जहां जुर्म है उनका होना

आखिरकार दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा की मदद से छत्तीसगढ़ पुलिस ने सोनी सोरी को गिरफ्तार कर ही लिया. चार जुलाई को दक्षिणी दिल्ली से गिरफ्तारी के बाद सोनी ने दिल्ली की सत्र अदालत से दरख्वास्त की थी कि उन्हें छत्तीसगढ़ वापस न भेजा जाए. सोनी का कहना था कि वे सर्वोच्च न्यायालय को सारी सच्चाई बताने के लिए ही दिल्ली आई हैं और अगर उन्हें वापस छत्तीसगढ़ भेजा गया तो वहां की पुलिस उनके खिलाफ कोई झूठा मामला बना कर उन्हें मार देगी. मगर सात अक्टूबर को अदालत ने उनकी अपील खारिज करके उन्हें छत्तीसगढ़ पुलिस के हवाले कर दिया.

चौंकाने वाली बात यह थी कि मांकड़ ने न सिर्फ सारी बातें मान लीं बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि पैसा लाला के घर से बरामद किया गया था

10 अक्टूबर को 48 घंटों की पूछताछ के बाद 35 वर्षीया सोनी अपने पैरों पर खड़े होकर दंतेवाड़ा की अदालत में जाने के लायक भी नहीं थीं. पुलिस का दावा था कि वे बाथरूम में फिसल कर गिर गई थीं जिससे उनकी रीढ़ की हड्डी और सिर में चोटें आई हैं. इसके बाद उनके वकील के मुताबिक अस्पताल में उन्हें पैरों में बेड़ियां डालकर रखा गया. मगर यह तो जो सोरी के साथ हो रहा है उसका एक अंश मात्र है.

सोनी सोरी और उनके 25 साल के भतीजे लिंगा कोडोपी की कहानी उनमें से एक है जिन्हें जितना जल्दी हो सके देश को जानना चाहिए. यह बताती है कि जहां देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताई गई समस्या – नक्सलवाद – और उससे निपटने की लड़ाई फैली है वहां कुछ ऐसी आवाजें भी हैं जो हमें एक अलग ही तस्वीर दिखाती हैं. ऐसी आजाद आवाजें जिन्हें  सरकार और माओवादी दोनों ही कुचलना चाहते हैं.

करीब दो हफ्ते पहले कई अखबारों में खबर छपी थी कि नौ सितंबर को एस्सार का ठेकेदार बीके लाला दंतेवाड़ा के एक बाजार में माओवादी लिंगा कोडोपी को 15 लाख रुपये रंगदारी देते रंगे हाथों पकड़ा गया. लाला और लिंगा तो गिरफ्तार कर लिए गए जबकि नक्सलियों की एक सहयोगी सोनी सोरी फरार हो गई. इसके कुछ दिनों बाद सोनी सोरी तहलका के दफ्तर पहुंचीं. वे निराश थीं, लेकिन टूटी हुई नहीं थीं. उनका कहना था, ‘आपको हमारी मदद करनी होगी ताकि मैं दुनिया को सच बता सकूं. दिल्ली में हमारे शुभचिंतक कह रहे हैं कि मुझे पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देना चाहिए और अदालत में लड़ना चाहिए, लेकिन मैं बेगुनाह हूं. मैं गिरफ्तार क्यों हो जाऊं? मैं पढ़ी-लिखी हूं और अपने अधिकारों के बारे में जानती हूं. अगर मैंने कुछ भी गलत किया है तो मैं जेल में जाने के लिए तैयार हूं. लेकिन मुझ पर आरोप लगाने से पहले पुलिस कोई सबूत भी तो दिखाए.’

सोनी के मुताबिक लाला और लिंगा को कथित तौर पर जिस दिन पालनार बाजार से पैसे का लेन-देन करते हुए हिरासत में लिया गया उसके एक दिन पहले यानी आठ सितंबर को किरंदुल पुलिस स्टेशन में पदस्थ कांस्टेबल मांकड़ ने सोनी से बात की थी. उन्होंने सोनी से कहा था कि वे लिंगा को पुलिस का ‘सहयोग’ करने के लिए मनाएं. सोनी के अनुसार पुलिस चाहती थी कि लिंगा माओवादी बनकर जाए और लाला से पैसा ले कर पुलिस को दे दे. मांकड़ ने सोनी को भरोसा दिलाया था कि यदि वह ऐसा करवा पाई तो उसका नाम पुलिस में दर्ज सभी फर्जी केसों से हटा दिया जाएगा.

माओवादियों ने लिंगा को प्रस्ताव दिया था कि वे उनके कैडर में शामिल हो जाए लेकिन उसने इससे साफ मना कर दिया

सोनी के मुताबिक उन्होंने नाराजगी जताते हुए ऐसा करने से मना कर दिया. इसके बाद जब तक वे कुछ समझतीं मांकड़ ने उनका फोन लिया और खुद को स्थानीय माओवादी बताते हुए लाला को फोन कर दिया. सोनी को समझ में नहीं आया कि यह कांस्टेबल की अपनी तरफ से कुछ पैसा वसूलने की चाल थी या पुलिस लाला को फंसाने के लिए एक जाल बिछा रही थी. सोनी बताती हैं कि अगले दिन नौ सितंबर को शाम के चार बजे एक कार में सवार कुछ लोग उसके पिता के घर पालनार आए और लिंगा को जबर्दस्ती उठाकर ले गए. उन्होंने सादे कपड़ों में आए इन लोगों से अपनी पहचान दिखाने को कहा, लेकिन उन लोगों ने ऐसा नहीं किया. इस घटना से डरी सोनी ने तुरंत सीआरपीएफ- 51 बटालियन के डिप्टी कमांडर मोहन प्रकाश को फोन किया और उनसे पूछा कि क्या वे उनके लोग थे. मोहन प्रकाश ने इस घटना से अनभिज्ञता जताई. सोनी और उनके भाई रामदेव तब किरांदुल पुलिस स्टेशन पहुंचे. उन्होंने थाना प्रभारी उमेश साहू से उन लोगों के बारे में जानने की कोशिश की तो साहू ने भी उन लोगों के बारे में कुछ भी जानकारी न होने की बात कही. साहू ने साथ में इस बात की संभावना जताई कि हो सकता है लिंगा को नक्सली उठाकर ले गए हों.
यहां चौंकाने वाली बात यह है कि साहू इस मामले में साफ-साफ झूठ बोल रहे थे क्योंकि खुद उन्होंने नौ सितंबर को लाला और लिंगा के खिलाफ एफआईआर क्रमांक 26/2011 दर्ज की थी. इस बारे में साहू का कहना है कि उन्हें एक सूचना मिली थी जिसको आधार बनाकर लिंगा और लाला को बाजार से गिरफ्तार किया गया.

सोनी का परिवार पूरी रात लिंगा की चिंता में सो नहीं पाया. अगले दिन उन्होंने अखबार में पढ़ा कि लाला से पैसा लेते हुए लिंगा को गिरफ्तार किया गया है और सोनी सोरी इस मामले में फरार है. यह जानकर कि अब पुलिस उनकी तलाश कर रही होगी सोनी ने वहां से निकल जाने का फैसला किया. कई मुश्किलों से जूझते हुए सोनी आखिरकार दिल्ली पहुंच गईं और यहां मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से मदद की गुहार लगाई. तहलका के ऑफिस में अपने बयान की सच्चाई साबित करने के लिए सोनी ने मांकड़ से फोन पर बात की. सुबकते-सुबकते उन्होंने मांकड़ से पूछा कि उन्होंने लिंगा और उसको इस मामले में क्यों फंसा दिया. सोनी ने लगातार उससे सच्चाई जानने की कोशिश की; ‘क्या तुमने मेरे फोन से लाला से बात नहीं की थी?’ ‘ तुम्हें पता है कि लिंगा को पुलिस ने बाजार से नहीं बल्कि हमारे घर से गिरफ्तार किया था.’ ‘वे पैसों का लेन-देन नहीं कर रहे थे. हमें तुमने फंसाया है क्या यह सही नहीं है?’ सोनी ने मांकड़ से ऐसे ही कई सवाल किए.

चौंकाने वाली बात यह थी कि मांकड़ ने न सिर्फ सारी बातें मान लीं बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि पैसा लाला के घर से बरामद किया गया था. उन्होंने सोनी को यह सलाह भी दी कि उसे अभी दिल्ली में ही रुकना चाहिए. मांकड़ ने सोनी को यह भरोसा भी दिलाया कि पुलिस के पास सबूतों के नाम पर कुछ नहीं है इसलिए मामला अदालत में नहीं टिक पाएगा और उसके बाद वे आराम से छत्तीसगढ़ लौट सकती हंै. तब तक उन्हें चुप रहना चाहिए. तहलका के पास इस बातचीत की रिकॉर्डिंग है जो न सिर्फ सोनी के बयानों की सच्चाई बताती है बल्कि एस्सार से जुड़े मामले में उनके और लिंगा के निर्दोष होने की बात भी साबित करती है. बातचीत यह भी साबित करती है कि छत्तीसगढ़ पुलिस किस तरह रणभूमि में तब्दील हुए इस राज्य में दुराग्रहों के आधार पर काम कर रही है.

दरअसल गौर से देखा जाए तो माओवादी भी उस पूरी गड़बड़ी का हिस्सा बन गए हैं जिसे ठीक करने का वे दावा करते हैं

कानून की हदों से बाहर जाकर लिंगा और सोनी को शिकंजे में कसने के पुलिस के खेल का संकेत ओडीशा की सीमा में पड़ने वाले बडापदर गांव के सरपंच जयराम खोडा के एक वीडियो टेप से भी मिलता है जो सार्वजनिक रूप से जारी हुआ है. इसमें उन्होंने कहा है कि उन्हें ओडीशा पुलिस ने 14 सितंबर को पकड़ा था और पूछताछ के लिए छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया था. छत्तीसगढ़ पुलिस ने उन्हें आठ दिन तक गैरकानूनी रूप से हिरासत में रखा और इस दौरान बुरी तरह प्रताड़ित किया. खोड़ा अपने बयान में कहते हैं, ‘उन्होंने मेरे दोनों हाथ बांध दिए थे. फिर उन्होंने मुझे उल्टा लटका दिया और दो पुलिसवालों ने डंडों से मेरी जमकर पिटाई की…फिर वे मुझे दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक के पास ले गए और जबर्दस्ती मुझे उनके हिसाब से बयान देने के  लिए मजबूर किया…’ खोड़ा को 19 तारीख तक इसी तरह हिरासत में रखा गया. उसके बाद उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया. 21 सितंबर को वे रिहा हो गए.

खोड़ा जिस जबर्दस्ती में लिए बयान की बात कर रहे हैं उसमें कहा गया था कि वे लाला के साथ एक नक्सल कमांडर से मिलने गए थे और उन्होंने उसे पैसा दिया था. हालांकि खोड़ा के मुताबिक यह सच नहीं है. वे बताते हैं कि उनका लाला से संपर्क अपनी पंचायत में हो रहे निर्माणकार्य के संबध में हुआ था. वे अपनी पंचायत में 15-20 ट्यूबवेल खुदवाना चाहते थे, एक स्कूल भवन की मरम्मत करवाना चाहते थे और वहीं एक स्कूल भवन का निर्माण भी होना था. अब सवाल यह है कि आखिर क्या वजह है कि पुलिस सोनी और लिंगा को एस्सार प्रकरण में फंसा रही है.  इस सवाल का जवाब पाने और इस मामले को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा.

आम तौर पर आदिवासियों के बारे में बात करते ही उनके गरीब और बेचारे होने की छवि जेहन में बनती है. लेकिन इस धारणा के विपरीत सोनी राजनीतिक रूप से सक्रिय और संपन्न आदिवासी परिवार से ताल्लुक रखती हैं. उनके पिता मदरू राम सोरी 15 साल तक सरपंच रहे हैं. उनके चाचा सीपीआई के पूर्व विधायक हैं. उनके बड़े भाई कांग्रेस में हैं और भतीजा लिंगा एक होनहार युवा रहा है. लिंगा ने दिल्ली से सटे नोएडा के एक संस्थान से पत्रकारिता का डिप्लोमा लिया है और वह वापस अपने समुदाय में जाकर वहां की सच्चाई को दुनिया के सामने लाना चाहता था.

खुद सोनी को यहां काफी इज्जत की नजर से देखा जाता है. सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के मार्गदर्शन में पढ़ी-लिखी यह आदिवासी महिला पहले जबेली स्थित आदिवासियों के एक स्कूल में सरकारी शिक्षक थीं. अपनी गिरफ्तारी से कुछ दिन पहले तहलका के ऑफिस में सोनी बेहद गर्व के साथ बता रही थीं, ‘ मैं वापस जाकर अपने लोगों की मदद करना चाहती हूं. अपनी पढ़ाई-लिखाई का इस्तेमाल मैं उन लोगों को आत्मनिर्भर बनाने में करना चाहती हूं. यदि हम लोगों ने अपने लिए आवाज उठाने की कोशिश नहीं की तो आदिवासियों का सफाया कर दिया जाएगा.’ उनका आगे कहना था, ‘लिंगा भी ऐसा ही सोचता है. उसके भीतर एक आग है. वह न तो पुलिस के साथ काम करना चाहता है न  ही नक्सलियों के. वह सिर्फ अपने लोगों के लिए लड़ना चाहता है.’

एक सक्षम और जीवंत लोकतंत्र में इस तरह की भावना को सम्मान मिलना चाहिए. लेकिन इन बातों को रणभूमि में बदल चुके नक्सल प्रभावित इलाके के संदर्भ में देखें तो इस तरह की सोच रखने वालों का मुश्किलों में फंस जाना कोई विचित्र घटना नहीं है. बिनायक सेन, हिमांशु कुमार, कोपा कुंजम और कुछ ऐसे ही दर्जनों लेकिन कम जाने-पहचाने सामाजिक कार्यकर्ता इन इलाकों में ‘खतरे’ से कम नहीं समझे जाते. यहां आपके तटस्थ रहने को असंभव बना दिया गया है. सोनी और लिंगा या उनके जैसे कई दूसरे लोगों के खिलाफ चल रही कार्रवाइयों के केंद्र में यही मानसिकता अहम भूमिका निभा रही है.

‘ पुलिस लगातार धमकी दे रही थी कि अगर तुम मुखबिर नहीं बनी तो हम तुम्हें जेल में डाल देंगे, जैसे तुम्हारे पति को डाला है ‘

नाम न बताने की शर्त पर दंतेवाड़ा में पदस्थ एक वरिष्ठ सीआरपीएफ कमांडर इस बात की पुष्टि करते हैं, ‘आपको यहां किसी न किसी पक्ष में रहना ही होगा. आप बीच में नहीं रह सकते. आप या तो पुलिस और अर्धसैन्य बलों के साथ हैं या फिर नक्सलवादियों के.’ दंतेवाड़ा जिले में खासकर जहां सोनी और लिंगा रहते हैं- पालनार, समेली, जबेली और गीदम माओवादियों के गढ़ माने जाते हैं. घने जंगलों वाले इस इलाके में नक्सलवादियों और सीआरपीएफ दोनों के ठिकाने हैं. यही वह जगह है जहां हत्याएं और प्रतिहत्याएं संक्रामक रोग की तरह फैली हैं. हिमांशु कुमार बताते हैं, ‘इन जगहों पर रहना ही अपने आप में अपराध है.’ यहां यदि आप पुलिस के पक्ष में हैं तो नक्सलवादी आपकी हत्या कर देंगे और यदि आपके नक्सल समर्थक होने की जानकारी पुलिस के पास है तब आप उनके निशाने पर होंगे.

सोनी और लिंगा इन दोनों ही पक्षों के समर्थक नहीं थे. वे अपने संवैधानिक अधिकार चाहते थे : तमाम नागरिकों की तरह बराबरी का हक और कानून का शासन. वे अपने घर को ठेकेदारों, राजनीतिज्ञों, पुलिस और माओवादियों के शोषक हाथों से मुक्त करवाना चाहते थे. उन्होंने आदिवासियों के लिए न्यूनतम मजदूरी की सीमा 60 रुपये से बढ़ाकर 120 रुपये करवाने के लिए संघर्ष भी किया था, वे खदान मजदूरों के हकों के लिए भी आगे आए थे, उन्होंने जंगल में माओवादियों के खिलाफ विभिन्न अभियानों की आड़ में पुलिस के जरिए चलने वाली सागौन की अवैध तस्करी के खिलाफ आवाज उठाई थी.

अपने समुदाय के लिए आवाज बुलंद करने की इन कोशिशों के चलते वे जल्दी ही माओवादियों और पुलिस दोनों की नजरों में आ गए. माओवादियों ने लिंगा को प्रस्ताव दिया कि वह उनके कैडर में शामिल हो जाए लेकिन उसने इससे साफ मना कर दिया. यहां तक कि उसने एक बार इलाके के प्रभावशाली माओवादी कमांडर गणेश उइके को कड़ा पत्र लिखकर कैडर के तौर-तरीकों पर नाराजगी जताई थी और बताया था कि कैसे माओवादियों के हमलों की वजह से निर्दोष आदिवासियों को मुसीबत झेलनी पड़ रही है. सोनी और लिंगा दोनों का एक स्थानीय माओवादी नेता से तब काफी झगड़ा भी हुआ था जब वह सोनी के आश्रम से तिरंगा झंडा उतारकर वहां अपना लाल झंडा फहराना चाहता था.

लेकिन यह तो मुसीबत का एक मोर्चा था. अपने समुदाय के अधिकारों के लिए सोनी और लिंगा की बेबाकी ने उन्हें एक प्रभावशाली स्थानीय ठेकेदार अवधेश गौतम के साथ संघर्ष की स्थिति में ला दिया. कांग्रेसी कार्यकर्ता गौतम पहले कांस्टेबल हुआ करता था, इसलिए पुलिस में उसकी अच्छी पहचान है. इसके अलावा गौतम की सोरी परिवार से पुरानी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी है. इन दो आदिवासी युवाओं के बढ़ते प्रभाव ने जल्दी ही गौतम को असहज कर दिया. सोनी को जब कलेक्टर से अपना स्कूल बनाने की अनुमति मिल गई तो कथित तौर पर गौतम को लगने लगा कि यह उसके व्यवसाय में घुसपैठ करने की कोशिश है.

आदिवासी समुदाय पर सोनी और लिंगा के असर को देखते हुए पुलिस को भी एहसास हो रहा था कि वे इस इलाके में उनके लिए मुखबिरी का काम कर सकते हैं. पुलिस ने इसके लिए उन दोनों पर दबाव भी डाला. 30 अगस्त, 2009 को लिंगा को उसके घर से उठा लिया गया. उसे 40 दिन तक पुलिस स्टेशन के शौचालय में रखा गया. हालांकि पुलिस शुरू से ही इस बात को नकारती रही कि लिंगा उसकी हिरासत में है. इस घटना के बाद जब लिंगा के बड़े भाई मसाराम और हिमांशु कुमार ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाखिल की तब जाकर 10 अक्टूबर को लिंगा को रिहा किया गया.

चौंकाने वाली बात है कि ठीक अगले दिन पुलिस ने मसाराम को एक ‘नक्सलवादी’ की मदद करने के आरोप में हिरासत में ले लिया. हिमांशु कुमार ने फिर अदालत का दरवाजा खटखटाया और पुलिस को उसे छोड़ना पड़ा. इस तरह की घटनाएं तब तक चलती रहीं जब तक हिमांशु कुमार ने लिंगा को दंतेवाड़ा छोड़कर दिल्ली जाने के लिए राजी नहीं कर लिया. लिंगा अब दंतेवाड़ा से बाहर था और दिल्ली में राष्ट्रीय मीडिया के सामने पुलिस के अत्याचारों और राज्य में प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ आवाज उठा रहा था. अब पुलिस ने सोनी को अपने निशाने पर लिया. सोनी पर लगातार दबाव डाला जाने लगा कि वह लिंगा से दंतेवाड़ा लौटने को कहे. सोनी के मुताबिक यह साफ होने के बाद कि लिंगा को मुखबिर बनाना मुमकिन नहीं है, पुलिस लिंगा को कैसे भी माओवादी साबित करना चाहती थी.

सीआरपीएफ के एक कमांडर इस बात की पुष्टि करते हैं, ‘ सोनी और लिंगा को इसलिए निशाना बनाया गया ताकि अल्पसंख्यक आदिवासियों के हितों से ज्यादा बहुमत वाले गैरआदिवासियों के हितों की सुरक्षा की जा सके. पहले आदिवासियों की तरफ से बोलने वाला कोई नहीं होता था, लेकिन इन लोगों के सामने आने के बाद हालात बदलने लगे. लिंगाराम का पत्रकार बनना उनके लिए गंभीर खतरा था क्योंकि अब वह उनकी कारगुजारियां उजागर करने की स्थिति में था. पुलिस यह बात सुनिश्चित करना चाहती थी कि आदिवासियों की अपनी कोई आवाज न रहे.’ इस बीच जुलाई, 2010 में एक ऐसी घटना हुई जिससे पैदा हुए दुष्चक्र में इन दो युवा आदिवासियों की आवाज हमेशा के लिए दबाई जा सकती थी. 

सात जुलाई, 2010 को गौतम के घर पर माओवादियों ने हमला कर दिया. गणेश उइके के नेतृत्व में तकरीबन 100 नक्सलवादियों और 150 ग्रामीणों ने गौतम के घर को घेर लिया. माओवादियों की कार्रवाई में गौतम के एक रिश्तेदार और नौकर की मौत हो गई. उसका बेटा हमले में बुरी तरह घायल हुआ. इस घटना की वजह क्या थी इस बारे में कई चर्चाएं चलीं. कहा जाता है कि माओवादियों ने गौतम से दो करोड़ रुपये बतौर ‘प्रोटेक्शन मनी’ मांगे थे और वह माओवादियों को यह रकम नहीं दे पाया जिसकी प्रतिक्रिया में यह हमला किया गया था. इसके अलावा यह भी कहा गया कि गौतम माओवादियों का भय दिखाकर इलाके में बंटने वाला सरकारी राशन (पीडीएस) अपने घर से बंटवाना चाहता था और इसीलिए माओवादियों ने उस पर हमला किया. उसका कहना था कि सरकारी राशन का एक बड़ा हिस्सा माओवादी ले लेते हैं. यदि राशन का वितरण उसके घर से हो तो वह सही लोगों तक पहुंचेगा. हालांकि तहलका से बातचीत में यह बात खारिज करते हुए गौतम का कहना था, ‘ राशन या पीडीएस में मैंने कभी दखल देने की कोशिश नहीं की.’
लेकिन इस घटना ने गौतम को यह मौका जरूर दे दिया कि वह अपने विरोधियों से हिसाब बराबर कर सके. उसने माओवादी हमले वाली घटना की एफआईआर में 60 लोगों के नाम दर्ज करवाए. इनमें उन लोगों के नाम होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता जो वास्तव में इस घटना में शामिल थे. लेकिन इनमें सोनी सोरी और उनके पति अनिल पुताने का नाम भी शामिल था. गौतम के मुताबिक जब उनके घर पर हमला हुआ तब पुताने (जो गीदम में एक ढाबा चलाते हैं) उनके घर के आसपास महिंद्रा बोलेरो से घूम रहे थे.  (यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मुंबई के एक स्वतंत्र फोटोग्राफर जावेद, जो छत्तीसगढ़ में चल रहे इस संघर्ष को लगातार अपने कैमरे से रिकॉर्ड कर रहे हैं, का नाम भी हमलावरों में शामिल है. दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक और तटस्थ आवाज को दबाने की कोशिश है.)

सोनी और पुताने के पास इस घटना में शामिल न होने के पर्याप्त तर्क हैं. उस रात पुताने और उनकी बोलेरो जगदलपुर में थी जहां वे एक अस्पताल में भर्ती सोनी की मां को देखने गए थे. सोनी उस समय जबेली स्थित अपने आश्रम में थीं. तहलका ने जब उससे यह जानने की कोशिश की कि इतने लोगों की भीड़ और अफरातफरी में वह इन दोनों को कैसे पहचान पाया तो टालमटोल करते हुए उसने बताया कि कुछ लोगों के नाम पुलिस जांच के बाद शामिल किए गए. वह इस बात पर भी जोर देता है कि उसने पुताने की बोलेरो देखी थी. हालांकि सोनी के नाम पर वह स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं बता पाता. इस सतर्कता की वजह भी है क्योंकि पुलिस ने 10 जुलाई को पुताने को हिरासत में लिया और इसी दिन उनकी बोलेरो को भी जब्त किया लेकिन सोनी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई.

तीन दिन के बाद, 13, जुलाई को दंतेवाड़ा के विवादास्पद एसएसपी एसआरपी कल्लूरी ने एक अजीबोगरीब प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की. यह बताया गया कि लिंगाराम कोडोपी गौतम के घर पर हमले का ‘मास्टरमाइंड’ है. पुलिस ने यह भी दावा किया कि पिछले कुछ महीने ‘कोडोपी ने दिल्ली और गुजरात में आतंकवादी गतिविधियां चलाने का प्रशिक्षण लिया है और लिंगा लेखिका अरुंधती रॉय, सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर और दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर से लगातार संपर्क में था.
इस घटना के वक्त लिंगा दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था. इसीलिए कल्लूरी की इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में लिंगा पर लगाए गए इन बेकार के आरोपों के बाद इतना हल्ला मचा कि छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को खुद इनका खंडन करना पड़ा.
लेकिन सोनी सोरी और लिंगा की मुश्किलें यहां खत्म नहीं हुईं.

केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने हाल ही में कहा था कि नक्सल हमलों में आतंकवादी हमलों की अपेक्षा अधिक लोगों की जान जा रही है. लेकिन जिन लोगों की जान इसमें नहीं जा रही है उनका जीवन देश में चल रहे धीमी तीव्रता के युद्ध की विभीषिका की जीती-जागती तस्वीर बन चुका है. इन इलाकों में न्याय, विश्वास, स्वतंत्रता, नैतिकता, सबूत, सही और गलत की साधारण समझदारी जैसी चीजें भी धीरे-धीरे समाप्त होती गई हैं. अस्पताल में पड़े सोनी के पिता निराशा के साथ कहते हैं, ‘नक्सली हम पर सामने से हमला कर रहे हैं और पुलिस पीछे से. हम तो कहते हैं कि हम पर इतना रहम करो कि हम सबको मार डालो. इस पूरे झंझट से मुुक्ति मिल जाएगी.’

वे आगे कहते हैं, ‘जब भी माओवादी सम्मन भेजते हैं, हमें जाना पड़ता है. जिंदा रहना है तो जाइए. मरना है तो मत जाइए. लेकिन अगर आप चले गए तो पुलिस आपके पीछे पड़ जाती है. मैं पुलिस से पूछता हूं कि क्या तुम्हारा सबसे बड़ा अफसर भी इन इलाकों में बिना बंदूक के रह सकता है. क्या उसमें माओवादियों की बात न मानने की हिम्मत होगी?’

सीआरपीएफ के एक कमांडर भी इस बात की पुष्टि करते हैं, ‘दंतेवाड़ा पहुंचने पर मुझे एक घातक त्रिकोण समझ में आया. सुरक्षाबलों और नक्सलियों के बीच ग्रामीण और आदिवासी फंसे हुए हैं. इन इलाकों के 90 फीसदी आदिवासी माओवादियों के संपर्क में हैं. वे उन्हें राशन देते हैं और उनकी बैठकों में जाते हैं. वे मजबूरन ऐसा करते हैं, अन्यथा वे इन इलाकों में जिंदा ही नहीं बचेंगे. लेकिन सुरक्षाबल इस बात में अंतर नहीं कर पाते कि कौन मजबूरन गया है और कौन माओवादियों के पक्ष में सक्रिय है. ऐसे हालात में किसी से भी बदला लेने के लिए उसे माओवादी बता देना बहुत आसान है.’

उधर, हकीकत में माओवादी भी उस पूरी गड़बड़ी का हिस्सा बन गए हैं जिसे ठीक करने का वे दावा करते हैं. अगर उनकी हिंसावादी विचारधारा आदि के बारे में बात न भी करें तो भी लुटेरी और दमनकारी व्यवस्था से आदिवासियों की रक्षा करने या बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा जमीन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट का प्रतिरोध करने के लिए आदिवासियों को प्रशिक्षित करने के अपने एजेंडे से वे भटक चुके हैं. इलाके के कई लोग ठीक ही सवाल कर रहे हैं कि अगर माओवादी भारी पैसे के बदले इजाजत न दे रहे होते तो इलाके में ठेकेदार कैसे काम कर पाते और खनन कैसे हो पाता.

सुरक्षा बलों के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि सोनी और लिंगा को फंसाने के पीछे माओवादियों और एस्सार के बीच पैसे का लेन-देन नहीं है. असल में पुलिस ने लाला को इसलिए गिरफ्तार किया है कि उसे अपना हिस्सा नहीं मिल रहा था. वे बताते हैं, ‘माओवादी नेता आजाद ने एस्सार के चित्रकोंडा पंपिंग स्टेशन की पाइप उड़ा दी थी क्योंकि वह प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन के खिलाफ था. लेकिन दूसरे माओवादी नेता अभय के खयाल जरा अलग किस्म के हैं. लाला ने घने जंगलों के बीच से उस पाइप का फिर से निर्माण कराया. यह सोचना भी असंभव है कि कोई प्राइवेट ठेकेदार बिना माओवादियों की इजाजत के यह काम करवा सकता है. यह ऐसी जगह है, जहां अर्धसैनिक बल भी जाने से घबराते हैं. पुलिस को यह पता था और चूंकि उन्होंने पुलिस के लिए हिस्सा नहीं निकाला, इसलिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.’

पुलिस को दिए गए लाला के कथित बयान के आधार पर पुलिस ने छत्तीसगढ़ में एस्सार के जनरल मैनेजर डीवीईएस वर्मा को भी गिरफ्तार कर लिया. तहलका से बात करने वाले अधिकारी ने तो यह भी कहा कि लिंगा और सोनी की गिरफ्तारी तो सिर्फ ध्यान बंटाने के लिए की गई है. वे कहते हैं, ‘पुलिस को पता था कि जैसे ही वे लिंगा और सोनी को गिरफ्तार करेंगे, सिविल सोसाइटी के लोग हंगामा करेंगे. चूंकि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है, इसलिए वे जल्दी ही छूट जाएंगे. वे लाला के खिलाफ कोई पुख्ता मामला नहीं बनाना चाहते. वे तो बस अपना हिस्सा चाहते हैं.’ उधर, एस्सार समूह अपनी तरफ से माओवादियों को किसी भी तरह का पैसा दिए जाने के आरोपों को सिरे से खारिज करता है.

सोनी के लिए यह सब झूठी तसल्ली जैसा है. लाला और गौतम के अलावा दूसरे मामलों में भी उन्हें फंसाया गया है. दरअसल छत्तीसगढ़ में कुछ दुश्मनियों की जड़ें पैसे और ठेकों से ज्यादा आगे जाती हैं. यहां अपनी स्वतंत्र आवाज उठाने या सच्चाई का गवाह बनने पर अघोषित पाबंदी है. सात जुलाई, 2010 को गौतम पर घातक हमले के अलावा नक्सलियों के 150 लोगों के वर्दीधारी समूह ने कुआकोंडा पुलिस स्टेशन और सीआरपीएफ कैंप पर मोर्टार और राइफल से हमला किया था. अगले दिन दर्ज की गई एफआईआर की प्रति अभी तक सोनी के वकील को उपलब्ध नहीं हुई है.

15 अगस्त, 2010 को कुआकोंडा का नया तहसील ऑफिस एक बम धमाके से पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया. इस मामले में ‘अज्ञात नक्सलियों’ के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई. एक महीने बाद 16 सितंबर, 2010 को नक्सलियों ने नरली में कुछ ट्रकों में आग लगा दी. इस मामले में दर्ज की गई एफआईआर भी उपलब्ध नहीं है.

खैर, इन हमलों के करीब तीन महीने बाद 30 अक्टूबर, 2010 और 11 दिसंबर,  2010 को पुलिस ने इन मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए. इन सभी में सोनी को आरोपित बताया गया है और उसे ‘फरार’ दिखाया गया है. उन दोनों गवाहों के बयान हास्यास्पद हैं जिनके आधार पर सोनी पर फरार होने का आरोप लगाया गया है. पिछले साल 2010 में इन हमलों के समय से लेकर इस साल 11 सितंबर को दिल्ली के लिए चल देने के पहले तक सोनी लगातार जबेली में अपने स्कूल जाती रही हैं. रजिस्टर पर उनके दस्तखत हैं.  जब तहलका ने दंतेवाड़ा के एसपी अंकित गर्ग से पूछा कि उन्होंने इन मामलों में नामजद होने के बाद भी अब तक सोनी को गिरफ्तार क्यों नहीं किया तो उनका जवाब था, ‘हमने उसे गिरफ्तार करने का लगातार प्रयास किया. लेकिन यह इलाका बहुत दुर्गम है और वह लगातार फरार थी.’

सोनी का कथित दुश्मन और उनके खिलाफ शिकायत करने वाला गौतम ही गर्ग के इस झूठ का पर्दाफाश कर देता है. तहलका को वह विश्वास दिलाना चाहता था कि वास्तव में उसकी सोनी से कोई दुश्मनी नहीं है. उसने बताया कि लाला कांड होने के पहले तक सोनी पिछले पूरे साल अपनी सामान्य दिनचर्या चला रही थीं. गौतम का कहना था, ‘मेरे घर पर हमला होने के बाद चार-पांच बार तो मैं खुद ही उससे मिला हूं. अगर मैं उसका दुश्मन होता तो उसे पकड़ने के लिए पुलिस को साथ लेकर जाता.’  हकीकत यह है कि हाल-फिलहाल तक पुलिस सोनी को गिरफ्तार नहीं करना चाहती थी. वह सिर्फ फर्जी मामले में फंसाकर उन्हें कमजोर करना चाहती थी. सोनी का कहना था, ‘पुलिस लगातार धमकी दे रही थी कि अगर तुम मुखबिर नहीं बनी, अगर तुमने लिंगा को दिल्ली से वापस आने के लिए नहीं कहा, अगर तुम हमारे हिसाब से नहीं चली तो हम तुम्हें जेल में डाल देंगे, जैसे तुम्हारे पति को डाला है.’
बावजूद इसके सोनी ने दबाव के आगे हथियार डालने से इनकार कर दिया. तहलका से बातचीत में उनका कहना था, ‘कई बार मैंने पुलिस और माओवादी दोनों पक्षों से बात की है, लेकिन इसलिए नहीं कि मैं इनमें से किसी एक की तरफ हूं. बल्कि इसलिए कि मैं अपने इलाके में खून-खराबा नहीं चाहती. जब भी माओवादी पुलिस पर हमला करते हैं, पुलिस निर्दोष गांववालों को उठा ले जाती है और जब पुलिस माओवादियों पर हमला करती है तो वे मुखबिर की खोज में गांव में आते हैं. हर तरफ से मारे तो हम आदिवासी ही जाते हैं.’

चारों तरफ से परेशानियों में घिरी सोनी को इसी बीच एक और भयानक झटका लगा. इसी साल 14 जून को माओवादियों ने उनके परिवार पर बुरी तरह हमला किया और उसके पिता के पैर में गोली मार दी. उन्होंने परिवार के बाकी लोगों के हाथ-पैर बांधकर जंगल में छोड़ दिया, घर को पूरी तरह तबाह कर दिया और सोना, बर्तन, अनाज और गायें तक लूट ले गए. सोनी के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती थी कि उनके पति माओवादी होने के आरोप में जेल में हैं. उनके खिलाफ माओवादी होने के चार मामले चल रहे हैं, फिर भी माओवादियों ने उन पर हमला किया. उनका कहना था, ‘क्या पुलिस को पता नहीं है? अगर मैं और लिंगा माओवादी होते तो वे हमारे पिता, हमारे घर पर ऐसा हमला क्यों करते?’ माओवादियों द्वारा सोनी के परिवार पर हमले का कारण किसी को भी ठीक-ठीक नहीं पता है, लेकिन लोगों का अनुमान है कि चूंकि अपने खिलाफ दर्ज मामलों के चलते सोनी को बार-बार पुलिस स्टेशन जाना पड़ता था, इसलिए माओवादियों को शक हो गया कि वे पुलिस की मुखबिर हैं. माओवादियों ने उन्हें और उनके पिता को दो बार अपनी जन-अदालत में तलब किया था, लेकिन दोनों बार सोनी ने तर्क दिया कि उन्हें और उनके पिता पर मुखबिरी करने का आरोप मढ़ने से पहले इसके सबूत दिखाने चाहिए. यह दुखद है कि पुलिस और माओवादी दोनों के लिए सबूत बेकार की चीज है. उधर, जिस गवाह के बयान के आधार पर सोनी के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किया गया है वही पुलिस की कहानी के झूठ का पर्दाफाश कर देता है.

एक आरोपपत्र में कहा गया है कि माओवादियों ने कुआंकोंडा पुलिस स्टेशन पर उसी रात हमला किया जब उन्होंने गौतम पर हमला किया था. दूसरे आरोपपत्र में कहा गया है कि कुआंकोंडा तहसील पर पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के दिन हमला हुआ था. पहले आरोपपत्र में गवाह का नाम मुंद्रा मुचाकी दर्ज है. उसके शब्दों में, ‘जिस रात हमला हुआ उसकी अगली सुबह जब वह अपने खेत पर जा रहा था तो उसने छह आदिवासियों के साथ वर्दीधारी नक्सलियों को जंगल से बाहर निकलते देखा.’ फिर वह सभी गांववालों के नाम गिनाता है. वह सोनी का भी नाम लेता है और आगे कहता है कि ‘डर के मारे मैं जंगल में छिप गया और उनकी बातें सुनने लगा.’ उसके मुताबिक नक्सली और गांव वाले हमले के बारे में चर्चा कर रहे थे और इस बात पर अफसोस कर रहे थे कि कुछ पुलिसवाले और गौतम बच गए थे. फिर उन्होंने संकल्प लिया कि आगे करने वाले हमलों में वे एक भी पुलिसवाले को जिंदा नहीं बचने देंगे. बयान में आगे कहा गया है, ‘बाद में मुझे पता चला कि रात में नक्सलियों और इन छह लोगों ने गौतम और कुआंकोंडा पुलिस स्टेशन पर हमला किया था.’ बयान इस बात के साथ खत्म होता है, ‘मैं बहुत डरा हुआ था, इसलिए मैंने किसी से भी इस घटना की चर्चा नहीं की. आज मैं बिना किसी डर के यह बात कह रहा हूं.’ बयान के नीचे 17अक्टूबर, 2010 की तारीख पड़ी है और दस्तखत किए गए हैं.

इस बात को सही मानने के लिए हमें अपनी कल्पना को बहुत बड़े पंख लगाने होंगे कि वर्दीधारी नक्सली और ग्रामीण रात के किसी हमले के बाद सुबह इस तरह टहल रहे होंगे. और अपनी कार्रवाई की ऐसी समीक्षा कर रहे होंगे जिसे उनसे डरकर जंगल में छिपा एक आदमी सुन सके. लेकिन जैसे इतना ही पर्याप्त नहीं था. पुलिस ने दूसरे आरोपपत्र में मुचाकी लासा और सन्नू मुचाकी नाम के दूसरे दो गवाहों के बयान दर्ज किए हैं. इन दोनों गवाहों ने ठीक वही देखा और सुना जैसा पहले गवाह ने देखा था. लेकिन इनके देखने और सुनने का समय पहले गवाह के समय से एक महीने बाद का है. यानी स्वतंत्रता दिवस के दिन कुआंकोंडा पुलिस स्टेशन पर हमले के बाद की सुबह का. इन दोनों का भी दावा है कि ये अपने खेत पर जा रहे थे तभी उन्होंने ‘वर्दीधारी नक्सलियों को जंगल से बाहर आते देखा.’ इनके साथ भी वही छह गांववाले थे. इनमें सोनी का भी नाम है. (दिलचस्प है कि गांव वालों के नाम ठीक उसी क्रम में हैं, जैसे पहले गवाह की लिस्ट में थे.) वे सभी एक रात पहले के हमले के बारे में चर्चा कर रहे थे. ये दोनों गवाह भी डर के मारे जंगल में छिप गए, लेकिन उनकी बातचीत सुनते रहे. इन्हें भी ‘बाद में पता चला’ कि रात में इस तरह का हमला हुआ था. पहले इन दोनों ने भी डर के कारण किसी से भी चर्चा नहीं की लेकिन अब वे उस डर से निकल चुके हैं. इन बयानों पर भी पहले गवाह की ही तरह ठीक 17 अक्टूबर, 2010 की तारीख पड़ी है और दस्तखत हैं.

इस तरह तीनों गवाहों ने वर्दीधारी नक्सलियों और छह ग्रामीणों को अलग-अलग अपराध करने के बाद जंगल से बाहर आते देखा जो ठीक एक तरह से एक रात पहले के अपने हमले की समीक्षा कर रहे थे. फिर इन तीनों गवाहों ने डर के चलते कई महीनों तक अपना मुंह बंद रखा. लेकिन अचानक ही वे अपने डर से उबर गए और एक ही जांच अधिकारी के सामने, एक ही दिन और एक ही भाषा में अपने बयान दर्ज करवा दिए. क्या ऐसा हो सकता है? साफ है कि पुलिस द्वारा सोनी के खिलाफ बनाए गए आरोपपत्रों में न्याय का मखौल उड़ाया गया है.

सोनी की गिरफ्तारी के कुछ ही घंटे पहले दंतेवाड़ा में तैनात सीआरपीएफ के एक कमांडर ने तहलका को बताया था, ‘कभी-कभी कुछ गलत हो सकता है, लेकिन हमारे पास न्याय प्रणाली है, कानून है, हमारी अदालतें निष्पक्ष हैं. कृपया सोनी को समझाइए कि दंतेवाड़ा वापस आए और खुद को पुलिस के हवाले कर दे. उसे गिरफ्तार होने दीजिए. उसे कोई डर नहीं होना चाहिए. अगर वह बेगुनाह है तो वह यह साबित करने में भी सफल होगी.’ सोनी जिंदा रहना चाहती थीं ताकि वे लोगों को अपनी कहानी बता सकें. उन्हें विश्वास था कि सच की जीत होगी. अब जबकि उन्हें वापस छत्तीसगढ़ ले जाया गया है, उनका यह विश्वास कायम रखा जाना चाहिए. तो क्या एस्सार मामले में सोनी और लिंगा को पुलिस ने जान-बूझकर फंसाया ताकि वे उगाही का अपना हिस्सा हासिल कर सकें? या यह भविष्य में किसी भी मामले में गवाह बनाने के लिए उन्हें तोड़ने की कोशिश थी?

इसके जवाब का कुछ संकेत हमें इस साल मार्च में हुई एक घटना में मिल सकता है. पिछले साल सीआरपीएफ के 76 जवानों की हत्या की पहली वर्षगांठ पर मार्च में पुलिस और एसपीओ ने तीन गांवों को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था. 300 झोपड़ियां जला दी गईं, तीन गांववालों की हत्या की गई और तीन महिलाओं से बलात्कार किया गया. पुलिस ने पूरे इलाके की नाकाबंदी कर दी. इस मुद्दे पर जब हर तरफ से दबाव बढ़ा तो राज्य सरकार ने एसपी का तबादला किया और न्यायिक जांच की बात भी कही. अप्रैल की शुरुआत में पुलिस की नाकाबंदी से बचते हुए तहलका एक लंबे रास्ते से इन प्रभावित गांवों तक पहुंचा था. प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि हमलावर सीआरपीएफ, कोबरा कमांडो, कोया कमांडो और पुलिस के वर्दीधारी जवान थे. इस टीम के साथ कुछ वर्दीवाले और कुछ बिना वर्दी के एसपीओ थे.  शायद इस मामले में प्रत्यक्षदर्शी लोगों के बयान उनकी भाषा में दर्ज करने वाला दूसरा एकमात्र पत्रकार लिंगा था. इस वजह से दंतेवाड़ा पुलिस को भविष्य का एक खतरा जरूर दिखाई दिया होगा.

पत्रकारिता का कोर्स पूरा करने के बाद लिंगा ने घर जाकर लोगों की बेहतरी के लिए काम करने के बारे में सोचा था. हिमांशु ने उसे ऐसा न करने की सलाह दी थी. तब लिंगा ने हंसते हुए कहा था, ‘सर, मैं अपने भीतर से पुलिस का डर निकाल देना चाहता हूं. मैंने कुछ भी गलत नहीं किया है. जबकि पुलिस ने गलत किया है. मुझे क्यों डरना चाहिए? क्या सिर्फ इसलिए कि मैं एक आदिवासी हूं और एक आदिवासी को पुलिस से जरूर डरना चाहिए?’ पिछले कुछ महीनों में लिंगा ने कई बार जिलाधिकारी और एसपी से मिलकर स्थानीय विकास और जनजीवन को सामान्य बनाने के लिए दबाव बनाया था.

साफ है कि सोनी की तरह ज्ञान और साहस के हथियार से लैस लिंगा की इच्छा भी यही थी कि अपनी माटी में आत्मविश्वास के बीज बोए जाएं. नक्सलवाद पर हो रहे युद्ध की परस्पर विनाशकारी दुनिया में उसका इससे बड़ा जुर्म और कुछ हो ही नहीं सकता था.