सफलता का वह सिलसिला

इसमें संदेह नहीं कि यश चोपड़ा हमारे समय के बहुत बड़े फिल्मकार और निर्देशक थे. कम से कम दो सर्वकालीन महान सितारों, अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के फिल्मी सफर को संवारने का श्रेय उन्हें दिया जा सकता है. अमिताभ के करियर में ‘दीवार’, ‘त्रिशूल’, ‘काला पत्थर’, ‘कभी-कभी’ और ‘सिलसिला’ जैसी फिल्में नहीं होतीं तो अमिताभ का सफर कुछ कम चमकीला लगता. शाहरुख खान के करियर से तो अगर यशराज बैनर की फिल्में हटा दी जाएं तो वे बिल्कुल मामूली हीरो नजर आते हैं. उनकी सबसे अच्छी और कामयाब फिल्में, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’, ‘डर’, ‘दिल तो पागल है’, ‘मोहब्बतें’, ‘वीर जारा’, ‘चक दे इंडिया’, ‘रब ने बना दी जोड़ी’ यशराज फिल्म्स के बैनर से ही आई हैं. यह इत्तिफाक नहीं है कि अरसे बाद जब शाहरुख खान की कोई फिल्म रिलीज होने जा रही है तो वह भी यश चोपड़ा के निर्देशन और यशराज फिल्म्स के बैनर तले आ रही है. वैसे इन दोनों के अलावा भी यश चोपड़ा एक के बाद एक हिट और चालू फॉर्मूले के हिसाब से अच्छी फिल्में देते रहे हैं. साठ के दशक में ‘वक्त‘ और ‘धूल का फूल‘ हो या नब्बे के दशक में ‘लम्हे‘ और ‘चांदनी‘, यश चोपड़ा का करिश्मा इनमें दिखता है.

लेकिन क्या यश चोपड़ा जितने कामयाब फिल्मकार हैं, उतने ही महान निर्देशक भी हैं? दरअसल एक निर्माता-निर्देशक के तौर पर उनका हाथ वक्त और कारोबार की नब्ज पर बिल्कुल सही-सही हुआ करता था. उन्हें बदलते समय के हिसाब से बदलना आता था. दूसरी बात, उन्होंने कभी अच्छी और रचनात्मक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया. वे हमेशा कामयाब और मनोरंजक फिल्में बनाते रहे. बेशक, इसमें ‘दीवार‘ जैसी शानदार फिल्में भी चली आईं, लेकिन मूलतः वे चालू फॉर्मूलों पर बनीं या फॉर्मूले बनाने वाली फिल्में ही बनाते रहे. उन्हें मालूम था कि हिंदी फिल्मोद्योग में या तो बहुत गहरा रोमांस बिकता है या तो खुल कर चलने वाली मारधाड़. उनकी लगभग सारी फिल्में इन दो दायरों में समा जाती हैं. रोमांस और मारधाड़ के बीच कुछ रिश्तों की रुलाइयां होती हैं, कुछ वक्त के सितम, कुछ किस्मत का खेल और कुछ कुदरत के नजारे. वे अपनी फिल्मों के गाने रिकॉर्ड करने के लिए जो लोकेशन चुनते थे, उसका जवाब नहीं हुआ करता था. और बेशक, यह मसाला वे इतने सधे हुए अंदाज में मिलाते कि तीन घंटे की फिल्म दर्शकों को बिना बोर किए एक झोके की तरह निकल जाती. यह अनायास नहीं है कि निर्देशक के तौर पर उन्होंने जिस फिल्म को हाथ लगाया वह हिट नहीं, सुपरहिट रही. यही बात निर्माता के रूप में उनके योगदान को लेकर कही जा सकती है. उनके बैनर तले बनने वाली शायद कोई इक्का-दुक्का फिल्म ही फ्लॉप रही हो. जबकि यह वह उद्योग है जहां माना जाता है कि किस्मत एक बड़ी भूमिका अदा करती है. अमिताभ बच्चन हों या शाहरुख खान, उनके करियर में पिटी हुई फिल्मों की एक लंबी लिस्ट है लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म यशराज बैनर के तले नहीं बनी है. जाहिर है, कारोबार की इसी समझ ने संदिग्ध और छिपे हुए साधनों से चलने वाली फिल्मी दुनिया में एक कॉरपोरेट संस्कृति की नींव डाली जिसमें काफी कुछ एक सलीके के तहत होता है.

फिर भी दुबारा पूछने की तबीयत होती है कि क्या हिंदी के सबसे कामयाब सितारों के साथ कुछ सबसे कामयाब फिल्में देने वाले यश चोपड़ा ने कोई ऐसी फिल्म भी बनाई है जिसे विश्व सिनेमा की टक्कर का कहा जा सके.  कुछ हद तक ‘दीवार‘ एक ऐसी फिल्म है जो हिंदी की बेहतरीन कारोबारी फिल्मों में से एक नजर आती है, लेकिन यश चोपड़ा जैसे निर्देशक के पास ऐसी फिल्म नहीं दिखती जिसे पेश करके भारतीय सिनेमा कुछ अभिमान के साथ कह सके कि यह एक बड़ी फिल्म है. यह हालत तब है जब यशराज फिल्म्स का ध्यान सात समंदर पार के कारोबार पर भी रहा और बाहर से समृद्ध से समृद्ध तकनीक लाने पर भी.

ऐसा क्यों हुआ? इसका कुछ सुराग यशराज फिल्म्म की कारोबारी सफलता में खोजा जा सकता है. आखिर इस बैनर के तले बनने वाली सारी फिल्में हिट क्यों होती रहीं? क्योंकि मूलतः कारोबारी प्रेरणा से बनाई जाने वाली इन फिल्मों में कला के प्रयोग या जोखिम आम तौर पर नहीं होते थे. आमिर खान ‘धोबीघाट’ जैसी फिल्म बनाने का खतरा मोल ले सकते हैं, लेकिन यशराज को नहीं लेना है क्योंकि उन्हें फिल्म की कला से नहीं, फिल्म के कारोबार से मतलब है. विशाल भारद्वाज ‘मकड़ी’ और ‘ब्लू अंब्रेला’ से लेकर ‘मकबूल’ और ‘ओंकारा’ और ‘सात खून माफ’ तक बनाने की सोच सकते हैं, लेकिन यशराज फिल्म्स नहीं सोच सकता, क्योंकि उसके लिए सिनेमा का मतलब सिर्फ वह मनोरंजन है जिसमें बहुत दिमाग खपाना न पड़े, ऐसा सरोकार नहीं जिसमें बुद्धि-विवेक के रचनात्मक विलास की भी गुंजाइश हो.

यह यश चोपड़ा की आलोचना नहीं है. जो काम उन्होंने अपने लिए चुना नहीं, उसकी आलोचना क्यों हो? लेकिन यह हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा की उस प्रवृत्ति की आलोचना है जो हमेशा फॉर्मूलों के आधार पर फिल्म बनाती रही और सिनेमा को ऐसे सस्ते मनोरंजन में बदलती रही जिसमें पैसा चाहे जितना लगे, विवेक का इस्तेमाल कम से कम दिखे. कभी हिंदी की बौद्धिकता इसकी प्रखर आलोचना भी किया करती थी, लेकिन दुर्भाग्य से हिंदी में इन दिनों जैसे-जैसे विचार का ऊसर बड़ा होता जा रहा है, वैसे-वैसे आलोचना के हथियार भोथरे होते जा रहे हैं. अब जो सफल है उसके आगे सिर झुकाने का रिवाज है, उसके कारोबार में भी ऊंची कला खोजने का चलन है. इस लिहाज से यश चोपड़ा पूरी तरह कामयाब हैं और महान भी. बेशक, इस टिप्पणी में निहित आलोचना के बावजूद यह तो मानना ही होगा कि वे हिंदी के सबसे बड़े फिल्मकारों में रहे-कामयाब
फिल्में देने वाले भी और कामयाब फिल्में बनाने की संस्कृति और संस्था देने वाले भी.