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न युद्ध, न शांति

चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ इसी महीने भारत आ रहे हैं. इसी दौरान दोनों देशों के तनाव-भरे कूटनीतिक संबंधों को भी 60 साल होने जा रहे हैं. चीन की नई मुखरता कूटनीतिज्ञों, नेताओं और सैन्य रणनीतिकारों को हैरान कर रही है. चीनी मामलों के जानकार और हाल में रॉ से रिटायर हुए भास्कर रॉय कहते हैं, ‘पश्चिमी सेक्टर में स्थित लद्दाख की पैंगोंग सो झील के पास चीन का नियंत्रण लगातार बढ़ता गया है. भारतीय सेना ने सरकार को सूचना दी है कि चीनी और भी ज्यादा जमीन पर अपना दावा कर रहे हैं.’

सरकार में कोई यह बात मानने को तैयार नहीं होगा मगर यह सच है कि दो साल पहले भारत के सैन्य बलों ने चीन से खतरे का स्तर ‘लो’ से बढ़ाकर ‘मीडियम’ कर दिया है. आधिकारिक रूप से चीन का रक्षा बजट 70 अरब डॉलर है, मगर पेंटागन का मानना है कि यह 150 अरब डॉलर से कम नहीं. उधर, भारत का रक्षा खर्च पेंटागन के आंकड़े का पांचवां हिस्सा ही है.

हालांकि इतने भारी-भरकम खर्च के बावजूद इसकी संभावना कम ही है कि परमाणु हथियारों से लैस भारत और चीन युद्ध लड़ेंगे. ऐसा इसलिए कि दोनों में से कोई भी 21वीं सदी में दुनिया की अगुआई करने का अवसर खोना नहीं चाहता. यानी दांव पर बहुत कुछ है.

फिर भी बीजिंग और नई दिल्ली की सैन्य गतिविधियां बताती हैं कि पूर्वी सेक्टर यानी अरुणाचल प्रदेश और पश्चिमी सेक्टर यानी लद्दाख में दोनों देश टकराव की तैयारी कर रहे हैं. हालांकि इसके भी किसी युद्ध में तब्दील होने की संभावना कम ही दिखती है.

लद्दाख में पीएलए की बढ़ती घुसपैठ बताती है कि कश्मीर मुद्दे पर चीन ने अपना रुख बदल लिया है

लद्दाख का सीमावर्ती इलाका किसी उल्टी हथेली की तरह है. पिछले चार दशकों में चीन ने इस हथेली से निकलने वाली तीन उंगलियों पर कब्जा कर लिया है. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर ईस्ट एशियन स्टडीज के चेयरमैन श्रीकांत कोंडपल्ली बताते हैं, ‘अब वे (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ चाइना या पीएलए) चौथी उंगली की तरफ बढ़ रहे हैं जिसे ट्रिगोनोमेट्रिक हाइट्स या ट्रिग हाइट्स कहा जाता है. सबसे ज्यादा घुसपैठ इसी इलाके में हो रही है.’

लद्दाख में हो रही इस चीनी घुसपैठ पर यूपीए सरकार का रवैया लगातार ठंडा रहा है. सितंबर, 2009 में खबरें आई थीं कि चीन ने लेह के पूर्व में चुमार सेक्टर में स्थित जुलुंग ला इलाके में घुसपैठ की है. यह इलाका लद्दाख, स्पीति और तिब्बत को जोड़ता है. अरुणाचल पर चीन के दावे को सुर्खियां मिलती हैं, मगर वास्तव में भारतीय और चीनी सेनाएं पश्चिमी सेक्टर में लगातार एक-दूसरे को मात देने का खेल खेल रही हैं.

कोंडपल्ली कहते हैं, ‘पैंगोंग सो झील का दो तिहाई हिस्सा उनके नियंत्रण में है. खबरें हैं कि चीनी वहां तोपखाना और गश्ती नौकाएं ले आए हैं. वे आक्रामकता के साथ झील में गश्त लगाते हैं. चीनी मीडिया में तो एक पनडुब्बी की तैनाती तक की रिपोर्ट है. भारतीय सैनिकों के पास झील के एक तिहाई हिस्से पर अपना प्रभावपूर्ण प्रभुत्व जताने के साधन ही नहीं हैं. हम ज्यादा गश्त नहीं कर सकते क्योंकि हमारे सैनिकों के पास गश्ती नौकाएं ही नहीं हैं.’

पीएलए धीरे-धीरे पश्चिमी सेक्टर में समर लुंगपा क्षेत्र पर अपना दावा मजबूत कर रही है. चीनियों के अनुसार, वास्तविक नियंत्रण रेखा समर लुंगपा, काराकोरम दर्रे और छिपछाप नदी के बीच अंकित क्षेत्र के दक्षिण में है. लेकिन भारत का आधिकारिक रुख पहले जैसा ही है.  भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के डायरेक्टर जनरल आरके भाटिया ने नवंबर के पहले हफ्ते में एक बयान देते हुए कहा, ‘हमारे पास सीमाओं पर किसी भी घुसपैठ की कोई रिपोर्ट नहीं है. सीमाओं पर शांति है.’

कोंडपल्ली कहते हैं,’चीन से जुड़े कोई भी आधिकारिक दस्तावेज सार्वजनिक नहीं किए गए हैं. राष्ट्रीय अभिलेखागार में जाइए और चीन संबंधी किसी भी दस्तावेज के बारे में पूछिए तो आपको चुप्पी के अलावा कुछ नहीं मिलेगा.’ भारत के कानून के मुताबिक 50 साल के बाद गोपनीय आधिकारिक दस्तावेज सार्वजनिक किए जा सकते हैं. लेकिन चीन से संबंधित दस्तावेज 1914 के बाद से सार्वजनिक नहीं हुए हैं. 1914 के दस्तावेज भी उस समय हुए शिमला सम्मेलन के हैं जब ब्रिटेन, चीन और तिब्बत के प्रतिनिधियों ने तिब्बत की स्थिति को हल करने के लिए मुलाकात की थी. इस दौरान ही भारतीय-चीन सीमा के तौर पर मैकमोहन रेखा बनाई गई थी. चीन इस सीमा को स्वीकार नहीं करता.

रॉय के मुताबिक पीएलए की घुसपैठ और लद्दाख में इसका बढ़ता अतिक्रमण दिखाता है कि कश्मीर मुद्दे पर चीन ने अपना रुख बदल लिया है. वे कहते हैं, ‘1980 के दशक में चीनी कश्मीर को एक द्विपक्षीय विवाद कहते थे. जम्मू व कश्मीर को भारत अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता था. अब वे कहते हैं कि भारत के पास जो कश्मीर है वह एक विवादित क्षेत्र है और पाक अधिकृत कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा है.’

चीन के इस खेल को वही समझ सकता है जिसे उसके चरित्र की गहरी समझ हो. रॉय कहते हैं, ‘चीनी सीधे बात नहीं करते.’ कश्मीर पर चीन ने अपने रुख में नाटकीय बदलाव तभी जाहिर कर दिया था जब उसने बिना किसी प्रचार के जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल के लोगों को स्टेपल्ड वीजा (नत्थी किए हुए कागज पर वीजा) जारी करना शुरू कर दिया. कोंडपल्ली कहते हैं, ‘पाक अधिकृत कश्मीर और नार्दन एरिया में रह रहे लोगों को चीन द्वारा स्टेपल्ड वीजा जारी करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है. इसलिए यह एक अहम संकेत है कि चीन भारत को क्या बताना चाहता है. मतलब यह कि पाकिस्तान के नियंत्रण वाला कश्मीर अब विवादित क्षेत्र नहीं है.’ इस तर्क से यह भी कहा जा सकता है कि चीनी नेतृत्व ने भारत को यह संकेत दे दिया है कि वह जम्मू-कश्मीर को एक विवादित इलाका मानता है. 

सीमा से जुड़े विवादों में जमीन किसकी है, इसके निर्धारण के लिए नक्शों का आदान-प्रदान महत्वपूर्ण होता है

फिर इसी साल अगस्त में चीन ने नार्दन कमांड के ले. जनरल बीएस जसवाल को एक आधिकारिक यात्रा के लिए वीजा देने से इनकार कर दिया. उसने यह सुझाव दिया कि जसवाल की जगह किसी और जनरल, जो जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल के बाहर तैनात हो, को भेजा जा सकता है. भारत ने तत्काल यह सुझाव ठुकरा दिया. इसके बाद सितंबर में द न्यूयॉर्क टाइम्स में एक खबर छपी जिसमें कहा गया था कि पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित और बाल्टिस्तान में चीन ने 11,000 सैनिकों की तैनाती कर दी है. हाल ही में चीन के विदेश मंत्रालय ने एलान किया कि नार्दन एरिया, गिलगित और बाल्टिस्तान पाकिस्तान का हिस्सा हैं. भारत इन्हें अविभाजित जम्मू-कश्मीर का हिस्सा मानता है.

चीन मामलों के विशेषज्ञ और सरकार के सूत्र बताते हैं कि चीन पाक अधिकृत कश्मीर और नॉर्दन एरिया में बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश करके अपनी नई कश्मीर नीति को वैधता का जामा पहना रहा है. पाकिस्तान और अन्य जगहों पर पनबिजली परियोजनाओं और सड़क व रेल निर्माण में चीनी निवेश का आंकड़ा 30.14 अरब डॉलर बताया जा रहा है. पाक अधिकृत कश्मीर में चीन ने एक महत्वपूर्ण रणनीतिक परियोजना शुरू की है. वह झिंजियांग प्रांत के पास 4,693 मीटर की ऊंचाई पर बसे खूंजेराब और नॉर्दन एरियाज के बीच एक रेल लाइन बनवा रहा है. उसकी इस रेल लाइन को पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक ले जाने की योजना है. गौरतलब है कि यह बंदरगाह भी चीन ही बनवा रहा है. कोंडपल्ली कहते हैं. ‘चीनी चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान हमेशा अलग-अलग रहें.’

रॉय के मुताबिक, चीन जम्मू और कश्मीर को एक त्रिपक्षीय मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है. इससे पहले से ही जटिल कश्मीर मुद्दे में जटिलता की एक और परत जुड़ जाएगी. चीन चुपचाप समीकरण बदल रहा है. भले ही भारत ने अपनी स्थिति न बदली हो और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा यहां आकर बयान दे गए हों कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच का मुद्दा है. अक्टूबर के आखिरी हफ्ते चीन की नई ऑनलाइन मानचित्रण सेवा लांच हुई. गूगल मैप्स की प्रतिद्वंद्वी कही जा रही इस सेवा में अरुणाचल और अक्साई चिन (लद्दाख का एक हिस्सा) को चीन का हिस्सा दिखाया गया है.

19वीं सदी में पांच हिमालयी राज्य थे. तिब्बत, लद्दाख, सिक्किम, नेपाल और भूटान. 20 सदी में इस स्थिति में बदलाव हुआ. लद्दाख और सिक्किम भारत में मिल गए. भूटान और नेपाल स्वतंत्र देश बन गए.  उधर, तिब्बत, तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (टीएआर) के रूप में चीनी नियंत्रण में आ गया. कोंडपल्ली कहते हैं, ’19वीं सदी में जो कश्मीर था उसका 20 फीसदी हिस्सा आज चीन के कब्जे में है और इसलिए तकनीकी रूप से देखा जाए तो यह विवाद का हिस्सा हो जाता है. लेकिन कश्मीरी अलगाववादियों में यह हिम्मत नहीं कि वे चीन से अपनी जमीन वापस मांगें क्योंकि उनके पाकिस्तानी आका उन्हें इसकी इजाजत नहीं देंगे.’

तो स्थिति यह है कि कश्मीर समस्या के जन्म के 63 साल बाद चीन ने चुपचाप खुद को इस समस्या का ‘तीसरा पक्ष’ बनाकर इसे एक त्रिपक्षीय मुद्दे में तब्दील कर दिया है. लेकिन भारत भी चीन के इस खेल को समझ रहा है. पिछले महीने चीन के वुहान शहर में हुई रूस, भारत और चीन के विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान कृष्णा ने अपने समकक्ष यांग च्येछी से सीधी बात की.  विदेश सचिव निरुपमा राव के मुताबिक कृष्णा ने कहा कि ‘उम्मीद है कि चीन जम्मू एवं कश्मीर के प्रति संवेदनशील रुख दिखाएगा जिस तरह हम टीएआर और ताइवान के संदर्भ में दिखाते रहे हैं.’ पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह कहते हैं, ‘यह निश्चित रूप से अतीत के रुख से अलग है. पहली बार ऐसी बात कही गई है.’

सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भारत और चीन के बीच विचार-विमर्श के 13 दौर हो चुके हैं. रॉय कहते हैं, ‘लेकिन कभी भी पश्चिमी और पूर्वी सेक्टर के नक्शों का आदान-प्रदान नहीं किया गया.’ कोंडपल्ली कहते हैं, ‘हमने अपने नक्शे दिखाए हैं मगर चीनियों ने अपने नक्शे नहीं दिखाए हैं.’ नटवर सिंह कहते हैं, ‘चीनी कभी हमें अपनी सीमा के नक्शे नहीं देते. जो एनलाई ने नेहरू को बताया था कि चीनी नक्शे बहुत पुराने हैं और उनका कोई फायदा नहीं है. तब से लेकर आज तक चीनी हमेशा अपने नक्शे न देने की कोई न कोई वजह गिनाते रहे हैं.’

रिपोर्टें बताती हैं कि पीएलए 1962 के कब्जे से 11 किमी आगे तक आ गई है और इस इलाके में कर वसूल रही है

सीमा से जुड़े विवादों में जमीन किसकी है, इसका निर्धारण करने के लिए नक्शों का आदान-प्रदान महत्वपूर्ण होता है. कोंडपल्ली कहते हैं, ‘अगर नक्शों का आदान-प्रदान हो जाता है तो यह समझ लिया जाता है कि भारत और चीन ने अपनी-अपनी बात को ऑन रिकॉर्ड रख दिया है. आसानी से समझने के लिए मान लेते हैं कि हमारे बीच प्रॉपर्टी से जुड़ा कोई विवाद है. हम दोनों के पास प्रॉपर्टी डीड हैं. जज इनका विश्लेषण करता है और यह देखता है कि किसका दावा मजबूत है. इसके बाद वह फैसला देता है.’ मिलेट्री इंटेलिजेंस (एमआई) के सूत्र बताते हैं कि जियाबाओ की यात्रा के दौरान अगर चीन आधिकारिक रूप से नक्शों का आदान-प्रदान करने का फैसला करता है तो भारत को झटका लग सकता है.

कोंडपल्ली कहते हैं, ‘जमीन पर अपना दावा साबित करने का एक तरीका यह है कि आप यह प्रमाण दें कि उस जमीन पर कर की वसूली आप कर रहे हैं. अगर आप दुर्गम इलाकों से वसूले जा रहे भू एवं राजस्व कर के साक्ष्य पेश कर सकते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जो भी करों की वसूली कर रहा है, कानूनी रूप से जमीन उसी की है. खबरें हैं कि एमआई ने सरकार को बताया है कि 1980 से ही पीएलए वास्तविक नियंत्रण रेखा के इर्द गिर्द रहने वाले लोगों से ऐसे दस्तावेज इकट्ठा कर रही है. ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि लोग चीनी इलाकों में जाकर बस गए हैं और अपने साथ जमीन से जुड़े दस्तावेज भी ले गए हैं. इसके अलावा यह भी सूचना है कि पीएलए खानाबदोशों से भी अप्रत्यक्ष कर वसूल रही है और इसका रिकॉर्ड बना रही है.’

इससे यह बात समझ में आ सकती है कि पिछले दो दशकों के दौरान पीएलए की छोटी-छोटी टीमें क्यों पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों में लगातार घुसपैठ करती रही हैं. भूमि संबंधी दस्तावेज और भूमि व राजस्व कर लेने के लिए. इससे यह भी समझा जा सकता है कि चीनी वास्तविक नियंत्रण रेखा वाले अपने नक्शे क्यों नहीं दिखाते. पिछले 20 साल में चीन धीरे-धीरे अपने दावे के समर्थन में सबूत जमा करता आ रहा है कि अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश उसका हिस्सा हैं. कोंडपल्ली कहते हैं, ‘रिपोर्टें बताती हैं कि पीएलए 1962 के कब्जे से 11 किमी आगे तक आ गई है और इस दायरे में आने वाले इलाकों से कर वसूल रही है.’

उत्तराखंड और सिक्किम में सीमा पर भारत और चीन के बीच एक सहमति हो चुकी है. लेकिन अरुणाचल प्रदेश के 90,000 वर्ग किमी क्षेत्र पर चीन लगातार दावा करता आ रहा है.  हालांकि राय और दूसरे कई विदेश नीति विशेषज्ञ इस पर सहमति जताते हैं कि चीन के इन हमलावर तेवरों के सीमा पार करने की आशंका नहीं है क्योंकि आज के दौर में दांव पर बहुत कुछ लगा है. रक्षा विश्लेषक और इंडियन डिफेंस रिव्यू के संपादक भरत वर्मा कहते हैं, ‘चीन अब से 2012 तक ही भारत पर हमला कर सकता है. इसके बाद इस अवसर की खिड़की का बंद होना शुरू हो जाएगा और 2015 तक चीन के लिए ऐसा करना लगभग असंभव हो जाएगा. चीन के लिए भारत पर हमला करने की तीन अनिवार्यताएं होंगी: 1) पाकिस्तान में भारी अराजकता हो गई है, वह टूटकर बिखर रहा है. चीन ने पाकिस्तान  में भारी निवेश किया है. पाकिस्तान को बचाने के लिए और इसे तोड़ने वाली ताकतों को एक करने के लिए चीन भारत पर हमला करेगा. 2) चीन के नजरिये से तिब्बत का विलय तब तक पूरा नहीं है जब तक अरुणाचल पर उसका कब्जा न हो. 3) भारतीय सेना 2015 तक बहुत ही अत्याधुनिक हो जाएगी और चीन को हमले के बारे में सोचने से पहले भी कई बार सोचना पड़ेगा.’

चीन 4,000 किमी की वास्तविक नियंत्रण रेखा के नजदीक अपने सैन्य ढांचे का विस्तार कर रहा है. वह सड़कें और रेल लाइनें बिछा रहा है ताकि सैनिकों की आवाजाही तेज और ज्यादा सक्षम तरीके से हो सके. वास्तविक नियंत्रण रेखा के नजदीक भारी पैमाने पर गतिविधियों को देखते हुए ही जनरल वीके सिंह ने कहा था, ‘चीन बुनियादी ढांचे के विकास पर बहुत पैसा खर्च कर रहा है. वह कहता है कि यह क्षेत्र के स्थानीय लोगों के लिए है. मगर हमें उसके इरादों पर शक है.’ इसी बयान को पकड़ते हुए पूर्व रक्षा मंत्री और समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने संसद में यह मसला उठाया था. यादव कहते हैं, ‘चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. मैं रक्षा मंत्री रहा हूं और जानता हूं कि उनके इरादे क्या हैं. हमारी सीमाएं सुरक्षित नहीं हैं.’

अरुणाचल में वास्तविक नियंत्रण रेखा के उस पार चीनी हिस्से तक पहुंच अपेक्षाकृत आसान है जबकि इस पार भारतीय हिस्से में घने वन और दुर्गम पहाड़ियां हैं. नाम न छापने की शर्त पर अधिकारी तहलका को बताते हैं, ‘2008 तक रणनीति यह थी कि पूर्व की तरफ पड़ने वाले सीमावर्ती इलाकों को विकसित न किया जाए और सेना भी इस पर सहमत थी. 1962 की शर्मनाक हार वह भूली नहीं थी और उसे लगता था कि अगर इन क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे का विकास किया गया तो युद्ध की स्थिति में चीनी इसका फायदा उठाएंगे.’ दो साल पहले ही सरकार ने सीमावर्ती क्षेत्रों पर अपनी इस नीति को आखिरकार बदलने का फैसला किया. 2008 में सरकार ने इन इलाकों में सीमा पर सड़कों के निर्माण के लिए भूमि सर्वेक्षण शुरू किया और अब ऐसा लग रहा है कि सरकार वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास बसे भारत के सीमावर्ती इलाकों को सड़क मार्ग से जोड़ देगी.

10 नवंबर को गृह राज्य मंत्री मुलापल्ली रामचंद्रन द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में  कहा गया है कि सरकार ने जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में भारत और चीन सीमा पर स्थित क्षेत्रों में 804 किमी कुल लंबाई की 27 सड़कें अलग-अलग चरणों में बनाने का फैसला किया है. पिछले दो साल के दौरान वास्तविक नियंत्रण रेखा के नजदीक सड़कें बनाने पर सरकार ने 384 करोड़ रु खर्च किए हैं. भारत ने पूर्वोत्तर में दो अतिरिक्त माउंटेन डिविजनें बनाकर अपने सैनिकों की संख्या का आंकड़ा एक लाख से भी ऊपर पहुंचा दिया है. भारतीय वायु सेना द्वारा हाल ही में अपने बेड़े में शामिल किए गए सुखोई-30 लड़ाकू विमानों के दो स्क्वाड्रन तेजपुर में तैनात कर दिए गए हैं. इसके साथ ही हवाई हमले की चेतावनी देने वाली व्यवस्था भी है. पूर्वोत्तर में 3,500 किमी की दूरी तक मार करने वाली अग्नि-3 मिसाइलें भी तैनात की गई हैं. अगले साल की शुरुआत में अग्नि-5 का परीक्षण भी किया जाएगा जो चीन के उत्तर में सबसे दूर स्थित शहर हारबिन तक मार करने में सक्षम है. इसके अलावा भारतीय वायुसेना ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थित अपनी तीन हवाई पट्टियों को फिर से शुरू कर दिया है.

चीन की नौसैन्य रणनीति भी भारत के लिए चिंताएं जगा रही है. 18 नवंबर को श्रीलंका ने चीन द्वारा बनाए गए हंबनटोटा बंदरगाह का उदघाटन किया. चीन पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह का निर्माण कर रहा है. म्यामांर के कोको द्वीप पर भी उसने चौकियां बना ली हैं और वह थाइलैंड, कंबोडिया और बांग्लादेश में भी बंदरगाह सुविधाएं स्थापित कर रहा है. उसकी बढ़ती अर्थव्यवस्था निर्यात पर निर्भर है. चीन अपने उत्पादन का 30 फीसदी अपने यहां खपाता है और बाकी 70 फीसदी हिंद महासागर में मौजूद जल मार्गों के जरिए दुनिया के बाकी भागों में भेजता है. उसकी 20 करोड़ टन सालाना तेल जरूरत का 80 प्रतिशत मलक्का के जलडमरूमध्य के माध्यम से इस तक पहुंचता है. कोंडपल्ली कहते हैं, ‘अंडमान में स्थित भारतीय सैन्य बेस मलक्का के जलडमरूमध्य तक पहुंच पर नियंत्रण रखता है.  चीनी चिंतित हैं कि युद्ध की स्थिति में भारतीय नौसेना चीनी तेल टैंकरों को डुबा सकती है. इससे चीन की निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था को झटका लगेगा.’

इस साल अगस्त में चीन, जापान को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है. जियाबाओ इस शानदार आर्थिक तरक्की से पैदा हुए विश्वास के साथ भारत आएंगे. लेकिन उन्हें यह भी पता होगा कि उनके दौरे से एक महीने पहले ही भारतीय सेना ने अरुणाचल स्काउट्स बटालियन का गठन किया है. अरुणाचल के ही मूल निवासियों से मिलकर बनी इस पहली बटालियन के सदस्यों को ऊंचाई पर स्थित क्षेत्रों में होने वाली लड़ाई के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा.

तो क्या जियाबाओ भारत की इस बड़ी रणनीति का जवाब भूअभिलेख और कर दस्तावेज दिखाकर देने वाले हैं ताकि वे अक्साइ चिन और अरुणाचल पर अपना दावा साबित कर सकें? नई दिल्ली उम्मीद ही कर सकती है कि ऐसा न हो.

राडिया की रामकहानी

अरबों रु के संचार घोटाले से घिरी लॉबीइस्ट नीरा राडिया ने पिछले दिनों अपने जन्मदिन पर दक्षिण दिल्ली में एक मंदिर का उद्घाटन किया. इस कृष्ण मंदिर को बनवाने के लिए दान भी उन्होंने ही दिया था. इस मौके पर मौजूद रहे लोग बताते हैं कि राडिया ने मंदिर में काफी देर तक पूजा-अर्चना की. इन दिनों उनके नाम पर जितना बड़ा बवाल मचा हुआ है उसे देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में अब तक के सबसे बड़े इस घोटाले की छाया से बाहर निकलने के लिए उन्होंने ईश्वर से मदद की प्रार्थना की होगी. मंदिर जाने से पहले दक्षिण दिल्ली की सीमा पर बने उनके फार्महाउस पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर विभाग और सीबीआई के नोटिस पहुंच चुके थे. यह वही फार्महाउस है जो जितना वहां होने वाले धार्मिक भोजों के लिए जाना जाता है उतना ही देर रात तक चलने वाली पार्टियों के लिए भी. दोनों ही आयोजनों में दिल्ली के रसूखदार लोग शामिल होते हैं.

अब यह तो वक्त ही बताएगा कि यह प्रार्थना सत्ता के गलियारों में मौजूद इस अकेली महिला लॉबीइस्ट की कोई मदद कर पाएगी या नहीं. अकसर साड़ी या बिजनेस सूट में नजर आने वाली राडिया के बारे में कहा जाता है कि इंसानी सोच और तकनीकी शब्दावली पर उनकी पकड़ इतनी कुशल है कि अमीर और ताकतवर लोगों की नब्ज टटोलने में उन्हें ज्यादा देर नहीं लगती.

लॉबीइंग की दुनिया में राडिया ने शुरुआती कदम भाजपा के साथ बढ़ाए. फिर उन्होंने कांग्रेस के भीतरी गलियारों तक पहुंच बनाई और माना जाता है कि अब सीपीएम के साथ भी उनकी अच्छी छनती है. उनके बारे में होने वाली चर्चाएं बताती हैं कि आज उनकी निजी संपत्ति 500 करोड़ रु से ऊपर की है.

आयकर विभाग की जांच बताती है कि रीयल एस्टेट कंपनी यूनिटेक को टेलीकॉम लाइसेंस दिलवाने में राडिया ने अहम भूमिका निभाई

कर चोरी को पकड़ने के लिए कुछ समय पहले आयकर विभाग ने जब कुछ लोगों के फोन टेप करने शुरू किए थे तो ऐसा करने वाले अधिकारियों को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि यह रूटीन काम उन्हें इतने बड़े घोटाले तक पहुंचा देगा. अब आयकर विभाग समेत दूसरी कई एजेंसियां भी यह जानने की कोशिश कर रही हैं कि क्या दिल्ली की सत्ता के गलियारों में राडिया की पहुंच इस कदर है कि वे किसी को भी मंत्री बनवा दें या फिर अपने कॉरपोरेट क्लाइंटों के हित में सरकार से नीतियां बनवा दें.

उधर, प्रवर्तन निदेशालय यह जानने की कोशिश कर रहा है कि कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस के लिए बनी राडिया की कंपनी के जरिए पैसा किससे किसको पहुंचा. शायद राडिया को भी ईडी की इस मंशा के बारे में अंदाजा हो गया था, इसलिए पूछताछ के लिए सबसे पहले भेजे गए नोटिसों को उन्होंने स्वास्थ्य संबंधी कारणों का हवाला देकर टालने की कोशिश की. इस दौरान मिले समय का इस्तेमाल उन्होंने उत्तर प्रदेश के कुछ नेताओं से संपर्क करने में किया. बताया जाता है कि राडिया ने उनसे कहा कि वे अपने राज्य के कैडर के अधिकारियों को खामोश रहने के लिए कहें जो इस घोटाले की जांच कर रहे हैं. लेकिन एक लाख 76 हजार करोड़ रु के इस घोटाले की आंच में कोई अपने हाथ नहीं जलाना चाहता था.

राजनीतिक रूप से राडिया को अलग-थलग पड़ते देख जांच एजेंसियों की हिम्मत बढ़ी. पूछताछ के लिए उन्हें फिर से नोटिस भेजे गए. इस बार इन नोटिसों की भाषा काफी तल्ख थी. 24 नवंबर को राडिया ईडी के दफ्तर पहुंचीं. शायद मीडिया की नजर से बचने के लिए उन्होंने वक्त चुना सुबह सवा नौ बजे. उस समय तक तो जांच अधिकारी भी दफ्तर नहीं पहुंचे थे. जांच में शामिल ईडी के एक बड़े अधिकारी राजेश्वर सिंह से जब तहलका ने बात करने की कोशिश की तो वे इससे ज्यादा कुछ भी कहने को तैयार नहीं हुए कि वे शायद भारत में हुए अब तक के सबसे बड़े घोटाले की जांच कर रहे हैं.

जब तक राडिया ईडी के दफ्तर से बाहर निकलतीं तब तक वहां मीडिया का भारी-भरकम जमावड़ा लग गया था. सवालों की बौछार के बीच वे सधे हुए शब्दों में उसी नफासत के साथ बोलीं जो किसी पीआर प्रोफेशनल की पहचान होती है. कुछ भी ज्यादा कहने से बचते हुए उन्होंने जो कहा उसका मतलब यही था कि मामला अदालत में है और उनकी तरफ से पूरा सहयोग दिया जाएगा.

उधर, सीबीआई अधिकारियों का दावा है कि उनके पास ऐसे सबूत हैं जो बताते हैं कि राडिया की कंपनी का डाटा यूक्रेन स्थित सर्वरों (जिन तक किसी तीसरे पक्ष की पहुंच बहुत मुश्किल होती है) पर रहा है और उनके और उनके करीबी सहयोगियों ने अपने फोनों पर ऐसे इजराइली उपकरण लगा रखे थे जिनसे नंबरों की निगरानी संभव नहीं हो पाती. सीबीआई के पास वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की चेयरपर्सन राडिया और नेताओं, नौकरशाहों और कुछ बड़े पत्रकारों के बीच 180 घंटे की बातचीत है जो उन्हें उस दूरसंचार घोटाले के केंद्र में खड़ा कर सकती है जिसने ए राजा की कुर्सी छीन ली. गौरतलब है कि संचार मंत्री रहे राजा को वास्तविक कीमत से कहीं कम कीमत पर 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस बेचने से उठे विवाद के बाद अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था.

सीबीआई उन पूर्व नौकरशाहों और राडिया के बीच के गठजोड़ की भी जांच कर रही है जिन्हें राडिया ने इसलिए नौकरी पर रखा था ताकि वे अपने क्लाइंटों के हिसाब से नीतियां बनवा सकें. उनके क्लाइंटों में टाटा, रिलायंस, आईटीसी, महिंद्रा, लवासा, स्टार टीवी, यूनिटेक, एल्ड हेल्थकेयर, हल्दिया पेट्रोकैमिकल्स, इमामी और बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन जैसे बड़े नाम हैं.

पिछले ही हफ्ते राडिया के करीबियों में से एक प्रदीप बैजल से सीबीआई ने चार घंटे से भी ज्यादा समय तक पूछताछ की. गौरतलब है कि बैजल दूरसंचार मंत्रालय के पूर्व सचिव हैं और देश में विवादास्पद विनिवेश प्रक्रिया को शुरू करने का श्रेय उन्हीं को जाता है. सीबीआई ने उनसे गुयाना और सेनेगल जैसे अफ्रीकी देशों में उनके तथाकथित निवेशों के बारे में पूछताछ की.

इस बारे में ज्यादा जानकारी देने से इनकार करते हुए ईडी अधिकारी राजेश्वर सिंह बस इतना ही कहते हैं, ‘आरोप गंभीर हैं.’ सीबीआई और ईडी अधिकारियों ने तहलका को बताया है कि यह साबित करने के लिए उनके पास पर्याप्त सबूत हैं कि डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी ऐंड प्रोमोशन में सचिव रहे अजय दुआ, पूर्व वित्त सचिव सीएम वासुदेव, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन एसके नरूला और नागरिक उड्डयन सचिव रहे अकबर जंग जैसे रिटायर्ड नौकरशाह राडिया के इशारे पर काम करते हैं.

दूसरी तरफ, आयकर विभाग की जांच बताती है कि रीयल एस्टेट कंपनी यूनिटेक को टेलीकॉम लाइसेंस दिलवाने में राडिया ने अहम भूमिका निभाई.

ईडी अधिकारियों ने तहलका को बताया है कि यूनिटेक के लिए 1,600 करोड़ रु जुटाने में राडिया की अहम भूमिका थी. गौरतलब है कि यूनिटेक
भी उन विवादास्पद कंपनियों में से एक है जिसे ये टेलीकॉम लाइसेंस हासिल हुए थे. कंपनी ने अपनी दूरसंचार फर्म का एक बड़ा हिस्सा आखिरकार नार्वे की एक कंपनी टेलेनॉर को बेचा और उस कीमत से सात गुना ज्यादा पैसा वसूला जो उसने लाइसेंस खरीदने के लिए चुकाई थी.
एजेंसियों के पास जो बातचीत रिकाॅर्ड है उसके कुछ हिस्से राडिया का संबंध लंदन स्थित वेदांता समूह से भी जोड़ते हैं. गौरतलब है कि उड़ीसा के कालाहांडी जिले में अपनी खनन परियोजनाओं में पर्यावरण संबंधी मानकों का उल्लंघन करने के लिए इस समूह की काफी आलोचना हुई है. विश्वस्त सूत्रों ने तहलका को यह भी बताया है कि वेदांता समूह ने राडिया को भारत में अपनी नकारात्मक छवि को बदलने की भी जिम्मेदारी सौंपी थी. नतीजा यह हुआ कि अखबारों और पत्रिकाओं में वेदांता को अच्छा बताते कई महंगे विज्ञापन छपे. लेकिन इनसे कोई खास असर नहीं हुआ क्योंकि पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उसकी परियोजना को रद्द कर दिया.

बातचीत के टेप राडिया का संबंध सुनील अरोड़ा से भी साबित करते हैं. अरोड़ा राजस्थान में तैनात आईएएस अफसर हैं जिन्होंने राडिया को अलग-अलग मंत्रालयों में तैनात अपने दोस्तों तक पहुंचाया. इन टेपों में रिकॉर्ड बातचीत उन नोट्स का हिस्सा है जो सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं. ऐसा लगता है कि नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल पटेल के खिलाफ मोर्चा खोलकर इंडियन एयरलाइंस के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर की अपनी कुर्सी गंवाने वाले अरोड़ा ने राडिया के लिए भारत में कई दरवाजे खोले. यह पता चला है कि इंडियन एयरलाइंस के मुखिया के तौर पर अरोड़ा के कार्यकाल के दौरान सात विमान उन कंपनियों से लीज पर लिए गए थे जिनके एजेंट के तौर पर राडिया की कंपनियां काम कर रही थीं. वरिष्ठ आयकर अधिकारी अक्षत जैन कहते हैं, ‘हमारे पास सबूत हैं कि राडिया की कंपनी ने अरोड़ा के मेरठ स्थित भाई को काफी पैसा दिया है.’

राडिया आज भी जेट एयरवेज के मुखिया नरेश गोयल और उड्डयन मंत्री प्रफुल पटेल से खार खाती हैं. उन्हें लगता है कि इन दोनों की वजह से उनकी अपनी एयरलाइन का सपना पूरा नहीं हो सका

अब राडिया की पृष्ठभूमि पर एक नजर. 19 नवंबर ,1960 को सुदेश और इकबाल मेमन के घर नीरा राडिया का जन्म हुआ. ईदी आमिन के पतन के वक्त उनके परिवार को अफ्रीका छोड़कर ब्रिटेन जाना पड़ा. कभी कुख्यात हथियार डीलर अदनान खशोगी का उभरता प्रतिद्वंद्वी कहे जाने वाले मेमन ने लंदन में विमान लीज कारोबार में काम शुरू किया. परिवार के इस कारोबार की राडिया स्वाभाविक उत्तराधिकारी थीं. लंदन में उन्होंने एक अमीर व्यापारी परिवार से ताल्लुक रखने वाले जनक राडिया से शादी की. सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि 1996 में काले धन की जमाखोरी के एक मामले में वे जांच के घेरे में आईं और फिर वे भागकर भारत आ गईं. यहां पहले उन्होंने तब सहारा सुप्रीमो सुब्रत रॉय के चहेते उत्तर कुमार बोस के साथ काम किया जो एयर सहारा का काम देख रहे थे. सहारा इंडिया के निदेशकों में से एक अभिजित सरकार भी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, ‘उन्होंने कुछ समय तक हमारे लिए काम किया.’ मगर बोस तब राय की नजरों से उतर गए जब यह पाया गया कि जो एयरक्राफ्ट लीज पर लिए गए हैं उनके किराए बाजार भाव से 50 फीसदी ज्यादा हैं.

इसके बाद राडिया ने अपने बूते आगे बढ़ने का फैसला किया. उनकी नजर बंद हो चुकी मोदीलुफ्त पर थी जिसे फिर से शुरू कर वे मैजिक एयर के नाम से चलाना चाहती थीं, मगर इसके लिए उन्हें जरूरी मंजूरियां नहीं मिलीं. ताकतवर प्राइवेट एयरलाइंस लॉबी ने हर कदम पर उन्हें मात दी और जल्दी ही राडिया ने इस काम के लिए खाड़ी स्थित जिन फायनेंसरों को राजी किया था वे पीछे हट गए. मलेशियन एयरलाइंस सहित कई एयरलाइनों से पायलटों और उड्डयन विशेषज्ञों की जो क्रैक टीम राडिया ने बनाई थी वह एक लंबी और परेशान कर देने वाली यथास्थिति के बाद टूट गई.

ऐसे कई लोग हैं जो दावा करते हैं कि राडिया आज भी जेट एयरवेज के मुखिया नरेश गोयल और नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल पटेल से खार खाती हैं. उन्हें लगता है कि इन दोनों व्यक्तियों की वजह से उनकी अपनी एयरलाइन का सपना पूरा नहीं हो सका. राडिया को क्राउन एयर के प्रोमोटर के तौर पर सुरक्षा मंजूरी तो नहीं मिली लेकिन वे तत्कालीन उड्डयन मंत्री और भाजपा के अनंत कुमार के करीबी संपर्क में आ गईं. भाजपा नेतृत्व के सूत्र बताते हैं कि जब पीएमओ से उन्हें साफ संकेत मिले कि कुमार की कुर्सी जाने वाली है तो राडिया ने मान लिया था कि क्राउन एयर अब एक मर चुका सपना है. इसके बाद भी राडिया ने एनडीए शासनकाल के दौरान जमीन का एक विशाल टुकड़ा बहुत ही सस्ते दामों में अपनी स्वर्गवासी मां के नाम पर बनी सुदेश फाउंडेशन को आवंटित कराने में सफलता पा ली.

आईबी की एक पुरानी रिपोर्ट बताती है कि राडिया को सुरक्षा संबंधी मंजूरी देने के खिलाफ जो एतराज थे उनमें से कुछ का संबंध मुंबई स्थित एक व्यक्ति चंदू पंजाबी के साथ उनकी डीलिंग से भी था जिसकी पृष्ठभूमि संदिग्ध थी. पंजाबी ठाकरे परिवार का भी करीबी था. राडिया ने फिल्म अग्निसाक्षी की फंडिंग में भी अहम भूमिका निभाई थी. इस फिल्म के निर्माता बाल ठाकरे के बेटे बिंदा ठाकरे थे. पंजाबी के बारे में बताया जाता है कि बांद्रा स्थित सी रॉक होटल में उसका भी कुछ हिस्सा था. 1992 में मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्टों में से एक इस होटल में भी हुआ था और अब यह होटल टाटा समूह की इंडियन होटल्स कंपनी द्वारा चलाया जाता है. नेटवर्किंग के अपने गुण की बदौलत राडिया ने सिंगापुर एयरलाइंस के साथ तालमेल स्थापित कर लिया और भारत में उसके रखरखाव, रिपेयर और ओवरहॉल सुविधा स्थापित करने में मदद की. सरकार की नीति में इस बदलाव  कि विदेशी एयरलाइंस भारत में नहीं आ सकतीं, के बारे में भी यह चर्चा चली थी कि यह बदलाव उनके विरोधियों गोयल और पटेल ने करवाया था.

नौकरशाह और राजनेताओं से अपने संपर्क और कुमार के साथ उनके गठजोड़ ने राडिया के लिए दिल्ली की सत्ता के गलियारों के कई दरवाजे खोले. एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के एक पूर्व मुखिया और एनडीए सरकार के दौरान ताकतवर रहे नौकरशाह एसके नरूला रिटायर होने के बाद भी राडिया के विश्वासपात्र हैं और उनकी तरफ से सरकार के साथ कुछ महत्वपूर्ण सौदेबाजियों को अंजाम देते हैं.

राडिया को सबसे बड़ा ब्रेक तब मिला जब उनका परिचय रतन टाटा के करीबी सहयोगी आरके कृष्ण कुमार से हुआ. कुमार वही शख्स थे जिन्हें टाटा ने अपनी एयरलाइन के सपने को हकीकत में बदलने की जिम्मेदारी सौंपी थी. टाटा-सिंगापुर एयलाइंस गठजोड़ नाकाम रहा मगर जल्दी ही राडिया ने पब्लिक रिलेशंस के क्षेत्र में फिर से शरुआत की. उन्होंने वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की शुरुआत की और उन्हें टाटा समूह की सभी कंपनियों का काम मिल गया. अब उनके पास भारत के सबसे प्रतिष्ठित कारोबारी घराने का नाम था. जल्दी ही उनकी कंपनी की जड़ें आठ शहरों में जम गई थीं.

जब टाटा समूह टाटा फायनैंस के दिलीप पेंडसे के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करना चाहता था और पेंडसे ने मराठी मानुस कार्ड खेलकर उसका यह प्रयास विफल कर दिया था तब एक दिन दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा ने पेंडसे को एक बहुत ही छोटे मामले में गिरफ्तार कर लिया. पेंडसे ने आरोप लगाया कि यह सब राडिया के इशारे पर हुआ है क्योंकि पुलिस विभाग में पहुंच उनकी रणनीतियों का एक अहम पहलू है. यह एक ऐसा हथियार है जिसे वे अकसर अपना काम निकालने के लिए इस्तेमाल करती हैं. इसका राडिया को इतना खयाल है कि पिछले आठ सालों में एक स्टाफर को इसी काम के लिए रखा गया है कि ग्राउंड लेवल पर काम करने वाले पुलिसकर्मियों के साथ रिश्ते बनाकर रखे जाएं. उधर, राडिया पुलिस के सीनियर स्टाफ के साथ बनाकर रखती हैं. दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर केके पॉल राडिया के करीबी दोस्त थे जिन्हें एनडीए की सरकार के आखिरी चार महीने के दौरान ही यह पद मिला था. महाराष्ट्र के एक पूर्व डीजीपी को जब फरवरी, 2007 में रातों-रात मुंबई पुलिस कमिश्नर के पद से हटाया गया तो यह चर्चा खूब उड़ी थी कि राडिया उसे दिल्ली में सीबीआई या किसी इंटेलिजेंस एजेंसी में कोई अहम पद दिलवाने के लिए भारी लॉबीइंग कर रही हैं. इंटेलिजेंस के सूत्र मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर हसन गफूर से जुड़े उस विवाद में राडिया का हाथ होने से इनकार नहीं करते जब उनका एक विवादास्पद इंटरव्यू एक मैगजीन में छप गया था. इससे पहले वे महाराष्ट्र के डीजीपी पद के लिए पहली पसंद कहे जा रहे थे. गफूर विवाद का फायदा एएन राय को हुआ जो टाटा मोटर्स के मुखिया रविकांत के करीबी रिश्तेदार हैं. राय भी दक्षिण मुंबई के उसी रेजीडेंसियल कांप्लेक्स में रहते हैं जहां कांत सहित टाटा मोटर्स के तीन-चार बड़े लोगों का आशियाना है.

दिलचस्प यह भी है कि राडिया ने अपनी कमर्शियल एयरलाइन का सपना 2004 में एक बार फिर जिंदा किया और फिर मलेशियन एयरलाइंस के उड्डयन विशेषज्ञों की एक टीम बनाई. इसके मुखिया नग फूक मेंग पहले भी क्राउन एयर का हिस्सा रह चुके थे. अपने विरोधी प्रफुल पटेल के उड्डयन मंत्री होने के बावजूद आशावादी राडिया इस मोर्चे पर जम गईं. लेकिन 14 महीने तक कोशिशों के बाद आखिरकार उन्हें मैदान छोड़ना पड़ा.

इसी अवधि के दौरान राडिया ने दयानिधि मारन के साथ भी एक तीखी लड़ाई लड़ी. मारन, कारोबारी सी शिवशंकरन को रतन टाटा के कथित संरक्षण से नाराज थे. राडिया ने डीएमके मुखिया करुणानिधि की पत्नी राजति अम्मल के एक करीबी के साथ संपर्क बढ़ाया और चेन्नई की कई यात्राएं करके अम्मल के साथ अच्छी दोस्ती कर ली. उन्हें तब मौका मिला जब मारन और करुणानिधि परिवार में फूट पड़ी जिसकी वजह से दयानिधि मारन को संचार मंत्रालय छोड़ना पड़ा. माना जाता है कि राडिया  चेन्नई गईं और उन्होंने डीएमके सुप्रीमो, उनके बेटे एमके स्टालिन और टाटा के बीच एक गुपचुप वार्ता आयोजित की थी.

एएआई के पूर्व सीएमडी नरूला ने नौकरशाही के उस शीर्ष स्तर तक उनकी पहुंच के द्वार खोले जिसके रिटायर होने में पांच-छह साल बचे होते हैं और जो रिटायर होने के बाद कॉरपोरेट इंडिया के साथ अवसरों की तलाश में होता है. बैजल और वासुदेव ने भी इस काम में अहम भूमिका निभाई. इनकी सेवाओं का इनाम देते हुए राडिया ने बैजल, वासुदेव और नरूला को पार्टनर बनाते हुए नियोसिस नाम की फर्म खोली. जल्दी ही इसने टेलीकाॅम क्षेत्र की बड़ी खिलाड़ी हुवाई सहित कुछ चीनी कंपनियों को अपनी परामर्श सेवाएं देनी शुरू कर दीं.

राडिया की इस अचानक बड़ी छलांग और सिंगापुर की उनकी कई यात्राओं ने कई लोगों का ध्यान उनकी तरफ खींचा. बताया जाता है कि बड़े नकद सौदों में से कुछ को उनके नाम से मिलते-जुलते कोड के साथ किया गया था. उनकी अबाध उन्नति ने बहुतों को हैरान भी किया. उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज लि. (आरआईएल) का काम संभाला तो अपने संपर्कों की बदौलत मुकेश अंबानी को करोड़ों का अप्रत्याशित लाभ करवा दिया. आरआईएल का काम संभालने के लिए राडिया ने न्यूकॉम बनाई. अब भारत के दो सबसे बड़े उद्योगपति उनके पास थे, जिनसे उन्हें चर्चाओं के मुताबिक 100 करोड़ रु सालाना मिल रहे थे. राडिया ने इस क्षेत्र में काम शुरू करने के छह साल के भीतर ही हर स्थापित खिलाड़ी को मीलों पीछे छोड़ दिया था. जल्दी ही वे कॉरपोरेटों के लिए ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों को भी अपनी सेवाएं देने लगीं. तेलगू देशम पार्टी के मुखिया चंद्रबाबू नायडू और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी उन लोगों में से कुछ हैं जिनके साथ राडिया ने करीबी से काम किया. कहा जाता है कि नैनो प्रोजेक्ट को बंगाल से गुजरात लाने में राडिया की भूमिका अहम थी.

अगर स्पेक्ट्रम घोटाला इतना बड़ा नहीं हुआ होता तो उनकी यह निर्बाध यात्रा निश्चित रूप से जारी रहती. मगर राडिया जिस कारोबार में हैं वहां टिके रहने के लिए नेताओं और कॉरपोरेट्स के विश्वास की जरूरत होती है. और ये दोनों इसमें पैसे के लिए आते हैं. इसके अलावा कोई भी ऐसे शख्स के साथ काम नहीं करना चाहता जिसकी छवि पर दाग लग चुका हो.

हारे को हरिनाम

चुनाव परिणाम वाले दिन यानी 24 नवंबर को लालू प्रसाद ने अपने आवास पर मीडियाकर्मियों को बुलाया तो था दिन के तीन बजे लेकिन निर्धारित समय से 15 मिनट पहले ही वे पत्रकारों के बीच पहुंच गए. साथ में छाया की तरह हमेशा उनके आगे-पीछे रहने वाले सिपहसालार रामकृपाल यादव और वफादार सेनानी जगतानंद सिंह भी थे. पत्रकारों के बीच बैठने के बाद लालू तुरंत उठकर वापस चले भी गए. रामविलास पासवान भी उनके साथ हैं, वे भी उनके साथ ही मीडिया से मुखातिब होंगे, लालू शायद कुछ देर के लिए भूल गए थे. वहां से उठकर बगल में बरामदे के पास एस्बेस्टस शीट के नीचे लगी बेंत की कुर्सी पर जाकर वे अकेले बैठ पासवान का इंतजार करने लगते हैं. तभी कोई कार्यकर्ता या आदेशपाल लालू प्रसाद की कुरसी की दाईं ओर पान की पीकदानी रख जाता है. लालू पीकदानी की ओर झुकते हैं, लेकिन शायद गलती ही दुहराते हैं. उन्हें इस बात की भी सुध नहीं कि वे तो आज पान खा ही नहीं सके हैं. वे खुद की नजरों से ही बचने की कोशिश करते हुए सामने से एक बुजुर्ग, अचर्चित राजद नेता को पास बुलाते हैं, बगल में बैठाकर बतियाने लगते हैं. थोड़ी ही देर में रामविलास पासवान आ जाते हैं. लालू प्रसाद पत्रकारों के बीच फिर से उपस्थित होते हैं. पहले अपनी बात बोल लेते हैं. सिर्फ चार प्रमुख बातें- ‘यह जो कथित जनादेश है, वह रहस्यों से भरा हुआ है लेकिन हम इसे स्वीकार करते हैं.’ इस वाक्य को कई बार दुहराते हैं लालू. फिर एक ही बात को कम से कम छह-सात तरह से बोलते हैं- ‘हम अपना कर्म करेंगे, फर्ज निभाएंगे, काम करेंगे, दायित्व निभाएंगे.’ लगे हाथ नीतीश कुमार को बधाई देते हैं. फिर मीडियाकर्मियों को रामविलास से सवाल पूछने का इशारा करते हुए एक आखिरी वाक्य कहते हैं, ‘हमने पूरा जीवन बिहार के लिए खपा दिया, राजनीति को दे दिया, ऐसे कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, घबराने वाले नहीं हैं…’

पहले लालू ने खुद को सरकार का मुखिया समझा, फिर खुद को सरकार समझने लगे और आखिर में वे खुद को बिहार भी समझने लगे

लालू घबराए हुए थे या नहीं, यह तो पता नहीं चल पा रहा था लेकिन उधेड़बुन, हैरानी और अलबलाहट का भाव साफ दिख रहा था. रामविलास पासवान जब मीडिया से मुखातिब होते हैं तो लालू लगभग 10-15 मिनट तक या तो रामविलास की बात पर कुछ-कुछ बुदबुदाते रहते हैं या पासवान का कोट धीरे-धीरे खींच रहे होते हैं. किसी बच्चे की तरह. पता नहीं उस वक्त वे रामविलास पासवान को कुछ बोलने से रोकने की कोशिश में ऐसा करते हैं या कुछ और बातें उनसे कहलवाना चाहते थे. बीच-बीच में परिचित अंदाज में कृत्रिम हंसी के साथ रामविलास की ओर इशारा करके कहते हैं कि ‘बोल रहे हैं पासवान जी, सुनिए ध्यान से…’ प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म होते ही लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, रामकृपाल यादव और जगतानंद सिंह एक कमरे में चले जाते हैं. उस कमरे के बाहर बरामदे में कृष्ण की लगी तरह-तरह की कई-कई तसवीरें भी चुनाव परिणाम की तरह ही रहस्यमयी-सी प्रतीत होती हैं. वहां भगवान कृष्ण इतने सारे रूपों में लालू प्रसाद की यादवी अथवा यदुवंशी राजनीति के प्रतीक के तौर पर हैं या उनके बड़े बेटे के इस्कॉन से जुड़े रहने के असर के रूप में!

लालू प्रसाद की यह प्रेस कॉन्फ्रेंस उसी आवास में थी जिसमें कभी उनके साले साधु यादव रहा करते थे. राबड़ी के कार्यकाल में इसे दस जनपथ का नाम भी दिया गया था. तब वे यहां से सिर्फ एक सड़क पार करके एक अणे मार्ग यानी मुख्यमंत्री आवास पहुंच सकते थे. अब इसमें लालू-राबड़ी का वास है. इस आवास में आने से पहले भी कम बखेड़ा नहीं हुआ था. राबड़ी देवी 15 साल तक एक अणे मार्ग यानी आधिकारिक तौर पर मुख्यमंत्री के लिए आवंटित आवास में रही थीं और इसे छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं थीं. लेकिन अंततः उन्हें अपनी जिद छोड़नी ही पड़ी थी. जब लालू-राबड़ी परिवार के साथ गायों को एक अणे मार्ग से वर्तमान आवास में शिफ्ट किया जा रहा था तो लालू प्रसाद ने मीडिया में यह शगूफा भी छोड़ा कि नीतीश गौ माता को परेशान कर रहे हैं, श्राप लगेगा. लेकिन 24 नवंबर को प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान वीरान-से पड़े भव्य आवासीय परिसर में सवाल न गौ माता का था न राबड़ी की इस जिद का कि उन्हें यह नहीं वह आवास चाहिए. 20 साल के बाद पहली बार सवाल यह है कि आने वाले समय में पटना के किसी भी सरकारी आवास में लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और उनके परिवारवाले रह सकेंगे या नहीं. यह नीतीश के विवेक और मेहरबानी या आवास के विशेष ऐक्ट और उसको बदलने की नीतीश की इच्छा और अनिच्छा पर निर्भर करेगा. लालू प्रसाद खुद सांसद हैं. राबड़ी दोनों जगहों यानी सोनपुर और राघोपुर से चुनाव हार चुकी हैं. अब वह दिन सामने है जब अपने चहेतों को लालबत्ती से लेकर तमाम तरह की सुविधाएं उपलब्ध करवाने वाले परिवार के पास सत्ता-शासन तो क्या एक अदद सरकारी आवास के लिए भी संभावनाओं के द्वार बंद होते दिख रहे हैं.

बिहार की राजनीति में बेताज बादशाह रहे लालू प्रसाद की अलबलाहट, द्वंद्व या दुविधा 24 नवंबर को नई नहीं थी. उस रोज चुनाव परिणाम से उनका हैरानी में पड़ना स्वाभाविक था, लेकिन अपने मसखरेपन वाले व्यवहार में अचानक बदलाव करें या कुछ दिन और अपने अंदाज को बनाए रखें, वे यह तय नहीं कर पा रहे थे. पूरे चुनाव में भी लालू ऐसे ही दोराहे पर खड़े दिखें. कभी खांटी गंवई अंदाज में यह कहकर चुनावी सभा को संबोधित करते कि ‘नीतीश के पैरा ठीक नइखे, जब से आइल बा, तब से बाढ़-सुखाड़ आवत बा’ तो कभी यह कहते रहे कि ‘नीतीश सूर्यग्रहण में बिस्कुट खा लिए थे, इसलिए राज्य सुखाड़ से त्रस्त है.’ लालू ऐसे ही तर्कों के सहारे चुनावी कसरत करते रहे. नीतीश और सुशील मोदी के भाषणों का जवाब देने के लिए उन्होंने राबड़ी को 56 और चुनावी राजनीति के रंगरूट अपने बेटे तेजस्वी को 100 सभाओं में भेज दिया. ऐसा उन्होंने परिवार की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए सधी हुई रणनीति के तहत किया या दूसरे किसी पर भरोसा नहीं करने के कारण, यह बताने की स्थिति में राजद का कोई नेता नहीं. जैसा कि तहलका से बातचीत में राजद के दिग्गज नेता व सांसद जगतानंद सिंह कहते हैं, ‘मुझसे बिहार के इस चुनाव परिणाम पर कुछ बात न कीजिए, मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा, अब आप लोग विश्लेषण कीजिए.’

लालू प्रसाद के आवासीय परिसर में ही मिले एक वरिष्ठ राजद नेता, जो लालू के काफी विश्वासपात्र कहे जाते हैं, कहते हैं, ‘हमारा नेता अब हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहता है, जिसकी वजह से लगातार पार्टी गर्त में जा रही है.’ वे कहते हैं कि इस बार के चुनाव में लालू ने पहले तो यह कहा कि अब कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन सकता तो फिर कुछ दिनों बाद सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने की बात कहकर उन्होंने खुद को हंसी का पात्र क्यों बनाया. छात्रों-युवाओं को साइकिल की जगह मोटरसाइकिल का लॉलीपॉप देकर भी वे खुद को उपहास का पात्र ही बना रहे थे.’ नेता जी बुझे हुए स्वर में आगे कहते हैं, ‘अब यह मान लीजिए कि बिहार में लालू-राबड़ी युग का अंत हो गया. अब राजद का अस्तित्व बचाना है तो दूसरे नेताओं को सामने लाना होगा, लेकिन शर्त यह होगी कि वे लालू-राबड़ी परिवार से न हों.’

यह सुझाव तो ठीक है लेकिन लालू प्रसाद और उनकी पार्टी के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या वाकई वे भविष्य में बिहार की राजनीति में अपने को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए ऐसा करने का साहस जुटा पाएंगे. जो लालू प्रसाद को करीब से जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि लालू ऐसा कभी नहीं कर सकते. कुछ तो यह भी कहते हैं कि लालू को इसका एहसास पहले से ही हो गया था कि इस चुनाव में वे बुरी तरह परास्त होने वाले हैं, इसलिए अभी से अपने बेटे तेजस्वी को राजनीति के मैदान में उतार दिया ताकि पांच साल के बाद दूसरी पीढ़ी कमान संभालने के लिए तैयार हो. 1997 में भी लालू प्रसाद ने तब ऐसा ही किया था जब वे चारा घोटाले में नाम आने की वजह से सत्ता छोड़ने वाले थे. तब उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का राजकाज सौंप दिया. जब उफान के दिनों पर थे तो साले सुभाष यादव और साधु यादव अचानक से बिहार की राजनीति में समुद्री लहर की तरह प्रकट हो गए. नतीजा यह हुआ कि 1990 में पिछड़ों की राजनीति और सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर उभरा बिहार का सबसे कद्दावर और करिश्माई नेता धीरे-धीरे रसातल में जाने लगा.

जैसा कि प्रो नवल किशोर चौधरी कहते हैं, ‘अब यह मान लेना चाहिए कि लालू युग का अंत हो गया है और यह जरूरी भी था, बिहार के लिए बेहतर भी.’ वे कहते हैं, ‘तीन ऐसे पड़ाव आए जहां से लालू की राजनीति का मर्सिया गान शुरू हो गया था. पहला पड़ाव जब लालू प्रसाद का नाम चारा घोटाले में आया. फिर दूसरी गलती यह कि उन्होंने सत्ता राबड़ी देवी को सौंप दी और फिर 2005 के चुनाव में परास्त होने के बाद भी सबक न ले सके, अपनी असलियत को नकारते रहे, यह उनकी आखिरी भूल थी.’ प्रो चौधरी कहते हैं कि लालू बिहार में सवर्णों की जकड़न से तंग लोगों की आकांक्षा के तौर पर उभरे हुए नेता थे लेकिन बिहार की सत्ता मिलने के बाद पहले तो उन्होंने खुद को सरकार का मुखिया समझा, फिर खुद को सरकार समझने लगे और आखिरी दौर वह भी आया जब लालू खुद को ही बिहार भी समझने लगे. उनके गुरूर-अहंकार ने उन्हें नायक से अधिनायक बना दिया, जो उन्हें विनाश के इस मुहाने तक ले आया. प्रो चौधरी की बातों को अतीत और वर्तमान से जोड़कर देखें तो समझ आ सकेगा कि लालू प्रसाद की राजनीति ने अचानक ही यू-टर्न नहीं लिया है. लालू की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि वे अपने कार्यकर्ताओं से लगातार कटते रहे. पूरे बिहार की बात कौन करे, अपने गृह जिले गोपालगंज में भी लालू की पकड़ अब इतनी नहीं रही कि वह छह में से एक भी सीट अपनी पार्टी को दिलवा सकते. लालू प्रसाद हैरत भरे शब्दों में कहते हैं, ‘वह तो ठीक है लेकिन मगध और कोसी के इलाके में भी ऐसा कैसे हो गया?’

20 साल के बाद पहली बार सवाल यह है कि आने वाले समय में पटना के किसी भी सरकारी आवास में लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और उनके परिवारवाले रह सकेंगे या नहीं

लालू प्रसाद शायद कोसी और मगध की बात कहकर अपने को शांत करने की कोशिश कर रहे हैं जबकि सच यह है कि अब उनके हाथ से पूरा बिहार ही निकल गया है. राष्ट्रीय जनता दल को इस बार 22 सीटें मिली हैं, यानी पिछले नुकसान में भी 32 सीटों का नुकसान हुआ है. विश्लेषक यह दावा कर रहे हैं कि लालू का माय यानी मुसलिम-यादव समीकरण तो पहले ही ध्वस्त हो चुका था, इस बार बड़े पैमाने पर इनके खेमे से यादवी आधार भी खिसका है, वरना कोई कारण नहीं कि 12-13 प्रतिशत आबादी वाले यादव जाति का वोट यदि एकमुश्त लालू के खाते में जाता तो इतनी बुरी हार होती. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं कि इस चुनाव में यह संकेत साफ है कि लालू यादव से यादव मतदाता भी खिसक गए हैं. वे कहते हैं कि जातीय राजनीति का यह सिद्धांत है कि अकेले कोई जाति किसी एक नेता के साथ बहुत दिनों तक नहीं रह सकती. यादव लालू प्रसाद के साथ तभी रहेंगे जब और पिछड़ी जातियां उनके साथ हों. दूसरी पिछड़ी जातियों में आधार खिसकेगा तो यादव भी उनके साथ नहीं रह सकते. महेंद्र की बातों में कुछ सच्चाई तो साफ ही दिखती है, वरना कोई कारण नहीं था कि राबड़ी दोनों जगहों से चुनाव हारतीं और लालू प्रसाद के गृह जिले गोपालगंज में राजद का इतना बुरा हश्र होता. यूं भी लालू-राबड़ी के राज में यादवों के लिए ऐसा कुछ हुआ नहीं जिससे काफी दिनों तक उनकी जाति पर उनका प्रभाव बना रहता. लालू-राबड़ी के शासन में यदि अराजकता, अपराध में इजाफा हुआ, विकास कार्य ठप रहा तो उसका खामियाजा किसी जाति विशेष को नहीं बल्कि पूरे बिहार को भुगतना पड़ा था.

लालू प्रसाद कितने फ्रंट पर और कब-कब नाकाम होते रहे, इसकी पोल-पट्टी खोलने में अब उनके ही लोग लग गए हैं. जैसा कि लालू के आवासीय परिसर में मिले एक युवा राजद कार्यकर्ता मुमताज अंसारी कहते हैं, ‘लालू जी पिछले 15 साल से बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के प्रमुख रहे. इन 15 साल में इन्होंने एक भी खिलाड़ी को राष्ट्रीय स्तर पर भेजने की कोशिश नहीं की. एक कोशिश भी की तो अपने बेटे तेजस्वी के लिए, जो आधा-अधूरा ही खिलाड़ी बन सका.’ ऐसे कई छोटे-छोटे सवाल जमा होकर अब ढेर की तरह लालू के सामने हैं. लालू प्रसाद जब 1990 में बिहार के राजा बने थे तो उनके साथ समाजवादी नेताओं की सशक्त टीम थी. लेकिन सत्ता मद उन्हें इस कदर अहंकारी बनाने और छोटी परिधि में लाने लगा कि उनके अपने ही एक-एक कर किनारे होते गए. सबसे पहले इनसे नीतीश ही किनारे हुए, जो कभी इनके चाणक्य कहे जाते थे. फिर जॉर्ज फर्नांडिस, रामविलास पासवान, शरद यादव, देवेंद्र यादव जैसे परिपक्व नेताओं ने लालू की मंडली से एक-एक कर किनारा कर लिया. जो लालू को राजनीति में रणनीति समझाते थे वे खुद अलग जमात में रणनीति बनाकर नीतीश को लालू के मुकाबले खड़ा करते गए. जैसा कि कभी लालू के ब्रेन रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘लालू का राजनीतिक दुश्मन कभी और कोई नहीं रहा बल्कि खुद लालू प्रसाद ही हैं. वे खुद से ही लड़ रहे हैं, खुद से ही हार रहे हैं, खुद से ही निपट रहे हैं.’ लालू के सारे रणनीतिकार अलग तो हुए ही, बना-बनाया माय समीकरण भी तेजी से ध्वस्त होता रहा. यादव खेमे से शरद, रंजन यादव जैसे नेता अलग धुरी पर गए, दोनों ने लालू प्रसाद को हराया.

मुसलिम नेताओं में कभी भी लालू प्रसाद ने अब्दुल बारी सिद्दिकी या डॉ जाबिर हुसैन जैसे नेताओं को फ्रंट पर नहीं रखा बल्कि तस्लीमुद्दीन और शहाबुद्दीन जैसे नेता फ्रंट पर आते रहे, जिनसे जुड़ाव दिखाने में खुद मुसलिम समाज भी कतराता है. लालू युग का अंत तभी हो जाता, लेकिन ऐसे समय में लालू ने अपने को बनाये-बचाए रखने के लिए कांग्रेस का दामन थामा. रेलवे में कुछ करिश्मा हुआ तो मैनेजमेंट गुरु बनने के चक्कर में वे फिर से इस कदर खोए कि अपनी ही पार्टी तक को भूल गए. रेल के गुरूर को एक झटके में ममता बनर्जी ने तोड़ा और इस बीच कांग्रेस से भी उन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में महज तीन सीटों का प्रस्ताव देकर रार छेड़ दी. लालू ने कांग्रेस से थोड़ा किनारा किया, कांग्रेस ने ज्यादा दूरी बना ली.

अब उन्हें रामविलास पासवान ज्यादा भरोसेमंद लगने लगे थे, यह जानते हुए भी कि बिहार के जातीय समीकरण में कभी भी यादव और पासवान जमीनी स्तर पर एक-दूसरे के दोस्त नहीं हो सकते. ऐसी कई गलतियों ने लालू  के सामने आज अस्तित्व का संकट ला खड़ा किया है. नीतीश ने उन्हें विकास और अतिपिछड़ों-महादलितों की राजनीति में घेर लिया. लालू उसी जाल में फंसकर अपनी उपलब्धि भी कायदे से नहीं बता सके कि मछुआरों का टैक्स माफ करके, भूमिहीनों को चार-चार डिसमिल जमीन देने की कवायद शुरू करके उन्होंने भी कोई कम बड़ा काम नहीं किया था. नीतीश ने उन्हें ये बातें कहने का मौका ही नहीं दिया. लालू प्रसाद तो कायदे से भ्रष्टाचार का मसला भी नहीं उठा सके. बाद में दूसरे चरण के चुनाव के बाद नीतीश ने खुद ही आगे बढ़कर भ्रष्टाचार का मसला उठाकर अपनी कमजोरी को अपनी ताकत में बदल लिया.

मुमताज अपनी बातों में आगे जोड़ते हैं, ‘मैंने वह समय भी देखा है जब लालू प्रसाद अपने लोगों को हमेशा नाम से याद रखते थे, संबोधित करते थे, जिससे हम जैसे कार्यकर्ताओं को भी अच्छा लगता था, लेकिन रेलमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री बनने के सपने में ऐसे खोए कि पूरा का पूरा संगठन ही बिखर गया. और जब तक इस बात को लालू समझ पाते, बहुत देर हो चुकी थी. मुमताज की बातों को यदि लालू के पिछले कुछ समय की गतिविधियों से जोड़कर देखें तो इधर वे लगातार प्रमंडल और जिला स्तर पर कार्यकर्ता सम्मेलन कर रहे थे. वे कार्यकर्ताओं से माफी मांग रहे थे कि रेल और मैनेजमेंट गुरु की फंडई में ऐसे फंसे कि जिलों में अपनी पार्टी के कार्यालय तक नहीं खोल सके. वे यहां तक कहने लगे थे कि जो जिले में पार्टी कार्यालय खोलने के लिए जमीन देगा उसे टिकट भी देंगे. चुनाव परिणाम आने के दो दिनों पहले जब उन्होंने पटना के मौर्या होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई थी तो पता नहीं कौन से खयाली पुलाव पकाते हुए वे जातीय गणित को जोड़-घटाकर अपनी जीत सुनिश्चित कर रहे थे. प्रो नवल चौधरी कहते हैं कि इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि लालू को जमीनी हकीकत का पता आखिरी दिनों तक नहीं था. यानी वे पूरी तरह से जमीनी राजनीति से कट गए थे वरना इस तरह का आकलन आखिरी दिनों तक नहीं करते.

समाजवादी नेता निवास इस प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए दुष्यंत कुमार का एक शेर सुनाते हैं-

तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं, गजब यह है कि तुम्हें यकीन नहीं…

निवास कहते हैं कि ऐसा ही लालू के साथ हुआ. लालू 1990 में चंद्रशेखर और बीपी सिंह के सौजन्य से नेता बन गए. 1995 का चुनाव उन्होंने अपने दम पर जीता. 2000 का चुनाव तो थुक्काफजीहत वाला रहा. तो कायदे से वे एक बार ही अपने दम पर चुनाव जीतकर जमीनी हकीकत भूल गए तो यह तय तो था कि उनका हश्र ऐसा ही होगा. दुष्यंत कुमार का शेर शायद लालू प्रसाद को अभी सुनने में ठीक नहीं लगेगा लेकिन उन्हें रह-रहकर वे सारे दिन तो अब याद आ ही रहे होंगे, जब उन्होंने ‘भूराबाल साफ करो’ का नारा दिया था या जब उन पर ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू’, ‘धन फुलवरिया, धन माई मरछिया, लालू भइया जिनके ललनवा कि जानेला जहनवां ए रामा… ‘ गीत रचे गए थे. तब पूरे बिहार में लालू चालीसा को बेचा और बांटा जाता था. अब कौन सुनेगा लालू चालीसा, कौन सुनाएगा ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू…?’

ऐसा भी नहीं कि लालू के लिए संभावनाओं के सारे द्वार बंद ही हो गए हैं. इस बार राबड़ी देवी को दोनों सीटों पर मिली मात, बेटे तेजस्वी की 100 सभाओं की बेअसरी और नए राजनीतिक साथी रामविलास पासवान के दो भाइयों और दो दामादों की करारी हार से लालू अगर सबक लेते हुए भविष्य की रणनीति तय करेंगे तो उनके लिए राजनीति में अब भी संभावनाएं शेष बचती हैं. यदि मॉडल के तौर पर ही सही लालू अपने पैतृक गांव फुलवरिया जाकर, रुककर सोचें तो उन्हें भविष्य की राजनीतिक यात्रा का खाका तैयार करने में सबसे ज्यादा मदद मिलेगी. उन्हें 20 वर्षों में फुलवरिया में हुए कार्यों का आकलन खुद करना होगा. बड़ा मंदिर, विशाल बरम बाबा का चबूतरा, हेलिपैड, छठ घाट वगैरह-वगैरह, लेकिन हाई स्कूल नहीं. अंधेरे से निकलने के लिए कोई रोशनदान नहीं. ऐसे ही कारणों ने उन्हें बिहार नहीं बल्कि अपने गृह जिले गोपालगंज में भी औंधे मुंह गिराया. लालू प्रसाद आज भी यहां सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति के सबसे मजबूत स्तंभ हैं. मुसलमान भी लालू के इस मजबूत पक्ष से अवगत हैं. सहमत हैं. लेकिन बदले हालात में उन्हें भी बाबरी-राम मंदिर से ज्यादा, दंगों की राजनीति से ज्यादा, जस्टिस रजिंदर सच्चर आयोग की रिपोर्ट व अनुशंसा पर काम करा सकने वाला नेता चाहिए. नीतीश को बड़ी जीत मिली है, बड़ी जिम्मेदारी मिली है, तो जनता के सपनों के मुताबिक चुनौतियां भी बड़ी होंगी. लालू सिर्फ सशक्त तरीके से विपक्ष की भूमिका में रहें तो संभावनाएं बनेंगी, बढ़ेंगी, बिखरे कुनबे एकजुट हो जाएंगे.

मगर सत्ता का कैसा भी स्वाद चखने के मौके के लिए उन्हें कम से कम 2014 के लोकसभा चुनावों तक इंतजार करना होगा और बिना रुके विधानसभा से बाहर सड़कों पर, गांव-देहात में संघर्ष करते रहना होगा. तब तक वे 67 साल के भी हो जाएंगे. इस दौरान उन्हें नीतीश की गलतियों से लड़ना है और नीतीश का हर अच्छा काम उनकी सत्ता की राह कुछ और मुश्किल बना सकता है. मगर लालू यह सोचकर खुश हो सकते हैं कि चूंकि अगले तीन-चार साल तक कोई चुनाव नहीं है इसलिए उनके पास अपनी गलतियां सुधारने और तैयारियों के लिए पर्याप्त समय है.

लामबंदी पर बंद जबान

इस बार चर्चा एक ऐसे तमाशे की जो चैनलों के पर्दे पर नहीं बल्कि पर्दे के पीछे चल रहा है. चैनलों की स्टिंग ऑपरेशन और टेलीफोन टैपिंग में अतिरिक्त दिलचस्पी होती है. राजनेताओं, अफसरों, माफियाओं और हीरो-हीरोइनों आदि के स्टिंग ऑपरेशन या टेलीफोन टेप या प्राइवेट गोपनीय वीडियो दिखाते-सुनाते हुए चैनलों का उत्साह देखते ही बनता है.

लेकिन इन दिनों कुछ टेलीफोन टेपों के कारण चैनलों और कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग समूचे मीडिया को सांप सूंघा हुआ है. कोई उसे हाथ लगाने को तैयार नहीं है. सुनाना और दिखाना तो दूर, अधिकांश चैनल उनका नोटिस लेने को भी तैयार नहीं हैं जबकि ये टेप न सिर्फ 2जी घोटाले से जुड़े हुए है. बल्कि उनमें राजनीति, बिजनेस और मीडिया जगत के कई जाने-माने नाम शामिल हैं.

मेरे छात्र अकसर यह सवाल उठा देते हैं कि जब मूल्यों का कहीं आदर और पालन नहीं होता तो यह पढ़ाए क्यों जाते हैं

इन टेलीफोन टेपों में कॉरपोरेट पीआर और लॉबीइंग की दुनिया की  खिलाड़ी नीरा राडिया की 2009 में पूर्व संचार मंत्री ए राजा, उद्योगपति रतन टाटा से लेकर वीर संघवी, बरखा दत्त, प्रभु चावला जैसे बड़े पत्रकारों से अंतरंग बातचीत रिकॉर्ड है. यह बातचीत आयकर विभाग के निर्देश पर रिकॉर्ड की गई थी और सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में इनकी सत्यता प्रमाणित की है. इनमें बहुतेरी बातें ऐसी हैं जो सार्वजनिक महत्व की हैं और जिनका संबंध जनहित से जुड़ता है.
कहने का मतलब यह कि चैनलों के लिए उसमें ‘खेलने और तानने’ के लिए बहुत ‘मसाला’ है. यही नहीं, इन टेपों का संबंध पत्रकारिता की नैतिकता और आचार संहिता से भी है क्योंकि इसमें कई पत्रकार नीरा राडिया जैसी कारपोरेट लाॅबीइस्ट के इशारों पर नाचते हुए दिखाई देते हैं. इसलिए चैनलों से यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं है कि वे न सिर्फ इन्हें सुनाएंगे बल्कि इन पर अपने ‘विशेषज्ञों’ से चर्चा/बहस भी करेंगे. लेकिन ‘सच दिखाते हैं हम’ से लेकर ‘खबर हर कीमत पर’ तक सभी चैनलों पर एक ‘षड्यंत्र भरी चुप्पी’ छाई हुई है.

सभी से सवाल पूछने और सबको कटघरे में खड़ा करने वाले चैनल नीरा राडिया टेप पर न कोई सवाल पूछ रहे हैं और न किसी को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं. आखिर क्यों? चैनलों की यह चुप्पी अब बोल रही है. खासकर जब से अंग्रेजी साप्ताहिक ‘ओपन’, ‘आउटलुक’ और ‘मेल टुडे’ आदि पत्र-पत्रिकाओं ने टेपों की बातचीत न सिर्फ छाप दी है बल्कि उसे अपनी वेबसाइटों पर भी मुहैया करा दिया है. इसके बावजूद चैनलों और उनके संपादकों-पत्रकारों की चुप्पी खलनेवाली है. इससे इन आरोपों की पुष्टि होती है कि चैनल खुद अपने अंदर झांकने और अपने विचलनों पर खुलकर बात करने के लिए तैयार नहीं हैं.

लेकिन कुछ बड़े और स्टार पत्रकारों को बचाने के लिए इस मुद्दे को ब्लैकआउट करके चैनल न सिर्फ अपनी साख दांव पर लगा रहे हैं बल्कि दूसरे भ्रष्ट और अवैध-अनुचित काम करने वालों के खिलाफ बोलने की नैतिक शक्ति भी गंवा रहे हैं. इस मुद्दे पर खुली चर्चा इसलिए भी जरूरी है कि इस प्रकरण ने सत्ता, कारपोरेट लॉबी और पावर ब्रोकरों के निरंतर प्रभावी होते गठबंधन में बड़े पत्रकारों-संपादकों की बढ़ती भागीदारी की अब तक दबी-छिपी सच्चाई को सामने ला दिया है. यह भी कि हम-आप चैनलों पर जो देखते हैं वह काफी हद तक कारपोरेट पीआर और लाबीइंग कंपनियों द्वारा निर्मित-निर्देशित होता है.
इसके गहरे निहितार्थ हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में समाचार मीडिया खासकर चैनलों से दर्शकों-पाठकों की तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और प्रासंगिक सूचनाओं की जो अपेक्षा रहती है, उसका अनादर किया जा रहा है. मीडिया की ताकत का फायदा उठाकर कुछ पत्रकार और चैनल नीतियों, फैसलों और यहां तक कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी तोड़ने-मरोड़ने के खेल में लग गए हैं. यह दर्शकों के विश्वास के साथ एक तरह का धोखा भी है.

इस पूरे प्रसंग में सबसे अधिक दुखद एनडीटीवी जैसे विश्वसनीय माने जाने वाले चैनल और उसकी पहचान बन चुकी बरखा दत्त जैसी प्रोफेशनल और मेहनती पत्रकार-संपादक का विचलन है. इस टेप से निश्चय ही बरखा के लाखों प्रशंसकों को धक्का लगा है. यह एक चमकते हुए सितारे के टूटने की तरह है. लेकिन यह एक सबक भी है. सबक यह कि चैनल यह न भूलें कि पत्रकारिता की आत्मा उन एथिक्स में है जो उसे साख और नैतिक प्रभामंडल देते हैं. लेकिन हाल के वर्षों में चैनलों में एथिक्स को ठेंगे पर रखने का रिवाज सा चल गया है.

हालत यह हो गई है कि जिस संस्थान में मैं पत्रकारिता खासकर एथिक्स पढ़ाता हूं, वहां मेरे विद्यार्थी अकसर यह सवाल उठा देते हैं कि जब इनका कहीं आदर और पालन नहीं होता तो यह पढ़ाया क्यों जाता है. यह सवाल मुझे बहुत परेशान करता है. जाहिर है कि मेरे विद्यार्थियों की तरह बहुतेरे युवा पत्रकारों को यह सवाल और भी परेशान करता होगा. इसलिए समय आ गया है जब चैनल न सिर्फ अपने अंदर झांकें बल्कि ऐसी प्रभावी व्यवस्था विकसित करें कि कोई और नीरा राडिया किसी और बरखा को विचलित न कर सके. इसकी शुरुआत इन टेपों पर चुप्पी से नहीं, बात करके ही हो सकती है.             

अनुमानों का घमासान

सालों पहले की बात है किसी अखबार में पढ़ा था कि जब एक आठवीं क्लास की बच्ची से निबंध प्रतियोगिता में सुखमय जीवन पर निबंध लिखने के लिए कहा गया तो उसने अपनी कॉपी में लिखा – 24 घंटे बिजली और प्रतिदिन दो घंटे बिना नागा पानी. उस बालिका को यह एक पंक्ति लिखने पर ही प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार दे दिया गया था. आश्चर्य होता है कि सुखमय जीवन का यह अर्थ एक 12-13 साल की बच्ची और सामान्य से ज्ञान वाले उस प्रतियोगिता के निर्णायकों की तो समझ में आता है मगर उनसे कहीं ज्यादा पढ़े और गुने बिहार चुनाव के विश्लेषक इसे ठीक से समझ या समझा नहीं पाते.

बुनियादी चीजों से ऊपर वाला विकास सबका नहीं होता. वह टुकड़ों-टुकड़ों में लोगों पर असर डालता है

आठवीं की वह बच्ची महानगरीय थी, सड़कों का उसके चारों ओर जाल सा बिछा था, ठीक-ठाक स्कूल में पढ़ती थी और सर्दियों की शुरुआत में मौसम बदलने से जुकाम होने जैसे मामूली संक्रमण के लिए भी उत्तम इलाज की आदी रही होगी. अगर इनमें से कुछ कमी और होती तो शायद वह सुखमय जीवन पर निबंध में ऐसा भी लिख सकती थी – पीने का साफ पानी, सुरक्षित जीवन, ठीक से प्रतिदिन पढ़ाने वाले टीचर, चोट लगने पर सिर्फ मां की फूंक के स्थान पर दवा देकर उसे कम करने वाले डॉक्टर और बरसात में खेत और सड़क के बीच भेद मिटाती कच्ची के स्थान पर पक्की डामर वाली सड़क जिससे हर मौसम में वह अपने स्कूल जा सके.

नीतीश ने बिहार को सबसे पहले ये ही बुनियादी चीजें देने की कोशिश की है. ऐसी चीजें जो सबको आकर्षित करती हैं. ऐसा विकास जो ऊपर से नीचे, पूरब से पश्चिम तक सबका साझा होता है. जो दिखता है, जिसकी कमी खलती है और जिसकी उपस्थिति कदम-कदम पर जिंदगी आसान होने का एहसास दिलाती है. इन बुनियादी चीजों से ऊपर वाला विकास सबका नहीं होता. वह टुकड़ों-टुकड़ों में लोगों पर असर डालता है. आगे आने वाले समय में इसी तरह के विकास की बारी है और वही नीतीश की असल परीक्षा भी होगी.

एक फटेहाल व्यक्ति को कहीं कहते सुना था कि गरीबी बुरी नहीं लगती सर जी लेकिन इससे जो कदम-कदम पर अपने स्वाभिमान की दुर्गति होती है वह खाए जाती है. बिना असुरक्षित हुए कहा जा सकता है कि बिहार के लोगों में भी स्वाभिमान की कोई कमी नहीं. मगर पिछले दिनों शिवसेना से लेकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और शीला दीक्षित से लेकर दिल्ली के उपराज्यपाल तक ने बिहारियों के आत्मसम्मान के साथ खुलकर खिलवाड़ किया है. ऐसे में नीतीश ने जिस प्रकार से हर तरह की संभावनाओं की बारिश से एक आम बिहारी को सराबोर किया है उसका कुछ-न-कुछ ईनाम तो उन्हें मिलना ही था.

कहा जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में बीसवीं सदी के आखिरी चतुर्थांश के उलट सत्ता विरोधी लहर का प्रभाव कम हो रहा है. गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, बिहार आदि उदाहरण के रूप में पेश किए जा रहे हैं. इस मामले में भाजपा कांग्रेस से आगे निकलती लग रही है. ध्यान से देखें तो समझ आएगा कि ऐसा कुछ क्षेत्रीय नेताओं की करनी का नतीजा है. मसलन नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, नीतीश कुमार, वाईएसआर इत्यादि. कांग्रेस पिछड़ती लग रही है क्योंकि उसके पास मजबूत क्षेत्रीय नेताओं का अभाव है या उन्हें केंद्र की राजनीति का चस्का लग चुका है. जबकि भाजपा में इसके उलट मजबूत केंद्रीय नेताओं का अभाव है. मगर यह कोई आज की बात नहीं है. बीते कल में भी जिन भी प्रदेशों में कद्दावर और परिवर्तन की संभावनाओं से भरे-पूरे राजनेता रहे वहां सत्ता विरोधी लहर उतनी असरकारी कभी नहीं रही. उदाहरण बंगाल के साथ खुद बिहार का भी है जहां आज के धूल-धूसरित लालू लगातार 15 साल तक ‘राजशाही’ भोग चुके हैं.

कहीं से यह भी आवाज आ रही है कि पिछली बार की तरह यह मत भी विकास के पक्ष में कम और लालू प्रसाद के विरोध का ज्यादा है. ऐसा भी तो हो सकता है कि जिन लोगों ने लालू के विरोध में मत दिया हो उन्होंने उनकी विकास विरोधी छवि के लिए ऐसा किया हो और जिन्होंने लालू को मत दिया हो उनमें से कुछ ने उनकी रेलवे मंत्रालय वाली विकास समर्थक छवि के चलते ऐसा किया हो. तो फिर यह विकास के पक्ष वाला मत कैसे नहीं हुआ? क्यों हम हर राजनीतिक दल या उसके नेताओं को तो तरह-तरह के मौके देने के लिए तैयार रहते हैं लेकिन जनता, जो सही मायनों में परिपक्व है, को ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहते. अगर पिछले तीन दशकों ने कमंडल की राजनीति को निस्तेज किया है तो पहचान पर आधारित राजनीति को लेकर भी तो लोगों में परिपक्वता आ सकती है. 

संजय दुबे

वरिष्ठ संपादक

ब्रेक के बाद वापस मत आइए : ब्रेक के बाद

फिल्म ब्रेक के बाद

निर्देशक दानिश असलम 

कलाकार इमरान खान, दीपिका पादुकोण, शाहना गोस्वामी, शर्मिला टैगोर 

रेणुका कुंजरू और दानिश असलम को गलतफहमी थी कि इम्तियाज अली जैसी फिल्में लिखकर हिट हो जाना दुनिया का सबसे आसान काम है और नकल से चिढ़ने वाले लोगों के लिए खुशखबरी है कि वे बुरी तरह असफल हुए हैं. यह फिल्म बॉलीवुड या किसी भी बाजार की इस भेड़चाल की भी पोल खोलती है, जो एक प्रोडक्ट ज्यादा बिक जाने पर बिना सोचे समझे रंग बदलकर उसकी नकल निकालने के आइडिया से आगे सोच ही नहीं सकती. फिल्म की आत्मा शायद कहीं तेल लेने चली गई है क्योंकि पूरी फिल्म में हम पर डायलॉग्स की लगातार बमबारी होती है लेकिन न हंसना आता है, न रोना. दीपिका बार-बार गुस्से में पैर पटकती हुई इतनी ओवरएेक्टिंग करती हैं कि ‘लव आजकल’ की उनकी बिलकुल इसी किरदार की अच्छी छवि को भूल जाने का मन करता है. लेखक रेणुका और दानिश तो इम्तियाज से इतने प्रभावित हैं कि जाने-अनजाने सीन भी उठकर इधर आ गए हैं. कहीं आपको ‘सोचा न था’ दिखती है, कहीं ‘जब वी मेट’ और कहीं ‘लव आजकल’.

सब कुछ है. कहानी वैसी ही है और उसे दिखाने का अंदाज भी लेकिन सारे किरदार नकली हैं और वे लंबे लंबे तथाकथित ‘चुटीले’ डायलॉग लगातार बोलते जाते हैं. दीपिका और इमरान की कैमिस्ट्री ऐसी फिजिक्स बन गई है जिसका भार शून्य है. दीपिका ने जो एकाध अच्छे रोल किए हैं, उनके पुण्यों को वे इस पाप से लगभग धो ही लेती हैं. अब छोटे कपड़ों में उनके अच्छे शरीर के लिए ही फिल्म देखनी है तो बेहतर है कि मुफ्त में उनकी तस्वीरें ही देख ली जाएं. इमरान खान हमेशा की तरह ऐसे ब्याज की तरह हैं जो शायद आमिर खान के ऋणी इस देश को लगातार कचोटता है. वे कहीं और खोए से रहते हैं. हमारे कहने से एेक्टिंग तो वे छोड़ेंगे नहीं इसलिए यह भी हम पर अहसान होगा कि वे ठीक से हिन्दी बोलना ही सीख लें. 

दानिश कुणाल कोहली के सहायक भी रह चुके हैं और कुणाल इस फिल्म के निर्माता भी हैं. कुणाल कोहली की ओवररेटेड बाकी फिल्मों और बॉलीवुड की अधिकांश हिट प्रेम कहानियों की लीक पर चलते हुए दानिश को भी शायद यह भ्रम है कि वे प्यार के बारे में सबसे ज्यादा जानते हैं और यह ज्ञान उन्हें दुनिया से बांटना चाहिए. इसीलिए उनके किरदार भी अपनी आधुनिक हिंग्लिश के बावजूद बीच-बीच में करण जौहर की फिल्मों की तरह प्यार, दुनिया और रिश्तों को बचाने के उपदेश देने लगते हैं.

‘दूसरों को खुशी देने से ही खुशी मिलती है’ टाइप बातें फिल्म को और असहनीय बनाती हैं. यहां तो प्रसून ‘लड़की क्यों’ जैसे वे गाने भी नहीं लिख पाते जिनकी शरण में कुछ शांति मिले. हां, गाने फिल्म से तो बेहतर हैं ही. फिल्म से बेहतर शुरू के टाइटल्स दिखाने का अंदाज भी है और आखिरी सीन भी, क्योंकि उसमें फिल्म खत्म होने की खबर छिपी है.

गौरव सोलंकी

अपनी संस्कृति ठुकरा कर हम बस कैरीकेचर बन सकते हैं

समाज और संस्कृति पर लगभग 14 किताबें लिखने के बाद पवन कुमार वर्मा ने भारत में थोपी हुई औपनिवेशिक संस्कृति और भारतीयता के सवाल पर साल के शुरू में एक किताब लिखी-बिकमिंग इंडियन. हिंदी में इसका अनुवाद भारतीयता की ओर नाम से पेंगुइन से प्रकाशित हुआ है. मूलतः गाजीपुर के रहनेवाले वर्मा अभी भारतीय विदेश सेवा में हैं और एक उपन्यास लिखने की सोच रहे हैं. पेश हैं उनसे रेयाज उल हक की बातचीत के मुख्य अंशः

संस्कृति पर किताब लिखने की जरूरत कब महसूस हुई. इसके लिए सामग्री का चयन कैसे किया. इस दौरान कैसी समस्याएं सामने आईं?

मैं कई सालों से मैं बाहर रह रहा हूं. हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में उपनिवेशवाद के नतीजे बहुत दिखते हैं, भाषा, विचार, सोच और दूसरी रचनात्मक कोशिशों में इसका प्रभाव आसानी से दिखता है. खास तौर से  जब मैं लंदन के नेहरू केंद्र का निदेशक था, तब इस बात पर गंभीरता से सोचना शुरू किया. मुझे यह समझ आया कि जिनकी अपनी संस्कृति में जड़ें होती हैं, वही वैश्वीकरण के इस दौर स्वाभिमान से बराबरी पर बातचीत कर सकते हैं. विदेश सेवा में रहने के दौरान पूरी दुनिया में घूमने के बाद जो मेरी समझ में आया वह यह है कि हमारे देश में उपनिवेशवाद के राजनीतिक और आर्थिक नतीजों का विश्लेषण तो बहुत हुआ है लेकिन संस्कृति और अस्मिता पर गौर कम किया गया है. मुझे लगा कि इस पर बात करना जरूरी है क्योंकि औपनिवेशिक ताकतों का मकसद शारीरिक नियंत्रण नहीं होता. उनका उद्देश्य हमेशा मानसिकता पर नियंत्रण करना होता है. इसके बारे में मेरे मन में तब से यह बातें चल रही थीं, जब 1984 में दिल्ली के खान मार्केट में एक किताब की दुकान में खोजने पर मुझे गालिब की किताब नहीं मिली. लंदन में यह संभव नहीं है कि आपको वहां किसी दुकान पर यीट्स की किताब न मिले. तबसे मैं इसकी वजहों की तलाश कर रहा था. मैंने अपने जीवन के अनुभवों और रोजमर्रा की चीजों को देखते हुए इस पर विचार करना शुरू किया. लोगों से बातचीत के नोट्स बनाए. इसके अलावा लंदन में रहते हुए मैंने वहां की लाइब्रेरी से भी काफी मदद ली. इस पर काम कम हुआ है इसलिए दिक्कतें तो कई आईं. फिर एक डिप्लोमेट होने की व्यस्तता अलग थी. फिर भी लगातार लिखने, पढ़ने और चीजों को देखते हुए उन पर विचार करने से यह किताब मुमकिन हो पाई.

किताब पहले अंगरेजी में छप चुकी है. इस पर आपको कैसी प्रतिक्रियाएं मिलीं?

भारतीय स्तर पर बहुत से ऐसे लोगों ने मुझसे कहा कि मुद्दे बहुत अहम हैं और उन पर सोचना अनिवार्य है. पर कुछ लोगों को मेरी टिप्पणियां तीखी भी लगीं. खास तौर से अंगरेजियत में डूबे लोगों को. मुझे इससे कोई ऐतराज नहीं है क्योंकि किताब का मकसद तभी हासिल होता है जब उसे सिर्फ सराहनेवाले ही न हों, उसकी मुखालिफत करनेवाले लोग भी हों. खास तौर से भाषा को लेकर, वे लोग जो अंगरेजियत के कारण सत्ता में हैं, उन्होंने एक विरूपण (डिस्टॉर्शन) या सरलीकरण किया कि मैं अंग्रेजी के खिलाफ हूं और हिंदीवादी हूं. मेरा ऐसा मानना नहीं है. अंगरेजी एक विश्व भाषा है जिसे सीखने के अपने फायदे हैं. पर सिर्फ अंगरेजी सीखने और अपनी भाषाओं को दरकिनार करके हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं. भाषाएं दो तरह की होती हैं. एक तो संपर्क की भाषा होती जिसमें आप किसी से संवाद करते हैं. और दूसरी आपकी संस्कृति की भाषा होती है, जिसमें आप सोचते हैं, जिसमें आपकी लोक कथाएं, गीत, मां की लोरियां और गालियां होती हैं. यह दुनिया से आपके जुड़ने की अपनी खिड़की है. अगर इस भाषा को छोड़ कर इसे आप बंद कर देंगे तो आप इनसे विहीन हो जाएंगे. अंगरेजी संपर्क की भाषा जरूर रहे, लेकिन अपनी भाषाएं भी न छोड़ी जाएं, मैं यह कह रहा हूं. लेकिन हालात ये हैं कि अंग्रेजी के साथ एक प्रभुता का भाव आता है और हिंदी के साथ हीनता का. जिस देश के पास भाषाओं की 2-3 हजार साल पुरानी विरासत है वे अपनी भाषा छोड़ कर अंग्रेजी अपना लें, यह मुझे नामंजूर है क्योंकि यह आत्मसम्मान की बात होती है. आप इसे ज्ञानपीठ के मामले में देख सकते हैं. मेरे एक कवि मित्र हैं, उन्हें ज्ञानपीठ मिला लेकिन उनकी किताब की महज 870 प्रतियां बिकीं. इन्हीं वजहों से हम कुछ मौलिक नहीं दे पा रहे हैं. आप हमारे देश के विश्वविद्यालयों में मानविकी विभागों को देख लीजिए, लाइब्रेरी, संग्रहालयों आदि सबको देख लीजिए, किस हालत में हैं वे. कहीं न कहीं सारी चीजें आत्मसम्मान, भाषा और सांस्कृतिक स्वाभिमान से जुड़ी हैं. और उस मौलिक सोच को वापस लाना होगा. विरूपण और विवेकहीन नकलचीपन हमें फिर से दुनिया में विचारों के क्षेत्र में स्थापित नहीं कर सकते. मैं सिर्फ हिंदी की सिफारिश नहीं कर रहा. लोग अपनी भाषा सीखें और एक दूसरी भारतीय भाषा सीखें. चाहें तो छठी कक्षा के बाद अंगरेजी भी सीखें. मेरा मानना है कि सारी भाषाओं के बीच मतभेद खत्म हो जाएं अगर हम अपनी समझ से काम करना शुरू कर दें. चुनौती तीव्र है, क्योंकि एक उपनिवेश होने के नाते हमारे सामने जो सांस्कृतिक चुनौतियां थीं, उनसे हम निपट भी नहीं पाए थे कि वैश्वीकरण शुरू हो गया जिसमें बड़ी तेजी से कोऑप्शन हो रहा है. मैं नई चीजों का विरोध नहीं कर रहा हूं, लेकिन हमें चुनना होगा कि हम क्या अपनाएं और क्या छोड़ें. और यह वही कर सकते हैं जो अपनी संस्कृति से जुड़े हैं. हम फोटोकॉपी नहीं बन सकते, जबकि हम यही बन रहे हैं. इससे विदेशी भले हमारे मुंह पर हमारी तारीफ कर दें, पीठ पीछे वे हंसते हैं कि ये तो हमारी फोटोकॉपी हैं या उनकी कोशिश यही बनने की है.

अपनी संस्कृति पर बात करते हुए हमेशा अतीतजीवी या प्राचीनता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने का खतरा रहता है, जिसका इस्तेमाल दक्षिणपंथ भी कर सकता है.

मैं ग्लोरीफाई नहीं कर रहा. मैं तो अपनी कमजोरियों को समझता हूं. इसीलिए तो मैं कहता हूं कि बिना शॉवेनिज्म के, विना उग्र और अति राष्ट्रवादी हुए हमें अपनी संस्कृति को अपनाना होगा. जो यह मानते हैं कि उनका कोई इतिहास नहीं है, वे मूर्ख हैं. क्योंकि बिना इतिहास को नजर में रखे न हम वर्तमान को समझ सकते हैं और न ही भविष्य का निर्माण कर सकते हैं.

लेकिन एक सवाल यह भी आ रहा है कि औपनिवेशिक संस्कृति के बरअक्स जिस संस्कृति की चर्चा हो रही है, वह ब्राह्मणवादी क्यों है. और उसे ऐसा क्यों होना चाहिए.

मैं कहता हूं कि आप संस्कृति को परिभाषित मत कीजिए. बस एक कसौटी रखिए कि नकलचीपन को छोड़ दीजिए, जिसे आप बिना सोचे समझे अपना लेते हैं. आप अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इस नकलचीपन से जूझ लीजिए, यही क्रांति है. अगर दलितों-पिछड़ों का आर्थिक उत्थान अंगरेजी से होता है तो यह अच्छी बात है और अंगरेजी सीखनी चाहिए. पर क्या इसके लिए अपनी भाषा और संस्कृति छोड़ देना अनिवार्य है. यह बेहद सरलीकरण है कि अंगरेजी ही एकमात्र रास्ता है. एक दौर था जब अंगरेज थे और अंगरेजी सीखने से ऊपर ऊठने के रास्ते खुलते थे. लेकिन आज हमारे यहां लोकतंत्र है. अब हमें संतुलन बना कर रखना होगा. यह मैं अटल मान कर चलता हूं कि अपनी भाषा और संस्कृति को ठुकरा कर कोई समृद्ध नहीं हो सकता. इससे आप बस एक कैरीकेचर बन सकते हैं.

बढ़ता दायरा घटता प्रभाव!

पिछले कुछ समय में बिहार में नक्सली हिंसा कम हुई है लेकिन नक्सल प्रभावित इलाके बढ़े हैं. इस बार नक्सलियों द्वारा बहिष्कार की घोषणा के बावजूद विधान सभा चुनाव में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है. इसे नक्सलियों के घटते असर के रूप में देखा जाए या उनकी बदली रणनीति के तौर पर, बता रहे हैं निराला

एनएच टू यानी जीटी रोड पर है डोभी. डोभी से ही गयाबोधगया जाने के लिए गाड़ियां मुड़ती हैं. यहीं से दूसरी ओर भी एक रास्ता मुड़ता है. झारखंड के चतरा की ओर जाने के लिए. यहां से छहसात किलोमीटर दूर एक छोटासा बाजार है, कोठवारा.

हम कोठवारा बाजार में ही बैठकर इलाके की राजनीति, स्थानीय समस्या और चूंकि यह क्षेत्र नक्सलियों के गढ़ के रूप में भी जाना जाता है, इसलिए इलेक्शन के नक्सल कनेक्शन को समझने की कोशिश करते हैं. यहां हमारी मुलाकात आनंदस्वरूप से होती है. वे बताते हैं, ‘मसला सिर्फ एक था कि पुल चाहिए. हमने एकएक कर वामपंथी समेत सारे दलों को आजमा लिया, लेकिन किसी ने हमारी नहीं सुनी. आखिर में तय यह हुआ कि पुल नहीं तो वोट नहीं.’ कोठवारा के बाद फलगु नदी के पार पड़नेवाले करीबन 40 गांवों की 30 हजार आबादी के लिए सिर्फ एक पुल चाहिए. लगे हाथ वे यह भी समझाते हैं कि इससे यह समझने की भूल की जाए कि वे नक्सलियों के वोट बहिष्कार का समर्थन करेंगे. अगर ऐसा करना होता तो यहां कभी भी वोट नहीं पड़ते, क्योंकि एक पुल नहीं होने के कारण नक्सलियों ने कोठवारा पार के लेंबोगढ़ा, बरिया, नावाडीह, सुगासोत, बलजोरी बिघा, सुग्गी, पंड़री, खरांटी जैसे 30-40 गांवों को जाने कितने सालों से अपना सुरक्षित आशियाना बना रखा है. वे हर बार परचापोस्टर चिपकाते हैं. लेकिन उनकी जोरदार उपस्थिति वाले इलाके में कभी उनके बहिष्कार वाले परचेपोस्टरों का असर नहीं पड़ता. इस बार हम स्वेच्छा से यह निर्णय ले रहे हैं.

कोठवारा की तरह ही जहानाबाद के एक गांव में भी यही स्थिति देखने को मिली. जहानाबाद शहर से सटा हुआ गांव है मुठेर, जो विकास की राजनीति, जाति की राजनीति आदि के हिसाब से मॉडल गांव है. यहां पिछड़ी, अतिपिछड़ी, दलित, महादलित, अल्पसंख्यक आदि जातियों का वास है. मुठेर पंचायत मुख्यालय है लेकिन पिछले आठ साल से यहां बिजली नहीं है. आबादी करीब दस हजार की है. मुठेर में पंकज नाम के एक युवा से मुलाकात होती है. पंकज पटना में पढ़ाई करता है, लेकिन वोट के दिन वह अपने गांव में ही था. वह बताता है, ‘हमारे गांव के आसपास नक्सलियों का डेरा शुरू से ही रहा है. खाना खिलाने आदि का रिश्ता भी मजबूरी में ही चलता रहा है लेकिन यहां के लोगों ने कभी उनके चुनावों के बहिष्कार की अपील को नहीं माना और मान सकते हैं. हम जानते हैं कि हमारा गांव अंधेरे में है लेकिन नक्सलियों की बात मानकर कौन सा उजाला जाएगा! हम वोट बहिष्कार करते हैं तो वह भी हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक हिस्सा होता है. हम वोट बहिष्कार से ही अपनी उम्मीदें पूरी होने की उम्मीद करते हैं.’

इस बार के बिहार चुनाव में ऐसी ही स्थितियां अलगअलग हिस्सों में दिख रही हंै. चुनाव के पहले कजरा हिल प्रकरण (जहां चार पुलिसकर्मियों को नक्सलियों ने अगवा करके बाद में इनमें से एक लुकस टेटे को मार दिया था) से लेकर शिवहर, लखीसराय कांड कर, शेरघाटी में विस्फोट, औरंगाबाद के मदनपुर में प्रत्याशी को अगवा कर नक्सलियों ने खौफ पैदा करने की कोशिश तो की लेकिन उनकी रणनीति उन्हें ही मात देती हुई नजर रही है. वोट बहिष्कार का असर होने की बजाय मतदान का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है. बिहार में पांच चरण के चुनाव खत्म हो चुके हैं. जिसमें चुनाव आयोग को मिली आधिकारिक सूचना के अनुसार 33 जगहों पर चुनाव बहिष्कार की बात सामने आई है. लेकिन खुफिया विभाग की सूचना के अनुसार इनमें से कजरा हिल वाले इलाके को छोड़ दें तो शायद ही कहीं माओवादियों के फरमान की वजह से वोटों का बहिष्कार हुआ हो. सभी जगह स्थानीय कारण रहे. यूं भी बिहार में जिस तरह से माओवादियों ने वोट बहिष्कार के बहाने जो काम किए, उनसे उनके भीतर की कमजोरियां ही सामने आईं. कजरा हिल प्रकरण में लुकस टेटे को मार दिया जाना माओवादियों के अंदर जातिगत समीकरणों का असर माना गया तो उसके बाद भी वोट बहिष्कार के नाम पर जहांजहां अटैक हुए, उससे ऐसा नहीं लगा कि उनका इरादा लोकतंत्र या संसदीय राजनीति का विरोध करने का है, बल्कि वे उम्मीदवारों को जितानेहराने के हिसाब से निशाने साधते रहे. समाजशास्त्री और नक्सलियों के प्रभाव पर अध्ययन कर रहे डॉ सचिंद्र नारायण कहते हैं, ‘माओवादियों को यदि समग्रता में वोट का ही बहिष्कार करवाना होता तो वे सबसे पहले चंपारण में ऐसा करवाने की कोशिश करते जहां नेपाल के माओवादियों से बेहतर संबंध होने की वजह से उनका गहरा असर है. लेकिन चंपारण में इन्होंने कुछ भी नहीं किया. बिहार में और भी कई जगहें हैं जहां माओवादियों का गहरा प्रभाव है लेकिन उन जगहों पर इन्होंने चुनाव बहिष्कार के लिए परचेपोस्टर तक नहीं लगाए. इससे साफ जाहिर होता है कि इनका इरादा कुछ और है.’ यूं भी देखें तो इस बार माओवादी संगठनों से जुड़े हुए लोग या उनके परिजन बड़ी संख्या में चुनावी मैदान में हैं. खुफिया विभाग के एक अधिकारी कहते हैं, ‘अब तक जो सूचना आई है उसके अनुसार करीब दो दर्जन उम्मीदवार ऐसे हैं जिनका परोक्ष या प्रत्यक्ष तौर पर नक्सलियों से रिश्ता है इस वजह से भी माओवादियों के फरमान का कोई असर नहीं पड़ रहा. माओवादी खुद चुनाव लड़कर सत्ता सुख भी काटना चाहते हैं और उसका विरोध भी करते रहना चाहते हैं, यह कब तक

ओबामामेनिया के शिकार चैनल

पता नहीं, गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स को खबर है या नहीं लेकिन समाचार चैनलों ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे का लगातार 72 घंटे कवरेज करके एक नया रिकॉर्ड बना दिया है. मुझे नहीं लगता कि इससे पहले किसी राष्ट्राध्यक्ष को इतना अधिक और व्यापक कवरेज मिला होगा. चैनलों को इस रिकॉर्ड के लिए बधाई देते हुए भी पूछने की इच्छा हो रही है कि क्या मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा को भी वहां के मीडिया में इतनी ही जगह मिलेगी. दूसरे, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए बेचैन चैनल क्या भारत यात्रा पर आने वाले अन्य राष्ट्राध्यक्षों की भी नोटिस लेते हैं?

ओबामा से ठीक दो दिन पहले भारत आए मलावी के राष्ट्रपति बिंगु वा मुथारिका की यात्रा को कितने चैनलों ने कवर किया? याद रहे मलावी भारत की ही तरह जी-20 का सदस्य है. लेकिन अमेरिका और ओबामामेनिया से ग्रस्त चैनलों को इन सवालों पर सोचने की फुर्सत कहां थी? ऐसा लगा जैसे तीन दिनों के लिए देश ठहर-सा गया है. ओबामा के अलावा और कोई खबर नहीं है.

72 घंटे की अहर्निश कवरेज कोई मजाक नहीं है खासकर तब जब चैनलों की राष्ट्रपति ओबामा तक सीधी पहुंच नहीं थी. असल में, योजना के मुताबिक उन्हें पृष्ठभूमि में रहकर ही इस यात्रा का माहौल बनाना था. चैनलों को इस खेल में महारत है. ‘आधी हकीकत, आधा फसाने’ के तर्ज पर हर बेमतलब की जानकारी परोसी गई जैसे- अमेरिकी राष्ट्रपति के खास विमान- एयरफोर्स वन और कैडिलक कार, उनकी सुरक्षा में लगी अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां व एजेंट,  ओबामा जिस होटल में ठहरे उसका प्रेसिडेंट सुइट, प्रधानमंत्री के घर हुई डिनर पार्टी का मेन्यू और मिशेल ओबामा के नाच और खरीददारी तक.

अधिकांश चैनलों के स्टूडियो यानी घाट पर ओबामा के कहे-अनकहे एक-एक शब्द की व्याख्या के लिए विदेश नीति, रक्षा और रणनीति के जाने-पहचाने पंडितों के अलावा राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं (स्पिनर्स) की भीड़ जमा कर ली गई. हमेशा की तरह वही कुछ जाने-पहचाने चेहरे और उनकी वही घिसी-पिटी बातें थीं, लेकिन 72 घंटे तक इसे ‘खींचने-तानने’ का दबाव ऐसा था कि आखिर आते-आते दोहराव के कारण वे बातें न सिर्फ बकवास लगने लगीं बल्कि एंकरों और पंडितों दोनों की थकान और बोरियत भी साफ दिखने लगी.

आश्चर्य नहीं कि इस थकान के कारण स्मार्ट एंकर और विशेषज्ञ पंडित भी संसद में ओबामा के भाषण और भारत-अमेरिका साझा बयान की कई महत्वपूर्ण बातें या तो अनदेखी कर गए या समझ ही नहीं पाए. वैसे इतने व्यापक और रिकॉर्ड कवरेज और बतकुच्चन के बावजूद चैनलों ने ओबामा यात्रा के कई महत्वपूर्ण पहलुओं को नजरअंदाज किया. वजह यह थी कि उन्होंने इस दौरे के कवरेज और विश्लेषण का एजेंडा पहले से ही तय कर लिया था. एक बहुत ही संकीर्ण दायरे और सीमित मुद्दों के इर्द-गिर्द ओबामा की पूरी यात्रा को देखा और दिखाया गया.

बारीकी से देखिए तो ऐसा लगता है जैसे यह सब पूर्व नियोजित और एक रणनीति के तहत था ताकि ओबामा की यात्रा की सफलता और भारत के अमेरिकी खेमे में शामिल होने के पक्ष में अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाया जा सके. चाहे वह दौरे की शुरुआत में होटल ताज में दिए गए ओबामा के भाषण में ‘पी’ यानी पाकिस्तान शब्द का जिक्र न होने को लेकर चैनलों पर शोर-शराबा हो या यात्रा शुरू होने से पहले स्थायी सदस्यता के मुद्दे पर किसी स्पष्ट वायदे से ओबामा का इनकार- इसके जरिए तनाव, उद्विग्नता और अपेक्षाओं का ऐसा माहौल बनाया गया कि जब ओबामा ने संसद में अपने भाषण में ‘पी’ शब्द और सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का उल्लेख किया तो असली मुद्दों को भूलकर चहुंओर ओबामा की जय-जयकार शुरू हो गई.

असल में, इस सामूहिक शोर में ऐसा माहौल बनाया गया गोया ओबामा के समर्थन करते ही सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिल जाएगी. जबकि सच्चाई यह है कि ओबामा ने एक ऐसा चेक दिया है जो कब भुनेगा यह किसी को पता नहीं. स्थायी सदस्यता का रास्ता न सिर्फ बहुत लंबा बल्कि अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति की कई जटिलताओं से भरा भी है. 

इसी तरह, चैनलों खासकर अर्णब गोस्वामी और ‘टाइम्स नाउ’ का पाकिस्तान ऑब्सेशन सारी हदें पार कर गया है. ओबामा के ताज के भाषण के बाद अर्णब के शुरू करते ही सभी चैनलों ने पाकिस्तान को लताड़ने को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया जैसे कोई बच्चा अपने पिता से बिगड़ैल भाई की शिकायत कर रहा हो. नतीजा- जैसे ही पिता ने पाकिस्तान को लताड़ा, रूठे चैनल ऐसे नाचने लगे जैसे ओबामा ने उनकी मुंहमांगी मुराद पूरी कर दी हो.

लब्बोलुआब यह कि चैनलों ने 72 घंटे के कवरेज के रिकॉर्ड के बावजूद ओबामा की यात्रा के राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक निहितार्थों का खुलासा करने में नाकाम रहने का भी रिकॉर्ड बनाया. या कह सकते हैं कि यह उनका उद्देश्य भी नहीं था. इस कवरेज को देखकर आज मार्क्स होते तो कहते कि ‘समाचार चैनल मध्यवर्ग और बुद्धिजीवियों की अफीम हैं.’

पहले जीत तो जाएं नीतीश कुमार

बिहार के विधानसभा चुनावों में किसकी जीत होने जा रही है? मीडिया की खबरों और चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों पर भरोसा करें तो नीतीश कुमार वहां फिर से सरकार बनाएंगे. कुछ अनुमान यहां तक बता रहे हैं कि नीतीश कुमार दो-तिहाई से ज्यादा सीटें जीतकर आएंगे.

लेकिन क्या ऐसे अनुमानों पर हमें भरोसा करना चाहिए? कम से कम अतीत इसकी इजाजत नहीं देता. चुनावी भविष्यवाणियां हमारे यहां मुंह की खाती रही हैं, इसकी मिसालें एक नहीं अनेक हैं. चाहें तो याद कर सकते हैं कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में ज्यादातर अखबारों ने राजीव गांधी और कांग्रेस की हार की भविष्यवाणी की थी. जिन्होंने नहीं की उन्होंने भी यह उम्मीद नहीं की थी कि राजीव गांधी को इतना व्यापक समर्थन मिलेगा. लेकिन राजीव गांधी को 400 से ज्यादा सीटें मिलीं, जिसकी कल्पना भी आज कोई दल नहीं कर सकता. इस चुनावी नतीजे के बाद कई अख़बारों ने अपनी गलत भविष्यवाणी के लिए पाठकों से माफी मांगी.

मान लें कि वह पुराना दौर था. आखिर 25 साल पहले पत्रकार अपने अनुमानों पर चला करते थे और उन दिनों चुनावी सर्वेक्षणों की कहीं ज्यादा वैज्ञानिक समझी जाने वाली पद्धति विकसित नहीं हुई थी. लेकिन गलत भविष्यवाणियों का इतिहास खुद को लगातार दुहराता रहा है.
2004 के लोकसभा चुनावों से पहले सारे सर्वेक्षण और एग्जिट पोल चीख-चीखकर बता रहे थे कि अटल बिहारी वाजपेयी की वापसी हो रही है. वे भारत उदय और फील गुड के गुब्बारों के दिन थे और यह अनुमान आम था कि एनडीए से जुड़े दल 300 से ज्यादा सीटें लाएंगे. कुछ उत्साही पत्रकारों और सर्वेक्षणों का आकलन 400 सीटों तक जा रहा था. जब नतीजे आए तो सारे अखबारों और टीवी चैनलों ने हैरानी से देखा कि एनडीए 200 सीटों का भी आंकड़ा छू नहीं सका.

विकास पुरुष बनने की कोशिश कर रहे नीतीश को भी मालूम है कि बिहार के सामाजिक पूर्वाग्रह उसके तथाकथित आर्थिक बदलाव पर भारी पड़ेंगे

कुछ और आगे बढ़ें. 2007 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के वक्त भी सर्वेक्षणों और एग्जिट पोल का खेल चला. लेकिन किसी सर्वेक्षण में यह उम्मीद नहीं जताई गई कि उत्तर प्रदेश में किसी एक दल को अपने बूते बहुमत मिलने जा रहा है. हर तरफ त्रिशंकु विधानसभा का शोर था और राजनीतिक पंडित आने वाले दिनों के समीकरण जोड़-घटा रहे थे. लेकिन बीएसपी को मिली कामयाबी ने फिर इन पंडितों को अंगूठा दिखाया और उन्हें मजबूर किया कि वे समीकरण जोड़ने की जगह यह समझने की कोशिश करें कि उनके अपने आकलन कहां और क्यों गलत हो गए.
तो इन चुनावी सर्वेक्षणों पर हम कितना भरोसा करें? क्यों मान लें कि बिहार में जेडीयू और नीतीश कुमार की वापसी हो रही है? निश्चय ही इस तर्क की यह व्याख्या नहीं होनी चाहिए कि नीतीश की वापसी संदिग्ध है या वे हार रहे हैं. अगर सर्वेक्षणों के गलत होने के उदाहरण हैं तो उनके सही साबित होने की मिसालें भी हैं. बिलकुल सही-सही भविष्यवाणी उन्होंने भले न की हो, लेकिन ऐसे मौके एकाधिक रहे हैं जब उन्होंने हवा की ठीक-ठीक थाह ली है.

लेकिन बिहार के संदर्भ में चुनावी सर्वेक्षणों पर भरोसा न करने की वजह मेरे लिए सिर्फ अतीत के अनुभव नहीं हैं, वर्तमान की हवाएं भी हैं. बिहार से छन-छन कर आ रही खबरों को ध्यान से देखें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि वहां लंबे अरसे तक लालू यादव के जायज-नाजायज विरोध से पैदा हुआ ध्रुवीकरण खबरों के विश्लेषण का रंग बदल रहा है. इसी का नतीजा है कि नीतीश विकास के नए नायक की तरह पेश किए जा रहे हैं और लालू-पासवान की जोड़ी में पुरानी अराजकता का डर पैदा किया जा रहा है.

बेशक, नीतीश कुमार ने बिहार में काम किए होंगे. कम से कम दो मोर्चे ऐसे हैं जिनमें नीतीश बाहर वालों की वाहवाही लूटते रहे हैं. लोगों का कहना है कि राज्य की कानून व्यवस्था पहले के मुकाबले कहीं बेहतर है और गांवों-कस्बों और शहरों में सड़कें सुधर गई हैं. बिहार जिस ठहराव को पिछले कुछ वर्षों में जीता रहा है उसके आईने में यह हलचल भी लोगों को बहुत प्रभावित कर रही है. लेकिन क्या बिहार का सच इतना सा है- साफ-सुथरी सड़कें और उन पर साइकिल चला रही स्कूल जाती लड़कियां? काश कि कम से कम इतना तो सच हो. काश कि वाकई बिहार का चुनाव सिर्फ विकास के वादों और नारों पर लड़ा जा रहा हो.

लेकिन बिहार का विकास पुरुष बनने की कोशिश कर रहे नीतीश कुमार को भी मालूम है कि बिहार के सामाजिक पूर्वाग्रह उसके तथाकथित आर्थिक बदलाव पर भारी पड़ेंगे. इसलिए वे सिर्फ सड़कों और पुलों की दुहाई नहीं दे रहे, वे सिर्फ सुधरी हुई कानून-व्यवस्था का हवाला नहीं दे रहे हैं, वे बहुत चौकन्नेपन से महादलित, अतिपिछड़ा और अल्पसंख्यक जैसी सरणियां भी तैयार कर रहे हैं. इस सीवन में उन्हें कोई झोल मंजूर नहीं, यह उन्होंने एक दूसरे विकास पुरुष गुजरात के नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार न करने देने की जिद पर अड़कर साबित किया है. अगर मोदी के खिलाफ नीतीश का गुस्सा इतना तीखा और सच्चा है तो वे उन दिनों एनडीए की सरकार में मंत्री क्यों बने रहे जब गुजरात जल रहा था और नरेंद्र मोदी क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक सिद्धांत का घोर अवैज्ञानिक और सांप्रदायिक भाष्य कर रहे थे?

जाहिर है, नरेंद्र मोदी से जो दूरी या वितृष्णा तब नहीं थी या कभी नहीं रही, उसे अब प्रदर्शित करने का मकसद अपने राज्य के अल्पसंख्यकों को यह संदेश देना है कि वे नीतीश कुमार पर भरोसा करें, मुसलिम लड़कियों के लिए चलाए जा रहे उनके कल्याणकारी कामकाज को सिर्फ उनकी वोटबटोरू रणनीति का हिस्सा न मानें. लेकिन अगर नीतीश का ऐसा कल्याणकारी कामकाज है तो यह वोटबटोरू हो या नहीं, उसके लाभ उनको मिलेंगे. अगर वाकई नीतीश का बिहार ऐसा दमक रहा है कि उसकी रोशनी आने वाले कल का भरोसा दिलाती हो तो बिहार की जनता इस रोशनी के साथ जाएगी, किसी सामाजिक पूर्वाग्रह के अंधेरे का दामन क्यों थामेगी?

जाहिर है, नीतीश कुमार के दावों में कोई दरार या कोई अधूरापन है. बिहार के जानकार बताते हैं कि राज्य में सड़कें तो बन गई हैं लेकिन वे अब भी लोगों को राज्य के बाहर ही पहुंचा रही हैं, राज्य में बन रहे किन्हीं कल-कारखानों तक नहीं ले जा रहीं. यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी राहत प्रदान करने वाली योजनाओं को छोड़ दें- जिनका असर व्यापक भ्रष्टाचार ने काफी कम कर दिया है- तो बिहार में ऐसा कुछ नहीं है जो उसके गरीब को तरक्की का भरोसा दिलाए. बिहार में सड़कें और पुल उन बाहर वालों को लुभा रहे हैं जो दूर से अपने राज्य को देख रहे हैं. इन जानकारों का यह भी कहना है कि दरअसल चीजें बदली हैं लेकिन खत्म नहीं हुई हैं. वे दूसरे रूप में बची हुई हैं. जो भ्रष्टाचार पहले बुरी तरह राजनीति केंद्रित था वह अब प्रशासन केंद्रित हो गया है. यानी थानों और सरकारी महकमों और योजनाओं में विधायकों और छुटभैये नेताओं की घुसपैठ खत्म हो गई है तो अफसरों और बाबुओं का व्यापक भ्रष्टाचार शुरू हुआ है. माफिया गिरोहों का केंद्र पहले एक अणे मार्ग- यानी लालू यादव का घर- हुआ करता था तो अब वह बदलकर दूसरे पतों तक चला गया है. अपराध खत्म करने और अपराधियों को जेल भेजने के दावे के बावजूद नीतीश बड़े अपराधियों से सांठगांठ करने और उनके सगे-संबंधियों को टिकट देने पर मजबूर हैं तो इसमें कुछ सच इस नए बिहार का भी दिखाई पड़ता ही है.

सड़कें तो बन गई हैं लेकिन वे अब भी लोगों को राज्य के बाहर ही पहुंचा रही हैं, राज्य में बन रहे किन्हीं कल-कारखानों तक नहीं ले जा रहीं

बहरहाल, मेरा मकसद यह साबित करना नहीं है कि बिहार में नीतीश कुमार ने कोई काम नहीं किया है और वे सिर्फ झूठे दावे कर रहे हैं. दरअसल, इन सारी बातों के उल्लेख का मकसद सिर्फ यह ध्यान दिलाना है कि बिहार में जो चल रहा है वह छवियों की राजनीति है. छवि की यही राजनीति कभी लालू यादव ने की थी. 20 साल पहले उन्होंने खुद को सामाजिक न्याय और पिछड़ा उभार का प्रतीक बना डाला. जिस न्यूनतम प्रयत्न से यह छवि बनी उसके अलावा लालू यादव ने और कुछ नहीं किया. लालू यादव के इसी प्रतीकवाद का नतीजा रहा कि बिहार में पिछड़ा अस्मिता कुछ और विपन्न हो गई, सामाजिक न्याय कुछ और अविश्वसनीय हो गया. भूलने की बात नहीं है कि तब उस छविवाद में लालू के साथ नीतीश भी शामिल थे.

अब छवि की दूसरी राजनीति दूसरे सिरे से नीतीश कुमार कर रहे हैं. वे खुद को विकास का प्रतीक साबित करने में लगे हैं. लेकिन बिहार के विकास का कोई ठोस नक्शा उनके पास नहीं दिख रहा. न राज्य की ठहरी हुई खेती को आगे बढ़ाने का कोई खाका उन्होंने पेश किया है और न ही नए उद्योगों की गुंजाइश दिख रही है. स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई का माहौल नहीं है, छात्र बाहर भाग रहे हैं और शिक्षक वेतन की राह देख रहे हैं. निर्माण उद्योग की तेजी से राज्य की वृद्धि दर जरूर आगे दिख रही है और अकूत भ्रष्टाचार से एक छोटे-से मध्यवर्ग में आ रहा पैसा ही यह आंकड़ा तैयार कर रहा है कि धनतेरस के दिन बिहार में 500 करोड़ की गाड़ियां बिक गईं.

हो सकता है, इस फील गुड में नीतीश एक चुनाव निकाल लें. लेकिन अगर यह सफलता उन्हें मिलती है तो उसे स्थायी बनाने के लिए उन्हें वाकई ठोस कदम उठाने होंगे. वरना कभी बिहार में अपराजेय दिखने वाले लालू यादव का जो हश्र हुआ वही उनका भी होगा. उनकी स्थिति इस लिहाज से बेहतर है कि सामाजिक न्याय की जो निष्कंटक दावेदारी लालू को हासिल थी वह उन्हें नहीं है. शायद इसी स्थिति ने लालू यादव को तानाशाह भी बनाया. दूसरी तरफ नीतीश को एहसास है कि उनकी नाकामी सामाजिक न्याय का इंतजार कर रहे बिहार को दूसरे विकल्पों की तरफ भी ले जा सकती ह. यही वजह है कि वे सामाजिक समीकरणों की राजनीति कर रहे हैं और नारा विकास का देने को मजबूर हैं. लेकिन इस नारे को हकीकत में बदले बिना न नीतीश विकास पुरुष बन पाएंगे, न बिहार का उद्धार होगा. अंततः यह स्थिति बिहार के ही नहीं, नीतीश कुमार के खिलाफ भी जाएगी.

लेकिन दुर्भाग्य से उनके यशोगान में डूबा मीडिया उन्हें यह सच देखने नहीं दे रहा. वह जीत से पहले ही उनके सिर पर जीत का तिलक लगाने को बेताब है.