की घेराबंदी नहीं हो सकी. सरकार के प्रतिनिधि राइट टू सर्विस एेक्ट लाकर भ्रष्टाचार का समूल नाश कर देने की बातें करते रहे, मगर विपक्ष से किसी ने यह सवाल नहीं दागा कि भ्रष्टाचार जब दूर होगा तब होगा, पहले 2,800 करोड़ रुपये का कुछ हिसाब-किताब दिया जाए.

इन गड़बड़ियों को लेकर सरकार बहुत परेशान, शर्मसार या चिंतित हो, ऐसा नहीं दिखता

कैग ने वित्तीय वर्ष 2009-10 की जो रिपोर्ट दी है उसमें करीबन 2,800 करोड़ रुपये की गड़बड़ियां साफ-साफ उजागर हुई हैं. रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि कई जगहों पर सड़कें बनी ही नहीं मगर ठेकेदारों को लाखों रु का भुगतान हो गया. कई पुरानी सड़कों की ही मरम्मत कराके नयी सड़कों के निर्माण का भुगतान करा दिया गया. बात सिर्फ सड़कों तक सीमित नहीं. रिपोर्ट के अनुसार शायद ही कोई विभाग हो जिसमें गड़बड़झाला न हुआ हो. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में तो यह चरम तक पहुंचा हुआ बताया गया है. साथ ही ग्रामीण विकास, पेयजल एवं स्वच्छता, कला संस्कृति एवं खेलकूद, स्वास्थ्य, कृषि, पथ निर्माण, कल्याण, जल संसाधन, बिजली एवं वन विभाग में भी वित्तीय अनियमितताओं व गड़बड़ियों की भरमार है. गौर करने वाली बात यह है कि  वित्तीय वर्ष 2009-10 में राज्य सरकार ने 4,765 करोड़ रु का हिसाब-किताब तक महालेखाकार कार्यालय भेजना मुनासिब नहीं समझा.
29 अगस्त को सदन में कैग रिपोर्ट के जरिए गड़बड़ियों का पुलिंदा राज्य के उपमुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री हेमंत सोरेन ने प्रस्तुत किया, लेकिन उन्हें इतनी गड़बड़ियों के लिए एक-दो सवालों के अलावा कोई फजीहत नहीं झेलनी पड़ी. गौरतलब है कि झारखंड में यह सब नजारा उस दौर में देखने को मिल रहा है जब देश के अन्य राज्यों में कैग रिपोर्ट पर सरकारें कटघरे में खड़ी हो रही हैं.
राज्य की प्रधान महालेखाकार मृदुला सप्रू तहलका से बातचीत में कहती हैं, ‘कैग की आपत्तियों पर सरकार अब तो गंभीरता से विचार करे और इन गड़बड़ियों को रोकने की कोशिश करे. सरकार को अपना बजट तंत्र मजबूत कराना चाहिए और योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन में गंभीरता व सक्रियता लानी चाहिए.’

पीएसयू में हुई लूट-खसोट

कैग रिपोर्ट के अनुसार झारखंड में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) में सबसे ज्यादा गड़बड़ियां हुई हैं. 2009-10 में लोकउपक्रमों का टर्नओवर 1,565.25 करोड़ रु का रहा जो सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.88 फीसदी है. आंकड़ों के अनुसार यह कोई कम नहीं. लेकिन हैरत की बात यह है कि इस उपलब्धि के बावजूद उपक्रमों का घाटा 442.32 करोड़ रुपये तक जा पहुंचा. यदि इन उपक्रमों में सरकार के निवेश को देखें तो कुल 4,900.87 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है, जिसमें इक्विटी (हिस्सेदारी खरीदने के लिए लगाया गया धन) सिर्फ 2.87 फीसदी है और लांग टर्म लीज (लंबी अवधि के कर्ज) 97.13 फीसदी. लोक उपक्रम में निवेश का अधिकांश भाग ऊर्जा क्षेत्र में ही हुआ है. इस निवेश का एक बड़ा हिस्सा लांग टर्म लीज के रूप में ही लिया गया है और यह राशि 4086.09 करोड़ रु है. लोक उपक्रम जेएसइबी में सिर्फ सब्सिडी के चलते उससे 767.31 करोड़ रु ज्यादा की रकम खर्च हो गई जितने का प्रावधान बजट में रखा गया था.

गड़बड़ियों के घालमेल पर नजर डालें तो एक से एक हैरतअंगेज कारनामे फाइलों के सहारे किए हुए मिलते हैं. वित्त के लेखा और लोक उपक्रमों के लेखा में कहीं भी कोई मेल ही नहीं दिखता. फाइनांस के एकाउंट में जहां इक्विटी 19.30 करोड़ है वहीं पीएसयू के रिकाॅर्ड में यह आंकड़ा 140.55 करोड़ है. फाइनांस के एकाउंट के हिसाब से कर्ज 6,137.33 करोड़ रु है वहीं पीएसयू में यह केवल 4,592.51 करोड़ रु है. यानी इक्विटी में 121.25 व लोन में 1,544.82 करोड़ रु का अंतर है. इतने सब के बाद राज्य का राजस्व 2.05 से घटकर 1.88 पर पहुंच गया है लेकिन फिर भी राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में इजाफा हुआ है. यदि आंकड़ों में देखें तो 11 पीएसयू में से चार ने 4.05 करोड़ रु का लाभ पहुंचाया लेकिन दूसरी ओर शेष सात उपक्रमों ने 446.48 करोड़ रु का नुकसान करवाया.

अब यह घाटा क्यों हुआ, यह जानना भी दिलचस्प है. इन दोनों उपक्रमों में कर्मचारियों के बकाये के भुगतान में ही अधिकांश राशि का वितरण कर दिया गया जिससे टीवीएनएल को 70.94 करोड़  रु एवं जेएसइबी को 374.13 करोड़ रु का घाटा हुआ. विधायक उमाकांत रजक कहते हैं कि जब इन उपक्रमों से लगातार घाटा ही हो रहा है तो छंटनी की जाए अन्यथा इन्हें बंद कर दिया जाए. दूसरी ओर इस संदर्भ में कैग का मानना है कि वित्तीय प्रबंधन, योजना एवं क्रियान्वयन और निगरानी जैसी चीजों पर ठीक से ध्यान दिया जाता तो 2007 से लेकर 2010 तक  3,000 करोड़ रु से भी ज्यादा बचाए जा सकते थे.
नफे-नुकसान के इस कृत्रिम खेल को इस एक बानगी से भी समझा जा सकता है. सिर्फ पतरातू थर्मल पावर स्टेशन (पीटीपीएस) में ही सरकार को 141 करोड़ रु का नुकसान हुआ है. 121.30 करोड़ रु का नुकसान मानक से अधिक खर्च होने के कारण हुआ तो बाकी की राजस्व हानि समय पर उत्पादन इकाई नहीं बनाने से हुई. बिजली बोर्ड में तो गड़बड़ियों और राजस्व को घाटा लगाने वाले कारनामों की लंबी फेहरिस्त है. मीटर बॉक्स की खरीद एवं लगाने में लापरवाही से 10.50 करोड़ रुपये तो उपभोक्ताओं को भार आकलन में गड़बड़ी के कारण 94 लाख रु का नुकसान हुआ. कंप्यूटर बिल की गड़बड़ी के कारण 1.36 करोड़ रु का गलत व्यय हुआ.

सड़क व पर्यटन के नाम पर भी खेल

पथ निर्माण विभाग में भी अनियमितताओं व गड़बड़ियों का पुलिंदा है. कैग की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि पाकुड़-बरहरवा पथ में संवेदक (ठेकेदार) को 2.30 करोड़ रु का अनुचित लाभ पहुंचाया गया है. देवघर-मधुपुर रोड में पतरो नदी पर पुल निर्माण में भी बेवजह 1.32 करोड़ रु खर्च किए गए. वहीं राहे-सीताफॉल सड़क निर्माण में 1.83 करोड़ रु का निरर्थक व्यय हुआ. इन सड़कों के निर्माण की झूठी कार्यशैली का गांव के लोगों ने विरोध भी किया था. सड़क की खस्ताहालत को देखते हुए ग्रामीणों ने सड़कों पर विरोध स्वरूप धान की रोपनी की थी. कुटमु गारू महुदार पथ में शर्तों की गलत व्याख्या करके संवेदक को 1.32 करोड़ रु का अनुचित भुगतान किया गया और साथ ही संविदा में गड़बड़ी करके 7.21 करोड़ रु का अधिक भुगतान किया गया.
ऐसे कई किस्से कैग की रिपोर्ट में मिलते हैं. लेकिन इन गड़बड़ियों को लेकर सरकार बहुत परेशान, शर्मसार या चिंतित हो, ऐसा नहीं दिखता. वित्त मंत्री हेमंत सोरेन कहते हैं, ‘कुछ गड़बड़ियां होंगी लेकिन समय पर बिल जमा न होने पर भी गड़बड़ी कह दी जाती है.’ अपने बचाव में वित्त मंत्री जो कुछ भी कहें पर कई मामलों को देखने पर साफ लगता है कि बड़े घोटाले की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है.

खेल पर्यटन विभाग में भी कम नहीं हो रहे. कैग की रिपोर्ट बताती है कि झारखंड पर्यटन विभाग ने कैबिनेट की अनदेखी करते हुए वर्ष 2008-09 में थीम फिल्में बनाने का आदेश दे डाला. इससे पहले विभाग ने आठ थीम फिल्मों के लिए निविदाएं मंगवाई थीं. निविदाओं की समीक्षा के बाद फिल्म निर्माण का यह काम उसे दे दिया गया जिसने सबसे कम कीमत की बोली लगाई थी. विभाग ने 6.29 करोड़ रु में आठ थीम फिल्में दो भाषाओं में बनाने का आदेश दिया. यह आदेश विभागीय मंत्री की सहमति पर नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए बिना कैबिनेट की मंजूरी लिए दिया गया जबकि पांच करोड़ से ज्यादा की रकम के लिए यह मंजूरी आवश्यक होती है. हालांकि मार्च, 2009 में इस आदेश में संशोधन करके इस आंकड़े को चार थीम फिल्मों और 3.15 करोड़ रु तक सीमित कर दिया गया. रिपोर्ट के मुताबिक इसके पहले पर्यटन विभाग के तत्कालीन सचिव ने फरवरी, 2009 में मंत्री को भेजी गई अपनी टिप्पणी में इस तथ्य का जिक्र नहीं किया था कि पांच करोड़ रु से ऊपर की राशि के लिए कैबिनेट की मंजूरी जरूरी होती है. वर्ष 2010 के अप्रैल व मई के महीनों में पर्यटन विभाग में जब दुबारा स्क्रूटनी कराई गई तो यह पाया गया कि वर्ष 2004-05 में पारसनाथ और इको टूरिज्म पर 15-20 मिनट की बनी थीम फिल्मों को एक प्राइवेट मीडिया हाउस से बनवाया गया था और दोनों ही फिल्मों के लिए क्रमशः 3.25 लाख व 3.45 लाख रु का अलग-अलग भुगतान किया गया था. लेकिन जनवरी 2009 में  विभाग ने पर्यटन को बढ़ावा और प्रोत्साहन देने के लिए ऐसी ही थीमों पर फिर फिल्म निर्माण का आदेश दे दिया और इसके लिए 75.84 लाख रु प्रति फिल्म देने का प्रावधान किया. यह कीमत पहले की तुलना में कई गुना ऊंची थी. विभाग ने अगस्त, 2009  में 18.91 लाख रु फिल्म निर्माण मीडिया हाउस को दे भी दिए. फिल्मों की रफ कट व फाइनल कट की कॉपी जमा करने के लिए 2009 के जून व अक्टूबर माह के बीच का समय तय किया गया था परंतु मई 2010 तक भी यह फिल्म बनकर तैयार नहीं हो सकी. कैग की रिपोर्ट देखें तो यह भी पता चलता है कि मार्च, 2009 में ट्रेजरी से दोबारा 3.15 करोड़ रु की निकासी की गई और यह राशि झारखंड पर्यटन विकास निगम के खाते में जमा कर दी गई. उपरोक्त खाते में 2.96 करोड़ रु की रकम अब भी पड़ी हुई है.
रिपोर्ट के मुताबिक इन फिल्मों के जरिये पर्यटन को प्रोत्साहन देने का मकसद अधूरा ही रह गया. ऊपर से चयन प्रक्रिया के सही न होने, काम को सौंपने में सावधानी नहीं बरतने व राशियों का समुचित उपयोग न होने के कारण 2.63 करोड़ रु यूं ही खाते में पड़ कर धूल फांक रहे हैं और ब्याज के रूप में 27.70 लाख रु का नुकसान भी हो गया है. लेकिन सवाल यह है कि कोई समय रहते इस नुकसान की सुध लेगा? लगता तो नहीं. 

लंगड़ीमार सहयोग का एक साल

राजनीतिक चखचख, आपसी स्पर्धा, साथ रहकर भी एक दूजे को मात देने की होड़ के बावजूद झारखंड में अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में सरकार ने एक साल पूरा कर लिया. निराला इस एकसाला सफर का विश्लेषण कर रहे हैं

एक चौपाली कथा है. अमावस की रात को एक ज्योतिषी के यहां चोरी हुई. ज्योतिषी ने चोरों को देखा. उसकी पत्नी बोली, शोर मचाओ, गांववालों को जगाओ. ज्योतिषी ने कहा, चुप रहो, अभी ले जाने दो सब. समय-संयोग, अभी शोर मचाने की इजाजत नहीं देता. चोर सामान लेकर चलते बने. पूर्णिमा की रात आयी तो आधी रात को ज्योतिषी अचानक चोर…चोर… कह चिल्लाने लगा. गांव वाले पहुंचे. ज्योतिषी ने कहा, चोर तो अमावस की रात ही आया था, आज तो शोर मचाने का सर्वोचित समय था, इसलिए चिल्लाया.
झारखंड में पिछले एक साल से सरकार के सफरनामे को देखें तो उस ज्योतिषी की तरह चीखने-चिल्लाने की आवाजें समय-संयोग के हिसाब से सुनाई पड़ती रहती हंै. कभी पूर्णिमा की रात की घटना पर अमावस की रात चिल्लाया जाता है तो कभी अमावस की घटना पर पूर्णिमा की रात को शोर मचता है. कभी झामुमो के मुखिया शिबू सोरेन बीच में टुनकी मारते हैं कि सरकार कुछ नहीं कर रही, राज्य में विकास नहीं हो रहा तो कभी दूसरे सहयोगी दल आजसू के विधायक अनुपूरक बजट पर बहस के दौरान ही सदन से गायब हो जाते हैं. यह जानते हुए भी कि उस समय सदन से नदारद रहना सरकार को अपदस्थ तक कर सकता है.

मुंडा को भी पता है कि घोषणाएं और चंद उपलब्धियों को गिना देने से चुनावी राजनीति में बात नहीं बनेगी

वैसे इस तरह की हर चिल्लाहट के अपने-अपने मायने होते हैं. सरकार में शामिल तीनों दल एक-दूसरे का लिटमस टेस्ट करके देखते रहते हैं. जैसे बीच में मौका देख झामुमो ने कह ही दिया कि 28-28 माह के रोटेशन फॉर्मूले पर सरकार चलाने का करार है. भाजपा ने इसे खारिज कर दिया. लेकिन मुश्किल यह है कि भाजपा या उसके मुख्यमंत्री कितनी बातों को खारिज करेंगे और कब तक? 
एक साल का तजुर्बा देखें तो जमशेदपुर लोकसभा उपचुनाव में तीनों सत्ताधारी दल आपस में गुत्थगुत्थी कर लेने के बाद भी सरकार को सरकाते रहने के लिए संकरी राह निकाल लेते हैं. सरकार चलाने के लिए मुंडा सहयोगी दलों की तो मान-मनौव्वल कर ले रहे हैं लेकिन अपनों का क्या करें? अपने भी तो निगेहबानी के बहाने वक्त-बेवक्त सामने आते रहते हैं. कभी अतिक्रमण के सवाल पर यशवंत सिन्हा, सीपी सिंह और रघुवर दास सार्वजनिक तौर पर अर्जुन मुंडा के खिलाफ गडकरी दरबार तक पहुंच जाते हैं तो कभी लोक सभा में उपाध्यक्ष पद पर विराजमान कडि़या मुंडा पुरानी टीस के साथ नये बोल बोल जाते हैं.

हालांकि भाजपाइयों के एक खेमे में नाराजगी के बावजूद अर्जुन मुंडा के परेशान नहीं होने की एक बड़ी वजह तो सभी जानते हैं कि केंद्रीय नेतृत्व व संघ परिवार का वरदहस्त उनके साथ है. इसलिए प्रदेश भाजपा के बड़े से बड़े नेता एंड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी कुछ नहीं कर पा रहे. झारखंड भाजपा के प्रभारी हरेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं, ‘अर्जुन मुंडा ने राज्य की कमान संभालकर लीडरशिप क्राइसिस को दूर किया है, वे सरकार और संगठन को आगे बढ़ाने की लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं.’ हरेंद्र प्रताप लगे हाथ यह कहते हुए भी विरोधी भाजपाइयों को चुप रहने का संकेत देते हैं कि अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री के तौर पर वैसे नेता हैं जिन पर किसी भी किस्म का आर्थिक या चारित्रिक दोषारोपण नहीं किया जा सकता! यह हर कोई जानता है कि मात्र 12 साल पहले झामुमो से भाजपा में छलांग लगाने वाले मुंडा भाजपा में ऊपर तक किसी भी पुराने झारखंडी भाजपाई से ज्यादा पैठ रखते हैं. यही वजह है कि विरोधी भाजपाइयों की उनके सामने एक नहीं चल रही.

यह तो भाजपा के अंतर्कलह वाले चक्रव्यूह से पार पाने की बात हुई, सहयोगी दलों से भी मुंडा यदि पार पाते हुए पिछले एक साल से सरकार को सरकाने में सफल रहे हैं तो उसके पीछे भी कोई रहस्यमयी कारण या नेतृत्व का करिश्मा नहीं. भाजपा की तरह ही झामुमो की भी मजबूरी है कि अभी किसी तरह सरकार चलती रहे. वरना खतरा सामने है. सरायकेला-खरसांवा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने पर भी अर्जुन मुंडा को झारखंड विकास मोर्चा से हुई परेशानी और उसके बाद जमशेदपुर लोकसभा उपचुनाव में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी को मिली करारी हार के बाद भाजपा फिलहाल इस स्थिति में नहीं कि तुरंत चुनावी जंग में जोर आजमाइश कर सके. दूसरी ओर झारखंड मुक्ति मोर्चा है जिसे पता है कि बाबूलाल मरांडी जितने मजबूत होंगे, भाजपा के साथ-साथ झामुमो के जनाधार में उतनी ही तेज सेंधमारी होगी. इन दोनों दलों से झाविमो में जाने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है. इसलिए ये दोनों दल अपने साझा दुश्मन से बचने के लिए मजबूरी में ही सही ताल में ताल मिला रहे हैं.

तीसरे छोर पर आजसू है, जो झारखंड की राजनीति में ध्रुवतारे की तरह है. सरकार किसी भी दल की हो, किसी भी गठबंधन की हो, किसी न किसी रूप में आजसू सहभागी बन ही जाता है. कुछ वर्षों पूर्व तक आजसू एक से दो की संख्या पर पहुंची थी तो ज्यादा अचंभा नहीं हुआ था, क्योंकि सुदेश के बाद पार्टी के टिकट से जीत दर्ज करानेवाले सुदेश के रिश्तेदार चंद्रप्रकाशी चौधरी थे. अब मौजूदा विधानसभा में आजसू के पांच सदस्य हैं. आजसू को जाननेवाले जानते हैं कि अभी मात्र 37 वर्षीय सुदेश हड़बड़ी की बजाय भविष्य के लिए बुनियाद तैयार करने में लगे हुए है इसलिए वे सरकार में शामिल रहकर भी इन पचड़ों से दूर सरकार के सौजन्य से अपनी पार्टी की मजबूती व दायरे के विस्तार के लिए  तेजी से काम कर रहे हैं. यह अभियान एक से दो, दो से पांच के बाद धीरे-धीरे अपने दम पर स्वशासन के लक्ष्य तक पहुंचने का है.

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर कहते हैं, ‘राजनीति के ऐसे ही पेंच में एक साल गुजर गया. रूठने-मनाने और सरकार बचाने का ही खेल एक साल चलता रहा. कोई एक ठोस काम हुआ तो नहीं दिख रहा.’ यह सवाल कई लोग पूछ रहे हैं कि पिछले एक साल में सरकार ने सत्ता-शासन बचाये-बनाये रखने के अलावा क्या ठोस किया? अर्जुन मुंडा कहते हैं कि पंचायत चुनाव हुआ, महिलाओं को 50 प्रतिशत का आरक्षण मिला, राष्ट्रीय खेल हुआ… वगैरह-वगैरह. वे यह भी कहते हैं कि 2006 से लेकर 2010 के बीच झारखंड विकृत राज्य के रूप में देश भर में मशहूर हो गया, साख गिर गई, उससे पार पाने की कोशिश हो रही है, उसमें सफल हो रहे हैं, यह क्या कोई कम बड़ा काम है. अर्जुन मुंडा द्वारा इन उपलब्धियों को गिनाने पर तहलका से बातचीत में चुटकी लेते हुए कांग्रेसी विधायक गीताश्री उरांव कहती हैं, ‘ऐसे ही बातें बना रही है सरकार एक साल से. पंचायत चुनाव राष्ट्रपति शासन के दौरान हुआ फैसला था, जिसे होना ही था. मुख्य भूमिका तो जनता की रही.’ गीताश्री आगे कहती हैं, ‘जिस राष्ट्रीय खेल को सरकार उपलब्धि बता रही है, उसके नाम पर क्या खेल हुआ, यह कौन नहीं जानता. अगर वह भी उपलब्धि है तो सरकार को बधाई. और इसके लिए भी सरकार ऐसे ही घोषणाएं करती रहे.’

इन तमाम राजनीतिक पैंतरेबाजियों के बीच अर्जुन मुंडा को भी पता है कि घोषणाएं और चंद उपलब्धियों को गिना देने से चुनावी राजनीति में बात नहीं बनेगी? वे कुछ लोकलुभावन और कुछ गंभीर रास्ते भी तेजी से अपनाने की कोशिश में हैं. पिछली बार जब सीएम थे तो एमओयू का मेला लगवा रहे थे, अब जनजातीय भाषाओं को दूसरी राजभाषा का दर्जा देकर, कंपनियों द्वारा जमीन की खरीदारी पर सरकारी अनुमति व सहमति को जरूरी बनाकर गंभीर छवि बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं. मुंडा अघोषित तौर पर बिहार को रोल मॉडल बनाकर नीतीश की राह पर ही चलने की कोशिश में लगे हुए हैं. झारखंड ने पंचायत चुनाव में बिहार की तरह आरक्षण मॉडल चला. बिहार की तरह झारखंड में भी राइट टू सर्विस एक्ट लागू करने की तैयारी में हैं. बिहार में नीतीश ने विशेष राज्य दर्जा अभियान चलाकर वाहवाही बटोरी तो अब अर्जुन मुंडा व उनकी पार्टी भाजपा भी 25 सितंबर से झारखंड को विशेष राज्य दर्जा दिलाने के लिए हस्ताक्षर अभियान शुरू करने की तैयारी में है. लेकिन क्या बिहार और झारखंड में, दोनों राज्यों की राजनीति की गति में कोई फर्क नहीं है? भाकपा माले विधायक बिनोद सिंह पूछते हैं, ‘एक साल में क्या हुआ, सबको दिख रहा है. भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते रहे, किसी भ्रष्टाचारी पर कार्रवाई नहीं हो सकी. उलटे शीला किस्कू रपाज जैसे अधिकारियों को सेवानिवृत्ति के बाद जांच अधिकारी बनाया जा रहा है, जिनके यहां रांची कमिश्नर रहते हुए ही निगरानी की छापेमारी हुई थी.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘जमीन की बात कर रहे हैं तो क्यों नहीं एमओयू के जरिये छल कर कंपनियों द्वारा ली गयी जमीन को सरकार आदिवासियों को वापस करवा रही है? राइट टू सर्विस एक्ट लागू करने को कह रहे हैं, पहले लालकार्ड, राशन कार्ड के जो आवेदन हैं, उन्हें तो हक दिलवा दें.’
हालांकि अर्थशास्त्री हरिश्वर दयाल कहते हैं कि अर्जुन मुंडा में कुछ करने की इच्छाशक्ति तो दिखती है लेकिन सरकार में बदलाव और विकास की भूख नहीं दिखती. वे कहते हैं, ‘बस पांच रूपये में दाल-भात जैसी कुछ योजनाएं दिखाने के लिए हो सकती हैं लेकिन बदलाव के लिए आधारभूत संरचना, संस्थानों के विकास की जरूरत होती है, जिस दिशा में कोई काम होता नहीं दिख रहा.’ हालांकि वे मानते हैं कि ऐसा न होने के पीछे एक बड़ा कारण तो मिलीजुली सरकार भी है.’

मिलीजुली सरकार के कारण आपसी खींचतान और राज्य को हो रहे नुकसान से हर कोई वाकिफ है लेकिन यह अर्जुन मुंडा या भाजपा को जनता की ओर से मिली सौगात भी तो नहीं है. खुद मुंडा ने ही ऐड़ी-चोटी का जोर लगाकर और भाजपा संसदीय बोर्ड के निर्णय को ताक पर रखकर यह सरकार बनाई थी. इसलिए वे अब मिलीजुली सरकार की मुश्किलें खुलकर गिनवा भी नहीं सकते. रही बात सरकार चलते रहने की तो पिछले 10 वर्षों में यह राज्य राजनीति की प्रयोगभूमि बना हुआ है. यहां कभी भी कोई राजनीतिक घटना घट सकती है. अभी राज्य के कुल 34 बोर्ड/निगमों को अपने खाते में करने के लिए तीनों सत्ताधारी दलों में फिर से लड़ने-भिड़ने का सिलसिला शुरू हुआ है. इसका अंजाम क्या होगा यह अभी रहस्य है. हां, सरकार के भविष्य को जानना हो तो झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पिछले दिनों की एक बात याद कर सकते हैं, जो उन्होंने तहलका से विशेष बातचीत के दौरान कही थी. उनका कहना था, ‘झारखंड में कभी कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकती..’ 

मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की

जून के महीने मे लखनऊ में हुई भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का हासिल पूछने पर पार्टी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कलराज मिश्र ने कहा था, ‘वह आपको प्रदेश भाजपा में दो-तीन महीने में पूरी तरह दिख जाएगा.’ यही समय-सीमा उन्होंने विधानसभा चुनावों के सभी टिकट घोषित होने के संदर्भ में भी दी थी. तब से अब तक दो-तीन महीने गुजर चुके हैं, लेकिन (अगर  ‘पार्टीगत ताम-झाम’ में हुई वृद्धि को छोड़ दें तो) उत्तर प्रदेश भाजपा की गहराई में बदलाव नजर नहीं आता. जबकि बदलाव की जरूरत के मद्देनजर ही इस बीच दो अहम घटनाएं हुईं. पहले उमा भारती की पार्टी में उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी के साथ वापसी (जिन्हें असल में कार्यकारिणी की बैठक के दौरान ही पार्टी में शामिल होना था, लेकिन बाबा रामदेव पर सरकारी हमले के चलते ऐसा नहीं हो सका) और अब लंबे समय से राजनीतिक वनवास काट रहे पार्टी के संघनिष्ठ कार्यकर्ता संजय जोशी भी उत्तर प्रदेश की बड़ी जिम्मेदारी के साथ पार्टी में फिर से आ गए हैं.

संजय जोशी को तो बड़े नेताओं को काबू करने का जिम्मा दिया गया है भला उन्हें सहजता से कैसे हजम किया जा सकता है

संजय जोशी की वापसी से भारतीय जनता पार्टी और खुद जोशी दोनों को बड़ी उम्मीदें हैं. राजनीतिक परिदृश्य से अचानक गायब होने से पहले तक जोशी भारतीय जनता पार्टी के अंदर सांगठनिक तौर पर सबसे ताकतवर माने जाने वाले राष्ट्रीय महामंत्री, संगठन के पद पर रह चुके थे. यह पद पार्टी के अंदर संघ का पूर्णकालिक प्रचारक ही संभालता है और इस पर आसीन व्यक्ति एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के अंदर संघ के प्रतिनिधि के रूप में काम करता है. इसी के माध्यम से संघ भाजपा की नब्ज थामे रहता है. छह-सात साल पहले तक संजय जोशी संघ और भाजपा दोनों के शीर्ष नेतृत्व के बेहद करीबी थे. उनकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मोदी समेत भाजपा के कई अन्य बड़े नेताओं से सीधे टकराव के बावजूद पार्टी और संघ अंतत: उन्हीं के साथ खड़ा होता था लेकिन फिर एक विवादास्पद सीडी मीडिया में आई और सब कुछ बदल गया. सीडी में संजय जोशी किसी महिला के साथ आपत्तिजनक मुद्रा में दिख रहे थे. संजय कहते रहे कि सीडी फर्जी है लेकिन संघ और भाजपा ने उनसे पल्ला झाड़ते हुए उन्हें नेपथ्य में जाने पर मजबूर कर दिया. कुछ समय बाद जांच से यह साबित हो गया कि सीडी हकीकत में फर्जी थी. इसके बाद संजय की पार्टी में जल्द वापसी को लेकर कयास लगने लगे. सूत्रों की मानें तो कई बड़े नेताओं का अहं इस वापसी के आड़े आ गया और सही मौके का संजय जोशी का इंतजार लंबा होता गया. आखिरकार उनकी वापसी तब हुई है जब पार्टी को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत दिखाई दे रही है.

संजय जोशी को उत्तर प्रदेश में संगठन को संभालने की जिम्मेदारी दी गई है. उत्तर प्रदेश भाजपा को थोड़ा-बहुत जानने वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि यह जिम्मेदारी कितनी चुनौती भरी है. समस्या यह है कि प्रदेश में हाई प्रोफाइल चेहरों से भरे हुए भाजपा के संगठन में अहं के टकराव को रोक पाना पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व यहां तक कि संघ के लिए भी अभी तक नामुमकिन ही रहा है. संजय जोशी को इसी एकमात्र ध्येय की प्राप्ति के लिए लगाया गया है. जोशी खामोशी से काम पर लगे हैं. बार-बार कोशिश करने पर भी वे मीडिया से कोई बात नहीं करते. यही रुख वापसी के तुरंत बाद उमा भारती का भी था. हालांकि उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता हृदयनारायण दीक्षित कहते हैं, ‘जोशी संगठन का काम देखने के माहिर हैं. राष्ट्रीय स्तर पर वे बड़ी जिम्मेदारी निभा चुके हैं, इसलिए उत्तर प्रदेश में भी उन्हें पार्टी के नेताओं से सहयोग मिलेगा और इसमें ऐसी कोई कठिन चुनौती नहीं होगी.’ जबकि जोशी के लिए राहें इतनी आसान नहीं हैं. उत्तर प्रदेश में संगठन इतना बिगड़ैल है कि पार्टी के संभाले नहीं संभल रहा. यहां तक कि राज्य के संगठनों में समन्वय बनाने और उस पर संघ का नियंत्रण रखने के लिए भी जो प्रदेश महामंत्री, संगठन होता है वह भी यहां गुटबाजी में फंस चुका है. वह पद यहां राकेश जैन के पास है. चूंकि राकेश जैन के होते हुए भी स्थिति नहीं सुलझ रही, इसलिए संघ के लिए भी चिंता बढ़ गई है.

संघ से जुड़े दुष्यंत तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘राकेश जैन से पहले नागेंद्रनाथ उत्तर प्रदेश में महामंत्री संगठन की जिम्मेदारी 10 सालों से देख रहे थे. उससे पहले उन्होंने इसी तरह की जिम्मेदारी विद्यार्थी परिषद और संघ में भी निभाई थी. इसलिए प्रदेश भाजपा के ज्यादातर शीर्ष नेता उनके समकालीन थे और उनका सम्मान करते थे. इस पद पर उनका एक रौब था. राकेश जैन का आभामंडल उतना बड़ा नहीं है कि वे इतने बड़े नेताओं पर सीधा नियंत्रण रख सकें. मूल समस्या यही है. इसीलिए अब संजय जोशी को स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए भेजा गया है.’ साफ है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव सिर पर होने के बावजूद हालत न सुधरने की चिंता संघ को भी परेशान कर रही है और संजय जोशी की उत्तर प्रदेश में नियुक्ति के पीछे उसकी बड़ी भूमिका है.

चूंकि जोशी अभी-अभी आए हैं, इसलिए उनके काम का मूल्यांकन इतनी जल्दी नहीं हो सकता, लेकिन एक बात तो तय है कि जिस तरह उमा भारती की उत्तर प्रदेश में तैनाती यहां के बड़े नेताओं को रास नहीं आई उसी तरह संजय जोशी का आना भी उन्हें अखर रहा है. उमा की वापसी का समारोह प्रदेश भाजपा कार्यालय में ही हुआ था, लेकिन लखनऊ में होने के बावजूद उनके स्वागत में कोई बड़ा नेता नहीं पहुंचा था. वहां सिर्फ मंझोले कद के नेताओं, विधायकों और कार्यकर्ताओं का ही हुजूम था. इसी तरह संजय जोशी की वापसी को लेकर भी कोई बड़ा नेता कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा. यहां एक और बात गौरतलब है कि उमा भारती को तो सिर्फ प्रमुख प्रचारक बनाया गया था लेकिन फिर भी चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कलराज मिश्र को यह बात अखर गई थी. विनय कटियार, ओमप्रकाश सिंह आदि नेताओं को पिछड़ा फैक्टर के चलते उमा पसंद नहीं आई थी, लालजी टंडन की ‘बाहर वालों’ से दिक्कत जगजाहिर है. अब संजय जोशी को  वास्तव में बड़े नेताओं को काबू करने की जिम्मेदारी दी गई है. ऐसे में भला उन्हें सहजता से कैसे हजम किया जा सकता है.  

तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी अभी तक प्रत्याशियों की पहली सूची भी जारी नहीं कर पाई है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद पांच-छह जुलाई को झांसी में प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक तय थी जिसमें टिकट वितरण को लेकर अहम फैसले होने थे. लेकिन अपनों को सेट कराने की जुगत, खेमेबाजी और अहं के टकराव के चलते कुछ फाइनल ही नहीं हो पाया और अंत समय में यह बैठक टाल दी गई. उसके बाद से आज दो महीने बीत जाने के बाद भी प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक का दिन तय नहीं हुआ है. बड़े नेताओं के अहं को संतुष्ट करने के लिए और सबको समायोजित करने के लिए पार्टी संविधान को ताक पर रखकर पदाधिकारी नियुक्त किए जा रहे हैं. मसलन प्रदेश मंत्रियों की संख्या 10 की जगह 18 तक पहुंच गई है क्योंकि लालजी टंडन, रमापति राम त्रिपाठी समेत कई वरिष्ठ नेताओं के पुत्रों को इसमें समायोजित किया गया है.

गुटबाजी का एक पहलू यह भी है कि जिस तरह बड़े नेता एक-दूसरे के नेतृत्व को नहीं स्वीकार कर रहे उसी तरह नेता पुत्र भी आपस में 36 का आंकड़ा रखते है. संजय जोशी को सबसे बड़ी मेहनत इनसे एकसाथ काम लेने पर करनी होगी क्योंकि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बार-बार भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर बोलने और केंद्रीय नेतृत्व के अन्ना के आंदोलन को भुनाने के बावजूद उत्तर प्रदेश की भाजपा प्रदेश में इन मुद्दों पर कोई खास माहौल नहीं बना पाई. जनलोकपाल को लेकर अन्ना के आंदोलन का केंद्र में भाजपा समर्थन कर रही थी लेकिन उत्तर प्रदेश में उसके नेताओं का एक भी बयान राज्यों में लोकायुक्त के पक्ष में नहीं आया.

पार्टी की निष्क्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर ही नहीं भाजपा अपने लोगों की मुश्किलों पर भी कुछ नहीं बोली. चार सितंबर को लखनऊ विश्वविद्यालय में यूथ अगेंस्ट करप्शन (जो भ्रष्टाचार के खिलाफ संघ का अभियान है) की एक सभा मालवीय सभागार में होनी थी. इसके लिए प्रशासन से अनुमति भी मिल चुकी थी और तैयारियां भी पूरी हो चुकी थीं. लेकिन सभा से एक रात पहले विश्वविद्यालय प्रशासन ने बिना किसी सूचना के यूथ अगेंस्ट करप्शन को सभागार देने से मना कर दिया. अभियान के पदाधिकारी जब मुख्य वक्ता राम माधव के साथ वहां पहुंचे तब उन्होंने कार्यक्रम स्थल पर भारी पुलिस बल और पुलिस अधिकारियों को देखा. पूछने पर पता चला कि कार्यक्रम को अनुमति नहीं मिली. इस पर राम माधव और दूसरे वक्ताओं ने सभागार के बाहर ही खुले आसमान के नीचे भाषण दिया. यह मामला लगातार तूल पकड़ता गया लेकिन भाजपा सोती रही.
यूथ अगेंस्ट करप्शन के उत्तर प्रदेश के संयोजक राकेश त्रिपाठी, जो विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं, इस मामले पर उत्तर प्रदेश भाजपा से बहुत नाराज है. राकेश कहते है, ‘आपके अपने संगठन के अभियान के लिए प्रशासन ने आखिरी वक्त में अनुमति निरस्त कर दी. राम माधव जी जो संघ और भाजपा दोनों में वरिष्ठ स्थान रखते हैं वे अधिकारियों से भिड़ते रहे और बाद में खुले आसमान के नीचे युवाओं के बीच भाषण तक दिया लेकिन उत्तर प्रदेश भाजपा का कोई बड़ा नेता झांकने तक नहीं आया.’  भाजपा उम्मीद करेगी कि संजय जोशी के आगमन का जमीनी असर जल्द ही दिखने लगे.  

खिवैय्यों में रार नैय्या मझधार

उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन को लेकर कांग्रेस के भीतर उठापटक का आलम यह है कि पार्टी के दो कद्दावर नेता प्रमोद तिवारी और रीता जोशी खुलकर एक-दूसरे के सामने आ गए हैं. पार्टी अब सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाली रणनीति खोजने में लगी है. जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट

कांग्रेस का मिशन 2012 यानी 22 साल पहले पार्टी उत्तर प्रदेश में जो सत्ता गंवा चुकी है उसे वापस पाने की जी-तोड़ कोशिश. लेकिन फिलहाल पार्टी में जो हो रहा है उससे वापसी की यह राह काफी फिसलन भरी दिखती है. विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया महीनों से चल रही थी. इसके बावजूद अगस्त के अंत में 73 लोगों की पहली सूची जारी होने के साथ ही विरोध की सुगबुगाहट होने लगी. दूसरी सूची की नौबत आने तक आलम यह हो गया कि पहली सूची के आने के बाद जो बगावत पार्टी की चारदीवारी के भीतर सुलग रही थी वह धधक कर सरेआम हो गई है.

दिलचस्प यह है कि यह बगावत और विरोध आम कार्यकर्ता में नहीं बल्कि प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी व पार्टी के दूसरे कद्दावर नेता प्रमोद तिवारी के बीच दिख रहा है. यह हाल तब है जब पार्टी के महासचिव राहुल गांधी व दिग्विजय सिंह जैसे बड़े नेता बराबर प्रत्याशियों के चयन पर नजर गड़ाए हुए हैं और प्रदेश के नेताओं को बार-बार अनुशासन का पाठ पढ़ाते रहते हैं.
पहली सूची जारी होने के बाद विरोध की सुगबुगाहट राजधानी लखनऊ की उस कैंट सीट को लेकर शुरू हुई थी जिससे पार्टी की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के चुनाव लड़ने की बात सार्वजनिक हुई. उक्त सीट पर लंबे समय से दावेदारी जता रहे पार्टी के सभासद राजेंद्र सिंह गप्पू ने इसका विरोध शुरू कर दिया. गप्पू कहते हैं, ‘1995 में मैं सबसे पहले कैंट विधानसभा क्षेत्र के ओमनगर वार्ड से सभासद बना. उसके बाद लगातार तीन बार उसी सीट से चुनाव जीता. 2002 के विधानसभा चुनाव में जब पार्टी का प्रदेश में कोई जनाधार नहीं था और ज्यादातर प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई थी उस समय मुझे कैंट सीट पर करीब 21 हजार वोट मिले थे. अब प्रदेश में जब पार्टी की स्थिति सुधर रही है तो प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी ने कैंट सीट अपने लिए रख लिया. 2009 के लोकसभा चुनाव में लखनऊ से जब वे चुनाव लड़ी थीं तो कैंट विधानसभा क्षेत्र ही ऐसा था जहां से उन्हें अन्य पार्टियों से पांच हजार वोट अधिक मिले थे.’ गप्पू आगे बताते हैं, ‘कैंट सीट के लिए दिग्विजय सिंह व रीता जोशी दोनों ही नेताओं से काफी पहले ही बात हो चुकी थी. लेकिन जब यह पता चला कि कैंट से रीता जोशी खुद चुनाव लड़ेंगी तो मुझे लखनऊ की ही दूसरी विधानसभा सीट सरोजनीनगर से लड़ाने का आश्वासन प्रदेश अध्यक्ष की ओर से दिया गया. बाद में सरोजनीनगर सीट से भी प्रदेश अध्यक्ष मुकर गईं.’ जिस पार्टी में 16 साल बिताए उससे टिकट कटने का रंज गप्पू को ऐसा हुआ कि सितंबर के पहले सप्ताह में उन्होंने पुरानी पार्टी का दामन छोड़ साइकिल की सवारी करने का मन बनाया और समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. कैंट सीट से रीता जोशी के मैदान में आने के बाद कुल तीन ब्राह्मण प्रत्याशी अभी तक मैदान में आ चुके हैं. बसपा ने इस सीट से जहां पप्पू त्रिवेदी को उम्मीदवार बनाया है वहीं भाजपा ने अपने वर्तमान विधायक सुरेश तिवारी को मैदान में उतारा है.

पार्टी का एक गुट वर्तमान अध्यक्ष के बराबर कार्यकारी अध्यक्ष बनवाने की जुगत में भी दिल्ली के कुछ बड़े नेताओं से संपर्क साधने में लगा हैकांग्रेस की पहली सूची में विरोध सिर्फ कैंट सीट को लेकर ही नहीं हुआ. पार्टी नेताओं के बीच बिजनौर की नगीना विधानसभा सीट पर फूल सिंह को प्रत्याशी बनाए जाने का भी खूब विरोध हुआ. पहली सूची में फूल सिंह का नाम आने के बाद से ही बिजनौर में कांग्रेस के एक खेमे ने विरोध शुरू कर दिया है. यह विवाद पार्टी कार्यालय से लेकर बिजनौर की सड़कों तक पर देखने को मिला.
पहली सूची से उपजे विवाद को कांग्रेस हाईकमान ने काफी हल्के में लिया जिसका नतीजा यह रहा कि दूसरी सूची को अंतिम रूप देने के लिए दिल्ली में हुई बैठक के दौरान प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी व विधायक प्रमोद तिवारी के बीच जो कुछ हुआ वह पार्टी को शर्मसार करने के लिए काफी था.

सूत्र बताते हैं कि पांच सितंबर को दिल्ली में जो बैठक हो रही थी उसमें 50-60 प्रत्याशियों के नाम तय होने थे. शुरू में सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा लेकिन बीच में तिवारी खेमे ने पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाली पार्टी के एक प्रवक्ता सहित कुछ अन्य लोगों को टिकट देने की वकालत शुरू कर दी. जिस पार्टी प्रवक्ता का समर्थन तिवारी और उनका खेमा कर रहा था उसका विरोध रीता जोशी ने यह कहते हुए किया कि पिछले कई चुनावों में उसे टिकट दिया गया लेकिन वह हार गया. इसी तरह उनका विरोध दूसरे नामों पर भी रहा. बैठक में आरोप-प्रत्यारोप इतना बढ़ गया कि एक-दूसरे पर रुपये लेकर टिकट बेचने तक की बात उठ गई. सूत्र बताते हैं कि बातचीत से शुरू हुई बैठक में बहस इतनी तल्ख हो गई कि रीता जोशी बैठक को बीच में ही छोड़ कर चली गईं.
बैठक में उत्तर प्रदेश के शीर्ष नेताओं ने जो फजीहत कराई उसकी जानकारी जब राहुल गांधी को हुई तो उन्होंने बीच-बचाव का जिम्मा खुद संभाला. लिहाजा प्रमोद तिवारी व रीता जोशी ने एक साथ आकर बयान दिया कि दिल्ली में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जैसी कि अफवाहें हैं. टिकट मिलने की आस लगाए एक पूर्व विधायक चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘सवाल यह उठता है कि जब दोनों नेताओं के बीच कोई विवाद हुआ ही नहीं तो आखिर सफाई देने की नौबत क्यों आ गई.’ उक्त नेता के मुताबिक प्रमुख विपक्षी पार्टियों सपा व बसपा ने अपने-अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं और कांग्रेस अभी पहली सूची के विवाद से ही नहीं उबर पा रही है. वे कहते हैं, ‘जरूरत विपक्षी पार्टियों से दो-दो हाथ करने की है तो हमारी पार्टी में टिकट को लेकर ही घमासान हो रहा है.’
टिकटों को लेकर प्रदेश के शीर्ष कांग्रेसियों के बीच मचे घमासान का असर पार्टी के दूसरे कार्यकर्ताओं पर भी देखने को मिल रहा है. पार्टी के उपाध्यक्ष व पूर्व मंत्री रणजीत सिंह जूदेव ने विधिवत बयान जारी करके बिना नाम लिए दिल्ली की बैठक में रीता जोशी पर आरोप लगाने वालों पर निशाना साधा. जूदेव के मुताबिक छानबीन समिति पूरी गंभीरता से प्रत्याशियों के नामों पर विचार कर रही है और टिकटों के बंटवारे के बारे में भ्रामक प्रचार केवल वे लोग कर रहे हैं जो हमेशा विरोधी दलों के साथ मिलकर कांग्रेस को कमजोर करने का प्रयास करते हैं. रीता जोशी के समर्थन में पूर्व मंत्री जूदेव ने पार्टी हाईकमान से यहां तक मांग कर डाली कि विरोधी दलों से सांठ-गांठ करके कमजोर प्रत्याशी खड़े करने वाले षड्यंत्रकारी तत्वों की पहचान करके उन पर अंकुश लगाया जाए.

अपनी ही पार्टी के नेताओं पर विरोधी पार्टियों से सांठ-गांठ करने का आरोप पार्टी के ही एक पूर्व मंत्री द्वारा लगाया जाना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि हाईकमान की ़डांट-डपट का असर नीचे तक नहीं हुआ है और अंदरखाने में अब भी जबर्दस्त मतभेद बना हुआ है. चुनाव के समय भी पार्टी छोटे-छोटे खेमों में बंटी नजर आ रही है. सूत्र बताते हैं कि पार्टी का एक गुट वर्तमान अध्यक्ष के बराबर कार्यकारी अध्यक्ष बनवाने की जुगत में भी दिल्ली के कुछ बड़े नेताओं से संपर्क साधने में लगा है.

फिलहाल प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी पार्टी के किसी भी नेता से टिकट के बंटवारे को लेकर हुए विवाद की बात को सिरे से नकारती हैं. लेकिन इतना जरूर कहती हैं कि दूसरी सूची में 17-18 नाम ऐसे थे जिनका उन्होंने विरोध किया था. वे कहती हैं, ‘कुछ लोग ऐसे लोगों को टिकट देना चाह रहे थे जो पिछले कई चुनाव तो लड़े लेकिन अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए. इनमें कुछ ऐसे नाम भी थे जो बैकडोर से पार्टी में शामिल होकर सिर्फ चुनाव लड़ने ही आए हैं. इन लोगों के स्थान पर मैं उनको टिकट देने की मांग कर रही थी जो सालों से ब्लॉक प्रमुख आदि हैं या पूरी निष्ठा से पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं.’

फिलहाल विवादों के बाद दूसरी सूची का मामला अधर में लटक गया है. कांग्रेस हाईकमान के सामने डैमेज कंट्रोल का संकट है. सांप भी मर जाए और लाठी भी बची रहे वाली रणनीति खोजना उसके लिए काफी मुश्किल होगा.  

शिक्षा के मंदिर, शोक की घंटियां

हिंदुस्तान के पहले आईआईटी, आईआईटी खड़गपुर के 1956 में हुए पहले दीक्षांत समारोह में पंडित नेहरू ने कहा था, ‘यह हिंदुस्तान की एक उत्कृष्ट धरोहर है, जो हमारी उम्मीदों का प्रतिनिधित्व करेगी और हिंदुस्तान के भविष्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी.’ मगर न तो आईआईटी संस्थानों की स्थापना में अहम योगदान देने वाले पंडित नेहरू ने सोचा होगा और न ही मध्यम वर्गीय महत्वाकांक्षा के हम और आप जैसे दावेदारों ने ही, कि हिंदुस्तान का भविष्य तैयार होने से पहले ही इन आईआईटी संस्थानों में आत्महत्या करने को मजबूर होगा. अगर आप भी आईआईटी के कुछ प्रोफेसरों की ही तरह इस तरह का कोई गुमान रखते हैं कि आत्महत्याएं सिर्फ आईआईटी संस्थानों में ही नहीं हर जगह होती हैं और आईआईटी की शिक्षा व्यवस्था और पद्धति इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं, तो कृपया इन आंकड़ों पर नजर डाले.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इस साल अभी तक आईआईटी संस्थानों में सात आत्महत्याएं हो चुकी हैं जिसमें से दो पिछले दो हफ्तों के दौरान हुई हैं. सबसे ताजा मामला आईआईटी पटना में तीसरे वर्ष की 21 वर्षीया यलावर्थी सुइया का है जिसने पांचवंे सेमस्टर में खराब प्रदर्शन की वजह से अपने हॉस्टल की इमारत से कूद कर आत्महत्या कर ली. इससे पहले आईआईटी मद्रास में एमटेक के दूसरे वर्ष के छात्र बी गौरीशंकर ने जहर पी कर आत्महत्या कर ली थी. 2011 का आंकडा पिछले चार सालों में आत्महत्याओं का सबसे बड़ा आंकड़ा है. 2010 में दो, 2009 में चार और 2008 में आईआईटी के पांच छात्र आत्महत्या कर चुके हैं. इसके अलावा, आईआईटी कानपुर में वर्ष 2005 से वर्ष 2010 तक आठ आत्महत्याएं हो चुकी हैं और आईआईटी मद्रास में वर्ष 2008 से 2011 तक पांच.

‘ हम लोग रियल लाइफ से बिलकुल कटे रहते हैं. 8वी-9वी के बाद कभी कोई स्पोर्टस नहीं खेला, किसी डिबेट या ऐक्टिविटी में भाग नहीं लिया ‘

दिल्ली के जाने-माने मनोवैज्ञानिक संजय चुग के कहते हैं,’ आत्महत्या की कोई एक निर्धारित वजह नहीं होती. हमेशा कुछ कारण साथ मिल कर आत्महत्या की वजह बनते हैं. इन्हीं कारणों की वजह से अकसर छात्रों में तनाव और अवसाद घर कर जाता है और जब परिणाम आपके अनुरूप नहीं आते, तब आप मानसिक रूप से परेशान और अकेले-उदास हो कर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित होते हैं.’

‘तहलका’ ने आईआईटी संस्थानों में हो रही आत्महत्याओं की इन्हीं अलग-अलग वजहों को जानने के लिए देश के इन महत्वपूर्ण संस्थानों के कई छात्रों से मुलाकात और बातचीत की. बातचीत के दौरान सभी छात्रों की एकमात्र शर्त थी कि उनका नाम न छापा जाए और इसी वजह से यहां बिना उनके नाम छापे उनकी बात आप तक पहुंचाई जा रही है.

आईआईटी संस्थानों के तकरीबन सभी छात्रों ने एकमत से आत्महत्या और अवसाद  के लिए जिस अहम कारण का जिक्र किया वह है शैक्षिक दबाव. आईआईटी दिल्ली मेंे एमटेक के एक छात्र बताते हैं, ’यहां आपको 80 प्रतिशत ऐसे लोग मिल जाएंगे जो आईआईटी के सिस्टम से उखड़े हुए हैं…हर बंदा यहां आईआईटी से नहीं, उसके सिस्टम से परेशान है’. आईआईटी में ‘प्रतिष्ठित’ डिग्री को हासिल करने के लिए सिस्टम को इतना उलझा हुआ बना दिया गया है कि छात्र को उसको समझने में ही दो-तीन साल लग जाते है. आईआईटी कानपुर में बीटेक, चौथे वर्ष के एक छात्र कहते हैं, ’मुझे अपनी डिग्री प्लान करने में ही बहुत टाइम लग जाता है.’ कई संस्थानों में प्री-रेक्वजिट (pre-requisite) जैसे उलझे नियम, खुद टाइम टेबल बनाने की कवायद, 75 प्रतिशत उपस्थिति की शर्त, हर गतिविधि में क्रेडिट पांइट का लेन-देन, कई जगह स्टेंडिंग रिव्यू कमेटी जैसी सख्त कमेटियों का होना, प्रोफेसरों का रुखा रवैया जैसे कई कारण हैं जिनसे छात्र अवसादग्रस्त हो जाते हैं.

प्री-रेक्वजिट जैसे सख्त नियम पर आईआईटी दिल्ली के काफी छात्र अपना रोष व्यक्त करते हैं. बीटेक (चौथे वर्ष) के एक छात्र कहते हैं, ‘अगर आप पहले सेमस्टर में किसी कोर्स में फेल हो गए तो उसकी परीक्षा दोबारा आप अगले सेमस्टर में नहीं, अगले साल दंेगे. और अगले साल वह कोर्स देने के लिए आपको उस साल का एक कोर्स ड्रॉप करना पड़ेगा जो आप फिर तीसरे साल में देंगेे, तीसरे साल वाला कोर्स आप फिर चौथे साल में देंगे..और अगर यह चेन चौथे साल के आखिर तक जाती है तो फिर आपकी डिग्री एक्सटेंड हो जाती है. और यह काफी लोगों के साथ होता है. साथ ही आपको उस रुके हुए कोर्स की सारी कक्षाएं भी फिर से अटेंड करनी जरूरी होती हैं. इसका सबसे ज्यादा असर प्लेसमेंट पर पड़ता है जहां पहले से कैंपस प्लेसमेंट में नौकरी पा चुके छात्र डिग्री के एक्सटेंशन की वजह से अपने ड्रीम जाब से हाथ धो बैठते हैं.’

इतना दबाव छात्रों पर डाल कर शायद यह दिखाना चाहते हैं कि आईआईटी का छात्र कितनी मेहनत करता है. मगर मार्क्स के आगे भी दुनिया होती है

आईआईटी का यह सिस्टम बाकी इंजीनियरिंग संस्थानों से एकदम अलग है, जहां पर छात्र रुके हुए कोर्स को अगले ही सेमस्टर में बाकी के विषयों के साथ दे कर उत्तीर्ण कर सकता है. एमटेक डूअल (dual) डिग्री के एक छात्र बताते हैं, ’इस सिस्टम की वजह से तीसरे सेमस्टर के एक कोर्स में फेल हुआ तो ऐसे लूप में फंसा कि आज सातवें सेमस्टर तक आते-आते मैं चार कोर्स के पेपर अपने जूनियरों के साथ दे चुका हूं…अब अगर गलती से भी मैं किसी और कोर्स में फेल हो गया तो मेरी डिग्री तो हर हाल में एक्सटेंड होगी.’

आईआईटी संस्थानों में इसी तरह के सख्त नियमों के चलते कई छात्रों की डिग्रियां एक या दो साल आगे बढ़ जाती हैं और प्लेसमेंट में मिली नौकरी हाथ से चली जाती है. इस वजह से उनमें अवसाद बढ़ जाता है जो कुछ मामलों में आत्महत्या का रुप ले लेता है. आंकड़ों से भी साफ पता चलता है कि ज्यादातर छात्रों की आत्महत्या करने की वजह उनकी डिग्री का एक्सटेंड होना और कैंपस प्लेसमेंट में मिली नौकरी का हाथ से जाना होता है.

अब बात स्टेंडिंग रिव्यू कमेटी (एसआरसी) की. इसके बारे में आईआईटी दिल्ली के एक छात्र कहते हैं, ’हमारे यहां एसआरसी एक हव्वा है. सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा की तर्ज पर हमारे यहां कहते हैं कि पढ़ ले नहीं तो एसआरसी लग जाएगी! जब आपके ऊपर एसआरसी बैठती है तो तकनीकी रूप से आपका अगले सेमस्टर का एक कोर्स अपने आप ड्रॉप हो जाता है क्योंकि प्रोफेसरों को लगता है कि आप इतना बोझ नहीं उठा सकते. तो मदद करने की जगह एसआरसी छात्रों का नुकसान ही करती है. यह डिजाइन और रियालिटी के बीच का फर्क है…आपने सिस्टम तो डिजाइन कर दिया मगर आपको रियालिटी के बारे में कुछ नहीं पता है.’ एक दूसरी परेशानी की तरफ ध्यान खींचते हुए एक अन्य छात्र कहते हैं, ’यहां हर चीज के लिए आपको क्रेडिट चाहिए होता है. टेक्निकल ट्रेनिंग के लिए इतने क्रेडिट चाहिए, बीटेक प्रोजेक्ट के लिए उतने क्रेडिट चाहिए. जिंदगी के चार साल बस गणित लगाते हुए ही निकल जाते हैं.’

मगर आईआईटी दिल्ली के छात्र संकायाध्यक्ष प्रोफेसर शशि माथुर शैक्षिक दबाव को अवसाद और आत्महत्या की वजह मानने से इंकार करते हैं. वे कहते हैं ’मैं अपने छात्रों को कहता हूं कि आपको आईआईटी में फेल होने के लिए काफी ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, न कि पास होने के लिए! शैक्षिक दबाव  बिलकुल भी तनाव और आत्महत्या की वजह नहीं हो सकता.’ वही दूसरी तरफ जाने-माने शिक्षाशास्त्री और यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल सीधे-सीधे अपनी बात रखते हैं, ’इतना अकादमिक दबाव छात्रों पर डाल कर शायद ये लोग यह दिखाना चाहते हैं कि आईआईटी का छात्र कितनी मेहनत करता है. मगर मार्क्स के आगे भी दुनिया होती है. आईआईटी में इस तरह की पढ़ाई से छात्रों को असली ज्ञान की दुनिया से महरूम रखा जा रहा है.’

लगातार बढ़ती आत्महत्याओं और अवसाद के मामलों के चलते ज्यादातर आईआईटी संस्थानों में काउंसलिंग सेल मौजूद है जहां मनोचिकित्सक छात्रों की मदद करते हैं. मगर अकसर छात्र काउंसलिंग के लिए नहीं जाते. इसकी वजह बताते हुए आईआईटी दिल्ली की मुख्य काउंसलर रुपा मुगरई कहती हैं, ’हमारे समाज में काउंसलिंग को  लेकर काफी नकारात्मक धारणा है. मेरे पास काफी छात्र आते हैं जो मनोचिकित्सक के पास नहीं जाना चाहते, दवा नहीं लेना चाहते क्योंकि इससे वे लोगों की नजर में आ जाएंगे. यहां तक कि वे काउंसलर के पास भी नहीं आते कि कहीं लोग उन्हें पागल न समझें.’ मगर यहां से काउंसलिंग ले चुके आईआईटी दिल्ली के एमटेक के आखिरी साल के एक छात्र का अनुभव थोड़ा अलग था. वे बताते हैं, ’मैं पहली बार गया तो आफिस बंद था. दूसरी बार गया तो रिसेप्शनिस्ट नहीं थी, तीसरी बार काउंसलर मैडम छुट्टी पर थीं, उसके बाद रिसेप्शनिस्ट छुट्टी पर चली गईं. फिर जब आखिर में अपाइंटमेंट मिला तो तीन दिन बाद का मिला. तो जब मैं खुद अपने से इतनी कोशिश कर रहा हूं कि मुझे मदद चाहिए, तब मुझे नौ दिन बाद जाकर मदद मिली. यहां 8000 छात्र हंै और सिर्फ दो काउंसलर, कैसे समय पर मदद मिल पाएगी?’
यह शिकायत काफी छात्रों की थी कि आप जब खुद मदद के लिए जाएं तभी मदद मिलती है, और अकसर अवसाद के शिकार छात्र खुद काउंसलर के पास नहीं जाते हैं. जैसा कि एक छात्र अपने आक्रोश को छुपाते हुए बताते हंै, ’जब अखबारों में किसी आत्महत्या की खबर छपती है और डायरेक्टर स्टेटमेंट देते हैं कि हम लोग तो उस छात्र को बड़े ध्यान से आब्जर्व कर रहे थे और उसमें अवसाद या तनाव के कोई लक्षण मौजूद नहीं थे, पता नहीं उसने ऐसा कदम क्यों उठाया तो हम लोगों को हंसी आती है. मुझे तो यहां कोई भी ऑब्जर्व नहीं कर रहा है. उनको कैसे पता चलेगा कि मैं तनाव या अवसाद में हूं जबकि यहां मेरे दोस्तों तक को उसके बारे में पता नहीं चलता है.’

एक और अहम पहलू है छात्रों पर अभिभावकों और समाज का दबाव. पहले यह दबाव इन संस्थानों में प्रवेश को लेकर होता है और प्रवेश के बाद आईआईटी में लगातार अच्छा प्रदर्शन करने को लेकर. काउंसलर रुपा मुरगई बताती हैं, ‘काफी सारे छात्र आईआईटी में प्रवेश पाने से पहले ही तनाव और अवसाद के शिकार होते हैं. आईआईटी में दाखिला पाने के लिए लगातार अभिवावकों के दबाव के चलते बच्चा सामान्य जिंदगी नहीं जी पाता है. उसने बाकी बच्चों की तरह स्कूल लाइफ नहीं देखी होती. कोचिंग संस्थान और अभिवावक मिलकर बच्चों को सिर्फ आईआईटी की तैयारी के लिए ही अनुशासन में रख कर प्रशिक्षित करते हैं. किताबों से बाहर उसे निकलने ही नहीं देते. जब बच्चा आईआईटी में आता है तो यहां उसे वह अनुशासन और प्रशिक्षण नहीं मिलता, अभिवावकों की निगरानी नहीं मिलती, सब कुछ अकेले करना पड़ता है. अगर वह इस तरह की नयी संस्कृति से तालमेल नहीं बिठा पाता तो धीरे-धीरे अवसाद में चला जाता है.’

वास्तविक दुनिया से अलग-थलग होना भी काफी छात्र इस दबाव की प्रमुख वजह मानते हैं. आईआईटी मद्रास के चौथे साल के एक छात्र को इसका अहसास है. वे कहते हैं, ’हम लोग रियल लाइफ से बिलकुल कटे रहते हैं. मुझे घर के कई काम करने नहीं आते. मैंने कभी टेलीफोन बिल नहीं जमा किया. सब्जी लेने मैं आज तक नहीं गया.स्कूल लाइफ में कभी किसी लड़की के साथ फिल्म नहीं देखी. 8वीं-9वीं के बाद कभी कोई स्पोर्ट्स नहीं खेला, किसी डिबेट या ऐक्टिविटी में भाग नहीं लिया और तकरीबन मेरे सारे दोस्तों ने भी ये सारे काम नहीं किए हैं.’ वास्तविक दुनिया से अपने इसी डिसकनेक्ट की वजह से काफी छात्र तनाव को नहीं संभाल पाते हैं. एक छात्र के शब्दों में, ‘यहां के छात्रों में इन मुश्किल हालात से निपटने की क्षमताएं नहीं रहतीं, उनमें तनाव को झेलने की प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती है.’

इसके अलावा भी कई संभावित कारण हैं जो छात्रों के बीच अवसाद को बढ़ावा देते हैं. उदाहरण के लिए कई प्रोफेसरों का छात्रों के प्रति रुखा रवैया. आईआईटी दिल्ली के एक छात्र बताते हैं, ‘यहां कुछ प्रोफेसर वाकई अच्छे होते हैं मगर कुछ प्रोफेसर होते है जो छात्रों के प्रति काफी असंवेदनशील होते हैं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि छात्र का करियर बर्बाद हो रहा है. वे आपको अकसर निरुत्साहित और अपमानित करते रहते हैं. और छात्र कुछ कर नहीं सकते क्योंकि आईआईटी में प्रोफेसर के हाथ में पूरी पाॅवर होती है, वह आपका करियर बना भी सकता है और चाहे तो बिगाड़ भी सकता है.’

इसके अलावा एक दूसरी और खास वजह आईआईटी की बनी हुई साख है. इस संस्थान में प्रवेश मिलने वाले को शुरू से ही खुदा का दर्जा दिया जाता है और जब यहां आकर कोई छात्र अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता तो वह उस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाता है. आईआईटी कानपुर के दूसरे वर्ष के एक छात्र बताते हैं, ‘यहां आया हुआ हर छात्र अपनी-अपनी क्लास का टॉपर होता है. और यहां आकर कुछ ऊपर होते हैं और कुछ नीचे. मगर जो बंदा नीचे है वह भी आया तो टॉपर बन कर ही था, इसीलिए उसे यह बात स्वीकार करने में बड़ी मुश्किल होती है कि वह उतना बुद्धिमान नहीं है जितना उसने और उसकी फैमिली ने सोचा था.’

आईआईटी संस्थानों में इस तरह के प्रकरणों को कम करने के लिए सिस्टम में मौजूद कमियों को दूर करने पर जोर डालते हुए प्रोफेसर यशपाल आईआईटी को यूनिवर्सिटी का दर्जा देने का सुझाव देते हंै, जहां दूसरे विषय भी पढ़ाए जाएं जिससे छात्र का संपूर्ण विकास संभव हो सके. वे कहते हैं, ‘अगर आप विश्व के बेहतरीन विश्वविद्यालयों का इतिहास देखें तो आपको पता चलेगा कि वे सभी इसलिए इतने जाने जाते हैं क्योंकि उन्होंने वक्त के साथ अपना विस्तार किया और अलग-अलग विषयों को अपने छात्रों को पढ़ाया. आईआईटी में दी जा रही शिक्षा संपूर्ण शिक्षा नहीं है. आईआईटी का छात्र बहुत कुछ कर सकता है मगर इस तरह की शिक्षा से छात्र ज्ञान की दुनिया से कट जाता है.’

आईआईटी से निकली अनेकों प्रतिभाओं ने अपनी विलक्षण उपलब्धियों से दुनिया के सामने कई उदाहरण रखे हैं जो काबिले तारीफ है. लेकिन प्रतिभाओं को तराशने में और बने-बनाए सांचे में ढालने में फर्क होता है. इसलिए ऐसे सृजनशील प्रतिष्ठानों से हम यही अपेक्षा कर सकते हैं कि इस तरह की दुखद घटनाओं पर अंकुश लगाने के तरीके खोजे जाएं जिससे आने वाले समय में और प्रतिभाएं काल-कवलित न हों. 

सवालों की जांच और जांच पर कई सवाल

यह एक सामान्य तथ्य है कि हर सुनियोजित कत्ल के पीछे इंसान की पाशविक प्रवृत्ति से जुड़े कुछ स्याह राज जिम्मेदार होते हैं. ऐसे में अगर एक मध्यवर्गीय मुसलिम परिवार से निकलकर अपनी पहचान बनाने वाली किसी महिला के कत्ल का मामला हो तो ये राज और गहरे समझे जाने लगते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता शेहला मसूद की भोपाल में हुई बर्बर हत्या के लगभग 30 दिन बाद भी उनका कत्ल शहर में चर्चा और रहस्य का विषय बना हुआ है.

अमूमन ऐसे वाकयों को हफ्ते भर में भुला देने वाला प्रदेश मीडिया इस सनसनीखेज हत्या की तफ्तीश के दौरान हर रोज आ रही ताजा जानकारियों के संदर्भों को समझने में उलझा पड़ा है. वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश पुलिस से लेकर केंद्रीय जांच एजेंसियों तक, पूरा प्रशासनिक महकमा भी इस मामले में हर रोज जुड़ रहे नये आयामों और धुंधले सुरागों के बिंदुओं को जोड़कर इस कत्ल की गुत्थी सुलझाने में जुटा है.  हालांकि 30 दिन तक अपनी पूरी ताकत झोंक देने के बाद भी जांच एजेंसियां इस हत्याकांड को सुलझाने की दिशा में किसी ठोस नतीजे तक पहुंचने में नाकाम रही हैं.  इस दौरान यह जरूर हुआ है कि मामले की जांच आगे बढ़ने के साथ-साथ पुलिस की लापरवाही भरी जांच, राजनीतिक गुटबाजी और स्थानीय मीडिया के सामंती रवैये से जुड़ी कई बातें स्पष्ट होकर सामने आ रही हैं.

शेहला ने एक साक्षात्कार में आईजी पवन श्रीवास्तव और विधायक विश्वास सारंग पर धमकाने के आरोप लगाए थेमसूद हत्याकांड में पिछले दिनों निर्णायक मोड़ तब आया जब प्रदेश पुलिस ने 5 सितंबर को केस डायरी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंपी. मामला हाथ में लेते ही सीबीआई ने अपनी पहले दिन की तफ्तीश से ही प्रदेश पुलिस के ढीले और लापरवाह रवैये की कलई खोल दी. पड़ताल के दौरान सीबीआई ने शेहला की कार से एक सोने का पेंडेंट (लॉकेट) और कागजों से भरी एक फाइल बरामद की. सोने का यह पेंडेंट कार की उस ड्राइविंग सीट के नीचे पड़ा था, जिस पर बैठी हुई शेहला को गोली मारी गई थी. वहीं कागजात से भरी एक फाइल उनकी कार की डिग्गी में पड़ी हुई थी. ड्राइविंग सीट के नीचे मिले पेंडेंट को एक अहम सबूत बताते हुए सीबीआई सूत्रों ने कहा कि हत्या से पहले हुए किसी संघर्ष की संभावना को नकारा नहीं जा सकता. जांच अधिकारियों ने राजधानी के महाराणा प्रताप स्थित शेहला की विज्ञापन एजेंसी ‘मिराकल्स’ की भी गहरी छानबीन की है.

शेहला के परिजनों का मानना है कि प्रदेश पुलिस का लापरवाह रवैया पहले ही केस को काफी कमजोर बना चुका है. तहलका से बातचीत के दौरान शेहला के पिता मसूद सुल्तान कहते हैं, ‘घटना के तुरंत बाद ही पुलिसवालों ने शेहला का लैपटॉप, मोबाइल और उसकी कार, सब कुछ अपने कब्जे में कर लिया था. लेकिन अब उसकी कॉल डिटेल्स से जाहिर हुआ है कि पुलिस उसकी हत्या के एक दिन बाद तक उसके मोबाइल फोन से अनजान लोगों को फोन कर रही थी. ये लोग उसकी कार में पड़े कागज और उसकी ड्राइविंग सीट के नीचे पड़ा लॉकेट तक नहीं ढूंढ़ पाए. हम इनसे न्याय की उम्मीद कैसे करें?’  गौरतलब है कि सीबीआई जांच के दौरान यह उजागर हुआ था कि शेहला की हत्या के एक दिन बाद तक उनके मोबाइल फोन से मंडला और भोपाल के दो नंबरों पर कुल चार फोन कॉल किए गए थे. यह तथ्य उजागर होने के बाद से प्रदेश के पुलिस महकमे पर इस हत्याकांड से जुड़े अहम सबूतों से छेड़छाड़ करने और मामले की लीपापोती करने के आरोप लग रहे हैं. शेहला की बहन आयशा मसूद आगे जानकारी देते हुए कहती हैं कि उनके परिवार को विश्वास है कि अपनी 20 दिन की पड़ताल के दौरान प्रदेश पुलिस ने केस काफी हद तक बिगाड़ दिया है. इस बाबत मसूद परिवार को हाल ही में मिले एक अनाम खत का जिक्र करते हुए वे बताती हैं , ‘हमें एक गुमनाम खत मिला है जिसमें लिखा है कि मध्य प्रदेश पुलिस अपराधियों को बचाने की कोशिश कर रही है. उन्होंने शेहला के कंप्यूटर से संबंधित डाटा निकालकर आईजी पवन श्रीवास्तव को दे दिया है. जिस लापरवाही से उन्होंने मामले की छानबीन की है उससे तो लगता है कि खत में लिखी बात सच है. शेहला ने तमाम लोगों के खिलाफ सूचना के अधिकार के तहत जो भी जानकारियां जुटाई थीं, उसका काफी बड़ा हिस्सा उसके कंप्यूटर में था. हो सकता है कि इन लोगों ने हर संबंधित व्यक्ति तक उससे जुड़ी जानकारी पहुंचा दी हो ताकि वह अपना डिफेंस तैयार कर सके. ‘ 

गौरतलब है कि एक अंग्रेजी पत्रिका को दिए अपने आखिरी साक्षात्कार में शेहला ने पुलिस महानिरीक्षक पवन श्रीवास्तव के साथ-साथ भाजपा के विधायक विश्वास सारंग से अपनी जान को खतरा बताया था. जुलाई, 2011 में दिए गए इस साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मैंने जो भी जानकारियां हासिल की हैं, उसकी वजह से कई लोग मुझे जान से मारने की धमकी दे चुके हैं. इसमें मुख्यमंत्री के प्रोटोकॉल ऑफिसर से लेकर भाजपा विधायक विश्वास सारंग और कई भ्रष्ट अफसरशाह भी शामिल हैं…’ शेहला के परिजनों का कहना है कि प्रदेश पुलिस ने शेहला द्वारा विभिन्न सरकारी विभागों में लगाए गए तमाम आरटीआई आवेदनों की ठीक से जांच नहीं की है. आयशा कहती हैं, ‘उसने साफ कहा है कि उसे जान का खतरा है और उसने कुछ लोगों के नाम भी गिनवाए थे, फिर भी पुलिस अब तक हत्यारों को क्यों नहीं पकड़ पाई?’

फिलहाल मामला केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई के हाथों में जाने के बाद शेहला के परिवार को न्याय की आस बंध गई है. शेहला से जुड़े उनके करीबी मित्रों का मानना है कि वह सक्रिय राजनीति में जाने की भी योजना बना रही थी. एक तरफ जहां भाजपा के अनिल दवे और विश्वास सारंग जैसे नेताओं को उन्होंने खुले तौर पर अपना विरोधी घोषित कर रखा था, वहीं दूसरी ओर भाजपा के ही तरुण विजय और ध्रुव नारायण सिंह जैसे राष्ट्रीय और राज्य स्तर के बड़े नेताओं से उनकी अच्छी मित्रता थी. यहां तक कि उनके फेसबुक अकाउंट में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनकी मुलाकात की तस्वीरों का पूरा एक एलबम मौजूद है.  विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि शेहला प्रदेश भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चे का नया चेहरा बनना चाहती थीं. शेहला के बारे में बात करते हुए उनके एक करीबी मित्र कहते हैं, ‘2008 के बाद और उसके पहले की शेहला काफी अलग-अलग थीं. 2008 से पहले तक उनका ध्यान कार रैलियां, फैशन शो और ऐसे ही तमाम कार्यक्रम आयोजित करने की तरफ ज्यादा था. फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ और एक दिन वह फेसबुक पर लिखती है कि अब मध्य प्रदेश एक टाइगर राज्य नहीं है. फिर अचानक वह अन्ना आंदोलन से जुड़कर भ्रष्टाचार के खिलाफ शाहजहानी बाग में धरने पर बैठ जाती है. उसके अंदर भावनाओं का जैसे एक तूफान घुमड़ा करता था और वह बहुत अप्रत्याशित स्वभाव की थी.’  शेहला के राजनीति की तरफ होते झुकाव के बारे बताते हुए वे आगे कहते हैं, ‘हाल के दिनों में उसमें कई बदलाव आए. शायद काम का दबाव रहा होगा कि वह मिजाजन कुछ परेशान और चिड़चिड़ी-सी रहने लगी थी. एक तरफ वह भाजपा में शामिल भी होना चाहती थी, दूसरी तरफ उन्हीं की सरकार के खिलाफ खूब आरटीआई भी लगाती थी. उसे शक्ति तो चाहिए थी पर वह शायद तय नहीं कर पा रही थी कि उसे कौन-सा रास्ता चुनना है.’  

शेहला मसूद हत्याकांड के तमाम पहलुओं के बीच स्थानीय मीडिया का सामंती रवैया भी मृतका के परिजनों की परेशानियों को बढ़ा रहा है. आयशा प्रदेश के अखबारों की आलोचना करते हुए कहती हैं, ‘मीडिया का ध्यान इस बात पर बिलकुल नहीं है कि किसी की हत्या हुई और उसके कातिलों को सजा मिलनी चाहिए. सभी उसके निजी संबंधों के बारे में तथ्यहीन बातें लिखकर अपने अखबार बेच रहे हैं. इन्हें तो इस बात का भी लिहाज नहीं है कि शेहला अपनी सफाई देने के लिए जिंदा नहीं है.’ मसूद हत्याकांड की मीडिया कवरेज की आलोचना राज्य के महिला संगठन भी कर रहे हैं. अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की प्रदेश अध्यक्ष संध्या शैली कहती हैं, ‘पूरे मामले में मीडिया की भूमिका बहुत खतरनाक रही है. अगर किसी पुरुष की हत्या होती तब भी क्या प्रदेश का यह सामंती मीडिया मृतक की हत्या को छोड़कर उसके निजी संबंधों के बारे में लगातार लिखता? भोपाल एक बहुत रूढ़िवादी शहर है और किसी महिला के चरित्र पर कीचड़ उछालना लोगों के लिए सबसे आसान काम है. कोई महिला अपने निजी जीवन में किसी से भी मित्रता रखती हो, इससे हम उसकी हत्या को जायज कैसे ठहरा सकते हैं?’