मतिभ्रम और हम

 राजनेताओं से अगर पूछें कि उनकी निगाह में देश के सामने सबसे बड़ा संकट क्या है तो दल-दल पर निर्भर करेगा कि इसका उत्तर क्या होगा. सांप्रदायिकता पिछले करीब 20 साल से राजनीतिज्ञों के एक बड़े हिस्से की चिंता की सबसे बड़ी वजह रही है, आज भी है. इसे आधार बनाकर तमाम खरे-खोटे राजनीतिक गठबंधन बनते-बिगड़ते और तमाम अजीबोगरीब काम होते रहे हैं. राम मंदिर का निर्माण एक समय भारतीय जनता पार्टी के लिए दुनिया का सबसे बड़ा मुद्दा था, आज दूसरों का भ्रष्टाचार है. वामपंथी, समय के साथ बदलती समस्याओं के साथ नवसाम्राज्यवाद, पूंजीवाद आदि का कॉकटेल हमेशा ही बनाते रहे हैं. क्षेत्रीय दलों की समस्याएं केंद्र-राज्य संबंधों, सीबीआई-राज्यपालों के दुरुपयोग से लेकर नदी के पानी पर पड़ोसी राज्य से विवाद तक कुछ भी हो सकती हैं. लेकिन आज असल और सबसे बड़ी समस्या लोकतांत्रिक व्यवस्था के हर पाए, उसमें लगे ईंट-पत्थर-गारे और उसके चारों ओर मौजूद व्यवस्था को गतिमान रखने के लिए जरूरी उपकरणों पर से तेजी से उठते जनता के विश्वास की है.

हाल ही में किसी को कहते सुना कि अगर हमारे नेता जातिवादी, संप्रदायवादी और किसी तरह के बंटवारा-वादी नहीं होते तो वोट देते समय बड़ी समस्या खड़ी हो जाती, समझ ही नहीं आता कि वोट किसे दें.

आम जनता के किसी नुमाइंदे के इस कथन पर थोड़ा गहराई से विचार करें तो बात समझ में आ जाती है. रॉबर्ट वाड्रा के कथित गड़बड़झाले का मामला भाजपा ने करीब डेढ़ साल पहले इसलिए नहीं उठाया कि वे किसी राजनेता के परिवार के गैर-राजनीतिक सदस्य थे. मतलब अगर आपके पिता, माता या भ्राता राजनीति में हैं तो भाजपा के लिए आपका भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार ही नहीं है. इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि आपके पिता, माता या भ्राता अगर चाहें तो आपके जरिए भ्रष्टाचार करके कम से कम भाजपा की ओर से तो निश्चिंत हो ही सकते हैं.

उधर दिग्विजय सिंह के मुताबिक अटल जी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य और आडवाणी जी की सुपुत्री के खिलाफ उनके पास काफी समय से सबूत हैं और उन्होंने राजनीति में नैतिकता का परिचय देते हुए इन दोनों के खिलाफ कभी कुछ नहीं बोला. नितिन गडकरी के बारे में कहा जा रहा है कि शरद पवार और उनके परिवार के खिलाफ वे कुछ नहीं कर रहे हैं तो इसलिए कि उनके पवार परिवार के साथ पारिवारिक संबंध हैं. उधर जब गडकरी पर आज तरह-तरह के गंभीर आरोपों की बौछार है तो पवार अपनी पारिवारिक मित्रता की जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए गडकरी की प्रशंसा में कसीदे पढ़े जा रहे हैं.

नितिन गडकरी पर जिन भ्रष्टाचारों के आरोप हैं उनका जवाब तो वे नहीं देते मगर न केवल द पार्टी विद अ डिफरेंसकी कृपा से चुनावी रैलियां करते हैं बल्कि उन रैलियों में जोरदार तरीके से भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज भी बुलंद करते हैं. सलमान खुर्शीद पर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं, अपने पिछले कानून मंत्री के पद की गरिमा और देश के कानून के प्रतिकूल अंट-बंट बातें करने के आरोप भी हैं. मगर पार्टी की कृपा से उन्हें हफ्ते-दस दिन के भीतर ही विदेश मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग की सौगात दे दी जाती है.

उत्तर प्रदेश के लोग बहन मायावती के तानाशाही रवैये से परेशान होकर बदलाव की कोशिश करते हैं मगर अखिलेश यादव के रूप में उतनी ही या उससे कम अच्छाइयों और उतनी ही या उससे भी बुरी बुराइयों के साथ दो-चार होने को विवश हो जाते हैं.

तो ऐसे में एक सामान्य नागरिक के सामने विकल्प ही क्या बच जाते हैं सिवा इसके कि या तो वह वोट ही न दे या फिर जाति-धर्म आदि का सहारा लेकर बिना दुविधा के अपना वोट डाल दे.

पिछले दो-तीन साल देश के बारे में जरा भी सोचने और सोचने-समझने की काबिलियत रखने वाले किसी भी व्यक्ति पर बहुत भारी पड़े होंगे इसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए. लेकिन देश के हर नागरिक को समझना होगा कि किसी भी किस्म की उदासीनता ऐसे हालात में कोई विकल्प ही नहीं है. अगर कुछ कर नहीं सकते तो गलत का साथ देना भी कोई विकल्प नहीं हो सकता. हमें लोकतंत्र के हर उस मौके और मंच पर जिसमें हमारी जरा भी भागीदारी का प्रावधान है कुछ ऐसा करना होगा कि जाति-धर्म या किसी भी अन्य ऐसी ही चीज के नाम पर कोई हमें अपनी बपौती न समझ सके. हमें अच्छा करने वालों को जयकारना होगा और बुरा या कुछ नहीं करने वालों को हमारे पास मौजूद हर तरह की लोकतांत्रिक शक्तियों से धिक्कारना होगा. हमें हर लोकतंत्र-प्रदत्त शक्ति का इस्तेमाल कर दिखाना होगा कि हम जड़ नहीं चेतन हैं. नहीं तो हमारा भविष्य उज्जवल क्या होना ही मुश्किल है.

हमारे राजनीतिक नेतृत्व को भी समझना होगा कि लोकतंत्र और उसके संस्थानों व उपकरणों में जनता का विश्वास ही उसकी सबसे बड़ी पूंजी है. अगर उसने यह पूंजी लुटा दी तो भविष्य में उसका, देश का और हम सबका कंगाल होना तय है.