सियासत में उफान और लामबंद मुसलमान !

उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ चुनाव-उपचुनाव इस बात की तस्दीक करते हैं कि मुसलिम मतदाताओं का रुझान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बजाय नई राजनीति की ओर हो रहा है. यहां पिछले कुछ समय में एक के बाद एक मुसलिम पहचान वाली पार्टियां अस्तित्व में आई हैं और असम की तर्ज पर मोर्चा बनाने की पहल के संकेत भी मिलते हैं. अतुल चौरसिया की रिपोर्ट

देश की आबादी में 15 फीसदी के करीब दखल रखने वाली मुसलिम आबादी उत्तर प्रदेश में 19 फीसदी के आसपास है. आंकड़ों के लिहाज से यह एक बड़ी संख्या है और भाजपा जैसी दक्षिणपंथी राजनीति करने वाली पार्टियों को छोड़कर किसी भी दूसरी सियासी तंजीम के लिए इसे नजरअंदाज कर पाना बेहद मुश्किल है. लेकिन बीते दो साल में अगर मुसलिम समाज के इर्द-गिर्द घूम रही राजनीति पर नजर डालें तो असम और केरल के बाद उत्तर प्रदेश में भी मुसलिम समाज में बेचैनी के संकेत मिल रहे हैं. जिस तेजी से इस इलाके में मुसलिम सियासी पार्टियों का गठन हुआ है उससे मुसलिम समाज के भीतर खदबदा रही कशमकश का संकेत मिलता है. प्रदेश में पीस पार्टी, उलेमा काउंसिल, कौमी एकता दल, मोमिन कांफ्रेंस, परचम पार्टी और नेशनल लोकहिंद पार्टी जैसी मुसलिम पहचान के साथ राजनीति में उतरने वाली पार्टियों की एक पूरी शृंखला तैयार हो गई है. इन पार्टियों के नेताओं, कार्यकर्ताओं और मुसलिम समाज की समझ रखने वाले बुद्धिजीवियों के साथ चर्चा में इस परिघटना के तमाम अनछुए पहलू सामने आते हैं. इसमें कांग्रेस, सपा जैसी पार्टियां खलनायक की परिधि में आती हैं, प्रशासनिक और व्यवस्थागत अनदेखियां कारक के रूप में सामने आती हैं और अपने पृथक वजूद की चाह इनकी प्राणवायु बनती दिख रही है.

सपा, बसपा और कांग्रेस सबके समीकरण मुसलिम पार्टियों के उभार के चलते गड़बड़ाए से दिख रहे हैं. कांग्रेस इनसे समझौते की उम्मीद में है तो मुलायम सिंह माफी मांगकर दाग धुलना चाहते हैंपीस पार्टी ऑफ इंडिया के झंडे तले उत्तर प्रदेश के सीमाई कस्बे डुमरियागंज के उपचुनाव में गरमी पैदा कर देने वाले गोरखपुर जिले के बड़हलगंज निवासी और पार्टी अध्यक्ष डॉ मुहम्मद अयूब के मुताबिक, ‘इस देश में आज सबसे बुरी दशा मुसलमानों की है. पिछले पचास सालों के दौरान इस समुदाय को धीरे-धीरे हाशिए पर पहुंचा दिया गया है. नेता सिर्फ बयान और  योजनाओं की घोषणा करते हैं पर होता कुछ नहीं. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आप लोगों के सामने है.’ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान से एमएस की डिग्री पाने वाले डॉ. अयूब देश की सिविल सेवा में सफलता हासिल करकेे और कस्टम विभाग की नौकरी को छह महीने में ही लात मारकर फिर से डॉक्टरी के पेशे में लौट आए थे. उनका कहना है कि वे भ्रष्टाचार, शांति और शोषित तबके के लिए राजनीति में आए हैं.

2008 में देश में हो रहे सिलसिलेवार बम धमाकों के दौरान पूर्वांचल के ही एक अन्य जिले आजमगढ़ का नाम तेजी से उड़ा और देखते ही देखते पूरे देश के परिदृश्य पर छा गया. यहां मुसलमानों ने सरकारी पक्षपात और प्रशासनिक बेरुखी के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए. इसी विद्रोह के सुर से एक स्थानीय मदरसे के उलेमा मौलाना आमिर रशादी ने उलेमा काउंसिल नाम की सियासी तान छेड़ी. देखते ही देखते आजमगढ़ और आसपास के इलाकों में उलेमा काउंसिल का दबदबा कायम हो गया. कुछ लोग इसकी एक वजह यहां मुसलिम आबादी का ज्यादा होना भी मानते हैं. जिस बात को डॉ अयूब तर्कों और आंकड़ों के सहारे बताते हैं, रशादी साहब उसे एक कदम आगे ले जाते हुए बेहद तल्ख लहजे में बयान करते हैं, ‘आजादी के बाद से ही मुसलमानों के अंदर यह बात भर दी गई है कि मुसलमान लीडरशिप नहीं दे सकता. जब भी इस देश में मुसलमानों की बात की जाती है तब फैसले लेने का अधिकार हिंदू लीडर के हाथ में दे दिया जाता है. ऐसा क्यों? हमने पूरे कौम को मुसलिम लीडरशिप की नई सोच दी है.’ वे साफ करते हैं कि हिंदू नेतृत्व से उनका आशय मुलायम, मायावती और उससे भी कहीं ज्यादा कांग्रेस से है.

हाल ही में मऊ जिले में भी इसी तर्ज की एक पार्टी का उदय हुआ है- ‘कौमी एकता दल’. इसकी नींव इलाके के चर्चित बाहुबली मुख्तार अंसारी और उनके भाई अफजल अंसारी ने रखी है. हालांकि दोनो भाइयों ने पार्टी में कोई पद लेने से परहेज करते हुए खुद को मार्गदर्शक की भूमिका में रखा है. पार्टी की कमान मुख्तार अंसारी के नजदीकी सहयोगी मुजाहिद और उनके चचेरे भाई और मुहम्मदाबाद से विधायक शिब्तैनुल्लाह अंसारी के हाथों में है. पीस पार्टी और उलेमा काउंसिल के बाद यह पूर्वांचल की एक और सियासी पार्टी है जो आने वाले समय में प्रदेश की मुख्य राजनीतिक पार्टियों के समीकरणों को उलट-पुलट कर सकती है. मऊ जिले में अच्छी-खासी मुसलिम आबादी को देखते हुए इसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर अपनी किस्मत आजमा चुके अफजाल अंसारी पार्टियों के उभार को स्वाभाविक घटना मानते हुए स्वीकार करते हैं, ‘हमारी लड़ाई समाज के दलितों और पिछड़ों के साथ ही मुसलमानों के लिए भी है. मुसलमान इस बात को समझता है कि उनके अपने समाज के नेता उनकी समस्याओं, उनकी चिंताओं को ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते हैं. आज मुसलिम समाज के भीतर बेचैनी है. आतंकवाद के नाम पर आज भी 600 से ज्यादा निर्दोष मुसलिम युवाओं को जेलों में ठूंस दिया गया है. इससे जो कुंठा पैदा हो रही है उसी का परिणाम है इस इलाके की राजनीतिक उठापटक.’

पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ अयूब भी व्यवस्था की अनदेखी और उसके दोमुंहे रवैए को एक बड़ी वजह मानते हैं, ‘आज की परिस्थितियों में जरूरी हो गया है कि मुसलमान अपने लिए एक मजबूत राजनीतिक विकल्प ढूंढे़. अगर वह इसी तरह से अलग-अलग पार्टियों के बीच झूलता रहेगा तो अस्थिरता जन्म लेगी और इस अस्थिरता का परिणाम हिंसा के रूप में सामने आता है.’ यहां इस चलन से जुड़े कुछ स्वाभाविक से सवाल पैदा होते हैं, मसलन इन पार्टियों के आने से वास्तव में मुसलमानों को कोई फायदा मिल रहा है? क्या ऐसा होने से उनकी भागीदारी और पूछ बढ़ी है? आजमगढ़ के लोकसभा चुनाव में पहली बार भाजपा को लगभग 22,000 वोटों से जीत हासिल हुई है. जबकि उलेमा काउंसिल के प्रत्याशी डॉ जावेद ने यहां 60,000 मुसलिम वोट हासिल किए थे. इसी वोट के सहारे दशकों से सपा और बसपा यहां अपना झंडा गाड़ती आई थीं. इसी तरह हाल ही में हुए डुमरियागंज उपचुनाव पर एक निगाह डालें तो वहां पीपीआई तीसरे स्थान पर रही थी और पूर्व में इस पर कब्जा रखने वाली सपा लुढ़ककर चौथे स्थान पर जा गिरी थी. मजे की बात है कि प्रदेश में अपने अस्तित्व के लिए ऑक्सीजन तलाश रही भाजपा यहां भी दूसरे पायदान पर जा पहुंची. ये नतीजे इस बात की गवाही देते हैं कि भले ये पार्टियां अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हों पर ये मुसलमानों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव भी डाल रही हैं क्योंकि इसका फायदा सिर्फ भाजपा को ही होता दिख रहा है जिसे इन वोटों से बहुत ज्यादा सरोकार नहीं है. तो क्या इनके ऊपर वोटकटवा का ठप्पा लगाना उचित होगा? 

डॉ अयूब इसे सिरे से खारिज कर देते हैं, ‘वोटकटवा पार्टी कौन है, अब इसका कोई पैमाना निर्धारित करना होगा. जो तीसरे स्थान पर रही वह वोटकटवा है या जो लोग चौथे स्थान पर जमानत जब्त करवा चुके हैं वे? सिर्फ बड़ी पार्टी होने या अतीत में जीत हासिल कर लेने से चुनाव आपकी जागीर तो नहीं बन जाते.’

सवाल यह पैदा होता है कि किसी धर्म, जाति या समुदाय विशेष की पार्टी का भविष्य क्या है. अतीत में इसी तर्ज पर बसपा से अलग होकर नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी की नींव रखने वाले डॉ मसूद अहमद को बाद में अपनी पार्टी का विलय सपा में करना पड़ा. क्या यह घटना इन पार्टियों के धुंधले भविष्य का इशारा करती है? मौलाना रशादी इसका पुरजोर खंडन करते हुए कुछ ऐसी बात कह जाते हैं जिससे उनका अतिशय आत्मविश्वास और शायद अनुभवहीनता झलकती है- ‘हम कभी किसी पार्टी का दामन नहीं थामेंगे. मैं अकेला शख्स हूं जिसने मुसलिम नाम से पार्टी बनाई और उसे समाज के सभी तबकों के बीच पहुंचाया है. मुझे पीस पार्टी या कौमी एकता जैसे नाम की जरूरत नहीं पड़ी. मैं चैलेंज करता हूं कि बाकी लोग मुसलिम नाम रखकर समाज के दूसरे हिस्सों को जोड़कर दिखाएं.’

धर्म विशेष या समुदाय के नाम पर सियासी जमात खड़ी करने की इजाजत तो हमारा संविधान भी नहीं देता है. वरिष्ठ राजनेता और मुसलिम मामलों के जानकार पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान इस पहलू पर रोशनी डालते हैं, ‘हमारा संविधान किसी धर्म या समुदाय आधारित पार्टी की इजाजत नहीं देता है. इसके अलावा अतीत में इस तरह के ज्यादातर प्रयास असफल सिद्ध हुए हैं. मुसलिमों की बात करना कोई अपराध नहीं है. आखिर बाकी राजनीतिक पार्टियां भी तो यही करती हैं. अगर कोई अपनी बात संविधान के दायरे में रहकर करता है तो कोई दिक्कत नहीं. अगर कोई मुसलिम नेता उनकी बात करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं. समस्या तब पैदा होती है जब इन चीजों को राजनीतिक चश्मे से देखा जाने लगता है. हमारा संविधान कुछ और मूल्य-मानकों की स्थापना करता है और हमारी राजनीतिक व्यवस्था उसके बिलकुल उलट व्यवहार करती है.’

लोगों से बातचीत और पार्टियों के नेताओं की सोच से एक और नई बात सामने आती है. इन पार्टियों के उभार के पीछे कुछ हद तक क्रिया-प्रतिक्रिया वाले सिद्धांत की भी भूमिका रही है, इसे अंसारी एक गंवई कहावत के जरिए बताते हैं, ‘खटिया एक तरफ से बुनी जाती है और दूसरी तरफ से खुद ही बुन जाती है. योगी आदित्यनाथ जैसे लोग जब पूरे पूर्वांचल में घूम-घूमकर गुजरात का प्रयोग आजमगढ़ में करने के नारे लगाते हैं तो स्वाभाविक रूप से मुसलिमों के अंदर भय पैदा हो जाता है. आतंकवाद के नाम पर 600 से ज्यादा को जेलों में डाल दिया जाता है तो फिर मुसलमान क्या करेगा.’ इन स्थितियों और कुछ दिनों बाद आने वाले अयोध्या के फैसले के मद्देनजर इन पार्टियों की भूमिका किस हद तक घट-बढ़ सकती है, इसका जवाब आरिफ मुहम्मद खान देते हैं, ‘सभी हिंदुओं का वोट सिर्फ भाजपा या हिंदूवादी पार्टियों को नहीं मिलता, उसी तरह सभी मुसलमान किसी एक पार्टी को वोट नहीं देते. चाहे आजमगढ़ में देख लें या मऊ में. बिना सभी समुदायों का दिल जीते कोई सियासत में आगे नहीं जा सकता. इस बात का सबूत है मुख्तार अंसारी की पार्टी. इन लोगों को भी आखिर कौमी एकता जैसा नाम ही रखना पड़ा है. महत्वपूर्ण बात यह है कि इस देश के लोगों में न्यायपालिका के प्रति बहुत आस्था और सम्मान है. उसके किसी फैसले से देश में सांप्रदायिक बंटवारा नहीं होने वाला है. बस जरूरत है देश के पोलिटिकल सिस्टम को आपनी भूमिका ईमानदारी से निभाने की.’

राष्ट्रीय पार्टी का रुतबा रखने वाली सपा, बसपा और कांग्रेस के सभी समीकरण इन नई पार्टियों के चलते गड़बड़ाए-से दिख रहे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में मुसलिम वोटों को फिर से अपने पास लाने में कामयाब रही कांग्रेस पूर्वी उत्तर प्रदेश की इस राजनीतिक करवट पर ‘वेट ऐंड वाच’ की मुद्रा में है तो दूसरी तरफ ‘एमवाई’ समीकरण का अभेद्य किला खड़ा करने वाले मुलायम सिंह का किला इस नई बयार से दरकता जा रहा है. नेता जी मुसलमानों से माफी और कल्याण सिंह से दूरी की बात कर रहे हैं. लेकिन इन पार्टियों का ऊंट चुनाव आते-आते किस करवट बैठेगा उस पर नजर रखना भी दिलचस्प होगा. फिलहाल अफजाल अंसारी और आमिर रशादी तो किसी के साथ जाने से साफ इनकार करते हैं. अंसारी तो आगामी पंचायत चुनावों को अपनी पार्टी का क्वार्टर फाइनल तक घोषित कर चुके हैं. लेकिन डॉ. अयूब का नजरिया थोड़ा व्यावहारिक है, ‘हमारे विकल्प कांग्रेस, सपा सभी के साथ खुले हुए हैं. बस कोई भी समझौता हमारी शर्तों और एजेंडे पर होगा.’