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मुलायम ‌सिंह

समाजवादी पार्टी

भाषा के क्रियोलीकरण के खतरे

बीते दिनों भारत भवन ने भोपाल में भूमंडलीकरण और भाषा के क्रियोलीकरण की समस्या पर दो दिन का एक परिसंवाद आयोजित किया. हालांकि परिसंवाद जितना महत्वपूर्ण था, लोगों की उपस्थिति या भागीदारी उस लिहाज से काफी कम थी. हो सकता है, इसकी एक वजह आयोजन की परिकल्पना या आयोजकों की सीमा में निहित हो, लेकिन यह भी स्पष्ट तौर पर समझ में आता रहा कि लोगों के लिए भाषा वह मुद्दा नहीं रह गई है जिस पर वे संजीदगी से विचार करने की फुरसत निकालें. क्या इसलिए कि वाकई भाषा की भूमिका हमारे जीवन में सीमित होती जा रही है? तकनीक हमारे जीवन में इस बुरी तरह छा गई है कि उसने कई दूसरी चीज़ों को बेदखल कर डाला है. दोस्ती, रिश्तेदारी, आपसदारी- ये सब या तो तकनीक के माध्यम से संभव हो पा रही हैं या बिल्कुल हमारी स्मृति से गायब होती जा रही हैं. उनके लिए हमारे पास तकनीक के अलावा कहीं और कोई अवकाश नहीं है. इन सामाजिक उपादानों के संदर्भ में जो बात स्थूल स्तर पर बहुत प्रत्यक्ष है वही सूक्ष्म स्तर पर भाषा को लेकर भी अनुभव की जा सकती है- अगर हमारे पास अनुभव करने की इतनी क्षमता बची भर हो.

जब दुनिया इतनी आसान और आरामदेह हो जाए, जब ज़माना वाकई मुट्ठियों या चुटकियों में सिमटा दिखाई दे तो फिर भाषा की ज़रूरत क्यों रह जाती है? 

दरअसल तकनीक ने किया क्या है? वह हर चीज को न्यूनीकृत कर रही है. वह सब कुछ पहले से इतना व्यवस्थित, इतना पूर्वनियोजित कर दे रही है कि दिल और दिमाग को किसी तरह का कष्ट न हो. ऐल्विन टॉफ़लर 1964 के नितांत सुस्त समय में- कम से कम आज की रफ्तार के मुकाबले- जिस ‘फ्यूचर शॉक’ से आक्रांत था, उसे भी जैसे यह तकनीक एक तरह से नियोजित कर ले रही है. उसके पास अब अतीत की सारी तस्वीरें हैं- बिल्कुल हमारी पैदाइश से लेकर हमारे डिग्री और नौकरी हासिल करने और पिछली शाम पहाड़ घूमने तक की-  और भविष्य की सारी परिकल्पनाएं हैं- आने वाले दिनों में हमें कहां बसना है, कहां नौकरी करनी है, बच्चों को किन स्कूलों में पढ़ाना है, उन्हें आगे चल कर क्या बनाना है- इन सब के ब्योरों सहित- और अतीत और भविष्य के बीच उस सारे वर्तमान पर भी उसका कब्ज़ा है जिसमें हमारे मित्र, सहयोगी, अपने-पराये, घर-दफ्तर सब शामिल हैं.

जब दुनिया इतनी आसान और आरामदेह हो जाए, जब जमाना वाकई मुट्ठियों या चुटकियों में सिमटा दिखाई दे तो फिर भाषा की जरूरत क्यों रह जाती है, या उसकी जगह क्या रह जाती है? एक तरह से यह तर्क उन माध्यमों में भी चल पड़ा है जिनका वास्ता शब्दों या भाषा से है. अखबार अब बड़े लेख नहीं छापते, छापते हैं तो वे पढ़े नहीं जाते. वे बहुत जानी-पहचानी शब्दावली से बाहर नहीं जाते- इस डर से कि उनका पाठक शब्दों के अर्थ और आशय खोजने की जगह कोई नया अखबार खोज लेगा जिसकी भाषा कहीं ज्यादा ‘आरामदेह’ हो- यानी दिलो-दिमाग पर सोचने का अतिरिक्त बोझ न डाले. टीवी चैनलों का नजरिया भी बेहद साफ है- खबर वैसी हो जो पाठक को कुछ बहलाए, कुछ सहलाए और कुछ यह तसल्ली दे कि यह खबर उसके काम की है, उसी की है. दिन भर के थके-मांदे दिमाग को विचार और सरोकार का बोझ नहीं चाहिए.

सवाल है कि इसमें बुराई क्या है. वाकई जब जीवन इतना आसान है तो उसे हम बोझिल क्यों बनाएं- नकली भाषा की तरह नकली चिंताओं की दुकान क्यों सजाएं? दरअसल दुकान का यह रूपक जान-बूझ कर इस्तेमाल किया गया है- बस यह याद दिलाने के लिए कि जो तकनीक इतना आराम दे रही है वह मुफ्त में नहीं दे रही, उसकी वह पूरी कीमत भी वसूल रही है और हमें-आपको बस ऐसे ग्राहकों की तरह देख रही है जो मोल चुकाएंगे तभी कुछ हासिल कर पाएंगे. और हम मोल चुका भी रहे हैं. जीवन में जो थकान है, किसी नए या दूर खड़े तनाव से बचने की जो घबराहट है, लगातार भागते रहने की जो मजबूरी है, और इस सारे तनाव के बीच मनोरंजन के नाम पर बहुत हल्का और विचारशून्य खोजने की जो चाहत है, वह इस नए जीवन की देन है. अगर ठीक से समझने की कोशिश करें तो हम पाएंगे कि दरअसल यह तकनीक का नहीं, उस पूंजी का खेल है जो इस तकनीक को संभव करती है और हमारा जीवन हमारे ऊपर थोपी हुई इच्छाओं के मुताबिक बदलता चलता है.

तकनीक के कंधों पर सवार यह पूंजी हमें एक नया मनुष्य बना रही है और इसी क्रम में चुपचाप हमसे हमारी भाषा भी छीन ले रही है. साफ तौर पर यहां भाषा से आशय हिंदी या मराठी या तमिल या तेलुगु या फिर अंग्रेजी से नहीं है- मनुष्य की उस बुनियादी जरूरत से है जो उसकी निजी गढ़न का आधार भी बनती है और उसके सामाजिक सरोकार का माध्यम भी. यह भाषा जितनी गहरी होती है, उसमें जितना फैलाव होता है, एक व्यक्ति और समाज के रूप में हमारे भीतर भी उतनी ही गहराई, उतना ही फैलाव आते-जाते हैं. ये फैलाव तकनीक और पूंजी को रास नहीं आते, उसे एक सपाट-समतल मैदान चाहिए जहां उसके अश्व दौड़ सकें, जहां उसका वैश्विक अश्वमेध संभव हो सके.

हमारी पूरी शब्दावली में तर्क-पद्धति और प्रक्रिया की पूरी तरह उपेक्षा करके सिर्फ कारोबार करने की नीयत दिखाई पड़ती है

भाषा का क्रियोलीकरण दरअसल इसी प्रक्रिया का हिस्सा है जिसकी मार हमारे समाज के संदर्भ में इन दिनों सबसे ज्यादा भारतीय भाषाओं और हिंदी को झेलनी पड़ रही है. हमारे अखबारों में धीरे-धीरे बिल्कुल आमफहम हिंदी शब्दों की जगह उनके अंग्रेजी अनुवादों के इस्तेमाल का फैशन चल पड़ा है, हमारे टीवी चैनलों में देवनागरी के बीच बहुत धड़ल्ले से रोमन लिपि की घुसपैठ बढ़ रही है, हमारी पूरी शब्दावली में सरोकार और विचार को बेदखल  करके, किसी तर्क-पद्धति और प्रक्रिया की पूरी तरह उपेक्षा करके सिर्फ सनसनी बेचने और कारोबार करने की नीयत सक्रिय दिखाई पड़ती है.

लेकिन यह सिर्फ एक भाषा को खत्म करने की नहीं, यह एक पूरे समाज से उसकी अभिव्यक्ति, उसके अनुभव और अंततः उसका आत्मसम्मान छीनने की प्रक्रिया है जो उसे पहले एक आत्महीन और असुरक्षित समाज में बदलती है और फिर एक ऐसे ग्राहक में जिसके हलक के भीतर कुछ आसान शब्द डाले जा सकें और उसकी जेब में पड़ा माल निकाला जा सके. निश्चय ही इस प्रक्रिया से एक भाषा के रूप में अंग्रेजी का भी नुकसान हुआ है. इन दिनों- कम से कम भारत में- जो अंग्रेजी लिखी जा रही है वह कहीं ज्यादा सतही, इकहरी और स्मृतिविहीन है. उसमें एक पेशेवर तराश जरूर है जिसकी वजह से वह एक चमकदार, विज्ञापनबाज भाषा के रूप में अपनी जगह बना लेती है. लेकिन फिर भी अंग्रेजी इस तकनीक और पूंजी की भी भाषा है, वह भारत के संदर्भ में एक विशेषाधिकार संपन्न भाषा है जो इसी विशेषाधिकार की वजह से अपना एक सांस्कृतिक दावा भी आरोपित करती चलती है, इसलिए यह समूचा क्रियोलीकरण उसके दबदबे को कुछ और अभेद्य बनाता है. फिर अंततः शिक्षा के माध्यम के तौर पर वह अपना एक अलग और विशेष समाज बनाती है जिसके अपने लेखक और बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें यह बाजार झुक कर प्रणाम करता है, अपनी बचत का एक हिस्सा दक्षिणा की तरह उन्हें देता भी है और साबित करता है कि वह उतना संस्कृतिविहीन नहीं, जितना उसे बताया जाता है.

अंततः संस्कृतिविहीनता का आरोप उस विराट भारतीय समाज पर आकर टिकता है जिससे उसकी भाषा, उसकी अभिव्यक्ति और उसके अभ्यास छीने जा रहे हैं. इस भारतीय समाज को बाजार के बौद्धिक समाज में तभी स्वीकृति मिलती है जब वह अंग्रेजी लिखना-बोलना सीखता है, उसकी पूजा करता है. भारत में दलित चेतना का जो नया उभार है उसकी कई सार्थक अभिव्यक्तियां मराठी, हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में हैं, उसको बौद्धिक नेतृत्व दे रहे लोगों की कतार बहुत बड़ी है, लेकिन अंग्रेजी के माध्यम एक ही दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद को जानते हैं जो निहायत सतही ढंग से कुछ अतिरेकी स्थापनाओं के पक्ष में खड़े होकर किसी बहस का एक उपयोगी पुर्जा बनने को तैयार रहते हैं. बाकी समाज में साहित्य और संस्कृति का ठेका बॉलीवुड के तथाकथित गिने-चुने बुद्धिजीवियों के हाथ में है. इनमें गुलजार जैसे संवेदनशील गीतकार, एक जमाने के फाॅर्मूला फिल्मों के संवाद लेखक और इन दिनों गीतकार हो गए जावेद अख्तर और विज्ञापन की दुनिया से आए प्रसून जोशी जैसे लोग हैं, लेकिन उनकी यूएसपी भी सिर्फ उनका रचनाकर्म नहीं, एक माध्यम के रूप में अंग्रेजी से उनकी निकटता और अंग्रेजी के तथाकथित बौद्धिकों से संवाद कर सकने की उनकी क्षमता है. वरना जावेद अख्तर और प्रसून जोशी जैसे रचनाकार हिंदी में निहायत औसत प्रतिभा के लोग ठहरते हैं; उनसे बेहतर कवि, गद्यकार और विचारक दस-बीस नहीं, सैकड़ों में निकलेंगे.

लेकिन इस नए बनते समाज की निगाहों में हिंदी या भारतीय भाषाओं की अपनी बौद्धिकता एक पिछड़े जमाने की चीज है. क्योंकि वह कुछ बाजार-विरोधी और प्रगतिविरोधी जान पड़ती है. क्योंकि वह विकास द्वारा बनाई जा रही मीनारों को नहीं, उसके द्वारा बेदखल किए जा रहे मैदानों को देखती है. क्योंकि वह तकनीक की नहीं, भाषा की बात करती है.

भाषा का क्रियोलीकरण दरअसल इसलिए भी खतरनाक है कि वह भाषा को उसके मूल अर्थों में भाषा नहीं रहने देता, वह उसे बस एक तकनीक में बदल डालता है जिसके जरिए आप अपनी इच्छा या राय- अगर कोई अपनी इच्छा या राय हो तो- दूसरों तक पहुंचा सकें. इसीलिए न उसमें व्याकरण का अनुशासन चाहिए और न लिपि की अपरिहार्यता. ऐसी भाषा बोलने और बरतने वाले लोग धीरे-धीरे अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता से भी वंचित होते जाते हैं, और उन्हें पता भी नहीं चलता. वे बस एक दिया हुआ काम दिए हुए वेतन पर करते हैं और दी हुई खुशी पर निसार होकर जीवन जीते रहते हैं. क्रियोलीकरण इस बौद्धिक गुलामी का पहला क़दम है जिसका प्रतिरोध जरूरी है ताकि हम सोचने-समझने वाली जमात के तौर पर बचे रह सकें.  

मोदी पर मोहित चैनल

न्यूज चैनलों की कई कमजोरियों में से एक बड़ी कमजोरी यह है कि उन्हें पूर्वनियोजित घटनाएं यानी इवेंट बहुत आकर्षित करते हैं. खासकर अगर उस इवेंट से कोई बड़ी शख्सियत जुड़ी हो, उसमें ड्रामा और रंग हो, कुछ विवाद और टकराव हो और उसमें चैनलों के लिए ‘खेलने और तानने’ की गुंजाइश हो तो चैनल उसे हाथों-हाथ लेते हैं. चैनलों की इस कमजोरी की कई वजहें हैं. पहली बात तो यह है कि दृश्य-श्रव्य माध्यम होने के नाते विजुअल उनकी सबसे बड़ी कमजोरी हैं. वे हमेशा विजुअल की खोज में रहते हैं. इवेंट में उन्हें बहुत आसानी से विजुअल मिल जाते हैं. उन्हें इसके लिए अपने दिमाग पर बहुत जोर नहीं लगाना पड़ता है क्योंकि इवेंट में उन्हें सब कुछ बना-बनाया मिल जाता है. दूसरे, इवेंट को कवर करने के लिए उन्हें कोई खास खर्च नहीं करना पड़ता. यही नहीं, ऐसे इवेंट कई बार प्रायोजित भी होते हैं जिन्हें कवर करने के बदले चैनलों को मोटी रकम मिलती है. तीसरे, इवेंट के लाइव कवरेज और उस पर स्टूडियो चर्चाओं में चैनलों को अपनी ओर से भी ड्रामा, विवाद और सस्पेंस रचने का मौका मिल जाता है. इससे उन्हें अधिक से अधिक दर्शक खींचने में भी मदद मिलती है.

यह मोदी ब्रांड की नई मार्केटिंग रणनीति है जिसमें दागों को ‘विकास की चमक’ में छिपाने की कोशिश की जा रही हैचैनलों की इस कमजोरी से राजनेता से लेकर कारपोरेट जगत तक और अभिनेता-खिलाड़ी से लेकर धर्म गुरुओं तक सभी वाकिफ हैं. वे इसका खूब इस्तेमाल भी करते हैं. वे मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में प्रचार पाने और सुर्खियों में बने रहने के लिए जमकर मीडिया इवेंट आयोजित करते हैं. आखिर उनका धंधा भी काफी हद तक सुर्खियों में बने रहने से टिका है. आश्चर्य नहीं कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की इस कमजोरी को भुनाने और अपने क्लाइंटों को अधिक से अधिक प्रचार देने और सुर्खियों में बनाए रखने के लिए इवेंट मैनेजमेंट का एक विशाल उद्योग खड़ा हो गया है. इवेंट या पीआर मैनेजरों का एक बड़ा काम यह है कि वे अपने क्लाइंटों के लिए ऐसे इवेंट आयोजित करें जो न सिर्फ मीडिया को ललचाएं बल्कि उनके क्लाइंट को सकारात्मक कवरेज दिलवाने में मदद करें.

कई ‘मीडिया सुजान’ नेताओं की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी मीडिया खासकर चैनलों की इस कमजोरी को अच्छी तरह जानते हैं. इसलिए जब उन्हें लगा कि मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल के बीच 2014 के आम चुनावों के मद्देनजर अब राष्ट्रीय राजनीति और खासकर भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद के लिए दावा ठोकने का समय आ गया है तो उन्होंने एक मीडिया इवेंट आयोजित करने में देर नहीं लगाई. मोदी और उनकी टीम को इस राजनीतिक मीडिया इवेंट का स्वरूप तय करने में ज्यादा दिमाग नहीं खर्च करना पड़ा. अन्ना हजारे और उनके अनशन इवेंट की शानदार सफलता उनके सामने थी. आश्चर्य नहीं कि बगैर देर किए मोदी ने गुजरात में सद्भावना के लिए तीन दिन के अनशन करने की घोषणा कर दी. करोड़ों रु खर्च करके देश भर के अखबारों में विज्ञापन दिया गया. न्यूज चैनलों के लाइव कवरेज के लिए विशेष इंतजाम किए गए, रिपोर्टरों और खासकर दिल्ली से बुलाए स्टार रिपोर्टरों/एंकरों की पूरी आवभगत की गई. उसके बाद क्या हुआ, वह इतिहास है. कल तक अन्ना की सेवा में लगा ‘डिब्बा’ मोदी सेवा में भी पीछे नहीं रहा. तीन दिन तक मोदी चैनलों के परदे पर छाए रहे और हर दिन उनकी छवि और बड़ी होती गई. चैनलों ने थोक के भाव मोदी के ‘एक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू दिखाए. प्राइम टाइम चर्चाओं में मोदी बनाम राहुल गांधी से लेकर मोदी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता पर घंटों चर्चा हुई. मोदी को बिना किसी गहरी जांच-पड़ताल के विकास पुरुष और सुशासन के प्रतीक के रूप में पेश किया गया.
हालांकि इन रिपोर्टों, साक्षात्कारों और चर्चाओं में गुजरात के 2002 के दंगों और उसमें मोदी की भूमिका की भी खूब चर्चा हुई और सवाल भी पूछे गए, लेकिन कुल मिलाकर उसे एक ‘विचलन’ (एबेरेशन) की तरह पेश करने की कोशिश की गई. 2002 को 1984 के सिख नरसंहार और अन्य दंगों के बराबर ठहराने के प्रयास हुए. 2002 को भूलने और आगे देखने की सलाहें दी गईं. इसके लिए गुजरात के कथित विकास का मिथ गढ़ा जा रहा है. कहा जा रहा है कि मोदी ने गुजरात में विकास की गंगा बहा दी है. राज्य बहुत तेजी से तरक्की कर रहा है. राज्य में सुशासन है.

साफ है कि यह मोदी ब्रांड की नई मार्केटिंग रणनीति है जिसमें दागों को ‘विकास की चमक’ में छिपाने की कोशिश की जा रही है. चैनलों में मोदी भक्तों की कभी कमी नहीं रही लेकिन अब वे खुलकर सामने आने लगे हैं. ‘आपको आगे रखने वाले’ चैनल के एक ऐसे ही स्टार एंकर/रिपोर्टर तो मोदी से इतने प्रभावित दिखे कि इंटरव्यू में अपनी पक्षधरता छिपाए बिना नहीं रह सके. सवाल पूछते हुए कहा कि ‘मैं निजी तौर पर मानता हूं कि देश की जनता आपको प्रधानमंत्री के रुप में देखना चाहती है.’ क्या बात है! इस महान रिपोर्टर को यह इलहाम कहां से हुआ? क्या आजकल उनका जनता जनार्दन से कोई दैवी संवाद हो रहा है? सचमुच, चैनलों की महिमा अपरंपार है! मानना पड़ेगा कि मोदी मोह में उन्होंने सच की ओर से आंखें बंद कर ली हैं.

गठबंधन में दरार !

क्या ये सिर्फ छोटी-मोटी झड़पें हैं या फिर यूपीए गठबंधन की दो सबसे बड़ी पार्टियों के बीच भविष्य में लंबी चलने वाली लड़ाई की शुरुआत. हालिया दिनों में ऐसा लग रहा है कि जैसे तृणमूल कांग्रेस एक धौंस जमाने वाले दबंग में तब्दील होती जा रही है.
सबसे पहले तीस्ता नदी समझौते को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने खारिज कर दिया. उसके बाद गुजरे हफ्ते तृणमूल के महासचिव और जहाजरानी राज्यमंत्री मुकुल राय ने वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को फोन करके पेट्रोल मूल्य वृद्धि पर अपना विरोध जताया. खबरों के अनुसार राय का कहना था, ’मूल्य बढ़ोतरी करने से पहले हम लोगों से पूछा जाना चाहिए था. हमारी पार्टी सरकार में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है.’ नई दिल्ली में मुकुल राय ने और कोलकाता में ममता बनर्जी ने यह भी स्पष्ट किया कि रसोई गैस के दामों में बढ़ोतरी स्वीकार नहीं की जा सकती.

पंचायत, नगर पालिका, विधानसभा और आम चुनावों के लगातार आते रहने से ममता यूपीए के ऐसे फैसलों से बिलकुल सहज नहीं होंगी

तीस्ता संधि का विरोध, रसोई गैस की मूल्य वृद्धि और भूमि अधिग्रहण विधेयक पर ममता बनर्जी का अड़ियल रुख (ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश न सिर्फ इस पर विचार-विमर्श के लिए कोलकाता गए बल्कि विधेयक का ड्राफ्ट तैयार होने का श्रेय भी उन्होंने राहुल गांधी के अलावा सिर्फ ममता बनर्जी को दिया), इन सभी के पीछे एक ही वजह नजर आती हैः आने वाले तीन साल में तृणमूल को दो बड़े चुनावों का सामना करना है. पश्चिम बंगाल में 2012 के पंचायत चुनाव वामपंथी राज के खत्म होने के बाद के पहले चुनाव होंगे. इनसे ममता को अपना ग्रामीण आधार मजबूत करने और सीपीएम को और भी कमजोर करने में मदद मिलेगी. साथ ही 2014 के लोकसभा चुनाव का भी तृणमूल अनुकूल फायदा उठाना चाहेगी. तृणमूल के एक सांसद के मुताबिक, ’2009 में प्रदेश में 42 सीटों का बंटवारा 2:1 के आधार पर हुआ था. अगली बार ममता दीदी कांग्रेस के लिए आठ से ज्यादा सीटें नहीं छोड़ना चाहेंगी.’

गणित के अनुसार, वाम मोर्चा कम से कम दस सीटें तो जीतेगा ही. तृणमूल कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ’इससे कम सीटें तो नहीं हो सकती हैं.’ वहीं तृणमूल का इरादा 25 का आंकड़ा छूना है (अभी इसके पास 19 लोकसभा सासंद हैं). इस समीकरण के हिसाब से प्रदेश में पहले से ही उपेक्षित महसूस कर रही कांग्रेस के लिए काफी कम संभावनाएं बचती हैं. ममता को लगता है कि भारत एक और त्रिशंकु लोकसभा की राह पर है. इसलिए वे अपना प्रभाव इतना बढ़ाना चाहती हैं कि बाद में उन्हें मोल-भाव करने में आसानी हो. साथ ही वाममोर्चे के कमजोर रहते वे जितना हो सके अपने को मजबूत बना लेना चाहती हैं.

क्या इसका मतलब यह है कि ममता जल्दी चुनाव चाहती हैं? उनके विश्वासपात्रों के अनुसार यह जरूरी नहीं है. पेट्रोल की कीमतों की बढ़ोतरी के एक दिन बाद ममता ने अपनी कोर ग्रुप की मीटिंग बुलाई थी. इसमें उन्होंने पॉलिसी से जुड़े मुद्दों पर उनसे मशविरा नहीं करने पर कांग्रेस की खिंचाई की थी. साथ ही उन्होंने कहा, ’हम लोगों को चुनावों के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.’ उनका ऐसा बयान कुछ लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर गया कि कहीं ममता जल्दी चुनाव कराने के पक्ष में तो नहीं हैं? मगर जल्द ही ममता के सहयोगियों ने इसे नकार दिया. मामले को तूल देने की बजाय उन्होंने कहा कि ममता तो जल्दी चुनाव होने की संभावना से ही चिंतित हैं. रेल मंत्री रहते हुए ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में 19 परियोजनाओं का उद्घाटन किया था जिसमें से 50 फीसदी परियोजनाएं कोलकाता और उत्तर और दक्षिण 24 परगना जैसे तीन जिलों में हैं जो तृणमूल के गढ़ हैं. एक पार्टी कार्यकर्ता के अनुसार, ’सारी परियोजनाएं 2012 या 2013 तक पूरी हो जाएंगी और दीदी उस मोर्चे पर कोई भी गड़बड़ी नहीं चाहती हैं.’
ममता मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी के आर्थिक फैसलों का भी विरोध कर रही हैं. रसोई गैस की मूल्य वृद्धि का विरोध करने के अलावा ममता ने विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाले मल्टी-ब्रांड रिटेल के खुलने का भी विरोध किया था. कुछ हफ्तों पहले जिस रिटेल में उदारीकरण संभव दिख रहा था अब उसे चुपचाप दफना दिया गया है. इसके अलावा, प्रणब मुखर्जी और ममता द्वारा चुने गए रेल मंत्री दिनेश तिवारी यात्री भाड़ा बढ़ाने को तैयार नहीं हैं. वित्त मंत्री की कोशिश है कि ट्रेन भाड़े को तर्कसंगत बनाया जाए. लेकिन ममता अपने कार्यकाल की तरह अभी भी ऐसा करने को तैयार नहीं हैं. उनकी चिंता है कि कहीं महंगाई का एक कारण उन्हें भी न बता दिया जाए जिससे वामपंथियों को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल जाएगा.

वित्त मंत्री और पश्चिम बंगाल सरकार एवं कांग्रेस के मध्यस्थ दोनों ही  रूपों में प्रणब मुखर्जी को तृणमूल की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है. तीस्ता प्रकरण और पेट्रोल की कीमतों के मुद्दे पर प्रणब को तृणमूल के मंत्रियों के तीखे बयान झेलने पड़े हैं. मगर वे अकेले कांग्रेसी मंत्री नहीं हैं जिनसे ममता की पार्टी ने दो-दो हाथ किए हैं. ममता बनर्जी मानती हैं कि कांग्रेस नहीं चाहती है कि वे सफल हों. उन्हें शक है कि कांग्रेस प्रदेश की परियोजनाओं को अनुमति देने में देरी करने जैसे अलग-अलग तरीके अपना कर पंचायत और आम चुनावों में अपना प्रभाव कायम करना चाहती है.

पश्चिम बंगाल को जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन से निधि मिलनी है. मगर इस तरह की आर्थिक मदद हमेशा कुछ शर्तों के साथ आती है. ऐसी ही एक शर्त है कि पीने के पानी के लिए बुनियादी ढांचे को मजबूत करने से पहले पानी पर टैक्स बढ़ाया जाए. मगर ममता इसके खिलाफ हैं और अपने इस रुख से वे शहरी विकास मंत्रालय – जिसके मंत्री कमलनाथ हैं – को भी अवगत करा चुकी हैं. इस सबके बीच तृणमूल के सांसद सोगता राय फंसे हुए हैं जो शहरी विकास मंत्रालय में राज्यमंत्री हैं. सोगता से तृणमूल को उम्मीद है कि वे पश्चिम बंगाल को एक बार अपवाद मान कर उसे इस मामले में छूट दे दें. ममता का कहना है कि इस तरह के प्रावधान और राज्यों पर लागू किए जा सकते हैं पर पश्चिम बंगाल पर नहीं. एक कांग्रेस सांसद सवाल करते हैं, ‘मगर यह कैसे मुमकिन है?’

ममता के लिए एक और महत्वपूर्ण परियोजना है कोलकाता में स्थित हुगली नदी के किनारे को नये सिरे से विकसित करने की. इसका जिक्र तृणमूल के चुनाव घोषणापत्र में भी था. इसको तीन विभाग मिल कर पूरा करेंगे: कोलकाता नगर निगम, जो तृणमूल कांग्रेस के पास हैं, कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट, जो जहाजरानी मंत्रालय के अधीन आता है और जिसके राज्यमंत्री तृणमूल के मुकुल राय हैं, और रेलवे मंत्रालय, जिसके मंत्री तृणमूल के दिनेश त्रिवेदी हैं. मगर इस परियोजना पर सेना को आपत्ति है क्योंकि वह इलाका पूर्वीय कमान में आता है. इस मसले पर पश्चिम बंगाल सरकार चाहती है कि रक्षा मंत्री एके एंटनी हस्तक्षेप करें मगर उन्होंने अभी तक इस मसले को टाला हुआ है. उधर, तृणमूल को लगता है कि यह जान-बूझकर किया जा रहा है और कांग्रेस इस मामले में अड़ियल रुख अपना रही है.

पंचायत, नगर पालिका, विधानसभा और आम चुनावों के नियमित अंतराल में आते रहने से साफ है कि ममता बनर्जी यूपीए के ऐसे फैसलों से बिलकुल भी सहज नहीं होगी जिसका विपरीत असर उनकी पार्टी पर पड़े. वहीं कांग्रेस को डर है कि तृणमूल वर्चस्व की इस लड़ाई में कहीं उसे पश्चिम बंगाल से बाहर ही न कर दे. इसी का परिणाम है दोनों के बीच विश्वास की यह कमी जिसकी वजह से यूपीए की पहले से बढ़ी परेशानियां और ज्यादा बढ़ रही हैं.   

‘उनके पास हमेशा बहाना तैयार रहता था’

चार साल पहले 28 वर्षीय रोहित शेखर ने उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ देश का पहला पितृत्व निर्धारण का मुकदमा दायर किया था. इस मुकदमे ने कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए-मसलन क्या कोई ताकतवर राजनेता किसी संबंध के चलते हुई संतान को अपना मानने से इनकार कर सकता है और इस मामले में साफ-साफ बच निकल सकता है? यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि क्या किसी व्यक्ति को अपना डीएनए टेस्ट कराने के लिए बाध्य किया जा सकता है? क्या तिवारी का यह दावा सही है कि उन्हें एक ऐसे आदमी द्वारा ब्लैकमेल किया जा रहा है जो उनकी संतान नहीं है? और इस मुकदमे का उन बच्चों के लिए क्या निहितार्थ होगा, जो इसी तरह के संबंधों के चलते जन्म लेते हैं और ताजिंदगी सामाजिक तिरस्कार झेलते हैं?

शेखर का दावा है कि वे तिवारी के जैविक पुत्र हैं. उनकी मांग है कि तिवारी को यह बात स्वीकार करनी चाहिए. दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय ने 84 वर्षीय तिवारी को उनकी उम्र के मद्देनजर अपना डीएनए का नमूना देने का आदेश दिया था मगर तिवारी इससे बार-बार इनकार करते रहे हैं. पिछले पखवाड़े उनके फिर से इनकार के बाद अदालत ने कहा कि मामले के साक्ष्यों का आकलन करते हुए इस तथ्य को पूरक साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. यहां पेश है शेखर का पक्ष-

अक्सर पूछा जाता है कि मुझे नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ पितृत्व निर्धारण का मुकदमा दायर करने में इतना समय क्यों लगा. 18 साल के लड़के से इतने ताकतवर आदमी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की शुरुआत करने की उम्मीद करना लगभग असंभव है. 2001 में जब हमने दिल्ली के तिलक लेन स्थित उनके घर में उनसे मिलने की कोशिश की थी तो उनके आदमियों ने हमारे साथ मारपीट की थी. 2002 से 2005 के बीच मैं उनसे कभी-कभी मिलता रहा. वे कहते थे, ‘अरे! तुम्हारी नाक तो एकदम मेरी तरह है, तुम मेरी तरह दिखते हो, तुम लगभग मेरी तरह बोलते हो’, लेकिन जब मेरी मां उनसे पूछतीं कि फिर वे मुझे बेटे के रूप में क्यों नहीं स्वीकार करते तो उनके पास हर समय बहाना तैयार रहता था.

मुख्यमंत्री आवास के अपने कमरे में उन्होंने खूब प्यार जताया, लेकिन दूसरे लोगों की मौजूदगी में उनके लिए मेरा वजूद ही नहीं था

मैं भी उनसे यही सवाल पूछता ताकि अगर कुछ नहीं तो इस मामले को किसी तरह के अंजाम तक पहुंचाया जा सके. वे हमेशा कंधा उचका कर कहते कि वे स्वीकार कर सकते थे, लेकिन कुछ मजबूरियां थीं. मैं पूछता कि कौन सी मजबूरियां? आपने 53 साल की उम्र में 35 साल की मेरी मां के साथ आठ साल तक संबंध रखा. उनके पीछे पड़े रहे कि  वे आपसे एक संतान पैदा करें और उसके बाद आप उनसे शादी कर लेंगे. आपने मेरी मां के साथ बहुत अन्याय किया है और मेरी जिंदगी के 23-24 (उस समय) साल बर्बाद कर दिए हैं. वे चुप रहीं क्योंकि वे मेरी पढ़ाई के दिन थे. लेकिन अब मैं चुप नहीं रहूंगा.’ मैं 24 साल का था और हर समय सोचता रहता था कि इस आदमी ने मेरी क्या गत बना दी है. मैं आईएएस की परीक्षा देना चाहता था, लेकिन अनिद्रा की बीमारी के कारण ऐसा नहीं कर सका.

2005 में बहुत-सी घटनाएं हुईं. हमें जलील करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी. उन्होंने साफ कह दिया था कि वे हमें स्वीकार नहीं करेंगे. उन्होंने मुझे लटकाए रखा. मैं कभी-कभी उन्हें अपने पिता के रूप में देखता था, जिसके लिए मन में इज्जत उभरती थी. लेकिन बाकी समय वे ऐसे प्रेत की तरह हमारे जीवन पर मंडराते रहे जो मेरी मां की शांति और मेरे पूरे परिवार को खा जाना चाहता हो. अपनी पहचान को लेकर मेरे मन में बहुत उथल-पुथल चल रही थी. यह तब की बात है जब यह व्यक्ति उत्तराखंड का मुख्यमंत्री था और बहुत ताकतवर था. बहुत से लोग उन्हें प्रेरणा के तौर पर देखते थे. वे बहुत ताकतवर थे और इसी ताकतवर व्यक्ति ने मेरे साथ अन्याय किया था जिसकी इबारत मेरे चेहरे पर साफ लिखी नजर आती थी.

मुझे गोद लेने वाले मेरे पिता बीपी शर्मा ने अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह से निभाई. मुझे अपने जैविक पिता के बारे में 11 साल की उम्र में बताया गया. मेरे दिमाग में हमेशा उस आदमी की छवि तैरती रहती थी जिसके बारे में मेरा मानना था कि मेरी शक्ल और आवाज उससे मिलती है. लोग कहते हैं कि मैं उनकी तरह ही दिखता हूं. सामान्य बच्चों के लिए यह आम बात होती है, लेकिन मेरे लिए नहीं थी. इसने मुझे चीर कर रख दिया. कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है यह मेरे लिए यह बड़ी विचित्र स्थिति थी.
कुछ घटनाओं के चलते मैं इस व्यक्ति के खिलाफ पितृत्व निर्धारण का मुकदमा करने को बाध्य हुआ. 2005 में मैंने बहुत भोलेपन से उनसे कहा था, ‘आप अपनी सेहत का ध्यान क्यों नहीं रखते!  आपको योग करना चाहिए. मैं 24 साल का हो गया हूं. मैं जल्दी ही परिवार बसाना चाहता हूं. आपके पोते-पोतियां होंगे. हम सब एक परिवार की तरह रहेंगे.’ जब यह बात मैंने अपनी नानी को बताई तो उन्होंने कहा, ‘तुम पागल हो. इस आदमी में भावनाएं हैं ही नहीं.’  ठीक यही हुआ भी. मुख्यमंत्री आवास के अपने कमरे में उन्होंने खूब प्यार जताया, लेकिन दूसरे लोगों की मौजूदगी में उनके लिए मेरा वजूद ही नहीं था. एक बार मैं उनसे मिलने के बाद उनके कमरे के बाहर इंतजार कर रहा था. वहां पहले से मौजूद विधायकों ने मुझे मुख्यमंत्री के कमरे से बाहर आता देखकर पूछा कि मैं कौन हूं. मैंने बहुत दबी आवाज में कहा कि एक शोध के सिलसिले में दिल्ली से आया हूं. जब तिवारी बाहर आए तो उन्होंने ऐसा व्यवहार किया जैसे वे मुझे जानते ही नहीं. ऐसा नहीं कि मेरी मां ने इस बारे में मुझे सचेत नहीं किया था, लेकिन सिर्फ मैं ही जानता हूं कि यह कितना तकलीफदेह होता है.

उनके 80 वें जन्मदिन पर तो मैं पूरी तरह टूट गया. मुख्यमंत्री के घर के सामने बधाई देने के लिए हजारों लोग इकट्ठा हुए थे. मैं भी वहां गया था. उन्होंने बहुत प्यार से मुझसे माला ली और मुझे एक गुलदस्ता भी दिया. मुझे लगा कि शायद अब से वे मुझे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने लगेंगे. मैं केक भी लेकर गया था. तभी कुछ लोग आए और बोले कि मेरा वहां होना तिवारी के लिए ठीक नहीं होगा. सौभाग्य से मेरे पास उस दिन के फोटोग्राफ मौजूद हैं.

अगले दिन जब उनसे मिला तो मैंने विरोध किया, ‘अब यह बात इस कमरे तक ही सीमित नहीं रहेगी. आप मुझे अकेले में गले लगाते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से मुझे जवाब देना पड़ता है कि मैं कौन हूं. मुझे नहीं पता कि मैं क्या करने जा रहा हूं, लेकिन इतना तय है कि यह बुरा होगा.’ उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनका चेहरा लाल पड़ गया. शायद तभी मैं उनसे आखिरी बार मिला था.

मैंने उत्तराखंड में तमाम लोगों के पास चिट्ठियां भेजीं. 2006 में पूरे साल मैंने उनके खिलाफ अभियान चलाया और वे लगातार इसके विरोध में कहते रहे कि ‘ये मेरा लड़का नहीं है. सिर्फ मुझे ब्लैकमेल कर रहा है.’ तब मैंने कानूनी विकल्पों पर विचार करना शुरू किया. लोगों ने कहा कि मैं पागल हो गया हूं. मुकदमा बनता ही नहीं है. लेकिन मैं हार मानने को तैयार नहीं था. हम एक साल तक उनके खिलाफ अभियान चलाते रहे. 2007 में वे आंध्र प्रदेश के गवर्नर बनाए गए. मैं उनके खिलाफ कुछ भी करने से डर रहा था क्योंकि मेरे पास कोई सबूत नहीं था. मैं अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित था. फिर भी सितंबर 2007 में मैंने मुकदमा करने का निश्चय किया. लेकिन तब तक मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था. पांच जुलाई, 2007 को मुझे बड़ा हार्ट अटैक हुआ लेकिन इसका पता ही नहीं चल सका. दो महीने बाद सितंबर 2007 में धमनियों में रुकावट के चलते ब्रेन हैमरेज हुआ. डॉक्टरों ने कहा कि यह अटैक लंबे तनाव का नतीजा है.

कानूनी प्रक्रिया लंबी, खर्चीली और पीड़ादायक है. कई बार मैं इस मुकदमेबाजी से थक चुका हूं और फिलहाल बहुत तनावग्रस्त हूं. इस मामले में कई अभूतपूर्व निर्णय भी हुए हैं. मेरी जानकारी के अनुसार इससे पहले किसी अदालत ने पितृत्व और वैधता को अलग-अलग नहीं देखा था. सम्मानित उच्च न्यायालय ने पिछले साल इनके बीच फर्क किया. फिलहाल मैं उस कानून के चलते थोड़ा निराश हूं जिसके चलते मामले के उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन रहते कोई भी पक्ष दूसरे के खिलाफ अभियान नहीं चला सकता.
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के निर्णय को सही ठहराया कि तत्काल डीएनए टेस्ट कराया जाना चाहिए नहीं तो मेरे न्याय पाने की संभावना हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी. इसी साल सात फरवरी को अदालत ने कहा कि यदि तत्काल डीएनए टेस्ट नहीं कराया जाता है तो वादी को अपूरणीय क्षति होगी.

मेरी हताशा और निराशा का मूल कारण यह है कि इन आदेशों के बावजूद तिवारी ने डीएनए जांच के लिए अपने खून का नमूना नहीं दिया है. एक जून को उनके खून का नमूना लेने के लिए अदालत ने एक डॉक्टर नियुक्त किया था. लेकिन इसके दो दिन पहले ही तिवारी ने उन्हीं बातों को दोहराते हुए फिर से आवेदन दे दिया कि यह मुकदमा अत्यंत ओछा है और उन्हें डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. तब से नौ या दस सुनवाइयां हो चुकी हैं. मेरे लिए यह सब बहुत महंगा और कष्टकारी है.
वे मामले को अदालत में लंबा खींचने में सफल हो रहे हैं. अदालत द्वारा फरवरी और जुलाई में तत्काल डीएनए टेस्ट कराने पर जितना बल दिया गया था वह तकनीकी चीजों में उलझकर रह गया है. सबसे ज्यादा दुख की बात तो यह है कि मुझे न्याय तो मिल गया है, लेकिन उसे लागू नहीं किया जा रहा है. हर गुजरते दिन के साथ मेरे मामले के सबसे प्रबल सबूत के हमेशा के लिए मिट जाने की संभावना बढ़ती जा रही है. इसका मतलब होगा कि यह मुकदमा मेरे तईं असमाप्त ही रह जायेगा. अब यह सार्वजनिक हो चुका है. लोग मुझसे जीवन भर सवाल कर सकते हैं कि तुमने ऐसा क्यों किया? तुम कौन हो? मेरी मां और मेरे लिए यह बहुत जरूरी है कि यह मामला अपने अंजाम तक पहुंचे.

(रेवती लाल से बातचीत पर आधारित)

माया के मारे

जीटी रोड पर सफर करते हुए गाजियाबाद से करीब सात किलोमीटर आगे अचानक आपको एक विशाल पार्क और हेलीपैड नजर आते हैं. हाईवे से कटती एक खूब चौड़ी सड़क भी दिखती है. काम जिस भव्य स्तर पर चल रहा है उससे एकबारगी भ्रम होता है कि यहां शायद कोई बड़ा शहर बसाया जा रहा है. मगर यह सूबे की मुख्यमंत्री मायावती का अपना गांव बादलपुर है.

इलाके में थोड़ी देर घूमने के बाद यहां चल रहे निर्माण की भव्यता का ठीक-ठीक अंदाजा होता है. बड़े-बड़े पार्क, चौड़ी सड़क, हेलीपैड, ग्रीन बेल्ट और इस सबके बीच कई एकड़ जमीन पर बन रही एक भव्य कोठी. यह कोठी सूबे की मुख्यमंत्री मायावती की है. पूछा जा सकता है कि इसमें क्या खास बात है? क्या सूबे की मुख्यमंत्री अपने लिए कोठी नहीं बनवा सकतीं? और पार्क, ग्रीनबेल्ट या चौड़ी सड़कों पर भला किसी को क्या एतराज हो सकता है?

‘जमीन खरीदना गुनाह नहीं लेकिन यह कहां का न्याय है कि कोठी के लिए कई परिवार सड़क पर खड़े कर दिए जाएं?’लेकिन एतराज है और सबसे ज्यादा बादलपुर गांव के लोगों को है. इसलिए क्योंकि सूबे की मुखिया के इस आशियाने के लिए गांव के कई परिवार सड़क पर आ गए हैं. दरअसल इस कोठी के बनने की कहानी ही कई तरह के गंभीर सवालों से भरी पड़ी है. इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि जनता के पैसे से बनाए गए जिन विशाल पार्कों, हेलीपैड और ग्रीन बेल्ट का जिक्र ऊपर हुआ है उनके निर्माण का उद्देश्य सिर्फ यही लगता है कि इस कोठी की खूबसूरती में चार चांद लग सकें. विडंबना देखिए कि इस काम के लिए भूअधिग्रहण कानून की आड़ ली गई. अर्जेंसी क्लॉज के अंतर्गत औद्योगिक विकास के नाम पर जमीनें अधिगृहीत करके लोगों को यह आभास दिया गया कि उनकी जमीन पर उद्योग लगेंगे और उन्हें रोजगार मिलेगा. लेकिन उद्योगों की जगह पार्क, हेलीपैड आदि बनने लगे. इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री की कोठी के लिए उस नहर को भी खत्म कर दिया गया जिससे बादलपुर सहित कई गांवों के किसान अपने खेत सींचते थे.

बादलपुर गांव की सूरत देखकर पहली नजर में लगता है कि प्रदेश में सबसे अधिक विकास यहीं हुआ है और यहां के बाशिंदे बेहद खुशहाल होंगे. लेकिन किसानों से बातचीत के बाद यह भ्रम दूर हो जाता है. जो किसान 2007 के पहले तक अपनी गांव की बेटी के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं होते थे वही आज मदद मांग रहे हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक किसान बताते हैं, ’10-12 साल पहले तक गांव में बहन जी या उनके परिवार के नाम एक इंच जमीन भी नहीं थी. आज उनके पास गांव में कई बीघे जमीन है जो यहीं के किसानों से खरीदी गई. जमीन खरीदना कोई गुनाह नहीं लेकिन यह कहां का न्याय है कि सिर्फ उन्हीं की कोठी के लिए पूरे गांव के परिवार सड़क पर खड़े कर दिए जाएं?’

मुख्यमंत्री की कोठी के लिए किसानों से खरीदी गई जमीन हो या पार्क, हेलीपैड आदि के लिए सरकार द्वारा अधिगृहीत जमीन, सब में जमकर पहुंच व ताकत का प्रयोग करते हुए नियमों को दरकिनार किया गया. पहले बात करते हैं कोठी के लिए खरीदी गई जमीन की. बादलपुर गांव के बाहर तीन मार्च, 2005 को भगवत प्रसाद से करीब डेढ़ बीघा जमीन मायावती के नाम खरीदी गई. उसी दिन रतीराम से भी करीब पांच बीघा जमीन मायावती के नाम से कागजों में दर्ज हुई. इसके  बाद अगस्त, 2005 में करीब दो बीघा जमीन और मायावती के नाम दर्ज हुई. अगस्त में खरीदी गई जमीन गांव के ही अजीत पुत्र किशन लाल से ली गई. सभी में खरीददार मायावती का पता सी-57 इंद्रपुरी, नई दिल्ली दिखाया गया था. पूरी जमीन कृषि योग्य भूमि थी. इन जमीनों के लिए स्टांप शुल्क मिलाकर करीब 47 लाख रुपये अदा किए गए.

इन जमीनों की खरीद में खरीददार तो मायावती को दिखाया गया है लेकिन मुख्त्यारेआम उनके भाई आनंद कुमार पुत्र प्रभुदयाल निवासी बी-182, सेक्टर 44 नोएडा को बनाया गया है. सभी जमीनों के बैनामों में भी मायावती के स्थान पर आनंद का ही फोटो लगाया गया है. यहां तक तो जो कुछ भी हुआ वह नियम-कानूनों के दायरे में किया गया. लेकिन इसके बाद इस जमीन को लेकर जो खेल शुरू हुआ उसका खामियाजा पूरे गांव के किसानों को अभी तक उठाना पड़ रहा है. कैसे? आइए जानते हैं.

सवाल यह उठता है कि 2005 में मायावती व उनके पिता की ओर से जो शपथपत्र दिया गया था क्या वह झूठा था

लाखों रुपये मूल्य की कृषि योग्य कई बीघा जमीन खरीदने के बाद 2005 के अंत में मायावती की ओर से जमीन का भूउपयोग परिवर्तित करने के लिए जमींदारी उन्मूलन अधिनियम की धारा 143 के तहत दादरी तहसील में एक वाद दायर किया गया. वाद दायर करते समय शपथ पत्र (जिसकी एक प्रति तहलका के पास भी है) देकर बताया गया कि उपर्युक्त खेत संख्या 400, 395 व 396 के आसपास आबादी क्षेत्र है. यह भी कहा गया कि जो जमीन खरीदी गई है उस पर काफी समय से कृषि, पशुपालन या मत्स्य पालन का कार्य नहीं हुआ है. भूमि पर बाउंड्री हो रही है तथा निर्माण कार्य चल रहा है. जिस समय जमीन खरीदी गई और उसके भूपरिवर्तन के लिए वाद दायर किया गया उस समय प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. इसके बावजूद राजनीतिक रसूख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि न्यायालय उपजिलाधिकारी दादरी की ओर से मई, 2006 में उक्त जमीनों को गैरकृषि उपयोग के लिए अनुमति प्रदान कर दी गई जिस पर भव्य कोठी का निर्माण अब लगभग पूरा हो चुका है.

कोठी के लिए जमीन खरीद कर भूउपयोग के परिवर्तन का खेल सिर्फ मायावती ने ही नहीं खेला. जिस स्थान पर कोठी बनी है वहां की कई बीघा जमीन उनके पिता प्रभुदयाल के नाम पर भी है. भूउपयोग के परिवर्तन के लिए मायावती के साथ ही प्रभुदयाल की ओर से भी वाद दायर किया गया. बादलपुर के किसान बताते हैं कि जिस जगह को आबादी की जमीन बताते हुए शपथ पत्र दिया गया वहां लोग आसपास अपनी खेती करते थे. इसके प्रमाण आज भी कोठी के आसपास मौजूद हैं कि वहां आबादी दर्ज नहीं थी. जिस स्थान पर ग्रीन बेल्ट बनाई गई है वहां एक-दो लोग खेतों में ही मकान बना कर रहने लगे थे जो आज भी मौजूद हैं. उन लोगों ने कभी अपना भूउपयोग बदलवाया ही नहीं था.

राजनीतिक रसूख के आगे शपथपत्र का झूठ और अधिकारियों की कारगुजारी शायद ही कभी उजागर हो पाती. लेकिन मई, 2007 में मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के एक माह छह दिन बाद 20 जून को सरकार की ओर से बादलपुर की 232 हेक्टेयर जमीन के अधिग्रहण के लिए धारा 4 का नोटिस जारी किया गया. इसके बाद ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण ने अधिग्रहण का काम शुरू किया. जिस स्थान पर कृषि योग्य भूमि का भूपरिवर्तन करा कर कोठी बनाई जा रही है उसे छोड़ कर आसपास का पूरा क्षेत्र अधिगृहीत कर लिया गया. नियमों के अनुसार आबादी क्षेत्र का अधिग्रहण विषम परिस्थितियों में ही किया जा सकता है, लिहाजा कोठी जिस स्थान पर बनी है उसे पूरा छोड़ दिया गया और आसपास की कृषि योग्य उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया. 
अब सवाल उठता है कि मायावती ने जब 2005 में ही अपने शपथपत्र में यह बता कर अपना भूउपयोग परिवर्तित कराया था कि आसपास आबादी है तो मुख्यमंत्री बनने के बाद अचानक प्राधिकरण ने औद्योगिक विकास के नाम पर आबादी की जमीनों का अधिग्रहण करके पार्क बनाना कैसे शुरू कर दिया. किसानों की लड़ाई लड़ रहे वकील एसी नागर कहते हैं, ‘जमीनों का अधिग्रहण आपात प्रावधान यानी अरजेंसी क्लॉज लगाकर किया गया था. तो क्या पार्क, ग्रीन बेल्ट, सड़क, हेलीपैड सहित कोठी की खूबसूरती बढ़ाने वाली इमारतें बनाने के लिए अरजेंसी क्लॉज लगाया गया? दूसरा सवाल यह है कि यदि प्राधिकरण ने कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण किया है तो मायावती व उनके पिता की ओर से जो शपथपत्र दिया गया था क्या वह झूठा था.’  नागर का आरोप है कि कोठी की सुंदरता बढ़ाने के लिए ही औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन लेकर उसमें पार्क आदि बनाए जा रहे हैं जबकि तीन साल में ली गई जमीन पर एक भी उद्योग स्थापित नहीं हुआ है. इस बारे में बात करने पर ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के सीईओ रमा रमण कहते हैं कि मास्टर प्लान में बादलपुर की अधिग्रहीत जमीनों पर किसी तरह का उद्योग स्थापित करने की योजना नहीं है. उनके मुताबिक जिस जगह पर पार्क आदि बनाया जा रहा है वह कृषि योग्य भूमि थी. सीईओ का यह बयान मायावती के उस शपथ पत्र को कटघरे में खड़ा करता है जिसके मुताबिक कोठी के आसपास आबादी थी.

बादलपुर में जब कोई उद्योग आदि स्थापित नहीं होना है तो सरकार को अर्जेन्सी क्लास में जमीनों का अधिग्रहण करने की आवश्यकता क्यों पड़ गई. इस सवाल के जवाब में बादलपुर के राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त करतार सिंह कहते हैं, ‘पूरे हिन्दुस्तान में जमीनों का अधिग्रहण अर्जेन्सी क्लास में ही हो रहा है, ऐसे में बादलपुर में भी हो गया तो इसमें हर्ज ही क्या है.’ जिस जगह कोठी बनी है उसके आसपास की औद्योगिक विकास के नाम पर ली गई जमीन पर एक पार्क करीब 91 हजार वर्ग मीटर तथा दूसरा 35 हजार वर्ग मीटर में बन रहा है. कोठी से लगे करीब 50 हजार वर्ग मीटर के प्लाॅट पर प्राधिकरण की ओर से अभी सिर्फ दीवार ही खींची जा रही है. इस प्लॉट में कोठी की ओर से एक लोहे का गेट खोला गया है. गांव के एक किसान कहते हैं, ‘सरकारी जमीन पर अपनी कोठी से गेट लगाना इस बात का संकेत है कि आज नहीं तो कल ये जमीन भी मुख्यमंत्री व उनके परिवार के कब्जे में चली जाएगी.’

पार्कों की खूबसूरती में चार चांद लगाने के लिए 60 मीटर चौड़ी रोड भी बना दी गई है. पार्कों से सटी हुई कोठी से कुछ दूरी पर किसानों की जमीन पर ही हेलीपैड भी तैयार किया जा रहा है. कोठी की सुंदरता बढ़ाने के लिए सरकार ने जमीन लेकर सिर्फ दो पार्क ही नहीं बनाए बल्कि कोठी के सामने कई बीघे जमीन पर ग्रीन बेल्ट भी तैयार कर दी जिसमें हजारों की संख्या में पेड़ लगाए गए हैं. जिन खेतों का सरकार ने ग्रीन बेल्ट के लिए अधिग्रहण किया है उनमें, जैसा कि ऊपर बताया गया है,  एक-दो मकान भी बने हुए हैं लिहाजा कागजों में उनका अधिग्रहण भी हो गया है. लेकिन खेत में मकान बना कर रह रहे किसान वहां से हटने को तैयार नहीं. उन्हीं में से एक परिवार है लेह में तैनात सेना के सूबेदार विजेंद्र सिंह का. विजेंद्र के भाई भगत सिंह कहते हैं, ‘सरकार सेना में कार्यरत जवानों को सुविधाएं देती है लेकिन यहां तो जबरन इसलिए उजाड़ा जा रहा है कि मुख्यमंत्री की कोठी की शोभा न खराब हो.’ भगत आगे बताते हैं, ‘पौने तीन बीघे में बने मकान व हाते का सरकार ने अधिग्रहण भले कर लिया है लेकिन हमने मुआवजा अभी तक नहीं उठाया है. मुआवजा उठाने के लिए कई बार प्रशासनिक अधिकारियों व पुलिस ने दबाव बनाया लेकिन जब सफल नहीं हुए तो घर के आसपास डेढ़ महीने तक पीएसी लगा दी गई. जिसके कारण घर की महिलाओं व बच्चों तक का निकलना मुश्किल हो गया था.’ सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए भगत कहते हैं कि जब औद्योगिक विकास के नाम पर सरकार पूरे गांव के किसानों के खेत व आबादी का अधिग्रहण कर रही है तो बीच में मुख्यमंत्री की कोठी कैसे बच रही है.

प्रदेश के दूसरे गांवों में होने वाले विकास कार्यों में अधिकारी कितनी रुचि लेते हैं यह जगजाहिर है, लेकिन बादलपुर में बन रहे पार्क के लिए अधिकारियों की तत्परता देखते बनती है. कई अधिकारी दिन भर कैंप करके काम को पूरा कराने में लगे हैं. राज्य स्तर के अधिकारी भी समय-समय पर गांव पहुंच कर कार्य की प्रगति का जायजा लेते रहते हैं. पुलिस की तीन-चार जीपें और जिप्सी भी चारों ओर गश्त करती दिखती हैं. गांववाले बताते हैं कि सड़क से निकलते समय कोठी के सामने रुककर बात करना या उसकी ओर देखना भी पुलिसवालों की नजर में किसी अपराध से कम नहीं होता.

मुख्यमंत्री की कोठी के चक्कर में बादलपुर ही नहीं, आसपास के गांवों के किसान भी पिस रहे हैं. बादलपुर के बाहर से निकलने वाली नहर से एक छोटी नहर सिंचाई के लिए निकली थी. इससे बादलपुर सहित अछेजा, सादुल्लापुर व सचिन पायलट के गांव वैदपुरा के किसान अपनी सैकड़ों बीघे जमीन की सिंचाई करते थे. छोटी नहर बादलपुर में जिन खेतों के बीच से निकलती थी वहां निर्माण कार्य हो जाने के कारण पूरी तरह बंद हो गई है. जिस जगह से नहर निकली थी वहां सड़क बनाने का काम चल रहा है. मुख्यमंत्री की कोठी के पीछे से होते हुए नहर आगे के गांवों को जाती थी. लेकिन वहां बड़ा फव्वारा बनाने का काम चल रहा है लिहाजा उसके आसपास भी नहर को बंद कर दिया गया. आगे चल कर इसी नहर के ऊपर से 60 मीटर चौड़ी सड़क बना दी गई जो पार्क के सामने से होकर गुजरती है. बादलपुर में इस नहर के अवशेष कहीं-कहीं दिख जाते हैं. सादुल्लापुर के किसान करतार सिंह कहते हैं, ‘हमारी जमीन साल में तीन फसलें देती थी. लेकिन सिंचाई का साधन बंद हो जाने के कारण कई बीघे खेतों में पिछले डेढ़ साल से किसी फसल की पैदावार नहीं हो पा रही है.’ अछेजा के किसान चरनजीत बताते हैं, ‘गांव की करीब 500 बीघे जमीन की सिंचाई बादलपुर से आने वाली छोटी नहर से होती थी. नहर बंद होने के कारण बड़े किसानों ने तो ट्यूबवेल की बोरिंग करा कर काम शुरू किया है लेकिन छोटे किसानों की जमीन या तो खाली पड़ी रहती है या दूसरे के ट्यूबवेल से पानी खरीदकर वे सिंचाई करने को मजबूर हैं. डीजल भी महंगा है. ऐसे में 150 रुपये प्रतिघंटे के हिसाब से दूसरे के पंप सेट से पानी लेकर सिंचाई करना किसानों को काफी महंगा पड़ता है.’ चरनजीत बताते हैं कि प्रशासनिक अधिकारियों को कई बार पत्र लिखकर व मिलकर इस समस्या से अवगत कराया गया लेकिन जैसे ही उन्हें पता चलता है कि मामला बादलपुर से जुड़ा है वे ग्रामीणों को भगा देते हैं. वे कहते हैं, ‘जब पड़ोसी गांव की मुख्यमंत्री ही ऐसा करवा रही हो तो किसान अपनी समस्या लेकर कहां जाए.’

ग्रामीणों में बगावत की यह चिंगारी मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद तब शुरू हुई जब अधिग्रहण के लिए नोटिस जारी हुआ. लेकिन अधिकारियों ने इस बगावत को भरसक प्रयास करके दबाए रखा. गांव के एक संपन्न किसान जगदीश नंबरदार कहते हैं, ‘गांव में हास्पिटल, गर्ल्स डिग्री कालेज, पोलिटेक्निक, गेस्ट हाउस आदि के लिए इससे पहले भी सभी ने स्वेच्छा से जमीन  दी थी. तब कोई अधिग्रहण की कार्रवाई कराने की जरूरत ही सरकार को नहीं हुई. हमें भी पता है कि गांव की बेटी मुख्यमंत्री है तो उसकी प्रतिष्ठा में इतना सब कुछ करने को किसान सक्षम है. लेकिन इस बार जब महज इसलिए पूरे गांव की जमीन जाने लगी कि कोठी के आसपास पार्क आदि बनाए जाएंगे तो विरोध शुरू हुआ.’ जमीन बचाने के लिए किसानों ने अगस्त, 2007 में सर्वदलीय बैठक करके विरोध जताया. नंबरदार बताते हैं कि बैठक के बाद गांव के करीब 20 किसान मुख्यमंत्री से मिलने के लिए लखनऊ भी गए लेकिन अधिकारियों ने मिलने नहीं दिया. वे कहते हैं, ‘किसान मुख्यमंत्री से बस इतना जानने के लिए गए थे कि जमीन विकास के किस काम के लिए उपयोग की जाएगी ये पता चलते ही हम स्वेच्छा से जमीन दे देंगे. लेकिन सरकार के पास विकास का कोई प्लान ही नहीं था जो वह किसानों को बता सकती, लिहाजा हमें मुख्यमंत्री से दूर ही रखा गया.’

किसानों के विरोध की जानकारी जब लखनऊ पहुंची तो अधिग्रहण रुक गया. नंबरदार कहते हैं, ‘किसानों को लगा कि शायद बहन जी को हमारी समस्या समझ में आ गई लेकिन 2008 में अचानक अधिकारियों ने अधिग्रहण शुरू कर दिया. फिर विरोध शुरू किया तो डराने-धमकाने के लिए घर पर पीएसी का पहरा बैठा दिया गया. रात-रात भर अधिकारी आकर जमीन देने के लिए दबाव बनाने लगे. कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा.’ इसी बीच कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने आकर बताया कि किसानों से कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह मिलना चाहते हैं. अधिकारियों ने शताब्दी से छह किसानों के प्रतिनििधमंडल को लखनऊ भेजा. नंबरदार के साथ किसानों के संघर्ष की अगुवाई कर रहे वीर सिंह कहते हैं, ‘कैबिनेट सेक्रेटरी ने बैठक में इस मांग पर सहमति जताई कि 25 प्रतिशत जमीन छोड़ दी जाएगी साथ ही जहां आबादी है उस जमीन को भी सरकार नहीं लेगी. किसानों को लगा चलो कुछ तो हासिल हुआ. लेकिन यहां भी सरकार खेल करने से नहीं चूकी. अधिग्रहण की मार गांव के करीब 1,014 किसानों पर पड़ी थी लेकिन 25 प्रतिशत जमीन छोड़े जाने का लाभ महज 168 किसानों को दिया गया. शेष 846 किसानों को 850 रुपये प्रति वर्ग मीटर मुआवजा देकर शांत करा दिया गया.’ 

846 किसानों को जब मालूम हुआ कि कुछ लोगों को 25 प्रतिशत जमीन का लाभ दिया गया है तो उन्होंने नए सिरे से आंदोलन शुरू किया. सरकारी उपेक्षा का शिकार हुए किसान ज्ञानी सिंह कहते हैं, ‘जिन लोगों को यह लाभ मिला उनके साथ हम भी आंदोलनरत थे लेकिन उसी बीच हम जैसे छोटे किसानों को बसपा सरकार से जुड़े सांसद, विधायक व अधिकारियों ने इतना डरा-धमका दिया कि वे मुआवजा उठाने को मजबूर हो गए.’ ज्ञानी का आरोप है कि राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त गांव के ही एक बसपा नेता व कुछ और लोगों ने यहां तक धमकाया कि अगर मुआवजा नहीं उठाओगे तो सरकार मुफ्त में जमीन ले लेगी. उनके मुताबिक पुलिस अधिकारी घर आकर धमकाते थे कि जमीन दे दो नहीं तो जेल में सड़ा दिए जाओगे. ज्ञानी कहते हैं, ‘ परिजनों की सुरक्षा को लेकर चिंता होती थी क्योंकि जिन लोगों के खिलाफ हम आंदोलन कर रहे थे वे धन-बल दोनों में ही हमसे काफी ताकतवर थे.’
जिन किसानों के साथ सरकार ने दोहरी नीति अपनाई वे आज पूरी तरह आंदोलनरत हैं. अपने ही गांव की मुख्यमंत्री होने के बावजूद सरकार से न्याय की उम्मीद खो चुके किसानों ने अब हाई कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया है. किसान ऋषिपाल बताते हैं, ‘अब हमारी मांग 25 प्रतिशत जमीन छोड़े जाने के साथ मुआवजा बढ़ाए जाने की भी है क्योंकि सरकार ने 850 रुपये वर्ग मीटर के हिसाब से मुआवजा दिया है जबकि सर्किल रेट ही 1,000 रुपये वर्ग मीटर का है. सरकार ने सर्किल रेट से भी कम का भुगतान देकर गरीब किसानों के पेट पर लात मारी है.’

बादलपुर में शासन-सत्ता के आगे छोटे-बड़े किसी भी किसान की एक नहीं सुनी गई, यह दर्द गांव के पूर्व प्रधान चैतराम की बातों से साफ झलकता है. वे कहते हैं, ‘एक समय था जब खुद को बादलपुर का प्रधान बताने में गर्व महसूस होता था, लेकिन आज शर्म आती है. काफी भागदौड़ के बावजूद परिवार के पास जो 20 बीघे जमीन थी उसे पूरा का पूरा सरकार ने औद्योगिक विकास के नाम पर पार्क, सड़क आदि बनाने के लिए ले लिया है. इतनी भी जमीन नहीं छोड़ी गई कि बच्चे बड़े होकर अपना एक मकान तक बना सकें.’ चेतराम कहते हैं, ‘पूरे प्रदेश की मुखिया गांव की ही रहने वाली है, कम से कम उसे तो सोचना चाहिए था कि किसानों की पूरी जमीन चली जाएगी तो उनके बच्चों को सिर छुपाने के लिए जगह कहां मिलेगी.’ इससे भी बड़ा दर्द उन्हें इस बात का है कि जिस जगह उनके पिता परमान सिंह की समाधि बनी थी सरकार ने उसका भी अधिग्रहण कर लिया. 

बादलपुर के किसानों की लड़ाई लड़ रहे डॉ रूपेश कहते हैं, ‘बादलपुर के साथ ही पतवारी गांव का भी अधिग्रहण सरकार ने अर्जेंसी क्लास में किया था. न्यायालय की ओर से पतवारी का अधिग्रहण रद्द किए जाने के बाद अब बादलपुर के किसानों को भी न्यायालय से ही उम्मीद है क्योंकि यहां भी अर्जेंसी क्लास में ही सरकार ने अधिग्रहण कर पार्क आदि बना डाला.’ बादलपुर के साथ ही सरकार ने डॉ रूपेश के गांव सादोपुर के किसानों की भी 146 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण अर्जेंसी क्लास में कर लिया है. लेकिन तीन साल बाद भी सादोपुर की जमीन पर न तो कोई उद्योग स्थापित हुआ है और न ही किसी योजना के अंतर्गत काम ही शुरू हुआ. रूपेश कहते हैं, ‘अपने ही घर की मुख्यमंत्री व सरकार से धोखा खाए किसानों को अब आस है तो बस न्यायालय की.’  

‘सुर-मारग को दिशा दिखाता संगीत’

यूं तो आदरणीय लता जी के गाए न जाने कितने गीत मेरे बरसों के साथी रहे हैं, लेकिन इनमें सबसे प्रिय गीत को चुनकर बताना कि आखिर ये ही सबसे प्रिय क्यों हैं, बड़ा मुश्किल काम है. इस लिहाज से बहुत सोचा, बड़ी माथापच्ची की, मगर मात्र एक गीत नहीं चुन पाई और इसीलिए उन गीतों की फेहरिस्त भेज रही हूं, जो जीवन की अड़-बड़ गलियों में न जाने कितनी बार मुझे सहारा दे चुके हैं, मेरा हाथ थाम मुझे सुर-मारग की दिशा दिखा चुके हैं.

‘पहली बार इन दोनों गजलों को सुना तो ये इस प्रकार दिल-दिमाग पर चढ़ गईं कि फिर-फिर सुनने को जी मचल जाता’

बरसों पहले विविध भारती पर दोपहर में गैरफिल्मी गीतों के कार्यक्रम में लता जी की गाई दो गजलें आए दिन प्रसारित होती थीं. एक, ‘आंख से आंख मिलाता है कोई…’ (गीतकार : शकील बदायूंनी) और दूसरी, ‘अहद-ए-गम में भी मुस्कुराते हैं…’ (गीतकार : खलिश देहलवी). यह उन दिनों की बात है जब मैं कॉलेज में पढ़ रही थी और इलाहाबाद में गाने की तालीम ले रही थी. पहली बार इन दोनों गजलों को सुना तो इस प्रकार दिल-दिमाग पर चढ़ गईं कि फिर-फिर सुनने को जी मचल जाता. कभी-कभी तो इन्हें सुनने की ताक में रेडियो के पास कान लगाए बैठे-बैठे क्लास भी जाना भूल जाती. दोनों ही गजलों को महावीर जी ने अत्यंत कठिन और जटिल धुनों से सजाया है. यानी किसी गायक-गायिका की परीक्षा लेनी हो, तो ये दोनों रचनाएं रख दें उनके सामने, और फिर देखिए अच्छे-अच्छों के छक्के छूटते. लेकिन लता जी ने इन्हें ऐसे सहज अंदाज में गाया है कि यदि कोई नादान ये समझ बैठे कि अरे, ये तो हम भी गा लेंगें, तो कोई आश्चर्य नहीं. तो साहब हम भी ये नादानी कर बैठे. वो दिन और आज का दिन, इस बीच कई दशक सरकते हुए निकल गए, पर अब भी बात नहीं बनी.

इसी के साथ उतना ही सुंदर पंडित नरेंद्र शर्मा जी का लिखा हुआ वह गीत भी कभी भूलता नहीं जिसे जयदेव जी ने संगीतबद्ध किया था. लता जी ने इस गीत ‘जो समर में हो गए अमर, मैं उनकी याद में, गा रही हूं आज श्रद्धा गीत धन्यवाद में’ को गाकर देशप्रेम के जज्बे का एक अलग ही संसार रच दिया है. देश पर मरने वाले बहादुर जवानों के प्रति श्रद्धा-निवेदन का यह गीत निश्चय ही पूरी गरिमा के साथ लता जी की आवाज में एक सच्ची श्रद्धांजलि बन सका है. यह गीत भी मेरे हिसाब से उनके गाए हुए अमर गीतों में एक क्लासिक का दरजा रखता है, जिसकी गूंज आज भी मेरे कानों में उसी तरह समाई हुई है, जैसी दशकों पहले सुनने के वक्त महसूस हुई थी.

इसके अलावा श्रीनिवास खाले जी के संगीत निर्देशन में तुकाराम जी का एक अभंग पद ‘अगा करुणाकरा’ की चर्चा के सम्मोहन से भी खुद को रोक नहीं पा रही हूं. इस अद्भुत ढंग के भजन को लता जी ने इतनी भक्ति और आत्मीयता से गाया है कि उसके बारे में तारीफ करते हुए शब्द कम पड़ जाते हैं. अगर किसी को भक्ति का नमूना उतने ही श्रद्धा-भाव से गीत-संगीत के माध्यम से सुनना है, तो उसे इस गीत को जरूर सुनना चाहिए. लता जी ने जैसे इसमें आत्मा का संगीत उड़ेल दिया है.

आज के तकनीकी युग में, इंटरनेट की मैं आभारी हूं कि उनके कुछ ऐसे अमर गैरफिल्मी भजन, अभंग पद, गजल और देशभक्ति के गीत हमें सुनने के लिए उपलब्ध हो सके हैं, जिनके पुराने रिकॉर्ड और कैसेट अब सामान्यता म्यूजिक स्टोर पर उपलब्ध नहीं हो पाते. आज भी संगीत की यह अमूल्य थाती भले कैसेट में उपलब्ध हो, या सीडी में या फिर आई पॉड पर, लता जी की आवाज में ये कुछ रचनाएं मेरे सुख-दुख में हमेशा साथ रही हैं.

‘आधुनिक दक्षिण एशियाई नारी की आवाज’

1940 के दशक के उत्तरार्द्ध के भारतीय समाज, महाराष्ट्रीय संस्कृति तथा हिंदी फिल्म (संगीत) उद्योग को थोड़ा-बहुत जाने बिना लता मंगेशकर के कठिन संघर्ष, अद्वितीय प्रतिभा और महान उपलब्धि को पूरी तरह समझा ही नहीं जा सकता. गांधी और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद देश सर्वतोन्मुखी मुक्तिकामी आधुनिकता के द्वार पर खड़ा हुआ था. सिनेमा भी आमूल बदलने वाला था. ऐसे में पितृहीन, दोशीजा लता की नम्य आवाज स्वाधीनता की ओर बढ़ती हुई नयी, कुछ आधुनिक, कुछ पारंपरीण, किशोरी-युवती की गैर-पेशेवर, निर्दोष आवाज थी.

‘लता के आविर्भाव के बाद संगीत-निर्देशकों को एक ही आवाज में भोलापन, कौमार्य, स्त्रीत्व तथा सही उच्चारण सहित सातों स्वर और सारे नवरस मिल गए’

लोक कलाकार पिता दीनानाथ तथा महाराष्ट्र, विशेषतः भेंडीबाजार घराने, की मिली-जुली मंचीय तथा शास्त्रीय परंपराओं में पली-बढ़ी, अविवाहित रहकर अपनी विधवा मां और बेसहारा भाई-बहनों का आसरा बनने का संकल्प करने वाली लता को प्रकृति ने अप्रतिम कंठ दिया ही था. ऐसी नारी भीष्म-प्रतिज्ञा शायद मराठी समाज और संस्कृति में ही संभव थी. हिंदी पार्श्वगायन में लता के प्रारंभिक तीन वर्ष संघर्ष के थे किंतु ठीक इन्हीं वर्षों में उन्होंने नूरजहां और शमशाद बेगम जैसी बड़ी गायिकाओं सहित सभी पूर्ववर्ती स्त्री-कंठों को अनचाहे ही कारुणिक रूप से सीमित या पुराना सिद्ध कर डाला. शायद अपने जमानों में सिर्फ एला फिट्जेरल्ड ने अमेरिका में, उम कुलसुम ने मिस्र में, एदीत प्याफ़ ने फ्रांस में और नाना मूस्हूरी ने यूनान में ऐसा कारनामा अंजाम दिया था. लेकिन जिस लता की आवाज सारी दक्षिण एशियाई नारी के जीवन की सभी भावनाओं और पड़ावों की आवाज बन गई, वैसा अब तक संसार में कहीं और नहीं हो पाया है. उन्हें यदि कभी चुनौती मिली भी तो अपनी छोटी बहन आशा से ही. यह भी एक पारिवारिक विश्व कीर्तिमान है.
लता के आविर्भाव के पहले जैसे हिंदी फिल्म संगीत-निर्देशकों का एक हाथ बंधा हुआ था. लता के कंठ ने उनकी प्रतिभा को नित-नयी उड़ान और चुनौती दी. उन्हें एक ही आवाज में भोलापन, कौमार्य, स्त्रीत्व तथा सही उच्चारण सहित सातों स्वर और सारे नवरस मिल गये. अनिल विश्वास (तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है, याद रखना चांद-तारों), खेमचंद प्रकाश (आएगा आने वाला), सी रामचंद्र (ये जिंदगी उसी की है, धीरे से आ जा री अंखियन में, कटते हैं दुख में ये दिन), नौशाद (बचपन की मुहब्बत को, जाने वाले से मुलाकात न होने पाई, मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार, फिर तेरी कहानी याद आई), रोशन (हे री मैं तो प्रेम दीवानी, देखो जी मेरा जिया चुराए, सखी री मेरा मन उलझे), शंकर जयकिशन (मेरी आंखों में बस गया, मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए, मेरे सपने में आना रे, मुरली बैरन भई), मदन मोहन (प्रीतम मेरी दुनिया में, सपने में सजन से दो बातें, माई री मैं कासे कहूं, मेरी वीणा तुम बिन रोए), सचिनदेव बर्मन (तुम न जाने किस जहां में, ठंडी हवाएं, आंख खुलते ही), वसंत देसाई (दिल का खिलौना हाय टूट गया, तेरे सुर और मेरे गीत), गुलाम मोहम्मद (शिकायत क्या करूं, रात है तारों भरी, चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था, ठाढ़े रहियो ओ बांके यार), खय्याम (बहारों मेरा जीवन भी संवारो, आप यूं फासलों से गुजरते रहे, दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया), राहुलदेव बर्मन (पार लगा दे, रैना बीती जाए, शर्म आती है मगर), लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल (जीवन डोर तुम्हीं संग बांधी, कान्हा-कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार, आया आया अटरिया पे कोई चोर, बड़ा दुख दीना तेरे लखन ने), हेमंत कुमार (मन डोले मेरा तन डोले, छिप गया कोई रे, कहीं दीप जले कहीं दिल) तथा जयदेव, चित्रगुप्त, रवि, कल्याणजी-आनंदजी, दत्ताराम, एसएन त्रिपाठी आदि अन्य संगीतकारों की कुछ बेहतरीन धुनें लता के स्वर से ही चरितार्थ हो सकीं. उन्होंने आज के युवतर संगीतकारों के लिए भी अपना सर्वश्रेष्ठ गाने की कोशिश की है. आज के डिजिटल और सिंथेसाइजर युग में तो मुर्गे-मुर्गियां भी कोयल और बुलबुल बना दिए जा रहे हैं, जबकि लता ने सिर्फ अपनी मेहनत, लगन, आवाज़ और प्रतिभा के बल पर जीते-जी अमरत्व प्राप्त किया है.

उनके गीत आज भी लाखों की तादाद में बिकते हैं. अस्सी से लेकर आठ साल तक के करोड़ों श्रोता उन्हें रोज सुनते हैं. इंटरनेट ने उनके हजारों गानों को, जिनमें से कई नायाब थे, भूमंडलीय बना दिया है. वे सार्क-भावना का स्वर्णिम अवतार हैं. लता के सर्वश्रेष्ठ गीत कितने-कौन से हैं, इस पर कभी सर्वसम्मति नहीं हो सकती. यह कुछ-कुछ ‘हर ख्वाहिश पे दम निकले’ वाला गालिबाना मामला है. हर लता-प्रेमी के पास अपनी एक फेहरिस्त है, जिसे लेकर वह मरने-मारने पर आमादा हो जाता है. हम इसी में धन्य हैं कि जिस वक्त और फिजा में वे आलाप लेती हैं, उनमें हम भी सांस लेते हैं और इस खुशफहमी में जीते हैं कि लता को कोई और हमसे ज्यादा सराह और समझ ही नहीं सकता.

‘चांद उनका संग-ए-मील है’

जैसे पुरखों का बिरसा (विरासत) होता है, गायिकी का बिरसा भी इसी तरह ध्रुपद, ख्याल, भजन, ठुमरी के बहाने हमें मिला हुआ है. अगर हम पिछले सौ सालों के भारतीय फिल्मों के इतिहास में चले आए हुए आवाज के बिरसे की बात करें, तो उसमें मिली हुई लता जी की आवाज एक नेमत की तरह लगती है.

‘सलिल दा जैसे संगीतकार की धुनों में भी कितनी ही भीड़ भरी बनारस जैसी गलियां क्यों न हों, लता जी बड़े आराम से वहां टहलते हुए निकल जाती हैं’

पिछली सदी में बहुत बड़े-बड़े फनकारों ने खूब कमाल का गाया है. उसमें बड़े गुलाम अली खां, अमीर खां साहेब और किशोरी अमोनकर जी ने बहुत उम्दा गाया है, मगर उन सबका गाना खुद के लिए है. यहीं से लता जी की आवाज की एक अलग विरासत बनती है. दूसरे की आवाज़ बनकर गाना कमाल की चीज है. यह वाहिद मिसाल लता जी से शुरू होती है. सहगल भी कभी दूसरे की आवाज नहीं बने. उनका गायन बहुत स्तरीय होकर भी खुद का गायन था. लता जी की आवाज चांद पर पहुंची हुई आवाज है. वे नील आर्मस्ट्रांग हैं, जो सबसे पहले चांद पर कदम रखने की सफलता हासिल करती हैं. हालांकि आशा जी भी उसी यान में खिड़की की दूसरी तरफ बैठी थीं.

लता जी की गायिकी के बारे में कुछ बातें हैरत में डालती हैं. मसलन यह कि कहानी, कैरेक्टर, सिचुएशन, फिल्म, संगीत और गीत किसी के भी हों, अगर उसे लता जी गा रही हैं, तो वह बरबस लता जी का गाना बन जाता है. बाद में और कोई जानकारी या तथ्य महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाते. यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है. उनकी आवाज, मेलोडी और तैयारी कमाल की है, डेडीकेशन जैसी चीज़ लता जी से सीखने वाली है. उनकी गायिकी में कुछ अलग है, अब यह अदा है, फन है या अलग तरह की आर्ट. या सब का मिला-जुला एक निहायत खुशनुमा पड़ाव. उन्होंने अरेबियन नाइट्स की कहानियों की तरह आवाज का ऐसा जादुई कालीन अपने गीतों के बहाने बिछाया हुआ है जिस पर पिछले पचास-साठ साल से न जाने कितने लोग चहलकदमी कर रहे हैं. आप उनका ‘रसिक बलमा’ सुनें तो उसी सम्मोहन में पड़ जाते हैं, जैसे बच्चे जादू और तिलिस्म की कहानियों के प्रभाव में फंस जाते हैं. सलिल दा जैसे जटिल धुनों को बनाने में माहिर संगीतकार की धुनों में भी कितनी भीड़ भरी बनारस जैसी गलियां क्यों न हों, लता जी बड़े आराम से वहां टहलते हुए निकल जाती हैं. ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ ऐसी ही एक जटिल धुन पर सहजता से फिसलती हुई रचना है.

उनके लिए गाना लिखते हुए हमेशा यही लगता है कि कोई सिमली (रूपक) अगर जेहन में आती है, तो लता जी उस पर किस तरह रिएक्ट करेंगी. एक बार ‘देवदास’ के एक गाने की रिकॉर्डिंग के वक्त मेरे गीत में आई हुई इस पंक्ति ‘सरौली से मीठी लागे’ के बारे में वे बोलीं, ‘ये सरौली क्या है?’ ‘सरौली एक आम है, बहुत सुर्ख होता है, हम बचपन में उसे चूस-चूस कर खाते थे. क्या गाने से इसे निकाल दूं’ मैंने पूछा. ‘अरे नहीं! इसे ऐसे ही रहने दीजिए, मैं बस इसलिए पूछ रही हूं कि जानना चाहती थी कि इसकी मिठास कितनी होती है’ इसी तरह जब हम ‘घर’ के एक गाने की रिहर्सल पंचम के साथ कर रहे थे, तब वह उसके गाने ‘आपकी आंखों में कुछ महके हुए से राज हैं’ में आगे आने वाली लाइन ‘आपकी बदमाशियों के ये नये अंदाज हैं’ के बारे में बेहद परेशान था. उसने मुझसे कहा, ‘शायरी में बदमाशी कैसे चलेगी? फिर ये लता दीदी गाने वाली हैं.’ मैंने कहा ‘तुम रखो, लता जी को पसंद नहीं आया तो हटा देंगे.’ लता जी से रिकार्डिंग के बाद पूछा ‘गाना ठीक लगा आपको? ‘हां अच्छा था.’ ‘वह बदमाशियों वाली लाईन?’ ‘अरे, वही तो अच्छा था इस गाने में. उसी शब्द ने तो कुछ अलग बनाया इस गाने को.’ लता जी का यह गाना आपको ध्यान होगा, वहां गाते हुए वे खनकदार हंसी में बदमाशियों वाले शब्द का इस्तेमाल करती हैं और उसकी अभिव्यक्ति को और अधिक बढ़ा देती हैं.

हम खुशकिस्मत हैं कि पिछली सदी में उनकी आवाज को हमने करीब से सुना है और उनके लिए कुछ गीतों को लिखने का सौभाग्य अपने खाते में दर्ज करा पाए हैं. आप उनके गाने को सुनकर ऐसा नहीं कह सकते कि ‘अरे यार, क्या कमाल का गाती हैं.’ आप ऐसा कर ही नहीं सकते. उनके संगीत के लिए हमेशा एहतराम लगता है. इज्जत की भावना अपने आप मन में उठती है. कोई नाशाइस्ता शब्द उनकी गायिकी के लिए हम सोच भी नहीं सकते. उनकी आवाज और गायन में कोई मशक्कत नजर नहीं आती. वह सहज है और भीतर से निकली हुई इबादत की तरह है. वे संग-ए-मील हैं.

(यतीन्द्र मिश्र से बातचीत पर आधारित)

फिल्म अभी बाकी थी…

चार सितंबर. इतवार की सुबह थी. मेरे लिए अपना उपन्यास लिखने का दिन. तभी बंबई से रवि रावत का फोन आया. ‘ज्ञान जी, बुरी खबर है.’ रवि को मैंने चार दिन पहले ही भिजवाकर मूंदड़ा जी से मिलवाया था. ‘किस्सा कुत्ते का’ फिल्म लिखी है मैंने, मूंदड़ा जी के लिए. रवि को इस फिल्म के कलाकारों को ‘बुंदेलखंडी एसेंट’ (लहजा) में संवाद बोलने की रिहर्सल करानी थी. वह तो बस एक बार ही मिला उनसे. चार दिन की मुलाकात कह लें. पर ऐसा अभिभूत-सा था कि उनके बारे में लंबी बातें करता रहा था मुझसे. और उनकी मौत से उसी तरह स्तब्ध था जैसे उनके सगे-संगी-साथी. तो जब रवि ने कहा कि बुरी खबर है, तो मेरे अवचेतन मन ने मुझे मानो झकझोर कर चेताया कि वह अवश्य जगमोहन मूंदड़ा के बारे में ही कोई खबर दे रहा है. वही निकली भी. अभी मूंदड़ा जी नहीं रहे. दो दिन से आईसीयू में थे. बताया. पर तीन दिन पहले ही तो मेरी उनसे फोन पर देर रात लंबी बात हुई थी. एकदम बढ़िया थे. मैंने स्क्रिप्ट के चार अतिरिक्त दृश्य और लिख कर उनको ई-मेल किए थे. किए तो सात थे. चार रखे थे उन्होंने. बेहद उत्साहित होकर उन दृश्यों की तारीफ करते रहे थे कि अब अपनी स्क्रिप्ट एकदम मुकम्मल हो गई ज्ञान जी.

हॉलीवुड के बड़े-बड़े निर्देशक भी बेहद पढ़े-लिखे जगमोहन मूंदड़ा के कार्ड पर एमबीए पीएचडी देखकर कन्नी काट जाते थे

वे मुझे ज्ञान जी ही कहते और स्वयं फिल्म जगत में ‘भाई साहब’ नाम से संबोधित होते थे. यह नाम उन्हें राजेश राही ने दिया था जो पिछले 15 साल से विभिन्न प्रोजेक्टों में उनके चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर रहे हैं. मैं फोन करता और उनके ज्ञान जी कहने की प्रतीक्षा करता. उनके ज्ञान जी कहने में कुछ अलग ही बात थी. वे एक मधुर-सा आलाप लेकर ज्ञान जी कहते. उस तीन अक्षरों की ध्वनि में इतना प्यार, आदर और आत्मीयता होती कि हर बार मेरा दिल भर आता. उनकी कॉलर ट्यून सुनने के लिए भी फोन किया जा सकता था. फोन करो तो वह गाना बज उठता जो कदाचित जगमोहन मूंदड़ा के जीवन दर्शन को भी बयान करता था. ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.’ यही तो थी उनकी जिंदगी भी. ‘ज्ञान जी, यह टांग कटने वाली ही थी. बंबई में डॉक्टर यही कह रहे थे. मैंने भी कहा कि चलो यही सही. काटो. फिर वाइफ ने कहा तो अमेरिका चले गए. लंबे इलाज के बाद टांग तो बच गई. पर टांग पर यह सूजन तभी से बनी रहती है. बनी रहे. क्यों ज्ञान जी…’ वे अपनी कटते-कटते बची चोटिल टांग, अपने दिल, अपनी एंजियोप्लास्टी, कमला फिल्म के जमाने में उन पर चलाए गए मुकदमों, करियर के शुरुआती दौर में हॉलीवुड में किसी भी प्रोड्यूसर द्वारा घास न डालने के असफल दिनों से लगाकर नॉटी एट फार्टी वाली हाल की गोविंदा अभिनीत फिल्म के डेट्स से लेकर रिलीज तक की अनगिन फिक्रों की बातें कुछ इसी तरह बेपरवाह होकर करते थे. कद छह फुट से कुछ इंच ऊपर ही. वजन भी खासा. होंगे 120 किलो के. खिले लहीम सहीम बदन वाला कहते हैं न, वैसा. पर कितनी ऊर्जा. कितना जीवट. बड़े से पेट पर लैपटॉप रखकर मेरे साथ दस घंटे की लंबी सिटिंग लगातार दो दिन तक की. इसी जुलाई माह में. भोपाल में. वही, मैं, सर (मैं उन्हें मूंदड़ा सर ही कहता था) और उनके अनन्य मित्र दीपक पुरोहित जी. हम हर सीन पढ़ते. मैं हर सीन के संवाद फायनल करता जा रहा था. सीन दुरुस्त किए जा रहे थे. मूंदड़ा जी स्वयं लैपटॉप पर यह सब टाइप करते चले जा रहे थे. लगातार दस घंटों तक. ‘आपके जाने के बाद रात दो बजे तक सारा मैटर दोबारा लैपटॉप पर दुरुस्त करता रहा, ज्ञान जी…’ वे अगली दोपहर बड़े उत्साह से बता रहे हैं. बेहद मेहनती. फिल्म को लेकर हरदम एक जुनून में गिरफ्तार. ‘हैदराबाद की फिल्मसिटी में स्टूडियो बुक कर रहा हूं. करा लूं? आप फलानी तारीख तक सीन भेज सकेंगे? ज्ञान जी, ज्ञान जी, बहुत बढ़िया सीन लिखा है. इंडस्ट्री में खबर चल गई है कि मूंदड़ा जी के पास बहुत बढ़िया स्क्रिप्ट  है. ज्ञान जी, रघुवीर यादव के साथ आज सिटिंग है, शर्मिष्ठा चटर्जी बेहद एक्साइटेड है…’ चाहे जब फोन पर बताते कि काम कैसा चल रहा है. वे इतवार दिनांक चार सितंबर की सुबह अचानक यूं चले गए वरना इसी दस सितंबर से तो उन्हें ‘किस्सा कुत्ते का’ की शूटिंग शुरू करनी थी. उस बाकायदा रजिस्टर्ड, छपी, करीने से बाइंड की गई स्क्रिप्ट  की जो कॉपी मूंदड़ा जी ने मुझे बंबई से भेजी थी, मेरी टेबल पर उदास-सी पड़ी है. कई बार किताबें भी अनाथ हो जाती हैं क्या? शायद हां. क्योंकि अब यदि कोई इसे बनाएगा भी तो क्या वह बात आएगी? शायद राजेश राही बना सकें क्योंकि वे इस
फिल्म के कागजी दिनों में लगातार साथ थे. उनके विजन के साक्षी.

मैं स्क्रिप्ट  पूरा होने तक मूंदड़ा को एक आम फिल्मी हस्ती ही मानता रहा जो एक बेहतर इंसान भी है. बस. यदि हम स्क्रिप्ट  पूरा होने की खुशी में दिए गए डिनर मंे शामिल न होते तो मैं मूंदड़ा की वह कहानी आपको न बता पाता जो आगे बताने जा रहा हूं. डिनर था, छोटा-सा. मैं, मेरी पत्नी डॉ शशि, दीपक पुरोहित और मूंदड़ा जी. बस. होटल जहनुमां में अभी कोई टेबल खाली नहीं था. हम लाउंज में जाकर बैठ गए. मैंने यूं ही पूछ लिया और मेरी बात के जवाब में मूंदड़ा जी ने अपनी जो जीवन गाथा के पन्ने हमें उस दिन पढ़वाए, वे स्वयं एक अद्भुत कहानी का हिस्सा थे. डेढ़ घंटे तक वे अपनी, फिल्मों से भी ज्यादा दिलचस्प जीवन कथा सुनाते रहे. खाना-वाना तो फिर उसके बाद ही हुआ. शायद नया दौर थी, या मुगले आजम जिसे स्कूली छात्र जगमोहन ने देखा और ऐसा अभिभूत हुआ कि उसने तभी यह तय कर लिया कि बड़ा होकर फिल्मकार बनेगा. पढ़ने में बहुत होशियार. आईआईटी बंबई में चुन लिए गए. इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर बन गए. पर मन में यह बात कहीं गहरे गड़ी थी कि जीवन में अंततः फिल्में ही बनानी हैं. कैसे बनाएंगे? कौन बनवाएगा? यह पता नहीं. पर बनाऊंगा  यह पक्का था. अमेरिका में वजीफे के साथ एमबीए करने का अवसर मिल गया. दिन में एमबीए, रात में फिल्म मेकिंग के कोर्स. दोनों में डिग्री भी मिल गई. वजीफे के साथ पीएचडी का मौका मिला. मार्केटिंग में. डरते-डराते पूछा कि क्या मैं अंग्रेजी फिल्मों की मार्केटिंग और हिंदी फिल्मों की मार्केटिंग के तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी कर सकता हूं. क्यों नहीं. जरूर. करो.

इसी विषय पर पीएचडी की भी. इसी बहाने बंबई में फिल्मी सीन को समझा. फिर वर्ल्ड बैंक में बड़ी कमाई वाली नौकरी के ऑफर को ठुकराकर लॉस एंजिलिस में मार्केटिंग के प्रोफेसर हो गए. लॉस एंजिलिस में ही क्यों? क्योंकि हॉलीवुड पास है. दिन में प्रोफेसरी, रात में फिल्म मेकिंग के कोर्स. पांच साल तक यह किया. फिर एक दिन तय किया कि प्रोफेसरी आदि सब छोड़कर ही फिल्में ही बनानी हैं. छोड़ दी प्रोफेसरी. विजिटिंग कार्ड पर जेग मूंदड़ा छपवाया क्योंकि हॉलीवुड के प्रोड्यूसर भी विद्वान, बहुत पढ़े-लिखे उस जगमोहन मूंदड़ा, एमबीए, पीएचडी का कार्ड देखकर कन्नी काट जाते थे. फिर स्टूडियो के चक्कर. हर जगह असफलताएं. फिर होम वीडियो सर्किट के दौर में ब्रेक मिला तो बीस अंग्रेजी फिल्में बना डालीं. लिखना, डायरेक्ट करना, सब. पैसे भी खूब आ गए. जीवन ठीक चल पड़ा. फिर विजय अमृतराज की वह फिल्म मिली जो चार मिलियन डॉलर में बनी पर अपने निर्माता को चार सौ मिलियन डॉलर कमा कर दे गई. जग मूंदड़ा रातोंरात बड़े डायरेक्टर बन गया. फिल्में मिलीं. पैसा मिला. नाम हुआ. पर कभी बंबई आते तो पाते कि यहां का मीडिया और फिल्मवाले उन्हें ‘सेमी पोर्नो’ बनाने वाला मानते हैं. क्या करें? तब उन्होंने यहां बंबई आकर विजय तेंदुलकर के नाटक (और सच्ची घटना) पर ‘कमला’ बनाई. दीप्ति नवल को लेकर. फिर ऐश्वर्या राय की ‘प्रोवोक्ड’. नंदिता दास की ‘बवंडर’. और इस तरह वे सच्ची घटनाओं पर सामाजिक पड़ताल करने वाली फिल्में बनाने वाले कहलाने लगे.

तो स्क्रिप्ट का काम, तीन माह का समय, फोन कॉल, ई-मेल, बैठकों के इतने दौरों के बाद भी मुझे उनके बारे में यह सब न पता चलता यदि वह जहनुमां वाला डिनर साथ न लेते. उस दिन मैंने जाना कि मूंदड़ा क्यों मुझे आम फिल्मकार से इतने अलग-से लगते थे. वे अलग ही थे. बेहद व्यवस्थित, ईमानदार, जीवन को समझने वाले और भारत के गांवों को जानने की तड़प वाला व्यक्ति. ‘किस्सा कुत्ते का’ की एक लाइन की सच्ची घटना वाली एक कहानी लेकर वे मुझसे मिले थे. साफ कहा कि मैंने आपको कभी नहीं पढ़ा है परंतु दीपक पुरोहित कहता है कि इस विषय को केवल ज्ञान जी लिख सकते हैं. ठाकुर (जमींदार) के कुत्ते को दलित महिला द्वारा रोटी डालना. कुत्ते द्वारा रोटी खाने के बाद ठाकुर द्वारा पंचायत बिठाना. कुत्ते का जाति परिवर्तन करके उसे पंचायत द्वारा दलित घोषित करना. दलित महिला पर पंचायत द्वारा जुर्माना भी. इस सेंट्रल थीम पर हमने मिलकर एक शानदार रोचक व्यंग्य फिल्म की स्क्रिप्ट पूरी की थी. मूंदड़ा जी अक्टूबर तक इसे शूट करके जनवरी में किसी फिल्म फेस्टिवल में ले जाने वाले थे. सब धरा रह गया. ऊपर वाले की स्क्रिप्ट में तो ‘दी एंड’ कभी भी आ जाता है. जब सबको लग रहा था कि अभी तो कितनी कहानी बाकी है, तभी जगमोहन मूंदड़ा की फिल्म खत्म हो गई. और हम प्रेक्षागृह में भौंचक बैठे हैं. अवाक.