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विश्वास से परिहास !

क्या इत्तिफाक है कि जिस वक्त भारतीय जनता पार्टी की बड़ी नेता सुषमा स्वराज ‘ओह माइ गॉड’ और ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ नाम की फिल्मों के कुछ दृश्यों से अपनी आस्था को आहत पा, इसकी शिकायत करने की बात कर रही थीं, ठीक उसी वक्त उनके सहयोगी और पार्टी नेता राम जेठमलानी यह बता रहे थे कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने पति होने की मर्यादा का निर्वाह नहीं किया. जेठमलानी की नजर में लक्ष्मण ने भी इस मामले में कुटिलता दिखाई. अपने आराध्य देव के बारे मंे राम जेठमलानी के विचार जानकर भारतीय जनता पार्टी किस शोक या संताप की शिकार होगी, इसका सिर्फ मनोरंजक अंदाजा भर लगाया जा सकता है, लेकिन जितना सतहीपन राम जेठमलानी की टिप्पणी में है, उससे कहीं ज्यादा इतिहास और मिथकों को लेकर भारतीय जनता पार्टी की समझ में रहा है. राम जेठमलानी ने तो फिर भी साहसपूर्वक एक ऐसी बात कही है जो बहुत सारे लोगों को सही लगती है और कम से कम अभी यह साफ दिखता है कि उन्होंने किसी राजनीति के लिए यह बयान नहीं दिया है, जबकि भाजपा राम को सियासी तौर पर सतही और छोटा बनाती रही है.

बहरहाल, एक राम को लेकर दूसरे राम की टिप्पणी ने मुझे एक तीसरे राम- राम मनोहर लोहिया- की याद दिला दी जिन्होंने राम, कृष्ण और शिव पर कभी बहुत सुंदर लेख लिखे थे और सीता व द्रौपदी पर भी. उनके लिए यह बहस बेमानी थी कि राम, कृष्ण या शिव असली थे या नकली, महत्वपूर्ण यह था कि ये तीनों देवता सदियों से करोड़ों भारतीयों के मानस पर अपना प्रभाव डालते रहे हैं, उसका निर्माण करते रहे हैं. लोहिया ने यह बात भी बाखूबी समझी और समझाई कि ये तीनों या भारतीय देवमाला के बाकी देवी-देवता और दूसरे मिथकीय चरित्र किसी एक के गढ़े हुए नहीं हैं, किसी एक समय में हुए नहीं हैं, वे 2 हजार साल की परंपरा में विकसित हुए हैं, इसलिए उनके रूप और उनकी व्याख्याएं अनेक हैं.  कई बार राम, कृष्ण या शिव की कहानियां इनके चरित्र पर सवाल और शक करने का मौका भी देती हैं, कई बार वे अंतर्विरोधी दिखती हैं, लेकिन इसी विस्तार और वैविध्य में उनका मूल्य निहित है. लोहिया कहते हैं कि किसी भी देश की हंसी और सपने, उसकी उदासी और रंगीनियां उसकी किंवदंतियों में बोलती हैं. राम, कृष्ण और शिव भारत के महान स्वप्न हैं, उसकी उदासी और हंसी दोनों हैं.

रामकथा के संदर्भ में सीता का वनवास वह प्रसंग है जो बड़ी आसानी से राम के चरित्र पर लांछन लगाने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाता है. लेकिन लोहिया इस प्रसंग को बड़ी सावधानी से देखते हैं और उसे राम की मर्यादा से जोड़ते हैं. वे मानते हैं कि एक धोबी ने गंदी और ओछी शिकायत की, लेकिन महसूस करते हैं कि इसके पीछे भी उसका दुख था जिसकी उचित दवा या सजा होनी चाहिए. लोहिया के मुताबिक राज्य के नियमों के हिसाब से सीता का निर्वासन इसका एक इलाज था जो इसलिए भी जरूरी हो गया कि सीता राजा से जुड़ी थीं. लोहिया विकल्प भी सुझाते हैं. राम चाहते तो सिंहासन छोड़कर सीता के साथ फिर वनवास पर जा सकते थे. हो सकता है, तब प्रजा नियमों में ढील देकर उन्हें और सीता को रोकने की कोशिश करती.

बहरहाल, यह सब अटकलें हैं. मूल बात यह है कि राम और रामकथाओं के रूप अनेक हैं. रामानुजन की एक हजार रामायणें उन्हीं रूपों से बनी थीं. आधुनिक समय में भी रामकथा बार-बार लौटती है. भगवान सिंह ने अपने उपन्यास ‘अपने-अपने राम’ में विश्वामित्र और वशिष्ठ की परंपराओं का उल्लेख करते हुए रामकथा को राम-रावण का नहीं, राम और कैकेयी के बीच का संग्राम माना है जिसमें रावण कहीं से खलनायक नहीं है. सिर्फ राम के ही नहीं, कृष्ण और शिव, दुर्गा और काली के भी अनेक रूप, अनेक नाम और उनसे जुड़ी अनेक कथाएं हैं. रामायणें अगर एक हज़ार हैं तो महाभारत के रूप एक लाख से कम नहीं होंगे. महाभारत की कहानियां बार-बार दुहराई जाती हैं- कविता, नाटक, उपन्यास से लेकर फिल्मों तक में. मेरी तरह के धर्मविमुख लोगों को भी ये चरित्र और प्रसंग अगर छूते हैं तो इसलिए नहीं कि उनका वास्ता किसी आस्था से है, बल्कि इसलिए कि उनमें एक मानवीय स्पंदन है, एक महाकाव्यात्मक अनुगूंज है, उनका धार्मिक नहीं, एक साहित्यिक मूल्य है जिसमें हम अपने व्यक्ति और काल की धुकधुकी भी दर्ज पाते हैं.

कुल मिलाकर मामला यह है कि हर युग के अपने यक्ष प्रश्न होते हैं जिन्हें समकालीनता के जलाशय के तट पर बैठा समय नाम का यक्ष हमारे सामने प्रस्तुत करता रहता है. हम प्रश्नों के जवाब देते और खोजते हैं तो जीते हैं, अगर प्रश्नों से मुंह चुरा कर पानी पीना चाहते हैं तो मारे जाते हैं. जीवित समाज प्रश्नों से घबराते नहीं, वे मिथकों की अपनी जरूरत के हिसाब से पुनर्व्याख्या भी करते हैं, उनका पुनराविष्कार भी. महात्मा गांधी के राम और लोकमान्य तिलक के गणेश इसी पुनराविष्कार का परिणाम थे. बताना जरूरी नहीं कि आजादी की लड़ाई में दोनों की भूमिका क्या रही.

लेकिन जो लोग परंपरा को ठहरा हुआ जल मानते हैं, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाकर उनके मंदिरों का पुनरुद्धार करना चाहते हैं, वे ध्वंस की राजनीति और आत्मध्वंस की नियति के मार्मिक शिकार होकर रह जाते हैं. ऐसे ही लोगों को अचानक मामूली-सी फिल्में परेशान करने लगती हैं, सतही- से वक्तव्य चिढ़ाने लगते हैं. ऐसे ही लोग खुद को कमजोर मानते हैं और अपनी परंपरा को कमजोर कर डालते हैं. ऐसे ही लोग क्रूर हो उठते हैं और अपनी संस्कृति को क्रूर बना डालते हैं. ऐसे लोगों पर काल का देवता हंसता होगा, राम और कृष्ण परिहास करते होंगे. भले इत्तिफाक हो, लेकिन दिलचस्प है कि इस बार इनकी बंधी-बंधाई मान्यताओं के साथ जिस
शख्स ने परिहास किया है उसका भी नाम राम है.

गुरिल्ला राजनेता

अरविंद केजरीवाल मार्का राजनीति का पहला फार्मूला यह है कि इसका कोई फार्मूला नहीं है. अरविंद उन सभी स्थापित मानकों के खिलाफ जाकर अपनी राजनीतिक लड़ाई को आगे बढ़ा रहे हैं जिनकी अपेक्षा किसी मझे हुए राजनीतिक दल से की जाती है. पिछले कुछ दिनों में हुई घटनाओं को देखें तो हम पाते हैं कि उनकी कार्रवाइयों ने सत्ताधारी और विपक्षी दलों की बत्ती गुल कर रखी है, कॉरपोरेट की रीढ़ में सुरसुरी दौड़ा दी है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नींद हराम कर दी है. उन्होंने मीडिया का काम भी अपने हाथ में ले लिया है. अकेले अरविंद नगर निगम से लेकर संसद भवन तक की राजनीति को गर्माए हुए हैं. लेकिन उनकी इस छापामार शैली पर कई सवाल भी उठाए जाने लगे हैं.

पांच अक्टूबर यानी अपनी राजनीतिक पार्टी की घोषणा के ठीक तीन दिन बाद अरविंद ने संसद भवन से महज कुछ सौ मीटर दूर स्थित कंस्टीट्यूशन क्लब में देश की सत्ताधारी पार्टी के प्रथम परिवार की चूलें हिला दीं. उन्होंने सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के बीच भ्रष्ट गठजोड़ का आरोप लगाया और उस आरोप के समर्थन में कुछ दस्तावेज भी मीडिया को बांटे. उनके द्वारा लगाए गए आरोप कम से कम ऐसे तो थे ही कि देश और मीडिया को इससे आने वाले कई दिनों का मसाला मिल जाता पर अरविंद ने इसके तुरंत बाद कुछ और भी कर डाला. अगले ही दिन वे दक्षिणी दिल्ली की एक अर्ध विकसित कॉलोनी खानपुर में बाना राम के घर का बिजली कनेक्शन जोड़ने खुद पहुंच गए. बीएसईएस वालों ने उनका कनेक्शन काट दिया था. इसके बाद का घटनाक्रम और भी दिलचस्प है. कानूनन उनका यह कारनामा अपराध की श्रेणी में आता है. इस तरह के किसी अपराध पर बीएसईएस संबंधित व्यक्ति को सीधा जेल पहुंचवा देती है. लेकिन इस मामले में सभी संबंधित विभाग अपनी टोपी दूसरे के सिर डालकर अपना पिंड छुड़ाते नजर आए.

राज्य के विद्युत मंत्री का कहना था कि यह बिजली कंपनी का मामला है. बिजली कंपनी कह रही थी कि इस पर दिल्ली विद्युत नियामक आयोग (डीईआरसी) ही कोई कार्रवाई कर सकता है. उधर डीईआरसी भी बिजली कंपनी को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहा था. कानून-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार पुलिस का कहना था कि हमारे पास जब तक कोई शिकायत नहीं दर्ज होगी तब तक हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते. साफ दिखा कि कोई भी अरविंद से सीधे उलझना नहीं चाहता था. 9 अक्टूबर को डिस्कॉम ने मजबूरन एक एफआईआर दर्ज करवाई, लेकिन उसमें भी अरविंद केजरीवाल का कहीं जिक्र नहीं था. बिजली दिल्ली सरकार की दुखती रग है जिसे अरविंद ने सियासी फायदे के मद्देनजर बिल्कुल सही समय पर दबा दिया है. दिल्ली में बिजली की आसमानी कीमतों का संबंध अरविंद ने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से जोड़ा और कहा कि वे जनता के भले के लिए नहीं बल्कि बिजली कंपनियों के भले के जरिए अपने भले के लिए काम कर रही हैं.

वे यहीं नहीं रुके. आठ अक्टूबर को मालवीय नगर में बिजली दरों के निर्धारण को लेकर डीईआरसी ने जनसुनवाई आयोजित की थी. भाजपा नेता विजय गोयल अपने समर्थकों समेत वहां पहले से ही विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. उनकी मांग थी कि डीईआरसी द्वारा 2010 में प्रस्तावित बिजली दरों में 23 फीसदी की कमी को दिल्ली सरकार लागू करे. इतने में अरविंद वहां पहुंच गए. उन्होंने विजय गोयल से मंच साझा करने का अनुरोध किया, गोयल ने उन्हें मंच पर बुला लिया. यहां से प्रतिरोध का पूरा परिदृश्य ही बदल गया. भाजपा के मंच पर, भाजपा समर्थकों के बीच अरविंद ने पहला सवाल किया, ‘भाजपा दो साल तक इस मामले पर चुप क्यों रही? इन सालों के दौरान उसने विधानसभा में मामला क्यों नहीं उठाया?’ सभा में सन्नाटा था और विजय गोयल के चेहरे पर असहजता. आखिरी बात अरविंद ने यह रखी कि भाजपा बिजली कीमतों में बढ़ोतरी के मुद्दे पर कांग्रेस के साथ मिली हुई है. भीड़ के बीच नारा गूंजने लगा- अरविंद, तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं. विजय गोयल मंच से ओझल हो गए, भाजपा का मंच आईएसी या यों कहें कि अरविंद ने हड़प लिया था. खुलासों की कड़ी में अरविंद ने अगला निशाना 17 अक्टूबर को नितिन गडकरी पर साधा. हालांकि तुरंत तो ऐसा लगा कि अरविंद का यह पटाखा फुस्स हो गया है, मगर बाद में मीडिया ने इस मामले को ऐसा उठाया कि अब गडकरी अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बुरे दौर से घिरे नजर आ रहे हैं.

‘अभी जो चर्चाएं चल रही हैं उसके पीछे मीडिया की सक्रियता एक बड़ी वजह है. जल्द ही इसका चौंकाने वाला तत्व समाप्त हो सकता है’

इसके बाद केजी बेसिन मामले में मुकेश अंबानी वाली रिलायंस, भाजपा, कांग्रेस और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आदि को 31 अक्टूबर को लपेटे में लेने के बाद नौ नवंबर को एक बार फिर से केंद्र सरकार का नंबर आया. अरविंद ने आरोप लगाया कि सरकार विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के प्रति गंभीर नहीं है और जिन विदेशी खातों के बारे में उसे जानकारी है भी वह उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है. उन्होंने अंबानी बंधु, डाबर समूह वाले बर्मन परिवार, यश बिरला, जेट एयरवेज के मालिक नरेश गोयल और राहुल गांधी की करीबी कांग्रेसी सासंद अनु टंडन सहित कुल 10 लोगों के नाम और कुछ दस्तावेज यह कहते हुए जारी किए कि इनके एचएसबीसी की स्विटजरलैंड शाखाओं में बैंक खाते हैं, जिनमें करीब 3,000 करोड़ रुपये जमा हैं. अरविंद का कहना था कि इन दस नामों की जानकारी उन्हें एक कांग्रेसी नेता ने ही दी है और ये उस सूची का हिस्सा हैं जिसमें 700 नाम हैं और जो स्विटजरलैंड की सरकार ने भारत सरकार को पिछले साल दी थी. इन सबसे ऊपर अरविंद ने अंतरराष्ट्रीय बैंक एचएसबीसी पर देश की सुरक्षा को ताक पर रखते हुए हवाला के जरिए इन खातों में लेन-देन करने के गंभीर आरोप भी लगाए. अंबानी बंधुओं, बिरला और एचएसबीसी आदि ने इन सभी आरोपों को गलत करार दिया है. तहलका से बातचीत में अनु टंडन का कहती हैं, ‘मेरा स्विस बैंक में न तो कोई खाता है और न ही कोई पैसा. इस तरह के बेबुनियाद और मनगढ़ंत आरोपों को मैं जवाब देने लायक भी नहीं मानती हूं.’ अभी अरविंद की इस छापामारी की खबरें अखबार के पन्नों से गायब भी नहीं हुई थीं कि उन्होंने इसके ठीक दो दिन बाद ही दिल्ली के बिजली कर्मचारियों के एक संगठन को संबोधित करते हुए अपना अगला निशाना शीला दीक्षित को बनाने की घोषणा कर डाली.

राजनीति की जो गैरपरंपरागत छापामार शैली अरविंद ने ईजाद की है, अब उसके सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं पर बहस होने लगी है. टीम अरविंद के सदस्य बिभव इसे चुनावी राजनीति नहीं बल्कि भ्रष्टाचारियों को सामने लाने की रणनीति करार देते हैं. उनके शब्दों में, ‘यह राजनीति नहीं है. चुनावी राजनीति तो जब चुनाव आएगा तब देखी जाएगी. मौजूदा खुलासे जनता को यह दिखाने के लिए किए जा रहे हैं कि हमारी जो स्थापित व्यवस्था है उसका ये लोग किस तरह से दुरुपयोग कर रहे हैं. हम 2014 से पहले हर हफ्ते इस तरह के खुलासे करते रहेंगे ताकि जनता के सामने तब तक ये लोग पूरी तरह से बेनकाब हो चुके हों.’  मगर बिभव की यह बात कई लोगों के गले नहीं उतरती. अरविंद के पुराने सहयोगी और टीम अन्ना की नई कोर कमेटी के एक सदस्य कहते हैं  ‘कल को अरविंद ये कहने लगेंगे कि खुलासों से कुछ होता नहीं इसलिए जब हमें सत्ता मिलेगी तभी कुछ होगा. ऐसे ही उन्होंने पिछली बार भी किया था कि अनशन से अब कुछ नहीं होगा इसलिए हमें राजनीति में आना पड़ा. इस लिहाज से ये पूरा हो-हल्ला संदेहास्पद हो जाता है.’ वैसे भी अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के कथित बुरे कार्यों को सामने लाना, उन्हें ठिकाने लगाना राजनीति से अलग है, यह सोचना किसी के लिए भी जरा मुश्किल है.

और अरविंद भले भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाकर लोगों को बेनकाब करने की बात कर रहे हों लेकिन कई लोगों के मुताबिक इनका तब तक कोई मतलब नहीं जब तक इन पर कोई कार्रवाई न हो. फिलहाल अरविंद के उठाए वाड्रा से लेकर गडकरी और अन्य मामलों में ऐसा होता नहीं दिखाई देता. इसके बावजूद अरविंद की इस छापामार शैली से पूरी राजनीतिक जमात में एक बदहवासी का आलम देखने को मिल रहा है. सलमान खुर्शीद खून-खराबे की धमकी पर उतर आए हैं तो हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ भाजपा नेता शांता कुमार ने अपनी पार्टी की मर्यादा को ताक पर रख कर अरविंद केजरीवाल को पत्र लिख मारा कि हिमाचल प्रदेश में प्रियंका गांधी का भी एक विशाल बंगला है, आप उसकी भी जांच करें. यह हास्यास्पद स्थिति थी. जो भाजपा राज्य की सत्ता में है, जिसके पास जांच की ताकत है, उसका एक वरिष्ठ नेता केजरीवाल से जांच करने की मांग कर रहा था. यह भाजपा के लिए मुंह छिपाने की घड़ी थी.

जनता के बीच नेताओं की नकारात्मक छवि अपने चरम पर है. लंबे समय से वैकल्पिक राजनीति के लिए रिक्तता बनी हुई है. तो ऐसे में अरविंद की छापामार शैली को फिलहाल मिल रही सफलता और लोकप्रियता कितनी स्थायी साबित होने वाली है? एक के बाद एक खुलासे करते जाने से क्या अरविंद राजनीति में एक स्थापित चेहरा बन पाएंगे? क्या जनता उन पर सिर्फ इसी आधार पर भरोसा कर पाएगी? अरविंद केजरीवाल के पुराने सहयोगी और नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) के सदस्य निखिल डे कहते हैं, ‘अरविंद का मानना है कि जनांदोलनों का रास्ता असफल हो चुका है, इसलिए राजनीतिक रास्ता चुनना पड़ा है. राजनीति में उतरना बहुत अच्छी बात है. लेकिन यह रास्ता बहुत चुनौती भरा है. जिन ऊंचे मूल्यों की वे बात कर रहे हैं, उस पर खुद उनके लोग कितना खरा उतरेंगे यह सुनिश्चित करना मुश्किल होगा. क्या इतने सारे ईमानदार लोग अरविंद सामने ला पाएंगे? एक बात और, जनांदोलनों का महत्व खत्म नहीं हुआ है, ये हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे.’

पिछले दो दशक के दौरान देश में हुए बड़े राजनीतिक आंदोलनों पर नजर दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि नब्बे के शुरुआती दशक में भाजपा का राम मंदिर आंदोलन देश का सबसे बड़ा और सफल आंदोलन था. हालांकि इस आंदोलन का स्वरूप सांप्रदायिक था, लेकिन इतने बड़े आंदोलन के बावजूद भाजपा गांव-देहात और दूर-दराज की पार्टी आज तक नहीं बन पाई है. देश के  तमाम हिस्से आज भी ऐसे हैं जहां भाजपा की कोई पैठ नहीं है. तो एक बार फिर से वही सवाल कि क्या भ्रष्टाचार के लिए अन्ना के साथ चलाए गए आंदोलन और खुलासों की आंदोलननुमा राजनीति के दम पर अरविंद अपनी पार्टी को घर-घर की पार्टी में बदल पाएंगे.

‘अरविंद के सामने दिक्कत सिर्फ यही है कि अगर दिल्ली के चुनाव से पहले आम चुनाव होते हैं तो उनका भ्रष्टाचार विरोधी अभियान असफल हो सकता है’

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, ‘अभी जो चर्चाएं चल रही हैं उसके पीछे मीडिया की सक्रियता एक बड़ी वजह है. लेकिन मीडिया भी यह तेजी ज्यादा दिन तक बनाए नहीं रख पाएगा. जल्द ही इसका चौंकाने वाला तत्व खत्म हो जाएगा. जरूरत इस समय खुलासों के साथ इतने विशाल देश में एक विश्वसनीय संगठन खड़ा करने की है. व्यक्तिगत तौर पर तो मैं भी अरविंद की ईमानदारी का कायल हूं लेकिन अरविंद के कहने पर मैं किसी भी व्यक्ति को अपना वोट नहीं दे सकता.’ अरविंद के आंदोलन की तुलना आपातकाल में हुए जेपी आंदोलन से भी की जा रही है लेकिन उस समय देश, काल और परिस्थितियां अलग थीं. और अरविंद जेपी भी नहीं हैं. और अब अन्ना भी उनके साथ नहीं हैं. तो ऐसे में ताबड़-तोड़ किए जा रहे खुलासे, अरंविद को लोगों की निगाह में तो रख सकते हैं लेकिन क्या ये चुनावी सफलता में भी तब्दील होंगे, यह एक बड़ा सवाल है.

अरविंद के अब तक के अभियान पर अगर थोड़ी बारीक निगाह डाली जाए तो हम पाते हैं कि इनके निशाने पर दिल्ली और इसके आस-पास का पढ़ा-लिखा और अन्ना के आंदोलन में जोर-शोर से भाग लेने वाला वर्ग है. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी, अरविंद के छापामार अभियान को इसी निगाह से देखती हैं, ‘निश्चित तौर पर इस समय अरविंद की निगाह में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हैं. और उनका भ्रष्टाचार विरोधी अभियान उसमें बहुत उपयोगी हथियार है. जिस तरह से वे खुलासों के जरिए जनता को अपने पक्ष में गोलबंद कर रहे हैं, उसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति है. अरविंद के सामने दिक्कत सिर्फ यही है कि अगर दिल्ली विधानसभा के चुनाव से पहले देश के आम चुनाव होते हैं तो उनका भ्रष्टाचार विरोधी अभियान असफल हो सकता है क्योंकि तब उनके पास पूरे देश में पहुंचने के लायक न तो साधन होगें, न संगठन. जबकि दिल्ली के चुनाव में अगर वे कुछ असर डाल पाते हैं तो उसका फायदा बाद में उन्हें लोकसभा के चुनावों में जरूर मिलेगा.’ केजरीवाल की गुरिल्ला राजनीति आगे क्या गुल खिलाएगी यह तो भविष्य ही बताएगा मगर उनके ऐसा करने से देश की राजनीति पर क्या असर पड़ा है? थानवी कहते हैं, ‘हमारी राजनीति में ताकतवर और ‘होली काउ’ का जो मिथक था, अरविंद केजरीवाल ने उसे तोड़ दिया है. उनका यह योगदान बहुत बड़ा है.’

सवाल उठता है कि अगर केजरीवाल इस तरह के खुलासे और आंदोलन न करें तो फिर उनके पास विकल्प क्या है. जवाब में फिर वही प्रश्न सामने आता है कि क्या जनता अरविंद को नेताओं की भीड़ में एक और नेता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार है. उत्तर निश्चित ही नकारात्मक होगा. अगर केजरीवाल कुछ नया नहीं करेंगे या कोई उम्मीद नहीं जगाएंगे तो उन्हें देश की जनता शायद ही स्वीकार करे. और फिर परंपरागत शैली में अगर अरविंद अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे तो यहां उस शैली के धुरंधर पहले से ही इफरात में हैं. अरविंद के तरीके पर आपत्ति के बावजूद थानवी इसे वैकल्पिक राजनीति करार देते हैं.

अरविंद के सामने एक और चुनौती समय की है. उनके सामने स्थापित मानकों के हिसाब से अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने का विकल्प मौजूद था. लेकिन यह लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है. जो रास्ता उन्होंने चुना है उसमें तत्काल नतीजों की संभावना तो है लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं. नीरजा इतिहास का उदाहरण देती हैं, ‘आपातकाल के बाद हमने देखा किस तरह से जेपी का आंदोलन सत्ता में आने के ढाई साल बाद ही बिखर गया. वीपी सिंह के सामने भी यह समस्या आई थी. उन्होंने भी शॉर्टकट चुना. 87 में उन्होंने आंदोलन शुरू किया था, 90 तक आते-आते उनका आंदोलन बेपटरी हो चुका था.’ यह चेतावनी केजरीवाल को याद रखनी चाहिए. जहां तक राजनेताओं की बात है तो जब अरविंद आंदोलन कर रहे थे तब वे बात-बात पर केजरीवाल को चुनाव लड़कर संसद में आने की चुनौती देते ही आ रहे थे. वही राजनेता जब अरविंद राजनीति में आए तो उन्हें राजनीतिक सत्ता का महत्वाकांक्षी बताकर जनता के साथ विश्वासघात करने वाला बताने लगे. अब यही राजनेता उनके तौर-तरीकों पर तरह-तरह के सवाल उठा रहे हैं. अरविंद को लेकर उनकी बार-बार बदलती सोच उनकी बदहवासी की निशानी भी हो सकती है और अपने जमे-जमाए तरीकों से लड़ने की कोशिश भी. मगर केजरीवाल के बारे में फैसला आखिर में जनता को ही करना है जो फिलहाल उनमें संभावनाएं टटोलने में लगी है. उसका फैसला क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है. मगर यह भविष्य उतना दूर भी नहीं है.

दावों से ज्यादा दवा की दरकार

यह एक संयोग ही था कि बीते दिनों इंदौर में मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार जब अपने मुखिया शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट का समां बांधने में जुटी हुई थी तभी सूबे के पूर्व मुखिया और भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से एक संदेश आया. संदेश में मोदी ने गौर को गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव के प्रचार में आने का न्योता दिया. गौर ने भी फोन पर ब्रिटिश उच्चायुक्त द्वारा व्यापार के सिलसिले में गुजरात पहुंचकर मोदी से भेंट करने को बड़ी उपलब्धि बताते हुए उन्हें बधाई दी. बाद में पत्रकारों से बातचीत में गौर ने कहा कि यदि आपके प्रदेश में बेहतर सुविधाएं हों तो विदेश जाने और मीट करने की जरूरत नहीं है बल्कि निवेश खुद-ब-खुद आपके पास चलकर आता है. गौरतलब है कि हाल के दिनों तक अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों द्वारा मोदी को अपने यहां आने के लिए प्रतिबंधित करने के बावजूद गुजरात में विदेशी निवेश की कमी नहीं है. वहीं शिवराज हर ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट के पहले अपने दल बल के साथ विदेशी निवेशकों को लाने के लिए कई देशों की यात्राएं करते हैं. बावजूद इसके पीथमपुर (इंदौर) में कपारा इंजीनियरिंग के अलावा विदेशी निवेश का कोई भी करार अब तक यहां साकार नहीं हो पाया है.

बीते आठ साल के अपने कार्यकाल में शिवराज देशी-विदेशी निवेशकों को रिझाने के लिए अरबों रुपये खर्च करके तीन ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट कर चुके हैं. उनकी यह लंबी कवायद जमीन पर कोई नतीजा नहीं ला पाई है. अपेक्षा थी कि वे अपने तजुर्बे से सबक लेंगे, लेकिन करारों पर मंथन करने के बजाय उन्होंने औद्योगिक नगरी इंदौर में 28 से 30 अक्टूबर के बीच एक और ग्लोबल मीट का आयोजन कर दिया.

इसमें एक बार फिर अनिल अंबानी से लेकर आदि गोदरेज, कुमार मंगलम बिड़ला और शशि रूइया जैसे कई चिर-परिचित धनकुबेर दिखे. एक बार फिर सरकार ने अति उत्साह दिखाते हुए कुछ ऐसा प्रचार किया कि जैसे सूबे की औद्योगिक तस्वीर तेजी से बदली है. यह और बात है कि उसी के सांख्यिकी विभाग की मौजूदा रिपोर्ट यह बताती है कि यहां औद्योगिक विकास गति नहीं पकड़ पा रहा है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि द्वितीयक क्षेत्र (खनन, विनिर्माण, बिजली आदि) में विकास दर जहां 2008-09 में 17.31 फीसदी थी वह 2009-10 में 7.70 और 2010-11 में 7.60 पर आकर अटक गई है. वहीं सरकारी विज्ञापनों में यह दावा किया गया है कि इस दौरान 15 हजार लोगों को रोजगार मिला है. प्रदेश में करोड़ों की संख्या में बेरोजगारों को देखते हुए यह दावा अपने आप में हास्यास्पद है.

इस साल भी 548 करारों में निवेशकों ने दो लाख करोड़ रुपये से अधिक के निवेश का वादा किया है. मगर बीते वादों पर निगाह डालें तो इसके पहले हुए कुल 333 करारों में से 111 निरस्त हो चुके हैं. सरकारी विज्ञापन ही बताता है कि इनमें से केवल सात कारखाने उत्पादन की स्थिति में हैं. बाकी 215 करारों की वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं. सच तो यह है कि 2004 से 2012 के दौरान साढ़े चार लाख करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित करने के बड़े दावे खोखले साबित हुए हैं. सरकारी आंकड़ों की मानें तो यहां केवल 27 हजार करोड़ रुपये का निवेश हो पाया है. उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय इसका ठीकरा आर्थिक मंदी और कोलब्लॉक आवंटन के सिर फोड़ते हैं.
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि प्रदेश के 50 में से 27 जिलों में कोई उद्योग नहीं है. आर्थिक प्रेक्षकों के मुताबिक माल ढुलाई के लिए परिवहन का गंभीर संकट इसकी बड़ी वजह है. गौरतलब है कि 1880 में इंदौर में ही होल्कर राजघराने ने जब कपड़े का कारखाना खोला तो अंग्रेजों ने कहा था कि बिना रेल के यह संभव नहीं. तब पहली बार इंदौर के लिए रेल लाइन बिछाई गई. मगर आज मध्य में स्थित होने के बावजूद इस प्रदेश का रेल नेटवर्क जहां देश के औसत नेटवर्क से काफी कम है वहीं प्रदेश के 38 प्रतिशत इलाकों तक सड़कें नहीं पहुंची हैं. यहां कुल एक लाख 10 हजार किलोमीटर तक सड़कें हैं, जो भौगोलिक दृष्टि से इससे कहीं छोटे महाराष्ट्र की दो लाख 45 हजार किलोमीटर सड़कों से काफी पिछड़ी हैं. इसी के साथ बीते एक दशक से सूखे की मार झेलते बुंदेलखंड और चंबल सहित पूरे सूबे में पानी का घोर संकट तो है ही, बिजली की मांग 5,200 मेगावॉट के मुकाबले 4,100 मेगावॉट की आपूर्ति के बीच भारी कमी के चलते भी पहले से ही कई उद्योगों का भविष्य अंधेरे में है. आर्थिक विश्लेषक राजेंद्र कोठारी की राय है, ‘निवेश में वास्तविक दिलचस्पी रखने वाले निवेशक इसलिए यहां से हाथ खींचते हैं कि उन्हें जैसा बताया जाता है वैसी सुविधाएं नहीं मिलतीं.’

बीते एक दशक के दौरान यदि निवेश की स्थिति देखी जाए तो राज्य का नंबर अपने से विभाजित हुए  छत्तीसगढ़ के बाद आता है. विशेषज्ञ बताते हैं कि राज्य में औद्योगिक निवेश को लेकर स्पष्ट नीति का अभाव है. गौरतलब है कि मौजूदा सरकार अपने कार्यकाल में आधे दर्जन से अधिक बार औद्योगिक नीति बदल चुकी है. नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के मुताबिक, ‘मुख्यमंत्री कभी एफडीआई का विरोध करते हैं तो कभी कृषि योग्य जमीन उद्योगों को न देने की बात. मगर मीट में जब वे अपनी ही बात से उलट उद्योगों के लिए सुविधाओं का पिटारा खोलते हैं तो आम जनता में भ्रम की स्थिति तो बनती ही है, उद्योगपतियों के लिए भी भरोसा कर पाना मुश्किल हो जाता है.’

उद्योगपतियों में भरोसा न बन पाने की दूसरी वजह यह है कि प्रदेश में पहले से मौजूद उद्योग धीमे-धीमे अपनी पहचान खोते जा रहे हैं. उद्योग विभाग के मुताबिक पीथमपुर में 609 में से 200 कारखाने बंद हो चुके हैं. इसके अलावा मंडीदीप (भोपाल) में 550 में से 110, मालनपुर (ग्वालियर) में 200 में से 151 और देवास में 15 बड़े कारखानों में भी ताले लग चुके हैं. कई औद्योगिक संगठनों की राय में इन मीटों के पहले मध्य प्रदेश के लिए मध्य प्रदेश केंद्रित नीति बनाने की जरूरत है. प्रदेश में बेकारी एक बड़ी समस्या है और सरकार ने भी रोजगार की संभावना वाले उद्योगों को वरीयता देने की बात की है. मगर इसके उलट उसने बीते मीटों के दौरान प्रस्तावित निवेश का आधा हिस्सा उस खनन और बिजली क्षेत्र में लगाया है जो अब तक धरातल पर कोई आकार नहीं ले पाया. जबकि कपड़ा उद्योग को लेकर उसने कोई पहल नहीं की. जानकार बताते हैं कि एक कपड़ा उद्योग यदि 500 करोड़ रुपये का भी निवेश करता है तो न्यूनतम ढाई हजार लोगों को रोजगार देता है. वहीं बिजली संयंत्र में यदि 20 हजार करोड़ रुपये का भी निवेश किया जाए तो भी उससे बमुश्किल एक हजार लोगों को काम मिलता है. गौरतलब है कि इंदौर के 120 साल पुराने, कपड़े और बुरहानपुर के विश्वविख्यात पावरलूम उद्योग के बर्बाद होने से हजारों लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है.

सूबे की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है और इसीलिए कई विशेषज्ञों का मत है कि यदि ऐसे आयोजनों में कृषि को बढ़ावा देने वाले उद्योगों को महत्व दिया जाए तो प्रदेश के औद्योगिक विकास में नए आयाम जुड़ेंगे. स्थानीय अर्थव्यवस्था के मामलों के जानकार चिन्मय मिश्र के मुताबिक, ‘यहां हर साल बोरों की कमी एक बड़ी समस्या बन जाती है तो सरकार ने अब तक प्रदेश में जूट फैक्टरी लगाने की दिशा में कोई पहल क्यों नहीं की.’ दूसरी तरफ, कई औद्योगिक क्षेत्रों में उद्योग लगाने के नाम पर आवंटित लाखों हेक्टेयर जमीन खाली पड़ी है. पीथमपुर औद्योगिक केंद्र विकास निगम की सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक कई रसूखदार कारखाने की जमीन गोदाम में बदलकर उसे किराये पर दे रहे हैं. औद्योगिक इकाइयों की मांग है कि उद्योगों में इस्तेमाल नहीं होने वाली ऐसी जमीनों की लीज निरस्त करके उन्हें नए निवेशकों को दे दिया जाए. मगर इससे उलट सरकार कृषि योग्य जमीन खाली कर रही है. अब तक राज्य में दो लाख 44 हजार हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन उद्योगपतियों को सौंपी जा चुकी है. लिहाजा इन आयोजनों के चलते किसानों के भीतर उद्योगों को लेकर भय और असंतोष की स्थिति बनी है. वहीं एक तबका ऐसा भी है जिसके मुताबिक  यदि इन आयोजनों की रणनीति के तहत उन उद्योगों को बढ़ावा दिया गया जिनका प्रदेश के विकास से कोई सीधा रिश्ता नहीं है तो भविष्य में इसका उल्टा असर पड़ेगा. मजदूर नेता प्रमोद प्रधान का मानना है, ‘सिंगरौली जैसे क्षेत्र में बिजली संयंत्र लगाने से किसानों की जमीनें छीनी जाएंगी और बिजली की कीमत भी यदि कंपनियां ही तय करेंगी तो आक्रोश बढ़ेगा.’

इन सबसे अलग कई आर्थिक विश्लेषकों का मत है कि बड़े उद्योगपति निवेश के मकसद से इन आयोजनों में नहीं आते. असल में उनकी दिलचस्पी चूने और कोयले की खदानों तथा जमीन लेकर उनका उपयोग अन्य स्थानों पर करने में है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रदेश सचिव बादल सरोज जेपी कंपनी के उदाहरण से बताते हैं कि प्रदेश सरकार ने इस व्यावसायिक घराने को सिंगरौली और सीधी जिलों में न केवल हजारों हेक्टेयर जमीन लीज पर दी है बल्कि उस जमीन को बैंक में बंधक रखकर लोन लेने की विशेष सुविधा भी दी है. बादल का आरोप है, ‘जेपी ने लोन से ली सैकड़ों करोड़ की रकम हिमाचल प्रदेश के बिजली संयंत्रों और हाइवे क्षेत्र में खर्च कर दी.’ दरअसल सिंगरौली प्रदेश की नई औद्योगिक नगरी के तौर पर विकसित हो रही है तो इसलिए कि यहां दुनिया का बेहतरीन कोयला पाया जाता है. सिंगरौली में बड़े पैमाने पर हुआ निवेश इस बात की तस्दीक  करता है कि निवेश आयोजनों से नहीं बल्कि निवेशकों की जरूरत से आता है.

एका की चाह, एकला राह

कुछ माह पहले जब नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी की ओर से पटना के गांधी मैदान में चार नवंबर को अधिकार रैली की घोषणा की थी तो लगे हाथ उसी समय बिहार में विधायकविहीन राजनीतिक दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) की ओर से भी नौ नवंबर को गांधी मैदान में ही परिवर्तन रैली की घोषणा हुई थी. तभी से यह कहा जाने लगा था कि भला सत्ताधारी दल की रैली के तुरंत बाद भाकपा माले की रैली की क्या बिसात होगी.

लेकिन आठ नवंबर को जब पटना के गांधी मैदान के आस-पास दूर-दराज के लोग अपने-अपने झोले-बोरे और खुद से ही खाने-पीने के इंतजाम के साथ पहुंच ठंड में डेरा जमाने लगे और नौ को अल-सुबह से ही हर सड़क जब लाल झंडा लिए लोगों की भीड़ से पटी हुई दिखी तो पूर्वानुमान ध्वस्त हो गए. परिवर्तन रैली में करीब एक लाख की भीड़ गांधी मैदान पहुंची. भाकपा माले  के नेताओं में उत्साह भर गया. केंद्र और राज्य सरकार, दोनों की नीतियों पर जमकर निशाना साधा गया. भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य कहते हैं, ‘हम इस रैली के जरिए केंद्र और राज्य सरकार की जनविरोधी नीतियों के साथ यह भी बताना चाहते थे कि नीतीश अगर भाजपा की गोद में बैठकर राजनीति कर रहे हैं तो लालू प्रसाद भी कांग्रेस की गोद में बैठे हुए हैं और बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार से लेकर खुदरा विदेशी निवेश के खिलाफ एक लाइन तक नहीं बोलते, न बोलेंगे.’ बकौल दीपांकर नीतीश हों या लालू, दोनों कमोबेश एक ही राह के राही हैं और उनकी नीतियों में कोई फर्क नहीं इसलिए वे वाम और लोकतांत्रिक समाजवादियों का एक समन्वय बनाना चाहते हैं.

यही संदेश उनकी रैली से मिला भी. इस रैली में भाकपा माले नेताओं के अलावा भाकपा और माकपा जैसे दो प्रमुख वाम दलों के राज्य सचिव भी मंच पर पहुंचे और समन्वय-साझेपन पर हामी भरी. कुछ पुराने समाजवादी नेता भी परिवर्तन रैली के मंच पर पहुंचकर इस एका में साथ देने की घोषणा कर गए. समाजवादी नेताओं में पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव प्रमुख रहे. पिछले दिनों मुजफ्फरपुर में शराब का विरोध करने के बाद शराब कारोबारियों द्वारा बुरी तरह पीटे गए राज्य के पूर्व मंत्री हिंद केसरी यादव भी मंच पर पहुंचे और अपने घाव दिखाते हुए जनता के सामने अपनी बात रखी.

लेकिन कुछ पुरानी और कुछ नई बातों को जोड़ने  से सवालों का एक सिलसिला बनता है. पहला सवाल तो यही कि परिवर्तन रैली करके भाकपा माले ने अपनी राजनीतिक ताकत तो दिखा दी लेकिन इससे मिले सकारात्मक संकेत को क्या वह आगे धरातल पर उतार पाएगी? भाकपा माले की रैली में ही नहीं अमूमन हर वाम रैली में निष्ठा,  प्रतिबद्धता और अनुशासन के साथ भीड़ जुटती रहती है लेकिन उसका रूपांतरण वोट और सीट में नहीं हो पाता. विशेषकर बिहार में तो वाम दलों का आधार तेजी से नीचे खिसका है. 2005 में बिहार में माकपा का एक विधायक, भाकपा के तीन और भाकपा माले के चार विधायक थे, जिससे बिहार विधानसभा में कुल वाम विधायकों की संख्या आठ थी लेकिन 2010 में भाकपा ही सिर्फ एक सीट पर जीत सकी थी.

सवाल और भी हैं. पिछले साल दिसंबर के अंत में पटना में ही भाकपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी बड़े और नामचीन वाम नेताओं ने समन्वय, एकता और साझेपन का वादा किया था, लेकिन 11 माह बाद भी वह वादा धरातल पर उतरता नहीं दिखा. परिवर्तन रैली के मंच पर समाजवादियों की उपस्थिति से यह सवाल भी उठा कि क्या देवेंद्र यादव जैसे समाजवादी नेता ज्यादा दिनों तक और ज्यादा दूर तक वाम राजनीति के साथ समन्वय बनाकर चल सकने की स्थिति में रहेंगे.

गांधी मैदान(पटना) में परिवर्तन रैली को संबोधित करते हुए पार्टी महासचिव दिपांकर भटाचार्य; फोटो-आफताब आलम सिद्दिकी

महेंद्र सुमन जैसे राजनीतिक विश्लेषक के हिसाब से भाकपा माले की इस रैली में एक नई बात यह है कि इस बार खुद माले ने बिहार में वाम एका-समन्वय की पहल की है, जबकि पहले वही इससे परे जाते रहती थी. बेशक इस नजरिये से बिहार में वाम राजनीति के लिए एक नई उम्मीद जगती है. लेकिन धरातल पर आकलन करें तो परेशानी दूसरी किस्म की भी है. चुनावी समन्वय-एका तो दूर की बात है यहां संघर्ष के दौरान भी वाम दलों ने एक होकर कोई बड़ा आंदोलन नहीं चलाया है.

हालिया वर्षों में बिहार और झारखंड में भाकपा माले ही सबसे सक्रिय वाम पार्टी मानी जाती है और दिखती भी रही है. विधायकविहीन होने के बावजूद नीतीश सरकार की दूसरी पारी में भाकपा माले ही अकेले विपक्ष की तरह सरकार को घेरने का काम करती रही. चाहे वह फारबिसगंज कांड का मामला हो या बढ़ते सामूहिक बलात्कार का. एक समय में बिहार में सबसे बड़ी वाम पार्टी रही भाकपा आज वैसी सक्रिय नहीं है और माकपा भी यहां कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर सकी है. लेकिन जब चुनाव की बारी आती है तो वाम दलों पर श्रेष्ठताबोध हावी होने लगता है. भाकपा अतीत की दुहाई देकर अधिक सीटों पर टिकट चाहती है तो माकपा देश के स्तर पर वाम राजनीति का प्रतिनिधित्व करने के एवज में अपना हिस्सा ठीक-ठाक मांगती है. और इन दोनों के बीच भाकपा माले का अपना बड़ा दावा स्वाभाविक तौर पर होता है. भाकपा से संबद्ध वाम विचारक व बांग्ला कवि विश्वजीत सेन कहते हैं, ‘माले की रैली से यह जरूर हुआ है कि नीतीश को दिखाया जा सका है कि वाम भी एक ताकत है और माले के साथ जनता का जुड़ाव बना हुआ है. लेकिन महज ऐसी रैली से वाम दलों में समन्वय और एका नहीं होने वाला क्योंकि इसमें खुद भाकपा माले और माकपा रोड़ा हैं.’ सेन कहते हैं कि दोनों दलों में सौतिया डाह दिखता है.

माकपा के राज्य सचिव विजयकांत ठाकुर इस बारे में बात करने पर कहते हैं कि बेशक परिवर्तन रैली से वाम दल एका और समन्वय की ओर एक कदम बढ़े हैं लेकिन चुनावी एकता से पहले एकताबद्ध संघर्ष करना होगा और ऐसे संघर्ष में दूसरी विचारधारा वालों को शामिल करने से खतरा बना रहेगा क्योंकि वे सत्ता की संभावना बनते ही खिसक जाएंगे. ठाकुर ऐसा कहकर परिवर्तन रैली में शामिल हुए समाजवादी नेताओं की ओर इशारा करते हैं. वे आगे कहते हैं, ‘भाकपा माले इस रैली में तीसरे विकल्प की जो बात कर रही थी, वह समझ में नहीं आई, क्योंकि विकल्प तो सिर्फ दो ही होते हैं. एक नवउदारवाद का समर्थन और दूसरा उसका विरोध.’ बहरहाल, अधिकार रैली के चार दिन बाद ही हुई भाकपा माले की परिवर्तन रैली ने यह संदेश जरूर दिया है कि राज्य में नाराज और निराश जनता एक बड़े मंच और विकल्प की तलाश में है. उम्मीद के रूप में वाम की भी संभावना बची-बनी हुई है. यह संदेश भी मिला कि निकट भविष्य में राजद और भाजपा द्वारा गांधी मैदान में जो रैलियां होने वाली हैं, उसका एक मानक परिवर्तन रैली को भी माना जाएगा. इस लिहाज में कि हजारों की भीड़ बिना किसी शोर-शराबे के, लेकिन पूरे उत्साह के साथ, बिना शहर की दिनचर्या बाधित किए राजनीतिक रैलियों में आ सकती है और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ कर सकती है.

नुक्स कुछ, नुस्खा कुछ

उत्तराखंड को अलग राज्य बने 12 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन अब तक वहां स्थायी राजधानी के लिए किसी एक जगह का नाम तय नहीं हो सका है. विधानसभा, सचिवालय समेत तमाम विभाग देहरादून के काम चलाऊ भवनों में निपटाए जा रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस सरकार ने एक बार फिर ‘गैरसैंण का जिन्न’ बोतल से बाहर निकाल दिया है. राज्य कैबिनेट ने फैसला लिया है कि अब देहरादून के अलावा गैरसैंण में भी राज्य की विधानसभा बनेगी.
उत्तराखंड बनने से पहले ही स्थानीय जनमानस ने भावनात्मक रूप से गैरसैंण और उसकी 50 किमी परिधि के क्षेत्र को प्रस्तावित राज्य की राजधानी मान लिया था. पृथक राज्य आंदोलन के दौर में गैरसैंण दस साल तक आंदोलन की धुरी बना रहा. भौगोलिक आधार पर भी वह उत्तराखंड के केंद्र में है. अलग राज्य बनने के बाद भी गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए कई आंदोलन हुए. बाबा मोहन उत्तराखंडी ने इसी मांग के साथ 9 अगस्त, 2004 को बारहवीं बार भूख हड़ताल करते हुए प्राण त्याग दिए, लेकिन गैरसैंण के प्रति सरकारों की असंवेदनशीलता बनी रही. अब मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में विधानसभा भवन निर्माण और उसके एक सत्र को चलाने के कैबिनेट के निर्णय को ऐतिहासिक पहल बताते हुए इसे सकारात्मक कदम करार दिया है. इससे लोगों की उम्मीदें एक बार फिर परवान चढ़ी हैं. लेकिन कैबिनेट के निर्णय के बाद के घटनाक्रमों पर नजर डालें तो कोई खास उम्मीद बंधती नजर नहीं आती.

दरअसल उस दिन मंत्री प्रीतम सिंह चौहान को छोड़कर राज्य के सभी मंत्री और बड़े अधिकारी हैलिकॉप्टर से गैरसैंण पहुंचे और उसी दिन कुछ घंटों की बैठक की रस्म अदायगी के बाद वापस देहरादून के लिए उड़ गए. यह एक किस्सा भविष्य की तस्वीर दिखाने के लिए काफी है. उत्तराखंड क्रांति दल नेता काशी सिंह ऐरी कहते हैं, ‘गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाने का निर्णय वास्तव में अच्छी पहल है, लेकिन यदि मंत्री और अधिकारी सड़क मार्ग से आते तो पहाड़ की परेशानियों को नजदीक से देखते.’ नीतियां बनाने वाले मंत्रियों और अधिकारियों के लिए यह जानना भी जरूरी था कि पहाड़ी क्षेत्रों में लोग खेती से दूर क्यों भाग रहे हैं. उन्हें खेती करने में किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, वे पलायन क्यों कर रहे हैं और क्यों सरकारी स्कूलों में हर साल बच्चे कम हो रहे हैं. मंत्री मौके पर जाकर ही उन कारणों की तलाश कर सकते थे कि राज्य के बजट का सबसे बड़ा हिस्सा पाने वाले सरकारी स्कूलों में बच्चे पढ़ने क्यों नहीं जाते हैं और मोटा वेतन पाने वाले अध्यापक गांवों के स्कूलों में टिकने के लिए क्यों तैयार नहीं हैं. नजदीक जाकर ही नीति-निर्धारकों को पता चल सकता था कि अच्छा कमाने वाला पहाड़ का हर परिवार अपने पुश्तैनी गांवों को छोड़ कर अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार नजदीकी कस्बों से लेकर देहरादून, कोटद्वार, हल्द्वानी और अन्य महानगरों की ओर क्यों भाग रहा है.
जमीन या कहें कि सड़क के रास्ते गैरसैंण जाया जाए तो नीतियों और उनके क्रियान्वयन की असफलताओं की कई कहानियां बिखरी पड़ी मिलती हैं. वहीं सफलता की मिसालें भी दिख जाती हैं जिन्हें राज्य में दोहराया जा सकता है. लेकिन रास्ते हवाई हों तो ऐसा कैसे होगा?  ‘तहलका’ ने दोनों तरह के उदाहरणों को नजदीक से देखा.

सरकार 2014 के लोकसभा चुनावों में पहाड़ी जनता को रिझाना चाहती है. लेकिन जानकार मानते हैं कि अगर जनता की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुईं तो गैरसैंण का यह दांव उल्टा भी पड़ सकता है.   

गैरसैंण जाते हुए कर्णप्रयाग से लगभग 18 किमी दूर चांदपुर गढ़ी के पास मुंह अंधेरे लगभग 500 बकरियों और भेड़ों का झुंड हमारी गाड़ी को रुकने पर मजबूर कर देता है. ये पालसी हैं. पालसी यानी भेड़-बकरियां पालने वाले. सर्दियां शुरू होते ही वे अपने पशुओं के साथ पहाड़ों से उतरकर राज्य के कम ऊंचाई वाले भाबर-तराई के जंगलों की तरफ कूच करते हैं. गाड़ी से उतरने पर हमें लखपत सिंह मिलते हैं. उनके झुंड में करीब 100 भेड़-बकरियां हैं. चमोली में विकासनगर (घाट) के निवासी 35 वर्षीय सिंह से हमें जानकारी मिलती है कि वे ऊन और बकरियां बेच कर सालाना दो लाख रुपये तक कमा लेते हैं. इससे उनके परिवार की गाड़ी ठीक-ठाक तरीके से चल जाती है. अन्य पेशों की तुलना में भेड़पालन से जुड़ी कठिनाइयों के बारे में पूछने पर बताते हैं, ‘सर्दी, गर्मी हो या बरसात, बकरियों और भेड़ों के साथ बाहर तो निकलना ही पड़ता है, परंतु यह काम बड़े शहरों की छोटी नौकरी जैसा बुरा नहीं है.’

सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य में लगभग 16 लाख भेड़-बकरियां हैं. इस हिसाब से यह कम से कम 16 हजार परिवारों को स्व-रोजगार देने वाला व्यवसाय है. ‘तहलका’ ने भेड़पालन के क्षेत्र में सरकार के काम की गहराई से तहकीकात की. पता चला कि 60 से लेकर 80 के दशक के बीच अलग-अलग सरकारों द्वारा भेड़ों की नस्ल सुधारने के लिए पहाड़ी जिलों में 13 केंद्र खोले गए थे. इनमें से अकेले चमोली में चार हैं. अधिकारी इन फार्मों से लखपत सिंह जैसे कई भेड़-पालकों को परंपरागत भेड़ों की नस्ल सुधारने के लिए विदेशी मेढ़ों को देने का दावा करते हैं. लेकिन राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में एक भी नया भेड़-केंद्र नहीं खुला. उल्टा पुराने केंद्रों की हालत खस्ता हो गई. गैरसैंण में विधानसभा भवन की घोषणा के दिन चार में से तीन फार्मों में ही प्रभारी पशु-चिकित्सक तैनात थे. गडगू के भेड़ पालक श्रीधर राणा कहते हैं, ‘विदेशी मेढ़ों से पैदा हुए भेड़ों के बच्चे कुछ ही महीनों में मर जाते हैं. इस समस्या का हल अभी तक पशु चिकित्सक नहीं खोज पाए हैं. वंश वृद्धि के लिए दिए जा रहे इन नाजुक विदेशी मेढ़ों को ही बचाना बहुत मुश्किल का काम है इसलिए लोग देसी मेढ़ों का ही प्रयोग कर रहे हंै.
यानी राज्य बनने से पहले से चल रही नस्ल सुधारने की इस सरकारी योजना का व्यावहारिक लाभ भेड़-पालक नहीं ले पा रहे थे और राज्य बनने के बाद भी इसमें कोई सुधार नहीं हुआ.

गैरसैंण के रास्ते पर ही दोनों ओर और पास के कई गांवों में चाय के बगान हैं. इस क्षेत्र में 1994 से शुरू हुई चाय परियोजना के लिए कई गांवों के किसानों ने अपनी खेती दी. उस समय प्रचार हुआ कि चाय बगान पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने का महत्वपूर्ण आधार बनेंगे. करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद इस क्षेत्र की 145 हेक्टेयर भूमि पर चाय के बगान भी विकसित हो गए. इसके लिए पास के ही गांव भटोली में चाय फैक्टरी लगाई गई थी जहां बनी चाय स्वाद और खुशबू में दार्जिलिंग की ग्रीनटी को टक्कर दे रही थी. अब एक साल से यह फैक्टरी बंद पड़ी है. नतीजा बगानों की पत्तियों को तोड़ कर वहीं फेंका जा रहा है. साल भर में इस फैक्टरी में बनने वाली 30 हजार किलोग्राम चाय बाजार तक नहीं पहुंची. लाखों का नुकसान तो हुआ ही इस पेशे से जुड़े लोगों में भी निराशा फैली. छोटे-से कारणों से बंद इस फैक्टरी को फिर शुरू करने का तरीका खोजने की फुर्सत यहां के विधायक, विभागीय मंत्री और काबिल नौकरशाहों को नहीं है. यही हाल चमोली के मंडल में खुले जड़ी-बूटी शोध संस्थान का है. राज्य बनने से पहले योजनाकार जड़ी-बूटी को भी राज्य की आर्थिकी के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्र मानते हुए बड़े-बड़े आंकड़े पेश करते थे. ब्लाक प्रमुख भगत सिंह बिष्ट कहते हैं, ‘करोड़ों खर्च हो चुके हैं, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं दिखता.’

कैबिनेट बैठक के दिन शांत गैरसैंण क्षेत्र पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था. मंत्रियों से मिलना तो दूर बैरियरों के कारण लोगों की आवाजाही भी बंद हो गई

थोड़ा और आगे जाने पर दिवाली खाल से गैरसैंण दिखता है. सालों पहले यहीं पास के भलारीसैंण में गौ-वंश सुधार फार्म खोला गया था. राज्य बनने के बाद यहां सुधार होना तो दूर पशुओं की संख्या और कम हो गई है. जिस उद्देश्य से यह केंद्र खोला गया था उसे पूरा करना तो दूर, इस केंद्र को अब विभाग बोझ समझता है. इसी तरह पशुओं के वीर्य को संरक्षित रखने के लिए डेनमार्क की मदद से श्रीनगर  में बनी जलीय नाइट्रोजन इकाई सालों से बंद पड़ी है. किसी मंत्री या राजनेता ने आजतक इसकी कोई सुध नहीं ली. लेकिन राज्य के पशुपालन विभाग में ही सफलता की अनूठी मिसाल भी है. ‘उत्तराखंड लाइव स्टाक डेवलपमेंट बोर्ड’ ने राज्य में कई प्रेरणादायक सफल कार्य शुरू किए हैं. बोर्ड के डॉक्टरों ने देश में पहली बार पशुओं में भ्रूण प्रत्यारोपण की तकनीक विकसित की है. विदेशों से सांड मंगाना अत्यधिक महंगा पड़ता है. इसलिए विदेशों से पशुओं के भ्रूण मंगा कर उन्हें स्थानीय पशुओं में प्रत्यारोपित करके अच्छी नस्ल के पशु तैयार किए जाते हैं और फिर बोर्ड उनके वीर्य को देश भर में बेचता है. बोर्ड हर साल दुधारू पशुओं के 20 लाख डोज वीर्य तैयार कर रहा है. बोर्ड केरल, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित देश के दर्जन भर राज्यों को प्रशिक्षण दे चुका है और आधा दर्जन अन्य राज्य कतार में हैं. इस क्षेत्र में राज्य की विशेषज्ञता को देख कर नेशनल डेरी प्रोजेक्ट में राज्य को विशेष जिम्मेदारी दी जा रही है. देहरादून में कालसी स्थित बोर्ड का फार्म भ्रूण प्रत्यारोपण विधि के जरिए देश में लाल सिंधी गायों की नस्ल को संरक्षित करने और बढ़ाने का एकमात्र केंद्र है.

योजनाकारों की कोशिश है कि देश की अर्थव्यवस्था को गांवों की तरफ मोड़ा जाए. लेकिन  उत्तराखंड में गांवों से संबंधित विभागों उद्यान, कृषि, पशुपालन और मत्स्य पालन विभाग का बजट और विभागों की तुलना में गौण है. इन्हीं विभागों से जुड़े काम पहाड़ों में रोजगार के सबसे बड़े साधन थे. राज्य सरकार के ही एक सचिव बताते हैं, ‘केंद्रीय योजना आयोग की बैठक में नीति-निर्माता इस पहाड़ी राज्य में बुनियादी क्षेत्रों की लिए योजना के लिए धन देने के लिए आतुर दिखते हैं, लेकिन नौकरशाह सड़क और सिंचाई जैसी दुधारू योजनाओं को ही अपनी प्राथमिकताओं में रखते हैं. हर नयी सरकार के बनते समय मंत्री भी इन्हीं दो विभागों को पाने के लिए लड़ते हैं.’

उत्तराखंड राज्य निर्माण के समय पर्यटन को यहां की आर्थिकी के लिए सबसे संभावित संबल माना गया था. राज्य बनने के बाद देहरादून से लेकर बद्रीनाथ तक सरकारों ने एक भी नयी पर्यटक इकाई नहीं बनाई. लेकिन लोग अपने प्रयासों से बहुत कुछ कर रहे हैं. गैरसैंण से वापसी में गौचर और रुद्रप्रयाग के बीच शिवनंदी में अलकनंदा नदी के पास एक छोटा रिजार्ट दिखता है. इसे पहाड़ी घरों का एक समूह कहें तो बेहतर होगा. दिल्ली में नांगलोई गांव के निवासी शलभ गहलौत और उनकी इजरायली पत्नी एलिसा मिलर इसे चलाती हैं. इन भवनों में अच्छे टॉयलेट के अलावा सब कुछ पुराना और परंपरागत है. शलभ बताते हैं कि परंपरागत भवन शैली में और स्थानीय सामग्री से बने घर सस्ते और परिस्थितियों के अनुकूल हैं. वे स्थानीय बच्चों को मुफ्त कयाकिंग भी सिखाते हैं. इन बच्चों के बीच उन्हें भविष्य के ओलंपिक पदक विजेता की तलाश है. उन्होंने पानी और कूड़े के निस्तारण के लिए सस्ती और स्थानीय विधियां विकसित की हैं ताकि कचरा पास ही बहती अलकनंदा नदी में न मिले. पर्यटन, खेल, ग्राम्य विकास और जैविक कूड़े के निस्तारण का यह अनूठा मॉडल स्थानीय युवकों को पहाड़ में रहकर ही अच्छा रोजगार पैदा करने की प्रेरणा दे सकता है. शलभ की तरह कई युवा अपने दम पर सफलता की कहानियां दोहरा रहे हैं. लेकिन नेताओं के पास इन्हें देखने का वक्त नहीं है.

कैबिनेट बैठक के दिन शांत गैरसैंण क्षेत्र पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था. मंत्रियों से मिलना तो दूर बैरियरों के कारण लोगों की आवाजाही भी बंद हो गई. हवाई मार्ग से आए मंत्रियों और नौकरशाहों के पास अपने विभाग की समस्याओं को सुनने और समझने के लिए समय नहीं था. कैबिनेट बैठक के समय जनता को उलझाए रखने के लिए पास में लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों का कार्यक्रम रखा गया था.
आम जनता गैरसैंण में विधानसभा बनाए जाने के फैसले को मुख्यमंत्री की ही तरह सकारात्मक पहल के रूप में ले रही है. हालांकि इस निर्णय के पीछे राजनीतिक कारण भी हैं. सूत्र बताते हैं कि इसके पीछे क्षेत्रीय सांसद सतपाल महाराज की जिद थी. विधायकों की संख्या के लिहाज से राज्य में उनका गुट फिलहाल सबसे प्रभावशाली है.

ठोस आयोजन, खोखले दावे

किसी राज्य में निवेश की बात हो और वहां गुजरात कनेक्‍शन न निकले यह हो नहीं सकता. ज्यादातर मामलों में ये कनेक्‍शन बहुत सकारात्मक होते हैं यानी गुजरात में हो रहे निवेश से सबक सीखने वाले पर कभी-कभी इनमें बहुत विचित्रता होती है. ऐसा ही कुछ विचित्रता इसी नवंबर महीने की दो तारीख को रायपुर से 22 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ की नई राजधानी में इन्वेस्टर्स मीट के आयोजन के दौरान देखने को मिली. यहां गुजरात कनेक्‍शन बस ये था कि वहां के  कुशल ठेकेदारों ने ही यह पंडाल तैयार किया था. बाकी जहां तक गुजरात से सबक सीखने की बात है तो अपने इस पहले ही इन्वेस्टर मीट में छत्तीसगढ़ इस मामले फिसड्डी साबित होता हुआ दिखा.  बाहरी का तो छोड़िए छत्तीसगढ़ में स्थानीय उद्योगपति भी अपने उद्योगों के सामने उपजी विषम परिस्थितियों के चलते बेबस महसूस कर रहे हैं. मिनी स्टील प्लांट एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक सुराना कहते हैं, ‘उद्योगों को फलने-फूलने और बेहतर वातावरण देने के मामले में सरकार का रवैया कभी सकारात्मक नहीं रहा. अब यह लगता है कि हमने छत्तीसगढ़ में उद्योगों को लगाकर भारी गलती कर दी है.’ कुछ इसी तरह के विचार भिलाई इंसलरी एसोसिएशन के अध्यक्ष केके झा के भी है. वे कहते हैं, ‘राज्य की स्थापना के 12 साल पूरे होने के बाद भी सरकार उद्योग धंधों के विकास के लिए सजग नहीं है. यही एक वजह है कि ज्यादातर उद्योग या तो बीमार हैं या फिर उन्होंने दम तोड़ दिया है.’ स्पंज आयरन एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल नचरानी तहलका को बताते हैं कि स्पंज आयरन संयंत्रों को कच्चा माल हासिल करने के लिए भारी मशक्कत का सामना करना पड़ रहा है सो प्रदेश के एक सौ पांच स्पंज आयरन संयंत्रों में से पच्चीस तो पूरी तरह से बंद हो गए हैं.

अब से कुछ समय पहले जब दुर्ग जिले के कुम्हारी इलाके में मौजूद धरमसिंह केमिकल फैक्ट्री में ताला लगा था तो दो हजार से ज्यादा मजदूर सड़क पर आ गए थे. कुछ इसी तरह की स्थिति रायगढ़ जिले में मौजूद मोहन जूट मिल के बंद होने के बाद उपजी थी. हकीकत यह है कि प्रदेश के वे उद्योग जिन पर सरकारी होने का ठप्पा लगा रहा उन्हें भी बचाने की दिशा में कभी कोई  कोशिश नहीं दिखी है. अपने सूती कपड़ों और विशेषकर मच्छरदानियों के निर्माण के लिए मशहूर बंगाल नागपुर काटन मिल ने भी तब दम तोड़ा जब छत्तीसगढ़ नया राज्य बनने की ओर अग्रसर था और रमन सिंह केंद्र में उद्योग  राज्यमंत्री थे.

इधर चुनावी घड़ी से ठीक एक साल पहले जब राज्य में इन्वेस्टर्स मीट  का आयोजन हुआ तो पहले-पहल यह माना गया कि छत्तीसगढ़ ने कोई ऊंची छलांग लगा दी है, लेकिन पुराने दावों की जमीनी सच्चाई को खंगालने पर संशय के कुहासों को कायम होने में भी देर नहीं लगी. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2009 में जब प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह पूरे लाव-लश्कर के साथ दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर गए थे तब यह दावा सामने आया था कि कोयले पर आधारित गैस के उत्पादन और प्लेटनियम धातुओं के संयंत्रों के विकास के लिए दक्षिण अफ्रीका और छत्तीसगढ़ के बीच व्यापार-वाणिज्य के नजरिए से एक नए संबंधों की शुरुआत होगी. वर्ष 2011 में जब मुख्यमंत्री ने अमेरिका की यात्रा की तब भी अप्रवासी भारतीयों को छत्तीसगढ़ में निवेश करने की दावत दी गई थी लेकिन किसी एक निवेशक ने रुचि का प्रदर्शन नहीं किया. अपनी इस नाकामी के बावजूद जब सरकार ने पूरे तामझाम के साथ इंन्वेस्टर्स मीट के ग्लोबल होने का दावा ठोंका तो यही समझा गया कि शायद इस बार दावे महज दावे नहीं रहेंगे, लेकिन मीट में अर्जैटीना, कोस्टारिका, त्रिनिडाड- टुबेगो, नाइजीरिया, तजाकिस्तान सहित कुछ अन्य देशों के राजदूतों के शामिल होने के अलावा किसी भी विदेशी निवेशक ने पहल करने की जहमत नहीं उठाई. मीट में टाटा, बिडला, अंबानी जैसे नामचीन औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधि भी नजर नहीं आए. 
समारोह में आए हुए उधोगपतियों के साथ मंच पर राज्य के मुखिया
सम्मेलन में सरकार यह दावा करते हुए दिखी कि कुल 272 उद्योगपतियों ने 1.24 करोड़ रुपए के पूंजी निवेश करने को लेकर अपनी रुचि प्रदर्शित की है लेकिन राज्य निवेश बोर्ड में पदस्थ एक अफसर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि एमओयू की वास्तविक संख्या 140 से ज्यादा नहीं है और संभावित पूंजी का निवेश भी 67999 करोड़ ही है. मजे की बात यह है कि सम्मेलन में भाजपा अध्यक्ष नितिन गड़करी के व्यापारिक मित्र अजय संचेती की कंपनी एसएमएस इन्फ्रास्ट्राकचर ने भी शहरी क्षेत्रों में शापिंग माल आदि तैयार करने के लिए एमओयू करने की जुगत भिड़ा ली थी लेकिन भटगांव कोल ब्लाक में उपजे विवाद के बाद एक और नए विवाद को जन्म देने से बचने के लिए कंपनी के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. मुख्य तौर पर मीट में शहरी अधोसंरचना और स्पोटर्स सिटी के निर्माण के लिए आम्रपाली समूह, व्यावसायिक परिसरों और शापिंग मालों के निर्माण के लिए एबियंस ग्रुप, सोलर एनर्जी के क्षेत्र में अजूर पावर, ऊर्जा के क्षेत्र में रायगढ़ इलाके में पहले से ही 14 सौ करोड़ रुपए का निवेश कर चुकी वीसा पावर कंपनी ने विस्तार योजना के लिए रुचि जाहिर की.  छत्तीसगढ़ में लंबे समय से कार्यरत अनोपचंद तिलोकचंद ग्रुप ने ज्वेलरी पार्क और एनटीपीसी ने  रायगढ़ में कालेज स्थापना की मंशा प्रकट की तो रावघाट  परियोजना में नक्सली खौफ का ग्रहण लगने के बाद स्टील अथारिटी आफ इंडिया ने कवर्धा स्थित कोल खदानों के लिए एमओयू किया है. इस एमओयू के बदले सेल ने यह आश्वस्त किया है कि वह राजनांदगांव में मेडिकल और मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के गृहनगर कवर्धा में एक इंजीनियरिंग कालेज खोलेगा. मीट में ताप विद्युत परियोजनाओं की बाढ़ के बावजूद जीएमआर समूह ने तेरह सौ मेगावाट के विद्युत संयंत्र को लगाने में सहमति जताई है. जबकि गेल इंडिया लिमिटेड ने छत्तीसगढ़ में भूमिगत गैस पाइप लाइन बिछाए जाने को लेकर अनुबंध किया है.

मीट में सहारा ग्रुप की ओर से सीमांतो राय शामिल हुए लेकिन उनकी रुचि डेयरी उद्योग की स्थापना के लिए महज पूछताछ तक ही सीमित रही. जबकि एसईसीएल, रेलवे की सार्वजनिक उपक्रम इकाई इरकान और राज्य शासन के बीच प्रदेश में रेल कारीडोर की स्थापना के लिए दो महीने पहले नई दिल्ली में किए गए अनुबंध को भी मीट में किया एमओयू बताए जाने से यह सवाल भी उठा कि सरकार आंकड़ों की बाजीगरी में लगी हुई है. प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता राजेश बिस्सा कहते हैं, ‘रमन सरकार ने गत आठ साल से केवल अपनी पीठ थपथपाने के उपक्रम में ही जुटी है. जबकि हकीकत यह है कि सरकार ने कोर सेक्टर में कार्यरत 142 कंपनियों से अनुबंध किया था जिसमें से 21 एमओयू सीधे तौर पर निरस्त हो चुके हैं. 41 उद्योग ऐसे हैं जो भूमि चयन की प्रकिया के बाद भी काम की शुरुआत नहीं कर पाए है.’ बिस्सा के इन आरोपों में इसलिए भी दम नजर आता है क्योंकि देश के सर्वाधिक चर्चित उद्योग टाटा ने वर्ष 2005 में बस्तर के लोहंडीगुडा क्षेत्र में 32 लाख टन वार्षिक क्षमता के स्टील प्लांट की स्थापना को लेकर कवायद प्रांरभ की थी. प्लांट की स्थापना के लिए सीएसआईडीसी ने जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई प्रारंभ तो की लेकिन सात सालों के बाद भी टाटा को जमीन का स्वामित्व नहीं मिल पाया है. इधर चुनावी वर्ष में किए गए एमओयू के धरातल में नजर आने को लेकर भी सुगबुगाहट शुरू हो गई है. कहा जा रहा है कि यदि किसी निवेशक ने दिसंबर-जनवरी में  प्रपोजल तैयार किया तो वह केंद्र की ओर से फरवरी में प्रस्तुत होने वाले बजट और क्लोजिंग डेट ( मार्च ) के बाद ही वह सरकार के समक्ष आएगा. इस तिथि के बाद चुनावी माहौल नजर आने लगेगा और फिर आचार संहिता लग जाएगी. स्थानीय उद्योगपतियों का मानना है कि चुनावी वातावरण उद्योग धंधों के विकास में सहायक होने के बजाए सिरदर्द साबित होते हैं. इस माहौल में राजनीतिक अस्थिरता कायम होती है और निवेशक निवेश करने से घबराते हैं. कई सारे किंतु और परंतु के बीच राजनीतिक एवं प्रशासनिक हल्कों में ग्लोबल मीट को चुनावी चंदे के योजनाबद्ध आयोजन के तौर पर भी देखा जा रहा है. वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं भाजपा के पूर्व विधायक वीरेंद्र पांडे आरोप लगाते हुए कहते हैं कि मीट के बहाने सरकार ने विधानसभा चुनाव के खर्चों के लिए सुनिश्चित तरीके से अग्रिम व्यवस्था को बेहद चालाकी के साथ अंजाम दे डाला है.

बिजली-पानी और सड़क की हकीकत
उद्योग धंधों के विकास के लिए बिजली-पानी और सड़क की बेहतर स्थिति का होना अनिवार्य माना जाता है. छत्तीसगढ़ में इन बुनियादी आवश्यकताओं की स्थिति कैसी है, एक नजर-

जीरो पावर कट का सच
मीट में सरकार ने यह दावा किया कि बिजली उत्पादन के मामले में छत्तीसगढ़ जीरो पावर कट राज्य है. जबकि वास्तविकता यह है कि छत्तीसगढ़ के कुछ शहरी हिस्सों को छोड़ दिया जाए तो ग्रामीण हिस्सों में बिजली की कमी बनी ही रहती है. गत वर्ष जब भिलाई इस्पात संयंत्र, बालको और जिंदल की विद्युत संयंत्र इकाईयों में खराबी आई थी तब प्रदेश के एक बड़ी आबादी को बिजली के संकट से जूझना पड़ा था. कमोबेश यह स्थिति वर्ष 2012 में भी तब कायम हुई थी कोरबा स्थित बिजलीघरों  का उत्पादन ठप्प हुआ था.प्रदेश में इस समय पावर कंपनी की ओर से निर्मित की बिजली 1924.70 मेगावाट ही है. यदि बिजली बोर्ड को नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन से 805, भूसे से बिजली उत्पादन करने वाली 24 उत्पादक कंपनियों से 121 एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों से 355 मेगावाट बिजली न मिले तो प्रदेश में स्थायी तौर पर बिजली का संकट कायम हो ही सकता है. प्रदेश में इस समय उच्चदाब के 1805 एवं निम्नदाब के 27 हजार 211 औद्योगिक उपभोक्ता है. नाम न छापने की शर्त पर एक उदयोगपति बताते हैं कि औद्योगिक इलाकों में बिजली व्यवस्था में सुधार के नाम पर सप्ताह में एक दिन और प्रतिदिन शाम छह से नौ बजे ( पिक आवर्स ) में बिजली की कटौती की ही जाती है.’ औद्योगिक उपभोक्ताओं को बिजली देने के मामले में बिजली बोर्ड का रवैया भी काफी विसंगतिपूर्ण है. बिजली बोर्ड 24 घंटे संयंत्र चलाने की दशा में औद्योगिक उपभोक्ताओं से चार रुपए पचास पैसे प्रति यूनिट के हिसाब से चार्ज वसूलता है जबकि 24 घंटे से कम अवधि पर संयंत्र चलाने पर उपभोक्ताओं को पांच रुपए रुपए दस पैसे देने होते हैं. इतना ही नहीं इन उपभोक्ताओं को प्रति किलोवाट 350 रुपए का डिमांड चार्ज भी देना होता है.

पानी के लिए मारा-मारी
प्रदेश में पानी की मौजूदगी भी आशाजनक नहीं है. कुछ समय पहले जब केंद्रीय भूजल बोर्ड की क्षेत्रीय इकाई ने छत्तीसगढ़ में पानी की उपलब्धता को लेकर सर्वे किया था तब बिलासपुर में बिल्हा, धमतरी में कुरूद और नगरी, दुर्ग जिले में बालोद, बेमेतरा, धमधा, गुरूर, पाटन- साजा, कवर्धा में पंडरिया, रायगढ़ में बरमकेला और राजनांदगांव इलाके में भू-जल स्त्रोतों की स्थिति काफी खतरनाक पाया था. प्रदेश में सतही जल की स्थिति भी कागजों में ही बेहतर दिखाई देती है. वाटर रिसोर्स सेंटर में जो डाटा मौजूद है उस पर यकीन करें तो फिलहाल छत्तीसगढ़ में 62 हजार 844 मिलियन घनमीटर पानी उपलब्ध है. इस पानी में से 28 सौ मिलियन घनमीटर पानी 175 उद्योगों को पहले ही बेचा जा चुका है. कृषि के लिए 13 हजार 456 मिलियन घनमीटर पानी सुरक्षित रखने के बावजूद घरेलू व अन्य उपयोगों के लिए हर साल गांव व कस्बों में मारा-मारी देखने को मिलती है. नदी घाटी मोर्चा के संयोजक गौतम बंदोपाध्याय के मुताबिक प्रदेश की सभी 23 प्रबंधन जरूरत से ज्यादा कमजोर है फलस्वरूप नदियों में जल भराव की स्थिति कमजोर हुई है. उरला इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष विवेक रंजन गुप्ता कहते हैं, सरकार सुविधाजनक ढंग से पानी देने का दावा तो करती है लेकिन अकेले उरला में स्थापित उद्योगों को कड़ी मशक्कत के बाद एक एमएलटी पानी मिल पाता है. गर्मी के दिनों में उद्योग चलाने के लिए टैकरों से पानी मंगवाना पड़ता है.

सड़कों का बेड़ा गर्क
राज्य में सड़कों की हालत बेहद खस्ता है. हकीकत यह है कि सड़कों को काटकर किसी भी रूप में अपने आधार इलाकों में सरकार को दाखिल न होने देने की माओवादी रणनीति की काट अब तक ढूंढी ही नहीं जा सकी है.  वैसे तो छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की तूती हर जगह बोलती है ( शायद यही एक वजह है कि इन्वेस्टर्स मीट में भी नक्सली हमले के मद्देनजर  इंस्वेस्टर्स को सशस्त्र सुरक्षा गार्ड की सुविधा दी गई थी.)  लेकिन सरगुजा, जशपुर, बस्तर और राजनांदगांव जिले जहां उनकी अपनी सत्ता पूरी तरह से कायम है वहां के  अंदरूनी इलाकों की सड़कें बेहद जर्जर हैं. हालात यह है कि सरकार को अब भी बस्तर के दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर और कांकेर जैसे जिलों में तैनात पुलिसकर्मियों के लिए हेलिकाफ्टर के जरिए राशन भेजना पड़ता है. प्रदेश के 14 औदयोगिक क्षेत्रों के सड़कों की हालत इतनी ज्यादा खस्ता है कि इनके सुधार के लिए उद्योगपति समय-समय पर धरना-प्रदर्शन भी करते रहे हैं. इन्वेस्टर्स मीट में मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह को भी यह मानना पड़ा है कि औद्योगिक इलाकों में सड़कों की दशा वाकई बेहद खराब है और इसके लिए सौ करोड़ की लागत से कांक्रीट सड़कों के जाल को फैलाने की जरूरत है.

रैली की राजनीति

चार नवंबर को पटना में हुई अधिकार रैली संकेत देती है कि बिहारी उपराष्ट्रीयता के जरिये राज्य को विशेष राज्य दर्जा दिलवाने का एकरस राग गानेवाले नीतीश कुमार 2014 के लोकसभा चुनाव तक राष्ट्रीय राजनीति में छलांग की आकांक्षा परवान चढ़ाना चाहते हैं. निराला की रिपोर्ट.

अभियानी यात्राओं के लिए मशहूर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ड्रीम एजेंडे यानी बिहार को विशेष राज्य दर्जा अभियान का राजनीतिक फलाफल मापने के लिए जदयू की ओर से आयोजित अधिकार रैली चार नवंबर को संपन्न हो गयी. पटना के गांधी मैदान में कई वर्षों बाद इतनी बड़ी रैली हुई. रैली की भीड़ को करीब दो लाख बताया गया. लालू प्रसाद के जमाने में गरीब रैला, लाठी रैली से भी इस रैली और रैली में आयी भीड़ की तुलना करने में कुछ लोग लगे हुए हैं. हालांकि यह तुलना निराधारसी है. नीतीश और जदयू की इस रैली की तुलना पूर्व की किसी राजनीतिक रैली से करना कुछ मायनों में उचित नहीं लगता. दिखावे या राजनीतिक चाल के तहत ही सही, बिहार के विकास को केंद्र में रखकर यह रैली आयोजित की गयी थी. बेशक, कई कमियां रहीं इस रैली में. फिर भी नीतीश की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और 2014 में होनेवाले लोकसभा की चुनावी तैयारी को दिखाने वाली यह रैली एक मायने में खास रही और बिहार की राजनीति में एक नयी शुरुआत की तरह भी. बिहार की राजनीति में विशेष राज्य दर्जे का अभियान उपराष्ट्रीयता और बिहारी अस्मिता जैसे जटिल शब्दों और आंकड़ों के मकड़जाल के जरिये चल रहा है. इस नीरस और एकरस विषय पर सभासंगोष्ठी या सम्मेलन तक की गुजाइश तो बनती है लेकिन उसी विषय पर रैली कर लगभग दो लाख लोगों को पटना जुटा लेना इस रैली की सफलता का एक बड़ा मानक रहा, जो आगे भी बना रहेगा. हालिया दिनों में जनता के विरोध और अपनों के घातप्रतिघात से परेशान चल रहे नीतीश इस रैली से अपनी क्षमता को कितना आंक पाये, यह तो वही जानेंगे लेकिन इस रैली से कई संकेत मिले हैं, जिससे उनकी, उनकी पार्टी की और बहुत हद तक बिहार की राजनीति के आगामी भविष्य की दिशा भी दिखती है.

 रैली के दौरान ही प्रदेश के कोनेकोने से आयी राजनीतिक पंडितों की फौज इसके विश्लेषण में भी लगी हुई थी. कुछ का मानना था कि अधिकार रैली में इतनी भीड़ तो हुई लेकिन जितने लोग मैदान में थे, उतने ही पटना शहर में घूम रहे थे. यानी यह भीड़ अधिकार रैली की बजाय सैरसपाटे के लिए आयी थी. विरोधी विश्लेषकों के इस विश्लेषण का जवाब समर्थक प्रेक्षक यह कहते हुए देते रहे कि ऐसा तो हर रैली में होता है और यह परंपरा तो लालू प्रसाद ने ही शुरू की थी. उनकी रैली में तो कंप्लीट टूर इंटरटेनमेंट पैकेज जैसा होता था. दिन भर की घुमाई के बाद रात में लौंडा नाच, आर्केस्ट्रा आदि का भी इंतजाम होता था, ताकि लोग टिके रहें. विरोधी विश्लेषकों का मत रहा कि रैली में भीड़ तो थी लेकिन उसमें जोश नहीं दिखा, जिंदाबादजिंदाबाद जमकर नहीं हुआ, इससे  लगता है कि यह प्रायोजित भीड़ थी, लोगों को किसी तरह यहां तक पहुंचाया गया था. समर्थक प्रेक्षकों का यह मानना था कि यह नीतीश के अनुशासन का असर था और उन्होंने फरमान भी सुना रखा था कि भीड़ हुल्लड़बाजी या होहंगामा नहीं करेगी.

कुछ का मानना था कि अधिकार रैली में इतनी भीड़ तो हुई लेकिन जितने लोग मैदान में थे, उतने ही पटना शहर में घूम रहे थे. यानी यह भीड़ अधिकार रैली की बजाय सैर-सपाटे के लिए आयी थी.इसी बीच कुछ राजनीतिक पंडित मैदान में घूमघूमकर चेहरेमोहरे और वेशभूषा से यह आकलन करने में लगे हुए थे कि इस भीड़ में सवर्णों और मध्यवर्गीय जमात की कितनी उपस्थिति है और इस पैमाने पर इन दोनों वर्गों की उपस्थिति बेहद कम पायी गयी. कुछ दाढ़ी बढ़ाये और टोपी लगाये लोगों को देख अल्पसंख्यकों की भागीदारी का आकलन कर रहे थे. रैली में इनकी उपस्थिति भी अपेक्षाकृत बेहद कम पायी गयी. लगे हाथ मैदान में ही राजनीतिक पंडितों ने आकलन कर दिया कि इसका मतलब यह हुआ कि अल्पसंख्यक और सवर्ण नाराज चल रहे हैं. हालांकि ठीक इसके उलट रैली में महिलाओं, अतिपिछड़ों आदि की भारी भीड़ को देखकर यह भी कहा गया कि नीतीश खुश हो सकते हैं, क्योंकि उनका कोर समूह यहां पहुंचा है. कुछ विरोधी विश्लेषकों ने कहा कि नीतीश कुमार ने इस रैली में साबित किया कि उनके लिए बिहार में पिछड़ों को उभार देनेवाले और सामाजिक न्याय के मसीहा कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता भी महत्वपूर्ण नहीं हैं और ही वे जॉर्ज फर्नांडिस की परछाई तक अब के जदयू पर पड़ने देना चाहते हैं. इसीलिए तो राजधानी में टंगे बैनरों में तमाम दबंग किस्म के जदयू नेता छाये रहे, सभी के साथ नीतीश चमकते रहे लेकिन कहीं कर्पूरी या जॉर्ज जैसे नेता भी नहीं दिखे. विरोधी विश्लेषकों का कहना था कि नीतीश नहीं चाहते कि जदयू के अस्तित्व और उसकी मजबूती या सामजिक न्याय और पिछड़ों के उभार के साथ किसी और नेता का नाम भूतकाल से भी जुटे. इस विश्लेषण का समर्थक विश्लेषकों के पास ठोस जवाब नहीं था. इसी तरह के द्वंद्वदुविधा भरे आकलन और तर्कवितर्क रैली के दौरान और रैली संपन्न होने के तुरंत बाद होते रहे.

 खैर! मैदान में यह आकलन भी चलता रहा और रैली के मंच से भाषण भी चल रहा था. रैली को पूर्व मुख्यमंत्री रामसुंदर दास, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव से लेकर जदयू के करीब तीन दर्जन छोटेबड़े नेताओं ने संबोधित किया. स्वाभाविक तौर पर मुख्य आकर्षण के केंद्र सबसे आखिरी में भाषण देनेवाले नीतीश कुमार ही थे. अपने करीब 40 मिनट के भाषण में नीतीश एकरस सा भाषण ही देते रहे. विकास के तकनीकी पेंच और आत्मप्रशंसा में उलझा नीतीश का भाषण वह करिश्मा एकाध बार ही दिखा सका, जब जिंदाबाद के नारे लगे, तालियों की गड़गड़ाहट हुई. लेकिन नीतीश कुमार ने अधिकार रैली के अपने भाषण को बेहद ही चतुरचालाक नेता की तरह नये पासे की तरह इस्तेमाल किया. कुछ बुद्धिजीवियों की सलाह पर कल तक बिहारी उपराष्ट्रीयता को जगाने और सिर्फ बिहार को विशेष राज्य दर्जा का मांग करनेवाले नीतीश ने इसे विस्तार दिया. उन्होंने कहा कि उन सभी राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए, जो विकास के पैमाने पर राष्ट्रीय औसत से कम हैं.

कुछ जानकारों का आकलन है कि नीतीश द्वारा बारबार दुहराये गये इस वाक्य को लोकसभा चुनाव के पहले पिछड़े राज्यों के बीच एक कॉमन एजेंडे को स्थापित कर उसका प्रतिनिधि नेता बन जाने की ख्वाहिश के रूप में देखा जा सकता है. नीतीश ने राष्ट्रीय दलों के मुकाबले क्षेत्रीय दलों में नेताओं की बेहतर स्थिति को बताने के लिए मंच पर लगी कुर्सियों और उन पर विराजमान नेताओं का हवाला देते हुए कहा कि हमारे यहां कोई बड़ाछोटा नहीं होता, सभी बराबर होते हैं. यह वे कांग्रेस के लिए कह रहे थे या भाजपा के लिए या दोनों के लिए, बात समझ में नहीं आयी लेकिन आखिर में उन्होंने अपने 2014 के लोकसभा चुनाव में अधिक से अधिक सीटें दिलवाने की अपील की तो यह बात साफ हुई कि कुर्सियों और उन पर बैठे नेताओं के जरिये नीतीश दोनों ही बड़े राष्ट्रीय दलों की आलाकमानी परंपरा पर सांकेतिक तौर पर बोल रहे थे.

इसके बाद चूंकि वे तुरंत दूसरी बातों पर आते हुए कांग्रेस पर निशाना साधने में ऊर्जा लगाने लगे तो यह स्पष्ट नहीं हो सका कि वे क्या कहना चाह रहे थे. क्या राज्य बंटवारे के साथ ही उसी समय विशेष सहायता नहीं मिलने के लिए भी भाजपा को दोषी ठहराना चाह रहे थे!

रैली में नीतीश तो फिर भी अपने विरोधियों या सहयोगी भाजपा पर कुछ भी बोलने से बचे रहे, लेकिन उनके ठीक पहले बोलने वाले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने बारबार कहा कि वे राज्यों के बंटवारे के विरोधी थे, आखिरी समय तक विरोध करते रहे लेकिन राज्य बंट गया, जिससे बिहार का भी नुकसान हुआ और झारखंड भी पसर गया है. यह कहकर शरद यादव सीधे तौर पर अपने सहयोगी भाजपा को दोष दे रहे थे क्योंकि केंद्र में उसी की सरकार रहते राज्य का बंटवारा हुआ था. शरद यादव यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी की भी चर्चा की. आधेअधूरे वाक्यों में उन्होंने समेटा कि जब राज्य बंटा तो उप प्रधानमंत्री आडवाणी थे और उन्होंने बिहार को विशेष सहायता का भरोसा दिलाया था. इसके बाद चूंकि वे तुरंत दूसरी बातों पर आते हुए कांग्रेस पर निशाना साधने में ऊर्जा लगाने लगे तो यह स्पष्ट नहीं हो सका कि वे क्या कहना चाह रहे थे. क्या राज्य बंटवारे के साथ ही उसी समय विशेष सहायता नहीं मिलने के लिए भी भाजपा को दोषी ठहराना चाह रहे थे!

संयोग से जिस दिन यानि चार नवंबर को जदयू का बहुप्रतिक्षित और बहुचर्चित आयोजन पटना के गांधी मैदान में चल रहा था, और जिसमें जदयू बिहार के विकास में गलती से एक बार सहयोगी भाजपा का नाम तक लेना उचित नहीं समझ रही थी, उसी रोज पटना में भाजपा का भी एक अहम आयोजन था. भाजपा के वरिष्ठ नेता कैलाशपति मिश्र की मृत्यु के बाद देश के कोनेकोने से भाजपा के बड़े नेता पटना पहुंचे हुए थे. आडवाणी, नरेंद्र मोदी, अरूण जेटली, अर्जुन मुंडा से लेकर और भी कई नेता. जदयू के शरद या नीतीश तो सांकेतिक तौर पर  पटना के गांधी मैदान में भाजपा पर निशाना साधने की कोशिश कर रहे थे लेकिन भाजपा के कुछ नेता अपने बुजुर्ग नेता को श्रद्धाजंलि देने के अवसर पर भी नीतीश कुमार को गुस्सा दिलानेवाली राजनीति साधने में लगे हुए थे. नरेंद्र मोदी अपने राजनीतिक मार्गदर्शक कैलाशपति मिश्र को श्रद्धांजलि देने आये, भाजपा के कुछ नेताओं ने देश का पीएम कैसा हो, नरेंद्र मोदी जैसा हो का नारा लगवा दिया. जाहिर सी बात है, जिस मीडिया को उस रोज नीतीश पर ही केंद्रित रहना था, उसका भटकाव उधर भी हुआ. मोदी भी हीरो बनकर चले गए.

खैर! भाजपा और जदयू के बीच तू डालडाल, मैं पातपात का रिश्ता चलता रहा है, आगे चलता रहेगा. द्विध्रुवीय राजनीति करनेवाले सहयोगी के तौर पर हैं तो अपनेअपने अस्तित्व को मजबूत करने के लिए ऐसी ओछी हरकत या चतुर चालबाजी करते ही रहेंगे. नीतीश ने इसी रैली में अगले साल मार्च में दिल्ली मार्च की घोषणा कर दी है. तय है, नीतीश की ऊर्जा फिर से दिल्ली मार्च की तैयारी में लगेगी. बिहार के लिए जिस विशेष राज्य दर्जे के मसले को विकास के तमाम एजेंडों में एक एजेंडे के तौर पर होना चाहिए था, उसे एकमात्र एजेंडा बनाकर बाल हठ ठाने हुए नीतीश लोकसभा चुनाव के पहले तक इस एजेंडे को राज्य से लेकर केंद्रीय राजनीति तक में भुना लेने की कसरत में लगे हुए हैं. राज्य में यह अभियान कितना असरदार साबित होगा वह पटना की अधिकार रैली से आंक लेना जल्दबाजी होगी. नीतीश के इस आह्वान पर कि जो भी विकास की रेस में राष्ट्रीय औसत से नीचे हैं, वैसे हर राज्य को विशेष दर्जा मिलना चाहिए, कितने राज्यों के मुख्यमंत्री अथवा क्षेत्रीय क्षत्रप साथ देते हैं और नीतीश को इस अभियान का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्वकर्ता मानने को तैयार होते हैं, यह मार्च में दिल्ली में होनेवाली नीतीश की रैली से ही पता चलेगा. फिलहाल परिवर्तन यात्रा के जरिये बिखरे कुनबे को एकजुट करने में लगे लालू प्रसाद भी एक रैली करने का एलान कर चुके हैं. जाहिर सी बात है कि रैली के मामले में लालू प्रसाद खुद को बीस साबित करने की कोशिश में अभी से ही ऊर्जा लगाते रहेंगे. भाजपा तो अप्रैल में हुंकार रैली करने ही वाली है. भाजपा पटना के बाद दिल्ली वाली नीतीश की रैली का इकट्ठे जवाब देने की तैयारी में है. लोकसभा चुनाव भले ही कुछ दूर हो लेकिन बिहार में उसका माहौल बन गया है. तमाम तरह की यात्राओं के बाद रैलियों की राजनीति में ही बिहार के राजनीतिक दल अपनी ऊर्जा लगाने को तैयार हैं.

दर्जे के पीछे

 कुछ बातें थोड़ी पुरानी हैं, कुछ नई. दोनों को मिलाने से जिद, रणनीति, दांवपेंच आदि के घालमेल वाली एक लंबी राजनीतिक कहानी बनती है. साथ में सवालों की लंबी फेहरिस्त भी तैयार होती है. सवालों की बात बाद में, पहले वह कहानी संक्षेप में. 12 साल पहले झारखंड नामक अलग राज्य बन जाने के बाद शेष बचे बिहार के नेता और राजनीतिक दल परेशान हुए कि सब तो झारखंड में गया, बाढ़ और बालू के भरोसे बिहार कैसे चलेगा? सबने शेष बिहार को विशेष राज्य बनाने की मांग पर सहमति जताई, विधानमंडल में प्रस्ताव पारित कर दिया गया. कुछ समय बाद इसके समर्थन में अभियान शुरू हुआ. अभियान का पासा सत्तारूढ़ जदयू की ओर से फेंका गया, भाजपा साथ रही. अचानक चले गए इस दांव का विपक्ष के पास जवाब नहीं था. कुछ ही दिनों बाद जदयू ने इस अभियान में उफान लाने के लिए इसके समर्थन में हस्ताक्षर अभियान की शुरुआत कर दी. भाजपा को झटका लगा, लेकिन गठबंधन की मजबूरी थी तो वह हां में हां मिलाती रही. जदयू ने सवा करोड़ बिहारियों के हस्ताक्षर दिल्ली पहुंचा दिए. इससे बात नहीं बन सकी. इस बीच नीतीश कुमार की देखादेखी अधिकांश जदयू नेताओं ने विशेष राज्य दर्जे पर कुछ वाक्य अच्छी तरह रट लिए. बोलने का पूरा अभ्यास किया कि कैसे हर मर्ज के लिए इसे इकलौते इलाज की तरह पेश करना है. विशेष राज्य दर्जा लेख की रटंत और फिर उसका प्रयोग उस चुटकुले की तर्ज पर होने लगा जिसमें एक बच्चा गाय पर ही निबंध याद कर लेता है और परीक्षा में निबंध किसी भी विषय पर आए वह उसे गाय के दायरे में ले आता है. जैसे कि नदी पर आए तो वह लिखता है कि मेरे गांव किनारे एक नदी बहती है, उसके किनारे अनेक जानवर पानी पीने आते हैं, उनमें कुछ गायें भी आती हैं. गाय बहुत ही सुंदर जानवर है, उसके चार पैर होते हैं, दो सींग…

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ प्रखंड से लेकर राज्य स्तर तक के जदयू नेता इस निबंध को बारंबार रटते रहे. लेख एकरस-सा लगने लगा था कि अचानक नई घोषणा हुई. जदयू की ओर से अधिकार यात्रा निकालने की घोषणा की. एलान हुआ कि नीतीश पूरे राज्य में जाएंगे, लोगों को विशेष राज्य दर्जे के प्रति जागरूक करेंगे और चार नवंबर को पटना के गांधी मैदान में होने वाली अधिकार रैली में भाग लेने का आह्वान भी करेंगे. बतौर मुख्यमंत्री छठी यात्रा के तौर पर शुरू हुई सेवा यात्राको पूरा किए बिना ही नीतीश ने जदयू नेता के रूप में सातवीं यात्रा की शुरुआत अधिकार यात्राके रूप में कर दी.

लेकिन शुरुआत से ही मामला उल्टा पड़ने लगा. नारेबाजी होने लगी. नीतीश को काले झंडे दिखाए जाने लगे. उनके काफिले पर पत्थरबाजी भी हो गई. जूते-चप्पल भी दिखाए जाने लगे. बड़ी फजीहत हुई. रोज-ब-रोज बढ़ते अराजक विरोध को देखते हुए अधिकार यात्रा को जदयू कार्यकर्ता सम्मेलन की शक्ल में बदलना पड़ा. पार्टी नेताओं के बयान आए कि यह तो जदयू कार्यकर्ता सम्मेलन ही था, अधिकार यात्रा की तो बात ही नहीं थी.

कांग्रेस जानती है कि यदि वह नियमों में जोड़-घटाव करके बिहार को यह दर्जा देने की कोशिश भर करेगी तो कई राज्य एक साथ इसके लिए खड़े हो जाएंगे

जदयू और नीतीश की ओर से यात्रा में खेल बिगाड़ने का आरोप पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद पर लगता रहा. लेकिन इस बीच अपनों ने भी रंग को बदरंग करने में कसर नहीं छोड़ी. सहयोगी भाजपा के एक सांसद उदय सिंह ने अधिकार यात्रा के समानांतर वेदना रैली करके राज्य सरकार को अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार कह डाला. हलचल मची. अंदरखाने बात फैली कि यह विशेष राज्य दर्जा अभियान से अलग किए जाने के बाद खार खाए भाजपाइयों की शह पर हुआ. लेकिन कुछ रोज बाद जदयू के भी एक धाकड़ मुसलिम नेता ने वही राग दुहरा दिया. बेमौसमी बारिश करते हुए सीमांचल इलाके से आने वाले तस्लीमुद्दीन ने गर्जना की कि यह सरकार भ्रष्ट, निकम्मी और धोखेबाज है.

तरह-तरह के मोड़ों से गुजरते हुए बिहार को विशेष राज्य दर्जा दिलाने का अभियान पटना के गांधी मैदान में अधिकार रैली के रूप में सामने आ चुका है. अब फिर वही सवाल आता है कि विशेष राज्य दर्जा सच में बिहार को उबारने के लिए इकलौता और जरूरी विकल्प है या महज एक राजनीतिक जाल. उधेड़बुन में फंसे एक नेता की सियासी चाल है या कई किस्म की विफलताओं पर परदा डाले रहने और उनके दुष्परिणाम से बचने के लिए मजबूत ढाल? इस सबके बीच एक शाश्वत सवाल बना हुआ है कि क्या वाकई इस तरह के अभियान से केंद्र सरकार नियमों में बदलाव करके बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे देगी. उधर, विरोधी पूछते हैं कि आज विशेष राज्य दर्जे को बिहार के हर मर्ज की इकलौती दवा बताने वाले नीतीश कुमार जब वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री थे और इससे संबंधित प्रस्ताव केंद्र के पास गया था तो तब उन्होंने इस पर क्यों चुप्पी साध रखी थी. जबकि उस समय बिहार को विशेष सहायता के लिए बनी समिति के अध्यक्ष भी नीतीश  ही थे और केंद्र में बिहार से पांच-छह मंत्री भी थे. तब चुप्पी साधने वाले नीतीश को अब क्यों ऐसा लगने लगा है कि बिहार को विशेष बनाना ही इकलौता रास्ता है?

बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिलेगा या नहींवाला जो पहला सवाल है उसका जवाब पिछले दिनों योजना आयोग के सदस्य अभिजीत सेन जैसे लोग साफ-साफ दे चुके हैं कि यह असंभव है. अभिजीत सेन जैसे लोग इतने आत्मविश्वास से यदि तीन शब्दों का एक वाक्य यह असंभव हैकहकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सबसे बड़े और महत्वाकांक्षी राजनीतिक अभियान को जोरदार धक्का दे देते हैं तो यह ऐसे ही हवा में हुई बात मानी भी नहीं जा सकती. सेन कहते हैं कि बिहार को विशेष राज्य दर्जा देने के पक्ष में जब जदयू की ओर से सवा करोड़ लोगों के हस्ताक्षर दिल्ली पहुंचे तो इस पर विचार के लिए एक अंतरमंत्रालयी समूह का गठन किया गया था. समूह ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है जिसमें कहा गया है कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिल सकता. राज्य के पूर्व मुख्य सचिव वीएस दुबे जैसे लोग भी मानते हैं कि बिहार जिन बिंदुओं पर विशेष राज्य का दर्जा पाना चाहता है उन बिंदुओं के आधार पर दूसरे राज्यों के तथ्य ज्यादा मजबूत हैं, इसलिए ऐसा होना इतना आसान नहीं.

सिर्फ अभिजीत सेन या वीएस दुबे नहीं, यह बात नीतीश और उनके साथ विशेष राज्य दर्जा अभियान को अधिकार यात्रा, अधिकार सम्मेलन, अधिकार रैली आदि के जरिए परवान चढ़ाने में मेहनत से लगे रहे संगी-साथी भी जानते हैं. पहली बात तो यह कि बिहार तय मानदंडों को पूरा ही नहीं करता. इसे खुद नीतीश के बयानों के बदलाव से भी समझा जा सकता है. जब विशेष राज्य दर्जा अभियान शुरू हुआ था तो रोजाना ही नीतीश कहते थे कि बिहार सभी मानदंडों पर खरा उतरता है, केंद्र को चाहिए कि वह उसे जल्दी विशेष राज्य का दर्जा दे दे. अब वे और उनके सिपहसालार कहते हैं कि केंद्र को मानदंडों में बदलाव करना चाहिए. इस बाबत जदयू के वरिष्ठ नेता, राज्यसभा सांसद और विशेष राज्य दर्जा अभियान के आरंभिक सूत्रधारों में प्रमुख रहे शिवानंद तिवारी से बात होती है तो पहले वे कहते हैं, ‘अब मैं सीधे इस अभियान में नहीं हूं, यह पार्टी चला रही है इसलिए इस पर ज्यादा नहीं बोल सकता.बहुत कुरेदने पर बाद में कहते हैं कि मानदंड और नियम बदलकर भी बिहार को यह दर्जा देना चाहिए.

तिवारी मानदंडों को बदलकर दर्जा देने की बात ऐसे कहते हैं जैसे यह चुटकी बजाकर कर दिए जाने वाली बात हो. हालांकि जब वे यह कहते हैं कि अब यह पार्टी का अभियान है, मैं सीधे नहीं हूं तो यह देखकर थोड़ा अटपटा लगता है कि इसका तानाबाना बुनने वाले सूत्रधार ही ऐसा बोल रहे हैं. लेकिन बाद में गौर करने पर यह भी पता चलता है कि इस अभियान में और विशेष राज्य दर्जे पर पार्टी के दूसरे कद्दावर नेता शरद यादव भी बहुत रुचि लेते हुए नहीं दिखे.

इस बीच कई जानकार बताते हैं कि कांग्रेस यह नादानी कतई नहीं करेगी कि वह तय मानदंडों में बदलाव करके बिहार को विशेष दर्जा दे दे. वजह यह कि एनडीए के कार्यकाल में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने से उसे खास सियासी फायदा नहीं होने वाला. उससे भी ज्यादा अहम यह है कि बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस जानती है कि यदि वह नियमों में जोड़-घटाव करके बिहार को यह दर्जा देने की कोशिश भर करेगी तो कई राज्य एक साथ इसके लिए खड़े हो जाएंगे. उनमें से कई के दावे और तर्क, दोनों बिहार से ज्यादा तथ्यगत और मजबूत होंगे. कई तो यूपीए के घटक दल ही होंगे.

तब ऐसी स्थिति में और इन सवालों के जाल में फिर एक अहम सवाल सामने होता है कि सब कुछ जानते हुए भी नीतीश विशेष राज्य दर्जा को लेकर क्यों अड़े हैं. क्यों वे एक अनिश्चित बिंदु पर अपनी पूरी राजनीतिक ऊर्जा लगा रहे हैं? आखिर इस मसले के जरिए उन्हें  किन-किन बिंदुओं पर उम्मीद की किरणें दिख रही हैं? क्यों वे इसके लिए अपनी सहयोगी भाजपा को भी इस अभियान से दूर करके इसे सिर्फ जदयू के अभियान में परिणत करके अधिकार यात्रा के जरिए अधिकार रैली जैसे पड़ाव तक पहुंच गए?

अलग-अलग लोग इसके बारे में अलग-अलग राय रखते हैं. विशेष राज्य दर्जा अभियान में बिहारी उपराष्ट्रीयता के तत्व को समावेशित करने वाले सूत्रधार और एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के सदस्य सचिव अर्थशास्त्री शैबाल गुप्ता जैसे लोग मानते हैं कि इस पर बात नहीं होनी चाहिए कि जब नीतीश केंद्र में मंत्री थे तब क्यों चुप्पी साध गए थे और अब क्या कह रहे हैं. शैबाल कहते हैं कि बिहार को आगे ले जाने के लिए यह जरूरी मांग है, इसलिए नीतीश कुमार इसमें जी-जान से लगे हुए हैं. हालांकि कई उनसे इत्तिफाक नहीं रखते. प्रो नवल किशोर चौधरी जैसे वरिष्ठ अर्थशास्त्री कहते हैं, ‘विशेष राज्य दर्जा अभियान सरकार की विफलता, कमियों और नाकामियों को छुपाने का हथियार बन चुका है.पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र मानते हैं कि नीतीश राज्य को पटरी पर लाने के लिए ईमानदार कोशिश के तहत यह कर रहे हैं तो हार्वर्ड से पढ़े और मूल रूप से बिहार के निवासी अर्थशास्त्री शशिभूषण मानते हैं कि विशेष दर्जे के बगैर जो हो सकता है, नीतीश वही करके दिखाएं तो ज्यादा बेहतर होगा, वरना एक ही बात रटते रहना किसी लिहाज से ठीक नहीं.

जानकार बताते हैं कि विशेष दर्जा मिले या न मिले, दोनों ही स्थितियों में नीतीश खेल अपने पक्ष में बनाए रख सकते हैंयानी जितने मुंह उतने दृष्टिकोण हैं. हो सकता है सबका आकलन सही हो, लेकिन विशेष राज्य दर्जा अभियान को लेकर नीतीश के हठ के संदर्भ में और भी ढेर सारी बातें हैं. एक तो यह सच है कि नीतीश अभियानी राजनीति करने में ज्यादा भरोसा रखते हैं और इसे उन्होंने अधिकार यात्रा के पूर्व छह यात्राओं के जरिए दिखाया भी है. वे चार डिग्री से लेकर 40 डिग्री तापमान में भी यात्राओं को जारी रखते हुए अपनी जीवट, जिद और जुनून साबित कर चुके हैं. नीतीश दूसरी पारी खेल रहे हैं और यह जान रहे हैं कि इस पारी में बात बनाने से काम नहीं चलने वाला. इस बार अगर जनता को ठोस काम नहीं दिखाए जा सके तो फिर मामला गड़बड़ भी हो सकता है. लेकिन उनकी दूसरी पारी तरह-तरह के कलह-अंतर्कलह में ही घिरती हुई ज्यादा नजर आ रही है. ऐसे में वे विशेष राज्य दर्जा अभियान को जारी रख राज्य के विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और चिंता को एक स्वर देने की कोशिश में लगे हैं. इन सबके अलावा कुछ और ठोस राजनीतिक वजहें भी हैं, जिनकी वजह से नीतीश इस अभियान को लेकर सक्रियता बनाए रखना चाहते हैं.

पहले जदयू से ही ताल्लुक रखने वाले बिहार के एक मंत्री की ही बात सुनते हैं. वे नाम न छापने की शर्त पर विशेष राज्य दर्जा पर खूब बात करते हैं और आखिर में सारांश के तौर पर कहते हैं, ‘जदयू एक क्षेत्रीय पार्टी है और बिहार जैसे राज्य में सत्तासीन है. अब क्षेत्रीय पार्टी और सत्तासीन होने की वजह से एक परेशानी यह है कि आखिर किस कार्यक्रम के तहत अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय और गतिशील रखा जाए ताकि वे अगले लोकसभा और विधानसभा चुनाव तक सक्रियता से लगे रहें. इसके लिए बिहार को विशेष राज्य दर्जा को जदयू को अपने पाले में करना जरूरी था और फिर इसे लेकर एक बड़े आयोजन की भी दरकार थी.

मंत्री जी की इस निजी राय के इतर और भी कुछ बातों पर गौर करते हैं. बिहार की आबादी में युवाओं का अनुपात बहुत ज्यादा है. नीतीश कुमार को पता है कि युवाओं को विशेष राज्य दर्जा वाला अभियान भा सकता है, क्योंकि इसमें जाति की राजनीति की बात नहीं होती बल्कि इसका कनेक्शन राज्य के विकास से जुड़ा हुआ है. दूसरी यह बात कि बिहार में मध्यवर्ग और नव मध्यवर्ग की आबादी भी अच्छी-खासी बढ़ी है. यह वर्ग बिहार को विशेष राज्य दर्जा दिलाने के अभियान में रुचि न भी रखे तो इसके एक तत्व बिहारी उपराष्ट्रीयता में उसकी रुचि हो सकती है, क्योंकि यह भी जाति की राजनीति के बजाय बिहारीपन की बात करता है. बिहारीपन मध्यवर्ग, नव मध्यवर्ग और सवर्ण समूह को ज्यादा भाता है क्योंकि इसमें भी जाति की राजनीति हावी नहीं होती. जाति की राजनीति का थोड़ा हाशिये पर जाना नीतीश के लिए भी फायदेमंद हो सकता है क्योंकि भाजपा से अलगाव होने की स्थिति में नीतीश को भाजपा और लालू प्रसाद दोनों से पार पाने के लिए मध्यवर्ग, नव मध्यवर्ग, नौजवान वर्ग और सवर्ण समूह आदि को अपने साथ जोड़ना ही होगा. और अंत में विशेष राज्य दर्जे के मसले पर नीतीश के बालहठ की एक बड़ी वजह तो यह है ही कि इसके जरिए विरोधियों को नाथकर चुप रखा जा सकता है क्योंकि वे इस मांग के खिलाफ नहीं जा सकते और यह दर्जा मिलने, ना मिलने, दोनों की स्थिति में नीतीश खेल अपने पक्ष में बनाए रख सकते हैं. जानकारों के मुताबिक विशेष दर्जा नहीं तो कुछ भी विशेष जैसा मिल जाए तो उसका श्रेय नीतीश के खाते में ही जाएगा. अगर कुछ नहीं मिलता है तो भी नीतीश कह सकते हैं कि हमने क्या-क्या न किया लेकिन निष्ठुर कांग्रेस और केंद्र सरकार सुनती ही नहीं. यह मसला लोकसभा, विधानसभा दोनों चुनावों में समान रूप से भाषणबाजी में इस्तेमाल किया जा सकता है.

वंश का दंश

उत्तराखंड के टिहरी लोकसभा उपचुनाव में राज्य के प्रथम परिवार का तिलिस्म उसी तरह खत्म हुआ जैसे कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान अमेठी में गांधी परिवार का तिलिस्म टूटा था. ‘राज्य के भविष्य’ और ‘उत्तराखंड के युवराज’ के रूप में प्रचारित किए जा रहे मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पुत्र साकेत बहुगुणा ने अपने पिता की लोकसभा सीट भी गंवा दी. उपचुनाव में अमूमन सत्ता पक्ष का पलड़ा भारी माना जाता है. ऊपर से यदि उपचुनाव मुख्यमंत्री के परिवार का सदस्य लड़ रहा हो तो जीत की संभावना और भी बढ़ जाती है. साकेत की हार से दो राज्यों के बीच अपनी राजनीतिक जड़ों की तलाश कर रहे बहुगुणा-जोशी परिवार के सदस्यों को करारा झटका लगा है.

वैसे देखा जाए तो इस चुनाव के दौरान उत्तराखंड में वंशवाद की उसी विषबेल के दर्शन हुए जो कांग्रेस और बृहत्तर संदर्भ में देखें तो पूरी भारतीय राजनीति पर कुंडली कसे हुए है. उम्मीदवारी के लिए साकेत के चुनाव से लेकर उनके प्रचार तक पार्टी संगठन और उसके नेताओं की भूमिका गौण और महज रस्म अदायगी तक सीमित रही. चुनाव प्रबंधन में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की मदद उनकी बहन रीता बहुगुणा जोशी, छोटे भाई शेखर बहुगुणा, तीनों भाई-बहनों के पुत्र, उनकी बहुएं और दो दर्जन के लगभग नजदीकी रिश्तेदार कर रहे थे. रीता बहुगुणा जोशी महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुकी हैं. राजनीतिक रूप से देश के सबसे ताकतवर सूबे उत्तर प्रदेश की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उन पर वहां की सारी विधान सभा और लोक-सभा सीटों पर चुनाव लड़ाने की जिम्मेदारी होती थी. लेकिन परिवार की प्रतिष्ठा वाली टिहरी लोकसभा सीट पर वे देहरादून जिले में पड़ने वाले विकास नगर विधानसभा क्षेत्र में डटी रहीं. रीता के जमकर पसीना बहाने के बाद भी इस विधानसभा क्षेत्र में उनके भतीजे साकेत 5,558 मतों से पीछे रहे, जबकि सात महीने पहले हुए विधान सभा चुनावों में इसी विधानसभा से कांग्रेस के उम्मीदवार नवप्रभात ने  इससे दोगुने मतों से चुनाव जीता था. राज्य प्रधान संगठन के महामंत्री गुलफाम अली बताते हैं, ‘इतने कम दिनों में रीता बहुगुणा असली कार्यकर्ताओं और चाटुकारों में फर्क नहीं कर पाई, इसलिए असली कार्यकर्ता भी बिदक गए.’ नवप्रभात पहले कांग्रेस की तिवारी सरकार में ताकतवर कैबिनेट मंत्री थे.

वे एक बार टिहरी से लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं. उनके पिता ब्रह्मदत्त भी टिहरी से संसद में पहुंचने के बाद केंद्र में पेट्रोलियम जैसे विभाग के मंत्री रहे थे. अनुभव और राजनीतिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद विकास नगर में नवप्रभात की निगरानी के लिए रीता बहुगुणा जोशी को बैठाना नवप्रभात समर्थकों को नहीं भाया. देहरादून जिले की एक और विधानसभा सीट सहसपुर को खुद विजय बहुगुणा की पत्नी सुधा बहुगुणा देख रही थीं. इस सीट पर मुसलिमों और दलितों की अच्छी-खासी संख्या है. इस सीट पर चुनाव में जमीनी नेता की कमी को दूर करने के लिए विधानसभा चुनाव में टिकट न मिलने पर बागी हुए गुलजार सहित कई छोटे-बड़े नेताओं को कांग्रेस में शामिल करवाया गया था. गुलजार के नाम वापस लेकर कांग्रेस में शामिल होने और सपा व बसपा के मैदान में न होने पर कांग्रेस मुसलिम और दलित मतदाताओं को अपना मान चुकी थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पछवादून के पत्रकार कुंवर जावेद बताते हैं , ‘कांग्रेस में नेताओं की भीड़ तो आई, लेकिन उसके पास ऐसे कार्यकर्ता नहीं थे जो मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाते. नतीजा यह रहा कि बढ़ती महंगाई से त्रस्त मुसलिम मतदाता मत डालने गए ही नहीं.’ कांग्रेस सहसपुर में 2,565 मतों से पीछे रही.

संयोग देखिए कि टिहरी लोकसभा में पड़ने वाले 14 विधानसभा क्षेत्रों में से सिर्फ एक चकराता ही ऐसा था जहां कांग्रेस सम्मानजनक स्थिति में रही और इसी इकलौती सीट पर बहुगुणा परिवार के किसी प्रबंधक का हस्तक्षेप नहीं था. यहां पार्टी 9,645 मतों से आगे रही. पिछले चुनाव तक विजय बहुगुणा हर लोकसभा चुनाव में टिहरी और उत्तरकाशी जिलों में पीछे रहे थे इसलिए बहुगुणा परिवार ने इन दोनों जिलों के लिए विशेष चुनावी रणनीति बनाई थी. टिहरी जिले की चार विधान सभाओं के प्रभारी मुख्यमंत्री के छोटे भाई शेखर बहुगुणा थे. वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं और पिछला विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारे हैं.  उत्तर प्रदेश में भले ही शेखर बहुगुणा की कोई राजनीतिक पूछ न रह गई हो लेकिन टिहरी लोकसभा उपचुनाव में उनका रुतबा देखने लायक था. प्रशासनिक अधिकारी और कांग्रेसी नेता उनके सामने नतमस्तक थे. उत्तरकाशी जिले को बहुगुणा परिवार की ओर से रीता बहुगुणा के पति डॉ पीसी जोशी बतौर प्रभारी देख रहे थे. इन दोनों दुर्गम जिलों में शेखर बहुगुणा और जोशी की मदद उनके युवा पुत्र कर रहे थे.  सारा जोर लगाने के बाद भी टिहरी और उत्तरकाशी जिलों में कांग्रेस सात में से चार विधानसभा क्षेत्रों में केवल 4,864 मतों से आगे रही. चकराता के अलावा देहरादून जिले के छह विधानसभा क्षेत्रों में साकेत पीछे रहे. देहरादून शहर की चार विधानसभा सीटों मसूरी, कैंट, राजपुर और रायपुर में कांग्रेस की खूब दुर्गति हुई. इन चारों सीटों का चुनाव प्रबंधन साकेत की पत्नी गौरी, भाई सौरभ और उनकी पत्नी सुमेधा देख रही थीं.

 चुनाव प्रचार में पार्टी संगठन और नेताओं की बुरी तरह से उपेक्षा हुई. टिहरी से कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ चुके पूर्व मंत्री किशोर उपाध्याय लोकसभा चुनाव में कहीं नहीं दिखे. उपाध्याय कहते हैं,‘ मुझे चुनाव प्रचार के दौरान कभी पूछा ही नहीं गया.’ देहरादून जिले के दिग्गज कांग्रेसी नेता हीरा सिंह बिष्ट ने चुनाव के बाद सार्वजनिक रूप से शिकायत की है कि उन्हें पार्टी कार्यालय में प्रवक्ता के रूप में बांध कर रखा गया. बिष्ट उत्तर प्रदेश के जमाने से बड़े नेता रहे हैं और दो बार टिहरी से लोकसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं.

इससे पहले बहुगुणा ने अपने पुत्र साकेत के राजनीतिक राज्यारोहण के लिए समय चुनते हुए राजनीतिक दूरदर्शिता नहीं दिखाई. चुनाव से पहले उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जिले के अधिकांश भाग प्राकृतिक आपदा से पस्त थे. आपदा में बेघर हुए सैकड़ों परिवारों का भले ही पुनर्वास न हुआ हो पर सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री ने पार्टी के भीतर लड़-झगड़ कर और किसी भी हालत में सीट जिता कर लाने के वादे के साथ बेटे  का ‘राजनीतिक पुनर्वास’ करा ही लिया. टिकट पाते ही कानून स्नातक साकेत एक चर्चित कंपनी की सफेद कॉलर वाली नौकरी छोड़कर खद्दरधारी बन गए.

14 विधानसभा क्षेत्रों में से सिर्फ एक चकराता में ही कांग्रेस सम्मानजनक स्थिति में रही जहां बहुगुणा परिवार के किसी प्रबंधक का हस्तक्षेप नहीं था

लेकिन उत्तराखंड के लोगों को बहुगुणा का पुत्र मोह बिल्कुल नहीं भाया. साकेत के नाम की घोषणा होते ही सोशल नेटवर्किंग साइटों से लेकर गली-मुहल्लों तक विजय बहुगुणा के पुत्र मोह पर कठोर टिप्पणियां सामने आ रही थीं. चर्चित गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी, वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा, जनकवि अतुल शर्मा  आदि ने प्रत्याशियों के उत्तराखंड की भाषा, बोली और जानकारियों से जुड़े सवालों से संबधित एक पर्चा छपवाया था. इन पैमानों के आधार पर साकेत हर तरह से उत्तराखंड में पैराशूटी नेता सिद्ध हो रहे थे. 

साकेत ने अपने दादा की विरासत के नाम पर वोट मांगे. इलाहाबाद की राजनीति करने वाले साकेत के दादा हेमवती नंदन बहुगुणा के लिए गढ़वाल क्षेत्र चार साल के अल्पकाल के लिए राजनीतिक कर्म-भूमि रहा. 1982 के ‘गढ़वाल चुनाव’ के बाद वे पहाड़ी क्षेत्र के लोगों के दिल में बैठ गए थे. तब उन्होंने सर्वशक्तिमान मानी जाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ताकत का अडिगता से मुकाबला किया था. लेकिन इन चुनावों में सब उल्टा था. उनके पुत्र विजय बहुगुणा आज कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने अपने बेटे साकेत के चुनाव में हर उस साधन और टोटके का इस्तेमाल किया जिन्हें चुनावी बुराइयां बताते हुए हेमवती नंदन बहुगुणा ने 1982 के चुनाव में उनका विरोध किया था. 1982 के चुनाव की तर्ज पर इस बार टिहरी लोकसभा चुनाव में भी पहाड़ों में हेलीकाप्टर में नेताओं को घुमाया गया. अकेली धनोल्टी विधानसभा सीट में मुख्यमंत्री, साकेत बहुगुणा आदि ने हेलीकॉप्टर से नौ सभाएं कीं. कांग्रेस संगठन के एक शीर्ष पदाधिकारी कहते हैं, ‘हर तरह से चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन किया गया.’ वे आगे चिंता जताते हैं कि यदि चुनाव इतने महंगे हो जाएंगे तो वास्तव में इन्हें उद्योगपति या कॉरपोरेट के लोग ही लड़ पाएंगे.

प्रचार में मुख्यमंत्री और उनके पुत्र मुद्दों के बजाय एक-दूसरे की तारीफ कर रहे थे या भाजपा प्रत्याशी पर बेतुकी टिप्पणियां कर रहे थे. युवा कांग्रेस के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘बड़ी कंपनी की लाखों की नौकरी छोड़ने, कॉरपोरेट की मदद से आपदा के काम करने, देश-विदेश की बड़ी-बड़ी कंपनियों की मदद से टिहरी लोकसभा का विकास करने जैसी साकेत की बातों से यह लग रहा था कि जैसे देश-दुनिया के कॉरपोरेट सेक्टर ने पैसे कमाने के बजाय अचानक समाज सेवा की जिम्मेदारी ले ली हो. उत्तराखंड में स्थापित फैक्टरियों में दोयम दर्जे की नौकरियां पाने वाले बेरोजगारों को मुख्यमंत्री और उनके पुत्र का ‘कॉरपोरेट खट-राग’ रिझा नहीं पाया.’ मुख्यमंत्री अल्प वेतन पर दसियों साल से काम कर रहे हजारों संविदाकर्मी युवाओं के लिए पक्की नौकरी की कोई योजना भले ही नहीं ला पाए हों लेकिन अपने बेटे को दो साल के लिए संविदा पर लोकसभा भेजने की विनती वे उन्हीं युवा मतदाताओं से करते रहे. कॉरपोरेटी प्रबंधन के बाद भी टिहरी में आजादी के बाद हुए सभी चुनावों की तुलना में सबसे कम मतदान  (43 फीसदी)  हुआ.  साकेत 22,694 मतों से चुनाव हार गए. आजकल देश में व्यापार करने वाली राजनीतिक हस्तियों के नित नए घोटाले सामने आ रहे हैं. कॉरपोरेटी रिश्ते रखने वाले सांसदों द्वारा नीतियों को गलत तरीके से अपने व्यावसायिक हित में इस्तेमाल करने के किस्से आम हैं. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत कहते हैं, ‘ऐसे में  कॉरपोरेटी परंपरा वाले साकेत के हारने में ताज्जुब नहीं होना चाहिए.‘ रावत मानते हैं कि यदि मतदान प्रतिशत पहले की तरह होता तो साकेत की हार का अंतर अधिक होता.
मुख्यमंत्री बनते समय विजय बहुगुणा के साथ आधा दर्जन विधायकों का समर्थन भी नहीं था. उन्हें बहुसंख्यक कांग्रेसियों ने सहर्ष स्वीकारा भी नहीं. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘विजय बहुगुणा खुद ही प्रदेश पर प्राकृतिक आपदा की तरह नई दिल्ली से थोपे गए थे. अब उनके पुत्र भी इसी तरह आए हैं.’

अब सवाल उठता है कि आगे क्या होगा. हर निर्णय के लिए दिल्ली का मुंह ताकने वाले विजय बहुगुणा के बारे में कुछ समय पहले तक उनके समर्थक प्रचारित कर रहे थे कि वे पुत्र के जीतते ही खुली पारी खेलेंगे. लेकिन अब स्थिति थोड़ी मुश्किल दिखती है. उनके धुर विरोधी और केंद्रीय मंत्री हरीश रावत कहते हैं, ‘उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार और संगठन पर एक गुट ही काबिज है जिसके भरोसे 2014 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा जा सकता.’ जानकार मानते हैं कि हिमाचल चुनाव के बाद फिर एक बार उत्तराखंड में मुख्यमंत्री विरोध की रणभेरियां बजेंगी. बहुगुणा के ममेरे भाई और भाजपा के मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी का विरोध तो उपचुनाव जीतने के बाद भी हुआ था.

विस्तार का सार

मनमोहन सरकार के मंत्रिमंडल में हुए हालिया फेरबदल ने कई तरह की हलचलें पैदा कीं. कुछ को यह हांफ रही सरकार को 2014 के आम चुनाव से पहले ऊर्जा देने की कोशिश लगी तो कुछ को नई बोतल में पुरानी शराब जैसी कवायद. इस फेरबदल की खास बातों पर एक नजर. अतुल चौरसिया और हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.

भ्रष्टाचार पर भ्रम

मंत्रिमंडल विस्तार को अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के सम्मान के रूप में परिभाषित किया है.  उनका तर्क है कि एक तरफ तो सलमान खुर्शीद पर अपने ट्रस्ट कीआड़ में विकलांगों का पैसा गबन करने का आरोप लग रहा है और दूसरी ओर सरकार ने उनका प्रमोशन करके उन्हें विदेशमंत्री के पद से नवाजा है. जानकार मानते हैं कि इस कदम से कहीं न कहीं उन लोगों को संदेश देने की कोशिश की गई है जो लोग सरकार को बार-बार भ्रष्टाचार के कटघरे में खड़ा कर रहे थे. यही बात कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के बारे में भी कही जा सकती है. अपने रिश्तेदारों को कोल ब्लॉक आवंटित करने के संगीन आरोप उनके ऊपर लगे हुए हैं. कयास लगाए जा रहे थे कि मंत्रिमंडल से उनकी छुट्टी तय है. पर वे अपने पद पर कायम हैं. इसी तरह दो साल पहले आईपीएल गड़बड़झाले की भेंट चढ़ गए शशि थरूर भी एक बार फिर से मंत्रिमंडल में वापसी करने में सफल हो गए हैं. यहां सरकार की मंशा पर एक और सवाल खड़ा होता है कि क्या दो साल बाद अपराध, अपराध नहीं रह जाता. मामले जहां के तहां अटके पड़े हैं और थरूर फिर से मंत्री बन गए हैं. भ्रष्टाचार की बनिस्बत अगर मंत्रिमंडल के विस्तार को देखा जाए तो निष्कर्ष यही निकलता है कि सरकार भ्रष्टाचार के प्रति न तो गंभीर है और न ही भ्रष्टाचार के आरोपों को किसी तार्किक परिणति तक पहुंचाने की इच्छा रखती है.

 

राहुल की रहबरी?
मीडिया हलकों में एक बात अक्सर कही सुनी जाती है कि कांग्रेस में किसी भी युवा नेता का कद इतना आगे नहीं बढ़ने दिया जाता कि वह आगे चलकर राहुल गांधी पर ही भारी पड़ने लगे. मंत्रिमंडल फेरबदल से पहले यह कयास लगाए जा रहे थे कि इस कवायद में पार्टी महासचिव राहुल गांधी की अच्छी-खासी छाप होगी, लेकिन एक बड़ी हद तक ऐसा नहीं हुआ. कैबिनेट में शामिल हुए 17 नए चेहरों में से कोई भी राहुल ब्रिगेड का सदस्य नहीं है. इनमें सबसे कम उम्र के मंत्री मनीष तिवारी हैं जो 48 वर्ष के हैं. हां, बड़े पैमाने पर टीम राहुल के सदस्यों के प्रोमोशन जरूर हुए हैं. जितेंद्र सिंह, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, कुमारी शैलजा, राजीव शुक्ला और आरपीएन सिंह की जिम्मेदारियां बढ़ा दी गई हैं. कोई नई एंट्री न होने के चलते अब भी मंत्रिमंडल की औसत उम्र 68 साल बनी हुई है. इसके बचाव में कांग्रेसी तर्क देते हैं कि यह कोई ग्लैमर का क्षेत्र नहीं है जहां कम उम्र, सुंदर चेहरों की जरूरत होती है. यह भारत का मंत्रिमंडल है जिसमें अनुभव की जरूरत है, कामकाज की जरूरत है और उसी के हिसाब से यहां लोग नियुक्त किए जाते हैं.

 

काम का काम तमाम
कांग्रेस की ओर से तो यह कहा जा रहा है कि मंत्रिमंडल विस्तार के दौरान प्रदर्शन का ध्यान रखा गया है और अच्छा काम करने वालों को प्रोमोशन मिला है. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. अपने-अपने मंत्रालयों में अच्छा काम कर रहे कम-से-कम दो मंत्रियों को उनके मंत्रालय से विस्थापित करके दूसरे मंत्रालय में स्थापित कर दिया गया है. इनमें पहला नाम है युवा व खेल मंत्री अजय माकन का. खेल संगठनों में नेताओं के दबदबे को खत्म करने से लेकर खेल प्रशासन में खिलाड़ियों की भागीदारी बढ़ाने समेत कई स्तरों पर माकन बदलाव की कोशिश में थे. लेकिन कई खेल संगठनों के आला पदों पर कांग्रेस और सहयोगियों के बड़े नेताओं के काबिज होने की वजह से माकन का राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक कानून की शक्ल नहीं ले पाया. माकन के जाने के बाद इसका भविष्य अधर में लटक गया है. राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में गड़बड़ी का मामला जब सामने आया तो उन्होंने अपनी ही पार्टी के सुरेश कलमाड़ी के खिलाफ मोर्चा खोलने से भी परहेज नहीं किया. वहीं दूसरी तरफ पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी हैं जिन्होंने पेट्रोलियम मंत्रालय में रहते हुए केजी बेसिन मामले में उस रिलायंस को चुनौती दी जिससे उलझने में सरकार में बैठे हुए बड़े-बड़े लोग बचते हैं.
 

आंध्र की आंधी
2009 के लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश ने कांग्रेस की झोली में सबसे ज्यादा सांसद (31) भेजे थे. 2012 में केंद्र सरकार ने आंध्र की झोली में सबसे ज्यादा मंत्री डाले हैं. असल में कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व आंध्र प्रदेश में पिछले तीन साल के दौरान गंवाई गई जमीन को दिल्ली से आपूर्ति के जरिए हथियाना चाहता है. चुनाव के लिहाज से आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के लिए उम्मीदें सबसे क्षीण हैं. आधा प्रदेश तेलंगाना चाहता है और वह कांग्रेस को धोखेबाज की नजर से देखता है. छिटपुट उपचुनावों ने यह बात सिद्ध भी कर दी है. बाकी आधा प्रदेश जगन मोहन रेड्डी के साथ भावनात्मक रिश्ता जोड़ चुका है. लिहाजा जिस कांग्रेस ने यहां से 31 सीटें जीती थीं अब उसमें 11 सीटें पाने का विश्वास भी बचा नहीं दिखता. जेल में रहते हुए जगन ने उपचुनाव के दौरान सभी सीटों पर कब्जा जमाया है. जनता को रिझाने की गरज से कांग्रेस ने ताजा विस्तार में आंध्र के एक साथ छह सांसदों को शामिल किया है. इनमें से तीन मंत्रियों को काबीना मंत्री का दर्जा मिला है. एक तथ्य यह भी है कि जिन लोगों को कांग्रेस ने मंत्रिमंडल में शामिल किया है उनमें से ज्यादातर ने जगन मोहन रेड्डी के पिता वाईएसआर रेड्डी के प्रभावशाली नेतृत्व में चुनाव जीते हैं. लिहाजा वे अगले चुनाव में कांग्रेस का कुछ भला कर पाएंगे, इस पर संशय बरकरार है.

 क्षेत्रीय असंतुलन

मंत्रिमंडल विस्तार में संतुलन का अभाव झलकता है. कई राज्यों को पर्याप्त नेतृत्व नहीं मिला है. सबसे अहम है पूर्वी भारत. प. बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और पूर्वोत्तर के सात राज्यों को मिलाकर इस इलाके से कुल 142 सांसद लोकसभा में आते हैं. फिर भी इन राज्यों से एक भी कैबिनेट मंत्री को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है. पहले इन राज्यों से तीन कैबिनेट मंत्री थे. प. बंगाल से प्रणब मुखर्जी व मुकुल रॉय और झारखंड के सुबोधकांत सहाय कैबिनेट मंत्री थे. इस बार प. बंगाल के तीन नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल तो किया गया है लेकिन इन सभी को राज्य मंत्री का दर्जा मिला है. वहीं बिहार के तारिक अनवर भी राज्य मंत्री ही बनाए गए हैं. अरुणाचल प्रदेश के निनोंग एरिंग भी राज्य मंत्री ही बने हैं. झारखंड के सुबोधकांत सहाय को हटाया तो गया लेकिन उनकी जगह इस राज्य के किसी नेता को मंत्रिमंडल में नहीं शामिल किया गया. महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य की अनदेखी का आरोप भी कांग्रेस पर लग रहा है. मध्य प्रदेश की अनदेखी पर खुद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने असंतोष जताया है. असंतुष्टि हरियाणा के नेताओं में भी है. यहां से कुल नौ सांसद हैं और सिर्फ एक मंत्री कुमारी शैलजा हैं.
 

रेल भवन में राष्ट्रीय दल
आंकड़ों में दिलचस्पी रखने वालों के लिए मजेदार तथ्य है कि 17 साल के बाद रेल मंत्रालय में देश की राष्ट्रीय पार्टी की वापसी हुई है. कई कांग्रेसी इससे खुश हैं कि किसी तरह रेल मंत्रालय बिहार-बंगाल के चंगुल से छूट गया और पवन बंसल को नया रेलमंत्री बनाया जा चुका है . 1995 में नरसिंहा राव की सरकार गिरने के बाद से ही राष्ट्रीय पार्टियों के हाथ से यह मंत्रालय निकल गया था. गौरतलब है कि रेल मंत्रालय वह विभाग है जिसका सीधा संपर्क देश के खासो-आम से रहता है. यह सरकारों की लोकलुभावन योजनाओं का अहम हिस्सा है. बाद में देश में गठबंधन की राजनीति ने जोर पकड़ा तो यह मंत्रालय क्षेत्रीय और सहयोगी पार्टियों का सबसे पसंदीदा विभाग बन गया. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि सन 96 से लेकर 2009 के बीच बिहार के तीन बड़े नेताओं नीतीश कुमार, लालू यादव और रामविलास पासवान ने अलग-अलग समय पर इसकी कमान थामी. एनडीए के कार्यकाल में यह सहयोगी दल जदयू के हिस्से में गया. बाद में यूपीए के शासनकाल में यह लालू और ममता का प्रिय विभाग रहा. बंसल को रेल मंत्रालय मिलने के बाद अब उम्मीद लगाई जा रही है कि सरकार अपने मनमुताबिक इस विभाग को चलाएगी. इस बीच सबसे ज्यादा अटकलें इसके निजीकरण की हैं. आने वाले दिनों में एफडीआई प्रेमी मनमोहन सिंह का रेल मंत्रालय पर रुख काबिलेगौर होगा.

चुनावी मजबूरी
मंत्रिमंडल विस्तार की प्रमुख वजह चुनावी है. अगले चुनाव में राहुल गांधी की अगुवाई में उतरने की संभावनाओं के बीच कांग्रेस के लिए यह जरूरी था कि सरकार में बदलाव किए जाएं. यही वजह है कि कई अहम मंत्रालयों की जिम्मेदारी नए लोगों को दी गई. युवा नेताओं को प्रमुख मंत्रालयों की जिम्मेदारी देने को भी अगले लोकसभा चुनावों की तैयारियों से ही जोड़ कर देखा जा सकता है. कांग्रेस ने कई राज्यों में होने वाले दूसरे चुनावों का ध्यान भी मंत्रिमंडल विस्तार के दौरान रखा है. पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव होने वाले हैं. इसलिए वहां के तीन प्रतिनिधियों को मंत्रिमंडल में शामिल करके पार्टी आलाकमान ने राज्यों के लोगों को उम्मीद बंधाने की कोशिश की है. राजस्थान में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. राज्य से दो नए चेहरे लालचंद कटारिया और चंद्रेश कुमारी कटोच मंत्रिमंडल में आए हैं. इनमें कटोच को तो कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया है. कांग्रेस ऐसा करके प्रदेश के ठाकुर मतदाताओं को अपने साथ करना चाहती है. कर्नाटक में भी अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं इसलिए एसएम कृष्णा को मंत्रिमंडल से विदा करने के बाद के रहमान खान को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है. गुजरात के दिनशा पटेल को राज्य मंत्री से कैबिनेट मंत्री बनाए जाने को भी गुजरात विधानसभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है.

 

बाजार का दबाव
मंत्रिमंडल विस्तार के क्रम में मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल को ध्यान से देखने पर यह संदेह गहराता है कि कुछ फैसले बाजार के दबाव में लिए गए. इनमें सबसे बड़ा फैसला है पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल रेड्डी की विदाई. माना जा रहा है कि रिलायंस के दबाव में रेड्डी को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाकर गांधी परिवार के वफादार माने जाने वाले वीरप्पा मोइली को वहां बैठाया गया है. रेड्डी के कार्यकाल में उनके मंत्रालय ने कई बार रिलायंस को चुनौती दी. रिलायंस केजी बेसिन के शेयर ब्रिटेन की एनर्जी कंपनी बीपी को बेचना चाहता था. यह सौदा तकरीबन 40,000 करोड़ रुपये का था. सरकार के साथ हुए रिलायंस के करार के मुताबिक केजी बेसिन में विदेशी कंपनी को हिस्सेदारी बेचने के लिए कैबिनेट की मंजूरी लेना जरूरी था. लेकिन रेड्डी ने इसकी मंजूरी नहीं दी. जब रिलायंस ने लगातार करार से कम गैस का उत्पादन किया तो रेड्डी के मंत्रालय ने रिलायंस पर 7,000 करोड़ रुपये का जुर्माना ठोक दिया. रेड्डी ने उन अधिकारियों को भी पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाया जिनकी नियुक्ति मुरली देवड़ा के कार्यकाल में हुई थी और जिनके बारे में यह माना जाता था कि वे रिलायंस के करीबी हैं. बाजार की ओर से यह दबाव सरकार पर है कि वह आर्थिक सुधारों की गति बढ़ाए. रेलवे में निजी पूंजी लाने का मसला भी इनमें से एक है. पिछले काफी दिनों से सहयोगी दल तृणमूल के पास यह मंत्रालय होने की वजह से मनमोहन सिंह सरकार रेलवे में कोई बड़ा बदलाव नहीं कर पा रही थी.

काम को सम्मान
काम का काम तमाम करने के तो तमाम किस्से इस विस्तार में देखने को मिले लेकिन कुछ फैसले ऐसे भी हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि काम करने वालों को भी कुछ तरजीह मिली है. हालांकि यह सरकार की दुविधा को भी दर्शाता है. काम करने के लिए अजय माकन का प्रोमोशन होता है और काम करने के लिए जयपाल रेड्डी का मंत्रालय छीन लिया जाता है. खैर युवा एवं खेल मंत्रालय में अपने कामकाज की धाक जमाने वाले अजय माकन के बारे में यह राय थी कि उन्हें प्रोमोशन मिलेगा. लंदन में संपन्न हुए ओलंपिक खेलों में भारत की पदक तालिका इतिहास की सबसे बड़ी संख्या दिखा रही थी. इसके पीछे माकन की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गई. यही बात टेलीकॉम मंत्रालय में राज्यमंत्री रहे सचिन पायलट और वाणिज्य मंत्रालय में राज्य मंत्री रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में कही जा सकती है. इन्हें क्रमश: कॉरपोरेट अफेयर और ऊर्जा मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है.  अपनी सीमाओं में रहते हुए इन्होंने बेहतर प्रदर्शन किया था. काम के दम पर मंत्रिमंडल का हिस्सा बनने वालों में एक नाम मनीष तिवारी का भी है. लंबे समय से सरकार की तमाम आपदाओं (2जी, सीडब्ल्यूजी, कोलगेट, अन्ना आंदोलन) में मीडिया के हमले का बहादुरी से सामना करने वाले मनीष तिवारी को सूचना प्रसारण मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है.
 

सहयोगियों पर संशय
कांग्रेस के रणनीतिकारों की ओर से तमाम एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद संप्रग का प्रमुख सहयोगी डीएमके इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ कि उसकी तरफ से मंत्रिमंडल विस्तार में कोई हिस्सा ले. राजनीतिक जानकारों की मानें तो पिछले दो महीने से चल रही कयासबाजियों के बीच मंत्रिमंडल विस्तार में देरी की असली वजह डीएमके ही है. कांग्रेस को लगता था कि डीएमके को मंत्रिमंडल में अपने कोटे के पदों के लिए अपने प्रतिनिधियों को भेजने के लिए मना लिया जाएगा. अब सवाल यह उठता है कि ए राजा और दयानिधि मारन के हटने से खाली हुए कैबिनेट मंत्री के दो पदों पर पार्टी ने किसी को क्यों नहीं भेजा. दरअसल, तमिनलाडु में जयललिता के बढ़ते प्रभाव और केंद्र सरकार को लेकर बढ़ती नाराजगी को देखते हुए डीएमके में केंद्र सरकार से समर्थन वापसी का मंथन चल रहा है. सरकार में डीएमके की भागीदारी नहीं बढ़ने का मतलब यह है कि समर्थन वापसी का खतरा टला नहीं. मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी सरकार का समर्थन बाहर से कर रही है. इनमें से भी किसी को सरकार में शामिल होने के लिए मनाया नहीं जा सका. इनमें से किसी के सरकार में शामिल होने की सूरत में सरकार की स्थिरता को थोड़ा बल मिलता. ताजा सूरते हाल यह है कि अगर डीएमके ने हाथ खींचा तो सपा सरकार को गिराने में कोई वक्त नहीं गंवाएगी और अगर डीएमके ने ऐसा नहीं किया तो जबरदस्त लेन-देन के दरवाजे तो खुले ही रहेंगे.