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'सीडी की बातें नेताओं ने शांति भूषण के सिर पर बंदूक रखकर नहीं कहलवाई हैं'

आर्थिक फर्जीवाड़े के अलावा अमर सिंह आजकल प्रशांत और शांति भूषण की फर्जी सीडी के विवाद के केंद्र में भी हैं. इस पर अतुल चौरसिया और समर्थ सरन की उनसे हुई बातचीत के अंश –

आपने चार्टड प्लेन, पचास लाख रुपये अदा करने जैसे गंभीर आरोप भूषण परिवार पर लगाए हैं. आप चाहते क्या हैं?

शांति भूषण और प्रशांत को कमेटी से हट जाना चाहिए.

कथित टेप में जिन जज को फिक्स करने की बात चल रही है वे आपके फोन टैपिंग मामले की सुनवाई कर रहे हैं. क्या उनके ऊपर दबाव बनाने और खुद को बचाने के लिए आप ही तो ऐसा नहीं कर रहे हैं?

अगर यह मेरी चाल है तो मुझसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं होगा कि मैं इस तरह के षडयंत्र में अपना ही नाम इस्तेमाल करूं. मैं फोन पर बात करते समय बेहद सावधानी बरतता हूं. जब से मेरे निजी टेलीफोन टैपिंग का मामला सामने आया है, मैं किसी से भी बातचीत में बेहद सावधानी बरतता हूं. मुझे किसी का ध्यान भटकाने की क्या जरूरत है? अगर मुझे अपने फोन टैपिंग मामले को प्रभावित करना होता तो मैं सुनवाई के दौरान ही ऐसा करता. पांच साल बाद जब फैसला सुरक्षित हो चुका है तब मैं ऐसा क्यों करूंगा? अगर इस मामले में कोई दोहरा रवैया अपना रहा है तो वह भूषण परिवार है जिसने हमेशा कहा कि मेरे फोन रिकॉर्ड वास्तविक हैं जबकि मैं हमेशा कहता रहा कि टेप अवैध और छेड़छाड़ करके तैयार किए गए हैं. देश के अटार्नी जनरल और सॉलीसिटर जनरल ने भी मेरी बात का समर्थन किया था.

ये भी कहा जा सकता है कि आप भूषण परिवार के साथ अपनी निजी दुश्मनी निकाल रहे हैं क्योंकि उन्होंने आपके फोन टैपिंग मामले में पीआईएल दायर की थी.

आप इसे बदला नहीं कह सकते हैं. आप जैसा बोते हैं वैसा ही काटते हैं. अगर आप तलवार से दोस्ती करेंगे तो उसके द्वारा मारे जाने की संभावना भी रहती है. इसमें बदले जैसा कुछ भी नही है.

जस्टिस सौमित्र सेन के महाभियोग मामले में प्रशांत भूषण ने मुझसे कहा था कि आप इस काम में साथ दीजिए मैं आपके फोन टैपिंग वाले मामले को आगे नहीं बढ़ाऊंगा

तो क्या भूषण परिवार के खिलाफ सामने आई सीडी आपने नहीं बंटवाई ?

अगर आपके पास प्रमाण हैं तो मुझे फांसी दे दें.

लोगों का मानना है कि अमर सिंह राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गए हैं. दूसरी तरफ कांग्रेस भ्रष्टाचार के घेरे में है. इसलिए आपने कांग्रेस के साथ मिलकर ये सारा नाटक रचा है. 18 अप्रैल को आप, दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद फर्रूखाबाद में एक मंच पर दिखते हैं, 19 अप्रैल को आप भूषण के खिलाफ एक साथ इतने सारे आरोप लगाते हैं. इससे संदेह पैदा होता है.

मेरा सवाल ये है कि अगर मैं राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हूं तो आप अपना और मेरा वक्त क्यों बर्बाद कर रहे हैं. मेरा जीना हराम मत करिए. रात में बारह बजे तक घर के बाहर मत खड़े होइए, मेरे पीछे-पीछे कैमरे लेकर मत दौड़िए. अप्रासंगिक तो यहां सुब्रमण्यम स्वामी भी नहीं हैं जो कि चुने हुए सांसद भी नहीं हैं फिर भी लोगों को तकलीफ दिए हुए हैं, तो मैं कैसे अप्रासंगिक हूं.

ऐसा लग रहा है कि आपसी विरोधाभासों को किनारे रखकर पूरा राजनीतिक वर्ग चाहे अमर सिंह हों, मोहन सिंह हों, दिग्विजय सिंह हों, रघुवंश प्रसाद हों या फिर कपिल सिब्बल, सारे लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ चले एक अभियान को पटरी से उतारने की मुहिम में लगे हुए हैं.

ये एकदम गलत बात है. जो बात शांति भूषण सीडी में कह रहे हैं, क्या वह पोलिटिकल क्लास ने उनके सर पर बंदूक रखकर कहलवाई है कि प्रशांत पैसा लेकर पीआईएल करते हैं, बहुत अच्छी तरह से मैनेज करते हैं और चार करोड़ लगेगा और मुख्य न्यायाधीश और कानूनमंत्री सब भ्रष्ट हैं.

कमेटी बनने के बाद जिस सुनियोजित तरीके से भूषण परिवार को निशाना बनाया जा रहा है उससे ये संकेत मिल रहा है कि राजनीतिक वर्ग नागरिक समाज के नैतिक बल को उस हद तक गिरा देना चाहता है जहां से दोनों पक्ष बातचीत की मेज पर बराबरी की स्थिति में हों. नागरिक समाज अपनी बात को मजबूती से कह पाने का अधिकार खो बैठेगा.

पहला हमला तो आपके घर से हुआ. बाबा रामदेव ने सवाल उठाया कि पिता-पुत्र को एक साथ कमेटी में क्यों रखा गया है. और मेरी समझ में नहीं आता कि कमेटी की ताकत कम क्यों हो जाएगी. क्या देश में कानून समझने वाले वही दो लोग हैं? उन्हें झूठ बोलने के लिए किसने कहा था कि अमर सिंह को नहीं जानते और मुलायम सिंह को नहीं जानते. हमारे लिए जो केस लड़ा है, दो बार लखनऊ हाई कोर्ट की बेंच में पेश हुए हैं, वो भी क्या झूठ है?

आपकी बात तकनीकी रूप से सही हो सकती है, लेकिन सीडी की बातचीत में जब आप कह रहे हैं कि शांति भूषण जी आपके साथ बैठे हैं, प्रशांत ने उस बात का खंडन किया था कि उनके पिता जी कभी भी आपके साथ न तो बैठे न इस तरह की बात हुई. तो फिर आपके इन प्रमाणों से प्रशांत के आरोप गलत कैसे साबित होते हैं?

भूषण बाप-बेटे हर दिन अपना बयान बदलते हैं. अगर वो कहते कि उन्हें याद नहीं तो भी माना जा सकता था. वो पीआईएल विशेषज्ञ हैं और रोज ही फिक्सिंग करते हैं. लीगल कट-पेस्ट और स्प्लाइस उनका रोज का काम है. जस्टिस सौमित्र सेन के महाभियोग मामले में, जिसमें मैंने वृंदा करात और सीताराम येचुरी के कहने पर दस्तखत किए थे, प्रशांत भूषण ने मुझसे कहा था कि आप इस मामले में साथ दीजिए मैं आपके खिलाफ फोन टैपिंग मामले को आगे नहीं बढ़ाऊंगा.

कथित तौर पर जब आपने मुलायम सिंह से शांति भूषण की बात करवाई उस समय आप उनके साथ मौजूद थे?

मैं आपको क्यों बताऊं? आप सीबीआई हैं या आप सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एसआईटी हैं? होगें आप तहलका. बात ये है कि उस सीडी का एक हिस्सा बहुत गंभीर है. शांति भूषण कमेटी के चेयरमैन हैं, इसलिए उनकी जवाबदेही बनती है. जो आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का नायक है वह चार करोड़ रुपये में यह सब कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह के अवैध टेप को सार्वजनिक करने और चर्चा करने पर रोक लगाई हुई है. और मैं सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करता हूं, इसलिए इस पर ज्यादा नहीं बोलूंगा. मैं प्रशांत भूषण की तरह लीगल गुंडा थोड़े ही हूं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट की रोक के बावजूद मेरी सीडी सार्वजनिक कर दी.

क्या आप उनके इस कदम के खिलाफ कोर्ट में जाएंगे? यदि हां तो कब?

बिलकुल जाएंगे. जब जाएंगे तो आपको बता देंगे. कोर्ट की अवमानना करना तो उनकी पुरानी आदत है. इसके लिए वो एक बार कोर्ट से माफी भी मांग चुके हैं. उन्हें फार्महाउस मिले तो कानूनी है और सभरवाल के बेटे को मिले तो चोर है. खुद करें तो रामलीला और कोई और करे तो रासलीला.

ये देखा जाता है कि अमर सिंह की दुश्मनी से ज्यादा भारी लोगों को अमर सिंह की दोस्ती पड़ती है. मसलन अमिताभ बच्चन, अनिल अंबानी, मुलायम सिंह, जया बच्चन, संजय दत्त. एक समय में आप इन लोगों के घरेलू सदस्य की तरह थे.

संजय दत्त कहां हमसे अलग हुए हैं. अमिताभ बच्चन ने एक साक्षात्कार में साफ कर दिया है कि अगर अमर सिंह नहीं होते तो मैं बंबई में टैक्सी चला रहा होता. उल्टे आप यह कह सकते है कि मैंने लोगों के लिए इतना किया पर लोगों ने मुझे धोखा दिया है. 14 साल तक मैंने मुलायम सिंह को सिर्फ दिया है, कुछ लिया नहीं है. मैंने उन्हें नहीं छोड़ा है, उन्होंने मुझे निकाला है अपने पुत्र प्रेम में, भाई के प्रेम में.

इन लोगों से फिर से आपकी सुलह होगी?

सहाराश्री के साथ मेरी आज भी बनती है. जया बच्चन की महत्वाकांक्षा अमर सिंह के रिश्ते से ज्यादा राज्यसभा की सीट को तवज्जो देती  थी. मैं ज्यादा भावुक हूं और लोग बहुत पेशेवर हैं. ये बात तो आप बच्चन परिवार से भी पूछ सकते हैं कि उनकी आज गांधी परिवार के साथ क्यों नहीं बनती, अमर सिंह से उनका क्यों बिगाड़ हो गया. यह सवाल आप मुलायम सिंह से भी पूछ सकते हैं कि चौधरी चरण सिंह ने उन्हें बनाया उनके साथ वो नहीं रहे, चंद्रशेखर जी ने उन्हें बनाया पर उनका साथ भी छोड़ दिया.

समाजवादी पार्टी आर्थिक तंगी से जूझ रही है. क्या 2012 विधानसभा चुनाव से पहले आप फिर से सपा के लिए यह भूमिका निभा सकते हैं?

हम किसी के घर में जाकर बर्तन मांज सकते हैं लेकिन मुलायम सिंह के पास कभी नहीं जाएंगे. अगर मेरे सामने मुलायम सिंह और मायावती में से एक को चुनने की बारी आएगी तो मैं मायावती को चुनूंगा. मैंने कभी भी सपा को नहीं छोड़ा था. अपनी दोनों किडनियां गंवाने के बाद भी मैंने सपा के लिए काम किया और उन्होंने मुझे पार्टी से निकाल दिया. रामगोपाल यादव ने मुझे गालियां दीं, आजम खान ने मुझे दलाल और सप्लायर कहा. 

आपकी पार्टी लोकमंच ने पूर्वांचल आंदोलन शुरू किया, पर कोई राजनीतिक हलचल नहीं हुई. क्या भविष्य है इसका?

पूर्वांचल ने मुझे राजनीतिक पहचान दी है. जब तक पृथक पूर्वांचल राज्य बन नहीं जाता तब तक मेरी लड़ाई जारी रहेगी.

मुलायम सिंह के साथ आएंगे नहीं तो क्या चुनावों से पहले कांग्रेस के साथ जाने पर विचार करेंगे?

अभी मैंने किसी के साथ जाने का फैसला नहीं किया है. जब चुनाव आएंगे तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी.

जंतर-मंतर के बाद गांधी का जंतर चाहिए

अन्ना हजारे के अनशन की सफलता से पैदा हुआ उत्साह अचानक एक मायूसी में बदलता दिख रहा है. जो लोग दिल्ली के जंतर-मंतर को मिस्र का तहरीर चौक मान रहे थे और सोशल नेटवर्क के ठिकानों पर अपने-अपने जंतर-मंतर बना रहे थे वे पा रहे हैं कि हजारे और उनकी टीम कई दुविधापूर्ण सवालों से घिरी है. एक तरफ खुद हजारे नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार जैसे उन मुख्यमंत्रियों की तारीफ में जुटे हैं जिन्होंने सांप्रदायिक राजनीति की है या सांप्रदायिक राजनीति का साथ दिया है तो दूसरी तरफ शांति भूषण और प्रशांत भूषण का परिवार जमीन-जायदाद में अपने निवेश की सफाइयां दे रहा है. तीसरी तरफ दिग्विजय सिंह और मायावती जैसे नेता हैं जिनकी शिकायत है कि हजारे ने लोकपाल बिल तैयार करने वालों की जो समिति बनाई है वह समाज के दबे-कुचले तबकों की नुमाइंदगी नहीं करती.

निश्चय ही यह सब लिखने का मकसद यह सपाट निष्कर्ष परोसना नहीं है कि जंतर-मंतर से जो लड़ाई शुरू हुई वह नकली या खोखली थी. सच तो यह है कि तमाम आरोपों के बावजूद हजारे और उनकी टीम का अपना एक नैतिक बल है जो उन्हें भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने का अधिकार भी देता है और एक तरह की स्वीकार्यता भी. उनके सरोकार असंदिग्ध हैं और उनकी क्षमताएं भी. हजारे की सादगी हो या दूसरों का समर्पण, ये सब अमर सिंह या दिग्विजय सिंह जैसों की आलोचना से ऊपर हैं और वे बेहतर लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं.

लेकिन जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुजूम को सिर्फ लोकपाल नहीं चाहिए था. लोकपाल उसके लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई का एक बड़ा प्रतीक भर है और मौजूदा व्यवस्था की सड़ांध और जकड़न से पैदा हताशा और गुस्से ने उसे हजारे के पीछे खड़ा कर दिया था. यह अनायास नहीं है कि इस मुहिम के दौरान लोगों ने बार-बार दूसरी आजादी की बात की.

जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुजूम को सिर्फ लोकपाल नहीं चाहिए था. लोकपाल उसके लिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई का एक बड़ा प्रतीक भर है

लेकिन दूसरी आजादी आसानी से नहीं आती. क्रांतियों में तकलीफ होती है, मोहभंग आता है, हताशा के पड़ाव भी मिलते हैं और कई बार प्रतिगामी ताकतें नये सिरे से सत्ता हासिल कर लेती हैं. 1789 की फ्रांसिसी क्रांति ने समता, स्वतंत्रता और भाईचारे से पहले रॉबस्पेरी जैसे उत्पीड़क और नेपोलियन जैसे अधिनायकवादी दिए और पांच गणतंत्रों का सफर तय करके अपने मुकाम तक पहुंची. रूसी क्रांति को भी दोहरी प्रसव पीड़ा से गुजरना पड़ा- पहले मेंशेविक आए और फिर बोल्शेविक क्रांति हुई. मिस्र में नयी व्यवस्था अपने नये सपनों से तुकतान बैठाने में लगी है और तहरीर चौक पर इंकलाब की तहरीर लिखने वाले नौजवान कुछ मायूस-से हैं.

लेकिन यह क्रांतियों की निष्फलता का दर्शन नहीं है. इन सबका मकसद बस यह याद दिलाना है कि क्रांतियां एक दौर में या एक झटके में पूरी नहीं होतीं. वे लगातार चलती रहने वाली प्रक्रिया होती हैं. जंतर-मंतर के आंदोलन का तुलना फ्रांसिसी या रूसी क्रांति से करना किसी डायनासार और चींटी की तुलना करना है. कायदे से जंतर-मंतर तहरीर चौक भी नहीं हो पाया था. दिल्ली में बैठे और खाए-पिए-अघाए एक वर्ग के लिए वह तफरीह चौक ही था जहां जमीर का मॉल बना हुआ था. नौकरी के बाद जैसे लोग शाम को मॉल और मल्टीप्लेक्स के चक्कर लगाते हैं, वैसे ही जंतर-मंतर के लगाने लगे थे. और तो और, आम तौर पर बड़ी भारी फीस वसूलने वाले और सबके लिए शिक्षा के अधिकार की मुखालफत करने वाले दिल्ली के कई स्कूल अपने बच्चों को यह नयी सैरगाह घुमाने ले आए. निश्चय ही बच्चों में आदर्श और संघर्ष के बीज बोए जाने चाहिए, लेकिन अच्छा होता इसकी शुरुआत स्कूलों से होती.

बहरहाल, यह इस आंदोलन की सीमा भर है, इसकी समग्र सच्चाई नहीं. क्योंकि बेशक, अरसे बाद जंतर-मंतर पर एक ऐसा अनशन दिखा जिसके आगे सरकार बेबस और मजबूर नजर आई. लेकिन यह बेबसी आंदोलन की ताकत या मुद्दों की गंभीरता से कहीं ज्यादा सरकार की अपनी कमजोरी और तात्कालिक जरूरत से पैदा हुई थी. भ्रष्टाचार के लिए लगातार सार्वजनिक आलोचनाएं झेल रही सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम को इतना बड़ा होता नहीं देख सकती थी जिससे उसका सिंहासन हिलने लगे. उल्टे वह यह जताने की कोशिश में है कि उसके इरादे पाक-साफ हैं और इसीलिए उसने हजारे और उनके साथियों की मांग मान ली है. वैसे भी लोकपाल विधेयक से उसे कोई वास्तविक खतरा नहीं है. अगर होता तो इस आंदोलन के साथ उसका सलूक कुछ और होता. आखिर इसी जंतर-मंतर पर कहीं ज्यादा बुनियादी सवालों के साथ इसी सरकार के सामने 20 दिन से ज्यादा भूखी रहकर मेधा पाटकर लौट गई थीं और किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी थी. मेधा जंगल-जमीन, बांध और विकास के वे बुनियादी सवाल उठा रही थी जो भारतीय सत्ता और मीडिया दोनों को असुविधाजनक लगते हैं.

असल में जंतर-मंतर पर हुए आंदोलन को पिछले आंदोलनों के हश्र से सीखने की भी जरूरत है और भारतीय समाज की आकांक्षाओं से तुकतान बैठाने की भी. हजारे से पहले बाबा आमटे और सुंदरलाल बहुगुणा और कई दूसरे लोगों ने जो आंदोलन चलाए उन्हें सरकारों ने या सफलतापूर्वक छला और पचा लिया या फिर अविश्वसनीय बनाकर छोड़ दिया. इस बार भी खेल यही लग रहा है- इस फर्क के सिवा कि आंदोलनकारियों को फिलहाल पुराने हश्र याद हैं और उन्होंने वादों के जूस पीने की जगह लिखित और दस्तावेजी किस्म के समझौते किए. निश्चय ही इस बार उनकी तैयारी कहीं ज्यादा पक्की है. हजारे ने जान-बूझकर लोकपाल की प्रारूप समिति में सदाचारी समाजसेवियों की जगह ऐसे प्रतिबद्ध वकीलों और जानकारों को जगह दी है जो बिल की ड्राफ्टिंग में जरूरी जिरह कर सकें और उसे नखदंतहीन होने से बचा सकें. इस लिहाज से भरोसा किया जा सकता है कि हजारे अपने पहले मकसद में कामयाब होंगे.

हजारे के कंधों पर देश की उम्मीदों का जो नया भार आ गया है, उसकी यह जायज मांग है कि वे अपने आंदोलन के लक्ष्यों का वैचारिक खाका तैयार करें

मगर फिर हजारे क्या करेंगे? उनका एलान है कि वे इसके बाद चुनाव सुधार और दूसरे मुद्दों पर आंदोलन चलाएंगे और लोगों को जगाएंगे. लेकिन मुश्किल यह है कि हजारे की समूची लड़ाई फिलहाल संसदीय राजनीति के आदर्शवादी मुहावरों से आगे नहीं जाती. इसीलिए संसदीय राजनीति उनसे डरी हुई है और उनकी मुहिम को लोकतंत्र के विरोध की तरह पेश कर रही है. लेकिन जो लोग हजारे के आंदोलन में राजनीतिक संस्थाओं और संसदीय परंपराओं के अवमूल्यन का खतरा देखते हैं वे भूल जाते हैं कि इनका सबसे ज्यादा अवमूल्यन संसद के भीतर से हुआ है. जब हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री अपनी चुनावी जीत को 2008 में सांसदों की खरीद-फरोख्त की शर्मनाक कोशिश के विरुद्ध तर्क की तरह इस्तेमाल करते हैं और गुजरात के मुख्यमंत्री अपने बहुमत को दंगों के दाग धोने के लिए इस्तेमाल करते हैं तो संसदीय राजनीति कमजोर पड़ती है. दरअसल यह हमारी संसदीय राजनीति से बढ़ रहा मोहभंग ही है जो हजारे और उनके नैतिक बल को वह स्वीकार्यता देता है जिससे सत्ताएं डरती हैं और उन्हें अपने साथ समायोजित करने के अभियान में जुटती हैं.

लेकिन हजारे की चुनौती इसीलिए बड़ी हो जाती है. अब तक उनके बयानों से लगता है कि वैचारिक तौर पर एक मध्यवर्गीय आदर्शवाद उनका मार्गदर्शक रहा है. लेकिन यह चश्मा कुछ ज्यादा सपाट है और किसी वैकल्पिक रास्ते की तलाश में मददगार नहीं होता. इस नजरिये में विकास का मतलब शायद 24 घंटे बिजली, साफ-सुथरी सड़कें, चमकता-दमकता कारोबार, यथास्थिति बनाए रखने वाली कानून-व्यवस्था, चुस्त दफ्तरशाही और दुनिया भर का पूंजीनिवेश है. गुजरात और नरेंद्र मोदी को हजारे शायद इसीलिए बेहतर राज्य और बेहतर मुख्यमंत्री मानते हैं. लेकिन अगर विकास की उनकी सोच में एक मानवीय समाज होता, समता और ममता से जुड़ा कोई सपना होता, न्यायपूर्ण शासन की अपनी एक अवधारणा होती तो शायद उनकी राय कुछ अलग होती. कहने का मतलब यह कि हजारे के कंधों पर देश की उम्मीदों का जो नया भार आ गया है, उसकी यह जायज मांग है कि वे अपने आंदोलन के लक्ष्यों का वैचारिक खाका तैयार करें. अगर यह खाका नहीं होगा तो उनका आंदोलन राजधानियों में धरना-प्रदर्शन और उसके साथ जुटे मध्यवर्गीय उत्साह से आगे नहीं जा पाएगा. दूसरी बात यह कि हजारे को भारतीय समाज की जटिलताओं को नये सिरे से पहचानना होगा और अपने आंदोलन में सबको भागीदार बनाना होगा और उसे सबका आंदोलन बनाना होगा. तब उनकी मुहिम सिर्फ भ्रष्टाचार के नहीं, जातिवाद और सांप्रदायिकता के कहीं ज्यादा जहरीले और तोड़ने वाले कारकों के खिलाफ भी होगी. हो सकता है, तब उनके आंदोलन में सिर्फ अनशन नहीं, कुछ दूसरे हथियार भी जुड़ें.

इन बदलावों में एक आदमी उनकी मदद कर सकता है और वे हैं महात्मा गांधी. दरअसल गांधी उनकी मदद में पहले से आ खड़े हुए हैं. हजारे ने उनका ही अस्त्र उठाया और बाकी देश ने उन्हें गांधी मानते हुए ही समर्थन दिया. लेकिन असली गांधी ने अपने अनुभव से यह पहचाना था कि यह देश सिर्फ राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक दासता की बेड़ियों से भी बंधा है और बदलाव की लड़ाई अलग ढंग से लड़नी होगी. अस्पृश्यता और सांप्रदायिकता के खिलाफ अपनी लड़ाई को बहुत दूर तक खींचने के बावजूद गांधी इन्हें पूर्ण पराजित नहीं कर सके थे और यह काम किसी दूसरे और उतने ही जिद्दी गांधीवादी को करना होगा. ऐसा जिद्दी गांधीवादी जब अपनी कसौटियां बनाएगा तो वह शांति भूषण से यह जरूर पूछेगा कि किसी मुकदमे की पेशी के लिए उन्हें 25 लाख क्यों चाहिए. 25 लाख रु में न्याय होगा तो गरीब आदमी का न्याय कैसे होगा. ऐसा जिद्दी गांधीवादी होगा तो वह अपने आसपास दिखने वाले नागरिक समाज से बाहर जाकर उस अदृश्य भारतीय समाज से अपनी ताकत हासिल करेगा जिसे यह व्यवस्था कुछ नहीं देती. उसकी नजर उस आख़िरी आदमी पर होगी जिसे देखते हुए गांधी ने अपना जंतर बनाया था.

ऐसा नहीं कि हजारे की नज़र वहां नहीं है. रालेगण सिद्धि में वह इसी सिद्धि में लगे रहे हैं. उसी का प्रताप है कि जंतर-मंतर उन्हें बुला रहा है और मूलतः अंग्रेजी मुहावरे वाला नागरिक समाज उनकी अभ्यर्थना में लगा है. लेकिन हजारे को जंतर-मंतर नहीं बनाता, रालेगण सिद्धि बनाता है, उनकी मुहिम हर शहर में जंतर-मंतर बनाने की नहीं, हर गांव में रालेगण सिद्धि बनाने की होनी चाहिए. उम्मीद और भरोसा करें कि हजारे और उनके सिपाही नये जनांदोलनों की अपेक्षाओं के मुताबिक खुद को बदलेंगे और अपनी लड़ाई को ज्यादा बड़े मोर्चों तक ले जाएंगे.

अन्ना से अमर ‘क्रांति’ तक

कहते हैं कि कई बार क्रांतियां अपनी ही संतानों को खा जाती हैं. उसमें भी अगर वह ‘क्रांति’ मीडिया खासकर न्यूज चैनलों और न्यू मीडिया के कंधों पर चढ़कर आई हो तो यह खतरा कई गुना बढ़ जाता है. आखिर मीडिया एक दुधारी तलवार है. वह दोनों ओर से घाव करती है. ऐसा लगता है कि अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी ‘क्रांति’ के साथ भी यही हो रहा है. न्यूज चैनलों और समाचार मीडिया ने जिस उत्साह के साथ अन्ना की भ्रष्टाचार विरोधी ‘क्रांति’ को गढ़ा और आसमान पर चढ़ाया, अब वे ही उसकी संतानों के पीछे पड़ गए हैं.

नतीजा यह कि चैनलों और अखबारों में अब अन्ना हजारे से अधिक अमर सिंह दिख रहे हैं. लोकपाल से अधिक चर्चा उस रहस्यमय सीडी उर्फ पप्पू की हो रही है जिसके ‘पापा का पता नहीं है.’ यही नहीं, समाचार मीडिया का एक हिस्सा जोर-शोर से सिविल सोसायटी के सदस्यों की जन्मपत्री खंगालने में जुटा है. गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि चैनलों के कठघरे में अब भ्रष्ट नेता और मंत्री नहीं बल्कि जन लोकपाल कानून का मसौदा तैयार करने के लिए गठित समिति के गैरसरकारी सदस्य खासकर शांति और प्रशांत भूषण खड़े हैं.

अधिकांश न्यूज चैनल एक खास तरह के दृष्टि दोष के शिकार हैं. उन्हें काले और सफेद के अलावा और कुछ नहीं दिखता अमर सिंह रातों-रात ‘न्यूजमेकर आॅफ द डे’ बन गए. चैनलों पर अन्ना वाणी की जगह अमर वाणी ने ले ली. चैनलों पर बहुत दिनों बाद प्राइम टाइम में अमर सिंह छाए. उनका अहर्निश प्रलाप चला. कल तक जंतर-मंतर से ‘क्रांति’ की लाइव रिपोर्ट कर रहे न्यूज चैनलों के एंकर अमर सिंह से पूछ रहे थे कि गंभीर आरोपों को देखते हुए क्या भूषण पिता-पुत्र को जन लोकपाल समिति से इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए. मजा यह कि सूप तो सूप, चलनी भी यह सवाल पूछ रही है जिसमें सैकड़ों छेद हैं. आश्चर्य नहीं कि ‘बक स्टाप्स हियर’ में बरखा दत्त ने जब यह सवाल स्वामी अग्निवेश से पूछा तो उन्होंने पलटकर पूछा बरखा जी, अगर एक बड़े चैनल के एंकर पर भ्रष्टाचार में शामिल होने का आरोप लगता है तो क्या उस एंकर को खुद को पूरी तरह से पाक-साफ होने से पहले भ्रष्टाचार पर बहस करने की इजाजत होनी चाहिए? लेकिन मीडिया के पास ऐसे सवाल सुनने और उनका जवाब देने का साहस कहां है? वहां तो सिर्फ फैसला होता है और वह फैसला हो चुका है. भूषण पिता-पुत्र पर कालिख पोती जा चुकी है. वैसे भी न्यूज चैनल त्वरित न्याय में विश्वास करते हैं. वे अतियों में जीने के आदी हो चुके हैं. ऐसे में, उन्हें किसी को आसमान पर चढ़ाने या पाताल में धकेलने में समय नहीं लगता है. इसकी वजह यह भी है कि इस मामले में अधिकांश न्यूज चैनल एक खास तरह के दृष्टि दोष के शिकार हैं. उन्हें काले और सफेद के अलावा और कुछ नहीं दिखता है. संतुलन और अनुपात जैसे शब्द उनकी न्यूज डिक्शनरी से पहले ही गायब हो चुके हैं. आश्चर्य नहीं कि भूषण पिता-पुत्र के मामले में भी न्यूज चैनल न सिर्फ जल्दबाजी में हैं बल्कि उन्हें इस मामले में काले-सफेद के अलावा और कुछ नहीं दिख रहा है. इस मामले में चैनलों की सक्रियता देखते ही बनती है. वे एक अति से दूसरी अति पर पहुंच चुके हैं. जंतर-मंतर पर अन्ना के अनशन की 24×7 कवरेज और उसे ‘क्रांति’ घोषित करना भी एक अति था. लेकिन अब उसे प्रतिक्रांति घोषित करने में भी वैसी ही जल्दबाजी दिखाई जा रही है.

इससे ऐसा लगता है कि समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनल अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उसके सिविल सोसायटी सदस्यों को रातों-रात आसमान पर चढ़ाने की अति का पश्चाताप करने में लग गए हैं. लेकिन पश्चाताप का यह तरीका जल्दबाजी में पुरानी गलती को दोहराने की तरह है और अगले पश्चाताप की जमीन तैयार कर रहा है. क्या चैनल जल्दबाजी में एक अति से दूसरी अति तक की पेंडुलम यात्रा से बच नहीं सकते हैं? न्यूज चैनलों के लिए संतुलन, अनुपात, तथ्य-पूर्णता और वस्तुनिष्ठता को बरतना इतना मुश्किल क्यों हो जाता है?

क्या चैनलों के लिए भूषण पिता-पुत्र पर लगे आरोपों की स्वतंत्र जांच-पड़ताल करना और सच्चाई को सामने लाने की कोशिश करना इतना मुश्किल था कि वे ‘हिज मास्टर्स वायस’ की तरह सुबह से शाम तक उन आरोपों को दोहराते रहे? यह सोचने की बात है कि इतने संसाधनों के बावजूद चैनल किसी विवादास्पद मामले में अपनी ओर से छानबीन और क्राॅस चेक करने और तथ्य जुटाने की बजाय क्यों आरोप-प्रत्यारोप को दोहराने वाले साउंड बाइट और प्राइम टाइम तू-तू, मैं-मैं पर ज्यादा भरोसा करते हैं. जांच-पड़ताल और खबर की तह तक जाने का जिम्मा अभी भी मुख्यतः अखबारों पर है.

इस तू-तू, मैं-मैं पत्रकारिता में परपीड़क सुख और सड़कछाप कौतूहल चाहे जितना हो पर दर्शकों की जानकारी और समझ में शायद ही कोई विस्तार होता है. न्यूज चैनलों की यह पत्रकारिता उन्हें जाने-अनजाने एक अति से दूसरी अति की ओर भी धकेलती रहती है. इस अति का फायदा कभी-कभार अन्ना और उनके मुद्दों को जरूर मिल जाता है लेकिन ज्यादातर मौकों पर इसका फायदा अमर सिंह जैसों को ही होता है. वजह यह कि चैनलों के ‘लोकतंत्र’ में  शांति-प्रशांत भूषण और अमर सिंह में कोई फर्क नहीं है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों पर अमर ‘क्रांति’ अन्ना ‘क्रांति’ को निपटाने में जुट गई है.

काले धन की अमरबेल?

राज्यसभा सांसद और सपा के पूर्व महासचिव अमर सिंह पर काले धन के कारोबार के आरोप पहले भी लगते रहे हैं लेकिन तब ये सिर्फ आरोप थे. पिछले साल नवंबर में उत्तर प्रदेश पुलिस ने जो जांच रिपोर्ट इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जमा की है उसमें सिंह के काले धन के कारोबार से जुड़े तमाम अकाट्य सबूत मौजूद हैं. इस रिपोर्ट की एक प्रति तहलका के पास है. ये दस्तावेज बताते हैं कि किस प्रकार अमर सिंह ने साल 2003 से 2007 के बीच अवैध कंपनियों का जाल बिछाकर 138.5 करोड़ रुपयों का अवैध मुनाफा कमाया. रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्हें इतना मोटा मुनाफा आय का कोई वैध स्रोत न होने के बावजूद कमाया.

उत्तर प्रदेश पुलिस ने देश भर में फैली करीब 600 ऐसी कंपनियों, जिन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर अमर सिंह का बताया जा रहा था, में से 50 की जांच-पड़ताल की है. यह जांच सिंह के खिलाफ कानपुर में दायर एक एफआईआर के बाद की गई थी. एफआईआर में आरोप लगाया गया था कि सिंह ने तमाम अवैध तरीकों से करीब 400 करोड़ रुपये इकट्ठा किए. इस काले धन को सफेद बनाने के लिए उन्होंने पहले तो इस धन को कई ‘शैल’ कंपनियों (ऐसी कंपनी जो कोई व्यवसाय नहीं करती और न ही जिसके पास कोई संपत्ति होती है) में लगाया. इसके बाद इस तरह की दर्जनों कंपनियों का उन कंपनियों में विलय कर दिया गया जिन पर पूरी तरह से अमर सिंह और उनके परिवार का नियंत्रण था.

हवाई कंपनी हवा-हवाई निदेशक

1. महेश सिंह राना, निवासी गली न. 3 श्याम पार्क, साहिबाबाद, गाजियाबाद. इन्हें अमर सिंह की दो कंपनियों का निदेशक दिखाया गया – गौतम रोडलाइंस प्रा लि. और ईस्टर इंडिया केमिकल्स लि
2.    ललित कुमार बांगरी, निवासी लतिका अपार्टमेंट हैंगर फोर्ट कोलकाता. इन्हें मर्करी मर्चेंट प्रालि का निदेशक दिखाया गया.
3.   बाबूलाल बांका, लाल बाजार स्ट्रीट कोलकाता. इन्हें तीन कंपनियों का निदेशक दिखाया गया
4.    गोपाल बांका, निवासी लाल बाजार स्ट्रीट कोलकाता, इन्हें कुल 19 कंपनियों के निदेशकमंडल में रखा गया है
5.    मनोहर लाल नगालिया, निवासी लाल बाजार कोलकाता, इन्हें तीन कंपनियों का निदेशक बताया गया है. अरिहंत टैक्सकॉम प्रा लि, गैलेंट ट्रैक्सिम प्रा लि, यामिनी ट्रेडलिंक प्रा लि
6.    अरुण कुमार नगालिया, निवासी लाल बाजार कोलकाता. ये कुल सात कंपनियों के निदेशकमंडल में हैं
7.    श्रीकांत झांवर, निवासी कनकुलिया रोड कोलकाता, इन्हें दो कंपनियों का निदेशक बनाया गया.
8.    गिरिराज किशोर, निवासी विवेक विहार हावड़ा, इन्हें एचपी वीडियोटेक का निदेशक बताया गया
9.    दिनेश प्रताप सिंह, निवासी गाजियाबाद. इन्हें दो कंपनियों का निदेशक बताया गया
10.    देवपाल सिंह राना, निवासी कानपुर

हाई कोर्ट में दाखिल रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जिस समय अमर सिंह उत्तर प्रदेश विकास परिषद (प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए बनी सलाहकार संस्था जो 2003 से 2007 के बीच मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में प्रभावी रही थी) के मुखिया हुआ करते थे उस दौर में उनकी कंपनियों ने गलत तरीकों से अरबों रुपये बनाए. उस समय अनिल अंबानी, कुमार मंगलम बिड़ला और केवी कामथ जैसे शीर्ष उद्योगपति इस परिषद के सदस्य हुआ करते थे.

पुलिस को दिए गए बयान में तकरीबन एक दर्जन फर्जी निदेशकों ने बताया कि जिन कंपनियों के निदेशक के रूप में उनके नाम इस्तेमाल किए गए  उनके काम-काज के बारे में उन्हें रत्ती भर भी जानकारी नहीं थी, सिर्फ उनकी पहचान का इस्तेमाल अमर सिंह और उनके भाई अरविंद सिंह ने किया

तहलका से बातचीत में अमर सिंह काले धन के कारोबार और आय से अधिक संपत्ति के आरोपों को सिरे से खारिज कर देते हैं. ‘उत्तर प्रदेश विकास परिषद के अध्यक्ष के तौर पर मैं बड़ी मात्रा में निवेश लेकर आया था. अपने पद का इस्तेमाल मैंने निजी फायदे के लिए कभी नहीं किया. यह सोचना भी हास्यास्पद है कि मैं भ्रष्टाचार में लिप्त था. मेरे पास तो दस्तखत तक के अधिकार नहीं थे. यह तो सिर्फ एक सलाहकार संस्था थी. अगर मेरे खिलाफ जांच हो रही है तो उन सभी शीर्ष उद्योगपतियों के खिलाफ भी जांच होनी चाहिए जो उस समय परिषद के सदस्य थे. यह जांच राजनीतिक षडयंत्र का परिणाम है’, सिंह कहते हैं.

अमर सिंह भले ही इसे राजनीतिक षडयंत्र करार दे रहे हों लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में उन तरीकों की विस्तार से जानकारी दी है जिनके जरिए अमर सिंह ने काले धन को सफेद करने का गोरखधंधा अंजाम दिया. रिपोर्ट के मुताबिक अमर सिंह ने फर्जी निदेशकों की एक पूरी मंडली के माध्यम से लगभग 43 छद्म कंपनियों पर अपना नियंत्रण बना रखा था. कोलकाता में पंजीकृत इन सभी कंपनियों के शेयर एक अजीबोगरीब ‘क्रॉस-होल्डिंग पैटर्न’ में लोगों के पास थे और कथित रूप से बिना कोई व्यवसाय किए सिर्फ बहीखातों में आंकड़े दर्ज करके ये कंपनियां अस्तित्व में बनी हुई थीं.

 कालेधन का काला खेल

उन कंपनियों की सूची जिनमें अमर सिंह और उनके परिजनों की शेयर होल्डिंग मेजोरिटी में है और अब इन पर काले धन के हेर-फेर में शामिल होने का संदेह गहरा गया है :

1 एनर्जी डेवलपमेंट कंपनी लिमिटेड
सरजापुर रोड, बेलांदुर,                    बेंगलुरू
2 पंकजा आर्ट ऐंड क्रेडिट प्राइवेट लिमिटेड
अजीमगंज हाउस, कामक स्ट्रीट,       कोलकाता 
3 सर्वोत्तम कैप्स लिमिटेड
अजीमगंज हाउस, कामक स्ट्रीट,       कोलकाता 
4 ईडीसीएल पावर प्रोजेक्ट्स प्रा. लि.
अजीमगंज हाउस, कामक स्ट्रीट,       कोलकाता
5 ईडीसीएल इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड
अजीमगंज हाउस, कामक स्ट्रीट,       कोलकाता
6 इस्टर (इंडिया) केमिकल्स लि.
ई-593, ग्रेटर कैलाश-II, नई दिल्ली   

पुलिस को दिए गए बयान में तकरीबन एक दर्जन फर्जी निदेशकों ने बताया कि जिन कंपनियों के निदेशक के रूप में उनके नाम इस्तेमाल किए गए  उनके काम-काज के बारे में उन्हें रत्ती भर भी जानकारी नहीं थी, सिर्फ उनकी पहचान का इस्तेमाल अमर सिंह और उनके भाई अरविंद सिंह ने किया. दिसंबर, 2003 में इस तरह की 18 छद्म कंपनियों का विलय अमर सिंह के स्वामित्व वाली कंपनी सर्वोत्तम कैप लिमिटेड में कर दिया गया. इसी तरह की 25 अन्य कंपनियों का विलय सिंह के स्वामित्व वाली एक अन्य कंपनी पंकजा आर्ट ऐंड क्रेडिट प्राइवेट लिमिटेड में जनवरी, 2005 में किया गया. पंकजा कुमारी सिंह अमर सिंह की पत्नी का नाम है. पुलिस की रिपोर्ट में कहा गया है कि ये छद्म कंपनियां न तो कोई व्यवसाय कर रही थीं और न ही इनमें भविष्य में मुनाफा कमाने की क्षमता थी. बावजूद इसके विलय के वक्त इन 43 कंपनियों की वास्तविक कीमत से कहीं ज्यादा कीमत आंकी गई और उनके शेयरों को उनकी बाजार कीमत से कई गुना ज्यादा पर खरीदा गया. तहलका के पास उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि इन कंपनियों के शेयर सिंह ने 400 से 600 प्रतिशत तक ज्यादा कीमत पर खरीदे. आरोप लग रहा है कि यह पूरी कवायद सिर्फ अमर सिंह के काले धन को सफेद करने के लिए की गई.

तहलका से बातचीत में सिंह बताते हैं, ‘ये सभी 43 कंपनियां कोलकाता में पंजीकृत हैं. इसलिए पहले तो यूपी पुलिस के पास उनकी जांच का अधिकार ही नहीं है. दूसरी बात विलय को कलकत्ता हाई कोर्ट की मंजूरी मिली हुई है. विलय के बाद पुरानी कंपनियां खत्म हो गईं, इसलिए उनके निदेशकों को इसके बारे में बोलने का कोई अधिकार नहीं है. तत्कालीन कॉरपोरेट अफेयर मंत्री सलमान खुर्शीद ने भी इस विलय को क्लीन चिट दी थी.’ दिलचस्प बात यह है कि जब पुलिस ने सिंह से उन 43 कंपनियों के रिकॉर्ड दिखाने के लिए कहा तो उनका जवाब था कि सभी रिकॉर्ड खो गए हैं. ‘कोलकाता में मेरा दफ्तर स्थानांतरित करते समय सारे रिकॉर्ड खो गए थे. इस संबंध में साल 2006 में एक एफआईआर भी दर्ज करवाई गई थी’, सिंह कहते हैं.

अमर सिंह की दो अन्य कंपनियों के खिलाफ भी यूपी पुलिस ने स्पष्ट सबूत जुटाए हैं. उनके नाम हैं एनर्जी डेवलपमेंट कंपनी लिमिटेड और ईडीसीएल पावर प्रोजेक्ट्स लिमिटेड. रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2005-06 में एनर्जी डेवलपमेंट कंपनी लि. का मुनाफा सिर्फ 2.49 करोड़ था, मगर आश्चर्यजनक रूप से 2006-07 में यह करीब इक्कीस गुना बढ़कर 52.4 करोड़ रुपये हो गया. यह मुनाफा कहां से आया, इसमें इतनी वृद्धि कैसे हुई, इस संबंध में सिंह और उनके निदेशक एक भी दस्तावेज पेश नहीं कर सके. जांचकर्ता यह भी बताते हैं कि दो वित्त वर्षों के दौरान मुनाफे में इतनी जबर्दस्त वृद्धि के बावजूद इतना मुनाफा कमाने के लिए किए गए खर्च में कोई वृद्धि देखने को नहीं मिलती. इस तथ्य से भी इन आंकड़ों के संदिग्ध होने का संकेत मिलता है. इसी प्रकार ईडीसीएल पावर प्रोजेक्ट्स लि. ने साल 2004 से 2007 के बीच 14 करोड़ का मुनाफा दिखाया. लेकिन यूपी पुलिस के मुताबिक एक बार फिर से वे कंपनी को किसी तरह के कॉन्ट्रैक्ट या काम मिलने का कोई सबूत नहीं पेश कर पाए जिसके चलते कंपनी को यह फायदा हुआ था.’मेरी कंपनी द्वारा हासिल की गई सारी रकम चेक के जरिए आई है. एक भी लेन-देन नगद में नहीं हुआ है. नियमों का पूरा ध्यान रखा गया है. चेक हासिल करने वाला चेक देने वाले व्यक्ति द्वारा की गई किसी भी तरह की हेरफेर या करचोरी के लिए जिम्मेदार नहीं है. चेक जारी करने वाले को अपनी आय के स्रोत का खुलासा करना चाहिए’, अमर सिंह कहते हैं.

अमर सिंह के खिलाफ जारी जांच कानपुर निवासी एक सामाजिक कार्यकर्ता एसके त्रिपाठी की शिकायत का नतीजा है. ‘दिसंबर, 2008 में मैंने अखबारों में पढ़ा था कि अमर सिंह ने बिल क्लिंटन के चैरिटी फाउंडेशन के लिए 35 करोड़ रुपयों का दान किया था. जब मैंने राज्यसभा के सांसद के तौर पर उनके द्वारा घोषित की गई संपत्ति जानने की कोशिश की तो मैंने पाया कि उस वर्ष उनकी कुल संपत्ति सिर्फ 32 करोड़ थी. ये साफ तौर पर आय से अधिक संपत्ति का मामला था. इसने मुझे उनकी संपत्तियों की गहराई से पड़ताल करने के लिए प्रेरित किया. मैंने रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज से आंकड़े जुटाने शुरू किए तो पाया कि अमर सिंह के पास लगभग 600 छद्म कंपनियों का जटिल नेटवर्क है जिन्हें वे या तो खुद संचालित करते हैं या फिर अन्य लोगों के माध्यम से. इसके बाद मैंने कानपुर में इस संबंध में एक एफआईआर दर्ज करवा दी’, त्रिपाठी बताते हैं.

त्रिपाठी ने एफआईआर में आरोप लगाया था कि अमर सिंह ने छद्म कंपनियों के माध्यम से लगभग 400 करोड़ रुपयों के काले धन का हेरफेर किया है. चूंकि इनमें से अधिकतर कंपनियां कोलकाता में थीं, इसलिए यूपी पुलिस ने बंगाल पुलिस को जांच करने के लिए कहा. लेकिन कोलकाता पुलिस ने इसे ठुकरा दिया. तब उत्तर प्रदेश सरकार ने जांच का जिम्मा उत्तर प्रदेश पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा को सौंप दिया.
सिंह पलटवार करते हैं, ‘जिस थानेदार ने मेरे खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी उसे भ्रष्टाचार और घर पर कब्जा करने के आरोप में निलंबित किया जा चुका है.’ सिंह ने इस जांच को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक रिट पेटीशन भी दाखिल की थी. शिकायतकर्ता त्रिपाठी ने भी हाई कोर्ट के समक्ष रिट पेटीशन दायर करके सीबीआई अथवा ईडी जैसी केंद्रीय जांच एजेंसी द्वारा मामले की जांच की मांग की थी. हाई कोर्ट ने इन दोनों याचिकाओं को आपस में मिला दिया. दिसंबर, 2009 में कोर्ट ने सिंह की एफआईआर रद्द करने की याचिका खारिज करते हुए एक आदेश पारित किया कि उत्तर प्रदेश सरकार अमर सिंह के काले धन के साम्राज्य की जांच करने के लिए एकाउंटिंग विशेषज्ञों का एक दल गठित कर सकती है.
फिलहाल यूपी पुलिस की स्पेशल सेल ने अपनी जांच का दायरा सिर्फ 50 कंपनियों तक सीमित कर रखा है. एक साल लंबी जांच के दौरान पुलिस ने इन कंपनियों के दफ्तरों को चिह्नित करने के साथ-साथ इनके निदेशकों के बयान भी दर्ज किए जिसमें बड़ी संख्या में निदेशक फर्जी पाए गए. मसलन गाजियाबाद निवासी दिनेश प्रताप सिंह कागजों में उन 43 में से दो कंपनियों के निदेशक थे जिनका अमर सिंह की कंपनी में विलय हो गया. इनके नाम हैं- पीट इन्वेस्टमेंट और सान्यु इन्वेस्टमेंट प्रा. लि. लेकिन पुलिस ने जब उनसे पूछताछ की तो उन्होंने बताया, ‘मुझे नहीं पता कि पीट और सान्यु अस्तित्व में कब आए. मैं कभी भी उनके दफ्तर में नहीं गया. न ही मुझे कभी भी उनके मुनाफे से एक रुपया भी मिला. मुझे उनके व्यवसाय के बारे में भी कोई जानकारी नहीं है. और तो और मुझे उनके नफे-नुकसान की भी कोई जानकारी नहीं है.’ 

वे आगे बताते हैं, ‘मैं अमर सिंह की एक कंपनी ईस्टर इंडिया केमिकल्स लि. में सिर्फ एक कर्मचारी था. चूंकि मैं उनके यहां नौकरी करता था, इसलिए उनके भाई अरविंद सिंह ने मुझसे कुछ कागजात पर दस्तखत करवा लिए. उनका कर्मचारी होने के नाते मैंने वही किया जो उन्होंने मुझसे कहा. मुझे इन कंपनियों के बारे में कुछ भी पता नहीं.’ 

पीट और सान्यु के अमर सिंह की कंपनी में विलय का प्रस्ताव कलकत्ता हाई कोर्ट में दाखिल किया गया और उस प्रस्ताव पर निदेशक की हैसियत से दिनेश के भी दस्तखत मौजूद थे. लेकिन जब पुलिस ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने कंपनी के विलय की सहमति दी थी या विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत किए थे तो उनका जवाब था कि उन्हें इस तरह के किसी विलय की जानकारी तक नहीं है और न ही उन्होंने इस तरह के किसी प्रस्ताव पर दस्तखत किए हैं. पुलिस ने अपनी जांच में पाया कि दिनेश सिंह उन तमाम लोगों में से एक हैं जिनकी पहचान का इस्तेमाल अमर सिंह और उनके भाई ने फर्जी कंपनियों का जटिल जाल खड़ा करने में किया (बॉक्स देखें). संक्षेप में ये सभी 43 कंपनियां जिनका विलय अमर सिंह की दो कंपनियों में किया गया, फर्जी इकाइयां थी और उनकी स्थापना सिर्फ काले धन के कारोबार के लिए की गई थी. यूपी पुलिस की जांच रिपोर्ट फिलहाल इलाहाबाद हाई कोर्ट के पास है. अमर सिंह चाहते हैं कि उनके खिलाफ चल रही जांच खत्म हो जाए. उधर शिकायतकर्ता की मांग है कि पूरे मामले की जांच सीबीआई और ईडी द्वारा करवाई जाए.

इस मामले में अंतिम जिरह खत्म हो चुकी है और बस कुछ ही हफ्तों के अंदर अदालत अपना निर्णय सुना देगी और अमर सिंह के भाग्य का फैसला भी.

 

 

काले धन की अमरबेल?

राज्यसभा सांसद और सपा के पूर्व महासचिव अमर सिंह पर काले धन के कारोबार के आरोप पहले भी लगते रहे हैं लेकिन तब ये सिर्फ आरोप थे. पिछले साल नवंबर में उत्तर प्रदेश पुलिस ने जो जांच रिपोर्ट इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जमा की है उसमें सिंह के काले धन के कारोबार से जुड़े तमाम अकाट्य सबूत मौजूद हैं. इस रिपोर्ट की एक प्रति तहलका के पास है. ये दस्तावेज बताते हैं कि किस प्रकार अमर सिंह ने साल 2003 से 2007 के बीच अवैध कंपनियों का जाल बिछाकर 138.5 करोड़ रुपयों का अवैध मुनाफा कमाया. रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्हें इतना मोटा मुनाफा आय का कोई वैध स्रोत न होने के बावजूद कमाया.

उत्तर प्रदेश पुलिस ने देश भर में फैली करीब 600 ऐसी कंपनियों, जिन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर अमर सिंह का बताया जा रहा था, में से 50 की जांच-पड़ताल की है. यह जांच सिंह के खिलाफ कानपुर में दायर एक एफआईआर के बाद की गई थी. एफआईआर में आरोप लगाया गया था कि सिंह ने तमाम अवैध तरीकों से करीब 400 करोड़ रुपये इकट्ठा किए. इस काले धन को सफेद बनाने के लिए उन्होंने पहले तो इस धन को कई ‘शैल’ कंपनियों (ऐसी कंपनी जो कोई व्यवसाय नहीं करती और न ही जिसके पास कोई संपत्ति होती है) में लगाया. इसके बाद इस तरह की दर्जनों कंपनियों का उन कंपनियों में विलय कर दिया गया जिन पर पूरी तरह से अमर सिंह और उनके परिवार का नियंत्रण था.

हाई कोर्ट में दाखिल रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जिस समय अमर सिंह उत्तर प्रदेश विकास परिषद (प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए बनी सलाहकार संस्था जो 2003 से 2007 के बीच मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में प्रभावी रही थी) के मुखिया हुआ करते थे उस दौर में उनकी कंपनियों ने गलत तरीकों से अरबों रुपये बनाए. उस समय अनिल अंबानी, कुमार मंगलम बिड़ला और केवी कामथ जैसे शीर्ष उद्योगपति इस परिषद के सदस्य हुआ करते थे.

तहलका से बातचीत में अमर सिंह काले धन के कारोबार और आय से अधिक संपत्ति के आरोपों को सिरे से खारिज कर देते हैंं. ‘उत्तर प्रदेश विकास परिषद के अध्यक्ष के तौर पर मैं बड़ी मात्रा में निवेश लेकर आया था. अपने पद का इस्तेमाल मैंने निजी फायदे के लिए कभी नहीं किया. यह सोचना भी हास्यास्पद है कि मैं भ्रष्टाचार में लिप्त था. मेरे पास तो दस्तखत तक के अधिकार नहीं थे. यह तो सिर्फ एक सलाहकार संस्था थी. अगर मेरे खिलाफ जांच हो रही है तो उन सभी शीर्ष उद्योगपतियों के खिलाफ भी जांच होनी चाहिए जो उस समय परिषद के सदस्य थे. यह जांच राजनीतिक षडयंत्र का परिणाम है’, सिंह कहते हैं.

अमर सिंह भले ही इसे राजनीतिक षडयंत्र करार दे रहे हों लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में उन तरीकों की विस्तार से जानकारी दी है जिनके जरिए अमर सिंह ने काले धन को सफेद करने का गोरखधंधा अंजाम दिया. रिपोर्ट के मुताबिक अमर सिंह ने फर्जी निदेशकों की एक पूरी मंडली के माध्यम से लगभग 43 छद्म कंपनियों पर अपना नियंत्रण बना रखा था. कोलकाता में पंजीकृत इन सभी कंपनियों के शेयर एक अजीबोगरीब ‘क्रॉस-होल्डिंग पैटर्न’ में लोगों के पास थे और कथित रूप से बिना कोई व्यवसाय किए सिर्फ बहीखातों में आंकड़े दर्ज करके ये कंपनियां अस्तित्व में बनी हुई थीं.

पुलिस को दिए गए बयान में तकरीबन एक दर्जन फर्जी निदेशकों ने बताया कि जिन कंपनियों के निदेशक के रूप में उनके नाम इस्तेमाल किए गए  उनके काम-काज के बारे में उन्हें रत्ती भर भी जानकारी नहीं थी, सिर्फ उनकी पहचान का इस्तेमाल अमर सिंह और उनके भाई अरविंद सिंह ने किया. दिसंबर, 2003 में इस तरह की 18 छद्म कंपनियों का विलय अमर सिंह के स्वामित्व वाली कंपनी सर्वोत्तम कैप लिमिटेड में कर दिया गया. इसी तरह की 25 अन्य कंपनियों का विलय सिंह के स्वामित्व वाली एक अन्य कंपनी पंकजा आर्ट ऐंड क्रेडिट प्राइवेट लिमिटेड में जनवरी, 2005 में किया गया. पंकजा कुमारी सिंह अमर सिंह की पत्नी का नाम है. पुलिस की रिपोर्ट में कहा गया है कि ये छद्म कंपनियां न तो कोई व्यवसाय कर रही थीं और न ही इनमें भविष्य में मुनाफा कमाने की क्षमता थी. बावजूद इसके विलय के वक्त इन 43 कंपनियों की वास्तविक कीमत से कहीं ज्यादा कीमत आंकी गई और उनके शेयरों को उनकी बाजार कीमत से कई गुना ज्यादा पर खरीदा गया. तहलका के पास उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि इन कंपनियों के शेयर सिंह ने 400 से 600 प्रतिशत तक ज्यादा कीमत पर खरीदे. आरोप लग रहा है कि यह पूरी कवायद सिर्फ अमर सिंह के काले धन को सफेद करने के लिए की गई.

तहलका से बातचीत में सिंह बताते हैं, ‘ये सभी 43 कंपनियां कोलकाता में पंजीकृत हैं. इसलिए पहले तो यूपी पुलिस के पास उनकी जांच का अधिकार ही नहीं है. दूसरी बात विलय को कलकत्ता हाई कोर्ट की मंजूरी मिली हुई है. विलय के बाद पुरानी कंपनियां खत्म हो गईं, इसलिए उनके निदेशकों को इसके बारे में बोलने का कोई अधिकार नहीं है. तत्कालीन कॉरपोरेट अफेयर मंत्री सलमान खुर्शीद ने भी इस विलय को क्लीन चिट दी थी.’ दिलचस्प बात यह है कि जब पुलिस ने सिंह से उन 43 कंपनियों के रिकॉर्ड दिखाने के लिए कहा तो उनका जवाब था कि सभी रिकॉर्ड खो गए हैं. ‘कोलकाता में मेरा दफ्तर स्थानांतरित करते समय सारे रिकॉर्ड खो गए थे. इस संबंध में साल 2006 में एक एफआईआर भी दर्ज करवाई गई थी’, सिंह कहते हैं.

अमर सिंह की दो अन्य कंपनियों के खिलाफ भी यूपी पुलिस ने स्पष्ट सबूत जुटाए हैं. उनके नाम हैं एनर्जी डेवलपमेंट कंपनी लिमिटेड और ईडीसीएल पावर प्रोजेक्ट्स लिमिटेड. रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2005-06 में एनर्जी डेवलपमेंट कंपनी लि. का मुनाफा सिर्फ 2.49 करोड़ था, मगर आश्चर्यजनक रूप से 2006-07 में यह करीब इक्कीस गुना बढ़कर 52.4 करोड़ रुपये हो गया. यह मुनाफा कहां से आया, इसमें इतनी वृद्धि कैसे हुई, इस संबंध में सिंह और उनके निदेशक एक भी दस्तावेज पेश नहीं कर सके. जांचकर्ता यह भी बताते हैं कि दो वित्त वर्षों के दौरान मुनाफे में इतनी जबर्दस्त वृद्धि के बावजूद इतना मुनाफा कमाने के लिए किए गए खर्च में कोई वृद्धि देखने को नहीं मिलती. इस तथ्य से भी इन आंकड़ों के संदिग्ध होने का संकेत मिलता है. इसी प्रकार ईडीसीएल पावर प्रोजेक्ट्स लि. ने साल 2004 से 2007 के बीच 14 करोड़ का मुनाफा दिखाया. लेकिन यूपी पुलिस के मुताबिक एक बार फिर से वे कंपनी को किसी तरह के कॉन्ट्रैक्ट या काम मिलने का कोई सबूत नहीं पेश कर पाए जिसके चलते कंपनी को यह फायदा हुआ था.’मेरी कंपनी द्वारा हासिल की गई सारी रकम चेक के जरिए आई है. एक भी लेन-देन नगद में नहीं हुआ है. नियमों का पूरा ध्यान रखा गया है. चेक हासिल करने वाला चेक देने वाले व्यक्ति द्वारा की गई किसी भी तरह की हेरफेर या करचोरी के लिए जिम्मेदार नहीं है. चेक जारी करने वाले को अपनी आय के स्रोत का खुलासा करना चाहिए’, अमर सिंह कहते हैं.

अमर सिंह के खिलाफ जारी जांच कानपुर निवासी एक सामाजिक कार्यकर्ता एसके त्रिपाठी की शिकायत का नतीजा है. ‘दिसंबर, 2008 में मैंने अखबारों में पढ़ा था कि अमर सिंह ने बिल क्लिंटन के चैरिटी फाउंडेशन के लिए 35 करोड़ रुपयों का दान किया था. जब मैंने राज्यसभा के सांसद के तौर पर उनके द्वारा घोषित की गई संपत्ति जानने की कोशिश की तो मैंने पाया कि उस वर्ष उनकी कुल संपत्ति सिर्फ 32 करोड़ थी. ये साफ तौर पर आय से अधिक संपत्ति का मामला था. इसने मुझे उनकी संपत्तियों की गहराई से पड़ताल करने के लिए प्रेरित किया. मैंने रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज से आंकड़े जुटाने शुरू किए तो पाया कि अमर सिंह के पास लगभग 600 छद्म कंपनियों का जटिल नेटवर्क है जिन्हें वे या तो खुद संचालित करते हैं या फिर अन्य लोगों के माध्यम से. इसके बाद मैंने कानपुर में इस संबंध में एक एफआईआर दर्ज करवा दी’, त्रिपाठी बताते हैं.

त्रिपाठी ने एफआईआर में आरोप लगाया था कि अमर सिंह ने छद्म कंपनियों के माध्यम से लगभग 400 करोड़ रुपयों के काले धन का हेरफेर किया है. चूंकि इनमें से अधिकतर कंपनियां कोलकाता में थीं, इसलिए यूपी पुलिस ने बंगाल पुलिस को जांच करने के लिए कहा. लेकिन कोलकाता पुलिस ने इसे ठुकरा दिया. तब उत्तर प्रदेश सरकार ने जांच का जिम्मा उत्तर प्रदेश पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा को सौंप दिया.
सिंह पलटवार करते हैं, ‘जिस थानेदार ने मेरे खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी उसे भ्रष्टाचार और घर पर कब्जा करने के आरोप में निलंबित किया जा चुका है.’ सिंह ने इस जांच को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक रिट पेटीशन भी दाखिल की थी. शिकायतकर्ता त्रिपाठी ने भी हाई कोर्ट के समक्ष रिट पेटीशन दायर करके सीबीआई अथवा ईडी जैसी केंद्रीय जांच एजेंसी द्वारा मामले की जांच की मांग की थी. हाई कोर्ट ने इन दोनों याचिकाओं को आपस में मिला दिया. दिसंबर, 2009 में कोर्ट ने सिंह की एफआईआर रद्द करने की याचिका खारिज करते हुए एक आदेश पारित किया कि उत्तर प्रदेश सरकार अमर सिंह के काले धन के साम्राज्य की जांच करने के लिए एकाउंटिंग विशेषज्ञों का एक दल गठित कर सकती है.
फिलहाल यूपी पुलिस की स्पेशल सेल ने अपनी जांच का दायरा सिर्फ 50 कंपनियों तक सीमित कर रखा है. एक साल लंबी जांच के दौरान पुलिस ने इन कंपनियों के दफ्तरों को चिह्नित करने के साथ-साथ इनके निदेशकों के बयान भी दर्ज किए जिसमें बड़ी संख्या में निदेशक फर्जी पाए गए. मसलन गाजियाबाद निवासी दिनेश प्रताप सिंह कागजों में उन 43 में से दो कंपनियों के निदेशक थे जिनका अमर सिंह की कंपनी में विलय हो गया. इनके नाम हैं- पीट इन्वेस्टमेंट और सान्यु इन्वेस्टमेंट प्रा. लि. लेकिन पुलिस ने जब उनसे पूछताछ की तो उन्होंने बताया, ‘मुझे नहीं पता कि पीट और सान्यु अस्तित्व में कब आए. मैं कभी भी उनके दफ्तर में नहीं गया. न ही मुझे कभी भी उनके मुनाफे से एक रुपया भी मिला. मुझे उनके व्यवसाय के बारे में भी कोई जानकारी नहीं है. और तो और मुझे उनके नफे-नुकसान की भी कोई जानकारी नहीं है.’ 

वे आगे बताते हैं, ‘मैं अमर सिंह की एक कंपनी ईस्टर इंडिया केमिकल्स लि. में सिर्फ एक कर्मचारी था. चूंकि मैं उनके यहां नौकरी करता था, इसलिए उनके भाई अरविंद सिंह ने मुझसे कुछ कागजात पर दस्तखत करवा लिए. उनका कर्मचारी होने के नाते मैंने वही किया जो उन्होंने मुझसे कहा. मुझे इन कंपनियों के बारे में कुछ भी पता नहीं.’ 

पीट और सान्यु के अमर सिंह की कंपनी में विलय का प्रस्ताव कलकत्ता हाई कोर्ट में दाखिल किया गया और उस प्रस्ताव पर निदेशक की हैसियत से दिनेश के भी दस्तखत मौजूद थे. लेकिन जब पुलिस ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने कंपनी के विलय की सहमति दी थी या विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत किए थे तो उनका जवाब था कि उन्हें इस तरह के किसी विलय की जानकारी तक नहीं है और न ही उन्होंने इस तरह के किसी प्रस्ताव पर दस्तखत किए हैं. पुलिस ने अपनी जांच में पाया कि दिनेश सिंह उन तमाम लोगों में से एक हैं जिनकी पहचान का इस्तेमाल अमर सिंह और उनके भाई ने फर्जी कंपनियों का जटिल जाल खड़ा करने में किया (बॉक्स देखें). संक्षेप में ये सभी 43 कंपनियां जिनका विलय अमर सिंह की दो कंपनियों में किया गया, फर्जी इकाइयां थी और उनकी स्थापना सिर्फ काले धन के कारोबार के लिए की गई थी. यूपी पुलिस की जांच रिपोर्ट फिलहाल इलाहाबाद हाई कोर्ट के पास है. अमर सिंह चाहते हैं कि उनके खिलाफ चल रही जांच खत्म हो जाए. उधर शिकायतकर्ता की मांग है कि पूरे मामले की जांच सीबीआई और ईडी द्वारा करवाई जाए.

इस मामले में अंतिम जिरह खत्म हो चुकी है और बस कुछ ही हफ्तों के अंदर अदालत अपना निर्णय सुना देगी और अमर सिंह के भाग्य का फैसला भी.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

थोड़ा नीम, जिससे शहद बनेगा : आई एम

ओनीर जितने फिक्रमंद फिल्मकार कम ही होते हैं. अपनी पहली फिल्म ‘माई ब्रदर निखिल’ में उन्होंने एक ऐसी कहानी सुनाई थी जिसे कहने-सुनने वाले बहुत कम लोग हैं. उसके बाद वे ‘बस एक पल’ और ‘सॉरी भाई’ से होते हुए फिर वहीं लौट आए हैं. वे कहानियां कहते हुए, जिन्हें कहा जाना बहुत जरूरी है लेकिन कोई कह ही नहीं रहा. और यह लौट आना कोई व्यावसायिक लौट आना नहीं है. ओनीर ‘आई एम’ की कहानियां ऐसे स्नेह से सुनाते हैं जैसे यही उनका असली घर हो.

लेकिन दुर्भाग्य, कि इतना काफी नहीं होता. ओनीर हमारे समाज के परेशान अल्पसंख्यक तबके के लिए चिंतित जरूर हैं लेकिन एक संपूर्ण फिल्म बनाने के लिए अच्छा कहानीकार होना भी जरूरी है, जो वे नहीं हो पाते. यही वजह है कि कई बार वे किसी मुद्दे की बात करते हुए डॉक्यूमेंट्री जितने नीरस भी हो जाते हैं. खासकर ‘आई एम मेघा’ में कश्मीरी पंडितों की बात करते हुए. ओनीर कश्मीर से विस्थापित हुए परिवारों और वहां रहकर फौज का आतंक झेल रहे परिवारों की बात तो करते हैं, लेकिन किसी भावहीन रिपोर्ट की तरह. खासकर उनके डायलॉग इतने सपाट हैं कि आप उस दर्द से जुड़ ही नहीं पाते. सबसे हैरत की बात है कि वे कश्मीर को खूबसूरत भी नहीं दिखा पाते.

लेकिन बाकी तीनों कहानियां बेहतर हैं. ‘आई एम आफिया’ बीच में थोड़ी खिंचती है लेकिन उसे नंदिता दास खास बनाती हैं. फिल्म के पास बहुत सारे एक्टर हैं और लगभग सभी उसकी पूंजी हैं. आखिरी दो कहानियां मुझे ज्यादा पसंद आईं. ‘आई एम अभिमन्यु’ का प्रस्तुतितीकरण बहुत खूबसूरत है. वह एक जवान लड़के का अपना बुरा बचपन याद करना है, जिसमें ओनीर सफेद कपड़ों वाली एक बच्ची का सपना भरते हैं, जो कहानी में कहीं नहीं है और जिसकी मां अचानक गायब हो जाती है. ऐसे सपने ही सिनेमा को सिर्फ कहानी कहने का माध्यम नहीं, सिनेमा बनाते हैं.

लेकिन आखिरी कहानी ‘आई एम उमर’ ही वह कहानी है जो इस फिल्म को जरूर देखे जाने लायक बनाती है. दो समलैंगिक पुरुषों की यह कहानी सबसे ज्यादा दिल से कही गई कहानी है. इसीलिए उसके रोमांटिक और क्रूर, दोनों दृश्य आपके अंदर बैठ जाते हैं. वहां डायलॉग्स वाली वह कमी भी अचानक गायब हो जाती है, जो बाकी कहानियों को दीमक की तरह खा रही थी. यहां फिल्म अपने पूरे शरीर और इस तरह हमारे पूरे आधुनिक समाज के शरीर के सारे कपड़े उतार देती है और आपको एक आईना देती है, जिसमें आपको अपनी बगल में बैठी एक औरत का समलैंगिक पुरुषों के चुंबन के सीन पर बेशर्मी से हंसना भी सुनना है. आप चाहते हैं कि उस औरत को और भारतीय संस्कृति के पहरुए उन बाबाओं को उसी क्षण मार डालें, जो कहते हैं कि समलैंगिकता मानसिक बीमारी है. उस मारने से पहले उन सबको यह फिल्म जबर्दस्ती दिखाई जानी चाहिए. जो भी हो, यह एक जरूरी फिल्म है जो हमारी दुनिया को किसी न किसी तरह बेहतर बनाएगी.

गौरव सोलंकी 

मजबूरी का मौन

लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि उन्होंने छह माह के लिए मौन व्रत रखा हुआ है. उनके विरोधी कहते हैं कि उनके पास बोलने के लिए कुछ है ही नहीं. लालू के विभिन्न क्रियाकलापों और उनसे एवं अन्य लोगों से बातचीत के आधार पर निराला का आकलन

12 फरवरी को सुबह करीब सवा आठ बजे मैं अपने सहयोगी साथी इर्शादुल हक और विकास के साथ पटना के राबड़ी देवी वाले सरकारी आवास पर पहुंचता हूं. अहाते में कुल जमा चार-पांच लोगों की मंडली जमी है. लुंगी लपेटे, आधी बांह का स्वेटर पहन कुर्सी पर बैठे लालू प्रसाद यादव अखबारों के ढेर को निपटाकर उस पर टीका-टिप्पणी करने में मशगूल हैं. मंडली में कोई नामचीन चेहरा नहीं. राजनीतिक भी नहीं. लगभग डेढ़ घंटे की अवधि तक हम भी उसी मंडली का हिस्सा बनते हैं. उस अवधि में कम से कम चार बार लालू प्रसाद अपने अरदली को भोजपुरी मिश्रित हिंदी में अलग-अलग लहजे में कहते हैं- चाय लाओ रे सबके लिए…! चयवा कहां अटक गया रे…!! चयवा काहे नहीं ला रहा रे…!!! उनका आदेश पहले तो अनुरोध में बदलता है और फिर एक रट भर बनकर रह जाता है. आखिर में जब चला-चली की बेला आती है तो अरदली सिर्फ एक कप नींबू वाली चाय लिए हाजिर होता है.

यह थोड़ा अटपटा लगता है. सुबह-सुबह का समय, मौसम में ठंडेपन का एहसास भी है तो इस लिहाज से चाय का इंतजार वहां मौजूद लालू प्रसाद के कुछ खास मेहमान भी कर रहे थे. खास इसलिए कि लालू उन सबसे जिस तरह भोजपुरी में बोल-बतिया रहे थे –  ‘का रे, का हो और का सर’ – उससे साफ लग रहा था कि ये ‘लालू’ से मिलने आने वाले निहायत निजी-से लोग हैं. सत्ता-शासन से बेदखल नेता लालू प्रसाद यादव से मिलने आने वालों में से नहीं. लेकिन उस रोज एक कप नींबू की चाय सामने आते ही लालू प्रसाद बगैर किसी परवाह के अकेले ही चाय सुड़कने में मगन हो जाते हैं. मौके-बेमौके लालू प्रसाद के तीखे प्रहार से तिलमिला जाने वाले उनके घोर विरोधी और आलोचक भी जानते-मानते हैं कि मेहमाननवाजी और खाने-खिलाने के मामले में वे हमेशा ही बहुत दिलवाले रहे हैं. अपने उफान के दिनों में भी कोई निजी वक्त में उनके पास चला जाए तो वे दूध-रोटी, भात-दाल-चोखा साथ में ही बैठकर खाते थे. अगर घर से मिठाई नहीं मंगाते तो वहीं बगान से ही पपीता वगैरह कुछ भी तुड़वाते और खिलाते. तालाब से मछली निकलवाते और बनवाकर सबके साथ खाते. मगर उस सुबह एक कप चाय आते ही लालू का यह भूल जाना कि उन्होंने घंटे भर में कम से कम तीन-चार बार अपने अरदली को सबके लिए चाय लाने को कहा था, सिर्फ अपने लिए नहीं. तो क्या अब लालू इतने लापरवाह-बेपरवाह रहने लगे हैं!

‘अकेले लालू को 80 लाख मतदाताओं ने वोट दिया. हमको जो वोट मिला उसमें पासवान का वोट उतना कहां है, जो है सो लालू यादव का है’

शायद नहीं और शायद हां भी. नहीं, इसलिए कि आज भी गांव-जवार के पुराने मित्रों से लेकर नये-नवेले परिचितों तक को एक निगाह में ही पहचानते हैं वे, भरी भीड़ में भी नाम से संबोधित करके बुलाते हैं. हां की गुंजाइश इसलिए कि उसी रोज चाय मंगाने के पहले उन्होंने अपने अरदली से खैनी भी मांगी थी. खैनी मांगते ही उनकी हथेली पर बनी-बनाई खैनी रख दी गई. हाथ में खैनी लेने के दौरान लालू प्रसाद बातचीत में मशगूल हो जाते हैं. खैनी हथेली से धीरे-धीरे गिरती रहती है और वे फिर भी रट लगाते रहते हैं- खैनिया कहां है रे, खैनिया नहीं बनाया रे, खैनिया दो ना रे… अरदली साहस नहीं जुटा पाता कि कह दे कि आपके हाथे में तो है खैनी. लालू का ध्यान खुद उस पर जाता है, हंसते हुए कहते हैं- ओ, दे दिया है, फिर होठ तले दबाते हैं. और पांच मिनट के अंदर ही अपने पुराने अंदाज में उंगली से होठ को हिडोरते हुए खैनी निकालते हैं और कुरसी की दायीं ओर रखे पीकदान की ओर हाथ फैला देते हैं. अरदली काफी देर तक खैनी लगी उंगली पर पानी की पतली धार गिराता रहता है, तब तक, जब तक कि लालू खुद हाथ हटा नहीं लेते. लालू प्रसाद जब खैनी के बहाने अपनी बेपरवाही पर हंस रहे होते हैं तो ऐसा लगता है कि समूह में भी रहकर लालू अकेले किसी दुनिया में खोए रहते हैं अब! या एक साथ जेहन में कई बातें टकराते रहने की वजह से अब ज्यादा ही बेपरवाह-लापरवाह से रहते हैं. अरदली कहता है, जान-बूझकर ऐसा करते हैं साहब, यही तो उनकी खास पहचान वाली अदा है!

हो सकता है लालू प्रसाद अपनी खास पहचान वाली अदा को बनाए रखने के लिए जान-बूझकर ही ऐसा करते हों, लेकिन चुनाव के पहले से लेकर हार के बाद भी भटकाव, द्वंद्व और दुविधा की दुनिया से वे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं, यह कई बातों से जाहिर हो जाता है. 12 फरवरी को जब वे प्रवचन देने की तर्ज पर अपनी बात बता रहे होते हैं तो हर एक मिनट पर बात बदलते रहते हैं. देहाती मुहावरे में कहें तो कभी हंसुआ के बियाह में खुरपी का गीत गाते हैं, तो कभी आम की बात करते-करते ईमली का स्वाद बताने लगते हैं.

बात मीडिया के रवैये से शुरू करते हैं, नीतीश सरकार की कार्यप्रणाली पर आते हैं, गांधीजी, जेपी के बहाने अंग्रेजों के राज को याद करते हैं. इस बीच बार-बार अपने शासन के पुराने दिनों की भी यादें ताजा करते रहते हैं. अपने दिनों को याद करते हुए गर्व और संतोष का भाव बार-बार लाने की कोशिश करते हैं लेकिन वह कुछ पलों से ज्यादा नहीं टिक पाता. मंडली में ही मौजूद एक सज्जन बातचीत को बीच में काटते हुए लालू प्रसाद की ओर मुखातिब होते हुए कहते हैं, ‘सर, बिस्कोमान में चुनाव हो रहा है, सब कहता है कि हर जगह से ललटेन को उखाड़ देना है.’ लालू पल भर में ही गुस्से में आ जाते हैं,  ‘अयें, का कह रहा है सब जगह से ललटेन को उखाड़ देगा. एतना आसान है का रे…’ लालू कुछ और बोलना चाह रहे होते हैं लेकिन पल भर में उभरा गुस्सा पल भर में ही शांत हो जाता है और फिर मुस्कुराते हुए कहते हैं- ‘अरे ऐसा कुछ नहीं. लड़ो चुनाव बिस्कोमान में. हम हैं न.’ अभी बिस्कोमान की बात खत्म ही होती है तो एक जूनियर पुलिस अधिकारी वर्दी में वहां पहुंचते हैं. लालू प्रसाद की नजर उधर जाती है- का है हो सिपाही जी! लालू प्रसाद जानते हैं कि वे सिपाही नहीं, उनके बैच-स्टार बता रहे होते हैं कि कोई अधिकारी हैं. लेकिन लालू प्रसाद दो-तीन बार सिपाही जी-सिपाही जी का संबोधन देते हैं. वे पुलिस अधिकारी गिड़गिड़ाने के अंदाज में बोलते हैं, बक्सर से आए हैं सर, आपसे मिलने, आपका दर्शन करने. लालू उससे बात भी कर रहे होते हैं और यह भी कह रहे होते हैं कि अभी बात नहीं करेंगे. जाओ, बाद में आना. पुलिसवाले के साइड में जाने पर फिर गर्व का भाव आता है चेहरे पर, ‘सब एही जगह पहुंचता है. सबको एहिजे पहुंचना होगा.’
एक समय में अलसुबह से देर रात तक लोगों, प्रशंसकों, नेताओं और अधिकारियों का इस कदर मजमा जमता था कि सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिलती थी लालू प्रसाद को. मगर आज जब वे एक जूनियर पुलिस अधिकारी की परिक्रमा का भी अपनी गौरव गाथा के रूप में बखान करते हैं तो एक अजीब-सी विडंबना का एहसास होता है. लालू प्रसाद खुद तो यह कहते हैं कि हमने छह माह तक चुप रहने का संकल्प लिया है, इसलिए अभी कुछ नहीं बोल रहे हैं, सरकार को सहयोग कर रहे हैं. मगर लालू और लालू की राजनीति को जानने वाले जानते हैं कि चुप रहना उनकी मजबूरी है. नीतीश कुमार उन्हीं की बिछाई बिसात पर लगातार उन्हें शह और मात दिए जा रहे हैं. लालू प्रसाद की पहचान सोशल इंजीनियरिंग के मसीहा के रूप में थी, नीतीश ने सोशल इंजीनियरिंग को एक नया विस्तार दे डाला. लालू प्रसाद ने चुनाव के पहले सवर्णों को आरक्षण देने का बुलबुला छोड़ा, नीतीश ने सवर्ण आयोग गठित कर दिया. लालू प्रसाद पिछड़ों और दलितों की बात करते थे, नीतीश अतिपिछड़ों और महादलितों के समीकरण से उन्हें मात दे रहे हैं. गवर्नेंस और डेवलपमेंट की बात पर लालू प्रसाद चाहकर भी आक्रामक तेवर नहीं दिखा पाते. बिहार के सौ साल पर बिहार गीत निर्माण से लेकर तमाम तरह के आयोजनों की तैयारियां सरकारी स्तर पर चल रही हैं, इस पर लालू प्रसाद कुछ बोलेंगे तो सवाल होगा कि आपने तो कभी बिहार स्थापना दिवस मनाने की कोशिश की ही नहीं. इसी तरह बिहारी उपराष्ट्रीयता और बिहारी अस्मिता को लेकर जो नया उफान दिख रहा है उस पर भी लालू प्रसाद को मन मसोसकर चुप रहना पड़ रहा है. यह बात अलग है कि बिहारी उपराष्ट्रीयता की एक बड़ी पहचान खुद लालू प्रसाद और उनकी राजनीति रही है. लेकिन फिलहाल नीतीश कुमार की इन सधी हुए चालों से लालू प्रसाद चाहकर भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं आ पा रहे हैं. और जिन मसलों पर लालू प्रसाद नीतीश को घेर सकते हैं उन विषयों पर रणनीति बनाने वाले रणनीतिकार लालू के पाले में नहीं बचे हैं.

‘उहो अब बहुते स्टाइल मारकर लालू यादव की नकल करने की कोशिश करते हैं लेकिन स्टाइल मारने से कोई लालू यादव हो जाएगा!’

तो क्या अगले कुछ सालों तक, जब तक लोकसभा या विधानसभा चुनाव की बारी न आ जाए, लालू प्रसाद ऐसे ही चंद लोगों की मंडली में बैठ टीका-टिप्पणी करते रहेंगे. यह सवाल 12 फरवरी को उनकी मंडली में शामिल होते हुए बार-बार जेहन में उठ रहा था. हालिया दो दशक में ऐसा दौर शायद ही कभी लालू प्रसाद ने देखा हो. कभी खुद सीएम हुआ करते थे, बाद में पत्नी सीएम बन गईं, दोनों साले सुभाष और साधु बिहार के राजनीतिक गलियारे के नक्षत्र बन गए थे. अब साधु-सुभाष अपनी-अपनी राह पकड़कर राजनीति में हाशिये पर हैं. पत्नी राबड़ी देवी खुद दो-दो जगहों से चुनाव हार चुकी हैं. लालू प्रसाद को खुद उनके राजनीतिक दोस्त से पक्के दुश्मन बने शरद यादव और रंजन यादव चुनावी जंग में पटखनी दे चुके हैं. बेटे को भी पिछले चुनाव में लालू ने लॉन्च किया, लेकिन वह भी अब चुनाव के बाद झारखंड प्रीमियर लीग खेलने की तैयारी में है. हालांकि विगत वर्षों तक, जब खुद लालू प्रसाद रेल मंत्री रहे, उनका जलवा बरकरार रहा लेकिन जिस जगह से कभी बिहार की सत्ता-शासन की बागडोर नियंत्रित होती थी वहां से अब ज्ञान-दर्शन के स्वर सुनाई पड़ते हैं.

लालू प्रसाद से जब हम विदा लेने को होते हैं तो वे आखिर में किसी सचेत अभिभावक की तरह समलैंगिकता और प्यार-मोहब्बत के प्रसंग पर बात करते हुए समाज को दुत्कारते हैं. लालू प्रसाद किसी प्रवचनकर्ता की मुद्रा में फिर आते हैं और चिंतित भाव से कहते हैं, बताइए भला. अब लेस्बियनिज्म को मान्यता मिल रहा है. जो जानवर नहीं करता, वह इंसान करेगा. छीः,छीः,छीः… कोई विरोध भी नहीं कर रहा. समाज को चाहिए कि ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध करे नहीं तो सब बर्बाद हो जायेगा.’ लालू प्रसाद सिर्फ राबड़ी देवी वाले आवास की चारदीवारी में ही ज्ञान-दर्शन की बातें और मौके-बेमौके एक गंभीर और बुजुर्ग अभिभावक के जैसी अपनी राय नहीं रख रहे हैं. कुछ रोज पहले वे भागलपुर पहुंचे तो वहां भी उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता को जमकर कोसा और कहा कि पाश्चात्य सभ्यता भारतीय युवाओं को बर्बाद कर रही है. फरवरी में ही वे बनारस में एक विवाह समारोह में पहुंचे तो पत्रकारों ने उन्हें बढ़ती महंगाई के सवाल पर घेरा. लालू प्रसाद ने व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब दिया,  अच्छा ही है, महंगाई बढ़ेगी तो लोग पैदल ज्यादा चलेगें. ज्यादा पैदल चलेगें तो डायबिटिज का खतरा कम होगा.

‘लेरसियन (लेस्बियन) को मान्यता दिया गया है. जो जानवर के समाज में भी एलाउ नहीं है, उ इंसान के समाज में एलाउ किया जा रहा है’

विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद खुद के कहे अनुसार तो वे मौन व्रत्त में हैं लेकिन जब भी मौका मिलता है, खूब बोलने की कोशिश करते हैं. बस बोल लेने के बाद यह जरूर दुहरा देते हैं कि हम अभी चुप हैं, चुप रहेंगे, मौनव्रत्त में चल रहे हैं और छह महीने बाद बोलेंगे तो सब कुछ बोलेंगे. खुद के खुल के बोलने के लिए लालू प्रसाद द्वारा निर्धारित छह में से तीन महीने निकल चुके हैं. इन महीनों में लालू प्रसाद पांच-छह बार अपनी बात बोलने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन कोई ऐसी बात नहीं जिस पर सरकार को या सरकारी मकहमे को बचाव की मुद्रा में आना पड़े. अब उनकी बातें अखबारों में भी खबरों के ढेर में कहां दबकर रह जा रही हैं, पता नहीं चल पाता.

21 फरवरी को पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर में भी कुछ ऐसा ही हुआ. लालू यादव जिंदाबाद की नारेबाजी जारी थी. रविदास चेतना मंच द्वारा संत रविदास जयंती का आयोजन था. आयोजन का सबसे बड़ा आकर्षण यह बताया गया था कि इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए लालू यादव दिल्ली से पटना आ रहे हैं. सिर्फ इसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आ रहे हैं, ऐसा बार-बार कहा जा रहा था. लालू प्रसाद आते हैं. आते ही सबसे पहले सामने से मीडियाकर्मियों को कैमरा वगैरह हटाने के लिए कहते हैं. संचालक शिवराम दूसरी घोषणा करने लगते हैं. सामने जो भी भाई-बहिन बैठे हुए हैं, सीट खाली कर दें, वहां मीडिया के लोग बैठेंगे. लालू बीच में ही हत्थे से उखड़ जाते हैं, ‘एकदम से बुड़बके हो का जी. हम कैमरवा सब को हटाने के लिए कह रहे हैं तो तू दोसरे गीत गा रहे हो…’ अपने दल के नेता रघुवंश बाबू के बोल लेने के बाद लालू बोलना शुरू करते हैं. अपनी जगह से बैठे-बैठे ही. खूब बोलते हैं लेकिन उनके बोले-कहे में संत रविदास का नाम शायद ही कभी आया हो. सरकार के खिलाफ बोलते रहते हैं, ‘शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा…’ का किस्सा सुनाते हैं. तीर और कमल के घालमेल से बचकर रहने की नसीहत देते हैं. पटना में सड़क किनारे से हटाए जा रहे गरीबों-दुकानदारों के पक्ष में बोलते हैं, साइकिल बांट योजना की तुलना इससे करते हैं. गरीबों को आटा का पैकेट सीधे दिए जाने पर मजाक करते हुए कहते हैं कि सड़लका गेहूं देगा, सावधान रहियो. जनगणना में जरूर से जरूर नाम दर्ज करवाने की अपील करते हैं. यह भी कहते हैं कि ई जो पटना में बड़का-बड़का बिल्डिंग बन रहा है, उ सब पईसा कहां से आ रहा है, इस पर हिसाब मांगेंगे. इतना कुछ बोलने के बाद लालू प्रसाद अंत में कहते हैं, ‘अभी हम मौन व्रत्त में हैं इसलिए कुछ नहीं बोल रहे हैं, छह महीना कुछ नहीं बोलेंगे. बीच-बीच में बोल के टैबलेट दे रहे हैं, बाद में तो सुई भोंकेगें, उ करना भी जानता है लालू जादव लेकिन अभी चुप है.’ यह किस किस्म का मौन व्रत्त है, लालू प्रसाद खुद नहीं समझ पा रहे, दूसरों को तो क्या खुद को ही नहीं समझा पा रहे हैं.

मौनव्रत के आधे समय यानी तीन माह गुजरने के क्रम में लालू प्रसाद कुछेक बार मीडिया में दिखे हैं. नये साल के आरंभ में वे जगन्नाथ पुरी मंदिर गए थे. सो खबरिया दुनिया जहां नीतीश, सुशील मोदी और दूसरे नेताओं के शुभकामना संदेशों से पटी थी वहीं लालू का जिक्र तक नहीं था. बीच में एक दफा जनगणना करने वाले उनके घर पहुंचे तो लालू प्रसाद ने थोड़ा जनगणना पर भी व्याख्यान दे डाला. बिहार में जब उनकी पार्टी के भविष्य का आकलन हो रहा था तो लालू प्रसाद अंडमान-निकोबार में कार्यालय खोलने गए, चटखार अंदाज में अंग्रजी मीडिया में लालू दो-चार पंक्तियां बोलते दिखे. फिर महंगाई पर उनका बयान आया कि अब तो घी से भी महंगा हो जाएगा पेट्रोल. पूर्णिया विधायक नवल किशोर केशरी हत्याकांड में सीबीआई जांच की मांग की गई तो उनके नाम कर चर्चा हुई. 26 जनवरी को अपने यहां नेहरू टोपी लगाकर झंडा फहराया, सभी मीडियावालों को खबर पहुंचाई गई लेकिन कुछेक ने ही उन्हें जगह दी. कर्पूरी ठाकुर के नाम पर हुए समारोह में भाजपा पर निशाना कसा तो थोड़ी-बहुत चर्चा हुई और जब भारतीय जनता युवा मोर्चा की ओर से कश्मीर में झंडा फहराने की तैयारी हो रही थी, कारवां बिहार से गुजर रहा था तो लालू प्रसाद की आवाज सुनाई पड़ी थी कि इस सरकार में भाजपा और संघियों का मन बढ़ रहा है, कांग्रेस मर गई है. किसी न किसी बात पर रोज मीडिया में छाए रहने वाले लालू प्रसाद तीन माह में पांच-छह बार दिखायी-सुनायी पड़े. हाशिये से हस्तक्षेप की कवायद कर रहे हैं. लालू प्रसाद के सिपहसालार कहते हैं कि साहेब मीडियावालों से दूरी बनाकर रखे हुए हैं. मीडिया के लोग कहते हैं कि अब उनमें क्या रक्खा है, जो…

चर्चित पत्रकार और लेखक हेमंत, जिन्होंने ‘बतकही बिहार की’ में लालू युग का बहुत ही शिद्दत से डॉक्यूमेंटेशन किया है, पुराने दिनों के कुछ किस्से सुनाते हैं. वे बताते हैं कि लालू प्रसाद अभी ताजा-ताजा मुख्यमंत्री बने थे. बेली रोड से होते हुए उनकी गाड़ी गुजर रही थी. रास्ते में उन्होंने जबर्दस्ती हेमंत को भी गाड़ी में बैठा लिया और लेकर दानापुर चले गए. दानापुर क्यों जा रहे हैं, पूछने पर पता चला कि वहां शौचालय का उद्घाटन करेंगे लेकिन शिक्षा पर बोलेंगे. लालू प्रसाद ने वही किया भी. गांव के लोगों के बीच जाकर, उनके ही मुहावरों में घंटों बोलते रहे. हगना-मूतना जैसे गंवई शब्द राज्य के मुखिया के जुबान से सुनकर गंवई भींड़ खिंचती चली आई. शौचालय और शिक्षा के रिश्ते को जोड़ लालू प्रसाद वहां से विदा हो गए और भीड़ लालू पर फिदा हो गई, उस इलाके के लोकमानस में यह लालुई शैली बस गई. फिर एक बार वे सासाराम में गए. तकरीबन एक लाख की भीड़ थी. लालू प्रसाद मंच पर पहुंचे. बोलने की बजाय उन्होंने पूछा कि इस भीड़ में कोई है जो ताड़ के पेड़ से ताड़ी उतारना जानता हो. कई हाथ एक साथ उठे. लालू ने सबको मंच पर आने को कहा. ताड़ी उतारने वाले मंच के पीछे से ऊपर आने के लिए बढ़े. लालू ने कहा कि सीढ़ी से क्या आना है, सामने से तड़पकर चढ़ो मंच पर, यह लालू का मंच है. देखते ही देखते कई नौजवान तड़पकर मंच पर चढ़ गए. लालू ने सबसे भाषण दिलवाया और ताड़ी उतारने से पीठ पर पड़े दागों को दिखाते हुए कहा कि इसी दाग को मिटाएगा लालू जादव. आज से ताड़ी का टैक्स माफ. गुजरे जमाने के कई किस्से जब हेमंत सुना रहे होते हैं तो यह पुराने जमाने के किसी राजा के किस्सों सरीखा लग रहा होता है. नयी पीढ़ी लालू प्रसाद के उन किस्सों से नावाकिफ है. अब लालू प्रसाद के अनुसार लालू जादव मौनव्रत्त में है, कभी उनके आगे-पीछे रहनेवाला मीडिया उनसे बेरुखी अपना रहा है. 2005 के चुनाव के बाद भी लालू हारे थे, लेकिन उम्मीदों के सहारे बोलते रहते थे. केंद्र में रेलमंत्री थे तो भी कुछ जलवा रहा. लालू प्रसाद के खास माने जाने वाले उनके दल के एक सांसद कहते हैं, ‘बिहारी राजनीति का लालुई अंदाज अब इतिहास बनने की राह पर है. राजनीति की लालू शैली या लालू की राजनीतिक शैली उसी राह पर है.’ क्या सब इतिहास हो गया? लेखक प्रसन्न चौधरी कहते हैं, ‘समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलाव ऐसे ही होता है. अब किसी नये नाम के उभार का इंतजार कीजिए.’

हालांकि कुछ लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अपने राजनीतिक जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव देख चुके लालू जल्दी ही इससे उबरेंगे और आगामी लोकसभा चुनाव के लिए बचे अच्छे-खासे समय का इस्तेमाल अपनी धार को मजबूत करने, संगठन को सक्रिय करने और बिहार में नीतीश सरकार को सवालों के घेरे में लाकर विपक्ष को खाद-पानी देने में करेंगे. लेकिन नीतीश सरकार के लगभग तीन माह हो जाने के बाद अब तक लालू प्रसाद राजनीतिक मोर्चे पर उस ढर्रे पर चलते हुए नहीं दिख रहे. शायद अभी वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि करना क्या है. किस राह को पकड़ना है? इसलिए जब संसद सत्र में भाग लेने गए तो कांग्रेस के पक्ष में खड़े होते नजर आए जबकि कुछ दिनों पहले उन्होंने यह कहा था कि कांग्रेस मर गई है. उनके दो विश्वस्त क्षेत्रीय साथियों में से एक जगतानंद सिंह हैं, जिनके बेटे भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर अपना भाग्य आजमा चुके हैं. दूसरे रघुवंश प्रसाद सिंह हैं, जो सार्वजनिक तौर पर यह कह चुके हैं कि लालू प्रसाद ने कांग्रेस का साथ छोड़कर सबसे बड़ी राजनीतिक भूल की. संसद सत्र में पहुंचे लालू प्रसाद शायद रघुवंश बाबू की बातों का अनुसरण करना शुरू करके नई शुरुआत करना चाह रहे हैं.   

तौर पर पांच साल अपनी

आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘मलयालियों को अनुपात से ज्यादा फायदा मिला है. यहां तक कि जब महालेखा नियंत्रक (कैग) की नियुक्ति होनी थी तो नायर को विनोद राय मिले जो मलयाली नहीं हैं मगर केरल कैडर से जरूर हैं.’ लेकिन पंजाब से नायर का ताल्लुक खत्म नहीं हुआ. मनमोहन के पीएमओ में आने के लिए उन्हें चंडीगढ़ में मौजूद अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करना पड़ा. बताया जाता है कि वोरा के साथ अब उनका उतना संपर्क नहीं है. उनके एक जानकार कहते हैं, ‘दिल्ली में जैसा चलन है, उन्होंने भी उस सीढ़ी को लात मारना सीख लिया है जिससे वे ऊपर गए हैं.’ हालांकि मल्होत्रा से उनका अपनापा बरकरार है. मल्होत्रा का प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री आवास में आना-जाना है और वे प्रधानमंत्री के पसंदीदा हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी में बतौर जूनियर अधिकारी करियर शुरू करने वाले मल्होत्रा कभी मनमोहन के चंडीगढ़ स्थित घर में किराएदार हुआ करते थे जो उनके ही एक परिचित के शब्दों में कारोबारी और खुफिया समुदाय के साथ अपने विकसित कए गए संबंधों के जरिए राजनीतिक उद्यमी और इंदिरा गांधी के आंख-कान बन गए. मल्होत्रा की अहम उपलब्धि रही क्रिड की स्थापना. आज यह सरकार से अच्छी-खासी रकम पाने वाला संस्थान है जिसे कांग्रेस सरकारों के शासनकाल में खूब फायदा होता रहा है. उर्दू में बीए और सियोल की सूकम्यूंग विमंस यूनिवर्सिटी से डॉक्टर की मानद उपाधि प्राप्त मल्होत्रा समाज विज्ञानी से ज्यादा राजनीति के खिलाड़ी हैं. उन्होंने मनमोहन और नायर, दोनों को ही क्रिड की गवर्निंग बॉडी में आमंत्रित किया (दोनों अब भी यहां हैं) और इस तरह दोनों को नजदीक लाए.

मल्होत्रा के दामाद डीपीएस संधू हैं. रेलवे सर्विस के अधिकारी संधू पीएमओ में निदेशक हैं. बिना अपने मूल कैडर में वापस आए सरकार के सबसे अहम दफ्तर में उन्होंने सात साल गुजार लिए हैं. और उनके ससुर के अलावा नायर का भी इसमें योगदान है. हाल के महीनों में संधू ने मीडिया को साधने का काम शुरू किया है और वे प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे को बाइपास कर रहे हैं. एक ऐसा पीएमओ जिसका असमंजस लगातार बढ़ता दिखाई दे रहा है, के इस दोहरे रवैये का श्रेय भी नायर को ही जाता है.
नौकरशाह के रूप में नायर न तो राजनीतिक रूप से इतने वजनदार हैं जितने बृजेश मिश्रा थे या एमके

मजबूरी का मौन

कुछ डाल पर मल्लू

पीजे थॉमस किसके उम्मीदवार हैं? उत्सुकता मिश्रित यह सवाल दिल्ली की सत्ता के गलियारों में तभी से उछलने लगा था जब सितंबर, 2010 में विवादास्पद परिस्थितियों में उनकी मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर नियुक्ति हुई थी. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी नियुक्ति रद्द किए जाने के बाद इस सवाल ने एक नयी अहमियत अख्तियार कर ली है. कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं. कुछ का कहना है कि थॉमस या फिर उनकी पत्नी केरल से ताल्लुक रखने वाले एक कांग्रेसी नेता के रिश्तेदार हैं. कुछ दूसरों का इशारा पहले राजीव और फिर सोनिया गांधी के निजी स्टाफ में शामिल रह चुके गांधी परिवार के एक विश्वासपात्र के साथ थॉमस के कथित संबंधों की तरफ है.

का दबाव’ होने का मुद्दा उसमें भी उठा. माना जाता है कि प्रधानमंत्री ने पहले-पहल अपना बचाव कुछ इसी तर्ज पर करने की कोशिश भी की. सूत्र बताते हैं कि इस पर प्रधानमंत्री से कहा गया कि वे स्पष्ट तौर पर बताएं कि कांग्रेस में किसने थॉमस की दावेदारी को आगे बढ़ाया था. उनसे कहा गया कि इसकी बजाय उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में अपने इर्द-गिर्द के लोगों पर भी ध्यान देना चाहिए. देवास-इसरो समझौते से लेकर थॉमस की नियुक्ति तक पर सरकार की जैसी किरकिरी हुई है उससे प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रति कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का असंतोष बढ़ता ही जा रहा है.

सवाल कई हैं. पीएओ को आखिर चलाता कौन है? नौकरशाही के अलग-अलग हलकों में कुछ मजाक और कुछ तंज के साथ कही जाने वाली इस बात में कितना वजन है कि यूपीए के राज में मल्लुओं (मलयाली यानी केरल निवासी) की मौज है. क्या वास्तव में कोई केरल लॉबी है जो चुपचाप यूपीए सरकार के दिमाग के तौर पर काम कर रही है?

ये सारे सवाल एक ही शख्स की तरफ इशारा करते हैं और वह शख्स है टीकेए नायर. पीएमओ में प्रधान सचिव नायर पर ही थॉमस का मददगार और देवास का संरक्षक होने के आरोप लग रहे हैं. कुछ अपनी काबिलियत और कुछ परिस्थितियों की वजह से नायर पीएमओ में मौजूद सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में उभरे हैं. 2004 में जब उन्हें प्रधान सचिव का पद दिया गया था तब यह स्थिति नहीं थी. नायर की इस अभूतपूर्व तरक्की से वे दो लोग भी हैरान हैं जिन्होंने उन्हें पीएमओ तक पहुंचाया. इनमें पहले हैं पूर्व गृह और सुरक्षा सचिव तथा वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोरा. दूसरे हैं सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एेंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (क्रिड), चंडीगढ़ के एक्जीक्यूटिव वाइस चेयरमैन रशपाल मल्होत्रा. वोरा जाना-माना नाम हैं. मल्होत्रा उतने मशहूर तो नहीं हैं मगर मनमोहन के पीएमओ पर उनका असर काफी है. आपको बता दें कि हाल तक आईआईएम, कोच्चि के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में मल्होत्रा, थॉमस और नायर, तीनों साथ-साथ थे.

2004 में कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत के बाद जैसे ही मनमोहन सिंह को पता चला कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है तो उन्होंने वोरा को अपने कार्यालय में प्रधान सचिव बनाने की इच्छा जाहिर की. ऐसा होने पर वोरा, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेएन दीक्षित और आंतरिक सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन के साथ  एक जबर्दस्त तिकड़ी बनाने वाले बन जाते. मगर ऐसा हुआ नहीं. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व द्वारा इसमें अड़ंगा लगा दिया गया. कहा यह गया कि रक्षा सचिव के तौर पर वोरा बोफोर्स मामले में उतने मददगार साबित नहीं हुए थे. मनमोहन वोरा को तब से जानते हैं जब वे अमृतसर में लेक्चरर थे. उन्होंनेे वोरा से सुझाव मांगा. वोरा ने नायर का नाम सुझाया. नायर तब पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज बोर्ड के चेयरमैन थे और वोरा की तरह वे भी पंजाब के मुख्य सचिव रह चुके थे.

शुरुआती हफ्तों में मनमोहन के पीएमओ में वर्चस्व की लड़ाई रही. हालांकि नायर इस सब से अलग ही रहते दिखे. उनके पास न दीक्षित जैसा कद था और न ही नारायणन जैसा प्रोफाइल. हालांकि वे 1997-98 में इंद्रकुमार गुजराल की सरकार के दौरान पीएमओ में बतौर सचिव रह चुके थे लेकिन उनके पास वह विराटता नहीं आ पाई थी जो प्रधान सचिवों के नाम के साथ जुड़ी होती है. न उनके पास बृजेश मिश्रा (अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के प्रधान सचिव) जैसी रणनीतिक कुशलता थी और न ही वे एएन वर्मा (नरसिम्हा राव के प्रधान सचिव) की तरह आर्थिक नीति के पंडित थे. उनकी योग्यता बस यही थी कि उन्हें कैसे भी हालात में टिके रहना आता था.

हालांकि पीएमओ में आने के छह महीने बाद ही दीक्षित का निधन हो गया था, मगर नारायणन ने फुर्ती दिखाते हुए आंतरिक सुरक्षा और एनएसए के प्रभार मिला दिए. आईबी के पूर्व मुखिया और चतुर राजनीतिक बुद्धि वाले नारायणन अब एक तरह से सुपर प्रधान सचिव बन गए थे. सरकार और व्यवस्था कैसे काम करती है इसका उन्हें जबर्दस्त ज्ञान था और इसी की बदौलत उन्होंने खुद को मनमोहन सिंह के लिए अपरिहार्य बना लिया था.

इसके अलावा और भी लोग थे जिनका वजन ज्यादा लगता था. मनमोहन के शुरुआती दिनों में पीएमओ में दो आईएएस अधिकारी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में थे. इनमें पहले थे बीवीआर सुब्रमण्यम जो प्रधानमंत्री के निजी सचिव थे. दूसरे पुलक चटर्जी जो प्रधानमंत्री के अतिरिक्त सचिव थे. चटर्जी पहले राजीव गांधी और फिर राजीव गांधी के नाम वाली फाउंडेशन को अपनी सेवाएं दे चुके थे. वे सोनिया गांधी के भी विश्वासपात्र थे और इस नाते कांग्रेस अध्यक्ष तक पहुंचने वाला पुल बन गए थे. सोनिया और मनमोहन के बीच तालमेल में उनकी कितनी अहमियत थी यह इससे समझा जा सकता है कि अहमद पटेल जिन्हें सोनिया का राजनीतिक एडीसी कहा जाता है, उनसे मिलने खुद साउथ ब्लॉक जाया करते थे. एक और नाम संजय बारू का है जो प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हुआ करते थे. बारू ने यह साफ कर दिया था कि उनकी जवाबदेही और वफादारी सिर्फ प्रधानमंत्री के लिए है.

2008 की गर्मियों में इन तीनों दिग्गजों ने पीएमओ को अलविदा कह दिया. चटर्जी और सुब्रमण्यम विश्व बैंक में चले गए और बारू सिंगापुर में एक थिंक टैंक को अपनी सेवाएं देने. कुछ ही महीनों बाद मुंबई पर आतंकी हमला हुआ और नारायणन सवालों के घेरे में आ गए. करीब एक साल तक ही वे बच पाए और जनवरी, 2010 में उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाकर कोलकाता भेज दिया गया

इस तरह कुछ जगहें खाली हो गईं. उनकी जगह नये लोग आए मगर कुछ भूमिकाएं फिर भी खाली ही रहीं. नारायणन के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की जिम्मेदारी संभालने वाले शिव शंकर मेनन विदेश सेवा के पुराने तजुर्बेकार थे. उन्हें आंतरिक सुरक्षा से ज्यादा कूटनीतिक मामलों में सहजता महसूस होती थी. दूसरे जूनियर अधिकारी अभी पीएमओ में सेटल हो रहे थे. ऐसे में जो संभव था उस पर नायर ने कब्जा कर लिया. उनके सहयोगी केएम चंद्रशेखर थे. कैबिनेट सचिव के तौर पर कई सेवा विस्तार पाने वाले चंद्रशेखर भी आईएएस के केरल कैडर से आने वाले मलयाली हैं.

नायर वैसे तो पंजाब कैडर के आईएएस हैं और  राज्य के मुख्य सचिव भी रह चुके हैं पर इन दिनों पंजाब से ज्यादा केरल के उनके रिश्ते चर्चा में हैं. इन रिश्तों में व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों तरह के हैं. नायर ने केरल में भी अपने करियर का करीब एक दशक गुजारा है. वे राज्यों में नौकरशाहों की अदला-बदली के चलते 1980 के दशक में वहां गए थे. बाद में उन्होंने केंद्रीय प्रतिनियुक्ति मांगी और मरीन प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी के मुखिया के तौर पर पांच साल अपनी सेवाएं दीं. कोच्चि स्थित यह संस्था वाणिज्य मंत्रालय के अधीन आती है. उनके एक परिचित का अनुमान है कि इस तजुर्बे के बाद ही सिविल सेवा में केरल से ताल्लुक रखने वाले उनके दोस्तों की संख्या पंजाब कैडर के उनके दोस्तों से ज्यादा हो गई.

एक पूर्व आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘मलयालियों को अनुपात से ज्यादा फायदा मिला है. यहां तक कि जब महालेखा नियंत्रक (कैग) की नियुक्ति होनी थी तो नायर को विनोद राय मिले जो मलयाली नहीं हैं मगर केरल कैडर से जरूर हैं.’ लेकिन पंजाब से नायर का ताल्लुक खत्म नहीं हुआ. मनमोहन के पीएमओ में आने के लिए उन्हें चंडीगढ़ में मौजूद अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करना पड़ा. बताया जाता है कि वोरा के साथ अब उनका उतना संपर्क नहीं है. उनके एक जानकार कहते हैं, ‘दिल्ली में जैसा चलन है, उन्होंने भी उस सीढ़ी को लात मारना सीख लिया है जिससे वे ऊपर गए हैं.’ हालांकि मल्होत्रा से उनका अपनापा बरकरार है. मल्होत्रा का प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री आवास में आना-जाना है और वे प्रधानमंत्री के पसंदीदा हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी में बतौर जूनियर अधिकारी करियर शुरू करने वाले मल्होत्रा कभी मनमोहन के चंडीगढ़ स्थित घर में किराएदार हुआ करते थे जो उनके ही एक परिचित के शब्दों में कारोबारी और खुफिया समुदाय के साथ अपने विकसित कए गए संबंधों के जरिए राजनीतिक उद्यमी और इंदिरा गांधी के आंख-कान बन गए. मल्होत्रा की अहम उपलब्धि रही क्रिड की स्थापना. आज यह सरकार से अच्छी-खासी रकम पाने वाला संस्थान है जिसे कांग्रेस सरकारों के शासनकाल में खूब फायदा होता रहा है. उर्दू में बीए और सियोल की सूकम्यूंग विमंस यूनिवर्सिटी से डॉक्टर की मानद उपाधि प्राप्त मल्होत्रा समाज विज्ञानी से ज्यादा राजनीति के खिलाड़ी हैं. उन्होंने मनमोहन और नायर, दोनों को ही क्रिड की गवर्निंग बॉडी में आमंत्रित किया (दोनों अब भी यहां हैं) और इस तरह दोनों को नजदीक लाए.

मल्होत्रा के दामाद डीपीएस संधू हैं. रेलवे सर्विस के अधिकारी संधू पीएमओ में निदेशक हैं. बिना अपने मूल कैडर में वापस आए सरकार के सबसे अहम दफ्तर में उन्होंने सात साल गुजार लिए हैं. और उनके ससुर के अलावा नायर का भी इसमें योगदान है. हाल के महीनों में संधू ने मीडिया को साधने का काम शुरू किया है और वे प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे को बाइपास कर रहे हैं. एक ऐसा पीएमओ जिसका असमंजस लगातार बढ़ता दिखाई दे रहा है, के इस दोहरे रवैये का श्रेय भी नायर को ही जाता है.
नौकरशाह के रूप में नायर न तो राजनीतिक रूप से इतने वजनदार हैं जितने बृजेश मिश्रा थे या एमके नारायणन या फिर एनके सिंह. लेकिन उन्होंने पीएमओ की ट्रांसफर, पोस्टिंग और प्रमोशन करने की क्षमताओं को काफी हद तक साध लिया है. जिससे नौकरशाही में उनका कद खूब बढ़ा. अगर उनका थॉमस वाला दांव भी सीधा पड़ जाता तो सीवीसी की कुर्सी पर भी उनका ही उम्मीदवार नजर आता.  कुल मिलाकर    

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पीजे थॉमस किसके उम्मीदवार हैं? उत्सुकता मिश्रित यह सवाल दिल्ली की सत्ता के गलियारों में तभी से उछलने लगा था जब सितंबर, 2010 में विवादास्पद परिस्थितियों में उनकी मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर नियुक्ति हुई थी. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी नियुक्ति रद्द किए जाने के बाद इस सवाल ने एक नयी अहमियत अख्तियार कर ली है. कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं. कुछ का कहना है कि थॉमस या फिर उनकी पत्नी केरल से ताल्लुक रखने वाले एक कांग्रेसी नेता के रिश्तेदार हैं. कुछ दूसरों का इशारा पहले राजीव और फिर सोनिया गांधी के निजी स्टाफ में शामिल रह चुके गांधी परिवार के एक विश्वासपात्र के साथ थॉमस के कथित संबंधों की तरफ है.

का दबाव’ होने का मुद्दा उसमें भी उठा. माना जाता है कि प्रधानमंत्री ने पहले-पहल अपना बचाव कुछ इसी तर्ज पर करने की कोशिश भी की. सूत्र बताते हैं कि इस पर प्रधानमंत्री से कहा गया कि वे स्पष्ट तौर पर बताएं कि कांग्रेस में किसने थॉमस की दावेदारी को आगे बढ़ाया था. उनसे कहा गया कि इसकी बजाय उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में अपने इर्द-गिर्द के लोगों पर भी ध्यान देना चाहिए. देवास-इसरो समझौते से लेकर थॉमस की नियुक्ति तक पर सरकार की जैसी किरकिरी हुई है उससे प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रति कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का असंतोष बढ़ता ही जा रहा है.

सवाल कई हैं. पीएओ को आखिर चलाता कौन है? नौकरशाही के अलग-अलग हलकों में कुछ मजाक और कुछ तंज के साथ कही जाने वाली इस बात में कितना वजन है कि यूपीए के राज में मल्लुओं (मलयाली यानी केरल निवासी) की मौज है. क्या वास्तव में कोई केरल लॉबी है जो चुपचाप यूपीए सरकार के दिमाग के तौर पर काम कर रही है?

ये सारे सवाल एक ही शख्स की तरफ इशारा करते हैं और वह शख्स है टीकेए नायर. पीएमओ में प्रधान सचिव नायर पर ही थॉमस का मददगार और देवास का संरक्षक होने के आरोप लग रहे हैं. कुछ अपनी काबिलियत और कुछ परिस्थितियों की वजह से नायर पीएमओ में मौजूद सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में उभरे हैं. 2004 में जब उन्हें प्रधान सचिव का पद दिया गया था तब यह स्थिति नहीं थी. नायर की इस अभूतपूर्व तरक्की से वे दो लोग भी हैरान हैं जिन्होंने उन्हें पीएमओ तक पहुंचाया. इनमें पहले हैं पूर्व गृह और सुरक्षा सचिव तथा वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोरा. दूसरे हैं सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एेंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (क्रिड), चंडीगढ़ के एक्जीक्यूटिव वाइस चेयरमैन रशपाल मल्होत्रा. वोरा जाना-माना नाम हैं. मल्होत्रा उतने मशहूर तो नहीं हैं मगर मनमोहन के पीएमओ पर उनका असर काफी है. आपको बता दें कि हाल तक आईआईएम, कोच्चि के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में मल्होत्रा, थॉमस और नायर, तीनों साथ-साथ थे.

2004 में कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत के बाद जैसे ही मनमोहन सिंह को पता चला कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है तो उन्होंने वोरा को अपने कार्यालय में प्रधान सचिव बनाने की इच्छा जाहिर की. ऐसा होने पर वोरा, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेएन दीक्षित और आंतरिक सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन के साथ  एक जबर्दस्त तिकड़ी बनाने वाले बन जाते. मगर ऐसा हुआ नहीं. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व द्वारा इसमें अड़ंगा लगा दिया गया. कहा यह गया कि रक्षा सचिव के तौर पर वोरा बोफोर्स मामले में उतने मददगार साबित नहीं हुए थे. मनमोहन वोरा को तब से जानते हैं जब वे अमृतसर में लेक्चरर थे. उन्होंनेे वोरा से सुझाव मांगा. वोरा ने नायर का नाम सुझाया. नायर तब पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज बोर्ड के चेयरमैन थे और वोरा की तरह वे भी पंजाब के मुख्य सचिव रह चुके थे.

शुरुआती हफ्तों में मनमोहन के पीएमओ में वर्चस्व की लड़ाई रही. हालांकि नायर इस सब से अलग ही रहते दिखे. उनके पास न दीक्षित जैसा कद था और न ही नारायणन जैसा प्रोफाइल. हालांकि वे 1997-98 में इंद्रकुमार गुजराल की सरकार के दौरान पीएमओ में बतौर सचिव रह चुके थे लेकिन उनके पास वह विराटता नहीं आ पाई थी जो प्रधान सचिवों के नाम के साथ जुड़ी होती है. न उनके पास बृजेश मिश्रा (अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के प्रधान सचिव) जैसी रणनीतिक कुशलता थी और न ही वे एएन वर्मा (नरसिम्हा राव के प्रधान सचिव) की तरह आर्थिक नीति के पंडित थे. उनकी योग्यता बस यही थी कि उन्हें कैसे भी हालात में टिके रहना आता था.

हालांकि पीएमओ में आने के छह महीने बाद ही दीक्षित का निधन हो गया था, मगर नारायणन ने फुर्ती दिखाते हुए आंतरिक सुरक्षा और एनएसए के प्रभार मिला दिए. आईबी के पूर्व मुखिया और चतुर राजनीतिक बुद्धि वाले नारायणन अब एक तरह से सुपर प्रधान सचिव बन गए थे. सरकार और व्यवस्था कैसे काम करती है इसका उन्हें जबर्दस्त ज्ञान था और इसी की बदौलत उन्होंने खुद को मनमोहन सिंह के लिए अपरिहार्य बना लिया था.

इसके अलावा और भी लोग थे जिनका वजन ज्यादा लगता था. मनमोहन के शुरुआती दिनों में पीएमओ में दो आईएएस अधिकारी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में थे. इनमें पहले थे बीवीआर सुब्रमण्यम जो प्रधानमंत्री के निजी सचिव थे. दूसरे पुलक चटर्जी जो प्रधानमंत्री के अतिरिक्त सचिव थे. चटर्जी पहले राजीव गांधी और फिर राजीव गांधी के नाम वाली फाउंडेशन को अपनी सेवाएं दे चुके थे. वे सोनिया गांधी के भी विश्वासपात्र थे और इस नाते कांग्रेस अध्यक्ष तक पहुंचने वाला पुल बन गए थे. सोनिया और मनमोहन के बीच तालमेल में उनकी कितनी अहमियत थी यह इससे समझा जा सकता है कि अहमद पटेल जिन्हें सोनिया का राजनीतिक एडीसी कहा जाता है, उनसे मिलने खुद साउथ ब्लॉक जाया करते थे. एक और नाम संजय बारू का है जो प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हुआ करते थे. बारू ने यह साफ कर दिया था कि उनकी जवाबदेही और वफादारी सिर्फ प्रधानमंत्री के लिए है.

2008 की गर्मियों में इन तीनों दिग्गजों ने पीएमओ को अलविदा कह दिया. चटर्जी और सुब्रमण्यम विश्व बैंक में चले गए और बारू सिंगापुर में एक थिंक टैंक को अपनी सेवाएं देने. कुछ ही महीनों बाद मुंबई पर आतंकी हमला हुआ और नारायणन सवालों के घेरे में आ गए. करीब एक साल तक ही वे बच पाए और जनवरी, 2010 में उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाकर कोलकाता भेज दिया गया

इस तरह कुछ जगहें खाली हो गईं. उनकी जगह नये लोग आए मगर कुछ भूमिकाएं फिर भी खाली ही रहीं. नारायणन के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की जिम्मेदारी संभालने वाले शिव शंकर मेनन विदेश सेवा के पुराने तजुर्बेकार थे. उन्हें आंतरिक सुरक्षा से ज्यादा कूटनीतिक मामलों में सहजता महसूस होती थी. दूसरे जूनियर अधिकारी अभी पीएमओ में सेटल हो रहे थे. ऐसे में जो संभव था उस पर नायर ने कब्जा कर लिया. उनके सहयोगी केएम चंद्रशेखर थे. कैबिनेट सचिव के तौर पर कई सेवा विस्तार पाने वाले चंद्रशेखर भी आईएएस के केरल कैडर से आने वाले मलयाली हैं.

नायर वैसे तो पंजाब कैडर के आईएएस हैं और  राज्य के मुख्य सचिव भी रह चुके हैं पर इन दिनों पंजाब से ज्यादा केरल के उनके रिश्ते चर्चा में हैं. इन रिश्तों में व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों तरह के हैं. नायर ने केरल में भी अपने करियर का करीब एक दशक गुजारा है. वे राज्यों में नौकरशाहों की अदला-बदली के चलते 1980 के दशक में वहां गए थे. बाद में उन्होंने केंद्रीय प्रतिनियुक्ति मांगी और मरीन प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी के मुखिया के तौर पर पांच साल अपनी सेवाएं दीं. कोच्चि स्थित यह संस्था वाणिज्य मंत्रालय के अधीन आती है. उनके एक परिचित का अनुमान है कि इस तजुर्बे के बाद ही सिविल सेवा में केरल से ताल्लुक रखने वाले उनके दोस्तों की संख्या पंजाब कैडर के उनके दोस्तों से ज्यादा हो गई.

एक पूर्व आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘मलयालियों को अनुपात से ज्यादा फायदा मिला है. यहां तक कि जब महालेखा नियंत्रक (कैग) की नियुक्ति होनी थी तो नायर को विनोद राय मिले जो मलयाली नहीं हैं मगर केरल कैडर से जरूर हैं.’ लेकिन पंजाब से नायर का ताल्लुक खत्म नहीं हुआ. मनमोहन के पीएमओ में आने के लिए उन्हें चंडीगढ़ में मौजूद अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करना पड़ा. बताया जाता है कि वोरा के साथ अब उनका उतना संपर्क नहीं है. उनके एक जानकार कहते हैं, ‘दिल्ली में जैसा चलन है, उन्होंने भी उस सीढ़ी को लात मारना सीख लिया है जिससे वे ऊपर गए हैं.’ हालांकि मल्होत्रा से उनका अपनापा बरकरार है. मल्होत्रा का प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री आवास में आना-जाना है और वे प्रधानमंत्री के पसंदीदा हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी में बतौर जूनियर अधिकारी करियर शुरू करने वाले मल्होत्रा कभी मनमोहन के चंडीगढ़ स्थित घर में किराएदार हुआ करते थे जो उनके ही एक परिचित के शब्दों में कारोबारी और खुफिया समुदाय के साथ अपने विकसित कए गए संबंधों के जरिए राजनीतिक उद्यमी और इंदिरा गांधी के आंख-कान बन गए. मल्होत्रा की अहम उपलब्धि रही क्रिड की स्थापना. आज यह सरकार से अच्छी-खासी रकम पाने वाला संस्थान है जिसे कांग्रेस सरकारों के शासनकाल में खूब फायदा होता रहा है. उर्दू में बीए और सियोल की सूकम्यूंग विमंस यूनिवर्सिटी से डॉक्टर की मानद उपाधि प्राप्त मल्होत्रा समाज विज्ञानी से ज्यादा राजनीति के खिलाड़ी हैं. उन्होंने मनमोहन और नायर, दोनों को ही क्रिड की गवर्निंग बॉडी में आमंत्रित किया (दोनों अब भी यहां हैं) और इस तरह दोनों को नजदीक लाए.

मल्होत्रा के दामाद डीपीएस संधू हैं. रेलवे सर्विस के अधिकारी संधू पीएमओ में निदेशक हैं. बिना अपने मूल कैडर में वापस आए सरकार के सबसे अहम दफ्तर में उन्होंने सात साल गुजार लिए हैं. और उनके ससुर के अलावा नायर का भी इसमें योगदान है. हाल के महीनों में संधू ने मीडिया को साधने का काम शुरू किया है और वे प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे को बाइपास कर रहे हैं. एक ऐसा पीएमओ जिसका असमंजस लगातार बढ़ता दिखाई दे रहा है, के इस दोहरे रवैये का श्रेय भी नायर को ही जाता है.
नौकरशाह के रूप में नायर न तो राजनीतिक रूप से इतने वजनदार हैं जितने बृजेश मिश्रा थे या एमके नारायणन या फिर एनके सिंह. लेकिन उन्होंने पीएमओ की ट्रांसफर, पोस्टिंग और प्रमोशन करने की क्षमताओं को काफी हद तक साध लिया है. जिससे नौकरशाही में उनका कद खूब बढ़ा. अगर उनका थॉमस वाला दांव भी सीधा पड़ जाता तो सीवीसी की कुर्सी पर भी उनका ही उम्मीदवार नजर आता.  कुल मिलाकर    

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पीजे थॉमस किसके उम्मीदवार हैं? उत्सुकता मिश्रित यह सवाल दिल्ली की सत्ता के गलियारों में तभी से उछलने लगा था जब सितंबर, 2010 में विवादास्पद परिस्थितियों में उनकी मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर नियुक्ति हुई थी. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी नियुक्ति रद्द किए जाने के बाद इस सवाल ने एक नयी अहमियत अख्तियार कर ली है. कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं. कुछ का कहना है कि थॉमस या फिर उनकी पत्नी केरल से ताल्लुक रखने वाले एक कांग्रेसी नेता के रिश्तेदार हैं. कुछ दूसरों का इशारा पहले राजीव और फिर सोनिया गांधी के निजी स्टाफ में शामिल रह चुके गांधी परिवार के एक विश्वासपात्र के साथ थॉमस के कथित संबंधों की तरफ है.

का दबाव’ होने का मुद्दा उसमें भी उठा. माना जाता है कि प्रधानमंत्री ने पहले-पहल अपना बचाव कुछ इसी तर्ज पर करने की कोशिश भी की. सूत्र बताते हैं कि इस पर प्रधानमंत्री से कहा गया कि वे स्पष्ट तौर पर बताएं कि कांग्रेस में किसने थॉमस की दावेदारी को आगे बढ़ाया था. उनसे कहा गया कि इसकी बजाय उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में अपने इर्द-गिर्द के लोगों पर भी ध्यान देना चाहिए. देवास-इसरो समझौते से लेकर थॉमस की नियुक्ति तक पर सरकार की जैसी किरकिरी हुई है उससे प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रति कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का असंतोष बढ़ता ही जा रहा है.

सवाल कई हैं. पीएओ को आखिर चलाता कौन है? नौकरशाही के अलग-अलग हलकों में कुछ मजाक और कुछ तंज के साथ कही जाने वाली इस बात में कितना वजन है कि यूपीए के राज में मल्लुओं (मलयाली यानी केरल निवासी) की मौज है. क्या वास्तव में कोई केरल लॉबी है जो चुपचाप यूपीए सरकार के दिमाग के तौर पर काम कर रही है?

ये सारे सवाल एक ही शख्स की तरफ इशारा करते हैं और वह शख्स है टीकेए नायर. पीएमओ में प्रधान सचिव नायर पर ही थॉमस का मददगार और देवास का संरक्षक होने के आरोप लग रहे हैं. कुछ अपनी काबिलियत और कुछ परिस्थितियों की वजह से नायर पीएमओ में मौजूद सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में उभरे हैं. 2004 में जब उन्हें प्रधान सचिव का पद दिया गया था तब यह स्थिति नहीं थी. नायर की इस अभूतपूर्व तरक्की से वे दो लोग भी हैरान हैं जिन्होंने उन्हें पीएमओ तक पहुंचाया. इनमें पहले हैं पूर्व गृह और सुरक्षा सचिव तथा वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोरा. दूसरे हैं सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एेंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (क्रिड), चंडीगढ़ के एक्जीक्यूटिव वाइस चेयरमैन रशपाल मल्होत्रा. वोरा जाना-माना नाम हैं. मल्होत्रा उतने मशहूर तो नहीं हैं मगर मनमोहन के पीएमओ पर उनका असर काफी है. आपको बता दें कि हाल तक आईआईएम, कोच्चि के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में मल्होत्रा, थॉमस और नायर, तीनों साथ-साथ थे.

2004 में कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत के बाद जैसे ही मनमोहन सिंह को पता चला कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है तो उन्होंने वोरा को अपने कार्यालय में प्रधान सचिव बनाने की इच्छा जाहिर की. ऐसा होने पर वोरा, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेएन दीक्षित और आंतरिक सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन के साथ  एक जबर्दस्त तिकड़ी बनाने वाले बन जाते. मगर ऐसा हुआ नहीं. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व द्वारा इसमें अड़ंगा लगा दिया गया. कहा यह गया कि रक्षा सचिव के तौर पर वोरा बोफोर्स मामले में उतने मददगार साबित नहीं हुए थे. मनमोहन वोरा को तब से जानते हैं जब वे अमृतसर में लेक्चरर थे. उन्होंनेे वोरा से सुझाव मांगा. वोरा ने नायर का नाम सुझाया. नायर तब पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज बोर्ड के चेयरमैन थे और वोरा की तरह वे भी पंजाब के मुख्य सचिव रह चुके थे.

शुरुआती हफ्तों में मनमोहन के पीएमओ में वर्चस्व की लड़ाई रही. हालांकि नायर इस सब से अलग ही रहते दिखे. उनके पास न दीक्षित जैसा कद था और न ही नारायणन जैसा प्रोफाइल. हालांकि वे 1997-98 में इंद्रकुमार गुजराल की सरकार के दौरान पीएमओ में बतौर सचिव रह चुके थे लेकिन उनके पास वह विराटता नहीं आ पाई थी जो प्रधान सचिवों के नाम के साथ जुड़ी होती है. न उनके पास बृजेश मिश्रा (अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के प्रधान सचिव) जैसी रणनीतिक कुशलता थी और न ही वे एएन वर्मा (नरसिम्हा राव के प्रधान सचिव) की तरह आर्थिक नीति के पंडित थे. उनकी योग्यता बस यही थी कि उन्हें कैसे भी हालात में टिके रहना आता था.

हालांकि पीएमओ में आने के छह महीने बाद ही दीक्षित का निधन हो गया था, मगर नारायणन ने फुर्ती दिखाते हुए आंतरिक सुरक्षा और एनएसए के प्रभार मिला दिए. आईबी के पूर्व मुखिया और चतुर राजनीतिक बुद्धि वाले नारायणन अब एक तरह से सुपर प्रधान सचिव बन गए थे. सरकार और व्यवस्था कैसे काम करती है इसका उन्हें जबर्दस्त ज्ञान था और इसी की बदौलत उन्होंने खुद को मनमोहन सिंह के लिए अपरिहार्य बना लिया था.

इसके अलावा और भी लोग थे जिनका वजन ज्यादा लगता था. मनमोहन के शुरुआती दिनों में पीएमओ में दो आईएएस अधिकारी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में थे. इनमें पहले थे बीवीआर सुब्रमण्यम जो प्रधानमंत्री के निजी सचिव थे. दूसरे पुलक चटर्जी जो प्रधानमंत्री के अतिरिक्त सचिव थे. चटर्जी पहले राजीव गांधी और फिर राजीव गांधी के नाम वाली फाउंडेशन को अपनी सेवाएं दे चुके थे. वे सोनिया गांधी के भी विश्वासपात्र थे और इस नाते कांग्रेस अध्यक्ष तक पहुंचने वाला पुल बन गए थे. सोनिया और मनमोहन के बीच तालमेल में उनकी कितनी अहमियत थी यह इससे समझा जा सकता है कि अहमद पटेल जिन्हें सोनिया का राजनीतिक एडीसी कहा जाता है, उनसे मिलने खुद साउथ ब्लॉक जाया करते थे. एक और नाम संजय बारू का है जो प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हुआ करते थे. बारू ने यह साफ कर दिया था कि उनकी जवाबदेही और वफादारी सिर्फ प्रधानमंत्री के लिए है.

2008 की गर्मियों में इन तीनों दिग्गजों ने पीएमओ को अलविदा कह दिया. चटर्जी और सुब्रमण्यम विश्व बैंक में चले गए और बारू सिंगापुर में एक थिंक टैंक को अपनी सेवाएं देने. कुछ ही महीनों बाद मुंबई पर आतंकी हमला हुआ और नारायणन सवालों के घेरे में आ गए. करीब एक साल तक ही वे बच पाए और जनवरी, 2010 में उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाकर कोलकाता भेज दिया गया

इस तरह कुछ जगहें खाली हो गईं. उनकी जगह नये लोग आए मगर कुछ भूमिकाएं फिर भी खाली ही रहीं. नारायणन के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की जिम्मेदारी संभालने वाले शिव शंकर मेनन विदेश सेवा के पुराने तजुर्बेकार थे. उन्हें आंतरिक सुरक्षा से ज्यादा कूटनीतिक मामलों में सहजता महसूस होती थी. दूसरे जूनियर अधिकारी अभी पीएमओ में सेटल हो रहे थे. ऐसे में जो संभव था उस पर नायर ने कब्जा कर लिया. उनके सहयोगी केएम चंद्रशेखर थे. कैबिनेट सचिव के तौर पर कई सेवा विस्तार पाने वाले चंद्रशेखर भी आईएएस के केरल कैडर से आने वाले मलयाली हैं.

नायर वैसे तो पंजाब कैडर के आईएएस हैं और  राज्य के मुख्य सचिव भी रह चुके हैं पर इन दिनों पंजाब से ज्यादा केरल के उनके रिश्ते चर्चा में हैं. इन रिश्तों में व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों तरह के हैं. नायर ने केरल में भी अपने करियर का करीब एक दशक गुजारा है. वे राज्यों में नौकरशाहों की अदला-बदली के चलते 1980 के दशक में वहां गए थे. बाद में उन्होंने केंद्रीय प्रतिनियुक्ति मांगी और मरीन प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी के मुखिया के तौर पर पांच साल अपनी सेवाएं दीं. कोच्चि स्थित यह संस्था वाणिज्य मंत्रालय के अधीन आती है. उनके एक परिचित का अनुमान है कि इस तजुर्बे के बाद ही सिविल सेवा में केरल से ताल्लुक रखने वाले उनके दोस्तों की संख्या पंजाब कैडर के उनके दोस्तों से ज्यादा हो गई.

एक पूर्व आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘मलयालियों को अनुपात से ज्यादा फायदा मिला है. यहां तक कि जब महालेखा नियंत्रक (कैग) की नियुक्ति होनी थी तो नायर को विनोद राय मिले जो मलयाली नहीं हैं मगर केरल कैडर से जरूर हैं.’ लेकिन पंजाब से नायर का ताल्लुक खत्म नहीं हुआ. मनमोहन के पीएमओ में आने के लिए उन्हें चंडीगढ़ में मौजूद अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करना पड़ा. बताया जाता है कि वोरा के साथ अब उनका उतना संपर्क नहीं है. उनके एक जानकार कहते हैं, ‘दिल्ली में जैसा चलन है, उन्होंने भी उस सीढ़ी को लात मारना सीख लिया है जिससे वे ऊपर गए हैं.’ हालांकि मल्होत्रा से उनका अपनापा बरकरार है. मल्होत्रा का प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री आवास में आना-जाना है और वे प्रधानमंत्री के पसंदीदा हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी में बतौर जूनियर अधिकारी करियर शुरू करने वाले मल्होत्रा कभी मनमोहन के चंडीगढ़ स्थित घर में किराएदार हुआ करते थे जो उनके ही एक परिचित के शब्दों में कारोबारी और खुफिया समुदाय के साथ अपने विकसित कए गए संबंधों के जरिए राजनीतिक उद्यमी और इंदिरा गांधी के आंख-कान बन गए. मल्होत्रा की अहम उपलब्धि रही क्रिड की स्थापना. आज यह सरकार से अच्छी-खासी रकम पाने वाला संस्थान है जिसे कांग्रेस सरकारों के शासनकाल में खूब फायदा होता रहा है. उर्दू में बीए और सियोल की सूकम्यूंग विमंस यूनिवर्सिटी से डॉक्टर की मानद उपाधि प्राप्त मल्होत्रा समाज विज्ञानी से ज्यादा राजनीति के खिलाड़ी हैं. उन्होंने मनमोहन और नायर, दोनों को ही क्रिड की गवर्निंग बॉडी में आमंत्रित किया (दोनों अब भी यहां हैं) और इस तरह दोनों को नजदीक लाए.

मजबूरी का मौन

प्रेस वार्ता या…

घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह ने आखिरकार पिछले महीने अपनी लंबी चुप्पी तोड़ने का फैसला किया. वैसे एक सक्रिय और गतिशील लोकतंत्र में सरकार की जवाबदेही के नाते प्रधानमंत्री की चुप्पी हैरान करने वाली थी. निश्चय ही, उन्हें और उनके सलाहकारों को एहसास होने लगा था कि उनकी चुप्पी और सवालों से बचने की कोशिश उनकी छवि धूमिल कर रही है. नतीजा, घोटालों और भ्रष्टाचार पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने और एक तरह से सफाई देने के लिए प्रधानमंत्री ने समाचार चैनलों के मंच को चुना और एक दर्जन से अधिक संपादकों को मिलने के लिए बुलाया.

हालांकि यह एक संवाददाता सम्मेलन की तर्ज का आयोजन था, लेकिन असल में संवाददाता सम्मेलन नहीं था क्योंकि इसमें चैनलों के रिपोर्टर नहीं बल्कि चुने हुए संपादक बुलाए गए थे. यह असल संवाददाता सम्मेलन इसलिए भी नहीं था कि एक खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस की सरगर्मी के उलट यहां सवाल-जवाब की पूरी प्रक्रिया बहुत ‘सैनिटाइज्ड,’ ‘मैनेज्ड’ और मशीनी थी. सभी संपादकों को प्रधानमंत्री से बारी-बारी से सवाल करने का मौका दिया गया. सभी संपादक अपनी पसंद, मर्जी और कुछ अपने चैनल के दर्शक समूह के मुताबिक सवाल पूछने में लगे रहे. इस कारण, सवाल-जवाब का कोई फोकस नहीं बन पाया.

यह प्रधानमंत्री और संपादकों की कोई व्यक्तिगत मुलाकात नहीं थी और न ही वे प्रधानमंत्री से मित्रता की वजह से वहां बुलाए गए थे

यही नहीं, संपादकों को पूरक प्रश्न करने या बारी तोड़कर प्रधानमंत्री के जवाब में से सवाल करने का मौका नहीं दिया गया. ‘टाइम्स नाउ’ के अर्णब गोस्वामी ने कोशिश भी की तो उन्हें प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार ने लगभग डपटते हुए चुप करा दिया. हैरानी की बात है कि किसी भी संपादक ने इसका विरोध नहीं किया और न ही किसी और ने ऐसी कोशिश की. अधिकतर सवाल रूटीन किस्म के और हल्के-फुल्के थे. कुछ सवाल लल्लो-चप्पो वाले थे.

पूरा देश इसका लाइव प्रसारण देख रहा था. लोग हैरान थे कि जो संपादक-एंकर अपने चैनलों पर राजनेताओं की खिंचाई और धुलाई के लिए मशहूर हैं वे यहां अनुशासित बच्चों की तरह कैसे व्यवहार कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि संपादकों ने प्रधानमंत्री से असुविधाजनक और तीखे सवाल नहीं किए लेकिन कुल मिलाकर, एक घंटे से अधिक का ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस’ जैसा यह कार्यक्रम वास्तव में पीआर कॉन्फ्रेंस बन गया, जहां प्रधानमंत्री भी पीआर कर रहे थे और संपादक भी. यह और बात है कि प्रधानमंत्री इतनी नियंत्रित, प्रबंधित और संकुचित प्रेस कॉन्फ्रेंस का वैसा लाभ नहीं उठा पाए जैसा उनके सलाहकार चाहते थे.

इस कॉन्फ्रेंस से जितने सवालों का जवाब मिला, उससे ज्यादा सवाल पैदा हुए. 2जी से लेकर देवास डील तक पर प्रधानमंत्री की सफाई से शायद ही कोई संतुष्ट हुआ हो. लोगों को इससे भी निराशा हुई कि संपादकों को खुलकर सवाल-जवाब क्यों नहीं करने दिया गया. हालांकि कहना मुश्किल है कि अगर यह मौका मिलता भी तो कितने संपादक इसका लाभ उठाने के लिए तैयार थे. लेकिन कम से कम प्रधानमंत्री को यह दावा करने का मौका मिल सकता था कि उन्होंने खुद को ईमानदारी से हर तरह के सवाल के लिए पेश किया. इस मायने में यह ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस’ प्रधानमंत्री की पीआर मशीनरी के मकसद को पूरा करने में नाकाम रही. लेकिन इसकी वजह चैनल और उनके संपादक कम थे. उन्होंने तो अपने तईं प्रधानमंत्री और उनकी मशीनरी की पूरी मदद की. कुछ को छोड़कर अधिकांश संपादक प्रधानमंत्री के निमंत्रण से अभिभूत थे. नतीजा, उन्होंने मनमोहन सिंह से वही सवाल किए जिनकी अपेक्षा उनकी पीआर मशीनरी ने की थी. यही नहीं, कुछ सवाल इतने ‘फ्रेंडली’ थे कि लगता था जैसे उन्हें पहले से तय करवाया गया है. सजे-धजे संपादक जिस नफासत और दोस्ताना तरीके से सवाल करने का कोरम पूरा कर रहे थे, उससे लग रहा था कि जैसे यह ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस’ सरकार की किसी बड़ी उपलब्धि की घोषणा के लिए बुलाई गई है. हालांकि प्रधानमंत्री से क्या सवाल करना है, यह तय करने का अधिकार संपादकों को है, लेकिन कुछ अधिकार दर्शकों का भी है. यह प्रधानमंत्री और संपादकों की व्यक्तिगत मुलाकात नहीं थी और न ही वे प्रधानमंत्री से मित्रता की वजह से वहां बुलाए गए थे. उन्हें वहां इसलिए बुलाया गया था कि प्रधानमंत्री उनके माध्यम से देश को उन सवालों के जवाब देना चाहते थे जो पिछले कई महीनों से लोगों के मन में हैं. जाहिर है कि संपादक अपने दर्शकों के प्रतिनिधि के बतौर वहां बुलाए गए थे. ऐसे में उनसे यह अपेक्षा थी कि वे प्रधानमंत्री से वे सवाल जरूर करेंगे जो अगर उनके दर्शकों को सीधा मौका मिलता तो करते. लेकिन ऐसे सवाल बहुत कम किए गए. असल में, यह ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस’ जिस तरह से आयोजित की गई, उसमें ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि चैनलों और उनके संपादकों ने प्रधानमंत्री की पीआर मशीनरी को खुद को इस्तेमाल करने का मौका क्यों दिया. दूसरे, अगर प्रधानमंत्री को इसी तरीके से सवालों का जवाब देना था तो बेहतर होता कि वे दूरदर्शन/डीडी न्यूज पर राष्ट्र के नाम संदेश पढ़ देते. इसके लिए इस तामझाम की जरूरत क्या थी?

आश्चर्य नहीं कि इस बेमानी पीआर कसरत से प्रधानमंत्री और न्यूज चैनलों के संपादकों दोनों की साख को धक्का लगा है. कहीं दूर खड़ी नीरा राडिया जरूर मुस्कुरा रही होंगी.