बुनियादी बात है कि बड़ी कुर्सियों के पाए भी मजबूत होने चाहिए, इसलिए न्याय की कुर्सी पर बैठे लोगों के लिए नितांत जरूरी है कि उनका अपना नैतिक चरित्र बेदाग हो. मगर भारत में ऐसा नहीं है. यहां जजों की ताकत उनकी प्रतिष्ठा से नहीं बल्कि एक रहस्यमयी कानून से बनती है- अदालत की अवमानना का कानून, जो कहता है कि आप जजों या उनके निर्णयों पर कोई सवाल नहीं उठा सकते. इसका नतीजा यह हुआ है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जहां लोकतांत्रिक रूप से जोरदार बहस होनी चाहिए थी वहां कानाफूसी से ज्यादा कुछ नहीं हो रहा.
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत भूषण इसके खिलाफ पिछले बीस साल से लड़ रहे हैं. यह कुछ हद तक उनके इस निरंतर संघर्ष का ही परिणाम था कि सितंबर, 2009 में न्यायाधीश अपनी संपत्ति का ब्योरा देने के लिए तैयार हो गए. लेकिन इसके बाद भी बहुत कुछ किया जाना बाकी था. हाल ही में तहलका के साथ एक बातचीत में भूषण ने उन बाकी उपायों पर चर्चा की जिनसे जज और भी जवाबदेह बनें. उन्होंने न्यायिक भ्रष्टाचार के कई स्वरूपों पर भी चर्चा की. दूसरी कई बातों के अलावा उन्होंने यह भी कहा कि ‘पिछले 16 चीफ जस्टिसों में से आधे भ्रष्ट रहे हैं.’
इस इंटरव्यू के आधार पर अधिवक्ता हरीश साल्वे ने भूषण और तहलका के संपादक तरुण तेजपाल के खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला दाखिल कर दिया. पहले पहल भूषण ने तर्क दिया कि भारत का नागरिक होने के नाते उन्हें अपनी सोच सामने रखने का अधिकार है. मगर अदालत सुप्रीम कोर्ट की साख का हवाला देते हुए मामले को जारी रखने पर अड़ी रही. भूषण पर यह साबित करने के लिए जोर डाला गया कि वे अपनी बात की गंभीरता साबित करें. ऐसे में अब उन्होंने उन सबूतों के साथ एक पूरक हलफनामा दायर किया है जो भ्रष्ट जजों के बारे में उनके कथन को वजन देते हैं. हलफनामे में भूषण ने एक बार फिर दोहराया है कि न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार के दस्तावेजी सबूत जुटाना कितना मुश्किल है क्योंकि एक तो जजों के खिलाफ किसी कार्रवाई की इजाजत नहीं है, दूसरे, ऐसी कोई अनुशासनात्मक संस्था नहीं है जिसकी तरफ देखा जा सके और उनके खिलाफ एफआईआर लिखवाने तक के लिए भी पहले चीफ जस्टिस की इजाजत लेनी पड़ती है.
इसके बावजूद यह हलफनामा कई जजों के आचरण पर गंभीर सवाल खड़े करता है. दो हफ्ते पहले एक ऐतिहासिक कदम के तहत संविधान विशेषज्ञ और पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने भी एक हलफनामा दायर किया और मांग की कि इस मामले में उन पर भी मुकदमा चलाया जाए. अपने बेटे की तरह उन्होंने भी कहा कि पिछले 16 चीफ जस्टिसों में से 8 भ्रष्ट रहे हैं. शांति भूषण ने एक मोहरबंद लिफाफे में इन जजों के नाम अदालत को सौंपे. उन्होंने कहा, ‘मैं इसे महान सम्मान समझूंगा अगर भारत के लोगों के लिए एक ईमानदार और पारदर्शी न्यायपालिका बनाने की कोशिश में मुझे जेल जाना पड़े.’
अगर अदालत इन साहसिक हलफनामों पर आगे बढ़े और प्रशांत भूषण व शांति भूषण को सबूतों के साथ अपने आरोपों को साबित करने का काम दे तो यह इतिहास में एक अनूठा अवसर बन सकता है. सेवानिवृत्त जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर पहले ही कह चुके हैं कि इस तरह के शुद्धिकरण के लिए यह एक ऐतिहासिक मौका है. पहला कदम तो यही है कि जनहित में जानकारी साझा की जाए. इसलिए यहां पेश हैं प्रशांत भूषण के हलफनामे से कुछ अंश.
रंगनाथ मिश्र
25.09.1990 – 24.11.1991
चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने सुप्रीम कोर्ट के जज रहते हुए 1984 में हुए सिख नरसंहार की जांच करने के लिए बने आयोग की अध्यक्षता की थी. उन्होंने बहुत ही पक्षपातपूर्ण तरीके से मामले की सुनवाई की और कांग्रेस पार्टी को क्लीन चिट दे दी, इसके बावजूद कि ऐसे पर्याप्त सबूत थे जो पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को कटघरे में खड़ा करते थे. बाद में आधिकारिक जांच रिपोर्टों के साथ-साथ सीबीआई जांच में भी कांग्रेस और इसके नेताओं के खिलाफ सबूत सामने आए. वे (जस्टिस मिश्र) सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य बनने के लिए भी सहमत हो गए थे. मेरे हिसाब से इस तरह के कामों से साफ तौर पर भ्रष्टाचार की बू आती है. जैसा कि मैंने पहले भी उल्लेख किया है, यहां, भ्रष्टाचार शब्द का प्रयोग सीमित तौर पर सिर्फ रिश्वत लेने जैसे काम के लिए नहीं किया गया है. इसका एक व्यापक अर्थ है जिसमें नैतिक रूप से दोषी होना भी शामिल है.
केएन सिंह
25.11.1991 – 12.12.1991
जस्टिस रंगनाथ मिश्र के बाद आए चीफ जस्टिस केएन सिंह ने एक के बाद एक विचित्र और हितकारी फैसले दिए जो जैन एक्सपोर्ट्स और इसी से संबद्ध जैन शुद्ध वनस्पति के पक्ष में जाते थे. इन फैसलों में से कई तो चीफ जस्टिस के तौर पर उनके 18 दिन के कार्यकाल के दौरान हुए और इनमें से भी कई ऐसे थे जिन्हें सिर्फ जबानी उल्लेख द्वारा ही उनकी अदालत में सूचीबद्ध करने का आदेश दिया गया.
अदालत के गलियारों में इस स्कैंडल की इतनी चर्चा हुई कि आखिरकार 9 दिसंबर, 1991 को एक सुनवाई में भारत सरकार के वकील को उस तरीके पर एतराज जताने के लिए मजबूर होना पड़ा जिस तरीके से ये मामले जस्टिस केएन सिंह की खंडपीठ के सामने सुनवाई के लिए सूचीबद्ध हुए थे. जस्टिस सिंह को बताना पड़ा कि कैसे और क्यों उन्होंने इस मामले को अपनी खंडपीठ में भेजने के लिए कहा जब यह दूसरी खंडपीठ के सामने था.
इन सभी फैसलों की बाद में एक के बाद एक कई खंडपीठों ने समीक्षा की और उन्हें पलट दिया गया. इनमें से कुछ में तो समीक्षा याचिकाओं की सुनवाई सबके सामने हुई जो सामान्य तौर पर नहीं होता. 1 अप्रैल, 1991 और 9 सितंबर, 1991 को जस्टिस केएन सिंह ने कास्टिक सोडा के आयात से संबंधित जैन एक्सपोर्ट्स की दो अपीलें स्वीकार कर लीं और कंपनी के लिए आयात शुल्क निर्धारित 92 फीसदी से घटाकर 10 फीसदी कर दिया. इन दोनों फैसलों की बाद में समीक्षा हुई और उन्हें निष्प्रभावी कर दिया गया. 28 नवंबर, 1991 को (चीफ जस्टिस के तौर पर अपने 18 दिनों के कार्यकाल में) जस्टिस सिंह ने जैन शुद्ध वनस्पति के खिलाफ भारत सरकार की अपील खारिज कर दी. यह मामला स्टेलनेस स्टील के कंटेनरों में खाद्य तेल के निर्यात (जो प्रतिबंधित है) से संबंधित था. आंखों में धूल झोंकने के लिए इन कंटेनरों को इस तरह से पेंट किया गया था कि ये हल्के स्टील कंटेनर लगें. इस आदेश की समीक्षा हुई और 16 जुलाई, 1993 को जस्टिस जेएस वर्मा और पीबी सावंत की खंडपीठ ने इसे निष्प्रभावी कर दिया. समझा और माना गया कि जैन एक्सपोर्ट्स और जैन शुद्ध वनस्पति मामलों में जस्टिस केएन सिंह द्वारा दिए गए ये सारे निर्णय भ्रष्ट उद्देश्यों के लिए दिए गए थे. उनके चीफ जस्टिस रहने के दौरान ही इस स्कैंडल की अदालती गलियारों में खूब चर्चा हुई थी.
एएम अहमदी
25.10.1994 – 24.03.1997
जस्टिस वेंकटचलैय्या (जिनकी अपनी ईमानदारी के लिए काफी प्रतिष्ठा थी) के बाद आए चीफ जस्टिस एएम अहमदी ने तो भोपाल गैस रिसाव मामले के बाद दर्ज हुए आपराधिक मामले में गैरइरादतन हत्या के आरोप को ही बदल दिया. इस मामले की सुनवाई के दौरान सात खंडपीठें बदलीं. मगर उन सभी में जस्टिस अहमदी मौजूद रहे जो चीफ जस्टिस थे और ये खंडपीठें भी बना रहे थे. सुनवाई से पहले गैरइरादतन हत्या के आरोप में बदलाव करने के आदेश से न सिर्फ सुनवाई में देर हुई बल्कि न्याय के साथ ऐसा मजाक भी हुआ कि इसके 14 साल बाद जब सीबीआई ने उस आदेश पर पुनर्विचार करने के लिए एक याचिका दायर की तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे ठीक मानते हुए अभियुक्तों को फिर से नोटिस जारी किए.
जस्टिस अहमदी ने इस मामले में कई आदेश दिए थे. इनमें से एक यह भी था कि यूनियन कार्बाइड इंडिया लि. के शेयर बेचने से यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन, यूएसए को जो पैसा मिला है उससे वह एक अस्पताल बनाए. बल्कि उन्होंने तो यूनियन कार्बाइड से जुड़े फंड से अस्पताल के निर्माण के लिए 187 करोड़ रु जारी करने के आदेश भी दे दिए. यह भी खासी असाधारण बात थी कि यूनियन कार्बाइड से जुड़े इन मामलों की सुनवाई करने के बाद जस्टिस अहमदी (अपने रिटायरमेंट के बाद जल्दी ही) उसी अस्पताल ट्रस्ट के लाइफटाइम चेयरमैन बन गए जिससे जुड़े केस की सुनवाई उन्होंने चीफ जस्टिस रहते हुए विस्तार से की थी.
जस्टिस कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में बनी सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने 10 मई, 1996 को सुनाए गए अपने एक फैसले में पर्यावरण संबंधी चिंताओं के चलते फरीदाबाद की बड़कल और सूरजकुंड झील के पांच किलोमीटर के दायरे में सभी निर्माणों पर रोक लगा दी थी. यह आदेश कांत इंक्लेव नामक उस योजना के तहत काटे गए प्लॉटों पर किसी भी निर्माण को भी प्रतिबंधित करता था जो सूरजकुंड झील के पास पंजाब लैंड प्रिजर्वेशन ऐक्ट के सेक्शन चार के तहत घोषित वन भूमि पर हो रहा था.
वन भूमि होने के चलते इस जमीन पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट (गोदावर्मन मामले में अदालत के आदेश के चलते) की इजाजत के बिना कोई भी निर्माण नहीं हो सकता था. लेकिन जस्टिस अहमदी, जो उस समय चीफ जस्टिस थे, ने न सिर्फ इस योजना के तहत प्लॉट खरीदा बल्कि उसके बाद वहां एक मकान (वह भव्य बंगला जहां वे रिटायरमेंट के बाद से रह रहे हैं) भी बनवाया जो वहां बने सबसे पहले मकानों में से एक था. यह अदालत के आदेशों का उल्लंघन था और वन संरक्षण कानून का भी.
जस्टिस कुलदीप सिंह के मूल आदेश के बाद जल्दी ही जस्टिस अहमदी ने चीफ जस्टिस के तौर पर खंडपीठों का फिर से निर्माण किया और कांत इंक्लेव और अन्य पक्षों द्वारा अदालती आदेशों के खिलाफ दायर समीक्षा याचिकाओं को तुरंत सूचीबद्ध करवाया जिसके बाद इन आदेशों में बदलाव किया गया. 11 अक्टूबर, 1996 को दिए गए एक आदेश में निर्माण पर प्रतिबंध का दायरा पांच किलोमीटर से घटाकर एक किलोमीटर कर दिया गया. कांत इंक्लेव और अन्य पक्षों द्वारा दाखिल समीक्षा याचिकाओं पर आगे भी इस आदेश में बदलाव किया गया और 17 मार्च, 1997 को सुनाए गए एक फैसले में निर्माण के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने की अनिवार्यता भी खत्म कर दी गई. इसमें आगे भी बदलाव हुआ और 13 अप्रैल, 1998 को दिए गए एक आदेश में सूरजकुंड झील के एक किलोमीटर के दायरे में भी निर्माण की इजाजत दे दी गई. यह आदेश तत्कालीन चीफ जस्टिस एमएम पंछी की अगुआई वाली एक खंडपीठ ने सुनाया था.
कांत इंक्लेव में जस्टिस अहमदी के घर का निर्माण न सिर्फ पूरी तरह से गैरकानूनी है बल्कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और वन संरक्षण कानून का भी उल्लंघन है, इस तथ्य को सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही 14 मई 2008 को दिए गए अपने उस आदेश में साफ तौर पर माना है जो कांत इंक्लेव की स्पष्टीकरण याचिका पर दिया गया था.
अदालत की केंद्रीय अधिकार प्राप्त कमेटी ने भी पाया है कि कांत इंक्लेव में घर बनाने वालों द्वारा किए गए उल्लंघन इतने गंभीर हैं कि उसने इन निर्माणों को ध्वस्त करने की सिफारिश की है. इनमें जस्टिस अहमदी का घर भी शामिल है. यह सिफारिश 13 जनवरी, 2009 को कमेटी द्वारा दी गई रिपोर्ट में की गई है. मैं मानता हूं कि इस सबमें जस्टिस अहमदी का आचरण नैतिक रूप से गलत और वास्तव में भ्रष्ट था. उनके ये काम अदालत के गलियारों और उस समय के जजों के बीच काफी चर्चा के विषय बने थे.
एमएम पुंछी
18.01.1998 – 09.10.1998
जस्टिस पुंछी 10 महीने के संक्षिप्त कार्यकाल के लिए देश के चीफ जस्टिस नियुक्त हुए थे. वे, जस्टिस वर्मा, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय के सबसे ईमानदार और जानकार जजों में शुमार किया जाता है, के बाद इस पद पर आसीन हुए थे. न्यायिक उत्तरदायित्व समिति ने उनके खिलाफ एक महाभियोग प्रस्ताव तैयार किया था. इस पर राज्यसभा के 25 से ज्यादा सांसदों के दस्तखत थे. प्रस्ताव के लिए और अधिक सांसदों के दस्तखत की जरूरत थी, लेकिन ये नहीं मिल पाए क्योंकि उससे पहले पुंछी देश के चीफ जस्टिस बन गए. महाभियोग प्रस्ताव में उनके खिलाफ छह गंभीर आरोप लगाए गए थे:
1. पुंछी जब सुप्रीम कोर्ट के जज थे तब उनके समक्ष श्री केएन तपूरिया का मामला आया था. बांबे हाई कोर्ट ने तपूरिया को 10.12.93 के एक फैसले में दो साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी और इसके खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. पुंछी ने इस मामले में न सिर्फ अपील स्वीकार की बल्कि सुनवाई करते हुए तपूरिया और मेसर्स टर्नर मॉरिसन के कथित प्रतिनिधि के बीच सुलहनामे के आधार पर तपूरिया की सजा माफ कर दी थी. जबकि तपूरिया के खिलाफ विश्वास भंग (क्रिमिनल ब्रीच ऑफ ट्रस्ट) का आरोप था जिसमें कानून के मुताबिक आरोपित को शिकायतकर्ता से सुलह करने की अनुमति नहीं है. इस मामले में जस्टिस पुंछी द्वारा जारी आदेश असंगत तर्क की जमीन पर था.
2. जस्टिस पुंछी जब पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में जज थे तो उन्होंने रोहतक विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ रामगोपाल की याचिका खारिज कर दी थी. डॉ रामगोपाल ने अपनी याचिका में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजन लाल के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए थे. इसी केस के दौरान जस्टिस पुंछी की दो बेटियों मधु और प्रिया, जिन्होंने गुड़गांव में प्लॉट के लिए आवेदन किया था, को मुख्यमंत्री कोटे के तहत दो कीमती आवासीय प्लॉटों का आवंटन हुआ था. आवंटन 1.5.86 को ठीक उसी दिन हुआ था जिस दिन जस्टिस पुंछी ने रामगोपाल की याचिका खारिज की थी.
3. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का निरीक्षक जज रहते हुए उन्होंने पंजाब के सब जज / ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट केएस भुल्लर के बारे में लिखी अपनी निरीक्षण रिपोर्ट में उनकी ईमानदारी पर सवाल उठाए थे क्योंकि भुल्लर ने उनके सामने एक ऐसे मुकदमे का फैसला देने से इनकार कर दिया था जिसमें जस्टिस पुंछी के रिश्तेदार एक पक्ष के तौर पर शामिल थे.
4. सुप्रीम कोर्ट का जज रहते हुए जस्टिस पुंछी ने पंजाब की राजधानी ऐक्ट, 1952 के सेक्शन 8 (अ) की वैधता से जुड़े मुकदमे की सुनवाई खुद करने और इस पर फैसला देने की कोशिश की जबकि उनकी इस मुकदमे के नतीजे में व्यक्तिगत दिलचस्पी थी.
5. जस्टिस पुंछी ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में रजिस्ट्री से जुड़े अधिकारियों को तब धौंस देने की कोशिश की थी जब ये अधिकारी तब हाई कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस वी रामास्वामी के सरकारी आवास में फर्नीचर सामग्री की सूची बनाने आए थे. जस्टिस पुंछी ने उन्हें आदेश दिया था कि सूची रिपोर्ट में लिखा जाए कि सभी सामान ठीक हैं जबकि यह जानकारी सही नहीं थी और सूची के सामान का सत्यापन भी नहीं किया गया था. इसके बाद जब यह मामला महाभियोग की कार्रवाई का हिस्सा बन गया और सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में इस मुद्दे को शामिल किया गया तब जस्टिस पुंछी ने खुद अपने समक्ष इस मुकदमे की सुनवाई करवाने की कोशिश की जबकि देखा जाए तो इस मामले में उनकी भूमिका के कारण उन्हें सुनवाई करने का अधिकार नहीं था.
6. जस्टिस पुंछी ने गुजरात के अशोक और रूपा हुर्रा की शादी से जुड़े एक मामले को जबर्दस्ती लटकाकर रखा. इस मामले के बीच में ही उन्होंने आदेश दे दिया कि पति दोबारा याचिका दायर करे और मामला फिर से उनके सामने आए. इन कार्रवाइयों पर आखिरी फैसला जस्टिस पुंछी ने मुकदमे से जुड़े पहलुओं के इतर वजहों से लिया जो कानून के खिलाफ था.
एएस आनंद
10.10.1998- 01.11.2001
जस्टिस आनंद की नियुक्ति जस्टिस पुंछी के बाद हुई थी. बतौर चीफ जस्टिस उनका कार्यकाल भी काफी विवादास्पद रहा. न्यायिक उत्तरदायित्व समिति को उनके खिलाफ गंभीर कदाचार के कई सबूत मिले थे. समिति ने इस आधार पर उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव भी तैयार किया था. इसमें जस्टिस आनंद के खिलाफ चार गंभीर आरोप लगाए गए थे:
1. एएस आनंद जब जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस थे तब उन्होंने कृष्ण कुमार आमला के मामले की सुनवाई करते हुए उनके पक्ष में अंतरिम आदेश दिए थे. ये आदेश आमला से उन्हें गंदरबल, श्रीनगर में दो कनाल (एक कनाल, एकड़ के आठवें हिस्से के बराबर होता है) प्लॉट भेंट में मिलने के थोड़े ही समय बाद आ गए थे. आमला और उनके पिता तीरथ राम आमला के स्वामित्व वाली कंपनियों से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान ही आनंद ने कृष्ण आमला और उनके पिता से यह भेंट स्वीकार कर ली थी. ऐसे काम एक जज के लिए गंभीर कदाचार की श्रेणी में आते हंै.
2. आनंद ने एक जज एवं जम्मू-कश्मीर के चीफ जस्टिस रहते हुए व्यक्तिगत हित के लिए पद का दुरुपयोग किया. जम्मू-कश्मीर कृषि सुधार कानून- 1976 के मुताबिक जिस जमीन पर सरकार का अधिकार होना चाहिए था उस पर उन्होंने अपना स्वामित्व रखा.
3. आनंद जब सुप्रीम कोर्ट के जज थे तब उन्होंने झूठी बातों के आधार पर मध्य प्रदेश के एक सिविल कोर्ट में एक मामला दायर करने के लिए अपनी पत्नी और सास की मदद की थी. सिविल कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके राजस्व अधिकारियों पर दबाव डाला था ताकि ट्रायल कोर्ट में कार्रवाई के कागजात राजस्व अदालत में प्रस्तुत न किए जाएं. इसके बाद उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए राज्य द्वारा उनकी पत्नी के खिलाफ दायर विशेष अवकाश याचिका वापस लेने के लिए दबाव डाला था.
4. जस्टिस आनंद ने राज्य का चीफ जस्टिस रहते हुए अपने पद और प्रभाव का दुरुपयोग किया और जम्मू और कश्मीर राज्य सरकार से जम्मू के गांधीनगर में दो कनाल का एक प्लॉट बाजार भाव की तुलना में नाममात्र की कीमत पर लिया. इसके लिए उन्होंने एक झूठा हलफनामा दिया जिसमें उन्होंने कहा कि उनके पास जम्मू में किसी तरह की अचल संपत्ति या जमीन नहीं है. जस्टिस आनंद के खिलाफ गंभीर आरोपों के पुख्ता सबूत थे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस निवर्तमान चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर पर्याप्त संख्या में जरूरी सांसदों के दस्तखत संभव नहीं हो सके. सबूत होने के बावजूद सांसद हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी वर्तमान जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर दस्तखत करने में इसलिए हिचकते हैं कि ज्यादातर सांसदों के मामले न्यायालय में चल रहे होते हैं और उन्हें डर होता है कि इसका परिणाम उन्हें या उनकी पार्टी को न भुगतना पड़े.
वाईके सभरवाल
01.11.2005 – 14.01.2007
3 अगस्त, 2007 को कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी. इसमें चीफ जस्टिस वाईके सभरवाल के खिलाफ कई गंभीर आरोपों का ब्योरा था. इनमें सबसे गंभीर आरोप यह था कि उन्होंने दिल्ली में आवासीय इलाकों से संचालित व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की सीलिंग के कई आदेश जारी किए थे. इसका तात्कालिक असर यह हुआ कि लोगों को दुकानों और ऑफिसों को तुरंत ही शॉपिंग मॉलों और बिल्डरों व डेवलपरों द्वारा बनाए गए व्यावसायिक कॉम्प्लेक्सों में शिफ्ट करना पड़ा. नतीजतन इनका किराया रातों-रात आसमान छूने लगा. जिस समय सभरवाल ने ये आदेश जारी किए, उसी दौरान उनके बेटों ने दिल्ली के कुछ शॉपिंग मॉल्स और व्यावसायिक कॉम्प्लेक्सों में साझेदारी हासिल कर ली और आदेश के बाद मोटा मुनाफा कमाया. साथ ही उसी दौरान उनके बेटों की कंपनियों के पंजीकृत कार्यालय जस्टिस सभरवाल के सरकारी निवास से चल रहे थे. इसके अलावा अमर सिंह टेप मामले की सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार द्वारा नोएडा में उनके बेटों को काफी सस्ते दामों पर विशाल व्यावसायिक प्लॉट आवंटित किए गए थे. सभरवाल ने इन टेपों के प्रसारण और प्रकाशन पर रोक का आदेश दिया था.
जस्टिस सभरवाल जब सीलिंग मामले की सुनवाई कर रहे थे तब उनके बेटों का सालाना कारोबार दो करोड़ रुपए था. लेकिन मार्च, 2007 में उन्होंने महारानी बाग में 15.43 करोड़ की संपत्ति खरीद ली. उसके बाद हाल ही में अप्रैल, 2010 में उन्होंने दिल्ली के 7, सिकंदरा रोड के पास 122 करोड़ रुपए (अपने बिल्डर दोस्तों के साथ साझीदारी में) में एक संपत्ति खरीदी है. इस संपत्ति की कीमत 150 करोड़ रुपए से ज्यादा की थी, लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट के एक जज द्वारा दिए गए कई अनैतिक आदेशों की मदद से सभरवाल के बेटों को यह संपत्ति 122 करोड़ रुपए में मिल गई. सीबीआई और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) में इसकी शिकायतें दर्ज करने के बाद भी ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि इस मामले में कोई एफआईआर दर्ज हुई है या सीबीआई ने किसी भी तरह की जांच की है.