सूचना अराजकता का ‘राज’स्थान

मुख्यमंत्री कार्यालय सहित ज्यादातर विभागों में देरी से जवाब, गोलमोल जवाब या जवाब ही न देने का रवैया सूचना के अधिकार को सबसे पहले लागू करने वाले राजस्थान में इस अधिकार को बेमानी बना रहा है. शिरीष खरे की रिपोर्ट 

बीते 11 अक्टूबर यानी सूचना के अधिकार कानून के छह साल पूरे होने से ठीक एक दिन पहले एक नये स्थान और अवसर पर वही पुराना वाकया. हरियाणा के हिसार लोकसभा उपचुनाव की रैली में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक ऐसी सूचना दी जो लोगों के लिए नयी नहीं थी. मगर आदत से मजबूर गहलोत द्वारा यह सूचना अमूमन हर कार्यक्रम में दी जाती है, लिहाजा पड़ोसी राज्य में भी उन्होंने बताया कि राजस्थान देश का पहला राज्य है जिसने सूचना का अधिकार कानून सबसे पहले लागू किया. मुख्यमंत्री गहलोत के लिए अपने प्रशासन की पारदर्शिता तथा जवाबदेही पर लंबा-चौड़ा बखान करना यों तो कोई नयी बात नहीं है लेकिन राज्य की मौजूदा स्थितियों में अगर सूचना के अधिकार का आकलन किया जाए तो मुख्यमंत्री का यह बखान ठीक उनके विरुद्ध जाता है. सच तो यह है कि सालों पहले व्यवस्था की नीयत और कार्यशैली में बदलाव की जो उम्मीद बंधी थी वह अब हवा हो चुकी है.

पारदर्शिता के मामले में खुद मुख्यमंत्री कार्यालय ही जवाबदेह नहीं दिखता. तीन साल पहले सूचना के अधिकार के तहत दस्तावेजों के आधार पर प्रशासनिक लॉबीइंग के जरिए अनियमितता और उस पर हुई कार्रवाई के संबंध में हाल ही में कार्यालय से जानकारी मांगी गई थी. कार्यालय ने पांच नोटिस मिलने के बाद भी जब कोई जवाब नहीं दिया तो मामला सूचना आयोग तक पहुंचा. आखिरकार आयोग के सामने मुख्यमंत्री के जवाबदेह कार्यालय का जवाब था, ‘यह सवाल पिछली सरकार से जुड़ा है, जबकि सामान्य परंपरा के अनुसार सरकार बदलने पर मुख्यमंत्री कार्यालय के पुराने दस्तावेज नष्ट कर दिए जाते हैं. हमारा कार्यालय प्रशासनिक कार्यालय नहीं है इसलिए हमारा कोई दायित्व नहीं है.’ आरटीआई कार्यकर्ता संजय शर्मा दस्तावेजों को यूं ही नष्ट करने पर कहते हैं, ‘इस कानून को सबसे पहले लागू करने वाली सरकार का मुख्यमंत्री कार्यालय ही जब कहता है कि हमारा कोई दायित्व नहीं है तो बाकी कार्यालयों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है.’

राजमंदिर सिनेमा के सामने की जमीन भूमाफियाओं को दिए जाने के मसले पर जानकारी नहीं दी गई

केंद्र के मुकाबले राज्य सूचना आयोग सूचना देने के मामले में फिसड्डी साबित हुआ है. प्रणव मुखर्जी प्रकरण में गोपनीय नोट उजागर होने जैसी घटना राजस्थान में नितांत असंभव लगती है. यहां तो कई मामूली सूचनाएं पाने के लिए ही जबर्दस्त मशक्कत करनी पड़ रही है. जैसे कि दो साल पहले आरटीआई कार्यकर्ता विष्णुदत्त ने राज्य के सभी विभागों से एक सूचना मांगी कि आपके यहां कुल कितने सेवानिवृत्त अधिकारियों को फिर से काम पर रखा गया है. इस मामूली सूचना को भी तकरीबन सभी विभागों ने अपने-अपने ढंग से छिपाया और ऐसे अधिकारियों की संख्या हजारों में होने के बावजूद सभी विभागों से कुल पचास लोगों के बारे में भी सूचना नहीं आ पाई.

केंद्र के मुकाबले राज्य सूचना आयोग बहुत सुस्त भी है. आयोग की सुस्ती का आलम यह है कि जब बीते अप्रैल राज्य मुख्य सूचना आयुक्त सेवानिवृत्त हुए तो पांच महीने तक आयोग में ताला पड़ा रहा. इस दौरान एक भी अपील की सुनवाई नहीं हुई. जबकि आयोग को एक-एक अपील की सुनवाई में ही एक साल से ज्यादा समय लग जाता है. फिलहाल आयोग में अपीलों का अंबार लगा हुआ है.
राजस्थान में आरटीआई कार्यकर्ताओं का एक तबका राज्य सूचना आयोग को थानेदार बताता है. आम आदमी को गृह विभाग से सूचना मांगने में सबसे ज्यादा डर लगता है और राज्य सरकार ने गृह विभाग को ही नोडल एजेंसी बनाया है. आयोग पर आरोप है कि उसमें जनता का नहीं पुलिस का राज है. सूचना आयुक्त के निर्णयों पर भी सरसरी नजर डाली जाए तो कहना मुश्किल होगा कि यह सूचना आयुक्त का रवैया है या किसी पुलिसवाले का. जैसे कि दो साल पहले पर्यावरण विभाग से सूचनाएं न मिलने पर जब मामला आयोग तक पहुंचा तो आयोग ने अपीलार्थी (आवेदक) को प्रत्यार्थी (लोक सूचना अधिकारी ) और प्रत्यार्थी को अपीलार्थी बनाते हुए उल्टा अपीलार्थी के विरुद्ध ही प्रकरण दर्ज कर लिया. यही नहीं आयोग ने अपीलार्थी को 15 दिनों के भीतर सूचनाएं देने का आदेश भी दे दिया. इस तरह, राजस्थान में सूचना के अधिकार के पालन में चोर को कोतवाल और कोतवाल को चोर बनाने का नया तमाशा देखने को मिला.

निजी सूचना आसानी से मिल जाती है लेकिन नीतिगत सूचना पर विभाग आनाकानी करते हैं

विष्णुदत्त बताते हैं, ‘राज्य में आयोग की नौकरशाही ने अधिकारी-वर्ग के भीतर का भय गायब कर दिया क्योंकि इस कानून के तहत आज तक किसी अधिकारी को दंडित नहीं किया गया.’ शुरुआती दो सालों में तो राज्य में कोई जुर्माना भी नहीं लगाया गया और जब इसकी शुरुआत हुई तो  सरपंच जैसी मामूली मछलियों से.

तहलका को मिले राज्य सूचना आयोग के दस्तावेजों मुताबिक 30 अप्रैल, 2011 तक कुल 15,452 अपीलों में से 4,510 को अभी भी किसी निर्णय तक पहुंचने की प्रतीक्षा है. इसके पहले के सालों (2008 से 2010) में कुल 117 मुकदमों के दौरान कुल जुर्माना 11 लाख 71 हजार रु में से सिर्फ 4 लाख 21 हजार रु ही वसूल हुए हैं. राज्य के कई विभागों में आवेदनों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है. जयपुर विकास प्राधिकरण में सबसे ज्यादा आवेदन लगाए जाते हैं. प्राधिकरण में अब तक जितना भी जुर्माना लगाया गया है उसे कायदे से लोक सूचना अधिकारियों से वसूला जाना चाहिए था. मगर प्राधिकरण का एक दस्तावेज बताता है कि तकरीबन दर्जन भर अधिकारियों का यह जुर्माना प्राधिकरण से ही भरवा दिया गया.

राज्य के कई कार्यकर्ताओं ने आरटीआई के खस्ताहाल के पीछे आयोग की उस शह को जवाबदार माना है जो अधिकारी-वर्ग को संरक्षण देती है. सामाजिक कार्यकर्ता प्रभात मिश्रा का तजुर्बा कहता है कि आयोग एक अधिकारी को ज्यादा नहीं तो 10 बार शिकायत निवारण का मौका देता है. यहां तक की निर्णय होने के बावजूद वह परिवाद के लिए लंबा समय देता है. प्रभात ने बताते हैं कि जयपुर के राजमंदिर सिनेमा के सामने पार्किंग की जमीन को नगर निगम के अधिकारियों ने भूमाफियाओं को बांट दी. उन्हें दो साल पहले जब इसका पता चला तो निगम में सूचना के लिए आवेदन भेजा. मगर लोक सूचना अधिकारी ने एक साल तक चुप्पी साधे रखी. उसके बाद आयोग ने अधिकारी को तुरंत सूचना देने का आदेश दिया. प्रभात आगे कहते हैं, ‘आखिरकार अधिकारी ने सूचना नहीं ही दी. वजह यह कि घोटाला ही करोड़ों का था, जबकि आयोग ने अधिकारी पर 25,000 रु का जुर्माना लगाया था.’ हालांकि अधिकारी ने 25,000 रु का जुर्माना भी नहीं भरा. उल्टा निगम के खर्चे पर हाईकोर्ट पहुंच गया.’

व्यावसायिक गोपनीयता. यह राजस्थान की नौकरशाही द्वारा कानून के भीतर बनाया गया एक नया सुराख है. इस सुराख को चर्चित फर्जी डायरी मामला से समझा जा सकता है. राज्य सरकार द्वारा सेवानिवृत्त शासकीय कर्मचारियों को चिकित्सीय सुविधाएं नि:शुल्क मुहैया कराने के लिए डायरियां वितरित की जाती हैं. मगर बीते साल एक गिरोह द्वारा कई कर्मचारियों के नाम पर फर्जी डायरियां बनवाने का मामला उजागर हुआ. जांच के नाम पर जब साल भर सिर्फ लीपापोती चलती रही तो विष्णुदत्त ने चिकित्सा विभाग से संबंधित सूचनाएं मांगीं. मगर लोक सूचना अधिकारी की दलील थी कि यह तो हमारी व्यावसायिक गोपनीयता से जुड़ा मामला है. इसी के साथ उसने राज्य में खुलेआम भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए उसे व्यावसायिक गोपनीयता से जोड़ने की एक नयी पद्धति ईजाद कर दी.

कई आरटीआई कार्यकर्ताओं का मत है कि राजस्थान में सूचना देने की प्रक्रिया को कुछ ज्यादा ही लंबा खींचा जाने लगा है. कई बार तो इतना कि संबंधित सूचना का कोई महत्व ही नहीं बचता. जैसे कि संजय शर्मा को बीते तीन सालों से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से जुड़ी सूचना नहीं दी जा रही है. यह प्रकरण इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आयोग ने संजय के पक्ष में निर्णय देते हुए लोक सूचना अधिकारी को तुरंत सूचना देने का आदेश दिया है. बावजूद इसके अधिकारी सूचना देने को तैयार नहीं. संजय के मुताबिक, ‘अधिकारियों के दिमाग में आज भी यह सामंतवादी मानसिकता बैठी हुई है कि हम सूचना नहीं देंगे.’ सामाजिक कार्यकर्ता पीएन मौंदोला का तजुर्बा बताता है कि जब कोई निजी सूचना मांगी जाती है तो आसानी से मिल जाती है लेकिन नीतिगत सूचना मांगने पर सीधा जवाब आता है-यह सूचना हमारे पास उपलब्ध नहीं है. मौंदोला कहते हैं, ‘किसी भी प्राधिकरण का जो मूलभूत कर्तव्य है उससे जुड़ी सूचना तो उसके पास होनी ही चाहिए. जैसे जयपुर नगर निगम का मूलभूत कर्तव्य जयपुर को साफ-सुथरा रखना है. ऐसे में निगम यह नहीं कह सकता कि सफाई से जुड़ी सूचना उसके पास उपलब्ध नहीं है.’ मौंदोला ने जयपुर विकास प्राधिकरण से यह जानना चाहा था कि उसने किस तारीख में अमुक कॉलोनी को स्वीकृति दी. मगर प्राधिकरण ने सूचना उपलब्ध न होने की बात कही. मौंदोला के मुताबिक प्राधिकरण ने कॉलोनी का सर्वे किया, एक-एक इंच को नापा, लोगों को पट्टे भी दिए और पट्टे देने के बावजूद प्राधिकरण ने कह दिया कि उसे तारीख मालूम नहीं है.

भले ही राजस्थान का मुखिया आरटीआई को अपनी देन बताते हुए न थकते हों लेकिन सरकार ने न तो अधिकारियों को प्रशिक्षित किया और न कभी कठोर आदेश दिया. राज्य की नौकरशाही ने भी संवेदनशील बनने की बजाय आरटीआई से बचने के कुछ खास नुस्खे ढूढ़ लिए. मसलन- देरी से जवाब देना, गोलमोल जवाब देना, अस्पष्ट जवाब देना या जवाब ही न देना. यह हाल तब है जब एक ही विभाग में बड़ी संख्या में लोक सूचना अधिकारी हैं. जैसे कि जयपुर विकास प्राधिकरण में 40 तो विद्युत-विभाग में 110 सूचना अधिकारी तैनात हैं. हर सेक्शन का अलग-अलग सूचना अधिकारी होने के बावजूद सूचनाएं उपलब्ध न कराना उनके बीच की मजबूत लामबंदी को दर्शाता है.

पंचायतों द्वारा भी सूचना छिपाने की यूं तो कई मामले हैं, मगर बाड़मेर के दो मामले ग्रामीण राजस्थान में व्याप्त सूचना अराजकता से दो-चार कराते हैं. पहला मामला कोई तीन साल पहले बाड़मेर के सांजीयाली पंचायत के अंबेश मेघवाल का है. अंबेश ने जब अपनी पंचायत से विकास कार्यों के संबंधित सूचना मांगी तो पंचायत ने उन्हें ऐसी सूचनाएं दीं जिन्हें सूचनाएं नहीं कहा जा सकता. पंचायत ने उन्हें अखबार की कतरने, निमंत्रण कार्ड और पत्र-व्यवहार इत्यादि की साढ़े 17 हजार छाया प्रतियां भेज दीं और बदले में उनसे 35 हजार रुपये मांग लिए. दूसरा मामला कोई एक साल पहले बामणौर पंचायत के मंगलाराम मेघवाल का है. मंगलाराम ने जब ग्रामसभा में पंचायत के अनियमितताओं से संबंधित सूचनाएं न देने का सवाल उठाया तो सरपंच गुलाम शाह ने उनके हाथ-पैर तुड़वा दिए. राज्य सरकार ने जांच के लिए एक उच्च स्तरीय दल बामणौर भेजा. दल ने पंचायत में बीते दो साल के दौरान 10 लाख का भ्रष्टाचार भी पाया. मगर गहलोत सरकार ने दोषियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की, उल्टा उनकी पार्टी ने बीते दिनों सरपंच शाह को कांग्रेस के धोरीमन्ना ब्लॉक का अध्यक्ष बना दिया.

भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद की शोधार्थी डॉ रूपा मंगलानी ने आरटीआई पर किए शोध के दौरान पाया है कि राज्य के नोडल विभाग द्वारा आरटीआई के लिए अलग सेल बनाने के निर्देशों के बावजूद ज्यादातर विभागों में जरूरी स्टाफ और मूलभूत संसाधनों जैसे फोटोकॉपी मशीनों का अभाव है. हालांकि जयपुर पुलिस विभाग में आरटीआई के आवेदनों पर कार्रवाई करने वाले कई अधीनस्थ विभागों के पास फोटोकॉपी मशीन है, मगर अधिकारियों की मानें तो उन्हें मशीन चलानी नहीं आती. आम तौर पर कार्यालयों के बाहर लगे बोर्ड और भीतर रखे कागजातों की स्थिति को देखकर किसी विभाग की मनोदशा का संकेत लिया जा सकता है. मगर मंगलानी ने बताया कि राज्य में बोर्ड और रिकार्ड प्रबंधन की स्थिति ठीक-ठाक भी नहीं कही जा सकती.

राजस्थान क्षेत्रफल के नजरिए से भारत का सबसे बड़ा राज्य है और इस हिसाब से सूचना पाने में सबसे ज्यादा परेशानी भी दूर-दराज के आवेदकों को ही उठानी पड़ती है. आरटीआई मंच के कमल टांक के मुताबिक, ‘एक लंबे-चौड़े राज्य में जबकि आवेदनों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है, ऐसे में सिर्फ एक सूचना आयुक्त से अच्छे और शीघ्रातिशीघ्र नतीजों की अपेक्षा नहीं की जा सकती.’ खासतौर से तब जब मुख्यमंत्री द्वारा बारंबार प्रशासनिक पारदर्शिता और जवाबदेही का दावा किया जाता है.