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ढुलमुल मुखिया, डूबी लुटिया

दो लाख करोड़ रु का कोयला घोटाला जिस तरह हुआ वह बताता है कि एक ढुलमुल और अप्रभावी नेतृत्व भी देश के लिए उतना ही नुकसानदेह हो सकता है जितना कोई भ्रष्ट नेतृत्व. आशीष खेतान की रिपोर्ट.

भ्रष्टाचार पर इन दिनों जो बहस चल रही है उसका एक अहम पहलू प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन भी है. सर्वोच्च न्यायालय से लेकर नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) और सिविल सोसाइटी तक सभी ने यूपीए सरकार की इस बात के लिए आलोचना की है कि उसने 2जी स्पेक्ट्रम, खनिज और जमीन जैसे अमूल्य संसाधन कौड़ियों के भाव निजी कंपनियों को सौंप दिए. सबसे पहले कैग ने यह भंडाफोड़ किया था कि जनहित को परे रखकर किस तरह चुनिंदा कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए दूरसंचार नीति को मनमुताबिक तोड़ा-मरोड़ा गया. अब कैप्टिव कोल ब्लॉक आवंटन पर उसकी एक नई रिपोर्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सवाल खड़े कर दिए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक इससे सरकारी खजाने को डेढ़ से दो लाख करोड़ रु तक का नुकसान हुआ है. 

राजनीतिक रूप से देखा जाए तो यूपीए के लिए कोयला घोटाले के मायने 2जी घोटाले से कहीं बड़े हैं. इससे पिछली यूपीए सरकार में करीब साढ़े तीन साल तक कोयला मंत्रालय की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ही संभाली थी. मंत्रालय में जूनियर यानी राज्य मंत्री की कुर्सी भी कांग्रेस के पास रही. फिर भी प्रधानमंत्री कोल ब्लॉक आवंटन के लिए प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी (जिसमें सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को ही खनन का ठेका मिलता है) की नीति लाने में विफल रहे. वह भी तब जब प्रधानमंत्री बनने के छह महीने के भीतर ही उन्होंने इस नीति के लिए सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दे दी थी. 

देखा जाए तो कोयला घोटाले की यह कहानी कई मायनों में यूपीए सरकार की कहानी भी है. यह दिखाती है कि कैसे एक ढुलमुल और अप्रभावी राजनेता देश के लिए उतना ही नुकसानदेह हो सकता है जितना कोई भ्रष्ट नेता. प्रधानमंत्री की नीयत भले ही अच्छी रही हो मगर चूंकि वे सिर्फ नाम भर के प्रधानमंत्री थे इसलिए एक पारदर्शी और निष्पक्ष कोयला नीति लाने के लिए उनके हर कदम पर उन्हीं की सरकार के कुछ लोग अड़ंगा डालते रहे और वे ऐसे हर मौके पर दृढ़ता दिखाने के बजाय दूसरी तरफ देखते नजर आए. 

लेकिन इससे पहले कि हम कहानी के विस्तार में जाएं, कोयला घोटाले से जुड़े कुछ तथ्य.

यह प्रस्ताव तो 2004 में ही बन गया था कि खनन के लिए कोयले के ब्लॉक यूं ही आवंटित करने के बजाय इनकी नीलामी की जाए. लेकिन इस दौरान तीन बार कोयला मंत्रालय की कमान संभालने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया शिबू सोरेन और कोयला राज्य मंत्री डी नारायण राव हमेशा राह में अडंगा लगाते रहे. जब भी इस मामले पर कोई प्रगति होती, ये दोनों मिलकर इसे किसी न किसी बहाने से टाल देते. राव तो कांग्रेस के ही थे मगर इस मुद्दे पर उन्होंने अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के बजाय सोरेन का साथ दिया. पिछले छह साल के दौरान कोल ब्लॉकों की नीलामी के लिए प्रधानमंत्री के निर्देशों पर बने एक कैबिनेट नोट के मसौदे में छह बार बदलाव किया गया. ऊपरी तौर पर यह दिखाया गया कि इसका मकसद उनकी चिंताओं का भी ख्याल रखना है जो नीलामी के पक्ष में नहीं हैं. लेकिन जब भी नोट में कोई सुधार किया जाता तो इसके फौरन बाद ही नई आपत्तियां भी पेश कर दी जातीं. 

दिलचस्प बात यह है कि नीलामी के जरिए कोल ब्लॉक आवंटन का विरोध करने वालों में उस समय भाजपा शासित राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ व माकपा शासित प. बंगाल की सरकारें (अगले पृष्ठ पर बॉक्स देखें) भी थीं. राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस प्रस्तावित नीति से अपना विरोध जताया था. आज भाजपा और माकपा, दोनों ही स्क्रीनिंग कमेटी सिस्टम के जरिए कोल ब्लॉकों का आवंटन करने पर यूपीए सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. इन दोनों दलों का दोहरा रवैया बताता है कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले पूंजीवाद का घुन सिर्फ कांग्रेस को नहीं लगा है. फिर भी चूंकि सरकार यूपीए की थी इसलिए नीतिगत मोर्चे पर इस असफलता के लिए जिम्मेदारी उसकी ही बनती है. 

दूसरे खनिजों से अलग कोयला संघीय सूची का विषय है. यानी इस मामले में फैसले का सारा अधिकार केंद्र सरकार का ही होता है. लेकिन हैरानी की बात है कि यूपीए के भीतर बैठे तत्वों ने नीलामी नीति को टालते रहने के लिए वसुंधरा राजे जैसी शख्सियतों द्वारा उठाई गई आपत्तियों का सहारा लिया जबकि राजस्थान में कोयले का कोई ज्ञात भंडार भी नहीं है. ऐसा करते हुए इस तथ्य की भी उपेक्षा की गई कि कोयला उत्पादक राज्यों में से ज्यादातर को इस नीति पर कोई एतराज नहीं था. यही नहीं, केंद्र के कई मंत्रालय भी इस नीति के पक्ष में थे. प्रस्तावित नीलामी नीति की फाइल प्रधानमंत्री कार्यालय, कोयला मंत्रालय और कानून मंत्रालय में चक्कर काटती रही, लेकिन इसे 2009 तक कैबिनेट के सामने नहीं रखा गया. 2010 में जाकर इस नीति पर मुहर लगी, लेकिन तब भी नीलामी के नियम क्या होंगे, इस पर फैसला होना बाकी था. इसलिए नई नीति आने के बाद भी स्थिति यह है कि अब तक एक भी कोल ब्लॉक का आवंटन नीलामी के जरिए नहीं हुआ है. 

यानी जिस कवायद में ज्यादा से ज्यादा छह महीने लगने चाहिए थे वह छह साल खिंच गई. बल्कि कहें तो खींची गई. 2004 में जब यूपीए की पहली सरकार बनी तो इसके कुछ समय बाद ही कोयला मंत्रालय में तत्कालीन सचिव पीसी परख ने प्रधानमंत्री को बताया कि कोल ब्लॉक आवंटन की प्रचलित व्यवस्था में कई झोल हैं. तब आवंटन एक स्क्रीनिंग कमेटी के जरिये होता था. इस कमेटी का अध्यक्ष कोयला मंत्रालय का सचिव होता था और इसमें कई मंत्रालयों, सरकारी निगमों और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि होते थे. परख ने प्रधानमंत्री को बताया था कि यह व्यवस्था मनमानी, अपारदर्शिता और भ्रष्टाचार से भरी हुई है. इसके अलावा उनका यह भी कहना था कि कोयले की उत्पादन लागत और कोल इंडिया लिमिटेड द्वारा सप्लाई किए जा रहे कोयले की कीमत में काफी फर्क है जिसका नतीजा उन लोगों को अप्रत्याशित लाभ के रूप में सामने आ रहा है जिनके पास कोल ब्लॉक हैं.

परख के इस नीति का तीखा विरोध करने के बाद यूपीए ने 2004 में ही नीलामी नीति का एलान किया था. मगर यह अगले छह साल तक भी अमल में नहीं आ सकी. हां, नई नीति के ऐलान का नतीजा यह जरूर हुआ कि 2004 से 2009 के बीच कोल ब्लॉक पाने के लिए भगदड़ मची रही. 2जी घोटाले की पड़ताल बताती है कि उन लोगों ने भी स्पेक्ट्रम खरीद लिया था जिनका मकसद दूरसंचार सेवा देना नहीं बल्कि यह था कि बाद में इस स्पेक्ट्रम को महंगी कीमत पर बेचकर खूब मुनाफा बटोर लिया जाए. कोल ब्लॉकों के आवंटन में भी ऐसा हुआ. निजी ऑपरेटरों ने कई कोल ब्लॉक आवंटित करवा लिए. ये कंपनियां अच्छी तरह जानती थीं कि जो ब्लॉक अभी उन्हें कौड़ियों के दाम मिल रहे हैं, नीलामी नीति के आने पर उनकी कीमत बाजार के हिसाब से तय होगी यानी कई गुना बढ़ जाएगी. 

यह भी हैरत की बात है कि 2004 से 2009 की इस अवधि में यूपीए एक तरफ तो नीलामी नीति को टाले जा रहा था और दूसरी तरफ वह दनादन कोल ब्लॉक आवंटित किए जा रहा था. पांच साल में ही 155 कोल ब्लॉक, जिनमें अरबों टन कोयला मौजूद है, उनके वास्तविक बाजार भाव की तुलना में कौड़ियों के दाम आवंटित कर दिए गए. इनमें से 76 निजी कंपनियों को दिए गए थे और बाकी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को. आगे हम देखेंगे कि जिन हालात में यह काम हुआ वे साफ इशारा करते हैं कि ऐसा करने के पीछे नीतियां बनाने वालों और कोयले के ब्लॉक पाने वाले प्रतिष्ठानों की एक सुनियोजित साजिश थी. 

80 फीसदी से भी अधिक आवंटियों ने अब तक अपने ब्लॉकों से कोयला उत्पादन शुरू नहीं किया है. इससे एक अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई है. एक तरफ तो सरकार ने इन ब्लॉकों के आवंटन में असाधारण फुर्ती दिखाई और दूसरी तरफ उसने यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ खास नहीं किया कि आवंटी कोयला उत्पादन करना शुरू कर दें. अब जाकर सरकार ने एक कमेटी बनाई है जो यह देखेगी कि कितने आवंटी ऐसे हैं जिन्होंने जान-बूझकर यह देरी की और कितने ऐसे जो जमीन अधिग्रहण या अपनी खनन योजना के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति न मिलने की वजह से काम शुरू नहीं कर सके. गौरतलब है कि धड़ाधड़ कोल ब्लॉक आवंटन के पीछे सरकार का सबसे बड़ा तर्क यही था कि इससे घरेलू कोयला उत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी होगी. 

कैग ने अपनी रिपोर्ट का जो मसौदा तैयार किया था उसमें कहा गया था कि इस तरह के आवंटन से सरकारी खजाने को कुल 6.31 से 10.67 लाख करोड़ रु. की चपत लगी. इससे निजी कंपनियों को 2.94 से लेकर 4.79 लाख करोड़ रु. का अप्रत्याशित लाभ हुआ. तहलका को सूत्रों से पता चला है कि कैग की फाइनल रिपोर्ट के मुताबिक निजी ऑपरेटरों को हुए फायदे की रकम का आंकड़ा 1.5 लाख से दो लाख करोड़ रु के बीच बैठ रहा है. भाजपा नेता प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं, ‘ऐसा भ्रष्टाचार पहले कभी नहीं देखा गया था. बाजार में सभी को पता है कि कंपनियों ने ये ब्लॉक लेने के लिए भारी रिश्वत दी. दलाली का रेट 50 से 100 रु प्रति टन था.’ जावड़ेकर द्वारा केंद्रीय सतर्कता आयोग में दर्ज करवाई गई शिकायत के आधार पर सीबीआई ने इन आवंटनों की प्राथमिक जांच शुरू कर दी है. सूत्र बताते हैं कि एजेंसी अब तक ऐसी दर्जन भर से भी ज्यादा कंपनियों की पहचान कर चुकी है जो जरूरी तकनीकी और वित्तीय अर्हता न रखने पर भी कोयले के ब्लॉक पाने में कामयाब रही थीं. मार्च 2011, यानी जब से कैग ने आवंटन के दस्तावेजों की पड़ताल शुरू की, तब से कोयला मंत्रालय ने अपने आप ही ऐसे 14 आवंटन रद्द कर दिए हैं. 

यूपीए की पहली सरकार के दौरान कोयला मंत्रालय का जिम्मा एक कैबिनेट और एक राज्य मंत्री के पास था. इस दरमियान कैबिनेट प्रभार तो कभी सोरेन और कभी मनमोहन सिंह के पास आता-जाता रहा, लेकिन राज्य मंत्री का प्रभार कांग्रेस के पास ही रहा. 23 मई, 2004 से लेकर छह अप्रैल, 2008 तक कांग्रेस नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद डी नारायण राव कोयला राज्य मंत्री रहे. सात अप्रैल, 2008 से 29 मई, 2009 तक यह प्रभार राजस्थान से कांग्रेस के सांसद संतोष बागरोड़िया के पास रहा. दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों ही राज्यसभा सांसद थे और दोनों ने प्रधानमंत्री की प्रस्तावित कोयला नीति को समर्थन देने के बजाय उनका साथ दिया जो इसके विरोध में थे. ढुलमुल रवैया दिखाते हुए प्रधानमंत्री ने भी इन बाधाओं के आगे घुटने टेक दिए. एक टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार में कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव पीसी परख का कहना था,  ‘प्रधानमंत्री के पास समय-समय पर कोयला मंत्रालय का प्रभार रहा था. वे नीलामी की इस नीति पर दृढ़ता दिखा सकते थे.’  

गौर करने वाली बात यह भी है कि जब-जब  झामुमो मुखिया शिबू सोरेन को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया, प्रधानमंत्री ने उन्हें कोयला मंत्रालय का जिम्मा थमाया. झारखंड में कोयले का अकूत भंडार देखते हुए सोरेन को नीलामी नीति का स्वागत करना चाहिए था. कोयला भले ही संघीय सूची का विषय हो मगर उससे मिलने वाली रॉयल्टी में से एक बड़ा हिस्सा संबंधित राज्य को ही जाता है. यानी अगर नीलामी वाली नीति लागू हो जाती तो झारखंड जैसे राज्य की झोली में आने वाला राजस्व कहीं ज्यादा बढ़ जाता. इसके बावजूद सोरेन जब भी इस कुर्सी पर रहे उन्होंने इस नीति को पलीता लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. ऐसा लगता है कि केंद्रीय मंत्री भी इस बात के लिए खुलेआम लामबंदी कर रहे थे कि निजी कंपनियों को कोल ब्लॉक स्क्रीनिंग कमेटी के जरिए ही आवंटित हों. हाल ही में एक निजी कंपनी ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल की है. इसमें उसने आरोप लगाया है कि पर्यटन मंत्री सुबोध कांत सहाय ने यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में खाद्य प्रसंस्करण मंत्री रहते हुए एक ऐसी कंपनी को कोल ब्लॉक दिलाने के लिए लामबंदी की जिसका संबंध उनके भाई से है. सहाय ने कथित रूप से प्रधानमंत्री को पत्र लिखे जिनमें उन्होंने कोयले के दो ब्लॉक एसकेएस इस्पात एंड पावर लिमिटेड को आवंटित करने के लिए प्रधानमंत्री से व्यक्तिगत हस्तक्षेप करने को कहा था. 

कोयला घोटाले की प्रक्रिया पर सिलसिलेवार नजर डालने से पता चलता है कि किस तरह से कोयला मंत्रालय में बैठे स्वार्थी तत्वों ने  पारदर्शिता और निष्पक्षता के लिए प्रस्तावित नीति की राह में लगातार बाधा डाली. 

16 जुलाई, 2004: कोयला मंत्रालय में सचिव परख ने प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की नीति पर डी नारायण राव को एक विस्तृत प्रस्ताव भेजा. इसमें यह बात भी कही गई थी कि वर्तमान व्यवस्था से आवंटियों को अप्रत्याशित लाभ होगा. स्क्रीनिंग कमेटी वाली व्यवस्था पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने बनाई थी जो एनडीए सरकार में भी जारी रही. यूपीए सरकार आने तक इस व्यवस्था के तहत निजी ऑपरेटरों को 39 कोल ब्लॉक आवंटित हुए थे. 

24 जुलाई, 2004: दो दशक पुराने एक नरसंहार के मामले में जब एक स्थानीय अदालत ने सोरेन के खिलाफ वारंट जारी किया तो उन्होंने कोयला मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद मंत्रालय का जिम्मा प्रधानमंत्री ने संभाला. 

28 जुलाई, 2004: परख को भेजे गए एक नोट में डी नारायण राव ने कई बिंदुओं पर सफाई मांगी. जैसे उद्योग जगत की तरफ से इसका कैसा विरोध हो सकता है, खास तौर से ऊर्जा क्षेत्र की तरफ से. 

30 जुलाई, 2004: परख ने जवाब भेजा.

20 अगस्त, 2004: प्रधानमंत्री ने कोयला सचिव को आदेश दिया कि वे प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी पर नोट का एक मसौदा तैयार करें ताकि कैबिनेट इस बारे में विचार करके कोई फैसला ले सके. 

11 सितंबर, 2004: पीएमओ ने कोयला मंत्रालय को एक नोट भेजा जिसमें नीलामी से होने वाले कथित नुकसानों का जिक्र किया गया था. कोयला सचिव ने जवाब दिया कि इन तर्कों में कोई दम नहीं है. परख  ने प्रधानमंत्री के ध्यान में यह बात भी लाई कि स्क्रीनिंग कमेटी पर कुछ चुनिंदा कंपनियों को ब्लॉक आवंटित करने के लिए तरह-तरह के दबाव पड़ रहे हैं. उन्होंने सुझाव दिया कि भविष्य में सभी आवंटन प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के जरिए ही होने चाहिए. 

4 अक्टूबर, 2004: डी नारायण राव ने परख को लिखा कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी नीति पर काम छोड़ दिया जाना चाहिए. इसके पीछे राव का तर्क था कि व्यावसायिक खनन के लिए कोल ब्लॉक आवंटन करने हेतु प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी का रास्ता प्रशस्त करने वाला कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) सुधार विधेयक 2000 ट्रेड यूनियनों और वाममोर्चे के तीखे विरोध के चलते राज्य सभा में लटका पड़ा है. लेकिन जो बात राव ने फाइल पर नहीं लिखी वह यह थी कि वाममोर्चे का विरोध व्यावसायिक कोयला खनन में निजी कंपनियों को इजाजत देने पर है न कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी को लेकर. लेकिन दो अलग-अलग मुद्दों को आपस में मिलाकर राव ने प्रस्तावित नीलामी नीति की राह में अड़ंगा डालने की कोशिश की.  

14 अक्टूबर, 2004: एक अहम नीति पर दृढ़ता दिखाने के बजाय प्रधानमंत्री कार्यालय ने परख को राव द्वारा उठाए गए मुद्दों पर जवाब देने के लिए कहा. 

एक नवंबर, 2004: प्रधानमंत्री कार्यालय ने निर्णय लिया कि जो भी आवेदन 28 जून, 2004 तक आ चुके हैं उन पर तत्कालीन व्यवस्था के आधार पर ही फैसला होगा और कोयला खदान कानून संसद के अगले सत्र में एक विधेयक के जरिए सुधारा जाएगा ताकि भविष्य में सभी कोल ब्लॉकों का आवंटन नीलामी के जरिए हो. प्रधानमंत्री कार्यालय ने परख को इस हिसाब से कैबिनेट नोट के मसौदे में सुधार करने को कहा. इस दौरान कुछ महीने जेल में बिताने के बाद शिबू सोरेन जमानत पर रिहा हो गए थे.

27 नवंबर, 2004: सोरेन को फिर से कैबिनेट में शामिल किया गया. कोयला मंत्रालय का जिम्मा अब प्रधानमंत्री से निकलकर उनके हाथों में आ गया. 

23 दिसंबर, 2004: परख ने मसौदे में जरूरी सुधार करने के बाद इसे स्वीकृति के लिए राव को भेजा.

28 जनवरी, 2005: लेकिन अब सोरेन और राव दोनों ने ही नीलामी नीति को चुपचाप दफन करने के लिए आपस में हाथ मिला लिया. सोरेन ने फाइल पर लिखा कि वह राव की इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि प्रस्तावित नीलामी नीति को आगे बढ़ाने की जरूरत नहीं है. तब झारखंड मुक्ति मोर्चा न सिर्फ केंद्र में कांग्रेस का अहम सहयोगी था बल्कि झारखंड में अगले विधानसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए दोनों पार्टियां मिलकर काम कर रही थीं.

2 मार्च, 2005: झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल सैय्यद सिब्ते रजी ने एक विवादास्पद फैसला लेते हुए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की जगह सोरेन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया. भाजपा-जदयू जनतांत्रिक गठबंधन के पास तब 36 विधायक थे, जबकि कांग्रेस-झामुमो गठबंधन के पास सिर्फ 26. सोरेन ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया और झारखंड के मुख्यमंत्री बन गए. कोयला मंत्रालय का प्रभार एक बार फिर प्रधानमंत्री ने ले लिया. 

7 मार्च, 2005: कोयला मंत्रालय में इस बदलाव के बाद परख ने एक बार फिर नीलामी नीति में जान फूंकने की कोशिश की. उन्होंने प्रधानमंत्री को एक नोट लिखा. इसमें उन्होंने कहा कि 28 जून, 2004 तक मिले सारे आवेदनों पर फैसला मार्च, 2005 तक होना है और अगर नीलामी नीति फौरन लागू नहीं हुई तो सरकार पर फिर पुरानी नीति को ही जारी रखने का दबाव बन जाएगा. परख ने लिखा कि कोल ब्लॉकों के आवंटन में पूर्ण पारदर्शिता के लिए यह परिस्थिति ठीक नहीं होगी. 

16 मार्च, 2005: प्रधानमंत्री कार्यालय ने परख से कैबिनेट नोट का मसौदा अपडेट करके भेजने को कहा.

 24 मार्च, 2005: प्रधानमंत्री कार्यालय ने मसौदे को मंजूरी दे दी जिसके बाद इसे ऊर्जा और इस्पात सहित कई मंत्रालयों में भेजा गया ताकि वे इस पर अपनी टिप्पणियां दे सकें. राज्य सरकारों से भी राय मांगी गई. 

21 जून, 2005: परख ने मंत्रालयों और राज्यों की टिप्पणियां मसौदे में शामिल कीं और इसे राव को भेजा ताकि वे इसे मंजूरी के लिए प्रधानमंत्री को भेज सकें. 

4 जुलाई, 2005: राव ने प्रधानमंत्री को लिखा कि ऊर्जा कंपनियां प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की इच्छुक नहीं हैं क्योंकि इससे उन्हें बिजली की लागत बढ़ने का डर है. राव का कहना था कि नीति पर विस्तृत विचार-विमर्श की जरूरत है. लेकिन उन्होंने यह नहीं लिखा कि योजना आयोग, खदान मंत्रालय, इस्पात मंत्रालय जैसे केंद्रीय मंत्रालय और कई राज्य सरकारें इसके पक्ष में हैं. 

25 जुलाई, 2005: प्रधानमंत्री कार्यालय ने निर्णय लिया कि नीलामी प्रक्रिया को कार्यान्वित करने के लिए कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) कानून  में सुधार की जरूरत होगी. लेकिन एक चौंकाने वाला कदम उठाते हुए उसने कोयला मंत्रालय को निर्देश दिया कि चूंकि इस सुधार में कुछ वक्त लगेगा इसलिए फिलहाल जो व्यवस्था है उसे ही जारी रखा जाए. नतीजा यह हुआ कि 2005 में 375 करोड़ टन भंडार वाले कोयले के 24 ब्लॉक आवंटित कर दिए गए. 

देखा जाए तो इस फैसले का कोई औचित्य नहीं था. कोयला खदान कानून 1973 में इंदिरा गांधी सरकार ने बनाया था. इसके जरिए कोयला खनन का काम सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को दे दिया गया था. बाद में कानून में संशोधन हुआ और यह व्यवस्था की गई कि खदानों का आवंटन लोहा और इस्पात निर्माण में लगी कुछ चुनिंदा कंपनियों को भी हो सके. स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा आवंटन की व्यवस्था कांग्रेस सरकार ने 1992 में एक शासनादेश लाकर की. यानी आवंटन की प्रक्रिया को बदलकर उसे प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के जरिए करने का काम भी एक शासनादेश के जरिए ही किया जा सकता था. प्रधानमंत्री कार्यालय ने कई बार यह फाइल कानून मंत्रालय को भेजी और उससे इस बारे में राय मांगी कि आवंटन के लिए नीलामी नीति का कार्यान्वयन किस तरह किया जाए. 2004 से 2006 के बीच अलग-अलग मौकों पर तुरंत सलाह देने के बाद अगस्त, 2006 में कानून मंत्रालय के सचिव ने साफ कहा कि जब स्क्रीनिंग कमेटी शासनादेश से बन सकती है तो यह नई व्यवस्था भी वैसे ही बन सकती है. यानी सरकार आराम से इस व्यवस्था में सुधार कर सकती थी. बाद में कोयला खदान कानून में भी वही सुधार कर लिए जाते. लेकिन एक निर्बाध सड़क पर प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय में बैठे स्वार्थी तत्व बाधाएं खड़ी कर रहे थे ताकि अपारदर्शी और भ्रष्टाचार से भरी एक नीति जारी रहे.

12 जनवरी, 2006: जब सुधारा गया कैबिनेट नोट का मसौदा (जिसमें कोयला खदान कानून में सुधार के जरिए नीलामी नीति लाने का प्रस्ताव था) फिर से राव को भेजा गया तो उनका कहना था कि ‘इस मामले में इतनी तात्कालिकता से काम लेने की कोई जरूरत नहीं है और इससे जुड़े मुद्दों को ध्यान में रखते हुए यह नोट उचित समय आने पर फिर से प्रस्तुत किया जाए.’  

जहां राव नीति में बदलाव को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश कर रहे थे वहीं प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के बीच हो रहा पत्राचार बताता है कि प्रधानमंत्री लगातार इस बात के लिए दबाव बना रहे थे कि कैबिनेट नोट पेश किया जाए. दूसरी तरफ झामुमो मुखिया सोरेन, जिन्हें झारखंड में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के नौ दिन बाद ही बहुमत साबित न कर पाने पर इस्तीफा देना पड़ा था, फिर से कोयला मंत्रालय पाने के लिए सक्रिय हो गए थे. 

29 जनवरी, 2006: सोरेन को एक बार फिर कोयला मंत्रालय सौंप दिया गया.

 7 अप्रैल, 2006: प्रधानमंत्री कार्यालय में हुई एक बैठक में यह फैसला हुआ कि खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) कानून 1957 में सुधार करके प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की व्यवस्था कोयले सहित तमाम खनिजों पर लागू की जाएगी. 

27 अप्रैल, 2006: राव ने फाइल पर टिप्पणी की कि ‘खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) कानून में सुधार के मुद्दे पर एक बार फिर विचार होना चाहिए क्योंकि इससे राज्य सरकार के वर्तमान अधिकार कम होते हैं और इस पर विवाद पैदा होने की आशंका है.’ उसी दिन सोरेन ने राव की राय का समर्थन किया और फाइल पर लिखा कि ‘राज्य मंत्री द्वारा व्यक्त किए गए विचार उचित हैं और कोयला मंत्रालय को ऐसे सुझाव देने से बचना चाहिए जिनसे संघीय नीति के लिए जटिलता पैदा होने की संभावना हो.’ 

सोरेन और राव द्वारा लगातार पैदा की जा रही अड़चनों का नतीजा यह हुआ कि खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) कानून में सुधार के लिए विधेयक आने में और चार साल लग गए. 17 अक्टूबर, 2008 को संसद के पटल पर यह विधेयक रखा गया. इस बीच, 2006 में 1779.2 करोड़ टन भंडार वाले 53 कोल ब्लॉक, 2007 में 1186.2 करोड़ टन भंडार वाले 52 ब्लॉक, 2008 में 355 करोड़ टन भंडार वाले 24 ब्लॉक और 2009 में 689.3 करोड़ टन भंडार वाले 16 ब्लॉक बिना नीलामी के ही आवंटित कर दिए गए. 

खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) सुधार कानून अगस्त, 2010 में संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया था. लेकिन आज तक एक भी कोल ब्लॉक नीलामी के जरिए आवंटित नहीं किया गया है. तहलका ने कई बार डी नारायण राव से इस मुद्दे पर बात करके उनका पक्ष जानने की कोशिश की लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. सोरेन के कार्यालय ने भी इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया. 2004 के बाद बनी हर विशेषज्ञ समिति ने स्क्रीनिंग कमेटी वाली व्यवस्था में व्याप्त मनमानी की तरफ इशारा किया है. कोयला क्षेत्र में सुधारों के मुद्दे पर बनी टीएल शंकर समिति ने पारदर्शिता के लिए इस व्यवस्था की मरम्मत की जरूरत बताई. अशोक चावला समिति ने भी कहा कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की व्यवस्था बेहतर है.

अभी तक सरकार यह तर्क देकर अपनी कोयला नीति का बचाव करती रही है कि कोयले से राजस्व बढ़ाना कभी भी इसका उद्देश्य नहीं रहा. वह यह चाहती थी कि ऊर्जा, इस्पात और सीमेंट जैसे अहम उद्योगों को कोयले की उपलब्धता सुनिश्चित हो और इसके दाम भी कम रहें. प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री वी नारायण सामी कहते हैं, ‘कोयला नीति बिल्कुल सही थी. कोयले के ब्लॉक ऊर्जा परियोजनाओं या फिर इस्पात और सीमेंट निर्माताओं को दिए गए थे. अगर हमने कोयले की नीलामी की होती तो बिजली, इस्पात और सीमेंट के दाम बढ़ जाते. उपभोक्ताओं को इससे परेशानी होती.’ 

लेकिन गौर से देखा जाए तो ये तर्क पूरी तरह से खोखले लगते हैं. केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल (देखें इंटरव्यू) कह रहे हैं कि 80 फीसदी ब्लॉकों में कोयले का उत्पादन शुरू नहीं हुआ है. यहीं सरकार के इस तर्क की हवा निकल जाती है कि अगर उसने ये 155 ब्लॉक आवंटित नहीं किए होते तो उद्योग की कोयला जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं. राज्य सभा सांसद और वरिष्ठ माकपा नेता तपन सेन कहते हैं, ‘निजी कंपनियों को जो ब्लॉक आवंटित हुए हैं उनमें से ज्यादातर यूं ही पड़े हुए हैं. लेकिन इन कंपनियों ने इन आवंटनों को स्टॉक मार्केट में अपनी वैल्यू बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया है. निजी कंपनियों को इस आवंटन का नतीजा भ्रष्टाचार के रूप में सामने आया है.’ 

जहां उत्पादन शुरू हो गया है वहां भी ऐसे कोई खास सबूत नहीं हैं जो यह दिखाते हों कि कम उत्पादन लागत का फायदा उपभोक्ताओं को हुआ हो. कोयले के ब्लॉक दर्जनों ऊर्जा कंपनियों को भी मिले थे. इनमें से ज्यादातर ने राज्य सरकारों के साथ ऊर्जा खरीद समझौते नहीं किए हैं. जो कुछेक प्लांट शुरू हुए भी, वे स्वतंत्र ऊर्जा उत्पादक की तरह काम कर रहे हैं और 10 से 12 रु प्रति यूनिट की दर से बिजली बेचकर भारी मुनाफा कमा रहे हैं. कोयला मंत्रालय से सेवानिवृत्त हुए एक नौकरशाह बताते हैं, ‘आप किसी भी अर्थशास्त्री से पूछ लीजिए. कीमतें मांग और आपूर्ति के हिसाब से तय होती हैं न कि उत्पादन सामग्री की लागत से.’ हाल ही में अंबुजा, अल्ट्राटेक और जेपी सीमेंट्स सहित 11 बड़ी सीमेंट कंपनियों पर 6,307 करोड़ रु.का जुर्माना हुआ. आरोप था कि ये सभी कंपनियां एक गुट बनाकर कीमतों, आपूर्ति आदि का निर्धारण कर रही थीं. इससे सरकार के इस तर्क की हवा निकल जाती है कि सीमेंट और इस्पात जैसे क्षेत्रों को सस्ता कोयला उपलब्ध कराने से उपभोक्ता को फायदा हुआ है. 

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ढुलमुल मुखिया,डूबी लुटिया

दो लाख करोड़ रु का कोयला घोटाला जिस तरह हुआ वह बताता है कि एक ढुलमुल और अप्रभावी नेतृत्व भी देश के लिए उतना ही नुकसानदेह हो सकता है जितना कोई भ्रष्ट नेतृत्व. आशीष खेतान की रिपोर्ट.

भ्रष्टाचार पर इन दिनों जो बहस चल रही है उसका एक अहम पहलू प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन भी है. सर्वोच्च न्यायालय से लेकर नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) और सिविल सोसाइटी तक सभी ने यूपीए सरकार की इस बात के लिए आलोचना की है कि उसने 2जी स्पेक्ट्रम, खनिज और जमीन जैसे अमूल्य संसाधन कौड़ियों के भाव निजी कंपनियों को सौंप दिए. सबसे पहले कैग ने यह भंडाफोड़ किया था कि जनहित को परे रखकर किस तरह चुनिंदा कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए दूरसंचार नीति को मनमुताबिक तोड़ा-मरोड़ा गया. अब कैप्टिव कोल ब्लॉक आवंटन पर उसकी एक नई रिपोर्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सवाल खड़े कर दिए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक इससे सरकारी खजाने को डेढ़ से दो लाख करोड़ रु तक का नुकसान हुआ है. 

राजनीतिक रूप से देखा जाए तो यूपीए के लिए कोयला घोटाले के मायने 2जी घोटाले से कहीं बड़े हैं. इससे पिछली यूपीए सरकार में करीब साढ़े तीन साल तक कोयला मंत्रालय की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ही संभाली थी. मंत्रालय में जूनियर यानी राज्य मंत्री की कुर्सी भी कांग्रेस के पास रही. फिर भी प्रधानमंत्री कोल ब्लॉक आवंटन के लिए प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी (जिसमें सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को ही खनन का ठेका मिलता है) की नीति लाने में विफल रहे. वह भी तब जब प्रधानमंत्री बनने के छह महीने के भीतर ही उन्होंने इस नीति के लिए सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दे दी थी. 

देखा जाए तो कोयला घोटाले की यह कहानी कई मायनों में यूपीए सरकार की कहानी भी है. यह दिखाती है कि कैसे एक ढुलमुल और अप्रभावी राजनेता देश के लिए उतना ही नुकसानदेह हो सकता है जितना कोई भ्रष्ट नेता. प्रधानमंत्री की नीयत भले ही अच्छी रही हो मगर चूंकि वे सिर्फ नाम भर के प्रधानमंत्री थे इसलिए एक पारदर्शी और निष्पक्ष कोयला नीति लाने के लिए उनके हर कदम पर उन्हीं की सरकार के कुछ लोग अड़ंगा डालते रहे और वे ऐसे हर मौके पर दृढ़ता दिखाने के बजाय दूसरी तरफ देखते नजर आए. 

लेकिन इससे पहले कि हम कहानी के विस्तार में जाएं, कोयला घोटाले से जुड़े कुछ तथ्य.

यह प्रस्ताव तो 2004 में ही बन गया था कि खनन के लिए कोयले के ब्लॉक यूं ही आवंटित करने के बजाय इनकी नीलामी की जाए. लेकिन इस दौरान तीन बार कोयला मंत्रालय की कमान संभालने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया शिबू सोरेन और कोयला राज्य मंत्री डी नारायण राव हमेशा राह में अडं़गा लगाते रहे. जब भी इस मामले पर कोई प्रगति होती, ये दोनों मिलकर इसे किसी न किसी बहाने से टाल देते. राव तो कांग्रेस के ही थे मगर इस मुद्दे पर उन्होंने अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के बजाय सोरेन का साथ दिया. पिछले छह साल के दौरान कोल ब्लॉकों की नीलामी के लिए प्रधानमंत्री के निर्देशों पर बने एक कैबिनेट नोट के मसौदे में छह बार बदलाव किया गया. ऊपरी तौर पर यह दिखाया गया कि इसका मकसद उनकी चिंताओं का भी ख्याल रखना है जो नीलामी के पक्ष में नहीं हैं. लेकिन जब भी नोट में कोई सुधार किया जाता तो इसके फौरन बाद ही नई आपत्तियां भी पेश कर दी जातीं. 

दिलचस्प बात यह है कि नीलामी के जरिए कोल ब्लॉक आवंटन का विरोध करने वालों में उस समय भाजपा शासित राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ व माकपा शासित प. बंगाल की सरकारें (अगले पृष्ठ पर बॉक्स देखें) भी थीं. राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस प्रस्तावित नीति से अपना विरोध जताया था. आज भाजपा और माकपा, दोनों ही स्क्रीनिंग कमेटी सिस्टम के जरिए कोल ब्लॉकों का आवंटन करने पर यूपीए सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. इन दोनों दलों का दोहरा रवैया बताता है कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले पूंजीवाद का घुन सिर्फ कांग्रेस को नहीं लगा है. फिर भी चूंकि सरकार यूपीए की थी इसलिए नीतिगत मोर्चे पर इस असफलता के लिए जिम्मेदारी उसकी ही बनती है. 

दूसरे खनिजों से अलग कोयला संघीय सूची का विषय है. यानी इस मामले में फैसले का सारा अधिकार केंद्र सरकार का ही होता है. लेकिन हैरानी की बात है कि यूपीए के भीतर बैठे तत्वों ने नीलामी नीति को टालते रहने के लिए वसुंधरा राजे जैसी शख्सियतों द्वारा उठाई गई आपत्तियों का सहारा लिया जबकि राजस्थान में कोयले का कोई ज्ञात भंडार भी नहीं है. ऐसा करते हुए इस तथ्य की भी उपेक्षा की गई कि कोयला उत्पादक राज्यों में से ज्यादातर को इस नीति पर कोई एतराज नहीं था. यही नहीं, केंद्र के कई मंत्रालय भी इस नीति के पक्ष में थे. प्रस्तावित नीलामी नीति की फाइल प्रधानमंत्री कार्यालय, कोयला मंत्रालय और कानून मंत्रालय में चक्कर काटती रही, लेकिन इसे 2009 तक कैबिनेट के सामने नहीं रखा गया. 2010 में जाकर इस नीति पर मुहर लगी, लेकिन तब भी नीलामी के नियम क्या होंगे, इस पर फैसला होना बाकी था. इसलिए नई नीति आने के बाद भी स्थिति यह है कि अब तक एक भी कोल ब्लॉक का आवंटन नीलामी के जरिए नहीं हुआ है. 

यानी जिस कवायद में ज्यादा से ज्यादा छह महीने लगने चाहिए थे वह छह साल खिंच गई. बल्कि कहें तो खींची गई. 2004 में जब यूपीए की पहली सरकार बनी तो इसके कुछ समय बाद ही कोयला मंत्रालय में तत्कालीन सचिव पीसी परख ने प्रधानमंत्री को बताया कि कोल ब्लॉक आवंटन की प्रचलित व्यवस्था में कई झोल हैं. तब आवंटन एक स्क्रीनिंग कमेटी के जरिये होता था. इस कमेटी का अध्यक्ष कोयला मंत्रालय का सचिव होता था और इसमें कई मंत्रालयों, सरकारी निगमों और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि होते थे. परख ने प्रधानमंत्री को बताया था कि यह व्यवस्था मनमानी, अपारदर्शिता और भ्रष्टाचार से भरी हुई है. इसके अलावा उनका यह भी कहना था कि कोयले की उत्पादन लागत और कोल इंडिया लिमिटेड द्वारा सप्लाई किए जा रहे कोयले की कीमत में काफी फर्क है जिसका नतीजा उन लोगों को अप्रत्याशित लाभ के रूप में सामने आ रहा है जिनके पास कोल ब्लॉक हैं.

परख के इस नीति का तीखा विरोध करने के बाद यूपीए ने 2004 में ही नीलामी नीति का एलान किया था. मगर यह अगले छह साल तक भी अमल में नहीं आ सकी. हां, नई नीति के ऐलान का नतीजा यह जरूर हुआ कि 2004 से 2009 के बीच कोल ब्लॉक पाने के लिए भगदड़ मची रही. 2जी घोटाले की पड़ताल बताती है कि उन लोगों ने भी स्पेक्ट्रम खरीद लिया था जिनका मकसद दूरसंचार सेवा देना नहीं बल्कि यह था कि बाद में इस स्पेक्ट्रम को महंगी कीमत पर बेचकर खूब मुनाफा बटोर लिया जाए. कोल ब्लॉकों के आवंटन में भी ऐसा हुआ. निजी ऑपरेटरों ने कई कोल ब्लॉक आवंटित करवा लिए. ये कंपनियां अच्छी तरह जानती थीं कि जो ब्लॉक अभी उन्हें कौड़ियों के दाम मिल रहे हैं, नीलामी नीति के आने पर उनकी कीमत बाजार के हिसाब से तय होगी यानी कई गुना बढ़ जाएगी. 

यह भी हैरत की बात है कि 2004 से 2009 की इस अवधि में यूपीए एक तरफ तो नीलामी नीति को टाले जा रहा था और दूसरी तरफ वह दनादन कोल ब्लॉक आवंटित किए जा रहा था. पांच साल में ही 155 कोल ब्लॉक, जिनमें अरबों टन कोयला मौजूद है, उनके वास्तविक बाजार भाव की तुलना में कौड़ियों के दाम आवंटित कर दिए गए. इनमें से 76 निजी कंपनियों को दिए गए थे और बाकी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को. आगे हम देखेंगे कि जिन हालात में यह काम हुआ वे साफ इशारा करते हैं कि ऐसा करने के पीछे नीतियां बनाने वालों और कोयले के ब्लॉक पाने वाले प्रतिष्ठानों की एक सुनियोजित साजिश थी. 

80 फीसदी से भी अधिक आवंटियों ने अब तक अपने ब्लॉकों से कोयला उत्पादन शुरू नहीं किया है. इससे एक अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई है. एक तरफ तो सरकार ने इन ब्लॉकों के आवंटन में असाधारण फुर्ती दिखाई और दूसरी तरफ उसने यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ खास नहीं किया कि आवंटी कोयला उत्पादन करना शुरू कर दें. अब जाकर सरकार ने एक कमेटी बनाई है जो यह देखेगी कि कितने आवंटी ऐसे हैं जिन्होंने जान-बूझकर यह देरी की और कितने ऐसे जो जमीन अधिग्रहण या अपनी खनन योजना के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति न मिलने की वजह से काम शुरू नहीं कर सके. गौरतलब है कि धड़ाधड़ कोल ब्लॉक आवंटन के पीछे सरकार का सबसे बड़ा तर्क यही था कि इससे घरेलू कोयला उत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी होगी. 

कैग ने अपनी रिपोर्ट का जो मसौदा तैयार किया था उसमें कहा गया था कि इस तरह के आवंटन से सरकारी खजाने को कुल 6.31 से 10.67 लाख करोड़ रु. की चपत लगी. इससे निजी कंपनियों को 2.94 से लेकर 4.79 लाख करोड़ रु. का अप्रत्याशित लाभ हुआ. तहलका को सूत्रों से पता चला है कि कैग की फाइनल रिपोर्ट के मुताबिक निजी ऑपरेटरों को हुए फायदे की रकम का आंकड़ा 1.5 लाख से दो लाख करोड़ रु के बीच बैठ रहा है. भाजपा नेता प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं, ‘ऐसा भ्रष्टाचार पहले कभी नहीं देखा गया था. बाजार में सभी को पता है कि कंपनियों ने ये ब्लॉक लेने के लिए भारी रिश्वत दी. दलाली का रेट 50 से 100 रु प्रति टन था.’ जावड़ेकर द्वारा केंद्रीय सतर्कता आयोग में दर्ज करवाई गई शिकायत के आधार पर सीबीआई ने इन आवंटनों की प्राथमिक जांच शुरू कर दी है. सूत्र बताते हैं कि एजेंसी अब तक ऐसी दर्जन भर से भी ज्यादा कंपनियों की पहचान कर चुकी है जो जरूरी तकनीकी और वित्तीय अर्हता न रखने पर भी कोयले के ब्लॉक पाने में कामयाब रही थीं. मार्च 2011, यानी जब से कैग ने आवंटन के दस्तावेजों की पड़ताल शुरू की, तब से कोयला मंत्रालय ने अपने आप ही ऐसे 14 आवंटन रद्द कर दिए हैं. 

यूपीए की पहली सरकार के दौरान कोयला मंत्रालय का जिम्मा एक कैबिनेट और एक राज्य मंत्री के पास था. इस दरमियान कैबिनेट प्रभार तो कभी सोरेन और कभी मनमोहन सिंह के पास आता-जाता रहा, लेकिन राज्य मंत्री का प्रभार कांग्रेस के पास ही रहा. 23 मई, 2004 से लेकर छह अप्रैल, 2008 तक कांग्रेस नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद डी नारायण राव कोयला राज्य मंत्री रहे. सात अप्रैल, 2008 से 29 मई, 2009 तक यह प्रभार राजस्थान से कांग्रेस के सांसद संतोष बागरोड़िया के पास रहा. दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों ही राज्यसभा सांसद थे और दोनों ने प्रधानमंत्री की प्रस्तावित कोयला नीति को समर्थन देने के बजाय उनका साथ दिया जो इसके विरोध में थे. ढुलमुल रवैया दिखाते हुए प्रधानमंत्री ने भी इन बाधाओं के आगे घुटने टेक दिए. एक टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार में कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव पीसी परख का कहना था,  ‘प्रधानमंत्री के पास समय-समय पर कोयला मंत्रालय का प्रभार रहा था. वे नीलामी की इस नीति पर दृढ़ता दिखा सकते थे.’  

गौर करने वाली बात यह भी है कि जब-जब  झामुमो मुखिया शिबू सोरेन को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया, प्रधानमंत्री ने उन्हें कोयला मंत्रालय का जिम्मा थमाया. झारखंड में कोयले का अकूत भंडार देखते हुए सोरेन को नीलामी नीति का स्वागत करना चाहिए था. कोयला भले ही संघीय सूची का विषय हो मगर उससे मिलने वाली रॉयल्टी में से एक बड़ा हिस्सा संबंधित राज्य को ही जाता है. यानी अगर नीलामी वाली नीति लागू हो जाती तो झारखंड जैसे राज्य की झोली में आने वाला राजस्व कहीं ज्यादा बढ़ जाता. इसके बावजूद सोरेन जब भी इस कुर्सी पर रहे उन्होंने इस नीति को पलीता लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. ऐसा लगता है कि केंद्रीय मंत्री भी इस बात के लिए खुलेआम लामबंदी कर रहे थे कि निजी कंपनियों को कोल ब्लॉक स्क्रीनिंग कमेटी के जरिए ही आवंटित हों. हाल ही में एक निजी कंपनी ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल की है. इसमें उसने आरोप लगाया है कि पर्यटन मंत्री सुबोध कांत सहाय ने यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में खाद्य प्रसंस्करण मंत्री रहते हुए एक ऐसी कंपनी को कोल ब्लॉक दिलाने के लिए लामबंदी की जिसका संबंध उनके भाई से है. सहाय ने कथित रूप से प्रधानमंत्री को पत्र लिखे जिनमें उन्होंने कोयले के दो ब्लॉक एसकेएस इस्पात एेंड पावर लिमिटेड को आवंटित करने के लिए प्रधानमंत्री से व्यक्तिगत हस्तक्षेप करने को कहा था. 

कोयला घोटाले की प्रक्रिया पर सिलसिलेवार नजर डालने से पता चलता है कि किस तरह से कोयला मंत्रालय में बैठे स्वार्थी तत्वों ने  पारदर्शिता और निष्पक्षता के लिए प्रस्तावित नीति की राह में लगातार बाधा डाली. 

16 जुलाई, 2004: कोयला मंत्रालय में सचिव परख ने प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की नीति पर डी नारायण राव को एक विस्तृत प्रस्ताव भेजा. इसमें यह बात भी कही गई थी कि वर्तमान व्यवस्था से आवंटियों को अप्रत्याशित लाभ होगा. स्क्रीनिंग कमेटी वाली व्यवस्था पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने बनाई थी जो एनडीए सरकार में भी जारी रही. यूपीए सरकार आने तक इस व्यवस्था के तहत निजी ऑपरेटरों को 39 कोल ब्लॉक आवंटित हुए थे. 

24 जुलाई, 2004: दो दशक पुराने एक नरसंहार के मामले में जब एक स्थानीय अदालत ने सोरेन के खिलाफ वारंट जारी किया तो उन्होंने कोयला मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद मंत्रालय का जिम्मा प्रधानमंत्री ने संभाला. 

28 जुलाई, 2004: परख को भेजे गए एक नोट में डी नारायण राव ने कई बिंदुओं पर सफाई मांगी. जैसे उद्योग जगत की तरफ से इसका कैसा विरोध हो सकता है, खास तौर से ऊर्जा क्षेत्र की तरफ से. 

30 जुलाई, 2004: परख ने जवाब भेजा.

20 अगस्त, 2004: प्रधानमंत्री ने कोयला सचिव को आदेश दिया कि वे प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी पर नोट का एक मसौदा तैयार करें ताकि कैबिनेट इस बारे में विचार करके कोई फैसला ले सके. 

11 सितंबर, 2004: पीएमओ ने कोयला मंत्रालय को एक नोट भेजा जिसमें नीलामी से होने वाले कथित नुकसानों का जिक्र किया गया था. कोयला सचिव ने जवाब दिया कि इन तर्कों में कोई दम नहीं है. परख  ने प्रधानमंत्री के ध्यान में यह बात भी लाई कि स्क्रीनिंग कमेटी पर कुछ चुनिंदा कंपनियों को ब्लॉक आवंटित करने के लिए तरह-तरह के दबाव पड़ रहे हैं. उन्होंने सुझाव दिया कि भविष्य में सभी आवंटन प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के जरिए ही होने चाहिए. 

4 अक्टूबर, 2004: डी नारायण राव ने परख को लिखा कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी नीति पर काम छोड़ दिया जाना चाहिए. इसके पीछे राव का तर्क था कि व्यावसायिक खनन के लिए कोल ब्लॉक आवंटन करने हेतु प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी का रास्ता प्रशस्त करने वाला कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) सुधार विधेयक 2000 ट्रेड यूनियनों और वाममोर्चे के तीखे विरोध के चलते राज्य सभा में लटका पड़ा है. लेकिन जो बात राव ने फाइल पर नहीं लिखी वह यह थी कि वाममोर्चे का विरोध व्यावसायिक कोयला खनन में निजी कंपनियों को इजाजत देने पर है न कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी को लेकर. लेकिन दो अलग-अलग मुद्दों को आपस में मिलाकर राव ने प्रस्तावित नीलामी नीति की राह में अड़ंगा डालने की कोशिश की.  

14 अक्टूबर, 2004: एक अहम नीति पर दृढ़ता दिखाने के बजाय प्रधानमंत्री कार्यालय ने परख को राव द्वारा उठाए गए मुद्दों पर जवाब देने के लिए कहा. 

एक नवंबर, 2004: प्रधानमंत्री कार्यालय ने निर्णय लिया कि जो भी आवेदन 28 जून, 2004 तक आ चुके हैं उन पर तत्कालीन व्यवस्था के आधार पर ही फैसला होगा और कोयला खदान कानून संसद के अगले सत्र में एक विधेयक के जरिए सुधारा जाएगा ताकि भविष्य में सभी कोल ब्लॉकों का आवंटन नीलामी के जरिए हो. प्रधानमंत्री कार्यालय ने परख को इस हिसाब से कैबिनेट नोट के मसौदे में सुधार करने को कहा. इस दौरान कुछ महीने जेल में बिताने के बाद शिबू सोरेन जमानत पर रिहा हो गए थे.

27 नवंबर, 2004: सोरेन को फिर से कैबिनेट में शामिल किया गया. कोयला मंत्रालय का जिम्मा अब प्रधानमंत्री से निकलकर उनके हाथों में आ गया. 

23 दिसंबर, 2004: परख ने मसौदे में जरूरी सुधार करने के बाद इसे स्वीकृति के लिए राव को भेजा.

28 जनवरी, 2005: लेकिन अब सोरेन और राव दोनों ने ही नीलामी नीति को चुपचाप दफन करने के लिए आपस में हाथ मिला लिया. सोरेन ने फाइल पर लिखा कि वह राव की इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि प्रस्तावित नीलामी नीति को आगे बढ़ाने की जरूरत नहीं है. तब झारखंड मुक्ति मोर्चा न सिर्फ केंद्र में कांग्रेस का अहम सहयोगी था बल्कि झारखंड में अगले विधानसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए दोनों पार्टियां मिलकर काम कर रही थीं.

2 मार्च, 2005: झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल सैय्यद सिब्ते रजी ने एक विवादास्पद फैसला लेते हुए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की जगह सोरेन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया. भाजपा-जदयू जनतांत्रिक गठबंधन के पास तब 36 विधायक थे, जबकि कांग्रेस-झामुमो गठबंधन के पास सिर्फ 26. सोरेन ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया और झारखंड के मुख्यमंत्री बन गए. कोयला मंत्रालय का प्रभार एक बार फिर प्रधानमंत्री ने ले लिया. 

7 मार्च, 2005: कोयला मंत्रालय में इस बदलाव के बाद परख ने एक बार फिर नीलामी नीति में जान फूंकने की कोशिश की. उन्होंने प्रधानमंत्री को एक नोट लिखा. इसमें उन्होंने कहा कि 28 जून, 2004 तक मिले सारे आवेदनों पर फैसला मार्च, 2005 तक होना है और अगर नीलामी नीति फौरन लागू नहीं हुई तो सरकार पर फिर पुरानी नीति को ही जारी रखने का दबाव बन जाएगा. परख ने लिखा कि कोल ब्लॉकों के आवंटन में पूर्ण पारदर्शिता के लिए यह परिस्थिति ठीक नहीं होगी. 

16 मार्च, 2005: प्रधानमंत्री कार्यालय ने परख से कैबिनेट नोट का मसौदा अपडेट करके भेजने को कहा.

 24 मार्च, 2005: प्रधानमंत्री कार्यालय ने मसौदे को मंजूरी दे दी जिसके बाद इसे ऊर्जा और इस्पात सहित कई मंत्रालयों में भेजा गया ताकि वे इस पर अपनी टिप्पणियां दे सकें. राज्य सरकारों से भी राय मांगी गई. 

21 जून, 2005: परख ने मंत्रालयों और राज्यों की टिप्पणियां मसौदे में शामिल कीं और इसे राव को भेजा ताकि वे इसे मंजूरी के लिए प्रधानमंत्री को भेज सकें. 

4 जुलाई, 2005: राव ने प्रधानमंत्री को लिखा कि ऊर्जा कंपनियां प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की इच्छुक नहीं हैं क्योंकि इससे उन्हें बिजली की लागत बढ़ने का डर है. राव का कहना था कि नीति पर विस्तृत विचार-विमर्श की जरूरत है. लेकिन उन्होंने यह नहीं लिखा कि योजना आयोग, खदान मंत्रालय, इस्पात मंत्रालय जैसे केंद्रीय मंत्रालय और कई राज्य सरकारें इसके पक्ष में हैं. 

25 जुलाई, 2005: प्रधानमंत्री कार्यालय ने निर्णय लिया कि नीलामी प्रक्रिया को कार्यान्वित करने के लिए कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) कानून  में सुधार की जरूरत होगी. लेकिन एक चौंकाने वाला कदम उठाते हुए उसने कोयला मंत्रालय को निर्देश दिया कि चूंकि इस सुधार में कुछ वक्त लगेगा इसलिए फिलहाल जो व्यवस्था है उसे ही जारी रखा जाए. नतीजा यह हुआ कि 2005 में 375 करोड़ टन भंडार वाले कोयले के 24 ब्लॉक आवंटित कर दिए गए. 

देखा जाए तो इस फैसले का कोई औचित्य नहीं था. कोयला खदान कानून 1973 में इंदिरा गांधी सरकार ने बनाया था. इसके जरिए कोयला खनन का काम सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को दे दिया गया था. बाद में कानून में संशोधन हुआ और यह व्यवस्था की गई कि खदानों का आवंटन लोहा और इस्पात निर्माण में लगी कुछ चुनिंदा कंपनियों को भी हो सके. स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा आवंटन की व्यवस्था कांग्रेस सरकार ने 1992 में एक शासनादेश लाकर की. यानी आवंटन की प्रक्रिया को बदलकर उसे प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के जरिए करने का काम भी एक शासनादेश के जरिए ही किया जा सकता था. प्रधानमंत्री कार्यालय ने कई बार यह फाइल कानून मंत्रालय को भेजी और उससे इस बारे में राय मांगी कि आवंटन के लिए नीलामी नीति का कार्यान्वयन किस तरह किया जाए. 2004 से 2006 के बीच अलग-अलग मौकों पर तुरंत सलाह देने के बाद अगस्त, 2006 में कानून मंत्रालय के सचिव ने साफ कहा कि जब स्क्रीनिंग कमेटी शासनादेश से बन सकती है तो यह नई व्यवस्था भी वैसे ही बन सकती है. यानी सरकार आराम से इस व्यवस्था में सुधार कर सकती थी. बाद में कोयला खदान कानून में भी वही सुधार कर लिए जाते. लेकिन एक निर्बाध सड़क पर प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय में बैठे स्वार्थी तत्व बाधाएं खड़ी कर रहे थे ताकि अपारदर्शी और भ्रष्टाचार से भरी एक नीति जारी रहे.

12 जनवरी, 2006: जब सुधारा गया कैबिनेट नोट का मसौदा (जिसमें कोयला खदान कानून में सुधार के जरिए नीलामी नीति लाने का प्रस्ताव था) फिर से राव को भेजा गया तो उनका कहना था कि ‘इस मामले में इतनी तात्कालिकता से काम लेने की कोई जरूरत नहीं है और इससे जुड़े मुद्दों को ध्यान में रखते हुए यह नोट उचित समय आने पर फिर से प्रस्तुत किया जाए.’  

जहां राव नीति में बदलाव को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश कर रहे थे वहीं प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के बीच हो रहा पत्राचार बताता है कि प्रधानमंत्री लगातार इस बात के लिए दबाव बना रहे थे कि कैबिनेट नोट पेश किया जाए. दूसरी तरफ झामुमो मुखिया सोरेन, जिन्हें झारखंड में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के नौ दिन बाद ही बहुमत साबित न कर पाने पर इस्तीफा देना पड़ा था, फिर से कोयला मंत्रालय पाने के लिए सक्रिय हो गए थे. 

29 जनवरी, 2006: सोरेन को एक बार फिर कोयला मंत्रालय सौंप दिया गया.

 7 अप्रैल, 2006: प्रधानमंत्री कार्यालय में हुई एक बैठक में यह फैसला हुआ कि खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) कानून 1957 में सुधार करके प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की व्यवस्था कोयले सहित तमाम खनिजों पर लागू की जाएगी. 

27 अप्रैल, 2006: राव ने फाइल पर टिप्पणी की कि ‘खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) कानून में सुधार के मुद्दे पर एक बार फिर विचार होना चाहिए क्योंकि इससे राज्य सरकार के वर्तमान अधिकार कम होते हैं और इस पर विवाद पैदा होने की आशंका है.’ उसी दिन सोरेन ने राव की राय का समर्थन किया और फाइल पर लिखा कि ‘राज्य मंत्री द्वारा व्यक्त किए गए विचार उचित हैं और कोयला मंत्रालय को ऐसे सुझाव देने से बचना चाहिए जिनसे संघीय नीति के लिए जटिलता पैदा होने की संभावना हो.’ 

सोरेन और राव द्वारा लगातार पैदा की जा रही अड़चनों का नतीजा यह हुआ कि खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) कानून में सुधार के लिए विधेयक आने में और चार साल लग गए. 17 अक्टूबर, 2008 को संसद के पटल पर यह विधेयक रखा गया. इस बीच, 2006 में 1779.2 करोड़ टन भंडार वाले 53 कोल ब्लॉक, 2007 में 1186.2 करोड़ टन भंडार वाले 52 ब्लॉक, 2008 में 355 करोड़ टन भंडार वाले 24 ब्लॉक और 2009 में 689.3 करोड़ टन भंडार वाले 16 ब्लॉक बिना नीलामी के ही आवंटित कर दिए गए.  खदान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) सुधार कानून अगस्त, 2010 में संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया था. लेकिन आज तक एक भी कोल ब्लॉक नीलामी के जरिए आवंटित नहीं किया गया है. तहलका ने कई बार डी नारायण राव से इस मुद्दे पर बात करके उनका पक्ष जानने की कोशिश की लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. सोरेन के कार्यालय ने भी इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी करने से मना कर दिया.

2004 के बाद बनी हर विशेषज्ञ समिति ने स्क्रीनिंग कमेटी वाली व्यवस्था में व्याप्त मनमानी की तरफ इशारा किया है. कोयला क्षेत्र में सुधारों के मुद्दे पर बनी टीएल शंकर समिति ने पारदर्शिता के लिए इस व्यवस्था की मरम्मत की जरूरत बताई. अशोक चावला समिति ने भी कहा कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की व्यवस्था बेहतर है. अभी तक सरकार यह तर्क देकर अपनी कोयला नीति का बचाव करती रही है कि कोयले से राजस्व बढ़ाना कभी भी इसका उद्देश्य नहीं रहा. वह यह चाहती थी कि ऊर्जा, इस्पात और सीमेंट जैसे अहम उद्योगों को कोयले की उपलब्धता सुनिश्चित हो और इसके दाम भी कम रहें. प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री वी नारायण सामी कहते हैं, ‘कोयला नीति बिल्कुल सही थी. कोयले के ब्लॉक ऊर्जा परियोजनाओं या फिर इस्पात और सीमेंट निर्माताओं को दिए गए थे. अगर हमने कोयले की नीलामी की होती तो बिजली, इस्पात और सीमेंट के दाम बढ़ जाते. उपभोक्ताओं को इससे परेशानी होती.’ 

लेकिन गौर से देखा जाए तो ये तर्क पूरी तरह से खोखले लगते हैं. केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल (देखें इंटरव्यू) कह रहे हैं कि 80 फीसदी ब्लॉकों में कोयले का उत्पादन शुरू नहीं हुआ है. यहीं सरकार के इस तर्क की हवा निकल जाती है कि अगर उसने ये 155 ब्लॉक आवंटित नहीं किए होते तो उद्योग की कोयला जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं. राज्य सभा सांसद और वरिष्ठ माकपा नेता तपन सेन कहते हैं, ‘निजी कंपनियों को जो ब्लॉक आवंटित हुए हैं उनमें से ज्यादातर यूं ही पड़े हुए हैं. लेकिन इन कंपनियों ने इन आवंटनों को स्टॉक मार्केट में अपनी वैल्यू बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया है. निजी कंपनियों को इस आवंटन का नतीजा भ्रष्टाचार के रूप में सामने आया है.’ 

जहां उत्पादन शुरू हो गया है वहां भी ऐसे कोई खास सबूत नहीं हैं जो यह दिखाते हों कि कम उत्पादन लागत का फायदा उपभोक्ताओं को हुआ हो. कोयले के ब्लॉक दर्जनों ऊर्जा कंपनियों को भी मिले थे. इनमें से ज्यादातर ने राज्य सरकारों के साथ ऊर्जा खरीद समझौते नहीं किए हैं. जो कुछेक प्लांट शुरू हुए भी, वे स्वतंत्र ऊर्जा उत्पादक की तरह काम कर रहे हैं और 10 से 12 रु प्रति यूनिट की दर से बिजली बेचकर भारी मुनाफा कमा रहे हैं. कोयला मंत्रालय से सेवानिवृत्त हुए एक नौकरशाह बताते हैं, ‘आप किसी भी अर्थशास्त्री से पूछ लीजिए. कीमतें मांग और आपूर्ति के हिसाब से तय होती हैं न कि उत्पादन सामग्री की लागत से.’ हाल ही में अंबुजा, अल्ट्राटेक और जेपी सीमेंट्स सहित 11 बड़ी सीमेंट कंपनियों पर 6,307 करोड़ रु.का जुर्माना हुआ. आरोप था कि ये सभी कंपनियां एक गुट बनाकर कीमतों, आपूर्ति आदि का निर्धारण कर रही थीं. इससे सरकार के इस तर्क की हवा निकल जाती है कि सीमेंट और इस्पात जैसे क्षेत्रों को सस्ता कोयला उपलब्ध कराने से उपभोक्ता को फायदा हुआ है. 

 

‘देश की नीतियां कैग की रिपोर्टों से नहीं चलतीं’

केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, आशीष खेतान से बातचीत में बता रहे हैं कि आखिर क्यों कोल ब्लॉक आवंटन पर प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की नीति लाने में छह साल का वक्त लग गया.

आपकी सरकार ने ऊर्जा, इस्पात और सीमेंट की कीमतों में बढ़ोतरी का हवाला देते हुए कोल ब्लॉक आवंटन को सही ठहराया. लेकिन अधिकांश  ब्लॉकों में तो उत्पादन शुरू ही नहीं हुआ है.

80 फीसदी ब्लॉकों में उत्पादन अब भी शुरू नहीं हुआ है. ज्यादातर ब्लॉकों में वन विभाग की मंजूरी और भूमि अधिग्रहण को लेकर कुछ समस्याएं हैं. हम इस बात को समझते हैं कि समस्याएं वास्तव में होंगी. लेकिन हम इस पर चिंतित भी हैं कि कुछ लोगों की समस्याएं वास्तविक नहीं हैं. हम लोगों ने  मंत्रियों का एक समूह बनाया है जो यह पड़ताल करेगा कि किन कंपनियों ने जान-बूझकर कोयले का उत्पादन अभी तक शुरू नहीं किया है. 

 नए आवंटियों ने इतने लंबे समय तक कोयले का उत्पादन शुरू नहीं किया. ऐसे में क्या आपको नहीं लगता कि इस नीति का उद्देश्य ही पूरा नहीं हो पाया? 

हमने जब कोल ब्लॉक आवंटित करना शुरू किया था तब किसी किस्म की बाधा नहीं थी. समस्याएं बाद में खड़ी हुई हैं. इसलिए हम नीति को गलत नहीं कह सकते. अगर आप कोयले का उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं तो आपको कोल इंडिया का उत्पादन बढ़ाना होगा या फिर निजी कंपनियों को कोल ब्लॉक आवंटित करने होंगे. 

क्या आपने ऐसी कंपनियों की पहचान की जिनमें इस काम के लिए कोई गंभीरता नहीं है? 

ऐसी कंपनियां तो हमेशा ही रहेंगी. ऐसी कंपनियों  की पड़ताल का काम मंत्रियों के समूह के जिम्मे है. 

2004 में यह निर्णय लिया गया था कि भविष्य में सभी आवंटन प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी से होंगे. लेकिन इससे संबंधित फाइल पीएमओ और कोयला व कानून मंत्रालयों में चक्कर काटती रही. क्यों? 

कुछ राज्यों ने केंद्र को पत्र लिखकर कहा था कि नीलामी से कोयले की कीमतों पर असर पड़ेगा और नतीजे के तौर पर ऊर्जा की कीमतें बढ़ जाएंगी.   

किन राज्यों ने?

राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड और प. बंगाल ने. वर्ष 2010-11 में हमने इन राज्यों के साथ बैठकें कीं. हमने उनसे कहा कि नीलामी से मिलने वाली आमदनी राज्यों को ही दी जाएगी. केंद्र एक पैसा नहीं रखेगा. 

क्या आपको नहीं लगता कि फैसले में छह साल का वक्त नहीं लगना चाहिए?

 इसमें छह साल नहीं लगे हैं. प्रस्ताव 2006 में आया. निर्णय 2008 में लिया गया. यूपीए- 2 सत्ता में 2009 में आया. प्रस्ताव स्थायी समिति के पास भेजा गया. इस तरह के निर्णय लेने में दो साल का वक्त तो लग ही जाता है. सबसे पहले राज्यों के मंत्रियों की बैठकें हुईं. शर्तों को लेकर उनकी आपसी सहमति बनी.  इसके बाद सुधार विधेयक स्थायी समिति के पास भेजा गया. फिर दिशा-निर्देश बनाए गए. यूपीए-2 के सत्ता में आने के बाद से किसी भी ब्लॉक का आवंटन नहीं किया गया. 

लेकिन नीति बनने के बाद भी ऐसा क्यों है कि कोई ब्लॉक नीलामी के लिए उपलब्ध नहीं है?

मैंने कहा न कि दिशा-निर्देश भी बनाने थे. इसके अलावा ब्लॉकों की पहचान करने का काम भी था. इसमें 6-8 महीने का वक्त लगा. अब एक-दो महीने में नीलामी की प्रक्रिया शुरू हो सकती है.

कैग के अप्रत्याशित लाभ के तर्क पर आप क्या कहेंगे? 

लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार में फैसले किस तरह होते हैं इसे बहीखाते की ऑडिटिंग करते हुए नहीं समझा जा सकता. अप्रत्याशित लाभ क्या है? अगर कोयले की कीमतें ऊपर जाती हैं और इसकी वजह से ऊर्जा की कीमत में बढ़ोतरी की जाती है तो लोगों के लिए बिजली का इस्तेमाल और महंगा हो जाएगा. क्या तब यह हमारी विफलता नहीं होगी? 

संसद में मानसून सत्र में कैग की रिपोर्ट पेश की जाएगी. आप इस चुनौती का सामना कैसे करेंगे?

देश की नीतियां कैग की रिपोर्ट से नहीं चलतीं. कैग को एतराज करने दीजिए. पेट्रोलियम पदार्थों पर सब्सिडी हम कैग के बनाए नियम से नहीं दे रहे. डीजल, पेट्रोल और एलपीजी पर सब्सिडी देना देश की नीति है. हमने यह नीति सस्ती दर पर कोयला आपूर्ति के लिए बनाई थी ताकि ऊर्जा, सीमेंट और इस्पात लोगों की जेब पर भारी न पड़ें. 

क्या आपके पास इसका कोई आंकड़ा है कि कोल ब्लॉक इस तरह देने का ऊर्जा या इस्पात की कीमतों पर क्या असर हुआ? 

अगर आप पिछले 10 सालों में पेट्रोलियम और ऊर्जा की कीमतों में हुई बढ़ोतरी की तुलना करेंगे तो आपको जवाब मिल जाएगा. 

लेकिन यह सस्ती ऊर्जा की आपूर्ति की वजह से नहीं बल्कि राज्य सरकार की ऊर्जा वितरण कंपनियों के लगातार घाटा सहने की वजह से हुआ है. यह घाटा अब 20  खरब करोड़ रुपये तक पहुंच गया है. 

लेकिन यह तो आप मानेंगे कि सस्ते कोयले से ऊर्जा कंपनियों को सस्ती ऊर्जा खरीदने में तो मदद मिली ही है.

फूट की कूटनीति

विपक्ष में फूट डालने की जिस नीति को अपनाकर कांग्रेस के अर्जुन सिंह से लेकर दिग्विजय सिंह तक ने मध्य प्रदेश में अबाध शासन किया अब शिवराज सिंह चौहान ने उसी नीति से कांग्रेस का पासा पलट दिया है. शिरीष खरे की रिपोर्ट.

इन दिनों मध्य प्रदेश की राजनीति भक्तिकाल से गुजर रही है. इस काल में प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने अपनी मंडली के करीबी मंत्रियों के साथ मथुरा पहुंचकर गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा लगाई है. यह भी संयोग ही है कि इसी बीच नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने भी हरिद्वार की यात्रा पूरी कर ली. मध्य प्रदेश में आई भारी बाढ़ के बीच दोनों नेताओं की तीर्थयात्रा को यदि प्रदेश के हालिया घटनाक्रम से जोड़कर देखा जाए तो चौहान के सामने राजनीतिक चुनौतियों का सूखा दिख रहा है, वहीं अजय सिंह अपनी ही पार्टी की घेराबंदी से कुछ ऐसे घिरे हैं कि चुनौती देते नहीं दिखते.

सत्ता और विपक्ष की स्थितियों ने मध्य प्रदेश के अतीत के उस जमाने की याद दिला दी है जब कांग्रेस अपने शासनकाल में विपक्ष को विभाजित रखती थी. मगर आज समय का पहिया घूम चुका है. कांग्रेस ठीक वैसे ही विभाजित है जैसे अर्जुन सिंह (1980-85) और दिग्विजय सिंह (1993-03) के जमाने में भाजपा थी. दिग्विजय सिंह की सुंदरलाल पटवा सहित भाजपा के कई दिग्गजों जैसे विक्रम वर्मा, बाबूलाल गौर और गौरीशंकर शेजवार से घनिष्ठता जगजाहिर थी. राजनीतिक प्रेक्षकों के मुताबिक दिग्विजय विपक्ष के कुछ नेताओं को साधकर उनके दल के बाकी नेताओं के बीच संशय पैदा करते थे, जिससे उनमें आपसी फूट पड़ जाती थी. दिग्विजय ने विरोधियों से समन्वय बनाकर उनकी धार को भोंथरा बनाए रखा था. उनके करीबियों की मानें तो यह उनके गुरु अर्जुन सिंह की उस नीति का अनुसरण था जिसके मुताबिक- यदि किसी से गुड़ देकर लाभ लिया जा सकता है तो उसे जहर क्यों दिया जाए. समन्वय की यह राजनीति अर्जुन सिंह ने ही शुरू की थी. तब नेता प्रतिपक्ष सुंदरलाल पटवा के साथ उनकी जोड़ी चर्चा के केंद्र में थी. उन्हीं दिनों भाजपा में पटवा के प्रतिद्वंद्वी कहे जाने वाले कैलाश जोशी ने चुरहट लाटरी कांड को लेकर सिंह पर आरोप लगाया था कि उन्होंने अपने क्षेत्र चुरहट में लाटरी योजना के तहत करोड़ों रुपये की हेराफेरी की है. जोशी ने इस मामले में हाईकोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया. कहा जाता है कि उस समय जोशी का उन्हीं के पार्टी के एक बड़े खेमे ने साथ छोड़ दिया था.

‘अब भाजपा ने अपना वर्ग चरित्र बड़ी तेजी से बदला है. पार्टी अब उन मुद्दों की राजनीति कर रही है जो परंपरागत रूप से कांग्रेस का वोटबैंक मजबूत करते थे’

इस घटना को यदि मौजूदा परिदृश्य में देखा जाए तो यह शिवराज सिंह सरकार के डंपर कांड से मेल खाती है. 2005 में शिवराज के मुख्यमंत्री बनने के पांच महीने बाद उनकी पत्नी साधना सिंह ने चार डंपरों की खरीद तो की लेकिन अपने आय-व्यय के ब्योरे में उनका उल्लेख नहीं किया. यह मामला तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी ने उठाया. उनका कहना था कि श्रीमती सिंह ने पंजीयन में अपने पति का नाम और आवास का पता भी गलत लिखा है. नंवबर, 2007 में जब मामला लोकायुक्त में पहुंचा तब कांग्रेस की नैया सुरेश पचौरी के हवाले थी. अगले साल विधानसभा के चुनाव को देखते हुए कई कांग्रेसियों ने इस मौके पर मैदान मारने का मंसूबा भी पाला था लेकिन डंपर व्यवसाय में जब प्रतिपक्ष के नेताओं के भी आर्थिक हित सामने आने लगे तो पार्टी नेतृत्व ठंडा पड़ गया और यह मामला वहीं खत्म हो गया.

अरसे बाद सत्ता और विपक्ष की जुगलबंदी का खुला नजारा बीते विधानसभा सत्र में तब देखने को मिला जब भ्रष्टाचार के एक बड़े मुद्दे पर दोनों की कथित खींचतान ने मुद्दे की ही हवा निकाल दी. बतौर शिक्षक अपना करियर शुरू करने वाले और भाजपा के शिक्षा प्रकोष्ठ के संयोजक सुधीर शर्मा ने पिछले सात साल में इतनी तरक्की की है कि केवल खनन क्षेत्र में उनका टर्न ओवर कुछ करोड़ों से पांच हजार करोड़ रुपये हो गया है. वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले दिलीप सूर्यवंशी की भी 2003 से अब तक रिकॉर्ड कमाई हुई. इस दौरान सड़क निर्माण के क्षेत्र में उनका टर्न ओवर 13 करोड़ रुपये से पांच हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया. कमाई के इन रिकॉडों की छानबीन के लिए जब आयकर विभाग ने दोनों के ठिकानों पर छापामारी की तो उसमें कई ऐसी बातें सामने आईं जो राज्य सरकार की इन लोगों पर कथित रियायत का सबूत थीं.

प्रदेश की आम जनता सहित राजनीतिक जानकारों को उम्मीद थी कि विधानसभा के मानसून सत्र में यह मसला जोर-शोर से उठेगा और भाजपा राज में जिस भ्रष्टाचार की चर्चा गाहेबगाहे होती रहती है उस पर पार्टी को सदन में सफाई देनी पड़ेगी. लेकिन इस मौके पर प्रदेश विधानसभा में जो हुआ उसमें मुद्दे पर चर्चा के अलावा सब कुछ अभूतपूर्व था. बारह दिन के लिए बुलाए गए मानसून सत्र के तीसरे दिन ही स्पीकर से दुर्व्यवहार करने के आरोप में कांग्रेस के दो विधायकों चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी (भिंड) और कल्पना पारूलेकर (महिदपुर) की पहले तो विधायकी छिनी, फिर 24 घंटे के भीतर इस मामले में पुनर्विचार की कोशिशें हुईं और आखिरकार देश के इतिहास में पहली बार विधायकों की बहाली के लिए विशेष सत्र बुलाकर उनकी बहाली भी हो गई.

इस बहाली पर कांग्रेस ने चुप्पी साधे रखी तो भाजपा ने भी अपनी उदारवादी छवि दिखाई, पर पूरी कवायद से भ्रष्टाचार का असल मुद्दा गायब हो गया. विधानसभा में कांग्रेस का व्यवहार बताता है कि भाजपा को भ्रष्टाचार पर घेरने को लेकर उसकी कोई तैयारी नहीं थी. संसदीय रिपोर्टिंग से जुड़े जानकार बताते हैं कि भ्रष्टाचार कोई आपातकाल का मुद्दा नहीं था जिसे स्थगन प्रस्ताव के तहत उठाया जाना चाहिए था. यदि कांग्रेस चाहती तो छापे में सूर्यवंशी के यहां मिली हरी नोटशीट (केवल मंत्रालय के उपयोग में लाई जाने वाली नोटशीट) से चर्चा शुरू करा सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. दूसरा, चर्चा के लिए स्पीकर का आसंदी तक पहुंचना जरूरी था लेकिन उल्टा उसने स्पीकर का ही रास्ता रोक दिया जिसके बाद स्पीकर ने सत्र समाप्ति की घोषणा कर दी.

देखा जाए तो मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री सहित सात मंत्रियों के खिलाफ लोकायुक्त में भ्रष्टाचार से जुड़ी शिकायतों की जांच चल रही है. शिवराज सरकार के दौरान वित्तीय अनियमितताओं के अलग-अलग मामलों में लोकायुक्त ने अब तक 900 करोड़ रुपये की जब्ती भी की है. जाहिर है यहां भ्रष्टाचार अपने आप में इतना बड़ा मामला है जिसके दम पर कांग्रेस दुबारा खड़ी हो सकती है. मगर यह शिवराज की ‘अर्जुन (सिंह) नीति’ का ही असर दिखता है कि आपसी गुटबाजी से कांग्रेस की कमर टूटी हुई है और उसके बड़े नेता अपने-अपने ठिकानों में आराम की राजनीति फरमा रहे हैं. सरकार की कमजोरियों से ध्यान बंटाने के मामले में भी शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे स्व. अर्जुन सिंह की नीतियों का ही विस्तार किया है. अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अर्जुन सिंह ने शहरों में अस्थायी निवासियों को पट्टे और सिंगल बत्ती कनेक्शन जैसी लुभावनी योजनाओं से लोकप्रियता पाई थी.

ठीक इसी तर्ज पर शिवराज सिंह चौहान ने भी राज्य में विकास का आधार बनाने के बजाय कई लोकप्रिय योजनाओं जैसे लाड़ली लक्ष्मी योजना (जन्म से शादी तक का खर्च) और जननी सुरक्षा योजना (प्रसव का खर्च) को बढ़ावा देकर खुद को आम आदमी का नेता कहलवाया है. इसके अलावा, अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह ने भाजपा से अलग आदिवासी और अल्पसंख्यकों की राजनीति की थी, लेकिन बीते कुछ सालों में शिवराज सिंह चौहान ने भी कांग्रेस की ही राजनीति शुरू कर दी है. वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह बताते हैं, ‘भाजपा ने अपना वर्ग चरित्र बहुत तेजी से बदला है. उसने कांग्रेस के राजनीतिक क्षेत्र में जाकर उसी के वर्ग के मुद्दों को उससे कहीं अधिक आक्रामक तरीके से उठाना शुरू कर दिया है. इससे कांग्रेस असमंजस में है कि अब वह किस किस्म की राजनीति करे.’

2008 के विधानसभा चुनाव में कुल 230 में से भाजपा ने यहां 142 और कांग्रेस ने 72 सीटें जीती थीं.

विपक्ष के नजरिये से यह ठीक-ठाक संख्या थी. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस महज डेढ़ फीसदी के अंतर से हारी. 2009 के लोकसभा चुनाव में कुल 29 में से यहां कांग्रेस की सीटें चार से बढ़कर 12 हो गईं. चुनाव विश्लेषकों के मुताबिक जनता ने राज्य सरकार के खिलाफ असंतोष का इशारा किया था लेकिन उसके बाद कांग्रेस इस असंतोष को वोट में तो नहीं ही खींच पाई, खुद सत्ता की तरफ खिंचती हुई नजर आई. इसकी कीमत उसे सभी पांचों उप चुनाव में अपनी परंपरागत सीटों को भारी अंतर के साथ गंवाकर चुकानी पड़ी.

इस दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कांग्रेस का पुराना दांव उसी पर आजमाकर उसे सत्ता का पिछलग्गू बना लिया. इसके तहत कांग्रेस के कई बड़े नेताओं और उनके संबंधियों को तरह-तरह के ठेके बांटे गए. इसी कड़ी में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के ओएसडी (विशेष अधीनस्थ अधिकारी) प्रवीण कक्कड़ का नाम भी आता है. भाजपा सरकार ने कक्कड़ को खरगोन में शराब फैक्टरी का लाइसेंस दिया है. इसी के साथ भाजपा ने कहीं-न-कहीं जनता को यह संदेश भी दिया है कि कांग्रेस के नेता अपने फायदे के लिए सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. यही वजह है कि जब भी सरकार का कोई घपला उजागर होता है तो जनता इस बात पर भ्रमित हो जाती है कि इसमें विपक्ष की कितनी हिस्सेदारी है. सूत्रों की मानें तो कांग्रेस में एक बड़ा तबका भाजपा से आर-पार की लड़ाई लड़ना चाहता है लेकिन शीर्ष नेतृत्व ऐसा नहीं चाहता. वरिष्ठ पत्रकार शिव अनुराग पटैरिया के मुताबिक, ‘सत्ता पर हमला वही कर सकता है जिसके अपने हित निहित न हों लेकिन कुछ सालों से राजनेताओं के हित कई धंधों में निहित हो गए हैं और बड़े से बड़े मुद्दे पर चुप्पी साध लेना जैसे उनकी मजबूरी बन चुकी है.’

चुनावी राजनीति में निचले स्तर का संगठन सबसे जरूरी आधार होता है, यही मतदाताओं को मतदान केंद्र तक ले जाता है लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेताओं पर से बार-बार भरोसा उठने से कार्यकर्ताओं का उत्साह गहरी नीद में है. वहीं लंबे समय तक भाजपा का सिक्का चलने से प्रदेश में जगह-जगह उसके कार्यकर्ताओं का दंभ साफ दिखाई देने लगा है जिसकी शिकायत हाल ही में दिग्विजय सिंह ने इंदौर में एक कार्यक्रम के दौरान भाजपा सांसद सुमित्रा महाजन से भी की थी. उन्होंने महाजन से कहा, ‘इंदौर में अपराध बहुत बढ़ गए हैं.’ जवाब में महाजन ने कहा, ‘कैलाश को तो आपने ही बढ़ाया था, दिग्विजय!’ कैलाश से महाजन का आशय प्रदेश के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय से था. जब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे तब भाजपा विधायक होने के बावजूद विजयवर्गीय, सिंह के खासमखास थे. दिग्विजय-महाजन का यह लघु संवाद मध्य प्रदेश की राजनीति का सार भी है. सार यह कि भाजपा ने कांग्रेस से जो सीखा था, आज वही उसे लौटा रही है.

…आन गांव के सिद्ध

छत्तीसगढ़ में मध्य प्रदेश से आए बाबू विधानसभा सचिव बने हुए हैं और चपरासी प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था संभाल रहे हैं. अनिल मिश्रा की रिपोर्ट.

हाल ही में छत्तीसगढ़ के विधि विभाग में चपरासियों के पद निकले तो बेरोजगार युवाओं का रेला उमड़ पड़ा. सात पदों के लिए पांच हजार बेरोजगारों ने इंटरव्यू दिया. इसमें से कई इंजीनियरिंग और कंप्यूटर में डिप्लोमाधारी थे.  आखिर उच्च शिक्षितों में चपरासी बनने की ललक क्यों? जवाब इंटरव्यू की लाइन में लगे एक युवा ने दिया, ‘अगर तकनीशियन बने तो जिंदगी में ज्यादा से ज्यादा इंजीनियर तक पहुंच पाएंगे. और अगर मंत्रालय में चपरासी का पद हासिल हो गया तो दस-पंद्रह साल बाद चीफ इंजीनियरों को भी हमारा ही आदेश मानना पड़ेगा.’ दरअसल छत्तीसगढ़ में विधानसभा से लेकर मंत्रालय तक में ऐसी ही विसंगतियां देखने को मिलती हैं जिनके बाद यह जवाब अतिशयोक्ति नहीं लगता. नया प्रदेश छत्तीसगढ़ स्थानीय लोगों के सपनों का प्रदेश भले न बन पाया हो लेकिन यह बंटवारे के तहत मध्य प्रदेश से यहां आए अधिकारियों और कर्मचारियों के सपनों का प्रदेश जरूर बन गया है. 

पहले विधानसभा सचिवालय की ही बात करते हैं जहां प्रदेश की जनता की बेहतरी के लिए कानून बनाए जाते हैं. छत्तीसगढ़ विधानसभा के वर्तमान सचिव देवेंद्र वर्मा आज की स्थिति में मध्य प्रदेश कैडर में हैं और उनका पद अनुसंधान अधिकारी है जो बड़े बाबू के स्तर का पद है. मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद कर्मचारियों के बंटवारे के लिए एक व्यवस्था बनाई गई थी. बताया जाता है कि वर्मा ने इस बंटवारे और आवंटन का फायदा उठाया और अपने पद से तीन ग्रेड ऊपर सचिव का पद हासिल कर लिया. दरअसल बंटवारे के वक्त यह तय किया गया था कि कर्मचारियों से यह पूछा जाएगा कि वे कहां जाना चाहते हैं. कर्मचारियों की सहमति के बाद अंतिम सूची जारी होने पर अगर छत्तीसगढ़ को पर्याप्त कर्मचारी नहीं मिल पाते तो ऐसी स्थिति में प्रतिनियुक्ति पर अधिकारियों और कर्मचारियों की तैनाती करके काम चलाया जाएगा. वर्मा ने मध्य प्रदेश कैडर मांगा था. 

मध्य प्रदेश सरकार के 11 मई, 2004 के राजपत्र में वर्मा का नाम मध्य प्रदेश कैडर में अनुसंधान अधिकारी के रूप में दर्ज है.

आरटीआई से मांगी गई जानकारी में भी मध्यप्रदेश विधानसभा ने जनवरी 2012 में उन्हें मध्य प्रदेश विधानसभा में अनुसंधान अधिकारी बताया है, जबकि वर्मा सितंबर, 2004 से छत्तीसगढ़ में विधानसभा सचिव हैं. उन पर आरोप लगता है कि वे मौके का फायदा उठाने यहां चले आए और इसके लिए उन्होंने प्रतिनियुक्ति के नियमों का पालन भी नहीं किया. 6 जुलाई, 2001 को वे इस नए राज्य में प्रमोशन पाकर उप-सचिव बने थे, दो साल बाद 29 सितंबर, 2003 को अपर-सचिव बनाए गए और एक सितंबर, 2004 को सचिव बन गए. जबकि प्रमोशन के लिए सरकारी नियम यह है कि कम से कम पांच साल में ही एक प्रमोशन मिल सकता है. और भी अहम बात यह है कि वे मध्य प्रदेश कैडर में हैं लिहाजा उनका प्रमोशन हो ही नहीं सकता था. आरोप है कि सत्ता की नजदीकी ने एक बाबू को नियमों के विरुद्ध एक बड़ा अफसर बना दिया जबकि विधानसभा में उनसे वरिष्ठ पद के कम से कम चार अफसर हैं जो उनके खिलाफ डर के मारे खामोश बैठे हैं. नियम विरुद्ध सचिव बने वर्मा पर विधानसभा में नियुक्तियों में भी मनमानी के आरोप हैं.

कहा जाता है कि सुरक्षा अधिकारी और अन्य पदों पर 50 से ज्यादा लोगों को बीते कुछ सालों में उन्होंने सीधे नियुक्ति दे दी. इसके लिए न कोई विज्ञापन निकाला गया, न इंटरव्यू हुए और यहां तक कि आरक्षण के नियमों का पालन तक नहीं किया गया. विधानसभा के दूसरे कर्मचारियों ने उन पर प्रताड़ित करने का आरोप लगाया और भूख हड़ताल तक की लेकिन  वर्मा का कुछ नहीं बिगड़ा. यह भी आरोप है कि मीडिया को विधानसभा का पास देने में भी उनकी मनमानी चलती है. यही नहीं, विधानसभा सचिव ने पूरे देश के कानून को धता बताते हुए विधानसभा में आरटीआई के आवेदन का शुल्क 10 की जगह 500 रु कर दिया है. पूर्व विधायक और भाजपा के बागी नेता वीरेंद्र पांडे कहते हैं, ‘वर्मा मध्य प्रदेश कैडर में हैं, इसलिए उनका यहां प्रमोशन हो ही नहीं सकता था.

लेकिन नेताओं की जी हुजूरी करके उन्होंने अपनी राह बनाई. वे अपने पद से ऊपर का वेतन ले रहे हैं, लेकिन शिकायतों के बाद भी सरकार खामोश है. विधानसभा के दूसरे कर्मचारियों के ग्रेडेशन और प्रमोशन में भी वे निमयों को ताक पर रखकर कार्रवाई कर रहे हैं.’ लेकिन खुद वर्मा इन आरोपों से बिलकुल विचलित नहीं दिखते. वे कहते हैं कि उन्होंने हमेशा ईमानदारी का साथ दिया है. उनका दावा है कि 1985 में लाइब्रेरियन के पद पर भर्ती के बाद उनके नियमानुसार चार प्रमोशन हुए और वे सचिव बने. इससे ज्यादा पूछने पर वे नो कमेंट कह कर चुप हो जाते हैं. वीरेंद्र पांडे अब इस मामले में हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगाने की तैयारी कर रहे हैं. मामला चलेगा या नहीं यह अभी तय नहीं, लेकिन इस बीच अगले साल वर्मा रिटायर हो जाएंगे.

अब मंत्रालय का हाल देखिए. नक्सलवाद से जूझ रहे प्रदेश में गृह विभाग के उपसचिव विलियम कुजूर के आफिस में एक डीएसपी रैंक के अफसर आते हैं और उन्हें सैल्यूट मारते हैं.

डीएसपी वहां डीजीपी की सेवा पुस्तिका संबंधी फाइल के बारे में पूछने आए हैं. जिस उपसचिव को वे सैल्यूट मार रहे हैं, उनकी सरकारी रिकॉर्ड में शैक्षणिक योग्यता हायर सेकेंडरी है. यानी मध्य प्रदेश के पुराने नियमों के अनुसार 11वीं पास. शायद ही पूरे देश में कहीं ऐसा होता होगा जहां नॉन ग्रैजुएट उपसचिव प्रदेश के पुलिस विभाग के मुखिया की सर्विस बुक देखते हों. यह अकेला मामला नहीं है. मध्य प्रदेश के विभाजन के बाद यहां आए मंत्रालयीन कैडर के मैट्रिक पास अवरसचिव और उपसचिव राज्य में आईएएस अधिकारियों को आदेश दे रहे हैं. यह सच है लेकिन कम ही लोगों को पता है कि जो लोग राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था चला रहे हैं उनकी योग्यता चपरासियों से ज्यादा नहीं. इनमे से बहुत से ऐसे हैं जिन्होंने अपनी नौकरी चपरासी के पद से ही शुरू की थी.

नए राज्य में आने पर इन्हें एक प्रमोशन तो तुरंत मिल गया. आरोप है कि उसके बाद से हर तीसरे साल इन लोगों ने प्रमोशन पाने के लिए सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया. इस तरह नौ साल में उन्हें तीन प्रमोशन मिल चुके हैं और अब चौथे प्रमोशन का समय है. मध्य प्रदेश में जो चपरासी थे वे यहां आते ही एलडीसी बने. फिर यूडीसी और सेक्शन ऑफिसर बन गए. अब वे अंडर सेक्रेटरी बनने वाले हैं. जो बाबू थे वे अब डिप्टी सेक्रेटरी हैं और ज्वाइंट सेक्रेटरी बनने की तैयारी कर रहे हैं. यहां मंत्रालय में दो तरह के अफसर हैं. एक मंत्रालय कैडर के और दूसरे राज्य प्रशासनिक सेवा के. अंडर सेक्रेटरी स्तर पर मंत्रालय और राज्य सेवा अधिकारियों का अनुपात 60 और 40 का है. डिप्टी सेक्रेटरी स्तर पर यह अनुपात 80 और 20 है. राज्य सेवा के पद खाली हैं जिन पर मंत्रालय कैडर के अधिकारियों को प्रमोट करके बैठाने का प्रस्ताव है. यानी भविष्य में पूरा तंत्र ही मैट्रिक पास अधिकारियों के अधीन होगा. 

तहलका के पास उपलब्ध सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक मंत्रालय कैडर के आठ डिप्टी सेक्रेटरियों में से सिर्फ एक ने ही ग्रैजुएशन किया है जबकि अंडर सेक्रेटरी के कुल 46 पदों में से 12 ग्रैजुएट हैं और सेक्शन ऑफिसर के 92 पदों की भी स्थिति यही है. पूरे प्रदेश में पिछले 12 साल में किसी का प्रमोशन नहीं हुआ है, लेकिन मंत्रालय में हर तीसरे साल प्रमोशन होता है. गृह विभाग के उपसचिव विलियम कुजूर कहते हैं, ‘मैंने इस पद पर आने में बहुत मेहनत की है.’ लेकिन नक्सल प्रभावित प्रदेश में गृह विभाग में अल्प शिक्षित अफसर से कितनी उम्मीद की जा सकती है? उधर, मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव वरिष्ठ आईएएस अफसर एन बैजेंद्र कुमार का तर्क है कि शिक्षा से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. वे कहते हैं, ‘इनके पास अनुभव है, जो भी जिम्मेदारी दी जाती है उसका पालन करते हैं. आदिवासी राज्य में मध्य प्रदेश के कर्मचारी आना नहीं चाहते थे, इसलिए उनके लिए प्रमोशन की पॉलिसी बनाई गई.’ लेकिन सरकार के मंत्रालय में सेक्शन ऑफिसरों की भर्ती कर्मचारी चयन आयोग से की जाती है जबकि यहां तो सचिव के पद तक चपरासी प्रमोट हो जाते हैं. इसका कोई संतोषजनक जवाब किसी के पास नहीं है. एक अधिकारी कहते हैं, ‘यहां चपरासी से अफसर बने बाबुओं का ही जलवा है. सरकार उनकी ही सुनती है और अगर हम कुछ बोलेंगे तो जाहिर सी बात है      कि नक्सली इलाकों में भेज दिए जाएंगे. क्या होगा     इस प्रदेश का?

अनशन से सियासत तक

अन्ना हजारे के अनशन को महत्व न देकर उनकी योजना पटरी से उतारने वाली सरकार ने रामदेव के अभियान को दबाने के लिए यही रणनीति अपनाई थी. लेकिन राजग का खुला समर्थन हासिल करके रामदेव ने केंद्र और कांग्रेस के मंसूबों पर पानी फेर दिया. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.

 अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा राजनीतिक विकल्प का राग छेड़ने के बाद ज्यादातर लोग इसे लेकर सशंकित थे कि स्वामी रामदेव के अभियान को उत्साहजनक समर्थन नहीं मिलेगा. खुद रामदेव की बातों से भी ऐसा ही लग रहा था. लेकिन अचानक परिदृश्य ऐसे बदला कि हर तरफ वे ही छा गए. नौ अगस्त को रामलीला मैदान में अपना अभियान शुरू करने के एक दिन पहले मीडिया से बातचीत में रामदेव बार-बार यह दोहरा रहे थे कि उनका अभियान किसी पार्टी या व्यक्ति के खिलाफ नहीं है बल्कि वे काला धन वापस लाने और कुछ संवैधानिक पदों  की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार चाहते हैं. लेकिन यही रामदेव तीन दिन के बाद नारा देने लगे कि कांग्रेस को हटाना है और देश को बचाना है. अब सवाल उठता है कि आखिर अपने अभियान की शुरुआत बेहद रक्षात्मक ढंग से करने वाले रामदेव तीन दिन में ही इतने आक्रामक कैसे हो गए. जिस दिन रामदेव के अभियान की औपचारिक शुरुआत हुई, उसी दिन केंद्रीय मंत्री हरीश रावत की तरफ से यह बयान आया कि सरकार बातचीत के लिए तैयार है. लेकिन सूत्रों के मुताबिक सरकार के वरिष्ठ मंत्री रामदेव से किसी भी तरह की बातचीत के पक्ष में नहीं थे. सरकार मानकर चल रही थी कि रामदेव के अभियान का हश्र भी अन्ना के अभियान जैसा होगा. इसी उत्साह में केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने यह तक कह डाला कि रामदेव कौन हैं. उनसे पत्रकारों ने यह जानना चाहा था कि रामदेव के अभियान पर सरकार का क्या रुख है. रामदेव ने प्रधानमंत्री को जो पत्र लिखे उनका भी कोई जवाब सरकार की तरफ से नहीं दिया गया.

लोगों को यह भी लग रहा था कि कहीं रामदेव के साथ वही न हो जो पिछले साल हुआ था. पिछले साल न सिर्फ रामदेव पर पुलिसिया कार्रवाई हुई थी बल्कि उन्हें हरिद्वार में अपना अनशन कुछ उसी तरह से बेआबरू होकर तोड़ना पड़ा था जिस तरह से इस बार अन्ना हजारे और उनके सहयोगी अनशन खत्म करने को बाध्य हुए. लेकिन जानकारों की मानें तो रामदेव ने अंदर ही अंदर अपनी तैयारी कर ली थी. पिछले साल केंद्र सरकार द्वारा बेइज्जत किए जाने और महिलाओं की पोशाक में रामलीला मैदान छोड़कर भागने वाले रामदेव ने इस एक साल में ज्यादातर कांग्रेस विरोधी दलों से संपर्क साधा. उनके एक सहयोगी बताते हैं, ‘इन सभी मुलाकातों में उन्होंने राजनीतिक दलों से समर्थन मांगा लेकिन खुद इस पर कोई वादा नहीं किया कि वे कोई राजनीतिक दल नहीं बनाएंगे. इन मुलाकातों में ज्यादातर नेताओं ने काले धन के मुद्दे पर समर्थन का आश्वासन तो दिया लेकिन रामदेव को राजनीतिक दल न बनाने की नसीहत भी दी. लेकिन बाबा के मन से अलग राजनीतिक दल का मोह नहीं छूट रहा था. योजना यह थी कि नौ अगस्त को अभियान शुरू होगा और 12 अगस्त को रामदेव नई पार्टी की घोषणा करते हुए बताएंगे कि 2014 में सभी लोकसभा सीटों पर वे अपने उम्मीदवार उतारेंगे.’ तो फिर नई पार्टी की घोषणा क्यों नहीं हुई? जवाब में वे कहते हैं, ‘अन्ना हजारे के सहयोगियों से पूछिए कि उन्होंने राजनीतिक विकल्प की घोषणा करने में इतनी जल्दबाजी क्यों की. वे अगर राजनीतिक विकल्प की बात बाद में करते तो लोग कहते कि वे बाबा रामदेव के रास्ते चल रहे हैं. अन्ना के सहयोगियों द्वारा राजनीतिक विकल्प की घोषणा पहले कर देने से यही संकट रामदेव के सामने पैदा हो गया और उन्हें पार्टी बनाने की योजना टालनी पड़ी. उनके सामने अपना अभियान सम्मानजनक स्तर पर ले जाने के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का समर्थन हासिल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.’

जानकारों के मुताबिक भाजपा समेत राजग के सहयोगी दल रामदेव के खुले समर्थन के लिए तब तक तैयार नहीं थे जब तक बाबा यह वादा न कर दें कि वे कोई राजनीतिक दल नहीं बनाएंगे. जब सरकार की तरफ से रामदेव को कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली और उन पर दबाव बढ़ता गया तो पहले उन्होंने तीन दिन के अपने अल्टीमेटम को एक दिन के लिए बढ़ाया. लेकिन फिर भी सरकार ने रामदेव को भाव नहीं दिया. इसके बाद रामदेव के विकल्प सीमित होते गए. 12 अगस्त की दोपहर में संघ के एक बड़े अधिकारी की उनसे मुलाकात हुई. सूत्रों के मुताबिक इस मुलाकात में रामदेव ने संघ के इस अधिकारी से यह आग्रह किया कि वे भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से बात करें और उन्हें समर्थन के लिए तैयार करें. यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि रामदेव के अभियान को संघ और उसके सहयोगी संगठनों का समर्थन पिछले साल से ही है. भाजपा के एक नेता कहते हैं, ‘संघ के अधिकारियों से भाजपा अध्यक्ष की हुई बातचीत के बाद 12 अगस्त की शाम को नितिन गडकरी और रामदेव के बीच फोन पर बातचीत हुई. रामदेव भाजपा समेत पूरे राजग का समर्थन चाह रहे थे. लेकिन गडकरी पहले यह आश्वासन चाह रहे थे कि रामदेव भविष्य में कोई पार्टी नहीं बनाएंगे. शुरुआत में रामदेव की तरफ से कहा गया कि उनका अभियान कांग्रेस विरुद्ध और राजगपरस्त रहेगा. इस पर गडकरी ने कहा कि राजग के अन्य घटकों को तैयार करना तब तक आसान नहीं होगा जब तक वे राजनीतिक दल नहीं बनाने की बात पर राजी नहीं होते.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘रामदेव ने अंततः यह बात मान ली कि वे राजनीतिक दल नहीं बनाएंगे और उन्होंने गडकरी को राजग के अन्य घटकों को समर्थन के लिए तैयार करने को कहा. गडकरी ने रामदेव से यह कहा कि वे अगली सुबह तक अंतिम तौर पर कुछ बता पाएंगे.’

भाजपा के ये नेता कहते हैं, ‘इस बीच गडकरी ने पहले शरद यादव से बात की. इसके बाद गडकरी और शरद यादव ने राजग के अन्य घटक दलों से बातचीत की. समर्थन के लिए राजग के घटकों को तैयार करने में ज्यादा कठिनाई इसलिए भी नहीं हुई क्योंकि खुद रामदेव इस बार रामलीला मैदान आने से पहले ज्यादातर दलों के प्रमुख से मिल चुके थे. गडकरी ने संसद के दोनों सदनों के नेता प्रतिपक्ष से बात की. न सिर्फ अगले दिन सहयोगियों के साथ रामदेव के समर्थन में रामलीला मैदान जाने की रणनीति बल्कि इस मसले को संसद के दोनों सदनों में जोर-शोर से उठाने की योजना भी बनाई गई. राजग से बाहर के अन्ना द्रमुक और बीजू जनता दल से भी बात की गई. खुद रामदेव ने भी कई नेताओं से बातचीत की और दोहराया कि वे राजनीतिक दल नहीं बनाएंगे.’ 13 अगस्त की सुबह एक बार फिर गडकरी और रामदेव के बीच फोन पर बातचीत हुई. इसके बाद से रामदेव का सुर बदल गया और रामलीला मैदान से उन्होंने न सिर्फ कांग्रेस और केंद्र सरकार पर हमले किए बल्कि कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ का नारा भी उछाल दिया. 

इसके बाद पहले राजग के एक घटक जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी रामलीला मैदान पहुंचे.  थोड़ी ही देर में रामदेव के मंच पर नितिन गडकरी और शरद यादव, भाजपा के कई नेता, बीजू जनता दल, शिव सेना, शिरोमणि अकाली दल और तेलगूदेशम पार्टी के प्रतिनिधि भी पहुंच गए. संसद में अन्ना द्रमुक ने भी काले धन के मुद्दे पर राजग का साथ देकर यह संदेश दिया कि वह भी रामदेव के साथ है. अक्सर संप्रग के आयोजनों में दिखने वाले समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी की मायावती ने भी रामदेव का समर्थन किया.  लेकिन अब हर तरफ यही बात चल रही है कि राजग के साथ जुड़ने के बाद रामदेव को फौरी राहत भले ही मिल गई हो लेकिन खुद उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का भविष्य अनिश्चय से घिर गया है. 

ना ना करते…

अनशन की राजनीति से सफर शुरू करने वाली टीम अन्ना चुनावी राजनीति के मोड़ पर आ पहुंची है. यह आंदोलन की तार्किक परिणति है या मजबूरी या योजनाबद्ध रणनीति ? अतुल चौरसिया की रिपोर्ट.

दो अगस्त को दिन में डेढ़ बजे जंतर-मंतर पर अन्ना के मंच से अचानक ही वह घोषणा हुई जिसके लिए देश, मीडिया, अन्ना के समर्थक और विरोधी कोई भी तैयार नहीं था. टीम के वरिष्ठ सदस्य और अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने राजनीतिक विकल्प देने का ऐलान कर दिया. इसने जंतर-मंतर पर मौजूद भीड़ से लेकर राजनीति के गलियारों और समाचार चैनलों के न्यूज रूम तक तमाम जगहों पर चल रही बहसों की दिशा ही मोड़ कर रख दी. ऐसा होना स्वाभाविक भी था. जो लोग कल तक नेताओं का विरोध कर रहे थे वे ही अब खुद नेता बनने की बात कर रहे थे. कुछ लोगों को यह बात इसलिए भी अजीब लग रही थी क्योंकि ठीक पंद्रह घंटे पहले टीवी चैनल टाइम्स नाउ को दिए गए साक्षात्कार में अरविंद केजरीवाल राजनीति में उतरने की किसी भी संभावना को कोरी गपबाजी बता कर खारिज कर चुके थे.

इस घोषणा का असर होना था और हुआ. कल तक जो कांग्रेस बात-बात पर अन्ना को चुनाव लड़ने की चुनौती दे रही थी उसने तुरंत ही मामला लपका. सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी का बयान आया, ‘हमें पता थी उनकी नीयत. यह सब वे राजनीति में आने के लिए ही कर रहे थे.’ भाजपा की प्रतिक्रिया फिर भी संयत रही. पार्टी उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी कहते हैं, ‘हम टीम अन्ना का स्वागत करते हैं. लोकतंत्र में सबको हक है चुनाव लड़ने का.’ लेकिन ऐसा हुआ कैसे? कभी रही टीम अन्ना की एक सदस्य शाजिया इल्मी इसकी वजह पर रोशनी डालते हुए कहती हैं, ‘एक तारीख की रात को हमें 23 वरिष्ठ नागरिकों के हस्ताक्षर वाला एक पत्र मिला. इसमें जेएम लिंग्दोह, वीके सिंह, कुलदीप नैयर जैसे वरिष्ठ लोगों ने अन्ना और उनके सहयोगियों से अपील की थी कि वे अनशन का रास्ता छोड़कर राजनीतिक विकल्प पर विचार करें, क्योंकि इस सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. अपनी जान दांव पर लगाने का कोई औचित्य नहीं है. इसके बाद हमने राजनीतिक विकल्प पर विचार करने का फैसला किया.’ 

हालांकि यह बात मुश्किल से ही गले उतरती है कि सिर्फ एक पत्र डेढ़ घंटे के भीतर डेढ़ साल के रुख को बदल सकता है. इस अचानक फैसले से जेहन में दो बातें आती हैं. पहली तो यह कि संभव है टीम पहले से ही राजनीतिक विकल्प पर गंभीरता से विचार कर रही हो. दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि सरकार द्वारा कोई भाव न दिए जाने की स्थिति में टीम अपना चेहरा बचाने का रास्ता खोज रही थी और यह पत्र उसके लिए माकूल अवसर लेकर उपस्थित हुआ. पत्र की आड़ में टीम ने राजनीतिक विकल्प पर विचार करने के साथ ही अपना अनशन समाप्त कर दिया.  जो बातें टीम अन्ना के सदस्यों के जरिए निकल कर आ रही हैं, वे पहली स्थिति को बल देती हैं. गोपनीयता की शर्त पर टीम के एक अहम सदस्य बताते हैं, ‘लगभग छह महीने पहले से ही टीम में राजनीतिक विकल्प पर विचार शुरू हो गया था. फरवरी में टीम अन्ना के कोर सदस्यों की एक बैठक पालमपुर में प्रशांत भूषण के फार्महाउस पर हुई थी. उस बैठक में जेएम लिंग्दोह भी थे. वहीं पर राजनीतिक विकल्प देने की बात तय हो गई थी.’ अपना हर कदम बहुत नाप-तौल कर बढ़ाने वाली टीम अन्ना यहां भी एक योजना के तहत आगे बढ़ी. उसने जंतर-मंतर पर पहले अनशन का आयोजन किया, फिर पत्र सामने आया और उसके बाद राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा के साथ अनशन समाप्त कर दिया गया. 

अभी तक अन्ना और उनके सहयोगी सरकार को अपनी पिच पर आकर खेलने के लिए मजबूर कर रहे थे. अब स्थिति उलटी हो गई है

इस लिहाज से यह सारा मामला पहले से ही ‘स्टेज मैनेज्ड’ लगता है और इसे देखते हुए इस टीम के मकसद के प्रति शंकाएं पैदा होने लगती हैं. अन्ना का मुंबई अनशन असफल होने के बाद से ही यह बात साफ होने लगी थी कि जनसमर्थन कम होता जा रहा है. एक वर्ग का मानना है कि ऐसे में टीम की तरफ से एक ईमानदार पहल यह की जा सकती थी कि सार्वजनिक रूप से मान लिया जाता कि हमने जनता के एक मुद्दे पर आंदोलन करने का फैसला किया था, अब जब जनता ही हमारे साथ नहीं है तो हम आंदोलन वापस लेते हैं. लेकिन शुचिता और ईमानदारी की बात कर रहे लोग इतना नैतिक बल नहीं जुटा सके. यानी साफ है कि कहीं-न-कहीं अहं या फिर निहित स्वार्थ आड़े आ रहे थे. उसके नतीजे में अब राजनीतिक विकल्प की बात हो रही है. 

खैर, यहां तक आने के बाद भी टीम किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रही है. जैसा कि इल्मी बताती हैं, ‘अभी हमारे पास कोई नियत ढांचा नहीं है. हम यह भी नहीं बता सकते कि हमारा विकल्प कैसा होगा, उसका स्वरूप कैसा होगा. हम अभी सिर्फ बातचीत और बैठकों के दौर से गुजर रहे हैं. कोई पुख्ता ढांचा सामने आने में अभी कुछ वक्त लगेगा.’ लोगों की चिंता यही है. टीम के बीच भी इस फैसले को लेकर एकराय नहीं है. संतोष हेगड़े और अखिल गोगोई ने पहले ही दिन विरोध का सुर ऊंचा कर दिया था. स्वयं अन्ना हजारे घोषणा से पहले तक इसके खिलाफ थे, ऐसा टीम के कई सदस्य स्वीकारते हैं. एक मुद्दे पर आंदोलन हो सकता है, राजनीति नहीं. दरअसल राजनीति बहुत व्यापक दायरा है. अब इस टीम का लेना-देना सिर्फ भ्रष्टाचार से नहीं होगा. उससे कश्मीर पर भी राय मांगी जाएगी, बाबा रामदेव पर भी, नक्सलवाद पर भी और आतंकवाद पर भी. और जब इन मुद्दों की बात होती है तब टीम के सिर आपस में ही टकराने लगते हैं. कश्मीर पर प्रशांत भूषण का रुख टीम अन्ना की चुनावी उम्मीदों की हवा निकाल सकता है तो रामदेव के मुद्दे पर अरविंद का ही टकराव अन्ना के साथ हो जाता है.

जिस मध्यवर्ग पर इसकी उम्मीदें टिकी हैं, वह कई मसलों पर लगभग तालिबानी नजरिया रखता है, मसलन नक्सलियों का इस देश से सफाया कर दिया जाना चाहिए. तो सवाल उठता है कि टीम इससे कैसे निपटेगी. दूसरा मुद्दा यह है कि जिस मध्यवर्ग के भरोसे टीम राजनीति का मैदान मारने की फिराक में है वह वोट देने भी कितना निकलता है. अलग-अलग मौकों पर टीम के सदस्यों के आपसी अहं का टकराव भी देखा जाता रहा है. इन छोटी-छोटी लड़ाइयों के मद्देनजर इतने बड़े लक्ष्य को पाने के लिए क्या टीम एकजुट हो पाएगी? जाने-माने राजनीतिक चिंतक योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘कुछ हद तक नेता आंदोलनों का चरित्र तय करते हैं, लेकिन गहरे अर्थ में आंदोलन नेताओं का चरित्र गढ़ता है.’ 

लोकतंत्र की सेहत के लिए विरोध, अनशन और आंदोलन जरूरी तत्व हैं. इस लिहाज से अन्ना के लोकपाल जैसे आंदोलनों का अपना महत्व है और रहेगा. एक तबके का मानना है कि यह आंदोलन अपने लक्ष्य को पाने में असफल रहा. लेकिन सब ऐसा नहीं मानते. योगेंद्र यादव कहते हैं कि सामाजिक आंदोलनों की सफलता-असफलता को मापने का नजरिया अलग होता है. उनके शब्दों में, ‘अगर लक्ष्य प्राप्ति को पैमाना मानें तो गांधीजी के सारे आंदोलन असफल रहे, नर्मदा बचाओ आंदोलन भी असफल रहा. जन आंदोलनों की सफलता की कसौटी यह है कि इसने जनमानस की सोच में क्या बदलाव किया है, इसके दीर्घकालिक असर समाज और व्यवस्था पर क्या पड़े हैं. मेधा पाटेकर की असली सफलता यह है कि आज कोई भी बड़ा बांध बनाने से पहले 100 बार विचार होगा. इसी तरह लोकपाल ने जनता के मन में  यह विश्वास जगाया है कि वह सरकार को अपनी बात सुनने के लिए मजबूर कर सकती है.’ टीम ने जब चुनाव में उतरने का निर्णय कर ही लिया है तब उन्हें रणनीतिक रूप से भी बहुत चतुर सिद्ध होना पड़ेगा. चुनावी राजनीति करने का सबसे सीधा-साधा तरीका तो यह होगा कि एक पार्टी बनाई जाए और सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए जाएं. लेकिन कइयों का मानना है कि यह तरीका तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है.

दूसरा तरीका है कि टीम अन्ना जेपी के फार्मूले का अनुसरण करे. 1974 में जेपी ने जबलपुर में शरद यादव को कांग्रेस के खिलाफ उतार कर अपने कांग्रेस विरोधी आंदोलन की शुरुआत की थी और अंतत: इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल होना पड़ा था. इसके लिए टीम अन्ना को पांच-दस या पंद्रह हाई-प्रोफाइल सीटों  का चुनाव करना पड़ेगा. जरूरी है कि ये सीटें शहरी हों जहां अन्ना को जानने-समझने वालों की बहुतायत है. ये हाई-प्रोफाइल सीटें राहुल गांधी, सोनिया गांधी से लेकर कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम, वी नारायणस्वामी, लालू यादव, सुषमा स्वराज तक की हो सकती हैं. एक बार उम्मीदवार तय हो जाने के बाद स्वयं अन्ना पूरी टीम के साथ इन चुनाव क्षेत्रों में पूरी ताकत के साथ भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए जोरदार हमला करें. केंद्रित लक्ष्य के साथ अगर अन्ना इनमें से कुछ सीटें भी जीतने में कामयाब रहते हैं तो इसके जरिए राजनीतिक समुदाय और जनता को बड़े संकेत प्रेषित किए जा सकते हैं. फिर किसी सरकार और पार्टी के लिए उन्हें नजरअंदाज कर पाना मुश्किल होगा. 

टीम के राजनीतिगमन के नतीजे में कुछ राजनीतिक रिश्ते भी पुनर्परिभाषित होंगे. कांग्रेस के साथ इसके रिश्ते हमेशा से तल्ख रहे लेकिन भाजपा ने अप्रत्यक्ष रूप से आंदोलन को एक नैतिक समर्थन दिया था. टीम भी कहीं न कहीं नर्म रुख के जरिए इसकी कीमत चुका  रही थी. लेकिन बदली परिस्थितियों में इनका अपरिभाषित रिश्ता प्रतिद्वंद्विता की श्रेणी में आ खड़ा हुआ है. भाजपा इस खुशी में थी कि सरकार के खिलाफ चल रहे सभी आंदोलनों का तयशुदा लाभ 2014 में उसे ही मिलेगा. पर अब सबसे बड़ी चिंता उसी के लिए है. टीम अन्ना अगर राजनीति में उतरती है तो सबसे बड़ा नुकसान वह भाजपा का कर सकती है. जो शहरी मध्यवर्ग जंतर-मंतर पर तिरंगा लहरा रहा था, वह परंपरागत रूप से भाजपा का समर्थक माना जाता है. यह भाजपा के लिए विचार की घड़ी है. लेकिन भाजपा सांसद शाहनवाज हुसैन पार्टी का बहादुर चेहरा पेश करते हुए कहते हैं, ‘भाजपा अन्ना की बैसाखी पर नहीं टिकी है. गली-गली, गांव-गांव में हमारा संगठन है. वह हमें 2014 का चुनाव जितवाएगा.’ हुसैन का बयान उनकी राजनीतिक मजबूरी का नतीजा भी हो सकती है. 

अभी तक अन्ना और उनके सहयोगी सरकार को अपनी पिच पर आकर खेलने के लिए मजबूर कर रहे थे. अब स्थिति उलटी है. अन्ना ने उस पिच पर खेलने का फैसला किया है जिसमें महारत राजनीतिक पार्टियों को हासिल है. तो इस पिच पर सफल होने के लिए टीम को गिद्ध वाली दृष्टि, लोमड़ी जैसी चालाकी, बगुले जैसा ध्यान और इन सबसे ऊपर व्यक्तिगत ईमानदारी चाहिए होगी.

वफादार सिपहसालार

बात 2002 की है. केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार थी. उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होना था. राजग ने अपना उम्मीदवार भाजपा के वरिष्ठ नेता भैरों सिंह शेखावत को बनाया था. उनके मुकाबले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सुशील कुमार शिंदे को मैदान में उतारा. शेखावत की जीत तय मानी जा रही थी और कहा जा रहा था कि शिंदे का सियासी करियर खत्म होने वाला है. खुद शिंदे इस खतरे से वाकिफ थे. इसके बावजूद उन्होंने चुनाव लड़ा और जैसा कि माना जा रहा था वे हार गए. मगर उनका करियर खत्म होने की बजाय और चमक गया. बगैर कोई सवाल किए गांधी परिवार का आदेश मानने का इनाम शिंदे को छह महीने में ही मिल गया. सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को हटाकर राज्य की कमान उनके हाथों में सौंप दी थी.

एक छोटी-सी नौकरी से देश के गृहमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले सुशील कुमार शिंदे के असाधारण सफर में ऐसे कई उदाहरण हैं. इन्हीं उदाहरणों में उनकी सफलता का सूत्र भी छिपा है. राष्ट्रपति पद के लिए जब से प्रणब मुखर्जी का नाम चलना शुरू हुआ था तब से ही यह तय माना जा रहा था कि पी चिदंबरम को गृह मंत्रालय से वापस वित्त मंत्रालय भेजा जाएगा. असली कयासबाजी चल रही थी नए गृहमंत्री और लोकसभा में सत्ताधारी दल के नेता के नाम को लेकर. जब यह पता चला कि कांग्रेस आलाकमान सुशील कुमार शिंदे को ऊर्जा मंत्रालय से गृह मंत्रालय भेज रही है तो उन लोगों को सबसे ज्यादा हैरानी हुई जो सियासत में प्रदर्शन के आधार पर पुरस्कार की बात करते हैं. लेकिन जो लोग देश की सियासी पेचीदगियों से वाकिफ हैं उन्हें अफसोस जरूर हुआ पर आश्चर्य नहीं.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘हर कोई जानता है कि सुशील कुमार शिंदे गांधी परिवार के वफादार रहे हैं. गांधी परिवार को कभी उनसे खतरा नहीं लगा. आप अगर गौर से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की दोनों सरकारों को देखेंगे तो यह पता चलेगा कि गांधी परिवार कभी वैसे व्यक्ति को गृह मंत्रालय में नहीं लाया जो सरकार में स्वाभाविक तौर पर नंबर दो दिखने लगे. अपने यहां यह माना जाता है कि प्रधानमंत्री के बाद गृहमंत्री ही होता है. अपने सबसे कद्दावर नेता प्रणब मुखर्जी को भी गांधी परिवार ने गृहमंत्री नहीं बनाया. अब जब प्रणब नहीं हैं तो चिदंबरम का कद ना बड़ा हो जाए इस भय से उन्हें वित्त मंत्रालय भेज दिया गया और शिंदे को यहां ले आया गया.’

ऊर्जा क्षेत्र में सुधार की बात सालों से चल रही है, पर शिंदे के कार्यकाल में न सुधारों की गाड़ी आगे बढ़ी और न इस क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कोई प्रगति हुई

शिंदे गांधी परिवार के किस कदर वफादार हैं, इसे समझने के लिए एक और उदाहरण दिया जा सकता है. 2004 में लोकसभा चुनावों के बाद महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव हुए. कांग्रेस का इस चुनाव में जीतना बेहद मुश्किल लग रहा था. लेकिन शिंदे की अगुवाई में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के गठबंधन को बहुमत हासिल हो गया. मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार सुशील कुमार शिंदे थे. लेकिन गांधी परिवार ने विलासराव देशमुख को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया. शिंदे ने एक बार फिर बगैर कुछ कहे आलाकमान का यह फैसला स्वीकार कर लिया. इसके बाद शिंदे को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया. किसी राजनेता के राज्यपाल बनने का मतलब आम तौर पर यही मान लिया जाता है कि उसके राजनीतिक करियर पर फुल स्टॉप लग गया. लेकिन गांधी परिवार की वफादारी का इनाम शिंदे को दो साल के भीतर ही मिल गया. उन्हें 2006 में हैदराबाद के राजभवन से लाकर दिल्ली के ऊर्जा मंत्रालय में बैठा दिया गया. यानी शिंदे के बारे में जब-जब यह माना गया कि उनकी सियासी पारी खत्म होने वाली है तब-तब उन्होंने और मजबूत होकर वापसी की और इसकी प्रमुख वजह रही गांधी परिवार के प्रति उनकी वफादारी.

सियासी जानकार यह मान रहे हैं कि शिंदे को गृहमंत्री का पद भी उन्हें गांधी परिवार के प्रति वफादार होने की वजह से ही मिला है न कि उनके प्रदर्शन के आधार पर. जिस दिन शिंदे को गृहमंत्री बनाने की घोषणा हुई, उसी दिन देश ने अब तक का सबसे बड़ा ब्लैकआउट झेला. देश की तीन प्रमुख ग्रिडों के फेल होने से 22 राज्यों के 60 करोड़ से अधिक लोग प्रभावित हुए. जिस मंत्री को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए था उसे सजा देने के बजाय एक तरह से प्रमोशन दे दिया गया. अगर कोई ऊर्जा मंत्रालय के अधिकारियों से बात करे तो पता चलता है कि इस ब्लैक आउट की वजह शिंदे की ढुलमुल कार्यशैली भी थी. केंद्रीय बिजली नियामक आयोग (सीईआरसी) ने जुलाई में ही बताया था कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान नेशनल ग्रिड से अपने कोटे से अधिक बिजली ले रहे हैं. इसके बाद 12 जुलाई को ऊर्जा मंत्रालय ने इन राज्यों को एक पत्र भेजकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली.

अगर ऊर्जा मंत्रालय इन राज्यों के साथ उसी वक्त सख्ती से पेश आता तो यह संभव था कि इतनी बड़ी बिजली कटौती का सामना नहीं करना पड़ता. मंत्रालय द्वारा बनाई गई एक समिति की शुरुआती जांच में यह बात सामने आई है कि आगरा-दिल्ली और आगरा-ग्वालियर के बीच कहीं ओवर लोडिंग होने की वजह से समस्या पैदा हुई. इससे भी यह बात प्रमाणित होती है कि अगर सीईआरसी की रिपोर्ट पर ऊर्जा मंत्रालय ने कार्रवाई की होती तो ब्लैकआउट टल सकता था. उधर, जब बिजली कटौती से लोग बेहाल थे तो शिंदे इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेने के बजाय यह कुतर्क देते हुए दिखे कि अमेरिका में तो चार-चार दिन तक ग्रिड ठीक नहीं होता लेकिन यहां तो चार घंटे में ही सब ठीक हो गया.

बतौर ऊर्जा मंत्री शिंदे की नाकामी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती. जब 2006 में वे ऊर्जा मंत्री बने थे तो उस वक्त उन्होंने कहा था कि सरकार हर  घर का अंधेरा दूर करेगी. इसका मतलब यह हुआ कि शत प्रतिशत बिजलीकरण का लक्ष्य रखा गया. लेकिन इस वादे का हश्र किसी से छिपा हुआ नहीं है. 11वीं पंचवर्षीय योजना में बिजली उत्पादन की क्षमता में 78,000 मेगावॉट की बढ़ोतरी का लक्ष्य था. लेकिन शिंदे के कार्यकाल के दौरान इसमें 53,000 मेगावॉट का ही इजाफा हुआ. अभी देश की बिजली उत्पादन की कुल क्षमता है 1.87 लाख मेगावॉट. लेकिन अब भी पीक आवर में आपूर्ति और मांग के बीच 12 फीसदी का फासला है. शिंदे के कार्यकाल में सरकारी बिजली कंपनियों का हाल और खस्ता हुआ. इसकी गवाही खुद सरकारी आंकड़े दे रहे हैं. सरकारी बिजली कंपनियों पर बैंकों का 12,000 करोड़ रुपय से ज्यादा का कर्ज है.

आर्थिक मामलों का अध्ययन करने वाली संस्था क्रिसिल का अध्ययन बताता है कि 2006-07 से 2009-10 के बीच सरकारी बिजली कंपनियों का घाटा 24 फीसदी बढ़कर 27,500 करोड़ रुपय हो गया. क्रिसिल ने अनुमान लगाया है कि अगर 2011 का घाटा भी इसमें जोड़ दिया जाए तो घाटा बढ़कर 40,000 करोड़ रुपय पर पहुंच जाएगा. बिजली कंपनियां मुख्य तौर पर कोयले और गैस की कमी की समस्या का सामना कर रही हैं. इस वजह से ज्यादातर कंपनियां अपनी क्षमता से काफी कम बिजली उत्पादन कर रही हैं. इस समस्या को दूर करने के लिए शिंदे कुछ नहीं कर पाए. ऊर्जा क्षेत्र में कई तरह के सुधार की बात सालों से चल रही है. लेकिन शिंदे के छह साल के कार्यकाल में न तो सुधारों की गाड़ी आगे बढ़ी और न ही ऊर्जा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर कोई प्रगति हुई.

जानकारों की राय में इसके बावजूद शिंदे को गृहमंत्री बनाया जाना साबित करता है कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व या यों कहें कि गांधी परिवार ने उन्हें यह प्रोन्नति किसी खास रणनीति के तहत दी है. इसमें वफादारी की भूमिका तो अहम है ही, साथ में इस बात को लेकर भी निश्चिंतता है कि शिंदे का कद कभी भी उतना बड़ा नहीं हो सकता कि वे गांधी परिवार को चुनौती देते नजर आंए. कई राजनीतिक जानकार मानते हैं कि प्रणब मुखर्जी को गृहमंत्री नहीं बनाए जाने की असली वजह गांधी परिवार का यही डर थी. ऐसा लगता है कि शिंदे को गृह मंत्रालय में लाकर सोनिया गांधी दलितों को भी एक बार फिर से कांग्रेस के साथ लाने की योजना को आगे बढ़ाना चाहती हैं. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘एक दलित राजनेता को गृहमंत्री बनाकर सोनिया गांधी ने यह राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की है कि कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है जो दलितों का खयाल रखती है. कांग्रेस चाहेगी कि उसे आने वाले चुनावों में इस बात का फायदा मिले.’ वे आगे जोड़ती हैं, ‘दो साल पहले राहुल गांधी ने भी कहा था कि अगर कांग्रेस को अपने बूते केंद्र की सत्ता में आना है तो दलितों को फिर अपने साथ लाना होगा. इसके बाद से ही राहुल का दलितों के घर में जाना और भोजन करना शुरू हुआ था. शिंदे को गृह मंत्रालय में लाए जाने को इससे भी जोड़कर देखना होगा.’

राजनीति को समझने वाला एक वर्ग यह भी मानता है कि सुशील कुमार शिंदे कुछ मामलों में बतौर गृहमंत्री बेहद उपयोगी साबित हो सकते हैं

यहां सवाल यह उठता है कि क्या सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस आलाकमान ने गृह मंत्रालय जैसा अहम और संवेदनशील विभाग शिंदे  के हाथों में दे दिया या फिर वे गृह मंत्रालय संभालने में सक्षम हैं? इस सवाल का जवाब समझने में आसानी हो, इसके लिए जरूरी है कि शिंदे की पृष्ठभूमि से संबंधित कुछ और बातें जान ली जाएं. अगले चार सितंबर को अपनी जिंदगी के 71 साल पूरे करने वाले शिंदे सात बार विधायक रहे हैं. बतौर सांसद यह उनकी तीसरी पारी है. कोल्हापुर के शिवाजी विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई करने वाले शिंदे ने अपने कामकाज की शुरुआत कोर्ट में बतौर क्लर्क 1957 में की. वे इस नौकरी में 1965 तक रहे. इसके बाद वे पुलिस में सब इंस्पेक्टर बन गए. पुलिस की नौकरी के दौरान ही उन्होंने सीआईडी के लिए भी काम किया. छह साल तक पुलिस की नौकरी करने के बाद 1971 में शरद पवार उन्हें राजनीति में लाए.

इसके तीन साल बाद शोलापुर की करमला विधानसभा सीट पर उपचुनाव होना था. इसमें कांग्रेस की ओर से शिंदे को टिकट मिला और वे जीतकर पहली बार विधायक बन गए. इसके बाद उनका राजनीतिक ग्राफ लगातार बढ़ता ही गया. विधायक बनने के कुछ ही महीनों बाद उन्हें महाराष्ट्र की वीपी नायक सरकार में राज्य मंत्री बनाया गया. शिंदे महाराष्ट्र में वित्त, योजना, शहरी विकास, उद्योग और परिवहन मंत्रालय संभाल चुके हैं. उन्होंने रिकॉर्ड नौ बार महाराष्ट्र का बजट पेश किया है. वे दो मर्तबा 1990 और 1996 में महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं. 1992 में उन्हें महाराष्ट्र से राज्य सभा के लिए चुना गया.

शिंदे को राजनीति में आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका शरद पवार की रही. लेकिन पवार के कांग्रेस से अलग होने से पहले से ही शिंदे गांधी परिवार के करीब हो गए थे. जब सोनिया गांधी ने अमेठी से अपना पहला चुनाव लड़ा तो शिंदे को उन्होंने चुनाव एजेंट बनाया था. इससे गांधी परिवार से शिंदे की नजदीकी और बढ़ी. हालांकि, गृहमंत्री बनने के बाद भी एक दिन शिंदे ने यह बयान दिया कि शरद पवार उनके राजनीतिक गुरु हैं. इस बयान को कांग्रेस और शरद पवार के बीच खराब हो रहे रिश्ते को ठीक करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है. जब पिछली बार शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे तो उसी दौरान आदर्श सोसाइटी को जमीन आवंटित की गई थी. 2010 में जब आदर्श घोटाला सामने आया तो उससे शिंदे का भी नाम जुड़ा. इस घोटाले की जांच कर रही समिति के सामने भी शिंदे को पेश होकर अपना पक्ष रखना पड़ा. शिंदे आदर्श सोसाइटी की गड़बड़ियों से पल्ला झाड़ते हुए सारा दोष महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख पर मढ़ते हैं.

शिंदे के साथ काम करने वाले लोग उनकी खूबियों को गिनाते हुए उनकी विनम्रता का उल्लेख सबसे पहले करते हैं. हाल तक शिंदे के सहयोगी के तौर पर काम करने वाले एक अधिकारी कहते हैं, ‘वे बहुत विनम्र हैं. वे सबकी यहां तक कि एक चपरासी की बात भी काफी गंभीरता से सुनते हैं. इसकी एक वजह यह हो सकती है कि उन्होंने खुद कचहरी में चपरासी की नौकरी की है और बाद में पुलिस में बतौर सब इंस्पेक्टर काम किया है. सत्ता और पैसे का मद उनमें नहीं दिखता. इन्हीं योग्यताओं के बूते उन्होंने एक सामान्य चपरासी से लेकर देश के गृहमंत्री तक का सफर तय किया है.’  उनकी तीन बेटियों में एक प्रणिति शिंदे महाराष्ट्र में विधायक हैं. प्रणिति कहती हैं, ‘वे कभी भी नाराज नहीं होते. धैर्य के साथ अपना काम निपटाते हैं. वे हमेशा मुस्कुराते रहते हैं और काफी मेहनत करते हैं.’ प्रणिति से बातचीत में ही यह पता चलता है कि लोक कला और मराठी साहित्य से शिंदे को लगाव है और वे हिंदी व मराठी फिल्मों के पुराने गाने सुनना पसंद करते हैं. विचार वेद के नाम से उन्होंने मराठी में एक किताब भी लिखी है.

लेकिन क्या ये योग्यताएं उन्हें बतौर गृहमंत्री सफल बनाएंगी? ऊर्जा मंत्रालय के उनके कामकाज को देखते हुए कई जानकार आशंकित हैं.  इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) के एक पूर्व प्रमुख कहते हैं, ‘यह बात तो गृह मंत्रालय के अधिकारी भी समझ रहे हैं कि शिंदे को गृहमंत्री क्यों बनाया गया है. उनके पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि चिदंबरम के शुरू किए गए काम को आगे बढ़ाना भी उनके लिए चुनौती साबित होने जा रहा है. उनकी असल परीक्षा नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी), तेलंगाना, माओवाद, कश्मीर और आतंकवाद के मोर्चे पर होने वाली है.’ गृह मंत्रालय में उनके शुरुआती दिनों का कामकाज देखकर मंत्रालय के अधिकारी भी उत्साहित नहीं है. मंत्रालय में उच्चपदस्थ एक  आईएएस अधिकारी बताते हैं, ‘जिस दिन वे गृहमंत्री बने, उसी दिन पुणे में विस्फोट हुआ, लेकिन वैसी तत्परता नहीं दिखी जैसी चिदंबरम के समय दिखती थी. गृह मंत्रालय के कामकाज से शिंदे कितने वाकिफ हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें यह जानकर भी आश्चर्य हुआ कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मॉर्निंग मीटिंग के लिए रोज गृह मंत्रालय आते हैं. कार्यभार संभालने वाले दिन शिंदे ने ढाई घंटे तक अधिकारियों की बैठक ली, लेकिन इसके बावजूद अधिकारी शिंदे की रणनीति नहीं समझ पाए. अधिकारी आपसी बातचीत में इस बैठक को उबाऊ बता रहे थे.’ 

अधिकारियों में यह बात चल रही है कि कहीं फिर से गृह मंत्रालय में वैसा माहौल न बन जाए जैसा शिवराज पाटिल के कार्यकाल के दौरान था. बताते चलें कि चिदंबरम ने गृह मंत्रालय की कार्यशैली में काफी बदलाव किया था. अधिकारी और अन्य कर्मचारी समय पर आएं, इसके लिए उन्होंने बायोमेट्रिक सिस्टम लगवाया था. वे खुद समय से पहले दफ्तर पहुंचते थे.  इस वजह से अन्य अधिकारी भी बिल्कुल समय से मंत्रालय आने लगे. चिदंबरम के कार्यकाल के दौरान तकरीबन दो दर्जन आतंकी योजनाएं पटरी से उतारी गईं. चिदंबरम के कार्यकाल में ही अमेरिका को इस बात के लिए मजबूर होना पड़ा कि वह मुंबई हमले के मुख्य आरोपित डेविड कोलमैन हेडली से भारत को पूछताछ की मंजूरी दे. सऊदी अरब को भी अबु जुंदाल का प्रत्यर्पण करना पड़ा. चिदंबरम के कार्यकाल के दौरान गृह मंत्रालय ने अर्धसैनिक बलों की संख्या 45,000 से बढ़ाकर 1.10 लाख की.

भले ही अधिकारी शिंदे की कार्यशैली को लेकर चिंतित हों लेकिन राजनीति को समझने वाला एक वर्ग मानता है कि शिंदे कुछ मामलों में बतौर गृहमंत्री बेहद उपयोगी साबित हो सकते हैं. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘एनसीटीसी का मामला राज्यों के विरोध की वजह से आगे नहीं बढ़ पाया. कई क्षेत्रीय दलों के नेता मानते हैं कि चिदंबरम थोड़े जिद्दी नेता हैं और कई बार वे अपने फैसले थोपते हैं. लेकिन शिंदे की छवि टकराव से बचने वाले और सबको साथ लेकर चलने वाले नेता की है. शिंदे ने गृह मंत्रालय संभालते ही यह बयान दिया कि वे राज्यों को साथ लेकर चलेंगे. माओवाद के मसले पर भी उन्होंने कहा कि वे बातचीत शुरू करने के लिए हिंसा रोकने की शर्त नहीं रखेंगे. जबकि चिदंबरम इसके उलट सोचते थे. ऐसा लगता है कि शिंदे राज्यों के साथ केंद्र के संबंध सुधारने की एक प्रमुख कड़ी साबित होने की कोशिश करेंगे.’

शिंदे के सहयोगी और देश की राजनीति की बारीक समझ रखने वाले लोग अब यह बात भी कर रहे हैं कि अगर 2014 में किसी तरह फिर से कांग्रेस कमजोर बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आती है तो शिंदे प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं क्योंकि कमजोर बहुमत की स्थिति में संभवतः राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने से परहेज करें. 2014 में शिंदे की उम्र 73 साल होगी और गांधी परिवार उन्हें शीर्ष पद देकर दलितों का हितैषी होने का संदेश देने की कोशिश कर सकता है. नीरजा चौधरी तो यह भी कहती हैं कि संभव है कि चुनाव से पहले ही दलितों का समर्थन पाने के लिए कांग्रेस ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करे कि अगले प्रधानमंत्री शिंदे हो सकते हैं.

अक्षम नहीं असाधारण

शरत गायकवाड़ का बायां हाथ जन्म से ही ऐसा है. एक नई जिंदगी इस रूप में दिखे तो किसी भी मां-बाप का परेशान होना स्वाभाविक है. शरत के माता-पिता भी भाग्या और महादेव राव भी अपवाद नहीं थे. साथ देने को जब बस एक हाथ हो तो साधारण काम भी असाधारण लगने लगता है.  लेकिन साधारणता की हसरत अब बहुत पीछे छूट गई है. आज शरत असाधारण उपलब्धियों के पहाड़ पर बैठे हैं. बंगलुरू में रहने वाला 21 साल का यह तैराक पिछले सात सालों के दौरान 40 राष्ट्रीय और 30 अंतरराष्ट्रीय पदक अपने नाम कर चुका है. उपलब्धियों की इस किताब में एक नया पन्ना जोड़ते हुए शरत ने पैरालिंपिक-2012 के लिए क्वालीफाई किया है. इस मुकाम पर पहुंचने वाले वे पहले भारतीय तैराक हैं.   

जाहिर है हर कोई उनकी इस प्रेरणादायी यात्रा के बारे में जानना चाहता है. वे बताते हैं कि इसमें उनके दृढ़ संकल्प और उन सभी लोगों का हाथ है जिन्होंने समय-समय पर उनका हौसला बढ़ाया. अपनी मां के बारे में बात करते हुए उनके चेहरे पर मुसकान आ जाती है. शरत कहते हैं, ‘शुरूआती दौर में मैं जब भी पदक जीतता तब मां मेरी पसंद का खाना बनाती थीं. लेकिन मुझे लगता है कि अब तो यह सब उनके लिए सामान्य बात हो गई है.’ 

शरत ने पहली बार राष्ट्रीय खेलों में 2003 में भाग लिया था. वे तब सिर्फ 12 साल के थे. इस आयोजन के दौरान उनकी झोली में चार स्वर्ण पदक आए. आज भी उन्हें याद है कि जैसे-जैसे इस आयोजन का वक्त पास आता जा रहा था तो उन्हें बड़ी घबराहट हो रही थी. वे बताते हैं,  ‘लेकिन एक बार पानी में क्या उतरा कि सारी घबराहट छूमंतर हो गई.’ शरत को सहजता से तैरते हुए देखकर कोई भी पल भर के लिए यह भूल सकता है कि तैराकी के लिए पूरी तरह संतुलित एक शरीर बहुत जरूरी है. तैरने के क्रम में दोनों बाजुओं का इस्तेमाल पानी को काटने के लिए और पैरों का उपयोग शरीर को आगे धकेलने में किया जाता है.    

‘मेरा मुकाबला मुझ जैसे किसी खिलाड़ी से नहीं है. न ही मैं दो बाजुओं वाले किसी तैराक से होड़ लेना चाहता हूं. मैं तो अपनी ही उपलब्धियां पीछे छोड़ना चाहता हूं’

विकलांग बच्चों में भविष्य को लेकर डर मां-बाप से प्यार कम मिलने की वजह से पैदा नहीं होता है. यह डर पैदा होता है दूसरों को देखकर खुद को कम समझने के बाद. अच्छी बात यह रही कि माता-पिता से लेकर लिटिल फ्लॉवर पब्लिक स्कूल के उनके शिक्षकों तक सबने उनका हौसला बढ़ाया. सबने कहा कि जो सब कर सकते हैं वह तुम भी कर सकते हो . थोड़ी सी आशंकाएं तभी पैदा हुईं जब शरत को नौ साल की उम्र में ही तैराकी के अभ्यास में भी शामिल कर लिया गया. उनके पिता महादेव राव को एक बार लगा था कि शिक्षकों से इस बारे में बात की जाए. शरत की मां भाग्या उस समय को याद करते हुए कहती हैं, ‘मेरे पति बेटे के स्कूल प्रिंसिपल के पास गए और उनसे कहा कि वे शरत का ख्याल रखें. दरअसल उनके मन में बेटे के डूब जाने का खतरा पैदा हो गया था. लेकिन प्रिंसिपल ने जोर देते हुए कहा था कि जब वह हरेक गतिविधियों में क्लास के अन्य बच्चों की बराबरी कर रहा है तब उसे तैराकी  से अलग रखने का कोई मतलब नहीं. उन्होंने कहा कि उसका विशेष ख्याल रखने से कहीं वह दूसरे बच्चों से अलग-थलग न पड़ जाए. प्रिंसिपल ने शरत के पिता को यह समझाया कि कोच उसका दूसरे बच्चों की तरह ही ख्याल रखेंगे. कोच को यह अच्छी तरह पता है कि वे क्या कर रहे हैं.’ 

एक ही बाजू का मतलब शरत के लिए यह था कि उन्हें दो हाथ और दो पांव वाले एक सामान्य आदमी की तरह संतुलन स्थापित करना सीखना होगा. कंधों, पांव और भीतरी तौर पर खुद को मजबूत बनाना होगा. पिछले सात सालों से शरत के कोच 41 वर्षीय जॉन क्रिस्टोफर बताते हैं, ‘यह एक चप्पू से नाव खेने जैसा है. अगर शरत ने अतिरिक्त ताकत विकसित नहीं की होती तो वे आगे नहीं बढ़ सकते थे. इसकी बजाय वे एक ही जगह पर गोल-गोल घूमते रहते.’ 

शरत अपने कोच को ‘जॉन सर’ कहकर बुलाते हैं. जॉन की नजर शरत पर पहली बार 2003 में लिटिल फ्लॉवर स्कूल के प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान पड़ी थी और उन्हें यह लग गया था कि इस लड़के को एक पेशेवर खिलाड़ी के तौर पर तैयार किया जा सकता है. लेकिन जॉन ने इससे पहले ऐसे किसी खिलाड़ी को प्रशिक्षित नहीं किया था. इसका मतलब यह नहीं है कि शरत ने इस वजह से ट्रेनिंग में कोई रियायत ली हो.     

तैराकी सीखने के दौरान आई समस्याओं को याद करते हुए शरत कहते हैं कि एक नौ साल के बच्चे को अक्षम और विशेष रूप से सक्षम लोगों के बीच भेद करना सीखना था. वे कहते हैं, ‘वे दिन घोर निराशाओं से भरे होते थे. दोस्त मुझ पर कमेंट पास करते थे और हंसते थे. मैं ज्यादातर समय अपने दोनों हाथ होने की दुआ करता था. लेकिन इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता था. शरत थोड़ा गंभीर होते हुए कहते हैं, ‘शरीर को प्रशिक्षण देने से पूर्व अपने मन को प्रशिक्षित करने की जरूरत होती है. आपको अपनी कमियों की ओर देखना बंद करना होता है.’ शरत ने ऐसा ही किया और अब उनके मन में हठ समा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वे ऊंचे से ऊंचे मुकाम तक पहुंचेगे.  

 वर्ष 2010 में हुए एशियाई पैरा खेलों के आयोजन में शरत ने कांस्य पदक जीता और वे पैरालिंपिक खेलों के लिए क्वालीफाई भी कर गए. लेकिन उसके बाद कंधों की चोट की वजह से उनके प्रदर्शन में दो सेकेंड की गिरावट आई. लंदन में आयोजित होने वाले पैरालिंपिक में अपना प्रदर्शन ठीक करने के लिए वे हर रोज पांच घंटे से भी ज्यादा मेहनत कर रहे हैं. पसंदीदा जंक फूड से भी उन्होंने तौबा कर ली है और घर का बना खाना खा रहे हैं. लड़कियों की बात उनसे पूछने पर वे थोड़ा शरमाते हैं और फिर कहते हैं कि लड़कियां उन्हें बहुत भाव देती हैं लेकिन इन चक्करों में पड़ने से उनका ध्यान बंट जाएगा. वे कहते हैं, ‘मेरे जीवन का एक और एकमात्र उद्देश्य पैरालिंपिक खेलों में पदक हासिल करना है.’

शरत ने अपने कमरे में बचपन के हीरो सचिन तेंदुलकर और इयान थोर्प की तस्वीर लटका रखी है. ऐसे कोई स्टार आपके रोल मॉडल नहीं हैं जो आपकी तरह विशेष रूप से सक्षम हों, इस सवाल पर शरत पहले एक गहरी सांस लेते हैं और फिर कहते हैं,’मुझे लगता है कि मीडिया ने कभी भी हम जैसे खिलाड़ियों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी है. शायद यही वजह है कि मैंने ऐसे खिलाड़ियों के बारे में कभी नहीं सुना.  मैं भी थोर्प और तेंदुलकर जैसा खिलाड़ी बनना चाहता हूं जिनका मुकाबला हमेशा अपने आप से होता है. मेरा मुकाबला मुझ जैसे किसी दूसरे खिलाड़ी से नहीं है. न ही मैं दो बाजुओं वाले किसी तैराक से होड़ लेना चाहता हूं. मैं तो अपनी ही उपलब्धियां पीछे छोड़ना चाहता हूं.’ क्रिस्टोफर को वह दिन याद है जब वे शरत को ओलंपियन बनाने का निश्चय लिए उनके माता-पिता से मिले थे.  वे बताते हैं, ‘मैंने उनसे कहा कि यह लड़का विकलांगता नहीं बल्कि काबिलियत लेकर जन्मा है. अब आप इस चीज के लिए मानसिक रूप से तैयार न हों कि आप इसे कैसे पालेंगे. तैयारी उन उपलब्धियों के लिए कीजिए जो यह अब हासिल करने वाला है. ’

‘पुलिस मुझे ऑटो में थाने ले गई और किराया भी मुझे ही देना पड़ा’

जिंदगी में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई मुसीबत बिना कोई चेतावनी दिए अचानक ही आ धमकती है और आप बिल्कुल ही असहाय-से हो जाते हैं. मेरे साथ भी एक दफा ऐसा हुआ था. यह करीब एक दशक पहले की बात है. तब मैं मुंबई में था. उस दिन मैं ऑफिस से घर आया ही था. दिन बहुत व्यस्त रहा था. ऊपर से घर लौटने के लिए अंधेरी से मलाड के लिए ट्रेन पकड़ी तो उसमें तिल तक रखने की जगह नहीं थी. इसलिए जब घर पहुंचा तो थोड़ी राहत-सी महसूस हुई. उस वक्त घर पर सन्नाटा था. मेरा रूम पार्टनर संदीप ऑफिस से नहीं लौटा था. मुझे बहुत भूख लग रही थी, इसलिए मैंने गैस चूल्हे पर अंडे उबलने के लिए रख दिए और नहाने की तैयारी करने लगा.

तभी घर की घंटी बजी. दरवाजे पर संदीप होगा यह सोचकर मैंने कुंडी खोल दी. लेकिन दरवाजा खुलते ही कई लोग जबरदस्ती घर में घुस आए. धक्का-मुक्की करते हुए एक आदमी ने मुझे दबोच लिया और बाकी लोगों ने घर की तलाशी लेनी शुरू कर दी. उनमें से एक रसोई घर से अंडे की केतली लिए बाहर निकला और उसे फर्श पर पटकते हुए मुझसे पूछा, ‘इसमें क्या है?’ मैंने कहा, ‘अंडे.’ उसने दूसरा सवाल दागा, ‘किसलिए?’ मैंने कहा, ‘खाने के लिए.’

बड़ी ही अजीब स्थिति पैदा हो गई थी. वे अंडों को बहुत सावधानीपूर्वक सूंघ रहे थे. उन्होंने एक अंडा फोड़ भी दिया जो अभी कच्चा ही था.  मुझे जिस आदमी ने पकड़ रखा था उसकी तरफ गर्दन घुमाते हुए मैंने पूछा, ‘क्या हो रहा है यह सब?’ रूखे अंदाज में जवाब देते हुए उसने कहा, ‘मैं तुम्हारे घर की तलाशी ले रहा हूं.’ थोड़ी हिम्मत करते हुए मैंने दूसरा सवाल दागा, ‘क्यों?’ उसने फिर कहा, ‘मैं बम ढूंढ़ रहा हूं.’ मैंने पूछा, ‘कौन हो तुम लोग?’ उसने चिढ़ते हुए कहा, ‘पुलिस, क्या तुम्हें दिख नहीं रहा.’

कई पड़ोसियों से मेरी हाय-हैलो होती ही रहती थी. लेकिन इस संकट के समय उन सभी ने बिल्कुल ही उदासनीता ओढ़ रखी थी

मुझे कैसे दिखता? उनमें से किसी ने भी खाकी वर्दी नहीं पहनी हुई थी. उनके मुंह से शराब का भभका भी उठ रहा था. इस बीच मेरे फ्लैट के बाहर भीड़ इकट्ठी हो गई थी. सोसाइटी के एसोसिएशन के अध्यक्ष भी उस भीड़ में मूक दर्शक की तरह खड़े थे. मैंने उन्हें सुनाते हुए थोड़ी ऊंची आवाज में कहा, ‘क्या हो रहा है महाशय?’ उन्होंने मुझे सूचना देने वाली शैली में कहा, ‘दोपहर में आपके घर में एक विस्फोट हुआ था.’ लगभग चौंकते हुए मैंने कहा, ‘विस्फोट? यहां?’ मैंने घर के अंदर सरसरी निगाह से देखा. वहां मुझे ऐसा कुछ भी नहीं दिखा. इसी बीच एक पुलिस अधिकारी ने घोषणा करने के अंदाज में कहा, ‘कुछ भी नहीं है यहां.’ सभी घर से बाहर निकल आए.

पुलिस अधिकारी ने अपनी गिरफ्त ढीली की और आदेश देते हुए कहा, ‘तुम्हें मेरे साथ पुलिस स्टेशन चलना होगा.’ मैंने साहस दिखाते हुए कहा, ‘किसलिए? इस बिल्डिंग में मुझे हर कोई जानता है.’ पड़ोसी मेरी ओर  लाचारी से देख रहे थे. पुलिसवालों में से एक ने मुझसे कहा, ‘तुम्हारे किसी पड़ोसी ने ही तुम्हारी शिकायत दर्ज कराई है.’ मैं कई पड़ोसियों को जानता था. उनसे मेरी मेरी हाय-हैलो होती रहती थी. लेकिन इस संकट के समय उन्होंने उदासीनता ओढ़ रखी थी. मैं भौचक रह गया.

फिर मुझे लगा कि क्यों न पुलिस को ही समझाने की कोशिश की जाए. मैंने उन्हें बताया कि मैं दूरदर्शन पर एक बहुत लोकप्रिय कार्यक्रम का निर्देशक हूं. लेकिन पुलिस वाले किसी भी सूरत में पिघलने को तैयार नहीं थे. उसने सवाल किया, ‘लेकिन जो विस्फोट हुआ उसका क्या ?’ मैंने जवाब दिया, ‘इस बारे में मुझे कुछ भी नहीं पता. दोपहर में तो मैं घर पर भी नहीं था.’ उसने छूटते ही पूछा, ‘तुम्हारा रूममेट कहां है?’ मैंने बताया, ‘वह ऑफिस में होगा. वह चैनल वी के लिए काम करता है.’ पुलिसवाले ने फैसला देते हुए कहा, ‘रूममेट के आने तक तुम्हें पुलिस स्टेशन में इंतजार करना होगा.’

उन्होंने मुझे ऑटो में पटका और पुलिस स्टेशन ले गए. ऑटो का किराया मुझे ही देना पड़ा. उस जमाने में मोबाइल का चलन नहीं था. उन्होंने मुझे लैंडलाइन से फोन करने की इजाजत भी नहीं दी. संदीप और उसकी एक महिला पत्रकार मित्र के वहां आने में दो घंटे से ज्यादा का समय लग गया. ऑफिस से फ्लैट पर लौटते ही संदीप को पड़ोसियों ने मेरी दुर्दशा के बारे में सूचना दी थी. महिला पत्रकार ने थाने में कदम रखते ही पुलिस अधिकारी पर चिल्लाना शुरू कर दिया. मैंने उसे चुप रहने की सलाह दी क्योंकि मुझे यह लग रहा था कि कहीं पुलिसवाले मुझे सलाखों के पीछे न डाल दें. लेकिन वह तो जैसे पुलिसवालों पर फट पड़ने को तैयार थी. मुझे वहां लाने वालों के मुंह पर जैसे ताला जड़ गया था. उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे थाने से बाहर ले गई. थाने से घर लौटते हुए संदीप ने मुझे बताया कि वह धमाका डियोड्रेंट की बोतल फटने से हुआ था और उससे खिड़की का एक शीशा भी चटक गया था.  मैंने इस घटना से कुछ बातें सीखीं. एक, अगर आपको पुलिसवाले पकड़ कर ले जाएं तो थाने जाने का खर्च देने को तैयार रहें. दो, महिला पत्रकारों की ताकत को कम करके न आंकें और तीन, दुआ करें कि आपको अच्छे पड़ोसी मिलें.