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सही है जो, क्यों न हो

जीवित रहने के लिए हर समाज को खुश रहने और भूलते रहने की आवश्यकता होती है. हल्की-फुल्की बेवकूफियां और स्मृतिलोप न हों तो जीवन एक बोझ बनकर बस काटने भर का रह जाएगा जीने लायक नहीं.

मगर याद रखना और दुखों से दो-चार होना भी कम जरूरी नहीं. कुछ दुख ऐसे होते हैं जिन्हें भूलना उचित नहीं और कुछ घाव ऐसे होते हैं जिन्हें खुला रखने की हिम्मत करनी ही चाहिए, ताकि उनके पीछे की कहानियों से जरूरी सबक लिए जा सकें. अगर ये दुख और घाव अन्याय होने और न्याय पाने के संघर्ष का हिस्सा हों तब ऐसा किया जाना और भी जरूरी है. जब कोई व्यक्ति सभ्यता के मान्य सिद्धांतों के बाहर जाकर कुछ भी अमानवीय करता है तो फिर उसे अपने ऐसे किए का दंश भुगतना ही चाहिए. जब कोई अपनी पाश्विक वृत्तियों के चलते दूसरों के साथ गलत करता है तो उसे शर्म और पछतावे के ताप को अनुभव करना ही चाहिए.

जो सामाजिक सौहार्द को बढ़ाने या बिगड़ने से रोकने के नाम पर हमें 2002 के गुजरात या 1984 की दिल्ली को भूल जाने को कहते हैं, वे गलत हैं. हम अपनी गलतियों को दुरुस्त नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें दोहराते रहते हैं. गलतियों का यह दोहराव हमें कभी सुधरने नहीं देता.

यहूदी अपने भीषण दुखों को बड़े जतन से सहेजते हैं और उन्हें ऐसे हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं जो उनकी सुरक्षा करता है और कुछ करने के लिए उकसाता है. हमें अपनी विविधताओं-जटिलताओं के चलते और वैसे भी ऐसे किसी उकसावे की जरूरत नहीं, लेकिन जो कुछ नरौदा-पाटिया मामले में हुआ वैसा तो किया ही जाना चाहिए. मायाबेन कोडनानी (तस्वीर में) और बाबू बजरंगी को उनके अपराधों की सजा अदालत ने दी है न कि किन्हीं ऐसों ने जो संविधान के दायरे के बाहर जाकर काम कर रहे थे. हमें अपने दुखों को याद करने, उन्हें दूर करने और खुद को सुधारने के लिए ऐसे ही रास्तों को अपनाना होगा. थका देने वाले कानून के ऐसे रास्ते जिन पर गवाहियों और सबूतों के पहाड़ों को काटकर हमें बिना थके आगे बढ़ना होता है.

वर्ष 2002 में तीन दिन तक गुजरात पर मानो कहर बरपा. 10 साल में ही सही न्याय की किताब के कुछ पन्नों को बंद करने का काम शुरू हो गया है. हम सभी को इस पर गर्व होना चाहिए. 2002 में तीन दिन तक हजारों हिंदू अपने बारे में एक बाहरी और खतरनाक विचार के बहकावे में रहे. मगर पिछले 10 साल में सैकड़ों हिंदू – वकील, सामाजिक कार्यकर्ता पत्रकार, राजनेता – पीड़ित और मारे गए मुसलमानों के न्याय और अधिकार की लड़ाई भी लड़ते रहे. हम सभी को इस पर भी अभिमान होना चाहिए.

भले ही गुजरात, संघ परिवार की अतियों का परिणाम हो, राजधर्म के बोध का खत्म होना एक बड़ी समस्या है और इससे कोई भी दल या सरकार अछूती नहीं है. हमारे चारों ओर कानून के मुताबिक चलने वाले ऐसे शासन का वायदा, जो आंखों और दिल दोनों को ठीक लगे, तार-तार पड़ा नजर आता है. हद दर्जे की धूर्तता और लालच के दो पैरों पर खड़ा शासन हमें हर बीते दिन के साथ कुछ और भी छोटा किए जा रहा है. यहां भी हमें गुजरात के अभियान से ही अपने पाठ सीखने होंगे. हमें असंवैधानिक तरीकों की बजाय कानून के दायरे में रहकर, जरूरी तर्कों और संयमित भाषा में, सिद्धांतों न कि छुद्र पहचान के आधार पर जुटाए लोगों के बल पर अपनी लड़ाई लड़नी होगी

‘सरकार के पास सिर्फ 6 महीने का वक्त है'

2007 में भी सरकार आपसे वादा करके मुकर चुकी है. ऐसे में आप इस समझौते पर कितना विश्वास करते हैं?

2007 की पदयात्रा के बाद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक आयोग और विशेषज्ञों की समिति का गठन हुआ था. आयोग ने कोई भी काम नहीं किया, लेकिन समिति ने अपना काम किया और अपनी रिपोर्ट में 300 सुझाव दिए. यह रिपोर्ट हमारे लिए एक हथियार बनी. इस बार भी टास्क फोर्स का गठन एक बड़ी सफलता है जिसके साथ मिलकर हम आगे की लड़ाई लड़ सकते हैं.

आंदोलन के चरम पर आते ही कई बड़े नाम आपके साथ जुड़ गए. कहीं ये लोग आपके आंदोलन से अपने राजनीतिक हित तो नहीं साध रहे हैं?

मध्य प्रदेश हमारा कार्यक्षेत्र होने के कारण वहां के मुख्यमंत्री से हमारे पुराने संबंध हैं. मैं गरीबों और भूमिहीनों के हितों से जुड़े कई काम उनसे करवाता रहा हूं तो उनका हमारे आंदोलन से जुड़ना स्वाभाविक है. स्वामी अग्निवेश भी भूमिहीनों के आंदोलनों से काफी समय से जुड़े रहे हैं और बाबा रामदेव को हमने ही आमंत्रित किया था. मैंने बाबा के भाषणों में उन्हें जल-जंगल-जमीन की बातें करते सुना था. तो मैंने ही उन्हें कहा कि आप जल-जंगल के अधिकारों की बात करते हैं तो हमारे साथ आइए.

क्या कारण थे कि जो बात ग्वालियर में नहीं बन पाई वह आगरा में बन गई?

समझौता तो ग्वालियर में ही होना तय हुआ था. जयराम रमेश के साथ 16 मुद्दों पर हमारी सहमति भी बन गई थी.  परंतु उन पर शायद मंत्रिमंडल या प्रधानमंत्री कार्यालय का दबाव था जो कि आखिरी समय में समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया गया. शायद केंद्र सरकार को यह भी डर था कि यदि यहां हस्ताक्षर कर दिए तो पूरे भारत में हो रहे आंदोलनों पर समझौता पत्र लिखित में न देना पड़ जाए. मगर आंदोलन का दबाव इतना बढ़ चुका था कि सरकार को आगरा में समझौता करना ही पड़ा.

क्या आपकी सभी मांगों को समझौते में शामिल किया गया है?

कई मुद्दों को टास्क फोर्स पर छोड़ दिया गया है, जैसे कि महिलाओं को भूमि अधिकार दिलाना. टास्क फोर्स का गठन ही एक बड़ा कदम है. सच्चर कमिटी जैसी कई रिपोर्टों टास्क फोर्स द्वारा खोली जाएंगी और उन पर काम होगा. इसमें काबिल लोगों को शामिल किया जाएगा. राज्यों का सहयोग भी इसमें बहुत जरूरी है. अब हम राज्यों के पास भी यह दस्तावेज लेकर जाएंगे और उनसे बात करेंगे.

जन सत्याग्रह पर हुए समझौते के किन बिंदुओं को आप भूमि सुधार की दिशा में सबसे अहम मानते हैं?

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भूमिहीनों को आवासीय भूमि देने की दिशा में यह पहला कदम है. राइट टू लैंड फॉर शेल्टरकी जो धारणा है वह इससे हासिल होती दिखती है. दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है गरीबों को कृषि योग्य भूमि उपलब्ध करवाना. इस समझौते से इन दोनों ही उद्देश्यों के रास्ते खुले हैं.

किन मुद्दों पर राजी होने से सरकार सबसे ज्यादा कतरा रही थी?

केंद्रीय नीति लागू करवाना सबसे बड़ी चुनौती थी. भूमि को राज्यों का विषय बताकर केंद्र सरकार हमेशा इस मुद्दे को टालना चाहती थी. हमारा तर्क था कि भूमि अधिग्रहण कानून, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और खान एवं खनिज संबंधी कई कानून केंद्रीय कानून हैं. फिर भूमि सुधार हेतु एक राष्ट्रीय नीति क्यों नहीं हो सकती?

समझौता पत्र पर हस्ताक्षर होने को आप आंदोलन की सफलता मानते हैं?

जी हां, मानता हूं. सार्वजनिक रूप से समझौता पत्र पर हस्ताक्षर होना आंदोलन की सफलता के साथ ही आम लोगों और अहिंसा की भी जीत है. आंदोलनों से निराशा के इस दौर में तो यह समझौता सभी के लिए उम्मीद जगाता है. साथ ही इस आंदोलनों से भूमि सुधार का मुद्दा एक बार फिर से राष्ट्रीय पटल पर आया है वरना इसे तो लोग भूल ही चुके थे. यहां तक कि भूमि सुधार की बात करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भी इस मुद्दे को पीछे छोड़ चुकी थीं.

यदि सरकार फिर से अपने वादों से मुकर जाती है तो आप क्या करेंगे?

छह महीने के भीतर यदि सरकार मांगें पूरी नहीं करती तो हम फिर से जन आंदोलन करेंगे. हम लोग मरने से नहीं डरते और सरकार यह जानती है. पिछली यात्रा में हमारे 13 साथियों की जान चली गई थी. दिन में एक बार खाना खाकर और पूरे दिन पैदल चलकर हम  लक्ष्य तक पहुंचते हैं. जिस गरीबी को लोग कमजोरी मानते हैं, हमने अपनी उसी कमजोरी को अपनी ताकत बनाया है. हमारी इस ताकत से सरकार भी घबराती है. इसीलिए ग्वालियर से आगरा आने तक ही सरकार को मानना पड़ा. यदि सरकार मुकरी तो लाखों लोगों का समूह अपने हक लेने दिल्ली आ पहुंचेगा.

सहकारिता से चुनावी सबक

मध्य प्रदेश में सहकारी संस्थाओं पर सत्तासीन होने के लिए भाजपा और कांग्रेस के बीच की उठापटक के साथ ही आगामी विधानसभा का चुनावी बिगुल भी बज गया है. असल में यह 2013 के चुनाव के ठीक पहले का ऐसा मुकाबला है जिसमें दोनों पार्टियां अपनी-अपनी ताकत और जनता की नब्ज टटोल लेना चाहती हैं. ये जानती हैं कि हर गांव में अपनी मौजूदगी दर्ज करने वाली यहां की पांच हजार से अधिक सहकारी संस्थाएं एक ऐसा क्षेत्र बनाती हैं जिससे 70 लाख किसान सदस्य सीधे जुड़े हैं. यही क्षेत्र सूबे का सबसे बड़ा राजनीतिक नेटवर्क है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ऐसी रीढ़ भी है जिस पर यदि किसी तरह सवार हो गए तो राजनीतिक दल इसके असीमित संसाधनों के दम पर आने वाले कई चुनावों में लाभ लेने की स्थिति में होंगे. यही वजह है कि राज्य में सत्ता की लगाम थामे भाजपा एक बार फिर कानून की आड़ लेकर इस रीढ़ पर सवार होने की तैयारी में है.

किंतु कांग्रेस भी कानून के ही कुछ ऐसे दांव खेल रही है जिससे भाजपा की सवारी तो मुश्किल में पड़ ही गई है, पहली बार सहकारिता के चुनावों के चलते राजनीति का पारा भी अचानक काफी ऊपर चढ़ गया है.
इस चढ़े हुए पारे को जानने से पहले थोड़ा इसकी अंतर्कथा को जान लेना दिलचस्प रहेगा. दरअसल सूबे की सहकारी संस्थाएं देश की सबसे पुरानी संस्थाओं में से हैं और शुरुआत से कांग्रेस के सत्ता में रहने के चलते उसके समर्थकों का ही इन पर कब्जा भी था. राजनीतिक प्रेक्षकों के मुताबिक अस्सी के दशक में पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अर्जुन सिंह ने कांग्रेस की नींव मजबूत बनाने के लिए अपनी पार्टी के जिन सुभाष यादव को अपेक्स बैंक का अध्यक्ष बनाया था उन्होंने तीस साल से अधिक समय तक कभी अपनी कुर्सी बचाने तो कभी अपनों को कुर्सियों पर लाने के लिए कानूनों को मन-मुताबिक तोड़ा-मरोड़ा. सहकारिता को सत्ता की वैकल्पिक सीढ़ी बनाते हुए पूर्व उपमंख्यमंत्री के पद तक पहुंचने वाले यादव सहकारिता के नेटवर्क को इतना मजबूत मानते थे कि एक जमाने में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेटवर्क से मुकाबला करने के लिए सरस्वती शिशु मंदिर की तर्ज पर सहकारिता स्कूल खोलने तक की वकालत की थी. उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ही राज्य में सहकारिता का एक ऐसा बहुस्तरीय (प्राथमिक सहकारी समिति से लेकर अपेक्स बैंक तक) ताना-बाना बुना था जिसमें लाखों वेतनभोगी कर्मचारियों को सत्ता का साथ देने के लिए एक सहायक कैडर के तौर पर उपयोग में लाया जाने लगा.

बीते सात साल से सहकारिता पर काबिज भाजपा भी यह भलीभांति जानती है कि सहकारिता इतना बड़ा सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम है जिससे प्रदेश का 70 प्रतिशत ग्रामीण वोट बैंक जुड़ा है. वह जानती है कि यदि उसे गांवों तक अपनी जड़ंे जमानी है तो प्राथमिक सहकारी संस्थाओं पर अपने समर्थकों को बैठाना पड़ेगा. इसके पहले भी 1990 में भाजपा के सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने सभी संस्थाओं को भंग करने का आदेश देकर सहकारिता से कांग्रेस समर्थकों को बेदखल किया था. मगर निर्वाचित संस्थाओं को अकारण भंग करने के चलते हाई कोर्ट ने सभी संस्थाएं पुनः बहाल कर दीं. इसके बाद 2003 में भाजपा जब दोबारा सत्ता में लौटी तो पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने सहकारिता पर पार्टी की पताका फहराने के लिए गोपाल भार्गव को विभागीय मंत्री नियुक्त किया. भार्गव ने एक विशेष रणनीति के तहत समयसीमा से अधिक खर्च करने के नाम पर बड़ी संख्या में पदाधिकारियों के खिलाफ जांच करवाई और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. सहकारिता उपभोक्ता भंडार के पूर्व अध्यक्ष ब्रजमोहन श्रीवास्तव बताते हैं, ‘इस दौरान शासन के एक विशेष आदेश के तहत कई कामकाजी कमेटियां बना ली गईं और सत्ता के सूत्रों का उपयोग करते हुए कई भाजपाई उनके अंदर पहुंच गए.’

सहकारिता इतना बड़ा सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम है कि इससे प्रदेश का 70 प्रतिशत ग्रामीण वोट बैंक जुड़ा है. इस बात को दोनों पार्टियां बहुत अच्छे से जानती हैं

लेकिन हाल ही में केंद्र की कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने संविधान में संशोधन करते हुए सहकारिता को मूलभूत अधिकारों में शामिल कर लिया है और इसी में सहकारिता चुनाव से जुड़ा एक ऐसा प्रावधान भी है जिसने इन दिनों भाजपा सरकार की नींद उड़ा दी है. प्रावधान के मुताबिक राज्य में सहकारी संस्थाओं का चुनाव एक स्वतंत्र प्राधिकरण के माध्यम से किया जाना है. अभी तक इसके चुनाव विभाग के ही आयुक्त पंजीयक के जरिए संपन्न कराए जाते रहे हैं. इस क्षेत्र की रिपोर्टिंग से जुड़े जानकार बताते हैं कि मुख्यधारा के चुनावों से ठीक उलट सहकारिता के चुनाव ‘जिसकी लाठी उसी की भैंस’ यानी जिसकी सत्ता उसी की सहकारिता की तर्ज पर कराए जाते रहे हैं. मगर केंद्र के इस संशोधन के बाद राज्य सरकार का निर्वाचन की प्रक्रिया पर किसी तरह का कोई नियंत्रण नहीं रह जाएगा और यही वजह है कि सूबे में जहां कांग्रेसी नेताओं की बांछंे खिली हुई हैं वहीं भाजपा ऊहापोह की स्थिति में है.

इस संशोधन का कानूनी पहलू यह है कि यह फरवरी, 2013 तक राज्य में प्रभावी हो जाएगा. यानी इसके पहले यदि चुनाव नहीं हुए तो राज्य की भाजपा सरकार अपने मुताबिक चुनाव नहीं करा सकती और उसे नई व्यवस्था के तहत चुनाव में उतरना पड़ेगा. इसलिए ऐसी स्थिति से बचने के लिए वह अपनी निर्वाचित सूची के आधार पर किसी भी सूरत में जनवरी के पहले चुनाव कराने की ताक में है. वहीं कांग्रेस की कवायद है कि जनवरी के पहले किसी भी सूरत में चुनाव न हो पाएं और इसी कवायद को लेकर दोनों दल कानून के मैदान पर अपनी-अपनी तलवारें भांज रहे हैं. कांग्रेस के सहकारिता नेता भगवान सिंह यादव कहते हैं, ‘जब एक बार केंद्र से संशोधन किया ही जा चुका है तो राज्य सरकार नई व्यवस्था लागू होने तक क्यों नहीं रुक सकती?’ दूसरी तरफ, सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन का कहना है, ‘सभी सहकारी संस्थाओं का कार्यकाल समाप्त हो चुका है और ऐसे में निर्वाचन के लिए लंबा इंतजार नहीं किया जा सकता.’

भाजपा की दूसरी बेचेनी सहकारी अधिनियम, 1960 की धारा 48(7) को समाप्त करने से जुड़ी है. दरअसल 2007 के अधिनियम संशोधन में अऋणी (जिसने संस्थाओं से कभी लेन-देन नहीं किया) को भी चुनाव में भाग लेने का अधिकार दिया गया है. पर्दे के पीछे माना जा रहा है कि इन्हें कांग्रेस के प्रभाव से मतदाता सूची में शामिल किया गया था और यह गाहे-बगाहे उसी की तरफदारी करेंगे. एक तिहाई से अधिक अऋणी सदस्य होने के चलते भाजपा नेताओं को डर है कि यह संख्या कहीं सरकार का पांसा न पलट दें. उनके डर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार आनन-फानन में एक ऐसा अध्यादेश भी ले आई है जिसमें सभी अऋणी सदस्यों को चुनाव से दूर कर दिया जाएगा. अपेक्स बैंक के उपाध्यक्ष कैलाश सोनी की मानें तो इससे सहकारिता की सेहत सुधरेगी. सोनी के मुताबिक, ‘अऋणी सदस्यों का सहकारिता से कोई लेना-देना नहीं है. इसलिए संचालक मंडल में यदि इनकी संख्या बढ़ी तो यह सहकारिता का ही बेड़ा गर्क कर डालेंगे.’ वहीं कांग्रेस जानती है कि यदि ऋणी सदस्यों को ही शामिल किया गया तो इसका सीधा लाभ सत्तारूढ़ दल को मिलेगा. कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि जिन किसानों ने सरकार से ऋण नहीं लिया वे तो उनकी तरफ रहेंगे लेकिन जिन्होंने जीरो प्रतिशत ब्याज दर जैसी लुभावनी योजना से ऋण लिया है वे सरकार की तरफ जाएंगे. इसीलिए अध्यादेश के खिलाफ वह राज्यपाल की परिक्रमा तो लगा रही है, हाई कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा आई है. कांग्रेसी विधायक गोविंद सिंह का कहना है, ‘किसी भी किसान का ऋण नहीं लेना इतनी बड़ी गलती नहीं है कि केवल इसी आधार पर उससे उसका मताधिकार छीन लिया जाए.’

भाजपा की दूसरी बेचेनी सहकारी अधिनियम, 1960 की धारा 48(7) को समाप्त करने से जुड़ी है.

भाजपा की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होतीं. सहकारिता चुनाव कराने में सबसे बड़ी भूमिका अधिकारियों को निभानी है, लेकिन प्रशासनिक सूत्रों के मुताबिक लंबे समय तक सत्ता के शीर्ष पर बैठने के चलते इनमें से कईयों को सत्ता का चस्का लग गया है और वे चाहते हैं कि दोनों दल और अधिक उलझें ताकि कई संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के पद पर बैठे रहने का उन्हें और अधिक मौका मिल सके. इसी के साथ भाजपा की एक अड़चन सहकारिता जैसी बड़ी सल्तनत में अपने और पराये की सही पहचान से जुड़ी है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक सहकारिता में एक बड़ा तबका भाजपा के ही कैडर का है लेकिन इसमें खासी संख्या ऐसी भी है जो भाजपाई का छदम रूप धरकर घुस गई है. नौबत यह है कि जबलपुर, पन्ना, होशंगाबाद और सीधी जैसी कई सहकारी संस्थाओं में भाजपा को अपने द्वारा ही बनाए गए अध्यक्षों से लड़ना पड़ रहा है. यानी भाजपा में आपसी समन्वय का अभाव भी चुनाव थमने की एक वजह बन रहा है.

इन सबके बावजूद भाजपा को सहकारिता चुनाव में उतरना ही पड़ेगा. दरअसल भाजपा सूबे में तीसरी बार सरकार बनाने की जद्दोजहद में है और सरकार के खिलाफ बढ़ते रुख को भांपते हुए वह सहकारिता पर अपना शिकंजा कसना चाहती है. वरिष्ठ पत्रकार शिवअनुराग पटेरिया बताते हैं, ‘किसी भी चुनाव के पूर्व हर पार्टी अपने आपको जांचती-परखती है और जनता को मतदान तक खींचने के लिए एक तंत्र भी बनाती है. मध्य प्रदेश में सहकारिता बना-बनाया तंत्र है और इसलिए भाजपा अपने समर्थन में इस तंत्र को साध रही है.’ इसे साधने की और एक वजह है. प्रदेश में सरकार के मुकाबले सहकारिता के विभागों की संख्या कहीं अधिक है. इसलिए आगामी विधानसभा या लोकसभा चुनावों में भाजपा को यदि उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं मिले तो भी वह राज्य की इस समानांतर सत्ता पर आने वाले पांच साल तक बैठना चाहती है.

सेवा के बाद सलाह

‘हां… यह सच है कि मुझे विश्व हिंदू परिषद की ओर से अयोध्या के विवादित स्थल में भगवान श्रीराम के जन्म को प्रमाणित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. चूंकि मैं राम मंदिर की तलाश में काफी समय से लगा हुआ था, सो खुदाई के दौरान मिले हुए 84 खंबों, शिलालेखों तथा अन्य दस्तावेजों के आधार पर मैंने इलाहाबाद के सक्षम न्यायालय को यह अवगत कराया कि अयोध्या में एक नहीं तीन मंदिर थे. अब मैं पिछले कुछ समय से छत्तीसगढ़ में मंदिरों की खोजबीन में लगा हुआ हूं.’

छत्तीसगढ़ के संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में वर्ष 2005 से बतौर सलाहकार नियुक्त किए गए अरुण कुमार शर्मा बेबाकी से आगे कहते हैं, ‘सब जानते हैं कि बैतलपुर के मदकूदीप इलाके में ईसाई समुदाय की अच्छी-खासी मौजूदगी है, यहां हर साल एक बड़ा मेला भी लगता है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक चाहते थे कि मैं मंदिरों को खोज निकालूं. उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए मैंने वहां भी 19 मंदिरों को खोज निकाला है.’ तहलका से चर्चा में शर्मा बेहिचक मानते हैं कि वे छात्र जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रमों में हिस्सेदारी दर्ज करते थे इसलिए अब भी राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए वे प्रयत्नशील हैं.12 नवंबर, 1933 को रायपुर जिले के चंदखुरी इलाके के मोंहदी गांव में जन्मे शर्मा इसी साल 80 साल की देहरी छू लेंगे. छत्तीसगढ़ में वे अकेले बुजुर्ग सलाहकार नहीं हैं. यहां कई वयोवृद्ध और सेवानिवृत्त अफसर हैं जिन पर संघ और सरकार की कृपा बरस रही है. और जिन पर नहीं बरस रही है वे भी जुगाड़ की अपनी योग्यता के चलते सलाहकार बन बैठे हैं.

अब यह अलग बात है कि एक बड़ी सीमा तक उनकी सलाह का कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा. जोड़-तोड़ और जुगाड़ का बेहतर उपयोग करने के मामले में सबसे पहला नाम भारतीय प्रशासनिक सेवा 1973 बैच के अफसर शिवराज सिंह का लिया जाता है. 13 जुलाई, 1948 को जन्मे सिंह यूं तो प्रदेश के दो अफसरों बीकेएस रे और विजय कुमार कपूर से जूनियर थे, लेकिन वे न केवल मुख्य सचिव बने बल्कि सेवानिवृत होने के बाद उन्हें निर्वाचन आयुक्त भी बनाया गया. एक जून,  2010 से वे राज्य योजना आयोग में उपाध्यक्ष हैं और इसी तारीख से मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के सलाहकार भी. वैसे तो शिवराज सिंह का संघ से कोई सीधा नाता नहीं रहा है लेकिन प्रशासनिक हलकों में यह चर्चा आम है कि वे जोड़-जुगाड़, ब्रह्मांड- अध्यात्म और ग्रह-नक्षत्रों से होने वाले नफे-नुकसान के अपने ज्ञान के कारण मुख्यमंत्री की नजदीकी हासिल करने में सफल रहे हैं.शिवराज सिंह के अलावा प्रदेश में मुख्यमंत्री के संसदीय सलाहकार के तौर पर एक जून, 2006 से अशोक चतुर्वेदी भी कार्यरत हैं. उन्हें 65 हजार रु के वेतनमान पर रखा गया है. मध्य प्रदेश विधानसभा में श्रीनिवास तिवारी के अध्यक्षीय कार्यकाल के दौरान अशोक चतुर्वेदी सचिव थे और उन्हें संघ से नजदीकी रिश्ते रखने की वजह से ही अपने पद से हाथ भी धोना पड़ा था. कुछ समय तक वे एक मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के प्रमुख सहयोगी के रूप में भी कार्य करते रहे. वैसे तो उन्होंने ‘संसदीय लोकतंत्र और पत्रकारिता’ जैसे विषय पर किताब भी लिखी है, लेकिन संघ के कार्यक्रमों में अपनी मौजूदगी को लेकर वे कई बार चर्चा में रहे हैं.

‘विभागों में सलाहकारों की नियुक्ति से यह संदेश जाता है कि सलाहकारों की सलाह विभाग के अफसरों की सलाह से ज्यादा महत्वपूर्ण और तगड़ी है’

कई सलाहकार ऐसे भी हैं जिन्हें वरिष्ठ अफसरों के निकटतम होने का फायदा मिलता रहा है. अविभाजित मध्य प्रदेश में चीफ इंजीनियर के पद से सेवानिवृत्त हुए बीएस गुप्ता को ही लीजिए. जब छत्तीसगढ़ अविभाजित मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब बिलासपुर मार्ग पर नांदघाट में एक पुल गुप्ता ने अपनी देखरेख में बनवाया था. यह पुल उनकी सेवानिवृत्ति से कुछ पहले ही टूट गया. तब विभागीय तौर पर यह माना गया था कि पुल में घटिया निर्माण सामग्री का इस्तेमाल किया गया था. लेकिन गजब देखिए कि यही गुप्ता छत्तीसगढ़ बनने के ठीक दो साल बाद 16 अप्रैल, 2002 को राज्य में निर्माण संबंधी गुणवत्ता जांच के लिए सलाहकार बना दिए गए. प्रदेश में जब भाजपा की सरकार बनी तो गुप्ता तत्कालीन लोकनिर्माण मंत्री राजेश मूणत और भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर विवेक ढांड के करीबी बन बैठे. इस बीच 2004 में प्रदेश की सड़कों में ठेकेदारों द्वारा घटिया डामर इस्तेमाल किए जाने का एक सनसनीखेज मामला उजागर हुआ. इसकी गूंज विधानसभा तक पहुंची तो उन्हें सलाहकार के पद से हाथ धोना पड़ा. विवादों से घिरे रहने वाले 82 वर्षीय गुप्ता जोड़-तोड़ और जुगाड़ के चलते 30 जून, 2009 को एक बार फिर पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के तहत बनने वाली प्रधानमंत्री ग्राम सड़क का कामकाज देखने वाले सलाहकार बना दिए गए हैं. चूंकि इस विभाग के अपर मुख्य सचिव भी विवेक ढांड ही हैं, इसलिए माना जा रहा है कि इस बार भी उनकी पारी थोड़ी लंबी हो सकती है.

आबादी के लिहाज से संतुलन बनाए रखने के लिए गठित की गई न्यू रायपुर डेवलपमेंट अथॉरिटी (नारडा) में भी सलाहकारों का बोलबाला है. छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मंडल में कार्यपालन अभियंता रहे एके बोस नई राजधानी की विद्युत संबंधी गतिविधियों के सुचारू ढंग से संचालन के लिए सलाहकार नियुक्त किए गए हैं, तो लोकनिर्माण विभाग में सहायक अभियंता के पद से रिटायर हुए एसके नाग को सड़क निर्माण क्षेत्र का सलाहकार बनाया गया है. रायपुर के कलेक्टर कार्यालय में जमीन का कामकाज देख चुके डीसी पांडेय किसानों की जमीन अधिगृहीत करने के दौरान होने वाली अड़चनों को दूर करने के लिए उपाय बताने वाले सलाहकार बनाए गए हैं तो फैयाज हुसैन को सीमांकन का सलाहकार बनाया गया है. वैसे तो नारडा से जुड़े एक अफसर इन सभी नामों को काबिल बताते हैं लेकिन अपना नाम न छापने की शर्त पर यह भी कहने से नहीं चूकते कि अफसरों ने काबिलियत की चमड़ी पर चमचागिरी का लेप मल रखा है. इन अफसरों को सलाहकार बनाने के अलावा नारडा ने 2005 से नवी मुंबई की शहरी नियोजन संस्था सिडको को भी अपना सलाहकार नियुक्त कर रखा है. विधिक सेवा से जुड़े लोग भी पीछे नहीं हैं. एक सितंबर, 2012 को सरकार ने एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश टीसी यदु को लोकसेवा आयोग में विधिक सलाहकार नियुक्त किया है. उनका वेतनमान है 76 हजार 450 रु . मध्य प्रदेश में एक महिला कर्मचारी के साथ विवाद के चलते सुर्खियों में रहे बीएल शर्मा को 29 जून, 2012 को राज्य योजना आयोग में सलाहकार बनाया गया है. शर्मा राज्य योजना आयोग में निदेशक पद से रिटायर हुए हैं.

मंत्रालय के एक वरिष्ठ अफसर नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘बोर्ड, मंडलों और विभागों में सलाहकारों की नियुक्ति से यह संदेश जाता है कि सलाहकारों की सलाह विभागीय अफसरों की सलाह से ज्यादा महत्वपूर्ण और तगड़ी है. लेकिन सच्चाई यह है कि आज तक किसी भी अफसर की सलाह से कभी कोई फायदा होते नहीं दिखा है.’  इस बात में दम इसलिए भी नजर आता है कि राज्य की पावर कंपनी में कई सलाहकार नियुक्त होते रहे हैं लेकिन किसी भी सलाहकार ने अब तक यह नहीं बताया कि कंपनी को घाटे से कैसे उबारा जा सकता है. 2007 में यानी अपने विखंडन से पहले विद्युत मंडल 355 करोड़ रु. के फायदे में था. लेकिन 2008 में उत्पादन, होल्डिंग, वितरण, पारेषण और ट्रेडिंग कंपनियों के बन जाने से कंपनी का घाटा 740 करोड़ रु. तक जा पहुंचा है. बिजली महकमे से जुड़े एक प्रमुख कर्मचारी नेता पीएन सिंह प्रदेश में हाल ही में चर्चित ओपन एक्सेस घोटाले का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘राज्य में निजी बिजली कंपनियों श्रेयस सहला और बागबहरा की जिंदल इलेक्ट्रिक पावर ने छत्तीसगढ़ राज्य पावर कंपनी से बिजली चोरी करके उसे अन्य निजी उत्पादकों को बेचने का खेल किया था.

‘यदि किसी भी सलाहकार की सलाह का कोई ब्योरा मौजूद नहीं है तो संदेश साफ है कि अफसरों को उपकृत किया जा रहा है’

ये कंपनियां अफसरों की मिली-भगत से चोरी की बिजली को प्रदेश के बाहर बेचा करती थीं.’  पीएन सिंह बताते हैं कि दो निजी उत्पादकों को लाभ पहुंचाने के मामले में मुख्य अभियंता एके राय और सलाहकार एसआर सिंह को प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना गया था. निलंबन की गाज दोनों पर साथ ही गिरी थी. बिजली कर्मचारी महासंघ के अध्यक्ष अरुण देवांगन भी मानते हैं कि पावर कंपनी में तैनात सलाहकार कंपनी को नुकसान ही पहुंचा रहे हैं. वे कहते हैं, ‘अब तक किसी भी सलाहकार ने छत्तीसगढ़ पावर कंपनी को घाटे से उबारने की सलाह नहीं दी है, इसलिए सीधे तौर पर यह तो कहा जा सकता है कि पावर कंपनियां रिटायर्ड अफसरों को सलाहकार बनाकर उपकृत कर रही हैं या फिर ढो रही हैं.’

वैसे तो पावर कंपनी बनने से पहले विद्युत मंडल में कई सलाहकार कार्यरत रहे हैं लेकिन फिलहाल तीन सलाहकारों की नियुक्ति विवादों के घेरे में है. आयकर विभाग में 30 जुलाई, 2010 तक चीफ कमिश्नर रहे जमील अहमद सेवानिवृत्ति के कुछ दिनों बाद ही होल्डिंग कंपनी के सलाहकार बना दिए गए थे. उनकी नियुक्ति को लेकर सबसे बड़ा सवाल यही उठता रहा है कि चूंकि वे बिजली विभाग से जुड़े हुए नहीं हैं इसलिए बिजली की एबीसीडी से भी वाकिफ नहीं हैं. बहरहाल जब वे आयकर विभाग से सेवानिवृत्त हुए थे तब उन्हें एक लाख तीन हजार 66 रु. वेतन हासिल होता था. सेवानिवृत्ति के पश्चात उन्हें 51 हजार पांच सौ तैतीस रु. पेंशन पाने की पात्रता हासिल हुई. इधर पावर कंपनी भी उन्हें सलाहकार के तौर पर 51 हजार रु. दे रही है. इस तरह उन्हें फिर से उतनी ही तनख्वाह मिल जाती है जितनी आयकर महकमे में मिलती थी.

छत्तीसगढ़ विद्युत मंडल से बतौर सचिव सेवानिवृत्त हुए एपी नामदेव ने तो सलाहकार के तौर पर एक्सटेंशन हासिल करने का रिकॉर्ड ही तोड़ डाला है. 31 जुलाई, 2006 को सेवानिवृत्त होने के बाद नामदेव पहली बार 28 अगस्त, 2006 को महज डेढ़ माह के लिए सलाहकार बनाए गए थे, लेकिन 10 अक्टूबर, 2006 को उन्हें एक्सटेंशन दे दिया गया. एक मार्च व 1 सितंबर , 2007 को उन्हें फिर एक्सटेंशन मिला. 29 अगस्त, 2008 के बाद उन्हें 19 जनवरी और 30 जुलाई, 2009 को एक्सटेंशन दिया गया.  2010, 2011 और 2012 में उन्हें तीन बार और एक्सटेंशन मिला. इस तरह से बीते 72 महीने में वे कुल दस मर्तबा पावर वितरण कंपनी में सलाहकार नियुक्त किए गए. कंपनी का रिकॉर्ड यह बताता है कि इस दौरान उन पर कुल 85 लाख 77 हजार पांच सौ ( वेतन-वाहन-टेलीफोन व्यय के साथ ) का खर्च किया गया. बिजली के अनाप-शनाप बिल से परेशान आरटीआई कार्यकर्ता एवं राज्य निर्माण सेनानी संघ के प्रांताध्यक्ष ललित मिश्रा ने हाल ही में जब सूचना के अधिकार के तहत नामदेव की तरफ से बोर्ड को दी गई सलाह और फायदों की जानकारी मांगी तो जवाब मिला कि किसी भी सलाहकार की सलाह को लेखे में संधारित नहीं किया जाता है. पॉवर कंपनी के इस जवाब को ललित मिश्रा मनमानी की पराकाष्ठा मानते हैं. वे कहते हैं, ‘ यदि पावर कंपनी के पास किसी भी सलाहकार की महत्वपूर्ण सलाह का कोई ब्योरा मौजूद नहीं है तो साफ तौर पर यह स्पष्ट है कि कंपनी चमचागिरी में लिप्त अफसरों को उपकृत करने के गोरखधंधे में लगी हुई है.’

पावर कंपनी में तीसरे सलाहकार सीसी एंथोनी की नियुक्ति भी हाल-फिलहाल हुई है. 31 अगस्त, 2012 को सेवानिवृत्त हुए एंथोनी को कंपनी में ही कार्यरत एक अफसर जीएस कलसी का करीबी माना जाता है. कर्मचारी एवं अफसर दबी जबान में उनका विरोध कर रहे हैं. उनका तर्क है कि अब तक मुख्य अभियंता को ही सलाहकार बनाया जाता था लेकिन पहली बार एक अतिरिक्त मुख्य अभियंता ( एंथोनी पावर कंपनी से इसी पद पर रहते हुए सेवानिवृत्त हुए हैं ) को सलाहकार बना दिया गया है. जोड़-तोड़ के अलावा एक खास विचारधारा से जुड़े लोगों को ही सलाहकार के तौर पर नियुक्त किए जाने के मामले को पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी एक गंभीर मसला मानते हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार अपने गुप्त एजेंडे के तहत सलाहकारों की आड़ में चुनाव वैतरणी को पार लगाने वाले कलाकारों की फौज तैयार करने में जुटी हुई है.’ 

मिल बांटकर खाई मलाई

मामला भ्रष्टाचार की मलाई मिल बांटकर खाने का है. कुछ साल पहले तक उत्तर प्रदेश में लैकफेड रंग-रोगन और छोटे-मोटे निर्माण कार्य कराने वाली एक गुमनाम-सी सरकारी संस्था हुआ करती थी. इसे पांच लाख रुपये से अधिक लागत का कार्य कराने का अधिकार नहीं था. 2010 में इसे अचानक कार्यदायी संस्था (सरकार के विभिन्न विभागों से जुड़े निर्माण कार्य करने वाली एजेंसी) का दर्जा मिला और यह करोड़ों रुपये के निर्माण कार्य करने लगी. वह भी तब जब इसके पास इतने बड़े स्तर पर निर्माण कार्य के लिए विशेषज्ञता नहीं थी. अब पता चल रहा है कि इसके पीछे करोड़ों का गोलमाल हुआ है जिसमें पिछली बसपा सरकार की कई कद्दावर हस्तियां शामिल हैं.

 दरअसल बसपा शासन काल में उत्तर प्रदेश श्रम एवं निर्माण सहकारी संघ लिमिटेड यानी लैकफेड को करोड़ों रुपये का निर्माण कार्य मिला था. कोऑपरेटिव सेल के स्पेशल इनवेस्टीगेटिंग ब्यूरो (एसआईबी) की जांच बता रही है कि कार्य कराने की संस्तुति या आश्वासन माननीयों की ओर से मुफ्त में नहीं मिला बल्कि इसके एवज में मंत्रियों ने संस्था के अधिकारियों से मोटा कमीशन लिया. अपनी जांच के तहत एसआईबी अब तक पूर्व श्रममंत्री बादशाह सिंह को गिरफ्तार कर चुकी है. इसके अलावा उसने पूर्व मंत्रियों लक्ष्मी नारायण चौधरी, रंगनाथ मिश्र, नंद गोपाल गुप्ता उर्फ नंदी, चंद्रदेव राम यादव, सदल प्रसाद, अवधपाल सिंह यादव और अनीस अहमद खां उर्फ फूल बाबू को पूछताछ के लिए नोटिस भेजा है. इन नामों का खुलासा लैकफेड के पूर्व चेयरमैन सुशील कटियार के पीआरओ प्रवीण सिंह ने किया है. बताते हैं कि एनआरएचएम घोटाले के आरोपित और फिलहाल जेल में बंद बाबू सिंह कुशवाहा का नाम भी संस्था से कमीशन लेने वालों की फेहरिस्त में शामिल है.

जांच में सवाल उठा कि जिस संस्था को करोड़ों रुपये का कार्य कराने का अधिकार ही नहीं था उसे आखिर कैसे इतने बड़े-बड़े कार्य दे दिए गए. इसका खुलासा हाल ही में रिटायर हुए लैकफेड के मुख्य अभियंता गोविंद शरण श्रीवास्तव ने किया. श्रीवास्तव ने जांच अधिकारियों को बताया कि 2009 में लैकफेड को कार्यदायी संस्था बनाने का प्रस्ताव तत्कालीन एमडी ओंकार यादव द्वारा शासन को भेजा गया, लेकिन मानक पूरे न होने के कारण यह प्रस्ताव वापस आ गया. 2010 में यह प्रस्ताव फिर से भेजा गया. उस समय लैकफेड के चेयरमैन सुशील कुमार कटियार थे. श्रीवास्तव के मुताबिक कटियार और यादव ने बसपा के तत्कालीन विधायक राम प्रसाद जायसवाल के माध्यम से तत्कालीन सहकारिता मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को 45 लाख रुपये दिए. इसका मकसद यह था कि मानक पूरे न होने के बावजूद कुशवाहा द्वारा शासन पर दबाव डलवा कर लैकफेड को कार्यदायी संस्था बनवाया जाए. जांच अधिकारी बताते हैं कि नियमों को ताक पर रख कर लैकफेड को कार्यदायी संस्था बनवाने के इस खेल में कुछ बड़े अधिकारियों की भूमिका भी संदेह के घेरे में है. बताते हैं कि लैकफेड के कार्यदायी संस्था बनने के बाद बीच में किसी कारणवश चेयरमैन कटियार व एमडी यादव के बीच मतभेद हो गए लिहाजा कटियार ने यादव को बाबू सिंह कुशवाहा के माध्यम से महत्वहीन पद पर भिजवा दिया. इतना ही नहीं, एमडी के पद पर कुशवाहा के विश्वासपात्र वीपी सिंह को बैठा दिया गया. कुशवाहा की मेहरबानी नियमों को ताक पर रख कर लैकफेड को कार्यदायी संस्था बनवाने तक ही सीमित नहीं रही. नवंबर, 2010 में उन्होंने राज्य के विभिन्न जिलों को आवंटित हो चुके पंचायती राज विभाग के लगभग 90-95 करोड़ रुपये उन जिलों से लैकफेड को वापस करा दिए थे.

श्रीवास्तव ने अपने बयान में बताया है कि अप्रैल, 2010 से फरवरी, 2012 तक संस्था के चेयरमैन की कुर्सी सुशील कुमार कटियार के पास रही. कटियार पूर्व मंत्री कुशवाहा के सबसे करीबियों में से थे जो अब फरार चल रहे हैं. बताते हैं कि 2010 में जब एमडी ओंकार यादव और कटियार के बीच काम को लेकर मनमुटाव शुरू हुआ तो कटियार के कहने पर बाबू सिंह कुशवाहा ने वीपी सिंह को संस्था का नया एमडी बनाया. कुछ ही दिनों में मंत्री कुशवाहा से वीपी सिंह के संबंध ऐसे हो गए कि लैकफेड के साथ उन्हें पीसीयू के एमडी, संस्थागत सेवा मंडल के चेयरमैन और अपर निबंधन (बैंकिंग) का भी जिम्मा सौंप दिया गया.

जांच अधिकारियों के मुताबिक काम न मिलने के बाद लैकफेड के अधिकारी जब पांच करोड़ रुपये वापस मांगने बादशाह सिंह के पास गए तो मंत्री ने उनके पीछे अपने पालतू शिकारी कुत्ते दौड़ा दिए थे

इस पूरे खेल में कटियार के पीआरओ प्रवीण सिंह की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण रही है. संस्था के मुख्य अभियंता रहे श्रीवास्तव ने अपने बयान में बताया है कि प्रवीण सिंह चेयरमैन कटियार के साथ तत्कालीन सहकारिता मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा के यहां जाते थे. रकम को एक झोले में रख कर उसमें अपने नाम व मोबाइल नंबर की पर्ची डाल दी जाती थी और झोला कुशवाहा के यहां रख दिया जाता था. मंत्री का दर्जा प्राप्त कटियार के लिए उनका पीआरओ कितना महत्वपूर्ण था, यह अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सिंह को संस्था का जनसंपर्क अधिकारी भी बना दिया गया था. सूत्र के मुताबिक रुपयों के लेन-देन का सबसे बड़ा माध्यम होने के चलते सिंह की हनक ऐसी थी कि उनके कार्यालय में बड़े-बड़े अभियंता हाजिरी लगाने आते थे.

कमीशनबाजी के खेल में बसपा शासन में श्रम मंत्री रहे बादशाह सिंह भी पीछे नहीं रहे. अपनी शानोशौकत के चलते बसपा के सभी मंत्रियों में अपनी अलग पहचान रखने वाले बादशाह सिंह को एसआईबी ने लैकफेड के इंजीनियरों से पांच करोड़ रुपये रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया है. सिंह फिलहाल भाजपा में हैं. इलाहाबाद में तैनात अभियंता सुशील कुमार ओझा ने जांच एजेंसी को बताया है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से कई स्थानों पर लेबर अड्डा बनना था. इसके लिए धन केंद्र सरकार की तरफ से आना था. यह पैसा लैकफेड में आवंटित हो, इसके लिए चीफ इंजीनियर गोविंद शरण श्रीवास्तव, पंकज त्रिपाठी, प्रवीण सिंह व झांसी के अधिशासी अभियंता आरपी सिंह द्वारा पांच करोड़ रुपये तत्कालीन मंत्री बादशाह सिंह को एडवांस कमीशन के रूप में दिए गए थे. अभियंता अजय कुमार दोहरे ने भी अपने बयान में बताया है कि 28 से 30 मार्च, 2011 के बीच पांच करोड़ रुपये की रकम इकट्ठा हुई थी. यह रकम तत्कालीन चेयरमैन कटियार के सरकारी वाहन से चार काले बैगों में भर कर मंत्री के गांव खरैला तक पहुंचाई गई थी. बादशाह सिंह ने इसे गिनवा कर दूसरे कमरे में भिजवा दिया था. बरेली के अभियंता डीके साहू ने भी अपने बयान में कुछ यही बात कही है. उनके शब्दों में, ‘झांसी मंडल के अधिशासी अभियंता आरपी सिंह द्वारा मुझे बताया गया था कि केंद्र सरकार से करीब 100 करोड़ की धनराशि लाने के लिए आरपी सिंह, चीफ इंजीनियर जीएस श्रीवास्तव व पंकज त्रिपाठी द्वारा पांच करोड़ रुपये की धनराशि तत्कालीन श्रम मंत्री बादशाह सिंह को दी गई है.’

लेकिन फिर किसी कारणवश केंद्र से बजट नहीं आ सका. ऐसे में लैकफेड के अधिकारी मंत्री से पांच करोड़ रुपये वापस लेने पहुंचे. एसआईबी के अधिकारी बताते हैं कि अधिकारी जब पैसा वापस मांगने बादशाह सिंह के पास गए तो मंत्री ने उनके पीछे अपने पालतू शिकारी कुत्ते दौड़ा दिए थे.

 उच्च शिक्षा विभाग तक भी गई रिश्वत की रकम
कमीशनबाजी के खेल से उच्च शिक्षा विभाग भी अछूता नहीं रहा है. पूर्व मुख्य अभियंता श्रीवास्तव ने अपने बयान में बताया है कि अभियंता अजय कुमार दोहरे ने लैकफेड की सभी डिवीजनों से लगभग चार करोड़ रुपये इकट्ठा करके उच्च शिक्षा मंत्री राकेश धर त्रिपाठी को दिए थे. मकसद यह था कि उच्च शिक्षा विभाग का कार्य लैकफेड को ही मिले. तत्कालीन उच्च शिक्षा मंत्री त्रिपाठी को पैसा अभियंता अजय कुमार दोहरे व प्रवीण सिंह ने पहुंचाया था. महीना भर गुजरने के बाद भी उच्च शिक्षा विभाग के बजट का पैसा लैकफेड को नहीं मिला तो सभी ने मिलकर काम के लिए पैरवी की. श्रीवास्तव ने अपने बयान में कहा है, ‘कार्य की पैरवी के सिलसिले में हम लोग उच्च शिक्षा सचिव से मिले तो उन्होंने उच्च शिक्षा मंत्री राकेश धर त्रिपाठी को समझाया कि ये लोग बाबू सिंह कुशवाहा के करीबी हैं, बात हाईकमान तक पहुंच सकती है. अगले दिन अजय कुमार दोहरे चार करोड़ रुपये लैकफेड में वापस ले आए तो मैंने कहा कि यह पैसा लैकफेड के खाते में जमा करवा दिया जाए. लेकिन एमडी रामहित गुप्ता ने कहा था कि शर्तें हटवाने के लिए अभी और पैसे की जरूरत पड़ेगी इसलिए इस पैसे को दिनेश कुमार साहू जो बरेली में अधिशासी अभियंता के पद पर कार्यरत थे उनके पास रखवा दिया.’ श्रीवास्तव के बयान के मुताबिक चार करोड़ रुपये की रकम अभी तक अभियंता साहू के पास ही है. लेकिन जांच एजेंसी ने हाल ही में जब साहू से पूछताछ की तो उनका कहना था कि यह रकम पंकज नाम के किसी व्यक्ति के पास है. यह पंकज कौन है और पूरे प्रकरण में उसकी क्या भूमिका है, इस बारे में साहू से अब तक कोई जानकारी नहीं मिली है.
पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री राकेश धर त्रिपाठी तहलका से बातचीत में खुद पर लगे आरोपों को निराधार बताते हैं. वे कहते हैं, ‘मेरी न तो आरोप लगाने वाले लोगों से कभी कोई मुलाकात हुई है और न मेरे विभाग का कोई काम ही लैकफेड को दिया गया है. पूरा प्रकरण राजनीति से प्रभावित है. सरकार मुझे किसी केस में फंसाने के उद्देश्य से ऐसा प्रयास कर रही है.’ फिलहाल कोऑपरेटिव सेल के एसपी कार्यालय में त्रिपाठी से पूरे प्रकरण के संबंध में पूछताछ भी हो चुकी है. 

बिना एमओयू के ही बंट गया करोड़ों रुपये का काम
उच्च शिक्षा विभाग के साथ-साथ माध्यमिक शिक्षा विभाग भी जांच के दायरे में है. यहां भी नियमों को ताक पर रखकर काम का आवंटन हुआ. राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत लैकफेड को 25 स्कूलों को उच्चीकृत करने का काम मिला था. प्रत्येक स्कूल के लिए केंद्र सरकार की ओर से 58.12 लाख रुपये स्वीकृत हुए थे. नियमों के अनुसार लैकफेड को काम देने के पहले राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के परियोजना निदेशक और लैकफेड के बीच एमओयू होना था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बिना एमओयू के ही पहली व दूसरी किस्त जारी कर दी गई. इस बीच शिक्षा विभाग के अधिकारियों को जब अपनी गलती का अहसास हुआ तो उन्होंने कागजी खेल करना शुरू किया. अनुबंध करने के लिए शिक्षा विभाग के बड़े अधिकारियों ने 19 सितंबर, 2011 को स्टांप खरीद कर उस पर 16 सितंबर की तारीख डाल दी. एक जांच अधिकारी बताते हैं, ‘अनुबंध पत्र को नोटराइज तक नहीं कराया गया. इतना ही नहीं, बिना अनुबंध के जो दो किस्तें जारी की गई थीं उनका उपयोग प्रमाण पत्र लेना भी संबंधित जिलों से शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने मुनासिब नहीं समझा.’ जांच से जुड़े एक अन्य पुलिस अधिकारी बताते हैं, ‘ऐसा लगता है कि यहां भी खेल विभागीय मंत्री के स्तर से हुआ क्योंकि निर्माण एजेंसी नामित करने तथा धन की निकासी का अनुमोदन बिना मंत्री के सहमति के संभव नहीं है. बिना एमओयू के पूरा खेल होता रहा, इससे साफ है कि इसमें बड़े लोग शामिल रहे हैं.’ जिस समय यह पूरा प्रकरण हो रहा था उस समय रंगनाथ मिश्र माध्यमिक शिक्षा मंत्री थे. इसीलिए एसआईबी ने पूछताछ के लिए रंगनाथ मिश्र को भी नोटिस जारी किया है.

कौन 19 कौन 20

सवाल बस एक. सीधा और सहज. बिना किसी किंतु-परंतु के. बिहार में जदयू और भाजपा अलग-अलग राह अपना लें, वर्षों की जिगरी दोस्ती जो फिलहाल रूमानी दुश्मनी जैसी लग रही है, सच में दुश्मनी में बदल जाए तो कौन 19 साबित होगा और कौन 20?
इसी एक सवाल को हम सीधे-सीधे कई लोगों के सामने रखते हैं. सीधे सवाल का जवाब सीधी तरह से कोई नहीं दे पाता. ‘लंगोटिया छाप’ या ‘दांत-काटी-रोटी’ जैसे संबंध रखने वाले दो दोस्तों के दुश्मन बनने का नतीजा बता देना इतना आसान भी तो नहीं होता. फिर भी जो चुनावी हिसाब-किताब में पारंगत होते हैं वे आंकड़ों की भाषा में हमें बताते हैं- देखिए, 2010 के विधानसभा में जनता दल यूनाइटेड को कुल 22.61 प्रतिशत वोट मिले थे जो पिछली बार उसे मिले वोट की तुलना में 2.15 प्रतिशत ज्यादा थे. भाजपा को 16.48 प्रतिशत मत मिले थे जो पिछली बार की तुलना में 0.81 प्रतिशत ज्यादा थे और लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को 18.84 प्रतिशत मत मिले थे जो पिछली बार की तुलना में 4.61 प्रतिशत कम थे. कुछ यह आंकड़ा भी सुनाते हैं कि जदयू 141 सीटों पर चुनाव लड़कर 115 सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी लेकिन भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीटें हासिल की थीं. यानी ज्यादा लंबी छलांग भाजपा की रही थी.

इसी तरह हर किसी के पास अपने-अपने तर्क होते हैं. अनुमानों के आधार पर एक फैसला भी. लेकिन हर तर्क दो-तीन कदम की दूरी तय करके दम तोड़ने लगता है. किसी भी विश्लेषण का बेतरतीब उलझाव दावे के साथ नहीं कह पाता कि हां, जदयू 20 हो जाएगी या फिर भाजपा जदयू को पछाड़ देगी! आकलन के लिए विकास की बयार वाली राजनीति से बात शुरू होती है, धर्म-संप्रदाय से लेकर जाति तक पहुंचती है और फिर गोत्र की राजनीति तक का बारीक विश्लेषण होता है. लेकिन नतीजा क्या होगा, कोई आश्वस्त नहीं.
मामला इतना आसान भी तो नहीं है. 1996 से केंद्रीय राजनीति में हमसफर रहे और सात साल से बिहार में सत्तासीन दोनों दलों के बीच वोटों को लेकर ऐसी गुत्थमगुत्थई है कि एक-दो समूहों को छोड़कर  दोनो दलों के नेताओं को ही अभी तक ठीक से नहीं पता कि असल में उनका अपना अलग-अलग कौन-सा आधार है. वह आधार जिसके बारे में वे दावा ठोक सकें कि चाहे कुछ हो जाए, वह हमारा है और रहेगा भी. जहां से जदयू चुनाव लड़ती रही है वहां भाजपा का वोट सीधे जदयू के खाते में आसानी से जाता रहा है और जहां भाजपा लड़ती रही है वहां जदयू का वोट भाजपा के खाते में. इसीलिए अब भी बिहार के राजनीतिक गलियारों में यह एक अनबूझा सवाल है कि भाजपा और जदयू में कौन किसकी वजह से मजबूत हुआ है.

जवाब 1995 से तलाशने की कोशिश करते हैं, जब समता पार्टी का भाकपा माले के साथ गठजोड़ हुआ था.  तब विधानसभा में समता पार्टी की सीटें दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच सकी थीं. लेकिन 1996 में केंद्रीय स्तर पर भाजपा से गठजोड़ होने के बाद पार्टी की सीटों में उछाल और उभार का दौर शुरू हुआ. बाद में दो बार विधानसभा चुनाव में खिचखिच होने की वजह से राज्य स्तर पर दोनों दलों के बीच गठजोड़ नहीं हो सका. दोनों को आशानुरूप सफलता भी नहीं मिली. लेकिन जब 2005 में दो बार फरवरी और नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में दोनों ने एक साथ मिलकर लालू का मुकाबला किया तो अभेद्य माने जाने वाले लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का किला ही ढह गया. 2010 के विधानसभा चुनाव में जब इस गठबंधन को ठोस बहुमत और अपार जनसमर्थन के साथ फिर सत्ता मिली और जदयू की भारी बढ़त के साथ ही भाजपा की बढ़त दर और ज्यादा बढ़ी हुई दिखी तो फिर वही सवाल उछला कि आखिर किसकी वजह से कौन मजबूत हो गया. हालांकि जदयू के प्रदेश प्रवक्ता नीरज कुमार जैसे नेता कहते हैं कि नीतीश की वजह से ही बिहार में भाजपा आज इतनी बड़ी पार्टी बन सकी है. नीरज की तरह जदयू के और कई नेता यही कहते हैं और ऐसा ही मानते भी हैं. हो सकता है, यह एक हद तक सच भी हो लेकिन इन दिनों जिस तरह से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ सीपी ठाकुर जैसे नेता भी गर्जना करने लगे हैं कि सत्ता रहे या जाए पार्टी की आलोचना बर्दाश्त नहीं करेंगे या फिर यह कि 40 लोकसभा सीटों और 243 विधानसभा सीटों पर हमारी तैयारी है या फिर यह कि पार्टी की हुंकार रैली में नरेंद्र मोदी भी आएंगे, तो यह सिर्फ अतिरेक का बयान भर भी नहीं माना जा सकता. भाजपा को भी अपनी जमीनी हकीकत का पता होगा, तभी तो उसके पार्टी अध्यक्ष भी नीतीश की परवाह किए बगैर इस तरह के बयान और कभी-कभी तो नसीहत भी देने लगे हैं कि सरकार को अपने संसाधनों से भी विकास की बात सोचनी चाहिए, सिर्फ दूसरों का मुंह देखने से कुछ नहीं होगा.

दोनों दलों के बीच वोटों को लेकर ऐसी गुत्थमगुत्थई है कि किसी को नहीं पता कि उसका कौन-सा अलग आधार है जिसे वह स्थायी तौर पर अपना बता सके

बहरहाल, हो सकता है कि अपने-अपने कार्यकर्ताओं में जोश-खरोश भरने के लिए भी भाजपा-जदयू की ओर से ऐसे बयान दिए जा रहे हों. लेकिन फिर उसी एक सवाल पर बात करते हैं कि अगर ऐसा हो ही जाए तो कौन 19 साबित होगा और कौन 20.

कभी नीतीश कुमार के खासमखास साथी रहे पूर्व विधान पार्षद प्रेम कुमार मणि का आकलन है कि दोनों दलों में अलगाव की स्थिति में जदयू की तुलना में भाजपा की स्थिति मजबूत हो जाएगी क्योंकि वह व्यापक सांगठनिक आधार वाली पार्टी है, उसका राष्ट्रीय कलेवर है और इतने सालों में बिहार में सरकार में शामिल रहकर उसने अपने संगठन का विस्तार और भी तरीके से किया है. मणि कहते हैं,  ‘नीतीश कुमार और सुशील मोदी में मैं मोदी को ज्यादा नंबर देता हूं क्योंकि नीतीश सात साल बड़ी-बड़ी बातें करने में लगे रहे और मोदी चुपचाप हां में हां मिलाकर अपनी पार्टी के दायरे के विस्तार को अंजाम देते रहे.’ मणि आगे कहते हैं, ‘आप ही बताइए कि क्या भीम सिंह, श्याम रजक, नरेंद्र सिंह, विजय चौधरी, विजेंद्र चौधरी जैसे नेता, जो बिहार में नीतीश के सिपहसालार हैं, अपने इलाके को छोड़कर कहीं एक वोट भी दिलवा पाने की स्थिति में हैं?’  पुराने समाजवादी कार्यकर्ता और बिहार नव निर्माण मंच के नेता सत्यनारायण मदन भी मणि की तर्ज पर ही बात करते हैं. वे कहते हैं, ‘भाजपा को इस आधार पर नजरअंदाज करना कि उसके साथ तो सिर्फ सवर्णों का एक खेमा है, गलत है. भाजपा ने अपने दायरे का विस्तार हर जाति में किया है इसलिए वह भारी पड़ सकती है.’  नीतीश कुमार और उनके दल के पुराने संगी रहे और अब राजद नेता रामबिहारी सिंह कहते हैं, ‘यह याद रखिए कि भाजपा के पास जो भी जनाधार है या उसके खाते में जिस जनाधार का निर्माण हाल के वर्षों में हुआ है वह स्थायी स्वरूप का है. उसका अपना संगठन है जो इस आधार को बनाए रखने में सक्षम है. लेकिन नीतीश के पास स्थायी स्वरूप का कोई जनाधार नहीं है जिसके बारे में बहुत भरोसे के साथ यह दावा किया जा सकता हो कि वह उन्हीं के साथ रहेगा.’

नीतीश के ये तीनों पुराने संगी अलगाव की स्थिति में जदयू के कमजोर होने का आकलन करते हैं. इसके पीछे वे भाजपा की संगठनात्मक ताकत का हवाला बार-बार देते हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई भाजपा का संगठन बिहार में इतना मजबूत हो चुका है और अगर संगठन मजबूत भी है तो क्या बिहार में संगठनात्मक मजबूती के बूते चुनाव लड़े और जीते जाने का हालिया इतिहास रहा है. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘हालिया वर्षों में बिहार में सत्ता की लड़ाई मजबूत राजनीतिक नेतृत्व और ठोस राजनीतिक एजेंडे के आधार पर लड़ी जाती है. मतदाताओं का रुझान भी उसी पर निर्भर करता है. यहां जदयू-भाजपा बनाम राजद नहीं बल्कि लालू बनाम नीतीश की लड़ाई चली थी. लालू प्रसाद नीतीश कुमार के रूप में उभरे एक मजबूत राजनीतिक नेतृत्व से हारे थे. संगठन तभी कारगर साबित होता है और उसका प्रभाव होता है जब नेतृत्व मजबूत हो और राजनीतिक एजेंडा ठोस हो. इस लिहाज से नीतीश कुमार के जरिए उनकी पार्टी जदयू भाजपा पर बहुत भारी पड़ेगी क्योंकि बिहार में पिछले सात सालों से सब कुछ नीतीश के पाले में ही रहा है.’ सुमन आगे पूछते हैं, ‘अगर संगठनात्मक मुस्तैदी और मजबूती के आधार पर चुनावी जीत-हार का फैसला होना होता तो बिहार में वाम दलों की स्थिति ऐसी नहीं हुई होती. कम से कम भाकपा माले को 12-15 सीटें तो उस आधार पर मिलनी ही चाहिए थीं. लेकिन ऐसा कहां हुआ?’

सुमन की इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बिहार में चुनाव राजनीतिक नेतृत्व के आधार पर लड़े जाते हैं और नीतीश ने सब कुछ अपने पाले में रखा है इसलिए वे मजबूत पड़ सकते हैं. प्रो. नवलकिशोर चौधरी भी कहते हैं कि नीतीश कुमार ने बहुत ही चतुराई से सात साल के शासन में सब कुछ अपने पाले में किया और मौके-बेमौके भाजपा के मनोबल को तोड़ा है. वे कहते हैं,  ‘नीतीश ने भाजपा को दोयम दर्जे की पार्टी बनाकर रखा है, इसलिए अपनी बनी हुई छवि और जनमानस में पैठ की वजह से वे अकेले भाजपा पर भारी पड़ सकते हैं.’

यह सच है कि नेतृत्व के लिहाज से भाजपा बिहार में एक लुंजपुंज पार्टी के तौर पर दिखती है जिसके एक नेता सुशील मोदी उपमुख्यमंत्री तो जरूर हैं लेकिन अब भी उनका राजनीतिक व्यक्तित्व इस तरह का नहीं बन सका है कि पूरे राज्य में उनकी अपील हो. और फिर अब तो वे सत्ता में रहते-रहते नीतीश के इतने पक्षधर लगने लगे हैं कि अक्सर उनके बयानों से भाजपा के सामान्य कार्यकर्ता नाराज हो जाते हैं और यह दुविधाजनक स्थिति बनती है कि मोदी भाजपा के ही नेता हैं या नीतीश कुमार के प्रवक्ता! मोदी के अलावा भाजपा में और कोई दूसरा नेता भी नहीं दिखता जिसका व्यक्तित्व नेतृत्व के लायक बनाया या उभारा जा रहा हो. इसलिए नीतीश और उनकी पार्टी एक नेता के नेतृत्व के मामले में भाजपा पर 20 नहीं बल्कि 24-25 पड़ेंगे.

कई लोग मानते हैं कि जहां तक एक नेता और उसके नेतृत्व की बात है तो इस मायने में नीतीश और उनका दल भाजपा की तुलना में 20 नहीं बल्कि 24-25 साबित होंगे

लेकिन दूसरी ओर भाजपा इस मामले में जदयू पर 20 पड़ सकती है कि उसके दल में जो नेता हैं उनमें अधिकांश भाजपा के अपने ही हैं. संघर्ष के दिनों से लेकर अब तक साथ हैं. यानी भाजपा में नेताओं की जमात अपनी पार्टी के लिए बनिस्बत भरोसेमंद है जबकि नीतीश कुमार और जदयू का मोर्चा इस मामले में कमजोर लगता है. जदयू के कई पुराने साथी जो नीतीश के खासमखास माने जाते थे वे नीतीश से दूर हो चुके हैं या उन्हें दूर कर दिया गया है. कुछ ऐसे भी हैं जो जदयू में रहते हुए ही जदयू की कब्र खोदने में लगे हुए हैं. इसके अलावा फिलहाल जो नीतीश कुमार और जदयू की मंडली है उसमें  अधिकांश लालू प्रसाद के बुरे दिन आने पर उनका साथ छोड़कर आए या सत्ता की चमक में नीतीश के साथ हुए नेता हैं.

दूसरी बात यह कही जा रही है कि चूंकि नीतीश कुमार ने पिछले सात साल में सब कुछ अपने पाले में कर रखा है और बिहार सरकार के नाम पर नीतीश की छवि ही चमकी है और इसका लाभ उन्हें और उनके दल को अलग होने की स्थिति में भी मिलेगा तो यह एक हद तक संभव है. लेकिन राजनीतिक जानकारों के एक वर्ग की मानें तो एक हद तक इसके उलट स्थिति उत्पन्न होने की भी गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता. अगर सभी सफलताओं का श्रेय नीतीश के खाते में ही जाता रहा है और भाजपा मौन साधकर सिर्फ तमाशबीन भर रही है तो दोनों दलों के अलगाव के बाद नीतीश कुमार के मत्थे ही तमाम विफलताओं और गलतियों का श्रेय भी जाएगा. तब यह संभव हो सकता है कि जिन गलतियों का दोष नीतीश पर मढ़े जाने से वे कमजोर होंगे या बैकफुट पर आएंगे, नीतीश की वही गलतियां अलगाव की स्थिति में भाजपा के लिए ‘विटामिन की गोली’ की तरह काम करेंगी. मसलन, फारबिसगंज गोली कांड पर नीतीश की अब तक की चुप्पी और कोई ठोस कार्रवाई की पहल तक नहीं करना जैसे कारक सीमांचल के मुसलमानों के एक हिस्से में गलत संदेश लेकर गए हैं. बताया जाता है कि नीतीश को यह चुप्पी इसलिए साधनी पड़ी थी क्योंकि फारबिसगंज के भजनपुरा में जिस जमीन को लेकर गोलीकांड तक की स्थिति आई उसमें अशोक अग्रवाल एक बड़े पार्टनर रहे हैं, जो भाजपा के पार्षद रहे हैं और सुशील मोदी के काफी करीबी भी. फारबिसगंज पर चुप्पी की सजा नीतीश को अकेले भुगतनी पड़ सकती है और सीमांचल इलाके में हिंदू मतों के ध्रुवीकरण के जरिए राजनीति करते हुए उस इलाके में ठीक-ठाक स्थिति रखने वाली भाजपा को नीतीश की इस चुप्पी का फायदा भी मिल सकता है. इसी तरह दो जून को ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद राजधानी पटना की सड़कों पर हुआ तांडव और उस पर सरकार की चुप्पी को लेकर भी नीतीश को घोर आलोचना झेलनी पड़ी है और आगे भी उसका असर बने रहने की गुंजाइश है. पिछड़ों-दलितों के एक बड़े खेमे में यह संदेश गया है कि मुखिया के ऊंची जाति के होने और भाजपा के दबाव की वजह से नीतीश ने राजधानी में तांडव मचाने की छूट दी. अगर यह दूसरी जाति का मामला होता तो प्रशासन चुस्त नजर आता. मुखिया की शवयात्रा में अंतिम संस्कार के समय मुखिया के परिजनों व समर्थकों से अपनी नजदीकी दिखाकर और पहले भी कई बार रणवीर सेना के पक्ष में परोक्ष तौर पर बयान देकर भाजपा एक खास जाति के प्रति अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता दिखा चुकी है.

ऐसी ही कई और बातें हैं जिन पर नीतीश कुमार को सफलताओं के साथ विफलताओं की भी जिम्मेदारी लेनी होगी. चूंकि नीतीश कुमार के स्वभाव से अपनी गलतियों को स्वीकारना गायब माना जाता है इसलिए परेशानी और ज्यादा होगी.
लेकिन इन तमाम बातों के बाद बिहार में किसी नेता की सबसे मजबूत कसौटी उसके जातीय व सामाजिक आधार को भी माना जाता है. अगर इस आधार पर भाजपा और जदयू को अलग-अलग कसने की कोशिश करें तो एक द्वंद्व-दुविधा की स्थिति बनती है. प्रेक्षकों का आकलन है कि अगली बार लोकसभा या विधानसभा, जो भी चुनाव होगा, उसमें अतिपिछड़ों और सवर्णों का मत सत्ता की राजनीति की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाएगा. साथ ही इस बात पर भी दिशा तय होगी कि जो मुसलमान लालू प्रसाद के माई यानी मुसलिम-यादव समीकरण को दरकाकर नीतीश के पाले में आ गए थे वे नीतीश के साथ ही बने रहते हैं या फिर लालू प्रसाद की ओर शिफ्ट होते हैं.

अतिपिछड़ों में 119 जातियां आती हैं. यादव, कोईरी, कुर्मी और बनिया को छोड़ अमूमन सभी पिछड़ी जातियां इसी समूह में शामिल हैं. पिछले चुनाव में इस समूह का सबसे ज्यादा फायदा नीतीश कुमार को मिला था. इनकी आबादी करीब 42 प्रतिशत है. इस लिहाज से बिहार की राजनीति में फिलहाल यह सबसे मजबूत समूह है. नीतीश ने पिछड़ों और अतिपिछड़ों का बंटवारा किया था, इसलिए स्वाभाविक तौर पर वे इस समूह की उम्मीदों और आकांक्षाओं के सबसे बड़े नेता बने थे. लेकिन अब इसी समूह में नीतीश के प्रति नाराजगी का भाव भी उभरा है. प्रशासन और सत्ता पर सवर्णों का दबदबा और ठेका-पट्टा आदि में पिछड़ों का ही दबदबा कायम रहना अतिपिछड़े समूह को नाराज किए हुए है. अतिपिछड़ों के अलग समूह में बंटवारे से पहले लालू प्रसाद इस समूह के स्वाभाविक नेता हुआ करते थे. इस बीच भाजपा ने भी कर्पूरी ठाकुर की जयंती मनाकर, उन्हें भारत रत्न दिए जाने की मांग करके, मुजफ्फरपुर में सहनियों की रैली करके इस समूह के बीच अपना जनाधार बढ़ाने का काम किया है. इतने से अति-पिछड़ा समूह भाजपा के पास चला जाएगा या दूसरी स्थिति में उसका लालू प्रसाद के प्रति पुराना मोह जग जाएगा, यह कहना तो जल्दबाजी होगी, लेकिन यह तय है कि नीतीश यदि इस समूह की नाराजगी दूर नहीं कर पाते हैं तो अलग राह अपनाने के बाद उन्हें एक बड़े झटके का सामना करना पड़ सकता है.

एक वर्ग का मानना है कि अलगाव होने पर जदयू की तुलना में भाजपा की स्थिति मजबूत हो जाएगी क्योंकि वह व्यापक सांगठनिक आधार वाली पार्टी है

नीतीश का दूसरा महत्वपूर्ण ब्लॉक महादलितों का माना जाता है, लेकिन उस समूह में भी आजकल उबाल दिखता है. महादलितों के एक नेता रामचंद्र राम ने पिछले सप्ताह इस्तीफा दिया. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि नीतीश के राज में अफसरों का कुनबा महादलितों के साथ खिलवाड़ कर रहा है और योजनाओं में सिर्फ लूट मची हुई है. महादलितों के नाम पर हाल में बड़े घोटाले भी सामने आ चुके हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार उन पर तेजी से बढ़े हमले भी इस समूह को नाराज करने के लिए एक तथ्य मुहैया कराते हैं. ऐसे में इस समूह पर नीतीश की कितनी पकड़ बनी रहती है या पकड़ को मजबूत करने के लिए नीतीश कौन-सी अतिरिक्त कवायद करते हैं, इस बात पर भी कुछ हद तक यह निर्भर करेगा कि अलगाव की स्थिति में वे कितने मजबूत रहेंगे. भाजपा ने भोला पासवान शास्त्री जैसे नेता को बड़े फलक पर याद करके, लगातार दलित सहभोज आदि आयोजित करके इस समूह में भी सेंधमारी की कोशिश की है.

इन सबके साथ एक अहम फैक्टर मुसलमान हैं, जिनकी आबादी करीब 16.5 प्रतिशत है. इसमें भी पसमांदा मुसलमानों की आबादी कई सर्वेक्षणों के आधार पर करीब 70-80 प्रतिशत तक मानी जाती है. नीतीश कुमार पसमांदा मुसलमानों के पैरोकार नेता माने जाते हैं. 2005 में दूसरी बार नवंबर में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तो नीतीश के पाले में पसमांदा मतों का थोड़ा ध्रुवीकरण हुआ और वे मजबूत हुए थे. 2010 में नीतीक्ष के पक्ष में पसमांदा मतों का ध्रुवीकरण और भी ज्यादा हुआ. इससे उनके जनाधार में और बढ़ोतरी हुई क्योंकि राज्य में 20 से 25 प्रतिशत सीटें ऐसी हैं जहां इनकी आबादी 20-25 प्रतिशत तक मानी जाती है और ये कुछ हद तक समीकरण को बनाने-बिगाड़ने की स्थिति में हैं. पसमांदा मुसलमानों का या संपूर्णता में मुसलमानों का भले ही भाजपा को वोट देने से कोई मामला नहीं जुड़ता हो, लेकिन भाजपा से अलग होने के बाद नीतीश के भविष्य को तय करने में ये अहम फैक्टर होंगे. नीतीश की दूसरी पारी के करीब दो साल गुजरने पर पसमांदा मुसलमानों की नाराजगी बढ़ती जा रही है. इसकी कई वजहें बताई जाती हैं. नीतीश की कैबिनेट में दो मुसलमान मंत्री हैं- परवीन अमानुल्लाह और शाहीद अली खान ये दोनों ही अगड़ी श्रेणी से आते हैं. इसी तरह बिहार मदरसा बोर्ड, हज कमेटी, सुन्नी वक्फ बोर्ड, सिया वक्फ बोर्ड आदि पर भी अगड़े मुसलमान काबिज हैं. पसमांदा मुसलमान इसलिए भी नाराज हैं कि मल्लिक मुसलमानों को पिछड़ी सूची में शामिल कर लिया गया है जिन्हें हटाने की मांग लगातार हो रही है. इसी तरह तालीमी मरकज, हुनर-औजार आदि योजनाओं का बुरा हाल, स्कॉलरशिप राशि का नहीं मिलना और मदरसों की मान्यता का मामला अधर में लटके रहना नीतीश के लिए परेशानी का सबब बन सकता है.

अतिपिछड़ों, महादलितों या पसमांदा मुसलमानों की चर्चा इसलिए भी की जा रही है कि मात्र 2.6 प्रतिशत आबादी वाली कुरमी जाति से आने वाले नीतीश भाजपा से अलग होने के बाद अपने बूते बढ़ेंगे तो यही सब उन्हें मजबूती प्रदान करेंगे, वरना अपनी जाति के आधार पर लालू हमेशा बड़े नेता बने रहेंगे, क्योंकि राज्य में यादव आबादी करीब 11 फीसदी है.

इन सबके बाद भाजपा और जदयू, दोनों ही के लिए सबसे अहम फैक्टर होगा सवर्ण समूह और शहरी मध्यवर्ग का झुकाव. कांग्रेस से छिटके शहरी मध्यवर्ग और सवर्णों को स्वाभाविक तौर पर भाजपा का मतदाता माना जाता है और बिहार में भाजपा को सवर्णों की पार्टी के तौर पर देखा भी जाता है. लेकिन नीतीश कुमार भी सवर्णों के प्रिय नेता हैं, उनके दल में भी सवर्ण नेताओं की भरमार है और पिछले चुनाव में भी सवर्णों ने उन्हें दिल खोलकर समर्थन दिया था. नीतीश कुमार और सवर्ण समूह का ऐसा राजनीतिक रिश्ता बना है कि उसके कारण बिहार में  ‘कुर्मी को ताज और सवर्णों का राज’ का जुमला चल रहा है. बिहार में सवर्णों की आबादी करीब 15 प्रतिशत है. इसमें भूमिहारों को लालू विरोधी माना जाता रहा है और जिस दिन भाजपा-जदयू में अलगाव होगा, उस दिन यह जातीय समूह संभावनाओं के आधार पर शिफ्ट करेगा. अगर लालू को सत्ता से दूर रखने की क्षमता नीतीश में दिखेगी तो यह समूह भाजपा के बजाय नीतीश के साथ जाना ज्यादा पसंद करेगा. दूसरे, सवर्ण जातियों को भी लगता है कि नीतीश ने कम से कम उनके अहित के लिए कोई काम नहीं किया है, यहां तक कि बंदोपाध्याय कमेटी की भूमि सुधार रिपोर्ट को भी ठंडे बस्ते में डालना सवर्णों को खुश रखने की प्रक्रिया ही मानी जाती है. इसलिए सवर्णों का भी एक हिस्सा नीतीश को आसानी से नकारेगा नहीं, ऐसी संभावना जताई जा रही है. हां, यह जरूर है कि भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश के लिए दोधारी तलवार पर चलने की स्थिति आएगी. सवर्णों को तरजीह देंगे तो अतिपिछड़े और महादलित वोटबैंक पर असर पड़ सकता है, सवर्णों को दरकिनार करेंगे तो स्वाभाविक तौर पर वे भाजपा की ओर झुक जाएंगे.

एक बात और भी है. भाजपा और जदयू के अलगाव के बाद किसका पलड़ा कितना भारी होगा यह एक हद तक नरेंद्र मोदी फैक्टर पर भी निर्भर करेगा. अगर मोदी के नाम पर दोनों दलों के बीच अलगाव होता है तो स्थितियों में भारी उलट-पुलट हो सकती है. सीमांचल के अलावा कई दूसरे इलाकों में जाति के खोल से बाहर निकलकर भाजपा के खेमे में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण होने की गुंजाइश है. लेकिन उसी तरह के ध्रुवीकरण की गुंजाइश नीतीश के पक्ष में भी हो सकती है. मुसलमान और धर्मनिरपेक्ष वोटर  नीतीश के साथ आ सकते हैं.  दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर के फायदा उठाने की कहावत पुरानी है. यानी यह स्थिति मुश्किलों से गुजर रहे लालू प्रसाद के लिए भी संजीवनी जैसी हो सकती है.

और अंत में, दोनों दलों के अलगाव के बाद मजबूत होने की एक चाबी कांग्रेस के पास भी है. अगर बिहार को भारी-भरकम विशेष जैसा कुछ कांग्रेस दे देती है तो नीतीश मजबूत होंगे क्योंकि यह धारणा मजबूत होगी कि यह सब उनकी वजह से ही हुआ, वे राज्य के लिए लड़ने वाले नेता हैं.    

आतंक की आहट!

आईएसआई पंजाब में हमेशा से ही सक्रिय रही है. वे यहां आतंकवाद को दोबारा सक्रिय करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. – केपीएस गिल, पंजाब के पूर्व डीजीपी

कुछ आतंकवादी संगठन पंजाब और उससे सटे राज्यों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. इन संगठनों को बाहर से जिस तरह का समर्थन मिल रहा है, उसे देखकर तो यही लगता है कि ये बड़ा खतरा साबित होने जा रहे हैं. – नेहचल संधू, आईबी प्रमुख 

केंद्र सरकार पंजाब की कानून व्यवस्था पर खास नजर रखे हुए है क्योंकि उग्रवादी समूह अब-भी राज्य में आतंकवाद फैलाने की कोशिश कर रहे हैं. हमारी खुफिया एजेंसियां भी इस संबंध में जागरूक हैं. – पी चिदंबरम, पूर्व गृहमंत्री

पिछले दिनों भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार और जानकार लोगों के पंजाब के बारे में ऐसे कई बयान आए हैं. और इन सब में कमोबेश यही संकेत है कि विदेशों में बैठे कट्टर सिख संगठनों की पूरी कोशिश पंजाब में फिर से आतंकवाद फैलाने और खालिस्तानी आंदोलन पुनर्जीवित करने की है. लेकिन इस चर्चा और चिंता में सबसे निर्णायक मोड़ लंदन में ऑपरेशन ब्लू स्टार के अगुवा रहे रिटायर्ड ले. जनरल केएस बरार पर हुए हमले के बाद आया. हालांकि यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि जनरल बरार पर हमला करने वाले लोग कौन थे और हमले का उद्देश्य क्या था. लेकिन 78 वर्षीय जनरल बरार ने अपने ऊपर हुए हमले को खालिस्तानी आतंकी संगठनों की करतूत बताया है.

बरार पर हुए हमले ने जहां एक तरफ पंजाब में आतंक के दौर के उन पुराने जख्मों को फिर से ताजा कर दिया है. वहीं उसने खालिस्तानी आंदोलन या सिख आतंकवाद को लेकर फिर से एक नई चिंता को जन्म दिया है. यदि कुछ तथ्यों पर नजर डालें तो यह साफ हो जाता है कि राज्य में फिर से आतंकवाद के उभार की संभावना को सीधे-सीधे नकारा नहीं जा सकता. आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच साल में राज्य में 184 खालिस्तानी आतंकवादियों को गिरफ्तार किया गया है.  पिछले दिनों ही पाकिस्तान स्थित बब्बर खालसा इंटरनेशनल के दो आतंकी दलजीत सिंह बिट्टू और कुलबीर सिंह बारापिंड को पुलिस ने गिरफ्तार किया है. इनके ऊपर आरोप है कि उन्होंने हवाला के द्वारा प्राप्त लगभग एक करोड़ रुपए राज्य में पूर्व आतंकवादियों के परिवारों के बीच वितरित किए हैं.

एक अन्य ब्रिटिश नागरिक जसवंत सिंह आजाद को भी हाल ही में पंजाब पुलिस ने गिरफ्तार किया है जिसके बारे में पुलिस का कहना है कि उसने भी लगभग एक करोड़ रुपए पूर्व आतंकवादियों के परिवारों के साथ ही बब्बर खालसा इंटरनेशनल के पंजाब में मौजूद स्लीपर सेलों (समाज की मुख्यधारा में रह रहे लोग व संगठन जो गुप्त रूप से अपने पितृ संगठन की गतिविधियों से जुड़े रहते हैं) के बीच वितरित किए हैं. पुलिस के मुताबिक आजाद ने पूछताछ के दौरान लगभग एक दर्जन ब्रिटिश नागरिकों के नाम पुलिस को बताए हैं जो राज्य में खालिस्तानी आंदोलन को पुनर्जीवित करने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं. ऐसा माना जा रहा है कि विदेशों में स्थित सिख कट्टरपंथी संगठनों ने राज्य में अपना एक मजबूत अंडरग्राउंड नेटवर्क तैयार कर रखा है.

अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में ‘शहीदों’ की याद में बन रहे स्मारक से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यह है कि शहीद किसे माना जाए ?

खुफिया अधिकारी बताते हैं कि खालिस्तानी आंदोलन से जुड़े तमाम संगठनों के मुख्यालय पाकिस्तान में हैं और यहां आईएसआई से उन्हें हथियार, पैसा और ट्रेनिंग समेत हर तरह का सहयोग और समर्थन मिल रहा है. बब्बर खालसा इंटरनेशनल (बीकेआई) के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि भारत में वारदात करने के लिए अब यह विदेशी मॉड्यूल (संगठन के बाहर के आतंकवादियों का इस्तेमाल) का प्रयोग कर रहा है. इसी रणनीति का प्रयोग करते हुए उसने लगभग दो साल पहले राष्ट्रीय सिख संगत के प्रमुख रुल्दा सिंह पटियाला की हत्या कराई थी. खुफिया विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि संगठन राज्य में अपने स्लीपर सेलों की एक बड़ी श्रृंखला बना चुका है. जिन्हें वह विभिन्न तरीके अपनाकर लगातार हथियार और पैसे उन तक भिजवा रहा है.

स्लीपर सेलों को तैयार करने के अलावा आतंकी संगठनों के निशाने पर वे परिवार भी हैं जिनके घर से कभी कोई सदस्य आतंकवाद में शामिल रहा है.  खुफिया विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी जानकारी देते हैं, ‘ उन परिवारों को पैसा देकर एक तरह से पेंशन दी जा रही है. इससे आतंकवादियों के दो काम हो रहे हैं. वे इन परिवारों को खुद से जोड़  रहे हैं. साथ ही आम लोगों में सहानुभूति बटोरते हुए यह संदेश भी दे रहे हैं कि सरकार लोगों का ख्याल नहीं रख रही जबकि ये संगठन हमेशा उनके साथ हैं.’ सूत्र बताते हैं कि खालिस्तानी संगठनों ने विदेशों में कई सामाजिक संगठनों का गठन किया है. इनमें दान संगठन, मानवाधिकार संगठन से लेकर गुरुद्वारा आदि के संचालन के लिए कई समूह बनाए गए हैं. इन संगठनों के फंड का सबसे बड़ा स्रोत दान है. सुरक्षा अधिकारी कहते हैं कि कई देश अभी ऐसे हैं जो खालिस्तानी आतंकियों पर अभी सख्ती नहीं बरत रहे हैं. यही कारण है कि कनाडा जैसे देशों में खालिस्तानी संगठन खुलेआम भारत विरोधी बातें करते हुए देखे जा सकते हैं.

कनाडा के अलावा ब्रिटेन भी सिख कट्टरपंथियों का एक प्रमुख गढ़ बनता जा रहा है. हालांकि 1980 के दशक में खालिस्तानी चरमपंथ के उदय के समय से ही ब्रिटेन में सिख कट्टरपंथ काफी तेजी से जड़ें जमाना शुरू कर चुका था. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ब्रिटिश प्रशासन की सख्ती के कारण ये लगभग समाप्त होने के कगार पर आ गया था. लेकिन पिछले कुछ साल में कट्टरपंथियों ने बहुत तेजी से खुद को संगठित किया है. इनके संगठन कई बार पाकिस्तानी संगठनों के साथ मिलकर भारत विरोधी प्रदर्शन करते हैं. ऐसे ही जब खालिस्तान संबंधी कोई आंदोलन या प्रदर्शन हो रहा हो तो उसमें ये पाकिस्तानी भी हिस्सा लेते हैं.

ब्रिटेन में जो आतंकवादी संगठन पूरी तरह सक्रिय हैं उनमें बब्बर खालसा इंटरनेशनल, इंटरनेशनल सिख यूथ फेडरेशन, दल खालसा और खालिस्तान कमांडो फोर्स आदि शामिल हैं. जिनमें से दल खालसा और खालिस्तान कमांडो फोर्स पर ब्रिटेन में प्रतिबंध नहीं है. इसमें से दल खालसा ब्रिटेन के युवाओं के बीच पिछले कुछ समय में  काफी तेजी से लोकप्रिय हुआ है.

अधिकारी बताते हैं कि ये आतंकी संगठन पंजाब स्थित अपने सूत्रों से लगातार संपर्क में हैं. हाल ही में एक बड़ा हंगामा उस समय मचा जब ये खबर आई कि आतंकवादी पटियाला स्थित हाई सिक्योरिटी वाली नाभा जेल से फरार होने के लिए सुरंग खोद चुके हैं और वे किसी समय वहां से बाहर भाग सकते हैं. उल्लेखनीय है कि नाभा जेल में बीकेआई समेत और भी कई अन्य आतंकी संगठनों के खूंखार आतंकवादी कैद हैं. सरकार के पास खबर पहुंचते ही उसके हाथ-पांव फूल गए. इसके बाद जांच एजेंसियों ने जेल और उसके आसपास के इलाके की सघन जांच की. खैर यहां कोई सुरंग तो नहीं मिली लेकिन जांच एजेंसियों के हाथ कुछ ऐसे तथ्य लगे जिनसे उनके होश उड़ गए. जेल से लगभग कई हजार कॉल विदेशों में की गई थीं. 

कॉल डिटेल्स से पता चला कि ये लोग विदेशों में स्थित आतंकी संगठनों के लगातार संपर्क में थे. ऐसा नहीं था कि इन्होंने सिर्फ जेल से विदेशों में फोन किया हो बल्कि जेल से बाहर कोर्ट जाने के समय भी विदेश में फोन पर बात की थी. ऐसे में सुरक्षाकर्मियों की भूमिका पर भी प्रश्न उठे थे. जानकारों का एक वर्ग ये मानता है कि एक तरफ जहां विभिन्न खालिस्तानी आतंकी संगठनों द्वारा राज्य में अस्थिरता व आतंक फैलाने तथा खालिस्तानी आंदोलन को पुनः जीवित करने की लगातार कोशिश की जा रही है वहीं दूसरी तरफ राज्य की राजनीति भी कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेकने और अलगाववादियों के मंसूबों को अपनी हरकतों से लगातार मजबूत करती आ रही है.

राज्य की अकाली दल सरकार पर ये गंभीर आरोप लग रहे हैं कि वह जान-बूझकर राज्य में कट्टरपंथी ताकत को मजबूत कर रही है. हाल ही में अकाली दल के नेतृत्व वाली एसजीपीसी ने स्वर्ण मंदिर परिसर में ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान मारे गए लोगों की याद में स्मारक बनाने का काम शुरू किया है. शुरुआत में ऐसी खबरें आईं कि स्मारक ऑपरेशन के दौरान मारे गए जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके अनुयायियों की याद में बनाया जा रहा है. यह भी कहा गया कि स्मारक में सभी मृतकों के नाम दीवारों पर लिखे जाएंगे. इनमें शहीद का दर्जा प्राप्त भिंडरावाले का नाम सबसे ऊपर होगा. इनकी तस्वीरें भी इस स्मारक में लगाई जाएंगी. ऑपरेशन के दौरान जिन प्रमुख चीजों को नुकसान पहुंचा उनको भी इसमें प्रदर्शित और संरक्षित किया जाएगा. इसमें सोने की वे प्लेटें और वह पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब भी होंगे जिनपर गोली के निशान मौजूद हैं.

लेकिन जब मामले ने तूल पकड़ा तो अकाली दल के अध्यक्ष और राज्य के उपमुख्यमंत्री सुखबीर बादल ने सफाई देते हुए कहा, ‘ सैकड़ों की संख्या में सिखों की मौत ऑपरेशन ब्लू स्टार के समय स्वर्ण मंदिर में हुई थी. उन लोगों की ही याद में ये गुरुद्वारा बनाया जा रहा है. यह किसी खास एक व्यक्ति या व्यक्तियों को समर्पित नहीं है.’ इसके बावजूद आलोचकों का कहना है कि अकाली दल जिसके हाथों में एसजीपीसी का नियंत्रण है वह एसजीपीसी को ढाल बनाकर अपनी कट्टरपंथ की राजनीति को आगे बढ़ा रहा है. और यह सब कुछ आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर हो रहा है.

कट्टरपंथी संगठन और उनके प्रमुख

संगठन :  बब्बर खालसा इंटरनेशनल (बीकेआई)
मुखिया : वाधवा सिंह बब्बर
बीकेआई खालिस्तान समर्थक सबसे पुराना और प्रभावशाली संगठन है जिसकी गतिविधियां पाकिस्तान से संचालित होती हैं

संगठन :  दल खालसा
मुखिया : एचएस धामी
इसका मुख्यालय अमृतसर में है और यही एकमात्र संगठन है जो फिलहाल खालिस्तान की मांग शांतिपूर्ण ढंग से कर रहा है

संगठन :  खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स (केजेएफ)
मुखिया : रंजीत सिंह नीता
इसका मुख्यालय पाकिस्तान में है.जम्मू में रहने वाले सिख बड़ी संख्या में इस संगठन के साथ जुड़े हुए हैं

संगठन :  इंटरनेशनल यूथ सिख फेडरेशन
मुखिया : लखबीर सिंह रोड
पाकिस्तान के लाहौर में इसका मुख्यालय है. इस संगठन का नेटवर्क कनाडा, ब्रिटेन और जर्मनी आदि देशों तक फैला है

संगठन :  खालिस्तान टाइगर फोर्स (केटीएफ)
मुखिया : जगतार सिंह
कनाडा, अमेरिका सहित यूरोपीय देशों में सक्रिय यह संगठन पहले बीकेआई के साथ मिलकर काम करता था

स्मारक बनने के इस पूरे घटनाक्रम से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर वे शहीद कौन हैं जिनकी याद में इसका निर्माण हो रहा है. क्या वे शहीद आम श्रृद्धालु हैं जो ऑपरेशन ब्लू स्टार में मारे गए या वे हथियारबंद भिंडरावाले और उनके अनुयायी या फिर सेना के लोग जिन्हें पूरा देश शहीद मानता है. शहीद की इसी परिभाषा को लेकर पेंच फंसा है. अकाली दल और एसजीपीसी के लगभग सभी नेता इस जगह आकर चुप हो जाते हैं. यह सवाल जब तहलका ने अकाली दल से राज्य सभा सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के पुत्र नरेश गुजराल से पूछा तो उनका कहना था कि शहीदों की परिभाषा में वे सभी लोग शामिल हैं जो उस दिन वहां प्रांगण में मारे गए थे. उनसे जब ये पूछा गया कि क्या इसमें सैनिक भी शामिल हैं तो गुजराल ने इससे एक बार सहमति जरूर जताई लेकिन आगे बात करने से मना कर दिया. स्मारक बनाने के औचित्य के प्रश्न पर अमृतसर स्थित गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नवदीप सिंह कहते हैं, ‘ आम सिखों में ये भावना है कि अगर मेमोरियल बनाना भी है तो इसे स्वर्ण मंदिर के अंदर नहीं बल्कि बाहर किसी और जगह बनाया जाना चाहिए. मंदिर की पवित्रता हर हाल में कायम रहनी चाहिए.’

ऐसा नहीं है कि स्मारक वह पहला मामला है जिसको लेकर विवाद चल रहा है. पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजौना की फांसी की सजा टलवाने को लेकर जिस तरह से प्रदेश सरकार और एसजीपीसी अति सक्रिय नजर आई उससे भी सरकार की मंशा सवालों के घेरे में आई है. सरकार ने अपना पूरा जोर लगाकर राजौना की फांसी की सजा को टलवाया. हद तो तब हो गई जब कुछ दिनों के अंदर एसजीपीसी ने राजौना को जिंदा शहीद का दर्जा दे दिया.
उल्लेखनीय है कि राज्य में सिर्फ राजौना को शहीद का दर्जा नहीं दिया गया है. यह परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है. सबसे पहले अकाल तख्त द्वारा जरनैल सिंह भिंडरावाले को शहीद का दर्जा दिया गया. उसके बाद इंदिरा गांधी के हत्यारे केहर सिंह और सतवंत सिंह को शहीद का दर्जा दिया गया. उसके बाद ऑपरेशन ब्लू स्टार के समय भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष रहे जनरल एएस वैद्य के हत्यारे  सुखदेव सिंह ‘सुखा’ और हरजिंदर सिंह ‘जिंदा’ को शहीद की उपाधि एसजीपीसी द्वारा दी गई है. सिर्फ उपाधि नहीं बल्कि हर साल इनकी मौत की बरसी स्वर्ण मंदिर में मनाई जाती है. जिसमें उनके लिए अखंड पाठ करने के साथ ही उस मौके पर उनके परिवार वालों का सम्मान भी किया जाता है.

इस बार भी नौ अक्टूबर को स्वर्ण मंदिर में जनरल एएस वैद्य के हत्यारे सुखदेव सिंह‘ सुक्खा और हरजिंदर सिंह ‘ जिंदा की बरसी के दिन एसजीपीसी की तरफ से न सिर्फ अखंड पाठ का आयोजन किया गया साथ ही सुखा और जिंदा के परिवारवालों को सम्मानित भी किया गया. इसके बाद यह घटना अचानक राष्ट्रीय मीडिया में छा गई थी.

‘60-70 के दशक में पंजाब में वामपंथी आंदोलन का असर था, लेकिन उसका प्रभाव धीरे-धीरे खत्म होने के साथ उसकी जगह कट्टरपंथियों ने ले ली जानकार मानते हैं कि जब इस तरह ऐसे लोगों को एसजीपीसी और वर्तमान अकाली दल सरकार द्वारा हीरो बनाया जाएगा तो फिर किस तरह आने वाली पीढ़ी को फिर अलगाव के रास्ते पर जाने से रोक पाएंगे. ऐसे में क्या ये संभव है कि भविष्य में पंजाब में अलगाववादी ताकतें और अधिक मुखर हो उठें और आतंकवाद के दिनों का सामना फिर से पंजाब के लोगों को करना पड़े? पंजाब विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर मंजीत सिंह इस सवाल पर कहते हैं, ‘तुरंत तो ऐसी कोई स्थिति दिखाई नहीं देती. दूसरी बात यह है कि पंजाब के लोगों ने 1982 से 1992 के बीच जो आतंकवाद झेला है उसकी पीड़ा से वे आज तक कराह रहे हैं. ऐसे में समाज की तरफ से अलगाववादियों को कोई समर्थन मिलने की संभावना दिखाई नहीं देती. लेकिन भविष्य में क्या होगा इसके बारे में नहीं कहा जा सकता. क्योंकि जिस तरह से देश की आर्थिक नीति चल रही है उसके कारण आने वाले समय में और अधिक लोग बेरोजगार होंगे. आगे चलकर समाज में तनाव या संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है तो फिर ऐसे में किसी अप्रिय स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है.’
पंजाब एक धार्मिक समाज है और यहां की राजनीति धर्म में रची बसी हुई है, ऐसे में धर्म को लेकर कभी कुछ अगर इधर-उधर होता है तो फिर उससे पूरी राजनीति और समाज प्रभावित होने लगता है. ऐसे में राजनीतिक विकल्पहीनता एक खतरनाक स्थिति होती है. इस पर बात करते हुए मंजीत कहते हैं, ‘ पंजाब में 1950-60 के दशक में वाम दलों का काफी प्रभाव था लेकिन बाद में वह खत्म हो गया. यही कारण है कि उसका स्थान दूसरे तरह के आंदोलन ने ले लिया. लोगों को लगा कि वाम दल तो हवा-हवाई बातें करते हैं वहीं दूसरी तरफ खालिस्तानी हैं, जो तुरंत क्रांति ले आएंगे. आज अगर पंजाब के समाज में कोई गुस्सा उभरता है तो फिर कट्टरपंथियों की तरफ जाने के अलावा पंजाब में कोई दूसरी वैकल्पिक राजनीतिक ताकत मौजूद नहीं है. इसलिए सिस्टम के प्रति जो भी नाराज होगा उसके उस तरफ जाने की प्रबल संभावना रहेगी.’

1984 के सिख विरोधी दंगों में न्याय न मिलने की घटना को भी पंजाब में आतंकवाद की सुगबुगाहट बढ़ने के लिए जिम्मेदार वजह माना जा रहा है. जानकार बताते हैं कि तकरीबन 4,000 के करीब सिखों के कत्ल और उस नरसंहार के 28 साल बाद भी उसमें न्याय न होने से सिख समाज के ज्यादातर लोगों के मन में खुद को पीड़ित समझने की भावना अब-भी मौजूद है. गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान विभाग के प्रमुख सुखदेव सिंह सोहल इस बात से इत्तफाक रखते हैं. उनके मुताबिक, ‘ समाज में अभी तत्काल तो ऐसा कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहा है, लेकिन अगर आप सोचते हैं कि सिख, ऑपरेशन ब्लूस्टार को एक झटके में भुला देगा तो ऐसा नहीं हो सकता. लोगों की मेमोरी का वे आज भी हिस्सा है. 1984 के दंगे में आज तक न्याय नहीं हुआ उसका जख्म लोगों के दिल में आज तक ताजा है.’

पंजाब में आतंकवाद उभरने के संकेतों पर राजनीतिक दलों के भी अपने-अपने विचार राजनीति से संचालित दिख रहे हैं. अकाली दल के नरेश गुजराल कहते हैं, ‘ सब कांग्रेस की रणनीति है. चुनाव आने के समय वह इस तरह की बातें शुरू कर देती है. लोगों को समझना होगा कि सिख मानस में स्वर्ण मंदिर से बड़ी कोई चीज नहीं है. कोई सिख अपने पिता पर हमला बर्दाश्त कर सकता है लेकिन स्वर्ण मंदिर पर नहीं.’ स्मारक से लोगों के जख्म कुरेदने के सवाल पर वे कहते हैं, ‘ ये बताइए आखिर उस घटना को भूला कौन है जिसे हम याद करा रहे हैं. मंदिर के अंदर पहले से ही पांच गुरुद्वारे हैं. यह एक और बन जाएगा. बस इतना ही है.’ लेकिन प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सुनील जाखड़ इससे इत्तफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘ आज पंजाब बारूद के ढेर पर बैठा है. बारुद का ढेर हैं वे लाखों नाराज, असंतुष्ट और बेरोजगार युवा. और अगर आप इस तरह से भावनात्मक मसले उठाएंगे, धार्मिक भावनाओं को कुरेदेंगे तो फिर स्थिति बिगड़ने से कौन रोक पाएगा.’  

जाखड़ कहते हैं, ‘ स्मारक बनाने के पीछे दो कारणों से अकाली दल लगे हुए हैं. पहला यह कि पिछले विधानसभा चुनाव में इन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष छवि लोगों के सामने पेश की थी. ताकि और बाकी वर्गों के वोट इन्हें मिल सकें लेकिन चुनाव जीतने के बाद इन्हें लगा कि कहीं ऐसा न हो कि सेक्युलर बनने के चक्कर में इनका परंपरागत वोट बैंक इनसे दूर चला जाए. अपने उसी परंपरागत वोट बैंक को जोड़े रखने के लिए इन्होंने स्मारक बनाने की बात की है. ये सोच रहे हैं कि इस तरह से हम सेक्युलर भी हो जाएंगे और परंपरागत समर्थक भी जुड़े रहेंगे और दोनों के वोट हमें मिलते रहेंगे.’ दूसरे कारण के बारे में वे कहते हैं, ‘स्मारक का मामला इसलिए भी उठाया गया है ताकि जब सुखबीर बादल को मुख्यमंत्री बनाया जाए तो उसका कट्टरपंथी विरोध न करें.’ 

लड़ाई की कहानी

भारत-चीन युद्ध को पूरी तरह से समझने के लिए भारत की आजादी, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) के निर्माण और उसके तिब्बत पर नियंत्रण की घटनाओं तक जाना होगा. या शायद इनके पहले हुई शिमला बैठक तक- जब भारत सरकार, चीन और तिब्बत, इन तीन पक्षों के बीच बैठक हुई थी जिसमें मैकमेहॉन लाइन का निर्धारण किया गया था. चीन ने ही इस समझौते की पहल की थी, लेकिन बाद में उसने ही यह कहते हुए इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था कि वह आंतरिक तिब्बत और बाहरी तिब्बत के लिए निर्धारित की गई परिभाषा से असहमत है. मार्च, 1947 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार ने एशियाई देशों के बीच संबंध बेहतर करने के लिए दिल्ली में एक बैठक आयोजित की. इसमें तिब्बत और चीन दोनों को आमंत्रित किया
गया था. 1949 में जब चीन या पीआरसी अस्तित्व में आया तब भारत शुरुआती देशों में था जिसने उसे तुरंत मान्यता दी और उसके बाद ‘एक चीन’ की नीति को अपना लिया.

1951 में चीन ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया. तिब्बत को स्वायत्तता देते हुए 17 बिंदुओं का समझौता तैयार किया गया जिसके मुताबिक उसे चीन की संप्रभुता में रहना था. इसके बाद समस्याविहीन भारत-तिब्बत सीमा समस्याग्रस्त चीन-भारत सीमा में बदल गई क्योंकि इसके बाद तिब्बत के क्षेत्र को लेकर चीनी दावों की छाया भारत के अधिकार के तहत आने वाले कुछ हिस्सों तक भी पहुंच गई थी.  भारत और चीन अधिगृहीत तिब्बत के बीच संबंधों से जुड़ी संधि भारत और चीन के बीच 1954 में हुई. भारत ने तिब्बत पर अपने सभी अधिकार छोड़ दिए, लेकिन इसके बदले में कोई मांग या शर्त नहीं रखी. ‘हिंदी-चीनी, भाई-भाई’ के इसी दौर में नेहरू ने पंचशील सिद्धांतों की नींव रखी. उनकी सोच थी इस तरह से सीमा को सुरक्षित रखा जा सकता है.

दो साल बाद 1956 में दलाई लामा का भारत आगमन हुआ. वे गौतम बुद्ध के प्रबोधन की 2,500वीं वर्षगांठ समारोह में भाग लेने भारत आए थे. दलाई लामा ने उस समय यह कहते हुए वापस तिब्बत लौटने से मना कर दिया था कि चीन स्वायत्तता संबंधी अपने वादे पर अमल नहीं कर रहा है. उसी साल चीन के राष्ट्र प्रमुख चाऊ एन लाऊ भारत यात्रा पर आए और उन्होंने नेहरू से अपने अच्छे संबंधों के आधार पर दलाई लामा को सहमत किया कि वे वापस ल्हासा चलें. लाऊ ने दलाई लामा को आश्वस्त किया कि चीन 17 बिंदुओं वाला समझौता ईमानदारी से लागू करेगा.

1954 में जब नेहरू चीन यात्रा पर थे तो उन्होंने चाऊ एन लाई का ध्यान कुछ गलत नक्शों की तरफ दिलाया जिनमें मैकमेहॉन लाइन और जम्मू-कश्मीर की जॉन्सन लाइन स्थायी सीमा की तरह दर्शाई गई थी (जबकि पहले के नक्शोंं में इसे बिंदुवार लाइन या अस्पष्ट लाइन की तरह दिखाया जाता था). चाऊ एन लाई ने सफाई दी कि चीन को पुराने नक्शे सुधारने का अभी समय नहीं मिला लेकिन जैसे ही उचित समय आएगा यह काम पूरा कर लिया जाएगा. नेहरू को लगा कि चीन का यह रवैया नक्शों  को लेकर भारतीय सोच पर सहमति की मोहर है. हालांकि उन्होंने 1956 में चाऊ एन लाई की भारत यात्रा के दौरान एक बार फिर उनका ध्यान इस तरफ दिलाया लेकिन इस पर ज्यादा जोर नहीं दिया. नेहरू ने उस समय अपने एक बयान में स्वीडन के एक बेहद काबिल राजनयिक के शब्दों का उल्लेख किया था जिसके मुताबिक क्रांति का रास्ता अपनाने के बावजूद चीन को अभी 20-30 साल गरीबी दूर करने और अपना दबदबा हासिल करने में लगेंगे इसलिए इन सालों में चीन को अलग-थलग करने के बजाय उसके साथ मैत्री संबंध विकसित किए जाएं. हालांकि 1960-62 में नेहरू ने उसी राजनयिक के शब्दों की व्याख्या कुछ इस तरह की कि अपने शुरुआती 20-30 साल चीन के लिए सबसे खतरनाक और उथल-पुथल भरे रहेंगे और फिर उसके रुख में परिपक्वता और नरमी आएगी. नेहरू के ये दो विचार कुछ हद तक चीन पर उनकी समझ की अस्पष्टता दिखाते हैं.

1956-57 में चीन ने अक्साई चिन में सड़क का निर्माण किया, लेकिन 1958 में यह बात तब उजागर हुई जब चीन की एक पत्रिका में छपे एक नक्शे में इसे चिह्नित किया गया. भारत ने इस पर अपना विरोध दर्ज कराया. बाद में भारत-चीन सबंधों पर जारी हुए श्वतेपत्रों में यह घोषणा की गई कि अक्साई चिन ‘अविवादित भारतीय क्षेत्र’ है. लेकिन भारत इस पर भी चिंता जता रहा था कि चीन के सैनिक बिना ‘उचित वीजा और दस्तावेजों’ के इस इलाके में आते-जाते रहते हैं. इससे कहा जा सकता है कि नेहरू उस समय भी लचीली नीति अपनाकर मोलभाव करते हुए शांतिपूर्ण समाधान के लिए तैयार थे. हां, लेकिन संसद और जनता को इस बारे में कुछ नहीं पता था.

बाहर से कोई संकेत नहीं दिख रहा था लेकिन नेहरू अपने रुख में बदलाव कर रहे थे. अशोक पार्थसारथी के मुताबिक उनके पिता दिवंगत जी पार्थसारथी (जीपी) को 1958 में बीजिंग में भारतीय उच्चायुक्त नियुक्त किया जा रहा था. मार्च में बीजिंग जाने से ठीक पहले वे नेहरू से मिलने पहुंचे. जीपी से नेहरू ने तब कहा था, ‘जीपी, विदेश मंत्रालय ने तुमसे क्या कहा है? हिंदी-चीनी भाई-भाई? तुम इस पर भरोसा करते हो? मुझे चीनियों पर रत्ती भर भरोसा नहीं है. वे धोखेबाज, पूर्वाग्रही, अहंकारी और अड़ियल हैं. तुम्हें वहां लगातार सतर्क रहना होगा. विदेश मंत्रालय के बजाय वहां से सभी टेलीग्राम सिर्फ मुझे भेजना. मेरे इस निर्देश का जरा भी जिक्र कृष्ण (तत्कालीन विदेश मंत्री- वीके कृष्ण  मेनन) से मत करना. मुझे पता है कि हम तीनों एक ही तरह के विचार रखते हैं फिर भी कृष्ण को लगता है और जो गलत है कि कोई भी कम्युनिस्ट देश हमारे जैसे गुटनिरपेक्ष देश के साथ खराब संबंध नहीं रख सकता.’

15,000 फुट जैसी ऊंचाइयों पर तैनात जवान वहां हल्के स्वेटर और किरमिच के जूते पहने हुए थे, जबकि ऐसी ऊंचाई पर तो भयानक ठंड भी एक दुश्मन होती है

यह इस बात का एक और सटीक उदाहरण है कि किस तरह नेहरू की सोच चीन को लेकर विपरीत ध्रुवों पर चलती थी. इसी साल चीन ने अरुणाचल प्रदेश के लॉन्गजू और खिजेमाने में घुसपैठ कर दी. इसके बाद लद्दाख के कोंग्का पास, गैलवान और चिप चाप घाटी में चीन की सेनाएं आ गईं. टाइम्स ऑफ इंडिया में ये खबरंे काफी पहले से आ रही थीं. पूरे देश में यह मुद्दा काफी गर्म था. मैं सेना के जनसंपर्क अधिकारी राम मोहन राव के साथ लद्दाख में बन रही सड़कों के मुआयने के लिए आयोजित दौरे में शामिल था और तब ही मुझे उड़ती-उड़ती खबरें मिलीं कि पूर्वी सीमा पर कुछ उथल-पुथल चल रही है. आखिर में हम चुशूल पहुंचे. यहां हवाई पट्टी सुरक्षित थी और पैंगांग झील भी.

तिब्बत में 1959 में खंपा विद्रोह भड़कने के बाद दलाई लामा तवांग के रास्ते भारत आ गए. सरकार ने उन्हें और उनके साथ आए तकरीबन एक लाख लोगों को शरणार्थी का दर्जा दे दिया. भारत-चीन संबंधों को एक नया मोड़ देने वाली इस घटना से चीन हतप्रभ और आक्रोशित था. इसके अलावा भारत पर चीन का संदेह बढ़ने की कुछ और वजहें भी थीं. भारत ने नंदा देवी पर्वत पर अमेरिका को एक जासूसी उपकरण लगाने की इजाजत भी दे दी थी ताकि तिब्बत में चीन की हरकतों पर नजर रखी जा सके.
चीन ने अब अपनी सेना और नक्शानवीसों को लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश की ओर आगे बढ़ने का आदेश दे दिया था.

उस समय सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया चीन की रणनीतिक योजना के हिसाब से अपनी योजनाएं बना रहे थे. लेकिन कृष्णा मेनन और उनके सहयोगी बीएन मलिक, जो कि आईबी के मुखिया थे और चतुर अधिकारी माने जाते थे, का मानना था कि भारत की सुरक्षा को असली खतरा पाकिस्तान से है. कृष्ण सेना अधिकारियों के प्रोमोशन, पोस्टिंग और सैन्य रणनीति में लगातार बढ़ते हस्तक्षेप से व्यथित थिमैया ने 1959 में नेहरू को अपना इस्तीफा दे दिया था. गंभीर संकट की आशंका भांपते हुए नेहरू ने थिमैया को इस्तीफा वापस लेने के लिए सहमत कर लिया. और दुर्भाग्य से उन्होंने अपने अधिकारों से समझौता होने के बावजूद इस्तीफा वापस ले लिया. मलिक और मेनन ने नेहरू के दिमाग में यह बात बिठा दी थी कि एक ताकतवर सेना प्रमुख कभी भी तख्तापलट कर सकता है (जैसा कि अयूब खान ने पाकिस्तान में किया था). नेहरू भी तब तक गंभीरता से यह नहीं मान रहे थे कि उत्तर की तरफ से भारत की सुरक्षा को कोई खतरा हो सकता है. हालांकि 1960 के दशक में उन्होंने संसद में कई बार उत्तरी सीमा को लेकर चिंता जाहिर की, लेकिन फिर भी उन्होंने इसे सुरक्षित करने के लिए जरूरी सैन्य तैयारियों पर उतना ध्यान नहीं दिया.

एक दशक बाद सीमा सड़क संगठन के तहत सीमावर्ती इलाकों में सड़कें बनाने का काम शुरू किया गया. इन इलाकों में सैन्य चौकियां भी बनाई गईं. लेकिन इनका कोई खास सैन्य महत्व नहीं था. लद्दाख में बनी 43 सैन्य चौकियों में से ज्यादातर ऐसी थीं कि किसी युद्ध के समय इनको वक्त पर सैन्य मदद भी उपलब्ध नहीं करवाई जा सकती थी. खानापूरी जैसी इन चौकियों की स्थापना का महत्व केवल राजनीतिक था. दरअसल नेहरू तब संसद में यह दावा करते थे कि भारत की एक इंच जमीन भी असुरक्षित नहीं छोड़ी जाएगी. लेकिन उन्होंने ही अक्साई चिन में चीनी कब्जे को ज्यादा तूल न देते हुए कहा था कि आबादी विहीन यह क्षेत्र बंजर है जहां ‘घास का एक तिनका भी नहीं उगता.’ अगस्त में नेहरू ने दावा किया कि भारतीय सैन्य बलों ने लद्दाख में चीनी कब्जे के कुल 12,000 वर्ग मील इलाके में से  2,500 वर्ग मील हिस्सा वापस ले लिया है. 15 अगस्त, 1962 को अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया की टिप्पणी थी कि चीन को लेकर सरकार की नीति चीनी व्यंजन चौप्सी जैसी है जिसमें थोड़ा-थोड़ा सब कुछ है. सख्ती भी, नरमी भी.  अखबार के शब्द थे, ‘हमें बताया जाता है कि सीमा पर स्थिति गंभीर है और नहीं भी. हम उन पर भारी पड़ रहे हैं और वे भी हम पर भारी पड़ रहे हैं. कभी कहा जाता है कि चीनी पीछे हट रहे हैं और फिर कहा जाता है कि वे आगे बढ़ रहे हैं.’

थिमैया का कार्यकाल खत्म हो रहा था, लेकिन इसके बाद भी पर्दे के पीछे से रक्षा नीति का संचालन जारी था. सेना प्रमुख के लिए थिमैया की पसंद पूर्वी कमान के कमांडर लैफ्टिनेंट जनरल एसपीपी थोराट थे लेकिन इस पद पर पीएन थापर को नियुक्त कर दिया गया. थोराट सरकार के सामने एक दस्तावेज प्रस्तुत कर चुके थे जिसमें कहा गया था कि नॉर्थ ईस्ट फ्रंन्टियर एजेंसी (नेफा यानी अरुणाचल प्रदेश) के लिए हिमालय पर्वत श्रेणी पर प्रथम सुरक्षा पंक्ति बनाने के अलावा भारत को असम तक सुरक्षा व्यवस्था तगड़ी करनी चाहिए ताकि किसी हमले की स्थिति में बेहतर तरीके से तैयार रहे.

हमारा1960 में गोवा को मुक्त कराने के अभियान के दौरान एक विचित्र बात हुई. उस समय जनरल केपी कैंडिथ के नेतृत्व में सेना की 17वीं इन्फैंट्री डिवीजन को गोवा में घुसने का काम सौंपा गया था. सेना के नए चीफ ऑफ जनरल स्टाफ (सीजीएस) लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल भी इस डिवीजन के साथ थे. कौल और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने दो अलग-अलग समयों पर अभियान शुरू करने का एलान किया. किसी भी दूसरी परिस्थिति में इसके परिणाम विनाशकारी होते लेकिन गोवा को भारतीय सेना ने आसानी से फतह कर लिया. इससे शीर्ष नेतृत्व को यह भ्रम हो गया कि बिना किसी खास तैयारी के भी सेना चीन से लोहा ले सकती है. कौल को प्रमोशन देकर जब लेफ्टिनेंट जनरल और उसके बाद चीफ ऑफ जनरल स्टाफ बनाया गया था तो इस पर काफी विवाद हुआ था. दरअसल वे राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लोगों के करीब माने जाते थे और कहा जाता था कि उन्हें शीर्ष नेतृत्व के लायक अनुभव नहीं था.

इन सब घटनाक्रमों के बीच नेहरू ने 12 अक्टूबर, 1962 को बयान दिया कि उन्होंने भारतीय सेना को ‘चीनियों को बाहर निकाल फेंकने’ का आदेश दे दिया है. दिलचस्प है कि दिल्ली के पालम एयरपोर्ट पर यह बयान देते समय वे कोलंबो की यात्रा पर रवाना हो रहे थे.
इससे पहले आठ अक्टूबर को एक नई फोर्थ कोर का गठन किया गया था जिसका मुख्यालय असम के तेजपुर में था. इसका उद्देश्य था पूर्वोत्तर में सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करना. पहले ले. जनरल हरबख्श सिंह को इसका मुखिया बनाया गया मगर जल्द ही उन्हें 33 कोर की जिम्मेदारी देते हुए सिलीगुड़ी भेज दिया गया और इसके बाद उन्हें फिर वेस्टर्न कमांड का जिम्मा दे दिया गया. फोर्थ कोर की जिम्मेदारी कौल को दी गई. लेकिन ऐसा लगता था कि नई दिल्ली में अपने राजनीतिक संपर्कों की वजह से वे खुद का अधिकार क्षेत्र इस जिम्मेदारी से भी ऊपर समझते थे. इससे नेतृत्व से जुड़े विवाद और गहरा गए. कई बार ऐसा लगता था कि सब मुखिया हैं और कई बार ऐसा लगता था कि नेतृत्व गायब है.

इस बीच सैन्य सलाह के खिलाफ और जमीनी हकीकतों के प्रतिकूल नेहरू के आदेश का पालन करते हुए जॉन दलवी के नेतृत्व में एक ब्रिगेड को थाल्गा चोटी (जिसे चीन मैकमेहॉन रेखा से काफी आगे आकर अपना बता रहा था) के नीचे नमका चू नदी के पास तैनात कर दिया गया. एक बार कड़ा मुकाबला करने के बाद ब्रिगेड को पीछे हटना पड़ा और चीनी सेना 25 अक्टूबर को नीचे तवांग तक आ गई. नमका चू युद्ध के दौरान मैं भारत में नहीं था लेकिन उसके तुरंत बाद ही लौट आया था और आते ही मुझे युद्ध पर खबर करने के लिए बंबई से तेजपुर जाने को कहा गया. अब तक नेहरू इस बात से सहमत हो चुके थे कि चीनी मैदानों तक कब्जा करने के लिए दृढ़संकल्प हैं. सारा राष्ट्र उस वक्त उदासी और गुस्से में पूर्वानुमान लगा रहा था. लेकिन सिर्फ एक आदमी ने सही अनुमान लगाए और वे थे टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक स्वर्गीय एनजे नान्पोरिया. अपने एक संपादकीय में उन्होंने बारीकी से समझाते हुए यह तर्क दिया कि चीन आक्रमण के नहीं बल्कि शांतिपूर्ण समझौते और बातचीत के पक्ष में है और भारत को वार्ता करनी चाहिए. सबसे बुरा यही हो सकता है कि चीन भारत को सबक सिखाए और वापस लौट जाए. आलोचकों ने इस बात पर नान्पोरिया की हंसी उड़ाई. मुझे भी यही लगा कि वे कुछ ज्यादा ही सरल हो रहे हैं. लेकिन घटनाओं ने उन्हें बिल्कुल सही साबित किया.

24 अक्टूबर को चौएनली ने प्रस्ताव रखा कि दोनों पक्षों की सीमाएं 20-20 किलोमीटर पीछे हट जाएं. तीन दिन बाद नेहरू ने इस प्रस्ताव को और विस्तृत करके 40-60 किलोमीटर करने की मांग की. चार नवंबर को चो ने यह प्रस्ताव रखा कि चीन मैकमेहॉन रेखा को मानने को तैयार है यदि भारत लद्दाख में मैक डोनाल्ड रेखा को मान ले तो (और दिल्ली समर्थित जोहन्सन रेखा की मांग त्याग दे जो कि और ज्यादा उत्तर की ओर स्थित थी). तब तक मैं असम के तेजपुर पहुंच गया था. मैं प्लांटर्स क्लब में रह रहा था जो अब तक मीडिया का ठिकाना बन चुका था. सेना ने नेफा स्थित मोर्चों पर प्रेस के दौरे का प्रबंध कर दिया था. कई भारतीय और विदेशी पत्रकार और कैमरामैन वहां मौजूद थे. लेकिन इन मोर्चों पर हमने जो देखा उससे हम हैरत में पड़ गए. 15,000 फुट जैसी ऊंचाइयों पर तैनात जवान वहां हल््के स्वेटर और किरमिच के जूते पहने हुए थे, जबकि ऐसी ऊंचाई पर तो भयानक ठंड भी एक दुश्मन होती है. उनकी तैयारियां भी पर्याप्त नहीं थीं.

17 नवंबर को हम तेजपुर लौटे तो खबर मिली कि चीनी आगे बढ़ते ही जा रहे हैं. कई संवाददाता दिल्ली और कलकत्ता लौट गए ताकि अपने लेख और तस्वीरें ज्यादा सरलता से प्रकाशन के लिए भेज सकें. दरअसल खबरों को सेना द्वारा सेंसर किया जा रहा था और इसलिए उनके अखबार के दफ्तर पहुंचने में देर हो जाती थी. मुझे भी बाद में पता चला कि तेजपुर में तैनात प्रेस अधिकारी अपने पास आने वाली ढेर सारी खबरों को संभालने में अक्षम था और इसलिए मेरे द्वारा भेजी गई खबरों में से कुछ ही मेरे कार्यालय पहुंच सकीं और वह भी बुरी तरह से कटी हुईं.

18 नवंबर को खबर आई चीन ने ‘से ला’ को अपने कब्जे में ले लिया है. एक दिन बाद ही दुश्मन सेना अरुणाचल के कमेंग इलाके के पास हिमालय के निचले हिस्से में आ पहुंची. हमारे पक्ष में तब भी भ्रम की स्थिति बनी हुई थी.
19 नवंबर को कौल या किसी और ने फोर्थ कोर को वापस गुवाहटी लौटने के आदेश दे दिए. कहीं और से आदेश आ गया कि ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे तेजपुर को खाली कर दिया जाए. नुनमती रिफाइनरी को उड़ा दिया गया. जिला मजिस्ट्रेट ने अपनी पोस्ट छोड़ दी. छात्र जीवन के मेरे एक मित्र राणा केडीएन सिंह को तार-तार हो रही व्यवस्था का जिम्मा संभालने को कहा गया. उन्होंने शहर की घबराई हुई आबादी को किसी तरह स्टीमरों की सहायता से नदी के दक्षिणी किनारे पर शिफ्ट किया. जो लोग छूट गए या घाट पर देरी से पहुंचे, उन्हें जंगलों और चाय बागानों में ही छिपना पड़ा.

इससे एक दिन पहले भारतीय पत्रकार कस्बा छोड़ चुके थे. उन्होंने समाचार कवरेज से ज्यादा सुरक्षा को प्राथमिकता दी थी. नौ अमेरिकी और ब्रिटिश पत्रकारों के साथ तेजपुर में हम दो ही भारतीय पत्रकार बचे थे. एक मैं और दूसरे समाचार एजेंसी रॉयटर्स से जुड़े प्रेम प्रकाश. हमारे साथ वे 10-14 मनोरोगी भी भटक रहे थे जिन्हें स्थानीय मानसिक अस्पताल के कर्मचारियों ने वहीं छोड़ दिया था. वह मेरे जीवन की सबसे भयानक रात थी. तेजपुर एक भुतहा कस्बा लग रहा था. हम चांद की मध्यम रोशनी में किसी भी संकेत या आवाज की तलाश में चौकन्ने होकर गश्त कर रहे थे. भारतीय स्टेट बैंक ने अपनी करेंसी चेस्ट (जिसमें बैंक की रकम रखी जाती है) जला दी थी. जले हुए नोट हवा में उड़ रहे थे और हमारे साथ घूमते मनोरोगी उनमें से कुछ में सुलगती चिंगारियों की पड़ताल कर रहे थे. कुछ आवारा कुत्ते और बिल्लियां वहां हमारे इकलौते साथी थे.

आधी रात का वक्त रहा होगा. हमारे साथियों में से एक के पास ट्रांजिस्टर भी था जो चल रहा था. अचानक पेकिंग (बीजिंग का तत्कालीन नाम) रेडियो से एक घोषणा हुई. इसमें चीनी सरकार ने युद्धविराम का एलान करते हुए कहा कि अगर भारतीय सेना आगे नहीं बढ़ी तो उसकी सेना ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ वाली पुरानी स्थिति में चली जाएगी जहां वह अक्टूबर से पहले थी. इस खबर ने थके हुए हम लोगों को काफी राहत दी. हम पुराने वीरान से प्लांटर्स क्लब में आराम करने चले गए. खुशकिस्मती से वहां टूना फिश और बीयर जैसी खाने-पीने की सामग्री मौजूद थी जिससे हमारा काम चल गया.

अगली सुबह, सारी दुनिया में यह खबर थी. लेकिन आकाशवाणी (एआईआर) की खबरों के मुताबिक हमारे बहादुर जवान अब भी दुश्मन से लड़ रहे थे, शायद किसी में इतना साहस ही नहीं हो पा रहा था कि वह नेहरू को जगाकर इस संबंध में उनसे आदेश ले पाता. यह खबर इतनी बड़ी थी कि इसे उनकी इजाजत के बिना नहीं लिखा जा सकता था. उन दिनों जनरल से लेकर जवानों तक  और अधिकारियों से लेकर मीडिया तक हर कोई यह जानने के लिए रेडियो पेकिंग ही सुना करता था कि हमारे देश में क्या हो रहा है.

1962 में हुई उस किरकिरी की वजह और कुछ नहीं, राजनीति ही थी. राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने जब सरकार पर भोलेपन और लापरवाही का आरोप लगाया तो उन्होंने एक तरह से यही कहा. खुद नेहरू ने भी यह स्वीकार किया. उनका कहना था, ‘हम हकीकत से दूर हो गए थे. . . हम एक कृत्रिम दुनिया में जी रहे थे जो हमने ही बनाई थी.’ यह अलग बात है कि इसके बावजूद उन्होंने कृष्ण मेनन को मंत्रिमंडल में बनाए रखा. मेनन तभी हटाए गए जब जनता के भारी गुस्से के चलते नेहरू को लगा कि खुद उनकी कुर्सी खतरे में आ गई है.नेहरू टूट चुके थे. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. अरुणाचल के कस्बे बोमडीला में पराजय के बाद उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी को सैन्य सहायता के लिए जो खत लिखा था वह उनकी दयनीय दशा दिखाता है. उनको डर था कि अगर चीनियों को रोका नहीं गया तो वे समूचे पूर्वोत्तर पर कब्जा कर लेंगे. नेहरू का कहना था कि चीन सिक्किम से लगी चुंबी घाटी में सेना का जमाव कर रहा है. उन्हें वहां से भी भारत में घुसपैठ की आशंका थी. उधर, लद्दाख के चुशुल पर चीनियों का कब्जा हो जाता तो उन्हें लेह के पहले रोका नहीं जा सकता था. भारतीय वायुसेना का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था क्योंकि भारत के पास अपने आबादी वाले इलाकों की रक्षा के लिए पर्याप्त हवाई सुरक्षा नहीं थी. इसिलए नेहरू ने अपने पत्र में अमेरिका से अनुरोध किया था कि वह उनको हर मौसम में काम करने वाले सुपरसोनिक लड़ाकू विमानों के 12 स्क्वैड्रन और रडार कवर की सुविधा तुरंत मुहैया कराए. उनका कहना था कि इन सबकी कमान अमेरिकी जवानों के हाथ में हो. कोई नहीं जानता कि नेहरू ने किन सूचनाओं के आधार पर कैनेडी को पत्र लिखा. निश्चित रूप से वह गुटनिरपेक्षता तार-तार हो गई थी जिसके वे सबसे बड़े पैरोकार थे.

तेजपुर में धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर लौट रही थी. 21 नवंबर को तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इलाके के लोगों को आश्वस्त करने के लिए वहां की हवाई यात्रा की. अगले दिन इंदिरा गांधी भी वहां की यात्रा पर आईं. इस बीच नेहरू ने राष्ट्र के नाम संबोधन भी दिया. उन्होने खास तौर पर असम के लोगों को संबोधित किया. उन्होंने कहा कि परीक्षा की इस भयंकर घड़ी में असम के लोगों से उनको गहरी सहानुभूति है. उन्होंने वादा किया कि संघर्ष जारी रहेगा. यह अलग बात है कि असम के लोगों में यह भाषण कोई उत्साह नहीं जगा पाया. कई तो आज भी कहते हैं कि नेहरू ने तो उन्हें विदाई ही दे दी थी.

मैं एक महीने तक तेजपुर में रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि प्रशासन बोमडीला लौटेगा. ऐसा क्रिसमस के ठीक पहले एक राजनीतिक अधिकारी (डीएम) मेजर केसी जौहरी के नेतृत्व में हुआ. मैं उनके साथ हो लिया. नेफा के लोग एकजुट होकर भारत के साथ खड़े रहे थे और जौहरी का उन्होंने जोश के साथ स्वागत किया. इस दौरान कई चीजें भारत के पक्ष में रही थीं. भूमिगत नगा विद्रोहियों ने भारत की इस पस्त स्थिति का फायदा नहीं उठाया था. उधर, पाकिस्तान को ईरान और अमेरिका ने कहा था कि वह भारत की इस हालत को अपने फायदे के लिए न इस्तेमाल करे और उसने अपनी बात रखी. हालांकि उसने बाद में चीन के साथ नया रिश्ता कायम कर लिया. पश्चिमी जगत और अमेरिका को भारत के साथ सहानुभूति थी, लेकिन उस दौरान अमेरिका पहले से ही चीन और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच बढ़ते मतभेद और क्यूबाई मिसाइल संकट में उलझा हुआ था.

सीओएएस जनरल चौधरी ने इस हार की आंतरिक जांच के आदेश मेजर जनरल हेंडरसन ब्रुक्स और ब्रिगेडियर पीएस भगत को दिए. हेंडरसन-ब्रुक्स रिपोर्ट आज भी एक अत्यंत गोपनीय क्लासिफाइड दस्तावेज है, हालांकि उसके कुछ हिस्से नेविल्ले मैक्सवेल ने प्रकाशित किए थे जो 1960 के दशक में भारत में लंदन के अखबार द टाइम के संवाददाता थे. उनकी रिपोर्ट का लब्बोलुआब यही था कि राजनीतिक नौसिखिएपन और अंदरूनी गुटबाजियों की वजह से भारत को योजना और कमान के मोर्चे पर असफलताएं हाथ लगीं. मेरा मानना है कि हेंडरसन-ब्रुक्स रिपोर्ट में ऐसी कोई बात नहीं है जिसे गोपनीय रखे जाने की जरूरत हो. राजनीतिक और सैन्य स्तर पर हुई गलतियों को छिपाकर कौन-सा मकसद हल होने वाला है? जब तक देश उसके बारे में जानेगा नहीं तब तक वह सही सबक नहीं सीख पाएगा.

जैसे भारत ने अब तक यह सबक नहीं सीखा कि सीमा रेखा से ज्यादा सीमा पर बसा इलाका महत्वपूर्ण होता है. इसका नतीजा यह है कि अरुणाचल प्रदेश और उत्तरी असम में अभी तक विकास कार्यों की अनदेखी जारी है. दरअसल भारत को यह डर है कि कहीं इससे भड़ककर चीन एक बार फिर चढ़ाई न कर दे. हालांकि अब जो वैश्विक समीकरण हैं उनको देखते हुए यह मुमकिन नहीं लगता कि 1962 की स्थिति फिर आ सकती है. तब से कई लोग 1962 में क्या हुआ था, इसके बारे में अपनी-अपनी तरह से बता चुके हैं. हरेक की अपनी कहानी है. लेकिन 1962 की लड़ाई में हमने जो कुछ भी खोया उसमें सच्चाई सबसे महत्वपूर्ण चीज थी.

(बीजी वर्गीज द टाइम्स ऑफ इंडिया के सहायक संपादक और युद्ध संवाददाता रहे हैं)

जुर्म की जड़ें

देश की राजधानी दिल्ली से लगभग 90 किलोमीटर दूर हरियाणा के सोनीपत जिले का गोहाना कस्बा. पुलिस उपअधीक्षक के दफ्तर के बाहर बने बड़े-से बरामदे में लगभग 15 आदमी दो महिलाओं को घेरे खड़े हैं. सभी आपस में ठेठ हरियाणवी में बात कर रहे हैं और महिलाओं पर लगातार चीख रहे हैं. पूछने पर पता चलता है कि ये करीब 10 किलोमीटर दूर बसे बनवासा गांव के लोग हैं. बीते हफ्ते गांव की एक 19 वर्षीया विवाहित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ है. सामने गांव के आदमियों के सवाल खामोशी से सुनती पीड़ित लड़की और उसकी मां खड़ी हैं. गांववाले कहते हैं कि वे लड़की का बयान मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज करवाने जा रहे हैं और इससे ज्यादा कोई बात नहीं करना चाहते.

थोड़ी कोशिश करने पर गांव का ही एक व्यक्ति नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर हमसे बात करने को तैयार हो जाता है. वह कहता है कि पीड़ितों पर समझौते के लिए दबाव डाला जा रहा है और अभी-अभी सामने इसी बात पर चर्चा हो रही थी कि लड़की मजिस्ट्रेट के सामने अपने बयान में क्या बोलेगी. वह अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहता है, ‘यहां ऐसी घटनाओं में अक्सर पंच लड़की पर समझौते का दबाव डालते हैं. गांव के बड़े लोगों से लेकर प्रशासन में लिखा-पढ़ी करवाने वाले लोगों तक हर कोई मामले को दबाने या खुद पैसा बनाने में लगा रहता है. गांववाले तो यही मानते हैं कि लड़की की ही गलती है इसमें.’ 

इसी सोच से उस विकराल समस्या का एक सिरा जुड़ता है जो इन दिनों हरियाणा का एक बदसूरत चेहरा पूरे देश के सामने रख रही है. पिछले 30 दिन के दौरान प्रदेश से बलात्कार के 15 बड़े मामले सामने आ चुके हैं. राज्य के पुलिसिया महकमे द्वारा हर दूसरे दिन जारी किए जा रहे ‘सख्त निर्देशों’  के बावजूद राज्य के अलग-अलग जिलों से लगातार आ रही बलात्कारों और सामूहिक बलात्कारों की खबरें थमने का नाम नहीं ले रहीं. हालत यह है कि जिस दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जींद में दुष्कर्म की शिकार एक लड़की के परिजनों से मुलाकात करके दोषियों को सख्त से सख्त सजा देने की बात कही उसी रात कैथल से एक दलित लड़की के साथ गैंगरेप की खबर आ गई.

वापस गोहाना लौटते हैं. मजिस्ट्रेट के सामने लड़की के बयान की तैयारी हो रही है. जामुनी रंग के पुराने-से सलवार-कुर्ते और एक मुड़े-तुड़े दुपट्टे में अपने अस्तित्व को छिपाती हुई पीड़ित लड़की चुपचाप अपनी मां के पीछे-पीछे चलने लगती है. तभी पीछे से चिल्लाने की आवाज आती है, ‘जल्दी आग्गे बढ़ो री’ और दोनों महिलाएं तेज कदमों से आगे बढ़ने लगती हैं–अपने गांव के पुरुषों की तीखी निगाहों और बरामदे में खड़े परिचितों द्वारा जहां-तहां लगातार उछाली जा रही फब्तियों का सामना करते हुए. सहमे कदमों से अपना बयान दर्ज करवाने के लिए आगे बढ़ रही यह लड़की हरियाणा में हर रोज बलात्कार का शिकार हो रही महिलाओं की अंतहीन यातना का प्रतीक है.

‘सब यही मान कर चलते हैं कि यह तो विरोध कर ही नहीं पाएगी, पुलिस और नेता तो हमारे ही साथी हैं, इसलिए औरतों को इस्तेमाल करो और फेंक दो’

इधर, बनवासा गांव की दलित बस्ती में रहने वाली सुनीता (बदला हुआ नाम) के घरवाले अभी तक अपनी बेटी के साथ हुए हादसे को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. गांव के आखिरी छोर पर बने एक कमरे के मकान में सुनीता अपने चार भाई-बहनों के साथ रहती थी. तीन महीने पहले ही उसकी शादी पास ही के गांव में रहने वाले सुनील से हुई थी. शादी के बाद वह पहली बार अपने परिवार से मिलने बनवासा आई थी.  बहन की शादी के दौरान घर की दीवारों पर बनाई गई रंगोली दिखाते हुए पीड़िता का 18 वर्षीय भाई गुरमीत रुआंसा हो जाता है. फिर उस दिन को याद करते हुए बताता है, ’28 सितंबर की बात है. उसका पति सुनील अगले ही दिन उसे लेने आने वाले था. मेरे मां-बापू मजदूरी करने गए थे. मां इससे बोल कर गई थी कि अगर पैसे हुए तो शाम को इसके लिए नया कपड़ा भी लाएगी. मैं भी घर पर नहीं था. बाद में सुनीता ने मुझे बताया कि जब वह दोपहर को बर्तन धो रही थी तो पड़ोस में रहने वाली माफी नाम की महिला ने उससे आकर कहा की उसके पति सुनील का फोन आया था और वह उसे बरोदा रोड के फाटक पर बुला रहा है. सुनीता ने कहा कि उसे तो कल अपने ससुराल जाना ही है, और वह इतनी दूर अकेले कैसे जाएगी पर माफी ने उसे किराये के पैसे देकर और चूड़ियां पहनाकर जबरदस्ती भेज दिया. माफी ने मेरी बहन से कहा कि अगर वह नहीं गई तो उसका पति बहुत नाराज हो जाएगा. वह चली तो गई लेकिन फाटक पर उसे उसका पति नहीं मिला. बल्कि वहां सुनील और संजय नाम के दूसरे लड़के खड़े थे. इन लड़कों ने जबरदस्ती उसे अपनी गाड़ी में बिठा लिया. यह दोनों पास ही के खंदारी गांव में रहते हैं. बाद में अहमदपुर माजरा में रहने वाले अनिल और श्रवण भी उनके साथ मिल गए.’ सुनीता ने अपने बयान में कहा है कि ये चारों लोग उसका अपहरण करके उसे पास ही के खेतों में बने एक सुनसान कमरे में ले गए.

आरोपितों ने अगले पांच दिन तक सुनीता को बंधक बना कर रखा और उसके साथ लगातार सामूहिक बलात्कार किया. फिर अपना मुंह बंद रखने की धमकी देते हुए उन्होंने तीन अक्टूबर की सुबह सुनीता को उसके गांव के पास ही छोड़ दिया. गुरमीत बताता है, ‘उसके जाने के बाद हमें लगा कि वह अपने पति के साथ ही गई है इसलिए हमें कोई चिंता नहीं हुई. पर अगले दिन जब उसका पति सुनील उसे लेने घर आया तब हमें पता चला कि उसने तो सुनीता को बुलाया ही नहीं था. फिर हमने उसे ढूंढ़ना शुरू कर दिया लेकिन वह कहीं नहीं मिली. चार दिन बाद हमें माफी से एक नंबर मिला. जब मैंने उस नंबर पर फोन करके पूछा कि मेरी बहन कहां है तो वह बोला कि मैं तेरा जमाई बोल रहा हूं. मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था लेकिन हम कुछ नहीं कर पाए. अब हम बस यही चाहते हैं कि गुनाहगारों को कड़ी से कड़ी सजा मिले.’ इस मामले में सुनील, श्रवण, अनिल और संजय सहित माफी को भी गिरफ्तार कर लिया गया है. एफआईआर दर्ज होने के बाद सुनीता को डॉक्टरी जांच के लिए ले जाने वाली स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अनीता इंदौरा बताती हैं कि अपहरणकर्ताओं ने सुनीता के साथ मार-पीट भी की. वे कहती हैं, ‘पहले तो जैसे उसे होश ही नहीं था. वह बहुत रो रही थी. बार-बार एक ही बात कह रही थी कि माफी ने इन लड़कों के साथ मिलकर उसे फंसाया है और उसके दोषियों को सजा मिलनी चाहिए. फिर हमने उसे शांत करवाकर पानी पिलाया. कुछ देर बाद उसने कहा कि इन लड़कों ने उसे बहुत पीटा और उसके कपड़े भी छीन कर छिपा दिए. लड़की ने थोड़े-से गहने पहन रखे थे. तीन दिन बाद इन लोगों ने उसके गहने भी उससे छीन कर बेच दिए. बहुत गरीब घर की लड़की है. इसकी मां ने बहुत मुश्किलों से इसकी शादी कारवाई थी. अब तो इसके ससुरालवालों ने भी इसे स्वीकार करने से इनकार दिया है.’ लेकिन हरियाणा में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा का यह कोई पहला मामला नहीं है. स्त्रियों के खिलाफ होने वाले तमाम जघन्य अपराधों के लिए  बदनाम रहे इस राज्य से लगातार बलात्कारों, भ्रूण हत्या और इज्जत के नाम पर होने वाली हत्याओं की खबरें आती रहती हैं. 

बर्बरता का सिलसिला

हिसार (डबरा गांव)
 9 सितंबर, 2012
17 वर्षीया लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार

जींद (पीलू खेड़ा)
21 सितंबर, 2012
30 वर्षीया विवाहित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार

सोनीपत (गोहाना)
28 सितंबर, 2012
 मुख्य बाजार में 17 वर्षीया लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार

सोनीपत (गोहाना- बनवासा गांव)
28 सितंबर, 2012
19 वर्षीया नवविवाहिता के साथ पांच दिन तक सामूहिक बलात्कार

भिवानी
29 सितंबर, 2012
नाबालिग लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार

रोहतक (कच्ची गढ़ी मोहल्ला)
1 अक्टूबर, 2012
15 वर्षीया लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार परिजन भी शामिल थे

जींद (बेलरखा गांव)
2 अक्टूबर, 2012
मानसिक रूप से विक्षिप्त महिला के साथ बलात्कार

रोहतक (शास्त्री नगर )
3 अक्टूबर, 2012
11 वर्षीया लड़की के साथ उसके पडोसी ने बलात्कार किया 

यमुनानगर (बिछौली गांव)
4 अक्टूबर, 2012
 नाबालिग लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार

करनाल
4 अक्टूबर, 2012
20 वर्षीया लड़की के साथ बलात्कार

जींद (सचखेड़ा)
6 अक्टूबर, 2012
16 वर्षीया लड़की ने सामूहिक बलात्कार के बाद आत्महत्या की

पानीपत
9 अक्टूबर, 2012
एक महिला के साथ
सामूहिक बलात्कार

अंबाला
9 अक्टूबर, 2012
विधवा महिला के साथ
सामूहिक बलात्कार

कैथल (कलायत)
10 अक्टूबर, 2012
गर्भवती महिला के साथ
सामूहिक बलात्कार

हरियाणा में स्त्रियों के खिलाफ फैली इस राज्यव्यापी  आपराधिक मानसिकता की जड़ें टटोलने के लिए तहलका की टीम ने अलग-अलग जिलों में बिखरे बलात्कार पीड़ित परिवारों से मुलाकात की. हमने कई स्थानीय लोगों से बातचीत की. इस दौरान मुद्दे के कई अनछुए पहलू सामने आए. पिछले एक महीने में दो सामूहिक बलात्कार देख चुके गोहाना में ‘समतामूलक महिला संगठन’ नाम का एक गैरसरकारी संगठन चलाने वाली डॉ सुनीता त्यागी कहती हैं, ‘ यूं तो गोहाना सोनीपत जिले की एक छोटी-सी तहसील है लेकिन यहां बलात्कार की वारदात होना बहुत ही आम है. इस महीने ही दो सामूहिक बलात्कार हुए. पिछली मई में भी खापुर-कलान के भगत फूल सिंह महिला विश्वविद्यालय में एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था. इन घटनाओं के पीछे मुख्य वजह यह है कि यहां का आदमी महिलाओं के प्रति बहुत क्रूर है. उदाहरण के लिए, यातायात के सार्वजनिक साधनों में आदमी खुलेआम महिलाओं के साथ गाली-गलौज करते हैं और कोई कुछ नहीं कहता. गाड़ियों में जोर-जोर से रागिनियां (हरियाणवी लोक गीत) बजाई जाती हैं और राह चल रही लड़कियों पर फब्तियां कसी जाती हैं. असल में आज हरियाणा में इन गानों के बहुत अश्लील संस्करण प्रचलित हैं. अश्लील होने से भी ज्यादा ये गाने यहां महिलाओं के ‘टिशू पेपर’ होने और ‘इस्तेमाल करके फेंक दिए जाने’ वाली सोच को बढ़ावा देते हैं. पूरा माहौल ही इतना बेलगाम हो गया है कि लोग खुलेआम बलात्कार कर रहे हैं. पुलिस प्रशासन तो जैसे पूरी तरह नदारद है.’

28 सितंबर को ही गोहाना शहर के मुख्य बाजार में एक 17 वर्षीया स्कूली छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था. संकरी गलियों और झूलते बिजली के तारों वाले शहर के इस पुराने हिस्से में जब हम पीड़ित परिवार का पता पूछते हैं तो लोग अपने घरों के दरवाजे बंद कर लेते हैं. थोड़ी कोशिश के बाद हम कमला (परिवर्तित नाम) का घर ढूंढ़ तो लेते हैं लेकिन घर का दरवाजा बंद मिलता है. रहवासी क्षेत्र के अंतिम छोर पर रहने वाला यह परिवार अब शहर छोड़ कर जा चुका है. 28 सितंबर की सुबह कमला अपने घर के पास मौजूद राशन की दुकान से कुछ सामान लाने गई थी. दुकानदार ने कमला से कहा कि वह नीचे बने स्टोर-रूम में जाए, वह वहीं आकर सामान देगा. दुकानदार और उसके परिवार से पहचान होने के कारण कमला नीचे चली गई. बाद में पुलिस को दिए अपने बयान में उसने कहा कि नीचे पहले से ही तीन लड़के मौजूद थे और उन चारों ने मिलकर उसका सामूहिक बलात्कार किया. एफआईआर दर्ज होते ही चारों आरोपितों को गिरफ्तार कर लिया गया. नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर इस परिवार के पड़ोस में रहने वाली एक महिला बताती हैं, ‘ बिन बाप की बच्ची थी लेकिन इतना बड़ा हादसा हो गया कि परिवार को शहर छोड़ कर जाना पड़ा. इनके चाचा जम्मू से आए थे मामला दर्ज करवाने. हमारे मोहल्ले की सबसे सीधी लड़की थी पर आजकल सब पहचान वाले ही धोखा देते हैं. आरोपी भी बस चार घर छोड़कर यहीं रहते हैं. अब तो इसका परिवार बस यही सोच-सोच कर परेशान हो रहा है कि लड़की की शादी कैसे होगी.’
समस्या की एक कड़ी राजनीति से भी जुड़ती है. डॉ सुनीता बताती हैं कि पुलिस-प्रशासन के राजनीतिक दबाव में रहने की वजह से भी इस क्षेत्र में महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ता जा रहा है. वे कहती हैं, ‘यहां हर परिवार के किसी न किसी नेता से संबंध हैं. ऊंची जात वालों को नेताओं के साथ-साथ खाप का भी समर्थन रहता है. यहां सब यही मानकर चलते हैं कि वे कोई भी अपराध क्यों न कर लें, पुलिस और पीड़ित परिवार उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता. उल्टा, पीड़ितों पर समझौता कर केस वापस लेने का भारी दबाव होता है. परोक्ष रूप से पुलिस भी समझौते पर जोर देती है.’

हालांकि गोहाना तहसील के पुलिस उपअधीक्षक यशपाल खटाना ये आरोप खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘दोनों सामूहिक बलात्कारों के मामलों में हमने सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है. पूरी तहकीकात के बाद हम चार्ज शीट दाखिल करेंगे.’ लेकिन गोहाना में आए दिन हो रहे बलात्कारों के लिए पीड़ितों को ही जिम्मेदार बताते हुए वे आगे कहते हैं, ‘आजकल लड़कियां जल्दी बहकावे में आ जाती हैं. वेस्टर्न कपड़े पहनने लगी हैं, इसलिए बलात्कार बढ़ रहे हैं.’ महिलाओं के खिलाफ हो रहे इन अपराधों के लिए पुलिस के साथ-साथ यहां की खाप पंचायतें और राजनेता भी लड़कियों को ही दोषी मानते हैं. बलात्कार की समस्या से निपटने के लिए हाल में जारी किए गए अपने एक बयान में एक खाप पंचायत का कहना था कि लड़के-लड़कियों की शादी 16 साल की उम्र में कर देनी चाहिए. खाप का कहना था कि जवान हो रहे बच्चों में यौन इच्छा का विकास  स्वाभाविक है और जब यह पूरी नहीं होती तो वे भटक जाते हैं  इसलिए शादी की कोई न्यूनतम उम्र नहीं होनी चाहिए. विपक्षी नेता और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला की तरफ से भी कुछ ऐसा ही बयान आया. उनका कहना था, ‘मुगल शासन के दौरान भी बलात्कारों से बचाने के लिए लड़कियों की शादी कम उम्र में करवा दी जाती थी.’

‘खाप पंचायतें सगोत्र शादियों का विरोध करती हैं और दूसरी ओर जब लोग अपने ही घर की लड़कियों के साथ बलात्कार करते हैं तो खामोश रहती हैं’

लेकिन यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए शादी की उम्र कम कराने का सुझाव देने वाला हरियाणा का समाज रोहतक के अलग-अलग इलाकों में 11 और 14 साल की बच्चियों के साथ हुए बलात्कार जैसे तमाम मामलों को पूरी तरह नजरअंदाज करने पर आमादा है.
रोहतक जिले के शास्त्री नगर इलाके के एक छोटे-से मकान में रहने वाली बबली अपनी 11 वर्षीया बच्ची खुशबू (परिवर्तित नाम) का जिक्र आते ही बिलख-बिलख कर रोने लगती हैं. एक मटमैले सलवार-कुर्ते में सामने खामोश बैठी खुशबू भी मां को रोता देख रुआंसी हो जाती है. अपने चार बच्चों को पालने के लिए बबली अपने पति के साथ मिलकर रोज मजदूरी करने जाती हैं. तीन अक्टूबर को भी वे अपने पति के साथ रोज की तरह मजदूरी करने घर से निकलीं. घर पर सिर्फ खुशबू और उसका छोटा भाई ही थे. तभी बबली के पड़ोस में रहने वाले 40 वर्षीय प्रकाश सैनी ने घर में घुसकर खुशबू के साथ बलात्कार किया. पूछने पर मासूम बच्ची दोषी को ‘अंकल’ कहकर संबोधित करते हुए धीरे से कहती है, ‘अंकल ने मेरे भाई को चीज लाने के लिए 10 रुपये देकर दुकान पे भेज दिया. उसके जाते ही उन्होंने मेरा मुंह अपने हाथ से दबा दिया और जबरदस्ती करने लगे.’ आरोपित के गिरफ्तार होने के बाद अब बबली सिर्फ इतना चाहती हैं कि रोहतक के ही रहने वाले मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा शहर को लड़कियों के लिए सुरक्षित बनाएं. जाते वक्त वे हाथ जोड़ कर बस इतना कहती हैं, ‘हमारी फूल-सी बच्ची है. इतनी छोटी है अभी. अब इससे ब्याह कौन करेगा? मैं बस इतना ही कहना चाहूं कि जो मारी छोरी के साथ हुआ वो किसी और के साथ न हो. इसके दोषी को सरकार सजा दिलावे.’

रोहतक में महिला जनवादी संगठन के साथ जुड़कर काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता अंजू मानती हैं कि हरियाणा में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों के लिए पुलिस और प्रशासनिक लापरवाहियों के साथ-साथ स्थानीय सामाजिक सोच भी जिम्मेदार है. वे बताती हैं, ‘शास्त्री नगर के साथ-साथ कच्ची गढ़ी मोहल्ले में भी एक 15 वर्षीया लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. इस अपराध की साजिश में लड़की के परिवार वाले ही शामिल थे. असल में यहां माहौल ही इतना खराब है कि रोहतक शहर तक में हम लोग भी शाम 6 बजे के बाद बाहर नहीं निकल पाते. औरतों के बारे में यहां सब यही मान कर चलते हैं कि यह तो विरोध कर ही नहीं पाएगी, पुलिस और नेता तो हमारे ही साथी हैं, इसलिए औरतों को इस्तेमाल करो और फेंक दो. पूरा सामाजिक-राजनीतिक ताना-बना अपराधियों को शह देता है और पीड़ित को ही दोषी ठहराता है. दलित महिलाएं आसान शिकार तो होती हैं लेकिन बड़े परिदृश्य में देखें तो यहां हर जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार होते हैं. हरियाणा में तो महिला होना ही अपने आप में सबसे बड़ा दलित होना है.’

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़े अंजू और डॉ सुनीता त्यागी के मतों को पुष्ट करते हुए नजर आते हैं. पिछले सात साल में हरियाणा में बलात्कार की वारदातें दोगुनी से भी ज्यादा हो गई हैं. सन 2004 में 386 बलात्कार दर्ज करने वाले इस राज्य में सन 2011 में बलात्कार की 733 घटनाएं सामने आईं. उस पर भी सिर्फ 13 प्रतिशत मामलों में अपराधियों को सजा हुई. राज्य के प्रमुख समाजशास्त्री डॉ जितेंद्र प्रसाद का मानना है कि हरियाणा में महिलाओं के खिलाफ लगातार बढ़ रहे अपराधों के पीछे मुख्य वजह यहां के समाज द्वारा बलात्कार को एक ‘कल्ट’ की तरह प्रोत्साहित करने की पुरानी प्रवृत्ति है. वे कहते हैं, ‘यहां का समाज अपनी पितृसत्तात्मक, वंशवादी और सामंतवादी सोच को लेकर इतना ज्यादा कट्टर है कि वह महिलाओं को बराबरी से जी सकने वाला कोई जीव या इंसान तक मानने को तैयार नहीं है. महिलाओं के मामले में खाप पंचायतों ने भी हमेशा दोहरे मापदंड अपनाए. एक ओर तो खाप पंचायतें सगोत्र शादियों का कट्टर विरोध करती हैं और दूसरी ओर जब लोग अपने ही घर की लड़कियों के साथ बलात्कार करते हैं तो वे खामोश रहती हैं. 1,000 लड़कों पर यहां सिर्फ 830 लड़कियां हैं. लिंगानुपात का कम होना तो इसके पीछे एक कारण है ही लेकिन ज्यादा बड़ा कारण यहां का सामाजिक ताना-बना है. यहां स्त्रियों की ‘उपभोग की वस्तु’, ‘इस्तेमाल के लिए उपलब्ध’, ‘विरोध करने वाले को मार-पीट कर चुप करवा दो’ जैसी छवि को सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त है. यह व्यवस्था यहां के लोगों के लिए सुविधाजनक है, इसलिए वे इसे बदलने भी नहीं देंगे.’

हुड्डा सरकार की शराब नीति को भी राज्य में बढ़ते अपराधों के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है. आंकड़े बताते हैं कि हरियाणा में हर व्यक्ति प्रति वर्ष शराब की 11 बोतलें खरीदता है. डॉ प्रसाद जोड़ते हैं, ‘हरियाणा में नशा बहुत बड़ी समस्या के तौर पर उभर कर आ रहा है. पिछले महीने हुए बलात्कारों के 15 मामलों में से ज्यादातर में आरोपी शराब पिए हुए थे. यहां आपको राशन की दुकान नहीं मिलेगी, लेकिन हर चौराहे पर रात भर खुला रहने वाला एक शराब का ठेका जरूर मिल जाएगा. बड़ी-बड़ी गाड़यों में शराब की पेटियां रखकर निकलना और महिलाओं के साथ छेड़खानी-बलात्कार करना यहां एक ‘कल्ट’ की तरह प्रचलित हो गया है.’

हरियाणा के अलग-अलग जिलों में हुई बलात्कार की घटनाओं के पीड़ितों और उनके परिजनों से मिलने के क्रम में हम आखिर में हिसार के डबरा गांव पहुंचते हैं. गांव की दलित बस्ती में प्रवेश करते ही हरियाणा पुलिस की जीप खड़ी हुई नजर आती है. चंद संकरे रास्तों को पार करके हम दीपिका (परिवर्तित नाम) के घर पहुंचते हैं. दो कमरे के छोटे-से मकान के सामने बने छोटे-से बरामदे में दीपिका और उसके परिवार की सुरक्षा के लिए तैनात दो महिला पुलिसकर्मी बैठी हैं. दीपिका अपनी मां बिमला के साथ चूल्हे के पास खामोश बैठी है. नौ सितंबर की दोपहर इस 17 वर्षीया लड़की के साथ उसके गांव के ही 12 लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया था. दीपिका ने लगभग 10 दिन तक किसी को कुछ नहीं बताया, लेकिन जब आरोपितों ने उसके 42 वर्षीय पिता को अपनी बेटी के बलात्कार का एक एमएमएस क्लिप दिखाया तो उन्होंने अगले ही दिन खुदकुशी कर ली. बिमला बताती हैं, ‘वे अपनी बेटी से बहुत प्यार करते थे. उन्हें विश्वास था कि हमें कभी इंसाफ नहीं मिलेगा क्योंकि हम गरीब दलित लड़की के माता-पिता हैं. लेकिन शुक्र है कि सभी आरोपी पकड़े गए.’
बिमला दीपिका को आगे पढ़ाना चाहती हैं. फिलहाल 11वीं की परीक्षा दे रही दीपिका कहती है, ‘जिस जगह मेरा बलात्कार हुआ, वहां पहले भी ऐसी सात घटनाएं हो चुकी हैं. लेकिन गांववाले लड़कियों को दबा देते हैं. अगर मेरे पापा नहीं गए होते तो शायद यह बात कभी बाहर नहीं आती. अब तो मेरे पास खोने के लिए भी कुछ नहीं है, इसलिए अब मैं बस यही चाहती हूं कि मेरे मामले में सभी अपराधियों को फांसी की सजा हो ताकि वे कभी किसी दूसरी लड़की के साथ ऐसा करने की हिम्मत भी न कर सकें.’   

चुप्पी की अदृश्य दीवारें टूट रही हैं…

जब से अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के संबंधों का खुलासा किया है तब से दिल्ली शहर में हड़कंप है. राजनेता खीजे हुए हैं, बौखलाए हुए हैं. मीडिया कुछ ईर्ष्या भाव और कुछ झुंझलाहट लिए हुए है. जनता अवाक है.
ऐसा नहीं है कि इस खुलासे में कोई ऐसी बात हो जो किसी को पता नहीं थी. पिछले साल दो साल से दिल्ली का हर पत्रकार इस बारे में कुछ न कुछ जानकारी रखता था. राजनीतिक हलकों में कानाफूसी आम बात थी. जो जानकारी सार्वजनिक की गई है, वह भी किसी गुप्त स्रोत से नहीं है. अधिकांश दस्तावेज वेबसाइटों और सार्वजनिक स्रोतों से लिए गए हैं. भाजपा के अध्यक्ष तो कह चुके हैं कि ये कागजात तो उन्हें काफी पहले से उपलब्ध थे. इसलिए सवाल यह नहीं है कि यह रहस्य उद्घाटित कैसे हो गया. सवाल यह है कि जो बात सबको मालूम थी वह रहस्य कैसे बनी हुई थी. सवाल यह है कि देश के बड़े मसलों पर नेता और मीडिया मिलकर चुप्पी कैसे बनाए रखते हैं.

सवाल यह नहीं है कि रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ कचहरी में मामला बनेगा या नहीं, उन्हें सजा होगी या नहीं. हिंदुस्तानी कोर्ट-कचहरी का चक्कर बहुत लंबा है और दोषी को सजा दिलवाना आसान काम नहीं है. फिलहाल तो हम यह भी नहीं जानते कि वाड्रा पूरी तरह दोषी हैं भी या नहीं. अभी तक जनता के बीच आरोप आए हैं. कंपनी का इनकार आया है और वाड्रा का भी सामान्य-सा जवाब आया है. अभी कंपनी और वाड्रा की पूरी सफाई आनी बाकी है. कानून सिर्फ पहली नजर का सबूत नहीं मांगता. कानून हर तार को जोड़ने की मांग करता है. अभी यह साफ नहीं है कि वे तार जुड़ पाएंगे या नहीं. उन तारों को जोड़ने की जिम्मेदारी लेने वाले पुलिस और कानूनी तंत्र में इस मामले की स्वतंत्र जांच करने की इच्छाशक्ति बन पाएगी या नहीं.

लेकिन कानून के फैसले से ऊपर है लोकलाज का फैसला. जनता के सामने जो तथ्य आए हैं उसके बाद लोग कुछ सामान्य सवाल पूछेंगे. क्या रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ का संबंध एक सामान्य और परिश्रमी उद्योगपति की सफलता की कहानी है? क्या वाड्रा और डीएलएफ का संबंध सामान्य बिजनेस पार्टनरों का संबंध है? या कि वाड्रा की सफलता की कहानी में कुछ काला है? लोग पूछेंगे कि हरियाणा सरकार ने इस मामले में क्या एक निष्पक्ष और जनता के कल्याण के लिए चिंतित सरकार की भूमिका निभाई है या कि कहीं वाड्रा, डीएलएफ और हरियाणा सरकार में मिलीभगत की बू आती है? और जनता यह भी पूछेगी कि इस सारे मामले में इस देश के सबसे ताकतवर परिवार का कामकाज राजनीतिक मर्यादा के मानदंड पर खरा उतरता है या नहीं. कचहरी का फैसला तो पता नहीं कब आएगा, और आएगा भी कि नहीं. लेकिन अगर वाड्रा के पास अपनी सफाई में कुछ चौंकाने वाले तथ्य नहीं हैं तो ऐसा नहीं लगता कि वे जनता का फैसला अपने पक्ष में करवा पाएंगे.

इन आरोपों के बाद रॉबर्ट वाड्रा का जो भी हो, आरोप लगाने वालों का जो भी बने, राजनीति पर इसका असर हो न हो लेकिन एक बात तय है कि दिल्ली के राजनीतिक खेल के स्थापित नियमों में बदलाव होगा. बहुत अरसे से और बड़े करीने से बनाई गई चुप्पी की अदृश्य दीवार में सेंध लग गई है. अगर आज रॉबर्ट वाड्रा के बारे में बात हो सकती है तो कल किसी रंजन भट्टाचार्य के बारे में भी बात हो सकती है. इंशा अल्लाह इस देश का मीडिया मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी के बारे में भी बात करने की हिम्मत जुटाएगा. राजनेताओं, मीडिया और औद्योगिक घरानों के संबंधों की बात ड्राइंग रूम की कानाफूसी से बाहर निकलेगी. और बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी. यह लोकतंत्र के लिए एक शुभ लक्षण है.

जाहिर है जब ऐसी कोई घटना होती है तो सबका ध्यान तात्कालिक परिणामों पर जाता है जैसे क्या इससे लोकसभा के चुनाव का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार बनेगा. अभी से इसका जवाब देना कठिन है. बेशक इस सरकार की डूबती नैया में एक और छेद हुआ है. संभव है कि इस मामले ने तूल पकड़ा तो यूपीए की स्थिति डूबते जहाज जैसी हो सकती है और सब सहयोगी भागने की मुद्रा में आ सकते हैं लेकिन फिलहाल यह दूर की कौड़ी है.

क्या इन खुलासों के सहारे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के गर्भ से निकली नई पार्टी देश में स्थापित हो जाएगी? फिलहाल यह भी कहना बहुत कठिन है. अभी हमें दूसरे बड़े खुलासे का इंतजार करना होगा. लेकिन अगर दोनों खुलासे दोनों बड़ी पार्टियों को लपेटते हैं तो कहीं न कहीं जनता की सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से आस्था घटेगी. लेकिन सिर्फ बड़ी पार्टियों में आस्था गिरने भर से नई पार्टी को वोट मिलना शुरू नहीं होगा. जनता के गुस्से को वैकल्पिक राजनीति के समर्थन का आधार देने और फिर वोट में बदलने के लिए बहुत काम करने की जरूरत है. देश भर में संगठन का ताना-बाना बनाना, स्थानीय स्तर पर इकाई खड़ी करना, तमाम मुद्दों पर राय बनाना और समाज के सभी वर्गों में विश्वास पैदा करना अपने आप में बड़ी चुनौतियां हैं. सिर्फ बड़ी पार्टियों के भ्रष्टाचार का खुलासा करने से यह काम पूरा नहीं हो जाएगा.  वैकल्पिक राजनीति की दिशा लंबी और कठिन है. अभी तो शुरुआत ही हुई है.