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चैनलों का ' दरिद्र ' लोकतंत्र

न्यूज चैनलों की चर्चाओं और बहसों में दिलचस्पी जगजाहिर है. आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजी और हिंदी के अधिकांश न्यूज चैनलों पर चर्चाओं और बहसों के नियमित दैनिक कार्यक्रम हैं. इन कार्यक्रमों के महत्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि अधिकांश चैनलों पर रात को प्राइम टाइम पर ये चर्चाएं और बहसें होती हैं. कहने को इन दैनिक चर्चाओं में उस दिन के सबसे महत्वपूर्ण खबर/घटनाक्रम पर चर्चा होती है, लेकिन आम तौर पर यह चैनल की पसंद होती है कि वह किस विषय पर प्राइम टाइम चर्चा करना चाहता है.

इन चर्चाओं में देश में सक्रिय राजनीतिक-वैचारिक धाराओं की विविधता और बहुलता नहीं दिखाई पड़ती

हालांकि इन चर्चाओं/बहसों में ज्यादातर मौकों पर ‘तू-तू, मैं-मैं’ या शोर-शराबा ही होता है और भले ही अक्सर उनसे कुछ खास निकलता नहीं दिखता है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतंत्र में ये चर्चाएं कई कारणों से महत्वपूर्ण होती हैं. ये न सिर्फ दर्शकों को घटनाओं/मुद्दों के बारे में जागरूक करती हैं और जनमत तैयार करती हैं बल्कि लोकतंत्र में वाद-संवाद और विचार-विमर्श के लिए मंच भी मुहैया कराती हैं.

लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही बड़ा सच है कि लोकतांत्रिक समाजों में मीडिया खासकर न्यूज मीडिया इन चर्चाओं और बहसों के जरिए ही कुछ घटनाओं और मुद्दों को आगे बढ़ाते हैं और उन्हें राष्ट्रीय/क्षेत्रीय एजेंडे पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं. मीडिया का एजेंडा सेटिंग सिद्धांत यह कहता है कि समाचार मीडिया कुछ घटनाओं/मुद्दों को अधिक और कुछ को कम कवरेज देकर लोकतांत्रिक समाजों में राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक बहसों/चर्चाओं का एजेंडा तय करता है. इस तरह वह देश-समाज की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक प्राथमिकताओं का भी एजेंडा तय कर देता है.  

जाहिर है कि इस कारण इन चर्चाओं का राजनीतिक महत्व बहुत बढ़ जाता है. मीडिया खासकर चैनलों के विस्तार और बढ़ती पहुंच के साथ राजनीति ज्यादा से ज्यादा माध्यमीकृत (मेडीएटेड) होती जा रही है. चैनल प्रदर्शन के एक ऐसे मंच के रूप में उभर रहे हैं जहां सुबह-दोपहर और खासकर शाम और रात में प्रदर्शनात्मक राजनीति को खुलकर अपना जलवा दिखाने का मौका मिलता है. सरकार, बड़े राजनीतिक दल और कॉरपोरेट समूह यह खूब समझते हैं. यही कारण है कि वे न सिर्फ इन चर्चाओं को गंभीरता से लेते हैं बल्कि इन चर्चाओं को अपने अनुकूल मोड़ने और प्रतिकूल परिस्थितियों की भी अपने मुताबिक व्याख्या करने के लिए तेजतर्रार प्रवक्ताओं को उतारते हैं जिनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे सरकार/पार्टी/कॉरपोरेट समूह के पक्ष में जनमत बनाने के लिए तथ्यों/तर्कों/विचारों को ‘स्पिन’ कराने में माहिर होते हैं. पीआर के विशेषज्ञ इन प्रवक्ताओं को उनकी इस खूबी के कारण स्पिन डॉक्टर भी कहा जाता है जिनकी आजकल खूब मांग है. चैनलों के चलते उनकी आजकल एक बड़ी जमात पैदा हो गई है जिनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे चैनलों की चर्चाओं में चर्चा को घुमाने के उस्ताद हैं. खासकर राजनीतिक दलों में ऐसे बहुतेरे नेता पैदा हो गए हैं जिनकी अपनी कोई राजनीतिक जमीन नहीं है या जिन्होंने जमीन पर कोई राजनीति नहीं की है लेकिन दैनिक प्रेस ब्रीफिंग और टीवी चर्चाओं/बहसों में हिस्सा लेकर वे अपनी-अपनी पार्टियों में बड़े नेता बन गए हैं.

लेकिन ऐसा लगता है कि खुद चैनल अपनी बहसों/चर्चाओं के कार्यक्रमों को बहुत महत्व नहीं देते, सिवाय इस बात के कि ये कार्यक्रम चैनल के सबसे कम खर्च में तैयार होने वाले कार्यक्रम होते हैं और उसका अच्छा-खासा एयर टाइम भर देते हैं. एक तो अधिकांश चैनलों में इन चर्चाओं के एंकर तैयारी करके नहीं आते. सवालों और टिप्पणियों में समझ तो दूर की बात है, सामान्य जानकारी का भी अभाव दिखाई देता है. अक्सर सवाल अटपटे और चलताऊ किस्म के होते हैं. लगता है कि जैसे किसी तरह से टाइम पास किया जा रहा है. यही नहीं, इन चर्चाओं/बहसों में अतिथि भी जाने-पहचाने और उनके उत्तर/टिप्पणियां भी पूर्व निश्चित होते हैं.

इन कारणों से ये चर्चाएं धीरे-धीरे एक दैनिक रुटीन में बदल गई हैं. इनसे इनमें बोरियत भी बढ़ती जा रही है. हालांकि कई बार इन चर्चाओं की बोरियत को खत्म करने के लिए सुनियोजित तरीके से गर्मी पैदा करने की भी कोशिश होती है, लेकिन वह गर्मी वैचारिक रूप से बिना किसी उत्तेजक अंतर्वस्तु के वास्तव में एक पूर्वनिश्चित नाटक में बदल जाती है. इसकी वजह यह है कि इन चर्चाओं/बहसों का वैचारिक दायरा इतना सीमित और संकीर्ण होता है कि उसमें देश में सक्रिय राजनीतिक-वैचारिक धाराओं की विविधता और बहुलता नहीं दिखाई पड़ती. आश्चर्य नहीं कि महत्वपूर्ण राजनीतिक चर्चाओं में कांग्रेस और भाजपा और बहुत हुआ तो कभी-कभार सरकारी लेफ्ट को पैनल में बुला लिया जाता है. आतंकवाद और सुरक्षा मामलों पर होने वाली चर्चाओं में आक्रामक सैन्य जनरलों की तूती बोलती है.  इसी तरह, आर्थिक मुद्दों पर चर्चा में नव उदारवादी विशेषज्ञों की भरमार होती है. इससे काफी हद तक चैनलों के राजनीतिक-वैचारिक झुकाव का पता चलता है. लेकिन इससे यह भी दिख जाता है कि चैनलों का लोकतंत्र कितना सीमित, संकीर्ण और दरिद्र है. 

माहवारी के दिन कठिन दिन नहीं हैं

चिकित्सा तथा स्वास्थ्य का संसार बहुत सारी गलतफहमियों और अफवाहों का शिकार रहा है. इसी के चलते बहुत-से नीम हकीमों की दुकानदारी चलती है, झाड़-फूंक वाले बाबाओं-देवताओं की हलवापूरी चलती है और अवैज्ञानिक चमत्कारी दवाइयों का बड़ा बाजार भी चलता है. मिर्गी, दमा, मनोरोगों से लगाकर गुप्तरोग तथा अनेकानेक स्त्री रोगों के इलाज का बड़ा चोर बाजार इसी के चलते खूब चल रहा है. खैर, उसकी बात क्या करूं. इसी तरह की कुछ गलतफहमियों की जरूरी बात करूंगा. आज मैं आपको स्त्री की माहवारी (मेन्स्ट्रयेशन) या रजस्वला होने के बारे में फैली गलतफहमियों तथा अज्ञान के बारे में बताऊंगा. सही बात क्या है, यह तो बताऊंगा ही.

माहवारी होना स्त्री की विलक्षण शारीरिक बनावट का हिस्सा है. दुर्भाग्यवश, मीडिया, विज्ञान जगत तथा समाज ने माहवारी वाले दिनों को ‘स्त्री के वे कठिन दिन’ मानकर ही चर्चित किया है. इसके विपरीत वास्तव में तो माहवारी का आना तो ईश्वर द्वारा स्त्री को मातृत्व का वरदान देने का द्योतक है. मां बनना और मातृत्व की क्षमता स्त्री का ऐसा गुण है जिसे प्रायः पुरुष समझ ही नहीं पाते. मां बन सकने की यह क्षमता स्त्री में बहुत-से हार्मोनों के प्रभाव, अंडाशय से हर माहवारी के बीच गर्भारोपण की तैयारी के लिए अंडा निकलने, तथा इन सबके प्रभाव में गर्भाशय (बच्चेदानी) की झिल्ली के तैयार होने की कहानी है.

‘माहवारी का आना तो ईश्वर द्वारा स्त्री को मातृत्व का वरदान देने का द्योतक है’

माहवारी होना स्त्री के जीवन में स्वास्थ्य की निशानी है. मस्तिष्क में स्थित पिट्यूटरी ग्रंथि इस सारे तामझाम की बॉस टाइप है. उसके द्वारा ही ईस्ट्रोसन, प्रोजेस्टेरोन आदि हार्मोनों का बनना कंट्रोल होता है. फिर आता है अंडाशय. यहां अंडा बनता है और हर माह बच्चेदानी के अंदर तक पहुंचता है. वहां जाकर यह बच्चेदानी के अंदर की झिल्ली पर बिराजकर शुक्राणु या स्पर्म की प्रतीक्षा करता है. यदि कभी स्पर्म आया और अंडे से मिल पाया तो गर्भ ठहर जाएगा. प्रायः ऐसा नहीं होगा. तब? उस स्थिति मंे गर्भधारण के लिए जो तैयारी हर माह होती है वह बेकार चली जाती है. तब हार्मोनों के प्रभाव में तैयार हुई झिल्ली बच्चेदानी से निकल जाती है. बच्चेदानी की लाइनिंग का टूटकर निकलना ही माहवारी है.

 माहवारी खत्म होने के बाद शरीर फिर से अगले माह बच्चेदानी की झिल्ली तैयार करेगा. फिर हार्मोन काम करेंगे. फिर गर्भधारण होने के तैयारियां महीने भर तक चलेंगी. फिर कुछ नहीं हुआ तो फिर सारी तैयारियों को नेस्तनाबूद करके माहवारी द्वारा बच्चेदानी (गर्भाशय) को अगली साइकिल या चक्र के लिये साफ कर दिया जाएगा. और यह सिलसिला चलता रहेगा. यही स्वस्थ नारी की निशानी भी है. नियमित माहवारी से पता चलता है कि सब ठीक चल रहा है.

जीवन में पहली बार माहवारी के शुरू होने को हम मेनार्के कहते हैं. बच्ची जब किशोरी हो रही है, तब तेरह-चौदह वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते माहवारी शुरू होती है. शुरू में यह अनियमित-सी हो, कम-ज्यादा हो, या दर्द के साथ हो तो बच्ची को समझाएं कि यह सब शीघ्र ही नॉर्मल हो जाएगा. ऐसा भी संभव है कि बिटिया को शुरुआत में तो माहवारी ठीक रही पर दो-तीन वर्ष बाद कुछ माहवारियों में दर्द होने लगा. क्या कुछ गड़बड़ हो रही है? नहीं, यह तो इस बात का लक्षण है कि अब उसकी ओव्हरी अंडा बना रही है. यह शुभ लक्षण है. आपकी बेटी पूर्ण स्वस्थ है और भविष्य में शादी के बाद आराम से मां बन सकेगी. इसलिए बच्ची को डरायें न. मां का दायित्व है कि बिटिया के मन में माहवारी के प्रति भय का भाव न पैदा कर दें. बहुत-सी मांएं इन दिनों में बच्ची को स्कूल नहीं जाने देतीं, आराम करने को कहती हैं. यह गलत है. बच्ची को समझने दें कि यह सब एकदम सामान्य-सी बात है. ये ‘कठिन दिन’ नहीं हैं. यह उसके नाॅर्मल स्वास्थ्य की निशानी है – ऐसा समझाएं.

 जितनी गलतफहमियां और बेकार के भय मेनार्के को लेकर हैं, उससे ज्यादा मेनोपॉज को लेकर हैं. वैसे मेनोपॉज के आसपास स्त्री को बहुत-से ऐसे लक्षण आ सकते हैं जो उसे परेशान करें- मानसिक भी, शारीरिक भी. अचानक ही उसे लगने लगे कि उसके स्त्रीत्व में अधूरापन पैदा हो गया है क्योंकि माहवारी बंद हो गई है. असुरक्षा का भाव. अपनी पहचान खो जाने का डर. बूढ़ी होने की चिंता. और बहुत-सी शारीरिक चीजें भी. जांचें करो तो डाॅक्टर कहे कि आपकी सारी जांचें ठीक हैं. मेनोपॉज होने के करीब पहुंचो तो शुरू में माहवारी कई माह के लिए अनियमित भी हो सकती है. कम आने लगे. देर से आये. फिर वह बंद हो जाती है. पर इसे मेनोपॉज तभी कहेंगे जब लगातार एक साल तक माहवारी न आए. मेनोपॉज के आसपास स्त्री को पति तथा परिवार का बहुत मानसिक सहारा चाहिए. उसे समझें. उसे आश्वस्त किया जाए. अनार तथा साोयाबीन में बहुत ‘एंटीऑक्सीडेंट’ होते हैं. अनार खिलाएं. दस किलो गेहूं के आटे में एक किलो सोयाबीन मिलाकर उसकी रोटियां खाने को दें. मेनोपॉज के बाद हड्डियां ऑस्टोपोरोहिरस के कारण कमजोर हो सकती हैं. कैल्शियम दें. विटामिन डी दें. डॉक्टर से बात करके यह सब तो करें पर मेनोपॉज को भी जीवन का एक पड़ाव ही मानें. इसे सहज स्वीकारें. हां, यह अवश्य याद रखें कि मेनोपॉज के बाद यदि कभी भी, थोड़ी भी माहवारी जैसी या कोई भी ब्लीडिंग हो, रक्तस्राव हो – तुरंत डाॅक्टर से मिलें. मेनोपॉज के बाद जरा सा भी, एक बार भी ब्लीडिंग होना कतई सामान्य बात नहीं है. ऐसा हो तो तुरंत अपनी जांच कराएं. इसे बिलकुल भी नजरअंदाज न करें. 

सब पर 'भारी'

राम कपूर बड़े दिल वाले हैं;  वे अपने दोस्तों को सब कुछ दे सकते हैं, बस अपने कपड़े छोड़कर क्योंकि वे उन्हें फिट नहीं आएंगे. राम कपूर को साहसिक खेल पसंद हैं और उनके दोस्त उनके लिए एक ठीक-ठाक मजबूत रस्सी ढूंढ़ रहे हैं ताकि वे बंजी जंपिंग का लुत्फ उठा सकें. तर्क देकर सामने वाले को हराने में उनका कोई सानी नहीं; खासकर तब जब वे सामने वाले को यह धमकी दे दें कि यदि वह उनकी बात नहीं मानेगा तो वे उस पर बैठ जाएंगे…ये कुछ मजेदार किस्से और चुटकुले हैं जो खुद राम, उनके करीबी दोस्तों या परिवार के सदस्यों ने उनके बारे में फैलाए हैं.

‘यदि आप अपने भीतर की असुरक्षाओं को अभिनय में ला पाए तो यह आपको बेहतर अभिनेता बना देता है’

हम मुंबई के अंधेरी में स्थित बालाजी स्टूडियो के सामने हैं और वहीं वैनिटी वैन से निकलते हुए राम कपूर से हमारी मुलाकात होती है. बिजनेस सूट पहने हुए यह कलाकार इस समय टीवी सीरियल बड़े अच्छे लगते हैं के अपने कॉस्ट्यूम में हैं. इसके पहले एकता कपूर के सीरियल कविता  में भी राम कुछ इसी रूप में नजर आए थे. एकता के ही एक और सीरियल कसम से में उनका जय वालिया का किरदार बड़े अच्छे लगते हैं के राम कपूर से मिलता-जुलता था. बड़े अच्छे लगते हैं में उनकी सह कलाकार साक्षी तंवर कहती हैं कि महिला दर्शक राम को आदर्श पति मानती हैं- दौलतमंद, ताकतवर और ख्याल रखने वाला.

वैनिटी वैन के बाहर ही एक बुजुर्ग अपनी पोती के साथ कपूर का इंतजार कर रहे हैं. उनकी पांच साल की छुटकी इस भारी-भरकम कलाकार की फैन है. वह यहां कपूर के साथ फोटो खिंचवाने आई है. इसी समय एक ट्रैफिक हवलदार भी आता है और कपूर से कहता है कि वह अपने परिवार के साथ रोज बड़े अच्छे… देखता है. कपूर उसकी बात पर हंसते हैं और कहते हैं कि उन्हें लगा वह उन्हें गिरफ्तार करने आया है.

यह एक लाइन ही इस कलाकार को पर्दे के इतर परिभाषित करने के लिए काफी है. राम खुद को गंभीरता से लेना नहीं चाहते. वे कहते हैं, ‘जिंदगी में यह बहुत जरूरी है कि आप अपना मजाक उड़ाएं.’ उन्होंने बड़े अच्छे… के लेखकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया था कि वे सीरियल में उनके वजन का मजाक उड़ाने वाली परिस्थितियां बनाने में कोई कोर-कसर न छोड़ें. वे बताते हैं, ‘लेखक जितनी बेशर्मी से लिखेंगे, मैं उतनी ही बेशर्मी से उस सीन में एेक्टिंग करूंगा. 38 साल के कपूर चिकने-चुपड़े चेहरे और सिक्स पैक वाले अभिनेताओं के बीच ताजगी की तरह हैं. असल जिंदगी में दो बच्चों का पिता यह अभिनेता अभी बड़े अच्छे… में नया शादीशुदा बना है. इस भूमिका में तीन महीनों के दौरान ही कपूर छोटे पर्दे के पुरुष अभिनेताओं में सबसे पसंदीदा किरदार बन चुके हैं. फिल्म उड़ान में एक सहयोगी कलाकार की भूमिका के बाद कपूर को फिल्मों में कई अच्छी भूमिकाएं मिली हैं. एजेंट विनोद वे एक तड़क-भड़क वाले विलेन बने हैं तो करन जौहर की एक मैं और एक तू में वे कॉमेडी करते दिखेंगे, इसके अलावा स्टूडेंट ऑफ द ईयर में वे अपनी पत्नी गौतमी के साथ पूरे आठ साल बाद अभिनय कर रहे हैं.  

गौतमी के लिए उनके पति एक थुलथुल शरीर वाले औसत भारतीय पुरुष हैं. दस साल पहले एक सीरियल घर एक मंदिर के सेट पर गौतमी की मुलाकात कपूर से हुई थी. वहीं से दोनों के बीच आकर्षण शुरू हुआ. गौतमी कहती हैं, ‘महिलाएं उनके साथ सुरक्षित महसूस करती हैं. उनमें कोई बनावटीपन नहीं है, वे आसानी से लोगों के दिल में जगह बना लेते हैं.’ शायद यही वजह है कि अकसर ट्रैफिक सिग्नल पर महिलाएं उनका पीछा करती हैं, उन्हें अपना नंबर देती हैं और कई बार तो अपनी फोटो के साथ शादी का प्रस्ताव भेज देती हैं.

एक मामले में राम कपूर बिलकुल परंपरागत भारतीय पुरुष हैं. जैसे सिगरेट पीना. सिगरेट पीते हुए वे सरसरी निगाह में एक पेज का स्क्रीनप्ले पढ़ जाते हैं और लगभग एक मिनट में ही उसे दिमाग में भी बैठा लेते हैं. एक दिन में तकरीबन 40 सिगरेट फूंक देने वाला यह अभिनेता आपको इस दौरान कई-कई तरह के लहजे में संवाद बोलकर बताता है (वे रूसी के साथ-साथ ब्रिटेन में बोली जाने वाली तरह-तरह की अंग्रेजी के लहजे में बात कर सकते हैं). अपनी कमियों पर राम कहते हैं, ‘अभिनेता के तौर पर आपको पूरी तरह से खुद को स्वीकार करना पड़ता है. यदि आप अपनी असुरक्षाओं को अभिनय में ला पाए तो यह आपको बेहतर अभिनेता बना देता है.’

वे वजन घटाने ( हंसते हुए वे बढ़े हुए वजन के लिए कपूर परिवार के खानदानी गुणों को जिम्मेदार बताते हैं) की एक लंबी लेकिन हारी हुई लड़ाई पर बात करते हुए कहते हैं कि एक समय था जब उनके भी सिक्सपैक थे और शादी के समय उनकी पत्नी यह मानकर चल रही थी कि वह एक दुबले-पतले आदमी से शादी कर रही है. शादी के बाद उनका वजन बढ़ना शुरू हुआ और कपूर की मानें तो बढ़ते वजन के साथ ही उनका करियर भी उसी तेजी से आगे बढ़ने लगा. आज वे डरते हैं कि यदि उन्होंने वजन घटाने की कोशिश की तो उनका करियर ढलान पर आने लगेगा. वे अभिनय जगत के इक्का-दुक्का खुशकिस्मत लोगों में से हैं जो जिम नहीं जाते और जैसा मन करे वैसा खाना खाते हैं.

फिल्म उड़ान के निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी को राम के इस रवैये से एतराज है. वे कहते हैं, ‘ उनके डीलडौल की वजह से उन्हें कुछ खास भूमिकाएं ही दी जाती हैं. यह नहीं होना चाहिए क्योंकि वे कमाल के अभिनेता हैं. फिल्म उड़ान में मेरा सबसे पसंदीदा दृश्य वह है जिसमें रोहन घर से भागकर अपने अंकल (राम) की ओर जाता है. यहां आप उनके चेहरे पर सारे भाव- खुशी, दुख, निराशा, पश्चाताप.. एक साथ देख सकते हैं.’ एजेंट विनोद के निर्देशक श्रीराम राघवन कहते हैं, ‘ वे एक मंझे हुए और असली अभिनेता हंै.’
एक धनी बिजनेसमैन की भूमिका में अभी तक बेहद सहजता से स्वीकार किए जाने की एक वजह शायद यह हो सकती है कि राम कपूर खुद एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते हैं. उनके पिता, रंजन कपूर विज्ञापन की दुनिया का जाना-माना नाम थे और वे अपने बेटे को काॅरपोरेट की दुनिया में ही राज करते हुए देखना चाहते थे. लेकिन नामी-गिरामी शेरवुड कॉलेज के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते हुए कपूर ने एक बार राजा हुसैन के एक नाटक में काम किया और यह अनुभव अभिनय से उनका स्थायी जुड़ाव साबित हुआ. इसके बाद वे मेथड एेक्टिंग की पढ़ाई करने लॉस एंजिल्स के स्टानिस्लाव्सकी कॉलेज ऑफ एेक्टिंग चले गए. हर आदमी की जिंदगी में आने वाला संघर्ष का पहला दौर उन्हें यहां देखना पड़ा. पहली कोशिश में उन्हें दाखिला नहीं मिला. फिर  एक साल तक उन्होंने छोटी-मोटी नौकरियां कीं. एक साल के बाद फिर राम ने कोशिश की और उन्हें कॉलेज में प्रवेश मिल गया. दो साल बाद वे अपनी कक्षा के उन 22 में से आठ छात्रों में से थे जिन्हें स्नातक की डिग्री मिली थी. अपने कॉलेज के दिनों की पढ़ाई के बारे में बात करते हुए वे कहते हैं, ‘ मेथड एेक्टिंग के इस कालेज में पढ़ाई बिलकुल ऐसी ही थी जैसे भावनाएं सिखाने के लिए आपकी कमांडो ट्रेनिंग हो रही हो.’

मुंबई आने के बाद सबसे पहले उन्हें सुधीर मिश्रा के टीवी सीरियल न्याय (1997) में काम करने का मौका मिला. उसके बाद उन्होंने घर एक मंदिर (2000) में काम किया. इस बीच सुधीर की ही चर्चित फिल्म हजारों ख्वाहिशें ऐसी में उन्हें एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका मिली. 2005 में रिलीज हुई फिल्म काल में भी उन्होंने काम किया है. इसके बाद राम की जिंदगी में संघर्ष का दूसरा दौर शुरू हुआ जब पूरे दो साल तक वे खाली बैठे रहे. इस समय वे बॉलीवुड में बड़ी भूमिकाओं की तलाश में थे. आखिर में उन्होंने छोटे पर्दे पर फिर से आना स्वीकार किया और 2006 में एकता कपूर के सीरियल कसम से के लिए मुख्य किरदार की भूमिका निभाई.

यदि टीवी पर कोई सफलतम कलाकार का दर्जा होता है तो आज राम कपूर इसी पर हैं. इस समय अकसर फिल्म निर्माता उनसे फिल्मों में खास भूमिकाओं के प्रस्ताव लेकर मिलते रहते हैं. रोजाना आने वाले टीवी सीरियलों में सुबह चार बजे तक काम की शिफ्ट और फिल्मों की भूमिकाएं उन्हें उनके एक और शौक के लिए काफी कम वक्त छोड़ती हैं और वह है हॉलीवुड. हॉलीवुड के बारे में बारीक से बारीक बातों की जानकारी रखने वाले राम आपको तुरंत यह बता सकते हैं कि अमेरिकन ब्यूटी के लिए अकेडमी अवार्ड जीतने वाले केविन स्पेसी कितने सालों तक वेटर रहे या हॉलीवुड के जाने-माने अभिनेता डस्टिन हॉफमेन ने किस कॉलेज में पढ़ाई की है. और यहां खास बात यह है कि हर सवाल का जवाब एक कहानी के रूप में होता है.

कैमरे के सामने राम कपूर एक गंभीर अभिनेता हैं, जहां वे तर्करहित दुनिया और औसत अभिनय करने वालों की दुनिया का हिस्सा हैं. इसके अलावा जब वे एेक्टिंग नहीं कर रहे होते तब भी आप उनकी बातों में अपने काम से जुड़ा जुनून महसूस कर सकते हैं. हालांकि वे खुद अपने बारे में यह स्वीकार करते हैं कि उनके दोस्त और परिवार के सदस्य उनके सीरियलों के टारगेट ऑडियंस नहीं हैं. वे कहते हैं,  ‘मेरी निजी और पेशेवर जिंदगी बिलकुल जुदा है. मैं हमेशा कोशिश करता हूं कि मेरी निजी जिंदगी में कभी बोझिल पल न आ पाएं और मैं इस बात से भी खुश हूं कि यही मैं टीवी पर भी कर पाता हूं.’ यही वजह है कि एक बार जब एक निर्देशक ने उनसे एक सीरियल में भारतीय टीवी निर्देशकों के पसंदीदा शॉट- चेहरे को तीन बार अलग-अलग दिखाने की बात कही तो उन्होंने उस निर्देशक को सीधे अपना रास्ता नापने के लिए कह दिया था. 

वह पांचवां दोस्त चला गया

1993 में जब मैं अपने दोस्तों के साथ रांची छोड़कर दिल्ली आया तो पांडवनगर में पहले माले पर बना दो छोटे-छोटे कमरों का एक घर हमारा पहला ठिकाना बना. अपने बहुत कम असबाब के साथ हम चार लड़के- मैं, राजेश प्रियदर्शी, संजय लाल और मंजुल प्रकाश उस घर में एक साथ रहा करते थे. मंजुल प्रकाश अपने साथ अपना टेप रेकॉर्डर भी लाया था जिसने हमें हमारा पांचवां दोस्त दिया- जगजीत सिंह. उस अजनबी शहर के संघर्ष भरे दिनों में जगजीत सिंह की गजलों के साथ हमारी सुबहें भी शुरू होतीं और शामें भी ढलतीं. ‘तेरा शहर कितना अजीब है, न कोई दोस्त है न रकीब है’- अक्सर हमें लगता कि जगजीत तो सिर्फ हमारे लिए गा रहे हैं. आम तौर पर बड़ी लापरवाही से अपना सामान रखने वाला मंजुल जगजीत सिंह के कैसेट बहुत संभाल कर रखता था और साहित्य से नाक भौं सिकोड़ने वाला रिश्ता रखने के बावजूद जगजीत सिंह की वजह से मेरे साथ विश्व पुस्तक मेले में जाकर गालिब का दीवान खरीद लाया था.

जगजीत सिंह की आवाज अचानक शब्दों को एक तरह की वैधता और सुरों को एक तरह की वास्तविकता दे डालती थी

हालांकि जगजीत सिंह के गायन से यह मेरा पहला परिचय नहीं था. शायद यह अस्सी का दशक रहा होगा जब पहली बार एक गैरफिल्मी गीत सुनकर मेरे पांव थम गए थे- ‘दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है.’ निदा फाजली की निहायत मानीखेज पंक्तियों को एक उतनी ही तल्लीन और गहरी आवाज गा रही थी. जिंदगी की पहेली को समझने की कोशिश में राग और विराग के बीच बना जो सूफियाना अंदाज होता है वह इस आवाज में जैसे न जाने कितनी रंगतों के साथ खुल रहा था. शायद इसी के आसपास मेरे किशोर दिनों को एक और गीत ने अपने से बांध लिया- ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी.‘ ये वे दिन थे जब हमारी आवाज भारी हो रही थी, चेहरे सख्त हो रहे थे, नई आती दाढ़ी-मूंछ का नुकीलापन अपनी ही निगाह में चुभता था और किसी कोमलता, किसी मासूमियत के पीछे छूट जाने का अनजाना-सा एहसास एक अनजानी उदासी भरता था. इसके बीच आए इस गीत ने जैसे एक मरहम का काम किया, एक मीठी हूक का, जो तब नहीं मालूम था कि ताउम्र बनी रहेगी और जगजीत सिंह को हमारे लिए जरूरी बनाए रखेगी.

इन्हीं दिनों दो फिल्मी गीत भी फिज़ाओं में गूंजने लगे- एक तो फिल्म `प्रेम गीत’ का `होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो.’ और दूसरा, `साथ-साथ’ का `ये तेरा घर ये मेरा घर, ये घर बड़ा हसीन है.’ अब सोचता हूं कि कई यादगार गीतों से भरी फिल्मी दुनिया के बीच ऐसा क्या था इन दोनों गानों में जिन्हें हम आज तक याद रखते हैं. न उम्र की सीमा हो और न जन्म का बंधन हो- ऐसी कामना करने वाले गीत तो हमारे यहां हजारों में हैं. दरअसल यह जगजीत सिंह की आवाज थी जो अचानक शब्दों को एक तरह की वैधता, सुरों को एक तरह की वास्तविकता दे डालती थी. उन्हें सुनते हुए अचानक जैसे पूरा माहौल असली हो उठता था, कामनाएं प्राप्य मालूम पड़ती थीं और गीत अपने सही अर्थ के साथ खुलता था. 

कह सकते हैं कि यह भी कोई अनूठी बात नहीं थी. फिल्मी दुनिया में हमारे पास कई अनूठी और चित्र बनाने वाली आवाजें रहीं. कुंदनलाल सहगल, मोहम्मद रफी, मुकेश, किशोर कुमार, हेमंत कुमार, तलत महमूद, मन्ना डे, महेंद्र कपूर से लेकर लता मंगेशकर, आशा भोसले और कई दूसरे कलाकार तक अपने गायन से स्थितियों को बिल्कुल वास्तविक-दुख को बिल्कुल रोता हुआ, सुख को बिल्कुल हंसता हुआ, उदासी को बिल्कुल ड़ूबा हुआ और उल्लास को बिल्कुल उड़ता हुआ- बना डालते थे. फिर जगजीत सिंह अलग से- और वह भी फिल्मी संगीत की संपन्न दुनिया से बाहर- क्यों इतने बड़े हुए?

इस बात को समझने के लिए 70 और 80 के दशकों के उस दौर को समझना होगा जब हिंदी फिल्मों का संगीत अपनी कर्णप्रियता को छोड़ एक तरह के शोर और कोलाहल में बदल रहा था. निश्चय ही इसके अपवाद थे, लेकिन अचानक फिल्मी गीतों में एक तरह की स्थूलता चली आई थी- उनमें न संवेदना की गहराई रह गई थी, न स्मृति का विलास. एक तात्कालिक थिरकन और गूंज थी जो बस तब तक बनी रहती थी जब तक गीत चलता रहता था. उन गीतों में थिरकती हुई कायाएं थीं, तड़पती हुई आत्माएं नहीं थीं.
इस खालीपन के बीच जगजीत सिंह की आवाज आई- उस पुराने सोज को नया रंग देती हुई जो हमसे छूटता जा रहा था. इस आवाज की और भी खासियतें थीं. यह परंपरा से बंधी आवाज थी, लेकिन अपनी मौलिकता का भी निरंतर संधान करती थी. जगजीत सिंह की सफलता का एक पहलू इस तथ्य से भी बनता है कि उन्होंने बड़े करीने से शास्त्रीय और लोकप्रिय को एक साथ साधा. जगजीत सिंह से पहले गजल संगीत के जानकार लोगों की महफिल का नूर हुआ करती थी. जगजीत सिंह उसे बिल्कुल लोगों के बीच ले आए. निश्चय ही इसी दौर में पंकज उधास ने भी गजलें गाईं और वे लोकप्रिय भी हुईं, लेकिन उनमें एक तरह का सपाटपन था जिसकी सीमा बहुत आसानी से समझ में आती रही. जगजीत सिंह का कमाल यही था कि गजल को आम लोगों की जमीन पर उतारते हुए भी उन्होंने उसकी उड़ान बनाए रखी. उनकी गायकी का दूसरा सिरा उनके गीतों के चयन से भी जुड़ता था. जगजीत ने बहुत संभाल कर गजलें चुनीं. गालिब को चुना तो वे शेर छोड़ दिए जो लोगों को सहज ढंग से ग्राह्य नहीं हो पाते. निदा फाजली को भी लिया तो वे शेर लिए जो सीधे दिलों तक उतरते थे.

जगजीत अपनी उन्हीं गजलों  और गीतों के सहारे हमारे बीच जिंदा हैं जो जिंदगी की धूप में घने साये का काम करते रहे

इत्तेफाक से यह वही दौर था जब भारत का गांव अपने टोले छोड़कर नए बनते शहरों में मुहल्ले बसा रहा था. साठ और सत्तर के बाद शहरीकरण की जो विराट प्रक्रिया शुरू हुई उसने एक बड़ा नागर मध्यवर्ग बनाया. इसके अलावा रोजगार और नौकरी के दबाव ने बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग के नौजवानों को विस्थापित होने को मजबूर किया. अपने गांव, घर, आंगन छोड़कर आई यह पीढ़ी अपने आप को एक शून्य में पा रही थी. उसे आर्थिक सुरक्षा हासिल हो रही थी, उसके सामाजिक संबंध नए सिरे से बन रहे थे, लेकिन उसका छूटा हुआ सांस्कृतिक संसार उसे अकेला और उदास करता था. ऐसे में उसके पास पुराने ट्रांजिस्टर और पुराने फिल्मी गीतों का सहारा था या उन नई गजलों का जो जगजीत सिंह और भारतीय उपमहाद्वीप के मेंहदी हसन और गुलाम अली जैसे उनके कुछ समकालीन- उसके लिए गा रहे थे. यह अनायास नहीं था कि अचानक इनकी गजलें हिंदी फिल्मों में भी इस्तेमाल की जाने लगी थीं. ‘निकाह’ में गुलाम अली का ‘चुपके-चुपके रात दिन’ हो या ‘अर्थ’ में जगजीत सिंह का `तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो’,  अचानक लोगों की जुबान पर चढ़ गए. उदासी, अकेलेपन और अपनी जड़ों से कटने की तकलीफ पर इस दौर की गजलें जैसे फाहे का काम करने लगीं. जगजीत छोटे-छोटे कमरों और नए ठिकानों में नई पहचान खोज रहे लोगों के दोस्त होते चले गए. ‘हम तो हैं परदेस मे, देस में निकला होगा चांद’ और ऐसे ढेर सारे दूसरे गीत इसलिए भी लोगों के दिलों में उतर गए कि वे उन्हें उनके छूटे हुए घरों, छतों, आंगनों, नीम के पेड़ और बगीचों तक पहुंचाते थे. इसी तरह शहर के अकेलेपन के बीच अपनेपन की राहत या दोस्ती की चाहत या अनजानी-सी मोहब्बत की ढेर सारी बारीक और कोमल अभिव्यक्तियां जगजीत की रेशमी आवाज में घुलती हुई एक साथ कई पीढ़ियों के अनुभव-संसार को सहलाती रहीं. लगातार बढ़ती स्मृतिशिथिलता के दौर में जगजीत हमारी स्मृति, हमारी संवेदना बचाते रहे.

लेकिन क्या यह सिर्फ नॉस्टैल्जिया था- एक स्मृतिजीवी उछाह- जिसने जगजीत सिंह को इतना लोकप्रिय बनाया? निश्चय ही जगजीत सिंह लगातार अपनी गायकी को नए आयामों से जोड़ते रहे. गजलों या कुछ फिल्मी गीतों के अलावा उन्होंने निदा फाजली के लिखे दोहे भी गाए और उनकी नज्में भी. अक्सर उनकी गायकी में जिंदगी की कशमकश को उसकी परतों के साथ पहचानना मुमकिन होता था. `ये जिंदगी जाने कितनी सदियों से यों ही शक्लें बदल रही है’, जैसी सादा नज्म को उन्होंने इतनी गहराई से गाया कि उसे बार-बार सुनने की इच्छा हुआ करती थी. गुलजार के साथ मिलकर उन्होंने कई नए प्रयोग किए. गुलजार के बनाए सीरियल ‘मिर्जा गालिब’ में गालिब की शख्सियत को उसके पूरे फैलाव और उसकी जटिलताओं के साथ जितना नसीरुद्दीन शाह के अभिनय ने पकड़ा, उतना ही जगजीत सिंह की आवाज और उनके संगीत ने भी. दरअसल लगातार अपने को मांजने की, कुछ नया देने की, प्रयोग करते रहने की यह जो कोशिश रही वह उन्हें अपने समकालीन गायकों से आगे ले जाती रही.

हालांकि सफलता सबके पांवों को अटकाती-भटकाती है और कभी-कभी अतिरिक्त तेजी से कदम उठाने को मजबूर करती है. वक्त बदला तो कुछ जगजीत सिंह भी बदले. उनके बाद के काम में एक तरह की कारोबारी व्यस्तता दिखाई पड़ती है. उनके आखिरी कुछ एलबम कुछ नई चीजों के बावजूद उनकी पुरानी गायकी की छाया भर लगते हैं. उनकी गजलों में अपने हिस्से की राहत खोजने वाले उनके लाखों मुरीद तब कुछ हैरान और उदास हुए जब उन्होंने अपने अजीम गायक को अटल बिहारी वाजपेयी की बेहद सतही गीतनुमा कविताएं गाते देखा- सिर्फ इसलिए कि वाजपेयी तब देश के प्रधानमंत्री थे. उन्हें जल्द ही पद्मभूषण के रूप में इसका पुरस्कार भी मिल गया.

हालांकि वह पद्मभूषण पीछे छूट चुका है, अटल बिहारी वाजपेयी के लिखे हुए गीत कोई नहीं सुनता है और जगजीत अपनी उन्हीं गजलों और गीतों के सहारे हमारे बीच जिंदा हैं जो जिंदगी की धूप में घने साये का काम करते रहे और जिनसे चार दोस्तों का एक छोटा-सा नया बसेरा सुबह-शाम रोशन हो उठता था. उस कमरे का वह पांचवां दोस्त नहीं रहा, और याद दिलाता गया कि बाकी चार भी वही नहीं रहे जो वे हुआ करते थे. उनके निधन की खबर सुनी तो मुझे अपने पुराने दिन, पुराने दोस्त याद आए और याद आया वही गीत- ‘तुम चले जाओगे तो ये सोचेंगे, हमने क्या खोया हमने क्या पाया.’

सारंडा में एनाकोंडा के शिकार

 

28 जून की उस घटना को याद करते ही मंगरी होनहागा अंदर तक सिहर जाती है. झारखंड के चाईबासा जिले में पड़ने वाले एक गांव बलिवा की रहने वाली यह महिला रोते-बिलखते हुए बताती है, ‘मेरा आदमी यानी पति मंगल होनहागा बिचड़ा के लिए खेत तैयार करने गया था. थक-हारकर थोड़ी देर के लिए आराम करने घर आया था. देवर सुनिया होनहागा भी घर पर ही था. दोनों भाई खाना खाने के बाद आम खा रहे थे कि अचानक सीआरपीएफ व स्थानीय पुलिस के जवान घर में घुस आए और उन दोनों को जबरन गांव के बीचोबीच बने चबूतरे के पास ले गए.’मंगरी आगे बताती है, ‘वहां उन्होंने गांव के सभी लोगों को इकट्ठा कर लिया. उसके बाद 20-22 लोगों के हाथ बांध दिए. डर और दहशत के मारे गांव का कोई भी आदमी कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं था. महिलाओं ने उनसे अपने घर के सदस्यों को छोड़ने की गुहार लगाई, लेकिन सीआरपीएफ के जवानों ने डांट दिया. हम सभी मजबूर थे. बस एक-दूसरे का मुंह ताकते रहे. महिलाएं और बच्चे रात भर वहीं जमे रहे. सुबह उनमें से 16 लोगों को पुलिस के जवान जंगल की ओर ले गए. उनमें मेरा पति भी था. बाद में मेरे पति को मार डाला गया. मुझे एक जुलाई को जब उसकी लाश मिली तब पता चला कि पुलिस ने उसे गोली मार दी है. मैं तो नहीं जान पाई आज तक कि मेरा आदमी माओवादी था. पुलिसवालों ने कैसे पता लगा लिया.’ यह बताते-बताते एक बार फिर से रोने लगती है मंगरी.

मंगरी की यह आपबीती और उसके आंसू उस अभियान की सफलता के दावों पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं जो सीआरपीएफ व पुलिस ने हाल ही में माओवादियों के खिलाफ सारंडा इलाके में चलाया था. जून में यह अभियान ऑपरेशन मानसून के नाम से चला. बीच में कुछ दिन के लिए यह रुका रहा और अगस्त में जब यह फिर शुरू हुआ तो इसका नाम ऑपरेशन एनाकोंडा कर दिया गया. इस अभियान की अब जो रोंगटे खड़े कर देने वाली जानकारियां सामने आ रही हैं वे साफ बताती हैं कि कैसे माओवादियों और पुलिस के बीच इस टकराव में यहां का आम आदमी बुरी तरह पिस रहा है.
मंगरी की बात खत्म होने के बाद उसके देवर सुनिया कहते हैं कि उस रोज 22 लोगों में से छह को जवान हेलीकॉप्टर में बैठा कर ले गए थे. वे बताते हैं, ‘बाकी के 16 लोगों को जंगल की ओर ले जाया गया. 29 जून को इन लोगों ने सबसे अपना सामान  ढुलवाया और रात भर हम सबको अपने साथ ही रखा. 30 जून को सुबह ही हम सब छोटानागरा की ओर कूच कर गए. तभी अचानक से बहदा जंगल पार करते समय तीन गोलियों के चलने की आवाज सुनाई दी.’ सुनिया आगे बताते हैं, ‘पुलिस ने मेरे बड़े भाई को मार दिया. यह बात मुझे मेरे छोटे भाई रोंडे होनहाग ने बाद में बताई. रोंडे ने भाई को पुलिसवालों द्वारा मारते हुए देखा था.’ सुनिया कहते हैं कि मारने के बाद लाश को छोटानागरा थाना लाया गया और फिर वहीं से उसे पोस्टमार्टम के लिए चाईबासा भेज दिया गया. वे बताते हैं, ‘पोस्टमार्टम के बाद थाना प्रभारी रवि किशोर प्रसाद ने मुखिया एवं पंचायत समिति, दीघा के माध्यम से हमें बुलाया और कहा कि भाई का मृत्यु प्रमाण पत्र जमा करवा दो, तुम्हें तीन लाख रुपये मुआवजा और नौकरी दे दी जाएगी. यह तो एक तरह से आदमी की जान के कारोबार की तरह ही हुआ न.’

सुनिया और मंगरी के इस आरोप को पहले तो पुलिस मनगढंत साबित करने की कोशिश की. कहा गया कि क्राॅस फायरिंग में मंगल की मौत हो गई है. लेकिन यह सवाल उठा कि जब वह निहत्थों को पकड़ कर ले गई थी तो हथियार कहां से आ गए और हथियार नहीं थे तो क्रॉस फायरिंग कैसे हो गई. अपने ही झूठ से शर्मसार पुलिस ने आखिर में सच कबूल लिया. झारखंड के पुलिस महानिरीक्षक आरके मल्लिक ने पिछले पखवाड़े एक प्रेस वार्ता करके यह बात मानी कि मंगल की मौत एक गलती थी. तहलका से बातचीत में उन्होंने फिर से कहा कि अभियान के दौरान उनसे कुछ गलतियां हुई हैं और उनसे सबक लिया जाएगा.

मंगल को बेरहमी से मार दिए जाने और फिर पुलिसवालों द्वारा झूठ बोलने से गांववाले आक्रोशित हैं. सुनिया और ग्रामीणों का आरोप है कि पुलिस गांववालों पर जुल्म ढा रही है. मंगल की मौत अथवा उसे मार दिए जाने के बाद भी जुल्म का सिलसिला रुका नहीं. एक ऐसी ही घटना 18 अगस्त को सोमा गुड़िया के भी साथ घटी. ग्रामीणों के अनुसार उसकी पहले जमकर पिटाई की गई और बाद में उसे भी जंगल की ओर ले जाकर गोली मार दी गई. मंगल होनहागा को मारने की गलती को तो पुलिस स्वीकार कर चुकी है लेकिन फिलहाल सोमा गुड़िया को मारने की बात से वह इनकार कर रही है.

मंगल होनहागा की मौत एक गलती थी, इस बात को पुलिस स्वीकार कर चुकी है. इससे कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं

थलकोबाद के जुड़िदा होनहागा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. हालांकि उनकी किस्मत अच्छी थी कि उनकी जान बच गई. यह बात अलग है कि उनकी जो हालत है उसे मौत से बदतर कहा जा सकता है. 70 साल के जुड़िदा की पुलिसवालों ने ऐसी पिटाई की कि उनकी कमर ही टूट गई है. वे अब भी बिस्तर पर ही पड़े रहते हैं. जुड़िदा बताते हैं कि दो अगस्त को वे नित्य क्रिया से निवृत्त होकर घर वापस आ रहे थे कि अचानक पुलिस ने बिना कुछ पूछे उन्हें पीटना शुरू कर दिया. इस बात की गवाही गांववाले भी देते हैं. घटना की खबर मिलने पर स्थानीय विधायक मिस्त्री सोरेन भी उनसे मिलने पहुंचे और उसे कुछ रुपये देने की कोशिश की. जुड़िदा ने विनम्रता से पैसे लेने से इनकार कर दिया. वे बताते हैं, ‘मैंने उनसे कहा कि आप मेरे घर चावल-दाल भिजवा दें और पुलिसवालों से कह दें कि जब मेरा पोता चावल-दाल ले कर आए तो उसे पकड़ें नहीं.’

तिरिलपोशी के रामसाय मेलगान्डी भी पिटाई के शिकार हुए हैं. बकौल रामसाय दो अगस्त को थोलकोबाद की ओर से आए जवानों ने अचानक लोगों की पिटाई शुरू कर दी. ग्रामीणों ने यह भी आरोप लगाया कि सिंगा जतरामा के घर से तो पुलिस अपने खाने के लिए चावल, मुर्गा, मुर्गी सब उठा ले गई. ऑपरेशन खत्म हो जाने के बाद भी अब तक इस गांव में पुलिसिया कैंप लगा हुआ है और ग्रामीण भय के साये में हैं कि पता नहीं कब किसकी पिटाई हो जाए.

बलिवा, थलकोबाद, तिरिलपोशी, बिटकिल सोया जैसे गांवों में लोगों की जिंदगी पुलिस और माओवादियों की ज्यादतियों के चलते नरक हो गई है. ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा आैैर गृह सचिव जेबी तुबिदव मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखकर गुहार लगाई है कि पुलिसिया जुल्म रोका जाए और पुलिस द्वारा मारे गए लोगों की सच्चाई जानने के लिए सीबीआई जांच कराई जाए. मंगल और सोमा की बात तो फिर भी चर्चा में आ गई लेकिन सारंडा के कई गांवों में, सोमा-मंगल और जुड़िदा जैसी कई दास्तानें बनती हैं और किसी को कुछ पता भी नहीं चलता.

इस सबके बावजूद पुलिस के अधिकारी व सीआरपीएफ के डीजी लालचंद यादव इसे अब तक का सबसे सफल ऑपरेशन मान रहे हैं. हालांकि मंगल की मौत को तो पुलिस अपनी गलती मान रही है, लेकिन अन्य मामलों को वह मनगढंत कहानी बताती है. यादव का कहना है कि यह सब माओवादियों के प्रवक्ता समरजी द्वारा फैलाई गई झूठी खबरें हैं. ग्रामीणों को मारने-पीटने की बात को सिरे से नकारते हुए वे कहते हैं कि उन्होंने गांव के लोगों को उनकी जरूरत की चीजें तक मुहैया कराई हैं और गांववालों का उन पर भरोसा बना है.

पुलिस भले ही इन बातों को नकार दे पर पुलिसिया मार की वजह से सुनिया सोय जैसे लोग अब भी थरथर कांपने लगते हैं. पश्चिमी सिंहभूम जिले में तिरिलपोशी गांव के सुनिया अपनी आपबीती बताते हुए कहते हैं, ’14 अगस्त को अचानक से पुलिस मेरे घर पर आ धमकी. बोला कि हमारे साथ चलो. मैं लोगों की पिटाई देखकर पहले से ही बिल्कुल सहमा हुआ था. इन लोगों ने रात भर मुझे अपने साथ ही रखा. अगले दिन वे मुझे सोमा गुड़िया के खाली पड़े घर में ले गए. वहां मुझे घर की छत की बल्ली के सहारे उल्टा लटका दिया और बेरहमी से पीटा. मेरे हाथ-पांव रस्सी से कसकर बंधे थे. वे मुझसे जबरन यह कबूल करवाना चाहते थे कि मैं एमसीसी का सदस्य हूं और उन्हें बारूद और खाना पहुंचाने का काम करता हूं. जब मैंने यह बात नहीं मानी तो मुझे दो दिन तक बगैर खाना-पानी के ही रखा गया.’ सुनिया आगे बताते हैं, ‘मैं उनसे गुहार-मनुहार करता रहा कि इस तरह की प्रताड़ना से अच्छा है कि मुझे गोली मार दें. लेकिन इसके बाद भी उन्हें मुझ पर तरस नहीं आया. चार दिन तक यह सिलसिला चलता रहा और 19 अगस्त को मुझे चाईबासा थाना ला कर एक सादे कागज पर टीप सही (अंगूठे का निशान और हस्ताक्षर) करवा कर छोड़ा गया. मेरे हाथ-पांव अब भी ठीक से काम नहीं कर रहे हैं. मेरी ही तरह सारंडा क्षेत्र के अन्य लोगों का जीवन भी पुलिस ने नारकीय बना दिया है.’

एक ओर जहां ऑपरेशन ग्रामीणों के लिए समस्या व कठिनाई का सबब बना, वहीं दूसरी ओर यह पुलिस के लिए भी कम सिरदर्द नहीं रहा. करीब एक माह तक चले अभियान की शुरुआत बड़े गुपचुप ढंग से हुई और कोशिश की गई कि मीडिया को इस बारे में कोई जानकारी न हो. कुछ मीडियाकर्मियों ने वहां जाने की कोशिश की तो उनके कैमरे तक छीन लिए गए. हालांकि बाद में ये लौटा दिए गए. पुलिस का तर्क था कि मीडिया में आने वाली खबरों से माओवादियों को अपनी रणनीति बनाने में मदद मिलती है.

लेकिन आॅपरेशन की तैयारी की पोल तब खुल गई जब एक साथ तैनात जवानों में से करीब 400 को मलेरिया या सेरेब्रल मलेरिया हो गया. जवानों की तबीयत से पूरे महकमे में तब भूचाल आ गया जब दो जवानों को इस बीमारी ने अपना निवाला बना लिया. आईजी ऑपरेशन डीजी पांडे और आईजी आरके मल्लिक इसके बावजूद ऑपरेशन की सफलता का बखान करते हुए कहते हैं कि ऑपरेशन के दौरान 33 माओवादियों को हिरासत में ले लिया गया और 12 पर प्राथमिकी दर्ज कराई गई है. इस दौरान 179 बारूदी सुरंगों की बरामदगी हुई, सात प्रशिक्षण कैंप ध्वस्त किए गए, 226 चक्र कारतूस पकड़े गए, 4,33,000 रुपये जब्त किए गए और 416 डेटोनेटर, 238 बुस्टर, 30 देसी ग्रेनेड, 13 मोबाइल फोन, आठ बक्सा नक्सली साहित्य समेत कई चीजें बरामद हुईं. हालांकि पुलिस की मानें तो इस लंबे ऑपरेशन में सिर्फ पांच दिन ही मुठभेड़ हुई. लेकिन सवाल यह है कि जब 12 लोगों पर ही प्राथमिकी दर्ज है तो केवल संदेह के आधार पर पकड़े गए लोगों को किस बिना पर बंदी बनाकर रखा गया है. इस बारे में बात करने पर आईजी मल्लिक कहते हैं, ‘अगर वे निर्दोष साबित होंगे तो उन्हें बरी कर दिया जाएगा. लेकिन ऐसे मामलों में थोड़ा सहयोग तो सबको करना ही पड़ेगा.’
लालचंद यादव कहते हैं, ‘तिरिलपोसी, थलकोबाद आदि गांवों के लोगों की पीड़ा को हम खूब समझते हैं और हमारी कोशिश होगी कि गांव तक सड़कें बनें.’ उनकी मानें तो गांव के लोग माओवादियों के चंगुल से मुक्त होना चाहते हैं और अपने गांवों तक सड़क बनवाना चाहते हैं पर माओवादी ऐसा होने नहीं दे रहे. वे तो यह भी कहते हैं कि समरजी तथा अन्य माओवादी जबरन गांव की लड़कियों को उठा ले जाते हैं और मजबूरन उन्हें उनसे शादी करनी पड़ती है. लेकिन सवाल यह है कि यदि पुलिस का रवैया इतना ही बढ़िया था और वह ग्रामीणों की इतनी ही शुभचिंतक थी तो तिरिलपोशी, थलकोबाद, राटामाटी, बलिवा आदि गांव के सारे के सारे लोगों को गांव खाली करके क्यों भागना पड़ा.

यहां अहम सवाल यह है कि एंटी नक्सल आपरेशन का सारा जोर सारंडा पर ही क्यों केंद्रित है

उससे भी अहम सवाल यह है कि एंटी नक्सल ऑपरेशन का सारा जोर सारंडा पर ही क्यों केंद्रित है. यदि सरकार सचमुच लोगों की हितैषी है तो वह अन्य क्षेत्रों में भी ऑपरेशन क्यों नहीं चला रही?

इसका जवाब प्लानिंग कमीशन के सदस्य व मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग देते हैं. उनका मानना है कि सारंडा में ऑपरेशन एक सुनियोजित साजिश के तहत चलाया जाता है. ग्रामीणों में दहशत पैदा करने के लिए ही उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है ताकि वे अपने गांव-घर को छोड़कर खुद ही कहीं और चले जाएं. वे कहते हैं, ‘सारंडा के क्षेत्र में सरकार ने 19 एमओयू किये हैं. इन क्षेत्रों में ऐसे अभियानों का भी एकमात्र कारण जो नजर आता है वह है एस्ट्रो स्टील, मित्तल जैसी कंपनियों को वहां अधिकार दिलाना. चूंकि आदिवासी प्रकृति प्रेमी हैं और उनकी हर गतिविधि से प्रकृति जुड़ी हुई है तो वे अपने क्षेत्र को छोड़कर आसानी से तो जाएंगे नहीं. लेकिन जब उन पर लगातार जुल्म होगा तो वे मजबूरन इस जगह को छोड़ने को विवश होंगे.’ ग्लैडसन के मुताबिक अगर ग्रामीण दोषी हैं तो उन्हें सजा मिलनी चाहिए लेकिन अगर पुलिस ने ज्यादती की है तो उसे भी माफ नहीं किया जा सकता. वे मामले की सीबीआई जांच की मांग करते हैं.

ग्लैडसन की बात से सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टान स्वामी भी सहमत दिखते हैं. वे कहते हैं कि पुलिस ग्रामीणों को भगाने और उद्योगों को लगवाने की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए ही इस तरह के अभियान चला रही है और निर्दोष ग्रामीणों को बार-बार पीट रही है. वे कहते हैं, ‘इस ऑपरेशन के कारण इस बार ग्रामीणों की फसल तक बर्बाद हो गई. खेती के समय में लोगों को घर छोड़ कर भागना पड़ा है. इसलिए पीड़ित परिवार को तत्काल राहत देने के लिए उन्हें नौकरी और मुआवजा दिया जाना चाहिए.’ इस मामले पर विधायक बंधु तिर्की ने तो सभा को संबोधित करते हुए पीड़ित परिवार के लिए 50 लाख रुपये मुआवजा और सरकारी नौकरी देने तक की मांग कर दी. भले ही इसे राजनीतिक बयान मान लिया जाए लेकिन ऐसा नहीं है कि इस सच को पुलिस नहीं जानती. तभी तो महानिदेशक आरके मल्लिक ने 10 अगस्त को यह कहा कि जिन लोगों के घरों से पुलिस ने अनाज उठा लिया है या लोग मारे गए हैं उन्हें तुरंत तीन महीने का राशन उपलब्ध कराया जाएगा. यदि पुलिस के दावे सही हैं तो फिर इस तरह के निर्णय वह क्यों ले रही है?

खबर लिखे जाने तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक टीम सारंडा आने की तैयारी कर रही थी. यह टीम सारंडा में नक्सलविरोधी अभियान के दौरान मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों की जांच करेगी. सारंडा में यह हलचल तब हो रही थी जब राजधानी में विधानसभा सत्र के ठीक पहले भाषा को लेकर मामला गरमा रहा था. बाद में सारंडा का शोर सदन में भी सुनाई पड़ा और राजधानी में इसे लेकर थोड़ी-बहुत हलचल हुई. लेकिन जल्द ही मामला शांत हो गया.

उधर, सारंडा के गांवों में जिंदगी अब भी शांति से कोसों दूर है.

एक पुलिसिया दंगा

 

जयपुर से तकरीबन 170 किलोमीटर दूर भरतपुर का गोपालगढ़. सांप्रदायिक हिंसा के मानचित्र पर एक ताजातरीन नाम. 14 सितंबर को यहां की जामा मस्जिद पर हुआ पुलिस का हमला आज भी आसपास के 40 गांवों को आतंक से उबरने नहीं देता. इस दिन मेव और गूजर समुदाय के एक झगड़े को मस्जिद और उसके अंदर-बाहर मेवों पर चलाई पुलिस की गोलियों ने सांप्रदायिक बना दिया. उसके बाद से हवाओं, गलियों में पसरे सन्नाटे और कई मकानों पर लटके ताले बताते हैं कि तकरीबन पांच हजार की आबादी वाले इस गूजर बहुल कस्बे में मेव समुदाय के ज्यादातर लोग अभी भी अपने घरों में लौटना नहीं चाहते. हालांकि अब पुलिस और अर्धसैनिक बलों की टुकड़ियां चौकन्नी नजर आती हैं. सियासी और समाजसेवी संगठनों की आवाजाही भी लगातार जारी है. मगर पीडि़तों को शायद किसी पर भरोसा नहीं. पुलिस और सरकार की एजेंसियों पर तो बिल्कुल भी नहीं.

आधिकारिक आंकड़ा कहता है कि 14 सितंबर को गोपालगढ़ में कुल 10 लोग मारे गए और 23 से ज्यादा घायल हुए. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में मिले संकेत बताते हैं कि पुलिस की गोली से तीन लोगों की मौत हुई है. इन तीनों को शरीर के ऊपरी हिस्से में गोली लगी थी. जबकि पुलिस फायरिंग में पैरों को निशाना बनाया जाता है. घटना में बाकी लोगों की मौत से जुड़े सवालों को भरतपुर के नवनियुक्त पुलिस अधीक्षक विकास कुमार यह कहकर टाल देते हैं कि इसी के लिए तो जांच एजेंसियां नियुक्त हुई हैं. यह पहला मौका है जब राज्य में एक ही प्रकरण की न्यायिक और सीबीआई दोनों जांचें कराई जा रही हैं.

आधिकारिक आंकड़ा कुछ भी कहे मगर घटना के बाद लापता लोगों और जली लाशों की कुल संख्या अब तक स्पष्ट नहीं हो सकी है. घटना के चौथे दिन गोपालगढ़ से तीन किलोमीटर दूर लदुमका गांव के बाशिंदों ने तहलका को बताया था कि उनके पास दो जली लाशों के अंग हैं. यह पूछने पर कि उन्होंने अब तक इस बारे में पुलिस को क्यों नहीं बताया, उनका जवाब था कि हमने पहले भी ऐसी पांच लाशों को पुलिस को सौंपा था मगर उन्हें आधिकारिक मौतों में गिना ही नहीं गया. मस्जिद के पीछे और सामने तीन से पांच शरीरों को जलाने के निशान पाए गए. जब इस बारे में तहलका ने भरतपुर के आईजी सुनील दत्त से पूछा तो उन्होंने माना कि यह सच है, मगर इसके आगे वे कुछ नहीं बताते. अपने जले जख्मों का इलाज करवा रहा इस्माइल बताता है कि जब वह मस्जिद के भीतर लोगों के साथ था तो कुछ पुलिसकर्मियों के साथ कई सारे गूजर भी भीतर आ गए और ज्वलनशील पदार्थ फेंकना शुरू कर दिया. इस्माइल बताता है, ‘एक पुलिसवाले ने मुझे पकड़कर कहा कि इसका अंतिम संस्कार यहीं कर दो.’ इसके बाद उसे जान बचाने के लिए आग पर से दौड़ना पड़ा. फिर उसने कीचड़ से भरे गड्ढ़े में कूदकर अपनी जान बचाई. जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में भर्ती एक घायल ईशा खां बताता है कि गूजरों ने पहले उसे लाठी-सरियों से मारा, फिर पेट्रोल छिड़ककर पुलिस की मौजूदगी में आग लगा दी. दूसरे घायल मौलाना खुर्शीद की मानेंगे तो फायरिंग के बाद पुलिस ने मस्जिद के भीतर गंभीर और मृत अवस्था में पड़े लोगों के शरीरों से गोलियों के निशान हटाने के लिए उनके अंगों को काटा.

लदुमका के ताहिर खान बताते हैं, ‘अचानक हुई पुलिस फायरिंग ने किसी को कुछ भी सोचने का मौका नहीं दिया. उसी वक्त गूजरों ने भी हमला कर दिया. हमलावरों के पास तीन चीजें थीं गाय का सूखा गोबर, सूखी लकडि़यां और पेट्रोल. उनका मकसद हमें जिंदा या मार कर जला देना था. ’ताहिर तो किसी तरह अपनी जान बचा पाए मगर उनके चचेरे भाई जाकिर हुसैन मस्जिद के भीतर पुलिस के हमले में मारे गए. 14 सितंबर को पुलिस की गोलियों ने और लोगों के साथ नमाज अदा करने जामा मस्जिद गए लदुमका के भी दो लोगों की जान ली और चार को लापता बनाया. घटना के बाद अब तक लापता लोगों की ठीक-ठीक संख्या का अंदाजा नहीं लगाया जा सका है. फिलहाल यह कहना भी मुश्किल है कि उनका अंजाम क्या हुआ.

पुलिस कहती है कि उसने शांति व्यवस्था कायम करने के लिए फायरिंग की थी और उसकी गोली से जो मौतें हुई हैं वे गलती से हुईं. मगर दंगा नियंत्रण वाहन को मस्जिद के सामने खड़ा करके 209 गोलियां दागने से पहले लाठीचार्ज या रबर बुलेट जैसे तरीकों को क्यों इस्तेमाल नहीं किया गया? और अगर गोलीबारी अनियंत्रित भीड़ पर की गई थी तो मस्जिद के भीतर ऐसा क्यों किया गया? यह सवाल भी उठता है कि अगर यह दो समुदायों के झगड़े को रोकने की पुलिस की कोशिश का नतीजा था तो एक ही मेव समुदाय के लोगों की जानें क्यों गई. ज्यादातर मौतें भी मस्जिद के भीतर या उसके आसपास हुई हैं. इससे यह संदेह मजबूत होता है कि पुलिस फायरिंग एक ही समुदाय को लक्ष्य बनाकर की गई थी. पुलिस फायरिंग से पहले एक भी जान जाने की रिपोर्ट दर्ज नहीं है, न ही घायल होने की. मगर ज्यों ही फायरिंग होती है, लोगों की मौतों का सिलसिला शुरू हो जाता है. सामाजिक कार्यकर्ता रमजान चौधरी के मुताबिक, ‘दंगा दबाने के लिए खुली गोलीबारी जैसी स्थिति नहीं थी, इसलिए घटना में गूजरों और पुलिस की मिलीभगत की बू आती है.’

सवाल यह है कि 209 गोलियां दागने से पहले पुलिस ने लाठीचार्ज या रबर बुलेट जैसे तरीके क्यों इस्तेमाल नहीं किए?

तहलका ने मस्जिद के बाहर और भीतर कई गोलियों के निशान देखे. मेव पंचायत का आरोप है कि पुलिस ने सच्चाई छिपाने के लिए न केवल मरने वालों की संख्या में हेर फेर किया बल्कि मस्जिद में हुई पुलिस फायरिंग के सबूत भी मिटाने की कोशिश की. घटना के तीसरे दिन तहलका को मिली मस्जिद के भीतर की तस्वीरें बताती हैं कि दीवारों पर कई जगह गोली के निशानों को छिपाने के लिए ताजा सीमेंट लगाया गया था. उस समय पुलिस फायरिंग के बाद मस्जिद परिसर पुलिस के कब्जे में था; इससे इस निष्कर्ष को बल तो मिलता ही है.

ताजा संघर्ष की जड़ मस्जिद के पास की एक दशक पुरानी विवादित जमीन है. 2000 में गोपालगढ़ के कुरैशी मोहल्ले ने कब्रिस्तान के विस्तार के लिए मस्जिद के पीछे सवा चार बीघा जमीन जगदीश प्रसाद शर्मा से खरीदी थी. उसके आसपास गूजर समुदाय के कुछ घर होने के चलते आपसी रजामंदी के बाद सवा दो बीघा जमीन गूजरों को दे दी गई. बाकी बची दो बीघा जमीन पर गूजरों ने कब्जे के तो मेवों ने कागजों में नाम होने के आधार पर दावा किया. मामला पहाड़ी जिला न्यायालय में था और तनाव बढ़ता जा रहा था. 12 सितंबर को पहाड़ी के तहसीलदार ने गूजरों से जमीन खाली करवाने का आदेश दिया. इसकी प्रतिक्रिया में 13 तारीख को कुछ गूजरों ने मस्जिद के इमाम अब्दुल राशिद से मारपीट की. इसके विरोध में 14 तारीख को सुबह जामा मस्जिद में एक सभा बुलाई गई जिसमें आसपास के गांवों से बड़ी संख्या में मेव आए. उसी दिन स्थानीय नेता अबु और शेर सिंह के घर भी सैकड़ों गूजर जमा हुए.

गोपालगढ़ की हिंदू आबादी में गूजर समुदाय का दबदबा है. आम तौर पर यह समुदाय मस्जिद में होने वाली सभाओं को लेकर आशंकित रहता है. उस दिन भी मेवों के जनसैलाब ने गूजरों को कई तरह की आशंकाओं से घेर लिया था. गोपालगढ़ के एक गूजर रहवासी के मुताबिक, ‘मुसलमानों की रोज बैठकें होती थीं. मगर उस दिन मस्जिद में हजारों लोग जमा हुए. ऐसा लगता था कि उनकी तरफ से किसी बड़े हमले की तैयारी हो रही हो.

14 की सुबह करीब 11 बजे जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक की मौजूदगी में मेवों और गूजरों के बीच प्रारंभिक संघर्ष हुआ. स्थिति नियंत्रण से बाहर होती देख कामां विधायक जहीदा खान और नगर विधायक अनीता भदेल के हस्तक्षेप से दोनों समुदायों के नेताओं ने दोपहर को पुलिस स्टेशन पहुंचकर विवाद सुलझाना चाहा. बैठक में मौजूद प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि इस दौरान शेर सिंह गूजरों की ओर से इमाम के साथ की गई मारपीट के लिए उनसे माफी मांगने के लिए भी तैयार हो गया था. मगर शाम के करीब पांच बजे कुछ लोग आए और उन्होंने यह अफवाह फैला दी कि मुसलमानों ने दस गूजरों को मार डाला है, उनके शवों को मस्जिद में रखा गया है. बैठक में मौजूद रही विधायक जहीदा खान ने तहलका को बताया, ‘उसके बाद भरतपुर से आए भाजपा और आरएसएस के दस-बारह नेताओं ने पुलिस पर मस्जिद के भीतर से शवों को छुड़ाने की कार्रवाई के लिए दबाव बनाया. जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक ने थाने में ही पुलिस फायरिंग का आदेश तब दिया जब असर की नमाज का वक्त था और लोगों को जिला प्रशासन द्वारा की गई बातचीत के नतीजे का इंतजार था.’

जहीदा कहती हैं, ‘धर्मस्थल में एक आतंकवादी भी घुसता है तो उसके लिए बाहर से ही घेराबंदी की जाती है, मगर भीतर जाने की अनुमति नहीं होती और यहां तो मस्जिद के भीतर घुसकर मारा गया.’ राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ निजाम मोहम्मद का आरोप है, ‘यहां गाय बचाने के नाम पर आरएसएस ने गूजरों को मेवों के खिलाफ खड़ा कर दिया है.’

अगर प्रारंभिक संघर्ष के बाद कोई कार्रवाई की जाती तो यह घटना टाली भी जा सकती थी. गोपालगढ़ के तनाव को देखते हुए पुलिस के पास काफी मौका भी था, मगर उसने न तो कस्बे में धारा 144 लगाई, न दंगे की आशंका के मद्देनजर हथियार जब्त किए और न ही समय रहते भीड़ को हटाने की कोई कोशिश की. आम तौर पर दंगों के बाद का विवरण गृह सचिव या पुलिस प्रमुख द्वारा दिया जाता है. मगर इस बार मुख्य सचिव एस अहमद से वक्तव्य दिलवाया गया. राजस्थान लोक प्रशासन संस्थान के पूर्व प्रोफेसर एम हसन के मुताबिक, ‘इसके पीछे यह चालाकी दिखती है कि एक अल्पसंख्यक की आवाज के जरिए उसके समुदाय के बीच आधिकारिक विवरणों पर भरोसा जमाया जाए. ’पुलिस की ओर से फायरिंग करने के सवाल पर मुख्य सचिव का कहना था, ‘गोपालगढ़ में पुलिस अगर गोली नहीं चलाती तो 150 से ज्यादा लोग मारे जाते.’

प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक शेर सिंह गूजरों की ओर से इमाम से माफी मांगने के लिए तैयार हो गया था

हालांकि राशिद अल्वी के नेतृत्व में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने इसके लिए सीधे तौर पर गृहमंत्री शांति धारीवाल को जिम्मेदार ठहराया है. सोनिया गांधी को सौंपी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि गृहमंत्री स्थितियों को संभाल नहीं पाए और उनके निर्णय भी एकपक्षीय थे. दूसरी तरफ भाजपा की प्रदेश इकाई ने अपनी प्रेस रिलीज में प्रशासन को घेरने की बजाय उसकी कार्रवाई का समर्थन किया है. मेवात में देश के विभाजन के बाद से कोई दंगा नहीं हुआ था. मेवात का मेव समुदाय बाकी इलाकों के मुसलमानों से अलग है; रहन-सहन के मामले में तो यह हिंदुओं के ज्यादा करीब लगता है. इसलिए स्थानीय रहवासी शमशेर सिंह को ताजा घटना पर भरोसा नहीं होता. वे कहते हैं, ‘मेव और गूजर के बीच इससे पहले कभी इतना बड़ा तनाव नहीं सुना.’ यहां तक कि कई पीडि़तों का भी यह मत है कि आपस में छोटा-मोटा वाद-विवाद तो चलता रहता था मगर कोई जान का प्यासा तो नहीं ही था.

राजनीतिक तौर पर हुए नुकसान की भरपाई के लिए मुख्यमंत्री गहलोत को जल्द से जल्द जवाब देना है, लिहाजा उन्होंने सीबीआई के साथ ही न्यायिक जांच का एलान भी किया है. यहां सवाल उठता है कि दोनों जांचों के निष्कर्षों में ही कहीं विरोधाभास की स्थितियां न बन जाए.

सद्भावना में छिपी दुर्भावना

 

जाकिया जाफरी मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा आदेश जारी किए जाने के कुछ दिनों बाद 14 सितंबर को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में शांति, एकता और भाईचारे का माहौल मजबूत करने के लिए सद्भावना उपवास की घोषणा की. मोदी ने राज्य में अपनी सरकार द्वारा 2001 से सत्य, शांति और सद्भावना की कोशिशों की सराहना की. उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि निहित स्वार्थों के चलते होने वाली आलोचना के बावजूद राज्य निवेश आकर्षित करने में सफल रहा है और सरकार ने विकास की गति बनाए रखी है.

उपवास के दौरान दर्जनों की संख्या में बोहरा मुसलमान मौजूद थे. जुहापुरा और पोरबंदर के मुसलमानों को पूर्व भाजपा सांसद बाबूराम बोखारिया लेकर आए थे. चूना पत्थर के अवैध खनन के मामले में बोखारिया कई बार जेल जा चुके हैं. मंच पर बोहरा धर्मगुरुओं, साधुओं, चार स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रमुखों, चर्च के पादरियों और गुरुद्वारों के नुमाइंदों की मौजूदगी थी.

सुशासन के नाम पर गुजरात में जो कुछ भी चल रहा है उसे लेकर लोगों के बीच अपनी छवि चमकाने की कोशिशों में मोदी के लिए उपवास एक नया औजार है. कुछ दिनों पहले चार सितंबर को मोदी ने अहमदाबाद के अजमेरी फाउंडेशन के एक कार्यक्रम में कहा था कि मुसलमानों को मुख्यधारा में आना चाहिए. उन्होंने अपने भाषण में शिक्षा और समावेशी विकास पर भी जोर दिया था.

 मुसलमानों के इलाकों को बैंकों ने क्रेडिट कार्ड देने के मामले में काली सूची में डाल रखा है

मोदी के हालिया भाषण उनके 2007 के चुनावी भाषणों से काफी अलग हैं. उस समय के भाषणों में मोदी मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलते थे. ‘हम पांच और हमारे पच्चीस’ जैसे फिकरे कसते थे. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि मोदी के रवैये में यह बदलाव अपनी देशव्यापी स्वीकार्यता बनाने की कोशिशों का नतीजा है. वहीं कुछ जानकार इसे कहीं ज्यादा खतरनाक मानते हुए कहते हैं कि वे अपनी सांप्रदायिक राजनीति को नई तिकड़मों के सहारे आगे बढ़ाना चाहते हैं.अब सवाल उठता है कि क्या मोदी के सुशासन के दावे जमीनी स्तर पर भी सच हैं? क्या मुसलमानों के पास गुजरात में समान अवसर हैं और उन्हें समान बुनियादी सुविधाएं मिल रही हैं?

मोदी पूर्वी अहमदाबाद के मणिनगर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ते हैं. यहां से पांच किलोमीटर की दूरी पर एक जगह है रखियाल. यहां निम्न-मध्य वर्ग के लोग रहते हैं. यहां की तीन प्रमुख कॉलोनियां सुखराम नगर, शिवानंद नगर और सुंदरम नगर हैं. इनमें से तीसरी में मुसलिम समुदाय के लोग रहते हैं. 70 के दशक में विकसित हुई इस कॉलोनी में शुरुआती दिनों में हर समुदाय के लोग रहते थे, लेकिन 2002 के दंगों के बाद से यहां मुसलमान ही रह रहे हैं.

इस इलाके में मुसलमानों और हिंदुओं के मोहल्ले राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-8 से बंटे हुए हैं. दोनों समुदायों के लोग इस सड़क को ‘बॉर्डर’ कहते हैं. गुजरात में जहां भी हिंदू-मुसलमान आसपास रहते हैं वहां यह शब्द बेहद आम है. यहां इन दोनों समुदायों के बीच के फर्क को सिर्फ सड़क ही नहीं दिखाती बल्कि बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के आधार पर भी आप यह अंतर देख सकते हैं.

मुसलमान बहुल सुंदरम नगर के प्राथमिक स्कूल में 600 बच्चे पढ़ते हैं. यह स्कूल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है और टीन की इसकी छत में भी कई छेद हैं. इस भवन के एक हिस्से में गुजराती माध्यम का स्कूल चलता है जिसमें सातवीं कक्षा तक पढ़ाई होती है. दूसरे छोर पर चारों तरफ से खुला और टीन से ढका एक ढांचा है जहां पहली से लेकर छठी कक्षा तक के 200 छात्रों को एक साथ उर्दू की शिक्षा दी जाती है. यहां से महज दो किलोमीटर की दूरी पर हिंदू बहुल शिवानंद नगर में स्कूल की तीन मंजिला इमारत में पहली से चौथी कक्षा तक गुजराती माध्यम की पढ़ाई होती है. सुखराम नगर में सातवीं कक्षा तक का एक हिंदी माध्यम स्कूल है. यह स्कूल भी तीन मंजिला इमारत में चलता है. इसमें मोजैक का काम भी किया गया है जिन पर हिंदू देवी-देवताओं के चित्र अंकित हैं.

2008 में केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों के लिए एक छात्रवृत्ति योजना शुरू की थी. इसमें 75 फीसदी हिस्सेदारी केंद्र की और 25 फीसदी राज्य सरकार की होनी तय थी. इस योजना के शुरू होने के बाद गुजरात ने इस मद में आने वाले फंड को खर्च करने की मियाद खत्म होने दी और केंद्र के पास इस छात्रवृत्ति के लिए कोई प्रस्ताव भी नहीं भेजा.

शुरुआत में तो राज्य सरकार ने इस योजना को गलत बताते हुए कहा कि यह धार्मिक अल्पसंख्यकों को ध्यान में रखकर तैयार की गई है और यह भेदभावपूर्ण है. मामला गुजरात उच्च न्यायालय तक पहुंचा और अदालत ने इस योजना को 2009 के मार्च में संवैधानिक बताया. एक जनहित याचिका के जवाब में इस साल अप्रैल में दायर किए गए हलफनामे में सरकार ने अपना रुख बदलते हुए कहा कि अल्पसंख्यकों को छात्रवृत्ति देने वाली एक योजना तो राज्य में 1979 से ही चल रही है, इसलिए केंद्र की योजना की कोई जरूरत नहीं है. राज्य सरकार ने हलफनामे में यह भी कहा कि केंद्र की योजना का लाभ एक निश्चित संख्या में ही छात्र उठा सकते हैं. इससे उन अल्पसंख्यक छात्रों को बुरा लगेगा जिन्हें यह लाभ नहीं मिल पाएगा. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय (एमएमए) ने गुजरात में अल्पसंख्यकों की आबादी और आमदनी को ध्यान में रखते हुए राज्य के लिए 52,260 छात्रवृत्तियां तय की थीं.

सवाल यह है कि बचे हुए छात्रों को छात्रवृत्ति देने से राज्य सरकार को कौन रोक रहा है. एमएमए के आंकड़ों के मुताबिक 2010-11 में अपेक्षाकृत कम विकसित राज्य राजस्थान ने लक्ष्य से दोगुनी 60,109 छात्रवृत्तियां बांटीं. बिहार ने भी लक्ष्य से दोगुने 1,45,809 छात्रों को छात्रवृत्ति दी. उत्तर प्रदेश ने लक्ष्य से 130 फीसदी अधिक 3,37,309 छात्रवृत्तियां बांटीं. वहीं सबसे अधिक मुसलिम आबादी वाले राज्यों में से एक पश्चिम बंगाल ने लक्ष्य से 400 फीसदी अधिक 2,22,309 छात्रों को छात्रवृत्ति दी.सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग की प्रधान सचिव सुनैना तोमर से जब पूछा गया कि देश की एक तिहाई जीडीपी का दावा करने वाले गुजरात में इस योजना को क्यों नहीं लागू किया गया तो उनका जवाब था, ‘मामला अदालत में है इसलिए मैं इस पर कुछ नहीं कह सकती.’

छात्रवृत्ति और शैक्षिक सुविधाओं के अलावा आर्थिक लाभ के अन्य माध्यमों का फायदा लेने में गुजरात के मुसलमान काफी पीछे हैं. सच्चर कमेटी के एक सदस्य अबू सालेह शरीफ का विश्लेषण बताता है कि गुजरात के कुल बैंक खातों में मुसलमानों की हिस्सेदारी 12 फीसदी है. यह उनकी आबादी के अनुपात में ही है, लेकिन बैंक से मिलने वाले कर्ज के आंकड़े बताते हैं कि इसमें उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 2.6 फीसदी है. इसका मतलब यह हुआ कि जिन मुसलमानों के बैंक खाते हैं उन्हें भी कर्ज नहीं मिलता.

पश्चिमी अहमदाबाद जुहापुरा इलाके को 1972 की बाढ़ में उजड़े लोगों को बसाने के लिए विकसित किया गया था. यहां के लोगों से शुरुआती बातचीत में यह लगता है कि सब कुछ ठीक है, लेकिन हल्का-सा भी कुरेदने पर यह अहसास हो जाता है कि ये लोग किस कदर उपेक्षित और दुखी हैं.
क्रिसेंट स्कूल का प्रबंधन देखने वाले आसिफ खान पठान कहते हैं, ‘यहां नगर निगम के पानी की आपूर्ति नहीं होती. हमें बच्चों को पानी पिलाने के लिए बोरवेल खुदवाना पड़ा है.’ इस इलाके में तकरीबन तीन लाख लोग रहते हैं, लेकिन यहां सिर्फ चार सरकारी स्कूल हैं. हर साल पहली कक्षा में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या 3,000 होती है और सरकारी स्कूल इन्हें जगह देने के लिए नाकाफी हैं.

जुहापुरा के लोगों की यह शिकायत भी है कि मुसलमानों के इलाकों को बैंकों ने क्रेडिट कार्ड देने के मामले में काली सूची में डाल रखा है. शिकायत की पुष्टि इस बात से भी होती है कि एक बैंक अधिकारी को उसके बैंक ने ही क्रेडिट कार्ड देने से मना कर दिया. निजी बैंक में काम करने वाले एक मध्यम दर्जे के अधिकारी पहचान उजागर नहीं करने की शर्त पर बताते हैं, ‘मैं जिस बैंक में काम करता था उसने ही मेरे क्रेडिट कार्ड आवेदन को खारिज कर दिया. मेरे साथ काम करने वालों ने मुझे ऐसा संकेत दिया कि जुहापुरा का पता होने की वजह से मुझे आवेदन मंजूर होने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए थी.’

वैज्ञानिक डॉ एचएन सैयद की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. 2004 में जब वे हिंदू बहुल मणिनगर इलाके के अपने सरकारी आवास में रहते थे तो स्टेट बैंक के एक कर्मचारी ने उन्हें क्रेडिट कार्ड देने के लिए संपर्क किया था. कुछ महीने बाद ही जब वे रिटायर हो कर जुहापुरा चले गए तो उनका क्रेडिट कार्ड का आवेदन खारिज कर दिया गया. 2004 तक मेडिकल शोध संस्थान ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑकुपेशनल हेल्थ’ (एनआईओएच) के निदेशक रहे सैयद बताते हैं, ‘बैंक के एक अधिकारी ने फोन पर इस घटना के लिए अफसोस जताया था और इसे एक निचले अधिकारी की गलती बताया था, लेकिन मैंने अपनी अप्लीकेशन वापस ले ली है. मैं दुबारा कोशिश नहीं करना चाहता.

गुजरात इस बात पर गर्व करता है कि वहां दूर-दराज के गांवों तक भी 90 फीसदी पक्की सड़कें हैं, 98 फीसदी विद्युतीकरण हो चुका है, 86 फीसदी पानी की सप्लाई पाइप के जरिए होती है और संसाधनों के मामले में यह देश में सबसे विकसित है. लेकिन जुहापुरा में सड़कों तक पर बिजली नहीं है, पानी की सप्लाई नहीं है और मोहल्ले के भीतर सड़कें भी नहीं हैं. जुलाई, 2006 में जुहापुरा को अहमदाबाद नगरपालिका में शामिल किया गया था. तब से यहां के बाशिंदों ने नियमित तौर पर संपत्ति और पानी का टैक्स अदा किया है. गयासपुर, मकरबा, जुहापुरा और वसना जैसे मुसलिम बहुल इलाके इन सुविधाओं से कोसों दूर हैं.

अहमदाबाद की जुमा मस्जिद के पेश-ए-इमाम शब्बीर आलम के नेतृत्व में मुसलिम नेताओं, कारोबारियों और चांद कमेटी के सदस्यों का एक प्रतिनिधिमंडल अप्रैल में मोदी से मिला था. प्रतिनिधिमंडल के सदस्य कारोबारी उस्मान कुरैशी बताते हैं, ‘बातचीत सही दिशा में जा रही थी, लेकिन जैसे ही हमने स्कूलों में अल्पसंख्यकों के लिए छात्रवृत्तियों की बात की, मोदी इसे पक्षपातपूर्ण बताने लगे. जब हमने दंगों के दौरान नष्ट किए गए वली दकनी के मजार को फिर से बनाने की बात की, तो उन्होंने मानने से ही इनकार कर दिया कि वहां कभी  मजार था. हम अपमानित होकर लौट आए.’

2002 के दंगों में अपना भाई गंवाने के बाद नरोदा पाटिया से विस्थापित होने के बाद यहां कूड़ा जमा करने के मैदान के पास की जमीन पर आकर बसने वाली अफसाना बानो कहती हैं, ‘यहां गटर भी नहीं है. हमें पीने के लिए खारा पानी मिलता है. वे मैदान में कूड़ा जलाते हैं और हमारे घर धुएं से भर जाते हैं.’ 2002 से ही बॉम्बे होटल कम्युनिटी में स्वयंसेवक की भूमिका निभा रहे शाह नवाज कहते हैं, ‘इससे सिर्फ उन्हीं मुसलमानों को फायदा होगा जिन्होंने उनके मंच पर जाकर सद्भावना दिखाई है. बाकी किसी को कुछ भी नहीं मिलने वाला.’ शाह नवाज के गुस्से का वाजिब कारण भी है. उनका मानना है कि मोदी की सरकार सिर्फ बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में ही मुसलमानों के साथ भेदभाव नहीं करती, वह अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का भी उल्लंघन करती है.

शाह नवाज रंजरेज समुदाय से आते हैं. अविकसित जनजाति विभाग ने उनका ओबीसी प्रमाणपत्र निरस्त कर दिया था, जिसकी वजह से उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी. वे बताते हैं, ‘सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग की सीट पर मैंने बीएड की ट्रेनिंग के सात महीने पूरे कर लिए थे. अचानक अविकसित जनजाति विभाग ने चिट्ठी भेजी कि वे रंगने का काम करने वालों के लिए गुजराती के शब्द ‘गलियारा’ को मान्यता देते हैं, लेकिन ‘रंगरेज’ को नहीं.’ डिग्री पूरी होने के बस दो महीने पहले ही उनका दाखिला खारिज कर दिया गया.

परंपरागत बुनकर जुलाहे, अंसारी भी मोदी सरकार के दुष्चक्र में फंसे हैं और अपने को सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़ी जाति मनवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. अंसारियों का कहना है कि मोदी सरकार उनकी अलग-अलग उपशाखाओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पर्यायवाची जातिसूचक नामों को मान्यता न देकर उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर रही है. जबकि मंडल कमीशन ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि वे इसे मान्यता दें. राज्य सरकार मुसलमान जुलाहों को तो ओबीसी के रूप में मान्यता देती है, लेकिन इसी जाति द्वारा अंसारी शब्द इस्तेमाल करने वालों को वह मान्यता नहीं देती.

यह भी विडंबना ही है कि डीयूटी ने 2005 में यह स्वीकार कर लिया था कि जुलाहा अंसारी, मुसलमान जुलाहा का ही पर्यायवाची शब्द है. ‘संस्था जुलाहा मुसलमान समाज’ ने सरकार को इस संबंध में एक ज्ञापन दिया था. इसके बाद डीयूटी के निदेशक और सामाजिक न्याय विभाग के मुखिया को लेकर एक जाति पुनरीक्षा समिति बना दी गई. इस समिति ने गुजरात विद्यापीठ ट्राइबल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट से इस मामले की जांच करवाई. इस समूह के निष्कर्ष एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और मंडल कमीशन की गुजरात के लिए बनी केंद्रीय लिस्ट से मिलते हैं. ये सब अंसारियों के इस दावे का समर्थन करते हैं कि वे और मुसलमान जुलाहा एक ही जाति हैं, जिन्हें ओबीसी का दर्जा हासिल है. अपने ही विभागों के इन निष्कर्षों के बावजूद मोदी के ऑफिस ने मामले को 30 अक्टूबर, 2006 और दो जनवरी, 2007 को इस मामले को ओबीसी कमीशन को भेज दिया. लेकिन, कमीशन ने इस मामले से हाथ जोड़ लिया है. उसका कहना है कि कोई नाम किसी जाति का पर्यायवाची है या नहीं, यह तय करना उसके नहीं बल्कि मुख्यमंत्री कार्यालय के प्राधिकार में आता है.

2002 में गुजरात के कुल 26 जिलों में से 16 में 4,500 एफआईआर दर्ज की गई थीं. 12 जिलों में दंगा करने, आगजनी और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों की शिकायतें थीं. लेकिन दो साल के भीतर ही गुजरात पुलिस ने उनमें से 2,000 मामले यह रिपोर्ट लगाते हुए बंद कर दिए कि घटनाएं तो हुईं, लेकिन आरोपित या तो फरार हैं या फिर उनकी पहचान नहीं की जा सकती.

अगस्त, 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि इन मामलों की गहरी छानबीन होनी चाहिए. पुलिस की दंगा सेल के आंकड़ों के अनुसार जिन 2,017 मामलों पर विचार किया गया उनमें से 1,958 मामले फिर से जांच के लिए खोले गए. इस साल जून तक 117 मामलों में 1,299 लोगों को गिरफ्तार किया गया. उधर सितंबर, 2009 के एक आंकड़े के मुताबिक जिन मामलों में गिरफ्तारियां हुई हैं उनकी संख्या 117 है.  पिछले दो साल में बाकी बचे मामलों में पुलिस ने एक भी गिरफ्तारी नहीं की है.

राज्य सरकार जुलाहा को तो ओबीसी की मान्यता देती है, लेकिन इसी जाति में अंसारी लिखने वालों को नहीं

65 वर्षीय रजाकभाई इस्माइलभाई घाउची साबरकांठा जिले के हलोदर गांव के किसान हैं. उनका घर लिंबादिया चोकरी से 20 किमी दूर है. 2002 में इसी लिंबादिया चोकरी में हुए जनसंहार में 75 लोगों की हत्या कर दी गई थी. उन्हें आज भी याद है कि किस तरह एक दंगाई भीड़ ने उनके घर में आग लगा दी थी. तीन हफ्ते तक छिप कर रहने के बाद जब वे बाहर आए तो उन्होंने 14 लोगों के खिलाफ एफआईआर लिखवाने की कोशिश की. इनमें पड़ोस के कांग्रेसी विधायक का भी नाम था, जिसे उन्होंने लपटों की रोशनी में पहचान लिया था.

घाउची ने इन 14 लोगों के खिलाफ मालपुर पुलिस स्टेशन, मोदासा सर्किल पुलिस स्टेशन, डीएसपी व कलेक्टर के ऑफिस और मानवाधिकार आयोग में एफआईआर लिखवाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. उन्होंने 2003 में गांव में मोदासा के इंस्पेक्टर के दौरे के दौरान एक बार फिर कोशिश की. पुलिस ने एफआईआर तो लिखी, लेकिन उनके भाई रसूल के खिलाफ और बाकी के लिए अज्ञात भीड़ को जिम्मेदार ठहरा दिया. कुछ महीनों के भीतर ही केस फिर से बंद कर दिया. 2004 में जब केंद्र की संस्था सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज ने काम करना शुरू किया तब जाकर मामले को फिर से खोला जा सका. 2007 में गांधीनगर से दंगा सेल की टीम आई और वापस गई. उनका पक्ष सुने बिना ही एक बार फिर से इस मामले को बंद कर दिया गया. जब वे टीम से मिलने पहुंचे तो उन्हें दो गवाह अपने साथ लाने के लिए पुलिस ने वापस भेज दिया. गवाहों के साथ वापस पहुंचने तक टीम जा चुकी थी. लेकिन दंगा सेल के अनुसार, ‘प्रार्थी रजकभाई और दूसरे गवाहों से पूछताछ की गई. उन्होंने आरोपित के बारे में कोई सूचना नहीं दी. दस अप्रैल, 2007 को जांच बंद कर दी गई.

साबरकांठा में फिर से खोले गए 32 मामलों पर निगाह रख रहे न्यायगृह के संयोजक शेख उस्मान भी खुश नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘गवाहों की मौजूदगी  पुलिस की जिम्मेदारी है, न कि शिकायतकर्ता की. शिकायतकर्ता के मौके पर मौजूद होने के बाद भी उससे बातचीत किए बिना वे मामले को बंद कैसे
कर सकते हैं?’

इसी जून में उस्मानभाई ने राज्य सूचना आयोग के जरिए एक सीडी हासिल की है, जिसमें 11 गवाहों से पांच मिनट से भी कम समय में पूछताछ समाप्त करके पुलिस अधिकारी मामले को दोबारा बंद करते दिख रहे हैं. अगस्त, 2008 की एक दूसरी रिकॉर्डिंग में दिखाई पड़ता है कि मुदासा तालुका के तिनतोई गांव के व्यापारी नूर मोहम्मद से पुलिस उन सात लोगों के सामने पूछताछ कर रही है जिन पर उसने 2002 में अपनी दुकान लूटने का आरोप लगाया था.

दंगा पीड़ित न तो इंसाफ पा सके हैं और न ही ये मामले समाप्त हो रहे हैं. मोदी के उपवास के बारे में पूछने पर कई मुसलमानों को लगता है जैसे उन्हें दस साल की मोहलत और मिल गई है. वे इसी की खुशी मना रहे हैं. वहीं कई लोगों का मानना है कि पहले तो मोदी को सजा मिलनी चाहिए. उसके बाद वे मोदी को माफ करेंगे या नहीं, यह तय करना उनका हक है. 

चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी

 

पिछले माह की बात है. लालू प्रसाद यादव ने पटना के मौर्य होटल में संवाददाताओं को बातचीत के लिए बुलाया था. पारंपरिक तौर पर आत्ममुग्धता से भरे लालू प्रसाद बतकही में ज्यादातर अपनी ही बातों को कहने में लीन रहते हैं. वे स्कूल मास्टर की तरह बिहार सरकार के काम-काज का मूल्यांकन करके उसे 100 में से जीरो नंबर देते हैं. फिर सत्ता उखाड़ने की हुंकार भरते हैं. इसी बीच हवा में सवाल उछलता है- विशेष राज्य दर्जा अभियान पर क्या कहना चाहते हैं लालू जी?

अचानक आए इस छोटे-से सवाल पर लालू लटपटा जाते हैं. कहते हैं, ‘बढ़ियां बात है, हम भी चाहते हैं कि मिल जाए दर्जा.’ फिर थोड़ी देर रूककर कहते हैं, ‘कब तक मिलेगा यह हम नहीं जानते. बिहार के कुछ अखबार वाले ज्यादा जानते हैं, वही बताएंगे?’ इस छोटे सवाल पर ही फिर जवाब देते हैं, ‘मुझे तो यही जानकारी है कि नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल यानी एनडीसी ही इस विषय को देखती है
लेकिन नीतीश के लोग बता रहे हैं कि मंत्रिमंडलीय समूह के पास मामला चला गया है. हम अभी कुछ नहीं बता सकते हैं.’
विशेष राज्य दर्जे के सवाल-जवाब के कुछ देर बाद ही इस बतकही सभा का विसर्जन हो जाता है. उसी रोज कुछ देर बाद लालू प्रसाद दिल्ली चले जाते हैं. चार दिन बाद दिल्ली से खबर आती है कि लालू प्रसाद ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की है. उन्होंने प्रधानमंत्री को याद दिलाया कि 2000 में जब झारखंड का निर्माण हुआ था तो सबसे पहले उन्होंने ही बिहार के लिए विशेष सहायता पैकेज व विशेष राज्य के दर्जे की मांग की थी. लालू प्रसाद प्रधानमंत्री से यह आश्वासन भी ले लेते हैं कि यह मामला एनडीसी में जाएगा. लालू प्रसाद आनन-फानन में अचानक प्रधानमंत्री से इस मसले पर मिलने चले गए थे तो यह अकारण नहीं था. एक तो वे यह स्पष्ट करना चाहते थे कि मंत्रिमंडलीय समूह से कुछ नहीं होने वाला, मामला एनडीसी में जाएगा, तभी कुछ होगा. यानी नीतीश के लिए मंजिल अभी दूर है. इसके साथ ही लालू प्रसाद यह संदेश देना भी चाहते थे कि बिहार के लिए सबसे पहले विशेष राज्य के दर्जे की मांग उन्होंने ही की थी.

ऐसी हड़बड़ी, बेचैनी और दुविधा अकेले लालू प्रसाद की नहीं है. बिहार के अमूमन सभी राजनीतिक दल आजकल ऐसे ही दुविधा भरे दौर से गुजर रहे हैं. विपक्षी दलों के लिए ‘विशेष राज्य का दर्जा’ गले की हड्डी की तरह बन गया है, जिसे न उगलते बन रहा है, न सीधे तौर पर निगलते. लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान जैसे नेता हों या वामपंथी भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, इस संदर्भ में सवाल आने पर कुछ भी सीधे-सीधे कहने की बजाय नीतीश की अपनाई राह पर सवाल खड़े करते हैं. दीपंकर कहते हैं, ‘2000 में झारखंड बनने के बाद बिहार को विशेष सहायता दिए जाने की मांग हमारी पार्टी ने की थी. प्रदर्शन भी हुए थे. आज भी हम बिहार को विशेष राज्य दर्जा दिए जाने की मांग करते हैं, लेकिन नीतीश कुमार इस मांग पर राजनीतिक तिकड़म कर रहे हैं जो सही नहीं है.’

जदयू नौटंकी कर रहा है, हमने 2000 में ही केंद्र सरकार से विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की थी-लालू प्रसाद यादव, अध्यक्ष, राजद

सिर्फ दीपंकर ही नहीं, बिहार की राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाले भी यह जानते हैं कि नीतीश कुमार ने विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करके एक ऐसी सधी हुई राजनीतिक चाल चली है जिसमें सभी दल फंस गए हैं. इस खेल में चित्त और पट्ट दोनों नीतीश कुमार अपने ही पक्ष में करने की कसरत में लगे हुए हैं. अगर केंद्र ने ऐसी कोई मांग मान ली तो जाहिर तौर पर नीतीश इसका श्रेय लेकर नायक बनना चाहेंगे. और यदि मांग नहीं मानी जाती है तो आने वाले कल में नीतीश को जब अपने किए-धरे का हिसाब-किताब देना होगा तो उनके पास एक बड़ा तुर्रा और तर्क यह होगा कि केंद्र ने हमारी मांग ही नहीं मानी तो हम क्या करते! यह आने वाला कल अगले लोकसभा चुनाव का समय होगा और राज्य के विधानसभा चुनाव का भी.

मगर दोनों चुनावों के होने में तो अभी काफी समय है तो फिर राजनीतिक तैयारी अभी से ही क्यों? लेकिन इसे बेमौसमी बरसात भी नहीं कहा जा सकता. यह अनुमान पहले से भी लगाया जाता रहा है और अब ज्यादा साफ भी होता जा रहा है कि लोकसभा चुनाव आते-आते बिहार में राजनीतिक स्थितियां उलट-पलट हो सकती हैं. इसकी एक झलक अभी दिखी भी. गुजरात में नरेंद्र मोदी के सद्भावना उपवास से बिहार के राजनीतिक गलियारे में तुरंत तपिश फैल गई. नीतीश कुमार ने तो सिर्फ हाथ जोड़कर या यह कहकर पल्ला झाड़ा कि पहले भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए आधिकारिक नाम तो तय हो, तब कुछ कहा जाएगा. जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने देश में भुखमरी की स्थिति बनाम नरेंद्र मोदी के उपवास पर बात की. लेकिन जदयू प्रवक्ता सह राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी ने साफ-साफ कहा कि नरेंद्र मोदी गुजरात की पांच करोड़ जनता के साथ न्याय नहीं कर पा रहे तो देश की सवा सौ करोड़ जनता के साथ क्या न्याय करेंगे. शिवानंद ने यह भी कह दिया कि गुजरात में भय और दहशत का माहौल है.

जाहिर-सी बात है कि शिवानंद इतनी बातें ऐसे ही नहीं बोल गए. यह साफ है कि केंद्रीय स्तर पर एक मजबूत नेता की तलाश में भटक रही भाजपा की ओर से यदि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को घोषित किया गया तो नीतीश के सामने बड़ी चुनौती होगी. राजनीतिक कारणों से नरेंद्र मोदी के नाम से ही चिढ़ जाने वाले नीतीश को तब भाजपा का साथ छोड़ना होगा. ऐसी स्थिति में उनकी पार्टी के तरकश में कुछ तीर ऐसे होने ही चाहिए जिन्हें मैदान में उतरते वक्त चलाया जा सके. माना जा रहा है कि तब यह विशेष राज्य दर्जा वाला तीर भी मजबूती से चलाया जा सकता है. इसीलिए नीतीश कुमार व उनकी पार्टी जदयू ने बड़ी चतुराई से राज्य स्थापना दिवस के मौके पर जोर-शोर से शुरू हुए विशेष राज्य दर्जा अभियान को सरकारी या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अभियान की बजाय जदयू का अभियान बना दिया. इसे लेकर हस्ताक्षर अभियान भी चला और कथित तौर पर सवा करोड़ लोगों के हस्ताक्षर समेटकर जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह दिल्ली भी गए. अब एक बार फिर से जब नवंबर में नीतीश कुमार प्रदेश की यात्रा पर निकलने की तैयारी कर रहे हैं तो उसमें भी विशेष राज्य के दर्जे पर जनता से संवाद एक अहम मसला होगा. यह संकेत है कि भविष्य की तैयारी जारी है.

जदयू के एक वरिष्ठ नेता, जो राज्य सरकार में मंत्री भी हैं, तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘सत्ताधारी दल हैं तो राजनीति करने के लिए कुछ तो विषय चाहिए न! इस अभियान को हमारे पक्ष में करना जरूरी था, नहीं तो फिर कार्यकर्ता इधर-उधर हो जाएंगे और राजनीति करने में मुश्किल होगी.’राजनीति के पेंच और पैंतरेबाजी के बीच सबके अपने-अपने तर्क हैं लेकिन क्या विशेष राज्य के दर्जे पर राजनीति की जितनी लंबी पारी खेलने की तैयारी में नीतीश लगे हैं, वह इतनी आसानी से वे खेल सकेंगे? सबसे पहली बात तो यही कि विशेष राज्य का दर्जा मिलने के जो मानदंड तय हैं, उनके अनुसार बिहार को यह दर्जा मिलना ही मुश्किल होगा. हालांकि योजना आयोग की सिफारिश पर इस मांग पर अंतरमंत्रालयी समूह का गठन कर दिया गया है और 15 दिसंबर के पहले इसकी रिपोर्ट आने की बात भी कही जा रही है. जदयू प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं, ‘यह हमारे अभियान का असर है कि हम पहली सीढ़ी पार कर गए हैं.’ दूसरी ओर राज्य के पूर्व मुख्य सचिव वीएस दुबे एक-एक कर सभी मानदंडों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि विशेष राज्य का दर्जा देने का मामला एनडीसी में जाता है. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एनडीसी में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री सदस्य होते हैं. जिस दिन एनडीसी में बिहार का मामला जाएगा, उस दिन उड़ीसा, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ सभी बिहार से ज्यादा मजबूत तर्कों के साथ अपने-अपने राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की मांग करेंगे, तब क्या केंद्र सरकार ऐसा कर पाएगी!

नीतीश कुमार चाहते तो वर्ष 2002 में ही बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिल गया होता-रामविलास पासवान, अध्यक्ष, एलजेपी

अगर तकनीकी पेंच को फिलहाल छोड़ भी दें तो नीतीश के सामने एक सवाल यह भी होगा कि आज वे जिस मांग को एक अभियान की तरह चला रहे हैं, जिसे वे और उनके संगी-साथी बिहार के विकास के लिए संजीवनी की तरह एकमात्र प्रारणरक्षक औषधि बता रहे हैं, वह तब उतना ही जरूरी क्यों नहीं था, जब नीतीश कुमार खुद केंद्र में थे. 2000 में जब बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य बना था, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि बिहार के अधिकांश प्राकृतिक संसाधन झारखंड में जा रहे हैं और उसके सामने मुश्किलों का पहाड़ खड़ा होगा. नीतीश के सामने यह एक बड़ा सवाल है, जो राजनीति के अखाड़े में परेशानी का सबब बनेगा. लोक जनशक्ति पार्टी प्रमुख रामविलास पासवान कहते हैं कि पहले नीतीश बताए कि 1998 से 2004 के बीच लोकसभा में बिहार से एनडीए के 34 सांसद थे. उस समय दो-दो बार बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके केंद्र को भेजा गया था कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिया जाए. नीतीश कुमार को इस मांग के लिए बनी समिति का संयोजक भी बनाया गया था. लेकिन उन्होंने उस वक्त इस पर एक बार भी चर्चा क्यों नहीं की?

यह सवाल अकेले रामविलास पासवान या लालू प्रसाद का नहीं है, नीतीश के विशेष राज्य दर्जा अभियान के सामने कई लोग यही सवाल रख रहे हैं. नीतीश की ओर से इसका जवाब इतनी आसानी से दिया भी नहीं जा सकता क्योंकि तब भाजपा के कुछ नेताओं के तरह-तरह के बयान भी आए थे. तब बिहार भाजपा के एक बड़े नेता का कहना था कि बिहार में जंगलराज है इसलिए यहां कोई पैकेज देने की जरूरत नहीं है न ही विशेष दर्जा दिए जाने की क्योंकि इससे लूटतंत्र का साम्राज्य और बढ़ जाएगा. बकौल अर्थशास्त्री शशिभूषण, भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने तो यहां तक कहा था कि बिहार और बिहारियों ने हमेशा ही झारखंड और झारखंडियों का शोषण किया है इसलिए बिहार को कोई अतिरिक्त सहायता नहीं मिलनी चाहिए. तब भी नीतीश कुमार भाजपा के साथ केंद्र में राज कर रहे थे, अब भी उसी भाजपा के साथ राज्य में शासन चला रहे हैं.

बिहार विशेष राज्य दर्जा अभियान के पक्ष में नीतीश कुमार द्वारा समर्थित स्टडी पेपर तैयार करने वाले और उनके प्रमुख रणनीतिकारों में शामिल रहे एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट के सदस्य सचिव शैबाल गुप्ता कहते हैं कि इस बात को अब कहने से क्या फायदा कि तब नीतीश ने क्यों समर्थन नहीं दिया था, और अब क्यों ऐसा कर रहे हैं. शैबाल गुप्ता कहते हैं, ‘हो सकता है तब केंद्र में नीतीश उतने सशक्त ढंग से अपनी बात रखने की स्थिति में नहीं रहे हों और यह भी तो सत्य है कि नीतीश के पहले बिहार में गवर्नेंस या शासन नाम की कोई चीज कभी रही ही नहीं. अब जब सब कुछ पटरी पर आ रहा है तो राज्य हित में सभी दलों को साथ देना चाहिए.’

नीतीश के बचाव में शैबाल गुप्ता एक ऐसा तर्क दे रहे हैं जिसे सटीक जवाब तो नहीं ही माना जा सकता. बिहार नव निर्माण मंच के मदन पूछते हैं कि राजनीतिक एका को तोड़ने का काम कौन कर रहा है? क्यों नीतीश कुमार की पार्टी विशेष राज्य के दर्जे पर अकेले हस्ताक्षर अभियान चलाकर दिल्ली अकेले ही चली गई? क्यों नहीं दिल्ली में दबाव बनाने के लिए जदयू ने सभी दलों को इस अभियान में शामिल किया?

ऐसे कई तर्क-वितर्क चल रहे हैं और इन सबके बीच बिहार विशेष राज्य दर्जा अभियान को नीतीश परवान चढ़ाने के लिए हर मौके का इस्तेमाल कर रहे हैं. नीतीश कुमार इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं. जाहिर-सी बात है कि विज्ञान की चेतना से भी लैस होंगे लेकिन जब बारी आती है तो भावनाओं के दोहन की राजनीति करते हुए वे यह भी कह जाते हैं कि केंद्र अगर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं देगा तो उसे आह लगेगी. फिर जब सावन में श्रावणी मेला का उद्घाटन करने सुल्तानगंज जाते हैं तो कहते हैं कि सभी मिलकर दुआ कीजिए कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिले. इंजीनियर नीतीश के मुंह से आह जैसे शब्द अटपटे लगते हैं. लेकिन राजनीति में कुछ अटपटा नहीं होता.

सरकारी अभियान की तरह शुरू हुए विशेष दर्जा अभियान को जदयू का बना दिए जाने पर तो भाजपा के नेता अभी कुछ खुलकर नहीं बोल रहे लेकिन वे इसके पक्ष में काफी आक्रामक हैं. खुद राज्य के  उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी कहते हैं, ‘बिहार के साथ नाइंसाफी कब तक होती रहेगी. विशेष राज्य का दर्जा, विशेष आर्थिक पैकेज व कोल लिंकेज की मांग की कब तक अनदेखी होती रहेगी. केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल के लिए राहत का पिटारा खोलते हुए उसे 21,614 करोड़ रुपये की विशेष वित्तीय सहायता देने की घोषणा की है. 3,068 करोड़ रुपये के राज्य के योजना आकार में केंद्र सरकार की 30 फीसदी की जगह पर 41.45 फीसदी की हिस्सेदारी बंगाल को मिलेगी. तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन वाली पश्चिम बंगाल सरकार को केंद्र जो देना हो दे लेकिन पिछले छह साल से बिहार की मांग को क्यों अनसुना किया जा रहा है?’

अब तक के केंद्र के रवैये से यह साफ है कि निकट भविष्य में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिलेगा. 19 अगस्त को संसद में जदयू सांसद प्रो. रंजन प्रसाद यादव ने निजी विधेयक के जरिए बिहार को 30 हजार करोड़ रुपये का विशेष पैकेज देने की मांग की तो केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री नमो नारायण मीणा ने एक झटके में इसे खारिज कर दिया. उनका कहना था कि बिहार को उसकी जरूरतों के अनुसार पहले ही सहायता मुहैया कराई जा रही है इसलिए विशेष पैकेज देने की भी कोई आवश्यकता नहीं है. मीणा ने उसी समय बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने के सवाल पर भी अपना रुख स्पष्ट करते हुए कह दिया कि ऐसा केवल दुर्गम क्षेत्र, आबादी के कम घनत्व और आदिवासी बहुल राज्य के लिए ही किए जाने का प्रावधान है. कांग्रेस की ओर से कहा जा रहा है कि बिहार को विशेष सहायता दिए जाने के लिए अंतरमंत्रालय समूह विचार कर रहा है लेकिन अनुमान यह लगाया जा रहा है कि बिहार में जमीन तलाश रही कांग्रेस अभी हड़बड़ी या दबाव में कुछ विशेष नहीं करेगी. जब लोकसभा चुनाव का समय निकट आएगा तो कुछ घोषणाएं की जाएंगी और उस घोषणा की राजनीतिक फसल काटने की कोशिश की जाएगी.

हम बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के खिलाफ नहीं हैं. बस इस मसले पर राजनीति न हो-शकील अहमद , कांग्रेस प्रवक्ता

कांग्रेस क्या करेगी, यह केंद्र में बैठे दिग्गज तय करेंगे. बिहार में फिलहाल अलग-अलग रास्ते चलकर अपनी संभावनाएं तलाश रहे विपक्षी दल बिहार विशेष राज्य दर्जे पर खुद फंसे हुए हैं. इसलिए इस मसले पर जो भी बड़े सवाल हैं वे मद्धम स्वर में सुनाई पड़ रहे हैं. नीतीश जानते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियों के साथ यह समस्या है कि पावर व पार्टी, एक-दूसरे से अन्योन्यश्रित तरीके से जुड़े होते हैं. जब तक पावर है, तब तक पार्टी है. इसलिए वे लंबी चाल चल रहे हैं ताकि पावर व पार्टी, दोनों बने रहंगे.

हालांकि यह सोचना और इसे अमलीजामा पहनाना भी इतना आसान नहीं. बिहार में हो रहे बदलावों पर पैनी नजर रखने वाले भागलपुर के सामाजिक कार्यकर्ता और रंगकर्मी उदय कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश कुमार ने समान शिक्षा आयोग और भूमि सुधार आयोग का गठन किया. तब नीतीश कुमार ने कॉमन स्कूल सिस्टम की स्थापना और भूमि सुधार को बिहार के विकास के लिए जरूरी बताया था. लेकिन इन ठोस उपायों को बीच में ही छोड़ कर वे अब विकसित बिहार के लिए विशेष राज्य दर्जे की जबरदस्त पैरवी कर रहे हैं. बिहार के विकास के लिए समय-समय पर नये-नये नुस्खे सुझाना यह बताता है कि बिहार की खुशहाली के लिए गंभीर प्रयास करने की बजाय तरह-तरह के वोट बटोरु टोटके करने में ही उनकी ज्यादा दिलचस्पी है.’ उदय की ही बातों को आगे बढ़ाते हुए अर्थशास्त्री नवल किशोर चौधरी कहते हैं कि यह एप्रोच ही गलत है क्योंकि एक समय सीमा के बाद विशेष राज्य दर्जा का जादू भी नहीं चलेगा. जनता विकास चाहती है. वह कैसे होगा, यह सरकार और मुख्यमंत्री जाने.’ 

तमाशा, रेस और प्वाइंट्स

बीती जुलाई की एक शाम बिहार की राजधानी पटना में केबल टेलीविजन पर दिखने वाले सारे खबरिया चैनल गायब हो गए. केवल एक को छोड़कर. यह चैनल था मौर्य टीवी जोकि बिहार और झारखंड में चलने वाला एक क्षेत्रीय समाचार चैनल है. बाकी चैनलों का प्रसारण बंद होने के बाद स्वाभाविक ही था कि संबंधित चैनलों के लोग पटना में केबल नेटवर्क चलाने वालों से संपर्क साधते. ऐसा करने पर जवाब मिला कि कुछ तकनीकी बदलाव किए जा रहे हैं इसलिए एक-दो घंटे में चैनल दिखने लगेंगे, लेकिन रात के ग्यारह बजे तक दूसरे चैनल नहीं दिखे. स्वाभाविक है ऐसे में दर्शकों के सामने खबर देखने के लिए सिर्फ एक ही विकल्प था. नतीजा यह हुआ कि उस हफ्ते बिहार में मौर्य टीवी रेटिंग के लिहाज से सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चैनल बन गया. वहीं दूसरे चैनलों की रेटिंग में कमी आई.

‘तहलका’ को यह कहानी बिहार के लिए क्षेत्रीय समाचार चैनल चलाने वाले चैनल प्रमुखों ने सुनाई. उनका यह भी आरोप है कि केबल नेटवर्क चलाने वालों के साथ मिलकर मौर्य टीवी को नंबर एक बनाने का यह खेल हुआ और इसमें उनके चैनलों को नुकसान उठाना पड़ा. उनके मुताबिक एक तरह से देखा जाए तो सुनियोजित ढंग से टीवी से चैनलों का विकल्प गायब कर दिया गया और विकल्पहीनता का फायदा उठाकर एक खास चैनल को रेटिंग के मामले में शीर्ष स्थान पर काबिज होने की पटकथा तैयार कर दी गई.

टीआरपी की पूरी व्यवस्था ही दोषपूर्ण है. इसमें न तो हर तबके की भागीदारी है और न ही हर क्षेत्र की – आशुतोष, प्रबंध संपादक, आईबीएन-7

इस घटना ने एक बार फिर टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट तय करने की पूरी प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह उदाहरण 2011 का है, लेकिन इस तरह के सवाल एक दशक पहले 2001 में ही उठने लगे थे. दरअसल तब मुंबई के 625 घरों के बारे में यह बात सामने आई थी कि उन्हें टीआरपी तय करने की प्रक्रिया में शामिल किया गया है. रेटिंग तैयार करने वाली एजेंसी इन घरों की गोपनीयता बनाए रखने का दावा करती थी. उस वक्त खबरें आई थीं कि एक खास चैनल के लोगों ने इन घरों के दर्शकों को प्रभावित करने का काम किया और इसमें कामयाब भी हुए. इन घरों के लोगों को खास कार्यक्रम देखने के बदले कुछ उपहार देने की बात सामने आई थी. खबर आने के बाद हर तरफ हो-हल्ला मचा. विज्ञापनदाताओं ने भी सवाल उठाए और चैनल के लोगों ने भी. विज्ञापन के रूप में 2500 करोड़ रु (यह 2001 का आंकड़ा है जो आज 10 हजार करोड़ से भी ज्यादा हो गया है) की रकम जिस आधार  पर खर्च हो रही हो उसी में मिलावट की खबर मिले तो ऐसा होना स्वाभाविक ही था. रेटिंग तय करने वाली एजेंसी ने फिर गोपनीयता का भरोसा दिलाया. कहा कि जो गलतियां हुई हैं उन्हें सुधार लिया जाएगा. बात आई-गई हो गई. लेकिन 10 साल बाद पटना की घटना ने एक बार फिर टीआरपी नाम की इस व्यवस्था की खामियों का संकेत दे दिया है.

वैसे इन 10 वर्षों के दौरान भी कई मर्तबा टीआरपी पर सवाल उठते रहे हैं. 2001 के बाद से देश में समाचार चैनलों की संख्या तेजी से बढ़ी और समय के साथ खबरों की परिभाषा भी बदलती चली गई. आरोप लगे कि खबरों की जगह भूत-प्रेत और नाग-नागिन ने ले ली है. यह भी कि खबरिया चैनल मनोरंजन चैनलों की राह पर चल पड़े हैं. आलोचक मानते हैं कि इस दौरान खबरों से सरोकार गायब होते गए और इनकी जगह सनसनी और मनोरंजन ने ले ली. और यह पूरा खेल हुआ उस टीआरपी के नाम पर जिसकी व्यवस्था में खुद ही कई खामियां हैं.

हालांकि यह भी दिलचस्प है कि कुछ समय पहले तक समाचार चैनलों को चलाने वाले लोग अक्सर यह तर्क दिया करते थे कि समय के साथ खबरों की परिभाषा बदल गई है. लेकिन अब जब टीआरपी की पूरी प्रक्रिया की पोल धीरे-धीरे खुल रही है और उसी टीआरपी ने चैनल प्रमुखों की नौकरियों को चुनौती देना शुरू कर दिया है तो कई टीआरपी की व्यवस्था पर सवाल उठाने लगे हैं.
आगे बढ़ने से पहले टीआरपी से संबंधित कुछ बुनियादी बातों को समझना जरूरी है. अभी देश में टीआरपी तय करने का काम टैम मीडिया रिसर्च नामक कंपनी करती है. यहां टैम का मतलब है टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट. रेटिंग तय करने के लिए एक दूसरी कंपनी भी है जिसका नाम है एमैप. हालांकि, कुछ दिनों पहले ही यह खबर आई कि एमैप बंद हो रही है. इस बारे में कंपनी के प्रबंध निदेशक रविरतन अरोड़ा का कहना था कि वे अपना कारोबार समेट नहीं रहे बल्कि तकनीकी बदलावों के चलते इसे चार महीने तक रोक रहे हैं. 2004 में शुरू होने वाली कंपनी एमैप अभी तक 7,200 मीटरों के जरिए रेटिंग तैयार करने का काम कर रही थी. उधर, 1998 में शुरू हुई टैम के कुल मीटरों की संख्या 8,150 है. इनमें से 1,007 मीटर डीटीएच, कैस और आईपीटीवी वाले घरों में हैं. जबकि 5,532 मीटर एनालॉग केबल और 1,611 मीटर गैर केबल यानी दूरदर्शन वाले घरों में हैं. एक मीटर की लागत 75,000 रुपये से एक लाख रुपये के बीच बैठती है.

इन्हीं मीटरों के सहारे टीआरपी तय की जाती है. ये मीटर संबंधित घरों के टेलीविजन सेट से जोड़ दिए जाते हैं. इनमें यह दर्ज होता है कि किस घर में कितनी देर तक कौन-सा चैनल देखा गया. अलग-अलग मीटरों से मिलने वाले आंकड़ों के आधार पर रेटिंग तैयार की जाती है और बताया जाता है कि किस चैनल को कितने लोगों ने देखा. टैम सप्ताह में एक बार अपनी रेटिंग जारी करती है और इसमें पूरे हफ्ते के अलग-अलग कार्यक्रमों की रेटिंग दी जाती है. टैम यह रेटिंग अलग-अलग आयु और आय वर्ग के आधार पर देती है. इस रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल पर उन्हें कितना विज्ञापन देना है. रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाताओं को यह पता चल पाता है कि वे जिस वर्ग तक अपना उत्पाद पहुंचाना चाहते हैं वह वर्ग कौन-सा चैनल देखता है. चैनलों की आमदनी का सबसे अहम जरिया विज्ञापन ही हैं. इस वजह से चैनलों के लिए रेटिंग की काफी अहमियत है. जिस चैनल की रेटिंग ज्यादा होगी विज्ञापनदाता उसी चैनल को अधिक विज्ञापन देंगे. इस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि रेटिंग सीधे तौर पर चैनलों की कमाई से जुड़ी हुई है. जितनी अधिक रेटिंग उतनी अधिक कमाई. रेटिंग से ही चैनलों को यह पता चल पाता है कि किस तरह के कार्यक्रम को लोग पसंद कर रहे हैं और इसी के आधार पर उस सामग्री का स्वरूप तय होता है जो दर्शकों को टीवी के परदे पर दिखती है.

हमने चैनलों से कभी नहीं कहा कि हमारी रेटिंग की वजह से आप अपनी सामग्री में बदलाव करें – सिद्धार्थ मुखर्जी, वरिष्ठ उपाध्यक्ष, टैम

यानी खबरिया चैनलों की सामग्री के बदलाव में टीआरपी प्रमुख भूमिका निभा रही है. अब अगर टीआरपी तय करने की पूरी व्यवस्था में ही कई खामियां हों तो जाहिर है कि सामग्री के स्तर पर होने वाला बदलाव सकारात्मक नहीं होगा. यही बात खबरिया चैनलों के मामले में दिखती है. टैम की शुरुआत से संबंधित तथ्यों से यह बात स्थापित होती है कि यह विज्ञापनदाताओं के लिए काम करने वाली एजेंसी है. यह भले ही दर्शकों की पसंद-नापसंद की रिपोर्ट देने का दावा करती हो लेकिन इसका मकसद सीधे तौर पर विज्ञापनदाताओं की उनके हित साधने में मदद करना है. ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव और साधना न्यूज समूह के संपादक एनके सिंह के मुताबिक टीआरपी जिस तकनीकी बदलाव की नुमाइंदगी करती है उसका मकसद खपत के पैटर्न में बदलाव करना है. वे कहते हैं, ‘टीआरपी की शुरुआत विज्ञापन एजेंसियों ने की, इसलिए यह व्यवस्था उनके हितों की रक्षा करेगी. विज्ञापनदाताओं के लिए यह जरूरी है कि उनके उत्पाद की खपत बढ़े. इसके लिए वे टीआरपी का इस्तेमाल करते हैं. दरअसल, यह एक ऐसा औजार है जिसके जरिए बाजार में खपत के लिए माहौल तैयार किया जाता है. लोगों के लिए इसकी और कोई प्रासंगिकता नहीं है.’

टैम के वरिष्ठ उपाध्यक्ष (कम्यूनिकेशंस) सिद्धार्थ मुखर्जी ‘तहलका’ से बातचीत में स्वीकार करते हैं कि टैम की शुरुआत विज्ञापनदाताओं को ध्यान में रखकर की गई थी. ‘हमें कहा गया था कि हम ये बताएं किस कार्यक्रम को कितना देखा जाता है ताकि इसके आधार पर विज्ञापनदाता अपनी रणनीति तय कर सकें. इसलिए हम यह दावा नहीं करते कि हम दर्शकों के लिए काम करते हैं. हमारा आम आदमी से कोई लेना-देना नहीं है.’ सिद्धार्थ कहते हैं, ‘टैम के आंकड़ों में तो टेलीविजन और विज्ञापन उद्योग से जुड़े लोगों और शोध करने वालों को ही दिलचस्पी रखनी चाहिए. दूसरों की दिलचस्पी का कारण मुझे समझ में नहीं आता. हमारा काम मीटर वाले घरों में देखे जाने वाले चैनलों की जानकारी एकत्रित करना और उसके आधार पर रेटिंग तैयार करना है. इसके बाद हम ये आंकड़े विज्ञापन एजेंसियों और टेलीविजन चैनलों को दे देते हैं. यहीं हमारा काम खत्म हो जाता है. हमने समाचार चैनलों से कभी नहीं कहा कि हमारी रेटिंग की वजह से आप अपनी सामग्री में बदलाव कर दीजिए.’

लेकिन सवाल यह है कि क्या उनके यह कह देने भर से मुद्दा खत्म हो जाता है कि वे दर्शकों के लिए काम नहीं करते. टैम की टीआरपी के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल को कितना विज्ञापन देना है. आंकड़ों में देखा जाए तो हर साल करीब 10,000 करोड़ रु की रकम कैसे खर्च होगी इसका आधार एक बड़ी हद तक टीआरपी ही तय करती है. बाजार में हर चैनल मुनाफा कमाने के लिए ही चल रहा है. विज्ञापन या यों कहें कि चैनलों की कमाई जब टीआरपी के आधार पर ही तय हो रही हो तो जाहिर है कि चैनल टीआरपी के हिसाब से अपनी सामग्री में बदलाव करेंगे.

खबरिया चैनलों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों की सामग्री के मामले में भारत में यही हुआ. 2000 के बाद देश में तेजी से खबरिया चैनलों की संख्या बढ़ी और इस बढ़ोतरी के साथ खबरों की प्रकृति भी बदलती चली गई. कुछ चैनलों ने भूत-प्रेत-चुड़ैल और सनसनी वाली खबरों से टीआरपी क्या बटोरी बाकी ज्यादातर चैनल भी इसी राह पर चल पड़े. चलते भी क्यों नहीं. सवाल टीआरपी बटोरने का था. जिसकी जितनी अधिक टीआरपी उसकी उतनी अधिक कमाई. जो इस नई डगर पर चलने के लिए तैयार नहीं थे उनके लिए चैनल चलाने का खर्चा निकालना भी मुश्किल हो गया. खबरिया चैनलों की दुनिया में काम करने वाले लोग ही बताते हैं कि टीआरपी नाम के दैत्य ने कई पत्रकारों की नौकरी ली और कई संपादकों की फजीहत कराई. उनके मुताबिक टीआरपी को ही सब कुछ मान लेने का नतीजा यह हुआ कि गंभीर खबरें लाने वाले पत्रकारों की हैसियत कम होती गई और उन्हें अपमान का भी सामना करना पड़ा. दूसरी तरफ अनाप-शनाप खबरें लाकर टीआरपी बटोरने वाले पत्रकारों का सम्मान और तनख्वाह बढ़ती रही. जब-जब खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने पर सवाल उठा तब-तब इन चैनलों के संपादक यह कहकर अपना बचाव करते दिखे कि आलोचना करने वाले पुराने जमाने के पत्रकार हैं और वे नए जमाने को समझ नहीं पाए हैं. ये संपादक दावा करते रहे कि समाज बदला है इसलिए खबरों का मिजाज भी बदलेगा.

लेकिन आज वही संपादक खुद ही टीआरपी पर सवाल उठा रहे हैं. आईबीएन-7 के संपादक आशुतोष ने कुछ समय पहले एक अखबार में छपे अपने लेख में टीआरपी की व्यवस्था को फौरन बंद करने की मांग की है. ‘तहलका’ से बातचीत में वे कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी व्यवस्था दोषपूर्ण और अवैज्ञानिक है. इसमें न तो हर तबके की भागीदारी है और न ही हर क्षेत्र की. लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं और ऐसे में विकास की दौड़ में अब तक पीछे रहे लोगों और क्षेत्रों की उपेक्षा हो रही है. खबरों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों में खबरों के भटकाव के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार टीआरपी है. अच्छी खबरों की टीआरपी नहीं है. कोई चैनल किसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय खबर को दिखा रहा हो या फिर राष्ट्रीय महत्व की किसी खबर को उठा रहा हो, उसकी टीआरपी नहीं आती. भूत-प्रेत दिखाने वाले चैनल की अच्छी टीआरपी आ जाती है.’ बकौल आशुतोष, ‘एक अदना-सा लड़का भी जानता है कि टीवी में तीन सी, यानी क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा बिकता है और प्रस्तुतीकरण जितना सनसनीखेज होगा उतनी ही टीआरपी टूटेगी. और टीआरपी माने विज्ञापन, विज्ञापन माने पैसा, पैसा माने प्रॉफिट, प्रॉफिट माने बाजार में जलवा. जिस हफ्ते टीआरपी गिर जाती है उस हफ्ते एडिटर को नींद नहीं आती, उसको अपनी नौकरी जाती हुई नजर आती है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, वह न्यूज रूम में ज्यादा चिल्लाने लगता है. और फिर टीआरपी बढ़ाने के नए-नए तरीके ईजाद करता है.’

टीआरपी की शुरुआत विज्ञापन एजेंसियों ने की है इसलिए यह व्यवस्था उनके हितों की रक्षा करेगी – एनके सिंह, महासचिव, ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन

सवाल सरकारी स्तर पर भी उठ रहे हैं. 2008 में एक स्थायी संसदीय समिति ने भी टीआरपी की व्यवस्था को दोषपूर्ण बताते हुए एक रपट संसद में दी थी. इस समिति को दी गई जानकारी में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने भी माना था कि एजेंसियों द्वारा तैयार की जा रही टीआरपी में कई तरह की कमियां हैं. प्रसार भारती के मुताबिक टैम के आंकड़ों की विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं. इसमें साप्ताहिक आधार पर आंकडे़ जारी करना, घरों की चयन पद्धति में पारदर्शिता की कमी और मीटर वाले घरों के नामों की गोपनीयता शामिल हैं. इसके अलावा स्वयं टैम द्वारा आंकड़ों से छेड़खानी की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इन आंकड़ों का किसी बाहरी संस्था द्वारा ऑडिट नहीं कराया जाता. एक चैनल के प्रमुख बताते हैं कि कुछ महीने पहले उनके चैनल की जो पहली रेटिंग आई उस पर प्रबंधन को संदेह हुआ. इसके बाद जब दोबारा रेटिंग मंगवाई गई तो पहले और बाद के आंकड़ों में काफी फर्क था. उधर, भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने भी इस व्यवस्था को गलत बताया है. अभी हाल ही में फिक्की के पूर्व महासचिव और पश्चिम बंगाल के मौजूदा वित्त मंत्री अमित मित्रा की अध्यक्षता में भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा गठित टीआरपी समिति की रिपोर्ट आई है. इसमें भी बताया गया है कि टीआरपी की पूरी व्यवस्था में कई खामियां हैं. इसके बावजूद टीवी और मनोरंजन उद्योग इन्हीं की रेटिंग के आधार पर अपने व्यावसायिक फैसले लेता है.

जानकार मानते हैं कि इस उद्योग की बुनियाद ही ऐसी व्यवस्था पर टिकी हुई है जिसमें जबर्दस्त खामियां हैं. अब इन खामियों को एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं. पहली और सबसे बड़ी खामी तो यही है कि 121 करोड़ की आबादी वाले इस देश में टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद तय करने का काम टैम 165 शहरों में लगे महज 8,150 मीटरों के जरिए कर रही है. सहारा समय बिहार-झारखंड के प्रमुख प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही है. आखिर सैंपल के इतने छोटे आकार के बूते कैसे सभी टेलीविजन दर्शकों की पसंद-नापसंद को तय किया जा सकता है.’

प्रबुद्ध राज जो सवाल उठा रहे हैं वह सवाल अक्सर उठता रहता है. कुछ समय पहले केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा था, ‘टेलीविजन कार्यक्रमों की रेटिंग तय करने के लिए न्यूनतम जरूरी मीटर तो लगने ही चाहिए. 8,000 मीटर टीआरपी तय करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.’ यह बात सोनी ने तब कही थी जब अमित मित्रा समिति की टीआरपी रिपोर्ट नहीं आई थी. इस रिपोर्ट को आए अब सात महीने होने को हैं, लेकिन अब तक समिति की सिफारिशों पर कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है.

हालांकि सिद्धार्थ दावा करते हैं कि वे 8,150 मीटरों के जरिए तकरीबन 36,000 लोगों की पसंद-नापसंद को इकट्ठा करते हैं. वे कहते हैं, ‘दुनिया में इतना बड़ा सैंपल किसी देश में टीआरपी के लिए इस्तेमाल नहीं होता. जिस तरह से शरीर के किसी भी हिस्से से एक बूंद खून लेने से यह पता चल जाता है कि ब्लड ग्रुप क्या है, उसी तरह इतने मीटरों के सहारे टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद का अंदाजा भी लगाया जा सकता है.’

लेकिन आलोचकों के इस पर अपने तर्क हैं. पहला तो यह कि टीआरपी की ब्लड ग्रुप से तुलना करना ही गलत है. क्योंकि इस आधार पर तो सिर्फ कुछ हजार लोगों की राय लेकर सरकार भी बनाई जा सकती है, फिर चुनाव का क्या काम है? जाहिर है कि सिद्धार्थ इस तरह के तर्कों का सहारा अपनी एजेंसी की खामियों पर पर्दा डालने के लिए कर रहे हैं. सिद्धार्थ तो यह भी कहते हैं कि अगर अमित मित्रा समिति की सिफारिशों के मुताबिक मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 कर दी जाए तो भी क्या गारंटी है कि टीआरपी की पूरी प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठेंगे. आलोचक इस पर तर्क देते हैं कि सवाल तो तब भी उठेंगे लेकिन टीआरपी की विश्वसनीयता बढ़ेगी.
सवाल केवल मीटरों की कम संख्या का ही नहीं है बल्कि इनका बंटवारा भी भेदभावपूर्ण है. अब भी पूर्वोत्तर के राज्यों और जम्मू-कश्मीर में टीआरपी मीटर नहीं पहुंचे हैं. ज्यादा मीटर वहीं लगे हैं जहां के लोगों की क्रय क्षमता अधिक है. आशुतोष कहते हैं, ‘लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं. यह सही नहीं है. सबसे ज्यादा मीटर दिल्ली और मुंबई में हैं. जबकि बिहार की आबादी काफी अधिक होने के बावजूद वहां सिर्फ 165 मीटर ही हैं. पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर तक तो मीटर पहुंचे ही नहीं हैं. इससे पता चलता है कि टीआरपी की व्यवस्था कितनी खोखली है.’

एनके सिंह इस बात को कुछ इस तरह रखते हैं, ‘35 लाख की आबादी वाले शहर अहमदाबाद में टीआरपी के 180 मीटर लगे हुए हैं. जबकि 10.5 करोड़ की आबादी वाले राज्य बिहार में सिर्फ 165 टीआरपी मीटर ही हैं. देश के आठ बड़े शहरों में तकरीबन चार करोड़ लोग रहते हैं और इन लोगों के लिए टीआरपी के 2,690 मीटर लगे हैं. जबकि देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले 118 करोड़ लोगों के लिए 5,310 टीआरपी मीटर हैं.’ सिंह ने यह हिसाब टीआरपी के 8,000 मीटरों के आधार पर लगाया है. अब टैम ने इसमें 150 मीटर और जोड़ दिए हैं.

कोई ऐसी व्यवस्था भी बने जहां टीआरपी से संबंधित शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्ध हो – परंजॉय गुहा ठाकुरता, वरिष्ठ पत्रकार

मीटरों के इस भेदभावपूर्ण बंटवारे के नतीजे की ओर इशारा करते हुए सिंह कहते हैं, ‘आप देखते होंगे कि दिल्ली या मुंबई की कोई छोटी-सी खबर भी राष्ट्रीय खबर बन जाती है लेकिन आजमगढ़ या गोपालगंज की बड़ी घटना को भी खबरिया चैनलों पर जगह पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. इसलिए कि टीआरपी के मीटर वहां नहीं हैं जबकि मुंबई में 501 और दिल्ली में 530 टीआरपी मीटर हैं. टीआरपी बड़े शहरों के आधार पर तय होती है, इसलिए खबरों के मामले में भी इन शहरों का प्रभुत्व दिखता है. इसके आधार पर कहा जा सकता है कि खबर और टीआरपी के लिए चलाई जा रही खबर में फर्क होता है.’

एनके सिंह ने जो तथ्य रखे हैं वे इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि टीआरपी कुछ ही शहरों के लोगों की पसंद-नापसंद के आधार पर तय की जा रही है. जबकि डीटीएच के प्रसार के बाद टीवी देखने वाले लोगों की संख्या छोटे शहरों और गांवों में भी तेजी से बढ़ी है. इसके बावजूद वहां तक टैम के वे मीटर नहीं पहुंचे हैं जिनके आधार पर टीआरपी तय की जा रही है. मीटर उन्हीं जगहों पर लगे हैं जहां की आबादी एक लाख से अधिक है. इसलिए बड़े शहरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को ही छोटे शहरों और गांव के लोगों की पसंद-नापसंद मान लिया जा रहा है. स्थायी संसदीय समिति के सामने सूचना और प्रसारण मंत्रालय, ट्राई, प्रसार भारती, प्रसारण निगम और इंडियन ब्राॅडकास्टिंग फाउंडेशन ने भी माना है कि ग्रामीण भारत को दर्शाए बगैर कोई भी रेटिंग पूरी तरह सही नहीं हो सकती.

2003-04 में प्रसार भारती ने टैम से मीटरों की संख्या बढ़ाने का अनुरोध किया था, ताकि ग्रामीण दर्शकों को भी कवर किया जा सके. टैम ने एक ही घर में एक से ज्यादा मीटर भी लगा रखे हैं. इस बाबत प्रसार भारती ने कहा था कि जिन घरों में दूसरा मीटर है उन्हें हटाकर वैसे घरों में लगाया जाना चाहिए जहां एक भी मीटर नहीं है. उस वक्त टैम ने ग्रामीण क्षेत्रों में मीटर लगाने के लिए दूरदर्शन से पौने आठ करोड़ रुपये की मांग की थी. प्रसार भारती ने उस वक्त यह कहकर इस प्रस्ताव को टाल दिया था कि यह खर्चा पूरा टेलीविजन उद्योग वहन करे न कि सिर्फ दूरदर्शन. लेकिन निजी चैनलों ने इस विस्तार के प्रति उत्साह नहीं दिखाया. इस वजह से सबसे ज्यादा नुकसान दूरदर्शन का हुआ. दूरदर्शन के कार्यक्रमों की रेटिंग कम हो गई, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षाकृत ज्यादा लोग दूरदर्शन देखते हैं.

गांवों में टीआरपी मीटर लगाने के सवाल पर सिद्धार्थ कहते हैं, ‘अब विज्ञापन एजेंसियां और टेलीविजन उद्योग गांवों के आंकड़े भी मांग रहे हैं, इसलिए हमने शुरुआत महाराष्ट्र के कुछ गांवों से की है. अभी यह योजना प्रायोगिक स्तर पर है. 60-70 गांवों में अभी हम अध्ययन कर रहे हैं. इसके व्यापक विस्तार में काफी वक्त लगेगा, क्योंकि गांवों में कई तरह की समस्याएं हैं. कहीं बिजली नहीं है तो कहीं वोल्टेज में काफी उतार-चढ़ाव है. इन समस्याओं के अध्ययन और समाधान के बाद ही गांवों में विस्तार के बारे में ठोस तौर पर टैम कुछ बता सकती है.’

टीआरपी मीटर लगाने में न सिर्फ शहरी और ग्रामीण खाई है बल्कि वर्ग विभेद भी साफ दिखता है. अभी ज्यादातर मीटर उन घरों में लगे हैं जो सामाजिक और आर्थिक लिहाज से संपन्न कहे जाते हैं. ये मीटर आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़े हुए लोगों के घरों में नहीं लगे हैं. हालांकि, आज टेलीविजन ऐसे घरों में भी हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि संपन्न तबके की पसंद-नापसंद को हर वर्ग पर थोप दिया जा रहा है. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अगर बक्से उच्च वर्ग के घरों में लगाए जाएं तो जाहिर है कि टीवी कार्यक्रमों को लेकर उस वर्ग की पसंद देश के आम तबके से थोड़ी अलग होगी ही, लेकिन इसके बावजूद टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था में उसे ही सबकी पसंद बता दिया जाता है और इसी के आधार पर उस तरह के कार्यक्रमों की बाढ़ टीवी पर आ जाती है.

वरिष्ठ पत्रकार और हाल तक भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य रहे परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘भारत के संविधान में 22 भाषाओं की बात की गई है. देश में जो नोट चलते हैं उनमें 17 भाषाएं होती हैं. ऐसे में आखिर कुछ संभ्रांत वर्ग के लोगों के यहां टीआरपी मीटर लगाकर उनकी पसंद-नापसंद को पूरे देश के टीवी दर्शकों पर थोपना कहां का न्याय है.’ वे कहते हैं, ‘टीआरपी की आड़ लेकर चैनल भी अनाप-शनाप दिखाना शुरू कर देते हैं. सवाल उठाने पर कहते हैं कि जो दर्शक पसंद कर रहे हैं वही हम दिखा रहे हैं. अब अगर किसी सर्वेक्षण में यह बात सामने आ जाए कि दर्शक पोर्नोग्राफी देखना पसंद करते हैं तो क्या चैनलवाले ऐसी सामग्री भी दिखाना शुरू कर देंगे?’

टीआरपी तय करने की पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है. यही वजह है कि समय-समय पर टीआरपी के आंकड़ों में हेर-फेर के आरोप भी लगते रहे हैं. अगर ऐसी किसी गड़बड़ी की वजह से किसी खराब कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ जाती है तो खतरा इस बात का भी है कि दूसरे चैनल भी ऐसे ही कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगेंगे. ऐसे में एक गलत चलन की शुरुआत होगी. हिंदी खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने को इससे जोड़कर देखा और समझा जा सकता है.

इतने छोटे सैंपल से कैसे सभी दर्शकों की पसंद-नापसंद तय हो सकती है? प्रबुद्ध राज प्रमुख, सहारा समय (बिहार-झारखंड)

नौ चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को बिल्कुल पाक-साफ नहीं कहा जा सकता है. यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं. राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाता है कि चैनलों की रैंकिंग में कोई खास फर्क नहीं होता है. चोटी के तीन चैनल हर हफ्ते अपना स्थान बदल लेते हैं लेकिन शीर्ष पर यही तीन चैनल रहते हैं. ऐसा नहीं होता कि पहले नंबर का चैनल अगले सप्ताह छठे या सातवें स्थान पर चला जाए. जबकि बिहार में ऐसा खूब हो रहा है. इस सप्ताह जो चैनल पहले पायदान पर है वह अगले सप्ताह छठे स्थान पर पहुंच जाता है और छठे-सातवें वाला पहले पायदान पर. ऐसा नहीं है कि बिहार के दर्शकों की पसंद इतनी तेजी से बदल रही है बल्कि कहीं न कहीं यह टीआरपी की प्रक्रिया में मौजूद खामियों की ओर इशारा करता है.’

प्रबुद्ध राज अचानक होने वाले इस तरह के बदलाव को लेकर जिन खामियों की ओर इशारा कर रहे हैं, वे दो स्तर पर संभव हैं. पहली बात तो यह है कि बिहार के जिन घरों में मीटर लगे हुए हैं उन घरों से मिलने वाले आंकड़ों के साथ टैम में छेड़छाड़ होती हो. ऑफ दि रिकॉर्ड बातचीत में कई खबरिया चैनलों के संपादक ऐसे आरोप लगाते हैं, लेकिन खुलकर कोई इसलिए नहीं बोलता कि इसी टीआरपी के जरिए उनके चैनल के दर्शकों की संख्या भी तय होनी है.

दूसरी  संभावना यह है कि जिन घरों में टैम के मीटर लगे हुए हैं वे रेटिंग को प्रभावित करने वाले तत्वों के प्रभाव में हों. 2001 में जब मीटर वाले घरों की बात खुली थी तो उस वक्त यह बात सामने आई थी कि इन घरों को खास चैनल देखने के लिए उपहार दिए जा रहे थे. एक चैनल के संपादक बताते हैं कि आज भी यह प्रवृत्ति जारी है. अमित मित्रा समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि उसके सामने कुछ ऐसे मामले लाए गए जिनमें यह कहा गया कि उपहार देकर मीटर वाले घरों को प्रभावित करने की कोशिश की गई. कुछ ऐसी शिकायतें भी आई हैं जिनमें यह कहा गया है कि चैनलों के एजेंट मीटर वाले घरों के मालिकों को देखने के लिए अपनी ओर से एक टीवी दे देते हैं और जिस टीवी में मीटर लगा होता है उस पर अपने हिसाब से चैनल चलवाकर रेटिंग को प्रभावित करते हैं.

तीसरी बात थोड़ी तकनीकी है. टैम के मीटर में देखे जाने वाले चैनल का नाम नहीं दर्ज होता बल्कि यह दर्ज होता है कि किस फ्रीक्वेंसी वाले चैनल को देखा जा रहा है. बाद में इसका मिलान उस फ्रीक्वेंसी पर प्रसारित होने वाले चैनलों की सूची से कर लिया जाता है. इसमें खेल यह है कि जिस चैनल की टीआरपी गिरानी हो तो केबल ऑपरेटर उस चैनल की फ्रीक्वेंसी बार-बार बदलते रहेंगे. आसान शब्दों में समझें तो आपके टेलीविजन में जो चैनल पांच नंबर पर दिखता है उसे उठाकर 165 नंबर पर दिखने वाले चैनल की जगह पर रख देंगे. जाहिर है कि ऐसे में जब आपको पांच पर आपका चैनल नहीं मिलेगा तो आप उसे खोजते-खोजते 165 तक नहीं जाएंगे और पांच नंबर पर दिखाए जाने वाले चैनल को भी नहीं देखेंगे. ऐसी स्थिति में पांच नंबर वाले चैनल की रेटिंग गिर जाएगी. चैनल के वितरण से जुड़े लोगों के प्रभाव में आकर यह खेल अक्सर स्थानीय स्तर पर केबल ऑपरेटर करते हैं. हालांकि, टैम का कहना है कि वह फ्रीक्वेंसी में होने वाले इस तरह के बदलावों पर नजर रखती है और उसके हिसाब से रेटिंग तय करती है. पर इस क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि व्यावहारिक तौर पर यह संभव नहीं है कि ऑपरेटर द्वारा हर बार फ्रीक्वेंसी में किए जाने वाले बदलाव को टैम के लोग पकड़ सकें.

सवाल यह भी है कि जो मीटर किसी घर में लगाए जाते हैं वे कितने समय तक वहां रहते हैं और मीटर लगने वाले घरों में बदलाव की क्या स्थिति है. इस बाबत टैम ने कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी. वैसे टैम यह दावा करती है कि हर साल वह 20 फीसदी मीटर घरों में बदलाव करती है. टैम ने गोपनीयता का वास्ता देते हुए यह बताने से भी इनकार कर दिया कि किन घरों में उसने मीटर लगाए हुए हैं. टैम के अधिकारी उन घरों का पता बताने के लिए भी तैयार नहीं हुए जहां पहले मीटर लगे हुए थे लेकिन अब हटा लिए गए हैं. हालांकि, अमित मित्रा समिति ने इस बात की सिफारिश जरूर की है कि टीआरपी की प्रक्रिया में पारदर्शिता और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए जरूरी उपाय किए जाएं.

एक और अहम बात यह है कि टैम के आंकड़ों का कोई स्वतंत्र ऑडिट नहीं होता. यह सवाल समय-समय पर उठता रहा है. इसके जवाब में एजेंसी कहती रही है कि वह अपनी प्रक्रियाओं में अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन करती है और रहा सवाल ऑडिट का तो कंपनी खुद तो ऑडिट करती ही है जिसमें काफी सख्ती और पारदर्शिता बरती जाती है. जहां तक विदेशों का सवाल है तो अमेरिका में टेलीविजन रेटिंग जारी करने का काम मीडिया रिसर्च काउंसिल (एमआरसी) करती है. यह एजेंसी जो आंकड़े एकत्रित करती है उसकी ऑडिटिंग प्रमाणित लोक लेखा एजेंसियां करती हैं. इसके बाद काफी विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाती है.

मुद्दा यह भी है कि अगर किसी व्यक्ति या संस्था को रेटिंग एजेंसियों के काम-काज पर संदेह है तो वह इन एजेंसियों के खिलाफ अपनी शिकायत तक नहीं दर्ज करा सकता. अभी तक भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई है कि इन एजेंसियों के खिलाफ कहीं शिकायत दर्ज करवाई जा सके. इस बदहाली के लिए स्थायी संसदीय समिति ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को आड़े हाथों लेते हुए कहा है, ‘डेढ़ दशक से सरकार अत्यधिक हिंसा और अश्लीलता के प्रसार और भारतीय संस्कृति के क्षरण को इस निरर्थक दलील के सहारे मूकदर्शक बनकर देखती रही कि अभी तक रेटिंग प्रणाली विनियमित नहीं है और कोई नीति/दिशानिर्देश इसलिए नहीं बनाए गए हैं क्योंकि रेटिंग एक व्यापारिक गतिविधि है और जब तक आम आदमी के हित का कोई बड़ा सवाल न हो तब तक सरकार किसी व्यापारिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं करती. मंत्रालय यह सोच कर आराम से बैठा रहा कि इसे अधिक व्यापक आधार वाला और प्रातिनिधिक बनाने का काम खुद उद्योग करेगा. भारत में टीवी प्रसार को देखते हुए स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि प्रचलित रेटिंग केवल और केवल एक व्यापारिक गतिविधि नहीं है.’

मीडिया के कुछ लोग टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को दोषपूर्ण मानते हुए इसमें सरकारी दखल की मांग करते रहे हैं. हालांकि, कुछ समय पहले तक सरकार यह कहती थी कि सर्वेक्षण के काम में वह दखल नहीं दे सकती क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ मामला है. इस सरकारी तर्क को खारिज करते हुए एनके सिंह कहते हैं, ‘यह बात सही है कि संविधान के अनुच्छेद-19(1)(जी) के तहत हर किसी को अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करने का अधिकार है लेकिन अनुच्छेद-19(6) में यह साफ लिखा हुआ है कि अगर कोई व्यवसाय जनता के हितों को प्रभावित करता है तो सरकार उसमें दखल दे सकती है. टीआरपी से देश की जनता प्रभावित हो रही है क्योंकि इसके हिसाब से खबरें प्रसारित हो रही हैं और जनता के मुद्दे बदले जा रहे हैं.’ अमित मित्रा समिति ने भी इस ओर यह कहते हुए इशारा किया है कि रेटिंग एजेंसियों के स्वामित्व में प्रसारकों, विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों की हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए ताकि हितों का टकराव नहीं हो. केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक हालिया साक्षात्कार में संकेत दिया था कि सरकार दखल के विकल्प पर विचार कर रही है. उनका कहना था, ‘यह सरकार की जिम्मेदारी है कि लोगों को सही चीजें देखने को मिलें. दूसरी बात यह है कि विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) देश का सबसे बड़ा विज्ञापनदाता है तो ऐसे में आखिर लोग यह कैसे कह सकते हैं कि सरकार इस मामले में पक्षकार नहीं है. देश का सबसे बड़ा चैनल दूरदर्शन भी सरकारी है.’ अंबिका सोनी की बात उम्मीद बंधाने वाली लगती तो है लेकिन टीआरपी समिति की सिफारिशों जो हश्र हुआ है उसे देखकर निराशा ही होती है.

एक बात तो साफ है कि टीआरपी मापने की मौजूदा प्रक्रिया टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसलिए हर तरफ यह बात उठती है कि टीआरपी मीटरों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए, पर सैंपल विस्तार में बढ़ोतरी नहीं होने के लिए मीटर की लागत को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. अमित मित्रा समिति ने टीआरपी की प्रक्रिया में सुधार के लिए मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 करने की सिफारिश की है. गांवों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए समिति ने इनमें से 15,000 मीटर गांवों में लगाने की बात कही है. समिति के मुताबिक इस क्षमता विस्तार में तकरीबन 660 करोड़ रुपये खर्च होंगे.
इस बारे में सिद्धार्थ कहते हैं, ‘हम इसके लिए तैयार हैं कि मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस काम को करने के लिए पैसा कौन देगा. अगर विज्ञापन और टेलीविजन उद्योग इसके लिए पैसा देने या फिर सब्सक्रिप्शन शुल्क बढ़ाने को तैयार हो जाते हैं तो हम मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए तैयार हैं.’ गौरतलब है कि विज्ञापन एजेंसियां और खबरिया चैनल टैम से मिलने वाले टीआरपी आंकड़ों के लिए सब्सक्रिप्शन शुल्क के तौर पर चार लाख रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक खर्च करती हैं. जो जितना अधिक पैसा देता है उसे उतने ही विस्तृत आंकड़े मिलते हैं.

एक तबका मानता है कि टीवी उद्योग को हर साल 10,300 करोड़ रुपये के विज्ञापन मिलते हैं इसलिए सही और विश्वसनीय आंकड़े हासिल करने के लिए 660 करोड़ रुपये खर्च करने में इस उद्योग को बहुत परेशानी नहीं होनी चाहिए. ठाकुरता कहते हैं, ‘टेलीविजन उद्योग के पास पैसे की कमी नहीं है. मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए होने वाला खर्च वह आसानी से जुटा सकता है. पर यहां मामला नीयत का है. अगर टैम की नीयत ठीक होती तो मीटरों की संख्या बढ़ाने या इसमें हर वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की बात चलती लेकिन अब तक ऐसा होता नहीं दिखा. जब भी मीटरों की संख्या बढ़ी है तब यह देखा गया है कि ऐसा विज्ञापनदाताओं के हितों को ध्यान में रखकर किया गया. इससे साबित होता है कि टैम जो टीआरपी देती है उसका दर्शकों के हितों से कोई लेना-देना नहीं है.’

भारत में टीआरपी के क्षेत्र में मची अंधेरगर्दी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां रेटिंग करने वाली कंपनियों के पंजीकरण के लिए कोई निर्धारित प्रणाली नहीं बनाई गई. यह बात खुद सूचना और प्रसारण मंत्रालय और प्रसार भारती ने संसदीय समिति के समक्ष स्वीकार की है. संसदीय समिति ने इस बात की सिफारिश की है कि रेटिंग प्रणाली में पारदर्शिता लाने के लिए स्वतंत्र, योग्य और विशेषज्ञ ऑडिट फर्मों द्वारा रेटिंग एजेंसियों की ऑडिटिंग करवाई जाए. अमित मित्रा समिति ने भी यह सिफारिश की है. ऐसा करने से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि आंकड़ों के साथ हेरा-फेरी नहीं हो रही है. हालांकि, टैम यह दावा करती है कि वह अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से आंतरिक ऑडिटिंग करवाती है.
ठाकुरता कहते हैं, ‘अगर टैम चाहती है कि टीआरपी पर लोगों का भरोसा बना रहे तो उसे कई कदम उठाने होंगे. सबसे पहले तो यह जरूरी है कि वह अपने मीटरों की संख्या बढ़ाए. मीटर हर वर्ग के घरों में लगें. गांवों तक इनका विस्तार हो और पूरे मामले में जितना संभव हो सके उतनी पारदर्शिता बरती जाए. कोई ऐसी व्यवस्था भी बने जहां टीआरपी से संबंधित शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्ध हो.’ सुधार की बाबत एनके सिंह कहते हैं, ‘पिछले दिनों ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के बैनर तले कई खबरिया चैनलों के संपादकों की बैठक हुई. इसमें यह तय किया गया कि हम टीआरपी की चिंता किए बगैर खबर दिखाएंगे.’

लेकिन विज्ञापन और आमदनी के दबाव के बीच क्या संपादक ऐसा कर पाएंगे? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘यह काफी कठिन काम है क्योंकि बाजार का दबाव हर तरफ है, लेकिन अब ज्यादातर समाचार चैनलों के संपादक इस बात पर सहमत हैं कि टीआरपी की चिंता किए बगैर अपना चैनल चलाना होगा. क्योंकि टीआरपी संभ्रांत वर्ग की पसंद-नापसंद को दिखाता है न कि हमारे सभी दर्शकों की रुचि को.’ आशुतोष कहते हैं, ‘ऐसा बिल्कुल संभव है कि खबरिया चैनल टीआरपी पर ध्यान न देते हुए खबरों का चयन करें. इसके लिए संपादक और प्रबंधन दोनों को अपने-अपने स्तर पर मजबूती दिखानी होगी. यह समझना होगा कि टीआरपी किसी भी खबरिया चैनलों का मापदंड नहीं हो सकता.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘अगर आप पिछले डेढ़ साल में समाचार चैनलों में सामग्री के स्तर पर आए बदलाव को देखेंगे तो पता चलेगा कि सुधार हो रहा है. यह सुधार रातोंरात नहीं हुआ है. बल्कि टीवी चैनलों पर सिविल सोसायटी, सरकार और सबसे अधिक दर्शकों का दबाव पड़ा है. दर्शक चैनलों को गाली देने लगे और समाचार चैनलों के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया. इसके बाद बीईए बना और आपस में समाचार चैनलों के संपादक बातचीत करने लगे और सुधार की कोशिश की गई. इस बीच न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने भी आत्मनियमन की दिशा में काम किया. इसका असर अब दिख रहा है और समाचार चैनलों में खबर एक बार फिर से लौट रही है. कुछ चैनल अब भी टीआरपी के लिए खबरों को फैंटेसी की दुनिया में ले जाकर दिखा रहे हैं. इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है. लेकिन समय के साथ वे भी सुधरेंगे.’

अमित मित्रा समिति ने यह भी कहा है कि हर रोज और हर हफ्ते रेटिंग जारी करने से चैनलों पर अतिरिक्त दबाव बनता है इसलिए इसे 15 दिन में एक बार जारी करने के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है. कुछ ऐसी ही बात आशुतोष भी कहते हैं, ‘या तो टीआरपी की व्यवस्था को पूरी तरह से बंद किया जाए. अगर ऐसा संभव नहीं हो तो हर हफ्ते टीआरपी के आंकड़े जारी करने की व्यवस्था बंद हो. हर छह महीने पर आंकड़े जारी हों. इससे दबाव घटेगा और खबरों की वापसी का रास्ता खुलेगा. टीआरपी के मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए और इसका बंटवारा आबादी के आधार पर हो. साथ ही हर क्षेत्र के मीटर को बराबर महत्व (वेटेज) दिया जाए.’

इस बीच एनबीए ने टैम मीडिया रिसर्च से आंकड़े जारी करने की समय-सीमा में बदलाव की मांग की है. एनबीए का कहना है कि टीआरपी आंकड़े जारी करने की अवधि को साप्ताहिक से मासिक कर दिए जाने से यह मीडिया के लिए ज्यादा लाभप्रद रहेगा. एनबीए द्वारा टैम से यह बातचीत पिछले कुछ दिनों से हो रही थी, लेकिन अब एनबीए ने टैम को पत्र देकर टीआरपी जारी करने की अवधि में बदलाव करने की गुजारिश की है.

कुल मिलाकर मौजूदा व्यवस्था टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसमें सुधार की जरूरत है. बात सिर्फ हजारों करोड़ का विज्ञापन देने वालों के हित की नहीं है. करोड़ों दर्शकों के भले की भी है. 

तमाशा, रेस और प्वाइंट्स

 

बीती जुलाई की एक शाम बिहार की राजधानी पटना में केबल टेलीविजन पर दिखने वाले सारे खबरिया चैनल गायब हो गए. केवल एक को छोड़कर. यह चैनल था मौर्य टीवी जोकि बिहार और झारखंड में चलने वाला एक क्षेत्रीय समाचार चैनल है. बाकी चैनलों का प्रसारण बंद होने के बाद स्वाभाविक ही था कि संबंधित चैनलों के लोग पटना में केबल नेटवर्क चलाने वालों से संपर्क साधते. ऐसा करने पर जवाब मिला कि कुछ तकनीकी बदलाव किए जा रहे हैं इसलिए एक-दो घंटे में चैनल दिखने लगेंगे, लेकिन रात के ग्यारह बजे तक दूसरे चैनल नहीं दिखे. स्वाभाविक है ऐसे में दर्शकों के सामने खबर देखने के लिए सिर्फ एक ही विकल्प था. नतीजा यह हुआ कि उस हफ्ते बिहार में मौर्य टीवी रेटिंग के लिहाज से सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चैनल बन गया. वहीं दूसरे चैनलों की रेटिंग में कमी आई.

‘तहलका’ को यह कहानी बिहार के लिए क्षेत्रीय समाचार चैनल चलाने वाले चैनल प्रमुखों ने सुनाई. उनका यह भी आरोप है कि केबल नेटवर्क चलाने वालों के साथ मिलकर मौर्य टीवी को नंबर एक बनाने का यह खेल हुआ और इसमें उनके चैनलों को नुकसान उठाना पड़ा. उनके मुताबिक एक तरह से देखा जाए तो सुनियोजित ढंग से टीवी से चैनलों का विकल्प गायब कर दिया गया और विकल्पहीनता का फायदा उठाकर एक खास चैनल को रेटिंग के मामले में शीर्ष स्थान पर काबिज होने की पटकथा तैयार कर दी गई.

इस घटना ने एक बार फिर टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट तय करने की पूरी प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह उदाहरण 2011 का है, लेकिन इस तरह के सवाल एक दशक पहले 2001 में ही उठने लगे थे. दरअसल तब मुंबई के 625 घरों के बारे में यह बात सामने आई थी कि उन्हें टीआरपी तय करने की प्रक्रिया में शामिल किया गया है. रेटिंग तैयार करने वाली एजेंसी इन घरों की गोपनीयता बनाए रखने का दावा करती थी. उस वक्त खबरें आई थीं कि एक खास चैनल के लोगों ने इन घरों के दर्शकों को प्रभावित करने का काम किया और इसमें कामयाब भी हुए. इन घरों के लोगों को खास कार्यक्रम देखने के बदले कुछ उपहार देने की बात सामने आई थी. खबर आने के बाद हर तरफ हो-हल्ला मचा. विज्ञापनदाताओं ने भी सवाल उठाए और चैनल के लोगों ने भी. विज्ञापन के रूप में 2500 करोड़ रु (यह 2001 का आंकड़ा है जो आज 10 हजार करोड़ से भी ज्यादा हो गया है) की रकम जिस आधार  पर खर्च हो रही हो उसी में मिलावट की खबर मिले तो ऐसा होना स्वाभाविक ही था. रेटिंग तय करने वाली एजेंसी ने फिर गोपनीयता का भरोसा दिलाया. कहा कि जो गलतियां हुई हैं उन्हें सुधार लिया जाएगा. बात आई-गई हो गई. लेकिन 10 साल बाद पटना की घटना ने एक बार फिर टीआरपी नाम की इस व्यवस्था की खामियों का संकेत दे दिया है.
वैसे इन 10 वर्षों के दौरान भी कई मर्तबा टीआरपी पर सवाल उठते रहे हैं. 2001 के बाद से देश में समाचार चैनलों की संख्या तेजी से बढ़ी और समय के साथ खबरों की परिभाषा भी बदलती चली गई. आरोप लगे कि खबरों की जगह भूत-प्रेत और नाग-नागिन ने ले ली है. यह भी कि खबरिया चैनल मनोरंजन चैनलों की राह पर चल पड़े हैं. आलोचक मानते हैं कि इस दौरान खबरों से सरोकार गायब होते गए और इनकी जगह सनसनी और मनोरंजन ने ले ली. और यह पूरा खेल हुआ उस टीआरपी के नाम पर जिसकी व्यवस्था में खुद ही कई खामियां हैं.

हालांकि यह भी दिलचस्प है कि कुछ समय पहले तक समाचार चैनलों को चलाने वाले लोग अक्सर यह तर्क दिया करते थे कि समय के साथ खबरों की परिभाषा बदल गई है. लेकिन अब जब टीआरपी की पूरी प्रक्रिया की पोल धीरे-धीरे खुल रही है और उसी टीआरपी ने चैनल प्रमुखों की नौकरियों को चुनौती देना शुरू कर दिया है तो कई टीआरपी की व्यवस्था पर सवाल उठाने लगे हैं.
आगे बढ़ने से पहले टीआरपी से संबंधित कुछ बुनियादी बातों को समझना जरूरी है. अभी देश में टीआरपी तय करने का काम टैम मीडिया रिसर्च नामक कंपनी करती है. यहां टैम का मतलब है टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट. रेटिंग तय करने के लिए एक दूसरी कंपनी भी है जिसका नाम है एमैप. हालांकि, कुछ दिनों पहले ही यह खबर आई कि एमैप बंद हो रही है. इस बारे में कंपनी के प्रबंध निदेशक रविरतन अरोड़ा का कहना था कि वे अपना कारोबार समेट नहीं रहे बल्कि तकनीकी बदलावों के चलते इसे चार महीने तक रोक रहे हैं. 2004 में शुरू होने वाली कंपनी एमैप अभी तक 7,200 मीटरों के जरिए रेटिंग तैयार करने का काम कर रही थी. उधर, 1998 में शुरू हुई टैम के कुल मीटरों की संख्या 8,150 है. इनमें से 1,007 मीटर डीटीएच, कैस और आईपीटीवी वाले घरों में हैं. जबकि 5,532 मीटर एनालॉग केबल और 1,611 मीटर गैर केबल यानी दूरदर्शन वाले घरों में हैं. एक मीटर की लागत 75,000 रुपये से एक लाख रुपये के बीच बैठती है.

इन्हीं मीटरों के सहारे टीआरपी तय की जाती है. ये मीटर संबंधित घरों के टेलीविजन सेट से जोड़ दिए जाते हैं. इनमें यह दर्ज होता है कि किस घर में कितनी देर तक कौन-सा चैनल देखा गया. अलग-अलग मीटरों से मिलने वाले आंकड़ों के आधार पर रेटिंग तैयार की जाती है और बताया जाता है कि किस चैनल को कितने लोगों ने देखा. टैम सप्ताह में एक बार अपनी रेटिंग जारी करती है और इसमें पूरे हफ्ते के अलग-अलग कार्यक्रमों की रेटिंग दी जाती है. टैम यह रेटिंग अलग-अलग आयु और आय वर्ग के आधार पर देती है. इस रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल पर उन्हें कितना विज्ञापन देना है. रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाताओं को यह पता चल पाता है कि वे जिस वर्ग तक अपना उत्पाद पहुंचाना चाहते हैं वह वर्ग कौन-सा चैनल देखता है. चैनलों की आमदनी का सबसे अहम जरिया विज्ञापन ही हैं. इस वजह से चैनलों के लिए रेटिंग की काफी अहमियत है. जिस चैनल की रेटिंग ज्यादा होगी विज्ञापनदाता उसी चैनल को अधिक विज्ञापन देंगे. इस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि रेटिंग सीधे तौर पर चैनलों की कमाई से जुड़ी हुई है. जितनी अधिक रेटिंग उतनी अधिक कमाई. रेटिंग से ही चैनलों को यह पता चल पाता है कि किस तरह के कार्यक्रम को लोग पसंद कर रहे हैं और इसी के आधार पर उस सामग्री का स्वरूप तय होता है जो दर्शकों को टीवी के परदे पर दिखती है.

यानी खबरिया चैनलों की सामग्री के बदलाव में टीआरपी प्रमुख भूमिका निभा रही है. अब अगर टीआरपी तय करने की पूरी व्यवस्था में ही कई खामियां हों तो जाहिर है कि सामग्री के स्तर पर होने वाला बदलाव सकारात्मक नहीं होगा. यही बात खबरिया चैनलों के मामले में दिखती है. टैम की शुरुआत से संबंधित तथ्यों से यह बात स्थापित होती है कि यह विज्ञापनदाताओं के लिए काम करने वाली एजेंसी है. यह भले ही दर्शकों की पसंद-नापसंद की रिपोर्ट देने का दावा करती हो लेकिन इसका मकसद सीधे तौर पर विज्ञापनदाताओं की उनके हित साधने में मदद करना है. ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव और साधना न्यूज समूह के संपादक एनके सिंह के मुताबिक टीआरपी जिस तकनीकी बदलाव की नुमाइंदगी करती है उसका मकसद खपत के पैटर्न में बदलाव करना है. वे कहते हैं, ‘टीआरपी की शुरुआत विज्ञापन एजेंसियों ने की, इसलिए यह व्यवस्था उनके हितों की रक्षा करेगी. विज्ञापनदाताओं के लिए यह जरूरी है कि उनके उत्पाद की खपत बढ़े. इसके लिए वे टीआरपी का इस्तेमाल करते हैं. दरअसल, यह एक ऐसा औजार है जिसके जरिए बाजार में खपत के लिए माहौल तैयार किया जाता है. लोगों के लिए इसकी और कोई प्रासंगिकता नहीं है.’

टैम के वरिष्ठ उपाध्यक्ष (कम्यूनिकेशंस) सिद्धार्थ मुखर्जी ‘तहलका’ से बातचीत में स्वीकार करते हैं कि टैम की शुरुआत विज्ञापनदाताओं को ध्यान में रखकर की गई थी. ‘हमें कहा गया था कि हम ये बताएं किस कार्यक्रम को कितना देखा जाता है ताकि इसके आधार पर विज्ञापनदाता अपनी रणनीति तय कर सकें. इसलिए हम यह दावा नहीं करते कि हम दर्शकों के लिए काम करते हैं. हमारा आम आदमी से कोई लेना-देना नहीं है.’ सिद्धार्थ कहते हैं, ‘टैम के आंकड़ों में तो टेलीविजन और विज्ञापन उद्योग से जुड़े लोगों और शोध करने वालों को ही दिलचस्पी रखनी चाहिए. दूसरों की दिलचस्पी का कारण मुझे समझ में नहीं आता. हमारा काम मीटर वाले घरों में देखे जाने वाले चैनलों की जानकारी एकत्रित करना और उसके आधार पर रेटिंग तैयार करना है. इसके बाद हम ये आंकड़े विज्ञापन एजेंसियों और टेलीविजन चैनलों को दे देते हैं. यहीं हमारा काम खत्म हो जाता है. हमने समाचार चैनलों से कभी नहीं कहा कि हमारी रेटिंग की वजह से आप अपनी सामग्री में बदलाव कर दीजिए.’

लेकिन सवाल यह है कि क्या उनके यह कह देने भर से मुद्दा खत्म हो जाता है कि वे दर्शकों के लिए काम नहीं करते. टैम की टीआरपी के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल को कितना विज्ञापन देना है. आंकड़ों में देखा जाए तो हर साल करीब 10,000 करोड़ रु की रकम कैसे खर्च होगी इसका आधार एक बड़ी हद तक टीआरपी ही तय करती है. बाजार में हर चैनल मुनाफा कमाने के लिए ही चल रहा है. विज्ञापन या यों कहें कि चैनलों की कमाई जब टीआरपी के आधार पर ही तय हो रही हो तो जाहिर है कि चैनल टीआरपी के हिसाब से अपनी सामग्री में बदलाव करेंगे.

खबरिया चैनलों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों की सामग्री के मामले में भारत में यही हुआ. 2000 के बाद देश में तेजी से खबरिया चैनलों की संख्या बढ़ी और इस बढ़ोतरी के साथ खबरों की प्रकृति भी बदलती चली गई. कुछ चैनलों ने भूत-प्रेत-चुड़ैल और सनसनी वाली खबरों से टीआरपी क्या बटोरी बाकी ज्यादातर चैनल भी इसी राह पर चल पड़े. चलते भी क्यों नहीं. सवाल टीआरपी बटोरने का था. जिसकी जितनी अधिक टीआरपी उसकी उतनी अधिक कमाई. जो इस नई डगर पर चलने के लिए तैयार नहीं थे उनके लिए चैनल चलाने का खर्चा निकालना भी मुश्किल हो गया. खबरिया चैनलों की दुनिया में काम करने वाले लोग ही बताते हैं कि टीआरपी नाम के दैत्य ने कई पत्रकारों की नौकरी ली और कई संपादकों की फजीहत कराई. उनके मुताबिक टीआरपी को ही सब कुछ मान लेने का नतीजा यह हुआ कि गंभीर खबरें लाने वाले पत्रकारों की हैसियत कम होती गई और उन्हें अपमान का भी सामना करना पड़ा. दूसरी तरफ अनाप-शनाप खबरें लाकर टीआरपी बटोरने वाले पत्रकारों का सम्मान और तनख्वाह बढ़ती रही. जब-जब खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने पर सवाल उठा तब-तब इन चैनलों के संपादक यह कहकर अपना बचाव करते दिखे कि आलोचना करने वाले पुराने जमाने के पत्रकार हैं और वे नए जमाने को समझ नहीं पाए हैं. ये संपादक दावा करते रहे कि समाज बदला है इसलिए खबरों का मिजाज भी बदलेगा.

लेकिन आज वही संपादक खुद ही टीआरपी पर सवाल उठा रहे हैं. आईबीएन-7 के संपादक आशुतोष ने कुछ समय पहले एक अखबार में छपे अपने लेख में टीआरपी की व्यवस्था को फौरन बंद करने की मांग की है. ‘तहलका’ से बातचीत में वे कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी व्यवस्था दोषपूर्ण और अवैज्ञानिक है. इसमें न तो हर तबके की भागीदारी है और न ही हर क्षेत्र की. लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं और ऐसे में विकास की दौड़ में अब तक पीछे रहे लोगों और क्षेत्रों की उपेक्षा हो रही है. खबरों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों में खबरों के भटकाव के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार टीआरपी है. अच्छी खबरों की टीआरपी नहीं है. कोई चैनल किसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय खबर को दिखा रहा हो या फिर राष्ट्रीय महत्व की किसी खबर को उठा रहा हो, उसकी टीआरपी नहीं आती. भूत-प्रेत दिखाने वाले चैनल की अच्छी टीआरपी आ जाती है.’ बकौल आशुतोष, ‘एक अदना-सा लड़का भी जानता है कि टीवी में तीन सी, यानी क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा बिकता है और प्रस्तुतीकरण जितना सनसनीखेज होगा उतनी ही टीआरपी टूटेगी. और टीआरपी माने विज्ञापन, विज्ञापन माने पैसा, पैसा माने प्रॉफिट, प्रॉफिट माने बाजार में जलवा. जिस हफ्ते टीआरपी गिर जाती है उस हफ्ते एडिटर को नींद नहीं आती, उसको अपनी नौकरी जाती हुई नजर आती है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, वह न्यूज रूम में ज्यादा चिल्लाने लगता है. और फिर टीआरपी बढ़ाने के नए-नए तरीके ईजाद करता है.’

सवाल सरकारी स्तर पर भी उठ रहे हैं. 2008 में एक स्थायी संसदीय समिति ने भी टीआरपी की व्यवस्था को दोषपूर्ण बताते हुए एक रपट संसद में दी थी. इस समिति को दी गई जानकारी में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने भी माना था कि एजेंसियों द्वारा तैयार की जा रही टीआरपी में कई तरह की कमियां हैं. प्रसार भारती के मुताबिक टैम के आंकड़ों की विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं. इसमें साप्ताहिक आधार पर आंकडे़ जारी करना, घरों की चयन पद्धति में पारदर्शिता की कमी और मीटर वाले घरों के नामों की गोपनीयता शामिल हैं. इसके अलावा स्वयं टैम द्वारा आंकड़ों से छेड़खानी की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इन आंकड़ों का किसी बाहरी संस्था द्वारा ऑडिट नहीं कराया जाता. एक चैनल के प्रमुख बताते हैं कि कुछ महीने पहले उनके चैनल की जो पहली रेटिंग आई उस पर प्रबंधन को संदेह हुआ. इसके बाद जब दोबारा रेटिंग मंगवाई गई तो पहले और बाद के आंकड़ों में काफी फर्क था. उधर, भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने भी इस व्यवस्था को गलत बताया है. अभी हाल ही में फिक्की के पूर्व महासचिव और पश्चिम बंगाल के मौजूदा वित्त मंत्री अमित मित्रा की अध्यक्षता में भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा गठित टीआरपी समिति की रिपोर्ट आई है. इसमें भी बताया गया है कि टीआरपी की पूरी व्यवस्था में कई खामियां हैं. इसके बावजूद टीवी और मनोरंजन उद्योग इन्हीं की रेटिंग के आधार पर अपने व्यावसायिक फैसले लेता है.

जानकार मानते हैं कि इस उद्योग की बुनियाद ही ऐसी व्यवस्था पर टिकी हुई है जिसमें जबर्दस्त खामियां हैं. अब इन खामियों को एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं. पहली और सबसे बड़ी खामी तो यही है कि 121 करोड़ की आबादी वाले इस देश में टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद तय करने का काम टैम 165 शहरों में लगे महज 8,150 मीटरों के जरिए कर रही है. सहारा समय बिहार-झारखंड के प्रमुख प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही है. आखिर सैंपल के इतने छोटे आकार के बूते कैसे सभी टेलीविजन दर्शकों की पसंद-नापसंद को तय किया जा सकता है.’

प्रबुद्ध राज जो सवाल उठा रहे हैं वह सवाल अक्सर उठता रहता है. कुछ समय पहले केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा था, ‘टेलीविजन कार्यक्रमों की रेटिंग तय करने के लिए न्यूनतम जरूरी मीटर तो लगने ही चाहिए. 8,000 मीटर टीआरपी तय करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.’ यह बात सोनी ने तब कही थी जब अमित मित्रा समिति की टीआरपी रिपोर्ट नहीं आई थी. इस रिपोर्ट को आए अब सात महीने होने को हैं, लेकिन अब तक समिति की सिफारिशों पर कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है.

हालांकि सिद्धार्थ दावा करते हैं कि वे 8,150 मीटरों के जरिए तकरीबन 36,000 लोगों की पसंद-नापसंद को इकट्ठा करते हैं. वे कहते हैं, ‘दुनिया में इतना बड़ा सैंपल किसी देश में टीआरपी के लिए इस्तेमाल नहीं होता. जिस तरह से शरीर के किसी भी हिस्से से एक बूंद खून लेने से यह पता चल जाता है कि ब्लड ग्रुप क्या है, उसी तरह इतने मीटरों के सहारे टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद का अंदाजा भी लगाया जा सकता है.’

लेकिन आलोचकों के इस पर अपने तर्क हैं. पहला तो यह कि टीआरपी की ब्लड ग्रुप से तुलना करना ही गलत है. क्योंकि इस आधार पर तो सिर्फ कुछ हजार लोगों की राय लेकर सरकार भी बनाई जा सकती है, फिर चुनाव का क्या काम है? जाहिर है कि सिद्धार्थ इस तरह के तर्कों का सहारा अपनी एजेंसी की खामियों पर पर्दा डालने के लिए कर रहे हैं. सिद्धार्थ तो यह भी कहते हैं कि अगर अमित मित्रा समिति की सिफारिशों के मुताबिक मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 कर दी जाए तो भी क्या गारंटी है कि टीआरपी की पूरी प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठेंगे. आलोचक इस पर तर्क देते हैं कि सवाल तो तब भी उठेंगे लेकिन टीआरपी की विश्वसनीयता बढ़ेगी.
सवाल केवल मीटरों की कम संख्या का ही नहीं है बल्कि इनका बंटवारा भी भेदभावपूर्ण है. अब भी पूर्वोत्तर के राज्यों और जम्मू-कश्मीर में टीआरपी मीटर नहीं पहुंचे हैं. ज्यादा मीटर वहीं लगे हैं जहां के लोगों की क्रय क्षमता अधिक है. आशुतोष कहते हैं, ‘लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं. यह सही नहीं है. सबसे ज्यादा मीटर दिल्ली और मुंबई में हैं. जबकि बिहार की आबादी काफी अधिक होने के बावजूद वहां सिर्फ 165 मीटर ही हैं. पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर तक तो मीटर पहुंचे ही नहीं हैं. इससे पता चलता है कि टीआरपी की व्यवस्था कितनी खोखली है.’

एनके सिंह इस बात को कुछ इस तरह रखते हैं, ‘35 लाख की आबादी वाले शहर अहमदाबाद में टीआरपी के 180 मीटर लगे हुए हैं. जबकि 10.5 करोड़ की आबादी वाले राज्य बिहार में सिर्फ 165 टीआरपी मीटर ही हैं. देश के आठ बड़े शहरों में तकरीबन चार करोड़ लोग रहते हैं और इन लोगों के लिए टीआरपी के 2,690 मीटर लगे हैं. जबकि देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले 118 करोड़ लोगों के लिए 5,310 टीआरपी मीटर हैं.’ सिंह ने यह हिसाब टीआरपी के 8,000 मीटरों के आधार पर लगाया है. अब टैम ने इसमें 150 मीटर और जोड़ दिए हैं.

मीटरों के इस भेदभावपूर्ण बंटवारे के नतीजे की ओर इशारा करते हुए सिंह कहते हैं, ‘आप देखते होंगे कि दिल्ली या मुंबई की कोई छोटी-सी खबर भी राष्ट्रीय खबर बन जाती है लेकिन आजमगढ़ या गोपालगंज की बड़ी घटना को भी खबरिया चैनलों पर जगह पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. इसलिए कि टीआरपी के मीटर वहां नहीं हैं जबकि मुंबई में 501 और दिल्ली में 530 टीआरपी मीटर हैं. टीआरपी बड़े शहरों के आधार पर तय होती है, इसलिए खबरों के मामले में भी इन शहरों का प्रभुत्व दिखता है. इसके आधार पर कहा जा सकता है कि खबर और टीआरपी के लिए चलाई जा रही खबर में फर्क होता है.’

एनके सिंह ने जो तथ्य रखे हैं वे इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि टीआरपी कुछ ही शहरों के लोगों की पसंद-नापसंद के आधार पर तय की जा रही है. जबकि डीटीएच के प्रसार के बाद टीवी देखने वाले लोगों की संख्या छोटे शहरों और गांवों में भी तेजी से बढ़ी है. इसके बावजूद वहां तक टैम के वे मीटर नहीं पहुंचे हैं जिनके आधार पर टीआरपी तय की जा रही है. मीटर उन्हीं जगहों पर लगे हैं जहां की आबादी एक लाख से अधिक है. इसलिए बड़े शहरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को ही छोटे शहरों और गांव के लोगों की पसंद-नापसंद मान लिया जा रहा है. स्थायी संसदीय समिति के सामने सूचना और प्रसारण मंत्रालय, ट्राई, प्रसार भारती, प्रसारण निगम और इंडियन ब्राॅडकास्टिंग फाउंडेशन ने भी माना है कि ग्रामीण भारत को दर्शाए बगैर कोई भी रेटिंग पूरी तरह सही नहीं हो सकती.

2003-04 में प्रसार भारती ने टैम से मीटरों की संख्या बढ़ाने का अनुरोध किया था, ताकि ग्रामीण दर्शकों को भी कवर किया जा सके. टैम ने एक ही घर में एक से ज्यादा मीटर भी लगा रखे हैं. इस बाबत प्रसार भारती ने कहा था कि जिन घरों में दूसरा मीटर है उन्हें हटाकर वैसे घरों में लगाया जाना चाहिए जहां एक भी मीटर नहीं है. उस वक्त टैम ने ग्रामीण क्षेत्रों में मीटर लगाने के लिए दूरदर्शन से पौने आठ करोड़ रुपये की मांग की थी. प्रसार भारती ने उस वक्त यह कहकर इस प्रस्ताव को टाल दिया था कि यह खर्चा पूरा टेलीविजन उद्योग वहन करे न कि सिर्फ दूरदर्शन. लेकिन निजी चैनलों ने इस विस्तार के प्रति उत्साह नहीं दिखाया. इस वजह से सबसे ज्यादा नुकसान दूरदर्शन का हुआ. दूरदर्शन के कार्यक्रमों की रेटिंग कम हो गई, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षाकृत ज्यादा लोग दूरदर्शन देखते हैं.

गांवों में टीआरपी मीटर लगाने के सवाल पर सिद्धार्थ कहते हैं, ‘अब विज्ञापन एजेंसियां और टेलीविजन उद्योग गांवों के आंकड़े भी मांग रहे हैं, इसलिए हमने शुरुआत महाराष्ट्र के कुछ गांवों से की है. अभी यह योजना प्रायोगिक स्तर पर है. 60-70 गांवों में अभी हम अध्ययन कर रहे हैं. इसके व्यापक विस्तार में काफी वक्त लगेगा, क्योंकि गांवों में कई तरह की समस्याएं हैं. कहीं बिजली नहीं है तो कहीं वोल्टेज में काफी उतार-चढ़ाव है. इन समस्याओं के अध्ययन और समाधान के बाद ही गांवों में विस्तार के बारे में ठोस तौर पर टैम कुछ बता सकती है.’

टीआरपी मीटर लगाने में न सिर्फ शहरी और ग्रामीण खाई है बल्कि वर्ग विभेद भी साफ दिखता है. अभी ज्यादातर मीटर उन घरों में लगे हैं जो सामाजिक और आर्थिक लिहाज से संपन्न कहे जाते हैं. ये मीटर आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़े हुए लोगों के घरों में नहीं लगे हैं. हालांकि, आज टेलीविजन ऐसे घरों में भी हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि संपन्न तबके की पसंद-नापसंद को हर वर्ग पर थोप दिया जा रहा है. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अगर बक्से उच्च वर्ग के घरों में लगाए जाएं तो जाहिर है कि टीवी कार्यक्रमों को लेकर उस वर्ग की पसंद देश के आम तबके से थोड़ी अलग होगी ही, लेकिन इसके बावजूद टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था में उसे ही सबकी पसंद बता दिया जाता है और इसी के आधार पर उस तरह के कार्यक्रमों की बाढ़ टीवी पर आ जाती है.

वरिष्ठ पत्रकार और हाल तक भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य रहे परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘भारत के संविधान में 22 भाषाओं की बात की गई है. देश में जो नोट चलते हैं उनमें 17 भाषाएं होती हैं. ऐसे में आखिर कुछ संभ्रांत वर्ग के लोगों के यहां टीआरपी मीटर लगाकर उनकी पसंद-नापसंद को पूरे देश के टीवी दर्शकों पर थोपना कहां का न्याय है.’ वे कहते हैं, ‘टीआरपी की आड़ लेकर चैनल भी अनाप-शनाप दिखाना शुरू कर देते हैं. सवाल उठाने पर कहते हैं कि जो दर्शक पसंद कर रहे हैं वही हम दिखा रहे हैं. अब अगर किसी सर्वेक्षण में यह बात सामने आ जाए कि दर्शक पोर्नोग्राफी देखना पसंद करते हैं तो क्या चैनलवाले ऐसी सामग्री भी दिखाना शुरू कर देंगे?’

टीआरपी तय करने की पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है. यही वजह है कि समय-समय पर टीआरपी के आंकड़ों में हेर-फेर के आरोप भी लगते रहे हैं. अगर ऐसी किसी गड़बड़ी की वजह से किसी खराब कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ जाती है तो खतरा इस बात का भी है कि दूसरे चैनल भी ऐसे ही कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगेंगे. ऐसे में एक गलत चलन की शुरुआत होगी. हिंदी खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने को इससे जोड़कर देखा और समझा जा सकता है.

नौ चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को बिल्कुल पाक-साफ नहीं कहा जा सकता है. यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं. राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाता है कि चैनलों की रैंकिंग में कोई खास फर्क नहीं होता है. चोटी के तीन चैनल हर हफ्ते अपना स्थान बदल लेते हैं लेकिन शीर्ष पर यही तीन चैनल रहते हैं. ऐसा नहीं होता कि पहले नंबर का चैनल अगले सप्ताह छठे या सातवें स्थान पर चला जाए. जबकि बिहार में ऐसा खूब हो रहा है. इस सप्ताह जो चैनल पहले पायदान पर है वह अगले सप्ताह छठे स्थान पर पहुंच जाता है और छठे-सातवें वाला पहले पायदान पर. ऐसा नहीं है कि बिहार के दर्शकों की पसंद इतनी तेजी से बदल रही है बल्कि कहीं न कहीं यह टीआरपी की प्रक्रिया में मौजूद खामियों की ओर इशारा करता है.’

प्रबुद्ध राज अचानक होने वाले इस तरह के बदलाव को लेकर जिन खामियों की ओर इशारा कर रहे हैं, वे दो स्तर पर संभव हैं. पहली बात तो यह है कि बिहार के जिन घरों में मीटर लगे हुए हैं उन घरों से मिलने वाले आंकड़ों के साथ टैम में छेड़छाड़ होती हो. ऑफ दि रिकॉर्ड बातचीत में कई खबरिया चैनलों के संपादक ऐसे आरोप लगाते हैं, लेकिन खुलकर कोई इसलिए नहीं बोलता कि इसी टीआरपी के जरिए उनके चैनल के दर्शकों की संख्या भी तय होनी है.

दूसरी  संभावना यह है कि जिन घरों में टैम के मीटर लगे हुए हैं वे रेटिंग को प्रभावित करने वाले तत्वों के प्रभाव में हों. 2001 में जब मीटर वाले घरों की बात खुली थी तो उस वक्त यह बात सामने आई थी कि इन घरों को खास चैनल देखने के लिए उपहार दिए जा रहे थे. एक चैनल के संपादक बताते हैं कि आज भी यह प्रवृत्ति जारी है. अमित मित्रा समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि उसके सामने कुछ ऐसे मामले लाए गए जिनमें यह कहा गया कि उपहार देकर मीटर वाले घरों को प्रभावित करने की कोशिश की गई. कुछ ऐसी शिकायतें भी आई हैं जिनमें यह कहा गया है कि चैनलों के एजेंट मीटर वाले घरों के मालिकों को देखने के लिए अपनी ओर से एक टीवी दे देते हैं और जिस टीवी में मीटर लगा होता है उस पर अपने हिसाब से चैनल चलवाकर रेटिंग को प्रभावित करते हैं.

तीसरी बात थोड़ी तकनीकी है. टैम के मीटर में देखे जाने वाले चैनल का नाम नहीं दर्ज होता बल्कि यह दर्ज होता है कि किस फ्रीक्वेंसी वाले चैनल को देखा जा रहा है. बाद में इसका मिलान उस फ्रीक्वेंसी पर प्रसारित होने वाले चैनलों की सूची से कर लिया जाता है. इसमें खेल यह है कि जिस चैनल की टीआरपी गिरानी हो तो केबल ऑपरेटर उस चैनल की फ्रीक्वेंसी बार-बार बदलते रहेंगे. आसान शब्दों में समझें तो आपके टेलीविजन में जो चैनल पांच नंबर पर दिखता है उसे उठाकर 165 नंबर पर दिखने वाले चैनल की जगह पर रख देंगे. जाहिर है कि ऐसे में जब आपको पांच पर आपका चैनल नहीं मिलेगा तो आप उसे खोजते-खोजते 165 तक नहीं जाएंगे और पांच नंबर पर दिखाए जाने वाले चैनल को भी नहीं देखेंगे. ऐसी स्थिति में पांच नंबर वाले चैनल की रेटिंग गिर जाएगी. चैनल के वितरण से जुड़े लोगों के प्रभाव में आकर यह खेल अक्सर स्थानीय स्तर पर केबल ऑपरेटर करते हैं. हालांकि, टैम का कहना है कि वह फ्रीक्वेंसी में होने वाले इस तरह के बदलावों पर नजर रखती है और उसके हिसाब से रेटिंग तय करती है. पर इस क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि व्यावहारिक तौर पर यह संभव नहीं है कि ऑपरेटर द्वारा हर बार फ्रीक्वेंसी में किए जाने वाले बदलाव को टैम के लोग पकड़ सकें.

सवाल यह भी है कि जो मीटर किसी घर में लगाए जाते हैं वे कितने समय तक वहां रहते हैं और मीटर लगने वाले घरों में बदलाव की क्या स्थिति है. इस बाबत टैम ने कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी. वैसे टैम यह दावा करती है कि हर साल वह 20 फीसदी मीटर घरों में बदलाव करती है. टैम ने गोपनीयता का वास्ता देते हुए यह बताने से भी इनकार कर दिया कि किन घरों में उसने मीटर लगाए हुए हैं. टैम के अधिकारी उन घरों का पता बताने के लिए भी तैयार नहीं हुए जहां पहले मीटर लगे हुए थे लेकिन अब हटा लिए गए हैं. हालांकि, अमित मित्रा समिति ने इस बात की सिफारिश जरूर की है कि टीआरपी की प्रक्रिया में पारदर्शिता और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए जरूरी उपाय किए जाएं.

एक और अहम बात यह है कि टैम के आंकड़ों का कोई स्वतंत्र ऑडिट नहीं होता. यह सवाल समय-समय पर उठता रहा है. इसके जवाब में एजेंसी कहती रही है कि वह अपनी प्रक्रियाओं में अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन करती है और रहा सवाल ऑडिट का तो कंपनी खुद तो ऑडिट करती ही है जिसमें काफी सख्ती और पारदर्शिता बरती जाती है. जहां तक विदेशों का सवाल है तो अमेरिका में टेलीविजन रेटिंग जारी करने का काम मीडिया रिसर्च काउंसिल (एमआरसी) करती है. यह एजेंसी जो आंकड़े एकत्रित करती है उसकी ऑडिटिंग प्रमाणित लोक लेखा एजेंसियां करती हैं. इसके बाद काफी विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाती है.

मुद्दा यह भी है कि अगर किसी व्यक्ति या संस्था को रेटिंग एजेंसियों के काम-काज पर संदेह है तो वह इन एजेंसियों के खिलाफ अपनी शिकायत तक नहीं दर्ज करा सकता. अभी तक भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई है कि इन एजेंसियों के खिलाफ कहीं शिकायत दर्ज करवाई जा सके. इस बदहाली के लिए स्थायी संसदीय समिति ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को आड़े हाथों लेते हुए कहा है, ‘डेढ़ दशक से सरकार अत्यधिक हिंसा और अश्लीलता के प्रसार और भारतीय संस्कृति के क्षरण को इस निरर्थक दलील के सहारे मूकदर्शक बनकर देखती रही कि अभी तक रेटिंग प्रणाली विनियमित नहीं है और कोई नीति/दिशानिर्देश इसलिए नहीं बनाए गए हैं क्योंकि रेटिंग एक व्यापारिक गतिविधि है और जब तक आम आदमी के हित का कोई बड़ा सवाल न हो तब तक सरकार किसी व्यापारिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं करती. मंत्रालय यह सोच कर आराम से बैठा रहा कि इसे अधिक व्यापक आधार वाला और प्रातिनिधिक बनाने का काम खुद उद्योग करेगा. भारत में टीवी प्रसार को देखते हुए स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि प्रचलित रेटिंग केवल और केवल एक व्यापारिक गतिविधि नहीं है.’

मीडिया के कुछ लोग टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को दोषपूर्ण मानते हुए इसमें सरकारी दखल की मांग करते रहे हैं. हालांकि, कुछ समय पहले तक सरकार यह कहती थी कि सर्वेक्षण के काम में वह दखल नहीं दे सकती क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ मामला है. इस सरकारी तर्क को खारिज करते हुए एनके सिंह कहते हैं, ‘यह बात सही है कि संविधान के अनुच्छेद-19(1)(जी) के तहत हर किसी को अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करने का अधिकार है लेकिन अनुच्छेद-19(6) में यह साफ लिखा हुआ है कि अगर कोई व्यवसाय जनता के हितों को प्रभावित करता है तो सरकार उसमें दखल दे सकती है. टीआरपी से देश की जनता प्रभावित हो रही है क्योंकि इसके हिसाब से खबरें प्रसारित हो रही हैं और जनता के मुद्दे बदले जा रहे हैं.’ अमित मित्रा समिति ने भी इस ओर यह कहते हुए इशारा किया है कि रेटिंग एजेंसियों के स्वामित्व में प्रसारकों, विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों की हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए ताकि हितों का टकराव नहीं हो. केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक हालिया साक्षात्कार में संकेत दिया था कि सरकार दखल के विकल्प पर विचार कर रही है. उनका कहना था, ‘यह सरकार की जिम्मेदारी है कि लोगों को सही चीजें देखने को मिलें. दूसरी बात यह है कि विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) देश का सबसे बड़ा विज्ञापनदाता है तो ऐसे में आखिर लोग यह कैसे कह सकते हैं कि सरकार इस मामले में पक्षकार नहीं है. देश का सबसे बड़ा चैनल दूरदर्शन भी सरकारी है.’ अंबिका सोनी की बात उम्मीद बंधाने वाली लगती तो है लेकिन टीआरपी समिति की सिफारिशों जो हश्र हुआ है उसे देखकर निराशा ही होती है.

एक बात तो साफ है कि टीआरपी मापने की मौजूदा प्रक्रिया टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसलिए हर तरफ यह बात उठती है कि टीआरपी मीटरों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए, पर सैंपल विस्तार में बढ़ोतरी नहीं होने के लिए मीटर की लागत को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. अमित मित्रा समिति ने टीआरपी की प्रक्रिया में सुधार के लिए मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 करने की सिफारिश की है. गांवों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए समिति ने इनमें से 15,000 मीटर गांवों में लगाने की बात कही है. समिति के मुताबिक इस क्षमता विस्तार में तकरीबन 660 करोड़ रुपये खर्च होंगे.
इस बारे में सिद्धार्थ कहते हैं, ‘हम इसके लिए तैयार हैं कि मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस काम को करने के लिए पैसा कौन देगा. अगर विज्ञापन और टेलीविजन उद्योग इसके लिए पैसा देने या फिर सब्सक्रिप्शन शुल्क बढ़ाने को तैयार हो जाते हैं तो हम मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए तैयार हैं.’ गौरतलब है कि विज्ञापन एजेंसियां और खबरिया चैनल टैम से मिलने वाले टीआरपी आंकड़ों के लिए सब्सक्रिप्शन शुल्क के तौर पर चार लाख रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक खर्च करती हैं. जो जितना अधिक पैसा देता है उसे उतने ही विस्तृत आंकड़े मिलते हैं.

एक तबका मानता है कि टीवी उद्योग को हर साल 10,300 करोड़ रुपये के विज्ञापन मिलते हैं इसलिए सही और विश्वसनीय आंकड़े हासिल करने के लिए 660 करोड़ रुपये खर्च करने में इस उद्योग को बहुत परेशानी नहीं होनी चाहिए. ठाकुरता कहते हैं, ‘टेलीविजन उद्योग के पास पैसे की कमी नहीं है. मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए होने वाला खर्च वह आसानी से जुटा सकता है. पर यहां मामला नीयत का है. अगर टैम की नीयत ठीक होती तो मीटरों की संख्या बढ़ाने या इसमें हर वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की बात चलती लेकिन अब तक ऐसा होता नहीं दिखा. जब भी मीटरों की संख्या बढ़ी है तब यह देखा गया है कि ऐसा विज्ञापनदाताओं के हितों को ध्यान में रखकर किया गया. इससे साबित होता है कि टैम जो टीआरपी देती है उसका दर्शकों के हितों से कोई लेना-देना नहीं है.’

भारत में टीआरपी के क्षेत्र में मची अंधेरगर्दी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां रेटिंग करने वाली कंपनियों के पंजीकरण के लिए कोई निर्धारित प्रणाली नहीं बनाई गई. यह बात खुद सूचना और प्रसारण मंत्रालय और प्रसार भारती ने संसदीय समिति के समक्ष स्वीकार की है. संसदीय समिति ने इस बात की सिफारिश की है कि रेटिंग प्रणाली में पारदर्शिता लाने के लिए स्वतंत्र, योग्य और विशेषज्ञ ऑडिट फर्मों द्वारा रेटिंग एजेंसियों की ऑडिटिंग करवाई जाए. अमित मित्रा समिति ने भी यह सिफारिश की है. ऐसा करने से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि आंकड़ों के साथ हेरा-फेरी नहीं हो रही है. हालांकि, टैम यह दावा करती है कि वह अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से आंतरिक ऑडिटिंग करवाती है.
ठाकुरता कहते हैं, ‘अगर टैम चाहती है कि टीआरपी पर लोगों का भरोसा बना रहे तो उसे कई कदम उठाने होंगे. सबसे पहले तो यह जरूरी है कि वह अपने मीटरों की संख्या बढ़ाए. मीटर हर वर्ग के घरों में लगें. गांवों तक इनका विस्तार हो और पूरे मामले में जितना संभव हो सके उतनी पारदर्शिता बरती जाए. कोई ऐसी व्यवस्था भी बने जहां टीआरपी से संबंधित शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्ध हो.’ सुधार की बाबत एनके सिंह कहते हैं, ‘पिछले दिनों ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के बैनर तले कई खबरिया चैनलों के संपादकों की बैठक हुई. इसमें यह तय किया गया कि हम टीआरपी की चिंता किए बगैर खबर दिखाएंगे.’
लेकिन विज्ञापन और आमदनी के दबाव के बीच क्या संपादक ऐसा कर पाएंगे? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘यह काफी कठिन काम है क्योंकि बाजार का दबाव हर तरफ है, लेकिन अब ज्यादातर समाचार चैनलों के संपादक इस बात पर सहमत हैं कि टीआरपी की चिंता किए बगैर अपना चैनल चलाना होगा. क्योंकि टीआरपी संभ्रांत वर्ग की पसंद-नापसंद को दिखाता है न कि हमारे सभी दर्शकों की रुचि को.’ आशुतोष कहते हैं, ‘ऐसा बिल्कुल संभव है कि खबरिया चैनल टीआरपी पर ध्यान न देते हुए खबरों का चयन करें. इसके लिए संपादक और प्रबंधन दोनों को अपने-अपने स्तर पर मजबूती दिखानी होगी. यह समझना होगा कि टीआरपी किसी भी खबरिया चैनलों का मापदंड नहीं हो सकता.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘अगर आप पिछले डेढ़ साल में समाचार चैनलों में सामग्री के स्तर पर आए बदलाव को देखेंगे तो पता चलेगा कि सुधार हो रहा है. यह सुधार रातोंरात नहीं हुआ है. बल्कि टीवी चैनलों पर सिविल सोसायटी, सरकार और सबसे अधिक दर्शकों का दबाव पड़ा है. दर्शक चैनलों को गाली देने लगे और समाचार चैनलों के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया. इसके बाद बीईए बना और आपस में समाचार चैनलों के संपादक बातचीत करने लगे और सुधार की कोशिश की गई. इस बीच न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने भी आत्मनियमन की दिशा में काम किया. इसका असर अब दिख रहा है और समाचार चैनलों में खबर एक बार फिर से लौट रही है. कुछ चैनल अब भी टीआरपी के लिए खबरों को फैंटेसी की दुनिया में ले जाकर दिखा रहे हैं. इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है. लेकिन समय के साथ वे भी सुधरेंगे.’

अमित मित्रा समिति ने यह भी कहा है कि हर रोज और हर हफ्ते रेटिंग जारी करने से चैनलों पर अतिरिक्त दबाव बनता है इसलिए इसे 15 दिन में एक बार जारी करने के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है. कुछ ऐसी ही बात आशुतोष भी कहते हैं, ‘या तो टीआरपी की व्यवस्था को पूरी तरह से बंद किया जाए. अगर ऐसा संभव नहीं हो तो हर हफ्ते टीआरपी के आंकड़े जारी करने की व्यवस्था बंद हो. हर छह महीने पर आंकड़े जारी हों. इससे दबाव घटेगा और खबरों की वापसी का रास्ता खुलेगा. टीआरपी के मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए और इसका बंटवारा आबादी के आधार पर हो. साथ ही हर क्षेत्र के मीटर को बराबर महत्व (वेटेज) दिया जाए.’
इस बीच एनबीए ने टैम मीडिया रिसर्च से आंकड़े जारी करने की समय-सीमा में बदलाव की मांग की है. एनबीए का कहना है कि टीआरपी आंकड़े जारी करने की अवधि को साप्ताहिक से मासिक कर दिए जाने से यह मीडिया के लिए ज्यादा लाभप्रद रहेगा. एनबीए द्वारा टैम से यह बातचीत पिछले कुछ दिनों से हो रही थी, लेकिन अब एनबीए ने टैम को पत्र देकर टीआरपी जारी करने की अवधि में बदलाव करने की गुजारिश की है.

कुल मिलाकर मौजूदा व्यवस्था टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसमें सुधार की जरूरत है. बात सिर्फ हजारों करोड़ का विज्ञापन देने वालों के हित की नहीं है. करोड़ों दर्शकों के भले की भी है. l