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लछमन सम नहीं कोऊ

1996 की कक्षा के तीन विद्यार्थी जब 2021 में अपने रजत जयंती पुनर्मिलन समारोह में मिलेंगे तो तब तक इतिहास एक क्रम व्यवस्थित कर चुका होगा. उनकी उपलब्धियां भी एक परिप्रेक्ष्य में रखी जा चुकी होंगी. अभी जो महत्वपूर्ण लग रहा है तब वह सिर्फ प्रासंगिक लग रहा होगा. 1996 में सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में कदम रखा था. 1961-62 के बाद ऐसा पहली बार हुआ था कि कौशल में इतनी विविधता और उपलब्धियों में इतनी असाधारणता रखने वाले तीन खिलाड़ियों ने एक ही सत्र में शुरुआत की हो. तब मंसूर अली खान पटौदी, फारुख इंजीनियर और एरापल्ली प्रसन्ना कुछ हफ्तों के अंतराल पर ही भारतीय क्रिकेट टीम में आए थे.

 सोचना दिलचस्प है कि क्या उस समारोह में गांगुली लॉर्ड्स में अपने पहले ही मैच में जमाए गए शतक की बात करेंगे या फिर उस कप्तानी की जिसमें द्रविड़ और लक्ष्मण जैसे खिलाड़ी चमके? गौरतलब है कि गांगुली की कप्तानी में द्रविड़ का टेस्ट में बल्लेबाजी औसत 73 रहा और लक्ष्मण का 52. क्या द्रविड़ लॉर्ड्स में अपने पहले मैच में बनाए गए 95 रन की पारी को याद करेंगे या फिर यह कि वे 1999 के विश्व कप में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले खिलाड़ी रहे थे? क्या लक्ष्मण यह याद करेंगे कि कैसे उन्होंने चयनकर्ताओं को अल्टीमेटम दे दिया था कि वे सिर्फ मध्य क्रम में खेलेंगे? या फिर वे आखिरकार इस रहस्य से पर्दा उठा ही देंगे कि आखिर क्यों उन्होंने अप्रत्याशित रूप से अचानक ही खेल को अलविदा कहने का फैसला किया. 

गांगुली और द्रविड़ दोनों ने ही अपनी शर्तों पर संन्यास लिया था. लक्ष्मण चर्चित रूसी उपन्यासकार चेखव के किसी पात्र की तरह निकले. उन्होंने तब खेल छोड़ा जब उनके पास अपने शहर में अलविदा कहने का बढ़िया मौका था. हैदराबाद टेस्ट में खेलकर वे घरेलू दर्शकों के सामने शान से विदा लेते, लेकिन वे इस दिखावे के चक्कर में नहीं पड़े. वैसे भी खेल में किसी चीज की कोई गारंटी नहीं होती. हैदराबाद से ही ताल्लुक रखने वाले लक्ष्मण के गुरु एमएल जयसिम्हा ने अपना आखिरी टेस्ट घरेलू मैदान पर ही खेला था. उनका करियर दोनों पारियों में शून्य के स्कोर के साथ खत्म हुआ. लक्ष्मण ने हर चीज की खबर रखने वाले मीडिया और उन चयनकर्ताओं को भी चौंकाया जिन्हें इस तरह उनके अचानक खेल छोड़ने की उम्मीद नहीं थी.

संन्यास का फैसला उनके लिए आसान भी नहीं रहा होगा. लक्ष्मण प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान थोड़े-से संकोच में भी लग रहे थे. वैसे भी भाषण देने से ज्यादा आनंद उन्हें शेन वार्न को खेलने में आता रहा है. कोई भी खिलाड़ी चाहता है कि दर्जनों माइकों के बजाय वह मैदान में हजारों दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच संन्यास ले. इस मौके पर भी उनमें वह ईमानदारी दिखी जिनके लिए उन्हें जाना जाता रहा है. उन्होंने कहा कि उन्होंने अपने दिल की सुनी और तब यह फैसला लिया. अलग-अलग मौकों पर लोग यह जुमला इस्तेमाल करते रहते हैं, लेकिन लक्ष्मण सरीखे कुछ विरले ही होते हैं जिनके चेहरे पर इस साधारण बात की सच्चाई पढ़ी जा सकती है.

कई बार जिन स्थितियों की हमने कल्पना नहीं की होती उनसे अचानक सामना होने पर हमारी जो प्रतिक्रिया होती है वह हमारे चरित्र के बारे में काफी कुछ बताती है. लक्ष्मण का चरित्र ऐसी कई परिस्थितियों में दिखा. द्रविड़ संन्यास लेने के फैसले पर महीनों सोचते रहे थे. लक्ष्मण ने यह फैसला लेने में एक-दो दिन ही लगाए. इससे पहले वे पूरे सत्र के लिए कड़ा अभ्यास करते रहे थे जिसमें इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया दोनों के खिलाफ होने वाले टेस्ट मैच शामिल थे. हैदराबाद में न्यूजीलैंड के खिलाफ टेस्ट मैच खेलने की तो उनमें प्रबल इच्छा रही होगी. वे टीम में भी थे ही. नवंबर में वे 38 साल के हो जाएंगे. जब वे 17 साल के थे तो उन्होंने खुद के लिए एक लक्ष्य तय किया था.

यह लक्ष्य था पांच साल के भीतर टेस्ट टीम में शामिल होने का. उन्होंने सोच लिया था कि अगर ऐसा नहीं हो पाया तो वे अपने परिवार की लीक पर चलेंगे. उनके माता-पिता और ज्यादातर रिश्तेदार डॉक्टर हैं. यानी अपने लिए एक रास्ता तय करने और कर्मठता से उस पर चलने का गुण उनमें नया नहीं है. संन्यास लेने के फैसले में भी दिखा कि उनके चरित्र की यह मजबूती आज भी कायम है. भले ही यह एक सुनहरे करियर का आकस्मिक अंत हो मगर लक्ष्मण ने दिखा दिया कि वे किस मिट्टी के बने हैं. चयनकर्ताओं ने शायद ही सोचा हो कि लक्ष्मण यह अवश्यंभावी फैसला इतनी जल्दी ले लेंगे, इसलिए वे भी इस फैसले से हैरान हुए. यह अलग बात है कि इस अवश्यंभावी फैसले में जल्दी उनके चलते ही हुई थी. 

                                                                                                  

 उनके संन्यास लेने की खबर आते ही सबने उनकी सर्वश्रेष्ठ पारियां याद कीं. उनकी इस योग्यता को भी याद किया कि कैसे वे बल्लेबाजी को बहुत आसान बना दिया करते थे. कुछ ने यह भी कहा कि उनकी क्षमता के अनुसार उनका प्रदर्शन थोड़ा कम ठहरता है. शायद यह लक्ष्मण के औसत को देखते हुए कहा गया होगा जो 46 के करीब है. दरअसल 50 के ऊपर रहने वाले तेंदुलकर और द्रविड़ के रिकॉर्ड ने पिछले कुछ समय से हम भारतीयों की आदत खराब कर दी है. लेकिन अगर इतिहास टटोला जाए तो इन दोनों के अलावा सिर्फ सुनील गावस्कर ही ऐसे खिलाड़ी हैं जिनका टेस्ट औसत 50 से ऊपर रहा. इससे भी अहम यह है कि लक्ष्मण खिलाड़ियों के उस दूसरे वर्ग में आते हैं जिनके खेल में एक विशेष तरह का सौंदर्य होता है.

यह ऐसा वर्ग है जिसका औसत चालीस से पचास के बीच ठहरता है. इस औसत की वजह यह है कि इन खिलाड़ियों के प्रदर्शन में उतनी निरंतरता नहीं रही. दरअसल एक ही जगह पर पिच की गई गेंद को कलाई के जादू से तीन या चार अलग-अलग जगहों पर भेजने की कला में खतरा यह भी होता है कि उन्हीं जगहों पर खिलाड़ी लगाकर आपको आउट कर दिया जाए. तो आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो लक्ष्मण डेविड गॉवर (औसत 44), मार्क वॉ (42), मोहम्मद अजहरुद्दीन (45), गुंडप्पा विश्वनाथ (42), मार्टिन क्रो (45) और जहीर अब्बास (45) के साथ खड़े दिखते हैं. यह संगत निश्चित रूप से प्रभावशाली है. क्रीज पर उनकी जादुई कलाई और टाइमिंग की बदौलत क्रिकेट ऐसा खेल लगता था जिसमें नतीजे से ज्यादा खेल का सौंदर्य और उसकी भावना ही सब कुछ थी. 

सारे खेलों में क्रिकेट ही ऐसा है जहां संदर्भ सबसे कम मायने रखता है. इसमें ही ऐसा हो सकता है कि हारने वाली टीम के किसी खिलाड़ी द्वारा बनाए गए बढ़िया 70 रन की जीतने वाली टीम के किसी खिलाड़ी के उबाऊ शतक से ज्यादा चर्चा हो. फिर भी लक्ष्मण का मतलब सिर्फ स्टाइल नहीं था. उनमें वह बात भी थी. कोलकाता में स्टीव वॉ की ऑस्ट्रेलियाई टीम के खिलाफ भारतीय टीम के फॉलोऑन के बाद उनकी 281 रन की पारी ने भारतीय क्रिकेट का चेहरा बदल दिया था. यह उस सुनहरे दौर की प्रतिनिधि पारी है  जिसमें भारतीय टीम का कायाकल्प हुआ और वह दुनिया की नंबर एक टीम बनी. गौर करें कि यह पारी लक्ष्मण ने उस समय खेली है जिसे तेंदुलकर का दौर कहा जाता है.

आज से करीब एक दशक पहले उस दिन जब लक्ष्मण और द्रविड़ बल्लेबाजी कर रहे थे तो यह एक तरह से उस टीम के भविष्य की झलक भी थी जो कुछ समय पहले अपने कप्तान के मैच फिक्सिंग में फंसने के झटके से उबर ही रही थी. मोहम्मद अजहरूद्दीन की जगह कप्तानी गांगुली ने संभाली थी. लेकिन अजहर की जगह गांगुली ने ही नहीं बल्कि लक्ष्मण ने भी भरी थी जिनकी कलाई से निकले शॉट उतने ही जादुई थे जितने पूर्व कप्तान के. खेलने की एक खास शैली की विरासत लक्ष्मण ने अनुकरणीय रूप से संभाली. किसी ओवरपिच गेंद पर द्रविड़ थोड़ा आगे बढ़ते और ऑफ स्टंप के बाहर पूरे बल्ले से शॉट लगाते हुए गेंद को कवर बाउंड्री की तरफ भेजते. यह एक आदर्श शॉट होता. अगर उनकी जगह लक्ष्मण होते तो वे एड़ियों के बल थोड़ा पीछे जाते और गेंद को स्क्वायर लेग पर फ्लिक कर देते. जब वे अपने रंग में होते थे तो बड़ी रेंज और रिकॉर्ड के बावजूद तेंदुलकर भी उनके सामने उन्नीस ही लगते थे. लक्ष्मण के खेल की खूबसूरती ही इस बात में थी कि उनके शॉट बहुत सहज लगते थे.

इसके बावजूद क्या भारतीय सर्वकालिक एकादश में वे सबकी पसंद के उम्मीदवार होंगे? द्रविड़ और तेंदुलकर इसमें निर्विवाद रूप से नंबर तीन और चार पर आते हैं और दो ऑल राउंडर वीनू मांकड़ और कपिल देव छठे और सातवें नंबर पर. इस तरह देखा जाए तो इसके बाद मध्य क्रम में एक ही जगह बचती है. अब सवाल यह है कि लक्ष्मण किसकी जगह ले सकते हैं. विजय हजारे? दिलीप वेंगसरकर? मोहिंदर अमरनाथ? विजय मांजरेकर? गुंडप्पा विश्वनाथ? भावनाओं का ज्वार भले ही अभी लक्ष्मण के साथ हो मगर तर्क से काम लिया जाए तो हो सकता है कि कुछ दूसरे उम्मीदवार लक्ष्मण से इक्कीस साबित हो जाएं. यहीं वह दिक्कत समझ में आती है जो लक्ष्मण के साथ रही है.

ऐसा कभी-कभार ही हुआ कि वे विपक्ष पर हावी रहे. हो सकता है ऐसा उनके सौम्य, भद्र और निस्स्वार्थ स्वभाव की वजह से हुआ हो. उनमें गेंदबाजों को सबक सिखाने का वैसा जुनून नहीं था जैसा तेंदुलकर और द्रविड़ में देखने को मिलता है. तेंदुलकर ऐसा अपनी आक्रामक शैली के साथ करते हैं जबकि द्रविड़ रक्षात्मक शैली के साथ.  इसके बावजूद दुनिया भर के गेंदबाज राहत की सांस ले रहे होंगे. यह सोचकर कि अब उन्हें उस खिलाड़ी का सामना नहीं करना पड़ेगा जो उनकी सबसे अच्छी गेंदों को भी कलाई की एक हल्की-सी घूम और हल्की-सी मुस्कान के साथ सीमा पार भेज देता था. हालांकि इस राहत में एक अफसोस भी होगा. इस बात का कि अब वे अपने उस साथी के साथ कभी मैदान साझा नहीं कर पाएंगे जिसके कौशल ने खेल का स्तर ऊंचा किया.

‘कौन था वो चोर दा पुत्तर ?’

एक जमाना था जब दादा जी के शहर पठानकोट से कांगड़ा के रास्ते जोगिंदर नगर जाने वाली मीटरगेज रेलगाड़ी में आज की तरह डीज़ल का नहीं बल्कि कोयले का इंजन लगता था. खिलौने जैसी यह गाड़ी तब पठानकोट से कांगड़ा की अस्सी किलोमीटर की दूरी चार घंटे में नहीं बल्कि अनंतकाल में तय करती थी. गुलेर स्टेशन के बाद रेलगाड़ी अचानक कब चढ़ाई पर हांफते-हांफते सांस लेने के लिए रुक जाए, कहा नहीं जा सकता था. ऐसे मौके पर गाड़ी से कूदकर नीचे बहती पहाड़ी कूल में से पानी की बोतल भरकर लाने और चलती गाड़ी में वापस आ चढ़ने का शगल ऐसा था जो बार-बार इस यात्रा की ओर खींचता था. 

ऐसी ही एक यात्रा में जोगिंदर नगर से लौटते हुए मैं और मेरा छोटा भाई एक रिश्तेदार के यहां कांगड़ा रुक गए. वहां सामने पहाड़ की ऊंची बर्फदार चोटियों के बीच एक छोटी-सी बस्ती धूप में चमका करती थी और रात को वहां जुगनू के झुंड की तरह बत्तियां टिमटिमाया करती थीं. हमें बताया गया कि वह धर्मशाला है जहां दलाई लामा और उनके तिब्बती ‘लांबे’ रहते हैं. कई बरस बाद एक पत्रकार के रूप में तिब्बती समाज के साथ दोस्ती होने के बाद मुझे समझ आया कि हिमाचली लोग हर तिब्बती को ‘लामा’ मानते हैं और ठेठ हिमाचली अंदाज में हर लामा के लिए ‘लांबा’ और एक से ज्यादा के लिए ‘लांबे’ का इस्तेमाल करते हैं.

पिता जी के मुफ्त रेलपास की वजह से हमने शाम की आखिरी गाड़ी से पठानकोट जाने का फैसला किया. राम जाने क्या कारण था कि आम तौर पर खाली चलने वाली रेलगाड़ी उस रात ठसाठस भरी हुई थी. सेकंड क्लास का पास होने के बावजूद हमें थर्ड क्लास के डिब्बे में फर्श पर बैठना पड़ा. हमारे पास सिर्फ एक चादर थी जिसे फर्श पर बिछाकर हम दोनों भाई उसी पर सिमट गए. पास में एक सीट पर एक अधेड़ तिब्बती था. उसकी गोदी में दो-ढाई साल का गोल-मटोल बच्चा था जो रह-रहकर मेरे बाल पकड़ने की कोशिश कर रहा था. मैंने एक-दो बार मुस्कुराकर उसका नन्हा-सा हाथ थाम लिया तो वह जोर से खिलखिला पड़ा. उसके बाद तो यह एक साझा शगल हो गया और हम दोनों के बीच दोस्ती का एक रिश्ता कायम हो गया जिसने उस तिब्बती के चेहरे पर भी मुस्कुराहट ला दी. कुछ ही देर में बच्चा लपककर मेरी गोदी में आ गया. तांबई रंग के इस गुद-गुदे से खिलौने के सिर से कुछ ऐसी भीनी गंध आ रही थी जो आज पचास साल बाद भी कई बार मेरे नथुनों को छूकर निकल जाती है. 

कुछ देर बाद गाड़ी अचानक रुकी तो यात्रियों का एक नया रेला आ गया. अचानक शोर ने मेरी ऊंघ को तोड़ा और मैं झटके से उठ बैठा. देखा तो दो हट्टे-कट्टे गबरु से जवान सीट पर बैठे तिब्बती को डांट कर सरकने को कह रहे थे. एक के हाथ का डंडा तिब्बती की छाती में घुसा चाह रहा था. उनकी इस हरकत ने मेरे लड़कपन के गुस्से को ऐसा जगाया कि मैंने पूरी ताकत से चिल्लाकर उसे डंडा हटाने की चुनौती दे डाली. बंदे ने डंडा हटाया तो सही लेकिन तुरंत वह डंडा मेरी नाक और माथे के बीच धम्म से आ टिका. तब मुझे अहसास हुआ कि वे दोनों साहब बिना वर्दी के पुलिसवाले थे. आस-पास बैठे कुछ लोगों ने तुरंत बीच-बचाव किया तो डंडा मेरी नाक से हटा. लेकिन हटने से पहले डंडा यह बता चुका था कि मेरा पाला आसान लोगों से नहीं पड़ा था.

इसके बावजूद मैंने एक सवाल तो दाग ही दिया, ‘इस बेचारे ने आपका क्या बिगाड़ा है?’. उसने डंडे को धमकी भरे अंदाज़ में हवा में उठाया और बोला, ‘ओए फिट्ट रै अपनी जगा ते. ज्यादा लीडरी मत दखाना, वरना… .’ और उसके बाद अपनी धमकी पूरी सुनाने के बजाय वह उस तिब्बती पर गरजने लगा, ‘…अफीमां वेचदे ने ऐ स्साले चीन्नी… ओए, निकाल कित्ते रक्खी है अफीम. स्साला चोर दा पुत्तर न होवे ते… .’ और यह कहते-कहते उसने हक्के-बक्के तिब्बती के हाथ से कपड़े की वह गठरी छीन ली जिसे वह सीने से चिपटाए हुए था.

जिस उत्साह से पुलिसवाले ने गठरी में हाथ डाला, उसे देखकर लोगों को एक बार तो लगा कि अब इसमें से अफीम ही निकलेगी

जिस उत्साह के साथ पुलिसवाले ने गठरी का धागा खींच कर उसमें हाथ डाला, उसे देखकर लोगों को एक बार तो लगा कि अब इसमें से अफीम ही निकलेगी. लेकिन दो-तीन झटकों के बाद उसने जब हाथ बाहर निकाला तो उसमें आटे जैसा कुछ सफेद चूरन निकला. पुलिसवाले की खा जाने वाली सवालिया आंखों के जवाब में तिब्बती मेरी गोदी में सोए अपने बच्चे की ओर इशारा करते हुए बस इतना ही बोला, ‘बाबू… बच्चे का सांपा है … सत्तू है… .’ पुलिसवाले ने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा, ‘ओए ठीक है. बैठा रह चुपचाप. पता नईं कित्थों आ जांदे ने ऐ चीन्नी. चोर दा पुत्तर न होवे ते… .’ अब की बार तिब्बती पुलिसवाले की आंखों में आंखें डालते हुए बोला, ‘बाबू. हम चीनी नहीं हैं. मैं तिब्बती हूं. ऐसा गाली मत दो. चीनी मत बोलो… .’ मैंने लोगों के चेहरे देखे. मेरी तरह उन्हें भी समझ आ रहा था कि तिब्बती को चोर दा पुत्तर कहलाने पर नहीं बल्कि ‘चीनी’ कहलाने पर गहरा एतराज़ था. आखिर उसके देश पर चीनी कब्जे की वजह से ही तो वह यहां भारत में था.

तब तक डिब्बे में वैसी शांति आ चुकी थी जो शुरुआती उथल-पुथल के बाद हर हिंदुस्तानी रेलगाड़ी में पैर पसार लेती है. लोगों ने खिसक कर दोनों पुलिसवालों के लिए भी जगह बना दी थी. मैं भी उस सोए हुए नन्हे तिब्बती गुड्डे को बांहों में लिए डिब्बे की दीवार से सटा बैठा रहा. पता नहीं कब नींद आ गई.

अगली सुबह डिब्बे में हलचल ने मेरी आंखें खोल दीं. गाड़ी शायद गुलेर स्टेशन पर रुकी थी. नई सवारियों की धक्का-मुक्की और शोर ने डिब्बे में फिर से रौनक ला दी थी. डिब्बे की ठंड में मुझे अचानक मेरे और भाई पर ओढ़े हुए कंबल की गर्माहट का अहसास हुआ. पता नहीं कब किसने यह कंबल हम दोनों पर डाल दिया था. हड़बड़ाकर मैंने आस-पास देखा तो पहचाने हुए चेहरों में सिवाए दोनों पुलिसवालों के कोई और नहीं दिखा. वह तिब्बती, उसका नन्हा बच्चा…  और रात वाले बाकी हमसफर रास्ते में कहीं उतर चुके थे. सकपकाते हुए मैंने डंडे वाले सिपाही से पूछ लिया, ‘ भाई साब, ये कंबल आपका है क्या? हमारे पास तो सिर्फ एक चादर ही थी… .’

इससे पहले कि सिपाही कुछ बोलता, डंडे वाले ने एक लंबी मुस्कुराहट बिखेरते हुए कहा, ‘हां हां, रात को तुम दोनों को ठंड में देखकर हमने सोचा तुम पर डाल दें कंबल.’ और यह कहते-कहते उसने आगे हाथ बढ़ाया. मैंने भाई के ऊपर से कंबल खींच कर उनकी ओर बढ़ा दिया. कंबल लेते ही पुलिसवाले ने अपने दूसरे साथी को कहा, ‘चल भाई, चलना नईं क्या? अपना टेशन आ गया वे… .’ 

एक स्टेशन गुजर जाने के बाद अचानक मेरे नथुनों में कहीं से उस गोल-मटोल बच्चे के गंजे सिर से उठने वाली तांबे जैसी खुशबू फिर से घुसने लगी. अरे, यही खुशबू तो उस कंबल में भी थी…, भीतर से एक सवाल गूंजा, ‘कौन था वो चोर दा पुत्तर?’ आज पचास बरस के बाद भी इस सवाल की उलझन और वह तांबई खुशबू कभी-कभी यादों के दरवाजे पर दस्तक देती हैं. चोर दा पुत्तर हर बार इसी अंदाज में याद आता है.

कोने से हाशिये तक!

दृश्य-एक

 लड़के के पिता जी के मित्र आए हुए थे. अब वे जा रहे हैं. लड़के के पिता जी ने ‘उधर से’ जाने से मना कर दिया और कहा, ‘इधर से जाइएगा.’ वह इसलिए कि उधर वाली रोड बहुत खराब है न! जो आए थे उन्होंने अक्षरशः ऐसा ही किया और होने वाली असुविधा से बच गए. वह लड़का भी उस तरफ जाने से बचता है. जब कभी उस तरफ से निकलता, तो सबको कोसते हुए. जिनको इस हालत के लिए जिम्मेदार समझता है उन सभी को. महीनों से खराब है उधर वाली रोड. उस पर अब अजनबी ही चलते हैं. आस-पास के रहने वाले भूले से भी उधर से नहीं निकलते या भूले से ही उधर निकलते हैं. फिलहाल लड़के ने,उसके पिता जी ने, आसपास रहने वालों ने अपना रास्ता बदल लिया है. और वह रोड अपनी बेनूरी पर आंसू बहा रही है.

दृश्य- दो

झक सफेद खादी के कुर्ते में जो इस मुहल्ले में खड़ा है, वह चुनाव लड़ रहा है. मोहल्ले के सारे लोग उसकी कथनी-करनी से अच्छी तरह से परिचित हैं. वह चुनाव जीतने की तैयारी में जमकर लगा हुआ है, लिहाजा वह पैसे और शराब बंटवा रहा है. इस मोहल्ले के सयाने लोगों का कहना है कि अब चुनाव जीतने के बाद कौन पहचानता है. तो क्यों न चुनाव परिणाम आने से पहले, उसके एवज में प्रत्याशी की अंटी से कुछ झटक ही लिया जाए, कुछ तो मिलेगा. इसलिए वे प्रत्याशी के पैसे से, जिसे कुछ लोग हराम की कह रहे हैं, जमकर शराब पी रहे हैं. भले ही वह शराब अप्रत्यक्ष रूप से लोकतंत्र को पी रही है. मगर लोगों के लिए यह लोकतंत्र का यह डैमेज कंट्रोल जैसा है.

दृश्य- तीन

 एक गृहिणी बहुत गर्व से बता रही है कि उसका दूधवाला दूध में पानी के अलावा और कुछ नहीं मिलाता. ऐसा नहीं कि उसे अपने दूध वाले से शिकायत नहीं, मगर वह अंदर ही अंदर संतुष्ट भी है. जिस हिसाब से जहरीला कृत्रिम दूध बनाया जा रहा है, उससे तो यह दूध गनीमत है. वह जानती है शुद्ध दूध तो मिलने से रहा. चलो, पानी वाला दूध पीने से नुकसान तो नहीं होगा. वह यह सोचकर संतुष्ट है और दूधवाला पानी मिलाकर. आशा नाम की इस गृहिणी ने ‘शुद्ध’ की आशा ही छोड़ दी है. 

दृश्य- चार

राशन की दुकान पर लाइन में लगा हुआ है हरिया. आज दुकान कई दिनों के बाद तो खुली है इसलिए अच्छी खासी भीड़ भी है. और एक अच्छी बात है कि राशन की दुकान पर गेहूं का स्टाक है, और उससे अच्छी बात यह कि वह बंट भी रही है. हरिया इन्हीं बातों से खुश है. वह गेहूं की गुणवत्ता के बारे में नहीं सोच रहा. न गेहूं में मिली हुई या मिलाई हुई गंदगी के बारे में. वह तो अपना मैला-कुचैला, कई जगह से सिला हुआ, झोला लेकर खुशी-खुशी घर जा रहा है.

आजादी के बाद से आम आदमी ने एक ही बात सीखी है. वह है किसी न किसी तरह से ‘मैंनेज’ या ‘एडजस्ट’ करना. ‘वह’ नहीं तो ‘यह’ ही मिल जाए. ‘उससे’ नहीं तो ‘इससे’ काम चल जाए. उसकी मैनेज करने की ऐसी आदत हो गई है कि अगर कोई आम आदमी भूले से किसी चीज के लिए जिद कर बैठता है, तो बाकी कहते हैं, ‘देखो,मत मारी गई है उसकी! बच्चों की तरह जिद कर रहा है.’

प्रगति की राह में दनादन दौड़ते इस देश में आम आदमी एक अच्छा मैनेजर सिद्ध हो रहा है. वह संतुष्टि के लिए कोई न कोई कोना खोज ही लेता है. मगर यह नहीं जानता कि कोना खोजते-खोजते वह खुद कोने पर आ गया है. या यह कहें कि हाशिये पर खिसक गया है.

-अनूप मणि त्रिपाठी

योजना की आड़ में खिलवाड़

राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के मूल उद्देश्य का सत्यानाश करके बिहार में कई निजी अस्पतालों ने सिर्फ पैसा कमाने के लिए 16 हजार महिलाओं की बच्चेदानी निकाल दी. निराला की रिपोर्ट.

एक आदमी सपरिवार सफर में था. ट्रेन में पहुंचा. उसकी सीट पर कुछ लफंगे पहले से बैठे थे. सीट से हटने को लेकर बहस हुई. लफंगों ने आदमी को एक तमाचा जड़ दिया. उस आदमी ने कहा, ‘मुझे मार दिया लेकिन मेरी बीवी को हाथ भी लगाया तो…!’ लफंगों ने बीवी को भी एक तमाचा जड़ा. पूछा, ‘क्या कर लोगे, करके दिखाओ!’ आदमी बोला, ‘मुझे मारा, मेरी बीवी को मारा, लेकिन मेरे बच्चों को हाथ भी लगाया तो समझ लेना.’ लफंगों ने बच्चों को भी तमाचे रसीद कर दिए और फिर पूछा- ‘क्या करोगे, करके दिखाओ.’ आदमी राहत की सांस लेते हुए बोला, ‘अब ठीक है, अकेले मैं मार खाता तो घर पहुंचने पर बीवी-बच्चे ताना देते कि कैसे पिट गए, अब सभी को लप्पड़ लग गए हैं तो कोई कुछ नहीं कहेगा.’

यहां इस चुटकुले की चर्चा की एक वजह है. पिछले दिनों बिहार के समस्तीपुर जिले से राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना की लाभार्थी गरीब महिलाओं की बच्चेदानी (गर्भाशय) निकाले जाने की खबर आई. ऐसा ही कुछ राज्य के दूसरे जिलों में भी होने के संकेत मिले. बिना किसी जांच-पड़ताल और ठोस वजह के कई महिलाओं की बच्चेदानी निकालकर निजी अस्पतालों द्वारा लाखों रुपये बनाने की खबरें आईं तो यह गंभीर सवाल राज्य के श्रम संसाधन मंत्री जनार्दन सिंह सिग्रिवाल के सामने रखा गया. उनका जवाब था, ‘यह सिर्फ बिहार में थोड़े ना हो रहा है, ऐसा तो पूरे देश में हो रहा है.’ 

हालांकि सिग्रिवाल बाद में यह आम जुमला जोड़ना नहीं भूले कि जांच चल रही है और दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा. लेकिन ऐसी जांचों का क्या नतीजा निकलता है यह सब जानते हैं. और वैसे भी जिस विभाग पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना की देखभाल का जिम्मा है उसके मंत्री ही दूसरे राज्यों में भी ऐसी घटनाएं होने की बात कहकर समस्या से पल्ला झाड़ रहे हों तो दोषी डॉक्टर और निजी अस्पताल भी कुछ इसी किस्म के तर्क देकर बच निकलेंगे, यह सोचना अस्वाभाविक नहीं.

बहरहाल, आगे की जांच से सांच भले न बांचा जा सके, यह बात सामने आ चुकी है कि धोखे में रखकर सैकड़ों महिलाओं की बच्चेदानी निकाली जा चुकी है. 20 से 30 साल की उम्र के बीच की जिन महिलाओं के साथ यह हुआ है उनके लिए जिंदगी के मायने बदल गए हैं. अब वे कभी मां नहीं बन पाएंगी. साथ ही उन्हें कई मानसिक बीमारियां भी घेर सकती हैं. 

राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना केंद्र सरकार की लोकप्रिय योजनाओं में से एक है. यह अप्रैल, 2008 में लागू हुई थी. केंद्र सरकार ने इसे गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के लिए लागू किया है. इसके लिए ऐसे परिवारों को स्मार्ट कार्ड दिए जाते हैं. एक कार्ड पर परिवार के पांच सदस्यों के इलाज का इंतजाम रहता है जिसके लिए सालाना अधिकतम 30 हजार रुपये तक की राशि खर्च की जा सकती है. इसके लिए सरकार ने बीमा कंपनियों से समझौते किए हैं. ये बीमा कंपनियां निजी अस्पतालों की एक सूची तैयार करके गरीबों को वहां स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराती हैं. मरीजों को सीधे पैसा नहीं मिलता बल्कि बीमा कंपनियां अस्पतालों को भुगतान करती हैं.

इसी योजना के तहत महिलाओं की बच्चेदानी निकालने का खेल शुरू हुआ. धीरे-धीरे समस्तीपुर के लोगों को लगा कि बच्चेदानी निकालने के मामले जिस गति से बढ़ रहे हैं वह सामान्य बात नहीं. यहां दर्जन भर से अधिक निजी अस्पताल और क्लीनिक हैं जहां यह खेल चल रहा था. लेकिन बात कानाफूसी तक ही सिमट कर रह जा रही थी. विडंबना यह भी है कि इस स्वास्थ्य योजना के तहत ओपीडी में इलाज कराने का प्रावधान नहीं है इसलिए बच्चेदानी किस वजह से निकाली जा रही है, इसकी थाह लगाना सामान्य आदमी के बस की बात नहीं थी. इसीलिए डॉक्टरों और अस्पतालवालों से तर्क-वितर्क की गुंजाइश भी नहीं बच रही थी. चूंकि एक बच्चेदानी का ऑपरेशन करने में अस्पताल को 12 हजार रुपये की राशि मिलने का प्रावधान है, इसलिए अस्पताल वाले धड़ल्ले से ऑपरेशन करने में लगे रहे.

अब जब इस खेल से परदा आखिर में खुद वहां के जिला प्रशासन ने हटाया तो साफ हुआ है कि अकेले समस्तीपुर जिले में अस्पतालों ने करीब 1300 ऑपरेशन किए, जो संदेह के दायरे में हैं. इनमें उन 489 महिलाओं की बच्चेदानी निकाली गई जिन्हें ऑपरेशन की जरूरत ही नहीं थी. यानी सिर्फ पैसे बनाने के लिए 489 महिलाओं का गर्भाशय निकाल दिया गया. इसमें भी शर्मनाक यह रहा कि कई ऑपरेशन सिर्फ कागज पर कर दिए गए. बताया जा रहा है कि अस्पतालों ने कई पुरुषों के नाम पर भी बच्चेदानी निकालने का काम किया. 

निजी अस्पतालों, बीमा कंपनियों और कुछ संस्थाओं की मिलीभगत से चल रहे इस घिनौने खेल से अभी परदा नहीं उठता, लेकिन लगातार इस गोरखधंधे के बारे में शिकायत मिलने पर इसकी आरंभिक जांच शुरू की गई तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते गए. जानकारी के अनुसार समस्तीपुर जिले में पिछले साल से अब तक कुल करीब आठ हजार  ऑपरेशन हुए. 26,00 मरीजों की दोबारा जांच करवाई गई तो इनमें से आधे मामले संदेहास्पद पाए गए हैं. समस्तीपुर के निजी अस्पतालों ने एक साल में इस नाम पर 12 करोड़ रुपए भुगतान करने का दावा ठोका. बेगुसराय जिले में निजी अस्पतालों ने इस नाम पर करीब दस करोड़ रुपये भुगतान की मांग की.

कई ऑपरेशन ऐसे थे जो सिर्फ कागज पर कर दिए गए तो बहुत-से अस्पताल ऐसे हैं जिन्होंने पुरुषों के नाम पर भी बच्चेदानी निकालने का काम किया

बात अब समस्तीपुर या बेगूसराय तक की नहीं रही है. राज्य के दूसरे जिलों में भी यह खेल उसी रूप में चल रहा था. वहां भी जांच हुई तो और भी चौंकाने वाले तथ्य उभरे. छपरा में 17,00 ऑपरेशन संदेह के दायरे में आ गए और मधुबनी जिले में 12,00 . अब यह बताया जा रहा है कि बिहार में कुल मिलाकर 16 हजार महिलाओं की बच्चेदानी बिना किसी वजह के ही निकाल दी गई. आशंका जताई जा रही है कि आगे यह संख्या और बढ़ेगी. समस्तीपुर के डीएम कुंदन कुमार कहते हैं, ‘हमने जांच रिपोर्ट भेज दी है. यह सच है कि फर्जीवाड़ा हुआ है और कम उम्र की महिलाओं की भी बच्चेदानी निकाली गई है.’

यह बात तो एक जिले के डीएम कह रहे हैं. बिहार में 38 जिले हैं. राज्य में गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाले करीब 75 लाख लोगों को इस स्वास्थ्य बीमा योजना का लाभ उपलब्ध करवाया गया है. सभी जिलों से निष्पक्ष रिपोर्ट आएगी तो एक बड़ी साजिश से परदा उठेगा. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सभी जिलों में इस मामले के जांच के आदेश दिए हैं, लेकिन लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान इस मामले की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं. बकौल रामविलास पासवान, ‘जिनके गर्भाशय फर्जी तरीके से निकाले गए हैं, उन पीडि़तों को पांच-पांच लाख रुपये का मुआवजा भी दिया जाना चाहिए.’

इस मामले के संबंध में विधायक रेणु देवी की अध्यक्षता में एक जांच टीम गठित की गई है जो पांच सितंबर से 11 जिलों का दौरा करेगी. टीम इस दौरान पीडि़तों, अस्पतालों, डीएम आदि से मिलेगी. विधानसभा जांच समितियों के हश्र का एक लंबा काला इतिहास रहा है. इसलिए स्वाभाविक है कि इस बार भी जांच समिति से ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं. बहरहाल, इसका सबसे बुरा असर उन महिलाओं पर पड़ने वाला है, जिनकी उम्र 20 से 30 साल के बीच की है और जिनके गर्भाशय निकाल लिए गए हैं. बेगूसराय में रहने वाले और पेशे से चिकित्सक व सामाजिक कार्यकर्ता डॉ विद्यापति राय कहते हैं, ‘जो भी ऐसी महिलाएं हैं उनके मानसिक बीमारियों की जद में आने की संभावना बढ़ेगी और उसका असर बाद में दिखेगा.’

हालांकि अपने बचाव में उतरे डॉक्टर कह रहे हैं कि बिना सहमति के कोई ऑपरेशन नहीं होता, सो इसमें गलत जैसा क्या हुआ है. लेकिन खुद को बचाने के लिए डॉक्टरों और निजी अस्पतालों द्वारा गढ़ा जा रहा यह एक बचकाना और बेहूदा बयान है. पेशे से चिकित्सक और केंद्र सरकार की 12वीं योजना के स्वास्थ्य संबंधी एप्रोच पेपर के वर्किंग ग्रुप के सदस्य डॉ शकील कहते हैं,  ‘डॉक्टरी के पेशे में कुछ रहस्यवाद होते हैं, उस रहस्यों पर परदा डाले रहना डॉक्टरों की नैतिकता पर निर्भर करता है. जब कोई मरीज अस्पताल में पहुंचेगा और डॉक्टर कहेंगे कि ऑपरेशन करना होगा तो कोई कैसे मना कर सकता है! जब उसे यह कहा जाएगा कि आप ऑपरेशन नहीं करवाएंगे तो कैंसर हो सकता है तो कोई भी डरकर बच्चादानी निकलवाने को राजी हो जाएगा. लेकिन यह तो एक सामान्य-सी बात है कि जब तक मां बनने की संभावना रहती है, तब तक बच्चेदानी के ऑपरेशन से बचना चाहिए.’

योजना में सुधार की जरूरत भी बताई जा रही है. डॉ शकील कहते हैं,  ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसकी मॉनिटरिंग की कोई व्यवस्था है ही नहीं, सो ऐसे खेल तो होंगे ही और दुर्भाग्य देखिए कि इसका जिम्मा श्रम संसाधन विभाग को दिया गया है, जिसके अधिकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ककहरा तक नहीं जानते.’

राज्य मानवाधिकार आयोग ने मामले का संज्ञान लेते हुए सरकार से जवाब मांगा है. इस बीच मंत्री जनार्दन सिंह सिग्रिवाल ने एक और बयान दिया है कि यह घोटाला नहीं. उनका तर्क है कि देश भर में बच्चेदानी के ऑपरेशन का प्रतिशत सात है जबकि बिहार में तो यह पांच प्रतिशत ही है. सिग्रिवाल देश के दूसरे राज्यों में भी ऐसी घटना होने की बात कह कर इस मामले का सामान्यीकरण कर दें या राष्ट्र और राज्य के स्तर पर प्रतिशतता का आंकड़ा देकर खुद को तसल्ली दे दें, लेकिन वे यह सब कहते हुए एक बार भी नहीं सोच रहे कि उनके ऐसा कहने से निजी अस्पताल किस तरह का तर्क गढ़ लेंगे. 

‘धूमिल के बाद कोई ऐसा नहीं जिसकी कविता पर आलोचना लिखी जा सके’

हिंदी साहित्य, विशेषकर कविता के नामचीन आलोचक नंदकिशोर नवल एक सितंबर को 75 साल के हो गए. इस खास मौके पर उनसे निराला की बातचीत.

पहले से भी हिंदी कविता के इतिहास पर कई महत्वपूर्ण किताबें लिखी जा चुकी थीं, फिर आपने अपनी ओर से एक और किताब की जरूरत क्यों समझी? क्या उन किताबों में कोई कमी थी या आपके पास कहने को कुछ नया था?

आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास पर कोई किताब नहीं थी. और फिर साहित्य में कांसेप्ट बदलता है. पहले जो किताबें थीं वे कालखंड पर लिखी गई थीं जबकि कालखंड में साहित्य को नहीं बांधा जा सकता. एक ही कालखंड में कई महत्वपूर्ण कवि एक साथ सक्रिय रहे हैं. काल विभाजन के बजाय कवियों का ग्रुप बनाकर अध्ययन बेहतर है. और फिर कविता की एक कसौटी भी तो तय कर ली गई थी. अब कोई एक मानक कसौटी कैसे हो सकती है! हर कवि की, हर कविता की अपनी कसौटी होती है.फिर जब आप मेरी किताब की बात पूछ रहे हैं तो मैं सच बता रहा हूं कि मैं गुप्त और तुलसी पर लिखने के बाद थक गया था. मैंने तय किया था कि तुलसीदास पर ही मेरी आखिरी पुस्तक हो, उन पर ही अपनी नैया विसर्जित कर दूं लेकिन ज्ञानपीठ के आलोक जैन का कई बार फोन आया. मैं मना करता रहा लेकिन एक सुबह मैं बैठा तो मेरे जेहन में अचानक ही एक नया सिनोप्सिस तैयार हुआ और मैंने इस किताब के बारे में जैन को हां कह दी.

आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास आपने धूमिल पर लाकर खत्म कर दिया है. क्या आपको उनके बाद कोई आधुनिक कवि नहीं दिखा?

धूमिल के बाद हिंदी में अब तक कोई कवि ऐसा नहीं जिसके रचनात्मक व्यक्तित्व का निर्माण पूरी तरह से हो गया हो. सब अभी मेकिंग प्रोसेस में हैं. विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल, ज्ञानेंद्रपति, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, अरुण कमल की कविताओं को हमने देखा, जाना, पढ़ा है. इनकी कविताओं पर ठीक से एक लेख तक नहीं लिखा जा सकता, आलोचना की पुस्तक में शामिल करने की तो बात ही दूर. सिर्फ कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह, दो ही ऐसे हैं जिनके रचनात्मक व्यक्तित्व का निर्माण हो गया है, इसलिए हमने शामिल किया.

इतने कवि, रोज नई कविताएं, ढेरों आलोचक भी, लेकिन हिंदी कविता की पठनीयता को लेकर अब तक एक मुकम्मल माहौल नहीं दिखता. लेखक, आलोचक, संपादक, प्रकाशक या पाठक, इनमें कौन कड़ी इसके लिए जिम्मेदार है?

मुक्तछंद में जब से कविता लिखी जाने लगी, तब से इसके पाठक घटने लगे हैं. अज्ञेय, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि के पाठक तो रहे हैं. बाद में कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह के भी पाठक खूब हुए. राजेश जोशी भी बहुत पाॅप्युलर हंै. आज भी धूमिल का संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ हर पुस्तक मेले में धूम मचाता है. प्रकाशक कविता का नाम ही नहीं सुनना चाहते. इसका फायदा उठाकर छोटे प्रकाशक कवियों से पैसा लेकर उनका संग्रह छापते हैं और ऐसे कवि भी बहुतेरे हैं जो छपने के लिए पैसे देते हैं.

आप प्रकाशकों को दोषी ठहरा रहे हैं जबकि राजस्थान के वाग्देवी प्रकाशन ने पिछले साल कवि विजेंद्र का कविता संग्रह प्रकाशित किया और उसकी 10 हजार से अधिक प्रतियां बिकीं भी.

विजेंद्र को तो मैं कवि ही नहीं मानता. उनकी कविताओं में मार्क्सवादी विचारधारा हावी रहती है जबकि कविता संवेदना की चीज है. कविता से संवेदना का ही पता चलना चाहिए. विचारों को संवेदना में परिवर्तित करना ही कविता है.

समकालीन कवियों में कौन ऐसे हैं जिनमें आप वैश्विक फलक तक दस्तक देने की संभावना देखते हैं?

राजेश जोशी में वह संभावना दिखती है. आलोक धन्वा ने फिर से लिखना शुरू किया है तो लगता है कि अभी उनमें सृजनात्मकता बची हुई है. राकेश रंजन में भी वह संभावना दिखती है.

नोबेल पुरस्कार की संभावना वाला कवि भी कोई निकट भविष्य में उभरेगा भारत से….! नोबेल पुरस्कार नहीं मिलने वाला है. जो साम्राज्यवाद के पोषक हैं, उन्हें ही यह सम्मान मिलता है. कभी-कभी दिखाने के लिए दूसरों को दे दिया जाता है. अगर भारतीय को मिलना होता तो रवींद्रनाथ के बाद अल्लामा इकबाल, निराला, सुब्रहमण्यम भारती, अशांत भारती जैसे कवि हुए; उनके नामों पर तो चर्चा होती.

सिंगुर-नंदीग्राम के समय नवारुण भट्टाचार्य, वरवरा राव जैसे कवि खूब लिखते हैं, लेकिन नामचीन और प्रगतिशील हिंदी कवि चुप्पी साधे दिखते है. ऐसा क्यों?

साहित्य अकादेमी से मेरी एक किताब है- ‘स्वतंत्रता पुकारती’. मुझे कहा गया था कि जिस तरह जां निसार अख्तर ने ‘हिंदोस्तां हमारा’ नाम से दो खंडों में उर्दू कविताओं का संकलन किया है, उसी तरह से हिंदी कविताओं का संकलन लाइए. मैंने तब ही कहा था कि न तो उर्दू कविताओं की ऊंचाई हिंदी कविता प्राप्त कर सकी है और न ही मुझमें जां निसार अख्तर की तरह क्षमता है. फिर भी मैंने 1857 से 1947 तक की कविताओं को संकलित करना शुरू किया. तब मैंने पाया कि शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध जैसे कवियों ने भी एक भी कविता राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन पर लिखी ही नहीं है. वे कवि मानते थे कि स्वतंत्रता आंदोलन बुर्जुआ आंदोलन है, सर्वहारा आंदोलन चाहिए. जबकि मैथिली शरण गुप्त जैसे कवि कांग्रेस के साथ रहते हुए भी कांग्रेस के खिलाफ, गांधी के विरोध में कविताएं लिख रहे थे. तब मैंने महसूस किया कि शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध जैसे कवि एक खास विचारधारा की पक्षधरता की जकड़न में थे. उनमें देश और समाज के प्रति उस स्तर पर कमिटमेंट नहीं था. आज के कम्युनिस्ट कवि भी उसी तरह मार्क्सवाद के शिकंजे में हैं. तो भला वे वाम इलाके में हो रहे सिंगुर-नंदीग्राम पर कविताएं कैसे लिख सकते हैं. नामवर सिंह जैसे लोग भी विचारधारा में जकड़ जाने का नुकसान समझ चुके हैं, इसीलिए अब उसका विरोध करते हैं तो प्रगतिशील लेखक संघ ने उन्हें अध्यक्ष पद से ही हटा दिया. हां लेकिन यह सच है कि आज के कवियों की तुलना में शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध बड़े और महान कवि थे.


आप वाम विचारधारा वाले रहे हैं. प्रगतिशील लेखक संघ से वर्षों तक जुड़े रहे हैं. और आप ही मार्क्सवाद को एक शिकंजा कह रहे हैं?

सिर्फ मार्क्सवाद नहीं, सभी वाद शिकंजे की तरह हैं. सच है कि मैं वर्षों तक प्रलेस में था, लेकिन 1985 में मुझे हटा दिया गया. लेकिन सच यह है कि मैं हटना चाहता था, वरना उसके बाद मैं किसी और संगठन से जुड़ गया होता लेकिन मैं जानता हूं कि वाम और लेखक संगठनों की भूमिका अब भारत में समाप्त हो चुकी है. एक समय में इनका काम महत्वपूर्ण था लेकिन अब तो ये लकीर के फकीर बने हुए हैं. वाम दलों को देखिए, दूसरे मुल्कों में वाम दलों ने नाम बदल दिए, काम बदल दिए, झंडे बदल दिए, लेकिन भारत में उसी को पकड़कर बैठे हुए हैं. जिन वाम राजनीतिक दलों की दुर्दशा हो चुकी है, उनके लेखक संगठनों का क्या हश्र होगा, आप समझ सकते हैं. यहां के वामपंथी इतिहास से सबक नहीं ले रहे हैं. जब सोवियत इतिहास के गर्त में समा गया, पूर्वी यूरोप उसी राह पर चला गया तो ये कितने दिन बचेंगे? इन्हें समझना होगा कि सिर्फ मार्क्स नहीं थे. समय बहता रहता है. इसमें मार्क्स, प्लेटो, हेगल सभी की भूमिका समय काल में मिलती रही है और वह धारा आगे बढ़ जाती है. अब पूंजीवादी दौर है, उसी के हथियारों से उससे लड़ना होगा. कंप्यूटर व मशीनी युग में मजदूर रहेंगे ही नहीं तो दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा लगाकर क्या करेंगे. खैर! मैं साफ मानता हूं कि लेखक संगठनों को स्वतंत्र होना चाहिए, किसी राजनीतिक दल का नहीं.

जातीय और सामुदायिक अस्मिता के लेखन के इस दौर में क्या आलोचना की विधा की एकरसता और एकरूपता को बदलने की जरूरत नहीं है? दलित, स्त्री के बाद अब आदिवासी अस्मिता का उभार हो रहा है. आदिवासियों का सौंदर्यबोध तो बिल्कुल अलग होता है, उनके साहित्य की आलोचना वे कैसे करेंगे जो उनके जीवन के सौंदर्य को जानते ही नहीं?

ये सारे अस्मिताई लेखन और विमर्श उधार और नकल के हैं. अमेरिका के ब्लैक मूवमेंट से दलित विमर्श आया, यूरोप के फेमिनिज्म से स्त्री विमर्श. इसके पैरोकार बहुत कुछ बेजा बोलते रहते हैं. कहते हैं, स्त्री ही स्त्री की पीड़ा समझेगी, दलित ही दलित की पीड़ा समझेगा. डॉ धर्मवीर जैसे लेखक भी हैं, जिन्हें साहित्य का ज्ञान नहीं लेकिन कुछ भी बकते रहते हैं. टॉल्सटॉय ने घोड़े पर एक मशहूर और क्लासिक कहानी लिखी थी- इंसान और हैवान. टॉल्सटॉय घोड़ा तो नहीं थे. प्रेमचंद ने दलितों को केंद्र में रखकर जो कहानियां लिखी हैं, उन्हें इस आधार पर खारिज कर दें कि वे दलित नहीं थे. लेखन परकाया प्रवेश करके होता है, जाति के आधार पर नहीं. जिस तरह अंबेडकर अडंगाबाजी करते रहे, उसी तरह उनको नायक मानने वाले भी अड़ंगाबाजी में विश्वास करते हैं लेकिन ये अंबेडकर के वैसे अनुयायी हैं जिन्होंने ठीक से उनका सेलेक्टेड वर्क भी नहीं पढ़ा है. वर्ण व्यवस्था के खिलाफ पापुलर तरीके से बोलकर रोज गालियां बकने वाले लोग भी हैं, लेकिन वे इतिहास के पन्ने पलटकर यह नहीं देखना चाहते कि आखिर किस हालत में वर्ण व्यवस्था बनी थी और वह समय के अनुसार सही थी या नहीं. रही बात आदिवासी लेखन के विकसित होने की तो रचनाकारों को चिल्लाने की जरूरत नहीं कि आलोचना की अलग कसौटी चाहिए, अलग विधा चाहिए. रचनाओं को बोलने दीजिए, रचनाएं कसौटी की मांग खुद करने लगती हैं और अलग कसौटी बन भी जाती है. निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ की आलोचना की कसौटी एक नहीं रही है. अज्ञेय, रेणु, प्रेमचंद के लिए भी कसौटियां अलग रही हैं. एकरसता और एकरूपता तो कभी रही ही नहीं.

आप कविता के शीर्षस्थ आलोचक हैं, राजेंद्र यादव जैसे लेखक इस विधा को ही खारिज करते हैं. कोई कवि या आलोचक जवाब नहीं दे पाता.

जब कभी गंभीर साहित्य की बात कीजिए तो उसमें राजेंद्र यादव का नाम नहीं लीजिए तो अच्छा. वे क्या-क्या करते हैं, उन्हें खुद ही पता नहीं. बाजारवाद अर्थशास्त्रियों का विषय है, उस पर वही बोलेंगे-लिखेंगे. स्त्री विमर्श, दलित विमर्श समाजशास्त्र का विषय है, लेकिन इसके भी मर्मज्ञ-विशेषज्ञ वही हैं. साहित्यकार को सबसे पहले अपनी जमीन पर रहकर बातें करनी चाहिए. इसलिए साहित्य की किसी बात पर राजेंद्र यादव की चर्चा ही फिजूल है.

आखिरी सवाल, बिहार में साहित्य-संस्कृति की वर्तमान स्थिति पर क्या कहेंगे?

मेरा बहुत साफ मानना है कि लालू प्रसाद यादव जिस रोज बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, वह दिन ऐतिहासिक प्रगति का दिन माना जाएगा. गौरव का क्षण था. लेकिन बाद में वे पिछड़ों के सही नेता साबित नहीं हुए, धीरे-धीरे पिछड़ों के सामंती वर्ग का प्रतिनिधित्व करने लगे. नीतीश आए तो उन्होंने सामंजस्य की राजनीति को एक स्वरूप दिया और बेहतरी की कोशिश की, लेकिन दोनों के ही राज में साहित्य-संस्कृति हाशिये का विषय रहा. राष्ट्रभाषा परिषद, हिंदी साहित्य सम्मेलन, ग्रंथ अकादमी जैसी संस्थाएं रसातल में चली गई हैं. 

ये चिराग बुझ रहे हैं…

मद्धम उजाले में डूबी बुरहानपुर की एक उमस भरी शाम. मुगलिया दौर में छिपी अपनी जड़ों को आज भी इलाके के जर्जर कोठों में संजोए 20 साल के इमरान शहर की तंग गलियों में तांगा हांकते हुए हमें अपने अलग हो चुके माता-पिता के बारे में बताते हैं. उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले में रहने वाले उनके पिता दशकों पहले उनकी मां का मुजरा सुनने बुरहानपुर आया करते थे. शहर में मशहूर कालीन मिल से सटी एक अंधेरी गली की तरफ तांगा मोड़ते हुए इमरान कहते हैं, ‘शुरुआत में हमारे वालिद लगातार यहां आते थे और कुछ साल पहले तक अम्मी को खर्च के पैसे भी देते थे. फिर धीरे-धीरे उन्होंने आना पूरी तरह बंद कर दिया. अब पैसे भी नहीं भेजते.’  

इस बीच लकड़ी के छोटे-छोटे बंद-बदरंग दरवाजों, टूटते झरोखों, गिरते छज्जों और बिजली के तारों के उलझे झोलों से पटी संकरी गलियों में सरकते हुए तांगा धीरे-धीरे आगे बढ़ता है. घोड़े के पैरों की चाप के बीच इमरान बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘मुजरा पिछले साल तक तो खूब होता था यहां, परंपरा ही है हमारी. मैंने तो आंखें ही गजलों, कव्वालियों और मुजरों की गूंज के बीच खोलीं. पर अब पुलिस की सख्ती की वजह से माहौल पहले की तरह नहीं रहा. मैंने 9वीं के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और फिर तांगा चलाने लगा. अम्मी तो नानी, बहनों और मौसियों के साथ रहती हैं. अब घर के सभी लोग कोई न कोई  काम करते हैं ताकि खर्च निकल सके.’

इस दौरान, आगे बढ़ते हुए हमें घरों के छज्जों पर लटकी पुराने कव्वालों की रंगीन नाम-तख्तियां दिखाई देने लगती हैं.

शुरुआत में तो पीले बल्बों की रोशनी में डूबे पर्दों के पीछे से आती घुंघरुओं की आवाज आपको अचानक से मुगल काल में ले जाती है. पर अगले ही पल, ‘दिल मेरा मुफ्त का’ जैसी खांटी बॉलीवुड धुनों पर होते मुजरों की आवाज झकझोर कर बताती है कि यह गालिब की गजलों पर थाप जमाने वाले पैरों का नहीं, नए जमाने के डिस्को-मुजरे का दौर है. हम एशिया की सबसे पुरानी मुजरा बस्ती ‘बोरवाड़ी’ में हैं. मध्य प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी छोर पर बसे बुरहानपुर शहर के बीचोबीच मौजूद बोरवाड़ी मोहल्ला मुगल बादशाह शाहजहां के दौर से ही केंद्रीय भारत में शास्त्रीय रक्कास (नृत्य) कला का मुख्य केंद्र रहा. इतिहास टटोलने पर पता चलता है कि दक्षिण भारत की यात्राओं के दौरान अक्सर बुरहानपुर में रुकने वाले मुगल बादशाहों ने यहां अपने मनोरंजन के लिए मुजरा कलाकारों और तवायफों का यह बोरवाड़ी मोहल्ला बसाया था. लेकिन लगभग 350 साल पहले कुरैशी नवाबों और मुगल शहजादों का दिल बहलाने के लिए बसाई गई बुरहानपुर की यह मुजरा बस्ती आज अपनी चमक खोती जा रही है.   

लगभग उजड़ चुकी बोरवाड़ी के इन झरोखों में जब-तब खामोशी से रोशन होने वाले चिरागों को खुद महसूस करने के लिए और इन गलियों के बारीक अनुभव के लिए हम इमरान से यहीं विदा लेते हैं और पैदल ही घूमना शुरू करते हैं. एशिया की सबसे पुरानी मुजरा बस्ती के तौर पर पहचानी जाने वाली  बोरवाड़ी के रास्ते कभी घुंघरुओं की गूंज से आबाद रहते थे. लेकिन आज यहां के मशहूर मुजरे की खामोशी के साथ-साथ लोक रक्कास कला और मुजरा कलाकारों की एक पूरी आबादी भी खात्मे के कगार पर है. इन गलियों में घूमते वक्त इमरान की कहानी बार-बार याद आ जाती है.  लगभग दो साल पहले तक उनके घर दूर-दूर से मुजरा सुनने आने वाले कद्रदानों की भीड़ लगी रहती थी, लेकिन ‘माहौल’ धीमा होने की वजह से अब घर के ज्यादातर सदस्य रोजगार के दूसरे विकल्पों की तरफ मुड़ चुके हैं. दशकों से मुजरे की कमाई पर पल रहे इस मातृसतात्मक परिवार के पुरुषों ने भी अब पान की गुमटियां खोलने से लेकर तांगे चलाने जैसे नए काम शुरू कर दिए हैं.

मध्य भारत के इस अनजाने और गुमनाम-से शहर में सैकड़ों साल पहले मुजरेवालियों की एक बस्ती बसने की वजहों की तलाश में हमें कई लोक-कहानियों के साथ-साथ बोरवाड़ी से जुड़े कई रोचक ऐतिहासिक तथ्य भी मिलते हैं. शहर के मशहूर इतिहासकार होशंगसोराबजी हवालदार बताते हैं कि मुजरेवालियों की एक मशहूर बस्ती के तौर पर बोरवाड़ी का आकर्षण और प्रसिद्धि मुगल बादशाह शाहजहां के दौर में चोटी पर थी. वे आगे कहते हैं, ‘यूं तो कुरैशी शासकों के दौर में ही बोरवाड़ी बसने लगा था लेकिन बाद में आए मुगल शासकों का दौर उसका स्वर्णिम काल था. असल में दक्षिण की ओर जाते वक्त मुगल बादशाहों के ज्यादातर काफिले बुरहानपुर से होकर ही गुजरते थे. ऐसे ही एक सफर के दौरान बादशाह शाहजहां ने गुलारा बाई नामक एक रक्कासा का नृत्य देखा और उस पर फिदा हो गए. गुलारा बाई बहुत अच्छा गाती भी थीं और शाहजहां उनके सौन्दर्य और समझदारी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनसे शादी कर ली. गुलारा बाई के नाम पर उन्होंने बुरहानपुर से लगभग 21 किलोमीटर दूर ‘महल गुलारा’ नाम का एक महल भी बनवाया. बस यही वह वक्त था जब पहली बार बोरवाड़ी मोहल्ला एक भव्य और प्रतिष्ठित मुजरा बस्ती के तौर पर स्थापित हुआ.’ फिर वक्त गुजरता गया लेकिन बोरवाड़ीकी शान में कोई कमी नहीं हुई. आजादी के बाद भी यहां मुजरेवालियों के साथ-साथ सारंग वादक, कव्वाल, बन्नाट वाले, गजल गायक, मृदंग वादक और लोक नृत्य जैसी अलग-अलग शैलियों के फनकार मौजूद हुआ करते थे.’

होशंगसोराबजी आगे बताते हैं, ‘लेकिन पिछले एक साल के दौरान बढ़ी पुलिसिया निगरानी, सामाजिक बहिष्कार और प्रशासनिक उदासीनता की वजह से यह ऐतिहासिक मुजरा बस्ती लगभग उजाड़ सी हो गयी है’.  पिछले साल तक बुरहानपुर में लगभग 20 कोठे हुआ करते थे, जिनमें लगभग 50 मुजरा कलाकार नृत्य किया करती थीं. आम दिनों में ये लड़कियां रोजाना 500 से 1000 रुपए तक कमा लिया करती थीं. इनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा महफिलों में वाद्य यंत्र बजाने वाले साजिंदों को जाता था. बाकी रकम मुजरा कलाकारों के हिस्से आती थी. बोरवाड़ी के स्थानीय लोग बताते हैं की यहां की मुजरा कलाकार अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा दान में भी दिया करती थीं. मोहल्ले के एक निवासी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘यहां के कई मदरसे मुजरेवालियों के दान से ही चला करते थे. इसके सिवा बाढ़ या भूकंप आने पर भी राष्ट्रीय राहत कोशों में इनका दान जाता था. आपको यह जानकर भी अचरज होगा की राष्ट्रीय शोक के दिनों में यहां कभी मुजरा नहीं होता था’.

जून, 2011 के दौरान बुरहानपुर से सटे खंडवा जिले में प्रतिबंधित संगठन ‘सिमी’ के 10 संदिग्धों की गिरफ्तारियों के बाद से ही बुरहानपुर के मुजरे पर एक तरह का अघोषित प्रतिबंध लग गया. स्थानीय सूत्रों की मानें तो जिला पुलिस-प्रशासन को संदेह था कि बोरवाड़ी में सिमी आतंकियों को पनाह दी जा रही है. मोहल्ले के ‘डेरेदार संगीत संघ’ के उपाध्यक्ष अल्ताफ खान का मानना है कि पुलिसिया प्रतिबंधों की वजह से आज बोरवाड़ी का मुजरा आखिरी सांसें ले रहा है. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘2011 की सिमी गिरफ्तारियों के बाद से यहां रजिस्टर रखा जाने लगा है. उन्हें लगा कि यहां आतंकवादी आकर योजनाएं बनाते हैं. इसलिए हर घर के बाहर एक सिपाही तैनात करवा दिया गया और कहा गया कि जो भी मुजरा सुनने आएगा वह रजिस्टर में अपना नाम-पता दाखिल करेगा, तभी अंदर जाएगा.

शुरुआत में कुछ पुराने कद्रदान आए भी मगर पता चला कि उनके भी घरों पर फोन जाने लगे. अब ऐसे में कौन आता मुजरा सुनने? साल भर से ऊपर हो गया तलाशियों और तहकीकातों से दौर से गुजरते-गुजरते. हमारा मुजरा तो बंद हो ही गया पर उन्हें आज तक कुछ नहीं मिला.’

हालांकि जानकारों का मानना है कि प्रशासनिक कड़ाई से इतर, कुछ दूसरे कारणों ने भी बुरहानपुर के मुजरे को धीरे-धीरे खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.  खान बताते हैं, ‘पुराने जमाने में यहां का माहौल बिल्कुल अलग था. फारुखी नवाबों से लेकर मुगलों के दौर तक यहां बादशाहों का डेरा लगा रहता था. आजादी के बाद भी महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे दूर-दराज के राज्यों से लोग यहां मुजरा सुनने आते रहे. बड़े-बड़े इज्जतदार घरानों के लोग अपने बच्चों को हमारे यहां तहजीब सीखने भेजा करते थे. तब यहां ठुमरी, दादरा, केरवा और अलग-अलग रागों पर आधारित गजलें गाई जाती थीं. सुनने वाले भी गालिब और मीर के शेरों की फरमाइशें करते थे और गानेवालियां रियाज करके नज्में पेश किया करती थीं. पर अब सब बदल गया है. आज तो ठुमरियों की जगह बॉलीवुड के गानों ने ले ली हैं. अब आप ही बताइए, ‘धूम मचाले’ पर कोई मुजरा कैसे पेश कर सकता है. पर हमारे कलाकार करते हैं क्योंकि सुनने वाले यही सुनना चाहते हैं.’

पुलिसिया सख्ती की वजह से बोरवाड़ी के ज्यादातर लोग हमसे बात करने को तैयार नहीं होते. मोहल्ले में थोड़ा और आगे जाने पर हमें इस जर्जर-से मकान के आगे ‘सायरा रंगीली कव्वाल’ नाम की तख्ती लटकी दिखाई देती है. पूछने पर मालूम होता है कि इस घर की पिछली सात पुश्तें मुजरा और कव्वाली से जुड़ी हुई हैं. घर में हमें सायरा की बड़ी बहन शमीम बानो मिलती हैं. सायरा एक सफल कव्वाल के तौर पर क्षेत्र में काफी शोहरत कमाने के बाद अब शादी करके जा चुकी हैं. परिवारवाले बताते हैं कि अब वे सिर्फ बड़े कार्यक्रमों में कव्वाली गाती हैं. लगभग 40 वर्षीया शमीम अपना पूरा जीवन एक मुजरा कलाकार के तौर पर बिताने के बाद अब प्रस्तुति देना छोड़ चुकी हैं. थोड़ी कोशिश के बाद वे बातचीत के लिए तैयार हो जाती हैं. हम उनके घर की पहली मंजिल पर मुजरे के लिए बनाए गए एक खास कमरे में बैठते हैं. कमरे में मौजूद एक झरोखेनुमा खिड़की के किनारे बैठ कर शमीम हमें उनकी पुरानी तस्वीरें दिखाती हैं और कुछ नज्में भी गाकर सुनाती हैं.

फिर बोरवाड़ी के सबसे पुराने मुजरा-परिवारों में से एक अपने परिवार और एक मुजरा कलाकार के तौर पर अपने जीवन के बारे में बताते हुए कहती हैं, ‘यह तो पेशा ही जवानी का है. अब सिर्फ तभी गाती हूं जब कोई बहुत पुराना सुनने वाला आ जाए. खैर, हमने आठ बरस की उम्र से ही रियाज शुरू कर दिया था. लगभग आठ  साल की ट्रेनिंग के बाद ही हमें कद्रदानों के सामने पेश किया गया. असल में हमारे वालिद ‘थिरकवा काहा’ (चर्चित स्थानीय कलाकार) के शागिर्द रहे. वे बहुत ही अच्छा तबला बजाते थे. उनको चार मुंह वाले तबले याद थे. दिन भर रियाज करते रहते और तबला खुला रहता. पूरे माहौल में ही संगीत था तो हमें भी शौक चढ़ा. एक दीवानगी-सी थी उस वक्त सीखने की. तो हमें गाना और नाचना सिखाने वाले उस्ताद और कव्वाल, सभी आने लगे. हम सुबह दो घंटे गाने का रियाज करके ही दिन शुरू करते. बड़ी-बड़ी नज्में याद करते और कभी-कभी तो शाम को ही उन्हें सुनाना पड़ जाता था.’

बोरवाड़ी के मुजरे की एक पूरी पीढ़ी को अपनी आंखों के सामने देख चुकी शमीम कहती हैं कि फिल्मी दुनिया ने मुजरे को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. वे कहती हैं, ‘पहले कद्रदान बड़े-बड़े शायरों की गजलों की फरमाइशें किया करते थे. और अगर हमें याद न हो तों यह बहुत शर्मिंदा होने वाली बात हुआ करती थी. पर अब तो लोग फिल्मी गाने ही सुनना चाहते हैं. पहले राजे-रजवाड़े हमें पेंशन दिया करते थे. मौजूदा सरकार हमारी कला को सहेजने के लिए कुछ नहीं कर रही है. हमारे दौर में तो महफिल में शराब की सख्त मनाही थी और कोई गानेवाली के साथ बदतमीजी नहीं कर सकता था. सब हमें एक कलाकार की हैसियत से मिलने वाला सम्मान देते थे. पर पाकीजा और उमराव जान जैसी फिल्मों ने भी माहौल बहुत बिगाड़ दिया. अरे आज मुजरे वालियों के पास मीना कुमारी या रेखा जैसे महंगे अनारकली सूट और जेवर नहीं होते. हमारी महफिलों में महंगे झाड़-फानूस भी नहीं होते. हमारे पास कभी इतना पैसा ही नहीं रहा. फिल्मी मुजरे और असली मुजरे में जमीन-आसमान का फर्क है.’

धीरे-धीरे गुमनामी के अंधेरे में खो रही बुरहानपुर की इस ऐतिहासिक मुजरा बस्ती के खात्मे के पीछे कुछ सामाजिक कारण भी जिम्मेदार हैं. बोरवाड़ी की रक्कासाओं की व्यथा बताते हुए होशंग सोराबजी आगे जोड़ते हैं, ‘रक्कासाएं आज अपने आखिरी दौर में हैं. पुलिस और सिनेमा के साथ-साथ समाज भी इनकी समाप्ति की एक बड़ी वजह है. इन रक्कासाओं के पास हमेशा से एक विशेष नृत्यकला रही जिसका आनंद तो सभी ने उठाया पर इन्हें एक कलाकार का दर्जा कभी नहीं दिया गया. फिल्मी दुनिया में भी जितने मशहूर मुजरे हुए उन सभी की पैदाइश बुरहानपुर के मुजरों से हुई. उन गीतों का बीज बोरवाड़ी बस्ती ही है लेकिन आज वे फिल्मी गीत इतने मशहूर हैं जबकि यहां के कलाकार अपने दिन गिन रहे हैं. हालांकि मुजरा कुछ ऐसी पुरानी कलाओं में से है जिन्हें सहेजा जाना चाहिए था लेकिन ‘मुजरा’ शब्द सुनते ही समाज इसे एक अलग नजर से देखने लगता है–एक ऐसी कला के तौर पर जिसे देखना तो सभी चाहते हैं, पर कोई स्वीकार नहीं करना चाहता.’ 

रात के लगभग 12 बज चुके हैं. अब हम बोरवाड़ी से विदा ले रहे हैं. अभी भी चुनिंदा घरों से पीले बल्बों की रोशनी फूट रही है और फिल्मी गानों पर थिरकते कुछ आखिरी घुंघरुओं की आखिरी धुनें हमारे कानों में गूंज रही हैं.  

‘राष्ट्रीय हित में संसद को बाधित करना सही संसदीय रणनीति है’

कोयला घोटाला सरकार की नीतिगत असफलता है या प्रधानमंत्री का निजी घोटाला?

लोगों के मन में एक गलत धारणा है कि सिर्फ घूस लेना ही निजी भ्रष्टाचार होता है. अगर एक सरकारी कर्मचारी गलत तरीके से जान-बूझकर किसी को लाभ पहुंचाता है और खजाने की बर्बादी करता है तो वह भी निजी घोटाले की श्रेणी में आता है.

तो इस मामले में प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत गलती क्या है?

मेरे ख्याल से उनकी पहली गलती है उस नीति को लागू करने में की गई अनावश्यक देरी जिसकी घोषणा उनकी सरकार ने पहले ही कर दी थी. जून, 2004 में सरकार ने घोषणा की कि निजी कंपनियों को कोल ब्लॉक का आवंटन बोली के आधार पर होगा क्योंकि तमाम ऊर्जा कंपनियों को कोयले की सख्त जरूरत है. और फिर उन्होंने उस नीति को छह साल तक लटकाए रखा. एक बात और ध्यान रखिए, मुख्य खनिजों पर निर्णय लेने का अधिकार केंद्र सरकार के पास होता है. राज्य सरकारों का अधिकार सिर्फ छोटे-मोटे (माइनर) खनिजों पर है. कोयला मुख्य खनिज है. आप यह कहकर पीछा नहीं छुड़ा सकते कि दो-चार लोगों की राय इसके खिलाफ थी इसलिए आपने मनमाना आवंटन किया. आपको बहुमत के साथ जाना चाहिए था.

घूसखोरी की अफवाहें भी उड़ रही हैं?

मुझे नहीं पता. अफवाहों के आधार पर मैं कोई बयान नहीं दे सकता, लेकिन जो बातें उड़ रही हैं वे बेहद चिंताजनक हैं मसलन पसंदीदा लोगों को कोल ब्लॉक आवंटन के लिए पार्टी की तरफ से मंत्रालय में पर्चियां भेजी गईं. 2जी मामले में भी सरकार निरंतर इनकार करती रही थी. एक मंत्री तो हास्यास्पद ‘जीरो लॉस’ फॉर्मूला लेकर भी आए और कैग को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की. अब उन्हीं लोगों ने 2जी स्पेक्ट्रम की बेस कीमत 14,000 करोड़ रुपए रखी है, जबकि उस समय इन्होंने पूरी नीलामी 1,658 करोड़ रुपये में कर डाली थी. इससे साबित होता है कि कैग की रिपोर्ट सही थी.

आप साफ कर चुके हैं कि प्रधानमंत्री के इस्तीफे से कम आपको कुछ मंजूर नहीं होगा. तो उन्हें पद से हटाने की आपकी रणनीति क्या है?

मैं यहां पर अपनी रणनीति उजागर नहीं कर सकता. हम संसद के भीतर और बाहर उनके ऊपर दबाव बनाए रखेंगे.

नियमत: प्रधानमंत्री को हटाने के लिए आपको संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाना चाहिए. पर आप इसकी बात नहीं कर रहे हैं?

असाधारण मामलों में विरोध करने के कई वैकल्पिक संसदीय तरीके उपलब्ध हैं. संसद में अवरोध पैदा करना भी उसी का हिस्सा है. हमारी आपसी राय है कि अविश्वास प्रस्ताव के विकल्प पर विचार नहीं करना चाहिए. हमने देखा है कि यह सरकार जनता के बीच भले ही अलग-थलग पड़ जाती हो लेकिन राजनीतिक जमात को अपने साथ खड़ा करने में इसे महारत हासिल है. इस काम में इसने जांच एजेंसियों का भी इस्तेमाल बड़ी चतुराई से किया है. इसलिए हम ऐसा कोई भी काम नहीं करेंगे कि सरकार को बच निकलने का मौका मिले.

संसद ठप पड़ी है, लोग इस बात से चिंतित हैं.

लोग इस बात से ज्यादा चिंतित हैं कि इस सरकार में भ्रष्टाचार लगातार बढ़ रहा है. भ्रष्टाचार उजागर करने के लिए संसद भवन को ठप करना मेरे ख्याल से सही संसदीय तरीका है. एनडीए के शासनकाल में जब तहलका कांड हुआ था तब कांग्रेस ने भी यही किया था. इसलिए वे यह नहीं कह सकते कि यह गलत तरीका है.

यदि प्रधानमंत्री पद नहीं छोड़ते हैं तब क्या होगा? आपने इतनी बड़ी शर्त रख दी है. क्या आप पीछे हट जाएंगे, कुछ दिन बाद स्थितियां सामान्य हो जाएंगी?

हम पीछे नहीं हटने वाले. हम एक के बाद एक कदम आगे बढ़ाते जाएंगे. उन कदमों का खुलासा मैं अभी नहीं कर सकता.

आपने ममता बनर्जी को यूपीए से अलग करने की कोशिश की है?

इस संबंध में मैं कुछ नहीं कह सकता. हम हर व्यक्ति तक पहुंचने की कोशिश करेंगे.

कैग रिपोर्ट में 2004 से पहले एनडीए के शासनकाल की यह कह कर आलोचना की गई है कि उस दौरान कोयला ब्लॉक आवंटन का कोई स्पष्ट ढांचा ही नहीं था.

2004 से पहले आवंटित किए गए कोल ब्लॉकों की संख्या नाममात्र की है और वे भी ज्यादातर सरकारी कंपनियों को हुए हैं. इसलिए इस तरह की समस्या कभी उत्पन्न नहीं हुई. समस्या तब खड़ी हुई जब आपने इतनी बड़ी संख्या में निजी कंपनियों को इसमें शामिल किया.

सारे सवाल, जवाब, आरोप, सफाई संसद के बजाय मीडिया के जरिए दिए जा रहे हैं. क्या यह सही परंपरा है?

संसद में किसी मुद्दे पर बहस कर उसे भूल जाने से अक्सर कोई नतीजा नहीं निकलता. इसीलिए मैंने कहा कि कुछ असाधारण मामलों में संसद में अवरोध पैदा करके सरकार पर कहीं ज्यादा बड़ा नैतिक दबाव बनाया जा सकता है.

साउंडबाइट की सीमाएं

कोयला घोटाले पर खबरों के शोर में स्पष्टता कम और भ्रम ज्यादा है.

कोयला खदानों में आवंटन में धांधली पर सीएजी की रिपोर्ट और उस पर संसद में मचे हंगामे के बाद से देश भर में कोयला घोटाला सुर्खियों में है. प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग पर अड़े विपक्ष ने संसद का मॉनसून सत्र ठप कर दिया. नतीजा, इस मुद्दे पर बहस का मंच न्यूज चैनलों का स्टूडियो हो गया और वहीं कांग्रेस और भाजपा के नेता और मंत्री ‘तू-तू-मैं-मैं’ और एक-दूसरे को नंगा करते नजर आने लगे. इसमें कोई नई बात नहीं है. संसद चले या नहीं, संसद सत्र हो या नहीं लेकिन चैनलों पर बिला नागा इस या उस मुद्दे पर बहस से लेकर महाबहस चलती रहती है.

यह भारतीय राजनीति के संपूर्ण टीवीकरण का एक और उदाहरण है. सच पूछिए तो राजनीति टीवी के जरिये ही हो रही है. राजनेता और पार्टियां टीवी को ध्यान में रखकर चलने लगे हैं. टीवी का पर्दा राजनीति का असली अखाड़ा बन गया है. वहीं शह और मात होने लगी है. 24 घंटे के न्यूज चैनलों के कारण राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों का संवेदी सूचकांक (पोल्सेक्स) घंटे-घंटे में चढ़ने-उतरने लगा है. प्रधानमंत्री संसद में बयान नहीं दे पाते तो वे टीवी के कैमरों पर बोलते हैं. उसका जवाब तुरंत विपक्ष के नेता देते हैं. सब कुछ लाइव है. 

सचमुच, न्यूज चैनलों ने भारतीय राजनीति को बदल दिया है. उनके कारण राजनीति ज्यादा गतिशील और त्वरित हुई है और एक हद तक जवाबदेह और पारदर्शी भी. लेकिन इससे कहीं ज्यादा उसमें ड्रामे का महत्व बढ़ा है, तर्क और तथ्य की जगह वाक्पटुता या कहें कि गले की ताकत और प्रदर्शन क्षमता ने ले ली है और बहस का मतलब शोर-शराबा होता जा रहा है. इन सबके बीच राजनीतिक पत्रकारिता का ‘चाल-चरित्र-चेहरा’  काफी बदल-सा गया है और वह चाहे-अनचाहे साउंडबाइट और पीआर पत्रकारिता में बदलती जा रही है. यही नहीं, साउंडबाइट, लाइव और स्टूडियो बहस के बीच फाइलों-दस्तावेजों और स्रोतों पर आधारित खोजी पत्रकारिता तो जैसे अतीत की बात हो गई है.

चैनलों की ‘आरामतलब पत्रकारिता’  साउंडबाइट और स्टूडियो बहसों से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं दिख रही

कोयला घोटाले को ही लें. इस मुद्दे पर चैनलों ने दिनों-घंटों का एयर टाइम खर्च किया है, खूब हंगामी बहसें हुई हैं, लाइव प्रेस कॉन्फ्रेंसों में आरोप-प्रत्यारोप हुए हैं लेकिन इन सबके शोर-शराबे के बीच स्पष्टता कम और भ्रम ज्यादा बढ़ गया है. कोयला आवंटन पर सीएजी की रिपोर्ट, विपक्ष के आरोपों, सरकार के बचाव और सिविल सोसाइटी की ओर से दोनों पर लगाए आरोपों ने भारी भ्रम पैदा कर दिया है. इसके कारण राष्ट्रीय राजनीति में भी भ्रम का  माहौल है. दर्शक हैरान हैं. लेकिन न्यूज चैनल इस भ्रम को दूर करने के बजाय और बढ़ाने में लगे हुए हैं.

असल में, चैनलों पर छा गई साउंडबाइट पत्रकारिता की यह सबसे बड़ी विफलता है. वह राष्ट्रीय राजनीति की मौजूदा गुत्थियों को सुलझाने और सच्चाई को सामने लाने में नाकाम रही है. चैनलों से यह अपेक्षा थी और है कि वे कोयला घोटाले की बारीकियां खोलेंगे, उसकी स्वतंत्र पड़ताल करेंगे, उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखेंगे और दर्शकों के लिए उसके मायने बतलाएंगे उदाहरण के लिए, जिन 57 कोयला ब्लॉकों का आवंटन हुआ है, उनकी लाभार्थी कंपनियां कौन-सी हैं, उनकी किस योग्यता पर यह आवंटन हुआ, उसका उन्हें क्या फायदा हुआ, वे कोयले की खुदाई क्यों नहीं शुरू कर पाईं और विभिन्न राज्य सरकारों की इसमें क्या भूमिका रही है?

ऐसे बहुतेरे सवालों का उत्तर मिलना अभी बाकी है. लेकिन चैनलों की ‘आरामतलब पत्रकारिता’  पार्टी कार्यालयों की साउंडबाइट और स्टूडियो बहसों से बाहर निकलने और मेहनत करने के लिए तैयार नहीं दिख रहीं. नतीजतन देश की बेशकीमती प्राकृतिक संपदा की लूट पर राजनीति तो बहुत हो रही है लेकिन अफसोस कि साउंडबाइट के बढ़ते शोर में चोर को भाग निकलने का मौका मिल जा रहा है.

सरकार नहीं अखबार चाहिए

समस्याओं के मूल कारणों से आंख मिलाने और इनकी काट ढूंढ़ने की जगह सरकार सीमा पार की वेबसाइटें ढूंढ़ रही है.

पिछले दिनों बर्मा ने अपने यहां प्रेस पर 48 साल से चली आ रही सेंसरशिप खत्म करने की घोषणा की. इसी दौरान इक्वाडोर ने विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांज को राजनीतिक शरण देने का फैसला किया. बर्मा और इक्वाडोर ऐसे देश नहीं हैं जो अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने के लिए जाने जाते रहे हों. लेकिन अगर बर्मा के शासक भी अपने यहां खुली खबरों की जरूरत महसूस कर रहे हैं और अगर इक्वाडोर भी जूलियन असांज जैसी शख्सियत से इस तरह मोहित है कि उसने कई देशों से दुश्मनी लेने का खतरा मोल लेते हुए उन्हें राजनीतिक शरण दी है तो इसीलिए कि धीरे-धीरे यह समझ हर जगह बन रही है कि अभिव्यक्ति की आजादी कई दूसरी चीजों के मुकाबले कहीं ज्यादा जरूरी है.

लेकिन जब दुनिया भर में अभिव्यक्ति की आजादी नए क्षेत्रों में दाखिल हो रही है, तब हमारे यहां सरकार उन वेबसाइटों और सोशल साइटों के खातों की फेहरिस्त बना रही है जिन पर पाबंदी लगाई जानी है. निस्संदेह असम की हिंसा के पीछे कुछ वेबसाइटों और कुछ सोशल साइटों से जुड़े खातों की गैरजिम्मेदार ही नहीं, बदनीयत भूमिका भी रही है और सरकार की यह बात भी मान लेते हैं कि इनमें से कुछ का संचालन सीमा पार से भी हो रहा था. लेकिन अगर सरकार यह मानने या समझाने में लगी है कि असम की हिंसा और बाद में महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक तक की दक्षिणी -पश्चिमी पट्टी से रातों-रात पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन के पीछे सिर्फ सोशल वेबसाइटों का खड़ा किया गया हंगामा है, तो या तो वह खुद को ज्यादा चालाक या फिर लोगों को ज्यादा नादान समझ रही है.

असम में हिंसा और विस्थापन हो या दक्षिणी राज्यों से लोगों का पलायन- इन सबके बीज दरअसल हमारे समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता और कुछ समूहों के प्रति लगातार बढ़ाए जा रहे नस्ली परायेपन के एहसास में है. इन मूल कारणों से आंख मिलाने और इनकी काट ढूंढ़ने की जगह सरकार सीमा पार की वेबसाइटें ढूंढ़ रही है.

इस आभासी संसार को ऐसी सामग्री के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाकर ही हम समस्या की काट खोज सकते हैं

निस्संदेह हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि बहुत सारे सांप्रदायिक तत्व और संगठन सोशल साइटों का इस्तेमाल अफवाह और नफरत फैलाने से लेकर लेखकों को डराने-दबाने के लिए भी कर रहे हैं. फेसबुक पर ऐसे कई कमेंट और टैग मिल जाते हैं जो बिल्कुल खौलती हुई नफरत की भाषा बोलते हैं, तर्कातीत और भावुक ढंग से राष्ट्र और धर्म पर बहस करते हैं और लोगों को सबक सिखाने, उनसे बदला लेने और उन्हें उनकी औकात बता देने तक की हुंकार भरते हैं. ऐसे लोगों की शिनाख्त भी जरूरी है और उनसे वैचारिक मुठभेड़ भी. लेकिन वे फेसबुक पर इसलिए हैं कि हमारे समाज में हैं, और समाज में भी बिल्कुल कहीं साथ-साथ हैं, वरना जिस फेसबुक पर आप अपनी मर्जी से अपना मित्र पड़ोस बसाते हैं, वहां ये लोग कैसे चले आते?

जाहिर है, सरकार इस समाज की विडंबना को नहीं देख रही, उसका सच बता रही सोशल साइटों को देख रही है. कहीं इसलिए तो नहीं कि वह दरअसल अपने समाज के असामाजिक और सांप्रदायिक तत्वों से नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति के उन माध्यमों से लड़ना चाह रही है जो उसके लिए असुविधाजनक हैं? वरना एक साथ तीन सौ से ज्यादा वेबसाइटों और ट्विटर अकाउंट बंद करने का आग्रह वह क्यों करती? वह भी तब, जब इनके विरुद्ध शिकायत करने और ऐसी आपत्तिजनक सामग्री हटवाने के विकल्प उसके पास पहले से सुलभ हैं और इनका वह भरपूर इस्तेमाल करती रही है? इसका एक प्रमाण यह है कि सरकार की फेहरिस्त में ऐसी साइटों और उन अकाउंटों के नाम भी हैं जहां से उस पर कभी व्यंग्य में और कभी सीधे हमले होते हैं, कभी उसका मजाक बनाया जाता है और कभी उसका कार्टून दिखाई पड़ता है.

इसमें ज़रा भी शक नहीं कि सोशल साइटों का संसार- या पूरा का पूरा नेट संसार- ऐसी आपत्तिजनक सामग्री से पटा पड़ा है जो सतही है, बदनीयत है, अश्लील है और खतरनाक भी है और जिसे रोकने, जिस पर नियंत्रण रखने की जरूरत है. लेकिन यह आभासी संसार हमारे असली संसार ने ही बनाया है इस संसार को ऐसी सामग्री के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाकर ही हम इसकी काट खोज सकते हैं. लेकिन इसकी जगह फेसबुक या ट्विटर या दूसरे माध्यमों या इनसे जुड़े खातों पर बहुत सपाट किस्म की पाबंदी बेमानी साबित होगी- बल्कि यह एक ख़तरनाक चलन को जन्म देगी, जब हर किसी बड़े हादसे के बाद सरकारी तंत्र नई वेबसाइट्स, नए अकाउंट खोजने में लग जाएगा जिन्हें प्रतिबंधित किया जाए- और बहुत संभव है, तब भी इसके स्रोत सीमा पार ही खोज निकालेगा. यह अनायास नहीं है कि असम के 4 लाख से ज्यादा बेघर बताए जा रहे लोगों के पुनर्वास या महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से हजारों लोगों के पलायन का सवाल पीछे छूट गया है, सोशल साइटों पर पाबंदी की ख़बर बड़ी हो गई है. साफ तौर पर ये दोनों सिरे वास्तविक लोकतंत्र के प्रति हमारे राजनीतिक तबकों की उदासीनता से ही जुड़ते हैं- न वे लोगों को न्याय दे पा रहे हैं और अपने अन्याय पर दूसरों की टिप्पणी सह पा रहे हैं. अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति और अमेरिका के संविधान निर्माताओं में एक थॉमस जेफरसन ने सवा दो सौ साल पहले लिखा था, ‘अगर मुझे तय करना पड़े कि हमें सरकार चाहिए या अखबार तो मुझे अखबार चुनने में एक लम्हे की भी हिचक नहीं होगी.

'पीएम के उम्मीदवार की घोषणा से एनडीए को फायदा होगा.’

नीतीश जी, सबसे पहले तो बिहार के उस बदलाव के बारे में कुछ बताएं जिसकी आप सत्ता में आने के बाद से ही बात कर रहे हैं.

बिहार को बैड गवर्नेंस का क्लासिक केस कहा जाता रहा है. लेकिन यह बात को कम करके कहने जैसा है. दरअसल बिहार में गवर्नेंस जैसी चीज थी ही नहीं. लोगों की जरूरतों के हिसाब से न नीतियां बन रही थीं और न काम हो रहे थे. केंद्र सरकार की कुछ योजनाएं जरूर थीं जिन्हें कुछ जगहों पर लागू किया गया था मगर उसके अलावा कुछ था ही नहीं. सोच यह थी कि कुछ करने की जरूरत नहीं है, लोग तो आखिर में जाति के आधार पर ही वोट देंगे. दूसरे, बिहार कभी भी किसी नई चीज का हिस्सा नहीं रहा. कानून का राज दिखता ही नहीं था. एक वक्त था जब रोज बलात्कार हो रहे थे. दुनिया भर से पत्रकार बिहार के गुंडाराज को रिपोर्ट करने के लिए यहां आ रहे थे. अब लोगों में एक सुरक्षा का भाव है. कभी-कभी छोटी-मोटी आपराधिक घटनाएं जरूर होती रहती हैं. भारत में कोई ऐसा राज्य है जहां अपराध बिल्कुल नहीं है? तब और अब में फर्क यह है कि पहले अपराधियों पर लगाम नहीं कसी जाती थी और अब तेजी से कार्रवाई होती है. जब हम सत्ता में आए तो हमारा एजेंडा कानून-व्यवस्था बहाल करना था. अब भले ही वह कोई भी हो, अगर उसने अपराध किया है तो कानून अपना काम करता है. पुलिस आजादी से अपना काम करती है. यह हुआ है. हमने सुनिश्चित किया कि सरकारी गवाह बयान से पलटें नहीं, अपनी बात पर कायम रहें. इसका असर यह हुआ कि दूसरे गवाहों ने भी आगे आना शुरू कर दिया. 2006 से लेकर अब तक 74 हजार अपराधियों को दोषी करार दिया जा चुका है. यह तब हुआ है जब ब्यूरोक्रेट वही हैं, पुलिस वही है और जज भी वही हैं.

तो क्या आप यह दावा कर रहे हैं कि आपने बिहार से गुंडाराज का सफाया कर दिया?

मैं यह दावा नहीं कर रहा कि बिहार हर तरह से अपराधमुक्त हो गया या कल बिहार में कोई वारदात नहीं होगी. मुझे नहीं लगता कि देश का कोई भी राज्य इसकी गारंटी दे सकता है. लेकिन यह जरूर है कि बिहार में कानून का राज स्थापित हो गया है. पहले लोग रात में सड़क पर चलने से डरते थे. इस स्थिति में काफी सुधार हुआ है. कोई सांप्रदायिक तनाव या सामाजिक टकराव नहीं है. और यह बात मैं सहजता से कह सकता हूं.

लेकिन क्या आप ऐसा विकास ला पाए हैं जो सर्वसमावेशी हो? क्या राज्य में अल्पसंख्यक खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं? जद यू सत्ता में अकेला नहीं है. भाजपा के साथ इसका गठबंधन है. मुसलमान अब भी नीतीश कुमार के प्रति सशंकित हैं जो सेकुलरिज्म की बात तो करते हैं लेकिन साथ ही उस भाजपा से भी जुड़े रहते हैं जिससे अल्पसंख्यक अब भी छिटकते हैं.

देखिए, यह उस विकास का एक हिस्सा है जिसकी मैं बात करता हूं. हम इसे सर्वसमावेशी विकास कहते हैं. न्याय के साथ विकास. जब कानून-व्यवस्था स्थापित हुई तो विकास आया. ग्रोथ आई. और इसके साथ ही सर्वसमावेशी विकास आया. पिछले साल चुनाव से पहले अक्टूबर-नवंबर में हम न्याय यात्रा पर निकले थे. हमने ज्यादा बड़े वादे नहीं किए लेकिन कहा कि हम न्याय के साथ विकास देंगे. राज्य में किसी समुदाय के साथ भेदभाव नहीं होगा. इसलिए जब आप कहते हैं कि हमारा भाजपा के साथ गठबंधन है और लोगों के मन में शंका है तो हमने इस पर 2005 में अपने चुनाव अभियान में काम करने की कोशिश की थी. अल्पसंख्यकों की सोच होती है कि जो भी भाजपा के साथ जुड़ता है वह सांप्रदायिक है. उन्होंने हमसे ज्यादा अपेक्षाएं नहीं की थीं. लेकिन जब उन्होंने देखा कि हम तो सबके लिए काम कर रहे हैं, अल्पसंख्यकों के साथ-साथ अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्गों और समाज के हर वर्ग के लिए योजनाएं बना रहे हैं तो लोगों को समझ में आ गया कि यह सरकार सबके लिए है. मैं दावा कर सकता हूं कि मुझे सबका समर्थन है. हमने शून्य से शुरुआत की थी. हमें पता था कि संसाधनों का उनकी क्षमता के हिसाब से इस्तेमाल नहीं हुआ है. जब हम सत्ता में आए थे तो वित्तीय वर्ष समाप्त होने में बस तीन महीने बाकी थे, लेकिन हमारे पास चार हजार करोड़ रु का योजना आकार था. और आज हमारे पास 28,000 करोड़ रु का योजना आकार है. सड़कें बन रही हैं. पहले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ कागजों पर वजूद में थे. आज वे लाखों लोगों की सेवा कर रहे हैं. पहले औसतन 39 लोग ही एक स्वास्थ्य केंद्र की सुविधा का लाभ उठा रहे थे. आज यह आंकड़ा 9,000 हो गया है. जन स्वास्थ्य व्यवस्था फिर से बहाल हो गई है. आज अल्पसंख्यक हमारे साथ हैं. इसलिए नहीं कि हम किसके साथ चल रहे हैं बल्कि उस काम की वजह से जो हमने उनके लिए किया है.

इतना बदलाव हुआ है तो बड़े कारोबारी बिहार में निवेश क्यों नहीं कर रहे? आलोचक कहते हैं कि बिहार के विकास का बुलबुला फूट चुका है.

देखिए, निवेश एक ऐसी चीज है जो कारोबारी तब करते हैं जब उन्हें कुछ चीजों के बारे में भरोसा हो जाए. पहला मुद्दा तो बिहार में कानून-व्यवस्था का था. कानून-व्यवस्था ठीक हुई तो उन्हें लगा कि देखें यह स्थिति कितने दिन चलती है. अब हम दूसरे कार्यकाल में प्रवेश कर चुके हैं और निवेश शुरू हो चुका है. लेकिन बड़ा निवेश हमारे यहां कैसे आए? मेरा मतलब है कि हमारे पास न खनिज संसाधन हैं और न ही कच्चा माल. जमीन कहां है? आदमी के अनपात में बिहार में जमीन बहुत कम है. अभी जो स्थिति है उसके हिसाब से आबादी का घनत्व देश में सबसे ज्यादा हमारे यहां है. 94 हजार वर्ग किलोमीटर में हमारे यहां स्कूल भी हैं, उद्योग भी हैं और 10 करोड़ 38 लाख लोग भी हैं. जब बिहार का बंटवारा हुआ तो इसके हिस्से मूल इलाके की 52 फीसदी जमीन आई और 75 फीसदी जनसंख्या. हालांकि अच्छी चीज यह है कि जमीन उपजाऊ है. अगर आप झारखंड से लगती पट्टी को छोड़ दें तो हमारी 94 फीसदी जमीन उपजाऊ है. अब अगर कोई हमसे 5,000 हजार हेक्टेयर जमीन आवंटित करने को कहे जो उपजाऊ है और जिसमें इतनी जनसंख्या रहती है तो बताइए हम क्या करें? इसलिए हमारे जैसे राज्य में जो चारों तरफ से जमीन से घिरा हुआ है और जिसके पास कोई समुद्र तट नहीं है, दूसरे राज्यों की तरह बड़े-बड़े उद्योगों की उम्मीद नहीं की जा सकती. तब फिर हमसे इस सवाल के जवाब की उम्मीद कैसे की जा सकती है कि बिहार में बड़े निवेश क्यों नहीं हो रहे? बिहार में कृषि आधारित उद्योग होंगे. हमने सिंगल विंडो क्लीयरेंस के साथ एक औद्योगिक प्रोत्साहन नीति बनाई है जो उन कंपनियों की चिंताओं का समाधान करेगी जो बिहार आना चाहती हैं और यहां अपने कारखाने लगाना चाहती हैं. हम उन्हें रियायतें भी दे रहे हैं. मैंने नए आंकड़े देखे हैं और राज्य में 5,000 करोड़ रु का निवेश हो रहा है. प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. इसमें समय लगेगा. चमत्कार एक दिन में नहीं होते.

फिर बिहार से लोग अब भी दूसरे राज्यों में पलायन क्यों कर रहे हैं?

बिहार से लोग आज से नहीं कई साल से दूसरी जगहों पर पलायन करते रहे हैं. लेकिन अब उनकी संख्या में काफी कमी आई है. जो दिहाड़ी मजदूर दूसरे राज्यों में जाया करते थे, उन्होंने अब वापस बिहार आना शुरू कर दिया है. यही वजह है कि मजदूरों पर निर्भर उद्योग जैसे कि चमड़े का सामान बनाने वाली कंपनियां महाराष्ट्र से बिहार आ रही हैं.

कुछ समय पहले रणवीर सेना के ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या हो गई. वाम दलों और कांग्रेस ने आरोप लगाया कि जदयू ने रणवीर सेना को पहले इस्तेमाल किया और फिर फेंक दिया. और यह भी कि यह हत्या एक षड्यंत्र थी. मोदी और संघ ने इसे बिहार में खुल्लमखुल्ला हो रही जाति की राजनीति बताया. आप इस आलोचना पर क्या कहेंगे?

इन सारे मुद्दों की बिहार में कोई अहमियत नहीं है. एक राज्य के रूप में बिहार इन मुद्दों से आगे बढ़ चुका है. ऐसी ताकतें हमेशा रहेंगी जो चाहेंगी कि यह वापस उसी दौर में चला जाए. इसमें उनके निहित स्वार्थ हैं. लेकिन ऐसा नहीं होगा. गंगा से पानी अब ऊपर चला गया है.

क्या ऐसे बयान आपके लिए महत्व रखते हैं?

किसी बयान से फर्क नहीं पड़ता. लोगों से पड़ता है और आखिरकार विकास से फर्क पड़ता है. बिहार के लोग गलत और सही का अंतर जानते हैं. वे खोखले शब्दों पर यकीन नहीं करते. लोग कानून-व्यवस्था की स्थिति देखते हैं. लोग देखते हैं कि गलत करने वाले डीजी और कलेक्टरों की संपत्तियां राज्य में पहली बार जब्त हो रही हैं. पिछले सप्ताह, एक पूर्व डीजीपी गिरफ्तार हुए थे. मैंने सभी ब्यूरोक्रेट्स से कहा है कि वे सरकार के पास अपनी आय और संपत्तियों का ब्योरा जमा करें. पिछले साल हमने सेवा का अधिकार कानून बनाया. इसे ही हम विकास के साथ न्याय कहते हैं. केंद्र महिला आरक्षण की योजना बना रहा है. हम यह कर चुके हैं. महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने वाला बिहार देश का पहला राज्य है. पंचायत चुनाव में 50 फीसदी उम्मीदवार महिलाएं थीं. बिहार के लोग यह जानते हैं. बिहार के बाहर रहने वाले भी जानते हैं मगर ऐसा दिखाते हैं जैसे नहीं जानते. राष्ट्रीय मीडिया में यह खबर नहीं बनती. अगर कोई और राज्य होता तो मीडिया ने तारीफों के पुल बांध दिए होते. हमें देखकर दूसरे ‘विकसित’ राज्य भी इस रास्ते पर चल रहे हैं.


क्या आप इसे भाजपा-जदयू की सामूहिक सफलता कहेंगे क्योंकि दबी जुबान में कहा जा रहा है कि आप गठबंधन के प्रदर्शन का श्रेय अकेले ले रहे हैं, यह देखते हुए कि आंकड़ों के हिसाब से भाजपा ने जदयू से बेहतर प्रदर्शन किया है?

अब इस सबमें मत पड़िए. लोग जानते हैं किसकी सफलता की दर बढ़ी है. आंकड़े के विशेषज्ञों और आलोचकों के लिए आसान है कि एक कमरे में बैठिए और बात करते रहिए कि भाजपा ने जदयू से बेहतर प्रदर्शन किया है. आप सड़कों पर निकलिए, गांवों में जाइए और लोगों से मिलिए तो आपको पता चल जाएगा कि आंकड़े और लोकप्रियता क्या होती है. इनके बोलने से कुछ बदल नहीं जाएगा.

क्या यही वजह है कि नीतीश कुमार जो खुद को मैन विद अ विजन कहते हैं, राष्ट्रीय स्तर पर जाना चाहते हैं? क्या यही वजह है कि नीतीश कुमार और 2012 के राजनीतिक परिदृश्य को लेकर चर्चा बढ़ती जा रही है?

राष्ट्रीय स्तर पर जदयू का एनडीए के साथ गठबंधन है और रहेगा. जदयू एनडीए का एक अहम सहयोगी होगा मगर हम गठबंधन का नेतृत्व नहीं कर सकते. हालांकि क्षेत्रीय पार्टी के रूप में भी एक पूरे राज्य को अराजकता से बाहर निकालकर हमने अपना काम कर दिया है.

लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ऐसा नहीं सोचते. आपकी अपनी पार्टी के लोगों ने उनके विचारों का समर्थन किया है और आपको प्रधानमंत्री पद का सक्षम उम्मीदवार बताया है.

हां, मैंने उनका ब्लॉग बढ़ा है. लेकिन उन्होंने मुझे पीएम नहीं कहा है. (हंसते हैं)

हां, लेकिन उन्होंने साफ-साफ कहा है कि एक गैरकांग्रेसी, गैरभाजपाई प्रधानमंत्री की संभावना है.

ठीक बात है. उन्होंने कहा है कि संभावना है. लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि तीसरा मोर्चा एक व्यावहारिक विकल्प नहीं होगा और यह ज्यादा नहीं चल पाएगा. अब देखिए कि इस ब्लॉग के आखिर में क्या कहा गया है. ऐसा नहीं है कि वे तीसरे मोर्चे का रास्ता खोल रहे हैं. उन्होंने कहा है कि 2014 में सरकार का नेतृत्व भाजपा करेगी और भाजपा ही गठबंधन का भी नेतृत्व करेगी.

तो आप मानते हैं कि तीसरे मोर्चे की बात व्यावहारिक नहीं है.

हम आडवाणी जी के ब्लॉग पर ही बात कर रहे हैं. है न? (हंसते हैं). उन्होंने कहा है कि यह संभव है मगर ज्यादा नहीं चल पाएगा. उन्होंने इतिहास से पांच उदाहरण दिए हैं: चंद्रशेखर जी, चरण सिंह जी, देवगौड़ा जी, गुजराल जी और वीपी सिंह जी. इनमें वीपी सिंह का प्रयोग अलग था. उनका समर्थन सिर्फ भाजपा ही नहीं बल्कि वामदल भी कर रहे थे.

ये लास्ट प्वाइंट आपके फेवर में है?

अरे नहीं.

क्या आप यह कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री या तो भाजपा से होगा या कांग्रेस से?

हां, मैं यही कह रहा हूं.

मगर आप यह भी कह चुके हैं कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार धर्मनिरपेक्ष छवि का होना चाहिए.

आधार यही होगा. मैंने कहा है कि गठबंधन राजनीति के इस दौर में प्रधानमंत्री बड़ी पार्टी का होना चाहिए. हमारी मांग यह है कि प्रधानमंत्री एक ऐसा व्यक्ति हो जिसे पिछड़े वर्गों की चिंता हो—एक ऐसा व्यक्ति जो सबको साथ लेकर चले. जो पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष हो, जो हम सबको स्वीकार्य हो, जो समाज के हर वर्ग को स्वीकार्य हो, ऐसा व्यक्ति जिसकी छवि सर्वसमावेशी हो.

अगर आपने पहले ही यह साफ कर दिया था तो फिर आपने नितिन गडकरी से मिलकर उनसे यह वादा क्यों लिया कि नरेंद्र मोदी एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होंगे?

मैं नितिन गडकरी से मिलने नहीं गया था. वे मुझसे बात करना चाहते थे. हमारी उनके साथ नियमित रूप से चर्चा होती रहती है.

लेकिन उन्होंने कहा कि आप नरेंद्र मोदी को लेकर आशंकित थे.

जो भी गडकरी जी ने कहा वह मीडिया में आ चुका है. मैं फिर से किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता क्योंकि हर कोई मेरी छवि एक विवादित व्यक्ति की बनाना चाहता है. जो भी मैंने गडकरी जी या भाजपा से कहा, वह देश के हित में था; हमारे गठबंधन के हित में था. मुझे अपनी नापसंद या इच्छा बार-बार बताने की क्या जरूरत है? मेरी कुछ चिंताएं हैं जिनके बारे में मैं मानता हूं कि वे जायज हैं और वही मैंने बताई थीं.

दबी जुबान में चर्चाएं हो रही हैं कि भाजपा और जदयू की आपस में बन नहीं रही. केंद्र में ही नहीं बल्कि राज्य में भी. राज्य में भाजपा के मंत्रियों ने आपके खिलाफ बयान दिए हैं. क्या गठबंधन में टूट की कोई संभावना है?

नहीं. ऐसी संभावना नहीं है. भाजपा से मुझे जो कहना था मैं कह चुका हूं. और जो भी मैंने कहा है वह सिर्फ मेरा ही नहीं बल्कि मेरी पार्टी का भी रुख है.

तो एनडीए से प्रधानमंत्री पद केmउम्मीदवार संबंधी बयान सुनकर आपको गुस्सा नहीं आता?

नहीं, मुझे गुस्सा नहीं आता. मेरी उकसाने वाले बयान देने की आदत नहीं है. न ही ऐसे बयान मुझे उकसाते हैं. लेकिन हां, एक राजनीतिक पार्टी का नेता होने के नाते मैं अपना और अपनी पार्टी का नजरिया बताऊंगा. लोगों को उकसाने के लिए नहीं, केवल फिर से अपना यह रुख स्पष्ट करने के लिए कि हम झुकेंगे नहीं. और हां, यह बात मैं किसी व्यक्ति विशेष के संदर्भ में नहीं कह रहा हूं चाहे वह कोई भी हो.

पिछले कुछ समय से यूपीए के प्रमुख सहयोगियों में एक मोहभंग की स्थिति है. ममता बनर्जी सहयोगियों को सम्मान देने की बात कह रही हैं. शरद पवार ने भी पिछले दिनों तहलका से बात करते हुए कुछ इसी तरह की भावनाएं व्यक्त कीं. क्या आपको भी कुछ ऐसा लगता है खासकर तब जब एनडीए और यूपीए दोनों में ही काफी उलट-पुलट हो रही है?

शरद पवार और ममता बनर्जी दोनों ही यूपीए के अहम सहयोगी हैं. जिस तरह से यूपीए चल रहा हंै, उससे साफ लगता है कि आपसी भरोसे की कमी हो गई है. इसलिए सहयोगी इस तरह की प्रतिक्रिया दे रहे हैं. वहां घमंड है और कांग्रेस शुरुआत से ऐसा व्यवहार कर रही है जैसे उसे पूर्ण बहुमत मिला हो. उनके पास सिर्फ 200 सीटें हैं. उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे गठबंधन को एकजुट रख रहे हैं. अगर सरकार में कोई समन्वय नहीं होगा तो ऐसा होना ही है. आप नेताओं को नाराज करेंगे और वे असंतुष्ट होंगे. वे आपके सहयोगी हैं और आपको सहयोगियों और उनके विचारों को साथ लेकर चलना होता है.

आपने प्रणब मुखर्जी का समर्थन क्यों किया?

क्या हमारे पास कोई विकल्प था? पहली बात तो यह है कि हम प्रणब मुखर्जी का सम्मान करते हैं. उनका कद बहुत ऊंचा है. वे कांग्रेस पार्टी की पहली पसंद नहीं थे. वहां कई मुद्दे थे. जदयू राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार पर कोई विवाद नहीं चाहता था. यह एक गरिमा का पद है. हमें एक आम सहमति के साथ जाना चाहिए था. कांग्रेस ने भी गलती की. कोई उम्मीदवार तय करने से पहले उन्हें सभी पार्टियों के साथ बात करनी चाहिए थी. लेकिन हमने सोचा कि ठीक है. कम से कम उन्होंने उम्मीदवार तय करने के बाद तो हमसे बात की. दूसरी बात यह है कि नतीजा सबको पता था. हमें मालूम था कि चुनाव कौन जीत रहा है. तो फिर अलग क्यों जाना? भाजपा का अपना कोई उम्मीदवार नहीं था. पीए संगमा भाजपा के नहीं थे. हम इस नाम की लड़ाई का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे. अगर यह प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ी ही जानी थी तो मेरा मानना है कि भाजपा से कोई उम्मीदवार होना चाहिए था. प्रणब बाबू एक योग्य उम्मीदवार थे.

भाजपा और इसके सहयोगियों के बीच भी तो कोई खास समन्वय नहीं है. यूपीए से ज्यादा आपके सांसद और प्रवक्ता भाजपा के खिलाफ बयान देते हैं. हाल ही में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के मसले पर तो आपने एनडीए को लगभग बंधक बनाकर रखा.

जैसा कि मैंने पहले भी कहा, इस मांग में कुछ भी गलत नहीं है कि हम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का एलान करने के बाद ही चुनाव में उतरें. इससे जनता का मूड अपने पक्ष में करने में मदद मिलती है. अगर एनडीए अभी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का एलान कर देता है तो इससे उसे फायदा होगा. एनडीए इसी तरह चलता रहा है. वाजपेयी जी ने सभी सहयोगियों को इकट्ठा करके रखा. समन्वय बैठकें होती थीं और सभी अटल जी के कहे पर यकीन करते थे.

लेकिन अब कमान अटल जी के हाथ में नहीं है.

अभी हम सत्ता में नहीं हैं, लेकिन हम कोशिश कर रहे हैं कि गठबंधन काम करे. देखते हैं.

चाहे वह लोकपाल का मुद्दा हो या बाबा रामदेव का, भाजपा खुद भी बंटी हुई दिखती है. आपका क्या रुख है? आपकी पार्टी के अध्यक्ष शरद यादव मंच पर रामदेव के साथ मौजूद थे.

यह शरद यादव और जदयू का फैसला था. और हम लोकपाल या काला धन वापस लाने के खिलाफ नहीं हैं. बिहार में हमारे पास एक बढ़िया लोकायुक्त है और इसकी चयन प्रक्रिया में मुख्यमंत्री की भूमिका नहीं होती. हमें एक मजबूत लोकपाल की जरूरत है. यह सबका अधिकार है. इसलिए जब तक अन्ना और रामदेव सही भावना के साथ यह काम करते हैं, इसमें कोई नुकसान नहीं है. मैं उनके व्यक्तिगत स्वार्थों और एजेंडों पर टिप्पणी नहीं करूंगा. और ईमानदारी से कहूं तो इसकी बजाय मैं बिहार पर ध्यान केंद्रित करूंगा. मुझे लगता है कि हमने जो व्यवस्था यहां बनाई है वह एक उदाहरण है. यह अलग बात है कि मैं हर दिन मीडिया में इसका ढोल नहीं पीटता. यह मेरा चरित्र नहीं है. मुझे यह सब नहीं आता. दूसरे ऐसा कर सकते हैं.

जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मोहन भागवत को लगता है कि बिहार गुजरात से आगे है?

(हंसते हैं) अब हम क्या कहें, उनकी राय है.