“यहां कोई चिंतित ही नहीं है”

 वे साधु-संन्यासी की श्रेणीवाले संत नहीं लेकिन उनकी जीवनशैली, यायावरी और जिंदगी का सफर किसी संत की कथा-कहानी जैसा ही है. नाम है कृष्णनाथ. उम्र 78 साल. मूल रूप से बनारस के सारनाथ के रहनेवाले. पहले अर्थशास्त्री के रूप में जाने जाते थे, अब पहचान की कई रेखाएं हैं. किसे मुख्य मानें, तय करना आसान नहीं. आत्मप्रचार से काफी दूर रहनेवाले कृष्णनाथ समाजवादियों के बीच चिंतक-विचारक के रूप में जाने जाते हैं. वे समाजवादी आंदोलन के प्रणेताओं में से एक रहे हैं. लोहिया के साथ जेल में रहे. अच्युत पटवर्द्धन, मेहर अली समेत तमाम समाजवादियों के काफी करीब. संसद भवन में भी उनका नाम बार-बार सुनायी पड़ता था. लोहिया कृष्णनाथ के तथ्यों के आधार पर दो आना बनाम सोलह आने की बात छेड़ते थे.  उनकाखुद पूजा-पाठ से कभी वास्ता नहीं रहा लेकिन बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए, अछूतों को साथ लेकर मंदिर में पहुंचे. सघन अभियान चलाया. जेल भेजे गये. लोहिया ने जब अंगरेजी विरोध का बिगुल फूंका तो बनारस में चर्चित समाजवादी नेता राजनारायण के साथ कृष्णनाथ युवाओं के अगुवा बने. विक्टोरिया की मूर्ति तोड़ी गई. साथियों के साथ कृष्णनाथ को जेल की सजा हुई.

 कृष्णनाथ को उनकी लेखनी के लिए भी बड़े फलक पर जाना जाता है. 60 के दशक में उनके द्वारा लिखी गयी एक किताब ‘‘द इंपैक्ट ऑफ फॉरेन एड ऑन इंडियन इकोनॉमी एंड कल्चर’’ काफी चर्चित हुई थी. अंग्रेजी में लिखी गई अपनी इस इकलौती किताब मेंकृष्णनाथ तभी वैश्वीकरण के खतरे से उपजनेवाले प्रभावों को सूक्ष्मता से दिखा रहे थे. लेखन की दुनिया में इनकी बड़ी पहचान घुमक्कड़ के रूप में है. इन्हें हिमालय का चीर यात्री कहा जाता है. हिमालय पर लिखी हुई उनकी किताबों को हिमालय के इलाके को समझने के लिए संदर्भ ग्रंथ की तरह माना जाता है. किन्नर धर्मलोक, लददाख में राग-विराग, स्फिति में बारिश, पृथ्वी परिक्रमा, गढ़वाल यात्रा, कुमायूं यात्रा, अरुणाचल यात्रा आदि चर्चित किताबें हैं. पिछले साल एक साथ इनकी पांच किताबें प्रकाशित हुई. दत्त दिगंबर मुझे गुरू, नागार्जुन कोंडा-नागार्जुन कहां है?, बौद्ध निबंधावली-समाज एवं संस्कृति, रूपं शून्यं-शून्यं रूपं आदि नाम से. मैनकाइंड और कल्पना जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं का संपादन भी कृष्णनाथ करते रहे हैं. एक और किताब आनेवाली है- उत्तर आधुनिकता की परीक्षा. वे उम्दा फोटोग्राफर भी हैं. हिमालय के इलाके की दुर्लभ तसवीरों का संग्रह इनके पास है. और अब हालिया वर्षों में कृष्णनाथ की दुनिया भर में पहचान एक बड़े बौद्ध दार्शनिक के रूप में स्थापित हुई है.

 आपने गुलाम भारत को भी देखा. आजाद भारत में 65 साल गुजारे. परिस्थितियों के बदलाव को कैसे देखते-आंकते हैं…!

 एक  बांग्ला उपन्यास बार-बार याद आता है, जिसका हिंदी अनुवाद चौरंगी शीर्षक से है. उसमें एक वाक्य है-15 अगस्त 1947 को देश अचानक ही पराधीन हो गया. यह अजीब लग सकता है लेकिन मैं मानता हूं कि जब देश ब्रिटिश शासकों के चंगुल में था तो पराधीन मुल्क में स्वतंत्रता की एक चेतना थी. आजादी मिलते ही वह चेतना कहीं लुप्त हो गयी. उधार ली हुई नकली किस्म की आधुनिकता की गिरफ्त में आज सोचने का देशज तरीका, देशज चीजों से जुड़ाव, कार्य करने की देशज प्रणाली… सब बदल रहा है. हो सकता है कि यह मेरी हताशा हो कि मैं इस नयी व्यवस्था को हजम नहीं कर पा रहा. यह वैश्वीकरण नहीं अमेरिकीकरण है और विश्वग्राम एक शब्द है, जिसे अमेरिकोन्मुखी बाजार ने गढ़ा है. इस विश्वग्राम की अवधारणा में ग्राम कहां है? पता ही नहीं चल रहा

 इस कदर नाउम्मीद हैं…!

बहुत नाउम्मीद नहीं हूं. रात से ही दिन निकलता है. कुछ इलाकों में बहुत कुछ बचा हुआ है. जैसे बिहार में. तमाम बुराइयों के बावजूद, वह इलाका ऐसा है, जहां अब भी चिंगारी बुझी नहीं है. वहां धुंध है, राख है लेकिन वहां की धुंध में भी एक धुन है. मुश्किल यह है कि सब सोचते हैं कि हमारे अकेले चाहने से क्या होगा! अंगरेजों के समय भी ऐसा ही कहा जाता था. तब अंगरेजी सत्ता का दायरा इतना बड़ा था कि उनका सूरज कहीं अस्त नहीं होता था. तब भी गांधीजी कुछ लोगों को लेकर लगे रहे और लंबे संघर्ष के बाद ही सही, नतीजा तो निकला. 74 के पहले बिहार में देखिये. जेपी का वह सामान्य पराक्रम नहीं था. 70 साल के बूढ़े का चहारदीवारी फांदना. सामूहिक रूप से चमत्कार ही तो था वह सब. बुद्ध का मार्ग उम्मीद जगाता है. दुख क्या है, उसका अंत क्या है, उसके उपाय क्या हैं? इन्हीं प्रश्नों के जवाब की तलाश में तो गौतम निकल पडे थे और फिर उनके पीछे-पीछे लोग आकृष्ट होते गये. भारत में पुनर्जागरण बार-बार होते रहा है. कोई न कोई ऐसा चुंबक तो आएगा, लोहे को खींच लेगा अपनी ओर.

 ऐसे बदलाव की उम्मीद तो राजनीति के जरिये ही संभव है लेकिन सत्ता के फेरे में आज राजनीति ही सबसे ज्यादा साख के संकट के दौर से गुजर रही है. फिर…

सत्ता की राजनीति तो हमारी देश की कुंडली में ही है. आखिर पंडित नेहरू और सरदार पटेल कहां थोड़ा भी धैर्य रख सके थे. तब उन्होंने सिर्फ सत्ता पाने के लिए गांधीजी की बातों को भी अनसुनी कर विभाजन की बुनियाद पर कुरसी संभाली. सत्ता-कुरसी के लिए जब देश का बंटवारा हो सकता है तो आज उसके लिए राज्य बंट रहे हैं, क्षेत्रों का बंटवारा हो रहा है ओर उसी पर राजनीति चल रही है, तो क्या आश्चर्य?  कांग्रेस या भाजपा नहीं, समाजवादी, कम्युनिस्ट सभी कमोबेश इसी राह पर हैं.

 अच्छे लोग राजनीति से परहेज करेंगे तो कैसे होगा? आप क्यों दूर रहे, खांटी राजनीतिक होते हुए…?

कह सकते हैं, मैं हर काम अधूरा करता हूं, इसलिए भी शायद. राजनीति में तो था लेकिन लोकनीतियों के लिए संघर्ष करता रहा. सत्ता की कभी आकांक्षा नहीं रही. कभी-कभी प्रलय-प्रवाह को तटस्थ होकर भी देखना चाहिए. देखने का अपना सुख है. सत्ता में गये अपने मित्रों को देखा हूं. सत्ता गयी, गाड़ी ले ली गयी, झंडा-बत्ती उतर गया, अधिकारी चले गये… ऐसे हालात को देखकर शुरू से ही सत्ता से वितृष्णा भी रही. लेकिन यह एक पक्ष है- आप कृष्ण के शब्दों में मुझे रणछोड़ कह सकते हैं. यह नहीं कहा जा सकता कि आप जिस चीज में शामिल हैं, वह चीज तो ठीक है और आप जिसमें शामिल नहीं हैं, उसे गंदा कह दें.

 राजशाही-तानाशाही तौबा की चीज है. समाजवादियों- वामपंथियों को देखा जा चुका. भाजपा एकरागी है. कांग्रेस सत्ता की तिजारत करती रही है. किससे उम्मीद करें? 

इन्हीं के बीच में नयी संभावना बनेगी. सभी चूक रहे हैं तो अच्छा ही है. इनके ध्वंस से ही नये का निर्माण होगा. वैसे एक बात यह भी है कि जैसे विश्वग्राम में ग्राम नहीं है, वैसे ही लोकतंत्र में लोक की बजाय तंत्र ही तंत्र हावी है. लोग नागनाथ-सांपनाथ के बीच फंसा हुआ महसूस करते हैं लेकिन जब सांप पर पैर पड़े तो छलांग लगाने की प्रवृत्ति भी होनी चाहिए. लेकिन अफसोस की बात यही है कि वही नहीं हो रहा. हम देखते हैं कि पांव सांप पर पड़ रहा है लेकिन छलांग नहीं लगाते, इस डर से कि पता नहीं गिर जायेंगे. जोखिम उठाने को कोई तैयार ही नहीं दिखता. तब तक सांप का विष पूरे शरीर में फैल चुका होता है और तब हम कुंठा में जीने लगते हैं और हद से ज्यादा संतोषी हो जाते हैं. बावजूद इसके अभी तक जो व्यवस्था है, उसमें लोकतंत्र ही बेहतर है. जंगलों में जो भाई क्रांति करते हैं और कहते हैं कि व्यवस्था में बदलाव तो बंदूक की नली से होगा, वह कैसे बदलाव करेंगे. बंदूक से तो जान ली जाती है. वह कल अपने ही लोगों को मारेंगे.

 सबसे ज्यादा भटकाव तो आपके समाजवादियों में ही दिखता है. अधिकांश सत्ता की राजनीति साधने में लगे हुए हैं.

समाजवादियों में क्षरण का दौर आचार्य नरेंद्र देव के जाने के बाद से शुरू हुआ. एक समय में प्रखर समाजवादी नेताओं ने जाति नीति का सैद्धांतिक आधार तैयार किया था लेकिन उसका मूल आशय था कि जाति का अध्ययन हो और उसका विनाश हो लेकिन बाद के दिनों में जातीयता को बढाने में उसका इस्तेमाल कर लिया गया. पहले जो ऊंची जातियां करती थीं, वही स्थान शक्तिशाली मध्य जातियों ने ले लिया. जब समाजवादी आंदोलन चल रहा था तो डीक्लास-डीकास्ट लोगों की एक जुटता हुई थी. आंदोलन के दौरान तो लगता ही नहीं था कि जाति का प्रभुत्व इस कदर उठेगा. वह प्रभुत्व तब रहता तो हम वंशवाद को और कांग्रेस के एकाधिपत्य को चुनौती शायद ही दे पाते लेकिन बाद में अपने समाजवादी मित्रों ने ही जाति समूहों को लेकर सत्ता की राजनीति शुरू कर दी. अब किसको कहें, सारे तो मित्र-बंधु ही हैं.

 तो यह मान लें कि समाजवादियों वाला समाजवाद एक सपना ही रह गया…!

जब तक समता, स्वतंत्रता और भाईचारे का अभाव रहेगा, तब तक समाजवाद की संभावना रहेगी. अन्ना के आंदोलन के अन्य पक्षों को छोड़ दें तो इससे एक उम्मीद तो जगी कि जातिगत बंधन को तोड अचानक से चमत्कार, अवतार की उम्मीदें अब भी हैं. मैं यह मानता हूं कि भ्रष्टाचार किसी लोकपाल वगैरह से दूर नहीं होगा. इसके लिए राज-काज, शुद्धि-बुद्धि की जरूरत है. लोग भ्रष्टाचार से नहीं पड़ोसी के भ्रष्टाचार से परेशान हैं. अपने पास छोटी गाड़ी है, पडोसी के पास बडी गाड़ी हो गयी, परेशानी इससे है.

 हाल के वर्षों में राजनीतिक चिंतन व विचारधारा में क्षेत्रवाद का जोर बढा है. समग्रता में देश कहां है? क्या भारत में भी दलीय व्यवस्था में कुछ परिवर्तन की दरकार है?

 राजनीति में ही क्यों? मैं तो सभी जगह जाते रहता हूं. गिने-चुने ही मिलते हैं, जो देश की बात करते हों. भूगोल-इतिहास और आकांक्षा का ज्ञान ही नहीं है. सभी गडहिया, पोखर, तालाब में फंसे हुए हैं. क्षेत्रीयता का फलाफल भी तो नहीं दिख रहा. झारखंड में देखिए. मैं तो 50 साल पहले वहां गया था. वह मूल रूप से जनजातियों का प्रदेश है. प्रचुर संपदा रहते हुए भी उससे वहां की जनजातियां बौरायी या बिगडी नहीं लेकिन आज उनकी सहेजी हुई संपदा पर सबकी नजर है. स्थानीय बाशिंदों की स्थिति पानी बीच मीन पियासी वाली हो गयी है. पास में बिहार और यूपी जैसे माने हुए शातिर राज्य हैं. सिर्फ राजनीति को दोष देकर अपना दामन नहीं बचाया जा सकता. दूसरी बात यह भी कि राष्ट्र ऐसा होता भी तो नहीं, जैसा बनाने की कोशिश रही है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार मगध एक राष्ट्र था, कौशल एक राष्ट्र था, काशी एक राष्ट्र था. तब हम विश्वगुरु थे, अब हर किसी के अनुयायी होने को तत्पर हैं.

रही बात दलीय व्यस्था में परिवर्तन की तो भारत कोई इंगलैंड तो है नहीं कि यहां सिर्फ एक-दो किस्म के लोग रहते हैं कि लेबर पार्टी में चले गये या फिर कंजरवेटिव पार्टी में. यह देश मनुष्यों का महासागर है. और जैसा देश होता है, वैसी ही राजनीति भी होनी चाहिए. मैं तो 1970 से ही यह कह रहा हूं कि इस देश में गठबंधन ही चलेगा. 1970 में मैं शिमला में कोलिशन गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स विषय पर आयोजित सेमिनार में गया था, तभी कहा था कि भारत में ऐसा ही होगा. तब मैं कोई भविष्यवाणी तो नहीं कर रहा था और न ही शाप दे रहा था लेकिन तब ही से यह संकेत मिल रहा था कि राजनीति हाजीपुर के मेले का रूप लेगी . हर कोई अपना सामान लेकर आयेगा और, चिल्लायेगा और सबको मिलाकर बन जायेगा एक पशु मेला.

 आपने बहुत पहले ही उपभोक्तावादी दर्शन के खतरे के बारे में लिखा था. अब तो वह पराकाष्ठा की ओर है…

इंसानों में वासना तो आदिम काल से विराजमान है लेकिन इस आधुनिक युग में और-और की तृष्णा बहुत ही भयानक रूप में है. इसका आकर्षण इतना जबर्दस्त है कि लोग इसमें फंसे चले जा रहे हैं और यह संस्कृति हर दिन एक बलि मांगती है. फतिंगों के भी जब मरने के दिन आते हैं तो वह और तेजी से और तेजी से दीपशिखा की ओर मंडराने लगता है. अब इसी उपभोग के युग में अंतरिक्ष पर कब्जा जमाने की होड़ मची है. यह एक तांडव ही तो है. इसी युग में तो यह आण्विक हथियार बनाया जा रहा है और फिर यह कहा जा रहा है कि इसका इस्तेमाल हमले के लिए नहीं होगा. तो क्या यह आतिशबाजी के लिए किया जायेगा! लेकिन कहते हैं न कि हर व्यवस्था के नष्ट होने के बीज उसी में समाये हुए होते हैं. वैसे ही इस नयी व्यवस्था के नष्ट होने के बीज भी इसी में हैं.

 दुनिया घूमने के बावजूद घुमक्कड़ी में हिमालय आप सबसे ज्यादा बार जाते हैं, जाना चाहते हैं. वजह?

यह तो मैं भी नहीं जानता कि क्यों जाता हूं बार-बार हिमालय. शायद हिम आकर्षित करता है, हिम का नाम लेते ही शांति, शीतलता और तृप्ति का अहसास होता है…शायद इसलिए भी. 50 वर्षों से हिमालय जा रहा हूं और बार-बार पूछता हूं…क्यों आता हूं यहां? जवाब नहीं मिल पाता. हिमालय कभी शांति का घर था. बर्फ का बसेरा था लेकिन अब सबसे अशांत है और सैनिकों का बसेरा है उसके आसपास. सबसे अशांत हो गया है हिमालय. नेपाल, अफगानिस्तान, पूर्वोत्तर राज्य… हर ओर तो सैनिक जमावड़ा, हथियारों का जखीरा ही जमा हुआ है. शायद इसलिए भी जाता हूं बार-बार हिमालय कि यह बता सकूं कुछ ही लोगों को हिम का घर, साधना का स्थल, शांति का चार खतरे में है…कुछ लोग भी यदि उस ओर ध्यान दें तो शायद मेरा जाना सफल हो जाये.

 आपके अनुसार सबसे बड़ी चुनौती और चिंता क्या है?

सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कोई चुनौतियों को देखता ही नहीं. सबसे बड़ी चिंता यही है कि कोई चिंतित ही नहीं है. छोटे-छोटे स्वार्थों के फेरे में ईर्ष्या और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति हावी होती जा रही है.