‘वह चाह रही थी कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए’

अवसरों की समानता के सरकारी दावे सुनकर मुझे अक्सर सुशीला की याद आ जाती है. हैदराबाद से 10वीं की पढ़ाई करके मैं गोरखपुर स्थित अपने गांव आई थी कि तभी पापा का तबादला हो गया. मेरा नाम अब गोरखपुर के ग्रामीण अंचल के ही एक स्कूल में लिखवा दिया गया. अपनी स्थिति में आए इस अचानक बदलाव से मैं तालमेल नहीं बिठा पाई और बेहद गुस्से में रहने लगी. मैं कक्षा में सबसे पीछे की बेंच पर अकेली बैठती और दोस्ती की कोशिश करने वाले किसी भी लड़के या लड़की को अपने काम से काम रखने की नसीहत दे डालती.

ऐसे ही चार-पांच दिन बीते होंगे कि एक दिन एक सांवली-सी लड़की मेरे बगल में आकर बैठी. उसकी मांग में सिंदूर लगा हुआ था. वह सुशीला थी. शायद उस सिंदूर के चलते उठी जिज्ञासा ने मुझे उससे बात करने के लिए प्रेरित किया. मैंने उससे पूछा, ‘तुम्हारी शादी हो गई है क्या?’ उसने शर्माते हुए हां में गरदन हिलाई. सुशीला एक गरीब दलित लड़की थी, लेकिन पढ़ाई में बेहद होशियार. उसने 10वीं कक्षा में उस स्कूल में टॉप किया था. वह अपने सपनों के बारे में बात करती. सुशीला पुलिस इंस्पेक्टर बनना चाहती थी. मुझे लगता था कि इसमें कोई दिक्कत भी नहीं आएगी. उसमें काबिलियत की कोई कमी नहीं थी. 

धीरे-धीरे हमारी खूब जमने लगी. मैं गाहेबगाहे उसकी मदद करना चाहती, लेकिन वह बहुत स्वाभिमानी थी. मैं अक्सर उसके गांव जाती. वह खेतों में भैंस लेकर जाती और मैं उसके पीछे-पीछे हो लेती. हमारी दोस्ती खूब मशहूर हो गई थी. कक्षा 11 की पढ़ाई के बाद अचानक उसका स्कूल आना बंद हो गया.

सुशीला से दोबारा बात तब हुई जब मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही थी. एक दिन अचानक उसका फोन आया. उसने बताया कि ससुराल वालों ने गौना करा दिया और पढ़ाई बंद कर दी. उसने यह भी कहा कि उसकी शादी झूठ बोल कर की गई और पति पढ़ा-लिखा नहीं है. दिल्ली में किसी गारमेंट फैक्टरी में मजदूर का काम करता है. मैंने उसका हालचाल लिया और सब कुछ ठीक हो जाने का झूठा दिलासा देकर अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गई.

सुशीला से आखिरी बार बात हुए तीन साल से ज्यादा समय बीत चुका था. मैंने पत्रकारिता को बतौर पेशा अपना लिया था और इसी में रम गई थी. लगातार तबादलों के बीच यहां वहां घूमते हुए मैं आखिरकार राजधानी दिल्ली आ गई थी. अपने लिए मैंने नया घर किराये पर लिया था. घर पूरी तरह अस्त-व्यस्त था और मैं अपनी नई कामवाली का इंतजार कर रही थी जिसे भेजने का वादा मेरी नई पड़ोसन ने किया था.

शाम को अचानक दरवाजे की घंटी बजी. मैंने दरवाजा खोला. पांवों तले जमीन खिसक जाने का मुहावरा मेरे साथ अपनी पूरी ताकत के साथ घटित हुआ. मेरे सामने मेरे बचपन की दोस्त सुशीला खड़ी थी. दो-ढाई साल के बेटे को गोद में लिए. उसे शायद मुझे पहचानने में कुछ वक्त लगा. लेकिन एक बार पहचान लेने के बाद उसने जमीन से निगाहें नहीं उठाईं. वह शायद चाह रही थी कि धरती सच में फट जाए और वह उसमें समा जाए. मैंने उसका हाथ पकड़कर उसे अंदर खींच लिया. हम दोनों चुपचाप थे. मेरी आंखों की कोर भीग गई थी. सुशीला निःशब्द थी. शायद जिंदगी के दुखों ने उसके भीतर का भावनाओं का झरना सुखा डाला था. कहने-सुनने को बहुत कुछ था, लेकिन सुशीला चुपचाप चली गई. लोगों ने बताया कि उस दिन के बाद वह कॉलोनी में लौटी ही नहीं.

मेरी आंखों में कई दिनों तक आत्मविश्वास से भरपूर कक्षा की टॉपर जिंदादिल सुशीला का चेहरा नाचता रहा. मैं खुद को सुशीला की जगह रखकर देखना चाहती हूं, लेकिन इस बात की कल्पना तक नहीं कर पाती. आखिर सुशीला की इस हालत के जिम्मेदार कौन लोग हैं? मैं सोचती हूं कि कानून में सपनों की हत्या के लिए सजा का प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए?  

-लेखिका पूजा सिंह तहलका से जुड़ी हैं और दिल्ली में रहती हैं.