न युद्ध, न शांति

चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ इसी महीने भारत आ रहे हैं. इसी दौरान दोनों देशों के तनाव-भरे कूटनीतिक संबंधों को भी 60 साल होने जा रहे हैं. चीन की नई मुखरता कूटनीतिज्ञों, नेताओं और सैन्य रणनीतिकारों को हैरान कर रही है. चीनी मामलों के जानकार और हाल में रॉ से रिटायर हुए भास्कर रॉय कहते हैं, ‘पश्चिमी सेक्टर में स्थित लद्दाख की पैंगोंग सो झील के पास चीन का नियंत्रण लगातार बढ़ता गया है. भारतीय सेना ने सरकार को सूचना दी है कि चीनी और भी ज्यादा जमीन पर अपना दावा कर रहे हैं.’

सरकार में कोई यह बात मानने को तैयार नहीं होगा मगर यह सच है कि दो साल पहले भारत के सैन्य बलों ने चीन से खतरे का स्तर ‘लो’ से बढ़ाकर ‘मीडियम’ कर दिया है. आधिकारिक रूप से चीन का रक्षा बजट 70 अरब डॉलर है, मगर पेंटागन का मानना है कि यह 150 अरब डॉलर से कम नहीं. उधर, भारत का रक्षा खर्च पेंटागन के आंकड़े का पांचवां हिस्सा ही है.

हालांकि इतने भारी-भरकम खर्च के बावजूद इसकी संभावना कम ही है कि परमाणु हथियारों से लैस भारत और चीन युद्ध लड़ेंगे. ऐसा इसलिए कि दोनों में से कोई भी 21वीं सदी में दुनिया की अगुआई करने का अवसर खोना नहीं चाहता. यानी दांव पर बहुत कुछ है.

फिर भी बीजिंग और नई दिल्ली की सैन्य गतिविधियां बताती हैं कि पूर्वी सेक्टर यानी अरुणाचल प्रदेश और पश्चिमी सेक्टर यानी लद्दाख में दोनों देश टकराव की तैयारी कर रहे हैं. हालांकि इसके भी किसी युद्ध में तब्दील होने की संभावना कम ही दिखती है.

लद्दाख में पीएलए की बढ़ती घुसपैठ बताती है कि कश्मीर मुद्दे पर चीन ने अपना रुख बदल लिया है

लद्दाख का सीमावर्ती इलाका किसी उल्टी हथेली की तरह है. पिछले चार दशकों में चीन ने इस हथेली से निकलने वाली तीन उंगलियों पर कब्जा कर लिया है. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर ईस्ट एशियन स्टडीज के चेयरमैन श्रीकांत कोंडपल्ली बताते हैं, ‘अब वे (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ चाइना या पीएलए) चौथी उंगली की तरफ बढ़ रहे हैं जिसे ट्रिगोनोमेट्रिक हाइट्स या ट्रिग हाइट्स कहा जाता है. सबसे ज्यादा घुसपैठ इसी इलाके में हो रही है.’

लद्दाख में हो रही इस चीनी घुसपैठ पर यूपीए सरकार का रवैया लगातार ठंडा रहा है. सितंबर, 2009 में खबरें आई थीं कि चीन ने लेह के पूर्व में चुमार सेक्टर में स्थित जुलुंग ला इलाके में घुसपैठ की है. यह इलाका लद्दाख, स्पीति और तिब्बत को जोड़ता है. अरुणाचल पर चीन के दावे को सुर्खियां मिलती हैं, मगर वास्तव में भारतीय और चीनी सेनाएं पश्चिमी सेक्टर में लगातार एक-दूसरे को मात देने का खेल खेल रही हैं.

कोंडपल्ली कहते हैं, ‘पैंगोंग सो झील का दो तिहाई हिस्सा उनके नियंत्रण में है. खबरें हैं कि चीनी वहां तोपखाना और गश्ती नौकाएं ले आए हैं. वे आक्रामकता के साथ झील में गश्त लगाते हैं. चीनी मीडिया में तो एक पनडुब्बी की तैनाती तक की रिपोर्ट है. भारतीय सैनिकों के पास झील के एक तिहाई हिस्से पर अपना प्रभावपूर्ण प्रभुत्व जताने के साधन ही नहीं हैं. हम ज्यादा गश्त नहीं कर सकते क्योंकि हमारे सैनिकों के पास गश्ती नौकाएं ही नहीं हैं.’

पीएलए धीरे-धीरे पश्चिमी सेक्टर में समर लुंगपा क्षेत्र पर अपना दावा मजबूत कर रही है. चीनियों के अनुसार, वास्तविक नियंत्रण रेखा समर लुंगपा, काराकोरम दर्रे और छिपछाप नदी के बीच अंकित क्षेत्र के दक्षिण में है. लेकिन भारत का आधिकारिक रुख पहले जैसा ही है.  भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के डायरेक्टर जनरल आरके भाटिया ने नवंबर के पहले हफ्ते में एक बयान देते हुए कहा, ‘हमारे पास सीमाओं पर किसी भी घुसपैठ की कोई रिपोर्ट नहीं है. सीमाओं पर शांति है.’

कोंडपल्ली कहते हैं,’चीन से जुड़े कोई भी आधिकारिक दस्तावेज सार्वजनिक नहीं किए गए हैं. राष्ट्रीय अभिलेखागार में जाइए और चीन संबंधी किसी भी दस्तावेज के बारे में पूछिए तो आपको चुप्पी के अलावा कुछ नहीं मिलेगा.’ भारत के कानून के मुताबिक 50 साल के बाद गोपनीय आधिकारिक दस्तावेज सार्वजनिक किए जा सकते हैं. लेकिन चीन से संबंधित दस्तावेज 1914 के बाद से सार्वजनिक नहीं हुए हैं. 1914 के दस्तावेज भी उस समय हुए शिमला सम्मेलन के हैं जब ब्रिटेन, चीन और तिब्बत के प्रतिनिधियों ने तिब्बत की स्थिति को हल करने के लिए मुलाकात की थी. इस दौरान ही भारतीय-चीन सीमा के तौर पर मैकमोहन रेखा बनाई गई थी. चीन इस सीमा को स्वीकार नहीं करता.

रॉय के मुताबिक पीएलए की घुसपैठ और लद्दाख में इसका बढ़ता अतिक्रमण दिखाता है कि कश्मीर मुद्दे पर चीन ने अपना रुख बदल लिया है. वे कहते हैं, ‘1980 के दशक में चीनी कश्मीर को एक द्विपक्षीय विवाद कहते थे. जम्मू व कश्मीर को भारत अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता था. अब वे कहते हैं कि भारत के पास जो कश्मीर है वह एक विवादित क्षेत्र है और पाक अधिकृत कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा है.’

चीन के इस खेल को वही समझ सकता है जिसे उसके चरित्र की गहरी समझ हो. रॉय कहते हैं, ‘चीनी सीधे बात नहीं करते.’ कश्मीर पर चीन ने अपने रुख में नाटकीय बदलाव तभी जाहिर कर दिया था जब उसने बिना किसी प्रचार के जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल के लोगों को स्टेपल्ड वीजा (नत्थी किए हुए कागज पर वीजा) जारी करना शुरू कर दिया. कोंडपल्ली कहते हैं, ‘पाक अधिकृत कश्मीर और नार्दन एरिया में रह रहे लोगों को चीन द्वारा स्टेपल्ड वीजा जारी करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है. इसलिए यह एक अहम संकेत है कि चीन भारत को क्या बताना चाहता है. मतलब यह कि पाकिस्तान के नियंत्रण वाला कश्मीर अब विवादित क्षेत्र नहीं है.’ इस तर्क से यह भी कहा जा सकता है कि चीनी नेतृत्व ने भारत को यह संकेत दे दिया है कि वह जम्मू-कश्मीर को एक विवादित इलाका मानता है. 

सीमा से जुड़े विवादों में जमीन किसकी है, इसके निर्धारण के लिए नक्शों का आदान-प्रदान महत्वपूर्ण होता है

फिर इसी साल अगस्त में चीन ने नार्दन कमांड के ले. जनरल बीएस जसवाल को एक आधिकारिक यात्रा के लिए वीजा देने से इनकार कर दिया. उसने यह सुझाव दिया कि जसवाल की जगह किसी और जनरल, जो जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल के बाहर तैनात हो, को भेजा जा सकता है. भारत ने तत्काल यह सुझाव ठुकरा दिया. इसके बाद सितंबर में द न्यूयॉर्क टाइम्स में एक खबर छपी जिसमें कहा गया था कि पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित और बाल्टिस्तान में चीन ने 11,000 सैनिकों की तैनाती कर दी है. हाल ही में चीन के विदेश मंत्रालय ने एलान किया कि नार्दन एरिया, गिलगित और बाल्टिस्तान पाकिस्तान का हिस्सा हैं. भारत इन्हें अविभाजित जम्मू-कश्मीर का हिस्सा मानता है.

चीन मामलों के विशेषज्ञ और सरकार के सूत्र बताते हैं कि चीन पाक अधिकृत कश्मीर और नॉर्दन एरिया में बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश करके अपनी नई कश्मीर नीति को वैधता का जामा पहना रहा है. पाकिस्तान और अन्य जगहों पर पनबिजली परियोजनाओं और सड़क व रेल निर्माण में चीनी निवेश का आंकड़ा 30.14 अरब डॉलर बताया जा रहा है. पाक अधिकृत कश्मीर में चीन ने एक महत्वपूर्ण रणनीतिक परियोजना शुरू की है. वह झिंजियांग प्रांत के पास 4,693 मीटर की ऊंचाई पर बसे खूंजेराब और नॉर्दन एरियाज के बीच एक रेल लाइन बनवा रहा है. उसकी इस रेल लाइन को पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक ले जाने की योजना है. गौरतलब है कि यह बंदरगाह भी चीन ही बनवा रहा है. कोंडपल्ली कहते हैं. ‘चीनी चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान हमेशा अलग-अलग रहें.’

रॉय के मुताबिक, चीन जम्मू और कश्मीर को एक त्रिपक्षीय मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है. इससे पहले से ही जटिल कश्मीर मुद्दे में जटिलता की एक और परत जुड़ जाएगी. चीन चुपचाप समीकरण बदल रहा है. भले ही भारत ने अपनी स्थिति न बदली हो और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा यहां आकर बयान दे गए हों कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच का मुद्दा है. अक्टूबर के आखिरी हफ्ते चीन की नई ऑनलाइन मानचित्रण सेवा लांच हुई. गूगल मैप्स की प्रतिद्वंद्वी कही जा रही इस सेवा में अरुणाचल और अक्साई चिन (लद्दाख का एक हिस्सा) को चीन का हिस्सा दिखाया गया है.

19वीं सदी में पांच हिमालयी राज्य थे. तिब्बत, लद्दाख, सिक्किम, नेपाल और भूटान. 20 सदी में इस स्थिति में बदलाव हुआ. लद्दाख और सिक्किम भारत में मिल गए. भूटान और नेपाल स्वतंत्र देश बन गए.  उधर, तिब्बत, तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (टीएआर) के रूप में चीनी नियंत्रण में आ गया. कोंडपल्ली कहते हैं, ’19वीं सदी में जो कश्मीर था उसका 20 फीसदी हिस्सा आज चीन के कब्जे में है और इसलिए तकनीकी रूप से देखा जाए तो यह विवाद का हिस्सा हो जाता है. लेकिन कश्मीरी अलगाववादियों में यह हिम्मत नहीं कि वे चीन से अपनी जमीन वापस मांगें क्योंकि उनके पाकिस्तानी आका उन्हें इसकी इजाजत नहीं देंगे.’

तो स्थिति यह है कि कश्मीर समस्या के जन्म के 63 साल बाद चीन ने चुपचाप खुद को इस समस्या का ‘तीसरा पक्ष’ बनाकर इसे एक त्रिपक्षीय मुद्दे में तब्दील कर दिया है. लेकिन भारत भी चीन के इस खेल को समझ रहा है. पिछले महीने चीन के वुहान शहर में हुई रूस, भारत और चीन के विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान कृष्णा ने अपने समकक्ष यांग च्येछी से सीधी बात की.  विदेश सचिव निरुपमा राव के मुताबिक कृष्णा ने कहा कि ‘उम्मीद है कि चीन जम्मू एवं कश्मीर के प्रति संवेदनशील रुख दिखाएगा जिस तरह हम टीएआर और ताइवान के संदर्भ में दिखाते रहे हैं.’ पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह कहते हैं, ‘यह निश्चित रूप से अतीत के रुख से अलग है. पहली बार ऐसी बात कही गई है.’

सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भारत और चीन के बीच विचार-विमर्श के 13 दौर हो चुके हैं. रॉय कहते हैं, ‘लेकिन कभी भी पश्चिमी और पूर्वी सेक्टर के नक्शों का आदान-प्रदान नहीं किया गया.’ कोंडपल्ली कहते हैं, ‘हमने अपने नक्शे दिखाए हैं मगर चीनियों ने अपने नक्शे नहीं दिखाए हैं.’ नटवर सिंह कहते हैं, ‘चीनी कभी हमें अपनी सीमा के नक्शे नहीं देते. जो एनलाई ने नेहरू को बताया था कि चीनी नक्शे बहुत पुराने हैं और उनका कोई फायदा नहीं है. तब से लेकर आज तक चीनी हमेशा अपने नक्शे न देने की कोई न कोई वजह गिनाते रहे हैं.’

रिपोर्टें बताती हैं कि पीएलए 1962 के कब्जे से 11 किमी आगे तक आ गई है और इस इलाके में कर वसूल रही है

सीमा से जुड़े विवादों में जमीन किसकी है, इसका निर्धारण करने के लिए नक्शों का आदान-प्रदान महत्वपूर्ण होता है. कोंडपल्ली कहते हैं, ‘अगर नक्शों का आदान-प्रदान हो जाता है तो यह समझ लिया जाता है कि भारत और चीन ने अपनी-अपनी बात को ऑन रिकॉर्ड रख दिया है. आसानी से समझने के लिए मान लेते हैं कि हमारे बीच प्रॉपर्टी से जुड़ा कोई विवाद है. हम दोनों के पास प्रॉपर्टी डीड हैं. जज इनका विश्लेषण करता है और यह देखता है कि किसका दावा मजबूत है. इसके बाद वह फैसला देता है.’ मिलेट्री इंटेलिजेंस (एमआई) के सूत्र बताते हैं कि जियाबाओ की यात्रा के दौरान अगर चीन आधिकारिक रूप से नक्शों का आदान-प्रदान करने का फैसला करता है तो भारत को झटका लग सकता है.

कोंडपल्ली कहते हैं, ‘जमीन पर अपना दावा साबित करने का एक तरीका यह है कि आप यह प्रमाण दें कि उस जमीन पर कर की वसूली आप कर रहे हैं. अगर आप दुर्गम इलाकों से वसूले जा रहे भू एवं राजस्व कर के साक्ष्य पेश कर सकते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जो भी करों की वसूली कर रहा है, कानूनी रूप से जमीन उसी की है. खबरें हैं कि एमआई ने सरकार को बताया है कि 1980 से ही पीएलए वास्तविक नियंत्रण रेखा के इर्द गिर्द रहने वाले लोगों से ऐसे दस्तावेज इकट्ठा कर रही है. ऐसी भी रिपोर्टें हैं कि लोग चीनी इलाकों में जाकर बस गए हैं और अपने साथ जमीन से जुड़े दस्तावेज भी ले गए हैं. इसके अलावा यह भी सूचना है कि पीएलए खानाबदोशों से भी अप्रत्यक्ष कर वसूल रही है और इसका रिकॉर्ड बना रही है.’

इससे यह बात समझ में आ सकती है कि पिछले दो दशकों के दौरान पीएलए की छोटी-छोटी टीमें क्यों पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों में लगातार घुसपैठ करती रही हैं. भूमि संबंधी दस्तावेज और भूमि व राजस्व कर लेने के लिए. इससे यह भी समझा जा सकता है कि चीनी वास्तविक नियंत्रण रेखा वाले अपने नक्शे क्यों नहीं दिखाते. पिछले 20 साल में चीन धीरे-धीरे अपने दावे के समर्थन में सबूत जमा करता आ रहा है कि अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश उसका हिस्सा हैं. कोंडपल्ली कहते हैं, ‘रिपोर्टें बताती हैं कि पीएलए 1962 के कब्जे से 11 किमी आगे तक आ गई है और इस दायरे में आने वाले इलाकों से कर वसूल रही है.’

उत्तराखंड और सिक्किम में सीमा पर भारत और चीन के बीच एक सहमति हो चुकी है. लेकिन अरुणाचल प्रदेश के 90,000 वर्ग किमी क्षेत्र पर चीन लगातार दावा करता आ रहा है.  हालांकि राय और दूसरे कई विदेश नीति विशेषज्ञ इस पर सहमति जताते हैं कि चीन के इन हमलावर तेवरों के सीमा पार करने की आशंका नहीं है क्योंकि आज के दौर में दांव पर बहुत कुछ लगा है. रक्षा विश्लेषक और इंडियन डिफेंस रिव्यू के संपादक भरत वर्मा कहते हैं, ‘चीन अब से 2012 तक ही भारत पर हमला कर सकता है. इसके बाद इस अवसर की खिड़की का बंद होना शुरू हो जाएगा और 2015 तक चीन के लिए ऐसा करना लगभग असंभव हो जाएगा. चीन के लिए भारत पर हमला करने की तीन अनिवार्यताएं होंगी: 1) पाकिस्तान में भारी अराजकता हो गई है, वह टूटकर बिखर रहा है. चीन ने पाकिस्तान  में भारी निवेश किया है. पाकिस्तान को बचाने के लिए और इसे तोड़ने वाली ताकतों को एक करने के लिए चीन भारत पर हमला करेगा. 2) चीन के नजरिये से तिब्बत का विलय तब तक पूरा नहीं है जब तक अरुणाचल पर उसका कब्जा न हो. 3) भारतीय सेना 2015 तक बहुत ही अत्याधुनिक हो जाएगी और चीन को हमले के बारे में सोचने से पहले भी कई बार सोचना पड़ेगा.’

चीन 4,000 किमी की वास्तविक नियंत्रण रेखा के नजदीक अपने सैन्य ढांचे का विस्तार कर रहा है. वह सड़कें और रेल लाइनें बिछा रहा है ताकि सैनिकों की आवाजाही तेज और ज्यादा सक्षम तरीके से हो सके. वास्तविक नियंत्रण रेखा के नजदीक भारी पैमाने पर गतिविधियों को देखते हुए ही जनरल वीके सिंह ने कहा था, ‘चीन बुनियादी ढांचे के विकास पर बहुत पैसा खर्च कर रहा है. वह कहता है कि यह क्षेत्र के स्थानीय लोगों के लिए है. मगर हमें उसके इरादों पर शक है.’ इसी बयान को पकड़ते हुए पूर्व रक्षा मंत्री और समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने संसद में यह मसला उठाया था. यादव कहते हैं, ‘चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. मैं रक्षा मंत्री रहा हूं और जानता हूं कि उनके इरादे क्या हैं. हमारी सीमाएं सुरक्षित नहीं हैं.’

अरुणाचल में वास्तविक नियंत्रण रेखा के उस पार चीनी हिस्से तक पहुंच अपेक्षाकृत आसान है जबकि इस पार भारतीय हिस्से में घने वन और दुर्गम पहाड़ियां हैं. नाम न छापने की शर्त पर अधिकारी तहलका को बताते हैं, ‘2008 तक रणनीति यह थी कि पूर्व की तरफ पड़ने वाले सीमावर्ती इलाकों को विकसित न किया जाए और सेना भी इस पर सहमत थी. 1962 की शर्मनाक हार वह भूली नहीं थी और उसे लगता था कि अगर इन क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे का विकास किया गया तो युद्ध की स्थिति में चीनी इसका फायदा उठाएंगे.’ दो साल पहले ही सरकार ने सीमावर्ती क्षेत्रों पर अपनी इस नीति को आखिरकार बदलने का फैसला किया. 2008 में सरकार ने इन इलाकों में सीमा पर सड़कों के निर्माण के लिए भूमि सर्वेक्षण शुरू किया और अब ऐसा लग रहा है कि सरकार वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास बसे भारत के सीमावर्ती इलाकों को सड़क मार्ग से जोड़ देगी.

10 नवंबर को गृह राज्य मंत्री मुलापल्ली रामचंद्रन द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में  कहा गया है कि सरकार ने जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में भारत और चीन सीमा पर स्थित क्षेत्रों में 804 किमी कुल लंबाई की 27 सड़कें अलग-अलग चरणों में बनाने का फैसला किया है. पिछले दो साल के दौरान वास्तविक नियंत्रण रेखा के नजदीक सड़कें बनाने पर सरकार ने 384 करोड़ रु खर्च किए हैं. भारत ने पूर्वोत्तर में दो अतिरिक्त माउंटेन डिविजनें बनाकर अपने सैनिकों की संख्या का आंकड़ा एक लाख से भी ऊपर पहुंचा दिया है. भारतीय वायु सेना द्वारा हाल ही में अपने बेड़े में शामिल किए गए सुखोई-30 लड़ाकू विमानों के दो स्क्वाड्रन तेजपुर में तैनात कर दिए गए हैं. इसके साथ ही हवाई हमले की चेतावनी देने वाली व्यवस्था भी है. पूर्वोत्तर में 3,500 किमी की दूरी तक मार करने वाली अग्नि-3 मिसाइलें भी तैनात की गई हैं. अगले साल की शुरुआत में अग्नि-5 का परीक्षण भी किया जाएगा जो चीन के उत्तर में सबसे दूर स्थित शहर हारबिन तक मार करने में सक्षम है. इसके अलावा भारतीय वायुसेना ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थित अपनी तीन हवाई पट्टियों को फिर से शुरू कर दिया है.

चीन की नौसैन्य रणनीति भी भारत के लिए चिंताएं जगा रही है. 18 नवंबर को श्रीलंका ने चीन द्वारा बनाए गए हंबनटोटा बंदरगाह का उदघाटन किया. चीन पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह का निर्माण कर रहा है. म्यामांर के कोको द्वीप पर भी उसने चौकियां बना ली हैं और वह थाइलैंड, कंबोडिया और बांग्लादेश में भी बंदरगाह सुविधाएं स्थापित कर रहा है. उसकी बढ़ती अर्थव्यवस्था निर्यात पर निर्भर है. चीन अपने उत्पादन का 30 फीसदी अपने यहां खपाता है और बाकी 70 फीसदी हिंद महासागर में मौजूद जल मार्गों के जरिए दुनिया के बाकी भागों में भेजता है. उसकी 20 करोड़ टन सालाना तेल जरूरत का 80 प्रतिशत मलक्का के जलडमरूमध्य के माध्यम से इस तक पहुंचता है. कोंडपल्ली कहते हैं, ‘अंडमान में स्थित भारतीय सैन्य बेस मलक्का के जलडमरूमध्य तक पहुंच पर नियंत्रण रखता है.  चीनी चिंतित हैं कि युद्ध की स्थिति में भारतीय नौसेना चीनी तेल टैंकरों को डुबा सकती है. इससे चीन की निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था को झटका लगेगा.’

इस साल अगस्त में चीन, जापान को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है. जियाबाओ इस शानदार आर्थिक तरक्की से पैदा हुए विश्वास के साथ भारत आएंगे. लेकिन उन्हें यह भी पता होगा कि उनके दौरे से एक महीने पहले ही भारतीय सेना ने अरुणाचल स्काउट्स बटालियन का गठन किया है. अरुणाचल के ही मूल निवासियों से मिलकर बनी इस पहली बटालियन के सदस्यों को ऊंचाई पर स्थित क्षेत्रों में होने वाली लड़ाई के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा.

तो क्या जियाबाओ भारत की इस बड़ी रणनीति का जवाब भूअभिलेख और कर दस्तावेज दिखाकर देने वाले हैं ताकि वे अक्साइ चिन और अरुणाचल पर अपना दावा साबित कर सकें? नई दिल्ली उम्मीद ही कर सकती है कि ऐसा न हो.