Home Blog Page 143

फौज की फजीहत

आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले में सेना प्रमुख (पूर्व) दीपक कपूर और सेना से जुड़े कई वरिष्ठ अधिकारियों के नाम सामने आने के बाद सारा देश स्तब्ध है. सेना एक ऐसा संस्थान है जिस पर देश की जनता को पूरा भरोसा रहा है. मगर अब उसी जनता को संशय सता रहा है कि भ्रष्टाचार का यह पैमाना देखते हुए क्या देश की सीमाओं को वास्तव में पूरी तरह सुरक्षित कहा जा सकता है ? सवाल यह भी है कि महज कुछ साल पहले तक भारतीय गणतंत्र के सबसे भरोसेमंद संस्थान का रुतबा रखने वाले इस खंभे में दिख रही यह दरार सिर्फ ऊपरी है या फिर यह खोखलापन भीतर तक घर कर गया है?

यह ठीक एक दशक पहले, 2001 की बात है. उस समय तहलका के ‘ऑपरेशन वेस्टएंड’ के जरिए पहली बार रक्षा खरीद में चल रहे भारी भ्रष्टाचार और इसमें सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की संलिप्तता को सारे देश ने टीवी पर देखा था. वह घटना सेना में भ्रष्टाचार रोकने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सरकार और प्रतिष्ठान के पास सबसे बड़ा मौका था. लेकिन हुआ उल्टा. सत्ता तंत्र के निशाने पर तहलका आ गया. सरकार और खुद सेना अपने भीतर तेजी से घर कर रही बीमारी की उपेक्षा करती रही. पिछले पांच साल के दौरान सेना के कई वरिष्ठ अधिकारियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप बताते हैं कि तब सरकार के पास संस्थान को दुरुस्त करने का एक बहुत अच्छा मौका था, लेकिन उसे बर्बाद कर दिया गया.

आज जब ‘ऑपरेशन वेस्टएंड’ को तकरीबन एक दशक बीत गया है, सेना की छवि पर अब तक का सबसे बड़ा संकट मंडरा रहा है. हालांकि इसी दशक के दौरान कुछ उम्मीद की किरणें भी दिखी हैं. मसलन भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई जाती रही है, दूसरे अधिकारी अनुशासन का पालन करते हुए भ्रष्टाचार के मामले उजागर करते रहे हैं और कोर्ट ऑफ इंक्वायरी ने अपना काम बेहद संजीदगी से अंजाम देते हुए अधिकारियों के कोर्ट मार्शल के फैसले सुनाए हैं. अब जिस तरह से सैन्य भ्रष्टाचार का मामला लगातार मीडिया की सुर्खियां बना हुआ है उसके बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संस्थान अपनी साख पर लगे धब्बों को हटाने की दिशा में गंभीरता से काम करेगा.

रक्षा प्रतिष्ठान- जिसमें राजनेता, नौकरशाह, और सैन्य नौकरशाह शामिल हैं, के लिए इस दिशा में आगे बढ़ना यानी भ्रष्टाचार पर अंकुश इसलिए भी जरूरी है कि एक अनुमान के मुताबिक 2015 तक भारत सरकार रक्षा क्षेत्र पर 2.21 लाख करोड़ रुपए खर्च करने वाली है. कंसल्टेंसी फर्म केपीएमजी के मुताबिक इस समयावधि में भारत दुनिया के कुछ सबसे बड़े रक्षा खरीद सौदे करेगा. रक्षा उत्पादन से जुड़ी दुनिया की शीर्ष कंपनियां अभी से दिल्ली में डेरा डालने पहुंच रही हैं. कई भारतीय कंपनियों को उम्मीद है कि तकरीबन 44,299 करोड़ रुपए के ठेके उन्हें मिल सकते हैं. इन स्थितियों में भारी रिश्वत और भ्रष्टाचार की संभावना को नकारा नहीं जा सकता.

तीन महीने पहले सिंगापुर की रक्षा उत्पादन फर्म एसटी काइनेटिक्स के मुख्य मार्केटिंग अधिकारी पैट्रिक चॉय ने अनौपचारिक बातचीत के दौरान एक बयान दिया था जो भारत में काम कर रही विदेशी रक्षा उत्पादन फर्मों की तल्ख हकीकत बयान करता है. उनका कहना था, ‘हम ऐसे माहौल में काम नहीं कर सकते जहां चीजें कैसे हो रही हैं इसका कुछ अंदाजा ही न लग पा रहा हो.’ कहा जाता है कि कपूर के कार्यकाल में 155-एमएम गन खरीद के लिए 13,289 करोड़ रुपए के सौदे के लिए एसटी काइनेटिक्स की प्रतिस्पर्धा बीएई सिस्टम्स से थी. लेकिन एसटी काइनेटिक्स को काली सूची में डालकर इस दौड़ से बाहर कर दिया गया था.

फिलहाल कपूर, पूर्व और वर्तमान सैनिकों के लिए शर्मिंदगी का प्रतीक बने हुए हैं. इसकी वाजिब वजहें भी हैं. कहा जाता है कि उन्होंने न सिर्फ कुछ रक्षा सौदों में रिश्वत ली है बल्कि सेना प्रमुख के कार्यालय को नेता, ठेकेदार और नौकरशाहों की भ्रष्ट तिकड़ी का एक आश्रय स्थल बनाने के लिए भी वे ही जिम्मेदार हैं. ऐसा उन्होंने राजनीतिक हलकों में यह संकेत देकर किया कि उनके साथ ‘दूसरे काम’ करना भी सहज है. हालांकि कुछ विश्लेषक उनके पूर्ववर्ती एनसी विज को इस परंपरा की शुरुआत के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं.

सेना में रक्षा उपकरणों की खरीद में हमेशा ही आर्थिक भ्रष्टाचार के मौके रहे हैं. देश भर में सैन्य बलों के अधिकार क्षेत्र में कीमती जमीन भी है. पिछले कुछ सालों से रिहायशी जमीन की कीमत में अचानक तेजी आने के बाद रियल एस्टेट माफिया सेना की जमीनों पर नजर गड़ाए हुए हैं. इन माफियाओं को नेताओं का वरदहस्त भी प्राप्त है. आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला इसी की एक मिसाल है. सेना के अधिकारियों में इस घटना पर काफी रोष है. घोटाले पर दुख जाहिर करते हुए मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) जीडी बक्शी कहते हैं, ‘यह देखकर बहुत पीड़ा होती है.’ इस गगनचुंबी इमारत को जब महाराष्ट्र सरकार ने अनुमति दी थी तो 2003 में नौसेना की पश्चिमी कमान के कमांडर वाइस एडमिरल संजीव भसीन ने लिखित में इस पर आपत्ति जताई थी. उनका कहना था कि इमारत की ऊंचाई से नजदीकी नौसेना अड्डे की सुरक्षा को खतरा है. भसीन ने इस मामले में शामिल प्रोमोटरों और अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की भी मांग की थी.

कपूर और विज दोनों कहते हैं कि उन्हें जानकारी नहीं थी कि आदर्श सोसायटी के फ्लैट कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए जवानों के परिवारों को आवंटित होने हैं. मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एससीएन जटार कहते हैं, ‘ सेना का एक वरिष्ठ अधिकारी कह रहा है कि उसे जानकारी नहीं कि फ्लैट शहीद हुए जवानों की विधवाओं के लिए हैं? यह बकवास है. यदि ऐसा है तो वे अपने पद पर रहने लायक ही नहीं थे.’

जटार का गुस्सा बेवजह नहीं है. इस बात की पुष्टि तथ्य भी करते हैं. कपूर ने 2005 में जब सोसायटी के फ्लैट के लिए आवेदन किया था तब पात्रता नियमों के मुताबिक आवेदक के लिए यह अनिवार्य था कि वह पिछले 15 सालों से मुंबई में रह रहा हो. शर्त का तोड़ खोजने के लिए उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को पत्र लिखा. देशमुख ने उनके लिए एक मूलनिवास प्रमाण पत्र बनवा दिया. आवेदन के साथ कपूर की सैलरी स्लिप भी जमा हुई थी. इसमें उनकी मासिक आय मात्र 23 हजार 450 रुपए दर्ज थी. आज वे खुद इस बात पर हैरानी जताते हैं कि सैलरी स्लिप में यह आंकड़ा कैसे आ सकता है.

कपूर के भ्रष्टाचार में शामिल होने को लेकर कुछ तथ्य तब भी सामने आए थे जब पिछले अगस्त तृणमूल कांग्रेस की सांसद अंबिका बनर्जी ने रक्षा मंत्री को एक पत्र लिखकर सूचना दी थी कि पूर्व सेना प्रमुख ने आय से अधिक संपत्ति जमा की है. इस पत्र के मुताबिक कपूर के पास एक फ्लैट द्वारका के सेक्टर 29, तीन फ्लैट गुड़गांव के सेक्टर 23, एक फ्लैट गुड़गांव के सेक्टर 42/44, एक फ्लैट गुड़गांव के फेज 3 और एक घर मुंबई के लोखंडवाला में है. इस घटना के बाद कपूर ने एके एंटनी से मिलकर इन सभी आरोपों का खंडन किया था.

सेना के एक पूर्व मुखिया पर एक के बाद एक लगातार आरोप लगने से पूर्व थलसेना प्रमुख वीपी मलिक स्तब्ध हैं. वे कहते हैं, ‘जहां तक भ्रष्टाचार की बात है तो इस हालिया घोटाले ने सेना का अब तक का सबसे बड़ा नुकसान किया है.’

एक मामला सुखना भूमि घोटाले से भी संबंधित है. कहा जाता है कि इस मामले में दीपक कपूर ने आरोपित लेफ्टिनेंट जनरल अवधेश प्रकाश के प्रति नरमी बरतने की कोशिश की थी. प्रकाश उस समय सेना प्रमुख के सैन्य सचिव थे. यह मामला दार्जिलिंग के सुखना में तैनात सेना की 33वीं कोर से जुड़ा है. यहां एक निजी शिक्षा संस्थान, गीतांजली एजुकेशनल ट्रस्ट को कोर की तरफ से 70 एकड़ जमीन खरीदने की अनुमति दी गई थी. जांच बताती है कि लेफ्टिनेंट जनरल रथ, लेफ्टिनेंट जनरल हलगली और प्रकाश सहित सेना के कई वरिष्ठ अधिकारियों ने एक बिल्डर को फायदा पहुंचाने की गरज से जमीन खरीद की अनुमति दी थी. सुखना घोटाले की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि रथ जल्दी ही उप थल सेना प्रमुख बनने वाले थे और प्रकाश सेना प्रमुख के आठ सैन्य सचिवों में से एक थे. इस पद पर रहते हुए उनके पास पदोन्नति और पोस्टिंग जैसे अधिकार होते थे. वर्तमान थल सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह उस समय पूर्वी कमान जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ (जीओसी-सी) थे और इन चारों अधिकारियों के खिलाफ गठित कोर्ट ऑफ इंक्वायरी (सीओआई) के मुखिया भी. सीओआई ने जांच के बाद अधिकारियों को दोषी पाया था और प्रकाश को नौकरी से बेदखल करने की सिफारिश की थी. लेकिन इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए कपूर ने सिफारिश की कि प्रकाश के खिलाफ सिर्फ प्रशासनिक कार्रवाई होनी चाहिए. इसके बाद मामले ने तूल पकड़ लिया और खुद रक्षा मंत्री एके एंटनी को सेना प्रमुख को पत्र लिखकर कोर्ट मार्शल की कार्रवाई आगे बढ़ाने के लिए कहना पड़ा.

कपूर के भ्रष्टाचार से जुड़े होने की कहानी और पीछे तक भी जाती है. 2006 में ऑर्डनेंस कोर के मेजर जनरल मल्होत्रा ने 16 करोड़ रुपए की लागत से टेंट खरीदने का एक प्रस्ताव दिया था. इसमें कहा गया था कि टेंटों की भारी कमी को देखते हुए सेना के एरिया कमांडर के विशेष वित्तीय अधिकारों का इस्तेमाल करके टेंट खरीदे जाने चाहिए. इसके बाद यह फाइल उत्तरी कमान के मेजर जनरल, जनरल स्टाफ (एमजीजीएस) के पास गई. उनकी इस फाइल पर टिप्पणी थी, ‘क्या हम थलसेना के विशेष वित्तीय अधिकारों का इस्तेमाल उन टेंटों को खरीदने के लिए करने वाले हैं जिनकी आपूर्ति ऑर्डनेंस विभाग से होनी चाहिए?’ इस सारे घटनाक्रम से जुड़ी सबसे हैरानी की बात यह है कि प्रस्ताव पर सहमति न मिलने के तीन महीने बाद भी मल्होत्रा ने दोबारा प्रस्ताव बनाकर भेजा कि टेंटों की कमी से सैनिकों को भारी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. इस बार एमजीजीएस ने फाइल चुपचाप आगे बढ़ा दी. कपूर भी इस प्रस्ताव पर सहमत थे.

कुछ समय बाद कपूर थल सेना मुख्यालय में बतौर उप-थल सेना प्रमुख नियुक्त हो गए और उनकी जगह लैफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग उत्तरी कमान के कमांडर नियुक्त हुए. पनाग को अज्ञात स्रोत से टेंट घोटाले के बारे में जानकारी मिली. जांच में पाया गया कि टेंट खरीदने की जरूरत ही नहीं थी. मामले पर कार्रवाई के लिए मेजर जनरल सप्रु के अधीन कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का गठन हुआ और पाया गया कि मल्होत्रा ने 1.6 करोड़ रुपए का घोटाला किया है. इसके बाद पनाग ने एक आदेश जारी किया जिसके तहत मल्होत्रा की भविष्य में होने वाली पदोन्नतियों पर रोक लगनी थी.

लेकिन पनाग को इस बात का कतई अंदाजा नहीं था कि अनजाने में उन्होंने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है. तब तक कपूर सेना प्रमुख बन चुके थे और उन्होंने पनाग के दो साल के कार्यकाल के मध्य में ही उनका स्थानांतरण मध्य कमान में कर दिया. पनाग इस मसले पर कपूर से मिले, लेकिन उनसे कहा गया कि यह सेना प्रमुख का विशेषाधिकार है. इस पर पनाग एंटनी के पास गए. नाम न छापने की शर्त पर सेना के एक सेवानिवृत्त अधिकारी कहते हैं, ‘यह साफ था कि कपूर को उनसे परेशानी थी लेकिन एंटनी के सामने सेना प्रमुख और कमांडर में से किसी एक को चुनने का विकल्प मिला तो उन्होंने सेना प्रमुख को तरजीह देना बेहतर समझा.’

किसी सेना कमांडर के बीच कार्यकाल में उसका स्थानांतरण बेहद असामान्य माना जाता है. कहा जाता है कि इस घटना ने सेना में असंतोष पैदा कर दिया था. इन घटनाओं के अलावा मार्च, 2007 में जब नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट आई तो उसमें भी आरोप लगाया गया था कि उत्तरी कमान के कमांडर ने सेना की परिचालन संबंधी जरूरतें पूरी करने के लिए अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग किया था.

इन सभी सवालों पर प्रतिक्रिया लेने के लिए तहलका ने कपूर से कई बार संपर्क करने की कोशिश की. पांचवीं कॉल पर, उन्होंने बात तो की लेकिन अपने ऊपर लगे आरोपों के बारे में जवाब देने से साफ मना कर दिया. उनका कहना था, ‘बाहर बहुत-सी बातें चल रही हैं और मैं उन पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता.’

सेना जैसे अतिप्रतिष्ठित संस्थान, जहां 2002-03 तक मेजर जनरल के ओहदे वाले अफसरों के कोर्ट मार्शल के बारे में सोच पाना भी बेहद दुर्लभ हुआ करता था, में 2010 तक कई पूर्व जनरलों के नाम घोटालों में सामने आ चुके हैं. यदि पिछले पांच साल के दौरान मीडिया की सुर्खी बनी रही इन खबरों को छोड़ दें तो भी सेना के लगभग हर विभाग में कई और घोटाले भी होते रहे हैं. चाहे वह आपूर्ति विभाग हो या सेना आयुध उत्पादन विभाग, ऊंचे ओहदे पर आसीन अफसर पैसों के हेर-फेर में लगे रहे :

• 2006 में एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी ने मेजर जनरल इकबाल सिंह मुलतानी, चार ब्रिगेडियरों और सात दूसरे अफसरों को सैन्य कोटे के लिए आवंटित शराब को खुले बाजार में बेचने का दोषी ठहराया था

• 2006 में जम्मू और कश्मीर में तैनात सैनिकों के लिए ‘सूखी खाद्य सामग्री की कुछ विशेष चीजों’ की सरकारी खरीद में भारी अनियमितताओं के लिए लेफ्टिनेंट जनरल सुरेंद्र कुमार साहनी, दो ब्रिगेडियरों और आठ दूसरे अफसरों को दोषी पाया गया था

• 2007 में एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी ने लेफ्टिनेंट जनरल एसके दहिया, ब्रिगेडियर डीवीएस विश्नोई और तीन दूसरे अफसरों पर लद्दाख में तैनात जवानों के लिए फ्रोजेन मीट के ठेके में कथित रूप से अनियमितता बरतने का आरोप लगाया था.

• 2009 में 41 अफसरों को उनके नॉन सर्विस पैटर्न हथियारों (जो हर एक सैनिक को निजी तौर पर दिए जाते हैं और इन्हें सैनिक सेवानिवृत्ति के बाद वापस कर सकता है या सेना की अनुमति के बाद अपने पास ही रख सकता है) को निजी इस्तेमाल के लिए चोर बाजार में बेचने का दोषी पाया गया था.

आखिर ऐसा क्या था जिसने इतने कम समय में इन वरिष्ठ अधिकारियों को भ्रष्टाचार की सीमाएं तक लांघने को प्रेरित किया? सेवानिवृत्त हो चुके मेजर जनरल अफसर करीम के अनुसार, ‘इस तरह की चीजें तभी मुमकिन हैं जब शीर्ष नेतृत्व कमजोर और भ्रष्ट हो. सब अपने ऊपर के अधिकारी को देखते हैं. अगर वह ईमानदार है तो नीचे वालों की कुछ गलत करने की हिम्मत नहीं होगी. लेकिन ऊपर बैठा अफसर ही अगर ईमानदार न हो, भ्रष्टाचार में लिप्त हो तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता. इसलिए चाहे युद्ध हो या शांति, ऐसे अफसर सेना के लायक नहीं है. वे एक-दूसरे की मदद करते हैं, ऊपर वाले नीचे वालों को प्रोमोशन दिलवाते हैं, तमगे दिलवाते हैं और इस वजह से इन सबकी जांच नहीं हो पाती और भ्रष्ट अफसरों का एक बहुत बड़ा जाल तैयार हो जाता है.’

सेना के कई वरिष्ठ लोग मानते हैं कि एक जनरल तब भ्रष्ट नहीं बनता जब उसे वह ओहदा मिल जाता है. बुनियादी सवाल यह है कि आखिर एक अधिकारी जो भ्रष्ट है, उस ओहदे तक पहुंचता कैसे है ?

दरअसल, सेना में पदोन्नति की नीति में कुछ बुनियादी गड़बड़ी है. अधिकारी के आगे बढ़ने की संभावना ज्यादातर सेना और राजनीति में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों की मरजी और पसंद पर आधारित होती है. करीम कहते हैं, ‘जो ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ है उसे आगे बढ़ने के मौके तब ही मिल पाते हैं जब तक कि ऊपर बैठे अधिकारी उसे नोटिस न करें या सरकार इसमें कोई भूमिका न निभाए. अगर आप चालाक और बेईमान हैं तो आपके पास आगे बढ़ने के मौके उनसे ज्यादा हैं. सरकार आम तौर पर उसकी हां में हां मिलाने वाले को बड़े ओहदे पर पहुंचाना चाहती है और जिस आदमी के पास छिपाने को बहुत-कुछ है वह हमेशा जी हुजूरी करता है.’ सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी तहलका के इस संदेह की पुष्टि करते हैं कि आदर्श और सुखना भूमि घोटाले तो जमीन में छिपे एक विशाल बरगद की फुनगी भर हैं. वे कहते हैं, ‘असली घोटाले तो सरकारी खरीद में होते हैं. इसमें पहले आता है सेना का आपूर्ति विभाग. हमारे पास कुल 13 लाख जवान हैं. अब अगर हम एक जवान के खाने पर 50 रुपए भी खर्च करें तो बजट 6.5 करोड़ पहुंच जाएगा. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि प्रोक्योरमेंट डिपार्टमेंट में कितना पैसा है और यहां हेर-फेर की कितनी गुंजाइश होती है.’

इसके बाद सैनिकों के लिए मोजे से लेकर हथियारों तक की आपूर्ति करने वाला आयुध उत्पादन विभाग आता है. इसका सालाना बजट 8,000-10,000 करोड़ रुपए है. 2009 में इस विभाग के पास कोई प्रमुख नहीं था क्योंकि इस पद के काबिल तीनों अफसरों पर रिश्वत लेने के आरोप थे. मेजर जनरल एके कपूर (आरोपपत्र के अनुसार) जब 1971 में सेना में शामिल हुए थे तो उनके पास कुल 41,000 रुपए थे. 2007 में अब उनके पास 5.5 करोड़ की अचल संपत्ति है, दिल्ली, गुड़गांव, शिमला और गोआ में कुल 13 अचल संपत्तियां हैं.

कॉलेज ऑफ मेटेरियल मैनेजमेंट, जबलपुर के ऑफिसिएटिंग कमांडेंट रहे मेजर जनरल अनिल स्वरूप को भी संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियान में भेजी गई यूनिट के लिए की गई सरकारी खरीद में अनियमितता बरतने का दोषी पाया गया था. उन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले की तर्ज पर कीमतें बढ़ा-चढ़ाकर लिखीं- जो जेनरेटर बाजार में 7 लाख रुपए में उपलब्ध हैं, उन्हें 15 लाख में खरीदा गया, जो केबल 300 में मिल सकते हैं उन्हें 2,000 रुपए में खरीदा गया. लगभग 100 करोड़ रु की यह लूट 2006 से 2008 तक जारी रही.

आपूर्ति और आयुध विभाग के बाद बारी आती है मिलिटरी इंजीनियरिंग सर्विस की. यह थल सेना के अलावा वायु और जल सेना के लिए भी काम करती है. इसका सालाना निर्माण बजट कम-से-कम 10,000 से 12,000 करोड़ रु है. इस बजट का 10 प्रतिशत कमीशन के रूप में ‘वैध’ माना जाता है. इस तरह के सारे घोटाले बिना रक्षा मंत्रालय और वित्तमंत्रालय के कर्मचारियों की सांठ-गांठ के नहीं हो सकते.

अगर सेना में भ्रष्टाचार का खेल इसी निर्लज्जता से चलता रहा तो सेना का मनोबल और साथ ही देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी. मेजर जनरल जीडी बख्शी बताते हैं, ‘सैन्य नेतृत्व प्रेरणादायी होना चाहिए. मैं एक जवान से यह नहीं कह सकता कि मैं तुम्हें 5,000 रुपए बोनस दूंगा, सीमा पर जाओ और मरो. लेकिन वह अपनी 5,000 की सैलरी में ही लड़ने और मरने को तैयार रहता है क्योंकि यह उसके देश, उसकी यूनिट के सम्मान से जुड़ा है.’ सेना के एक बड़े अधिकारी आगे जोड़ते हैं, ‘अगर आप सरकारी खरीद विभाग या छोटी-मोटी घटनाओं को छोड़ दें तो कर्नल के नीचे रैंक वाले अफसरों में भ्रष्टाचार नहीं है, जैसे-जैसे लोग स्वतंत्र और शक्तिशाली होने लगते हैं, उनकी उठ-बैठ अपने बॉसों के साथ होने लगती है. यही वह वक्त होता है जब इस दलदल में उनके पैर धंसने शुरू हो जाते हैं..’

बहुत सारे अफसरों का मानना है कि सेना में आई इस सड़न से निपटा जा सकता है, लेकिन इसके लिए सेना को सभी दोषियों के साथ सख्ती बरतनी होगी. सुखना भूमि घोटाले की तरह. मेजर जनरल जटार कहते हैं, ‘मेरे हिसाब से इन सबके ओहदे छीन लिए जाने चाहिए. वे इस लायक नहीं कि उन्हें जनरल या पूर्व थल या जल सेना-प्रमुख कहकर पुकारा जाए. निचले ओहदे वाले अधिकारी को जरूर दिखना चाहिए कि पूर्व सेना-प्रमुखों तक को नहीं बख्शा गया है.’

इस महामारी को जड़ से मिटाने के बारे में सेना के वर्तमान और सेवानिवृत सैन्य अधिकारी एकराय हैं कि इस दिशा में कड़े कदम उठाने की जरूरत है. अगर टोकरी में रखे सेबों में से कुछ सड़ जाएं तो उन्हें हटाकर बाहर फेंक देना चाहिए वरना बाकी के भी सड़ जाने का डर होता है.

बदलें सोच के सांचे

चाहे राहत हो या पुनर्वास या फिर विकास…उत्तराखंड में इन सभी मुद्दों को एक नई रोशनी में और समग्र सोच के साथ देखे जाने की जरूरत है, बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू 

घर-घर में बिजली, पक्की टाइल्स बिछी गलियां, सीमेंट के मजबूत खड़ंजे, गलियों में स्ट्रीट लाइट के खंभे, सिंचाई के लिए मजबूत नहरें, पीने के पानी के लिए जलसंस्थान की पक्की लाइन, सीवर लाइन से जुड़े शौचालय, मुख्य मोटर मार्ग तक पहुंचने के लिए बढ़िया सड़क, बच्चों के लिए स्कूल और 500 लोगों के बैठ सकने लायक एक खूबसूरत ऑडिटोरियम

6,000 फुट से अधिक ऊंचाई पर बसे उत्तराखंड के एक दूरदराज के गांव रैथल में यह सब चीजें एक साथ मौजूद हैं और वह भी उपयोग करने लायक सही-सलामत हालत में. उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से गंगोत्री की ओर 45 किलोमीटर की दूरी पर बसे रैथल गांव में लगभग 200 परिवार रहते हैं और इस गांव की कुल आबादी 1,200 से अधिक है. रैथल उत्तराखंड का एक ऐसा गांव है जहां से हाल के वर्षों में कोई पलायन नहीं हुआ, उल्टे बाहर से लोग आकर वहां बस रहे हैं.

इस गांव में हो रहे इस चमत्कार की कहानी आज के जमाने में अविश्वसनीय-सी लगती है, लेकिन इसका मूलमंत्र है विकास के लिए आए धन का शत-प्रतिशत सदुपयोग और इसमें बरती जाने वाली पारदर्शिता. 1970 में अध्यापकी छोड़कर ग्राम प्रधान बने चंदन सिंह राणा ने जब पद संभाला तभी तय कर लिया कि गांव के लिए मिलने वाली एक-एक पाई का सही-सही इस्तेमाल करेंगे. एक पैसा भी बर्बाद नहीं होने देंगे. घूस और भ्रष्टाचार बिलकुल बंद.

यह काम लीक से हटकर था इसलिए उन्हें दिक्कतें भी कम नहीं आईं. अधिकारियों-अभियंताओं के कमीशन और ठेकेदारों की अंधेरगर्दी से निपटना आसान नहीं था. लेकिन उन्होंने सारे गांव को साथ लेकर एलान कर दिया कि इस गांव में यह सब बिलकुल नहीं चलेगा. कोई योजना गांव में आती तो पूरे गांव को उसकी जानकारी दी जाती, सबका हानि-लाभ देखकर उसका क्रियान्वयन होता और ठेकेदारों के एक-एक काम पर गांववालों की निगरानी रहती. कई बार नियमानुसार न हुए काम या घटिया निर्माण को तोड़ा भी गया. धीरे-धीरे एक नजीर-सी बनती चली गई. 18 वर्ष तक प्रधान रहने के बाद राणा तो ब्लॉक प्रमुख बन गए मगर गांव में उनकी स्थापित की हुई परंपरा आज तक बरकरार है. विश्व प्रसिद्व दयारा बुग्याल का आधार गांव होने के कारण इस गांव को पर्यटन योजनाओं के लिए भी पैसा मिला है और आज तक गांव में विकास कार्यों के लिए लगभग पांच करोड़ से अधिक की राशि यहां खर्च की जा चुकी है और यह सारा पैसा वास्तविक रूप से योजनाओं के काम में खर्च हुआ है. इनसे स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिला और आज वे इनका उपयोग भी कर रहे हैं. उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय तो अब इस गांव के विकास को आधार बनाकर ग्राम्य विकास का एक पाठ्यक्रम भी शुरू करने जा रहा है.

यहां इस गांव का जिक्र इसलिए कि चंदन सिंह राणा और उनके रैथल गांव का उदाहरण सितंबर में आपदा की बारिश से तबाह हुए उत्तराखंड के लिए आज एक मॉडल बन सकता है. प्राकृतिक आपदा के बाद अब उत्तराखंड में पुनर्निर्माण का दौर शुरू हो चुका है. राज्य सरकार केंद्र से 21,000 करोड़ रु का आपदा राहत पैकेज मांग चुकी है. कुछ रकम उसे मिल भी गई है और कुछ आने वाली है. हालांकि इस मांग को लेकर तरह-तरह के विवाद भी हैं. विपक्ष का आरोप है कि यह रकम जमीनी हकीकत को जाने बिना, बढ़ा-चढ़ाकर मांगी जा रही है. राज्य सरकार कहती है जितनी क्षति हुई है उससे यह मांग कहीं कम है और इन दोनों के बीच आपदा से जूझ रहे आम आदमी के हाथ अब भी खाली ही हैं.

बहरहाल इस विवाद से इतर, यह तो तय ही है कि उत्तराखंड में आपदा राहत के लिए करोड़ों रु. केंद्र से आएंगे और यह रकम पुनर्निर्माण कार्यों मंे खर्च भी होगी ही. लेकिन आपदा राहत की इस भारी-भरकम रकम पर आंख गड़ाए बैठी भ्रष्ट अधिकारी-राजनेता और ठेकेदारों की तिकड़ी से इस रकम को बचाकर सही मायनों में पुनर्निर्माण कार्यों पर खर्च कर पाना एक बड़ी चुनौती है. वर्तमान में आदर्श स्थितियों में भी इस रकम का 30 से 40 फीसदी हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ना तय है.

ऐसे में क्या उपाय बचता है? क्या रैथल मॉडल एक उदाहरण बन सकता है? राज्य के आपदा राहत और पनर्वास महकमे से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘रैथल मॉडल एक रास्ता हो सकता है, खास तौर पर ऐसे पुनर्निर्माण कार्यों में जहां पैसे का इस्तेमाल किसी विशेष इलाके या गांव के लिए किया जाना है. सड़क आदि पुनर्निर्माण कार्यों में सरकार योजना पर निगरानी रखने के लिए खुद जन निरीक्षक तैनात कर सकती है.’

बहरहाल, राज्य सरकार रैथल को उदाहरण बनाए या न बनाए मगर यह तय है कि आपदा राहत की रकम का उपयोग उत्तराखंड में 2012 के चुुनाव का परिणाम तय करने मंे महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और उत्तराखंड की मौजूदा सरकार को अपनी कुर्सी बचाए रखने का प्रयास करने के लिए राहत पैकेज का शत प्रतिशत पारदर्शी सदुपयोग सुनिश्चित करना ही होगा.

लेकिन राहत पैकेज केे सदुपयोग से भी पीड़ितों के जख्म पूरी तरह भरने संभव नहीं. इसका कारण यह है कि राहत के मानकों के केंद्र में पीड़ित लोग हैं ही नहीं. राज्य सरकार ने केंद्र से जो राहत मांगी है उसमें आपदा से क्षतिग्रस्त हुए 2,356 स्कूलों के लिए तो प्रति स्कूल 15 लाख रु मांगे गए हैं, जबकि अपने नागरिकों को वह किसी भी स्थिति में प्रति भवन 50 हजार रु से अधिक दे नहीं सकती क्योंकि मानक ही इस तरह के बने हुए हैं. जाहिर है कि आपदा राहत के ये मानक बेहद पुराने हैं और उनके निर्धारण में उत्तराखंड की विशेष भौगोलिक परिस्थितियों को कतई ध्यान में नहीं रखा गया है. इन मानकों को बदले जाने की आवश्यकता है, मगर इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा. सरकार में शामिल उत्तराखंड क्रांतिदल के युवा विधायक पुष्पेंद्र त्रिपाठी भी यह बात मानते हुए कहते हैं, ‘आपदा राहत के मानक बहुत पुराने हैं. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इन्हें जिस तरह बदलवाया जाना चाहिए था वह हो नहीं पाया है. पटवारी गांवों में जाकर गाइड लाइन की परिभाषाओं के मुताबिक भवनों की क्षति को आंशिक, पूर्ण और तीक्ष्ण इन तीन श्रेणियों में रखकर मुआवजा तय कर देते हैं. यह बेतुकी बात है. इसमें नियमों और गाइड लाइन से अधिक, मानवीय दृष्टिकोण पर ध्यान दिया जाना चाहिए. घरों की क्षति के लिए नया मानक होना चाहिए, जिसमें साफ-साफ दो श्रेणियां हों. रहने योग्य और रहने के अयोग्य. इसी आधार पर मुआवजा भी तय होना चाहिए.’

राहत पैकेज और पुनर्वास के मायने भी बेमानी हैं. उत्तराखंड के तीन सीमांत जिले चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ भूगर्भीय दृष्टिकोण से अस्थिर क्षेत्र में हैं. ताजा आपदा ने 200 से अधिक पर्वतीय गांवों को खतरनाक बना दिया है. इनका पुनर्वास होना है जो एक विकट समस्या है. राज्य के वरिष्ठ मंत्री प्रकाश पंत भी मानते हैं कि यह समस्या बहुत विकराल है. वे कहते हैं, ‘पहाड़ी क्षेत्रों में ही 200 से अधिक गांवों का अस्तित्व खतरे में है. इन सभी का भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण होना है, पुनर्स्थापन होना है और इस पुनर्स्थापन का अर्थ यह नहीं है कि उन्हें सिर्फ नए घर बनाकर दे दिए जाएं. समूचे ग्रामीण परिवेश को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना बड़ी टेढ़ी खीर है. इसके लिए बड़ी रकम की भी जरूरत है और भूमि की भी. तराई क्षेत्र में जमीन है नहीं. राज्य के वन क्षेत्र में से 22 फीसदी वन विहीन भूमि का भूउपयोग बदलकर अगर केंद्र सरकार प्रभावित गांवों को बसाने की अनुमति दे दे तो यह एक समाधान हो सकता है. लेकिन इसके लिए भी पैसे की जरूरत कम नहीं होगी.’

राज्य सरकार ने आपदा राहत में 233 गांवों को खतरनाक घोषित करके उनके पुनर्वास के लिए 12,000 करोड़ की रकम मांगी है. प्रति परिवार 38 लाख रु खर्च किए जाने की योजना है. लेकिन फिलहाल तो आपदा पीड़ितों के हाथों में दो-ढाई हजार रु ही पहुंच पाए हैं और पुनर्वास भी उनके लिए अब तक एक दिवास्वप्न ही साबित हो रहा है. हालांकि उत्तराखंड में अब हर ओर यह मांग जोर पकड़ रही है कि हिमालय क्षेत्र की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए राष्ट्रीय आपदा कोष को ऐसे इलाकों के लिए भवन, भूमि और जीवन के मुआवजे की रकम पर पुनर्विचार करके उसे बढ़ाना चाहिए और हिमालयी राज्यों के लिए आपदा राहत के नए मानक भी बनाने चाहिए.

सितंबर की आपदा ने एक बार फिर हमें हिमालय के मिजाज को समझने की चेतावनी दे दी है. प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा कहते हैं, ‘आज भारत ही नहीं समूचा विश्व हिमालय की रक्षा की बात कर रहा है और हिमालय तभी बचेगा जब उसको बचाने वाले स्थानीय लोगों को बचाया जाएगा.’ आज उत्तराखंड में लगभग 500 से ज्यादा छोटी-बड़ी पनबिजली परियोजनाएं निर्माणाधीन अथवा विचाराधीन हैं. बड़े पैमाने पर पहाड़ों में भूमिगत सुरंगें बनाए बिना यह पूरी नहीं हो सकतीं. यह बेहद खतरनाक काम है. इनमें से ज्यादातर योजनाओं के लिए पर्याप्त तकनीकी अध्ययन तक नहीं किया गया है. 500 करोड़ रु फूंक देने के बाद बंद की गई लोहारीनाग-पाला परियोजना इसका एक उदाहरण है.

हिमालय के पानी से चलने वाली इन सभी योजनाओं पर ग्लेशियरों के बदलते मिजाज से खुद-ब-खुद सवालिया निशान लग रहे हैं. रुड़की के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक मनोहर अरोरा ने अपने ताजा शोघ पत्र ‘वाटर रिसोर्सेज पोटेंशियल ऑफ हिमालय ऐंड पॉसिबल इम्पेक्ट ऑन क्लाइमेट’ में कहा है कि पिछले 10 वर्षों में हिमालय के 67 फीसदी ग्लेशियर सिकुड़ गए हैं. साथ ही ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण धरती का तापमान भी 0.75 सेटीग्रेड बढ़ गया है. अगले दो दशकों तक इसमें वृद्वि जारी रहेगी. अरोरा का निष्कर्ष है कि इस वृद्धि के कारण हिमालय में मौजूद ग्लेशियरों के पिघलने की गति और भी तेज हो जाएगी. जाहिर है कि इस तरह के शोध निष्कर्ष हिमालय में बड़े बांधों के औचित्य पर ही सवाल खड़े कर देते हैं. ऐसे में केंद्र सरकार और योजना आयोग को भी उत्तराखंड और दूसरे हिमालयी राज्यों के बारे में संवेदनशील, व्यापक और समग्र विकासनीति बनाने की पहल करनी चाहिए.

बांध और बिजली का सवाल सिर्फ उत्तराखंड के लोगों का ही सवाल नहीं है. यह सिर्फ पहाड़ या पर्यावरण का सवाल भी नहीं है. यह सवाल समूचे हिमालय के अस्तित्व का सवाल है और हिमालय के अस्तित्व पर पूरे देश का भविष्य निर्भर है. हिमालय का सवाल वैश्विक सवाल है क्योंकि हिमालय से होने वाली छेड़छाड़ पूरी दुनिया के पर्यावरण और ईकोसिस्टम को बदल सकती है. इसलिए इस सवाल को आज किसी युद्ध जैसी आपातस्थिति मानकर इसी नजरिए से इसका समाधान खोजा जाना चाहिए.

'अफराद-ए-किस्सा जैसे हैं वैसे दिखाई दें…'

शहरयार, फिल्म उमराव जान के अपने गीतों के लिए पहचाने जाते हैं लेकिन वे उर्दू के एक महत्वपूर्ण शायर भी हैं. उनकी शायरी में एक बेचैन समाज सवालों के एक लंबे सिलसिले के साथ मौजूद होता है. हाल ही में उन्हें प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ सम्मान देने की घोषणा हुई है. पेश है उनसे रेयाज उल हक की बातचीत के मुख्य अंशः 

ज्ञानपीठ मिलने के बाद अपनी जिंदगी में क्या बदलाव महसूस कर रहे हैं?

यह सम्मान पाने के बाद मुझे उसी तरह खुशी हुई जैसे एक साधारण आदमी को होनी चाहिए. मेरी जिंदगी में वैसे तो ज्ञानपीठ के बाद कोई तब्दीली नहीं आई है लेकिन बहुत-सी चीजों को लोग दूसरों के कहने से मानते हैं. कुछ लोग जो मेरे बारे में पूर्वाग्रह रखते थे उन्हें भी अब लगा है कि मैं अहम चीज हूं.

आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?

मेरी जिंदगी शुरू में बड़ी शायरी-विरोधी थी. मैं हॉकी खेलता था. सिनेमा देखता था. फिर एक घटना घटी मेरी जिंदगी में कि मुझे घर छोड़ना पड़ा. फिर मेरी दोस्ती आलोचक खलीलुर्रहमान आजमी के साथ हुई, मैं उनके साथ रहा और फिर मैंने शायरी शुरू की. हालांकि आज भी मैं शायरी की तकनीक से वाकिफ नहीं हूं. 1958 से मैंने लिखना शुरू किया था. 1960 के दशक में देश में बहुत कुछ हो रहा था. लोग पुरानी चीजों से ऊब चुके थे. वे कुछ नया चाहते थे. लोगों को मेरी शायरी पसंद आई. मेरे जीवन में कुछ भी पहले से तय नहीं रहा. बिना किसी योजना के चीजें घटती गईं. मैंने पहले साइकोलॉजी से एमए ज्वाइन किया था. फिर उर्दू में दाखिला लिया. तब मुझे लगा कि अब इसमें ही कैरियर बनाना है. मैं हालांकि मार्क्सवादी हूं लेकिन ऐसी ताकत में भी यकीन है जो मेरे जीवन को गाइड करती है. मैं सिनेमा में जाऊंगा, टीचर बनूंगा यह सब कभी नहीं सोचा था. लेकिन जब यह सब हासिल हुआ तो कोशिश की कि मैं सबसे अलग कुछ करूं. इत्तेफाक से फिल्मों की मकबूलियत से मेरी तरफ लोगों का ध्यान गया. मैं अपने अदब (साहित्य) की वजह से फिल्मों में गया था और लोग फिल्मों की वजह से मुझे जानकर मेरी शायरी की तरफ आए. कहा जाता है कि फिल्मों में जाकर लोग अपना स्तर खो देते हैं, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ. मैंने फिल्मों में जो कुछ भी लिखा उसमें भी वही गहराई है जो मेरी शायरी में है.

फिल्मों से जुड़ाव कैसे हुआ?

मुजफ्फर अली 1964 में अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी से बीएससी कर रहे थे. उस समय तक मेरा संग्रह आ चुका था. इसके आठ-दस साल बाद उनका एक खत आया कि वे एक फिल्म बना रहे हैं गमन, जिसमें वे मेरी दो गजलों का इस्तेमाल करना चाहते हैं. गमन के बाद जब वे उमराव जान बना रहे थे तो उसमें फिल्म की पटकथा के लिहाज से गीत लिखे गए, लेकिन वे भी फिल्मी नहीं थे. इसके बाद भी कई फिल्मों के लिए लिखा.

आपने फिल्मों के लिए भी लिखा और शायरी भी की. अपनी किस भूमिका को ज्यादा पसंद करते हैं?

पहले मुझे अच्छा नहीं लगता था कि लोग मुझे सिर्फ फिल्मों की वजह से जानें. लेकिन फिर लगा कि यह अच्छा ही है कि लोगों में उनकी वजह से मेरी चाहत पैदा हुई. फिर यह भी बात है कि अपनी तरफ से मैंने फिल्मों के लिए कुछ अलग से नहीं लिखा. मेरी कोशिश रहती है कि जो जैसा है वह हर हाल में वैसा ही दिखे –

अफराद-ए-किस्सा जैसे हैं वैसे दिखाई दें,

जाएल तमाशागाह में बीनाई क्यों न हो.

फिल्मों में लिखने और शायरी करने में बहुत फर्क नहीं है. अगर शायर दिए गए हालात को अपना ले और ठीक उसी ढंग से उसे जीने की कोशिश करे तो वह उन पर लिख सकता है.

आप अपनी शायरी के विषय कहां से हासिल करते हैं?

दुनिया से. मैं खुली आंख से दुनिया को देखता हूं और किसी हादसे से उतना ही प्रभावित होता हूं जितना वे लोग जिन पर हादसा गुजरा है. वैसे लिखने की प्रक्रिया रहस्यमय होती है. कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि वह जो चाहे जब चाहे लिख सकता है. रिटायर होने के बाद मैंने कम लिखा है और बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा है. हो सकता है कि मैं कुछ ऐसा लिखूं जो लोगों को हैरान कर दे, हालांकि मैं कोई दावा नहीं कर रहा. वैसे मैं कोशिश करता हूं कि अगर अच्छा न लिखूं तो अच्छा पढ़ूं.

' हमारी 108 ने दुनिया के सारे रिकार्ड तोड़े हैं '

नित्यानंद स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी, नारायण दत्त तिवारी और भुवन चंद्र खंडूड़ी के बाद डॉ रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ राज्य के पांचवें मुख्यमंत्री हैं. पिछले 10 सालों में ‘राज्य की दशा और दिशा’ पर उन्होंने मनोज रावत से बात की  

अलग राज्य बनने के बाद दस वर्षों का क्या अनुभव है?

मैं सोचता हूं कि इन वर्षों को राज्य के सुखद और आशाओं से भरे समय के रूप में देखा जा सकता है.

राज्य की माली हालत कैसी है? 

जिस दिन हमारा राज्य बना उस दिन राज्य की विकास दर 2.9 प्रतिशत थी; पिछले वर्ष हमारे राज्य की विकास दर 9.31 प्रतिशत रही. इस साल योजना आयोग ने उत्तराखंड को जीएसडीपी में देश का नंबर एक प्रदेश घोषित किया है. राज्य निर्माण के समय हमारे राज्य के लोगों की प्रतिवर्ष औसत आय 14300 रुपए थी. आज यह 42000 रुपए प्रतिवर्ष है. देश के इतिहास में केवल और केवल उत्तराखंड ही ऐसा राज्य है जिसने इतनी बड़ी छलांग लगाई है. कर राजस्व पहले 165 करोड़ रुपए आता था अब तीन हजार करोड़ रुपए आता है.

नौकरशाही तक पहुंच तो बहुत सुलभ हो गई है, लेकिन क्या प्रभावी भी हुई है?

हाल की भीषण आपदा ने सिद्ध किया कि यहां प्रभावी नौकरशाही है. हमने 35 हजार लोगों की जान बचाई.

प्रशासनिक सुधारों पर कुछ हुआ ? पंत कमेटी की रिपोर्ट का क्या हुआ?

मैं सोचता हूं कि पंत कमेटी तो दूसरे उद्देश्य के लिए थी लेकिन प्रशासनिक सुधार काफी हुआ है. गुंजाइश हमेशा बनी रहती है. नवोदित राज्य में हमें इसे और सशक्त बनाना है.

विभागों के पुनर्गठन का क्या हुआ? पहले एक ही काम को तीन विभाग करते थे, अभी भी वही हो रहा है.

हमने काफी कुछ ठीक किया है. हम यदि पुनर्गठन नहीं करते तो उत्तर प्रदेश में जितने निदेशालय थे, उतने यहां भी होते. जैसे-जैसे आवश्यकता होगी, पुनर्गठन करेंगे.

भूमि सुधार का क्या हुआ? अभी पहाड़ी क्षेत्र वर्ष 1893 के बेनाप कानून की मार झेल रहा है. 10 साल में भूमियों को वन भूमि के रूप में दर्ज करने वाला पीएल पुनिया का शासनादेश भी नहीं सुधारा गया है.

नहीं, वह एक्ट मेरे संज्ञान में है. हमने निर्णय लिया है कि पीएल पुनिया द्वारा 1997 में जारी शासनादेश पर भारत सरकार से बात करनी पड़ेगी. हमने पहले भी भारत सरकार को इस विषय में चिट्ठी लिखी थी.

कृषि क्षेत्र सिकुड़ रहा है. कृषि विकास की दर ऋणात्मक हो रही है. क्यों ?

कई क्षेत्रों में हम बहुत आगे बढे़ हैं. जब मैं पर्वतीय विकास मंत्री था तो एक-आध करोड़ का फूल उगता था. आज डेढ़ सौ करोड़ की फूलों की खेती होती है. हमारे मटर और टमाटर के सैकड़ों ट्रक दिल्ली तक जा रहे हैं. जहां कृषि उत्पादन नहीं है वहां उद्योग के क्षेत्र में आगे बढ़े हैं.

सेवा क्षेत्र को आगे बढ़ाने के लिए राज्य में क्या प्रयास हुए?

हम आईटी के क्षेत्र में तेजी से काम कर रहे हैं. बीच में मंदी के कारण थोड़ी कमी आई थी. आशा है कि हम इन सेक्टरांे में 50 हजार लोगों को रोजगार देंगे.

आप हमेशा पहाड़ के पानी और जवानी को रोकने की बात करते हैं, लेकिन पिछले पांच साल में पलायन और बढ़ा है.

असली आंकड़े देखें तो पिछले पांच साल में हमने पलायन को रोका है. हमारे नौजवान जो बाहर जाते थे, अब वे यहां मटर, टमाटर, सब्जी बो रहे हैं. हमने हजारों लोगों को रोजगार दिया. यदि ये राज्य नहीं बनता तो इन सब लोगों को बाहर ही जाना था. यदि औद्योगिक क्षेत्र नहीं बढ़ता तो जितने हजारों-हजार लोग यहां नौकरी में लगे हैं वे सब बाहर जाते.

पंचायत एक्ट अभी तक नहीं बन पाया है.

नहीं, राज्य का पंचायत एक्ट तो बना है .

जिला नियोजन समिति का गठन अभी तक नहीं हुआ है.

नहीं, डीपीसी का तो गठन हो चुका है.

नोटिफिकेशन तो नहीं जारी हुआ है.

कुछ सदस्य नामित होने थे उसमें कमी रही होगी, मुझे आशा है कि अधिसूचना जल्दी ही जारी हो जाएगी.

आप पत्रकार भी हैं. राज्य में प्रेस मान्यता समिति ही नहीं है.

ठीक बात है. प्रेस मान्यता समिति को जल्दी ही बनाया जाएगा.

हम ‘हिमालयी नीति’ की तो बात करते हैं, लेकिन राज्य में महत्वपूर्ण विभागों की नीतियां अभी तक नहीं बनी हैं.

छोटी नीतियां तो बनती रहती हैं. व्यापक हिमालय की नीति बनेगी तो वह गांव तक आएगी. जब हिमालयी नीति बनेेगी तो अंतिम गांव के व्यक्ति तक की बनेगी.

व्यक्तिगत उपलब्धियां.

हमने स्वास्थ्य के क्षेत्र में जमकर काम किया है. हमारी 108 (आपात एंबुलेंस सेवा) ने सारे रिकॉर्ड तोड़े हैं.

कुछ ऐसा जो होना था और नहीं हो पाया.

बिलकुल नहीं. सब चीजें समय पर होती हैं. हमारे मन में कोई कसक नहीं है. हमने विजन 2020 बनाया है. हम देश को उत्तराखंड के रूप में एक ऐसा गुलदस्ता देंगे कि उसको इस पर गौरव होगा.

क्या सोचा क्या पाया

 नौ नवंबर को उत्तराखंड राज्य दस साल का हो गया. दस साल की उम्र किसी राज्य का भविष्य तय करने के लिए काफी नहीं होती, पर ‘पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं’ वाली कहावत के हिसाब से देखा जाए तो उस भविष्य का अंदाजा लगाने के लिए इतना समय काफी होता है.

ये दस साल कैसे रहे यह जानने से पहले यह जानना जरूरी होगा कि अलग राज्य की जरुरत पड़ी क्यों थी. दरअसल, तब उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहे यहां के लोगों के मन में एक कसक थी कि काश उनकी भी एक विधानसभा होती जो यहां की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों आाैर जरुरतों के अनुसार कानून और विधान बनाती और उनके पारदर्शिता से क्रियान्वयन पर नजर रखती. लोगों को तब उत्तर प्रदेश में यह भी शिकायत थी कि योजनाओं का क्रियान्वयन करने वाले कर्मचारी भी यहां के नहीं हैं, इसलिए उनका यहां से लगाव ही नहीं है. उन सबसे ऊपर योजनाओं के लिए तब दृष्टि (विजन) ही नहीं थी. जिस राज में ये सब तत्व गायब थे तो उससे ‘विकास कार्यों के क्रियान्वयन और लोकहित के लिए समर्पण’ की आशा ही नहीं की जा सकती थी. आंदोलन का तात्कालिक कारण बना पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण जो उस समय पहाड़ी जिलों में 4 प्रतिशत भी नहीं थे. इन सभी कारणों से पहाड़ी जिलों के लोगों ने अलग राज्य की जरूरत महसूस की. जोरदार पृथक राज्य आंदोलन और बलिदानों के बाद उत्तराखंड राज्य मिला.

अब लोगों के पास अपना विधानमंडल था. नेता यहीं के थे और प्रशासकों पर उनकी अच्छी पकड़ होने की आशा थी. लोगों को लगा कि उनकी विधानसभा राज्य की जरूरतों के अनुसार कानून बनाएगी. मंत्रिमंडल द्वारा महत्वपूर्ण नीतियां बनेंगी, उनके हिसाब से शासन नियम बनाएगा और आखिर में संबंधित विभाग विधायिका द्वारा जनभावनाओं केअनुरूप बनी इन नीतियों, नियमों का क्रियान्वयन करेंेगे.

पर सपने आंखों में ही रह गए. इन 10 साल में राज्य के महत्वपूर्ण विभागों की नीतियां ही नहीं बन पाई हैं. इस दौरान न तो शिक्षा नीति बनी, न स्वास्थ्य नीति बनी और न ही राज्य की जल नीति है. राज्य का पंचायत ऐक्ट अभी तक नहीं आया तो डीपीसी के गठन न होने से राज्य के तीन जिलों को हर साल केंद्र से मिलने वाले 50 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है. यहां राज चलाने वालों को विकास करने के लिए अपना नियोजन तंत्र विकसित करने की पूरी आजादी थी, पर इसे विकसित करने की समझ और इच्छाशक्ति होती तो कुछ होता.

दरअसल, कहने को सब कुछ अपना होने के बावजूद दृष्टि (विजन) अब भी उधार ली हुई थी. इन 10 सालों में हुए कामों और निर्णयों को देखें तो यही समझ में आता है कि अंग्रेजों से लेकर संयुक्त प्रांत व उत्तर प्रदेश वाला दृष्टिकोण अभी भी नहीं बदला है. वांछित दृष्टि न होने से हम इस पर्वतीय राज्य की आवश्यकताओं और भावनाओं के अनुरूप न तो विधान बना सके और न ही उनका क्रियान्वयन तंत्र खड़ा कर सके. इसलिए यह कहा जा सकता है कि राज्य बनने का मूलभूत मकसद पूरा नहीं हो सका.

हर आंदोलन और भाषण में उत्तराखंड के जल, जंगल और जमीन की बात होती है. बात भी सच थी. जब तक राज्य में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप हम अपने मानव संसाधन का भला नहीं कर पाएंगे तब तक राज्य में आर्थिक विकास व खुशहाली का आना असंभव है. पानी उत्तराखंड का सबसे प्रमुख संसाधन है, परंतु राज्य में सबसे अधिक जल धारण करने वाले सीमांत जिले चमोली में कुल कृषि भूमि की छह प्रतिशत भूमि ही सिंचित भूमि है. कुमाऊं के पहाड़ी जिले चंपावत की भी केवल चार प्रतिशत भूमि सिंचित है. आज भी पूरे राज्य में सिंचित कृषि भूमि का औसत केवल 14 प्रतिशत है. राज्य में उपलब्ध जल संसाधनों का प्रयोग करके राज्य को ‘ऊर्जा प्रदेश’ बनाने के सपने भी शुरुआती सालों से ही खूब दिखाए गए. राज्य की सारी नदियां निजी कंपनियों को दी जाती रहीं. सरकारों ने कंपनियों के साथ ‘लोक सहभागिता’ को जोड़ने की कोशिश ही नहीं की. इसलिए आज हर नदी पर आंदोलन हो रहे हैं. परियोजनाओं के कारण घर-घर विवाद खड़े हो उठे हैं. निजी कंपनियां कर्ज लेकर जल विद्युत परियोजनाएं बना रही हैं और सरकारी सब्सिडियों का भरपूर सुख ले रही हैं जबकि राज्य का आम आदमी उनका मुंह ताक रहा है. कहने को तो ऊर्जा नीति के अनुसार पांच मेगावाट तक की परियोजनाओं को स्थानीय निवासी बना सकते हैं, पर सरकार ने न तो इनके लिए स्थानीय लोगों को मार्गदर्शन दिया, न ही प्रोत्साहन. उचित प्रोत्साहन ही तो अपने राज्य में यहां के लोगों को चाहिए था. किसी भी सरकार ने स्थानीय समुदाय को इन परियोजनाओं से मिलने वाले लाभांश में भागीदार नहीं बनाया. किसी ने भी स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी की बात नहीं की. यह अधिकार तो राज्य के लोगों को ही होना था कि वे तय कर सकें कि उनके पानी से घराट (पनचक्की) चलें या बिजली बने. पानी कोे राज्य का बड़ा संसाधन तब माना जाता जब उसका उपयोग स्थानीय लोग लाभकारी कामों के लिए कर पाते.

यही हाल जंगलों के भी हैं. वन निगम या अन्य माध्यमों से जंगल तो कट ही रहे हैं पर इन लकड़ियों को बेचने वाले वन निगम के ये डिपो पहाड़ के छोटे कस्बों में नहीं हैं. पूरे पहाड़ में आरा मशीन पर प्रतिबंध लगा है. पहाड़ से कटकर आई महंगी लकड़ी रायवाला, हल्द्वानी और काठगोदाम में आकर चिरने के बाद बरेली तथा सहारनपुर में महंगा फर्नीचर बनकर देश भर में जाती है, पर पहाड़ों में निम्न कोटि की यूकेलिप्टस की लकड़ी के पॉलिश करे फर्नीचर पहुंच रहे हैं. दुनिया को सुख देने वाले जंगल पहाड़ के लिए वैधानिक रूप से परेशानी का कारण हो गए हैं.

जल, जंगल के बाद जमीन के लिए भी राज्य बनने के बाद कुछ नहीं हुआ. पहाड़ अभी भी पुराने भू-कानूनों के अभिशापों को झेल रहा है. एक राज्य में दो भू-कानून हैं. इन पेचीदे कानूनों के कारण राज्य में पर्याप्त भूमि होने के बाद भी आपदा पीड़ितों को आवंटित करने तक के लिए भूमि उपलब्ध नहीं है. अनिवार्य चकबंदी अभी तक नहीं हो पाई है. तराई में थारू, बोक्सा जनजाति की जमीनें कानूनों के बावजूद बड़े किसानों और माफियाओं ने हथिया लिए हैं. हरिद्वार से लेकर रामनगर तक पूरी तराई में वन भूमियों में बसे ‘खत्तों’ को आज तक राजस्व गांवों में तब्दील नहीं किया जा सका है.

मुख्यमंत्री कहते हैं कि राज्य शिक्षा का हब बन गया है, पर राज्य के दूरस्थ पहाड़ी जिलों के गांवों के स्कूल अध्यापकविहीन हैं. वहां के कस्बों के बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते ही नहीं हैं. उच्च शिक्षा का हाल तो और बुरा है. राज्य में कुकुरमुत्ते की भांति खुले व्यावसायिक शिक्षण संस्थान अभिभावकों को लूटने के अलावा कुछ भी काम नहीं कर रहे. लाखों रु चुकाकर इन संस्थानों से निकले इंजीनियर और व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियां अच्छी नौकरी और वेतन पाने में असफल साबित होते हैं. शिक्षा के खराब स्तर के कारण राज्य के बेरोजगार प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल नहीं होते हैं. उत्तराखंड राज्य लोक सेवा आयोग के परिणामों की सूची में राज्य के निवासी मुश्किल से मिलते हैं. कभी इसी बेरोजगारी और बाहरी लोेगों द्वारा राज्य में उपलब्ध रोजगारों को हड़पने की आशंका से ही राज्य आंदोलन शुरू हुआ था.

इस तरह देखें तो राज्य के दस साल की यात्रा को कतई आशाजनक नहीं कहा जा सकता. इन दस साल में सरकारों और उसके तंत्र को चलाने वालों पर आम आदमी का भरोसा कम होता गया है. राज्य में एक ‘विशिष्ट शासक वर्ग’ पैदा हो गया है जो अब आम जन की इन नाराजगियों के लिए संवेदनहीनता की सीमा को पार कर ‘जनता की कौन परवाह करता है’ या ‘जनता तो कहती रहती है’ की बेशर्मी तक पहुंच चुका है. यह बेशर्मी जारी रही तो राज्य को ले डूबेगी.

' शायद भ्रष्टाचार के मामले में हम नंबर एक होंगे '

ये 10 साल उत्तराखंड के लिए कैसे रहे?

शहीदों के सपने थे कि अपनी सरकार होगी, अपना राज होगा, सरकार तक सीधी पहुंच होगी. राज्य बनने से पहले सभी ने समग्र विकास की भी कल्पना की थी. लोगों को लगा था कि सीमांत क्षेत्र के उन लोगों तक भी बुनियादी सुविधाएं पहुंचेंगी जो उत्तर प्रदेश के जमाने में उपेक्षित रहे. मगर ये सपने पूरे होते नहीं दिख रहे हैं.

क्या इसके लिए इस राज्य के राजनेता दोषी नहीं हैं?

10 साल का विश्लेषण करें तो साफ है कि वर्ष 2000 से लेकर 2007 तक राज्य सही दिशा में जा रहा था. राज्य बीस सूत्री कार्यक्रम में लगातार पहले स्थान पर रहा. तब आर्थिक और ढांचागत विकास में हम पहले पायदान पर आ गए थे, पर उसके बाद विकास की दिशा में विचलन आ गए. कई दीर्घकालीन योजनाओं के नतीजे कभी-कभी सालों बाद भी मिलते हैं, इसलिए विकास की समग्र और सतत सोच होनी चाहिए जो अब नहीं दिख रही है. इसलिए हम अन्य राज्यों की तुलना में पिछड़ते जा रहे हैं.

विकास तो छोड़िए, कई गांव अभी भी पानी,बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं.

दरअसल विकास के लिए जो सोच होनी चाहिए है, वह है ही नहीं. अब मौजूदा सरकार की प्राथमिकताओं में दूरदराज के गांव नहीं रह गए हैं.पहले प्रदेश के दूरदराज में भी चौबीसों घंटे बिजली रहती थी. अब राजधानी में भी 10-10 घंटे गायब रहती है. पिछले दो साल से पेयजल का संकट बढ़ गया है. पिछले साल की गर्मियों में तो समस्या और भी विकराल हो गई थी. जब तक गरीबों के लिए दर्द नहीं होगा तब तक इन समस्याओं को सुलझाने की पहल नहीं हो सकती. विकास कार्यों को सिर्फ नौकरशाही के भरोसे पर नहीं छोड़ा जा सकता है. राजनीतिक नेतृत्व को भी इनमें दिशानिर्देश देना चाहिए.

राज्य में महत्वपूर्ण नीतियां नहीं बन पाई हैं. आप लोग भी पांच साल सत्ता में रहे थे.

नीतियों का सीधा संबंध सोच से होता है. राज्य को किस दिशा में जाना है यह नीति तय करती है. नीतियां बनाने की प्रक्रिया हमने शरू कर दी थी. परंतु बाद में उन पर कुछ हुआ ही नहीं.

तो ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है ?

सरकार गंभीर मुद्दों से भटक रही है. बेरोजगार सड़कों पर उतर आए हैं. जनता से किए गए वादे पूरे नहीं हो रहे हैं. उम्मीद की जा सकती है कि आने वाला समय अच्छा होगा. हम शहीदों के सपनों का उत्तराखंड बना पाएंगे.

तो अब प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए?

हमें बुनियादी ढांचे को मजबूत करते हुए रोजगार के अधिक से अधिक अवसर पैदा करने होंगे. कुछ क्षेत्रों की पहचान करके तेजी से उन पर कार्य करना होगा तभी हम लक्ष्यों तक पहुंच पाएंगे. राज्य सरकारों को अपने संसाधनों को बढ़ाना होगा. हर काम के लिए केंद्र की ओर देखने की मानसिकता त्यागनी होगी.

पर मुख्यमंत्री तो कहते हैं कि उत्तराखंड देश का पहले नंबर का राज्य है.

फिलहाल विकास और रोजगार देने के मामले में तो नंबर एक नहीं है. बीस सूत्री कार्यक्रम में अब हम पिछड़ गए हैं. शायद भ्रष्टाचार और बिगड़ती कानून-व्यवस्था के मामले में हम नंबर एक होंगे.

यहां भी डरना मना है

फिल्म समीक्षा

फिल्म ए फ्लैट

निर्देशक हेमंत मधुकर

कलाकार जिमी शेरगिल, संजय सूरी, कावेरी झा, हेजल

अगर भूत-वूत या आत्मा जैसी कोई चीज होती होगी तो अपनी फिल्मों को देखकर रोती बहुत होगी. बॉलीवुड में एक खास किस्म के भूत होते हैं. जब बरसों पहले किसी मेकअपमैन ने पहली बार सफेद कपड़ों वाली, चेहरे पर गिरे खुले लंबे बालों वाली आत्मा की रचना की होगी तो वह भी नहीं जानता होगा कि उसकी यह कृति अमर हो जाने वाली है. मजेदार बात यह है कि सब भूत अपना प्रोफेशनल काम यानी डराना भी एक ही तरह से करते हैं. ‘ए फ्लैट’ या ऐसी ही कोई भी फिल्म देखते हुए फिल्म लिखने और बनाने वाली टीम पर तरस बाद में आता है, पहले भूत नगरी की क्रिएटिव टीम पर तरस आता है जो इतने सालों से डराने का एक नया तरीका तक नहीं खोज पा रही. वे बस हमारे बेचारे हैंडसम नायक को ज्यादा से ज्यादा किसी हवेली या यहां फ्लैट में बंद कर देंगे (जिसका कोई काला अतीत होगा, जैसे कोई मासूम मारा गया होगा), फिर लाइटें जलाएंगे-बुझाएंगे, खूब आवाज के साथ दरवाजे खोलेंगे-बन्द करेंगे, कभी-कभी तूफान ला देंगे और जब हैंडहेल्ड कैमरे से फिल्माए गए किसी शॉट में डरा हुआ नायक आगे किसी आत्मा को खोज रहा होगा तब वह अचानक उसके ठीक पीछे खड़ी दिखेगी.

हेमंत मधुकर क्या यह नहीं जानते कि इससे तो अब बच्चे भी नहीं डरते? भले ही वह पीछे कितना भी तेज संगीत बजा लें और डरावनी या रहस्यमयी आवाजें सुनवाएं.

लेकिन आत्मा तो आत्मा है. बदला लेना उसका सनातन धर्म है. आप जानते ही हैं कि उन्हें आसानी से शांति नहीं मिलती और शांति पाने के लिए वे हमारे हीरो को इस्तेमाल करती हैं.

जिमी शेरगिल बढ़िया एेक्टर हैं लेकिन इतनी प्रत्याशित कहानी में उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता. वे अमेरिका से लौटे हैं और अपने फ्लैट में ठहरे हैं जिसमें पहले उनके दोस्त संजय सूरी रहते थे. यहीं सारा ‘आहट’नुमा खेल शुरु होता है. हम जानते हैं कि आपने ऐसे बहुत-से सीरियल और फिल्में देखी हैं, इसलिए समझ गए होंगे कि यह कोई पुरानी मौत का चक्कर है और संजय सूरी ने ही कोई गुल खिलाया होगा. उनकी मनाली की एक गांव की गौरी हेजल से लंबी-सी धोखे वाली लवस्टोरी है. लेकिन संजय सूरी का चेहरा ही ऐसा है कि हम उन्हें धोखेबाज प्रेमी कैसे मान लें?

अब यह कहानी है प्रतिशोध के लिए तड़पती आत्मा की जिसके चक्कर में बेचारे जिमी शेरगिल को डर से बहुत सारा कांपना है और साथ ही पसीना-पसीना हो जाना है. लेकिन हेमंत मधुकर को यह याद नहीं रहता कि उनका उद्देश्य तो दर्शकों की घिग्घी बंधवाना और उनका पसीना बहाना था.

हालांकि ‘ए फ्लैट’ के पास कुछ अच्छे एेक्टर, अतीत को वर्तमान और भविष्य से जोड़ने का थोड़ा दिलचस्प तरीका और ठीक-ठाक खूबसूरत सिनेमेटोग्राफी तो है, लेकिन यह वह समय है जब हमारी ज्यादातर भूत कहानियों के डरावने हिस्से कॉमेडी फिल्म बनने के कगार पर हैं.

गौरव सोलंकी

नर्मदा से आगे जाती एक लड़ाई…

विंध्यांचल और सतपुड़ा पर्वत श्रंखलाओं के बीच बसे अपेक्षाकृत शांत निमाड़ अंचल में उस दिन शाम गहराने के साथ-साथ हलचल बढ़ती जा रही थी. पश्चिमी मध्य प्रदेश में महाराष्ट्र की सीमा से सटे इस इलाके में आदिवासियों, किसानों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आंदोलनकारियों के उत्साह से लबरेज जत्थों का जुटना और पहले से मौजूद लोगों का नाच-गाना जारी था. दस बजते-बजते लोगों की हलचलें कम होने लगीं और कुछ ही देर में धड़गांव (महाराष्ट्र) से इन लोगों को लेकर 15 नावों का काफिला नर्मदा के रास्ते मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले की तरफ चल पड़ा. यात्रा के दौरान रात के अंधेरे में लोगों के चेहरों पर उस आंदोलन की ऊर्जा की रोशनी साफ-साफ देखी जा सकती थी जिसे आज 25 साल पूरे हो रहे थे. शांत बहते पानी और रात के धुंधलके में वे गीत फिर उसी जीतने के भरोसे की गूंज के साथ सुनाई दे रहे थे जो नर्मदा घाटी में एक-चौथाई सदी से जारी ‘नर्मदा बचाओ अंदोलन के उतार-चढ़ाव भरे सफर और संघर्ष की ऊर्जा को अपने में समेटे हुए है.

इस यात्रा के साथ-साथ पिछले पच्चीस साल से आंदोलन की अगुआ रही मेधा पाटकर शुरुआती दिनों को याद करते हुए हमें बताती हैं, ‘मई, 1988 में जबर्दस्ती विस्थापन से पैदा हो रही समस्याओं के हल के लिए तीन राज्यों से आए 250 कार्यकर्ताओं के समूह की नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी से हुई बातचीत का कोई निर्णय नहीं निकला तब अगस्त में उन्होंने अपनी पहली नियोजित रैली निकाली थी.’ 

‘नक्सलवादियों ने अब तक क्या हासिल किया है? सरकार सिर्फ उनकी हिंसा को गंभीरता से लेती है. जबकि नर्मदा बचाओ आंदोलन कई मोर्चों पर सफलता हासिल कर चुका है’

इसके बाद आंदोलन कई दौर से गुजरा. अंतर्राज्यीय रैलियां, भूख हड़ताल, दिल्ली और प्रदेश की राजधानियों में धरना, जिला न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक की लंबी कानूनी लड़ाइयों के जरिए लगातार सरदार सरोवर प्रोजेक्ट का विरोध किया गया. इस बीच 2006 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना इस आंदोलन के लिए मील का पत्थर साबित हुआ. धरना स्थल पर आंदोलनकर्मियों का साथ देने आमिर खान भी पहुंचे और सारे देश का ध्यान इस ओर गया. यही वह समय था जब नर्मदा आंदोलन के माध्यम से विस्थापन, आदिवासियों और किसानों के भूमि अधिकार और बड़े बांधों का विरोध राष्ट्रव्यापी बहस के विषय बन गए.

उड़ीसा से आयोजन में भाग लेने आए ‘नेशनल एलाइंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट’ के संयोजक प्रफुल्ल सामंत्र कहते हैं, ‘ यह भारत में जनांदोलनों के लिए प्रबल प्रेरणास्रोत है. पूरी तरह गांधीवादी मार्ग पर चलते हुए इस प्रजातांत्रिक आंदोलन के जरिए पहली बार विस्थापित लोगों के अधिकारों की बात राज्य के सामने रखी गई है.’

आज के हालात में आंदोलन के गांधीवादी- प्रजातांत्रिक बनाम माओवादी-नक्सलवादी स्वरूप पर चर्चा करते हुए मेधा इस बात को पूरी तरह नकारती हैं कि अहिंसक होने की वजह से उनके आंदोलन को सरकार ने कभी गंभीरता ने नहीं लिया. वे कहती हैं, ‘ आप यह देखिए कि नक्सलवादियों ने अब तक क्या हासिल किया है. सरकार सिर्फ उनकी हिंसा को गंभीरता से लेती है. हमें अपने आंदोलन से कई मोर्चों पर सफलता मिली है.’   

22 अक्टूबर की रात को नावों और ट्रकों से शुरू हुई यात्रा अगले दिन सुबह जब बड़वानी पहुंची तब यहां मौजूद उत्साहित सामाजिक कार्यकर्ता और ग्रामीण ‘घाटी में लड़ाई जारी है’, ‘नर्मदा बचाओ, मानव बचाओ’ जैसे नारे, फूलमालाओं और गाजे-बाजे के साथ महाराष्ट्र और गुजरात से आए अपने साथियों का स्वागत कर रहे थे. इस आयोजन स्थल पर आंदोलन के 25 साल लंबे सफर की सफलताओं और असफलताओं को साझा करते हुए मेधा हमें बताती हैं कि बांध निर्माण में हो रही भारी जनहानि को स्वीकार किया जाना और विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को बांध निर्माण में से निवेश हटाने के लिए तैयार करना आंदोलन की प्रमुख सफलताओं में से एक है. वे कहती हैं, ‘आंदोलन के माध्यम से न सिर्फ विस्थापन के मुद्दे को भारतीय और वैश्विक स्तर पर केंद्रीय पटल में लाया गया साथ ही सरकारी भ्रामक आंकड़ों की सच्चाई भी सामने आई. पहले 7,500 परिवारों को बांध प्रभावित माना गया था. लेकिन आंदोलन के प्रयासों की वजह से सरकार को मानना पड़ा कि वास्तव में प्रभावित परिवारों की संख्या 51,000 है. इनमें से आज भी 40,000 परिवार डूब क्षेत्र में रहने को मजबूर हैं.’

आंदोलन के कार्यकर्ताओं के अनुसार 25 साल के दौरान बांध का निर्माण न रोक पाना और आदिवासियों के  वन अधिकारों को लागू न करा पाना आंदोलन की असफलता कही जा सकती है. इस बारे में मेधा कहती हैं, ‘हम वन अधिकार अधिनियम और ग्राम सभाओं के सुचारू संचालन के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर पाए जबकि ये मुद्दे सीधे-सीधे विस्थापन से जुड़े हैं.’ वे इसकी वजह बताती हैं, ‘अलग-अलग क्षेत्रों में चल रहे स्थानीय आंदोलनों में एकजुटता की कमी है, यदि इन्हें एक मंच पर काम करने का मौका मिले तो परिवर्तन तेजी से होगा.’

इस आंदोलन का अपनी व्यापक स्वीकार्यता को राजनीतिक स्तर पर रूपांतरित नहीं कर पाना एक बड़ी कमी माना जाता रहा है. आयोजन स्थल पर लगातार इस बात पर चर्चा हो रही थी कि प्रजातांत्रिक रूप से जनमुद्दों को सरकार के सामने रखने के बावजूद आंदोलन का चुनावी राजनीति से दूर रहना कितना सही है. मेधा इस बारे में कहती हैं, ‘राजनीति हमारे लिए अछूत नहीं है पर हम सिर्फ व्यापक स्तर पर ठोस मुद्दों पर जनचर्चा के माध्यम से सहभागी प्रजातंत्र के प्रति राजनीतिक चेतना का विकास करना चाहते हैं.’

शाम के वक्त नारों और गीतों की आवाज धीमी हो चली थी. जो लोग दिन में रैली में इकट्ठा थे, अब वे छोटे-छोटे समूहों में बंटकर बातें कर रहे थे. पूरी यात्रा और आयोजन के प्रति लोगों का उत्साह देखकर यह बात साफ जाहिर हो रही थी कि आंदोलन अब और संगठित है. उद्देश्य और सुस्पष्ट है. लड़ाई अब विस्थापन तक सीमित नहीं है. वन अधिकार, पर्यावरण, प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण जैसे अन्य मुद्दे भी आंदोलन की कार्य सूची में सम्मिलित हो गए हैं.

आयोजन स्थल पर ही हमारी मुलाकात गोखरू से हुई. इस आंदोलन से शुरुआत से ही जुड़े रहे गोखरू को अपने गांव खेरिया बादल के नर्मदा के डूब क्षेत्र में आने की वजह से पुरखों का घर और जमीन छोड़नी पड़ी है. अब वे पास की पहाड़ी पर बची थोड़ी-सी जमीन पर खेती करते हैं. उन्हें नहीं पता कि इतनी-सी जमीन से वे अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे. फिर भी इस आदिवासी-किसान ने एक बात गहराई से रट ली है कि उसे अपनी जमीन के लिए तब तक लड़ना है जब तक न्याय न मिले. गोखरू को भरोसा है कि एक दिन सरकार झुकेगी.

दूर कहीं नर्मदा अब भी बह रही है, दिन रात  में बदल रहा है और लोग गा रहे हैं. संघर्ष जारी है. 

' राम तेरे बंदों से कांपते हुए '

गीतिका

राम तेरे बंदों से कांपते हुए,

जिया किए राम-राम जापते हुए.

जीवन के बोझ तले दबे-कुटे हम,

दुनिया भर रंज-ग़म अलापते हुए.

दूर खड़ी खुशियों की टोह-टोहकर,

हासिल का इंच-इंच नापते हुए.

फिरा किए इज्जत का ताज लिए हम,

आर्टनुमा तिगड़ों से ढांपते हुए.

भगवे या नीले या लाल देश में,

रंग जा रे सत्ता को छापते हुए.

शोहरत के चार-चांद ढल गए हुजूर,

राजा को जब-तब संतापते हुए.

गालिब के हम ही तो चचा हैं हुजूर,

करते हैं उस्तादी हांफते हुए.

ग़ज़ल

सर में सौदा और कुछ था, मुंह से निकला और कुछ

गालियों ने कर दिया कोताह किस्सा और कुछ

कौन से कमरे में इज्जत, जा के चेहरा ढांप ले

अनबिके संसार के भीतर लजाया और कुछ

आपने बेची खबर, खबरों ने बेचा आपको

मीडिया ने आप-हम-सबको परोसा और कुछ

लूट इनकी, राज उनका, वोट ही तो आपका

और आगे मोहतरम देखें तमाशा और कुछ

छा गया पश्चिम का बादल, नाम है वैश्वीकरण

इस खुले हाथों लुटी दौलत का तोहफा और कुछ

वाकया था और कुछ, अफवाह फैली और कुछ

फिर दलालों की दलाली ने दलेला और कुछ

कर चुके जो कुछ महाजन, क्यूं न हम भी वह करें

देश-पूजा, भेंट-पूजा, पेट-पूजा और कुछ

धन्य गुरुघंटाल! ‘औरत-मुक्ति’ का दर्शन तेरा

स्वर्ग था कुछ और ही, तूने दिखाया और कुछ

-राम मेश्राम 

                                       

 

 

 

इस वर्ग की अन्य रचनाएं

‘साहित्य की कोपलें ‘ उभरते हुए अंकुरों को खाद-पानी देने का एक छोटा सा प्रयास है. आप भी इस वर्ग के लिए अपनी रचनाएं (फोटो और संक्षिप्त परिचय के साथ) mailto:hindi@tehelka.comपर ईमेल कर सकते हैं या फिर नीचे लिखे पते पर भेज सकते हैं.  

तहलका हिंदी, एम-76, एम ब्लॉक मार्केट, ग्रेटर कैलाश-2, नई दिल्ली-48

मैच जिताने वाला ऐक्टर

आप इन्हें ओमकारा के रज्जू के रूप में बेहतर जानते होंगे जो अपने आसपास के बड़े सितारों के बीच जब यह कहकर नदी में कूदता है कि उसे तैरना नहीं आता तो दरअसल ऐक्टिंग के पानी का वह खूबसूरत तैराक है. रज्जू की मंगेतर को नायक ने मंडप से उठा लिया है और दीपक डोबरियाल के अभिनय में यह दोहरी खूबी है कि उसे कुशलता से निभाते हुए भी वे किसी भी पल उस किरदार से सहानुभूति नहीं जगने देते. हां, वे अपने ‘अजी हां’ और ‘चल झुट्टा’ के साथ याद पक्का रहते हैं.

यूं तो यह फिल्मी व्याकरण की एक घिसी-पिटी कहावत है कि अच्छे अभिनेता एक सीन से भी आपको याद रह जाते हैं लेकिन बहुत सारे प्रतिभावान अभिनेताओं के साथ दीपक के लिए भी इस कहावत का इस्तेमाल जरूरी है. फिर वह चाहे ‘दिल्ली 6’ का हलवाई हो, ‘शौर्य’ का चुप्पा कैदी कैप्टेन हो, ‘ब्लू अम्ब्रेला’ के भला अंग्रेजी में भी कोई झूठ बोलता है? वाले कुछ सेकंड हों या गुलाल का एक दृश्य जिसमें पान की दुकान पर खड़े दीपक एक शब्द भी नहीं बोलते और उनकी हल्की मुस्कुराहट और आंखों की हरकत का कॉम्बिनेशन दिल जीत लेता है.

‘ वह ईमानदार भी है और स्वार्थी भी, बुद्धू भी है और समझदार भी ‘

पौड़ी गढ़वाल के काबरा गांव में जन्मे और दिल्ली में पले-बढ़े दीपक से यह पूछा जाए कि ऐक्टर बनने का खयाल पहली बार उनके दिल में कब आया तो जवाब में मिलने वाली जगह, जहां यह खयाल आया, वाकई दिलचस्प है. उनके स्कूल में प्रार्थना और राष्ट्रगान के तुरंत बाद वहीं हाजिरी ली जाती थी. दीपक सबसे आगे खड़े होकर रोल नंबर बोलते थे. शुरू में यह घबराहट का काम होता था जिसमें उनके पैर कांपते थे लेकिन बाद में उन्हें इसमें मजा आने लगा. और तो और, वे उसी दौरान इशारों और आवाज के उतार-चढ़ाव का इस्तेमाल करके अपने दोस्तों से बात भी कर लेते थे. तब उनमें पहली बार मंच का मोह जगा और उसका केंद्र बनने का इसके तुरंत बाद उन्होंने पढ़ाई को कॉरस्पोंडेंस के हवाले करके थिएटर की राह पकड़ ली और सात साल दिल्ली में नाटक करते रहे, छह साल अरविंद गौड़ के साथ ‘अस्मिता’ में और एक साल पं. एनके शर्मा के निर्देशन में. मां को उनका यह शौक जितना भाता था, पिताजी उतना ही अपने बेटे के करियर के लिए परेशान होते थे. उन्हें सरकारी नौकरी के लिए बेटे के ओवरएज हो जाने की फिक्र होती जा रही थी और बेटा मुंबई चला गया था. फिर संघर्ष के कुछ साल थे, लेकिन दीपक मानते हैं कि मुंबई में इतने लोग संघर्ष कर रहे होते हैं कि एक सामूहिक हौसला आपको आगे खींच ले जाता है. हालांकि वह संघर्ष एक अलग स्तर पर अब भी जारी है. अब ऑफर काफी मिलने लगे हैं लेकिन उन्हें ऐसी भूमिकाओं की तलाश है जिनमें वे अपनी सीमाओं से भी आगे जा सकें. उनके किरदारों का आकार भी बढ़ता जा रहा है और वैराइटी भी. जहां इसी शुक्रवार रिलीज हुई बेला नेगी की ‘दाएं या बाएं’ में वे मुख्य भूमिका निभा रहे हैं वहीं मृगदीप लांबा की कॉमेडी ‘तीन थे भाई’ में वे श्रेयस तलपड़े और ओम पुरी के साथ हैं. उनका चेहरा-मोहरा बॉलीवुड की मुख्यधारा के परंपरागत नायकों जैसा नहीं है और इस बात से वे कभी परेशान भी नहीं दिखते. शायद वे खुद भी मुख्यधारा की फॉर्मूला कहानियों के सांचे में खुद को असहज ही महसूस करते.

बेला नेगी उन्हें बेहद मासूम बताती हैं. उन्हें लगता है कि उनकी फिल्म के नायक के चरित्र की जितनी विरोधाभासी परतें हैं – वह ईमानदार भी है और स्वार्थी भी, बुद्धू भी है और समझदार भी – उन्हें दीपक हर बारीकी के साथ जी गए हैं. इसके बावजूद कि उनकी मुख्य भूमिका वाली पहली फिल्म ‘दाएं या बाएं’ का ठीक से प्रचार नहीं हो पाया या यह उत्तराखंड में ही रिलीज नहीं हो पा रही, जहां की यह कहानी है या वैसी फिल्मों का बाजार थोड़ा छोटा है जिन्हें वे करना चाहते हैं, दीपक के भीतर कोई गिला नहीं दिखता. उनमें एक स्थायी सकारात्मकता है जो खिलंदड़पने या बेफिक्री जैसी भी लगती है लेकिन उसकी जड़ें शायद उनके पहाड़ी गुणसूत्रों में हैं. वे उस बल्लेबाज की तरह हैं जो आपको विज्ञापनों में या अपने स्टाइलिश शॉट्स के गुण गाता हुआ भले ही न दिखे लेकिन बात उस पर छोड़ोगे तो वह मैच निकाल ले ही जाएगा.