झारखंड की कई समस्याएं उसकी अपनी और विशिष्ट समस्याएं हैं तो कई एक साझा और अखिल भारतीय संकट की भी देन हैं
झारखंड का होने के नाते अकसर मुझे अपने साथी पत्रकारों का यह उलाहना सुनना पड़ता है कि मेरे राज्य में क्या हो रहा है. राजनीतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी दिल्ली का यह उलाहना मुझे शर्मिंदा कम, हैरान ज्यादा करता है. हालांकि इसके साथ यह अफसोस जुड़ा रहता है कि झारखंड इन दिनों या तो उस भ्रष्टाचार की स्मृति जगाता है जिसके आरोपों की जद में शिबू सोरेन से लेकर मधु कोड़ा तक हैं या फिर उन अवसरवादी बनते-टूटते गठजोड़ों की, जिनकी वजह से इस छोटे-से राज्य में दस साल में आठ सरकारें बन चुकी हैं. दिल्ली की निगाह में झारखंड राजनीतिक अवसरवाद और भ्रष्टाचार का नया प्रतीक है जिससे यह साबित होता है कि छोटे राज्य छोटे स्वार्थों के आगे आसानी से बिछ जाते हैं या आदिवासियों के दमन और शोषण की बात उठाने वाले नेता खुद शोषकों के साथ खड़े हो जाते हैं और लगभग लुटेरों की तरह राज्य के संसाधनों का दोहन करते हैं.
झारखंड का आंदोलन सिर्फ इसके लिए नहीं चला था कि लूट का तंत्र पटना से उठकर रांची चला आए. वह सिर्फ एक राजनीतिक आंदोलन भी नहीं था. वह एक समग्र सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलन था जिसकी बुनियाद में अगर शोषण और दमन की सदियों पुरानी टीस थी तो एक नया और समतामूलक समाज बनाने का सपना भी था और विकास की वैकल्पिक धारा बन सकने का आत्मविश्वास भी. यानी यह बस एक अलग राज्य का ही नहीं, विकास के नए प्रारूप का भी आंदोलन था. सच्चे अर्थों में एक जनांदोलन जो आधी सदी से ज्यादा समय तक इस बात के बावजूद पूरी ताकत से चलता रहा कि इसके नेता वक्त-वक्त पर आंदोलन के साथ दगाबाजी करते रहे.
पहले ही दिन से झारखंड उन दिक्कुओं के हवाले हो गया था जिनके विरुद्ध संघर्ष के आह्वान के साथ कभी इसकी मांग अस्तित्व में आई थी
लेकिन शोषण और दमन की जिस राजनीति के विरोध में यह आंदोलन खड़ा हुआ और चलता रहा उसी ने बाद में चुपके से इसे अगवा कर लिया. यह शायद 80 का दशक था जब झारखंड के सभी राजनीतिक दल एक ही सुर में बोलने लगे. बिहार से अलग झारखंड की राजनीतिक मांग दिल्ली तक पहुंचने लगी और यह नई बनी एकजुटता बताने लगी कि झारखंड तो बनके रहेगा. यह आंदोलन अचानक सिर्फ स्थानीय राजनीतिक दलों और आकांक्षाओं का नहीं रह गया, वह कांग्रेस, भाजपा और जनता दल जैसी पार्टियों का भी आंदोलन हो गया. दरअसल पुराने सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्ष की बुनियाद पर खड़ा यह नया अवसरवादी आंदोलन था जिसका प्रत्युत्तर देना दिल्ली और पटना को आसान लगा और साल 2000 में झारखंड अस्तित्व में आ गया.
कायदे से यह नया राज्य झारखंड के मूल आदिवासी संघर्ष को नहीं, इस नई राजनीतिक मांग को दिया गया. झारखंड के नाम पर एक कपटी आम सहमति तैयार की गई और अलग राज्य की एक उचित और वास्तविक दावेदारी अवसरवाद की नई राजनीतिक अपसंस्कृति के हवाले हो गई. झारखंड की मांग सबको लुभाने लगी तो इसलिए नहीं कि इससे आदिवासियों और गरीबों का शोषण रुकेगा, बल्कि इसलिए कि सत्ता के प्रपंच कुछ और करीब आ जाएंगे, साधनों की लूट-खसोट से पटना में काबिज एक तंत्र को बाहर किया जा सकेगा. इसीलिए साल 2000 में जो कटा-छंटा झारखंड बना, वह पहले ही दिन से उन दिक्कुओं के हवाले हो गया जिनके विरुद्ध संघर्ष के आह्वान के साथ कभी इसकी मांग अस्तित्व में आई थी. यह अनायास नहीं था कि राज्य में पहली सरकार उस भारतीय जनता पार्टी की बनी जो झारखंड की नहीं, वनांचल की मांग करती थी.
इस लिहाज से दुष्यंत कुमार का एक शेर झारखंड के हालात पर सटीक बैठता है, ‘ दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो / जो तमाशबीन थे, दुकानें लगा के बैठ गए.’ झारखंड आंदोलन के नाम पर जिन नेताओं की दुकान चलती थी, उन्हें वाकई मेले ने लूट लिया और जो बाहर से तमाशा देखते थे, वे उनकी दुकानों पर काबिज हो गए. इन नए दुकानदारों को इस बात की परवाह क्यों होती कि जो झारखंड मिला है, वह आधा-अधूरा है या फिर उसमें आदिवासी हितों की उपेक्षा हो रही है, उनके लिए इतना ही पर्याप्त था कि अपनी राजनीतिक हसरतों के लिए उन्हें एक नए राज्य की जमीन हासिल हो गई है.
दरअसल जो दिल्ली आज झारखंड को उलाहना देती है, उसी ने उसे सत्ता की सौदेबाजियां भी सिखाई हैं. झारखंड आंदोलन की विश्वसनीयता को जो सबसे तीखी चोट लगी, वह कई भाषाओं के जानकार और विद्वान माने जाने वाले प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के समय लगी जब उनकी सरकार को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों ने रिश्वत ली. इस रिश्वत कांड की कालिख कांग्रेस नहीं, झारखंड मुक्ति मोर्चा के चेहरे पर पोती गई. पिछले दिनों भी झारखंड का जो संकट पैदा हुआ, वह दिल्ली की सरकार बचाने की कशमकश के दौरान ही हुआ. ईमानदार माने जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पार्टी ने अपनी राजनीतिक मजबूरियों और जरूरतों के हिसाब से इन नेताओं का इस्तेमाल किया और फिर इन्हें किनारे कर दिया. रांची में कांग्रेस और भाजपा अपने-अपने ढंग से झारखंडी दलों को नचाते रहे.
लेकिन क्या यह इतना इकतरफा खेल है? क्या झारखंड के आदिवासी हितों के प्रवक्ता नेता वाकई इतने मासूम और भोले-भाले हैं जिन्हें दिल्ली ने ठग लिया या फिर उन्हें भी दिल्ली का खेल रास आने लगा था? तौर-तरीके दिल्ली ने भले सिखाए हों, लेकिन अपने ही लोगों को लूटने का, उनकी उम्मीदों को तोड़ने का, एक पूरे और वास्तविक आंदोलन को अविश्वसनीय बनाने का जो अक्षम्य अपराध है, वह तो इन्होंने ही किया है और इसका दंड भी इन्हें भुगतना होगा. शायद वह इन्हें मिल भी रहा है. झामुमो हो या आजसू, सब कांग्रेस और भाजपा के हाशिए के मददगार के तौर पर बचे हुए हैं और उनके लूटतंत्र में अपना एक हिस्सा हासिल कर संतुष्ट हैं.
इस लिहाज से देखें तो झारखंड एक बहुत बड़ी संभावना की अकाल मृत्यु का भी प्रतीक है. अपनी विशिष्ट पठारी बनावट, अपने प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता और अपनी बहुसांस्कृतिक आबादी के साथ झारखंड सिर्फ विकास का ही नहीं, नए और आधुनिक समाज का भी ऐसा मॉडल हो सकता था जो बाकी भारत के लिए नजीर होता. 50 साल से ज्यादा लंबे समय तक चले सांस्कृतिक-राजनीतिक आंदोलन ने वहां एक ऐसा बुद्धिजीवी समाज भी बनाया जो इस वैकल्पिक मॉडल की रूपरेखा बनाता रहा था और बना सकता था. रांची विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय भाषा विभाग ने अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाओं में जो काम किया और करवाया, उसकी वजह से अलग-अलग समुदायों में जागरूक युवाओं और विचारकों की एक बड़ी टीम तैयार भी थी. लेकिन सत्ता का बुलडोजर इन सबको बड़ी बेरहमी से कुचलता चला गया. झारखंड अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता से रीता हुआ बस एक राजनीतिक झारखंड होकर रह गया जिसे राजनीतिक दल अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल और बदनाम करते रहे. इस झारखंड में गरीब और आदिवासी पहले की ही तरह विस्थापित होते रहे और दिल्ली-पटना और रांची के बीच तार बिछाकर बैठे बिचौलियों की ताकत और हैसियत बढ़ती चली गई. दुर्भाग्य से इस दुरभिसंधि में सिर्फ नेता ही नहीं, दूसरी जमातें भी शामिल रहीं.
सवाल है, झारखंड की यह नियति क्यों हुई? बीती सदी में जो सांस्कृतिक आंदोलन इस समाज में दिख रहा था, वह अचानक तिरोहित क्यों हो गया? इसका एक जवाब वीर भारत तलवार की झारखंड पर केंद्रित किताब झारखंड के आदिवासियों के बीच: एक ऐक्टिविस्ट के नोट देने की कोशिश करती है. तलवार लिखते हैं कि झारखंड को बिरसा मुंडा के रूप में राजा राममोहन राय तो मिले, वह विवेकानंद नहीं मिला जो इस आंदोलन को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाता, वैज्ञानिक समाजवाद की जो अवधारणा इस सांस्कृतिक आंदोलन के साथ विकसित होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. वे समाजवादी विचारधारा और आदिवासी महासंघ को एक साथ लेकर चलने के हामी हैं.
कोई समाज अगर शोषणमुक्त होना चाहता है, तो उसके पास उसका एक समाजवादी एजेंडा होना चाहिए
यह जवाब भले मुकम्मिल न हो, लेकिन एक सूत्र छोड़ता है. यह जवाब याद दिलाता है कि कोई समाज अगर शोषणमुक्त होना चाहता है, अगर वह समतामूलक लक्ष्यों की तरफ बढ़ना चाहता है तो उसके पास उसका एक समाजवादी एजेंडा होना चाहिए- ऐसा एजेंडा जिसमें आर्थिक विकास एक अनिवार्य पहलू हो, लेकिन इकलौता नहीं, ऐसा एजेंडा जिसमें समाज की सांस्कृतिक और वैचारिक आकांक्षाओं के लिए भी पूरा स्थान और सम्मान हो.
लेकिन झारखंड इस लड़ाई में पीछे रह गया और बिचौलियों के हाथ लग गया तो यह सिर्फ झारखंड की नाकामी नहीं है. दरअसल पूरा भारत जिस औपनिवेशिक लूट का बेलिहाज मैदान बना हुआ है, जिस बेरहमी से देश के अलग-अलग हिस्सों में दलितों, आदिवासियों और सदियों से रह रहे निवासियों को उजाड़ा जा रहा है, जिस बेशर्मी से उनके घर, जमीन और जंगल हथियाए जा रहे हैं, उन सबसे झारखंड अलग कैसे रह सकता है. झारखंड भी उस लूट का ही मैदान भर है- इस लिहाज से कुछ ज्यादा त्रासद कि यहां यह खेल वे अपने लोग चला रहे हैं जिन्होंने इस आंदोलन से सांस ली है और ताकत ली है. पर फिर यह कहां नहीं हो रहा? हर तरफ साम्राज्यवादी ताकतों के अपने एजेंट हैं जो झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे पिछड़े इलाकों में ही नहीं, मुंबई और दिल्ली जैसे संपन्न कहलाने वाले इलाकों में भी छीनाझपटी और लूटखसोट का वही जाल फैलाए हुए हैं. दिल्ली में इन दिनों चल रहे कॉमनवेल्थ खेल इस लूट का एक और आईना हैं.
दरअसल समझने की बात यही है कि झारखंड की कई समस्याएं उसकी अपनी और विशिष्ट समस्याएं हैं तो कई एक साझा और अखिल भारतीय संकट की भी देन हैं. झारखंड को दोनों लड़ाइयां लड़नी पड़ेंगी. उसका सांस्कृतिक और समतामूलक आंदोलन तभी सार्थक और संपूर्ण हो पाएगा जब वह रांची-पटना और दिल्ली के साझा लूटतंत्र को समझेगा और इनके विरुद्ध एक पूरी लड़ाई छेड़ेगा. इसमें शक नहीं कि इस लड़ाई के लायक ईंधन और आयुध झारखंड के बौद्धिक शस्त्रागार में काफी हैं और लड़ाई का अभ्यास भी.