लंगड़ीमार सहयोग का एक साल

राजनीतिक चखचख, आपसी स्पर्धा, साथ रहकर भी एक दूजे को मात देने की होड़ के बावजूद झारखंड में अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में सरकार ने एक साल पूरा कर लिया. निराला इस एकसाला सफर का विश्लेषण कर रहे हैं

एक चौपाली कथा है. अमावस की रात को एक ज्योतिषी के यहां चोरी हुई. ज्योतिषी ने चोरों को देखा. उसकी पत्नी बोली, शोर मचाओ, गांववालों को जगाओ. ज्योतिषी ने कहा, चुप रहो, अभी ले जाने दो सब. समय-संयोग, अभी शोर मचाने की इजाजत नहीं देता. चोर सामान लेकर चलते बने. पूर्णिमा की रात आयी तो आधी रात को ज्योतिषी अचानक चोर…चोर… कह चिल्लाने लगा. गांव वाले पहुंचे. ज्योतिषी ने कहा, चोर तो अमावस की रात ही आया था, आज तो शोर मचाने का सर्वोचित समय था, इसलिए चिल्लाया.
झारखंड में पिछले एक साल से सरकार के सफरनामे को देखें तो उस ज्योतिषी की तरह चीखने-चिल्लाने की आवाजें समय-संयोग के हिसाब से सुनाई पड़ती रहती हंै. कभी पूर्णिमा की रात की घटना पर अमावस की रात चिल्लाया जाता है तो कभी अमावस की घटना पर पूर्णिमा की रात को शोर मचता है. कभी झामुमो के मुखिया शिबू सोरेन बीच में टुनकी मारते हैं कि सरकार कुछ नहीं कर रही, राज्य में विकास नहीं हो रहा तो कभी दूसरे सहयोगी दल आजसू के विधायक अनुपूरक बजट पर बहस के दौरान ही सदन से गायब हो जाते हैं. यह जानते हुए भी कि उस समय सदन से नदारद रहना सरकार को अपदस्थ तक कर सकता है.

मुंडा को भी पता है कि घोषणाएं और चंद उपलब्धियों को गिना देने से चुनावी राजनीति में बात नहीं बनेगी

वैसे इस तरह की हर चिल्लाहट के अपने-अपने मायने होते हैं. सरकार में शामिल तीनों दल एक-दूसरे का लिटमस टेस्ट करके देखते रहते हैं. जैसे बीच में मौका देख झामुमो ने कह ही दिया कि 28-28 माह के रोटेशन फॉर्मूले पर सरकार चलाने का करार है. भाजपा ने इसे खारिज कर दिया. लेकिन मुश्किल यह है कि भाजपा या उसके मुख्यमंत्री कितनी बातों को खारिज करेंगे और कब तक? 
एक साल का तजुर्बा देखें तो जमशेदपुर लोकसभा उपचुनाव में तीनों सत्ताधारी दल आपस में गुत्थगुत्थी कर लेने के बाद भी सरकार को सरकाते रहने के लिए संकरी राह निकाल लेते हैं. सरकार चलाने के लिए मुंडा सहयोगी दलों की तो मान-मनौव्वल कर ले रहे हैं लेकिन अपनों का क्या करें? अपने भी तो निगेहबानी के बहाने वक्त-बेवक्त सामने आते रहते हैं. कभी अतिक्रमण के सवाल पर यशवंत सिन्हा, सीपी सिंह और रघुवर दास सार्वजनिक तौर पर अर्जुन मुंडा के खिलाफ गडकरी दरबार तक पहुंच जाते हैं तो कभी लोक सभा में उपाध्यक्ष पद पर विराजमान कडि़या मुंडा पुरानी टीस के साथ नये बोल बोल जाते हैं.

हालांकि भाजपाइयों के एक खेमे में नाराजगी के बावजूद अर्जुन मुंडा के परेशान नहीं होने की एक बड़ी वजह तो सभी जानते हैं कि केंद्रीय नेतृत्व व संघ परिवार का वरदहस्त उनके साथ है. इसलिए प्रदेश भाजपा के बड़े से बड़े नेता एंड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी कुछ नहीं कर पा रहे. झारखंड भाजपा के प्रभारी हरेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं, ‘अर्जुन मुंडा ने राज्य की कमान संभालकर लीडरशिप क्राइसिस को दूर किया है, वे सरकार और संगठन को आगे बढ़ाने की लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं.’ हरेंद्र प्रताप लगे हाथ यह कहते हुए भी विरोधी भाजपाइयों को चुप रहने का संकेत देते हैं कि अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री के तौर पर वैसे नेता हैं जिन पर किसी भी किस्म का आर्थिक या चारित्रिक दोषारोपण नहीं किया जा सकता! यह हर कोई जानता है कि मात्र 12 साल पहले झामुमो से भाजपा में छलांग लगाने वाले मुंडा भाजपा में ऊपर तक किसी भी पुराने झारखंडी भाजपाई से ज्यादा पैठ रखते हैं. यही वजह है कि विरोधी भाजपाइयों की उनके सामने एक नहीं चल रही.

यह तो भाजपा के अंतर्कलह वाले चक्रव्यूह से पार पाने की बात हुई, सहयोगी दलों से भी मुंडा यदि पार पाते हुए पिछले एक साल से सरकार को सरकाने में सफल रहे हैं तो उसके पीछे भी कोई रहस्यमयी कारण या नेतृत्व का करिश्मा नहीं. भाजपा की तरह ही झामुमो की भी मजबूरी है कि अभी किसी तरह सरकार चलती रहे. वरना खतरा सामने है. सरायकेला-खरसांवा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने पर भी अर्जुन मुंडा को झारखंड विकास मोर्चा से हुई परेशानी और उसके बाद जमशेदपुर लोकसभा उपचुनाव में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी को मिली करारी हार के बाद भाजपा फिलहाल इस स्थिति में नहीं कि तुरंत चुनावी जंग में जोर आजमाइश कर सके. दूसरी ओर झारखंड मुक्ति मोर्चा है जिसे पता है कि बाबूलाल मरांडी जितने मजबूत होंगे, भाजपा के साथ-साथ झामुमो के जनाधार में उतनी ही तेज सेंधमारी होगी. इन दोनों दलों से झाविमो में जाने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है. इसलिए ये दोनों दल अपने साझा दुश्मन से बचने के लिए मजबूरी में ही सही ताल में ताल मिला रहे हैं.

तीसरे छोर पर आजसू है, जो झारखंड की राजनीति में ध्रुवतारे की तरह है. सरकार किसी भी दल की हो, किसी भी गठबंधन की हो, किसी न किसी रूप में आजसू सहभागी बन ही जाता है. कुछ वर्षों पूर्व तक आजसू एक से दो की संख्या पर पहुंची थी तो ज्यादा अचंभा नहीं हुआ था, क्योंकि सुदेश के बाद पार्टी के टिकट से जीत दर्ज करानेवाले सुदेश के रिश्तेदार चंद्रप्रकाशी चौधरी थे. अब मौजूदा विधानसभा में आजसू के पांच सदस्य हैं. आजसू को जाननेवाले जानते हैं कि अभी मात्र 37 वर्षीय सुदेश हड़बड़ी की बजाय भविष्य के लिए बुनियाद तैयार करने में लगे हुए है इसलिए वे सरकार में शामिल रहकर भी इन पचड़ों से दूर सरकार के सौजन्य से अपनी पार्टी की मजबूती व दायरे के विस्तार के लिए  तेजी से काम कर रहे हैं. यह अभियान एक से दो, दो से पांच के बाद धीरे-धीरे अपने दम पर स्वशासन के लक्ष्य तक पहुंचने का है.

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर कहते हैं, ‘राजनीति के ऐसे ही पेंच में एक साल गुजर गया. रूठने-मनाने और सरकार बचाने का ही खेल एक साल चलता रहा. कोई एक ठोस काम हुआ तो नहीं दिख रहा.’ यह सवाल कई लोग पूछ रहे हैं कि पिछले एक साल में सरकार ने सत्ता-शासन बचाये-बनाये रखने के अलावा क्या ठोस किया? अर्जुन मुंडा कहते हैं कि पंचायत चुनाव हुआ, महिलाओं को 50 प्रतिशत का आरक्षण मिला, राष्ट्रीय खेल हुआ… वगैरह-वगैरह. वे यह भी कहते हैं कि 2006 से लेकर 2010 के बीच झारखंड विकृत राज्य के रूप में देश भर में मशहूर हो गया, साख गिर गई, उससे पार पाने की कोशिश हो रही है, उसमें सफल हो रहे हैं, यह क्या कोई कम बड़ा काम है. अर्जुन मुंडा द्वारा इन उपलब्धियों को गिनाने पर तहलका से बातचीत में चुटकी लेते हुए कांग्रेसी विधायक गीताश्री उरांव कहती हैं, ‘ऐसे ही बातें बना रही है सरकार एक साल से. पंचायत चुनाव राष्ट्रपति शासन के दौरान हुआ फैसला था, जिसे होना ही था. मुख्य भूमिका तो जनता की रही.’ गीताश्री आगे कहती हैं, ‘जिस राष्ट्रीय खेल को सरकार उपलब्धि बता रही है, उसके नाम पर क्या खेल हुआ, यह कौन नहीं जानता. अगर वह भी उपलब्धि है तो सरकार को बधाई. और इसके लिए भी सरकार ऐसे ही घोषणाएं करती रहे.’

इन तमाम राजनीतिक पैंतरेबाजियों के बीच अर्जुन मुंडा को भी पता है कि घोषणाएं और चंद उपलब्धियों को गिना देने से चुनावी राजनीति में बात नहीं बनेगी? वे कुछ लोकलुभावन और कुछ गंभीर रास्ते भी तेजी से अपनाने की कोशिश में हैं. पिछली बार जब सीएम थे तो एमओयू का मेला लगवा रहे थे, अब जनजातीय भाषाओं को दूसरी राजभाषा का दर्जा देकर, कंपनियों द्वारा जमीन की खरीदारी पर सरकारी अनुमति व सहमति को जरूरी बनाकर गंभीर छवि बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं. मुंडा अघोषित तौर पर बिहार को रोल मॉडल बनाकर नीतीश की राह पर ही चलने की कोशिश में लगे हुए हैं. झारखंड ने पंचायत चुनाव में बिहार की तरह आरक्षण मॉडल चला. बिहार की तरह झारखंड में भी राइट टू सर्विस एक्ट लागू करने की तैयारी में हैं. बिहार में नीतीश ने विशेष राज्य दर्जा अभियान चलाकर वाहवाही बटोरी तो अब अर्जुन मुंडा व उनकी पार्टी भाजपा भी 25 सितंबर से झारखंड को विशेष राज्य दर्जा दिलाने के लिए हस्ताक्षर अभियान शुरू करने की तैयारी में है. लेकिन क्या बिहार और झारखंड में, दोनों राज्यों की राजनीति की गति में कोई फर्क नहीं है? भाकपा माले विधायक बिनोद सिंह पूछते हैं, ‘एक साल में क्या हुआ, सबको दिख रहा है. भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते रहे, किसी भ्रष्टाचारी पर कार्रवाई नहीं हो सकी. उलटे शीला किस्कू रपाज जैसे अधिकारियों को सेवानिवृत्ति के बाद जांच अधिकारी बनाया जा रहा है, जिनके यहां रांची कमिश्नर रहते हुए ही निगरानी की छापेमारी हुई थी.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘जमीन की बात कर रहे हैं तो क्यों नहीं एमओयू के जरिये छल कर कंपनियों द्वारा ली गयी जमीन को सरकार आदिवासियों को वापस करवा रही है? राइट टू सर्विस एक्ट लागू करने को कह रहे हैं, पहले लालकार्ड, राशन कार्ड के जो आवेदन हैं, उन्हें तो हक दिलवा दें.’
हालांकि अर्थशास्त्री हरिश्वर दयाल कहते हैं कि अर्जुन मुंडा में कुछ करने की इच्छाशक्ति तो दिखती है लेकिन सरकार में बदलाव और विकास की भूख नहीं दिखती. वे कहते हैं, ‘बस पांच रूपये में दाल-भात जैसी कुछ योजनाएं दिखाने के लिए हो सकती हैं लेकिन बदलाव के लिए आधारभूत संरचना, संस्थानों के विकास की जरूरत होती है, जिस दिशा में कोई काम होता नहीं दिख रहा.’ हालांकि वे मानते हैं कि ऐसा न होने के पीछे एक बड़ा कारण तो मिलीजुली सरकार भी है.’

मिलीजुली सरकार के कारण आपसी खींचतान और राज्य को हो रहे नुकसान से हर कोई वाकिफ है लेकिन यह अर्जुन मुंडा या भाजपा को जनता की ओर से मिली सौगात भी तो नहीं है. खुद मुंडा ने ही ऐड़ी-चोटी का जोर लगाकर और भाजपा संसदीय बोर्ड के निर्णय को ताक पर रखकर यह सरकार बनाई थी. इसलिए वे अब मिलीजुली सरकार की मुश्किलें खुलकर गिनवा भी नहीं सकते. रही बात सरकार चलते रहने की तो पिछले 10 वर्षों में यह राज्य राजनीति की प्रयोगभूमि बना हुआ है. यहां कभी भी कोई राजनीतिक घटना घट सकती है. अभी राज्य के कुल 34 बोर्ड/निगमों को अपने खाते में करने के लिए तीनों सत्ताधारी दलों में फिर से लड़ने-भिड़ने का सिलसिला शुरू हुआ है. इसका अंजाम क्या होगा यह अभी रहस्य है. हां, सरकार के भविष्य को जानना हो तो झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पिछले दिनों की एक बात याद कर सकते हैं, जो उन्होंने तहलका से विशेष बातचीत के दौरान कही थी. उनका कहना था, ‘झारखंड में कभी कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकती..’