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आयोग और दुर्योग

उत्तर प्रदेश में महिला, अल्पसंख्यक , अनुसूचित जाति एवं जनजाति और पिछड़ा वर्ग आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं का इन दिनों बिन इंजन की गाड़ी जैसा हाल है. राज्य में समाजवादी पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बने सात महीने होने को आए मगर इन महत्वपूर्ण संस्थाओं में न तो अध्यक्षों की नियुक्ति हुई है और न उपाध्यक्षों की. कहीं-कहीं तो हालत इतनी खराब है कि आयोग के सामान्य सदस्य भी नियुक्त नहीं हुए हैं. इसका खामियाजा उन पीड़ितों को भुगतना पड़ रहा है जिनकी कहीं सुनवाई नहीं हो रही. महत्वपूर्ण पद खाली होने से आयोगों में शिकायतों का अंबार बढ़ता जा रहा है और उनका निपटारा नहीं के बराबर हो रहा है.
उत्तर प्रदेश में अमूमन नई सरकार आने के बाद आयोग पर काबिज पुराने अध्यक्षों और उपाध्यक्षों के विदा होने का एक अलिखित नियम है. इसके बाद इन पदों पर नई नियुक्तियां होती हैं. यह कवायद अपने लोगों को उपकृत करने के लिए की जाती हैं. लेकिन संभवत: पहली बार ऐसा देखने में आ रहा है कि पुरानों को हटा तो दिया गया है लेकिन उनकी जगह पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव नए लोगों की नियुक्ति सात महीने बाद तक नहीं कर सके हैं.

सवाल उठता है कि सरकार के सामने ऐसी क्या मजबूरियां हैं. हम इसका जवाब खोजने की कोशिश करते हैं. खुलेआम तो कोई बोलने को तैयार नहीं होता लेकिन दबी जुबान में पार्टी पदाधिकारी यह जरूर स्वीकार करते हैं कि आयोगों में नियुक्तियों का मामला बड़े नेताओं के आपसी तालमेल के अभाव में लगातार लटकता जा रहा है. पार्टी के एक नेता बताते हैं, ‘मई में मुख्यमंत्री ने आयोगों में नियुक्ति के लिए लिस्ट तैयार करवाई थी लेकिन बात अंजाम तक नहीं पहुंच सकी. सपा प्रमुख मुलायम सिंह के परिवार से शिवपाल हों चाहे रामगोपाल अथवा मुसलिम चेहरा कहे जाने वाले आजम खां, आयोगों में नियुक्ति को लेकर सभी की अपनी अपनी-अपनी पसंद और नापसंद है. हर बड़ा नेता या तो अपने लोगों को इन पदों पर लाना चाहता है. या फिर उन लोगों को उपकृत करना चाहता है जो चुनाव में टिकट पाने से वंचित रह गए थे.’

बिना चुनाव लड़े लाल बत्ती की चाहत रखने वाले सिर्फ पार्टी के बड़े नेता ही नहीं हैं. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के समय मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की कोर कमेटी के सदस्य रह चुके कई युवा चेहरे भी इसकी लालसा रखते हैं. चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी निभा चुके कई युवा इसी उम्मीद में हैं. इन स्थितियों के चलते पार्टी में एक तरह की खींचतान मची हुई है. सपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि पार्टी आलाकमान इस खींचतान के बीच आयोगों में किसी की नियुक्ति करके किसी तरह के असंतोष या टकराव को बढ़ाना नहीं चाहती. आलाकमान की निगाह लोकसभा चुनावों पर टिकी हुई है. बताते हैं कि आजम खान, शिवपाल यादव, प्रोफेसर रामगोपाल और स्वयं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के गुटों में बंटी सपा किसी भी गुट को निराश नहीं करना चाहती. इसी आपसी खींचतान से बचने के लिए सपा ने निकाय चुनाव में भी शिरकत नहीं की थी. यह प्रयोग काफी हद तक सफल भी रहा. इससे पार्टी टिकटों के बंटवारे के लिए होने वाली मगजमारी और नाराजगी से बच गई.   इसी तरह के किसी जादुई फॉर्मूले की तलाश सरकार आयोगों में नियुक्ति के लिए भी कर रही है, लेकिन सात महीने बाद भी उसके हाथ खाली हैं.

सूत्र बताते हैं कि सपा नेतृत्व अलग-अलग गुटों से हो रही खींचतान के बीच आयोगों में किसी की नियुक्ति करके असंतोष बढ़ाना नहीं चाहता

आयोगों के पद सरकारों के लिए कितने महत्वपूर्ण होते हैं इसका नमूना अतीत में भी कई बार देखने को मिला है. जैसे 1999 में जब कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिया था और रामप्रकाश गुप्त नए मुख्यमंत्री बनाए गए थे तो उस समय राज्य महिला आयोग के अध्यक्ष के पद पर कल्याण की करीबी कुसुम राय नियुक्त थीं. गुप्त के मुख्यमंत्री बनते ही कल्याण के करीबियों की महत्वपूर्ण पदों से छुट्टी होने लगी तो कुसुम राय का भी नंबर आया लेकिन उन्होंने इस्तीफा देने से मना कर दिया. कुसुम राय को हटाने के लिए सरकार ने विधानसभा में नया कानून बना कर महिला आयोग को ही समाप्त कर दिया था. लेकिन मौजूदा स्थिति दूसरी है. इस समय सरकार आपसी खींचतान में न तो किसी की नियुक्ति कर पा रही है और न ही आगामी लोकसभा चुनाव में लोगों के नाराज होने के डर से इन पदों को समाप्त ही कर पा रही है. सरकार की इस लाचारी का खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ रहा है, जिसकी एक बानगी अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग में देखी जा सकती है. उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के जगतापुर गांव के रहने वाले दलित मंगरे प्रसाद कुछ माह पूर्व ही प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक पद से रिटायर हुए हैं. नौकरी से छुट्टी मिलने के बाद मंगरे प्रसाद ने खेतीबाड़ी करके परिवार का पेट पालना शुरू किया. लेकिन गांव के दबंग ठाकुरों को उनका खेतीबाड़ी करना रास नहीं आया और उन्होंने जुलाई में एक मेड़ के विवाद में मंगरे और उनके बेटे रमाकांत की पिटाई कर दी. मंगरे बताते हैं, ‘घटना के तुरंत बाद जब दस जुलाई को दबंगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाने थाने गए तो वहां कहा गया कि किसी निजी अस्पताल में उपचार करवा लो.’ थाने में सुनवाई न होने पर मंगरे 12 जुलाई को जिले के एसपी से मिले और पूरी घटना के बारे में बताया. एसपी के आश्वासन के बाद भी मंगरे दबंगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाने में सफल नहीं हो सके. लिहाजा उन्होंने अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग का रुख किया. मंगरे और उनका परिवार पिछले चार महीने से आयोग के चक्कर लगा रहा है. लेकिन वहां से भी उन्हें न्याय की कोई आस नहीं दिख रही है. कारण वही है. आयोग में न तो अध्यक्ष हैं न ही उपाध्यक्ष और न ही सदस्य. लिहाजा मंगरे और उनके जैसे दर्जनों पीड़ित दलित पूरे प्रदेश से रोज आयोग के लखनऊ स्थित कार्यालय पहुंचते हैं और फिर निराशा लेकर लौट जाते हैं. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष डॉ पीएल पुनिया कहते हैं, ‘राज्य के एससी, एसटी आयोग में खाली चल रहे पदाधिकारियों के पदों का मतलब यह है कि दलितों का उद्धार इस सरकार के एजेंडे में है ही नहीं.’

महिला आयोग, अल्पसंख्यक आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग की भी यही कहानी है. स्थानीय पुलिस व प्रशासन से न्याय न मिलने की स्थिति में ही पीड़ित आयोगों की ओर रुख करते हैं. मार्च में प्रदेश की सरकार बदलने के बाद से आयोगों की स्थिति खराब हुई है. नई सरकार बनते ही सभी प्रमुख आयोगों जैसे महिला आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों को तत्काल प्रभाव से हटा दिया गया. नियम के अनुसार आयोगों के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्य ही आने वाली शिकायतों की सुनवाई करते हैं. लेकिन ये सभी पद खाली होने के कारण पीड़ितों के प्रार्थना पत्र तो आ रहे हैं लेकिन उन पर सुनवाई न हो पाने के कारण लंबित मामलों का अंबार दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है. महिला आयोग और अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग में सचिव को भी सुनवाई का अधिकार है जो सीनियर पीसीएस अधिकारी होते हैं. लेकिन जिस अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग में पीडि़त दलितों के सबसे अधिक मामले आते हैं वहां अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों के साथ-साथ सचिव का पद भी खाली पड़ा है. 
उधर, महिला आयोग में सचिव तैनात तो हैं लेकिन उनके द्वारा सुनवाई सप्ताह में एक या दो दिन ही हो पाती है. आयोग के एक कर्मचारी बताते हैं, ‘महिलाओं के उत्पीड़न संबंधी करीब 50-60 प्रार्थना पत्र रोज आ जाते हैं लेकिन अधिकांश की सुनवाई नहीं हो पाती है.’ पति की प्रताड़ना से परेशान लखीमपुर निवासी लीलावती बताती हैं, ‘पिछले पांच महीने से आ रही हूं लेकिन हर बार आगे की तारीख ही दे दी जाती है.’

महिला आयोग की दुर्दशा को उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी दुर्भाग्यपूर्ण बताती हैं. जोशी कहती हैं, ‘प्रदेश में महिलाएं इस समय असुरक्षित हैं. बलात्कार पीड़ितों का न्याय पंचायतों में निपटाया जा रहा है. महिलाओं की प्रदेश में ऐसी स्थिति की जिम्मेदार सिर्फ सरकार है. महिला आयोग यदि उनके प्रति होने वाले उत्पीड़न के प्रति सक्रिय होता तो घटनाओं को बढ़ावा न मिलता. सरकारों ने आयोगों का पूरी तरह राजनीतिकरण कर दिया है. ऐसे लोग जो बड़े नेताओं के रबर स्टांप होते हैं, उन्हें आयोगों में नियुक्ति दी जाती है. इस कारण से आयोगों की धार धीरे-धीरे कम होती जा रही है.’

जहां तक अल्पसंख्यक आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग की बात है तो यहां कहने को सचिव नियुक्त हैं लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि उन्हें सुनवाई का अधिकार नहीं है.

जहां तक अल्पसंख्यक आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग की बात है तो यहां कहने को सचिव नियुक्त हैं लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि उन्हें सुनवाई का अधिकार नहीं है. अल्पसंख्यक आयोग के सचिव एसएम फारुखी बताते हैं, ‘पिछले सात माह से आयोग में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष नहीं हैं. यह बात अब आम आदमी को भी पता चल गई है लिहाजा अब लोगों ने आना ही बंद कर दिया है. कुछ मामलों में पीड़ित डाक से पत्र भेज कर शिकायत दर्ज करवा रहे हैं.’ सुनवाई का अधिकार न होने के कारण सचिव अपने यहां आने वाली शिकायतों को जिला स्तर के अधिकारियों को जांच के लिए भेज देते हैं. सचिवों को ये भी अधिकार नहीं है कि यदि वे जिला स्तर के अधिकारियों की जांच से संतुष्ट न हों तो उन्हें तलब कर सकें. यदि अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या सदस्य होते हैं तो वे प्रताड़ना या भेदभाव जैसे मामलों में जांच से असंतुष्ट होने पर जिले के बड़े अधिकारियों को तलब कर लेते हंै. इससे अधिकारियों में थोड़ा भय बना रहता है कि जांच में लापरवाही करने पर आयोग तलब कर सकता है और फटकार लगा सकता है.

अब बात अल्पसंख्यक आयोग की जहां मुसलिम, ईसाई, सिख, पारसी, बौद्ध एवं जैन समुदाय के लोगों के उत्पीड़न से जुड़े मामलों की सुनवाई होती है. अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर सरकार कितनी जागरूक है, इस पर पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉक्टर अयूब कहते हैं, ‘सरकार बनने के बाद मुलायम सिंह यादव व अखिलेश यादव ने कई बार कहा कि सरकार बनाने में अल्पसंख्यकों का काफी योगदान रहा है. लेकिन अल्पसंख्यक आयोग में पदों का महीनों से खाली होना इस बात को साबित करता है कि सरकार अल्पसंख्यकों को लेकर बिल्कुल संवेदनशील नहीं है.’

पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थिति और भी दयनीय है, जबकि कहने को सूबे की सरकार पिछड़ों की रहनुमा है. पिछड़ा वर्ग आयोग में पूरी तरह सन्नाटा पसरा रहता है. आयोग के कर्मचारी बताते हैं कि अब सिर्फ डाक से प्रार्थना पत्र आ रहे हैं. प्रतिदिन शिकायती पत्रों की संख्या 30 तक पहुंच जाती है. लेकिन जब अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्य होते थे तो प्रतिदिन 100 से अधिक पीड़ित खुद आकर अपनी समस्याएं आयोग को बताते थे.
इस बारे में बात करने पर सपा के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी तहलका को बताते हैं, ‘आयोगों में नियुक्तियां प्रक्रिया में हैं. खाली पड़े पदों के लिए काफी नाम आए हैं. पद पर योग्य व्यक्ति को बैठाने के लिए नामों की छानबीन चल रही है. जल्द ही आयोगों में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति कर दी जाएगी.’

आयोगों में सियासी दांवपेंच में फंसी नियुक्ति सरकार और व्यवस्था पर कई सवाल खड़े करती है. जब ये आयोग कोई काम नहीं कर रहे तो इनके नाम पर इतने बड़े अमले को बेमतलब क्यों पाला-पोसा जा रहा है? सवाल न्याय के मखौल का भी है. अगर ये इतने ही गैरजरूरी हैं तो इनके नाम पर जनता का पैसा क्यों फूंका जा रहा है?

धूम से धड़ाम

बीती चार अक्टूबर को जब दिल्ली के मंगलापुरी इलाके में सुष्मिता चक्रवर्ती ने खुद को फांसी लगा ली तो यह इस डरावनी सच्चाई का पहला संकेत था कि किंगफिशर एयरलाइंस का संकट अब तनख्वाहें न मिलने और उड़ानें रद्द होने के दायरे से कहीं आगे पहुंच चुका है. 45 साल की सुष्मिता के पति किंगफिशर एयरलाइंस में स्टोर मैनेजर हैं. यह आत्मघाती कदम उठाने से पहले लिखी गई चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि उनके पति को पिछले छह महीने से तनख्वाह नहीं मिली है जिसकी वजह से घर चलाने का संकट है और इस कारण वे खुदकुशी कर रही हैं.  भयंकर आर्थिक संकट से जूझ रही इस कंपनी के कई दूसरे कर्मचारियों को समझ में नहीं आ रहा कि वे घर कैसे चलाएं. 

अब सवाल उठता है कि आखिर एक नामी कंपनी इस हालत में कैसे पहुंच गई. क्या विजय माल्या ने अक्ल से ज्यादा अपने अहं को तरजीह दी? क्या माल्या की चमक-दमक से बैंकों और नियामकों की आंखें भी इस कदर चुंधिया गई थीं कि वे कुछ नहीं देख सके? धमाके के साथ शुरू हुई यह एयरलाइन जिस तरह फुस्स हुई उसे देखते हुए कई सवाल खड़े होते हैं. कहानी मई, 2005 से शुरू होती है जब किंगफिशर एयरलाइंस बड़े धूमधड़ाके के साथ शुरू हुई थी. खूबसूरत एयरहोस्टेसों से घिरे विजय माल्या अखबारों और टीवी में यह कहते दिखाई और सुनाई दे रहे थे कि उनकी कंपनी आसमान पर राज करेगी. तब माल्या को खेल के नियम बदल देने वाला खिलाड़ी करार दिया जा रहा था. ब्रिटिश कंपनी वर्जिन एटलांटिक के तमाशापसंद मुखिया रिचर्ड ब्रैसनन से उनकी तुलना हो रही थी.

लेकिन उन दिनों भी इस बात को समझने के लिए दिमाग को ज्यादा मथने की जरूरत नहीं थी कि इस चमक-दमक के पीछे एक अंधेरा भी गहराता जा रहा है. एयरलाइन की शुरुआत करते ही माल्या ने धड़ाधड़ नए जहाज खरीदने शुरू किए. किंगफिशर एयरलाइंस चार-पांच विमानों के साथ शुरू हुई थी लेकिन उसने तेजी से नए जहाजों के ऑर्डर देना शुरू कर दिया. मई 2005 से मार्च, 2012 तक कंपनी के बेडे़ में हर महीने एक नया विमान जुड़ता गया. मार्च, 2012 तक कंपनी के 92 विमान उड़ान भर रहे थे, जबकि 60 और नए विमानों का ऑर्डर दिया जा चुका था. दरअसल हर चीज अपनी ट्रेडमार्क शैली में करने की चाहत में माल्या पर किसी भी कीमत पर यात्रियों को अपनी झोली में भरने की धुन सवार हो गई थी. एयरहोस्टेसों से लेकर खाने-पीने और मनोरंजन तक हर चीज का इंतजाम इतना लकदक था कि किंगफिशर के लिए प्रति यात्री कुल लागत जेट एयरवेज से लगभग दोगुनी हो गई थी. यह अति थी. शायद माल्या यह नियम भूल गए थे कि कारोबार में एक वित्तीय अनुशासन भी होना चाहिए. उड्डयन क्षेत्र में काम कर रही एक कंपनी के सीईओ बताते हैं कि किंगफिशर की उड़ान के दौरान परोसे जाने वाले खाने की कीमत 700-800 रु प्रति यात्री बैठती थी जबकि उसकी प्रतिस्पर्धी जेट एयरवेज के लिए यह आंकड़ा 300 रु प्रति यात्री था.

माल्या भले ही बड़ी-बड़ी बातें करते रहे हों मगर किंगफिशर एयरलाइंस कभी  तय नहीं कर सकी कि इसे खुद को कैसी कंपनी के तौर पर पेश करना है. शुरुआत के दो साल बाद ही इस ऑल इकोनॉमी एयरलाइन ने भव्यता की तरफ बड़ा कदम बढ़ाते हुए एक बिजनेस क्लास प्लान पेश किया. दूसरे शब्दों में कहें तो सस्ती यात्रा से यह महंगी यात्रा की दिशा में गई. भारत के लिहाज से यह अव्यावहारिक रणनीति थी. माल्या यहीं नहीं रुके. वे किंगफिशर को देश की सरहदों के पार ले जाना चाहते थे. उनकी इस इच्छा ने पहले से ही मुश्किलों से जूझ रही कंपनी को और संकट में डाल दिया. दरअसल माल्या किसी भी कीमत पर अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनी जेट एयरवेज से पीछे नहीं रहना चाहते थे. जेट ने भी अंतरराष्ट्रीय सेवाएं शुरू कर दी थीं. माल्या भी ऐसा करना चाहते थे. मगर इस रास्ते में एक बाधा थी.

अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते किंगफिशर के कर्मचारी

नियमों के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय सेवा शुरू करने से पहले किसी भी एयरलाइन को देश के भीतर ही विमान परिचालन में पांच साल का तजुर्बा होना चाहिए. किंगफिशर को तब तक पांच साल नहीं हुए थे. ऐसे में माल्या ने एक शॉर्टकट अपनाया. उन्होंने कैप्टन गोपीनाथ की एयरलाइन एयर डेक्कन को खरीद लिया जिसे काम शुरू किए पांच साल हो चुके थे. एयर डेक्कन का नया नाम हुआ किंगफिशर रेड. कैप्टन गोपीनाथ के लिए यह चोखा सौदा रहा. कंपनी की कीमत 2,200 करोड़ रु आंकते हुए किंगफिशर ने एयर डेक्कन में 26 फीसदी शेयर खरीदे और इसके एवज में 550 करोड़ रु खर्च किए. अब इसकी तुलना जेट से करें जिसने इससे थोड़ा पहले ही पूरी की पूरी सहारा एयरलाइंस 1,450 करोड़ रु में खरीदी थी. इस तरह माल्या ने अपने कारोबारी मॉडल में एक और परत जोड़ी जिसने निवेशकों की हैरानी बढ़ाई.

इस तरह किंगफिशर की अंतरराष्ट्रीय सेवाएं भी शुरू हो गईं. महंगे खाने से लेकर शराब तक यहां भी भव्यता का पूरा इंतजाम था. यात्रियों के लिए सीट पर ही मसाज की सुविधा थी. कंपनी ने अभी मुनाफे का एक पैसा भी नहीं देखा था मगर वह दिल खोलकर लुटा रही थी. इस तरह की अति कारोबारी रणनीति के लिहाज से बड़ी चूक थी. लंदन स्थित कंपनी स्ट्रैटेजिक एयरो रिसर्च में विश्लेषक साज अहमद कहते हैं, ‘किंगफिशर एयरलाइंस चलना सीखने से पहले ही दौड़ने की कोशिश कर रही थी.’ जब माल्या का ध्यान इस तरफ दिलाया भी गया तो उन्होंने यह मानने से इनकार कर दिया कि उनसे कोई चूक हो रही है. किंगफिशर एयरलाइंस के इस मुखिया और कंपनी के शीर्ष अधिकारियों के बीच रिश्ते हमेशा तनावपूर्ण रहे. एयरलाइन कैसे चलानी है, इस मुद्दे पर माल्या के साथ मतभेद के चलते सीओओ नाइजेल हैरवुड ने भी कंपनी छोड़ दी थी. कारोबार के नियमों की उपेक्षा करते हुए समूह की एक कंपनी को दूसरी कंपनी की चोटों के इलाज का खर्च उठाने के लिए प्रोत्साहित किया गया. एक पूर्व सीओओ ने तो बयान भी दिया था कि जब तक बीयर बह रही है तब तक एयरलाइन चलती रहेगी. कुछ समय पहले कनाडा की चर्चित इक्विटी फर्म वेरिटा ने अपनी रिपोर्ट में कंपनी की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की थी और आंकड़ों के अध्ययन के बाद उसे खतरे से आगाह भी किया था. वेरिटा ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा था कि मूल कंपनी यानी यूबी ग्रुप पर भी इसका बुरा असर पड़ेगा जिसने न सिर्फ किंगफिशर एयरलाइंस में पैसा लगाया है बल्कि इसकी तरफ से करीब 19 हजार करोड़ रु की बैंक गारंटियां भी ले रखी हैं. कई कारोबारी सौदों में माल्या को सलाह देने वाले एक बैंकर बताते हैं कि उन्हें एयरलाइन के साथ भावनात्मक लगाव था. वे बताते हैं, ‘समय बीतने के साथ भावना व्यावहारिकता पर भारी पड़ती गई.’

वैसे माल्या की भावनाओं के उफान का दुनिया भर के कारोबारी माहौल से तारतम्य भी नहीं बैठा. एयर डेक्कन के विलय के बाद जल्द ही अमेरिका में लीमैन ब्रदर्स का ढहना हुआ और इससे पैदा आर्थिक संकट सारी दुनिया में फैल गया. खुलकर कर्ज बांटने वाले बैंक सावधान हो गए. 2011 में भी मंदी का एक और दौर आया जिसने माल्या की मुश्किलों में बढ़ोतरी की. आज किंगफिशर को उबारने के लिए पैसा चाहिए. लेकिन अर्थव्यवस्था सुस्त है और अब पहले की तरह कारोबार के लिए पैसा जुटाना आसान नहीं. इसलिए यूबी ग्रुप की दूसरी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचकर रकम की व्यवस्था करने की बात हो रही है. उधर, कर्जदाता मुंबई और गोवा में माल्या के आलीशान घरों को बेचकर जितनी हो सके, अपनी रकम की वसूली करना चाहते हैं.

अहमद कहते हैं, ‘इस एयरलाइन को कई लोग मजाक की तरह देखने लगे हैं. मई, 2009 में 10 लाख से ज्यादा यात्रियों ने इसके साथ उड़ान भरी थी. बाजार पर इसका अच्छा-खासा कब्जा था. तीन साल बाद इसके विमान धरती पर खड़े हैं. इसके पास कर्मचारियों की तनख्वाह के लिए पैसे नहीं हैं. इन सालों के दरम्यान यह निवेशकों के लिए ऐसी कंपनी बनी रही जिसकी पैकिंग तो बढ़िया थी मगर जिसका माल कमजोर था.’
इसलिए हाल यह है कि 2005 में शुरू हुई यह एयरलाइन मुनाफे की तो छोड़िए, हजारों करोड़ रु के कर्जे में डूबी है. यह कर्जा सप्लायरों का है, तेल कंपनियों का है और सरकार का भी. जिस दिन यह लांच हुई थी उस दिन माल्या ने बड़ी-बड़ी बातें की थीं. उनके शब्द थे, ‘हमें उम्मीद है कि कीमतों पर नियंत्रण, तकनीक के इस्तेमाल और आउटसोर्सिंग जैसी कारोबारी रणनीतियों के इस्तेमाल से किंगफिशर एयरलाइंस परिचालन के पहले ही साल में मुनाफा देने वाली कंपनी बन जाएगी.’

संपत्तियां और कीमत
शराब
यूनाइटेड ब्रूअरीज होल्डिंग्स, यूनाइटेड स्प्रिट्स, यूनाइटेड ब्रूअरीज, मैक्डॉवेल होल्डिंग
8,888.68 करोड़ रु

एयरलाइंस
किंगफिशर
5,082.40 करोड़ रु

खेल
फोर्स इंडिया एफ1 टीम, रॉयल चैलेंजर्स बेंगलूरु
1343.24 करोड़ रु

उर्वरक और रसायन
मैंगलौर कैमिकल्स और फर्टिलाइजर्स
535.49 करोड़ रु

इंजीनियरिंग
यूबी इंजीनियरिंग
131.43 करोड़ रु

हालांकि इस चूक के दोषी और भी हैं. सवाल यह है कि जब इस कंपनी की बिगड़ती सेहत के संकेत साफ दिख रहे थे तो बैंक और नियामक अब तक क्या कर रहे थे. किंगफिशर एयरलाइंस पर आज सात हजार करोड़ रु का कर्ज है. इसमें सबसे बड़ा हिस्सा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का है. जैसा कि एक प्राइवेट इक्विटी विश्लेषक कहते हैं, ‘इन कर्जदाताओं ने माल्या पर पहले दबाव क्यों नहीं बनाया? अब मुंह खोलना और मीडिया को बयान देना बस भागते भूत की लंगोटी पकड़ने वाली बात है. यह काम अगर पहले ही हो जाता तो इन कर्जदाताओं का बहुत-सा पैसा बच जाता.’  दूसरे शब्दों में कहें तो किंगफिशर एयरलाइंस की इस मुसीबत का अच्छा-खासा बोझ देश के करदाताओं के हिस्से में भी आना है. सवाल यह भी है कि माल्या स्टेट बैंक से इतना पैसा हासिल करने में कैसे कामयाब हो गए. कंपनी खस्ताहाल थी मगर माल्या को यह जरूरी नहीं लगा कि वे कर्जदाताओं की बैठक में शामिल हों. इससे यह सवाल भी उठता है कि क्या यह नौबत प्रोमोटरों और बैंकरों के बीच की दोस्ती का नतीजा है. क्या बैंक इसलिए पहले माल्या पर चाबुक नहीं चला पाए क्योंकि उन्हें डर था कि इससे यूबी ग्रुप की दूसरी कंपनियां उनके साथ कारोबार करना बंद कर देंगी? क्या बैंकों को यह याद नहीं रखना चाहिए था कि 2010 यानी दो साल पहले ही किंगफिशर ने आठ हजार करोड़ रु के कर्ज की रीस्ट्रक्चरिंग (तय समय पर उधार न चुका पाने की स्थिति में कर्ज को बाद में कैसे चुकाया जाना है इसकी व्यवस्था) की थी.

किंगफिशर ऐयरलाइंस के मालिक विजय माल्या

गलती उड्डयन मंत्रालय की भी है. नियम-कायदों का पालन सुनिश्चित करने वाले का काम ही यह होता है कि वह ऐसी नौबत आने न दे. इलाज से ज्यादा बचाव का इंतजाम करे. अगर इसने पहले ही किंगफिशर एयरलाइंस पर कार्रवाई कर दी होती तो मौजूदा संकट टाला जा सकता था. अगर चेतावनी का कोई असर नहीं हो रहा था तो सरकार को हरकत में आना चाहिए था. इसके बजाय यह टालमटोल करती रही. इसका नतीजा यह हुआ कि निवेशकों, कर्मचारियों और आम जनता को इस संकट की भनक तक नहीं लगी. सरकार कहती रही कि एयरलाइन से यह कहा गया है कि वह खुद में जान फूंकने की कोई योजना बनाए.    

माल्या की नेताओं से करीबी भी उनके प्रतिस्पर्धियों के लिए लंबे समय से शिकायत का विषय रही है. चाहे एनसीपी के मुखिया शरद पवार हों या पूर्व उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल, माल्या हमेशा ताकतवर नेताओं के करीबी दिखते रहे हैं. हाल ही में खबरें आई थीं कि नागर विमानन महानिदेशक (डीजीसीए) भारत भूषण को इसलिए अचानक उनके पद से हटा दिया गया कि उन्होंने किंगफिशर एयरलाइंस की माली हालत को देखते हुए यात्रियों की सुरक्षा संबंधी कुछ अहम सवाल उठाए थे. 

विडंबना देखिए कि उड्डयन के क्षेत्र में जिस सुधार की राह माल्या इतने साल से तकते रहे वह सुधार उनके लिए थोड़ी देर से आया. यह था इस क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति. हाल ही में ब्रिटिश एयरवेज और इत्तेहाद एयरवेज द्वारा एयरलाइन में दिलचस्पी लेने की खबरें आई थीं. मगर अब कोई भी समझदार निवेशक तब तक और इंतजार करेगा जब तक उसके लिए सौदा और सस्ता नहीं हो जाता. फिर जो कंपनी खराब तरीके से परिचालन के इतर वजहों से भी डूबी हो उसमें पैसा लगाने से पहले निवेशक उसके मैनेजमेंट पर नियंत्रण चाहेगा. अहमद कहते हैं, ‘अगर अपनी एयरलाइन बचाने के लिए माल्या जेब ढीली नहीं करेंगे तो कोई दूसरा इसमें पैसा क्यों लगाएगा? दुनिया भर में एयरलाइंस वैसे ही मुश्किलों से जूझ रही हैं. ऐसे में कोई भी एयरलाइन किसी बीमार एयरलाइन पर पैसा क्यों लगाएगी? ‘

फिलहाल किंगफिशर एयरलाइंस और मार्च से बिना तनख्वाह के जी रहे इसके कर्मचारियों में सुलह की खबर है. बताया जा रहा है कि 13 नवंबर यानी दीवाली तक कर्मचारियों को मार्च, अप्रैल और मई तक का वेतन मिल जाएगा. माल्या ने बयान दिया है कि उनकी कारोबारी बुद्धि अभी चुकी नहीं है और वे कंपनी को फिर से पटरी पर लाकर दिखाएंगे.

कंपनियों की दुर्गति भारत में कोई नई बात नहीं है. लेकिन किंगफिशर के निवेशकों और कर्मचारियों के गले यह बात नहीं उतर रही कि एक आदमी, जिसकी एयरलाइन डूब रही थी, वह फॉर्मूला वन रेस, कैलेंडर शूट्स और आईपीएल टीम पर पैसा लुटाए जा रहा था. कहा जा सकता है कि ये सब तो अलग बातें हैं, लेकिन जब इस शाहखर्ची के बाद माल्या अपने पायलटों और इंजीनियरों को उद्दंड कर्मचारी बताते हैं तो कौन उनके साथ सहानुभूति रखेगा?                                 

सफलता का वह सिलसिला

इसमें संदेह नहीं कि यश चोपड़ा हमारे समय के बहुत बड़े फिल्मकार और निर्देशक थे. कम से कम दो सर्वकालीन महान सितारों, अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के फिल्मी सफर को संवारने का श्रेय उन्हें दिया जा सकता है. अमिताभ के करियर में ‘दीवार’, ‘त्रिशूल’, ‘काला पत्थर’, ‘कभी-कभी’ और ‘सिलसिला’ जैसी फिल्में नहीं होतीं तो अमिताभ का सफर कुछ कम चमकीला लगता. शाहरुख खान के करियर से तो अगर यशराज बैनर की फिल्में हटा दी जाएं तो वे बिल्कुल मामूली हीरो नजर आते हैं. उनकी सबसे अच्छी और कामयाब फिल्में, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’, ‘डर’, ‘दिल तो पागल है’, ‘मोहब्बतें’, ‘वीर जारा’, ‘चक दे इंडिया’, ‘रब ने बना दी जोड़ी’ यशराज फिल्म्स के बैनर से ही आई हैं. यह इत्तिफाक नहीं है कि अरसे बाद जब शाहरुख खान की कोई फिल्म रिलीज होने जा रही है तो वह भी यश चोपड़ा के निर्देशन और यशराज फिल्म्स के बैनर तले आ रही है. वैसे इन दोनों के अलावा भी यश चोपड़ा एक के बाद एक हिट और चालू फॉर्मूले के हिसाब से अच्छी फिल्में देते रहे हैं. साठ के दशक में ‘वक्त‘ और ‘धूल का फूल‘ हो या नब्बे के दशक में ‘लम्हे‘ और ‘चांदनी‘, यश चोपड़ा का करिश्मा इनमें दिखता है.

लेकिन क्या यश चोपड़ा जितने कामयाब फिल्मकार हैं, उतने ही महान निर्देशक भी हैं? दरअसल एक निर्माता-निर्देशक के तौर पर उनका हाथ वक्त और कारोबार की नब्ज पर बिल्कुल सही-सही हुआ करता था. उन्हें बदलते समय के हिसाब से बदलना आता था. दूसरी बात, उन्होंने कभी अच्छी और रचनात्मक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया. वे हमेशा कामयाब और मनोरंजक फिल्में बनाते रहे. बेशक, इसमें ‘दीवार‘ जैसी शानदार फिल्में भी चली आईं, लेकिन मूलतः वे चालू फॉर्मूलों पर बनीं या फॉर्मूले बनाने वाली फिल्में ही बनाते रहे. उन्हें मालूम था कि हिंदी फिल्मोद्योग में या तो बहुत गहरा रोमांस बिकता है या तो खुल कर चलने वाली मारधाड़. उनकी लगभग सारी फिल्में इन दो दायरों में समा जाती हैं. रोमांस और मारधाड़ के बीच कुछ रिश्तों की रुलाइयां होती हैं, कुछ वक्त के सितम, कुछ किस्मत का खेल और कुछ कुदरत के नजारे. वे अपनी फिल्मों के गाने रिकॉर्ड करने के लिए जो लोकेशन चुनते थे, उसका जवाब नहीं हुआ करता था. और बेशक, यह मसाला वे इतने सधे हुए अंदाज में मिलाते कि तीन घंटे की फिल्म दर्शकों को बिना बोर किए एक झोके की तरह निकल जाती. यह अनायास नहीं है कि निर्देशक के तौर पर उन्होंने जिस फिल्म को हाथ लगाया वह हिट नहीं, सुपरहिट रही. यही बात निर्माता के रूप में उनके योगदान को लेकर कही जा सकती है. उनके बैनर तले बनने वाली शायद कोई इक्का-दुक्का फिल्म ही फ्लॉप रही हो. जबकि यह वह उद्योग है जहां माना जाता है कि किस्मत एक बड़ी भूमिका अदा करती है. अमिताभ बच्चन हों या शाहरुख खान, उनके करियर में पिटी हुई फिल्मों की एक लंबी लिस्ट है लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म यशराज बैनर के तले नहीं बनी है. जाहिर है, कारोबार की इसी समझ ने संदिग्ध और छिपे हुए साधनों से चलने वाली फिल्मी दुनिया में एक कॉरपोरेट संस्कृति की नींव डाली जिसमें काफी कुछ एक सलीके के तहत होता है.

फिर भी दुबारा पूछने की तबीयत होती है कि क्या हिंदी के सबसे कामयाब सितारों के साथ कुछ सबसे कामयाब फिल्में देने वाले यश चोपड़ा ने कोई ऐसी फिल्म भी बनाई है जिसे विश्व सिनेमा की टक्कर का कहा जा सके.  कुछ हद तक ‘दीवार‘ एक ऐसी फिल्म है जो हिंदी की बेहतरीन कारोबारी फिल्मों में से एक नजर आती है, लेकिन यश चोपड़ा जैसे निर्देशक के पास ऐसी फिल्म नहीं दिखती जिसे पेश करके भारतीय सिनेमा कुछ अभिमान के साथ कह सके कि यह एक बड़ी फिल्म है. यह हालत तब है जब यशराज फिल्म्स का ध्यान सात समंदर पार के कारोबार पर भी रहा और बाहर से समृद्ध से समृद्ध तकनीक लाने पर भी.

ऐसा क्यों हुआ? इसका कुछ सुराग यशराज फिल्म्म की कारोबारी सफलता में खोजा जा सकता है. आखिर इस बैनर के तले बनने वाली सारी फिल्में हिट क्यों होती रहीं? क्योंकि मूलतः कारोबारी प्रेरणा से बनाई जाने वाली इन फिल्मों में कला के प्रयोग या जोखिम आम तौर पर नहीं होते थे. आमिर खान ‘धोबीघाट’ जैसी फिल्म बनाने का खतरा मोल ले सकते हैं, लेकिन यशराज को नहीं लेना है क्योंकि उन्हें फिल्म की कला से नहीं, फिल्म के कारोबार से मतलब है. विशाल भारद्वाज ‘मकड़ी’ और ‘ब्लू अंब्रेला’ से लेकर ‘मकबूल’ और ‘ओंकारा’ और ‘सात खून माफ’ तक बनाने की सोच सकते हैं, लेकिन यशराज फिल्म्स नहीं सोच सकता, क्योंकि उसके लिए सिनेमा का मतलब सिर्फ वह मनोरंजन है जिसमें बहुत दिमाग खपाना न पड़े, ऐसा सरोकार नहीं जिसमें बुद्धि-विवेक के रचनात्मक विलास की भी गुंजाइश हो.

यह यश चोपड़ा की आलोचना नहीं है. जो काम उन्होंने अपने लिए चुना नहीं, उसकी आलोचना क्यों हो? लेकिन यह हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा की उस प्रवृत्ति की आलोचना है जो हमेशा फॉर्मूलों के आधार पर फिल्म बनाती रही और सिनेमा को ऐसे सस्ते मनोरंजन में बदलती रही जिसमें पैसा चाहे जितना लगे, विवेक का इस्तेमाल कम से कम दिखे. कभी हिंदी की बौद्धिकता इसकी प्रखर आलोचना भी किया करती थी, लेकिन दुर्भाग्य से हिंदी में इन दिनों जैसे-जैसे विचार का ऊसर बड़ा होता जा रहा है, वैसे-वैसे आलोचना के हथियार भोथरे होते जा रहे हैं. अब जो सफल है उसके आगे सिर झुकाने का रिवाज है, उसके कारोबार में भी ऊंची कला खोजने का चलन है. इस लिहाज से यश चोपड़ा पूरी तरह कामयाब हैं और महान भी. बेशक, इस टिप्पणी में निहित आलोचना के बावजूद यह तो मानना ही होगा कि वे हिंदी के सबसे बड़े फिल्मकारों में रहे-कामयाब
फिल्में देने वाले भी और कामयाब फिल्में बनाने की संस्कृति और संस्था देने वाले भी.    

मुलताई गोलीकांड विवाद

क्या है मुलताई गोलीकांड?
1997 में मध्य प्रदेश के कई जिलों में अतिवृष्टि और गेरुआ रोग के कारण फसलों को भारी नुकसान हुआ था. इसकी भरपाई के लिए प्रदेश के किसानों द्वारा मुआवजे की मांग की गई और प्रशासन को कई बार ज्ञापन सौंपे गए. इन्हीं मांगों को लेकर जनवरी, 1998 में लगभग 75 हजार किसानों ने बैतूल जिले में शांतिपूर्ण रैली निकाली जिसके बाद प्रशासन द्वारा 400 रुपए प्रति एकड़ मुआवजा देने की बात कही गई. इतना कम मुआवजा लेने से इनकार करते हुए किसानों ने डॉ.सुनीलम के नेतृत्व में 12 जनवरी, 1998 को मुलताई तहसील का घेराव किया जहां भीड़ के अनियंत्रित हो जाने पर पुलिस द्वारा गोलियां चलाई गईं. इस गोलीबारी में 24 किसानों समेत फायर ब्रिगेड चालक धीर सिंह की मृत्यु हो गई.

इस मामले में अदालत ने क्या फैसला दिया है?
मुलताई कांड के बाद लगभग 250 किसानों को आरोपित बनाकर 66 मुकदमे दर्ज किए गए और डॉ.सुनीलम को इस कांड में मुख्य आरोपी बनाया गया. दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री कार्यकाल में हुए इस हादसे की भाजपा ने कड़ी निंदा की और इस घटना को जलियांवाला बाग हत्याकांड जैसा बताया. उमा भारती ने मुख्यमंत्री बनने पर सभी मुकदमे वापस लेने की बात भी कही थी लेकिन उन्होंने वादा नहीं निभाया. इस साल 18 अक्टूबर को बैतूल जिले के प्रथम अपर सत्र न्यायाधीश एससी उपाध्याय द्वारा मुलताई के पूर्व विधायक डॉ.सुनीलम समेत तीन लोगों को फायर ब्रिगेड चालक धीर सिंह की हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा सुनाई गई है.

अदालत के इस फैसले की क्या प्रतिक्रिया है?
किसान नेता एवं पूर्व विधायक डा. सुनीलम की उम्रकैद का कई सामजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों ने विरोध किया है. इन सामाजिक संगठनों का तर्क है कि सजा डॉ.सुनीलम को नहीं बल्कि उन पुलिस अधिकारियों को होनी चाहिए जो 24 बेकसूर किसानों की हत्या के जिम्मेदार हैं. अन्ना हजारे की टीम में शामिल रहे डॉ.सुनीलम की रिहाई के लिए सामाजिक संगठनों ने अपील भी जारी की है. अपील करने वाले संगठनों में पीयूसीएल, सोशलिस्ट फ्रंट, इंसाफ, वाटर राइट कैंपेन और डीएनए मुंबई मुख्य हैं. 
-राहुल कोटियाल

न्यूज मीडिया का अंडरवर्ल्ड और उसके शार्प शूटर्स

न्यूज मीडिया के अंदर लगातार मजबूत होते अंडरवर्ल्ड और इसके साथ बढ़ते नैतिक-आपराधिक विचलन और फिसलन के बीच जैसे यह होना ही था. कोयला आवंटन घोटाला मामले में आरोपों में घिरी जिंदल स्टील ऐंड पावर कंपनी के मालिक और कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल ने जी न्यूज समूह पर ब्लैकमेलिंग और डरा-धमकाकर पैसा वसूलने का आरोप लगाया है. जिंदल ने सबूत के बतौर जी न्यूज समूह के दो संपादकों और बिजनेस हेड- सुधीर चौधरी और समीर अहलुवालिया का स्टिंग पेश किया है जिसमें वे दोनों जिंदल समूह के खिलाफ चल रही खबरों को रोकने के लिए 100 करोड़ रुपये का बिजनेस मांगते हुए नजर आते हैं.

लेकिन इस खुलासे के बाद से न्यूज मीडिया खासकर चैनलों में ऐसी हैरानी और घबराहट दिखाई पड़ रही है, जैसे अचानक कोई दुर्घटना हो गई हो. आनन-फानन में बचाव की कोशिशें शुरू हो गईं. ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) ने न सिर्फ इस मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित कर दी बल्कि जांच-पड़ताल के बाद जी न्यूज के एडिटर/बिजनेस हेड और बीईए के कोषाध्यक्ष सुधीर चौधरी को संगठन से बाहर कर दिया. मजे की बात यह है कि चौधरी की बीईए की सदस्यता खत्म करने का फैसला सदस्यों के बीच गोपनीय वोट के जरिए किया गया.

खबर यह भी है कि न्यूज चैनलों के मालिकों/प्रबंधकों के संगठन- न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन(एनबीए) की स्व-नियमन व्यवस्था- न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी भी इस मामले की जांच कर रही है. लेकिन सारा जोर जी-जिंदल मामले से भड़की आग पर तात्कालिक तौर पर काबू पाने और नुकसान कम करने पर है. इसके साथ ही दूरगामी नुकसान से बचाव के लिए इस पूरे प्रकरण को एक अपवाद, नैतिक भटकाव और एक खास न्यूज चैनल और उसके दो संपादकों के विचलन के रूप में पेश करने की कोशिश की जा रही है.

लेकिन यह चैनलों के मालिक और संपादक भी जानते हैं कि यह पूरा सच नहीं है. अगर मामला सिर्फ एक चैनल और उसके दो संपादकों के नैतिक विचलन और आपराधिक व्यवहार का होता तो चैनलों में इतनी घबराहट और बेचैनी नहीं दिखाई देती. लेकिन मुश्किल यह है कि खबरों की खरीद-बिक्री के इस हमाम में ज्यादातर चैनल और अखबार नंगे हैं. पेड न्यूज के पहले से जारी शोर-शराबे के बीच अब जी-जिंदल प्रकरण के खुलासे से न्यूज चैनलों को यह डर सताने लगा है कि कल उनका नंबर भी सकता है.

लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल हाल के कुछ वर्षों में न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में कॉरपोरेट के अलावा और भी कई तरह की पूंजी आई है जिनमें नेताओं-अफसरों-व्यापारियों/कारोबारियों/ठेकेदारों/बिल्डरों के अलावा चिट फंड कंपनियों की ओर से किया गया निवेश शामिल है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें ज्यादातर काला धन है जिसका मकसद चैनलों के आवरण में अपने दूसरे कानूनी-गैरकानूनी धंधों के लिए राजनीतिक और नौकरशाही का संरक्षण और प्रोत्साहन हासिल करना है.

सच पूछिए तो इन दोनों यानी कॉरपोरेट और आपराधिक पूंजी को मिलाकर न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का अंडरवर्ल्ड बनता है जिसमें मालिक-संपादक खबरों के सौदागर बन गए हैं. यहां खबर समेत हर पत्रकारीय मूल्य और नैतिकता बिकाऊ है और जिसके पास भी पैसा है, वह उसे खरीद/दबा/बदल सकता है. चाहे वह भ्रष्टाचार के मामलों में फंसी कोई कंपनी/नेता/अफसर हो या चुनाव लड़ रहा कोई माफिया डॉन. हालत इतने बदतर हो चुके हैं कि ज्यादातर चैनलों और अखबारों में जहां से भी और जैसे भी पैसा आता हो और उसके लिए चाहे खबर बेचनी हो या पत्रकारीय मूल्यों-नैतिकता को ताक पर रखना हो या कोई नियम-कानून तोड़ना पड़े, इसकी कोई परवाह या शर्म नहीं रह गई है.

इस मायने में जी-जिंदल प्रकरण पेड न्यूज की परिघटना का ही स्वाभाविक विस्तार है और इसमें चौंकाने वाली कोई बात नहीं है और न ही यह कोई अचानक हुई दुर्घटना है. जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ कहते रहे हैं कि बड़ी कॉरपोरेट पूंजी से संचालित न्यूज मीडिया ‘संरचनागत तौर पर झूठ बोलने के लिए बाध्य’ है. सच पूछिए तो न्यूज मीडिया के अंडरवर्ल्ड की मुनाफे की हवस और कॉरपोरेट और दूसरे निजी हितों को आगे बढ़ाने के दबाव ने संपादकों और पत्रकारों को भी हफ्ता वसूलने वाले हिटमैन और शार्प शूटर्स में बदलना शुरू कर दिया है.

क्या नवीन जिंदल के ‘उल्टा स्टिंग’ ऑपरेशन में जी न्यूज के संपादक भी ऐसे ही हिटमैन और शार्प शूटर की तरह नजर नहीं आते हैं? याद रखिए, वे न्यूज मीडिया के अंडरवर्ल्ड के हिटमैन और शार्प शूटर भर हैं, असली डॉन नहीं हैं. लेकिन अंडरवर्ल्ड का खेल देखिए, डॉन के बारे में कोई बात नहीं हो रही है. क्या इसमें आपको ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ नहीं सुनाई दे रही है?

कितने काम के कानून?

उत्तराखंड में नैनीताल जिले के तराई क्षेत्र में हंसपुर खत्ता नाम का एक गांव है. राज्य के बाकी ग्रामीण क्षेत्रों की तरह इस गांव में भी रोजगार के लिए पलायन आम बात है. जंगलों के बीच बसे इस गांव के कई युवा नौकरी के लिए बाहर चले जाते हैं. प्रकाश राम भी उनमें से एक थे जो आगरा की एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे. अगस्त, 2004 में वे छुट्टियां मनाने अपने गांव आए थे. उन्हें घर आए कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन पुलिस उनके पिता हयात राम को घर से उठा कर ले गई. हयात राम क्षेत्रीय जनांदोलनों में काफी सक्रिय रहते थे. उनकी गिरफ्तारी के दिन प्रकाश घर पर नहीं थे. अगले दिन जब वे लौटे तो पुलिस ने उन्हें भी थाने चलने को कहा. पूछने पर पुलिस ने बस इतना बताया कि कुछ पूछताछ के बाद उन्हें और उनके पिता को साथ में ही छोड़ दिया जाएगा. प्रकाश के मुताबिक दो दिन तक पुलिस ने उन्हें बिना लिखित रिपोर्ट दर्ज किए ही अलग-अलग थानों में बंद रखा. दो दिन बाद जब पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज की तो उसमें बताया गया कि गांव के पास जंगल में एक माओवादी प्रशिक्षण शिविर चलाए जाने की सूचना मिली थी और वहीं से प्रकाश और हयात राम को गिरफ्तार किया गया है. पुलिस ने यह भी दर्शाया कि इनके पास से कुछ प्रतिबंधित साहित्य बरामद किया गया है.

इसके बाद प्रकाश और उनके पिता को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. पूरे दो साल बाद प्रकाश की जमानत हो सकी. वे बताते हैं, ‘माओवाद क्या होता है उस वक्त मैं जानता भी नहीं था. पुलिस का असली चेहरा हमने उसी दौरान देखा. ऐसा लगता था जैसे हम अपने देश में नहीं बल्कि किसी दुश्मन देश में आ गए हैं. हमें देशद्रोही घोषित कर दिया गया था. हमारी जमानत को जो भी तैयार होता, पुलिस उसे डरा-धमका कर जमानत नहीं देने देती.’

सरकार इस कानून को इसलिए समाप्त नहीं करना चाहती ताकि उसके हाथ में हमेशा एक ऐसा हथियार रहे जिससे वह अपनी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दबा सके

प्रकाश और उसके पिता के साथ ही कुछ अन्य लोगों को भी देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था जो लगभग सात साल तक जेल में रहने के बाद इसी साल 14 जून को बरी हुए हैं. कोर्ट में सुनवाई के दौरान ऐसी कई बातें सामने आईं जो साफ बताती थीं कि यह पूरा मामला पुलिस द्वारा तैयार किए गए झूठ के सिवा कुछ भी नहीं था. जिस प्रतिबंधित साहित्य को सील करने की तिथि पुलिस द्वारा 20 सितंबर, 2004 दर्शाई गई थी, वह दरअसल 23 नवंबर, 2004 के अखबारों में लपेटकर सील किया गया था. अदालत के सामने पुलिस ने यह भी कबूला कि उसे पता ही नहीं कि बरामद साहित्य प्रतिबंधित है भी या नहीं. 14 जून, 2012 को कानूनी तौर पर तो यह मामला समाप्त हो गया, लेकिन प्रकाश और बाकी लोगों की जिंदगी के जो साल जेल में बीत गए उनका हिसाब देने वाला कोई नहीं. उन पर देशद्रोही होने का जो कलंक लगा वह अलग. 

इतिहास बताता है कि राज्य सदियों से शोषण का प्रतीक रहा है और कानून उस शोषणकारी व्यवस्था को मजबूत करने का जरिया. राजा की ‘प्रजा’ से ब्रितानिया हुकूमत की ‘गुलाम’ होने तक भारत की जनता के लिए राज्य का स्वरूप हमेशा शोषणकारी ही बना रहा. आजादी मिलने पर जब जनता की संप्रभुता वाले वेलफेयर स्टेट यानी कल्याणकारी राज्य को स्थापित करने की बात कही गई तब लोगों को जरूर यह लगा कि अब राज्य का स्वरूप बदलेगा. मगर 65 साल बाद भी क्या ऐसा हो पाया है? पिछले कुछ समय से कुडनकुलम में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों के खिलाफ 200 से ज्यादा मुकदमे दर्ज करके करीब 1,50,000 लोगों को आरोपित बनाया गया है. इनमें से अधिकतर पर देशद्रोह और देश के खिलाफ साजिश एवं युद्ध की तैयारी करने जैसे आरोप हैं. अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबिक झारखंड में भी लगभग 6,000 आदिवासियों को ऐसे ही आरोपों के चलते जेल में कैद किया गया है. जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक सरकारी तंत्र की बर्बरता का शिकार होने वाले लोगों के कितने ही उदाहरण हैं. कई ऐसे जिन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी और कई ऐसे भी जिन्हें घर से उठा लिया गया जिनका आज तक कुछ पता नहीं है. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत कई ऐसे राज्य हैं जहां अलग-अलग कानूनों के अंतर्गत हजारों लोगों को देशद्रोह और देश के खिलाफ साजिश के आरोप में जेल में डाल दिया गया है. और यह सब जिन कानूनों की आड़ में हुआ है वे अपने दुरुपयोग के चलते हमेशा से बदनाम रहे हैं और इसीलिए उन्हें खत्म करने की मांग भी लंबे समय से उठती रही है.

धारा 124 ए (भारतीय दंड संहिता)
पिछले दिनों टीम अन्ना से जुड़े कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर भी देशद्रोह का आरोप लगाया गया था. मामला हाई प्रोफाइल होने के कारण पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया. असीम द्वारा वकील न करने पर और जमानत लेने से इनकार करने के बावजूद उन्हें छोड़ दिया गया. लेकिन इस देश में असीम त्रिवेदी की तरह ‘चर्चित देशद्रोह’ करने का सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता. प्रकाश राम और उनके साथियों की तरह हजारों लोग हैं जो देशद्रोह के आरोप में कई साल जेल में बिता चुके हैं और आज भी बिता रहे हैं. अलग-अलग स्रोतों से मिली जानकारी बताती है कि अकेले झारखंड में ही पिछले 10 साल में पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा 550 से ज्यादा लोगों को नक्सली होने के नाम पर मौत के घाट उतारा जा चुका है. कुछ समय पहले एक प्रतिष्ठित अखबार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक इस समय झारखंड में करीब 6,000 लोग जेल में हैं जिनमें से अधिकतर पर माओवादी साहित्य पाए जाने और  माओवादियों की मदद करने का आरोप है.

भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए में देशद्रोह की परिभाषा के तहत आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है. धारा 124 ए में लिखा है : ‘राजद्रोह’ : जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्य-रूपण द्वारा या अन्यथा (भारत) में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, अप्रीति प्रदीप्त करेगा या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह (आजीवन कारावास) से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा.

इतिहास बताता है कि यह कानून अंग्रेजी राज के दौरान 1870 में लागू किया गया था. तब इसका मकसद था क्रांतिकारियों को कुचलना. आजादी से पहले महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, मौलाना आजाद और एमएन रॉय जैसे कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर इस धारा के अंतर्गत मुकदमे चलाए जा चुके हैं. देश को आजादी मिलने के बाद से ही इस कानून का विरोध होने लगा था. संवैधानिक सभा में बहस के दौरान भी कुछ लोग इस कानून के पक्ष में नहीं थे. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इस पर नाखुशी जाहिर की थी. उन्होंने इसे लोकतंत्र विरोधी करार देते हुए कहा था कि यह प्रावधान बहुत ही अप्रिय और आपत्तिजनक है और व्यावहारिक व ऐतिहासिक दोनों ही कारणों से गणतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए.

उनकी राय थी कि इससे जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही बेहतर होगा. लेकिन यह कानून आज भी न सिर्फ मौजूद है बल्कि समय-समय पर इसका इस्तेमाल भी होता रहा है. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने ‘केदारनाथ बनाम सरकार’ मामले में सुनवाई के दौरान धारा 124 ए का दायरा सीमित कर दिया था. अदालत का कहना था, ‘सिर्फ वही कार्य देशद्रोह की परिभाषा में दंडनीय होगा जो साफ तौर से हिंसा भड़काने या अशांति फैलाने के आशय से किया गया हो.’ फिर भी इस धारा के दुरुपयोग पर अंकुश नहीं लग सका है. हाल में एक आयोजन के दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर का कहना था कि इस कानून के चलते ‘यह सरकार निकम्मी है’ जैसे बयान देना भी दंडनीय हो जाते हैं जबकि संविधान ऐसे किसी भी कानून की इजाजत नहीं देता जो अभिव्यक्ति की आजादी का हनन करता हो. सच्चर की मानें तो यह कानून सरकार को निरंकुश बनाता है और सरकार इसे इसलिए खत्म नहीं करना चाहती ताकि उसके हाथ में हमेशा एक ऐसा हथियार रहे जिससे वह अपनी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दबा सके.

ऐसा ही होता दिखता है. धारा 124 ए का इस्तेमाल आम तौर पर पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ ही किया जाता रहा है. अरुंधती राय, विनायक सेन, पत्रकार सीमा आजाद, उनके पति विश्वमोहन और सोनी सोरी जैसे कई नाम इसके उदाहरण हैं. पॉस्को से लेकर कुडनकुलम संयंत्र मामले तक हजारों आदिवासियों और ग्रामीणों को इस कानून के तहत देशद्रोही घोषित करके जेल भेजा जा चुका है. आजादी के बाद से अब तक हजारों लोगों पर देशद्रोह के मुकदमे चलाए गए. इनमें से ज्यादातर वही हैं जो जनविरोधी नीतियों पर सरकार का विरोध करते आए हैं.

धारा 124 ए का इस्तेमाल आम तौर पर पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ ही किया जाता रहा है. अरुंधती राय, विनायक सेन, पत्रकार सीमा आजाद, उनके पति विश्वमोहन और सोनी सोरी जैसे कई नाम इसके उदाहरण है

जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित संस्था ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ (पीयूसीएल) आपातकाल के दौर से ही ऐसे कानूनों का विरोध करती आई है. संस्था के राष्ट्रीय सचिव महिपाल सिंह कहते हैं, ‘विपक्ष द्वारा सरकार पर कई तरह के आरोप रोज लगाए जाते हैं. सरकार की लगभग हर नीति का विपक्ष खुलेआम विरोध और निंदा करता है तो उन पर देशद्रोह का मुकदमा नहीं होता. लेकिन यही काम जब कोई पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और खास तौर पर किसी ग्राम समुदाय के लोग और आदिवासी अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए करते हैं तो उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है. ऐसे कानूनों की लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए.’ 

हालांकि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता मीनाक्षी लेखी की राय थोड़ी जुदा है. वे कहती हैं, ‘विपक्ष जब भी किसी सरकारी नीति की निंदा करता है तो वह एक लोकतांत्रिक तरीके से करता है, उसे देशद्रोह नहीं कहा जा सकता. मैं खुद भी कई ऐसी सरकारी नीतियों का विरोध करती आई हूं जो जनहित में नहीं थीं. हम कभी यह नहीं कहते कि इस पूरी व्यवस्था को ही उखाड़ फेंका जाए. जबकि कई अलगाववादी संगठन इसी मंशा से विरोध करते हैं कि इस व्यवस्था को बदल कर किसी तानाशाही व्यवस्था को स्थापित कर दिया जाए और ऐसे लोगों को रोकने के लिए तो यह धारा बहुत ही जरूरी है.’ हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू का कहना था, ‘इस धारा का गलत इस्तेमाल करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ धारा 342 के अंतर्गत मुकदमा चलाया जाना चाहिए और उन्हें जेल होनी चाहिए.’ इस धारा के दुरुपयोग पर उनका कहना था, ‘यदि इसका दुरुपयोग बंद नहीं हुआ और मेरी जानकारी में कोई भी ऐसा मामला आया जहां किसी निर्दोष व्यक्ति पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा हो तो मैं स्वयं ऐसे गलत आरोप लगाने वालों के खिलाफ मुकदमा करूंगा फिर चाहे वह कोई मंत्री या मुख्यमंत्री ही क्यों न हो.’ इसी साक्षात्कार के दौरान जस्टिस काटजू ने यह भी स्वीकार किया कि यह धारा खत्म कर देना ही बेहतर है. हालांकि मीनाक्षी लेखी का मानना है कि किसी भी कानून का दुरुपयोग निंदनीय है, लेकिन 124 ए को समाप्त कर देना कोई समाधान नहीं. वे कहती हैं, ‘दुरुपयोग तो भारतीय दंड संहिता की और भी कई धाराओं का होता रहा है. यहां तक कि धारा 376 और 302 तक का दुरुपयोग हुआ है, इसका मतलब यह तो नहीं कि इन्हें भी समाप्त कर दिया जाए.’

विभिन्न मानवाधिकार संगठन और कई सामाजिक कार्यकर्ता इस धारा को असंवैधानिक बताते हुए इसे समाप्त करने की मांग करते आ रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि भारत में इस कानून की स्थापना करने वाले ब्रिटेन ने भी अपने यहां यह कानून खत्म कर दिया है. जस्टिस सच्चर के शब्दों में, ‘ऐसे कानून बताते हैं कि कैसे राज्य अपने ही लोगों के खिलाफ एक युद्ध छेड़े हुए है. इस कानून का समाप्त होना नागरिक स्वतंत्रताओं की सबसे बड़ी जीत होगी.’

गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून (यूएपीए)
आतंकवाद और अलगाववाद से लड़ने के नाम पर आज तक कई विशेष कानून बनाए गए हैं मगर ऐसे कानून हमेशा ही अपने दुरुपयोग के लिए ज्यादा बदनाम हुए. 1985 में पंजाब में खालिस्तान आंदोलन से निपटने के लिए टाडा (टेररिस्ट ऐंड डिसरप्टिव एक्टिविटिस (प्रिवेंशन) एक्ट) बनाया गया था जिसे दो साल बाद पूरे देश में लागू कर दिया गया. टाडा के अंतर्गत कुल 76,000  से भी ज्यादा लोगों को जेल में बंद किया गया. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 19,000 लोग तो गुजरात में बंद हुए जहां उस वक्त कोई कथित आतंकवाद नहीं था. टाडा के व्यापक दुरुपयोग के चलते इसका चौतरफा विरोध हुआ और अंततः 1995 में इसे समाप्त कर दिया गया. फिर 2002 में एनडीए सरकार द्वारा पोटा (प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म एक्ट) लागू कर दिया गया. यह भी शुरू से ही विवादास्पद रहा. इसके दुरुपयोग के भी कई मामले सामने आए. इनमें से एक मामले में तो दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रवक्ता को पोटा अदालत द्वारा फांसी की सजा सुना दी गई थी. बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें बरी कर दिया गया.

2004 में आई यूपीए सरकार ने पोटा को तो निरस्त कर दिया मगर टाडा और पोटा के विवादास्पद प्रावधान यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट) में शामिल कर लिए गए. 2008 के मुंबई हमलों के बाद इस कानून को फिर से संशोधित किया गया. यूएपीए का विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि 2008 के संशोधन ने इस कानून को और ज्यादा बर्बर बना दिया है. कश्मीर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष एफ ए कुरैशी बताते हैं, ‘यूएपीए नई बोतल में पुरानी शराब जैसा है. यह कानून सरकार को मनमानी करने का अधिकार देता है. जो कोई भी अपने अधिकारों के हनन होने पर आवाज उठाता है, उसे इस कानून से दबा दिया जाता है और उसकी लंबे समय तक जमानत भी नहीं हो पाती.’

ऐसे कानूनों से आतंकवाद पर नियंत्रण पाने का तो कोई भी पुख्ता उदाहरण नहीं मिलता लेकिन इनके दुरुपयोग के हजारों उदाहरण हैं. यह कानून अक्सर सामाजिक कार्यकर्ताओं और अपने जल-जंगलों को बचाने की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों के दमन के लिए इस्तेमाल होता रहा है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह कानून पुलिस और सरकारी अधिकारियों को जरूरत से ज्यादा शक्तियां प्रदान करके उन्हें मनमानी और दमन करने की छूट देता है.

सीमा आजाद उत्तर प्रदेश में ‘दस्तक’ नाम की एक पत्रिका निकालती हैं. प्रदेश की राजनीतिक खामियों के साथ ही उन्होंने ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ के संभावित खतरों पर एक विस्तृत रिपोर्ट अपनी पत्रिका में छापी. छह फरवरी, 2010 को उन्हें दिल्ली से लौटते वक्त इलाहाबाद स्टेशन पर उनके पति विश्वविजय के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. माओवादी साहित्य बरामद होने का आरोप लगाते हुए उन्हें यूएपीए की विभिन्न धाराओं में आरोपित बना दिया गया. लगभग ढाई साल जेल में रहने के बाद इसी साल अगस्त में उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा जमानत पर रिहा किया गया है. सीमा आजाद की ही तरह माओवादी साहित्य बरामद होने के नाम पर विभिन्न राज्यों में हजारों लोगों को कैद किया गया है. इस संदर्भ में 15 अप्रैल, 2011 को विनायक सेन को जमानत देते वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि ‘सिर्फ माओवादी साहित्य बरामद होना किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता.’ साथ ही तीन फरवरी, 2011 को एक अपील की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि ‘महज किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता जब तक कि किसी हिंसक घटना में उसकी कोई भूमिका न हो’. फिर भी देश में न जाने कितने लोग माओवादी होने के आरोप में जेल में हैं.

सीमा आजाद उत्तर प्रदेश में ‘दस्तक’ नाम की एक पत्रिका निकालती हैं. प्रदेश की राजनीतिक खामियों के साथ ही उन्होंने ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ के संभावित खतरों पर एक विस्तृत रिपोर्ट अपनी पत्रिका में छापी.

हाल ही में दिल्ली स्थित जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन द्वारा दिल्ली में एक रिपोर्ट जारी की गई. ‘आरोपित, अभिशप्त और बरी’ नामक इस रिपोर्ट में भी कई ऐसे मामले दर्शाए गए हैं जिनमें यूएपीए के तहत लोगों को आरोपित बनाया गया और सालों जेल में बंद रखने के बाद भी जब उनके खिलाफ कोई मामला नहीं बन पाया तो उन्हें बरी कर दिया गया. रिपोर्ट में आमिर नामक एक लड़के का भी जिक्र है जिसे 18 साल की उम्र में जेल में डाल दिया गया था. आमिर का फैसला होने में 14 साल लगे जिस दौरान वह जेल में रहा और उसकी जिंदगी के ये 14 महत्वपूर्ण साल यूं ही निकल गए. एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स नामक संस्था ने आमिर को कोई कारोबार शुरू करने के लिए पांच लाख रुपये की वित्तीय सहायता की है. संस्था की दिल्ली इकाई के सचिव सय्यद अख्लाक अहमद बताते हैं, ‘आमिर और उनके जैसे कई अन्य लोगों की जिंदगी के ये साल तो लौटाए नहीं जा सकते मगर सरकार इनके पुनर्वास के लिए भी कोई कदम नहीं उठाती और न ही उन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही की जाती है जो ऐसे झूठे मामलों में लोगों की जिंदगी बर्बाद कर देते हैं.’ जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन की अध्यक्ष मनीषा सेठी ऐसे मामलों में मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठाते हुए कहती हैं, ‘जब भी कोई व्यक्ति देशद्रोह के आरोप में पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है तो मीडिया स्वयं ही इन्हें आतंकवादी घोषित करने में रत्ती भर नहीं कतराता. मीडिया में बेझिझक बयान दिए जाते हैं कि कोई माओवादी या लश्कर का आतंकी पकड़ा गया है. जब वही व्यक्ति कोर्ट द्वारा निर्दोष बताया जाता है तो उस पर कहीं कोई खबर नहीं होती.’

यूएपीए अपने कई प्रावधानों के चलते विवादित रहा है. इनमें से एक यह भी है कि इस कानून के तहत आरोपी को 180 दिन तक बिना आरोपपत्र दाखिल किए बंद रखा जा सकता है, जबकि दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार किसी भी मामले में 90 दिन के भीतर आरोपपत्र दाखिल करना अनिवार्य होता है. इस संदर्भ मंे पीयूसीएल की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष और अधिवक्ता एनडी पंचोली बताते हैं, ‘आज तक ऐसा एक भी मामला मेरे संज्ञान में नहीं जब यूएपीए के अंतर्गत आरोपी बनाए गए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ 90 दिन के भीतर आरोपपत्र दाखिल किया गया हो. पुलिस ऐसे प्रावधानों का गलत इस्तेमाल करती है और किसी को भी इतने लंबे समय तक जेल में डाल देती है. आतंकी गतिविधियों की पड़ताल तो और भी ज्यादा जल्दी की जानी चाहिए फिर आरोपपत्र दाखिल करने के लिए इतना ज्यादा समय देना कहां तक उचित है?’ पंचोली आगे बताते हैं, ‘भारतीय दंड संहिता में हर तरह के अपराध की सजा का प्रावधान है और आतंकवाद से निपटने के लिए भारतीय दंड संहिता ही काफी है. इसके अलावा जितने भी कानून आतंकवाद से निपटने के नाम पर बनाए जाते हैं वह सिर्फ राज्यों द्वारा शोषण करने का ही काम करते हैं जो बंद होना चाहिए.’

नक्सल प्रभावित इलाकों में तो सोनी सोरी जैसे हजारों आदिवासी यूएपीए जैसे कानून का दंश झेल ही रहे हैं साथ ही उन इलाकों के लोग भी इसके दुरुपयोग का शिकार हो रहे हैं जहां नक्सलवाद या माओवाद का नाम तक नहीं है. 

 सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा)
काले कानूनों की श्रृंखला में सबसे ज्यादा कुख्यात कानून है ‘आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशल पावर्स) एक्ट’ यानी अफस्पा. 1958 में लागू हुआ यह कानून सेना बलों द्वारा नागरिकों की हत्या, बलात्कार व दमन करने का एक साधन बनने के आरोपों को लेकर लंबे समय से विवादों में रहा है. अफस्पा के अंतर्गत सैन्य बलों को जिस प्रकार के अधिकार और छूट हासिल है उसकी तुलना दुनिया के किसी भी अन्य कानून से नहीं की जा सकती है. अफस्पा भारतीय संविधान में वर्णित मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के लिए तो चर्चा में रहा है साथ ही यह 1978 में मेनका गांधी मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई ‘कानून द्वारा स्थापित व्यवस्था’ की परिभाषा का भी उल्लंघन करता है. उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर जम्मू-कश्मीर तक जहां भी यह कानून प्रभावी है वहां इसके दुरुपयोग के हजारों उदाहरण मिलते हैं.

पांच मार्च, 1995 को नागालैंड की राजधानी कोहिमा में राष्ट्रीय राइफल्स के जवानों ने गाड़ी के टायर फटने की आवाज को बम धमाका समझ कर गोलीबारी शुरू कर दी. इस गोलीबारी में सात लोगों की जान चली गई और 22 लोग गंभीर रूप से घायल हुए. मरने वालों में चार और आठ साल की दो बच्चियां भी शामिल थीं. नवंबर, 2000 में मणिपुर की राजधानी इंफाल के पास एक बस स्टैंड पर खड़े 10 लोगों को असम राइफल्स के जवानों द्वारा मार दिया गया. अफस्पा की आड़ में हुए इस नरसंहार के बाद ही इरोम शर्मिला ने इस कानून को हटाने की मांग के साथ भूख हड़ताल शुरू की. इस हड़ताल को 12 साल होने वाले हैं. आज तक की सबसे लंबी भूख हड़ताल करने वाली इरोम का नाम कई रिकॉर्डों में दर्ज हो चुका है, लेकिन अफस्पा को हटाने की उनकी मांग आज तक अधूरी है.

सरकार आतंकवाद से लड़ने के नाम पर ऐसे कानूनों को बनाए रखने का तर्क देती है. लेकिन क्या इन कानूनों का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करने के लिए भी किसी इतने ही प्रभावी कानून की आवश्यकता नहीं है?

जम्मू-कश्मीर में भी हजारों परिवार इस कानून के दुरुपयोग के शिकार हुए हैं. श्रीनगर में रहने वाली परमीना अहंगर पिछले 22 साल से अपने बेटे की राह देख रही हैं. 18 अगस्त, 1990 की रात तीन बजे उनके बेटे को राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के सिपाही घर से उठा कर ले गए थे. उनका बेटा जावेद अहंगर उस वक्त 16 साल का था और दसवीं कक्षा में पढ़ता था. उस रात के बाद से जावेद की कोई खबर नहीं मिली. प्रशासन से लेकर कोर्ट तक कई-कई बार गुहार लगा चुकी परमीना अब गुमशुदा युवाओं के अभिभावकों की एक संस्था चलाती हैं. गांव-गांव जाकर उन्होंने लापता लोगों के परिवार वालों को संगठित करके ‘एसोसिएशन फॉर पेरेंट्स ऑफ डिसअपीयर्ड पर्सन्स’ का गठन किया. तहलका से बात करते हुए परमीना बताती हैं, ‘मैंने हर एक थाने, हर छावनी, हर कैंप, हर अस्पताल में अपने बेटे को ढूंढ़ा मगर उसकी कोई खबर नहीं मिली. आज 22 साल हो चुके हैं. आज मैं सिर्फ अपने बेटे के लिए नहीं लड़ रही बल्कि उन हजारों बच्चों के लिए लड़ रही हूं जो जावेद की ही तरह लापता कर दिए गए हैं. हमें मारने के लिए तो कई कानून हैं लेकिन जो इन कानूनों के नाम पर खुलेआम कत्ल कर रहे हैं उन्हें सजा देने के लिए कोई कानून नहीं है.’ बात जायज है. सरकार आतंकवाद से लड़ने के नाम पर ऐसे कानूनों को निरस्त करने से तो इनकार कर सकती है मगर क्या ऐसे कानूनों का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करने के लिए भी किसी इतने ही प्रभावी कानून की आवश्यकता नहीं है?

2004 में अफस्पा पर बदनामी का एक बड़ा कलंक तब लगा जब 30 वर्षीया थान्गजम मनोरमा के साथ असम राइफल्स के जवानों द्वारा सामूहिक बलात्कार करके उनकी हत्या कर दी गई. इसके विरोध में 40 महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने बैनर दिखाकर विरोध प्रदर्शन किया, जिन पर ‘इंडियन आर्मी रेप अस’ लिखा था. इसने देश को झकझोर कर रख दिया. मजबूरन केंद्र सरकार को अफस्पा की जांच के लिए एक आयोग का गठन करना पड़ा. जस्टिस जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में बने इस पांच सदस्यीय आयोग ने 2005 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इसमें कहा गया कि अफस्पा को तुरंत निरस्त कर दिया जाना चाहिए. जीवन रेड्डी आयोग के अलावा 2007 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाली प्रशासनिक सुधार समीति और हामिद अंसारी की ‘वर्किंग ग्रुप ऑन कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स इन जम्मू एंड कश्मीर’ ने भी अफस्पा को हटाए जाने की संस्तुति की है. इसी साल मार्च में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि क्रिस्टोफ हेंस ने भी कई इलाकों में घूम कर और कई लोगों से मिलकर एक रिपोर्ट केंद्र को सौंपी है. इसमें भी अफस्पा को मानवाधिकारों का हनन करने वाला कानून मानते हुए इसे हटाए जाने की संस्तुति की गई है.

सवाल यह भी है कि ऐसे कानून कितने सफल रहे हैं. अफस्पा को ही लें. जब इस कानून को बनाया गया था तब पूर्वोत्तर में सिर्फ ‘नागा नेशनल काउंसिल’ ही एक ऐसा संगठन था जिससे सशस्त्र विद्रोह के संभावित खतरे थे. आज अफस्पा के इतने साल बाद आलम यह है कि ऐसे पचासों संगठन उत्तर-पूर्व में मौजूद हैं. इससे यह तो साफ है कि जिन उद्देश्यों के लिए ऐसे कानूनों को बनाया जाता है उनकी पूर्ति नहीं हो पाती जबकि इन कानूनों का दुरुपयोग बहुत बड़े स्तर पर होता है. आजादी के 65 साल बाद भी यदि हजारों बेगुनाह लोग अपने देश के ही कानून की बलि चढ़ रहे हों तो वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य की बातें हवा-हवाई ही लगती हैं.

सर्व ‘दीक्षा’ अभियान!

कुछ महीनों पहले जब मध्य प्रदेश में गीता को अनिवार्य रूप से स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का फैसला किया गया तब यह चौतरफा विवाद का विषय बन गया था. शिक्षाविदों का कहना था कि ऐसे कदमों से शिक्षा का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बिगड़ सकता है तो वहीं भाजपा इसे पहले से एक तरफ झुकी शिक्षा व्यवस्था को संतुलित और बेहतर करने का प्रयास बता रही थी.  हालांकि बाद में यह विवाद धीरे-धीरे परिदृश्य से गायब हो गया. लेकिन इस घटना के पहले और बाद में अपेक्षाकृत कई ऐसी कम चर्चित लेकिन महत्वपूर्ण घटनाएं हुई हैं जो बताती हैं कि भाजपा सरकार ने बीते सालों में लगातार स्कूली शिक्षा में संघ की विचारधारा को पोषित करने का काम किया है. सर्व शिक्षा अभियान को निशाने पर रखने वाली इस सरकारी कवायद का सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि अब इससे जुड़ी आर्थिक अनियमितताओं के मामले भी सामने आने शुरू हो गए हैं.

इस कड़ी में सबसे ताजा मामला प्रदेश की स्कूल शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनीस को प्रदेश लोकायुक्त द्वारा जारी नोटिस है. यह नोटिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका देवपुत्र को अपने कार्यक्षेत्र से बाहर जाकर दिए गए सरकारी अनुदान को लेकर है. गौरतलब है कि मध्य प्रदेश सरकार ने देवपुत्र पत्रिका को 2009 में सभी स्कूलों में अनिवार्य तौर पर पढ़ाए जाने का फैसला लिया था. इस फैसले में हैरान करने वाली बात यह थी कि पत्रिका की सदस्यता के लिए 13 करोड़ 27 लाख रुपये का ड्राफ्ट पहले ही जारी कर दिया गया जबकि अनुबंध के लिए समिति का गठन बाद में किया गया. यह रकम प्रदेश के एक लाख 12 हजार से अधिक स्कूलों में देवपुत्र का सदस्य बनाने के नाम पर जारी की गई है. सन 2024 तक लागू इस फैसले का मतलब है कि यदि भविष्य में भाजपा सत्ता में न भी रहे तो भी सालों तक प्रदेश के सभी स्कूलों में संगठन की विचारधारा पढ़ाई जाती रहेगी. 
विचारधारा की आड़ में रेवड़ियां बांटने का दूसरा मामला सूर्य नमस्कार से जुड़ा है. विवेकानंद जयंती के मौके पर 12 जनवरी के दिन प्रदेश के सभी स्कूलों में अनिवार्य रुप से करवाए जाने वाले सूर्य नमस्कार में हर साल 12 करोड़ रुपये का खर्च आता है. यह काम सरकार खुद न करके संघ से जुड़ी विद्या भारती से करवाकर उसे लाभ पहुंचाती है. इतना ही नहीं, विचारधारा को पोषित करने के लिए सरकारी नीतियों को भी तोड़ने-मरोड़ने का काम किया गया है. जैसे कि प्रदेश सरकार ने केंद्र की कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय के योजना संचालन का सारा काम संघ की ही ग्रामीण महिला संघ को सौंप दिया है. दरअसल इस योजना के तहत जहां भी बालिका विद्यालय स्थापित किए जाते हैं उनका प्रबंधन स्थानीय महिलाओं की एक समिति करती है, मगर प्रदेश सरकार ने इस प्रावधान को न मानते हुए ग्रामीण महिला संघ को ही नियुक्त कर दिया.

संघ से जुड़े विवेकानंद केंद्र के जरिए शिक्षकों के शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्यक्रम भी अपने आप में अनोखा है. इसी के अंतर्गत पिछले साल एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में सरकार ने शिक्षकों को 500 रुपये साहित्य और स्टेशनरी खरीदने के लिए तो दिए लेकिन उनसे संघ का साहित्य खरीदने के लिए तीन सौ रुपये काट भी लिए. इस तरह नौ जिलों के 21 हजार शिक्षकों को 65 लाख रुपये से अधिक का संघ साहित्य बेच दिया गया. प्रदेश के स्कूली शिक्षा राज्य मंत्री नानाभाऊ माहौड़ को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता. उनके मुताबिक, ‘यह साहित्य शिक्षकों को खरीदना इसलिए अनिवार्य था ताकि उन्हें भारतीय संस्कृति के गुर सीखने को मिलें.’ वहीं शिक्षकों के एक तबके का मानना है कि भारतीय संस्कृति को लेकर कइयों का नजरिया संघ के मापदंडों से मेल नहीं खाता. इसके बावजूद उन पर संघ साहित्य खरीदने का आदेश थोपा जा रहा है. मध्य प्रदेश शिक्षक कांग्रेस के अध्यक्ष रामनरेश त्रिपाठी इसे तानाशाही मानते हैं. उनका आरोप है, ‘प्रशिक्षण के नाम पर आया पैसा भी भाजपा सरकार संघ के खाते में डाल रही है.’

इसके अलावा अनगिनत ऐसे मामले भी हैं जिनमें प्रदेश सरकार ने कभी पुस्तकालय तो कभी छात्रावास आदि के नाम पर संघ से जुड़ी संस्थाओं को लाभ पहुंचाया. मसलन, उसने भोपाल के ही कालापानी स्कूल में रामकृष्ण शिक्षा समिति (संघ से संबद्ध) को सौ सीटर छात्रावास चलाने के लिए 30 लाख रुपये का चेक जारी किया. हालांकि शिक्षा अधिकारियों ने इससे पहले इसी स्कूल में छात्रावास के लिए पर्याप्त जगह न होने की बात कही थी. शिक्षा का अधिकार कानून के विशेषज्ञ बताते हैं कि कानून के भीतर राज्य सरकारों के लिए कहीं भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि वे सर्व शिक्षा अभियान के कामों में स्वयंसेवी संस्थाओं को भागीदार नहीं बना सकतीं. इसी का फायदा उठाकर कोई भी सरकार अपने अनुकूल विचारों वाली संस्थाओं को शामिल कर सकती है. इस मायने में प्रदेश की भाजपा सरकार ने निचले स्तर तक राजनीतिक विचारधारा को पुख्ता बनाने के लिए जबरदस्त घेराबंदी की है. यहां पर भाजपा राष्ट्रीय चुनावी रणनीति के योजनाकार अनिल माधव दवे ने जन अभियान परिषद को संगठित करके निर्णायक भूमिका निभाई है.

सरकारी स्तर पर हुए सूर्य नमस्कार कार्यक्रम में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान

उन्होंने सरकार से वित्त पोषित इस परिषद के बैनर तले प्रदेश की सभी स्वयंसेवी संस्थाओं को एकत्रित करके एक ऐसा छत्र तैयार किया है जिसने सरकार और संस्थाओं के बीच की दूरी पाटकर अनुकूल विचारों वाली तकरीबन एक लाख संस्थाओं को वित्तीय सहायता पहुंचाई है. सरकार की इस घेराबंदी से प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था में जिस तरह से संघ की विचारधारा हावी हुई उससे होने वाली अनियमितताओं के मामलों में बाढ़ आ गई है. मसलन, स्कूलों में मिड-डे मील के लिए खाद्य सामग्री की आपूर्ति करने के लिए केंद्र सरकार की योजना का ठेका भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू के बेटे की संस्था नांदी फाउंडेशन को दिया गया है. हालांकि प्रदेश के दूसरे विभाग सभी कामों के लिए टेंडर जारी करते हैं लेकिन इस मामले में सर्व शिक्षा अभियान का संचालन करने वाली संस्था राज्य शिक्षा केंद्र ने केवल शोध कार्यों के लिए ही संस्थाओं को सूचीबद्ध किया है. इसके अलावा बाकी सभी बड़े कामों के लिए निर्धारित प्रक्रिया अपनाए बिना संस्थाओं की सीधे तैनाती की जा रही है. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग में राज्य की चेयरमैन आशा मिश्रा बताती  हैं, ‘सर्व शिक्षा जैसे अहम अभियान में संघ से जुड़ी संस्थाओं की तैनाती से शिक्षा विभाग पर एक ही नजरिया रखने वालों का कब्जा हो गया है.’

राजनीतिक विचारधारा के प्रति समर्थन के नाम पर शिक्षा विभाग में कई फर्मों को भी संरक्षण मिल गया है. विभाग में अनियमितता का आलम यह है कि स्कूलों में छुटपुट मरम्मत कार्यों के लिए 2010 में केंद्र से आया साढ़े 11 करोड़ रुपये का बजट ब्लैकबोर्ड को ग्रीनबोर्ड बनाने के नाम पर खर्च हुआ. इस काम का ठेका उज्जैन की क्लासिक टेंडर्स को टेंडर के बिना ही दे दिया गया. तहलका से बातचीत में प्रदेश की स्कूली शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनीस बताती हैं, ‘बोर्डों पर हमने हरा रंग इसलिए पुतवाया कि प्रकृति के साथ यह अधिक एकाकार है.’ चिटनीस के इस ‘इकोफ्रेंडली’ जुनून को पूरा करने के लिए विभाग ने बोर्डों को ब्लैक से ग्रीन बनाने में एक बोर्ड पचास रुपये की जगह 800 रुपये में पोता. इसी तरह, प्रदेश के स्कूलों में अग्निशमन यंत्र भी बड़े पैमाने पर लगाए गए हैं. बाजार में अग्निशमन की कीमत 700 रुपये है लेकिन स्कूली शिक्षा विभाग ने इन्हें पांच गुना अधिक कीमत पर खरीदा. इस कीमत पर प्रदेश के स्कूलों में 18 करोड़ के अग्निशमन यंत्र लगाए गए. ये अग्निशमन यंत्र उन्हीं स्कूलों में लगाए जाने थे जिनमें एक या उससे अधिक मंजिल हो, लेकिन भिंड जिले के लहार गांव के सरकारी स्कूल जैसे कई स्कूलों में जहां एक भी मंजिल नहीं थी वहां भी अग्निशमन यंत्र लगाए गए.

राजनीतिक विचारधारा लागू करने की जद्दोजहद में शीर्ष स्तर पर अनियमितताओं को संरक्षण दिए जाने का नतीजा अब प्रशासन के भीतर भ्रष्टाचार के रूप में दिखाई देने लगा है. प्रदेश मे इस समय 50 में से 43 जिला शिक्षा अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के संगीन मामले हैं, लेकिन इसके बावजूद इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. इन सबके बीच शिक्षा और शिक्षकों की हालत की बात करें तो मध्य प्रदेश जैसे बीमारू प्रदेश के ग्रामीण स्कूलों में सवा लाख से अधिक पद खाली पड़े हैं. वहीं यहां की शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाले संविदा शिक्षाकर्मियों (प्राथमिक शाला) को हर महीने मात्र 3,500 रुपये मिलते हैं. आदिवासी बहुल मध्य प्रदेश में 6 से 14 साल के आयु-वर्ग के आधे से अधिक बच्चे स्कूलों से बाहर हैं. शिक्षा से जुड़े कार्यकर्ताओं की राय में ऐसे हाल में प्रदेश सरकार को बुनियादी समस्याओं से निजात पाने की ओर ध्यान देना चाहिए था, लेकिन उसने अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में ही अधिक रुचि ली.

बीते दो साल में भाजपा सरकार अपने एजेंडे को लेकर तेजी से आगे बढ़ी है. इस दौरान स्कूलों के उन्नयन और भवन निर्माण के लिए केंद्र से 479 करोड़ रुपये आए. इस मद से घोषित हुए तकरीबन एक हजार स्कूलों में से 85 प्रतिशत भाजपा के मौजूदा विधानसभा क्षेत्रों पर खर्च किए गए. उदाहरण के लिए, टीकमगढ़ जिले के भाजपा विधानसभा क्षेत्र जतारा में 19 उन्नयन और भवन निर्माण हुए. वहीं गैर भाजपा विधानसभा क्षेत्र टीकमगढ़ में एक भी उन्नयन या भवन निर्माण मंजूर नहीं हुआ. राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि स्कूलों का गांव-गांव से लेकर घर-घर में दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता है और यही वजह है कि भाजपा सरकार स्कूलों के जरिए संघ की पकड़ मजबूत बना रही है. यानी सत्ता वापसी के लिए अपना राजनीतिक भविष्य भी सुरक्षित बना रही है.

‘छल’चित्र कथा

70 के दशक में हास्य अभिनेता महमूद ने फिल्म प्यार किए जा में आत्मा नाम के किरदार को निभाया था. इसमें वे वाह-वाह प्रोडक्शन की स्थापना करते हैं और फिल्में बनाने के लिए अपने पिता यानी ओमप्रकाश से मनमाना पैसा वसूलते हैं.  फिलहाल यह फिल्मी कहानी छत्तीसगढ़ में दोहराई जा रही है. यहां पिता की भूमिका में छत्तीसगढ़ सरकार है तो पुत्र की भूमिका में ढेरों वाह-वाह प्रोडक्शन नुमा ऐरे-गैरे प्रोडक्शन हाउस. और यहां प्रेम कहानियों के बजाय सरकार से पैसा वसूलने का काम सरकारी योजनाओं के नाम पर किया जा रहा है.

इस गोरखधंधे की शुरुआत वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के साथ ही हो गई थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी की सरकार ने नई दिल्ली की शैली सुमन प्रोडक्शन को नवा छत्तीसगढ़ नामक फिल्म बनाने का ठेका दिया था. प्रदेश के नागरिकों को छत्तीसगढ़ की विशेषताओं से परिचित कराने के उद्देश्य से लगभग 32 लाख में निर्मित की गई फिल्म के निर्देशक वैसे तो महेश भट्ट थे, लेकिन फिल्म के अधिकांश दृश्य एक स्थानीय फिल्मकार संतोष जैन की फिल्म कंपनी ‘ईरा’ ने मुहैया कराए थे. फिल्म का पहला और एकमात्र सार्वजनिक प्रदर्शन भी वर्ष 2003 में राज्योत्सव के दौरान  देखने को मिला था. अब यह फिल्म कहां और किधर है इसकी जानकारी किसी के पास नहीं है. जनसंपर्क विभाग में लंबे समय तक फिल्मों का लेखा-जोखा रखने वाले सूचना सहायक शशि पाराशर कहते हैं,‘फिल्म की मूल प्रति खराब हो चुकी है, सो फिल्म का प्रदर्शन कहीं किया ही नहीं जा सकता है.’ जबकि संयुक्त संचालक संजीव तिवारी का कहना है, ‘फिल्म की एक भी कॉपी यहां तक रिकार्ड कापी भी महकमे में उपलब्ध नहीं है.’

लड़कियों की तस्करी के मामले में राज्य की भारी बदनामी को छिपाने के लिए राज्य महिला आयोग ने एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण करवाया है

जोगी के सत्ता से हटने के बाद जब प्रदेश में भाजपा की सरकार काबिज हुई तब तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री कृष्णमूर्ति बांधी की विशेष मेहरबानी मध्य प्रदेश के भोपाल की रहवासी आरती गोस्वामी की स्मृति फिल्म्स पर बरसी. स्मृति फिल्म्स को स्वास्थ्य विभाग की उपलब्धियों के फिल्मांकन का काम लंबे समय तक सौंपा जाता रहा, लेकिन इस फिल्म्स ने किस तरह की फिल्में बनाईं और वे फिल्में अब कहां हैं इसकी जानकारी भी महकमे में उपलब्ध नहीं है. वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री अग्रवाल कहते हैं, ‘एक स्थानीय फिल्म निर्माता की शिकायत के बाद स्मृति फिल्म्स के खिलाफ जांच प्रारंभ तो की गई थी लेकिन अब यह देखना होगा कि जांच कहां पर अटकी पड़ी है.’

फरवरी, 2008 में प्रसिद्ध एंकर अन्नू कपूर की बहन सीमा कपूर ने मुंबई के फिल्म निर्देशक जुबिन खान के साथ मिलकर छत्तीसगढ़ की सभ्यता और संस्कृति को दिखाने के लिए  ‘महानदी के तट पर’ शीर्षक से एक भव्य डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी. लेकिन इसका प्रदर्शन न तो सरकारी समारोहों में हो पाया और न ही निजी सिनेमाघरों में. पर्यटन मंडल में पदस्थ एक अफसर नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘फिल्म में सिर्फ ओमपुरी की आवाज ही बेहतर थी बाकी फिल्मांकन इतना वाहियात था कि शुरू के कुछ मिनटों के बाद हमने उसे देखा ही नहीं.’ कुछ इसी तरह का हश्र रायपुर से रंगकर्म के जरिए फिल्मों का सफर तय करने वाले चंपक बनर्जी द्वारा निर्मित की गई फिल्मों का भी हुआ. पर्यटन मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के निकटतम समझे जाने वाले चंपक बनर्जी ने प्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 30 लाख रुपये की लागत से पांच-पांच मिनट की अवधि वाली 12 छोटी फिल्मों का निर्माण किया था. जब पर्यटन मंडल ने फिल्मों प्रदर्शन के लिए तैयारी प्रारंभ की तब पता चला कि सभी फिल्मों की तस्वीरें घटिया थीं. पर्यटन मंत्री ने फिल्म में सुधार के सुझाव दिए लेकिन न तो फिल्म आई और न ही किसी तरह का कोई सुधार हुआ.

राजधानी रायपुर से लगभग 22 किलोमीटर दूर प्रदेश की नई राजधानी का निर्माण किया जा रहा है. राजधानी की विशेषताओं से आमजन को अवगत कराने के उद्देश्य से न्यू रायपुर डेवलपमेंट अथॉरिटी
(नारडा ) ने वर्ष 2010 में 121 उद्योग विहार फेज फोर हरियाणा स्थित कंपनी मिडिटेक को बगैर निविदा के ही फिल्म निर्माण का काम सौंप दिया था. जब कंपनी ने नया रायपुर के विकास को दर्शाते हुए फिल्म का निर्माण किया और 24 जनवरी, 2011 को 47 लाख 67 हजार 65 रुपए का भुगतान भी हासिल कर लिया तब यह सवाल उठा कि नारडा ने जिस हाई डेफिनेशन फॉर्मेट का हवाला देकर मिडिटेक से फिल्म का निर्माण करवाया है उस हाई डेफिनेशन फॉर्मेट पर स्थानीय फिल्मकार भी बेहतर काम कर सकते थे. लेकिन नारडा के अफसरों ने मिडिटेक की उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया और उसे 15 मिनट की फिल्म बनाने की जवाबदारी सौंपी. छत्तीसगढ़ फिल्म निर्माण विकास समिति के पूर्व अध्यक्ष परेश बागबहरा आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘दरअसल नारडा के अफसरों को सुश्री मालिनी कुमार की कंपनी मिडिटेक को उपकृत करना था, सो नियम-कानून को ताक पर रखकर लगभग आधा करोड़ रुपये स्वाहा कर दिए गए.’

बागबहरा के आरोपों में इसलिए भी दम नजर आता है क्योंकि मिडिटेक से फिल्म बनवा लेने के बाद जब यह खुलासा हुआ कि काम उस स्तर का नहीं था जिस स्तर का होना चाहिए था तब नारडा ने एक बार फिर नई राजधानी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने के लिए फिल्म निर्माण की योजना बनाई. इस मर्तबा नारडा ने 28 सितम्बर, 2012 को निविदा आमंत्रित की. इस निविदा में फिल्मकारों के दफ्तरों का मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद और बैंगलोर में होना अनिवार्य किया गया. इसके साथ ही फिल्म बनाने वालों को दो से तीन करोड़ रुपये का टर्न ओवर दर्शाने के लिए भी कहा गया. इस शर्त के जुड़ जाने के बाद एक फिर यह सवाल उठने लगा है कि नारडा के अफसर किसी चहेती फिल्म कंपनी को उपकृत करने के फिराक में हैं.

छत्तीसगढ़ में सरकारी विभागों के बीच फिल्मों से प्रचार का ढर्रा इस हद तक चल पड़ा है कि लगातार बढ़ रही लड़कियों की तस्करी के बावजूद राज्य महिला आयोग ने अपनी छवि को चमकाने के लिए एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण करवाया है. इस फिल्म के निर्माण के लिए रवींद्र गोयल की जेबी कम्युनिकेशन को दो लाख 75 हजार रुपये का भुगतान किया गया है. पिछले साल  जुलाई में जनदर्शन मीडिया सेंटर ने स्टेट बेवरेज कॉर्पोरेशन के लिए एक लघु फिल्म बनाई थी. तीस मिनट की इस फिल्म के लिए मीडिया सेंटर ने तीन लाख 25 हजार रुपये का भुगतान हासिल किया था. फिल्म बनाने और भुगतान हासिल करने वालों की सूची में ‘डिस्कवरी छत्तीसगढ़’ नाम की एक संस्था भी शामिल है. इस संस्था ने राज्य बागवानी मिशन के लिए केला, आम, लीची और पपीते की खेती पर फिल्में बनाकर अप्रैल-मई, 2011 में  विभाग में जमा की थीं. इन फिल्मों के लिए उसे चार लाख 75 हजार रुपए का भुगतान किया गया है. इधर महिला एवं बाल विकास विभाग भी एक बड़े बजट के फिल्म निर्माण की तैयारियों में लगा हुआ है. विभाग के सचिव सुब्रत साहू ने तहलका को बताया कि स्त्रियों के सशक्तीकरण को रेखांकित करने के लिए फिल्म निर्माण की प्रारंभिक प्रक्रिया प्रारंभ कर दी गई है.

राजधानी रायपुर से लगभग 22 किलोमीटर दूर प्रदेश की नई राजधानी का निर्माण किया जा रहाइन फिल्मों के निर्माण से जुड़ी सबसे दिलचस्प बात यह है कि इनमें से ज्यादातर फिल्मों का प्रदर्शन किस समारोह में हुआ या कब हुआ यह किसी को नहीं पता. फिल्म निर्माण के नाम पर सबसे ज्यादा गड़बड़झाला पर्यटन मंडल में नजर आता है. मंडल ने प्रदेश के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थलों को बढ़ावा देने के लिए डिस्कवरी चैनल से लगभग दो करोड़ रुपये की लागत से जिस फिल्म का निर्माण किया था वह फिल्म जन-जन का हिस्सा नहीं बन पाई. प्रदेश के फिल्मकार संतोष जैन ने प्रदेश के सिरपुर इलाके में उत्खनन के दौरान मिल रहे मंदिरों को लेकर वैभव नगरी सिरपुर शीर्षक से एक लघु वृत चित्र का निर्माण किया, लेकिन यह वृतचित्र भी मंडल के दफ्तर से बाहर नहीं निकल पाया है. इसी तरह रायपुर के योगिता आर्ट्स ने ‘छत्तीसगढ़ नहीं देखा तो क्या देखा’ स्लोगन को ध्यान में रखते हुए ‘छत्तीसगढ़ दर्शन’ शीर्षक से छह छोटी फिल्में बनाई हैं. ये फिल्में भी भुगतान संबंधी विवादों के चलते डिब्बे में ही कैद है.

आनन-फानन में फिल्म निर्माण का आदेश दिए जाने के चलते पर्यटन मंडल विवादों में घिरता ही रहा है. फिलहाल एक ताजा विवाद जन-गण-मन फिल्म के निर्माण के बाद उठ खड़ा हुआ है. विवाद यह है कि मंडल ने वर्ष 2011 में छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थलों के प्रमोशन के लिए दो मिनट की लघु फिल्म निर्माण करने के लिए निविदा मंगवाई थी. इस फिल्म के निर्माण के लिए सात संस्थाओं ने निविदा में हिस्सेदारी दर्ज की लेकिन बाद में  मोलभाव करते हुए 32 लाख न्यूनतम बजट की फिल्म के निर्माण का काम मुंबई की पॉप्स इंटरटेनमेंट को 25 लाख रुपए में सौंप दिया गया. इस निविदा में साफ तौर पर उल्लिखित था कि चयनित फिल्मकार को पर्यटन स्थलों के प्रमोशन के लिए ही फिल्म बनानी होगी. लेकिन संस्था के निर्देशक उज्जवल दीपक ने फिल्म में पर्यटन स्थलों का फिल्मांकन तो किया ही फिल्म में पदमश्री तीजन बाई, पंडवानी गायिका ऋतु वर्मा के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी फिल्म के कलाकार योगेश अग्रवाल, अनुज शर्मा और इंडियन आइडल में हिस्सेदारी दर्ज करने वाली सुमेधा कर्महे, अमित साना को दिखाते हुए राष्ट्रगान जन -गण-मन का इस्तेमाल भी कर डाला. छत्तीसगढ़ में फिल्मों के जानकार कहते हैं कि यह फिल्म पर्यटक स्थलों पर इतना फोकस नहीं करती. लेकिन छत्तीसगढ़ में सरकारी पैसे से बनी यह अकेली फिल्म नहीं है जिसमें इतने गड़बड़झाले हुए हों. बाकी फिल्में भी कमोबेश ऐसी ही बन रही हैं या बनी हैं, लेकिन वे ज्यादातर दर्शकों के सामने ही नहीं आ पाईं इसलिए उन पर इतनी चर्चा नहीं हुई.

…किसकी लगी नजर?

पंजाब के युवाओं में नशे की लत ऐसा कोई रहस्य नहीं है जिसके बारे में किसी को पता न हो. साल 2009 में जब पंजाब की अकाली दल सरकार ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के सामने यह माना था कि राज्य के 75 फीसदी युवा नशे की गिरफ्त में हैं तब इस मुद्दे पर कुछ सरगर्मी देखी गई थी. लेकिन पिछले दिनों अपनी पंजाब यात्रा के दौरान जब कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने कहा कि राज्य के 10 में से सात युवा नशे के आदी हैं तो इस पर खूब हायतौबा मची. तीन साल पहले कोर्ट में यही तथ्य रखने वाली राज्य सरकार ने इसे हकीकत से दूर और प्रदेश की छवि खराब करने वाला गैरजिम्मेदार बयान बताकर आलोचना की तो वहीं पंजाब की सरकार में साझेदार भाजपा के एक बड़े तबके ने इसे सच माना.

लेकिन आंकड़ों और तथ्यों की बारीकियों से आगे निकलते हुए जब हम पंजाब में इस समस्या की हकीकत देखने का फैसला करते हैं तो हमें जल्दी ही एहसास हो जाता है कि युवाओं के लिए त्रासदी बन चुकी इस समस्या को आप चाहकर भी अनदेखी नहीं कर सकते. हम पाकिस्तान की सरहद से लगे अमृतसर के अनगढ़ इलाके में एक रेलवे बैरियर के पास हैं. यहां सरहद के साथ-साथ कई चीजें एक साथ खत्म होती दिखती हैं. यहां न तो कानून का डर नजर आता है और न ही अपराध से किसी तरह का भय. सब कुछ असामान्य. यह पूरा इलाका नशीले पदार्थों और अपराध की चपेट में है. हालात अकल्पनीय रूप से खराब हो गए हैं. यहां दिवाली पर जुए को लेकर हुए झगड़े में 13 साल के बच्चों की हत्या हो जाती है, 20 साल की उम्र के लड़के नशे की लत के उन्माद में दुकानें लूटते हैं, एलपीजी के गोदामों के पास विस्फोटकों की अवैध फैक्टरियां चलती हैं. गलियों में आपको जहां इंजेक्शन से नशा करते युवा मिलेंगे वहीं कुछ कश्मीरी सुल्फा (खराब गुणवत्ता वाली ब्राउन हशीश) बेचते नजर आ जाएंगे.

बहरहाल, यह तो एक बड़ी बीमारी की ओर छोटा-सा इशारा भर है. पंजाब के दोआबा, माझा और मालवा इलाकों में नशे की समस्या बहुत बढ़ चुकी है. यहां लगभग हर तीसरे परिवार में कोई न कोई ऐसा मिल जाएगा जो नशे का आदी है. स्मैक से लेकर हेरोइन और सिंथेटिक ड्रग्स तक, बुप्रेनॉर्फाइन, परवॉन स्पा, कोडेक्स सिरप जैसी दवाइयों से लेकर नकली कोएक्सिल और फेनारिमाइन इंजेक्शन तक यहां सब कुछ सुलभ है. पंजाब की जेलों में जितने लोग बंद हैं उनमें से 30 फीसदी नशे से जुड़े कानूनों के तहत गिरफ्तार किए गए हैं.

पंजाब के दोआबा, माझा और मालवा इलाकों में नशे की समस्या बहुत बढ़ चुकी है. यहां लगभग हर तीसरे परिवार में कोई न कोई नशे का आदी मिल जाएगा.

हम अनगढ़ की एक गली से गुजर रहे हैं जो कोएक्सिल की बोतलों और इस्तेमाल की जा चुकी सुइयों से अटी पड़ी है. 16 साल का सुखबीर संधू अपनी मां के पास जाने के लिए हमसे 30 रुपये मांगता है. वह कहता है, ‘मैं आपसे भीख नहीं मांग रहा हूं. बस मदद मांग रहा हूं. मैं एक जाट हूं. मेरा बड़ा-सा फार्म है और अगली बार मिलने पर आपके पैसे लौटा दूंगा.’ सुखबीर इलाके के एक ठीक-ठाक किसान का बेटा है. हम उसे पैसे देने से इनकार करते हैं तो वह लगभग रोना शुरू कर देता है. आखिर में वह मान लेता है कि उसे एवीएल (फेनारिमाइन मैलेट) इंजेक्शन खरीदना है. यह घोड़ों और पालतू पशुओं के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवा है. वह कहता है कि इस दवा में एक मरते हुए घोड़े को दोबारा जिंदा कर देने की ताकत है और इसे लेकर वह भी खुद को जिंदा महसूस करता है. सुखबीर कहता है कि अगर हम उसे 100 रुपये और देंगे तो वह हमें कस्बे की बेहतरीन जगह दिखाएगा. हमारे इनकार करने पर वह छलांग लगाते हुए एक ऐसी जगह में गुम हो जाता है जिसे होना तो सार्वजनिक शौचालय चाहिए लेकिन जो अब स्मैक व एवीएल इंजेक्शन जैसे नशे लेने वालों का अड्डा बन चुकी है.

अनगढ़ में जिम चलाने वाले 35 वर्षीय सतबीर सिंह, जो बॉडी बिल्डिंग के नेशनल चैंपियन भी रह चुके हैं,  सुखबीर जैसे लड़कों को देखकर कहते हैं कि पंजाब का भविष्य पूरी तरह अंधकारमय है और इसका कुछ नहीं किया जा सकता. सतबीर कहते हैं, ‘स्कूल के दिनों में एक ही कक्षा में हम 40 बच्चे थे. उनमें से मुझे मिलाकर केवल 10 ही जिंदा हैं. बाकी सारे स्मैक और ऐसे ही दूसरे नशों का शिकार बन गए.’ सुखबीर और सतबीर की जिंदगी में दोगुने का अंतर है लेकिन ढेर सारी बातें ऐसी हैं जिनकी आपस में तुलना हो सकती है, बल्कि जो आपस में गुंथी हुई हैं. 16 साल का सुखबीर अगर 21 वां जन्मदिन मना लेता है तो वह खुशनसीब होगा. वहीं 35 साल के सतबीर अपने ढेर सारे साथियों को मौत के मुंह में जाते देख चुके हैं. 16 की उम्र का सुखबीर अपने भावी जीवन के बारे में कुछ नहीं सोच पाता वहीं 35 के सतबीर भविष्य के बॉडी बिल्डर तैयार कर रहे हैं जो असली मर्द बनकर निखरेंगे. 16 साल का सुखबीर एक दूसरे नशेड़ी के हाथों अपने चेहरे पर ब्लेड के दो वार झेल चुका है. 35 साल के सतबीर अपने चार साल के बेटे पर झूठ-मूठ का मुक्का चलाते हैं और वह किसी प्रशिक्षित मुक्केबाज की तरह खुद को सफलतापूर्वक बचा लेता है. 16 साल का सुखबीर हर रोज अपने गांव से अनगढ़ आता है, लेकिन वह किताबें खरीदने नहीं बल्कि अपने लिए नशे का अगला डोज तलाश करने आता है. 35 साल के सतबीर ने इस कस्बे में जिम इसलिए शुरू किया कि उन्हें कोई दूसरा काम नहीं मिला.

यह एक ही राज्य के भीतर बसे दो पंजाबों की दास्तान है. सतबीर उस पंजाब की याद दिलाते हैं जिसके बारे में सिकंदर महान ने अपनी मां को लिखा था, ‘यह शेरों और बहादुरों की धरती है जहां की जमीन पर कदम-कदम पर मानो इस्पात की दीवारें हैं जो मेरे सैनिकों की परीक्षा ले रही हैं.’ इसी पंजाब के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘यह वह वीर भूमि है जो किसी भी बाहरी हमले को पहले अपनी नंगी छाती पर झेलती है.’ वहीं दूसरी ओर सुखबीर 21वीं सदी के पहले दशक के पंजाब का चेहरा है जो बुरी तरह निस्तेज है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर वे कौन-से हालात हैं जिनके चलते पंजाब में नशे की ऐसी लहर उठी.

पंजाब में हालिया विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान चुना आयोग के अधिकारी यह देखकर स्तब्ध रह गए कि वहां इतने बड़े पैमाने पर नशे की लत लोगों को लग चुकी है. दोआबा और माझा इलाके में केवल अफीम की भूसी यानी भुक्की और डोडा का इस्तेमाल नहीं किया जाता बल्कि इससे बनने वाले अन्य नशे मसलन स्मैक और हेरोइन भी यहां खूब चलन में हैं. इतना ही नहीं अधिकारियों के लिए सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि राजनीतिक दलों ने दवा दुकानदारों को खुली छूट दे रखी थी कि वे युवाओं को उनकी मर्जी के मुताबिक खतरनाक नशीली दवाएं दे दें. यह काम केवल उनके वोट हासिल करने के लिए किया जा रहा था. चुनाव की तारीख से एक सप्ताह पहले चुनाव आयोग के अधिकारियों ने तीन लाख कैप्सूल, एविल के 2,000 इंजेक्शन और रिकोडेक्स कफ सीरप के 3,000 डब्बे जब्त किए. मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने पंजाब में नशे की स्थिति को अनूठा बताते हुए बयान भी दिया था कि उन्होंने जितने राज्यों में चुनाव करवाए हैं कहीं भी हालात इतने खराब नहीं थे.

सीमा से लगे खालरा कस्बे में एक किसान

अपने गीतों के जरिए पंजाबी युवाओं से खुद को खत्म न करने की अपील करने वाले पंजाबी लोक गायक सतराज कहते हैं, ‘इन चुनावों के दौरान नशे की लत को जो राजनीतिक संरक्षण दिया गया वह शर्मनाक है. ऐसे वक्त में जबकि नशे की लत को एक सामाजिक मसला बनाकर उठाना चाहिए था, राज्य के नेताओं ने इसका इस्तेमाल अपने लिए वोट जुटाने के काम में किया.’ मोगा के सरकारी अस्पताल में चिकित्सीय निरीक्षक के पद से सेवानिवृत्त होने वाले डॉ. राजेश कुमार कहते हैं, ‘आखिर राजनेता ऐसा करें भी क्यों? दरअसल दवाओं की अधिकतर दुकानें राजनेताओं की मदद से ही तो फल-फूल रही हैं. नशे की लत के शिकार जहां हकीकत का सामना नहीं करना चाहते हैं वहीं नेताओं के सामने कड़े सवाल उठाना और उनको अपने अंदर झांक कर देखने के लिए मजबूर करना जोखिम भरा काम है.’

पंजाब में हालात खराब होने की और भी वजहें हैं. इनमें से एक प्रमुख कारण है अफगानिस्तान और पाकिस्तान से इसकी निकटता तथा दुनिया के नशे के कारोबार के नक्शे पर इसकी अहम स्थिति. पाकिस्तान के साथ लगने वाली पंजाब की सीमा के पूरे 553 किलोमीटर के इलाके में बिजली के तारों की घेराबंदी की गई है. लेकिन इसका कोई खास असर नहीं है क्योंकि इसमें बिजली गर्मियों में शाम छह बजे के बाद और जाड़ों में शाम चार बजे के बाद ही चालू की जाती है. सीमा का कुछ हिस्सा पानी से भरा है, लेकिन वह तस्करों की पसंद का रास्ता नहीं है क्योंकि बिजली बंद होने के कारण पहले वाला रास्ता उनको अधिक मुफीद पड़ता है. अगर आप नशे की लत से जद्दोजहद कर रहे तरनतारन जिले की खेमकरन सीमा चौकी पर जाएंगे तो वहां आपको सड़क पर यह चेतावनी लिखी नहीं मिलेगी कि शराब पीकर वाहन न चलाएं बल्कि इसके बजाय वहां लिखा होगा कि ड्रग्स लेकर वाहन न चलाएं.

खेमकरन के रास्ते में पड़ता है खालरा. यह सीमा पर बसा एक छोटा-सा कस्बा है जो नशीले पदार्थों की तस्करी के बड़े केंद्र के रूप में कुख्यात है. स्थानीय किसान कहते हैं कि नशे का ज्यादातर कारोबार सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और सीमा के दोनों और मौजूद रेंजरों की नाक के नीचे होता है. नशीले पदार्थों को इधर से उधर करने में सबसे अधिक इस्तेमाल दोनों देशों की सीमाओं में खुलने वाली नाली की पाइपों और महिला तस्करों का होता है. बीएसएफ अधिकारियों का दावा है कि उन्होंने कई बार स्थानीय महिलाओं को 50 किलो तक हेरोइन अपने शरीर में सिलकर ले जाते पकड़ा है.

नशे ने पंजाब के युवाओं की क्या हालत कर दी है यह बताते हुए बीएसएफ के एक अधिकारी हमें चौंकाने वाला वाकया सुनाते हैं, ‘हम 2009 में तरनतारन में जवानों की भर्ती के लिए गए थे. यहां 376 पदों के लिए तकरीबन आठ हजार युवा आए थे, लेकिन उनमें से ज्यादातर इतने अनफिट और कमजोर थे कि हमारे 85 पद खाली ही रह गए.’ सीमापार की खतरनाक स्थितियां और सीमा पर ढुलमुल चौकसी पंजाब में नशीली दवाओं की समस्या का बस एक छोटा-सा हिस्सा भर हैं. असल में खुद भारत में ऐसे कई इलाके और रूट हैं जो सीधे-सीधे राज्य की इस पीढ़ी की तबाही के लिए जिम्मेदार हैं. यहां से तकरीबन आठ सौ किमी दूर राजस्थान का चित्तौड़गढ़ है. यह राजस्थान के उन सात जिलों में शामिल है जहां अफीम उत्पादन के लिए किसानों को सरकारी लाइसेंस मिलता है. पश्चिमी मध्य प्रदेश के कुछ इलाकों में भी सरकार की तरफ से अफीम की खेती का लाइसेंस जारी किया गया है.

अफीम की खेती नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की सख्त निगरानी में होती है. 2012 के लिए अकेले राजस्थान में 53,588 हेक्टेयर पर अफीम की खेती के लिए 48,857 नए लाइसेंस जारी किए गए थे. अफीम उत्पादन का कुछ हिस्सा उत्तर प्रदेश के गाजीपुर और मध्य प्रदेश के नीमच में जाता है. यहां इससे अल्कालॉयड निकाले जाते हैं जिनका उपयोग दवा बनाने में होता है. इस फसल का एक बड़ा हिस्सा ऊंचे दामों पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचा जाता है.इस पूरे वैध कारोबार के बीच ऐसे कई छेद हैं जिन्हें पूरी तरह बंद करना लगभग असंभव है. नशीली दवाओं का अवैध कारोबार यहीं से फलता-फूलता है. जिन किसानों को अफीम उत्पादन का सरकारी लाइसेंस मिलता है, उनके लिए उत्पादन की न्यूनतम नियत सीमा 58 किग्रा/हेक्टेयर है. उत्पादन यदि इससे ज्यादा होता है तो नारकोटिक्स विभाग पर उसे नष्ट करने की जिम्मेदारी होती है. लेकिन इसके बाद ऐसी घटनाएं उजागर होती रही हैं जिनसे पता चलता है कि अतिरिक्त उत्पादन का एक हिस्सा पंजाब के ब्लैक मार्केट में बेचा गया है. यहां अफीम से बने पदार्थ और पाउडर सरकार द्वारा निर्धारित 800 रुपये प्रति किग्रा से कहीं ज्यादा कीमत पर बिकते हैं.

मोटे मुनाफे की वजह से इस धंधे में कहीं-कहीं सरकारी अधिकारियों की भूमिका भी संदेहास्पद है. नारकोटिक्स विभाग से तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि 2010-11 में जिला अफीम अधिकारियों ने राजस्थान के सात में से पांच जिलों के 2,700 किसानों का अफीम उत्पादन सरकारी मानक से कम रहने पर उनकी फसल खरीद निरस्त कर दी थी. चित्तौड़गढ़ के किसान कहते हैं कि कम उत्पादन उनके लिए ज्यादा मुनाफे का सौदा है, क्योंकि ऐसे में वे अपनी फसल का ज्यादा  हिस्सा ब्लैक मार्केट में बेच सकते हैं. इस अफीम को पंजाब के हनुमानगढ़ जिले में बेचा जाता है.

हालांकि पंजाब की सिर्फ भौगोलिक स्थिति राज्य के युवाओं की इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं है. एक मायने में हरित क्रांति से आई समृद्धि भी इसके लिए जिम्मेदार है. ग्रामीण इलाकों की शिक्षित-अर्धशिक्षित युवा पीढ़ी अब अपने बाप-दादों की तरह किसानी को आजीविका का साधन बनाना नहीं चाहती लेकिन विडंबना यह है कि इसके अलावा उनके पास नौकरियां भी नहीं हैं. पंजाब के माझा क्षेत्र में पड़ने वाले ब्रह्मपुर गांव के किसान दलबीर सिंह बताते हैं, ‘मेरे बेटे को कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद बस कंडक्टर का काम करना पड़ा था. अब वह मेरे साथ ही खेत में काम करता है. यहां नौकरियां हैं ही नहीं. यदि ये युवा ऐसे बिना काम के घूमेंगे तो नशे की गिरफ्त में आसानी से पड़ जाएंगे.’

मुक्तसर(पंजाब) में 'एक प्रयास’ नामक निजी पुनर्वास केंद्र पर नशामुक्ति के उद्देश्य से आए युवा; फोटो-तरुण सहरावत

इस जाट किसान के पास तीन एकड़ जमीन है. यह रकबा एक लिहाज से छोटा जरूर है लेकिन उनके बेटे के आजीविका कमाने और व्यस्त रहने के लिए यह पर्याप्त है. लेकिन जो बड़े किसान हैं उनके बेटों की स्थिति जोखिम भरी हैं. इनकी खेती पूरी तरह से उत्तर प्रदेश और बिहार से आए मजदूरों पर निर्भर है. तरनतारन के सरकारी अस्पताल में पदस्थ मनोविज्ञानी डॉ राणा रंजीत सिंह कहते हैं, ‘बड़े किसानों की नई पीढ़ी बुरी तरह नशे में लिप्त है क्योंकि बाहर उनके लिए कोई नौकरी नहीं है और उन्हें लगता है कि उनकी जिंदगी में आगे और कुछ बेहतर नहीं हुआ तो बाकी की जिंदगी बिताने के लिए जमीन तो है ही उनके पास.’
पंजाब के समाज में नशा एक ऐसी बुराई बन गया है जिसने यहां किसी तबके को नहीं बख्शा. अमृतसर के बाहरी इलाके में बसे मकबूलपुर में है. अनुसूचित जाति के लोगों की प्रधानता वाले इस गांव में घूमते हुए साफ तौर पर समझ में आता है कि समृद्ध जाट प्रधान गांवों और इस गांव में कुछ खास फर्क नहीं सिवाय इसके कि नशे की लत का असर यहां ज्यादा आसानी से समझा जा सकता है. मकबूलपुर के हालात इतने खराब हैं कि प्रशासन ने इस गांव को अनौपचारिक रूप से अपने हाल पर छोड़ दिया है. गांव की लगभग हर किराने की दुकान पर मेडिकल स्टोरों में मिलने वाली विशेष दवाएं मिलती हैं. छोटे-छोटे बच्चे सड़क किनारे एक लाइन से सिगरेट और अंडे बेचते हुए देखे जा सकते हैं क्योंकि उनके पिता नशे की लत के चलते अपना घर-परिवार चलाने की हालत में नहीं हैं. कुछ लोग अपनी झोपड़ियों के पीछे अफीम के थैले रखते हैं जहां नशा करने वालों की लाइन दिख जाती है जो सिर्फ दस रुपये में अपनी खुराक लेने के लिए यहां जुटते हैं.

32 साल के विजय पाल सिंह मकबूलपुर के सबसे संपन्न लोगों में से हैं. हमें गांव घुमाने की बात पर वे बड़ी मुश्किल से तैयार होते हैं. गांव से गुजरते हुए हमें आस-पास के इलाकों से आए कई मजदूर दिखते हैं जो यहां लहान (देसी शराब) के लिए आते हैं और अपने लिए स्मैक लेकर चले जाते हैं. विजय पाल, जो खुद एक नशेड़ी हैं, काफी मान-मनौव्वल के बाद हमसे इस बारे में बात करने को तैयार होते हैं. उनकी कहानी अपने आप में उस बुनियादी वजह का खुलासा करती है जिससे राज्य में नशे की लत इस हद तक फैली है.

विजय पाल के दादा जब 1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद भारत आए थे तब उनके पास काफी जमीन थी और आज भी वे यहां के बड़े किसान हैं. हमने जब विजय पाल से यह जानने की कोशिश की कि वे आखिर नशे में अपना जीवन क्यों बर्बाद कर रहे हैं तो वे अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहते हैं कि उनके पिता ने कहा था, ‘पुत्तर, जब हमारे पास इतनी सारी जमीन है तो तू क्यों काम करना चाहता है?’ लेकिन क्या वह काम करना चाहते हैं? हमारे यह पूछने पर विजय पाल का जवाब है, ‘कोई यहां काम दिखा दे तो मैं तो करने को तैयार हूं. आपको यहां कोई काम दिखता है?’ बातचीत आगे बढ़ती है तो हमें समझ में आता है कि यह युवा नशे में बहुत बुरी तरह उलझा हुआ है और जहां से फिलहाल वह निकलने की कोशिश भी नहीं करना चाहता. विजय पाल को लगता है कि वह अपने पड़ोसियों से कहीं ऊंचा दर्जा रखता है इसलिए गांव में कोई काम-धंधा शुरू नहीं कर सकता. वह इंग्लैंड जाना चाहता है, लेकिन अपने खिलाफ एक आपराधिक मामले की वजह से नहीं जा पा रहा है. अपने बच्चों के लिए विजय पाल के पास कोई सपना नहीं है. उसे लगता है कि पुरखों की जमीन उसके बच्चों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए काफी है. वह कहता है,  ‘देखिए, मुझे अपने पिता की इज्जत ऊपर वाले से भी प्यारी है और मैं उस पर दाग नहीं लगने दूंगा.’

पंजाब में दवाओं की अवैध दुकानों पर लगातार छापे पड़ते हैं, लेकिन वे कुछ हफ्तों के बाद फिर खुल जाती हैं. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तो राज्य में यह मांग शुरू कर दी है कि दवा बेचने वाली सभी दुकानों को सरकारी नियंत्रण में आ जाना चाहिए ताकि नशे के लिए अफीम आधारित दवाओं की बिक्री को रोका जा सके. पंजाब की इस त्रासदी का एक दूसरा त्रासद पहलू यह है कि इसका समाधान खुद एक बीमारी की तरह फैल रहा है. राज्य में जहां-तहां अवैध नशा मुक्ति केंद्र खुल चुके हैं. इन केंद्रों में ज्यादातर मरीजों का वैज्ञानिक तरीके से इलाज तो होता नहीं है उल्टे पचास फीसदी से ज्यादा मरीज एक बार यहां से छुट्टी मिलने के बाद दोबारा यहां भर्ती जरूर होते हैं. पंजाब में बीते दिनों निजी नशा मुक्ति केंद्रों से जुड़ी हुई ऐसी घटनाएं हुई हैं जहां भर्ती मरीजों को प्रबंधन द्वारा शारीरिक प्रताड़ना दी गई. अमृतसर के कुछ निजी क्लीनिक तो यह भी दावा करते हैं कि वे दो लाख रुपये में लेजर थेरपी से लोगों का नशा छुड़वा सकते हैं. कुछ जगह यह दावा किया जाता है कि एक चिप लगाकर वे लोगों का इलाज कर सकते हैं. सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पंजाब में ऐसे हास्यास्पद दावे करने वाले क्लीनिक भी लाखों की कमाई कर रहे हैं. मुक्तसर शहर में आदेश अस्पताल के अधीक्षक डॉ. एस कृष्णन इसकी वजह बताते हैं, ‘ज्यादातर परिवारवाले नहीं जानते कि वे नशेड़ी आदमी के साथ क्या करें. वे या तो उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं या फिर यह सोचते हैं कि पैसे से वे उसका इलाज करवा सकते हैं. कुछ परिवारों को लगता है कि संबंधित व्यक्ति उनकी प्रतिष्ठा पर धब्बा है इसलिए उसे इन सेंटरों में रख दिया जाए.’

चौंकाने वाली बात यह थी राजनीतिक दलों ने दवा दुकानदारों को खुली छूट दे रखी थी कि वे युवाओं को उनकी मर्जी के मुताबिक खतरनाक नशीली दवाएं दे दें.

तहलका ने पंजाब के कई निजी नशा मुक्ति केंद्रों का जायजा लिया और पाया कि ज्यादातर एक जैसे ही हाल में चल रहे हैं. मुक्तसर के ऐसे ही एक केंद्र ‘एक प्रयास’ में जब हम पहुंचे तो हमें वहां एक बड़े कमरे में 30 मरीज मिले. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसमें कोई खिड़की नहीं थी. यहां हर एक मरीज को प्रतिमाह 6,000 रुपये देने होते हैं. इस केंद्र के मालिक ने हमें किसी मरीज से बात करने से मना कर दिया. साथ में यह जानकारी दी कि हर दिन उन्हें कम से कम दो लोग सेंटर में भर्ती होने के लिए संपर्क करते हैं और नशा छोड़ने के लिए वे कोई भी कीमत देने को तैयार हैं. यहां के स्टाफ से बातचीत के बाद हमें पता चला कि यदि यहां जगह की कमी हो जाती है तो कम पैसा देने वाले मरीजों को किसी दूसरे सेंटर में शिफ्ट कर दिया जाता है.

विशेषज्ञ बताते हैं कि इन सेंटरों से ठीक होकर निकलने वाले तकरीबन आधे लोगों को वापस इन केंद्रों में लौटना पड़ता है. इस समय पंजाब में 98 निजी नशा मुक्ति केंद्र हैं जिनमें से सिर्फ 17 सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों के हिसाब से पंजीकृत हैं. इसके अलावा कितने अवैध नशा मुक्ति केंद्र यहां संचालित हैं इसका अनुमान लगाना इसलिए मुश्किल है कि यहां हर पखवाड़े ऐसे केंद्र खुल रहे हैं. अतीत में समृद्धि और बहादुरी का प्रतीक रही इस जमीन की नशावृत्ति की समस्या अब अपनी विकरालता की अंतिम अवस्था पार कर चुकी है. लेकिन अभी तक सरकार की प्राथमिकता में यह मुद्दा कहीं नहीं है. ऐसे ही हालात रहे तो शायद कुछ ही सालों में पंजाब की वैश्विक पहचान यही समस्या होगी.

(अनुवाद: पवन वर्मा)

मतिभ्रम और हम

 राजनेताओं से अगर पूछें कि उनकी निगाह में देश के सामने सबसे बड़ा संकट क्या है तो दल-दल पर निर्भर करेगा कि इसका उत्तर क्या होगा. सांप्रदायिकता पिछले करीब 20 साल से राजनीतिज्ञों के एक बड़े हिस्से की चिंता की सबसे बड़ी वजह रही है, आज भी है. इसे आधार बनाकर तमाम खरे-खोटे राजनीतिक गठबंधन बनते-बिगड़ते और तमाम अजीबोगरीब काम होते रहे हैं. राम मंदिर का निर्माण एक समय भारतीय जनता पार्टी के लिए दुनिया का सबसे बड़ा मुद्दा था, आज दूसरों का भ्रष्टाचार है. वामपंथी, समय के साथ बदलती समस्याओं के साथ नवसाम्राज्यवाद, पूंजीवाद आदि का कॉकटेल हमेशा ही बनाते रहे हैं. क्षेत्रीय दलों की समस्याएं केंद्र-राज्य संबंधों, सीबीआई-राज्यपालों के दुरुपयोग से लेकर नदी के पानी पर पड़ोसी राज्य से विवाद तक कुछ भी हो सकती हैं. लेकिन आज असल और सबसे बड़ी समस्या लोकतांत्रिक व्यवस्था के हर पाए, उसमें लगे ईंट-पत्थर-गारे और उसके चारों ओर मौजूद व्यवस्था को गतिमान रखने के लिए जरूरी उपकरणों पर से तेजी से उठते जनता के विश्वास की है.

हाल ही में किसी को कहते सुना कि अगर हमारे नेता जातिवादी, संप्रदायवादी और किसी तरह के बंटवारा-वादी नहीं होते तो वोट देते समय बड़ी समस्या खड़ी हो जाती, समझ ही नहीं आता कि वोट किसे दें.

आम जनता के किसी नुमाइंदे के इस कथन पर थोड़ा गहराई से विचार करें तो बात समझ में आ जाती है. रॉबर्ट वाड्रा के कथित गड़बड़झाले का मामला भाजपा ने करीब डेढ़ साल पहले इसलिए नहीं उठाया कि वे किसी राजनेता के परिवार के गैर-राजनीतिक सदस्य थे. मतलब अगर आपके पिता, माता या भ्राता राजनीति में हैं तो भाजपा के लिए आपका भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार ही नहीं है. इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि आपके पिता, माता या भ्राता अगर चाहें तो आपके जरिए भ्रष्टाचार करके कम से कम भाजपा की ओर से तो निश्चिंत हो ही सकते हैं.

उधर दिग्विजय सिंह के मुताबिक अटल जी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य और आडवाणी जी की सुपुत्री के खिलाफ उनके पास काफी समय से सबूत हैं और उन्होंने राजनीति में नैतिकता का परिचय देते हुए इन दोनों के खिलाफ कभी कुछ नहीं बोला. नितिन गडकरी के बारे में कहा जा रहा है कि शरद पवार और उनके परिवार के खिलाफ वे कुछ नहीं कर रहे हैं तो इसलिए कि उनके पवार परिवार के साथ पारिवारिक संबंध हैं. उधर जब गडकरी पर आज तरह-तरह के गंभीर आरोपों की बौछार है तो पवार अपनी पारिवारिक मित्रता की जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए गडकरी की प्रशंसा में कसीदे पढ़े जा रहे हैं.

नितिन गडकरी पर जिन भ्रष्टाचारों के आरोप हैं उनका जवाब तो वे नहीं देते मगर न केवल द पार्टी विद अ डिफरेंसकी कृपा से चुनावी रैलियां करते हैं बल्कि उन रैलियों में जोरदार तरीके से भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज भी बुलंद करते हैं. सलमान खुर्शीद पर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं, अपने पिछले कानून मंत्री के पद की गरिमा और देश के कानून के प्रतिकूल अंट-बंट बातें करने के आरोप भी हैं. मगर पार्टी की कृपा से उन्हें हफ्ते-दस दिन के भीतर ही विदेश मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग की सौगात दे दी जाती है.

उत्तर प्रदेश के लोग बहन मायावती के तानाशाही रवैये से परेशान होकर बदलाव की कोशिश करते हैं मगर अखिलेश यादव के रूप में उतनी ही या उससे कम अच्छाइयों और उतनी ही या उससे भी बुरी बुराइयों के साथ दो-चार होने को विवश हो जाते हैं.

तो ऐसे में एक सामान्य नागरिक के सामने विकल्प ही क्या बच जाते हैं सिवा इसके कि या तो वह वोट ही न दे या फिर जाति-धर्म आदि का सहारा लेकर बिना दुविधा के अपना वोट डाल दे.

पिछले दो-तीन साल देश के बारे में जरा भी सोचने और सोचने-समझने की काबिलियत रखने वाले किसी भी व्यक्ति पर बहुत भारी पड़े होंगे इसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए. लेकिन देश के हर नागरिक को समझना होगा कि किसी भी किस्म की उदासीनता ऐसे हालात में कोई विकल्प ही नहीं है. अगर कुछ कर नहीं सकते तो गलत का साथ देना भी कोई विकल्प नहीं हो सकता. हमें लोकतंत्र के हर उस मौके और मंच पर जिसमें हमारी जरा भी भागीदारी का प्रावधान है कुछ ऐसा करना होगा कि जाति-धर्म या किसी भी अन्य ऐसी ही चीज के नाम पर कोई हमें अपनी बपौती न समझ सके. हमें अच्छा करने वालों को जयकारना होगा और बुरा या कुछ नहीं करने वालों को हमारे पास मौजूद हर तरह की लोकतांत्रिक शक्तियों से धिक्कारना होगा. हमें हर लोकतंत्र-प्रदत्त शक्ति का इस्तेमाल कर दिखाना होगा कि हम जड़ नहीं चेतन हैं. नहीं तो हमारा भविष्य उज्जवल क्या होना ही मुश्किल है.

हमारे राजनीतिक नेतृत्व को भी समझना होगा कि लोकतंत्र और उसके संस्थानों व उपकरणों में जनता का विश्वास ही उसकी सबसे बड़ी पूंजी है. अगर उसने यह पूंजी लुटा दी तो भविष्य में उसका, देश का और हम सबका कंगाल होना तय है.