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वाड्रा का डाबरा

रॉबर्ट वाड्रा की एक कंपनी है स्काईलाइट हॉस्पिटेलिटी प्रा.लि. (एसएचएल). यह कंपनी वर्ष 2007 में बनी और इसके आस-पास या बाद में उन्होंने बारह कंपनियां और बनाईं. इनमें से एक और महत्वपूर्ण कंपनी है स्काईलाइट रिएलिटी प्रा.लि. (एसआरएल). बनने के वक्त एसएचएल में लगाई गई कुल पूंजी थी एक लाख रुपये. साल 2007-08 में एसएचएल गुड़गांव के मानेसर में 15.38 करोड़ रुपये कीमत की एक जमीन खरीदने की सोचती है. सोचते ही इसे खरीदने के लिए जरूरी पहली किस्त का पैसा (7.95 करोड़ रुपये) उसे एक सरकारी बैंक – कार्पोरेशन बैंक – से मिल जाता है. इस जमीन को व्यावसायिक उपयोग में लाने के लिए जरूरी अनुमतियां भी उसे इसके कुछ दिनों के भीतर ही मिल जाती हैं. अब वाड्रा की कंपनी डीएलएफ नाम की देश की सबसे बड़ी रियल एस्टेट कंपनी से इस 15 करोड़ की जमीन का सौदा 58 करोड़ में करती है. डीएलएफ तुरंत सौदे के लिए तैयार हो जाती है. वह न केवल इसके लिए पेशगी 50 करोड़ रुपये एसएचएल को दे देती है बल्कि अलग से दो साल तक इस्तेमाल के लिए उसे ब्याज-मुक्त 10 करोड़ रुपये और दे देती है. इसके अलावा एक अनहुए सौदे से पहले भी डीएलएफ, एसएचएल को 15 करोड़ रुपये दे देती है जिसे वह करीब एक साल तक अपने पास रखने के बाद डीएलएफ को लौटाती है. डीएलएफ से मिले पैसे का इस्तेमाल वाड्रा की कंपनियां तरह-तरह की संपत्तियों को खरीदने के लिए करती हैं. या फिर उनका ब्याज खाती हैं. एक मजे की बात यह भी है कि वाड्रा से जुड़ी कंपनियां अपने पास मौजूद धन के एक बड़े हिस्से का इस्तेमाल डीएलएफ की ही संपत्तियां खरीदने के लिए करती हैं.

उदाहरण के तौर पर, वाड्रा की कंपनी एसआरएल, डीएलएफ के अरालिया नाम के प्रोजेक्ट में साल 2008 में एक 10,000 वर्गफुट के विशालकाय अपार्टमेंट को खरीदती है. वित्तीय वर्ष 2009-10 के कंपनी के बहीखातों में इसकी कीमत 89 लाख रुपये दर्ज है. जबकि 2010-11 के दस्तावेजों में इसे 10.4 करोड़ रुपये दिखाया गया है. इसके अलावा कंपनी डीएलएफ के मैग्नोलिया नाम के प्रोजेक्ट में भी वर्ष 2008 में ही करीब 6,000 वर्गफुट क्षेत्रफल वाले 7 फ्लैट खरीदती है. इसके लिए 5.23 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया. अगर डीएलएफ की ही मानें तो इनमें से हर फ्लैट की कीमत करीब 6 करोड़ रुपये बैठती है.

वाड्रा पर आरोप लगाने वाले नवोदित राजनेता अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि चूंकि मार्च, 2011 में वाड्रा के इन लेन-देनों की खबर इकोनॉमिक टाइम्स में छप गई थी इसलिए अपने बही-खातों को दुरुस्त करने के लिए वाड्रा ने 2010-11 में अरालिया वाले फ्लैट की कीमत 10.4 करोड़ रुपये दिखा दी. वे मैग्नोलिया के फ्लैटों की कम कीमत पर भी कई सवाल उठाते हैं. मगर मैग्नोलिया की कम कीमत के बारे में यह बचाव भी सुनने में आ रहा है कि चूंकि मैग्नोलिया भी बन ही रहा है इसलिए उसकी पूरी कीमत अभी वाड्रा द्वारा डीएलएफ को दी नहीं गई है.

डीएलएफ ने 15 करोड़ रुपये की मानेसर वाली जमीन 58 करोड़ रुपये में खरीदने का बचाव कुछ इस तरह से किया है कि चूंकि उसे यह जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए जरूरी सारी अनुमतियों के साथ मिली थी इसलिए उसने इस जमीन के लिए 58 करोड़ रुपये चुकाए. यहां सवाल यह खड़ा हो जाता है कि अगर डीएलएफ को ये अनुमतियां लेना इतना ही मुश्किल लगता था कि वह 15 करोड़ रुपये की ज़मीन के 58 करोड़ रुपये देने को तैयार हो गई तो वाड्रा को ये अनुमतियां इतनी आसानी से कैसे मिल गईं
जिनकी वजह से उन्होंने चट-पट में 43 करोड़ रुपये का मुनाफा बना लिया.

डीएलएफ का यह भी कहना है कि उसने मानेसर वाली जमीन को 2008-09 में ही अपने नाम करा लिया था. इसके उलट वाड्रा के वित्तीय दस्तावेज बताते हैं कि यह जमीन वर्ष 2010-11 तक एसएचएल के ही नाम थी. यहां जानना जरूरी है कि यदि आप किसी संपत्ति को खरीदने के तीन साल के भीतर बेचते हैं तो बेचने से हुए फायदे पर कैपिटल गेन टैक्स देना होता है. इस हिसाब से वाड्रा को 43 करोड़ रुपये के मुनाफे पर कम-से-कम 13 करोड़ रुपये टैक्स देना था. अब अगर डीएलएफ की बात सही मानें तो वाड्रा अपना बही-खाता गलत दिखा रहे हैं. और अगर डीएलएफ झूठ बोल रहा है तो हो सकता है कि वाड्रा ने टैक्स बचाने के लिए तीन साल तक जमीन डीएलएफ के नाम ही नहीं की. मगर डीएलएफ इसके लिए तैयार क्यों हो गई यह भी एक सवाल ही है.

सवाल यह भी है कि एक लाख रुपये की कुल पूंजी वाली कंपनी एसएचएल को कार्पोरेशन बैंक ने 7.94 करोड़ रुपये की बड़ी रकम उधार कैसे दे दी. हो सकता है बैंक ने ऐसा इसलिए किया हो कि उसके वाड्रा की किसी और कंपनी से अच्छे व्यापारिक संबंध हों और उसकी साख या ज़मानत के आधार पर एसएचएल को बैंक से पैसे मिल गए हों. या फिर वाड्रा को, जो वे हैं, वह होने का फायदा मिल गया? इस लेख के लिखे जाने के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर बताती है कि कार्पोरेशन बैंक के मुख्य प्रबंध निदेशक अजय कुमार का कहना है कि बैंक ने कभी एसएचएल को 7.94 करोड़ रुपये का ओवरड्राफ्ट दिया ही नहीं. उधर वर्ष 2007-08 की एसएचएल की वार्षिक रपट में कार्पोरेशन बैंक द्वारा दिए गए ओवरड्राफ्ट का जिक्र है. तो ऐसे में सवालों की लिस्ट में दो और जुड़ जाते हैं. पहला, अगर बैंक से नहीं तो जमीन खरीदने के लिए जरूरी पैसा आया कहां से? और दूसरा, क्या एसएचएल की वार्षिक रपट में हेराफेरी की गई थी?

अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि सिर्फ 50 लाख रुपये की शेयर पूंजी वाली रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों की संपत्तियों की कुल कीमत मात्र पांच साल में 500 करोड़ रुपये के करीब पहुंच गई. मगर केजरीवाल की यह बात सही नहीं है कि वाड्रा ने सिर्फ 50 लाख रुपये ही शुरुआत में अपनी कंपनियों में लगाए. अगर वाड्रा के बही-खातों को ठीक से देखा जाए तो पता लगेगा कि उनकी पुरानी कंपनी आर्टेक्स ने 2007-09 के बीच एसएचएल और एसआरएल को करीब छह करोड़ रुपये कर्ज के तौर पर दिये थे. मगर 6 करोड़ रुपये लगाकर भी 500 करोड़ रुपये, चार-पांच साल में ही बनाना भी 10 साल में 10 करोड़ लोगों में से एक के साथ होने वाली बात ही है.

वाड्रा को 43 करोड़ रुपये के मुनाफे पर कम-से-कम 13 करोड़ रुपये टैक्स देना था. अब अगर डीएलएफ की बात सही मानें तो वाड्रा अपना बही-खाता गलत दिखा रहे हैं

रॉबर्ट वाड्रा को बचाने के लिए आगे आए कांग्रेसी नेताओं और गांधी परिवार के खैरख्वाहों का मानना है कि वाड्रा और डीएलएफ के बीच जो भी लेन-देन हुआ वह उन दोनों के बीच का निजी मामला है और इससे किसी और को क्या मतलब.

इसमें कोई शक नहीं कि डीएलएफ की वजह से वाड्रा को सैकड़ों करोड़ रुपये का फायदा हुआ. मगर क्या केवल इन दोनों के रिश्ते भर से डीएलएफ जैसी विशालकाय कंपनी को भी कुछ ऐसा फायदा हो सकता है जिससे वह वाड्रा पर इतनी मेहरबान हो जाए? इसका जवाब है तब तक तो बिल्कुल नहीं जब तक वाड्रा की वजह से सत्ता के कुछ ऐसे पुर्जे न हिल जाएं जो डीएलएफ के रुके हुए, न हो सकने वाले कामों को हवाई जहाज की गति दे दें. और ऐसा होने के लिए वाड्रा का कुछ करना-कहना नहीं बल्कि ज्यादातर बार डीएलएफ के कर्ताधर्ताओं के साथ दिखना ही काफी है. मगर सिर्फ ऐसा होने से वाड्रा के खिलाफ कोई मजबूत कानूनी मामला नहीं बनता. हालांकि डीएलएफ के खिलाफ थोड़ी-बहुत कार्रवाई जरूर की जा सकती है – ऐसे वक्त जब उसकी कंपनियों पर हजारों करोड़ रुपये का कर्ज है वह वाड्रा की कंपनियों को इतना फायदा अपने शेयरधारकों की कीमत पर कैसे पहुंचा सकती है?

रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ कोई कानूनी मामला केवल तभी बन सकता है जब यह अच्छी तरह से सिद्ध हो जाए कि उनकी वजह से विभिन्न सरकारों ने डीएलएफ को तमाम फायदे पहुंचाए और इसके एवज में डीएलएफ ने वाड्रा को ढेरों फायदे पहुंचाए. यदि यह सिद्ध हो जाए कि उन्होंने अपने बहीखातों में हेर-फेर किया है तो आयकर और कंपनी कानून आदि से संबंधित विभाग भी उनके खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं.

हालांकि इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्य कुछ ऐसे मामले सामने रखते हैं जिनसे ऐसा लगता है कि हरियाणा सरकार ने डीएलएफ की कथित तौर पर अनैतिक रूप से मदद की है. इनमें से एक मामले से रॉबर्ट वाड्रा भी जुड़े हुए हैं. यह मामला है गुड़गांव की एक तीस एकड़ की जमीन का. आरोप हैं कि हॉस्पिटल बनाने के लिए किसी अन्य कंपनी को दी गई जमीन को सेज बनाने के लिए डीएलएफ को बेचने की अनुमति दे दी गई. इस काम के लिए बनी डीएलएफ की कंपनी डीएलएफ एसईजेड होल्डिंग लिमिटेड में एक साल तक रॉबर्ट वाड्रा की भी 50 फीसदी हिस्सेदारी थी. आरोप लगाने वालों का मानना है कि हरियाणा सरकार ने इस मामले में वाड्रा की वजह से डीएलएफ का साथ दिया.

हरियाणा सरकार के डीएलएफ को फायदा पहुंचाने के एक-दो और उदाहरण जनता के सामने रखे जा रहे हैं.

वाड्रा प्रकरण से जुड़े कई पहलुओं को देखा जाए तो कुछ बड़े रोचक तथ्य सामने आते हैं. इस मामले में केजरीवाल या उनसे जुड़े लोग अदालत में नहीं जा रहे हैं, उनका कहना है कि उन्होंने सारी चीजें जनता के सामने रख दी हैं और इनमें इतना दम है कि इनके आधार पर सरकार को स्वतः ही कोई कार्रवाई करनी चाहिए. दूसरी ओर सरकार के मंत्री, गवर्नर जैसे लोग वाड्रा और डीएलएफ को बिना किसी जांच के क्लीन चिट दिए जा रहे है. कॉरपोरेट मामलों के मंत्री ने तो यहां तक कह दिया कि उन्होंने जांच के बाद रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों में किसी भी प्रकार की अनियमितताएं नहीं पाई हैं. मगर यह जांच किस प्रकार की थी यह बिना बताए वे इस मामले में किसी और जांच की जरूरत से इनकार करते हैं. मजे की बात यह है कि कांग्रेस या सरकार के प्रतिनिधि अरविंद केजरीवाल को जनता को गुमराह करने के बजाय अदालत में जाने के लिए ललकारते हैं. मगर वे केजरीवाल के खिलाफ मानहानि का दावा करने के लिए वाड्रा को नहीं समझा पाते. अगर केजरीवाल के आरोप उतने ही बेबुनियाद हैं जितना वाड्रा के समर्थन में बोलने वाले बता रहे हैं तो क्या उनके खिलाफ मानहानि का दावा नहीं कर दिया जाना चाहिए?

रॉबर्ट वाड्रा के चारों ओर आज सवाल ही सवाल हैं. मगर इनमें सबसे बड़ा सवाल शायद यही होगा कि इतने सवालों से घिरे होने के बाद भी इनमें से किसी को भी वे जवाब देने लायक क्यों नहीं मानते. एक तरफ वे फेसबुक पर एक-दो फुलझड़ियां छोड़ने के बाद चुप हैं तो दूसरी ओर डीएलएफ और ‘हम कौन खामखां’ प्रकार के लोग शिद्दत से उनके बचाव में जान दिए जा रहे हैं. अगर वे खुद नहीं बोलना चाहते तो न सही मगर क्या यह अच्छा नहीं होता कि उनके द्वारा अधिकृत उनकी किसी कंपनी का कोई अधिकारी – यदि वह है तो – या फिर उनका वकील ही इस मामले में कोई सफाई दे देता?

क्या वे अपने ऊपर लग रहे आरोपों को इतना कमजोर समझते हैं कि उनका जवाब देने की उन्हें जरूरत ही महसूस नहीं होती? या फिर कई अन्य लोगों की तरह ही वे खुद को इस लायक और आरोपों को इतना कमजोर नहीं पाते कि वे इनसे अपना सही से बचाव कर सकें?

बिल से दिल तक

कल तक कानूनी नुक्तों और अदालतों का सहारा लेने वाले अरविंद केजरीवाल ने अपने पहले राजनीतिक कार्यक्रम की शुरुआत दिल्ली में बिजली के कटे हुए कनेक्शन जोड़कर की. अगला हमला सीधे सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा पर किया और डीएलएफ के साथ-साथ हरियाणा सरकार को भी कठघरे में खड़ा कर दिया. फिर उन्होंने कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद के ट्रस्ट के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार की वह चिट्ठी खोज निकाली जिसके मुताबिक ट्रस्ट ने राज्य के 17 शहरों में फर्जी दस्तखतों के सहारे सरकारी अनुदान बांटने का दावा किया था. इन तमाम चोटों से बिलबिलाई कांग्रेस बस यह शिकायत कर पा रही है कि अगर केजरीवाल के पास सबूत हैं तो वे अदालत जाएं, मीडिया जाकर सस्ती लोकप्रियता क्यों बटोर रहे हैं.
लेकिन केजरीवाल अदालत क्यों जाएं? अब वे उस सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि नहीं हैं जो अदालतों में जनहित याचिकाएं डालती है, वे उस राजनीतिक समाज के नुमाइंदे हैं जो अपनी वैधता जनता की अदालत से हासिल करता है. इस लिहाज से केजरीवाल ने अपना पहला राजनीतिक दांव पूरे कौशल से खेला है और उन लोगों को मायूस किया है जो यह मानकर चल रहे थे कि अण्णा हजारे के अलग हो जाने से उनकी कोई अपील नहीं रह जाएगी. दिल्ली में बढ़े हुए बिजली बिलों का मुद्दा सफलतापूर्वक उठाकर केजरीवाल ने साबित किया है कि वे जनता की नब्ज पहचानने की सही कोशिश कर रहे हैं. 

लेकिन लोकपाल बिल से बिजली के बिल तक चली आई इस राजनीति की असली चुनौतियां अभी बाकी हैं.  हमारे नेताओं की बहुत सतही कतार में अरविंद केजरीवाल दूसरों से अलग इसलिए भी दिखाई पड़ रहे हैं कि वे सरकारी कागज बहुत ध्यान से पढ़ते हैं और इसलिए व्यवस्था की गड़बड़ियों को अचूक ढंग से पहचान पाते हैं. उनकी निजी ईमानदारी और इससे पैदा साहस भी उन्हें ऐसा नायक बनाते हैं जिसके पीछे राजनीतिक दलों से ऊबी-अघाई शहरी नौजवान पीढ़ी चलने को तैयार हो जाए. दरअसल केजरीवाल को मिल रहे व्यापक समर्थन का एक बड़ा आधार अब तक यह शहरी मध्यवर्ग बनाता रहा है. बेशक, बिजली-पानी जैसे जरूरी मुद्दों पर बिल्कुल सड़क की लड़ाई लड़ते हुए वे इस समर्थन आधार का और भी विस्तार कर सकते हैं, उसमें निम्नवर्गीय और मेहनतकश जमातों को जोड़ सकते हैं.
लेकिन राजनीति इतने भर से नहीं सधती, वह कहीं ज्यादा मुश्किल इम्तिहान लेती है. उसके लिए सरकारी कागज पढ़ने से आगे जाकर कुछ वैचारिक पढ़ाई भी करनी पड़ती है, अपनी रणनीति को ही नहीं, अपने आप को भी बदलना पड़ता है. भारत जैसे जटिल देश में, जिसकी 70 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के आस पास रहती हो, एक वास्तविक राष्ट्रीय नेतृत्व अंततः अपने आप को वर्गच्युत करके, इन वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हुए ही उभर सकता है.

अगर केजरीवाल सामाजिक बराबरी और न्याय की अंतिम लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो उन्हें अपनी पूरी राजनीति का नए सिरे से खाका बनाना होगा

केजरीवाल जब इस दिशा में बढ़ेंगे तो अण्णा हजारे के बाद उन्हें अपने दूसरे सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी प्रशांत भूषण से भी टकराने की नौबत आ सकती है. इसमें शक नहीं कि भूषण एक संवेदनशील नागरिक हैं और उन्होंने इस देश में मानवाधिकार से जुड़े मुद्दों की अदालती लड़ाई को कई नए मुकाम दिए हैं, लेकिन अंततः वे अब तक उस सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे ही हैं जो सत्ता का चरित्र पूरी तरह बदलना नहीं, उसे बस इतना सुधारना चाहती है कि वह कुछ मानवोचित और न्यायोचित लगे और उसमें उसके हित सुरक्षित रहें. यह अनायास नहीं है कि अपनी वकालत से कमाए करोड़ों रुपये का बिल्कुल कानूनी ढंग से निवेश करते हुए भूषण परिवार ने नोएडा से लेकर पालमपुर तक ढेर सारी जायदाद खरीदी है. लेकिन यह कानूनी कमाई इस नैतिक तर्क की उपेक्षा से ही बनी है कि एक-एक सुनवाई के लाखों रुपये लेने वाली वकालत से न्याय होता नहीं, खरीदा ही जाता है और आखिरकार किसी अमीर आदमी की झोली में जाने को अभिशप्त होता है. जाहिर है, देर-सबेर केजरीवाल और उनकी टीम को आचरण की शुचिता संबंधी नियम बनाते हुए अपने आप से यह सवाल भी पूछना होगा कि वे वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों को भी नियंत्रित करना जरूरी मानते हैं या नहीं.

संभव है, यह सब न करते हुए भी केजरीवाल राजनीति में कामयाब हो जाएं- इस अर्थ में कि उनकी अब तक नामविहीन पार्टी को कुछ सीटें या उन्हें कोई अहम ओहदा मिल जाए. लेकिन अगर वाकई वे बदलाव की राजनीति करना चाहते हैं, अगर वाकई वे सामाजिक बराबरी और न्याय की अंतिम लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो उन्हें अपनी पूरी राजनीति का नए सिरे से खाका बनाना होगा. यह अच्छी बात है कि राजनीति में आने के लिए उन्होंने दो अक्टूबर का दिन चुना और उससे पहले जो छोटी-सी किताब लिखी, उसका नाम स्वराज रखा. इससे लगता है कि वे अपने को गांधी की विरासत से जोड़ना चाहते हैं. लेकिन राजनीतिक गांधी अहिंसक और सत्याग्रही गांधी से कहीं ज्यादा जटिल हैं, वे कहीं ज्यादा तीखी मांग करते हैं. केजरीवाल ने फिलहाल अपनी राजनीति का जो खाका पेश किया है, वह तो बस एक सुधारवादी एजेंडा है जिसमें या तो लालबत्ती, बंगले, वीआइपी सुरक्षा से दूर रहने की नैतिकतावादी घोषणाएं हैं या फिर सबको न्याय, रोजगार और उचित कीमत दिलाने के भावुक वादे- उसमें उन नए रास्तों की तरफ इशारा नहीं है जिनके जरिए यह संभव होगा.

ठीक है कि यह अभी इब्तिदा ही है और इसी वक्त सारे सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए, न सबके जवाब मांगे जाने चाहिए, लेकिन यह जरूरी है कि केजरीवाल अपनी और भारतीय समाज की वास्तविक राजनीतिक चुनौतियां वक्त रहते पहचानें. वक्त जिस तेजी से आता है, उससे ज्यादा तेजी से बीत भी जाता है, यह एहसास केजरीवाल से ज्यादा किसे होगा जिन्होंने पिछले ही साल एक आंदोलन को तूफान में बदलते और फिर उसे राख होकर बिखरते सबसे करीब से देखा है.   

साजिश, चुप्पी और झटका

रॉबर्ट वाड्रा मामले के बाद पत्रकारिता को आत्ममंथन करने की जरूरत है.

 मुख्यधारा की पत्रकारिता के लिए यह परीक्षा की घड़ी है. लगभग हर दिन घोटालों का भंडाफोड़ हो रहा है. मंत्री से लेकर संतरी तक सभी के भ्रष्टाचार का खुलासा हो रहा है. इनकी खबरें भी न्यूज मीडिया की सुर्खियों में हैं. किसी को भी भ्रम हो सकता है जैसे खोजी पत्रकारिता का स्वर्णकालचल रहा हो. लेकिन फिर भी एक कमी हमेशा महसूस होती रही है. वह यह कि इस सार्वजनिक जांच-पड़ताल और जवाबदेही के दायरे से सत्ता और कॉरपोरेट जगत के शीर्ष पर बैठे मुट्ठी भर नेताओं, उनके परिवारों, उद्योगपतियों और खुद मीडिया मालिकों को दूर रखा जा रहा है.

दरअसल, राजनीतिक दलों से लेकर कॉरपोरेट मीडिया तक में लंबे समय से एक अघोषित-सी सहमति रही है जिसके तहत सत्ता और कॉरपोरेट के शीर्ष पर बैठे कुछ चुनिंदा लोगों को किसी भी सार्वजनिक जांच-पड़ताल, सवाल-जवाब और खुलासों से बाहर रखा जाता रहा है. इनमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनका परिवार सबसे ऊपर है. इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनका परिवार इसी स्थिति में था. इसके अलावा प्रमुख कॉरपोरेट घरानों और मीडिया मालिकों से भी दस हाथ की दूरी बरती जाती रही है. कॉरपोरेट घोटालों के खुलासों के मामले में तो मीडिया में एक षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी-सी दिखती रही है.

लेकिन अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने घोटालों के भंडाफोड़ की कड़ी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की संपत्ति में सिर्फ कुछ ही वर्षों में हुई अभूतपूर्व वृद्धि और रीयल इस्टेट कंपनी डीएलएफ के साथ उनके संबंधों/सौदों पर उंगली उठाकर न सिर्फ बर्र के छत्ते को छेड़ दिया है बल्कि इस षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी को भी झटका दिया है.  पूरी सरकार और कांग्रेस पार्टी के बचाव में उतर आने के बावजूद यह मुद्दा सुर्खियों में बना हुआ है. कॉरपोरेट मीडिया के बड़े हिस्से ने इस खुलासे को अच्छी-खासी कवरेज दी है और प्राइम टाइम चर्चा में भी यह मुद्दा छाया रहा है.

जब रॉबर्ट वाड्रा के बारे में ये जानकारियां एक साल से उपलब्ध थीं तो क्यों किसी भी मीडिया समूह ने उनकी छानबीन करने में रुचि नहीं दिखाई

लेकिन उसके साहस की दाद देते हुए भी कुछ सवाल हैं जिनके जवाब अनुत्तरित हैं. पहला, कहते हैं कि वाड्रा की अभूतपूर्व छलांग के बारे में ये जानकारियां और दस्तावेज एक साल से अधिक समय से कॉरपोरेट मीडिया से जुड़े पत्रकारों/संपादकों के अलावा प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं पास भी थे. लेकिन किसी भी मीडिया समूह ने उनकी छानबीन करने और उसे सार्वजनिक करने में रुचि नहीं दिखाई. दूसरा, जब केजरीवाल ने दस्तावेजों सहित रॉबर्ट वाड्रा-डीएलएफ संबंधों/सौदों पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए तो भी एकाध अपवादों को छोड़कर किसी भी प्रमुख मीडिया समूह ने इस मामले की आगे की स्वतंत्र जांच-पड़ताल क्यों नहीं की? आखिर फॉलो-अप स्टोरीज क्यों नहीं दिखीं? क्यों डीएलएफ और रॉबर्ट वाड्रा की सफाई के बाद एक बार फिर  केजरीवाल को और दस्तावेज जारी करने पड़े? ऐसा लगता है कि जैसे प्रमुख विपक्षी दल भाजपा केजरीवाल के कंधों पर रखकर बंदूक चला रही है, उसी तरह कई तेजतर्रार-साहसी संपादक और उनके चैनल-अखबार भी अरविंद केजरीवाल की आड़ में निशानेबाजी कर रहे हैं. 

लेकिन तीसरा सवाल सबसे महत्वपूर्ण है. क्या रॉबर्ट वाड्रा मामला सामने आने से वास्तव में कॉरपोरेट मीडिया, कॉरफोरेटस और सत्ता शीर्ष की राजनीति में आपसी सहमति के आधार पर बनी षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी टूट गई है? यह दावा करना जल्दबाजी है. इस दावे पर तब तक विश्वास करना संभव नहीं है जब तक खोजी पत्रकारिता और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के राडार पर बड़े कॉरपोरेट समूह, उनके मालिक और मीडिया कंपनियों के मालिक नहीं आते? इस मायने में कॉरपोरेट मीडिया और वैकल्पिक राजनीति का दावा करने वालों की परीक्षा अब शुरू हुई है.

रेडियो सीलोन : बिनाका गीतमाला

कैसे श्रीलंका से चलने वाला एक रेडियो स्टेशन भारत में सबसे ज्यादा सुना जाने लगा.

श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन (एसएलबीसी) जो पहले रेडियो सीलोन के नाम से जाना जाता था, 1923 में अपनी स्थापना के बाद से ही अंग्रेजी संगीत के कार्यक्रमों के चलते एशिया में सबसे लोकप्रिय स्टेशनों में गिना जाने लगा था. तब ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) पर फिल्मी गानों पर आधारित मनोरंजक कार्यक्रम नहीं थे. आजादी के बाद जब एआईआर सरकार के केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन आया तब भी इस दिशा में कोशिशें नहीं हुईं.

इसके लिए तब के सूचना प्रसारण मंत्री बीवी केसकर की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाता है. वे मानते थे कि फिल्म संगीत ‘अश्लील और ओछा’ है और सरकारी रेडियो की स्थापना के उद्देश्यों से मेल नहीं खाता. जबकि उस दौर में हिंदी फिल्मों के गीत-संगीत की लोकप्रियता अपने शिखर पर थी.

1950 के आस-पास ही रेडियो सीलोन पर अंग्रेजी पॉप गानों के काउंट डाउन का एक कार्यक्रम बिनाका हिट परेड शुरू हुआ. यह कार्यक्रम भारतीय श्रोताओं के बीच इतनी तेजी से लोकप्रिय हुआ कि रेडियो सीलोन के कोलंबो स्थित दफ्तर में भारत से ऐसे हजारों खत पहुंचने लगे जिनमें हिंदी फिल्मों के गानों का ऐसा ही कार्यक्रम शुरू करने की मांग की गई थी. यह प्रतिक्रिया देखते हुए रेडियो सीलोन ने 1951 में बंबई में रेडियो एडवर्टाइजिंग सर्विस शुरू की. इस एजेंसी का काम रेडियो के लिए विज्ञापन जुटाना और उनका निर्माण करना तो था ही, यह हिंदी फिल्मों से जुड़े मनोरंजक कार्यक्रमों का निर्माण भी करती थी. इसके एक साल बाद ही रेडियो सीलोन पर हिंदी फिल्मों के गानों का काउंट डाउन शुरू हुआ. अमीन सयानी की जादुई आवाज के साथ ‘बिनाका गीतमाला’ नाम का यह कार्यक्रम एक महीने में ही पूरे भारत में इतना लोकप्रिय हो गया कि बुधवार के दिन आम तौर पर लगभग हर रेडियो श्रोता यही सुनता था. हिंदी सेवा रेडियो सीलोन के लिए सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाली सेवा बन गई.

यह देखते हुए आखिरकार सूचना प्रसारण मंत्रालय को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए सोचना पड़ा. खुद केसकर ने इस दिशा में पहल की और रेडियो सीलोन के श्रोताओं को आकर्षित करने के लिए 1957 में विविध भारती की सेवाएं शुरू हुईं. इस पर फिल्म संगीत से जुड़े कई कार्यक्रम शुरू किए गए जिनसे बाद में भारतीय श्रोता जुड़े भी. रेडियो सीलोन का एकाधिकार टूटा जरूर लेकिन बाद के कई सालों तक बिनाका गीतमाला भारत में रेडियो पर सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम बना रहा.

-पवन वर्मा

भूमिहीनों का सत्याग्रह

क्या है जनसत्याग्रह 2012? 
गांधी जयंती के दिन देश के 26 राज्यों से आए लगभग 50,000 किसानों और आदिवासियों ने ग्वालियर से दिल्ली तक की पदयात्रा की शुरुआत की. जल-जंगल-जमीन पर अपने अधिकारों की मांग की इस अहिंसक यात्रा को आयोजकों ने जनसत्याग्रह का नाम दिया है. एकता परिषद के संस्थापक पीवी राजगोपाल के नेतृत्व में आयोजित इस विशाल पदयात्रा को 350 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए 29 अक्टूबर को दिल्ली पहुंचना था. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, स्वामी अग्निवेश और बाबा रामदेव भी इस यात्रा में शामिल होकर सत्याग्रह का समर्थन कर चुके हैं.

सत्याग्रहियों की मुख्य मांगें क्या हैं?
जनसत्याग्रह 2012 के अंतर्गत दस सूत्री मांग-पत्र तैयार किया गया है जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर समग्र भूमि सुधार नीति लागू करना, त्वरित भूमि अधिकार न्यायालयों का गठन करना, आदिवासियों पर होने वाले सामंती और पुलिस उत्पीड़न पर रोक लगाना, महिलाओं को भूसंपत्ति में स्वामित्व का समान अधिकार देना, ग्राम सभाओं को मजबूत करना और दलितों, आदिवासियों एवं आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करना आदि मुख्य हैं.

जनसत्याग्रह का परिणाम क्या निकला?
कई दिनों की पदयात्रा करते हुए सत्याग्रही 9 अक्टूबर को आगरा पहुंचे थे. केंद्र सरकार सत्याग्रहियों को दिल्ली पहुंचने से पहले ही मनाने की हरसंभव कोशिश कर रही थी. सरकार की तरफ से केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और जनसत्याग्रह के प्रतिनिधियों के बीच इसे लेकर बातचीत चल रही थी. इससे पहले 29 सितंबर को सत्याग्रहियों और रमेश के बीच बातचीत का क्रम टूट चुका था. 11 अक्टूबर को रमेश एख बार फिर से एक समझौता पत्र लेकर आगरा पहुंचे. समझौते के अनुसार केंद्र सरकार ने सत्याग्रहियों की सभी 10 मांगों को स्वीकार कर लिया है. समझौते पर हस्ताक्षर के साथ राजगोपाल ने आंदोलन समाप्त करने की घोषणा कर दी.

-राहुल कोटियाल

‘अंधेरे का लाभ’

बचपन में जब बडे़-बुजुर्ग दूरदर्शन पर समाचार सुनते थे, तो विकल्प के अभाव में हमें भी उन सभी के साथ समाचार देखना पड़ता था. (उस वक्त सिर्फ टीवी देखते रहने का ही बड़ा चार्म था),  हम समाचार क्या सुनते! उस समय अकसर एक खबर सुनकर हम चक्कर में पड़ जाते थे और फौरन सवालों के घाट उतर जाते थे. कहीं कोई हमारी बात सुनकर हंस न दे, इस डर से हम उस खबर से संबंधित सारी जिज्ञासाओं को मन में ही रखते. उधर बडे़-बुर्जुग हमारी मनःस्थिति से बेखबर हो कर खबर सुनने में तल्लीन और इधर हम अंदर ही अंदर उन सवालों के उत्तर खोजने में लीन. उस खबर ने बचपन में ही मुझे बचपना करने पर मजबूर कर मुझे बचकाना चिंतक बना दिया.

वह खबर जानते हैं क्या होती थी? यही, पुलिस मुठभेड़ में दो अपराधी मारे गए और तीन अंधेरे का लाभ उठा कर भाग गए. या एक मारा गया दो अंधेरे का लाभ ले कर रफूचक्कर हो गए. अपराधियों की संख्या कम-बेसी हो सकती थी, मगर यह तय था कि अंधेरे का लाभ अपराधी ही उठा ले जाते थे. हम सोचते थे कि बार-बार हर बार अपराधी ही अंधेरे का लाभ क्यों और कैसे ले जाते है? अपराधियों की संख्या पुलिस वालों के मुकाबले कम होती है, फिर भी पट्ठे अंधेरे का लाभ ले लेते हैं?  क्या अंधेरा पुलिसवालों के साथ पक्षपात करता है?
समाचार वाचक या वाचिका अपना काम तो कर जाता था. उसे तो बस खबर सुनाना होता था, सुना जाता था. मगर यह खबर सुन कर हमारी नींद उड़ जाती थी. सोचते थे कि जब पुलिस भी मानव (उस वक्त यही सोचते थे) और अपराधी भी आदम जात के, तो अंधेरे का लाभ लेने में इतना एकपक्षीय-एकतरफा परिणाम क्यों? क्या पुलिसवालों की आंखें कमजोर होती हैं? (और तो और सारे पुलिसवालों की!) कभी-कभी सोचता था कि हो न हो अपराधी वही बनता होगा जो, अंधेरे का लाभ उठाने का जन्मजात एक्सपर्ट होता होगा!

उस वक्त क्या-क्या सोचते थे, क्या बताएं! कभी हम यह सोचते, हो न हो अपराध की दुनिया में वही जाते हैं जिनकी नजरें तेज होती हैं और पुलिस में वे जाते हैं, जो कमनजरी के शिकार होते हैं. न समाचार सुनते न ऐसे सवालों में हमारी नन्ही-सी जान फंसती. वैसे भी बचपन में समाचार सुनने का क्या तुक? फिर भी हम सुनते थे, इस उम्मीद से कि शायद इस बार हमें यह खबर सुनने को मिले कि मुठभेड़ में पुलिस ने सारे अपराधियों को मार गिराया. इस बार अपराधी लोग अंधेरे का लाभ नहीं उठा पाए, क्योंकि इस बार अंधियारे का लाभ पुलिस ने उठा लिया. लेकिन ऐसी खबर हमारे बड़े होने पर अब तक न सुनी, उस वक्त क्या सुनते, जब हम छोटे थे!

जितने सवाल ऊपर लिखे हैं, उससे ज्यादा हमारे मन में आते थे. अब तो कई सारे सवालों को भूल गया. माना, उस वक्त हम बच्चे थे, दिल-दिमाग से थोड़े कच्चे थे. मगर आज भी जब हम यह खबर पढ़ते-सुनते हैं, तो बड़ी मौज आती है. न चाहते हुए भी हमारे अधरों पर मुस्कान आ ही जाती है. इतनी हृदय विदारक खबर पर भी हंसी! हंसी खबर पर नहीं, बल्कि खबर की उस प्रकृति पर आती है, जिसने बरसों से अपने चाल-चलन को रत्ती भर नहीं बदला. आज जब इतनी एडवांस तकनीकें आ गई हों, ऐसे में भी अपराधी अंधेरे का लाभ उठाने में सफल हो जाते हैं और पुलिस जो बरसों से इस मोर्चे पर असफल होती आ रही है, एक बार फिर असफल हो जाती है.

 बचपन में ऐसे सवालों के भंवर में फंसने का कारण हमारा बचपना था इसलिए जो खबर में दिखाया-सुनाया जाता था, उसे हम सच मान बैठते थे. हम यह नहीं समझ पाते थे कि हमें अंधेरे में रख कर वास्तव में अंधेरे का वास्तविक लाभ कौन उठा रहा है.

-अनूप मणि त्रिपाठी

‘वह चाह रही थी कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए’

अवसरों की समानता के सरकारी दावे सुनकर मुझे अक्सर सुशीला की याद आ जाती है. हैदराबाद से 10वीं की पढ़ाई करके मैं गोरखपुर स्थित अपने गांव आई थी कि तभी पापा का तबादला हो गया. मेरा नाम अब गोरखपुर के ग्रामीण अंचल के ही एक स्कूल में लिखवा दिया गया. अपनी स्थिति में आए इस अचानक बदलाव से मैं तालमेल नहीं बिठा पाई और बेहद गुस्से में रहने लगी. मैं कक्षा में सबसे पीछे की बेंच पर अकेली बैठती और दोस्ती की कोशिश करने वाले किसी भी लड़के या लड़की को अपने काम से काम रखने की नसीहत दे डालती.

ऐसे ही चार-पांच दिन बीते होंगे कि एक दिन एक सांवली-सी लड़की मेरे बगल में आकर बैठी. उसकी मांग में सिंदूर लगा हुआ था. वह सुशीला थी. शायद उस सिंदूर के चलते उठी जिज्ञासा ने मुझे उससे बात करने के लिए प्रेरित किया. मैंने उससे पूछा, ‘तुम्हारी शादी हो गई है क्या?’ उसने शर्माते हुए हां में गरदन हिलाई. सुशीला एक गरीब दलित लड़की थी, लेकिन पढ़ाई में बेहद होशियार. उसने 10वीं कक्षा में उस स्कूल में टॉप किया था. वह अपने सपनों के बारे में बात करती. सुशीला पुलिस इंस्पेक्टर बनना चाहती थी. मुझे लगता था कि इसमें कोई दिक्कत भी नहीं आएगी. उसमें काबिलियत की कोई कमी नहीं थी. 

धीरे-धीरे हमारी खूब जमने लगी. मैं गाहेबगाहे उसकी मदद करना चाहती, लेकिन वह बहुत स्वाभिमानी थी. मैं अक्सर उसके गांव जाती. वह खेतों में भैंस लेकर जाती और मैं उसके पीछे-पीछे हो लेती. हमारी दोस्ती खूब मशहूर हो गई थी. कक्षा 11 की पढ़ाई के बाद अचानक उसका स्कूल आना बंद हो गया.

सुशीला से दोबारा बात तब हुई जब मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही थी. एक दिन अचानक उसका फोन आया. उसने बताया कि ससुराल वालों ने गौना करा दिया और पढ़ाई बंद कर दी. उसने यह भी कहा कि उसकी शादी झूठ बोल कर की गई और पति पढ़ा-लिखा नहीं है. दिल्ली में किसी गारमेंट फैक्टरी में मजदूर का काम करता है. मैंने उसका हालचाल लिया और सब कुछ ठीक हो जाने का झूठा दिलासा देकर अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गई.

सुशीला से आखिरी बार बात हुए तीन साल से ज्यादा समय बीत चुका था. मैंने पत्रकारिता को बतौर पेशा अपना लिया था और इसी में रम गई थी. लगातार तबादलों के बीच यहां वहां घूमते हुए मैं आखिरकार राजधानी दिल्ली आ गई थी. अपने लिए मैंने नया घर किराये पर लिया था. घर पूरी तरह अस्त-व्यस्त था और मैं अपनी नई कामवाली का इंतजार कर रही थी जिसे भेजने का वादा मेरी नई पड़ोसन ने किया था.

शाम को अचानक दरवाजे की घंटी बजी. मैंने दरवाजा खोला. पांवों तले जमीन खिसक जाने का मुहावरा मेरे साथ अपनी पूरी ताकत के साथ घटित हुआ. मेरे सामने मेरे बचपन की दोस्त सुशीला खड़ी थी. दो-ढाई साल के बेटे को गोद में लिए. उसे शायद मुझे पहचानने में कुछ वक्त लगा. लेकिन एक बार पहचान लेने के बाद उसने जमीन से निगाहें नहीं उठाईं. वह शायद चाह रही थी कि धरती सच में फट जाए और वह उसमें समा जाए. मैंने उसका हाथ पकड़कर उसे अंदर खींच लिया. हम दोनों चुपचाप थे. मेरी आंखों की कोर भीग गई थी. सुशीला निःशब्द थी. शायद जिंदगी के दुखों ने उसके भीतर का भावनाओं का झरना सुखा डाला था. कहने-सुनने को बहुत कुछ था, लेकिन सुशीला चुपचाप चली गई. लोगों ने बताया कि उस दिन के बाद वह कॉलोनी में लौटी ही नहीं.

मेरी आंखों में कई दिनों तक आत्मविश्वास से भरपूर कक्षा की टॉपर जिंदादिल सुशीला का चेहरा नाचता रहा. मैं खुद को सुशीला की जगह रखकर देखना चाहती हूं, लेकिन इस बात की कल्पना तक नहीं कर पाती. आखिर सुशीला की इस हालत के जिम्मेदार कौन लोग हैं? मैं सोचती हूं कि कानून में सपनों की हत्या के लिए सजा का प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए?  

-लेखिका पूजा सिंह तहलका से जुड़ी हैं और दिल्ली में रहती हैं.

“यहां कोई चिंतित ही नहीं है”

 वे साधु-संन्यासी की श्रेणीवाले संत नहीं लेकिन उनकी जीवनशैली, यायावरी और जिंदगी का सफर किसी संत की कथा-कहानी जैसा ही है. नाम है कृष्णनाथ. उम्र 78 साल. मूल रूप से बनारस के सारनाथ के रहनेवाले. पहले अर्थशास्त्री के रूप में जाने जाते थे, अब पहचान की कई रेखाएं हैं. किसे मुख्य मानें, तय करना आसान नहीं. आत्मप्रचार से काफी दूर रहनेवाले कृष्णनाथ समाजवादियों के बीच चिंतक-विचारक के रूप में जाने जाते हैं. वे समाजवादी आंदोलन के प्रणेताओं में से एक रहे हैं. लोहिया के साथ जेल में रहे. अच्युत पटवर्द्धन, मेहर अली समेत तमाम समाजवादियों के काफी करीब. संसद भवन में भी उनका नाम बार-बार सुनायी पड़ता था. लोहिया कृष्णनाथ के तथ्यों के आधार पर दो आना बनाम सोलह आने की बात छेड़ते थे.  उनकाखुद पूजा-पाठ से कभी वास्ता नहीं रहा लेकिन बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए, अछूतों को साथ लेकर मंदिर में पहुंचे. सघन अभियान चलाया. जेल भेजे गये. लोहिया ने जब अंगरेजी विरोध का बिगुल फूंका तो बनारस में चर्चित समाजवादी नेता राजनारायण के साथ कृष्णनाथ युवाओं के अगुवा बने. विक्टोरिया की मूर्ति तोड़ी गई. साथियों के साथ कृष्णनाथ को जेल की सजा हुई.

 कृष्णनाथ को उनकी लेखनी के लिए भी बड़े फलक पर जाना जाता है. 60 के दशक में उनके द्वारा लिखी गयी एक किताब ‘‘द इंपैक्ट ऑफ फॉरेन एड ऑन इंडियन इकोनॉमी एंड कल्चर’’ काफी चर्चित हुई थी. अंग्रेजी में लिखी गई अपनी इस इकलौती किताब मेंकृष्णनाथ तभी वैश्वीकरण के खतरे से उपजनेवाले प्रभावों को सूक्ष्मता से दिखा रहे थे. लेखन की दुनिया में इनकी बड़ी पहचान घुमक्कड़ के रूप में है. इन्हें हिमालय का चीर यात्री कहा जाता है. हिमालय पर लिखी हुई उनकी किताबों को हिमालय के इलाके को समझने के लिए संदर्भ ग्रंथ की तरह माना जाता है. किन्नर धर्मलोक, लददाख में राग-विराग, स्फिति में बारिश, पृथ्वी परिक्रमा, गढ़वाल यात्रा, कुमायूं यात्रा, अरुणाचल यात्रा आदि चर्चित किताबें हैं. पिछले साल एक साथ इनकी पांच किताबें प्रकाशित हुई. दत्त दिगंबर मुझे गुरू, नागार्जुन कोंडा-नागार्जुन कहां है?, बौद्ध निबंधावली-समाज एवं संस्कृति, रूपं शून्यं-शून्यं रूपं आदि नाम से. मैनकाइंड और कल्पना जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं का संपादन भी कृष्णनाथ करते रहे हैं. एक और किताब आनेवाली है- उत्तर आधुनिकता की परीक्षा. वे उम्दा फोटोग्राफर भी हैं. हिमालय के इलाके की दुर्लभ तसवीरों का संग्रह इनके पास है. और अब हालिया वर्षों में कृष्णनाथ की दुनिया भर में पहचान एक बड़े बौद्ध दार्शनिक के रूप में स्थापित हुई है.

 आपने गुलाम भारत को भी देखा. आजाद भारत में 65 साल गुजारे. परिस्थितियों के बदलाव को कैसे देखते-आंकते हैं…!

 एक  बांग्ला उपन्यास बार-बार याद आता है, जिसका हिंदी अनुवाद चौरंगी शीर्षक से है. उसमें एक वाक्य है-15 अगस्त 1947 को देश अचानक ही पराधीन हो गया. यह अजीब लग सकता है लेकिन मैं मानता हूं कि जब देश ब्रिटिश शासकों के चंगुल में था तो पराधीन मुल्क में स्वतंत्रता की एक चेतना थी. आजादी मिलते ही वह चेतना कहीं लुप्त हो गयी. उधार ली हुई नकली किस्म की आधुनिकता की गिरफ्त में आज सोचने का देशज तरीका, देशज चीजों से जुड़ाव, कार्य करने की देशज प्रणाली… सब बदल रहा है. हो सकता है कि यह मेरी हताशा हो कि मैं इस नयी व्यवस्था को हजम नहीं कर पा रहा. यह वैश्वीकरण नहीं अमेरिकीकरण है और विश्वग्राम एक शब्द है, जिसे अमेरिकोन्मुखी बाजार ने गढ़ा है. इस विश्वग्राम की अवधारणा में ग्राम कहां है? पता ही नहीं चल रहा

 इस कदर नाउम्मीद हैं…!

बहुत नाउम्मीद नहीं हूं. रात से ही दिन निकलता है. कुछ इलाकों में बहुत कुछ बचा हुआ है. जैसे बिहार में. तमाम बुराइयों के बावजूद, वह इलाका ऐसा है, जहां अब भी चिंगारी बुझी नहीं है. वहां धुंध है, राख है लेकिन वहां की धुंध में भी एक धुन है. मुश्किल यह है कि सब सोचते हैं कि हमारे अकेले चाहने से क्या होगा! अंगरेजों के समय भी ऐसा ही कहा जाता था. तब अंगरेजी सत्ता का दायरा इतना बड़ा था कि उनका सूरज कहीं अस्त नहीं होता था. तब भी गांधीजी कुछ लोगों को लेकर लगे रहे और लंबे संघर्ष के बाद ही सही, नतीजा तो निकला. 74 के पहले बिहार में देखिये. जेपी का वह सामान्य पराक्रम नहीं था. 70 साल के बूढ़े का चहारदीवारी फांदना. सामूहिक रूप से चमत्कार ही तो था वह सब. बुद्ध का मार्ग उम्मीद जगाता है. दुख क्या है, उसका अंत क्या है, उसके उपाय क्या हैं? इन्हीं प्रश्नों के जवाब की तलाश में तो गौतम निकल पडे थे और फिर उनके पीछे-पीछे लोग आकृष्ट होते गये. भारत में पुनर्जागरण बार-बार होते रहा है. कोई न कोई ऐसा चुंबक तो आएगा, लोहे को खींच लेगा अपनी ओर.

 ऐसे बदलाव की उम्मीद तो राजनीति के जरिये ही संभव है लेकिन सत्ता के फेरे में आज राजनीति ही सबसे ज्यादा साख के संकट के दौर से गुजर रही है. फिर…

सत्ता की राजनीति तो हमारी देश की कुंडली में ही है. आखिर पंडित नेहरू और सरदार पटेल कहां थोड़ा भी धैर्य रख सके थे. तब उन्होंने सिर्फ सत्ता पाने के लिए गांधीजी की बातों को भी अनसुनी कर विभाजन की बुनियाद पर कुरसी संभाली. सत्ता-कुरसी के लिए जब देश का बंटवारा हो सकता है तो आज उसके लिए राज्य बंट रहे हैं, क्षेत्रों का बंटवारा हो रहा है ओर उसी पर राजनीति चल रही है, तो क्या आश्चर्य?  कांग्रेस या भाजपा नहीं, समाजवादी, कम्युनिस्ट सभी कमोबेश इसी राह पर हैं.

 अच्छे लोग राजनीति से परहेज करेंगे तो कैसे होगा? आप क्यों दूर रहे, खांटी राजनीतिक होते हुए…?

कह सकते हैं, मैं हर काम अधूरा करता हूं, इसलिए भी शायद. राजनीति में तो था लेकिन लोकनीतियों के लिए संघर्ष करता रहा. सत्ता की कभी आकांक्षा नहीं रही. कभी-कभी प्रलय-प्रवाह को तटस्थ होकर भी देखना चाहिए. देखने का अपना सुख है. सत्ता में गये अपने मित्रों को देखा हूं. सत्ता गयी, गाड़ी ले ली गयी, झंडा-बत्ती उतर गया, अधिकारी चले गये… ऐसे हालात को देखकर शुरू से ही सत्ता से वितृष्णा भी रही. लेकिन यह एक पक्ष है- आप कृष्ण के शब्दों में मुझे रणछोड़ कह सकते हैं. यह नहीं कहा जा सकता कि आप जिस चीज में शामिल हैं, वह चीज तो ठीक है और आप जिसमें शामिल नहीं हैं, उसे गंदा कह दें.

 राजशाही-तानाशाही तौबा की चीज है. समाजवादियों- वामपंथियों को देखा जा चुका. भाजपा एकरागी है. कांग्रेस सत्ता की तिजारत करती रही है. किससे उम्मीद करें? 

इन्हीं के बीच में नयी संभावना बनेगी. सभी चूक रहे हैं तो अच्छा ही है. इनके ध्वंस से ही नये का निर्माण होगा. वैसे एक बात यह भी है कि जैसे विश्वग्राम में ग्राम नहीं है, वैसे ही लोकतंत्र में लोक की बजाय तंत्र ही तंत्र हावी है. लोग नागनाथ-सांपनाथ के बीच फंसा हुआ महसूस करते हैं लेकिन जब सांप पर पैर पड़े तो छलांग लगाने की प्रवृत्ति भी होनी चाहिए. लेकिन अफसोस की बात यही है कि वही नहीं हो रहा. हम देखते हैं कि पांव सांप पर पड़ रहा है लेकिन छलांग नहीं लगाते, इस डर से कि पता नहीं गिर जायेंगे. जोखिम उठाने को कोई तैयार ही नहीं दिखता. तब तक सांप का विष पूरे शरीर में फैल चुका होता है और तब हम कुंठा में जीने लगते हैं और हद से ज्यादा संतोषी हो जाते हैं. बावजूद इसके अभी तक जो व्यवस्था है, उसमें लोकतंत्र ही बेहतर है. जंगलों में जो भाई क्रांति करते हैं और कहते हैं कि व्यवस्था में बदलाव तो बंदूक की नली से होगा, वह कैसे बदलाव करेंगे. बंदूक से तो जान ली जाती है. वह कल अपने ही लोगों को मारेंगे.

 सबसे ज्यादा भटकाव तो आपके समाजवादियों में ही दिखता है. अधिकांश सत्ता की राजनीति साधने में लगे हुए हैं.

समाजवादियों में क्षरण का दौर आचार्य नरेंद्र देव के जाने के बाद से शुरू हुआ. एक समय में प्रखर समाजवादी नेताओं ने जाति नीति का सैद्धांतिक आधार तैयार किया था लेकिन उसका मूल आशय था कि जाति का अध्ययन हो और उसका विनाश हो लेकिन बाद के दिनों में जातीयता को बढाने में उसका इस्तेमाल कर लिया गया. पहले जो ऊंची जातियां करती थीं, वही स्थान शक्तिशाली मध्य जातियों ने ले लिया. जब समाजवादी आंदोलन चल रहा था तो डीक्लास-डीकास्ट लोगों की एक जुटता हुई थी. आंदोलन के दौरान तो लगता ही नहीं था कि जाति का प्रभुत्व इस कदर उठेगा. वह प्रभुत्व तब रहता तो हम वंशवाद को और कांग्रेस के एकाधिपत्य को चुनौती शायद ही दे पाते लेकिन बाद में अपने समाजवादी मित्रों ने ही जाति समूहों को लेकर सत्ता की राजनीति शुरू कर दी. अब किसको कहें, सारे तो मित्र-बंधु ही हैं.

 तो यह मान लें कि समाजवादियों वाला समाजवाद एक सपना ही रह गया…!

जब तक समता, स्वतंत्रता और भाईचारे का अभाव रहेगा, तब तक समाजवाद की संभावना रहेगी. अन्ना के आंदोलन के अन्य पक्षों को छोड़ दें तो इससे एक उम्मीद तो जगी कि जातिगत बंधन को तोड अचानक से चमत्कार, अवतार की उम्मीदें अब भी हैं. मैं यह मानता हूं कि भ्रष्टाचार किसी लोकपाल वगैरह से दूर नहीं होगा. इसके लिए राज-काज, शुद्धि-बुद्धि की जरूरत है. लोग भ्रष्टाचार से नहीं पड़ोसी के भ्रष्टाचार से परेशान हैं. अपने पास छोटी गाड़ी है, पडोसी के पास बडी गाड़ी हो गयी, परेशानी इससे है.

 हाल के वर्षों में राजनीतिक चिंतन व विचारधारा में क्षेत्रवाद का जोर बढा है. समग्रता में देश कहां है? क्या भारत में भी दलीय व्यवस्था में कुछ परिवर्तन की दरकार है?

 राजनीति में ही क्यों? मैं तो सभी जगह जाते रहता हूं. गिने-चुने ही मिलते हैं, जो देश की बात करते हों. भूगोल-इतिहास और आकांक्षा का ज्ञान ही नहीं है. सभी गडहिया, पोखर, तालाब में फंसे हुए हैं. क्षेत्रीयता का फलाफल भी तो नहीं दिख रहा. झारखंड में देखिए. मैं तो 50 साल पहले वहां गया था. वह मूल रूप से जनजातियों का प्रदेश है. प्रचुर संपदा रहते हुए भी उससे वहां की जनजातियां बौरायी या बिगडी नहीं लेकिन आज उनकी सहेजी हुई संपदा पर सबकी नजर है. स्थानीय बाशिंदों की स्थिति पानी बीच मीन पियासी वाली हो गयी है. पास में बिहार और यूपी जैसे माने हुए शातिर राज्य हैं. सिर्फ राजनीति को दोष देकर अपना दामन नहीं बचाया जा सकता. दूसरी बात यह भी कि राष्ट्र ऐसा होता भी तो नहीं, जैसा बनाने की कोशिश रही है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार मगध एक राष्ट्र था, कौशल एक राष्ट्र था, काशी एक राष्ट्र था. तब हम विश्वगुरु थे, अब हर किसी के अनुयायी होने को तत्पर हैं.

रही बात दलीय व्यस्था में परिवर्तन की तो भारत कोई इंगलैंड तो है नहीं कि यहां सिर्फ एक-दो किस्म के लोग रहते हैं कि लेबर पार्टी में चले गये या फिर कंजरवेटिव पार्टी में. यह देश मनुष्यों का महासागर है. और जैसा देश होता है, वैसी ही राजनीति भी होनी चाहिए. मैं तो 1970 से ही यह कह रहा हूं कि इस देश में गठबंधन ही चलेगा. 1970 में मैं शिमला में कोलिशन गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स विषय पर आयोजित सेमिनार में गया था, तभी कहा था कि भारत में ऐसा ही होगा. तब मैं कोई भविष्यवाणी तो नहीं कर रहा था और न ही शाप दे रहा था लेकिन तब ही से यह संकेत मिल रहा था कि राजनीति हाजीपुर के मेले का रूप लेगी . हर कोई अपना सामान लेकर आयेगा और, चिल्लायेगा और सबको मिलाकर बन जायेगा एक पशु मेला.

 आपने बहुत पहले ही उपभोक्तावादी दर्शन के खतरे के बारे में लिखा था. अब तो वह पराकाष्ठा की ओर है…

इंसानों में वासना तो आदिम काल से विराजमान है लेकिन इस आधुनिक युग में और-और की तृष्णा बहुत ही भयानक रूप में है. इसका आकर्षण इतना जबर्दस्त है कि लोग इसमें फंसे चले जा रहे हैं और यह संस्कृति हर दिन एक बलि मांगती है. फतिंगों के भी जब मरने के दिन आते हैं तो वह और तेजी से और तेजी से दीपशिखा की ओर मंडराने लगता है. अब इसी उपभोग के युग में अंतरिक्ष पर कब्जा जमाने की होड़ मची है. यह एक तांडव ही तो है. इसी युग में तो यह आण्विक हथियार बनाया जा रहा है और फिर यह कहा जा रहा है कि इसका इस्तेमाल हमले के लिए नहीं होगा. तो क्या यह आतिशबाजी के लिए किया जायेगा! लेकिन कहते हैं न कि हर व्यवस्था के नष्ट होने के बीज उसी में समाये हुए होते हैं. वैसे ही इस नयी व्यवस्था के नष्ट होने के बीज भी इसी में हैं.

 दुनिया घूमने के बावजूद घुमक्कड़ी में हिमालय आप सबसे ज्यादा बार जाते हैं, जाना चाहते हैं. वजह?

यह तो मैं भी नहीं जानता कि क्यों जाता हूं बार-बार हिमालय. शायद हिम आकर्षित करता है, हिम का नाम लेते ही शांति, शीतलता और तृप्ति का अहसास होता है…शायद इसलिए भी. 50 वर्षों से हिमालय जा रहा हूं और बार-बार पूछता हूं…क्यों आता हूं यहां? जवाब नहीं मिल पाता. हिमालय कभी शांति का घर था. बर्फ का बसेरा था लेकिन अब सबसे अशांत है और सैनिकों का बसेरा है उसके आसपास. सबसे अशांत हो गया है हिमालय. नेपाल, अफगानिस्तान, पूर्वोत्तर राज्य… हर ओर तो सैनिक जमावड़ा, हथियारों का जखीरा ही जमा हुआ है. शायद इसलिए भी जाता हूं बार-बार हिमालय कि यह बता सकूं कुछ ही लोगों को हिम का घर, साधना का स्थल, शांति का चार खतरे में है…कुछ लोग भी यदि उस ओर ध्यान दें तो शायद मेरा जाना सफल हो जाये.

 आपके अनुसार सबसे बड़ी चुनौती और चिंता क्या है?

सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कोई चुनौतियों को देखता ही नहीं. सबसे बड़ी चिंता यही है कि कोई चिंतित ही नहीं है. छोटे-छोटे स्वार्थों के फेरे में ईर्ष्या और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति हावी होती जा रही है.

गर्त में गिराती गुटबाजी

तीन अक्टूबर को रांची स्थित विधानसभा सभागार में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों की बैठक थी. इसमें केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय भी थे और झारखंड कांग्रेस के प्रभारी शकील अहमद भी जो खास तौर पर बैठक में हिस्सा लेने आए थे. दरअसल हफ्ते भर पहले ही कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी दो दिन की झारखंड यात्रा करके गए थे. उसके बाद हो रही इस बैठक का मकसद था हालात की समीक्षा करना और यह भी तय करना कि राहुल गांधी द्वारा दिए गए सुझावों को कैसे चरणबद्ध तरीके से अमल में लाया जाए.

लेकिन होने कुछ और लगा. शोर-शराबा इतना कि कुछ देर के लिए लगा जैसे यह सभागार नहीं मछली बाजार हो. थोड़ी देर बाद लिखित पुरजों के जरिए शिकायतों का पुलिंदा शकील अहमद तक पहुंचा. उन्होंने राज्य में पार्टी की हालत पर पीड़ा और नाराजगी जताई. कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष फुरकान अंसारी ने कहा, ‘कांग्रेस में सब के सब नेता हैं. कार्यकर्ता रहने को कोई तैयार नहीं.’ महिला कांग्रेस की अध्यक्ष आभा सिन्हा की शिकायत थी, ‘हमारे शिष्टमंडल को राहुल जी से मिलने नहीं दिया गया, कैसे भला होगा संगठन का!’ कार्यसमिति के सदस्य प्रदीप तुलस्यान ने मर्सिया गान करते हुए कहा कि अब यहां कांग्रेस खत्म होने की राह पर है. पार्टी नेता मंजू हेंब्रम का कहना था, ‘प्रदेश के जो अध्यक्ष हैं प्रदीप बलमुचुजी, उनसे संगठन नहीं संभल रहा, उन्हें अपने लोगों की चापलूसी से फुर्सत नहीं है.’ ऐसी ही कई बातें सामने आती रहीं और सबको सुनने के बाद शकील अहमद ने कहा, ‘बस! इसी उद्देश्य से यह बैठकी लगी थी, सबकी भावनाओं से हम राहुल गांधी को अवगत करा देंगे.’

तीन अक्टूबर की इस बैठकी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य कांग्रेस में जान फूंकने के उद्देश्य से 25 और 26 सितंबर को झारखंड आए राहुल गांधी की इस कवायद का क्या असर हुआ. गौर करने वाली बात यह भी थी कि प्रदेश के 13 कांग्रेसी विधायकों में से सिर्फ तीन इस बैठक में हिस्सा लेने आए थे. और तो और, प्रदेश अध्यक्ष बलमुचु भी इसमें मौजूद नहीं थे. सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि जब गुटबाजी गले तक हो तो झारखंड में खस्ताहाल कांग्रेस उबरे भी तो कैसे.
दरअसल पिछले छह साल से कांग्रेस प्रदेश में सांगठनिक स्तर पर जड़ता की शिकार बनी हुई है. राहुल गांधी ने जो बातें झारखंड आकर कहीं कि यहां के नेता हवाई जहाज से उड़कर दिल्ली पहुंचते हैं और टिकट ले लेते हैं, वह फिलहाल रुकने वाला नहीं. लगभग तीन दशक तक कांग्रेस से जुड़े रहे कांग्रेसी नेता अरुण पांडेय कहते हैं, ‘राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगता है, उसका भद्दा रूप झारखंड में देखा जा सकता है. पिछले कुछ वर्षों में पांच कांग्रेसी दिग्गज, जो सांसद रहे हैं, उन्होंने अपने परिजनों को टिकट दिलाया. इनमें केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय तक शामिल हैं जिन्होंने विगत माह हटिया विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनाव में अपने भाई सुनील सहाय को टिकट दिलाने के लिए कई कांग्रेसी नेताओं व वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के अरमानों का गला दबाया. हालांकि इसका नतीजा यह हुआ कि पहली बार कांग्रेस को अपने गढ़ में जमानत तक गंवानी पड़ी. वह भी तब, जब वह सीट कांग्रेसी विधायक के ही निधन के बाद खाली हुई थी.’

अरुण पांडे सुबोधकांत की बातें ज्यादा बताते हैं लेकिन फुरकान अंसारी, चंद्रशेखर दुबे जैसे नेता भी झारखंड में यही करते रहे हैं. वैसे यह भी सच है कि झारखंड में जितने भी सांसद पुत्र या परिजन मैदान में उतारे गए जनता ने उन सबको नकार दिया. सूत्र बताते हैं कि इस बार राहुल गांधी झारखंड आए तो उन्होंने कहा कि अब दिल्ली से चुनाव के वक्त नहीं बल्कि आठ माह पहले ही टिकट तय कर दिया जाएगा. इसलिए ताकि आखिरी समय में बड़े दांव-पेंच वाले नेता अपना खेल दिल्ली में न कर सकें और झारखंड में रहने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता सिर्फ तमाशबीन भर न रहें. लेकिन सवाल उठता है कि क्या इससे स्थिति में कोई बदलाव आएगा. राजनीतिक विश्लेषक आनंद मोहन बताते हैं, ‘टिकट बंटवारे का यह फॉर्मूला लागू हुआ तो पार्टी का और रसातल में जाना तय है. आठ माह पहले जिसे टिकट मिल जाएगा वह तो इतने समय में दिन-रात एक कर अपनी जीत के लिए आसमान से तारे तोड़ने जैसी कोशिश करेगा लेकिन जिन्हें टिकट नहीं मिलेगा उन्हें भी भीतरघात करने और हरवा देने का अभियान चलाने के लिए उतना ही समय मिलेगा.’

हालांकि कांग्रेस विधायक सौरव नारायण सिंह इस बात से इत्तफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के लिए आठ माह पहले टिकट देने का फैसला ठीक है ताकि अगर गलत उम्मीदवार का चयन भी हो गया हो और उसके खिलाफ सही शिकायतें मिलंे तो उसे बदला जा सके.’ कांग्रेस के प्रदेश महासचिव शैलेश सिन्हा भी यही बात दोहराते हैं कि उम्मीदवार को आठ माह का समय मिलने से वह घर-घर जाकर संपर्क कर सकता है, कांग्रेस के बारे में बता सकता है और जनता की कसौटी पर अपनी पहचान भी मजबूत कर सकता है.

खैर! राहुल के इस आठ माह पहले वाले फॉर्मूले का क्या असर होगा, यह फॉर्मूला लागू होगा भी नहीं, कहा नहीं जा सकता लेकिन फिलहाल साफ-साफ, सुबोधकांत और प्रदीप बलमुचु के दो गुटों में बंटी कांग्रेस के सामने यही गुटबाजी और भितरघात सबसे बड़ी बाधा की तरह खड़ी है. उसके लिए चुनौती यह भी है कि राज्य में झामुमो, आजसू और झाविमो जैसे तीन बड़े क्षेत्रीय दल हैं, जिनके खाते में कांग्रेस का परंपरागत वोट तेजी से खिसक चुका है. और इसके अलावा राज्य में भाजपा तो सत्ता में है ही! 

मुलायम सिंह यादव: मैं हूं और नहीं भी

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‘साइकिल की खासियत है कि यह न्यूनतम समय और स्थान में अधिकतम टर्न ले सकती है’,  यह चुटकुला सुनाकर एक वरिष्ठ सपा नेता जोर से हंस पड़ते हैं. यह टिप्पणी हाल के दिनों में मुलायम सिंह यादव के रुख में आए बारंबार बदलाव के संदर्भ में थी. पिछले तीन महीने मुलायम सिंह यादव की राजनीति के बेहद सक्रिय दिन रहे हैं. कम से कम दो बार पूरे देश ने उन्हें अपने पिछले रुख से पलटते हुए देखा. राजनीतिक क्षणभंगुरता के इस दौर में मुलायम सिंह यादव की राजनीति बड़ी पहेली बन गई है. एक सिरे से देखने पर लगता है कि उत्तर प्रदेश का यह क्षत्रप खुद में बुरी तरह से उलझा हुआ है. दूसरे सिरे से दिखता है कि उन्होंने बड़ी चतुराई से पूरी राजनीतिक जमात को उलझा कर रख दिया है. जानकार इसे प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा में की जा रही उनकी आखिरी गंभीर कोशिश मान रहे हैं.

मुलायम सिंह यादव की राजनीति को समझने के लिए उनके वर्तमान को थोड़ा अतीत के चश्मे से देखने की जरूरत है. जिस दौर में उन्होंने राजनीति शुरू की थी वह पिछड़े समाज के, बमुश्किल से हिंदी बोल पाने वाले, अंग्रेजी से बिदकने वाले, छोटे कद के एक पहलवान के लिए कतई मुफीद नहीं था. चौड़ी छाती, उन्नत ललाट, अद्भुत वाकक्षमता मार्का नायकत्व की परिभाषा में वे कहीं भी फिट नहीं होते थे. इस लिहाज से उनकी राजनीतिक सफलता असाधारण की श्रेणी में आ खड़ी होती है. चौधरी चरण सिंह कहते थे – यह छोटे कद का बड़ा नेता है. कालांतर में उसी छोटे कद के बड़े नेता ने चौधरी चरण सिंह की पूरी राजनीतिक विरासत पर कब्जा कर लिया और उनके बेटे अजित सिंह को सियासत के हाशिये पर पहुंचा दिया. ऐसी छोटी-छोटी बातें मुलायम मार्का राजनीति के बहुरंगी अक्स हैं. इसमें आला दर्जे की राजनीतिक चतुराई, हद दर्जे का अवसरवाद, साथियों को कभी न भूलने का अद्भुत कौशल, हद दर्जे का परिवारवाद, समर्पित कैडर खड़ा करने की क्षमता और राजनीति में सफलता के लिए जरूरी मोटी चमड़ी आदि सब कुछ मौजूद हैं. कहा जाता है कि मुलायम उत्तर प्रदेश की किसी भी जनसभा में कम से कम पचास लोगों को नाम लेकर मंच पर बुला सकते हैं. समाजवाद के फ्रांसीसी पुरोधा कॉम डी सिमॉन की अभिजात्यवर्गीय पृष्ठभूमि के विपरीत उनका भारतीय संस्करण केंद्रीय भारत के कभी निपट गांव रहे सैंफई के अखाड़े में तैयार हुआ है. वहां उन्होंने पहलवानी के साथ ही राजनीति के पैंतरे भी सीखे.

मुलायम सिंह की सियासत का पहला अध्याय सन  1977 में शुरू होता है. यह कांग्रेस विरोध का दौर था. उत्तर प्रदेश में तब संघियों और सोशलिस्टों की मिली-जुली सरकार थी. मुलायम सिंह यादव उस सरकार में सहकारिता मंत्री थे. इसी के आस-पास वे जनेश्वर मिश्रा के संपर्क में आए. यह सरकार ज्यादा दिनों तक चली नहीं. इसके कुछ दिन बाद ही उनकी राजनीतिक उठापटक का पहला नमूना देखने को मिला. मुलायम सिंह यादव ने 1980 में तब के उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े समाजवादी नेता लोकबंधु राजनारायण का साथ छोड़कर चौधरी चरण सिंह का हाथ थाम लिया. पुराने समाजवादी और मुलायम सिंह के साथी रहे के. विक्रम राव कहते हैं, ‘चरण सिंह न तो विचारधारा से जुड़े थे न ही वे समाजवाद के खांचे में फिट होते थे. वे मूलत: जमींदार और जाति विशेष के नेता थे. यह बात समाजवाद के खिलाफ थी. लेकिन मुलायम सिंह ने हमारे विरोध के बावजूद चरण सिंह का हाथ थाम लिया.’

मुलायम सिंह का डर बसपा भी है. वे कांग्रेस-बसपा के बीच किसी तरह के प्रेम प्रसंग को पनपने नहीं देना चाहते हैं

विचारधारा से उनका यह भटकाव आगे और भी बड़ा होता गया. मुलायम सिंह यादव उस समय तर्क दिया करते थे कि लोहिया के बाद संगठन को बचाए रखने के लिए संसाधनों की जरूरत थी इसलिए उन्होंने ऐसा किया. मगर जानकार मानते हैं कि नेताजी का यह तर्क उनके अवसरवादी व्यक्तित्व का ही हिस्सा है. कालांतर में उन्होंने अनिल अंबानी से लेकर जया बच्चन तक को समाजवादी बना-बताकर इस छवि को और भी पुख्ता किया. उनके पुराने साथी और फिलहाल केंद्र सरकार में इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा कहते हैं, ‘मैंने सपा क्यों छोड़ी. मुलायम सिंह की इन्हीं खामियों की वजह से. वे लोगों पर आंख बंद करके यकीन करते हैं. आज मेरे रिश्ते उनसे फिर से सुधरने लगे हैं, अखिलेश को मैं अपना राजनीतिक पुत्र मानता हूं, लेकिन मैं सपा के साथ जाने की सोच भी नहीं सकता क्योंकि उनका रवैया ऐसा है.’

अस्सी के दशक में ही मुलायम सिंह ने समाजवाद की मूल परिभाषा में तोड़-मरोड़ करके नए समीकरण स्थापित करना शुरू कर दिया था. अस्सी के दशक का उत्तरार्ध राजनीतिक सरगर्मियों का दौर था. बोफोर्स का हल्ला पूरे देश में था. वीपी सिंह देश के नए नायक थे और राजीव गांधी का मिस्टर क्लीन का तमगा दागदार हो चुका था. मुलायम सिंह ने भी जनता दल का साथ पकड़ लिया. यह कांग्रेस के असंतुष्टों और समाजवादियों का मेल था जिसे वाम और दक्षिणपंथी दोनों समर्थन दे रहे थे. इस दौर में हुई दो घटनाओं ने मुलायम सिंह के राजनीतिक ‘कौशल’ को खूब निखारा – राम मंदिर आंदोलन और मंडल आयोग की रपट का लागू होना. मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और वीपी सिंह प्रधानमंत्री. ग्यारह महीने बाद ही भाजपा के समर्थन वापस लेने की वजह से केंद्र सरकार गिर गई, लेकिन मुलायम सिंह ने पैंतरा बदल दिया. वे चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी के साथ हो गए और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने रहे.

सन 1989 में जब उत्तर प्रदेश सरकार का गठन होने वाला था तब मुख्यमंत्री पद की दौड़ में दो नेता थे. मुलायम सिंह और अजित सिंह. मुलायम सिंह जनाधार वाले नेता थे, जबकि अजित सिंह अमेरिका से लौटे थे. वीपी सिंह हर हाल में अजित सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे. मुलायम सिंह को यह मंजूर नहीं था. मुख्यमंत्री का नाम तय करने के लिए गुजरात के समाजवादी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को लखनऊ भेजा गया. वे उस समय उत्तर प्रदेश के जनता दल प्रभारी थे. वीपी सिंह का दबाव उनके ऊपर था कि अजित को फाइनल करें. यहां मुलायम सिंह ने जबरदस्त राजनीतिक चातुर्य का प्रदर्शन किया. चिमनभाई पटेल ने लखनऊ से लौटते ही मुलायम सिंह के नाम पर ठप्पा लगा दिया. वीपी सिंह ताकते रह गए. यह कसक मुलायम सिंह के मन में थी. ग्यारह महीने बाद जैसे ही मौका मिला उन्होंने वीपी सिंह को ठेंगा दिखा दिया.

यहां से मुलायम सिंह ने विचारधारा का फेरबदल तेज कर दिया. लोहिया स्पष्टवादी थे, जबकि मुलायम सिंह के विचार कुछ मामलों में आज तक कोई जान नहीं सका है. लोहिया हमेशा एक व्यक्ति एक पत्नी की बात करते थे. लेकिन मुलायम ने मुसलिम राजनीति के चलते इस पर कभी कुछ कहा ही नहीं. धर्म निरपेक्षता की परिभाषा के साथ उन्होंने जमकर प्रयोग किए. पिछड़ा राजनीति की लोहियावादी परिभाषा को समेटकर उन्होने यादवों तक सीमित कर दिया. इस तरह लोहिया की विरासत और मंडल कमीशन के चमत्कार ने उन्हें पिछड़ों के नेता के रूप में स्थापित कर दिया, मंदिर आंदोलन ने उन्हें मुसलमानों का रहनुमा बना दिया. यह मेल चमत्कारिक सिद्ध हुआ. कांग्रेस ने उन्हें ज्यादा दिन टिकाए नहीं रखा. सन 1991 में केंद्र की चंद्रशेखर और उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार गिर गई. लेकिन वे ज्यादा समय तक चंद्रशेखर के साथ भी नहीं रहे. सन 1992 के अक्टूबर महीने में उन्होंने अपनी समाजवादी पार्टी का गठन कर लिया. बावजूद इसके कि विचारधारा के स्तर पर दोनों एक ही थे. राव कहते हैं, ‘मुलायम सिंह की अतिशय महत्वाकांक्षा के अलावा और कोई वजह मेरी समझ में नहीं आती है सजपा से अलग होने की.’

अब मुलायम सिंह आजाद थे. उनके पास एक पार्टी थी, अपना कैडर था, कोर वोटबैंक था और वे सबके नेताजी थे. इस दौरान वे बसपा के सहयोग से एक बार फिर से प्रदेश के मुख्यमंत्री बने पर दोनों के रिश्ते उसी दौरान इतने खराब हो गए कि आज तक नहीं सुधर पाए हैं. राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी स्थायी नहीं होती, लेकिन सपा-बसपा की दुश्मनी इस जुमले को झुठलाती है. सन 1996 मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण साल है. यह वह साल है जब मुलायम सिंह प्रधानमंत्री पद की देहरी पर पहुंच कर फिसल गए. ज्यादातर सपाई उस वाकये को बेहद अफसोस के साथ याद करते हैं. वामपंथियों के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा की सरकार बनाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. बात जब प्रधानमंत्री पद की आई तो मुलायम सिंह रेस में सबसे आगे खड़े थे. पर उनके सजातियों ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया. लालू यादव और शरद यादव ने उनका विरोध किया. मुलायम उसी खेल का शिकार बन गए जिसे वे अब तक अपने फायदे के लिए खेलते आए थे.

इसके बाद मुलायम सिंह के तीन साल रक्षा मंत्रालय और विपक्ष की राजनीति में बीते. अब 1999 का साल आ गया. तेरह महीने पुरानी अटल बिहारी वाजेपयी की केंद्र सरकार गिर गई. सोनिया गांधी तमाम विपक्षियों के समर्थन की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंची थी. इसमें मुलायम के समर्थन की चिट्ठी भी थी.  इस समय मुलायम ने विचित्र कारनामा दिखाया. उनके समर्थन की चिट्ठी सोनिया लहरा रही थीं और वे प्रेस कॉन्फ्रेंस करके घोषणा कर रहे थे कि कांग्रेस को समर्थन नहीं देंगे. वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस वाकये का जिक्र अपनी किताब ‘माइ कंट्री माइ लाइफ’ में किया है. उन्होंने लिखा है कि दिल्ली के सुजान सिंह पार्क में 20 अप्रैल, 1999 को उनकी गुप्त मुलाकात मुलायम सिंह के साथ हुई थी.

अक्सर मुलायम सिंह का अवसरवाद विरोधाभास पैदा करता है. मसलन जिस लेफ्ट के साथ 1989 और 1996 में वे सरकार बना चुके हैं उसी को ठेंगा दिखाकर 2008 में वे परमाणु करार के मुद्दे पर कांग्रेस सरकार को अभयदान दे देते हैं. इससे पहले वे परमाणु करार का जमकर विरोध कर रहे थे. इसी तरह मई महीने में वे उस यूपीए सरकार का तीन साल का रिपोर्ट कार्ड जारी करने पहुंच गए जिसमें उनका रत्ती भर भी योगदान नहीं था.

भविष्य में केंद्र में तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने के लिए मुलायम सिंह को कांग्रेस के समर्थन की दरकार होगी इसलिए वे कांग्रेस को ज्यादा नाराज नहीं करना चाहते

एक समय ऐसा भी आया जब उनका यादव-मुसलिम समीकरण ध्वस्त होता दिखा. 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने उन कल्याण सिंह को सपा में शामिल कर लिया जो घूम-घूम कर खुद को बाबरी मस्जिद विध्वंस का नायक बताते फिरते थे. इसका खमियाजा भी उन्हें चुकाना पड़ा. सपा 39 से 22 सीटों पर आ गई और उनके सारे मुसलिम प्रत्याशी चुनाव हार गए. हालांकि मुसलिम मानसिकता पर उनकी पकड़ चमत्कारिक है. सिविल न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर लेफ्ट उन्हें यह कह कर कांग्रेस से दूर करने की कोशिश करता रहा कि मुसलमान अमेरिका विरोधी है, पर मुलायम सिंह का आकलन कुछ और ही था. उनके हिसाब से मुसलमान अमेरिका से नहीं मोदी से घबराता है और इस मामले में उन्होंने कल्याण सिंह के अलावा कभी कोई गलती नहीं की है. वे मीडिया को कोई भी ऐसा मौका नहीं देते जिससे कि उनके ऊपर भाजपा के करीबी होने का ठप्पा लगे. जबकि राजनीतिक हलकों में यह बात मशहूर है कि अटल बिहारी वाजेपयी से उनके व्यक्तिगत रिश्ते बेहद मधुर थे. 2003 में उन्होंने भाजपा के अप्रत्यक्ष सहयोग से ही प्रदेश में अपनी सरकार बनाई थी. 2012 में उनका आकलन सच भी साबित हुआ. पश्चिम बंगाल से मुसलमानों ने लेफ्ट को गायब कर दिया, जबकि उत्तर प्रदेश में सपा को अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल हुई है. 45 मुसलमान विधायक उनके दल में हैं.

इसी 2012 ने मुलायम सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को नया जीवन दिया है. उनका बेटा किसी देश के आकार वाले प्रदेश का मुख्यमंत्री है. बहू, भाई, भतीजा सांसद हैं. अगले लोकसभा चुनाव तक रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव भी चुनाव लड़ने के योग्य हो जाएंगे. अगर सभी चुनाव जीत गए तो परिवार में सांसदों की संख्या पांच हो जाएगी.  हिमाचल और गोवा जैसे राज्यों में लोकसभा की कुल सीटें इतनी हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा रखना कोई गलत बात भी नहीं है. इसी उधेड़बुन में हाल के दिनों में उन्होंने एक के बाद एक फैसले किए और बदले हैं. राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने ममता बनर्जी के साथ स्टैंड लिया और फिर अगले ही दिन पलट गए. एफडीआई के मसले पर विपक्षी पार्टियों के साथ जाकर वे भारत बंद भी करते हैं और बयान देते हैं कि सरकार को कोई खतरा नहीं है. कभी वे जंतर-मंतर पर तीसरे मोर्चे की संभावनाएं तलाशते हैं और अगले ही दिन उसे नकार देते हैं.

मुलायम सिंह 2014 को आखिरी मौके के रूप में देख रहे हैं. यह सही भी है. उनका स्वास्थ्य भी इसकी बड़ी वजह है. एक पुराने समाजवादी बताते हैं कि उनके ऊपर अल्जाइमर्स का हल्का-सा असर होने लगा है. वे आगे बताते हैं, ‘केंद्र में मुलायम सिंह या तीसरे मोर्चे की सरकार बिना कांग्रेस या भाजपा के समर्थन के बन नहीं सकती.’ इसी दुविधा में वे पल में तोला पल में माशा वाला रंग अख्तियार कर रहे हैं. वे कांग्रेस को इतना नाराज नहीं करना चाहते कि अवसर आने पर कांग्रेस उन्हें ठेंगा दिखा दे. उनकी राजनीति का जो चरित्र है उसमें भाजपा से समर्थन की कल्पना नहीं की जा सकती. जहां तक सड़कों पर उतर कर विरोध करने का सवाल है तो जनता के बीच एलपीजी-डीजल की बढ़ी कीमतों का विरोध करना जन-हितैषी चेहरा बनाए रखने की मजबूरी है.

सरकार को बनाए रखने के पीछे की एक और मजबूरी है उत्तर प्रदेश की सरकार. अभी इसे सत्ता में आए सिर्फ छह महीने  हुए हैं. इसका कामकाज संतोषजनक नहीं रहा है. ऊपर से छह-छह सांप्रदायिक दंगों ने सरकार का चेहरा बिगाड़ कर रख दिया है. अखिलेश यादव के कोर ग्रुप के एक सदस्य बताते हैं, ‘हमारे घोषणापत्र की योजनाएं अभी तक लागू नहीं हो सकी हैं. इन्हें लागू करके सरकार जनता के बीच एक अच्छा संकेत दे सकती है. इसके लिए हमें केंद्र सरकार की मदद की जरूरत पड़ेगी. हमारी रणनीति यह है कि फरवरी तक इस सरकार को बनाए रखा जाए. लेकिन अगला आम बजट इसे पेश नहीं करने दिया जाएगा. वरना यह सरकार फिर कोई नया गुल खिला सकती है.’

सरकार को समर्थन देने की मुलायम सिंह की मजबूरी उनके और अखिलेश के ऊपर चल रहे आय से अधिक संपत्ति के आठ मामलों के कारण भी है. इनकी जांच सीबीआई कर रही है. कहा जाता है कि पिछले कई मौकों पर केंद्र सरकार ने उन्हें इसी के बूते अपने पाले में खड़ा किया है. यही समस्या मायावती पर भी लागू होती है. यही वजह है कि तीनों पार्टियां उत्तर प्रदेश में एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करती हैं और केंद्र में एक ही पाले में खड़ी हो जाती है. कांग्रेस के पाले में जाने की मुलायम सिंह की मजबूरी के पीछे एक बड़ी वजह मायावती भी हैं. न तो वे राज्य में सत्ता में हैं न ही केंद्र में. अगर मुलायम सिंह समर्थन वापस ले लेते हैं तो भी सरकार नहीं गिरने वाली क्योंकि तब मायावती केंद्र की सरकार में शामिल होने के लिए तैयार बैठी हैं. मुलायम सिंह की रणनीति यही है कि अगले चुनाव चाहे जब भी हों बसपा के पास जनता को दिखाने के लिए कुछ न रहे. इसलिए वे कांग्रेस-बसपा के बीच किसी तरह के प्रेम प्रसंग को पनपने नहीं देना चाहते. पार्टी की एक सोच यह भी है कि जिस तरह का केंद्र सरकार का रवैया है उसमें दिनों-दिन इसकी दुर्गति तय है इसलिए सरकार से दूर रहकर इसे सहारा देते रहने में ही फायदा है.