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बरफी में कुनैन

 

जो पिछले दिनों ‘बरफी’ ने किया, ऐसा शायद हिंदी सिनेमा में पहली बार हुआ है. हमारे यहां नकलें तो बहुत बनी हैं – फिल्में भी और गाने भी. लेकिन अक्सर एक या दो फिल्मों या गानों को जोड़कर ही. कुछ मौलिक है भी या नहीं, या कला रूप बदल-बदलकर सिर्फ दोहराई जाती है, इस पर बहसें होती रहती हैं, लेकिन इंटरनेट पर पिछले दो हफ़्ते से तैर रहे ‘बरफी’ के मूल स्रोत आप देखेंगे तो आप बहस बाद के लिए छोड़ देंगे. हो सकता है कि ‘बॉलीवुड में सब नकल है’ या ‘कैसे भी बनी हो, हमें तो अच्छी फिल्म देखने को मिली’ कहकर आप अपने काम में डूब जाएं, लेकिन जैसी भी हों, हिंदी फिल्मों से आपने कभी भी मोहब्बत की होगी तो उसमें ‘बरफी’ धोखे की तरह आकर चुभ जाएगी. 

‘बरफी’ अच्छी फिल्म है, इससे तो लगभग सभी सहमत होंगे और अनुराग बसु हमारे लिए हिंदी सिनेमा की एक और नई उम्मीद लगभग बन ही गए थे, कि नेट पर वे सीन आने लगे, जहां से ‘बरफी’ का जादू आया था. चैप्लिन की शैली फिल्म में है, यह हर कोई जानता था, लेकिन यह हर कोई नहीं जानता था कि जब रणबीर एक स्लाइडिंग दरवाजे के पास सौरभ शुक्ला के साथ चोर-सिपाही खेल रहे हैं तब अनुराग ‘द एडवेंचरर’ से यह सीन उठाकर लाए हैं. या जब रणबीर सोफे पर बैठकर गुड्डे के साथ खेल रहे हैं और प्रियंका का मनोरंजन कर रहे हैं, या जब दीवार से टकराकर वे नाक के मुड़ने की एक्टिंग कर रहे हैं, तब वे ‘सिंगिंग इन द रेन’ के बीटर कस्टन की नकल कर रहे हैं. कि सीढ़ी से सौरभ शुक्ला को छकाने वाला सीन बस्टर की ही फिल्म ‘द कॉप्स’ से हूबहू आया है. कि जब इलियाना की मां उन्हें अपना पुराना गरीब प्रेमी दिखाने ले जाती हैं, तब यह ‘नोटबुक’ का सीन है. कहीं मिस्टर बींस आ गए हैं और कहीं कोई और. ‘पता चलने’ का यह सिलसिला हर दिन आगे बढ़ रहा है. यह लिखने से बस कुछ मिनट पहले ही मैंने दो और सीन देखे, जो ‘लवर्स कंसर्टो’ से उठाए गए हैं. उनमें से एक मेरा पसंदीदा सीन था. और अभी कोई बता रहा है, कि जूता फेंकने के जिस सीन पर मेरी सारी उम्मीद थी, वह अदूर गोपालाकृष्णन की मलयालम फिल्म ‘मथिलुकाल’ से आया है. 

अनुराग बसु का कहना है कि यह इतने सारे बड़े फिल्मकारों को उनकी श्रद्धांजलि है. लेकिन तब यह फिल्म के शुरू या आखिर में कहीं लिखा क्यों नहीं ?

यह सूची शायद बढ़ती रहेगी. हो सकता है कि इसमें संयोग से आने वाले कुछ ऐसे सीन भी जुड़ें, जिन्हें अनुराग ने जान-बूझकर उठाया भी न हो (हालांकि अब तक की समानताओं को देखते हुए ‘संयोग’ की उम्मीद कम है). लेकिन जितनी बड़ी नकल किए गए दृश्यों की संख्या है, वह बरफी की मिठास में कुनैन की गोलियां घोलती जाती है. महत्वपूर्ण यह है कि इनमें से लगभग सभी दृश्यों की फ्रेमिंग तक भी नहीं बदली गई और बरफी के अभिनेता मूल अभिनेताओं की हूबहू नकल ही कर रहे हैं. यह सब सामने आने के बाद अनुराग बसु का कहना है कि यह इतने सारे बड़े फिल्मकारों को उनकी श्रद्धांजलि है. लेकिन तब यह फिल्म की शुरुआत या आखिर में कहीं लिखा क्यों नहीं दिखा? और श्रद्धांजलि की इस परिभाषा के बाद कोई क्या करेगा, जिसे हम कला में चोरी या नकल कहेंगे? और क्या कुछ ब्लॉग या फेसबुक पर उन मूल दृश्यों के लिंक इस तरह से नहीं आते, तब भी वे कभी बताते कि उनके स्रोत क्या हैं? शायद नहीं. क्योंकि बताना था तो फिल्म के ‘क्रेडिट्स’ से बेहतर जगह शायद ही हो. वैसे उन्होंने यह भी माना है कि यह उनकी कमी थी कि वे इतना अच्छा कुछ रच नहीं सके, इसलिए इन फिल्मों से उठा लिया. लेकिन माना भी पकड़े जाने के बाद.  

अब भी बरफी में ऐसी अच्छी चीजें हैं, जो अब तक हमारे लिए ‘असली’ ही हैं लेकिन नहीं जानते कि कब तक रहेंगी! इसीलिए हम जैसों की मुश्किल यह है कि अब हमें नहीं पता कि हम ‘बरफी’ से प्यार करें या नहीं. अगर हम कलाकार की नैतिकता के सवाल को भूल जाएं और फिल्म को कलाकृति के बजाय उत्पाद मानकर देख सकने की नजर से देख पाएं तो हम अनुराग के इसलिए शुक्रगुजार भी हो सकते हैं कि उन्होंने दुनिया भर के सिनेमा के हिस्सों को इतनी खूबसूरती से मिक्स किया. लेकिन मेरे लिए यह भी संभव नहीं. मुझे फिल्म से पहले का उनका कहा याद आता है कि उन्होंने नकल मर्डर इसलिए बनाई थी, ताकि अपनी ओरिजिनल गैंगस्टर बना सकें. लेकिन ‘बरफी’ में ऐसी क्या मजबूरी, जिसे वे अपनी अब तक की सबसे पर्सनल फिल्म बता रहे हैं? यह उनकी फिल्मों की कतार पर नकल का पहला या दूसरा दाग नहीं है. और जब ‘बरफी’ को ऑस्कर के लिए भारतीय प्रतिनिधि बनाकर भेज ही दिया गया है, तब हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि अनुराग अगली बार अपनी कोई बात कहेंगे. अपनी भाषा चुनेंगे और अपने हथियार. तब शायद हम थोड़ा बेहतर महसूस करें. या पता नहीं.

 

आने वाला कल सताने वाला है

सीटों की संख्या के मामले में अपने सबसे मजबूत सहयोगी तृणमूल कांग्रेस को खोने के बाद संप्रग सरकार बच तो गई है लेकिन इसके प्रबंधकों के लिए आखिरी के डेढ़ बरस बेहद मुश्किल साबित होने जा रहे हैं. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.

चौतरफा हो रहे हमलों के बीच जब सरकार ने सुधारों की गाड़ी को गति देने का फैसला किया तो उसे यह उम्मीद नहीं थी कि 19 सीटों के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की दूसरी सबसे बड़ी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस अलग रास्ते पर चल पड़ेगी. हालांकि राष्ट्रपति चुनावों में तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी को दरकिनार करके कांग्रेस ने एक संकेत दिया था कि ममता की हर बात मानना सरकार की मजबूरी नहीं है. उस वक्त भी संप्रग को संजीवनी देने का काम समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव ने किया था, इस बार भी सबसे पहले वे ही आगे आए. उनके कभी पीछे तो कभी आगे मायावती भी सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से बाहर रखने की कसमें खाते हुए संप्रग को हौसला देने का काम करती रहीं. उत्तर प्रदेश के इन दो धुर विरोधियों ने संप्रग को संकट से उबारने में एकता दिखाई. लेकिन ममता जिस अंदाज में अलग हुईं, उसने एक संकेत तो जरूर दिया कि सियासी मजबूरियों के बीच वे राजनीति को मुद्दों पर लाने का संकेत देने की कोशिश कर रही हैं.

बहरहाल, मनमोहन सिंह की सरकार बच तो गई है लेकिन हर तरफ यही सवाल पूछा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के दो धुर विरोधियों की बैसाखी पर टिकी यह सरकार आखिर कब तक चलेगी. संदेह के इन तमाम सवालों के बीच सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह और उनके प्रबंधकों का हौसला बुलंद है. वे बड़े सुधारों की बात कर रहे हैं. सरकार पर से संकट टलने के बाद जब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई तो उसमें भी यह संदेश दिया गया कि सुधार की गाड़ी आगे बढ़ाने के लिए कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से मनमोहन सिंह के साथ खड़ी है. हालांकि, सरकार और कांग्रेस की ओर से सार्वजनिक तौर पर गठबंधन की मजबूती को लेकर चाहे जितने भी दावे किए जा रहे हों लेकिन खुद कांग्रेस के कई नेता निजी बातचीत में यह स्वीकार करते हैं कि स्थितियां उतनी आसान नहीं है जितनी बताई जा रही हैं.

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और दो बड़े राज्यों में पार्टी के प्रभारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में हम मुलायम सिंह यादव और मायावती के खिलाफ विधानसभा चुनावों में लड़े थे. अब ये दोनों हमारा साथ दे रहे हैं. कांग्रेस के कई नेता और खास तौर पर राहुल गांधी यह मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति सुधारे बगैर पार्टी को केंद्र की राजनीति में और मजबूत नहीं किया जा सकता. इसलिए मुलायम और मायावती का साथ कांग्रेस के लिए कोई लंबी अवधि की रणनीति का हिस्सा नहीं हो सकता. अभी प्राथमिकता सरकार को बचाते हुए अगले डेढ़ साल में मौजूदा नकारात्मक माहौल को बदलने की है इसलिए हम इनका साथ ले रहे हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘हमें पता है कि मुलायम आधे-अधूरे मन से हमारा समर्थन कर रहे हैं.

आधे-अधूरे मन से साथ दे रहे मुलायम को आज इस बात का भरोसा हो जाए कि उनके समर्थन वापस लेने से यह सरकार गिर जाएगी तो आज वे ऐसा कर दें

उन्हें आज इस बात का भरोसा हो जाए कि उनके समर्थन वापस लेने से यह सरकार गिर जाएगी तो आज वे ऐसा कर दें. लेकिन उन्हें पता है कि उनके समर्थन वापस लेते ही मायावती हमारी सरकार को बचा लेंगी. मुलायम चाहते नहीं हैं कि केंद्र की सत्ता में हिस्सेदारी लेकर मायावती मजबूत हों. उनकी रणनीति मायावती को सत्ता से दूर रखते हुए उत्तर प्रदेश की उन योजनाओं के लिए धन निकालने की है जिसकी घोषणा उन्होंने चुनावों के दौरान की थी. इसलिए हमें चिंता सपा-बसपा की नहीं बल्कि अन्य सहयोगियों की है.’ माना जाता है कि मुलायम और मायावती को धमकाने के लिए कांग्रेस बार-बार सीबीआई के डंडे का इस्तेमाल करती है. मुलायम द्वारा कांग्रेस का साथ दिए जाने को सीधे तौर पर इससे जोड़कर ही देखा जाता है. ऐसे में कुछ जानकारों का मानना है कि अगर मुलायम संप्रग से समर्थन वापस लेते हैं और फिर भी सरकार मायावती के समर्थन से बच जाती है तो सीबीआई के जरिए कांग्रेस और मायावती दोनों मिलकर मुलायम के लिए मुश्किलों का पहाड़ खड़ा कर सकते हैं.

दरअसल, आज कांग्रेस में सबसे ज्यादा चिंता एम करुणानिधि की पार्टी डीएमके को लेकर है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि तमिलनाडु में जयललिता की अन्नाद्रमुक की बढ़ती मजबूती को देखते हुए डीएमके के कई नेता मानते हैं कि पार्टी को केंद्र सरकार से अलग होकर सड़क पर संघर्ष करना चाहिए. इन्हें लगता है कि ऐसा करके ये विधानसभा चुनावों से शुरू हुए अन्नाद्रमुक के विजय अभियान को रोक पाएंगे. लेकिन करुणानिधि को जानने वाले लोग बताते हैं कि उनकी छवि एक ऐसा नेता की है जो संबंधों को निभाता है. यही कांग्रेस के लिए सबसे राहत की बात है. मगर करुणानिधि अब बुजुर्ग हो गए हैं और पार्टी के मुख्य फैसलों में उनके बेटे, बेटी और अन्य नेता भी अहम भूमिका निभाने लगे हैं. इसलिए आशंका यह भी जताई जा रही है कि डीएमके कभी भी संप्रग को गच्चा देकर केंद्र सरकार की ‘जनविरोधी’ नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतर सकती है. डीएमके की तरफ से कई बार यह कहा भी गया है कि संप्रग के रणनीतिकार सहयोगी दलों को अहमियत नहीं देते. कुछ इसी तरह की बातें ममता बनर्जी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार भी कहते रहे हैं. अब ममता संप्रग से अलग हैं लेकिन डीएमके, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और तृणमूल के प्रतिनिधियों के बीच दो दौर की बातचीत आपसी समन्वय को लेकर अब तक हुई है. ऐसे में अगर कुछ नए राजनीतिक समीकरण दिखें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी को भी यह अहसास है कि आम चुनाव की स्थिति कभी भी पैदा हो सकती है. यही वजह है कि दिल्ली से सटे फरीदाबाद के सूरजकुंड में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में घूम-फिरकर संप्रग सरकार की नाकामी और आगामी आम चुनाव का मुद्दा ही छाया रहा. खुद पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने संबोधन में कार्यकर्ताओं से चुनाव के लिए तैयार रहने का आह्वान करते हुए संप्रग सरकार को डूबता हुआ जहाज बताया. पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद भाजपा की चुनावी तैयारियों के बारे में पूछे जाने पर कहते हैं, ‘अगर एक महीने में भी चुनाव होते हैं तो भाजपा इसके लिए तैयार है.’ वे कहते हैं, ‘हम सरकार को गिराने की कोशिश नहीं करेंगे लेकिन यह सरकार अपने ही कर्मों से जाएगी.’ सुधार की राह में रोड़े अटकाने के कांग्रेस के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए वे कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि देश 1991 की स्थिति में पहुंच गया है. लेकिन वे यह नहीं बताते कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है. पिछले साढ़े आठ साल से मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री हैं. इसके बावजूद अगर अर्थव्यवस्था की बुरी हालत है तो इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं.’

संप्रग की यह सरकार गिरे या नहीं लेकिन यह एक तथ्य है कि डेढ़ साल बाद तो हर हाल में चुनाव होंगे ही और यह कोई बहुत लंबा वक्त नहीं है. ऐसे में भ्रष्टाचार, महंगाई और जनविरोधी नीतियों के आरोपों से जूझ रही सरकार अपनी चुनावी संभावनाओं को मजबूती देने के लिए आखिर किस रास्ते जाएगी. इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘सरकार आर्थिक सुधार की गाड़ी आगे बढ़ाने की बात तो कर रही है लेकिन खुद एक उलझन में दिखती है. कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि आर्थिक सुधारों की वजह से देश का मध्य वर्ग उनके साथ जुड़ेगा. उलझन यहीं है. मध्य वर्ग को यह तो लगता है कि वॉलमार्ट जैसी कंपनियां आएंगी तो उन्हें इनमें नौकरी मिलेगी. लेकिन सरकार बिजली क्षेत्र में भी सुधार लाना चाहती है. या यों कहें कि बिजली की दरें भी बढ़ाना चाहती है. अब इससे सबसे ज्यादा नाराजगी मध्य वर्ग को ही होगी. इसलिए सरकार एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति में हैं.’ 

तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक की पकड़ मजबूत होते देख  डीएमके के कई नेता मानते हैं कि पार्टी को केंद्र सरकार से अलग होकर सड़क पर संघर्ष करना चाहिए

सरकार के आगे के सफर के बारे में वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘सरकार सुधार की गाड़ी तो आगे बढ़ाएगी. क्योंकि मनमोहन सिंह की विदेशी मीडिया और रेटिंग एजेंसियों ने काफी आलोचना की है. कॉरपोरेट सेक्टर भी मनमोहन सिंह से खुश नहीं था. जब से खुदरा में विदेशी निवेश को हरी झंडी देने की घोषणा केंद्र सरकार ने की है तब से देश के आर्थिक अखबार मनमोहन सिंह की तारीफ के पुल बांधने में दोबारा लग गए हैं. आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मनमोहन सिंह को अंडरअचीवर बताने वाला टाइम कुछ सप्ताह बाद उन्हें बदलाव का वाहक कहने लगे. इससे मनमोहन सिंह भले ही खुश हों लेकिन कांग्रेस के लोगों को और खास तौर पर उन्हें जो चुनावी दांव-पेंच जानते हैं,  पता है कि चुनाव टाइम और रेटिंग एजेंसियां नहीं जितवातीं.’ ठाकुरता आगे कहते हैं, ‘इसलिए यह सरकार कुछ लोकलुभावन योजनाएं लेकर आएगी. खाद्य सुरक्षा इनमें से एक हो सकती है. गरीबों को मुफ्त में दवा देने की योजना भी यह सरकार लागू कर सकती है.

इसका मतलब यह हुआ कि सरकार एक तरफ सुधार के जरिए कॉरपोरेट सेक्टर को साधेगी तो लोकलुभावन योजनाओं के जरिए आम मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेगी.’  सरकार ने इस दिशा में संकेत भी दिए हैं. केंद्रीय कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में भी बढ़ोतरी कर दी गई. खुद केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने मीडिया से बातचीत में यह कहा कि अगले चुनाव में कांग्रेस के लिए खाद्य सुरक्षा कानून और जमीन अधिग्रहण कानून ट्रंप कार्ड होंगे.

ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इन लोकलुभावन योजनाओं के झांसे में आकर देश की जनता भ्रष्टाचार और महंगाई रोकने में सरकार की नाकामी को भूल जाएगी. केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने सार्वजनिक तौर पर यह बयान दिया था कि देश की जनता भ्रष्टाचार के मामलों को भूल जाती है. लेकिन नीरजा चौधरी ऐसा नहीं मानतीं. वे कहती हैं, ‘किसी भी सरकार की सबसे बड़ी पूंजी उसकी विश्वसनीयता होती है. इसका महत्व एक ऐसी सरकार के लिए और भी अधिक बढ़ जाता है जिसका कार्यकाल सिर्फ डेढ़ साल ही बचा हुआ हो.’  ठाकुरता कहते हैं, ‘जनता की अदालत से अपने पक्ष में फैसला पाना कांग्रेस के लिए काफी मुश्किल होने जा रहा है क्योंकि कांग्रेस अपने चुनाव चिह्न हाथ के जिस आम आदमी के साथ होने का दावा करती है, वही इसके कार्यकाल में सबसे अधिक परेशान हुआ है.’

क्या तीसरा मोर्चा सबसे पहले हिमाचल में असर दिखाएगा?

जिस तरह से पूरे देश में आज तीसरे मोर्चे को लेकर चर्चा छिड़ी है, कुछ उसी तरह की चर्चा हिमाचल प्रदेश में भी हो रही है जहां चार नवंबर को चुनाव होना हैं.  वैसे तो परंपरागत तौर पर हिमाचल प्रदेश की राजनीतिक लड़ाई काफी हद तक भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होती आई है लेकिन समय-समय पर तीसरे मोर्चे ने भी  चुनावों में अपनी मजबूत स्थिति दर्ज कराई है. चाहे बात 1990 की हो जब जनता दल ने प्रदेश विधानसभा चुनाव में 10 सीटें जीती थीं या फिर 1998 के विधानसभा चुनाव की. सन 1998 में कांग्रेस से अलग हुए सुखराम द्वारा गठित हिमाचल विकास कांग्रेस ने छह सीटें जीती थीं, उस समय किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. ऐसे में किंगमेकर की भूमिका में सुखराम आ गए. सुखराम ने उस समय भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई जिसमें सुखराम उप-मुख्यमंत्री बने और वर्तमान मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल पहली बार मुख्यमंत्री बने थे. 

पिछले एक साल से राज्य में कई ऐसी राजनीतिक गतिविधियां हुई हैं जिनसे इस बात की संभावना बनती है कि आगामी विधानसभा चुनाव और उसके बाद गठित होने वाली सरकार में तीसरे मोर्चे की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है.

करीब एक साल पहले पार्टी से अलग हुए प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता महेश्वर सिंह ने भाजपा के दो पूर्व मंत्रियों और एक पूर्व विधानसभा अध्यक्ष के साथ मिलकर एक नई पार्टी हिमाचल लोकहित का गठन किया था. महेश्वर सिंह हिमाचल भाजपा के संस्थापक सदस्य के साथ ही पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष, विधायक और पार्टी टिकट पर तीन बार लोकसभा सांसद और राज्य सभा सदस्य भी रह चुके हैं. जाहिर है कि जब पार्टी का इतना बड़ा और पुराना सिपहसालार पार्टी छोड़ता है तो उसके कारण और प्रभाव भी संभवतः उतने ही बड़े होंगे. कारणों पर चर्चा प्रदेश में काफी दिनों से चल रही थी लेकिन अब चुनाव नजदीक आने के साथ-साथ इसके प्रभावों की बात भी यहां जोर-शोर से हो रही है. द ट्रिब्यून से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार राकेश लोहुमी कहते हैं, ‘ महेश्वर सिंह के अलग पार्टी बनाने से बड़ी संख्या में भाजपा के नेता-कार्यकर्ता उनके साथ चले गए है. इनमें से ज्यादातर वे लोग हैं जिनकी मेहनत के दम पर भाजपा ने प्रदेश में अपनी जगह बनाई थी.’    

इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी शर्मा महेश्वर सिंह के पार्टी छोड़ने का कारण बताते हुए कहते हैं, ‘धूमल कैंप ने राज्य के वरिष्ठ भाजपा नेताओं को साइडलाइन करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है, यही कारण है कि एक-एक कर पुराने भाजपा नेताओं का पार्टी से मोहभंग होता जा रहा है.’ हालांकि महेश्वर सिंह भाजपा छोड़ने के अपने फैसले के लिए एक कदम आगे बढ़कर भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव को जिम्मेदार मानते हुए कहते हैं, ‘यह पार्टी भी कांग्रेस की तरह हो गई है. यही वजह है कि अब प्रदेश की जनता दोनों पार्टियों से मुक्ति चाहती है और हम इनका विकल्प बनेंगे.’ ऐसा कहा जाता रहा है कि महेश्वर सिंह को भाजपा के वरिष्ठ और राज्य के कद्दावर नेता तथा पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का आशीर्वाद हासिल है. जब महेश्वर सिंह पार्टी से अलग हुए तो उस पर शांता कुमार का बयान था कि महेश्वर पार्टी के संस्थापक और वरिष्ठ नेताओं में से एक हैं जिन्होंने पार्टी के पिछले 40 साल से लगातार सेवा की है ऐसे में उन्हें वापस लाए जाने का प्रयास होना चाहिए. 

जनसत्ता से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी वर्मा हिमाचल लोकहित पार्टी के गठन को भाजपा के लिए खतरनाक संकेत मानते हुए कहते हैं, ‘ यह पार्टी कितनी सीट जीतेगी यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन ये भाजपा को हराने का काम जरूर करेंगे. प्रदेश की 20 से 25 सीटों पर ये असर डालेंगे. कांगड़ा में हो सकता है भाजपा का सफाया हो जाए. वहां से कई नेता हिमाचल लोकहित से जुड़ना चाह रहे थे लेकिन शांता कुमार ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उन्हें रोक दिया. लेकिन ये कब तक उनके साथ बने रहेंगे कहा नहीं जा सकता.’ अश्विनी वर्मा के मुताबिक चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना बहुत प्रबल दिखाई दे रही है. अगर ऐसा हुआ तो तीसरा मोर्चा किधर जाएगा ? इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘ ऐसी स्थिति में दो बातें ही संभव है कि भाजपा या कांग्रेस को समर्थन करेगा. भाजपा का समर्थन करने पर शर्त यही होगी कि धूमल उस सरकार का नेतृत्व न करें और तब संभवतः कमान शांता कुमार के हाथ में होगी. कुल मिलाकर तीसरे मोर्चे के किंगमेकर बनने पर धूमल को सफाया तय है.’   

भाजपा से अलग होने के बाद महेश्वर सिंह ने लेफ्ट पार्टियों के साथ मिलकर हिमाचल लोकहित मोर्चा का गठन किया था. इसके असर का संकेत राज्य की राजनीति में तुरंत ही देखने को मिला. शिमला नगरनिगम चुनाव में सीपीआई (एम) ने न सिर्फ कांग्रेस के 26 साल के रिकॉर्ड को ध्वस्त करते हुए महापौर और उप महापौर के पद पर अपना कब्जा जमाया बल्कि उसने भाजपा की उस रणनीति की हवा निकाल दी जिसके तहत उसने पहली बार इन पदों के लिए सीधे मतदान कराना तय किया था. जाहिर-सी बात है पार्टी इस ऐतिहासिक जीत से अति उत्साहित है और चूंकि हिमाचल के कुछ इलाकों में वाम दलों का प्रभाव रहा है इसलिए वाम दल भी आगामी विधानसभा चुनाव में कुछ कर गुजरने की मुद्रा में दिखाई दे रहे हैं. शिमला के मेयर और सीपीआई (एम) नेता संजय चौहान कहते हैं, ‘शिमला नगरपालिका चुनाव परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया कि लोग बीजेपी और कांग्रेस से मुक्ति चाहते हैं, ऐसे में हमें पूरा विश्वास है कि शिमला वाला इतिहास पूरे राज्य में दोहराया जाएगा.’

  • हिमाचल में कुल 68 विधानसभा सीट हैं
  • 4 नवंबर को होगा चुनाव
  • 20 दिसंबर को होगी मतगणना
  • 10 जनवरी को मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल समाप्त हो रहा है.

जानकारों का कहना है कि भले ही अभी इस मोर्चे में सिर्फ वाम दल और हिमाचल लोकहित पार्टी शामिल हैं लेकिन आने वाले समय में इस राजनीतिक छतरी के नीचे और कई पार्टियों के आने की संभावना है. ऐसा माना जा रहा है कि एनसीपी, बसपा, सपा और हाल ही में राज्य में अस्तित्व में आई तृणमूल कांग्रेस भी इसमें शामिल हो सकती हैं. इसके अलावा राज्य के कई और नेताओं के इस गठबंधन में शामिल होने की संभावना है. वे सारे लोग भी इसमें आ सकते हैं जिन्हें भाजपा या कांग्रेस से टिकट की जगह मायूसी हाथ लगेगी. जानकार बताते हैं कि अगर ये पार्टियां तीसरे मोर्चे में शामिल नहीं भी होती हैं और स्वतंत्र रूप से लड़ती हैं, तब भी इतना जरूर तय है कि यह सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस के अपने दम पर सरकार बनाने वाले हसीन सपनों के रंग में भंग डालने का काम कर सकती हैं. अश्विनी शर्मा कहते हैं, ‘अकेले महेश्वर सिंह की पार्टी के लगभग 15 से 20 सीटों पर असर डालने की संभावना है, खासकर  उस कुल्लू क्षेत्र में जहां से महेश्वर सिंह आते हैं.’   

एक तरफ तीसरा मोर्चा जहां मजबूत होता दिख रहा है वहीं दोनों प्रमुख दलों की स्थिति बेहद कमजोर नजर आ रही है. प्रदेश भाजपा में गुटबाजी अपने चरम पर है. एक तरफ शांता कुमार सार्वजनिक तौर पर कुछ समय पहले तक मुख्यमंत्री धूमल सरकार पर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबने और हिमाचल को बेचने का आरोप लगा चुके हैं वहीं पार्टी में मुख्यमंत्री धूमल को लेकर भी लंबे समय से काफी असंतोष है. हिमाचल प्रदेश की चार लोकसभा सीटों में से एक कांगड़ा से भाजपा सांसद राजन सुशांत लंबे समय से मुख्यमंत्री धूमल पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. सार्वजनिक तौर पर पार्टी के मुख्यमंत्री की आलोचना और उन पर गंभीर आरोप लगाने वाले राजन से भाजपा को सबसे बड़ा झटका तब महसूस हुआ जब यह खबर आई कि राजन के बेटे धैर्य सुशांत हिमाचल लोकहित पार्टी में शामिल हो गए हैं और उन्हें युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया है. राजन के बारे में ऐसी संभावना जताई जा रही है कि वे भी देर सवेर हिमाचल लोकहित पार्टी में शामिल हो सकते हैं. 

पार्टी में जब राजन का एपिसोड चल ही रहा था कि रोहरु से पार्टी विधायक खुशी राम ने प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की बात करते हुए प्रदेश सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे. खुशी के बारे में भी ये कहा जा रहा है कि वे हिमाचल लोकहित पार्टी के साथ जा सकते हैं. सूत्रों का कहना है कि यह बस शुरुआत है. आने वाले दिनों में भाजपा के कई नेता महेश्वर सिंह के संग हो सकते हैं. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘कई नेता बस टिकट बंटने के समय का इंतजार कर रहे हैं. अगर उन्हें टिकट नहीं मिला तो वे पार्टी छोड़ने के लिए तैयार बैठे हैं.’   

दूसरी तरफ कांग्रेस की स्थिति भी भाजपा की तर्ज पर तू डाल-डाल तो मैं पात-पात है. यहां तगड़ी गुटबाजी तो पहले से ही थी लेकिन चुनाव करीब आता देखकर यह और बढ़ गई है. पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के पार्टी छोड़कर जाने संबंधी खबरों से दबाव में आकर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने जब उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाया तो इससे कार्यकर्ता उत्साहित जरूर हुए लेकिन उनकी वजह से अपना पद खोने वाले कौल सिंह ठाकुर और उनके समर्थक नाराज हो गए.

कांग्रेस के लिए एक समस्या यह भी है कि सीडी कांड के जरिए भ्रष्टाचार के मामले में फंसे वीरभद्र को पार्टी की कमान सौंपने से जहां आम जनता में गलत संदेश गया है वहीं दूसरी तरफ इस बात की संभावना से कि वे अब मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे, पार्टी के बाकी नेताओं में प्रदेश का मुखिया बनने की होड़ अभी से शुरू हो गई है. इसके अलावा केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की नकारात्मक छवि से जूझना भी यहां कांग्रेस के लिए मुश्किल साबित हो रहा है. हाल-फिलहाल की स्थिति में भाजपा और कांग्रेस दोनों एक कमजोर स्थिति में दिखाई दे रहे हैं. यहां सबसे दिलचस्प बात है कि राज्य में किसी के पक्ष में कोई लहर दिखाई नहीं दे रही है. ऐसे में तीसरे मोर्चे के महत्वपूर्ण होने की संभावना यहां अपने आप ही मजबूत होती दिख रही है.

कभी ये बांध था…

1982 के एशियाई खेलों में जिस रामगढ़ बांध ने नौकायन प्रतियोगिता की मेजबानी की आज उसमें कागज की नाव तैराने लायक पानी भी नहीं है. गलत नीतियों, अतिक्रमण और भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में फंसा यह बांध मरने के कगार पर है. अवधेश आकोदिया की रिपोर्ट.

वर्षा की कमी के कारण सूखे से जूझते रहने वाले राजस्थान में इस बार मानसून कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहा. ताल-तलैया लबालब हो गए, नदी-नालों में उफान आ गया और बहुतेरे बांधों के गेट खोलकर पानी की निकासी करनी पड़ी. राजधानी जयपुर में तो बाढ़ के हालात बन गए, लेकिन यहां का रामगढ़ बांध पानी की बाट ही जोहता रह गया. यह वही रामगढ़ बांध है, जिसने सौ साल तक गुलाबी नगरी के बाशिंदों के गले तर किए और 1982 के एशियाई खेलों में नौकायन प्रतियोगिता की मेजबानी की. आज इस बांध में इतना पानी भी नहीं है कि कागज की नाव तैर सके. 

रामगढ़ बांध का निर्माण जयपुर के तत्कालीन शासक सवाई माधो सिंह ने 1903 में शहर को पेयजल आपूर्ति के लिए करवाया था. संस्कृत विद्वान देवर्षि कलानाथ शास्त्री बताते हैं, ‘उस जमाने में करीब छह लाख रुपये की लागत से रामगढ़ बांध बनकर तैयार हुआ था. इसमें तीन नदियों- बाणगंगा, ताला व माधोबेणी का पानी आता था. चाहे वर्षा कम हो या ज्यादा, यह हमेशा जयपुर के लिए पेयजल का मुख्य स्रोत रहा. शहर की जनसंख्या बढ़ती गई, लेकिन पानी की कमी कभी नहीं आई.’ इस बांध से पहली बार पेयजल की आपूर्ति 2001 में बंद हुई थी. 2002 में भी बांध में पानी नहीं आया. 2003-04 में कुछ आपूर्ति हुई, लेकिन 2005 में रामगढ़ की पेयजल सप्लाई से शहर का नाता पूरी तरह टूट गया. 

दरअसल साल 2000 के पहले कई सालों से चल रहे अतिक्रमण,  भ्रष्टाचार और गलत नीतियों के चक्रव्यूह ने इस बांध की ऐसी हालत कर दी थी कि उसके अगले साल ही बांध से पानी मिलना बंद हो गया. रामगढ़ बांध के कैचमेंट एरिया में सिंचाई विभाग, वन विभाग व पंचायत राज विभाग ने 415 एनिकट बना रखे हैं. इनमें से ज्यादातर पक्के हैं, जिन पर पानी के बहाव का कोई असर नहीं पड़ता. विशेषज्ञों का मानना है कि पानी के बहाव क्षेत्र में सबसे बड़ा रोड़ा ये एनिकट ही हैं. सरकार भी यह स्वीकार करती है, लेकिन इन्हें हटाने या इनकी ऊंचाई कम करने की जहमत नहीं उठाती. 

कैचमेंट एरिया में बने एनिकटों से बांध में पानी की आवक जब कम हुई तो अतिक्रमणों की बाढ़ आ गई. जमवारामगढ़ के प्रधान रघुवीर चौधरी बताते हैं, ‘जिला प्रशासन व जेडीए की लापरवाही के कारण बांध के कैचमेंट एरिया में हैरिटेज, फॉरेस्ट व विलेज होटल बन गए. कॉलेज, स्कूल और यूनिवर्सिटी खड़ी हो गईं. अधिकांश नाले फार्म हाउस बनाने के लिए पाट दिए गए. लोगों के पास खातेदारी अधिकार होने का बहाना बनाकर प्रशासन कार्रवाई नहीं कर रहा. अब रेवन्यू बोर्ड में रेफरेंस का मामला सुलझने के बाद ही कार्यवाई की दलील दी जा रही है.’ 

राजस्थान हाई कोर्ट के सख्त रुख के बाद भी सरकारी अमला अपनी चाल चुस्त करने को तैयार नहीं है. गौरतलब है कि हाई कोर्ट ने इस मामले में पिछले साल स्वप्रेरित संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि वह रामगढ़ बांध को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में लेकर आए. यही नहीं, कोर्ट ने इस पर अमल के लिए एक मॉनीटरिंग कमेटी भी बनाई थी.

राजस्थान हाई कोर्ट ने दो साल में मुख्य सचिव, संबंधित छह विभागों के प्रमुख सचिवों, कलेक्टर व जयपुर विकास प्राधिकरण के अधिकारियों को अलग-अलग समय पर तलब कर रामगढ़ बांध से अतिक्रमण हटाने के आदेश दिए, लेकिन जमीनी स्तर पर कार्रवाई न के बराबर हुई. हाईकोर्ट के दखल के बाद जिला प्रशासन ने चार तहसीलों के 70 गांवों में 680 बीघा जमीन पर अतिक्रमण मान लिया. अतिक्रमण हटाने के लिए प्रशासन ने कार्रवाई भी की, लेकिन दिखावटी. कैचमेंट एरिया में खड़ी फसल रौंद दी गई और प्रभावशाली लोगों के अतिक्रमण रेवन्यू बोर्ड के कानून की उलझन का बहाना बना कर जस के तस छोड़ दिए. हाई कोर्ट मॉनीटरिंग कमेटी के सदस्य अशोक भार्गव बताते हैं, ‘अतिक्रमण हटाने के नाम पर प्रशासन नाममात्र की कार्रवाई करता है. बड़े अतिक्रमणों को हटाने के बजाय प्रशासन इन्हें बचाने के लिए कोर्ट में पैंतरे बदलता रहता है. उन्हें पर्याप्त समय दिया जा रहा है ताकि वे याचिकाएं दायर कर सकें. यदि अधिकारियों का यही रवैया रहा तो रामगढ़ बांध का बच पाना मुश्किल है.’ 

बांध सूखने से पारिस्थितिकी को तो नुकसान हुआ ही है, आर्थिक हानि भी कम नहीं हुई है. वर्तमान में जयपुर की पेयजल आपूर्ति का मुख्य स्रोत टोंक जिले का बीसलपुर बांध है. शहर तक पानी पहुंचाने के लिए इस परियोजना पर अब तक लगभग 1500 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन अभी तक सभी जगह पानी नहीं पहुंचा है. पूरी तरह सूखने के बाद भी प्यास तो रामगढ़ बांध ही बुझा रहा है. अब इसके पैंदे और आसपास में बनाई गई ट्यूबवेलें काम आ रही हैं. जलप्रदाय विभाग की छह दर्जन से ज्यादा ट्यूबवेल चारदीवारी में बसे जयुपर की प्यास तो बुझा रही हैं, लेकिन क्षेत्र के किसान इसका खमियाजा भुगत रहे हैं. बांध से होने वाली सिंचाई से तो वे वंचित हो ही चुके हैं, ट्यूबवेलों से भूमिगत जल का स्तर भी दिनोंदिन गिरता ही जा रहा है.

पीड़ा में पहाड़िया

हम झारखंड के सुंदरपहाड़ी इलाके के पहाड़ों पर हैं. चेबो नाम के एक गांव में, जिस तक उजले भारत की कोई चमक अब तक नहीं पहुंची है, हां, शोषण जरूर उन तक लगातार पहुंचता है. सरकार भी पहुंची है तो इस तरह कि 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन ही स्कूल, स्कूल लगते हैं. चिकित्सा वहां कंडोम के विज्ञापनों जितनी पहुंची है और मलेरिया, कालाजार और टीबी से हर साल लोग उसी रफ्तार से मरते जा रहे हैं. किसी ‘यादव ट्रांसपोर्ट’ की एक मिनी बस है, जो गोड्डा जिले के इन गांवों को जिला मुख्यालय से जोड़ती है. बस क्या है, एक महीन-सा तार है, जिसका एक तरफ का किराया 50 रुपए है और बस, ड्राइवर की तबीयत या उसका मूड खराब हो तो आदमी इतनी आसानी से अपने जिला मुख्यालय से और इस तरह हम सबकी दुनिया से कट जाता है, जैसे बात करते-करते कोई फोन कट गया हो.

आप शायद वहां फोन या तकनीक के पहुंचने को लेकर उत्सुक हों, लेकिन हम आपको उस रास्ते के बारे में बताते हैं, जिससे पहाड़िया समुदाय के इन 100 से भी ज्यादा गांवों में सरकारी चावल पहुंचता है. हम झारखंड के चार जिलों गोड्डा, साहेबगंज, दुमका और पाकुड़ के पहाड़ों की बात कर रहे हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 1,30,000 है. पहाड़ियों की एक प्रमुख उपजाति सौरिया के नाम पर इस इलाके को सौरिया देश भी कहते हैं. झारखंड से बाहर बिहार के मुंगेर और पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, मध्य प्रदेश में भी पहाड़िया छिटपुट तौर पर मिलते हैं. सब जगह इनकी हालत वही है. 

इस इलाके के सब गांवों की तरह ही चेबो के लोग भी महीने में एक बार 30 से 35 किलोमीटर की दूरी तय करके मुफ्त मिलने वाले 35 किलो चावल के लिए पहाड़ से नीचे उतरते हैं. एक रोज पहले सब एक साथ शाम को समूह में चल देते हैं, रात को वहां पहुंचते हैं. अगले दिन शाम तक चावल मिलता है. वह भी नाप-तोल कर नहीं, बल्कि एक टीन के डब्बे में भरकर दे दिया जाता है. जब हम और आप ट्रैफिक की वजह से हो रही कुछ मिनटों की देरी के लिए अपने हॉर्नों की तरह चिल्ला रहे होते हैं, तब वे हजारों लोग महीने के तीन दिन राशन का वह चावल पाने में खर्च करते हैं जिसे ‘फिक्रमंद’ सरकार उन्हें देना चाहती है.

नौवीं तक पढ़े, चेबो के 24-25 साल के चंद्रमा यहीं हमें पहाड़िया समुदाय के वर्तमान और अतीत के बारे में बताना शुरू करते हैं. अपनी रोजमर्रा की चुनौतियों के बारे में, उस कठिन जीवन के बारे में जिसके अस्तित्व तक का हममें से बहुतों को पता नहीं.

‘आपने इतिहास तो पढ़ा-सुना ही होगा कि हम इस देश ही नहीं, धरती के सबसे पुराने बाशिंदे हैं. आदिवासी भी हमसे बाद के हैं. सरकार हमें आदिम जनजाति कहती है लेकिन असल मे हम ‘जुगवासी’ हैं. हमारे पुरखे बड़े लड़ाके रहे हैं. उन्होंने लगातार मुगलों के आधिपत्य को खारिज किया और अंग्रेज उनसे कभी पार नहीं पा सके. इतिहास में गौरवान्वित 1857 की लड़ाई या उसके पहले का संथाल आदिवासी विद्रोह तो बहुत बाद की बातें हैं, उसके बहुत पहले हमारे समुदाय ने सामूहिक विद्रोह किया था, जिसे ‘पहाड़िया विद्रोह’ का नाम देकर इतिहास के कोने में समेट कर रख भर दिया गया है. हमारे ही पुरखा लड़ाके योद्धा जबरा पहाडि़या उर्फ तिलकामांझी थे, जिनके नाम पर भागलपुर में विश्वविद्यालय है.’

‘जुगवासी’ हमारे लिए एक नया शब्द है, लेकिन यह हम सोचें, उससे पहले ही चन्द्रमा हमें फिर से अपनी बातों में खींच लेते हैं.  

‘रही बात भूगोल की तो उसका अंदाजा तो आपको यहां आने में हो ही गया होगा. इसलिए हम इतिहास-भूगोल के बजाय सीधे वर्तमान पर बातें करेंगे.’

इसके बाद चंद्रमा जो बताते हैं वह झारखंड के इस इलाके के विकास का परदा खोलता जाता है और पहाड़ों के उस घुप्प अंधेरे को हमें दिये से दिखाता जाता है.

‘ हमारे समुदाय का न तो नीचे जमीन पर रहने वालों से कोई मुकाबला है, न उनकी किसी भी किस्म की तरक्की से जलन जैसा भाव है, लेकिन बुरा तब लगता है जब लोग हमारे समुदाय के सीधेपन को बेवकूफी समझते हैं. अब देखिए न, सड़क बनाकर पहाड़ों पर पहुंचकर सबमें अपने-अपने नामों का पत्थर लगवाने की होड़ मची हुई है. यह तमाशा ही तो है!’

पहाड़िया समुदाय की आबादी बढ़ रही है या घट रही है, इसे लेकर दृश्य कुछ साफ नहीं है. ‘प्रदान’ संस्था से जुड़े रहे और पहाड़िया समुदाय के बीच काम करने वाले सौमिक कहते हैं कि अब आबादी में बढ़ोतरी हो रही है. दूसरी ओर यदि नमूने के तौर पर सारठ नामक एक प्रखंड के आंकड़ों को देखें तो पिछले एक दशक में यहां से 101 पहाड़िया परिवार कहां चले गए, यह किसी को मालूम नहीं है.

वैसे हम पहाडि़या समुदाय के इतिहास के लड़ाकेपन की बात करे बिना भी अगर वर्तमान में ही इनके जुझारूपन, जीवट और मुश्किलों के बावजूद इनके चेहरे के संतोष को देखें तो ये दुनिया के उन चंद समुदायों में मिलेंगे जिनकी इच्छाएं बड़ी नहीं हैं. जिन्हें छला जाता है, लेकिन तब भी कोई उनका भोलापन नहीं छीन पाता. मासूम-सी डेसी इसकी मिसाल है, जो अपने गांव में एक पेड़ के नीचे कुछ बच्चों को हिंदी में नाम लिखना सिखा रही है. वह पहाड़ के नीचे मैदानी इलाके में स्थित कस्तूरबा आवासीय विद्यालय में नौवीं कक्षा में पढ़ती है.

डेसी हमसे अपनी पसंदीदा फिल्मों, पसंदीदा हीरो-हीरोइन के बारे में बातें करती है. वह कहती है कि वह जब पहाड़ से नीचे उतरकर स्कूल में पढ़ने गई और वहीं रहने लगी तो उसने जाना कि उसके इलाके के लोग कितने मेहनती हैं. वह अस्पताल की इमारत को दिखाते हुए कहती है, ‘देखिए, इस अस्पताल का एक ही बड़ा इस्तेमाल है. इसकी छत पर जो बारिश में पानी जमा होता है, उसे बांस की नली से हम नीचे गिराकर एक जगह जमा करते हैं. फिर उस पानी का इस्तेमाल करते हैं. हमारे पास पानी के विकल्प कम हैं न! पीने के लिए कोसों दूरी तय कर झरने से लाते हैं लेकिन दूसरे घरेलू काम के लिए काफी मुश्किल होती है. गर्मी में तो हमारा नहाना-धोना बंद रहता है.’

महीने में एक बार पहाड़िया समुदाय के लोग 30 से 35 किलोमीटर की दूरी तय करके मुफ्त मिलने वाले 35 किलो चावल के लिए पहाड़ से नीचे उतरते हैं.

डेसी हमें पहाडि़यों की ढलान पर उठ रहे धुएं को दिखाते हुए कहती है, ‘खेतों की सफाई कर आग लगा दी गई है और अब हम खेती करेंगे. मक्के की, अरहर की, बरबट्टी की. और भी बहुत चीजों की.’ 

डेसी अभी बच्ची है, इसलिए जिन खेतों को वह खुशी से हमें दिखा रही है उनके पीछे का दुख शायद अभी नहीं जानती. वह नहीं जानती कि उस खेती से पहाडि़या समुदाय को असल में क्या हासिल होता है और इस खेती के नाम पर बीच के लोग उनके साथ कैसे खेल खेलते हैं. यह खेल उस इलाके में वर्षों से पत्रकारिता कर रहे पत्रकार साथी पल्लव हमें समझाते हैं. ‘यहां पहाड़ पर गांवों में कहीं कोई दुकान नहीं दिख रही. अब आप ही सोचिए कि इनके जीवन की जरूरतें कैसे पूरी होती होंगी? ‘पल्लव बताते हैं कि यहां के लोग साप्ताहिक हाटों में जाने के लिए पहाड़ से नीचे उतरते हैं, अपने अनाज, लकडि़यों, फलों आदि को लेकर जाते हैं और वहां औने-पौने दाम में इनके सामान को खरीदने के लिए तैयार बैठे साहूकार इसके बदले इन्हें जरूरी सामान मुहैया करा देते हैं.

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. इन पहाड़ों पर साहूकारों के आदमी घोड़ा या खच्चर लेकर साल में कई दफा चक्कर मारते हैं. खासकर तब, जब फसलों की बुवाई का समय आता है. तब अगस्त-सितंबर में साहूकारों के घोड़ों की टाप पहाड़ों पर ज्यादा सुनाई पड़ती है. घोड़े-खच्चर तरह-तरह के बोरों से लदे हुए होते हैं और साहूकार कुछ हजार रुपये अपने टोंटी में रखकर आते हैं. पहाडि़या लोगों को खेती के लिए कर्ज देते हैं, और उसके बदले चार माह में तीन से चार गुना वसूल लेते हैं. इस तरह बरबट्टी, अरहर या मक्के की खेती से होने वाली जिस कमाई पर पहाड़ी समुदाय के लोगों का हक होना था उसका एक बड़ा हिस्सा साहूकारों के पास चला जाता है. इसमें सबसे बड़ा खेल बरबट्टी की खेती में होता है, क्योंकि उसकी मांग दिल्ली-मुंबई समेत सब महानगरों में ज्यादा है, जिसे वहां चवली या रेशमी लोबिया नाम से जाना जाता है. संथाल परगना के छोटे-बड़े शहरों में कई ऐसे सेठ हैं, जो बरबट्टी की खेती से ही अपना साम्राज्य खड़ा कर चुके हैं.’

जबकि निश्छल पहाडि़या समुदाय का इन फसलों की खेती से कितना आत्मीय रिश्ता है, इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि केवल हर नई फसल की खुशी के उत्सव ही इस समुदाय के त्योहार हैं. आम पूजा, मक्का पूजा, बरबट्टी पूजा. खेती से इनकी इस मोहब्बत को, इस रिश्ते को पहाड़ के नीचे रहने वाले प्रशासनिक और व्यापारी वर्ग के लोग अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए अपने फायदे के लिए इनका दोहन करते रहते हैं और इन्हें हर साल फिर उन्हीं खेतों में झोंकते रहते हैं. इन शहरियों  की बदौलत उनकी जरूरतें भी ठीक से पूरी नहीं हो पाती. गांव के लोग बताते हैं, ‘प्रशासनवाले वैसे तो हमारी सुध लेने कभी नहीं आते लेकिन जब खेती की बारी आती है तो आते हैं और हमारे लोगों को जेल में डालने की धमकी देने लगते हैं कि खेती के लिए हमने पहाड़ के जंगल को काटा और जलाया है जबकि सच्चाई यह होती है कि हम सिर्फ झाड़ियों को साफ कर उसमें खेती करते हैं. आप ही बताइए, हमारा पहाड़, हमारी जिंदगी पहाड़ पर, हम क्यों बर्बाद करेंगे इसे?’

चंद्रमा कहते हैं, ‘हम लोगों को दूसरे तरीके से भी छला जाता. कई बार ऐसा भी हुआ है कि नीचे वाले लोग हाट-बाजार में हमारी लड़कियों की ताक में बैठे रहते हैं. प्रेम का डोरा डालते हैं. हमारा समाज प्रेम को स्वतंत्रता देता है और बहुत हद तक लड़कियों को मनचाहा वर ढूंढ़ने की आजादी भी, सो कुछ शातिर इसका फायदा उठाकर यहां की लड़कियों से शादी कर चुके हैं जबकि उनमें कई पहले से शादीशुदा और बाल-बच्चेदार भी होते हैं. इसके पीछे उनका बड़ा मकसद पहाड़ की खेती से लाभ उठाना होता है. वे ऐसा कर हमारे बीच आने लगते हैं और फिर साहूकारों से मुक्ति दिलाने के नाम पर खेती में पूंजी लगाते हैं. लेकिन बाद में वे किसी बड़े साहूकार से भी ज्यादा क्रूरता से हमारी संपत्ति हड़पते हैं और हमारी बेटियों-बहनों को छोड़ कर वापस चले जाते हैं.’ 

महीने में एक बार ये लोग 30 से 35 किलोमीटर की दूरी तय करके मुफ्त मिलने वाले 35 किलो चावल के लिए पहाड़ से नीचे उतरते हैं

चंद्रमा रुआंसे-से हो गए हैं. वे आगे कहते हैं, ‘हम लोग तो राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण नहीं माने जाते. वोट डालते हैं तो भी नीचे वाले कहते हैं कि हम दगाबाजी करते हैं. आदिवासी नेताओं को पसंद नहीं करते.’ चंद्रमा बताते हैं, ‘पीढि़यों से संथालों से हमारे समुदाय का बैर इस आधार पर जरूर रहा है कि अंग्रेजों की शह पर वे हमारे राजपाट वाले इलाके में हमें उजाड़ने आए, उजाड़कर यहीं बस भी गए और हमारे ही इलाके का नाम उनके नाम पर संथाल परगना भी हो गया. हम यहां के राजा थे, अब रंक बन गए हैं. पुरखों ने कभी गुलामी नहीं स्वीकारी, लेकिन हम गुलाम जैसी जिंदगी गुजार रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद पीढि़यों से हमारे सबसे करीब भी तो संथाली ही रहते हैं. हम किसी भी हाल में उनका साथ छोड़कर बाहरी लोगों के पक्ष में कैसे जा सकते हैं?’ 

उदास चेबो और चंद्रमा से विदा लेकर हम पहाड़ से नीचे उतर आते हैं. नीचे हमारी बात अविभाजित बिहार में मंत्री रहे कृष्णानंद झा से होती है, जो इस इलाके में तीन दशक से सक्रिय रहे संथाल-पहाडि़या सेवा मंडल से जुड़े रहे हैं. अब वह मंडल आपसी विवाद की वजह से ठप है. झा कहते हैं, ‘पहाडि़या समुदाय के लिए सरकार की ढेरों योजनाएं हैं. उन योजनाओं में से 50 प्रतिशत भी जमीन पर उतर जाए तो बहुत कुछ बदल जाए.’

दुमका में हमारी मुलाकात ‘पूर्वी भारत में पहाडि़या’ नामक शोध पुस्तक लिखने वाले अनूप कुमार बाजपेयी से होती है. बाजपेयी कहते हैं, ‘इस इलाके में बीमारियों की वजह से जन्म से ज्यादा मौतें हुई हैं. सरकार इन लोगों को धरातल पर बसाने की निरर्थक कोशिश तो करती रहती है, लेकिन सदियों से पहाड़ों पर शांति से रहने वाले ये लोग मैदानों में नहीं रह सकते.’

सरकारी योजनाओं की सफलता-विफलता की कहानी और लोग भी सुनाते हैं. मूल रूप से मध्य प्रदेश की रहने वाली, लेकिन कई सालों से सुंदरपहाड़ी में रहकर पहाडि़या-संथालों के साथ काम करने वाली प्रज्ञा वाजपेयी कहती हैं, ‘स्वास्थ्य का यह हाल है कि पिछले साल इस प्रखंड में 3,150 बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें से 23 बच्चे और मां प्रसव प्रक्रिया में ही मर गए. यह सब यहां की नियति जैसा है.’

‘नियति’ ऐसा शब्द है जिसके सहारे हम जाने कब से अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाते आए हैं, मासूम और मेहनती पहाड़िया समुदाय के पसीने को मैदानी सेठों के एयरकंडीशनरों से बहते देखते आए हैं, उनकी कितनी पीढ़ियों को बेसिरपैर की सरकारी योजनाओं की फाइलों के नीचे दबाते आए हैं. अब यह हमें और हमारी सरकारों को देखना है कि हमें ‘नियति’ शब्द ज्यादा प्यारा है या धरती के सबसे पुराने योद्धा.  

‘यह एक लड़की के लिए लड़ रहे दो लड़कों की कहानी नहीं है. यह विचारधारा की लड़ाई है’

रिलीज के पहले ही नक्सलवाद जैसे विषय पर बनी फिल्म चक्रव्यूह अच्छी-खासी चर्चा और बहस पैदा कर रही है. इससे पहले की अपनी दो फिल्मों राजनीति और आरक्षण से भी प्रकाश झा ने आम दर्शकों के बीच ऐसी ही उत्सुकता पैदा की थी. शोनाली घोष से अपनी ताजा फिल्म के बारे में बात करते हुए झा बता रहे हैं कि क्यों एक फिल्म के जरिए माओवादी विचाराधारा पर बात करना जरूरी है  

चक्रव्यूह के लिए नक्सलवाद जैसा विषय कैसे चुना गया?

पिछले कुछ सालों से लगातार खबरें आ रही हैं कि दंतेवाड़ा, जहां दो पक्षों के बीच लड़ाई चल रही है, में आम किसान मारे गए. पहले बयान आता है कि मारे गए लोग नक्सलवादी थे. फिर दावा किया जाता है कि वे नक्सलवादियों को पनाह दे रहे थे. आखिर में कहा जाता है कि इनमें से सिर्फ आधे लोग ही नक्सलवादी थे. असली बात यह है कि नक्सलवादी वे लोग हैं जिन्हें आप अलग-अलग करके नहीं देख सकते. उनके भाई-भतीजे मिलिशिया का हिस्सा होते हैं या उसके मुखबिर. वे आजादी, लोकतंत्र और स्वराज का मतलब नहीं समझते क्योंकि उन्होंने कभी उसका अनुभव ही नहीं किया. गढ़चिरौली के एक प्रसिद्ध लोकगायक थे. वे कहा करते थे, ‘सुना है कि आजादी मिल गई, स्वराज मिल गया, कुछ 50-60 साल पहले वह लाल किले से चला आया. पता नहीं कहां खो गया. उसको दफ्तर-दफ्तर में देखा, पुलिस थाने में देखा. उसको ढूंढ़ा पर कहीं नहीं मिला. देखा नहीं आज तक कैसा है- गोरा है कि लंबा है, बड़ा है या छोटा है. भाई, आपको मिले तो हमारे गांव ले आना. एक बार दर्शन तो कर लें.’ तो यह वह नजर है जिससे ये लोग एक संप्रभु राष्ट्र को देखते हैं. लेकिन वे जहां हैं वहां संप्रभुता नहीं है.

फिल्म के लिए आपने किस तरह की रिसर्च की है?

मैं बीते सालों में कुछ ऐसे लोगों से लगातार मिलता रहा हूं जो इस विचारधारा के समर्थक थे लेकिन बाद में इससे अलग हो गए. इस फिल्म के सहलेखक अंजुम राजाबली जो इस मसले से जुड़े रहे हैं, ने मुझे 2003 में एक कहानी सुनाई थी. पहले संघर्ष और हिंसा सिर्फ दंडकारण्य के जंगलों व आदिवासियों तक सीमित थी लेकिन अब यह दूसरे इलाकों और लोगों तक फैल गई है इसलिए मैंने अंजुम से कहा अब फिल्म बनाई जा सकती है. इसके बाद हमने पुलिसवालों, आम जनता, विस्थापितों और नक्सलवाद के आरोप में जेल गए लोगों से मुलाकात की और इस मसले पर उनकी सोच जानने की कोशिश की.

चक्रव्यूह बनाते हुए नक्सलवाद के बारे में आपकी सोच में क्या बदलाव आया?

70 के दशक में मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था और तब से ही नक्सलवाद के बारे में सुन रहा हूं. हम नक्सलबाड़ी, इस आंदोलन के संस्थापक चारू मजूमदार, वामपंथी विचाराधारा और वर्गहीन समाज के बारे में बात करते थे. बिहार की पृष्ठभूमि भी इससे जुड़ी थी इसलिए मेरा इनकी तरफ स्वाभाविक झुकाव था. लेकिन जब आप फिल्म बनाते हैं तो आपको अपनी व्यक्तिगत सोच अलग रखकर काम करना पड़ता है. मैं पिछले कई साल से फिल्म बना रहा हूं और यह बात मेरे भीतर दिलचस्पी पैदा करती थी कि एक आंदोलन का विस्तार कैसे होता है. नक्सलवाद वाले मसले पर मेरी सहानुभूति सीआरपीएफ के लोगों के साथ भी है. नक्सलवादियों से लड़ाई के लिए तैनात और बेहद खतरनाक स्थितियों में रह रहे इन लोगों को नहीं पता कि वे वहां क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं. ऐसे ही एक सीआरपीएफ कर्मी से जब मेरी मुलाकात हुई तो उसका कहना था, ‘क्या साब, हमें तो कुछ समझ में ही नहीं आता. ये पॉलीटीशियन लोग तो मुर्गे लड़ा रहे हैं. हम नक्सल की गोली से नहीं मरेंगे तो मलेरिया से मर जाएंगे. ‘यहां नक्सलवादियों से लेकर सीआरपीएफ वालों तक सब जानते हैं कि बंदूक से समस्या हल नहीं होने वाली.

प्रकाश झा, हिन्दी सिनेमा के जानेमाने निर्देशक हैं. फोटो:अंकित अग्रवाल

भारत में आप नक्सलवाद की समस्या को किस तरह से देखते हैं?

जो भी तकलीफ और शोषण इन लोगों ने भोगा है वह इस आंदोलन का आधार है. उनके पास इस सब का जवाब देने के लिए बंदूक है. लोग कह सकते हैं कि जिस वजह से वे संघर्ष कर रहे हैं वह ठीक है लेकिन इसके लिए बंदूक को जरिया बनाना गलत है. मैं नक्सलवादियों से पूछता हूं कि जब सरकार उन लोगों तक विकास पहुंचाना चाहती है,  योजना आयोग निवेश के तौर-तरीके खोजना चाहता है तो आप मोलभाव करके यह क्यों नहीं परखना चाहते कि आपके इलाकों में विकास हो रहा है कि नहीं. असल में आप इसका रास्ता रोक रहे हैं. सरकार सड़क बनाती है तो आप उसे उड़ा देते हैं, स्कूल भी तोड़ देते हैं. तो बताएं कि चाहते क्या हैं? आप अबूझमाड़ या सारंडा जाकर देखिए, नक्सलवादी इसे लिबरेटेड जोन (मुक्त क्षेत्र) कहते हैं. यहां उनके ही नियम-कानून चलते हैं. तो अब यह देखना होगा कि क्या इससे वहां रह रहे लोगों को फायदा मिल रहा है. यही चक्रव्यूह है, युद्ध में एक ऐसी स्थिति के बीच फंस जाना जहां से निकलना मुश्किल हो. आपको समझना होगा कि जंगल, खदान और खनिज जो उनके इलाके में हैं, वहां उनका अधिकार है. यही उनकी कुल संपत्ति है. लेकिन वे खुद अब एक ऐसी परिस्थिति में फंस गए हैं जहां वास्तविक शर्तों के आधार पर मोलभाव नहीं कर सकते. अब वे बंदूक के दम पर सत्ता हासिल करने की बात कर रहे हैं.

क्या आपको कभी भी ऐसा लगा कि किसी घटना विशेष पर किसी पक्ष की हिंसा जायज है?

कभी नहीं. हिंसा को तो कभी जायज नहीं ठहराया नहीं जा सकता. इससे कभी हम समाधान तक नहीं पहुंच सकते. यही बात मैंने अपनी फिल्म में कही है. चक्रव्यूह में कबीर (अभय देओल) एसपी आदिली (अर्जुन रामपाल) का करीबी दोस्त है. कबीर अपने दोस्त की मदद करने के इरादे से विरोधी पक्ष में शामिल होता है लेकिन जब वह नक्सलवादियों के साथ जुड़ता है तब उसका वास्तविकता से सामना होता है और उसमें इस विचारधारा के प्रति सहानुभूति आ जाती है. जब देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 25 फीसदी हिस्सा सौ परिवारों तक सिमटा हो और देश के 75 फीसदी परिवारों को प्रतिदिन 30 रुपये से कम की आमदनी पर गुजारा करना पड़ रहा हो तो आपको यह नहीं लगता कि हमारा तंत्र खुद अपने आप में कितना हिंसक है? नक्सलवादी आंदोलन की रीढ़ यहीं है. क्योंकि इसी आधार पर वे वर्गहीन समाज और सबके लिए बराबरी के अवसर की बात कर रहे हैं. हमारे लोकतंत्र ने गरीबों के सामने सम्मान से जीने के मौके नहीं छोड़े हैं तो इस हिसाब से यह लोकतंत्र नहीं है.

क्या आपको इस बात का डर है कि चक्रव्यूह को लेकर सेंसर बोर्ड कुछ सवाल उठाएगा?

ऐसा कुछ नहीं होगा. एक तरफ हमारे यहां नक्सलवादी हैं, दूसरी तरफ सरकार है. मैंने फिल्म में दोनों तरफ से तटस्थ रवैया अपनाया है. सेंसर बोर्ड ने एक गाना पास करने से मना कर दिया था लेकिन अब वह भी फिल्म में शामिल है. हाल ही में मैंने सुना था कि एक गांव की जन मंडली इस फिल्म का गाना गा रही थी, ‘बिरला हो या टाटा, अंबानी हो या बाटा, सबने अपने चक्कर में देश को है काटा. ‘ बोर्ड का कहना था कि मैं इस गाने से उद्योगपतियों की मानहानि कर रहा हूं, हालांकि मैंने इन्हें सिर्फ प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया था. और वे चाहते हैं तो इसका डिस्क्लेमर फिल्म में दिखाया जाएगा.

लेकिन फिल्म में असली संदर्भों के प्रयोग की जरूरत क्यों है?

देखिए, यह तो हर कोई अपनी फिल्म में  करता है. फिल्म की शुरूआत में ही लिखकर यह दावा कर दिया जाता है कि फिल्म में दिखाई गई घटनाओं या व्यक्तियों का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है और यदि ऐसा होता है तो यह महज संयोग होगा. लेकिन इस बार मैं ऐसा नहीं करने वाला. संयोग वाली बात कहना मेरी तरफ से बेईमानी वाली बात होगी. मेरी फिल्म मृत्युदंड से लेकर अब तक की सभी फिल्मों के किरदार, घटनाएं और कथानक असल जिंदगी से लिए गए हैं.

चक्रव्यूह के जरिए क्या हासिल करना चाहते हैं?

यही कोशिश है कि एक ऐसा मुद्दा जिसमें दोनों पक्षों में भारी अविश्वास और अस्पष्टता है, को आम लोगों के सामने लाया जाए ताकि हम इसे समझना शुरू करें और समाधान की दिशा में आगे बढ़ पाएं. मैंने इस समस्या को हर कोण से देखने की कोशिश की है, समीकरणों पर से धुंध हटाने की कोशिश की है ताकि इसके समाधान की तरफ बढ़ा जा सके. हालांकि यह बहुत मुश्किल है क्योंकि खुद मुझे नहीं पता कि उचित समाधान क्या है. लेकिन मैं समस्या देख सकता हूं और मुझे यह सोचकर डर लगता है कि समय बीतने के साथ अविश्वास की खाई गहरी होती जा रही है.

आपकी फिल्म में महत्वपूर्ण क्या है, संदेश या कहानी?

जब तक मैं एक अच्छी कहानी नहीं कहूंगा तब तक आप फिल्म में दिलचस्पी नहीं दिखाएंगे और न इसे देखने आएंगे. यह एक लड़की के लिए लड़ रहे दो लड़कों की कहानी नहीं है. यह विचारधारा की लड़ाई है. साथ ही यह उनके अस्तित्व से जुड़ा हुआ सबसे बड़ा मसला है. यह एक चुनौती है और इसे दिखाना ही मेरा काम है जो मैं लगातार करता हूं.

‘सड़क देखने से पहले ही बाबा इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे’

खदेरू बाबा!  हम उन्हें बाबा ही कहते थे. वे जाति से धोबी थे. दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान में हुए मेरे दाखिले के बारे में उनको किसी ने बताया था. उन्हें बताया गया था कि पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद मेरे पास जिला कलेक्टर से भी ज्यादा पावरहोगी. दीपावली की छुट्टी में घर जाना हुआ था. एक दिन शाम के वक्त वे मिलने पहुंचे. आस-पास बैठे दूसरे लोगों के चले जाने के बाद उन्होंने धीरे से पूछा, ‘बाबू सुननी हअईं की तू बहुत दिल्ली में पढ़त बालअ, तनी डीएम साहेब पर जोर डाली के इअ सड़किया बन जाइत.

बाबा ने पूरे अधिकारपूर्ण अनुरोध के साथ यह बात कही. साथ ही सड़क की जरूरत, अपनी सामाजिक स्थिति और आस-पास के सामंती दुराग्रह की तमाम दास्तान उन्होंने बड़े तकलीफ से बयान की. दरअसल, सड़क का संकट उनके लिए सिर्फ आने-जाने की सुविधा का सवाल नहीं था. यह अपने स्वाभिमान को खड़ा करने और सामंती दबाव से उबरने का संघर्ष भी था. बहू-बेटियों की विदाई दरवाजे से हो, यह एक पिता का सपना होता है. मगर उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के उस गांव की तकरीबन आधी आबादी के लिए यह आज भी सपना सरीखा है. बाबा की तकलीफ सभी पीड़ित ग्रामीणों की अभिव्यक्ति थी जिसे भरोसे के साथ वे मुझसे साझा कर रहे थे. उन्होंने बताया कि सरकारी नक्शे में सड़क है लेकिन अगल-बगल के लोगों ने उस जमीन पर कब्जा कर रखा है.

वे इसे अपना खेत बताते हैं. इन्हीं खेतों के बीच में पगडंडियां हैं जिससे गांववाले मुश्किल से बाहर निकलते हैं. बरसात में तो इसकी हालत और बदतर हो जाती है. इसे भी अक्सर बंद कर दिया जाता है या रास्ते में कांटे रख दिए जाते हैं. बाबा यह भी बता रहे थे कि जिनका खेत रास्ते में पड़ता है वे दलित परिवारों को पगडंडी बंद करने की अक्सर धमकी देते हैं, अपने यहां काम करने का दबाव डालते हैं और अभद्रता से पेश आते हैं. उन्होंने यह भी बताया कि हरेक नया ग्राम प्रधान यह सब समस्याएं दूर करने का वादा तो करता है मगर चुनाव के बाद बड़ी कुटिलता से अपने आश्वासन से किनारा कर लेता है. गांव में लोगों को यह विश्वास है कि एक पत्रकार अपने प्रभाव के जरिए प्रशासनिक अमले से सड़क का निर्माण मुकम्मल करवा सकता है.

बहरहाल, पढ़ाई के बाद कुछ दिन की बेरोजगारी झेलकर एक न्यूज एजेंसी में काम किया, फिर दिल्ली के ही एक अखबार में नौकरी मिल गई. इससे पिता जी के आत्मविश्वास को बल मिला जिसकी बदौलत वे तमाम अड़चनों से निपटते हुए सड़क बनवाने में कामयाब रहे. पर आधी-अधूरी. फिर भी बाबा के दरवाजे तक सड़क पहुंचने की मन में एक तसल्ली थी. लेकिन पता चला कि उसे देखने से पहले ही बाबा इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे. वहीं बाकी ग्रामीण अभी भी सड़क से जुड़ने की उम्मीद संजोए हुए हैं.

कभी-कभी ऐसा लगता है किसी भयानक सपने में कोई शैतान मेरा गला दबा रहा हो. या मैं गहरे पानी में डूब रहा हूं और कंठ में आवाज अटकी पड़ी है. यह संकट उन ग्रामीणों के आत्मविश्वास की लड़ाई में मददगार न बनने के अपराधबोध से उपजा है जो मुझे शब्दहीन और अपंग बनाता है. आखिर पत्रकारिता का अर्थ क्या है, यह ताकत है या लोकतंत्र को कारगर बनाए रखने का उपकरण. अनुभव कहता है कि दिग्भ्रमित राजनीति के दौर में पत्रकारिता संचार का माध्यम होने भर से ज्यादा कुछ भी नहीं है. वॉयस ऑफ वायसलेसहोकर भी वॉयसलेस है. इसे लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में पेश किया जाता है लेकिन आज पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग निरीह बनकर रह गया है.

सामान्य-सी समस्या को सत्ता तक पहुंचा न पाने का मुझे मलाल रहेगा. पता नहीं बाबा को किस खबरनवीस ने ये खबर सुना दी थी कि पत्रकार के पास जिला कलेक्टर से ज्यादा पावर होती है. बाबा, माफ करना. मैं तुम्हारी सड़क नहीं बनवा सका. सड़क भी देखे बिना न जाने कितने बाबा दुनिया से चले गए. बाबाओं को इस तरह तकलीफों से भरकर जाते देखना मुझ जैसों की अपंगता ही तो कही जा सकती है.

एक रैंक-एक पेंशन विवाद

क्या है वन रैंक-वन पेंशन का मामला?   

सेवानिवृत्त सैनिकों को मिलने वाली पेंशन में असमानता के चलते देश भर के लाखों पूर्व सैनिक प्रभावित हो रहे हैं. इन्हीं असमानताओं के विरोध में पूर्व सैनिक पिछले 30 साल से ‘वन रैंक-वन पेंशन’ की मांग कर रहे हैं. ‘वन रैंक-वन पेंशन’ का तात्पर्य है कि समान वर्ष तक सेवा प्रदान करने वाले और एक ही पद से सेवानिवृत हुए सैनिकों को (चाहे उनके सेवानिवृत्त होने की तिथि कोई भी हो) समान पेंशन दी जाए जिसमें सभी वृद्धियां शामिल हों. वर्तमान में 2006 से पहले और उसके बाद सेवानिवृत्त हुए सैनिकों की पेंशन में यह अंतर सबसे ज्यादा है. पूर्व सैनिकों की मांग है कि उनकी पेंशन समान की जाए.

क्या है सरकार का रुख? 

पेंशन के इस अंतर को कम करने हेतु केंद्र सरकार द्वारा पहले भी दो बार पूर्व सैनिकों की पेंशन में वृद्धि की जा चुकी है. इसके बाद भी जब ‘वन रैंक-वन पेंशन’ का मुद्दा नहीं सुलझाया जा सका तब प्रधानमंत्री ने कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय जांच समिति का गठन किया. समिति के निर्देशानुसार 24 सितंबर को सैनिकों की पेंशन में वृद्धि हेतु 2,300 करोड़ रूपये स्वीकृत किए गए. इस स्वीकृति के साथ ही यह घोषणा भी की गई कि ‘वन रैंक-वन पेंशन’ का मुद्दा सुलझाया जा चुका है. 

इस घोषणा के बाद भी पूर्व सैनिक क्यों नाराज हैं?   

 2,300 करोड़ रुपये स्वीकृत करके सरकार पेंशन के इस अंतर को कम करने का दावा कर रही है, मगर पूर्व सैनिकों की मांग है कि इस अंतर को कम नहीं बल्कि पूर्ण रूप से खत्म किया जाए. पेंशन में इससे थोड़ी वृद्धि हुई है, मगर अब भी 2006 से पहले और उसके बाद एक ही पद से सेवानिवृत्त हुए सैनिकों की पेंशन में भी अंतर मौजूद है. पूर्व सैनिकों के अनुसार ‘वन रैंक-वन पेंशन’ का उद्देश्य यह भी है कि किसी भी अवस्था में किसी सीनियर को अपने जूनियर से कम पेंशन ना मिले. इस घोषणा के बाद भी यह उद्देश्य अधूरा है.

-राहुल कोटियाल

कौन बोलेगा वहां हिंदी?

जब हमारे किसी प्रतिनिधि को संयुक्त राष्ट्र में हिंदी बोलने की जरूरत ही महसूस नहीं होती तो वहां हिंदी को मान्यता दिलाने से क्या होगा?

जोहानिसबर्ग में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में फिर से यह प्रस्ताव पारित हुआ है कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को मान्यता दिलाने की मुहिम आगे बढ़ाई जाए. किसी भी हिंदीभाषी या हिंदी प्रेमी के भीतर यह सहज कामना होनी चाहिए कि उसकी भाषा हर जगह बोली या समझी जाए और उसे हर मंच पर सम्मान मिले.  इसलिए विश्व हिंदी सम्मेलन में ऐसे किसी प्रस्ताव पर किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए.

लेकिन क्या संयुक्त राष्ट्र में अभी हिंदी बोलने पर पाबंदी है?  वहां अब भी किसी भी भाषा का इस्तेमाल किया जा सकता है, नियम बस इतना है कि उस भाषण का   अनुवाद सिर्फ छह मान्यता प्राप्त भाषाओं- चीनी, अंग्रेजी, अरबी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनी- में होगा. 1977 में विदेश मंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी ने जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था तो उन्होंने कोई नियम नहीं तोड़ा था. लेकिन 1977 से पहले और उसके बाद अब तक क्या किसी दूसरे विदेश मंत्री ने वहां हिंदी या किसी दूसरी भारतीय भाषा में बोलने की जरूरत महसूस की? अगर नहीं तो फिर संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को मान्यता दिलाकर क्या होगा? क्या हम इससे खुश होंगे कि वहां हमारे प्रतिनिधियों के अंग्रेजी भाषणों के हिंदी अनुवाद की व्यवस्था हो गई है?

सच तो यह है कि चंद भावुक या होशियार हिंदीप्रेमियों के अलावा किसी और को संयुक्त राष्ट्र या किसी भी मंच पर हिंदी को मान्यता दिलाने का सवाल नहीं सताता. भाषा हमारे राजनीतिक व्यवहार, सरोकार और एजेंडे से पूरी तरह बाहर हो चुकी है. कभी हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान का इकहरा और बेमानी नारा देने वाले जनसंघ की राजनीतिक वारिस भारतीय जनता पार्टी को अब उस नारे की व्यर्थता खूब समझ में आती है-इसलिए नहीं कि उसने अपनी भाषा नीति पर कोई विशेष चिंतन किया है, बल्कि इसलिए कि भाषा और वोट के बीच बढ़ती दूरी देखते हुए वह भाषा के सवाल में अपनी दिलचस्पी खो बैठी है.

एक दौर में डॉ राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी राजनीति ने जरूर भारतीय भाषाओं का सवाल उठाया, लेकिन वह धारा भी न जाने कब की तिरोहित हो चुकी है. उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जरूर हिंदी का इस्तेमाल करते हैं लेकिन समाजवादी पार्टी के राजनीतिक एजेंडे में भाषा का सवाल किस हाशिये पर है, किसी को नहीं मालूम. जबकि कांग्रेस ने कभी विचारधारा वाला दल होने का दावा नहीं किया. वह हमेशा से अलग-अलग शक्तियों का एक उलझा हुआ संतुलन साधती रही जिसने सुविधापूर्वक खुद को भाषा के सवाल से अलग रखा और अंग्रेजी की छतरी ताने रखी.

दरअसल सच्चाई यह है कि आज के भारत का राजनीतिक प्रतिष्ठान- चाहे वह ममता या वाम मोर्चे द्वारा शासित पश्चिम बंगाल हो या द्रमुक या अन्ना द्रमुक द्वारा शासित तमिलनाडु या कांग्रेस-राकांपा या शिवसेना-बीजेपी द्वारा शासित महाराष्ट्र- वैश्विक अंग्रेजी के आगे पूरी तरह घुटने टेक चुका है. हमारी राजनीति इतनी सतही और भोथरी हो चुकी है कि वह बस बिल्कुल तह पर चल रही प्रक्रियाएं देख पाती है और उसी के ढंग से अपनी प्रतिक्रियाएं तय कर पाती है. यह बात उसे कतई समझ में नहीं आती कि देशों के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में भाषाओं की अहम भूमिका होती है. भाषाएं राष्ट्र का मानस गढ़ती हैं.

या अगर यह बात समझ में आती भी हो तो एक तरह की आम सहमति इस पर बनी हुई है कि अब अंग्रेजी ही इस मुल्क का दिमाग तैयार करेगी. तमाम राज्यों में जिस तरह अंग्रेजी पढ़ने पर जोर दिया जा रहा है, जिस तरह भाषाई माध्यमों के स्कूलों की अनदेखी करके अंग्रेजी माध्यमों के स्कूलों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिस तरह हमारे पूरे मध्यवर्गीय समाज में अंग्रेजी की जरूरत बिल्कुल मानसिक स्तर पर रोप दी गई है, उसे देखते हुए यह साफ है कि भारतीय भाषाओं की लड़ाई कहीं पीछे छूट चुकी है अंग्रेजी इस देश के शासक वर्ग की नई भाषा है.

 काश कि इस देश में कोई एक राजनीतिक दल होता जो भारतीय भाषाओं में रोटी और रोजगार मुहैया कराने का आंदोलन छेड़ता. लेकिन आज के भारत में ऐसे आंदोलन की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं? सच तो यह है कि इस ग्लोबल दुनिया में जैसे हमने मान लिया है कि हमारा विकास अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों-संस्थाओं और भाषाओं की मार्फत ही हो सकता है. हमें अपनी आर्थिक खुशहाली के लिए अंतरराष्ट्रीय पूंजी चाहिए, अपने मनोरंजन के लिए हॉलीवुड की फिल्में चाहिए, अपनी समझ के लिए बाहर से आई किताबें चाहिए और ज्ञान व संवेदना के इन सारे स्रोतों तक पहुंचने के लिए भाषा के तौर पर अंग्रेजी चाहिए. अंग्रेजी की इस विराट अपरिहार्यता के आगे हिंदी की जरूरत किसे है और कितनी है?

बेशक, जरूरत है और बहुत सारे लोगों को है. सवा अरब के भारत में एक अरब से ज्यादा लोग अब भी भारतीय भाषाओं के सहारे अपना जीवनयापन कर रहे हैं, लेकिन उनके जीवन, उनकी संस्कृति, उनके समाज के साथ वही सलूक हो रहा है जो उनकी भाषाओं के साथ हो रहा है- दोनों मर्मांतक उपेक्षा के शिकार हैं. उनके सामने चुनौती है कि वे या तो बदल जाएं या फिर विलुप्त हो जाएं. बाकी 20-25 करोड़ की आबादी या तो अंग्रेजी के साथ चल रही है या फिर उससे गठजोड़ करके काम चला रही है.

दुनिया भर में घूम कर हिंदी सम्मेलन करने वाले और संयुक्त राष्ट्र में हिंदी की मान्यता का प्रस्ताव पास करने वाले या तो इस चुनौती से बेखबर हैं या उन्होंने इससे आंखें मूंद रखी हैं. वरना वे संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को मान्यता दिलाने की मुहिम चलाने से पहले निजी स्कूलों और सामाजिक जीवन के दूसरे व्यवहारों में हिंदी को मान्यता दिलाने का आंदोलन चलाते. और याद रखते कि ऐसा आंदोलन अकेले हिंदी का नहीं हो सकता, इसे सभी भारतीय भाषाओं के साथ  मिलकर ही चलाया जा सकता है. 

उधर कुआं, इधर खाई

लगातार बढ़ते वित्तीय घाटे ने मनमोहन सरकार को इस हालत में ला पटका है कि वह कुछ करे तो मुश्किल है और न करे तो और भी बड़ी मुसीबत है.

कांग्रेसनीत यूपीए सरकार अगर अचानक ही एक के बाद एक आर्थिक फैसले लेने लगी है तो उसके पीछे का संदर्भ जानना भी जरूरी है. 31 अगस्त को भारत के लेखा महानियंत्रक ने जो आंकड़े जारी किए वे बताते हैं कि इस बार बजट में पूरे साल के लिए जितने वित्तीय घाटे का अनुमान लगाया गया था उसमें से 51.5 फीसदी घाटा तो इस वित्तीय वर्ष के पहले चार महीने में ही हो चुका है. मार्च में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने वादा किया था कि वित्तीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 5.1 फीसदी से आगे नहीं बढ़ने दिया जाएगा. अब चिंता जताई जा रही है कि यह आंकड़ा छह फीसदी को पार कर सकता है. गौरतलब है कि 2011-12 में सरकार ने वित्तीय घाटे को 4.6 फीसदी तक सीमित रखने का वादा किया था लेकिन साल बीतते-बीतते यह रहा 5.9 फीसदी. 

दरअसल लगातार दो साल के बेलगाम सार्वजनिक व्यय से देश का वित्तीय तंत्र चरमरा गया है. अंतरर्राष्टीय रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग बुरी तरह से गिराने के लिए तैयार बैठी हैं. इस साल तो सरकार के पास पिछले साल जैसा बहाना भी नहीं है जब तेल के दाम बहुत ऊंचे थे और कच्चे तेल के आयात और उस पर दी जाने वाली सब्सिडी से राजकोषीय घाटे पर बहुत ज्यादा दबाव था. आज तो स्थिति उलट है. 2012 में कच्चे तेल के दाम गिरे हैं. इसलिए सरकार की पहली प्राथमिकता वित्तीय घाटे पर अपेक्षित लगाम लगे, ऐसी स्थिति बहाल करना है. गौरतलब है कि डीजल के दाम पांच रु प्रति लीटर बढ़ाने और सस्ते एलपीजी सिलेंडरों पर एक सीमा बांधने से भी1,87000 करोड़ रु के तेल सब्सिडी बिल में महज 11 फीसदी की कमी आएगी.

सीधी-सी बात है कि घाटा कम करना है तो या तो खर्च में कमी लानी होगी या फिर आय यानी राजस्व के स्त्रोत बढ़ाने होंगे

अब सीधी-सी बात है कि घाटा कम करना है तो या तो खर्च में कमी लाइए या फिर आय यानी राजस्व के स्रोत बढ़ाइए. यह घाटा असाधारण रूप से ज्यादा हो गया है तो इसका एक कारण यह भी है कि पिछले आठ साल में यूपीए सरकार ने लोकलुभावन योजनाओं पर बेतहाशा खर्च किया है. कर्ज माफी सहित तमाम कल्याणकारी योजनाओं ने सरकारी खजाने पर बुरा असर डाला है. अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के चलते कांग्रेस को यह लोकलुभावन राह छोड़ना मुश्किल लग रहा है. 2013 के बजट सत्र में आने वाला खाद्य सुरक्षा बिल वित्तीय घाटे के इस बोझ में और बढ़ोतरी ही करेगा. 

अब सरकार के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह आय के स्रोत बढ़ाए. यानी ज्यादा राजस्व का इंतजाम करे. लेकिन पिछले कुछ साल के दौरान विकास पहले जैसी रफ्तार से नहीं हो रहा इसलिए कर संग्रह में भी अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हो पा रही. यानी लीक से हटकर कुछ सोचना होगा. वित्त मंत्री पी चिदंबरम कुछ अस्थायी इंतजामों से उम्मीद कर रहे हैं. जैसे कि टूजी स्पेक्ट्रम की नीलामी जो जनवरी, 2013 से पहले होनी है. सरकार भले ही ए राजा के समय हुए आवंटनों का बचाव करे लेकिन सच्चाई यह है कि इन आवंटनों के रद्द होने से उसे एक तरह से फायदा ही हुआ है. नीलामी के लिए रिजर्व प्राइस यानी एक तय कीमत 14,000 करोड़ रु रखी गई है. यह रकम संकट के इस समय सरकार के बहुत काम आएगी.

इसके बाद दूसरा जरिया है चुनिंदा सार्वजनिक उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी का विनिवेश. मार्च, 2012 में जब बजट पेश हुआ था तो उसमें इस रास्ते के माध्यम से 30 हजार करोड़ रु जुटाने का लक्ष्य रखा गया था. 2011 में यह लक्ष्य 40 हजार करोड़ रु रखा गया था, लेकिन साल के आखिर में 14 हजार करोड़ रु ही जुटाए जा सके. इस साल यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है बशर्ते शेयर बाजार का रुख सकारात्मक रहे. इसके लिए अच्छे संकेत जाने जरूरी हैं और वित्त मंत्री की सारी कवायद इसी दिशा में केंद्रित लगती है. रीटेल या उड्डयन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेश निवेश का फैसला लेने या रेट्रोएक्टिव टैक्स (पुराने सौदों पर लगने वाला कर) पर ढील का रुख दिखाने का मकसद यही है कि अर्थव्यवस्था में कुछ उम्मीद का संचार हो. सरकार के ये कदम उसकी मजबूरी हैं.

इस हकीकत को देखते हुए कांग्रेस के लिए यही एक रास्ता होगा कि वह लोगों के सामने खुद को इस तरह पेश करे कि वह तो आर्थिक सुधारों के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन तृणमूल कांग्रेस इस राह में अड़ंगा लगा रही है. अगर चौतरफा आलोचना के बीच वह लोगों को यह समझाने में कामयाब हो जाती है तो उसके लिए यह एक बड़ी उपलब्धि होगी.