पंजाब का मन'मोहभंग'

पंजाब में 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के नायक रहे मनमोहन सिंह का करिश्मा क्या अब पंजाबी-सिख जनमानस पर धुंधला पड़ रहा है? बृजेश सिंह की रिपोर्ट.

कांग्रेस और पंजाब या यह कहें कि कांग्रेस और सिखों के एक बड़े वर्ग के बीच संबंध बहुत लंबे समय तक तनावपूर्ण और अविश्वास भरे रहे हैं. कई घटनाओं ने इसमें योगदान दिया. जैसे 1960 में सिख बहुमत वाला राज्य बनाने को लेकर चला पंजाबी सूबा आंदोलन जिसे कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने तो पहले तो पूरी तरह से नजरअंदाज करने की कोशिश की लेकिन बाद में स्वीकार कर लिया. इसके बाद भी अलग-अलग मुद्दों को लेकर पंजाब और केंद्र के बीच मौके बेमौके तनातनी चलती रही. इन कड़वाहट भरे संबंधों में भी ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद सिख विरोधी दंगे ऐसी फांस हैं जिसकी तकलीफ आज तक सिख समाज महसूस करता है.

ऐसे में 2004 के लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करने के बाद जब सोनिया गांधी ने डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद सौंपा तो इसे सीधे-सीधे कांग्रेस की अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को और निखारने और सिखों के साथ अपने संबंध सुधारने की कोशिश समझा गया. वजह जो भी हो लेकिन मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने से सिख समुदाय के लोग गौरवान्वित थे. 2009 के लोकसभा चुनाव में जब पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में प्रचारित किया तो इस बात का सबूत भी मिल गया. राज्य की 13 में से 8 सीटों पर उसे जीत मिली जबकि इसके पहले वह सिर्फ दो सीटें  जीत पाई थी. जानकारों के एक वर्ग ने इसे सरदार मनमोहन सिंह के प्रभाव के रूप में देखा. लेकिन समय बढ़ने के साथ चीजें बदलती चली गईं. 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को राज्य में हार का मुंह देखना पड़ा और इसके साथ ही यह सवाल उठने लगा कि क्या मनमोहन सिंह का जादू यहां के पंजाबी-सिख जनमानस से उतर गया? 

हमने जब पंजाब के आम सिखों से इस बारे में बात की तो हमें इस सवाल का जवाब हां में ही मिला. हालांकि कोयला घोटाले में नाम आने के बावजूद ज्यादातर लोग अब भी उन्हें ईमानदार मानते हैं. जालंधर में टूर एंड ट्रैवल्स का व्यवसाय करने वाले जगदीप बरार कहते हैं, ‘ सबको पता है कि सोनिया गांधी जो कहती हैं मनमोहन सिंह वही करते हैं. फिर भी हमें इस बात का संतोष है कि वे ईमानदार हैं. ‘   

जानकारों का एक वर्ग ऐसा है जो मानता है कि यूपीए सरकार में एक के बाद एक घोटाले सामने आने से प्रधानमंत्री की छवि काफी खराब हुई है. इस बात के समर्थन में वे तथ्य रखते हैं कि 2012 के विधानसभा चुनाव के समय जब अमृतसर में प्रधानमंत्री की सभा हुई तो उन्हें सुनने के लिए लोग ही नहीं आए. आधे से अधिक कुर्सियां खाली पड़ी थीं. ऐसा इसलिए हुआ कि सिख समुदाय के बीच अब वे गर्व का विषय नहीं थे. लोगों की इस ठंडी प्रतिक्रिया का नतीजा यह हुआ कि उनकी दूसरी सभा रद्द कर दी गई. 

हालांकि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में आई गिरावट के लिए कुछ लोग यूपीए-2 के प्रदर्शन के अलावा अन्य कारणों को भी जिम्मेदार मानते हैं. पंजाब विश्वविद्यालय (जिससे मनमोहन सिंह का बतौर छात्र और शिक्षक दोनों नाता रहा है) में समाजशास्त्र के प्रोफेसर मंजीत सिंह कहते हैं, ‘ अगर सिर्फ राज्य, धर्म, दाढ़ी और पगड़ी के समान होने के आधार पर कोई यह कहे कि मनमोहन सिंह का पंजाब और यहां के सिखों से गहरा संबंध रहा है तो फिर वह कह सकता है लेकिन हकीकत में उनका कभी भी पंजाब और यहां के लोगों से कोई जीवंत संबंध या संपर्क नहीं रहा.’  कुछ लोगों की यह भी शिकायत है कि प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने कभी आगे बढ़कर पंजाब के लिए कुछ नहीं किया. अमृतसर रह रहे 45 वर्षीय रंगकर्मी केवल धालीवाल शिकायती लहजे में कहते हैं, ‘ राज्य में लोगों को उम्मीद थी कि उनके यहां का आदमी प्रधानमंत्री बना है तो उनके लिए कुछ तो करेगा लेकिन पंजाब को छोड़िए अपने गृहनगर अमृतसर के लिए भी उन्होंने कुछ नहीं किया. हमें लगता था कि वे पंजाब के लिए आर्थिक स्तर पर ऐसी सहूलियतें देंगे जिससे राज्य की हालत सुधरेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ‘ 

राज्य में आम लोगों की यह भी राय है कि प्रधानमंत्री ने अब तक पंजाब या सिखों से संबंधित किसी विषय पर अपनी तरफ से पहल नहीं की. वह चाहे सदन में सिखों की शादी के पंजीयन से संबंधित आनंद मैरेज एक्ट पास होने की बात हो या फिर सिख धर्म को हिंदू धर्म से अलग करते हुए एक स्वतंत्र धर्म के रूप में स्थापित करने वाला संविधान संशोधन जैसा मामला. अंग्रेजी अखबार डीएनए के ब्यूरो चीफ अजय भारद्वाज के मुताबिक ये शिकायतें भी आखिरकार यही बताती हैं कि मनमोहन सिंह का पंजाब से जुड़ाव औपचारिक ही है. वे कहते हैं, ‘ जो व्यक्ति अपने राज्य से चुनाव नहीं लड़ता और राज्यसभा भी जाता है तो असम से. ऐसे में आप उनके जुड़ाव को भावुक कैसे मानें.’

लेकिन क्या पंजाब के लोगों की उनसे कभी कोई उम्मीद रही? इस सवाल के जवाब में मंजीत कहते हैं, ‘जब मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया था तो यहां के लोग बहुत प्रसन्न हुए थे कि चलो हमारी कौम से एक व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बना है, जो मेहनती, गैरविवादित, विनम्र और ईमानदार है लेकिन इससे अधिक उनसे यहां के लोगों का जुड़ाव नहीं रहा, ना ही लोगों ने उनसे कोई बड़ी उम्मीदें पाल रखी थीं. लोग यह जानते हैं कि सामने वाला कांग्रेस पार्टी से जुड़ा है और वही करेगा जो पार्टी कहेगी. लेकिन लोग तब जरूर मनमोहन से नाराज होने लगे जब एक के बाद एक घोटाले सामने आने शुरू हुए.’

सिखों से जुड़े हुए किसी मसले पर अब तक डॉ मनमोहन सिंह ने कोई सबसे बड़ी पहल की है तो वह है 1984  के दंगों के लिए सरकार की तरफ से समुदाय से माफी मांगना. हालांकि प्रदेश कांग्रेस के कुछ नेता इस पर भी असंतुष्ट हैं. नाम न बताने की शर्त पर एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘ कम से कम वे यह तो कर ही सकते थे कि उस दंगे में शामिल रहे लोगों को सजा दिलवाने की कोशिश करते. उल्टा 2009 में कांग्रेस ने सज्जन कुमार और जगदीश टाइटर जैसे लोगों को लोकसभा का टिकट दे दिया. ‘

सिखों के प्रधानमंत्री से जुड़ाव महसूस न कर पाने के एक और रोचक कारण का उल्लेख करते हुए अजय कहते हैं, ‘ मनमोहन सिंह हमेशा अनिर्णय की स्थिति में दिखते हैं. उनकी चुप्पी से यह संदेश जाता है कि वे वही करते हैं जो सोनिया गांधी उनसे करने के लिए कहती हैं. ये सारे लक्षण सरदारों के नहीं होते. सरदारों की छवि आक्रामक होती है. सरदार बेचारा नहीं दिखता, मनमोहन का यह व्यवहार सिखों की पारंपरिक छवि के विपरीत जाता है.’ मोहाली में रह रहे एक किसान अरविंदरजीत सिंह भी इस बात का समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘ सोनिया गांधी और सरकार के मंत्रियों ने उन्हें एक पुतले में तब्दील कर दिया. कोई उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक काम ही नहीं करने देता. कभी उन्हें ममता डरा देती हैं तो कभी कोई और.’

यदि मनमोहन सिंह की छवि पंजाब में इतनी खराब हो गई है तो क्या अगले लोकसभा चुनावों में इसका खामियाजा भी कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है? इस संभावना पर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष वीरेंद्र कहते हैं, ‘ अभी तो यही तय नहीं है कि अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लड़ेगी या राहुल गांधी के. ‘ हालांकि पार्टी के ही एक और नेता नाम बताने की शर्त पर यह साफ-साफ कहते हैं,  ‘ मनमोहन सिंह की छवि से न तो कांग्रेस को फायदा होने वाला है और न ही नुकसान. बात बहुत आगे निकल गई है. यहां केंद्र सरकार की छवि इतनी खराब हो चुकी है कि अब पार्टी उम्मीदवार ही नहीं चाहेंगे कि उनके प्रचार के लिए केंद्र से कोई आए.’