शिक्षा के मंदिर, शोक की घंटियां

हिंदुस्तान के पहले आईआईटी, आईआईटी खड़गपुर के 1956 में हुए पहले दीक्षांत समारोह में पंडित नेहरू ने कहा था, ‘यह हिंदुस्तान की एक उत्कृष्ट धरोहर है, जो हमारी उम्मीदों का प्रतिनिधित्व करेगी और हिंदुस्तान के भविष्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी.’ मगर न तो आईआईटी संस्थानों की स्थापना में अहम योगदान देने वाले पंडित नेहरू ने सोचा होगा और न ही मध्यम वर्गीय महत्वाकांक्षा के हम और आप जैसे दावेदारों ने ही, कि हिंदुस्तान का भविष्य तैयार होने से पहले ही इन आईआईटी संस्थानों में आत्महत्या करने को मजबूर होगा. अगर आप भी आईआईटी के कुछ प्रोफेसरों की ही तरह इस तरह का कोई गुमान रखते हैं कि आत्महत्याएं सिर्फ आईआईटी संस्थानों में ही नहीं हर जगह होती हैं और आईआईटी की शिक्षा व्यवस्था और पद्धति इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं, तो कृपया इन आंकड़ों पर नजर डाले.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इस साल अभी तक आईआईटी संस्थानों में सात आत्महत्याएं हो चुकी हैं जिसमें से दो पिछले दो हफ्तों के दौरान हुई हैं. सबसे ताजा मामला आईआईटी पटना में तीसरे वर्ष की 21 वर्षीया यलावर्थी सुइया का है जिसने पांचवंे सेमस्टर में खराब प्रदर्शन की वजह से अपने हॉस्टल की इमारत से कूद कर आत्महत्या कर ली. इससे पहले आईआईटी मद्रास में एमटेक के दूसरे वर्ष के छात्र बी गौरीशंकर ने जहर पी कर आत्महत्या कर ली थी. 2011 का आंकडा पिछले चार सालों में आत्महत्याओं का सबसे बड़ा आंकड़ा है. 2010 में दो, 2009 में चार और 2008 में आईआईटी के पांच छात्र आत्महत्या कर चुके हैं. इसके अलावा, आईआईटी कानपुर में वर्ष 2005 से वर्ष 2010 तक आठ आत्महत्याएं हो चुकी हैं और आईआईटी मद्रास में वर्ष 2008 से 2011 तक पांच.

‘ हम लोग रियल लाइफ से बिलकुल कटे रहते हैं. 8वी-9वी के बाद कभी कोई स्पोर्टस नहीं खेला, किसी डिबेट या ऐक्टिविटी में भाग नहीं लिया ‘

दिल्ली के जाने-माने मनोवैज्ञानिक संजय चुग के कहते हैं,’ आत्महत्या की कोई एक निर्धारित वजह नहीं होती. हमेशा कुछ कारण साथ मिल कर आत्महत्या की वजह बनते हैं. इन्हीं कारणों की वजह से अकसर छात्रों में तनाव और अवसाद घर कर जाता है और जब परिणाम आपके अनुरूप नहीं आते, तब आप मानसिक रूप से परेशान और अकेले-उदास हो कर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित होते हैं.’

‘तहलका’ ने आईआईटी संस्थानों में हो रही आत्महत्याओं की इन्हीं अलग-अलग वजहों को जानने के लिए देश के इन महत्वपूर्ण संस्थानों के कई छात्रों से मुलाकात और बातचीत की. बातचीत के दौरान सभी छात्रों की एकमात्र शर्त थी कि उनका नाम न छापा जाए और इसी वजह से यहां बिना उनके नाम छापे उनकी बात आप तक पहुंचाई जा रही है.

आईआईटी संस्थानों के तकरीबन सभी छात्रों ने एकमत से आत्महत्या और अवसाद  के लिए जिस अहम कारण का जिक्र किया वह है शैक्षिक दबाव. आईआईटी दिल्ली मेंे एमटेक के एक छात्र बताते हैं, ’यहां आपको 80 प्रतिशत ऐसे लोग मिल जाएंगे जो आईआईटी के सिस्टम से उखड़े हुए हैं…हर बंदा यहां आईआईटी से नहीं, उसके सिस्टम से परेशान है’. आईआईटी में ‘प्रतिष्ठित’ डिग्री को हासिल करने के लिए सिस्टम को इतना उलझा हुआ बना दिया गया है कि छात्र को उसको समझने में ही दो-तीन साल लग जाते है. आईआईटी कानपुर में बीटेक, चौथे वर्ष के एक छात्र कहते हैं, ’मुझे अपनी डिग्री प्लान करने में ही बहुत टाइम लग जाता है.’ कई संस्थानों में प्री-रेक्वजिट (pre-requisite) जैसे उलझे नियम, खुद टाइम टेबल बनाने की कवायद, 75 प्रतिशत उपस्थिति की शर्त, हर गतिविधि में क्रेडिट पांइट का लेन-देन, कई जगह स्टेंडिंग रिव्यू कमेटी जैसी सख्त कमेटियों का होना, प्रोफेसरों का रुखा रवैया जैसे कई कारण हैं जिनसे छात्र अवसादग्रस्त हो जाते हैं.

प्री-रेक्वजिट जैसे सख्त नियम पर आईआईटी दिल्ली के काफी छात्र अपना रोष व्यक्त करते हैं. बीटेक (चौथे वर्ष) के एक छात्र कहते हैं, ‘अगर आप पहले सेमस्टर में किसी कोर्स में फेल हो गए तो उसकी परीक्षा दोबारा आप अगले सेमस्टर में नहीं, अगले साल दंेगे. और अगले साल वह कोर्स देने के लिए आपको उस साल का एक कोर्स ड्रॉप करना पड़ेगा जो आप फिर तीसरे साल में देंगेे, तीसरे साल वाला कोर्स आप फिर चौथे साल में देंगे..और अगर यह चेन चौथे साल के आखिर तक जाती है तो फिर आपकी डिग्री एक्सटेंड हो जाती है. और यह काफी लोगों के साथ होता है. साथ ही आपको उस रुके हुए कोर्स की सारी कक्षाएं भी फिर से अटेंड करनी जरूरी होती हैं. इसका सबसे ज्यादा असर प्लेसमेंट पर पड़ता है जहां पहले से कैंपस प्लेसमेंट में नौकरी पा चुके छात्र डिग्री के एक्सटेंशन की वजह से अपने ड्रीम जाब से हाथ धो बैठते हैं.’

इतना दबाव छात्रों पर डाल कर शायद यह दिखाना चाहते हैं कि आईआईटी का छात्र कितनी मेहनत करता है. मगर मार्क्स के आगे भी दुनिया होती है

आईआईटी का यह सिस्टम बाकी इंजीनियरिंग संस्थानों से एकदम अलग है, जहां पर छात्र रुके हुए कोर्स को अगले ही सेमस्टर में बाकी के विषयों के साथ दे कर उत्तीर्ण कर सकता है. एमटेक डूअल (dual) डिग्री के एक छात्र बताते हैं, ’इस सिस्टम की वजह से तीसरे सेमस्टर के एक कोर्स में फेल हुआ तो ऐसे लूप में फंसा कि आज सातवें सेमस्टर तक आते-आते मैं चार कोर्स के पेपर अपने जूनियरों के साथ दे चुका हूं…अब अगर गलती से भी मैं किसी और कोर्स में फेल हो गया तो मेरी डिग्री तो हर हाल में एक्सटेंड होगी.’

आईआईटी संस्थानों में इसी तरह के सख्त नियमों के चलते कई छात्रों की डिग्रियां एक या दो साल आगे बढ़ जाती हैं और प्लेसमेंट में मिली नौकरी हाथ से चली जाती है. इस वजह से उनमें अवसाद बढ़ जाता है जो कुछ मामलों में आत्महत्या का रुप ले लेता है. आंकड़ों से भी साफ पता चलता है कि ज्यादातर छात्रों की आत्महत्या करने की वजह उनकी डिग्री का एक्सटेंड होना और कैंपस प्लेसमेंट में मिली नौकरी का हाथ से जाना होता है.

अब बात स्टेंडिंग रिव्यू कमेटी (एसआरसी) की. इसके बारे में आईआईटी दिल्ली के एक छात्र कहते हैं, ’हमारे यहां एसआरसी एक हव्वा है. सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा की तर्ज पर हमारे यहां कहते हैं कि पढ़ ले नहीं तो एसआरसी लग जाएगी! जब आपके ऊपर एसआरसी बैठती है तो तकनीकी रूप से आपका अगले सेमस्टर का एक कोर्स अपने आप ड्रॉप हो जाता है क्योंकि प्रोफेसरों को लगता है कि आप इतना बोझ नहीं उठा सकते. तो मदद करने की जगह एसआरसी छात्रों का नुकसान ही करती है. यह डिजाइन और रियालिटी के बीच का फर्क है…आपने सिस्टम तो डिजाइन कर दिया मगर आपको रियालिटी के बारे में कुछ नहीं पता है.’ एक दूसरी परेशानी की तरफ ध्यान खींचते हुए एक अन्य छात्र कहते हैं, ’यहां हर चीज के लिए आपको क्रेडिट चाहिए होता है. टेक्निकल ट्रेनिंग के लिए इतने क्रेडिट चाहिए, बीटेक प्रोजेक्ट के लिए उतने क्रेडिट चाहिए. जिंदगी के चार साल बस गणित लगाते हुए ही निकल जाते हैं.’

मगर आईआईटी दिल्ली के छात्र संकायाध्यक्ष प्रोफेसर शशि माथुर शैक्षिक दबाव को अवसाद और आत्महत्या की वजह मानने से इंकार करते हैं. वे कहते हैं ’मैं अपने छात्रों को कहता हूं कि आपको आईआईटी में फेल होने के लिए काफी ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, न कि पास होने के लिए! शैक्षिक दबाव  बिलकुल भी तनाव और आत्महत्या की वजह नहीं हो सकता.’ वही दूसरी तरफ जाने-माने शिक्षाशास्त्री और यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल सीधे-सीधे अपनी बात रखते हैं, ’इतना अकादमिक दबाव छात्रों पर डाल कर शायद ये लोग यह दिखाना चाहते हैं कि आईआईटी का छात्र कितनी मेहनत करता है. मगर मार्क्स के आगे भी दुनिया होती है. आईआईटी में इस तरह की पढ़ाई से छात्रों को असली ज्ञान की दुनिया से महरूम रखा जा रहा है.’

लगातार बढ़ती आत्महत्याओं और अवसाद के मामलों के चलते ज्यादातर आईआईटी संस्थानों में काउंसलिंग सेल मौजूद है जहां मनोचिकित्सक छात्रों की मदद करते हैं. मगर अकसर छात्र काउंसलिंग के लिए नहीं जाते. इसकी वजह बताते हुए आईआईटी दिल्ली की मुख्य काउंसलर रुपा मुगरई कहती हैं, ’हमारे समाज में काउंसलिंग को  लेकर काफी नकारात्मक धारणा है. मेरे पास काफी छात्र आते हैं जो मनोचिकित्सक के पास नहीं जाना चाहते, दवा नहीं लेना चाहते क्योंकि इससे वे लोगों की नजर में आ जाएंगे. यहां तक कि वे काउंसलर के पास भी नहीं आते कि कहीं लोग उन्हें पागल न समझें.’ मगर यहां से काउंसलिंग ले चुके आईआईटी दिल्ली के एमटेक के आखिरी साल के एक छात्र का अनुभव थोड़ा अलग था. वे बताते हैं, ’मैं पहली बार गया तो आफिस बंद था. दूसरी बार गया तो रिसेप्शनिस्ट नहीं थी, तीसरी बार काउंसलर मैडम छुट्टी पर थीं, उसके बाद रिसेप्शनिस्ट छुट्टी पर चली गईं. फिर जब आखिर में अपाइंटमेंट मिला तो तीन दिन बाद का मिला. तो जब मैं खुद अपने से इतनी कोशिश कर रहा हूं कि मुझे मदद चाहिए, तब मुझे नौ दिन बाद जाकर मदद मिली. यहां 8000 छात्र हंै और सिर्फ दो काउंसलर, कैसे समय पर मदद मिल पाएगी?’
यह शिकायत काफी छात्रों की थी कि आप जब खुद मदद के लिए जाएं तभी मदद मिलती है, और अकसर अवसाद के शिकार छात्र खुद काउंसलर के पास नहीं जाते हैं. जैसा कि एक छात्र अपने आक्रोश को छुपाते हुए बताते हंै, ’जब अखबारों में किसी आत्महत्या की खबर छपती है और डायरेक्टर स्टेटमेंट देते हैं कि हम लोग तो उस छात्र को बड़े ध्यान से आब्जर्व कर रहे थे और उसमें अवसाद या तनाव के कोई लक्षण मौजूद नहीं थे, पता नहीं उसने ऐसा कदम क्यों उठाया तो हम लोगों को हंसी आती है. मुझे तो यहां कोई भी ऑब्जर्व नहीं कर रहा है. उनको कैसे पता चलेगा कि मैं तनाव या अवसाद में हूं जबकि यहां मेरे दोस्तों तक को उसके बारे में पता नहीं चलता है.’

एक और अहम पहलू है छात्रों पर अभिभावकों और समाज का दबाव. पहले यह दबाव इन संस्थानों में प्रवेश को लेकर होता है और प्रवेश के बाद आईआईटी में लगातार अच्छा प्रदर्शन करने को लेकर. काउंसलर रुपा मुरगई बताती हैं, ‘काफी सारे छात्र आईआईटी में प्रवेश पाने से पहले ही तनाव और अवसाद के शिकार होते हैं. आईआईटी में दाखिला पाने के लिए लगातार अभिवावकों के दबाव के चलते बच्चा सामान्य जिंदगी नहीं जी पाता है. उसने बाकी बच्चों की तरह स्कूल लाइफ नहीं देखी होती. कोचिंग संस्थान और अभिवावक मिलकर बच्चों को सिर्फ आईआईटी की तैयारी के लिए ही अनुशासन में रख कर प्रशिक्षित करते हैं. किताबों से बाहर उसे निकलने ही नहीं देते. जब बच्चा आईआईटी में आता है तो यहां उसे वह अनुशासन और प्रशिक्षण नहीं मिलता, अभिवावकों की निगरानी नहीं मिलती, सब कुछ अकेले करना पड़ता है. अगर वह इस तरह की नयी संस्कृति से तालमेल नहीं बिठा पाता तो धीरे-धीरे अवसाद में चला जाता है.’

वास्तविक दुनिया से अलग-थलग होना भी काफी छात्र इस दबाव की प्रमुख वजह मानते हैं. आईआईटी मद्रास के चौथे साल के एक छात्र को इसका अहसास है. वे कहते हैं, ’हम लोग रियल लाइफ से बिलकुल कटे रहते हैं. मुझे घर के कई काम करने नहीं आते. मैंने कभी टेलीफोन बिल नहीं जमा किया. सब्जी लेने मैं आज तक नहीं गया.स्कूल लाइफ में कभी किसी लड़की के साथ फिल्म नहीं देखी. 8वीं-9वीं के बाद कभी कोई स्पोर्ट्स नहीं खेला, किसी डिबेट या ऐक्टिविटी में भाग नहीं लिया और तकरीबन मेरे सारे दोस्तों ने भी ये सारे काम नहीं किए हैं.’ वास्तविक दुनिया से अपने इसी डिसकनेक्ट की वजह से काफी छात्र तनाव को नहीं संभाल पाते हैं. एक छात्र के शब्दों में, ‘यहां के छात्रों में इन मुश्किल हालात से निपटने की क्षमताएं नहीं रहतीं, उनमें तनाव को झेलने की प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती है.’

इसके अलावा भी कई संभावित कारण हैं जो छात्रों के बीच अवसाद को बढ़ावा देते हैं. उदाहरण के लिए कई प्रोफेसरों का छात्रों के प्रति रुखा रवैया. आईआईटी दिल्ली के एक छात्र बताते हैं, ‘यहां कुछ प्रोफेसर वाकई अच्छे होते हैं मगर कुछ प्रोफेसर होते है जो छात्रों के प्रति काफी असंवेदनशील होते हैं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि छात्र का करियर बर्बाद हो रहा है. वे आपको अकसर निरुत्साहित और अपमानित करते रहते हैं. और छात्र कुछ कर नहीं सकते क्योंकि आईआईटी में प्रोफेसर के हाथ में पूरी पाॅवर होती है, वह आपका करियर बना भी सकता है और चाहे तो बिगाड़ भी सकता है.’

इसके अलावा एक दूसरी और खास वजह आईआईटी की बनी हुई साख है. इस संस्थान में प्रवेश मिलने वाले को शुरू से ही खुदा का दर्जा दिया जाता है और जब यहां आकर कोई छात्र अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता तो वह उस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाता है. आईआईटी कानपुर के दूसरे वर्ष के एक छात्र बताते हैं, ‘यहां आया हुआ हर छात्र अपनी-अपनी क्लास का टॉपर होता है. और यहां आकर कुछ ऊपर होते हैं और कुछ नीचे. मगर जो बंदा नीचे है वह भी आया तो टॉपर बन कर ही था, इसीलिए उसे यह बात स्वीकार करने में बड़ी मुश्किल होती है कि वह उतना बुद्धिमान नहीं है जितना उसने और उसकी फैमिली ने सोचा था.’

आईआईटी संस्थानों में इस तरह के प्रकरणों को कम करने के लिए सिस्टम में मौजूद कमियों को दूर करने पर जोर डालते हुए प्रोफेसर यशपाल आईआईटी को यूनिवर्सिटी का दर्जा देने का सुझाव देते हंै, जहां दूसरे विषय भी पढ़ाए जाएं जिससे छात्र का संपूर्ण विकास संभव हो सके. वे कहते हैं, ‘अगर आप विश्व के बेहतरीन विश्वविद्यालयों का इतिहास देखें तो आपको पता चलेगा कि वे सभी इसलिए इतने जाने जाते हैं क्योंकि उन्होंने वक्त के साथ अपना विस्तार किया और अलग-अलग विषयों को अपने छात्रों को पढ़ाया. आईआईटी में दी जा रही शिक्षा संपूर्ण शिक्षा नहीं है. आईआईटी का छात्र बहुत कुछ कर सकता है मगर इस तरह की शिक्षा से छात्र ज्ञान की दुनिया से कट जाता है.’

आईआईटी से निकली अनेकों प्रतिभाओं ने अपनी विलक्षण उपलब्धियों से दुनिया के सामने कई उदाहरण रखे हैं जो काबिले तारीफ है. लेकिन प्रतिभाओं को तराशने में और बने-बनाए सांचे में ढालने में फर्क होता है. इसलिए ऐसे सृजनशील प्रतिष्ठानों से हम यही अपेक्षा कर सकते हैं कि इस तरह की दुखद घटनाओं पर अंकुश लगाने के तरीके खोजे जाएं जिससे आने वाले समय में और प्रतिभाएं काल-कवलित न हों.