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कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ

कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामले आए दिन समाचार माध्यमों में दिखते रहते हैं. इसके खिलाफ अलग से एक कानून बनाने का काम पिछले कुछ साल से चल रहा है. 2010 में प्रोटेक्शन ऑफ वूमन अगेंस्ट सेक्सुअल हरासमेंट एट वर्कप्लेस बिल का मसौदा तैयार किया गया था. संसद के चालू सत्र में इसके संशोधित मसौदे को संसद में पेश करके पारित करवाने की योजना है,  लेकिन यह योजना कोयला ब्लॉक आवंटन पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच उभरे गतिरोध की वजह से टल रही है.

इस विधेयक के पहले मसौदे को संसद में 7 दिसंबर, 2010 को पेश किया गया था. इसके बाद इसे 30 दिसंबर, 2010 को स्थायी संसदीय समिति के पास भेजा गया. समिति ने संसद को इस विधेयक का मसौदा अपने सुझावों के साथ 8 दिसंबर, 2011 को लौटाया. इस प्रस्तावित कानून का जब शुरुआती मसौदा जारी हुआ था तो कई लोगों ने इसकी कमियों की वजह से इस पर आपत्ति जताई थी. सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि सरकार इस कानून के तहत उन महिलाओं या लड़कियों को शामिल नहीं कर रही थी जो घरेलू नौकरानी की तरह काम करती हैं. लेकिन जब हर तरफ से दबाव बढ़ा तो सरकार इन्हें भी प्रस्तावित कानून के दायरे में लाने के लिए तैयार हो गई.

  • कानून का मसौदा 2010 में संसद में पेश हुआ था
  • कानून से महिलाओं की कामकाजी परिस्थितियों में सुधार होगा
  • संसद में गतिरोध के चलते बिल लटका हुआ है

विशाखा के मामले में 15 साल पहले उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया फैसला इस कानून की जड़ में है. उस फैसले में न सिर्फ विशाखा के आरोपों को सही माना गया था बल्कि उच्चतम न्यायालय ने यौन उत्पीड़न से कामकाजी महिलाओं के बचाव के लिए कई निर्देश भी जारी किए थे. अभी इन्हीं दिशानिर्देशों के आधार पर महिलाओं की कामकाजी परिस्थितियों संबंधी शिकायतों की सुनवाई होती है. पिछले पंद्रह साल में कामकाजी महिलाओं की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है. इसलिए नए कानून को बहुत जरूरी माना जा रहा है. कई बार कामकाजी महिलाओं पर ऐसी शर्तें थोपी जाती हैं कि उनके लिए काम करना मुश्किल हो जाता है. जैसे कि हरियाणा के पूर्व गृह राज्य मंत्री रहे गोपाल कांडा की कंपनी में काम करने वाली गीतिका के अनुबंध में यह शर्त डाली गई थी कि हर शाम उसे कांडा को दिन भर के काम की रिपोर्ट देनी है.

प्रस्तावित कानून में यह प्रावधान है कि नियोक्ता को अनिवार्य तौर पर महिलाओं के लिए ऐसी कामकाजी परिस्थितियां सुनिश्चित करनी होंगी जिसमें उनके यौन उत्पीड़न का जोखिम नहीं हो. अगर कोई नियोक्ता ऐसा नहीं करता तो उसे सजा देने का प्रावधान किया गया है. हालांकि, जानकार प्रस्तावित कानून की एक बड़ी खामी की ओर भी इशारा करते हैं. प्रस्तावित कानून के मसौदे में कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की चर्चा नहीं की गई है. उम्मीद है कि जब संशोधित मसौदा संसद में पेश होगा तो इस खामी को दूर करने की कोशिश होगी.

हिमांशु शेखर

नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया

भारत में शीर्ष राजनेताओं के फिल्म कलाकारों से संबंध कभी अजूबा नहीं रहे. इसकी सबसे बड़ी मिसाल पंडित नेहरू के राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद के साथ मित्रवत संबंधों में देखी जा सकती है. लेकिन उस दौर में कोई भी जाना-माना फिल्म कलाकार सक्रिय राजनीति में भागीदारी नहीं करता था. न ही राजनेता अपनी जनसभाओं के लिए ही फिल्म कलाकारों को बुलाते थे. इसके विपरीत दक्षिण भारत में एमजी रामचंद्रन और एनटी रामाराव जैसे दिग्गज कलाकार थे जो न सिर्फ सक्रिय राजनीति में आए बल्कि मुख्यमंत्री भी बने.

हिंदी फिल्म कलाकारों के राजनीति से जुड़ाव की शुरुआत अस्सी के दशक से मानी जाती है. इसकी पृष्ठभूमि में 1975 के आपातकाल की काफी महत्वपूर्ण भूमिका रही. उस दौरान फिल्म उद्योग के एक तबके ने इसका बड़ा जबर्दस्त विरोध किया था. देव आनंद इन फिल्म कलाकारों में सबसे आगे थे. आपातकाल जब खत्म हुआ तब उन्होंने संजीव कुमार सहित फिल्म उद्योग के कुछ और दिग्गज लोगों के साथ एक राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा कर दी. नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया (एनपीआई) नाम से बनी इस पार्टी के पहले अध्यक्ष खुद देव आनंद चुने गए. 1977 में जब इस राजनीतिक पार्टी की पहली रैली मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई तो आम लोगों सहित मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी यहां जुटी भीड़ को देखकर हैरान थीं. इस रैली में फिल्म अभिनेता देव आनंद, संजीव कुमार सहित प्रसिद्ध निर्माता एफसी मेहरा और जीपी सिप्पी (शोले) शामिल थे. यह पहला मौका था जब हिंदी फिल्म उद्योग से जुड़ी हस्तियां राजनीति की बात कर रही थीं और उनको सुनने के लिए भारी भीड़ जमा थी. हालांकि इन लोगों में से किसी व्यक्ति को राजनीति का पूर्व अनुभव नहीं था, इसलिए जब लोकसभा चुनावों के लिए उम्मीदवार तय करने की बारी आई तो पार्टी यह काम नहीं कर पाई. इसके कुछ महीनों बाद देव आनंद ने इस पार्टी को भंग करने की घोषणा कर दी.

एनपीआई से जुड़े कलाकारों में से किसी ने बाद में सक्रिय राजनीति में कदम नहीं रखा, लेकिन इसका गठन बाकी राजनीतिक पार्टियों के लिए एक सबक साबित हुआ. पार्टियों को एहसास हो गया कि राजनीतिक मुद्दों पर भी फिल्म कलाकार भीड़ जुटा सकते हैं. इसी के बाद कांग्रेस ने प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री नरगिस दत्त को राज्यसभा में भेजा था और सुनील दत्त को टिकट देकर लोकसभा का चुनाव लड़वाया था.

-पवन वर्मा

आरक्षण कथा, अध्याय घ

सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण के मसले पर हाल ही में एक सर्वदलीय बैठक हुई. मीडिया ने बताया कि सपा को छोड़कर सभी दल मानते हैं कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए ऐसा आरक्षण होना चाहिए और इसके लिए जल्द ही संविधान संशोधन लाया जाएगा.

मगर अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए प्रोन्नतियों में आरक्षण का प्रावधान संविधान में कई संशोधनों के चलते पहले से ही है. बस सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने के लिए 2006 में दिए अपने निर्णय के माध्यम से कुछ शर्तें रखी हैं. इनमें से एक है कि इस बात का समुचित आकलन हो कि एससी और एसटी का प्रतिनिधित्व जहां आरक्षण दिया जा रहा है वहां बहुत कम है. और इसमें प्रशासनिक कार्यकुशलता का भी ध्यान रखा जाए. इन्हीं शर्तों का ध्यान न रखने के लिए कोर्ट ने मायावती द्वारा राज्य की नौकरियों में लाए गए आरक्षण के प्रावधान को खारिज कर दिया था. अब सभी पार्टियां मिलकर कुछ ऐसा करने की जुगत भिड़ा रही हैं जिससे कि बिना किसी जवाबदेही और न्यायिक हस्तक्षेप के वे जहां चाहें दलितों-आदिवासियों के लिए प्रोन्नतियों में आरक्षण का कायदा बना सकें.

प्रोन्नतियों में आरक्षण के समर्थन में जो लोग हैं उनका तर्क है कि शीर्ष पदों पर दलितों और आदिवासियों की संख्या न के बराबर है इसलिए ऐसा किया जाना जरूरी है. मगर इसकी एक वजह यह भी है कि उनकी तमाम सरकारी नौकरियों में प्रवेश की ऊपरी आयु सीमा सामान्य आयु सीमा से थोड़ी ज्यादा होती है. इस वजह से नौकरी की शुरुआत में सामान्य और आरक्षित उम्मीदवारों के बीच 5-6 साल की आयु का अंतर आ जाता है. उधर इस तरह के आरक्षण के कई विरोधी शिक्षा और नौकरियों में प्रवेश के लिए तो आरक्षण को जरूरी मान लेते हैं लेकिन प्रोन्नतियों में आरक्षण को वे संस्थान के क्षरण, उसकी कार्यकुशलता में कमी आने से लेकर उसमें स्थायी बंटवारे की स्थितियां उत्पन्न हो जाने तक से जोड़ते हैं.

हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान डाले थे जिनके आधार पर, भविष्य के राजनेता पिछड़े समुदायों को आगे लाने की व्यवस्था निर्मित कर सकते थे. मगर कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर मामलों में इसके लिए राजनीति को आधार बनाकर आसान रास्तों का ही चुनाव किया गया. उदाहरण के तौर पर अन्य पिछड़ा वर्ग को पहले केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण दिया गया, फिर करीब 17 साल बाद उच्च शिक्षा में और उसके बाद शिक्षा के अधिकार के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा की तरफ जरूरी ध्यान दिया गया. हमने नीचे की सीढ़ियां तैयार नहीं कीं और लोगों से सीधे ऊपर के डंडे पर चढ़ने के लिए कहने लगे. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देवीलाल की चुनौती से निपटने के लिए मंडल आयोग की रपट को आधा लागू कर दिया तो अर्जुन सिंह ने अपने ढलते राजनीतिक करियर को पिछड़ों के लिए उच्च शिक्षा में आरक्षण की बैसाखी का सहारा देने की कोशिश की. अब कई राजनीतिक दल प्रोन्नतियों में आरक्षण को 2014 के लोकसभा चुनाव के चश्मे से देखने की कोशिश कर रहे हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि दलितों और आदिवासियों को आज भी सकारात्मक भेदभाव की बेहद आवश्यकता है. पर इसके लिए कुछ दूसरे नए और प्रभावी उपाय भी तो खोजे जा सकते हैं. और जहां प्रोन्नतियों में ऐसा किए जाने की सचमुच आवश्यकता है वहां तो सुप्रीम कोर्ट भी सरकारों को ऐसा करने से नहीं रोकता.

अंतत:…

नवंबर, 2007 के दौरान गुजरात दंगों पर की गई तहलका की पड़ताल की पुष्टि करते हुए अहमदाबाद की विशेष अदालत ने नरोदा पाटिया में हुए जनसंहार के लिए 32 लोगों को दोषी करार दिया. सजा पाए लोगों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नेता और नरोदा की तत्कालीन विधायक माया कोडनानी के साथ-साथ बजरंग दल का बाबू बजरंगी भी शामिल है. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुकी कोडनानी गुजरात दंगों में अपराधी घोषित होने वाली पहली भाजपा नेता हैं. उन्हें और बाबू बजरंगी को भारतीय दंड संहिता की धारा 120 (बी) (आपराधिक षड्यंत्र) और 302 (हत्या) के तहत दोषी ठहराया गया है. इसी मामले में अदालत ने 29 अन्य अभियुक्तों को बरी कर दिया है.

पहली बार तहलका के संवाददाता आशीष खेतान ने अपनी पड़ताल के दौरान बाबू बजरंगी और माया कोडनानी का पर्दाफाश किया था. उनके खुफिया कैमरे पर बाबू बजरंगी ने खुद माया कोडनानी के साथ मिलकर नरोदा पाटिया हत्याकांड की योजना बनाना स्वीकार किया था (अगला पन्ना देखें). तहलका के कैमरे पर बजरंगी का कहना था कि गोधरा में ट्रेन को जलता देखकर वह नरोदा वापस आया और उसी रात हत्याकांड की योजना बनाई. 27 फरवरी की रात ही उसने  29 -30 लोगों की एक टीम को संगठित किया और सैकड़ो मुसलिम परिवारों को मौत के हवाले कर दिया.

सुरेश रिचर्ड और प्रकाश राठौड़ नामक बाबू बजरंगी की ‘टीम’ के दो सदस्यों ने तहलका के सामने कैमरे पर यह स्वीकार किया था कि कोडनानी सारा दिन नरोदा में गाड़ी लेकर घूमती रहीं और लोगों को मुसलमानों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर उनकी हत्या करने के लिए उकसाती रहीं.  मामले की पड़ताल के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच टीम (एसआईटी) ने तहलका की पड़ताल से जुड़े सभी वीडियो टेपों को विशेष अदालत में सबूत के तौर पर पेश किया था. आशीष खेतान भी गवाही और जिरह के लिए 4 दिन तक अदालत में मौजूद रहे.

2002 के गुजरात दंगों के दौरान दंगाइयों ने अहमदाबाद के नरोदा पाटिया नामक इलाके में अल्पसंख्यक समुदाय के 97 लोगों की हत्या कर दी थी. इसके अलावा गोधरा हत्याकांड के ठीक अगले दिन, 28 फरवरी 2002 को हुए इस नरसंहार में 33 लोग गंभीर रूप से घायल भी हुए थे. रिहायशी इलाकों में हुई आगजनी की वजह से 800 मुसलिम परिवार बेघर हो गए थे. शुरूआती जांच के बाद गुजरात पुलिस ने 46 लोगों को गिरफ्तार किया, मगर 2008 में मामला सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त की गई ‘विशेष जांच टीम’ के हवाले कर दिया गया. इसके बाद 24 और लोगों को गिरफ्तार किया गया. चार्जशीट दाखिल होने से पहले ही कुल 70 आरोपितों में से छह की मृत्यु हो गयी थी और दो फरार घोषित कर दिए गए.

अगस्त 2009 में विशेष जांच टीम द्वारा कुल 62 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होते ही विशेष अदालत में मुकदमा शुरू हुआ. मुकदमे के दौरान इन 62 लोगों में से एक आरोपित की मृत्यु हो गई. लगभग 327 गवाहों के बयानों और तमाम सबूतों को संज्ञान में लेने के बाद अदालत ने 29 अगस्त, 2012 को अपना फैसला सुनाया. एक दशक पुराने नरोदा पाटिया जनसंहार को गुजरात दंगो के दौरान हुआ सबसे वीभत्स नरसंहार माना जाता है. 

बाबू बजरंगी …मुसलमानों को मारने के बाद मुझे महाराणा प्रताप जैसा महसूस हुआ.  मुझे अगर फांसी भी दे दी जाए तो मुझे परवाह नहीं. बस मुझे फांसी के दो दिन पहले छोड़ दिया जाए. मै सीधे जुहापुरा (अहमदाबाद का एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र) जाऊंगा जहां इनके 7-8 लाख लोग रहते हैं. मैं इन सबको खत्म कर दूंगा. इनके और लोगों को मरना चाहिए. कम से कम 25 -50 हजार लोगों को तो मरना ही चाहिए… जब मैंने साबरमती में हमारी लाशें देखीं, हमने उन्हें उसी वक्त चैलेंज कर दिया था कि इससे चार गुना लाश हम पटिया में गिरा देंगे. उसी रात आकर हमने हमले की तैयारी शुरू कर दी थी. हिंदुओं से 23 बंदूकें ली गईं. जो भी देने से मना करता, हमने उसे कह दिया था कि अगले दिन उसे भी मार दूंगा, भले ही वो हिंदू हो. एक पेट्रोल पंप वाले ने हमें तेल भी मुफ्त में दिया. और हमने उन्हें जलाया…’

बाबू बजरंगी, तहलका के खुफिया कैमरे पर

 

 

 

सुरेश रिचर्ड ‘…जब उन्होंने सुबह 10 बजे हमारे पहले हमले का जवाब दिया तो हमने छर्रों (बंजारा जनजाति) को बुलाया. फिर सुबह 10.30 बजे के हमलों में कई छर्रे हमारे जुलूस में शामिल हुए. उन्होंने नरोदा पाटिया की नूरानी मस्जिद को जला दिया. तेल का एक टैंकर मस्जिद में घुसा दिया था. फिर आग लगा दी. उसी तेल का इस्तेमाल और दूसरे मुसलमानों को जलाने के लिए भी किया. देखो, जब भूखे लोग घुसते हैं तो कोई न कोई तो फल खाएगा न. ऐसे भी फल को कुचल के फेंक देंगे. मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं, माता मेरे सामने हैं. कई मुसलिम लड़कियों को मार कर जला दिया गया. तो कई लोगों ने फल भी खाए ही होंगे. मैंने भी खाया था, एक बार. लेकिन सिर्फ एक बार, क्योंकि उसके बाद हमें फिर से मारने जाना पड़ा…’  

 सुरेश रिचर्ड, तहलका के खुफिया कैमरे पर

 

 

 

 

‘…मायाबेन (तत्कालीन स्थानीय एमएलए) दिन भर नरोदा पाटिया की सड़कों पर घूमती रहीं. वो चिल्ला-चिल्ला कर दंगाइयों को उकसा रही थीं और कह रही थीं कि मुसलमानों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारो…’

प्रकाश राठोड़ , तहलका के खुफिया कैमरे पर

 

 

पी चिदंबरम को राहत

चिदंबरम पर क्या आरोप थे?

जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी और गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन ने 2जी मामले में दो अलग याचिकाएं दायर कर रखी थीं. याचिकाकर्ताओं की अदालत से मांग थी कि 2जी घोटाले में तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम को भी आरोपित बनाया जाए क्योंकि जिस समय 2जी स्पेक्ट्रम का आवंटन हुआ था उस समय वित्त मंत्रालय पी चिदंबरम के पास था. उस दौरान दूरसंचार विभाग और वित्त मंत्रालय के बीच कई बार पत्राचार भी हुआ था. इससे पहले चार फरवरी को सीबीआई की विशेष अदालत ने भी इस संबंध में दोनों याचिकाकर्ताओं की याचिका खारिज कर दी थी.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश क्या है?

24 अगस्त को आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला पी चिदंबरम के पक्ष में था. कोर्ट ने पाया कि प्रथम दृष्टया इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं है कि वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने अपने पद का दुरुपयोग किया और तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा के साथ 2जी घोटाले में सांठ-गांठ की. कोर्ट ने पी चिदंबरम पर लगे सभी आरोपों को खारिज करते हुए दोनों याचिकाएं निरस्त कर दीं. याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत किए गए दस्तावेजों की पड़ताल करने के बाद कोर्ट ने कहा, ‘सिर्फ इस आधार पर पी चिदंबरम और ए राजा के आपराधिक षड्यंत्र में शामिल होने का दोष नहीं लगाया जा सकता कि वित्त मंत्रालय और दूरसंचार विभाग के अधिकारियों के बीच आधिकारिक बातचीत हुई थी या दोनों नेताओं की आपस में बात हुई थी.’ कोर्ट ने यह भी कहा कि इस बात का भी कोई सबूत नहीं है कि पी चिदंबरम ने अपने पद का दुरुपयोग कर खुद को या किसी अन्य व्यक्ति को किसी तरह का आर्थिक फायदा पहुंचाया हो.  

फैसले के राजनीतिक परिणाम क्या हैं?

कोर्ट का यह फैसला भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यूपीए सरकार के लिए संजीवनी की तरह है. चिदंबरम के आरोपित बनाए जाने की सूरत में 2जी घोटाले के तार सीधे कांग्रेस से जुड़ जाते. चिदंबरम के लिहाज से भी यह फैसला खुशी का सबब है, लेकिन अब भी मामला संयुक्त संसदीय समिति में है जहां उनके लिए एक बार फिर मुसीबत खड़ी हो सकती है. अभी पुनर्विचार याचिका का विकल्प भी खुला है.

मीडिया मजूरी

बात साल 2005 की सर्दियों की है. एक महिला पत्रकार अपनी मॉर्निंग शिफ्ट के लिए तड़के पांच बजे नोएडा स्थित एक समाचार चैनल के दफ्तर पहुंची थीं. पता नहीं क्यों उनका इलेक्ट्रॉनिक कार्ड काम ही नहीं कर रहा था. इसके बिना कड़कड़ाती ठंड में गेट पर मौजूद चौकीदार उन्हें अंदर ही नहीं जाने दे रहे थे. पूछताछ करने पर पता चला कि उन्हें बर्खास्त कर दिया गया है. उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वे वापस अपने घर जा सकें. दुख इस बात का तो था कि नौकरी गई मगर जिस तरह से ऐसा किया गया था वह बेहद अपमानजनक था. किसी तरह उन्होंने अपने एक सहयोगी से संपर्क साधा जिसने उन्हें घर जाने के लिए पैसे दिए. आज वे एक न्यूज चैनल में वरिष्ठ एंकर हैं. ढाई हजार महीने की नौकरी में इस तरह के दुर्दिन महीने के आखिरी पंद्रह दिन में देखना उस समय हिंदी समाचार चैनलों के रंगरूटों के लिए आम बात थी. मगर स्थितियां आज भी बदली नहीं हैं.

हाल ही में घटी महुआ न्यूजलाइन की घटना कई न्यूज चैनलों के अंदर फैली अराजकता का एक दुखद उदाहरण है. चैनल के दो निदेशकों, पीके तिवारी और अभिषेक तिवारी, को सीबीआई ने गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है. दोनों पर आरोप है कि उन्होंने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर 17,00 करोड़ रुपये का कर्ज लिया और बाद में इसका भुगतान करने से भागते रहे. इसके कुछ दिन बाद ही महुआ समूह के एक चैनल महुआ न्यूजलाइन को प्रबंधन ने बंद करने की घोषणा कर दी. चैनल के 122 कर्मचारियों को अगले दिन से कार्यालय नहीं आने की सूचना जारी कर दी गई. बाहरी केंद्रों के रिपोर्टरों की संख्या इसमें जोड़ दें तो यह संख्या होती है 232. प्रबंधन के एकतरफा और मनमाने फैसले पर पत्रकारों का गुस्सा फूट पड़ा. नतीजा यह हुआ कि न्यूज रूम में ही सारे पत्रकार धरने पर बैठ गए. अगले चार दिन तक उनका उठना, बैठना, सोना सब वहीं होता रहा. पच्चीस से तीस साल के युवा लड़के-लड़कियां बिना कुछ खाए-पिए चार दिन तक न्यूज रूम में ही अनशन करते रहे. रामबहादुर राय और पंरजय गुहा ठाकुरता जैसे वरिष्ठ पत्रकारों ने इनके समर्थन में वहां सभाएं कीं.

उस समय तक कर्मचारियों को जून और जुलाई महीने का वेतन नहीं मिला था और चैनल ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. उनकी दो मांगें थीं, एक तो दो महीने का बकाया वेतन उन्हें मिलना चाहिए और एक महीने का अतिरिक्त वेतन बतौर क्षतिपूर्ति दिया जाए क्योंकि चैनल ने उन्हें बिना किसी नोटिस के बाहर का रास्ता दिखाया था. अंतत: महुआ प्रबंधन को इस अहिंसक विरोध के सामने घुटने टेकने पड़े. उस समय पूरा देश अन्ना के अनशन के ज्वार में भी था. चैनल ने उनकी मांगंे मान लीं. इस तरह विरोध खत्म हुआ. 100 स्ट्रिंगरों के मामले में चैनल का रवैया अब भी साफ नहीं है. महुआ से बुरी खबरों का आना थम नहीं रहा. 20 अगस्त को महुआ बिहार चैनल से लगभग साठ लोगों को बाहर करने का फरमान प्रबंधन ने सुना दिया है. अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि प्रबंधन असल में अपना मीडिया का पूरा कारोबार ही समेटने की फिराक में है. यानी आने वाले कुछ दिनों में एक बार फिर से पत्रकारों की बड़ी संख्या बेरोजगार होने वाली है. खबरिया चैनलों की दुनिया ऐसी घटनाओं से भरी पड़ी है जब एक झटके में सौ, दो सौ या तीन सौ लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. वॉयस ऑफ इंडिया की घटना बहुत मशहूर है. जब चैनल बंद हो गया, कई दिनों तक कर्मचारी धरना-प्रदर्शन करते रहे, मारपीट की स्थितियां बन गईं, फिर सब अपनी राह चले गए क्योंकि कुछ हुआ ही नहीं.

खुली व्यवस्था अपनाने के बाद हमारे देश में तमाम उद्योग-धंधों के साथ खबरों का बाजार भी खूब गर्म हुआ. टेलीविजन न्यूज चैनलों की बाढ़ आ गई है. लोग कहते हैं कि मीडिया बहुत ‘ताकतवर’ हो गया है. आज तीन सौ से ज्यादा न्यूज चैनल हैं. सौ से ज्यादा हिंदी के, बाकी अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं के. तमाम दूसरे गर्भावस्था में हैं. इस ऊपर से ताकतवर लगने वाले मीडिया की नाड़ी, भुजाएं, दिल, दिमाग, स्नायु, नेत्र, अस्थि, मज्जा भी क्या उतने ही ताकतवर हैं? जवाब अपनी पूरी जटिलता के साथ हमारे सामने आता है. न्यूज चैनलों का पूरा अर्थशास्त्र ही गड़बड़ाया हुआ है. सारे बड़े चैनलों की बैलेंस शीटें घाटे के ताल में गोता लगा रही हैं. बड़े चैनलों की हालत तो ठीक-ठाक है, मगर छोटे चैनलों की बेहद खस्ता है. शीर्ष के 4-5 चैनलों में कर्मचारियों की संतुष्टि का स्तर कुछ हद तक ठीक है मगर छोटे चैनलों के कर्मचारियों को दो-दो, तीन-तीन महीने तक तनख्वाह नहीं मिलती. उनकी 12-12 घंटे की शिफ्ट होती है, कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता, तीन-तीन साल तक न तो कोई प्रमोशन मिलता है और न ही तनख्वाह में  बढ़ोतरी होती है. इसका असर टीवीकर्मियोंे की सेहत पर भी पड़ा है. अतिशय काम का लगातार तनाव, आपसी स्पर्धा, टीआरपी की मारामारी में लोग 25-30 जैसी कम उम्र में ही हाई बीपी, डाइबिटीज, इन्सोम्निया जैसी बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. ऐसी स्थितियों में काम करने वाला पत्रकारी जीव दुनिया की नजरों में सच्चाई, ईमानदारी, बराबरी और अधिकार की पताका ढो रहा है. न्यूजब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष और साधना न्यूज चैनल के प्रमुख एनके सिंह के शब्दों में, ‘न्यूज चैनल मुनाफे का धंधा नहीं है.’ पर सच्चाई यह है कि इसके बावजूद लोग इस धंधे में आने को व्याकुल हैं.

उतनी ही बड़ी सच्चाई यह भी है कि इस व्याकुलता की कीमत हजारों छोटे, निचले स्तर के पत्रकार, कैमरामैन और तकनीकी विभागों में काम करने वाले लोग चुका रहे हैं. एक चैनल है इंडिया न्यूज. पिछले महीने इस चैनल में बड़ी विचित्र घटना घटी. यहां काम करने वाले पत्रकार बताते हैं कि यहां महीने की बीस तारीख के बाद तनख्वाह का आना मृत्यु जैसा सत्य है. लेकिन पिछले महीने कुछ और हुआ. 20 तारीख को सिर्फ उन कर्मचारियों की तनख्वाह आई जो दस हजार रुपये प्रति माह से कम की पगार पर काम करते हैं. फिर महीने की 22 तारीख आई जब 20 हजार रुपये तक पगार वालों को वेतन मिला. इससे ऊपर वालों का इंतजार अभी जारी था. फिर खबर आई कि 25 तारीख को उन लोगों की आधी पगार आई जो 20 हजार से ज्यादा पाते है. बाकी की आधी तनख्वाह तीस तारीख के बाद आई. कई शिफ्टों में आई पगार की यह कहानी निश्चय ही पत्रकारिता की दंतकथाओं का हिस्सा बनेगी. मगर यह कहानी का अंत नहीं है. जब चैनल के कर्मचारी वेतन रूपी मानसून के सूखे से जूझ रहे थे लगभग उसी समय चैनल के मुखिया कार्तिकेय शर्मा अंग्रेजी के एक बड़े चैनल न्यूज एक्स की खरीद की घोषणा कर रहे थे. इतना ही नहीं, शहर में चर्चा चल रही थी कि वे अपने इस नए ‘ब्लूआइड बेबी’ के लिए कई बड़े अंग्रेजी पत्रकारों से बातचीत की प्रक्रिया में थे. यह खबरों की दुनिया का दुखद विरोधाभास है. कार्तिकेय कहते हैं, ‘यह सच नहीं है. दो-चार लोगों को कोई परेशानी हो सकती है इसका यह अर्थ नहीं है कि सारे लोग असंतुष्ट हैं. ऐसा किसी भी इंडस्ट्री में हो सकता है.’ वेतन की बंदरबांट का लगभग ऐसा ही नजारा पिछले महीने खबर भारती नामक समाचार चैनल में भी पिछले महीने दिखा.

दूसरी श्रेणी के चैनलों में एक और नाम है लाइव इंडिया का. यही वह चैनल है जो उमा खुराना नाम की शिक्षिका का फर्जी स्टिंग ऑपरेशन चलाकर उनकी हत्या की व्यवस्था लगभग कर चुका था. यहां दो महीने पहले यह स्थिति थी कि तीन महीने से कर्मचारियों को तनख्वाह नहीं मिली थी. एक चैनल है एटूजेड. चैनल के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि यह चैनल आसाराम बापू के आशीर्वाद से चल रहा है. इसी चैनल के एक पत्रकार यहां की दुर्दशा कुछ इस तरह बयान करते हैं, ‘जो आप चाहते वह यहां कर ही नहीं सकते. जो बापू और उनके भक्त चाहते हैं, वही यहां होता है. यह धनपशुओं की दुकान है. वेतन हमेशा एक महीने देर से मिलता है. हम लोग उधारी पर जीवन काट रहे हैं. लोग यहां जनसत्ता, एनडीटीवी जैसी जगहों से नौकरी छोड़कर आए थे. अब पछता रहे हैं.’ स्थितियां बड़े चैनलों में भी बहुत सुखद नहीं हैं. साल 2008 की मंदी में एनडीटीवी जैसे प्रतिष्ठित चैनल ने बड़ी संख्या में पत्रकारों की छंटनी की थी और कर्मचारियों के वेतन कम कर दिए थे. हालांकि इस छंटनी में छांटे गए लोगों को समुचित मुआवजा दिया गया था. एक और बड़ा नाम है सहारा समय. इस चैनल के गैरपेशेवर कामकाजी माहौल की चर्चा इसकी खबरों से कहीं ज्यादा होती है. एक तरफ यह चैनल सात लाख रुपये प्रति माह पर पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे पत्रकार को नौकरी देकर नए कीर्तिमान तय करता है तो दूसरी तरफ चैनल के दूसरे और तीसरे दर्जे के पत्रकारों और कर्मचारियों की तनख्वाह में तीन-तीन बार कैंची चलाई जाती है. इंडिया टीवी जैसे नंबर वन की दौड़ में रहने वाले समाचार चैनल में भी पिछले दो साल से कर्मचारियों की तनख्वाह में बढ़ोतरी नहीं हुई है. कुछ समाचार चैनल अपनी महिला पत्रकारों को कानूनी तौर पर अनिवार्य मैटर्निटी लीव तक की सुविधाएं देने से मना कर देते हैं.

चैनलों का अस्तित्व में आना और उनका मुनाफे में तब्दील होना दो अलग स्थितियां हैं. महज कुछ महीनों पहले तक हर वह व्यक्ति न्यूज चैनल का लाइसेंस पा सकता था जिसकी जेब में तीन करोड़ रुपये और एक पीआईबी कार्डधारक पत्रकार हो. अक्टूबर, 2011 में जाकर सरकार ने न्यूज चैनल के लाइसेंस के लिए नेट वर्थ क्राइटेरिया तीन से बढ़ाकर 20 करोड़ किया है. हालांकि सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों की मानें तो अब भी लाइसेंस की इच्छा रखने वालों की कतार छोटी नहीं हुई है. कार्तिकेय के शब्दों में, ‘हर इंडस्ट्री में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. पर मीडिया सनराइज सेक्टर है. भविष्य में यहां ग्रोथ की संभावनाएं प्रबल हैं. समस्या सरकारी नीति के स्तर पर है. इसने थोक के भाव में लाइसेंस बांट दिए हैं.’ एक अन्य चैनल मौर्य के मालिक प्रकाश झा इतने आशावादी नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘आज तक मैंने यहां एक भी रुपया कमाया नहीं है, सिर्फ गंवाया है. पर मुझे इस बात का अहसास था कि यह मुनाफे का धंधा नहीं है.’

चैनलों के इस धंधे के तीन अहम किरदार हैं और इनमें से नायक जैसा एक भी नहीं. जाहिर है नायकों की अनुपस्थिति वाले इस खेल में आपाधापी और अराजकता तो रहेगी ही. पहला किरदार सरकार है. सरकार के पास आज भी कोई मॉनिटरिंग सिस्टम नहीं है. यहां मॉनिटरिंग का अर्थ है लाइसेंस की मॉनिटरिंग. वह लाइसेंस देने के बाद भूल जाती है कि उसके द्वारा दिए गए लाइसेंस का इस्तेमाल किस तरह हो रहा है. छोटे बजट के कई चैनलों का कार्यभार संभाल चुके पत्रकार अनुरंजन झा कहते हैं, ‘सरकार तीन करोड़ या बीस करोड़ में लाइसेंस बेचने के बाद पल्ला झाड़ लेती है. उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि जिसे उन्होंने लाइसेंस दिया है उसके पास चैनल चलाने के लिए बाकी 80 करोड़ रुपये हैं या नहीं. इस खामी ने मीडिया में काले धन को बढ़ावा दिया है. लाइसेंस का दुरुपयोग हो रहा है. पचास फीसदी से ज्यादा चैनलों के पास अपना लाइसेंस नहीं है. वे दूसरों के लाइसेंस किराये पर लेकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. सरकार को भी यह बात पता है. पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों, जिनके ऊपर लाइसेंस का दुरुपयोग रोकने की जिम्मेदारी है, उनकी जानकारी में यह काम चल रहा है.’

दूसरे किरदार हैं चैनलों के मालिक. उन मालिकों के दिन लद गए जिनका मुख्य काम ही मीडिया हुआ करता था. दूसरे धंधों में लगे लोगों ने तेजी से मीडिया के धंधे में हाथ डाला है. चैनलों की बाढ़ में बढ़ गए मालिकों की प्रोफाइल एक मजेदार ट्रेंड की ओर इशारा करती है. मुख्यत: तीन तरह के लोग बड़ी संख्या में इसमें घुसे हैं – रियल एस्टेट, चिट फंड कंपनी और राजनेता उनके रिश्तेदार. ये तीनों ही विवादग्रस्त क्षेत्र हैं. यहां मीडिया उनके लिए तारणहार बनकर अवतरित होता है. मीडिया ऐसे लोगों को तात्कालिक ताकत पहुंचाता है. इस ताकत के लालच में लोग खिंचे चले आते हैं. उदाहरण के तौर पर, एक बार फिर से इंडिया न्यूज को ही लीजिए. यह चैनल हरियाणा के ताकतवर राजनेता विनोद शर्मा का है. ये वही विनोद शर्मा हैं जिनके बेटे मनु शर्मा को मीडिया की सक्रियता के चलते जेसिका लाल की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा हो चुकी है. अब वे खुद इसी बिरादरी का हिस्सा हैं. उनके पास दो क्षेत्रीय और एक राष्ट्रीय चैनल है, आज समाज नाम का अखबार है. खबरिया चैनलों की अर्थव्यवस्था पर मंडी में मीडिया नाम की किताब लिख चुके मीडिया क्रिटिक विनीत कुमार कहते हैं, ‘यह धंधा गलत लोगों के लिए सेफ्टी वॉल्व की तरह काम करता है. हर तरह की गड़बड़ी में लिप्त लोग मीडिया फ्रेटर्निटी का हिस्सा बन जाते हैं. फिर मीडिया इनके ऊपर बात करने से कतराने लगता है. जब सुरक्षित नौकरियां भाप बनकर उड़ गई हों तब कौन इनसे दुश्मनी लेकर अपनी संभावनाएं खत्म करेगा.’

निहित स्वार्थों के तहत मीडिया में आ रहे लोगों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि यह उनका मुख्य धंधा नहीं होता. वे अपने दूसरे धंधों को कवच देने के लिए मीडिया के व्यवसाय में आ रहे हैं. हाल ही में इसका अभद्र नमूना गीतिका आत्महत्या कांड में देखने को मिला. जिन गोपाल गोयल कांडा के पर गीतिका को आत्महत्या के लिए मजबूर करने का आरोप है, वे हरियाणा के गृह राज्यमंत्री थे और बड़े व्यवसायी हैं. इनका भी अपना न्यूज चैनल है- हरियाणा न्यूज. जब देश भर का मीडिया कांडा को अपराधी, भगोड़ा और अय्याश साबित कर रहा था तब उनका अपना चैनल उन्हें महान समाजसेवी और गरीबों के मसीहा के रूप में प्रस्तुत कर रहा था. जाहिर है यह काम पत्रकार बिरादरी के लोग ही कर रहे थे. कहने का अर्थ है कि मीडिया की निष्पक्षता और विश्वसनीयता भी कहीं न कहीं इस हड़बोंग में बेमानी हो गई है. ऐसे लोगों की चांदी हो गई है जिनकी जेब में पैसा है और वे तथाकथित विवादित धंधों में लगे हुए हैं. उनकी प्राथमिकताओं में दूर-दूर तक किसी पत्रकार या कर्मचारी का कल्याण है ही नहीं. ऐसे चैनलों की गिनती बड़ी है जो अस्तित्व में हैं किंतु किसी ने उन्हें देखा तक नहीं है.

तीसरा किरदार उन महत्वाकांक्षी पत्रकारों का है जो इस खेल के सबसे बड़े खलनायक हैं. इनके स्तर पर गैरजिम्मेदारी और गड़बड़ियां कहीं ज्यादा बड़ी हैं. ये अपने पीआईबी कार्ड का एक तरह से दुरुपयोग करते हैं. वे मोटे जेब वाले मालिकों को अधपकी जानकारियां देकर उन्हें ‘धंधे’ में उतारने का सब्जबाग दिखाते हैं. मीडिया ट्रेंड से जुड़ी वेबसाइट समाचार फॉर मीडिया चलाने वाले अनुराग बत्रा इस पर विस्तार से रोशनी डालते हैं, ‘यह छोटा-मोटा धंधा नहीं है. अगर आपके पास 100 करोड़ का बजट हो और चार-पांच साल तक इंतजार करने का धैर्य तभी इस धंधे में आएं. आज बड़े पत्रकार मालिकों को 20-30 करोड़ रुपये में चैनल दौड़ा देने का ख्वाब दिखा देते हैं. नतीजा होता है कि साल भर के भीतर चैनल हांफने लगते हैं. इसकी कीमत कौन चुकाता है, नीचे के लोग, छोटे कर्मचारी.’ हाथी खरीदना और उसे खिला पाना दो अलग-अलग बातें हैं. टीवी न्यूज का धंधा ऐसा ही है. यह प्रतिदिन लाखों के हिसाब से रुपया हजम करता है. फिर तीन से चार साल बाद कहीं जाकर धीरे-धीरे फल देना शुरू करता है. अब जिन मालिकों को पत्रकारों ने आधी-अधूरी जानकारी देकर धंधे में उतार दिया है वे चैनल लॉन्चिंग के बाद ही सकते में आ जाते हैं. विजिबिलिटी की समस्या उन्हें घेर लेती है. चैनल का मतलब ही क्या जब वह कहीं दिखे ही नहीं. यहां उनका सामना केबल और डिश ऑपरेटरों के गिरोहनुमा समूह से होता है. यहां एक तरह से चैनल बंधक बन जाते हैं. इनसे केबल और डिश ऑपरेटर उगाही करते रहते हैं और ‘ताकतवर’ मीडिया उनके सामने गिड़गिड़ाता रहता है. बिना इस गिरोह को चढ़ावा चढ़ाए आपका चैनल कहीं नजर नहीं आएगा. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर हुए एक शोध के मुताबिक शीर्ष के चार-पांच न्यूज चैनलों का डिस्ट्रीब्यूशन बजट ही लगभग पचास करोड़ रुपये सालाना है. छोटे या क्षेत्रीय चैनलों के लिए यह लागत बीस करोड़   रुपये के आस-पास बैठती है. यहां डिश और केबल वालों का पूरा शरीर घी-शहद में डूबा हुआ है. वे दर्शकों से भी मासिक कीमत वसूलते हैं और चैनलों से भी. लगभग सभी चैनल फ्री-टू-एयर हैं. यानी न तो इन्हें दर्शकों से कुछ मिलता है न ही डिस्ट्रीब्यूशन वालों से. जितने में चैनल लॉन्च हुआ है, उतना डिस्ट्रीब्यूशन के लिए लगाने की बात सुनते ही मालिक का माथा खराब हो जाता है. इस खराब माथे को दुरुस्त करने के लिए सलाहकारों की मंडली तरह-तरह के उपाय लेकर आती है. वह कॉस्ट कटिंग की सलाह देती है, जिसके नतीजे में जब-तब पच्चीस, पचास, सौ लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, इतने पर भी बात नहीं बनती तो तनख्वाह लटका दी जाती है, कम से कम लोगों से ज्यादा से ज्यादा काम लेने की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है, नतीजतन छुट्टियों, कामकाजी घंटों आदि की अवधारणा ही यहां नष्ट हो जाती है. जब इस तरह की मानसिकता में चैनल जी रहे  हों तब प्रमोशन, इन्क्रीमेंट जैसी चीजें तो बांस के उन फूलों सरीखी हैं जो चालीस साल बाद यदा-कदा फूलते हैं. इसका एक परिणाम हिंदी समाचार चैनलों पर आ रहे ऊल-जुलूल कार्यक्रमों के रूप में भी दिखाई देता है.

इस अव्यवस्थित माहौल में चैनल की आय का जरिया सिर्फ  विज्ञापन होता है. विज्ञापनों की दशा यह हुई है कि 2000 में जब आधे घंटे का आज तक आता था तब विज्ञापन की दर 80,000 रुपये प्रति दस सेकंड तक हुआ करती थी. आज यह घटकर 2,000 रुपये प्रति दस सेकंड तक आ गिरी है. यह कमाल चैनलों की भीड़ का है. बाजार की भाषा में कुछ आंकड़ों पर नजर दौड़ाएंगे तो आप पाएंगे कि खबरिया चैनलों की दुनिया कितनी क्षणभंगुर है. ये आंकड़े मीडिया और मनोरंजन जगत पर हर साल सबसे बड़ा तुलनात्मक अध्ययन करने वाली संस्था केपीएमजी-फिक्की के हैं. अपनी निष्कर्ष रिपोर्ट में संस्था लिखती है, ‘दर्शकों की तुलना में समाचार चैनलों को मिल रहा विज्ञापन राजस्व दोगुना है.’ कहने का अर्थ है कि मनोरंजन, फिल्म, संगीत और इन्फोटेनमेंट चैनलों के मुकाबले न्यूज चैनलों पर जितने दर्शक आते हैं उसका दोगुना पैसा इन्हें मिलता है. जब पैसे का ही सारा खेल है तब आज नहीं तो कल बाजार के विशेषज्ञों की नजर इस भेदभाव की तरफ जाएगी और तब न्यूज चैनलों के लिए हालात और दुश्कर होंगे. रिपोर्ट आगे भी कहती है, ‘साल 2011 न्यूज चैनलों के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है. न्यूज चैनलों के संचालन की लागत तो इस दौरान बढ़ी है लेकिन विज्ञापन राजस्व जहां का तहां अटका है. एक नहीं पिछले तीन साल के दौरान विज्ञापनों की दर में स्थिरता बनी रही है. इसमें कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है. न्यूज चैनलों के राजस्व में बढ़ोतरी की संभावनाएं भी बहुत सीमित हैं. दर्शकों की संख्या में बड़े परिवर्तन ला पाना संभव नहीं है. न्यूज चैनलों के लिए स्थितियां कठिन होने वाली हैं.’

चैनलों को ले-देकर सिर्फ विज्ञापन का आसरा है. लेकिन इसका अपना अलग ही खेल है. विज्ञापन यानी आय का सारा बंदोबस्त टैम नामक कंपनी के इशारों पर होता है. यह कंपनी टीआरपी रेटिंग तय करती है जिसके आधार पर विज्ञापनदाता कंपनियां अंधश्रद्धा के साथ चैनलों को विज्ञापन देती हैं. ज्यादा टीआरपी ज्यादा विज्ञापन की गारंटी है. लेकिन टैम का चोला भी उतरने लगा है. ज्यादातर चैनलों के मुखिया अब इसकी जकड़ से मुक्त हो जाना चाहते हैं. एनके सिंह कहते हैं, ‘चैनलों को जल्द से जल्द टैम के चंगुल से निकलना होगा. इसकी पूरी प्रक्रिया खामियों से भरी है.’ अब जिन छोटे चैनलों की विजिबिलिटी ही नहीं है या जो वितरकों की मुंहमांगी मुराद पूरी नहीं कर सकते उन्हें टीआरपी रेटिंग क्या मिलेगी. और टीआरपी रेटिंग नहीं मिलेगी तो विज्ञापनदाता उनकी तरफ क्यों देखेगा. इस तरह छोटे चैनल अपनी मौत मरने के लिए मजबूर हो जाते हैं.

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टैम की खामियों की बात करें तो देश भर में टैम के सिर्फ 8,150 मीटर लगे हैं. इनकी भी समस्या यह है कि आठ हजार मीटरों का वितरण उल्टा-सीधा है. दिल्ली जैसे छोटे राज्य में 100 से ज्यादा मीटर लगा दिए गए हैं, बिहार में साल भर पहले एक मीटर लगाया गया है,  झारखंड को दो मीटर के लायक समझा गया है और जम्मू-कश्मीर की हैसियत एक की भी नहीं है. इस अंड-बंड वितरण के दम पर टैम सवा अरब लोगों का मूड भांप लेने का दावा करता है. विज्ञापनदाता पूरी श्रद्धा से उसका अनुसरण कर लेते हैं.  टैम की दूसरी गड़बड़ियां भी अब सामने आने लगी हैं. हाल ही में एनडीटीवी ने टैम की मातृ कंपनी नील्सन के पर न्यूयॉर्क की अदालत में साढ़े सात हजार करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति का दावा ठोंका है. एनडीटीवी का आरोप है कि टैम के अधिकारी भारत में कुछ लोगों से मिलीभगत करके टीआरपी के आंकड़ों में हेराफेरी करते हैं. बदले में टैम के लोग घूस लेते हैं. टैम की गड़बड़ियां कुछ स्तरों पर नंगी आंखों से देखी जा सकती हैं. आज भी देश में सबसे ज्यादा पहुंच डीडी न्यूज की है. ग्रामीण इलाकों में जहां केबल की पहुंच नहीं है वहां आज भी डीडी न्यूज और डीडी नेशनल खबरों और मनोरंजन के बेताज बादशाह हैं. पर टैम की रेंटिंग में ये आज तक अपनी जगह नहीं बना पाए हैं. अब प्रसार भारती भी इनके खिलाफ कार्रवाई की तैयारी में है.

चैनल की आय में एक और रास्ते से सेंध लगी है. पिछले पांच सालों के दौरान ऑनलाइन और न्यू मीडिया की पहुंच तेजी से लोगों तक हुई है. झा कहते हैं, ‘ऑनलाइन और न्यू मीडिया ने चैनलों की आय का एक मोटा हिस्सा खींच लिया है. लिहाजा चैनलों के समक्ष स्थितियां और कठिन हो गई हैं.’ विज्ञापनदाता कंपनियों की मजबूरी यह है कि वे मुनाफे को ध्यान में रखकर काम करती हैं. आज सबसे ज्यादा क्रयशक्ति रखने वाला मध्यवर्ग ऑनलाइन माध्यमों का भरपूर इस्तेमाल करता है, लिहाजा वे इसे यूं ही नहीं छोड़ सकतीं.

इस तरह के अव्यावहारिक आर्थिक ढांचे वाले एक धंधे में एकाएक तीन-चार सौ लोग कूद पड़े हैं. और उन्होंने अपने पीछे हजारों लोगों की उम्मीदें चिपका ली हैं. उनके पास न तो कोई दीर्घकालिक योजना है, न ही बटुए में उतना पैसा. ऐसा भी नहीं है कि उनके पास कोई योजना नहीं है. मगर कई मामलों में ये योजनाएं अपने मुख्य धंधों को आगे बढ़ाने तक सीमित हैं. चैनल इस काम में उनके हथियार बन गए हैं. धीरे-धीरे जर्नलिस्ट यूनियनों का भी विलोप हो गया है. पत्रकारों की आवाज उठाने वाली कोई विश्वसनीय संस्था नहीं है. महुआ हो या वीओआई या फिर  फोकस टीवी, यहां हो रहे विरोध प्रदर्शनों का दायरा बहुत सीमित और व्यक्तिगत है. वही लोग लड़ाई लड़ रहे हैं जिनकी दाल-रोटी संकट में है. दिल्ली पत्रकार संघ के पूर्व सचिव और वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सौरभ कहते हैं, ‘पत्रकार असंगठित मजदूर हो गए हैं. अब उनकी बात रखने वाला कोई नहीं है. नब्बे के दशक में यूनियन के पदाधिकारियों का चुनाव हजारों मतदाता करते थे. आज दो सौ से भी कम सदस्य रह गए हैं. इतनी छोटी संख्या से चुनकर आए लोग पत्रकारों की इतनी बड़ी जमात का प्रतिनिधित्व तो नहीं कर सकते. दूसरे इनकी गतिविधियां भी संदिग्ध हैं. यूनियन के लोग मालिकों के साथ मिलकर कर्मचारियों से धोखा करते रहे हैं. हिंदुस्तान टाइम्स के मामले में यह देखा गया.’

हाल ही में संघ के महासचिव पद से हटे जावेद फरीदी एक दूसरा पक्ष उद्घाटित करते हैं, ‘जिस समय यूनियनें अस्तित्व में आई थी, उस समय तक सिर्फ प्रिंट मीडिया हुआ करता था. यूनियन का कानून कहता है कि इसके सदस्य सिर्फ प्रिंट मीडिया के पत्रकार ही हो सकते हैं. टीवी वाले नहीं. हालांकि यह बात सच है कि पिछले एक दशक में प्रिंट के मुकाबले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार बढ़े हैं. पर समस्या यह है कि आज पुरानी प्रिंट की यूनियन ही बेमानी हो चुकी है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सोचने की फुर्सत किसे है.’

आज पत्रकारों की बात रखने वाली एक भी ढंग की संस्था नहीं है जबकि पिछले एक दशक में अकेले दिल्ली शहर में पत्रकारों की संख्या कई गुना बढ़ गई है. कहने को वेज बोर्ड और लेबर लॉ जैसी कानूनी प्रक्रियाएं हैं पर कोई मीडिया संस्थान इन्हें मानता ही नहीं. मजीठिया बोर्ड की हालिया सिफारिशों की हवा टाइम्स ऑफ इंडिया और एचटी जैसे बड़े मीडिया संस्थानों ने पत्रकारों के जरिए ही निकाल दी. जनवरी, 2011 में इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी (आईएनएस) के लोगों ने ही प्रस्ताव पारित कर दिया कि मजीठिया बोर्ड की सिफारिशें सरकार कतई लागू न करे. आज कॉन्ट्रैक्ट का जमाना है. सारे चैनल, सारे अखबार कॉन्ट्रैक्ट पर पत्रकार रखते हैं, मनमाफिक शर्तें लगाते हैं, उनमें साफ-साफ लिखा होता है कि किसी भी तरह की यूनियनबाजी में शामिल पाए जाने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई होगी. इस तरह चैनल जब चाहें तब पत्रकारों से मुक्ति पा लेते हैं. चैनलों में वेज बोर्ड के आधार पर नौकरी देने की कभी कोई परंपरा रही ही नहीं, अखबारों में भी वेज बोर्ड पर नियुक्त गिने-चुने लोग ही बचे हैं. मीडिया संस्थानों का तर्क है कि वे सरकारी प्रावधानों से कहीं ज्यादा मोटी पगार देते हैं इसलिए उन्हें किसी वेज बोर्ड का गुलाम बनने की जरूरत नहीं है. पर यह आधी सच्चाई है. सौरभ बताते हैं, ‘जिन्हें बड़े मीडिया हाउस मोटी पगार वाला कहते हैं, उनकी संख्या कितनी है, पांच फीसदी भी ऐसे लोग नहीं हैं किसी संस्थान में. शोषण निचले स्तर पर हो रहा है.’

इसका एक मानवीय पहलू भी है. दिल्ली के ज्यादातर पत्रकार हिंदी में काम नहीं करते. हिंदी का काम करने के लिए मानव श्रम का आयात उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे पड़ोसी राज्यों से होता है. घर-परिवार की जो परिकल्पना है उसमें इनके पास परिवार तो होता है लेकिन दिल्ली में एक अदद घर नहीं होता. नौकरी की क्षणभंगुरता में उसका अपना ही भविष्य निश्चित नहीं होता तो वह परिवार को क्या भविष्य देगा. ऊपर से यह बौद्धिक संपदा से जुड़ा मामला है. लिखाई-पढ़ाई से नाता रखने वाला पत्रकार अपने जीवन के सबसे ऊर्जावान दिनों को नौकरी की जुगाड़ में जाया कर रहा है. अपनी बौद्धिक संपदा का विकास वह क्या करेगा. यहां हम सन पचपन में बने वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट की बात न ही करें तो बेहतर है, जिसके मुताबिक छह घंटे से ज्यादा की शिफ्ट नहीं होनी चाहिए, हफ्ते में एक दिन छुट्टी जरूर होनी चाहिए, साल में 15 छुट्टियां मिलनी चाहिए, 10 दिन की आकस्मिक छुट्टी भी मिलनी चाहिए आदि-आदि.

यह तनावग्रस्त चैनलों के संसार में रामराज की स्थिति होगी. और रामराज की हमारे यहां सिर्फ कल्पना की जाती है.

जासूसी के जाल में एक गांव…

ये डडवां गांव का रास्ता किधर से जाता है?  इस सवाल के जवाब में सामने खड़ा अधेड़ उम्र का वह व्यक्ति पहले मुझे ऊपर से नीचे तक ध्यान से देखता है, उसके बाद बिना कुछ बोले हाथ के इशारे से बाईं तरफ वाली कच्ची सड़क पर जाने को कहता है. जैसे ही कार गांव में प्रवेश करती है वैसे ही बाहर खड़े लोग अपने घरों के भीतर चले जाते हैं. कुछ लोग हमें अपने घरों की छतों से छिपकर देखते हैं. सामने से आ रहे एक बुजुर्ग को हम हाथ से इशारा करके रुकने के लिए कहते हैं, वह हाथ जोड़ते हुए आगे निकल जाता है.
थोड़ी ही देर में एक बच्चा साइकिल चलाते हुए वहां आता है. उसे हम रोकते हैं और सुनील भोला के घर का पता पूछते हैं. वह सामने वाले घर की तरफ इशारा करता है. हम दरवाजा खटखटाते हैं, लेकिन अंदर से कोई आवाज नहीं आती. ‘जासूसों के गांव’ के नाम से चर्चित डडवां में जाने के पहले ही हमें ऐसे किसी असामान्य व्यवहार के लिए चेताया गया था लेकिन यह कुछ ज्यादा ही अजीब है.

दरवाजे के सुराख से अंदर देखने पर एक महिला खड़ी होकर दरवाजे की तरफ देखती हुई नजर आती है. काफी प्रयास के बाद भी जब वह दरवाजा नहीं खोलती तो हमारे साथ खड़े जासूस करामत राही कोशिश करते हैं. वे वृद्ध महिला को संबोधित करते हुए कहते हैं, ‘अरे अम्मा मैं जासूस करामत राही हूं, मैंने भी भोला की तरह ही पाकिस्तान में जासूसी का काम किया है. मेरे साथ ये दिल्ली से पत्रकार आए हैं. हम लोग भोला से मिलना चाहते हैं.’ कुछ देर बाद दरवाजा खुलता है. एक ऐसी महिला का चेहरा हमारे सामने होता है जिसे देखकर लगता है मानो प्रकृति ने दुनिया की सारी तकलीफें इसी के हिस्से में दे दी हों. ये भोला की मां हैं. वे प्लास्टिक की दो कुर्सियां निकालकर बाहर रखती हैं. इससे पहले कि हम उनसे कुछ पूछते वे बेतहाशा रोने लगती हैं. इस बीच में अड़ोस-पड़ोस से कई महिलाएं और पुरुष वहां इकट्ठा हो जाते हैं.

15 मिनट से लगातार रो रही उस महिला को पड़ोस की एक महिला पानी पिलाती है. वे बुजुर्ग महिला हमें बताती हैं, ‘भोला नहीं जाना चाहता था, वह जाते वक्त रो रहा था, घर के बाहर खड़ी गाड़ी में साहब लोग बैठे थे. वे उसे गाड़ी में बैठाकर ले गए. वह अभी तक वापस नहीं लौटा. उसने मुझसे कहा कि माई मैं नहीं जाना चाहता लेकिन एजेंसी वाले मुझे परेशान कर रहे हैं. डेढ़ साल हो गए हैं, हमें अब तक उसकी कोई खबर नहीं मिली.’ उस महिला के मुंह से यह सुनकर हमें हैरानी होती है. दरअसल सितंबर, 2009 में अहमदाबाद में वरिष्ठ अधिवक्ता किशोरी पॉल ने एक पत्रकार वार्ता की थी जिसमें पाकिस्तान में जासूसी करने के लिए लंबी सजा काट चुके तीन लोगों को मीडिया के सामने पेश किया गया था. उन्होंने घंटों विभिन्न खुफिया एजेंसियों के लिए किए गए अपने काम, पाकिस्तान में मिली प्रताड़ना और खुफिया एजेंसियों के विश्वासघात से संबंधित बातें पत्रकारों को बताई थीं. इन तीन जासूसों में से एक सुनील भोला भी था. हमारी हैरानी की वजह यह थी कि उसी भोला को फिर पाकिस्तान भेज दिया गया था.

डडवां में ज्यादातर परिवार ऐसे हैं जिनका कोई न कोई सदस्य पाकिस्तान जाकर विभिन्न एजेंसियों के लिए जासूसी कर चुका है.

गांववाले बताते हैं कि पिछले कुछ सालों तक जासूसी ही इस गांव के लिए रोजगार का एकमात्र जरिया थी. एजेंसियों द्वारा तमाम तरह के वादे करके मुकरने, जरूरत के वक्त कोई सहायता न करने और इस काम में जानलेवा जोखिम होने जैसी वजहों के चलते यहां के लोग अब किसी भी कीमत पर जासूसी के काम में पड़ना नहीं चाहते. लेकिन यही बात अब इन लोगों के लिए खुफिया एजेंसियों का एक और बर्बर चेहरा सामने ला रही है. गांववाले बताते हैं कि यदि लोग जासूसी करने से इनकार करते हैं तो उन्हें कई तरह की प्रताड़नाएं झेलनी पड़ती हैं. इसमें स्थानीय पुलिस से टॉर्चर कराने से लेकर उनके ऊपर फर्जी केस दर्ज कराना, यहां तक कि बम ब्लास्ट तक के झूठे मामलों में उन्हें फंसाना तक शामिल है. तहलका ने इस संबंध में जब खोजबीन शुरू की तो इस तरह का आरोप लगाने वाले कई लोग सामने आए.

इसी गांव के 40 वर्षीय ग्रेफान, जो अभी सब्जियां बेचकर अपने परिवार का पेट पालते हैं, ने भी थोड़े समय के लिए खुफिया जासूसी का काम किया है. वे पाकिस्तान जाते थे और यहां के अधिकारियों के कहे अनुसार खुफिया जानकारियां और पाकिस्तानी लोगों को वहां से लाते थे. ग्रेफान के मुताबिक,  ’कुछ दिनों में ही मुझे जासूसों के प्रति खुफिया एजेंसियों का असंवेदनशील रवैया समझ में आ गया. यह भी कि इस काम में भारी खतरे हैं. इसलिए मैंने जासूसी छोड़ने का मन बना लिया. यह बात जब मैंने अपने अधिकारियों को बताई तो वे नाराज हो गए. वे चाहते थे कि मैं काम करता रहूं. जब मैंने ऐसा करने से मना कर दिया तो उन्होंने मुझे तरह-तरह से परेशान करना शुरू कर दिया. थोड़े ही समय बाद उन्होंने मुझ पर पठानकोट में बम धमाका करने का फर्जी केस डाल दिया. यह धमाका तब हुआ था जब मैं पाकिस्तान में भारत के लिए जासूसी कर रहा था. उस दौरान वे लगातार मुझसे कहते रहे कि तुम जासूसी करने के लिए तैयार हो जाओ तो हम ये केस हटा लेंगे.’ केस चलता रहा और आखिरकार कोर्ट ने ग्रेफान को इस आरोप से बरी कर दिया गया. वे बताते हैं, ‘मुझे लगा कि अब एजेंसी वाले मुझे छोड़ देंगे लेकिन उन्होंने मुझ पर पाकिस्तान के लिए जासूसी करने का केस दर्ज करवा दिया. मैं लंबे समय तक जेल में रहा. अभी जमानत पर बाहर हूं. पुलिसवालों ने स्कूल की किताबों में छपे भारत के नक्शे, किताबों में छपी पुल आदि की तस्वीरें को सबूत के तौर पर पेश करते हुए कहा कि मैं पाकिस्तान के लिए यहां जासूसी कर रहा हूं. ये मामला पिछले 10 साल से चल रहा है. अभी भी इंटेलीजेंस वाले कहते हैं, जासूसी के लिए तैयार हो जाओ तो केस हटवा लेंगे.’

इसी गांव के 50 वर्षीय डेनियल ने सन1993 से 1997 तक खुफिया एजेंसियों के लिए पाकिस्तान में जासूसी की थी. उनका मुख्य काम विभिन्न संवेदनशील दस्तावेजों एवं वहां से लोगों को जासूसी के लिए तैयार करके यहां अपने अधिकारियों तक पहुंचाना था. वे पाकिस्तान में गिरफ्तार हुए और उन्हें चार साल की सजा हुई. सजा काटने के बाद जब डेनियल वापस अपने गांव आए तो उन्होंने इस पेशे को छोड़ने की ठानी. उन्होंने जब अपने इरादे के बारे में अधिकारियों को बताया तो उनके साथ भी वही हुआ जो ग्रेफान के साथ हुआ था. डेनियल को 1993 के अमृतसर बम ब्लास्ट केस में फंसा दिया गया. डेनियल के मुताबिक पुलिसवाले कहते थे कि तुम 1993 में ब्लास्ट करके पाकिस्तान भाग गए थे. यह मामला तीन साल तक चला. आखिरकार डेनियल भी इस मामले में दोषमुक्त साबित हो गए. अभी वे एजेंसियों के एक चक्रव्यूह से बाहर निकले ही थे कि उन पर अवैध तरीके से बॉर्डर क्रॉस करने का केस दर्ज कर दिया गया. यह केस अभी तक चल रहा है. फिलहाल रिक्शा चलाकर अपना और परिवार का पेट पाल रहे डेनियल कहते हैं, ‘अभी भी एजेंसी वाले मिलते हैं तो कहते हैं, हमारे लिए काम करो, तुम्हारा जीवन बना देंगे नहीं तो तुम देख ही रहे हो.’

यही हाल गांव के डेविड का है. लंबे समय तक उन्होंने खुफिया एजेंसियों के लिए जासूसी की.

फिर पाकिस्तान में गिरफ्तार हुए और सात साल की सजा हो गई. कुछ दिनों पहले ही उन पर लकवा का अटैक हुआ. आज शरीर का एक हिस्सा काम करना बंद कर चुका है. लकवा के अटैक के कारण डेविड ठीक से बोल नहीं पाते. उनकी पत्नी बताती हैं, ‘जब ये जेल से सजा काटकर वापस आए तो जासूसी छोड़कर मजदूरी करना शुरू कर दिया. इन्होंने एजेंसी वालों को बता दिया कि अब मैं जासूसी नहीं करूंगा. एजेंसी वालों ने फिर से जासूसी करने का इन पर दबाव बनाया. जब इन्होंने मना किया तो इन पर बॉर्डर क्रॉस करने का केस डाल दिया. वह केस चार साल तक चला.’  गांवोवाले बताते हैं कि जब तक डेविड सही-सलामत थे तब तक दिहाड़ी करके किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट पालते थे. आज उनकी पत्नी दूसरों के घरों में मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह परिवार को पाल रही हैं.

डडवां में 90 फीसदी आबादी दलित ईसाइयों की है. बहुत पहले से इस गांव के लोग जासूसी का काम करते आए हैं. एजेंसियों की नजर में यह गांव हीरे की खान जैसा है. इन लोगों को आसानी से जासूस बनाया जा सकता है. इसकी पहली वजह यह है कि इनके साथ बाल और दाढ़ी का धार्मिक बंधन नहीं है जो सिखों के साथ होता है. दूसरी बात यह कि पूरा गांव बेहद गरीब है. यहां के लोग किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं. यहां कोई सब्जी बेचता है तो कोई मजदूरी करता है या रिक्शा चलाता है. तीसरी बात यह कि डडवां गांव सीमा के नजदीक है इसलिए इस पूरे इलाके पर स्थानीय प्रशासन की तुलना में सेना की पकड़ ज्यादा मजबूत है.

ग्रेफान बताते हैं कि एजेंसियों ने उनके साथ ही और दो लोगों को फर्जी तरीके से फंसाया है. संतोष और अमृत नाम के इन दो लोगों से भी एजेंसियों ने जासूस बनने के लिए कहा लेकिन इन्होंने मना कर दिया. ऐसे में उन पर भी झूठा केस कर दिया गया.  
गांव का ही एक आदमी सतपाल खुफिया विभाग के लिए लंबे समय से पाकिस्तान में जासूसी करता था. वह कुछ दिन अपने गांव में रहता और बाकी समय पाकिस्तान में एजेंसियों द्वारा सौंपे गए कामों को अंजाम देता. इस तरह से उसका सरहद पार जाना-आना लगा ही रहता था. 1999 में भी हर बार की तरह वह अपने ‘असाइनमेंट’ पर पाकिस्तान गया हुआ था. जब वह वापस नहीं लौटा तो घरवालों ने एजेंसी वालों से संपर्क किया. मगर उन्हें कोई जवाब नहीं मिला. कुछ दिनों बाद यह खबर आई कि सतपाल की पाकिस्तानी जेल में मौत हो गई है. सतपाल की मौत के बाद पाकिस्तानी सरकार ने भारत सरकार को सतपाल की लाश ले जाने के लिए कहा.

लेकिन सरकार ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. सतपाल का शव लाहौर के सरकारी अस्पताल में पूरे एक महीने तक पड़ा रहा. स्थानीय समाचार पत्रों ने इस मामले को काफी प्रमुखता से उठाना शुरू किया. शुरुआत में संबंधित अधिकारियों  ने मामले को टालने की कोशिश की लेकिन जब पूरा स्थानीय मीडिया जोर-शोर से इस मसले को उठाने लगा तब जाकर स्थानीय नेताओं ने इस मामले को ध्यान देने लायक समझा. मीडिया का दबाव कुछ ऐसा पड़ा कि सरकार ने महीने भर बाद सतपाल की लाश लेने के लिए पाकिस्तान से बात की. सरकार ने सतपाल का शव उसके गांव लाने की व्यवस्था कर दी. उस समय गांववालों की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा जब सतपाल के शव को तिंरगे में लपेटकर उसके गांव लाया गया. जो लोग तिरंगे में लपेटकर सतपाल का शव उसके गांव लाए थे ये वही लोग थे जो कुछ समय पहले तक उसकी लाश को भारत लाने के लिए इनकार कर चुके थे. इस मामले में एक और चौंकाने वाली चीज यह हुई कि सतपाल के शव के साथ जो मृत्यु प्रमाण पत्र लाहौर अस्पताल की तरफ से जारी किया गया था उसमें मृतक का नाम सतपाल की जगह दर्शन सिंह था. यह मामला कुछ उसी तरह का था जो आज सरबजीत सिंह और मंजीत सिंह को लेकर चल रहा है.

इस घटना के बाद से गांववाले जासूसी के काम से परहेज करने लगे. लोगों ने रोजगार के लिए मजदूरी करने, रिक्शा चलाने और सब्जी बेचने जैसे काम तलाशना शुरू कर दिया. एजेंसियां इस बदलाव से बेहद परेशान हुईं और जासूसी से इनकार करने वालों को उनका फैसला बदलने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने लगीं. डेविड कहते हैं, ’हमारी जिंदगी तो नर्क बन गई है, हमारे पास अपनी जान लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है, अगर हम जासूसी करते हैं तो पाकिस्तानी एजेंसियां हमें मार डालेंगी और अगर जासूसी करने से इंकार करते हैं तो हमारी अपनी एजेंसियां हमें जीने नहीं देंगी.’

'मेरी पत्नी 17 साल दूसरों के घर नौकरानी का काम करती रही'

जून, 1988 में गिरफ्तार होने से पहले मैं लगभग सैकड़ों बार बॉर्डर पार करके पाकिस्तान जा चुका था. हम वहां से पाकिस्तानी सैनिकों को भारत लाया करते थे. ये वे सैनिक थे जो पाकिस्तानी सेना में रहते हुए भारत के लिए जासूसी करते थे. पाकिस्तान में गिरफ्तार होने और चार साल के इंटेरोगेशन के बाद मुझे 14 साल की सजा सुनाई गई. मुझे खुफिया एजेंसी के लोगों ने कहा था कि अगर मैं पकड़ा जाता हूं तो वे मेरे परिवार का ख्याल रखेंगे. इसलिए सारी प्रताड़नाओं के बावजूद मुझे एक दिलासा यह रहती थी कि भारत में मेरा परिवार ठीक होगा. लेकिन चार साल की इंटेरोगेशन और 14 साल की सजा काटने के बाद जब मैं घर आया तो पता चला कि ऐसा तो कुछ नहीं हुआ. घर में पत्नी और दो बच्चे बहुत बुरी हालत में थे. पत्नी दूसरों के घर में नौकरानी का काम करती थी. मेरी गिरफ्तारी के बाद 11 महीने तक तो उसे 300 रुपये हर महीने मिलते रहे लेकिन उसके बाद कभी कोई मदद नहीं मिली. उसने दूसरों के घरों में बर्तन मांजकर बच्चों को बड़ा किया. यहां आकर मैं अपने अधिकारियों से मिला, उनसे सहायता मांगी लेकिन वे लोग साफ मुकर गए. उन्होंने किसी तरह की मदद करने से इनकार कर दिया. उसके बाद मैं कोर्ट गया. कोर्ट में जब केस चल रहा था उस समय रॉ के कुछ अधिकारियों ने मुझसे संपर्क किया और 50-60 हजार रुपये लेकर मामला खत्म करने और केस वापस लेने की बात की. मैंने कहा, मुझे भीख नहीं मेरा जायज हक चाहिए. मैंने इनकार कर दिया.

कुछ दिनों के बाद दिल्ली से रॉ के एक बड़े अधिकारी अमृतसर आए. उन्होंने मुझे एक होटल में बुलाया और कहा मैं दो लाख रुपए लेकर केस वापस ले लूं. लेकिन मैंने उनसे कहा कि मामला सिर्फ मेरा अकेले का नहीं है बल्कि बाकी जासूसों के न्याय से भी जुड़ा है. मैंने केस वापस नहीं लिया. खैर, मामला पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में चला. सुनवाई के दौरान जज नाराज हो गए, उन्होंने वकील से केस वापस लेने को कहा. जज ने वकील से कहा कि इस तरह के केस को लेकर आप देश के साथ गद्दारी कर रहे हो.

जब मैंने केस वापस लेने से इनकार कर दिया तो जज महोदय ने कहा, ‘ये आदमी लगातार कोर्ट की अवमानना कर रहा है, मैं इस पर फाइन करुंगा.’ और उन्होंने केस वापस न लेने के कारण मुझ पर 25 हजार रुपये का हर्जाना ठोक दिया. मैंने उनसे कहा, ’माई-बाप मैंने अपनी पूरी जिंदगी तो देश की सेवा करते हुए पाकिस्तानी जेलों में गुजार दी है. मेरे पास पैसे कहां हैं कि मैं हर्जाना भर सकूं. मेरे पास तो घर चलाने तक के पैसे नहीं हैं, चाय की दुकान (अमृतसर से 50 किलोमीटर दूर फतेगढ़ चूड़ियां के पास खैरा कलां गांव) से अपना खर्च चला रहा हूं, मैं तो आपके यहां न्याय की आस में आया था, सरकार आपने मुझ पर ही फाइन लगा दिया क्योंकि मैंने न्याय की मांग की. खैर, पैसे तो नहीं हैं मेरे पास किसी दिन बैंक लूटूंगा तो न्याय की चरणों में हर्जाना चढ़ा दूंगा.’  जब सरकार से आदमी थक जाता है तो कोर्ट उसकी आखिरी उम्मीद होती है लेकिन जब यहां भी न्याय न मिले तो आदमी कहां जाएगा.

‘काम पूरा हो जाता है तो खुफिया एजेंसियां खुद पकड़वा देती हैं’

यह 1978 की बात है, तब मेरी उम्र तकरीबन 19 साल रही होगी. मैं दसवीं की परीक्षा पास कर चुका था. मेरे गांव (भैनीमियां गांव, जिला गुरुदासपुर, पंजाब) में सुरेंद्र मोहन नाम का एक आदमी था, जो रॉ के लिए काम करता था. वह एक दिन मुझे पठानकोट स्थित रॉ के दफ्तर ले गया. वहां के जो एसपी थे उनका नाम चरनदास था. उन्होंने मुझसे कहा कि वे मुझे पाकिस्तान में जासूसी करने का काम देने वाले हैं और यह देश सेवा का मौका है जिसे मुझे छोड़ना नहीं चाहिए. उन्होंने उस समय 175 रुपये महीना मेरी पगार तय की. साथ में सख्त हिदायत दी थी कि इस काम के बारे में मैं किसी को ना बताऊं. उस समय देश के लिए काम करने का भूत सिर पर ऐसे सवार हो गया था कि मैं इस काम के लिए तुरंत तैयार हो गया.

अमृतसर में हमारी 12 दिन की ट्रेनिंग हुई. ट्रेनिंग के बाद एक दिन मुझे बॉर्डर पार करवा दी गई. सरहद के उस पार से मैं बस पकड़कर पाकिस्तान के सियालकोट चला गया. वहां होटल में रुका और अपना काम शुरू कर दिया. इस तरह सन 1984 तक मैं हर महीनेे दो से तीन बार जासूसी करने के लिए पाकिस्तान गया. 26 जुलाई, 1984 को भी हर बार की तरह रॉ के अधिकारी मुझे पाकिस्तान भेजने के लिए ले जाने आए थे. इन लोगों ने रात को तीन बजे मुझे बुधवाल पोस्ट पर छोड़ दिया. यहां से बीएसएफ वालों ने मुझे बॉर्डर के उस पार पहुंचा दिया. लेकिन इस बार बॉर्डर क्रॉस करके जैसे ही मैं उस पार पहुंचा, सात-आठ लोगों ने मुझे घेर लिया. ये लोग एफआईयू (फील्ड इंटेलीजेंस यूनिट), पाकिस्तान से थे. उन्होंने मेरी तलाशी लेनी शुरू की. मुझे गिरफ्तार कर लिया गया. उस टीम के मुखिया ने मुझे एक ऐसी बात बताई जिसे सुनने के बाद मेरे होश उड़ गए. उसने बताया कि सीएस मनकोटिया ने उसे मेरे बारे में बताया था. उस समय मैं सब कुछ भूल गया. मेरे दिमाग में बस मनकोटिया का चेहरा और उससे हुई बहस जेहन में उभरने लगी. मनकोटिया गुरदासपुर में रॉ का फील्ड ऑफिसर था. वह चाहता था कि मैं अपनी पगार में से कुछ हिस्सा उसे दूं नहीं तो वह मुझे काम नहीं करने देगा. इससे इनकार करने पर उसने मुझे धमकी दी थी कि अगर मैं नहीं माना तो वह मुझे पकड़वा देगा. मैंने उसकी कही इस बात को गंभीरता से नहीं लिया था.

खैर, अब तो मैं गिरफ्तार हो ही चुका था. पाकिस्तानी अधिकारी मुझे अपनी जीप में  बैठाकर सियालकोट इंटरोगेशन सेंटर ले आए थे, अगले 15 दिन तक अन्न के बिना एक दाने और जितनी तरह की प्रताड़ना संभव है, उन सबसे मैं गुजरा. पानी उतना ही मिलता था कि जीभ गीली हो सके. प्रताड़ना के बारे में मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि जितने तरह के टॉर्चर हो सकते हैं उन्होंने सभी को आजमाया. नाखूनों को सींकचों से बाहर निकालने, गुप्तागों में मिर्च पावडर डालने, जख्मों पर नमक रगड़ने के साथ और भी बहुत कुछ वे करते थे जो मैं बता नहीं सकता. यहां मुझे तीन साल रखा गया. उसके बाद कोर्ट ने मुझे 25 साल की सजा सुनाई. सजा के दौरान शुरुआत के 20 साल तक घरवालों से कोई संपर्क नहीं हुआ. बाद मैं मैंने चोरी-छुपे किसी तरह एक लेटर घर भेजा जिससे घरवालों को पता चला पाया कि मैं क्या काम करता था और आज कहां हूं. मेरे बड़े भाई उस लेटर के मिलने के बाद रॉ के अधिकारियों से मिलने गए जिन्होंने पूरी तरह से इस बात से इनकार कर दिया कि वे ऐसे किसी आदमी को जानते हैं. 

खैर ,  किसी तरह 25 साल की मैंने सजा काटी, सजा काटने के बाद भी जब मेरी रिहाई नहीं हुई तो मेरा भाई सुप्रीम कोर्ट गया. उस समय चीफ जस्टिस मारकंडेय काटजू थे, उन्होंने पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को एक पत्र भेजा जिसमें उन्होंने मुझे रिहा करने की सिफारिश की. मैं रिहा हो गया. 23 साल की उम्र में मैं पाकिस्तान गया था. वापस आया तो उम्र 50 की हो गई थी. यहां आकर रॉ के अधिकारियों से मिला और अपनी देश सेवा के बदले सहयोग की मांग की. सहयोग तो दूर की बात है एजेंसी वालों ने तो पहचानने तक से इनकार कर दिया. 52 साल की उम्र में मैंने शादी की. सरकार की तरफ से एक रुपये तक की सहायता नहीं मिली. फिलहाल यहां शिमला में किराये की कार चलाकर किसी तरह अपना जीवनयापन कर रहा हूं.

अनेक हैं टाइगर

दुनिया भर में मीडिया के लिए वह साल का सबसे बड़ा आयोजन था. यह जुलाई, 2001 की  बात है. पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ और भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के बीच आगरा में शिखरवार्ता चल रही थी. माहौल उम्मीद से भरा हुआ था. ठीक इसी समय आगरा के पश्चिम-उत्तर में तकरीबन एक हजार किमी दूर पाकिस्तान की मियांवली जेल की एक बैरक का भी माहौल कुछ-कुछ ऐसा ही था. पिछली शाम को ही जेल सुपरिंटेंडेंट ने वहां कैद एक भारतीय जासूस को खबर दी थी कि वह रिहा होने वाला है. यह भारतीय जासूस अपने साथियों के साथ उन सब सपनों को साझा कर रहा था जो उसे जेल से रिहा होने के बाद पूरे करने थे. वह जासूसी की जिंदगी हमेशा के लिए छोड़कर श्रीगंगानगर (राजस्थान) लौट जाना चाहता था. अपनी पाकिस्तानी पत्नी और बेटे के साथ उसे एक नई जिंदगी शुरू करनी थी.

शाम को बीबीसी रेडियो के उर्दू बुलेटिन की खबरें शुरू हुईं तो पहली बड़ी खबर थी कि मुशर्रफ-बाजपेयी वार्ता असफल हो गई है. खबर पूरी भी नहीं हो पाई थी कि जेल सुपरिंटेंडेंट ने भारतीय जासूस को सूचना दी कि उसकी रिहाई का आदेश रद्द कर दिया गया है. अब बैरक का माहौल पूरी तरह बदल चुका था. खबर सुनकर वह भारतीय जासूस खामोश हो गया. उसे इतना गहरा सदमा लगा कि उसकी तबीयत खराब रहने लगी और कुछ महीनों के बाद उसकी मौत हो गई. वह जासूस था रवींद्र कौशिक उर्फ नबी अहमद. देश की खुफिया एजेंसियां उसके बड़े-बड़े कारनामों के चलते उसे ब्लैक टाइगर के नाम से पहचानती थीं. रवींद्र की मौत के बाद भी बदकिस्मती ने उसका साथ नहीं छोड़ा. रवींद्र का शव कभी भारत वापस नहीं आ पाया. उस बैरक में रवींद्र के साथ रहे एक और भारतीय जासूस गोपालदास बताते हैं, ‘कौशिक की मौत के बाद जेल सुपरिंटेंडेंट ने हमें बताया था कि उसने भारतीय उच्चायोग से लाश रवींद्र के घर (भारत) पहुंचाने के लिए कहा था. लेकिन उच्चायोग का जवाब था कि उसे वहीं दफना दिया जाए.’

रवींद्र कौशिक का नाम हाल ही में एक बार फिर चर्चा में आ गया जब सलमान खान अभिनीत फिल्म ’एक था टाइगर’ रिलीज होने वाली थी. रवींद्र के परिवार का आरोप है कि फिल्म निर्माताओं को फिल्म बनाने से पहले उनसे अनुमति लेनी चाहिए थी क्योंकि इसकी कहानी रवींद्र के जीवन पर आधारित है. मगर इस सारे विवाद के बीच भारतीय जासूसों के प्रति भारत सरकार और खुफिया एजेंसियों के उस उपेक्षापूर्ण और कहीं-कहीं बर्बर रवैये की ओर किसी का ध्यान नहीं गया जिसके चलते रवींद्र कौशिक जैसे कई जासूस गुमनामी की मौत मर गए. और जो किसी तरह अपने देश वापस आ पाए वे आज तक उस दिन को कोस रहे हैं जब उन्होंने इन एजेंसियों के लिए जासूस बनना स्वीकार किया था.

पंजाब सहित पाकिस्तान की सीमा से सटे राज्यों में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्होंने भारतीय खुफिया एजेंसियों के लिए पाकिस्तान में जासूसी की है. इनमें से ऐसे जासूसों की संख्या कम नहीं जो जासूसी करते हुए पाकिस्तान में पकड़े गए और उन्हें 25 से 30 साल तक की सजा हुई. कुछ को फांसी भी हुई, कुछ सजा काटने के बाद भी दशकों तक पाकिस्तानी जेल में सड़ते रहे. इनमें से कुछ अब भी वहीं हैं. हाल ही में पाकिस्तान से 30 साल की सजा काट कर आए सुरजीत की तरह ही कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपनी पूरी जवानी जेल में ही बिता दी. कइयों की पाकिस्तानी जेल में ही मौत हो गई. परिवारवालों को उनका शव तक नहीं मिला क्योंकि हमारी सरकार ने उनका शव लेने से ही इनकार कर दिया.

सूत्र बताते हैं कि खुफिया एजेंसियों की सबसे ज्यादा नजर भारत की सीमा से जुड़े गांवों पर ही होती है.

वजह यह है कि यहां के लोगों का रहन-सहन, बातचीत, खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा या यह कहें कि लगभग पूरी जीवन संस्कृति उस पार (पाकिस्तान) रहने वालों से काफी मिलती-जुलती है. इन गांवों में खुफिया विभाग का अपना एक व्यापक नेटवर्क है, जो लगातार ऐसे लोगों पर नजर बनाए रखता है जिनसे जासूसी करवाई जा सके. ऐसे लोगों को मनाने के लिए एजेंसियां हर तरह के हथकंडे इस्तेमाल करती हैं. पहले उन्हें अच्छे पैसे और सुनहरे भविष्य का लालच दिखाया जाता है. उनसे कहा जाता है कि अगर वे एजेंसी के लिए काम करते रहे तो उन्हें बहुत जल्दी विभाग में स्थायी कर दिया जाएगा. उन्हें तमाम तरह की सुविधाएं देने का वादा एजेंसियों द्वारा किया जाता है. कहा जाता है कि अगर वे पाकिस्तान में गिरफ्तार हो गए तो उनके घरवालों का पूरी तरह से ख्याल रखा जाएगा. अगर वे गिरफ्तार हो भी गए तो परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि सरकार उन्हें दो से तीन महीने के अंदर आराम से छुड़वा लेगी.

इसके बाद भी अगर सामने वाला तैयार नहीं होता तो अंत में एजेंसियां आखिरी के पहले वाला दांव खेलती हैं. इसके बाद सामने वाला गर्व से सीना फुलाए पाकिस्तान जाने का प्रस्ताव मान लेता है. सामने वाले से अधिकारी कहते हैं कि उन्हें वे जो देश-सेवा का मौका दे रहे हैं वह बहुत कम भारतीयों को नसीब होता है. यह दांव 95 फीसदी से अधिक लोगों को चित कर देता है और वे बिना ज्यादा सवाल-जवाब किए जासूस बनने को राजी हो जाते हैं. बाकी जो पांच फीसदी बचते हैं उनका भी इलाज है एजेंसियों के पास. वह इलाज ऐसा है जिसे सुनकर आपके पैरों तले जमीन खिसक जाएगी (देखें व्यथा कथा – 3).

जीवन संस्कृति में समानता होने के अलावा और भी कई वजहों से एजेंसियों की नजर सीमा पर बसे गांवों के लोगों पर होती है. सबसे पहली बात यह कि बॉर्डर के इन गांवों में प्रायः गरीबी अपनी सभी कलाओं के साथ मौजूद रहती है. न तो इन गांवों में शिक्षा की व्यवस्था है, न स्वास्थ्य की. और न ही यहां कोई रोजगार है. लोग बमुश्किल दो जून की रोटी जुटा पाते हैं. जिन लोगों के पास थोड़ी-बहुत खेती लायक जमीन है, वे अलग परेशान रहते हैं. सीमा पर कंटीले तारों, बारूदी सुरंगों और बाकी अन्य सुरक्षा एहतियातों के कारण खेती करने में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. ऐसे में इन लोगों के पास जीवनयापन का कोई विकल्प नहीं बचता.

अशिक्षा और गरीबी का संयोग अन्य जगहों पर घातक हो सकता है लेकिन जासूसी के लिए यह सबसे मुफीद होता है. ऐसे में लोगों को जासूसी के लिए तैयार करना आसान हो जाता है. भर्ती करने के बाद शुरू होती है ट्रेनिंग की प्रक्रिया. इन जासूसों को शुरू में दो से तीन महीने की ट्रेनिंग दी जाती है. जब ये काम करना शुरू कर देते हैं तो बीच-बीच में विशेष प्रशिक्षण भी दिया जाता है. प्रशिक्षण में इन्हें विभिन्न हथियारों की पहचान कराई जाती है. पाकिस्तान के बारे में बताया जाता है, वहां की सेना के बारे में बताया जाता है और नक्शा देखना और पढ़ना सिखाया जाता है. इन भावी जासूसों को उर्दू बोलना और इस्लाम धर्म की तमाम बारीकियां भी सिखाई जाती हैं. यहां तक कि कुछ मामलों में इनका खतना तक किया जाता है. फिर उन्हें एक मुसलिम नाम और पाकिस्तानी पहचान दी जाती है.

प्रशिक्षण की पूरी प्रक्रिया से गुजरने के बाद इन लोगों को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है. पहले वर्ग में वे लोग होते हैं जिन्हें लंबे समय तक प्रशिक्षित किए जाने के बाद पाकिस्तानी नागरिक बनकर वहीं पाकिस्तान में रहना होता है. इन्हें ‘रेजीडेंट एजेंट’ कहा जाता है. रवींद्र कौशिक ऐसा ही एजेंट था. कौशिक को रॉ ने1973 में एजेंट बनाया था और कुछ सालों के बाद ही वह पाकिस्तान में रेजीडेंट एजेंट बन गया था. वहीं उसने एक कॉलेज में एडमिशन लिया और एलएलबी की डिग्री पूरी की जिसके बाद वह पाकिस्तानी सेना में क्लर्क बन गया. 1983 में अपनी गिरफ्तारी तक उसने रॉ को कई खुफिया सूचनाएं भेजीं थीं. रेजीडेंट एजेंटों में से कई अविवाहित होते हैं और किसी पाकिस्तानी लड़की से शादी करके स्थायी नागरिकों की तरह रहने लगते हैं. रवींद्र ने भी पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी की लड़की से शादी की थी.

जासूसों के दूसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जिनका काम पहले वर्ग के लोगों तक पैसे आदि पहुंचाना और उनके द्वारा दी गई खुफिया जानकारी को पाकिस्तान जाकर वहां से लाने का होता है. ये लोग सीमा पार करके थोड़े-थोड़े अंतराल पर वहां जाते-आते रहते हैं.

तीसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जो ‘गाइड’ कहलाते हैं. इन लोगों का काम दूसरे वर्ग के लोगों को इस पार से उस पार लाना-ले जाना होता है. ये जासूसों को पाकिस्तान बॉर्डर क्रॉस कराते हैं. जासूसों को पाकिस्तान की सीमा में ‘लॉन्च’ कराके ये लोग उन्हें आगे का रास्ता समझाकर वापस आ जाते हैं. लॉन्च शब्द जासूसी की भाषा में सीमा पार कराने के लिए प्रयोग किया जाता है.

लंबे समय तक रॉ के लिए जासूसी कर चुके गोपालदास बताते हैं, ‘हमें पाकिस्तानी फौजी ठिकाने, फौजी हवाई अड्डे, सेना के मूवमेंट्स की डिटेल, तोप, हथियारों और गोला-बारूद की जानकारी, पुलों की फोटो और नक्शे आदि अपनी खुफिया एजेंसियों को देने होते थे.’  इसके साथ ही जो सबसे बड़ा काम इन लोगों को करना होता है वह है ऐसे पाकिस्तानी नागरिकों की तलाश जो भारत के लिए जासूसी कर सकें. इनमें से सबसे ज्यादा डिमांड सेना और विभिन्न सुरक्षा बलों और सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े लोगों की है. गोपालदास 1978 में रॉ के एजेंट बने थे. उनका काम था सीमापार जाकर पाकिस्तान में तैनात एजेंटों से जानकारी लाना और एजेंसी को सौंपना. 1984 में वे पाकिस्तान में गिरफ्तार हो गए. उन्हें 25 साल की सजा सुनाई गई. पिछले साल ही वे पाकिस्तान की जेल से रिहा होकर भारत आए हैं. (देखें व्यथा कथा -1)

पाकिस्तान में भारत के जासूस रहे करामत राही बताते हैं, ‘मेरे काम का बड़ा हिस्सा यह था कि मैं पाकिस्तानी सेना के उन सैनिकों और अधिकारियों को भारत लेकर आऊं जो भारत सरकार के लिए काम करते हैं.’ करामत के मुताबिक ये लोग रॉ के अधिकारियों से बातचीत करते थे और बाद में भारतीय जासूस ही उन्हें सकुशल सीमा पार करवा देते थे.

जासूसों को मिलने वाला पारिश्रमिक भी उनके काम की तरह ही जटिल है. कुछ जासूस ऐसे हैं जिन्हें हर महीने की एक निश्चित रकम दी जाती है, कुछ को सरहद पार की हर ‘ट्रिप’ के हिसाब से पैसा दिया जाता है. लेकिन बाकी जगहों की तरह यहां भी हफ्ता वसूली और भ्रष्टाचार है. कई ऐसे मामले हैं जहां वरिष्ठ अधिकारी जासूस को मिले पैसों में से एक हिस्से की मांग करते हैं. चूंकि मामले को लेकर न कोई पारदर्शिता है और न ही जासूसों को रखने के लिए कोई लिखा -पढ़ी होती है. पूरी नौकरी जबान पर ही चलती है, ऐसे में जासूसों को भी पता नहीं चलता कि आखिर उन्हें देने के लिए ऊपर से कितना पैसा आता है. कई साल तक देश के लिए जासूसी करते रहे एक शख्स हमें बताते हैं कि कई जासूस स्थायी नौकरी की चाहत में वरिष्ठ अधिकारियों को खुश करने में लगे रहते हैं. वे सोचते हैं, साहब खुश रहेंगे तो जल्द ही वे उसे परमानेंट कर देंगे.

पाकिस्तान में जासूसी के लिए 10 साल की सजा काट चुके 60 वर्षीय बलविंदर सिंह कहते हैं, ‘एजेंसियां जासूसों को एके-दूसरे के पास थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद भेजती रहती हैं. जैसे कि आज आप रॉ के लिए काम कर रहे हैं, तो कुछ महीनों बाद आपको मिलेट्री इंटेलीजेंस के पास भेज दिया जाएगा. फिर आईबी वालों के यहां. ये लोग ऐसा इसलिए करते हैं ताकि जासूस लंबे समय तक काम करने के बाद स्थाई नौकरी की मांग ना करने लगे. इसलिए वे तीन साल की सर्विस एक साथ पूरी नहीं होने देते, उसके पूरा होने के पहले जासूसों को दूसरी एजेंसी को सौंप दिया जाता है.’ गंभीर रूप से बीमार बलविंदर सिंह इस समय अमृतसर के नजदीक गौंसाबाद में रहते हैं.

स्थायी नौकरी के लालच में ये जासूस अधिकारियों के हर जायज-नाजायज आदेशों का पालन करते रहते हैं.

लेकिन उन्हें पता नहीं होता कि ये लोग एजेंसियों के लिए तभी तक उनके आदमी हैं जब तक वे पकड़े नहीं जाते. पकड़े जाने के बाद उन्हें एजेंसियां अपने काम के लिए खतरा ही मानती हैं और वे उन्हें पहचानने तक से इनकार कर देती हैं.

अगर ये लोग सजा पूरी करके भारत आ भी गए तो एजेंसियां इन पर नजर रखती हैं. दरअसल पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियां भी ऐसे जासूसों की ताक में रहती हैं जो भारत के लिए पाक में काम कर रहे हों. जासूस गोपालदास बताते हैं, ‘पाकिस्तानी अधिकारी कहते हैं कि हम तुम्हें यहां इतना प्रताड़ित करेंगे कि तुम ऐसे ही मर जाओगे. अगर बच गए तो शारीरिक और मानसिक किसी लायक नहीं छोड़ेंगे. इतना डराने-धमकाने के बाद हमें कहा जाता है कि यदि हम उनके लिए काम करना स्वीकार कर लें तो वे हमें छोड़ सकते हैं. जासूसी की भाषा में ऐसे लोगों को डबल एजेंट कहा जाता है.’

डबल एजेंट बनाने की भी प्रकिया बेहद फिल्मी है. भारतीय खुफिया एजेंसियों के लिए लंबे समय तक पाकिस्तान में जासूसी करने वाले तथा जासूसी के जुर्म में ही पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में 18 साल तक कैद रहे मोहनलाल भास्कर अपनी आत्मकथा ‘मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था’ में इसका जिक्र करते हैं, ‘वह बोला, ‘देखो, बेवकूफी की बात मत करो. हम तुम्हें एक मौका दे रहे हैं अपनी जिंदगी बनाने का. हिंदुस्तानवालों ने तो तुम्हारी जिंदगी खराब कर दी. अब अगर तुम लौट भी जाओ, जिसकी अभी 10-15 साल तक कोई उम्मीद नहीं, तो वे ही तुम्हें शक की निगाह से देखेंगे, दूसरे वे तुम्हें कौड़ी के मोल नहीं पूछेंगे. वे अफसर जिन्होंने तुम्हें भेजा है, तुम्हें पहचानने से इनकार कर देंगे. तुम तो यहां आराम से बैठे जेल की रोटियां तोड़ रहे हो, उधर तुम्हारी बेबस मां लोगों के बर्तन मांजकर गुजारा चलाती है और तुम्हारी बीवी नौकरानियों जैसी जिंदगी गुजार रही है. अपने बेटे की तरफ सोचो, जिसका अभी मुंह तुमने नहीं देखा. हम जेल से तुम्हारे फरार होने का नाटक रचेंगे. तुम्हारी फरारी की खबर अखबारों और रेडियो में देंगे. … तुम्हें सिर्फ इतना करना है कि या तो किसी तरह खत लिखकर अपने मां-बाप को यहां बुला लो या अपनी बीवी या बहन को. वह जमानत के तौर पर हमारे पास रहेंगे. हम उन्हें मेहमानों की तरह रखेंगे. जब तुम पांच साल तक हमारे लिए काम कर चुके होगे, तो हम उन्हें वापस भेज देंगे.’

जासूसों के पाकिस्तान में पकड़ लिए जाने के बाद उनके साथ वहां की एजेंसियों द्वारा जिस तरह से पूछताछ की जाती है वह पूरी प्रक्रिया हाड़ कंपाने वाली है. पकड़ने के बाद जासूसों की आंख पर पट्टी बांधकर उन्हें पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों के इंटेरोगेशन सेंटर में ले जाया जाता है. जासूस बताते हैं कि उन्हें एक छोटी-सी कोठरी में रखा जाता है जहां 24 घंटे और बारहों महीने रात रहती है. जासूस गोपालदास बताते हैं कि उन्हें पकड़े जाने के 15 दिन तक न कोई खाना दिया गया और न ही पानी. पानी उतना ही मिलता था कि जिससे जीभ गीली हो सके. यहां सुरक्षा एजेंसियों के सबसे बर्बर अधिकारियों को पूछताछ के लिए लगाया जाता है.

गोपालदास अपनी हिरासत के शुरुआती दिन याद करते हुए कहते हैं, ‘जब मैं वहां पहुंचा तो सबसे पहले उन्होंने मेरे पूरे कपड़े उतरवा दिए और फिर थर्ड डिग्री का टॉर्चर शुरू कर दिया. इस दौरान वे रस्सी के सहारे आपको उल्टा लटकाकर हंटर और डंडे से बिना कुछ कहे और पूछे पीटने लगते हैं. एक समय पर एक आदमी को लगातार चार से पांच लोग तब तक पीटते रहते हैं जब तक कि आप बेहोश न हो जाएं, फिर जैसे ही कुछ समय बाद आप होश में आते हैं वे फिर से पीटने लगते हैं. बिजली के शॉक देते हैं, गुप्तांगों में मिर्ची का पावडर लगाते हैं. प्रताड़ना का आलम कुछ ऐसा होता है कि आप चाहते हैं कि कोई आए और आपको गोली मार दे.’

यह पूरी प्रताड़ना जासूसों के पकड़े जाने से लेकर अगले तीन से पांच साल तक लगातार चलती है. पकडे़ जाने के बाद सभी जासूसों को इस चरण से गुजरना होता है. जब फौज के अधिकारी आपको हर तरह से प्रताड़ित कर चुके होते हैं तब आपका मामला वे कोर्ट में ले जाते हैं. गोपालदास कहते हैं, ‘ बहुत-से जासूसों की मौत तो इस तीन से पांच साल तक चलने वाली पूछताछ के दौरान ही हो जाती है. पाक अधिकारियों का यह प्रयास होता है कि वे आपसे पहले पूरी सूचना निकलवा लें. उसके बाद आपको इतना प्रताड़ित करें कि आप जिंदा तो रहें लेकिन शारीरिक और मानसिक रूप से आपकी मौत हो जाए.’ ऐसे ही एक जासूस रॉबिन मसीह के पिता याकूब मसीह कहते हैं, ‘मेरा बेटा 15 साल पाकिस्तान की जेल में सजा काट कर छूटा, जब वह यहां आया तो एक जिंदा लाश में तब्दील हो चुका था. वहां उन्होंने उसे इतना प्रताड़ित किया कि वह शादी के लायक तक नहीं बचा.’

जासूस बताते हैं कि जब कोर्ट से उन्हें जेल की सजा हो जाती है तब जाकर उनकी जान में जान आती है. हर जासूस चाहता है कि उसे जल्द से जल्द जेल की सजा हो जाए क्योंकि इसके बाद ही जिंदा बच पाने की उम्मीद बनती है.

यहां यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है कि जासूसों को ट्रेनिंग के दौरान सबसे पहला पाठ यह पढ़ाया जाता है कि उनके परिवार, दोस्त और नाते-रिश्तेदार किसी को भी यह नहीं पता चलना चाहिए कि वे जासूसी का काम करते हैं. जासूस करामत राही बताते हैं, ‘मैं सालों तक भारतीय एजेंसियों के लिए जासूसी करता रहा लेकिन मेरी पत्नी तक को नहीं पता था कि मैं जासूस हूं.’ यह स्थिति हर जासूस के साथ होती है. सुरजीत सिंह का ताजा मामला हमारे सामने है.

सन 1982 में पाकिस्तान में सुरजीत सिंह की गिरफ्तारी होती है. घरवालों को कुछ पता नहीं होता कि वे कहां हैं. दिन महीनों में और महीने सालों में बदल जाते हैं. जब कहीं से कोई खबर नहीं मिलती तब घरवाले यह मानने को मजबूर हो जाते हैं कि वे अब कभी नहीं आएंगे. 23 साल बाद पाकिस्तान की जेल से एक कैदी रिहा होकर भारत आता है तो अपने साथ एक अन्य कैदी की चिट्ठी भी लाता है. वह उस कैदी के घर जाकर उसकी पत्नी को चिट्ठी सौंपता है. चिट्ठी पढ़कर उस महिला को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं होता. यह महिला सुरजीत सिंह की पत्नी हैं जिन्हें सुरजीत ने जेल से रिहा हुए कैदी के माध्यम से यह बताया है कि वह जिंदा है और पाकिस्तान की जेल में कैद है. उन्हें जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया है और सजा-ए-मौत सुनाई गई है. सुरजीत जैसे दर्जनों उदाहरण हैं. इनके आधार पर कहा जा सकता है कि गिरफ्तार होने के बाद सिर्फ यह खबर अपने घरवालों तक पहुंचाने में कि वे पाकिस्तानी जेल में हैं, एक जासूस को दो दशक से ज्यादा लग सकते हैं.

यहीं भारतीय सुरक्षा एजेंसियों का क्रूरतम चेहरा सामने आता है. जासूस कहते हैं कि यह मान लिया कि पाकिस्तान तो उनसे दुश्मनी निकाल रहा है लेकिन भारतीय एजेंसियों का तो यह फर्ज है कि वे उनके घरवालों किसी तरह उनके बारे में बताएं. गोपालदास कहते हैं, ‘ये मान लेते हैं आप जासूसी की बात मत बताओ लेकिन इतना तो हमारे घरवालों को बता ही सकते हो कि हम जिंदा हैं. लेकिन एजेंसी वाले यह तक नहीं करते. जो आदमी इनके लिए अपनी जान पर खेल कर पाकिस्तान में जासूसी कर रहा हो उसकी गिरफ्तारी पर ये लोग उसके घरवालों से न तो कोई संपर्क करते हैं, न ही उन तक कोई सूचना पहुंचाते हैं और न ही उनका कुशलक्षेम पूछते हैं.’ अगर सुरजीत सिंह की ही बात करें तो जेल से छूट कर जब वे अपने घर आए तो उन्हें पता चला कि पिछले 30 साल में कोई उनके घरवालों का हाल-चाल तक लेने नहीं आया था. इस बीच उनके सात भाइयों की मौत हो गई, एक बेटा ब्रेन हैमरेज के चलते चल बसा, उनकी पत्नी चलने-फिरने के लायक नहीं रही, घरवालों के पास इतने पैसे भी नहीं बचे कि वे अपनी रोजी-रोटी चला सकें.

खुफिया एजेंसियों के लिए पाकिस्तान में जासूसी कर चुके और 15 साल पाकिस्तान जेल में सजा काट चुके 65 वर्षीय मोहिंदर सिंह आज अमृतसर की सड़कों पर रिक्शा चलाते हैं. 1986 में जब वे रिहा होकर वापस आए तब उन्होंने शादी की, लेकिन पत्नी कुछ महीनों के बाद ही गंभीर रूप से बीमार हो गईं. खैर,  किसी तरह रिक्शा चलाकर उन्होंने पत्नी का इलाज कराया. लेकिन थोड़े दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गई. ‘आप मुझे देख ही रहे हैं, जिस उम्र में आदमी शांति से जीता है, उस उम्र में मुझे रिक्शा चलाकर रोटी कमानी पड़ रही है. पूरी जवानी तो इस देश ने ले ली अब बुढ़ापे में रिक्शा चलवा रहा है…’ मोहिंदर हारे-से स्वर में कहते हैं.

किसी तरह जब जेल की सजा ये जासूस काट लेते हैं तो उसके बाद इन्हें एक नई लड़ाई लड़नी होती है. जेल से बाहर निकलने की.

स्थिति यह है कि पाकिस्तानी जेलों में कई ऐसे जासूस अभी तक कैद हैं जिनकी सजा आठ से 10 साल पहले पूरी हो चुकी है. गोपालदास बताते हैं, ‘पाकिस्तानी जेल में मेरी ऐसे कई कैदियों से मुलाकात हुई जिनकी सजा 10 साल पहले ही पूरी हो चुकी थी, लेकिन कोई उनकी रिहाई के लिए प्रयास नहीं करता. पाकिस्तान से कोई क्या शिकायत करे जब आपके अपने देश की सरकार को ही इस बात से कोई मतलब नहीं है.’  वे ऐसे ही एक व्यक्ति रामलाल के बारे में बताते हैं जिसे बॉर्डर क्रॉस करने के जुर्म में एक साल की सजा हुई लेकिन वह पिछले 10 साल से जेल में है.

गोपालदास के मुताबिक भारत सरकार अगर थोड़ा-बहुत प्रयास करती भी है तो सिर्फ उन मामलों में जो मीडिया में काफी चर्चित रहे हों. उदाहरण के रूप में सरबजीत का मामला है. इसके अलावा उसे उन सैकड़ों भारतीयों से कोई मतलब नहीं है जो बेचारे जेलों में अपनी सजा खत्म होने के बाद भी सड़ रहे हैं. ‘सरकार जासूसों को मरने के लिए छोड़ देती है और उनके मरने के बाद उनकी लाश तक उनके घरवालों को नहीं पहुंचाती’, गोपालदास बताते हैं. रवींद्र कौशिक के अलावा भी ऐसे कई जासूस है जिनकी मौत पाकिस्तान की जेल में हुई लेकिन उनकी लाश कभी अपने वतन नहीं लौट पाई. पंजाब के पठानकोट के रहने वाले इनायत मसीह को सन 1983 में जासूसी के आरोप में पाकिस्तान में पकड़ा गया था. उसे पाकिस्तान में पूछताछ के दौरान इतना प्रताड़ित किया गया कि उसकी मृत्यु हो गई. इस बार भी भारत सरकार ने उसका शव लेने से इनकार कर दिया. ऐसा ही एक मामला अमृतसर के रहने वाले किरपाल सिंह का था. उन्हें जासूसी करने के आरोप में पाकिस्तान में सन 2000 में फांसी दे दी गई. लेकिन उनका शव भी कभी भारत नहीं आ पाया.

इन त्रासदियों और प्रताड़नाओं से गुजरने के बाद जब कोई जासूस किसी तरह रिहा होकर वापस भारत आ जाता है तो उसे उम्मीद होती है कि वह जिन लोगों और एजेंसियों के लिए काम करता था वे उसके किए के लिए उसके कृतज्ञ होंगे और पूरी जवानी देश के लिए पाकिस्तानी जेल में खपा देने का कुछ उसे मुआवजा भी देंगे. लेकिन जब भारत वापस आकर वे उन अधिकारियों से मिलते हैं जिन्होंने उन्हें जासूसी करने पाक भेजा था तो वे उनके योगदान को स्वीकारने और उन्हें सम्मानित करने के बजाय उन्हें पहचानने तक से इनकार कर देते हैं. फिर शुरू होती है एक ऐसी लड़ाई जिसका अंत खुद जासूसों को पता नहीं. ऐसे ही कई जासूसों ने अपने प्रति हुए इस अन्याय के खिलाफ अदालत में शरण ली है. इनका केस लड़ रहे वरिष्ठ वकील रंजन लखनपाल कहते हैं, ‘इन जासूसों के पास ऐसे तमाम सबूत हैं जो ये प्रमाणित कर सकें कि इन लोगों ने भारत की विभिन्न खुफिया एजेंसियों के लिए पाकिस्तान में जाकर जासूसी की है. इन लोगों का योगदान एक सैनिक से बढ़कर है. इन्होंने देश की सेवा में अपना पूरा जीवन होम कर दिया, लेकिन इनके साथ देश की सरकार और खुफिया एजेंसियों द्वारा जिस तरह का व्यवहार किया जा रहा है वह बताता है कि इन्हें बहुत बड़ा धोखा दिया गया है.’

ऐसा नहीं है कि सिर्फ सरकार और खुफिया एजेंसियां इनके जख्मों पर नमक छिड़कने का काम कर रही हैं.  कुछ अदालतें भी इस काम में काफी आगे हैं. ऐसा ही एक मामला करामत राही का है. करामत राही के मामले को लेकर रंजन लखनपाल ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में अपील की थी. जज ने मामले की सुनवाई के दौरान लखनपाल को तुरंत केस वापस लेने के लिए कहा. लखनपाल से कहा गया कि इस तरह के केस लेना देश के साथ गद्दारी है, इसलिए तुरंत यह केस वापस लिया जाए. गोपालदास कहते हैं, ‘जब हम कोर्ट में जाते हैं तो हमसे प्रमाण मांगा जाता है कि दिखाओ क्या सबूत है कि तुम जासूस थे. क्या हमारी कोर्ट यह मानती है कि पाकिस्तानी अदालतें बिना बात के ही किसी को जासूसी के आरोप में सजा दे देती हैं. अगर वे ऐसे ही फर्जी फैसले देतीं तो सारे भारतीय मछुआरे जो पाकिस्तानी सीमा में कभी-कभी चले जाते हैं उन पर भी वे जासूसी का केस ही डालतीं.’

जासूसों से जुड़े इन सभी मसलों पर बात करने के लिए जब तहलका ने खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश की तो ज्यादातर ने इसे संवेदनशील मसला बताते हुए टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. हालांकि इनमें से रॉ के एक पूर्व प्रमुख ने यह माना कि एजेंसी पाकिस्तान में जासूसी करवाती है लेकिन ऐसे सभी एजेंटों को पहले ही यह बता दिया जाता है कि उनके पकड़े जाने की दशा में एजेंसी उन्हें पहचानने से इनकार कर देगी. वे कहते हैं, ‘जासूसों के साथ एक मौखिक समझौता होता है. और हर एजेंसी का जासूसों की सहायता या पुनर्वास करने का अपना अलग तरीका होता है. चूंकि जासूसी का पूरा तरीका ही गैरपारंपरिक और सीक्रेट होता है इसलिए हम गुपचुप तरीके से ही उनकी मदद करते हैं.’ लेकिन कई सालों से मीडिया में जासूसों के ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जहां उनको कोई मुआवजा नहीं मिला या पुनर्वास नहीं किया गया. इस पर रॉ के ये पूर्व प्रमुख कहते हैं, ‘शोर मचाने वाले लोग चोर-उचक्के होते हैं. यदि कोई सच में जासूस है तो उसकी अच्छे से व्यवस्था की जाती है.’ लेकिन जैसा कि यही अधिकारी स्वीकार करते हैं कि जासूस बनाने का काम अतिगोपनीय होता है, ऐसे में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि निचले स्तर पर इन जासूसों के साथ क्या बर्ताव होता है. रवींद्र कौशिक के भानजे विक्रम बताते हैं, ‘आज तक रॉ का कोई अधिकारी हमारे परिवार से मिलने नहीं आया. न किसी तरह की कोई सहायता की. मामा जी (कौशिक) की मृत्यु के बाद कुछ समय तक नानी (रवींद्र की मां) के नाम से 500 रुपये का चेक आता था जो बाद में 2000 रुपये हो गया लेकिन 2008 में वह भी बंद हो गया.’

सीमा के नजदीक गांवों में ऐसे कई जासूसों के उदाहरण भी हैं जिन्होंने दस से पंद्रह साल जासूसी के आरोप में जेल में गुजारे. उनके परिवारों को इस दौरान कोई मुआवजा नहीं मिला और वे बेहद बुरी हालत में रहने को मजबूर हैं. बेशक कुछ मामलों में खुफिया एजेंसियों द्वारा जासूसों के पुनर्वास के दावे सही हों लेकिन ऐसे उदाहरण इन इलाकों में एजेंसियों की छवि भी खराब कर रहे हैं साथ ही इससे वे लोग भारतीय सुरक्षातंत्र से दूर भी हो रहे हैं जिनकी मदद के बिना देश की सुरक्षा को पुख्ता बनाना असंभव है.

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