हारे को हरिनाम

चुनाव परिणाम वाले दिन यानी 24 नवंबर को लालू प्रसाद ने अपने आवास पर मीडियाकर्मियों को बुलाया तो था दिन के तीन बजे लेकिन निर्धारित समय से 15 मिनट पहले ही वे पत्रकारों के बीच पहुंच गए. साथ में छाया की तरह हमेशा उनके आगे-पीछे रहने वाले सिपहसालार रामकृपाल यादव और वफादार सेनानी जगतानंद सिंह भी थे. पत्रकारों के बीच बैठने के बाद लालू तुरंत उठकर वापस चले भी गए. रामविलास पासवान भी उनके साथ हैं, वे भी उनके साथ ही मीडिया से मुखातिब होंगे, लालू शायद कुछ देर के लिए भूल गए थे. वहां से उठकर बगल में बरामदे के पास एस्बेस्टस शीट के नीचे लगी बेंत की कुर्सी पर जाकर वे अकेले बैठ पासवान का इंतजार करने लगते हैं. तभी कोई कार्यकर्ता या आदेशपाल लालू प्रसाद की कुरसी की दाईं ओर पान की पीकदानी रख जाता है. लालू पीकदानी की ओर झुकते हैं, लेकिन शायद गलती ही दुहराते हैं. उन्हें इस बात की भी सुध नहीं कि वे तो आज पान खा ही नहीं सके हैं. वे खुद की नजरों से ही बचने की कोशिश करते हुए सामने से एक बुजुर्ग, अचर्चित राजद नेता को पास बुलाते हैं, बगल में बैठाकर बतियाने लगते हैं. थोड़ी ही देर में रामविलास पासवान आ जाते हैं. लालू प्रसाद पत्रकारों के बीच फिर से उपस्थित होते हैं. पहले अपनी बात बोल लेते हैं. सिर्फ चार प्रमुख बातें- ‘यह जो कथित जनादेश है, वह रहस्यों से भरा हुआ है लेकिन हम इसे स्वीकार करते हैं.’ इस वाक्य को कई बार दुहराते हैं लालू. फिर एक ही बात को कम से कम छह-सात तरह से बोलते हैं- ‘हम अपना कर्म करेंगे, फर्ज निभाएंगे, काम करेंगे, दायित्व निभाएंगे.’ लगे हाथ नीतीश कुमार को बधाई देते हैं. फिर मीडियाकर्मियों को रामविलास से सवाल पूछने का इशारा करते हुए एक आखिरी वाक्य कहते हैं, ‘हमने पूरा जीवन बिहार के लिए खपा दिया, राजनीति को दे दिया, ऐसे कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, घबराने वाले नहीं हैं…’

पहले लालू ने खुद को सरकार का मुखिया समझा, फिर खुद को सरकार समझने लगे और आखिर में वे खुद को बिहार भी समझने लगे

लालू घबराए हुए थे या नहीं, यह तो पता नहीं चल पा रहा था लेकिन उधेड़बुन, हैरानी और अलबलाहट का भाव साफ दिख रहा था. रामविलास पासवान जब मीडिया से मुखातिब होते हैं तो लालू लगभग 10-15 मिनट तक या तो रामविलास की बात पर कुछ-कुछ बुदबुदाते रहते हैं या पासवान का कोट धीरे-धीरे खींच रहे होते हैं. किसी बच्चे की तरह. पता नहीं उस वक्त वे रामविलास पासवान को कुछ बोलने से रोकने की कोशिश में ऐसा करते हैं या कुछ और बातें उनसे कहलवाना चाहते थे. बीच-बीच में परिचित अंदाज में कृत्रिम हंसी के साथ रामविलास की ओर इशारा करके कहते हैं कि ‘बोल रहे हैं पासवान जी, सुनिए ध्यान से…’ प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म होते ही लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, रामकृपाल यादव और जगतानंद सिंह एक कमरे में चले जाते हैं. उस कमरे के बाहर बरामदे में कृष्ण की लगी तरह-तरह की कई-कई तसवीरें भी चुनाव परिणाम की तरह ही रहस्यमयी-सी प्रतीत होती हैं. वहां भगवान कृष्ण इतने सारे रूपों में लालू प्रसाद की यादवी अथवा यदुवंशी राजनीति के प्रतीक के तौर पर हैं या उनके बड़े बेटे के इस्कॉन से जुड़े रहने के असर के रूप में!

लालू प्रसाद की यह प्रेस कॉन्फ्रेंस उसी आवास में थी जिसमें कभी उनके साले साधु यादव रहा करते थे. राबड़ी के कार्यकाल में इसे दस जनपथ का नाम भी दिया गया था. तब वे यहां से सिर्फ एक सड़क पार करके एक अणे मार्ग यानी मुख्यमंत्री आवास पहुंच सकते थे. अब इसमें लालू-राबड़ी का वास है. इस आवास में आने से पहले भी कम बखेड़ा नहीं हुआ था. राबड़ी देवी 15 साल तक एक अणे मार्ग यानी आधिकारिक तौर पर मुख्यमंत्री के लिए आवंटित आवास में रही थीं और इसे छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं थीं. लेकिन अंततः उन्हें अपनी जिद छोड़नी ही पड़ी थी. जब लालू-राबड़ी परिवार के साथ गायों को एक अणे मार्ग से वर्तमान आवास में शिफ्ट किया जा रहा था तो लालू प्रसाद ने मीडिया में यह शगूफा भी छोड़ा कि नीतीश गौ माता को परेशान कर रहे हैं, श्राप लगेगा. लेकिन 24 नवंबर को प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान वीरान-से पड़े भव्य आवासीय परिसर में सवाल न गौ माता का था न राबड़ी की इस जिद का कि उन्हें यह नहीं वह आवास चाहिए. 20 साल के बाद पहली बार सवाल यह है कि आने वाले समय में पटना के किसी भी सरकारी आवास में लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और उनके परिवारवाले रह सकेंगे या नहीं. यह नीतीश के विवेक और मेहरबानी या आवास के विशेष ऐक्ट और उसको बदलने की नीतीश की इच्छा और अनिच्छा पर निर्भर करेगा. लालू प्रसाद खुद सांसद हैं. राबड़ी दोनों जगहों यानी सोनपुर और राघोपुर से चुनाव हार चुकी हैं. अब वह दिन सामने है जब अपने चहेतों को लालबत्ती से लेकर तमाम तरह की सुविधाएं उपलब्ध करवाने वाले परिवार के पास सत्ता-शासन तो क्या एक अदद सरकारी आवास के लिए भी संभावनाओं के द्वार बंद होते दिख रहे हैं.

बिहार की राजनीति में बेताज बादशाह रहे लालू प्रसाद की अलबलाहट, द्वंद्व या दुविधा 24 नवंबर को नई नहीं थी. उस रोज चुनाव परिणाम से उनका हैरानी में पड़ना स्वाभाविक था, लेकिन अपने मसखरेपन वाले व्यवहार में अचानक बदलाव करें या कुछ दिन और अपने अंदाज को बनाए रखें, वे यह तय नहीं कर पा रहे थे. पूरे चुनाव में भी लालू ऐसे ही दोराहे पर खड़े दिखें. कभी खांटी गंवई अंदाज में यह कहकर चुनावी सभा को संबोधित करते कि ‘नीतीश के पैरा ठीक नइखे, जब से आइल बा, तब से बाढ़-सुखाड़ आवत बा’ तो कभी यह कहते रहे कि ‘नीतीश सूर्यग्रहण में बिस्कुट खा लिए थे, इसलिए राज्य सुखाड़ से त्रस्त है.’ लालू ऐसे ही तर्कों के सहारे चुनावी कसरत करते रहे. नीतीश और सुशील मोदी के भाषणों का जवाब देने के लिए उन्होंने राबड़ी को 56 और चुनावी राजनीति के रंगरूट अपने बेटे तेजस्वी को 100 सभाओं में भेज दिया. ऐसा उन्होंने परिवार की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए सधी हुई रणनीति के तहत किया या दूसरे किसी पर भरोसा नहीं करने के कारण, यह बताने की स्थिति में राजद का कोई नेता नहीं. जैसा कि तहलका से बातचीत में राजद के दिग्गज नेता व सांसद जगतानंद सिंह कहते हैं, ‘मुझसे बिहार के इस चुनाव परिणाम पर कुछ बात न कीजिए, मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा, अब आप लोग विश्लेषण कीजिए.’

लालू प्रसाद के आवासीय परिसर में ही मिले एक वरिष्ठ राजद नेता, जो लालू के काफी विश्वासपात्र कहे जाते हैं, कहते हैं, ‘हमारा नेता अब हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहता है, जिसकी वजह से लगातार पार्टी गर्त में जा रही है.’ वे कहते हैं कि इस बार के चुनाव में लालू ने पहले तो यह कहा कि अब कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन सकता तो फिर कुछ दिनों बाद सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने की बात कहकर उन्होंने खुद को हंसी का पात्र क्यों बनाया. छात्रों-युवाओं को साइकिल की जगह मोटरसाइकिल का लॉलीपॉप देकर भी वे खुद को उपहास का पात्र ही बना रहे थे.’ नेता जी बुझे हुए स्वर में आगे कहते हैं, ‘अब यह मान लीजिए कि बिहार में लालू-राबड़ी युग का अंत हो गया. अब राजद का अस्तित्व बचाना है तो दूसरे नेताओं को सामने लाना होगा, लेकिन शर्त यह होगी कि वे लालू-राबड़ी परिवार से न हों.’

यह सुझाव तो ठीक है लेकिन लालू प्रसाद और उनकी पार्टी के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या वाकई वे भविष्य में बिहार की राजनीति में अपने को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए ऐसा करने का साहस जुटा पाएंगे. जो लालू प्रसाद को करीब से जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि लालू ऐसा कभी नहीं कर सकते. कुछ तो यह भी कहते हैं कि लालू को इसका एहसास पहले से ही हो गया था कि इस चुनाव में वे बुरी तरह परास्त होने वाले हैं, इसलिए अभी से अपने बेटे तेजस्वी को राजनीति के मैदान में उतार दिया ताकि पांच साल के बाद दूसरी पीढ़ी कमान संभालने के लिए तैयार हो. 1997 में भी लालू प्रसाद ने तब ऐसा ही किया था जब वे चारा घोटाले में नाम आने की वजह से सत्ता छोड़ने वाले थे. तब उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का राजकाज सौंप दिया. जब उफान के दिनों पर थे तो साले सुभाष यादव और साधु यादव अचानक से बिहार की राजनीति में समुद्री लहर की तरह प्रकट हो गए. नतीजा यह हुआ कि 1990 में पिछड़ों की राजनीति और सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर उभरा बिहार का सबसे कद्दावर और करिश्माई नेता धीरे-धीरे रसातल में जाने लगा.

जैसा कि प्रो नवल किशोर चौधरी कहते हैं, ‘अब यह मान लेना चाहिए कि लालू युग का अंत हो गया है और यह जरूरी भी था, बिहार के लिए बेहतर भी.’ वे कहते हैं, ‘तीन ऐसे पड़ाव आए जहां से लालू की राजनीति का मर्सिया गान शुरू हो गया था. पहला पड़ाव जब लालू प्रसाद का नाम चारा घोटाले में आया. फिर दूसरी गलती यह कि उन्होंने सत्ता राबड़ी देवी को सौंप दी और फिर 2005 के चुनाव में परास्त होने के बाद भी सबक न ले सके, अपनी असलियत को नकारते रहे, यह उनकी आखिरी भूल थी.’ प्रो चौधरी कहते हैं कि लालू बिहार में सवर्णों की जकड़न से तंग लोगों की आकांक्षा के तौर पर उभरे हुए नेता थे लेकिन बिहार की सत्ता मिलने के बाद पहले तो उन्होंने खुद को सरकार का मुखिया समझा, फिर खुद को सरकार समझने लगे और आखिरी दौर वह भी आया जब लालू खुद को ही बिहार भी समझने लगे. उनके गुरूर-अहंकार ने उन्हें नायक से अधिनायक बना दिया, जो उन्हें विनाश के इस मुहाने तक ले आया. प्रो चौधरी की बातों को अतीत और वर्तमान से जोड़कर देखें तो समझ आ सकेगा कि लालू प्रसाद की राजनीति ने अचानक ही यू-टर्न नहीं लिया है. लालू की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि वे अपने कार्यकर्ताओं से लगातार कटते रहे. पूरे बिहार की बात कौन करे, अपने गृह जिले गोपालगंज में भी लालू की पकड़ अब इतनी नहीं रही कि वह छह में से एक भी सीट अपनी पार्टी को दिलवा सकते. लालू प्रसाद हैरत भरे शब्दों में कहते हैं, ‘वह तो ठीक है लेकिन मगध और कोसी के इलाके में भी ऐसा कैसे हो गया?’

20 साल के बाद पहली बार सवाल यह है कि आने वाले समय में पटना के किसी भी सरकारी आवास में लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और उनके परिवारवाले रह सकेंगे या नहीं

लालू प्रसाद शायद कोसी और मगध की बात कहकर अपने को शांत करने की कोशिश कर रहे हैं जबकि सच यह है कि अब उनके हाथ से पूरा बिहार ही निकल गया है. राष्ट्रीय जनता दल को इस बार 22 सीटें मिली हैं, यानी पिछले नुकसान में भी 32 सीटों का नुकसान हुआ है. विश्लेषक यह दावा कर रहे हैं कि लालू का माय यानी मुसलिम-यादव समीकरण तो पहले ही ध्वस्त हो चुका था, इस बार बड़े पैमाने पर इनके खेमे से यादवी आधार भी खिसका है, वरना कोई कारण नहीं कि 12-13 प्रतिशत आबादी वाले यादव जाति का वोट यदि एकमुश्त लालू के खाते में जाता तो इतनी बुरी हार होती. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं कि इस चुनाव में यह संकेत साफ है कि लालू यादव से यादव मतदाता भी खिसक गए हैं. वे कहते हैं कि जातीय राजनीति का यह सिद्धांत है कि अकेले कोई जाति किसी एक नेता के साथ बहुत दिनों तक नहीं रह सकती. यादव लालू प्रसाद के साथ तभी रहेंगे जब और पिछड़ी जातियां उनके साथ हों. दूसरी पिछड़ी जातियों में आधार खिसकेगा तो यादव भी उनके साथ नहीं रह सकते. महेंद्र की बातों में कुछ सच्चाई तो साफ ही दिखती है, वरना कोई कारण नहीं था कि राबड़ी दोनों जगहों से चुनाव हारतीं और लालू प्रसाद के गृह जिले गोपालगंज में राजद का इतना बुरा हश्र होता. यूं भी लालू-राबड़ी के राज में यादवों के लिए ऐसा कुछ हुआ नहीं जिससे काफी दिनों तक उनकी जाति पर उनका प्रभाव बना रहता. लालू-राबड़ी के शासन में यदि अराजकता, अपराध में इजाफा हुआ, विकास कार्य ठप रहा तो उसका खामियाजा किसी जाति विशेष को नहीं बल्कि पूरे बिहार को भुगतना पड़ा था.

लालू प्रसाद कितने फ्रंट पर और कब-कब नाकाम होते रहे, इसकी पोल-पट्टी खोलने में अब उनके ही लोग लग गए हैं. जैसा कि लालू के आवासीय परिसर में मिले एक युवा राजद कार्यकर्ता मुमताज अंसारी कहते हैं, ‘लालू जी पिछले 15 साल से बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के प्रमुख रहे. इन 15 साल में इन्होंने एक भी खिलाड़ी को राष्ट्रीय स्तर पर भेजने की कोशिश नहीं की. एक कोशिश भी की तो अपने बेटे तेजस्वी के लिए, जो आधा-अधूरा ही खिलाड़ी बन सका.’ ऐसे कई छोटे-छोटे सवाल जमा होकर अब ढेर की तरह लालू के सामने हैं. लालू प्रसाद जब 1990 में बिहार के राजा बने थे तो उनके साथ समाजवादी नेताओं की सशक्त टीम थी. लेकिन सत्ता मद उन्हें इस कदर अहंकारी बनाने और छोटी परिधि में लाने लगा कि उनके अपने ही एक-एक कर किनारे होते गए. सबसे पहले इनसे नीतीश ही किनारे हुए, जो कभी इनके चाणक्य कहे जाते थे. फिर जॉर्ज फर्नांडिस, रामविलास पासवान, शरद यादव, देवेंद्र यादव जैसे परिपक्व नेताओं ने लालू की मंडली से एक-एक कर किनारा कर लिया. जो लालू को राजनीति में रणनीति समझाते थे वे खुद अलग जमात में रणनीति बनाकर नीतीश को लालू के मुकाबले खड़ा करते गए. जैसा कि कभी लालू के ब्रेन रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘लालू का राजनीतिक दुश्मन कभी और कोई नहीं रहा बल्कि खुद लालू प्रसाद ही हैं. वे खुद से ही लड़ रहे हैं, खुद से ही हार रहे हैं, खुद से ही निपट रहे हैं.’ लालू के सारे रणनीतिकार अलग तो हुए ही, बना-बनाया माय समीकरण भी तेजी से ध्वस्त होता रहा. यादव खेमे से शरद, रंजन यादव जैसे नेता अलग धुरी पर गए, दोनों ने लालू प्रसाद को हराया.

मुसलिम नेताओं में कभी भी लालू प्रसाद ने अब्दुल बारी सिद्दिकी या डॉ जाबिर हुसैन जैसे नेताओं को फ्रंट पर नहीं रखा बल्कि तस्लीमुद्दीन और शहाबुद्दीन जैसे नेता फ्रंट पर आते रहे, जिनसे जुड़ाव दिखाने में खुद मुसलिम समाज भी कतराता है. लालू युग का अंत तभी हो जाता, लेकिन ऐसे समय में लालू ने अपने को बनाये-बचाए रखने के लिए कांग्रेस का दामन थामा. रेलवे में कुछ करिश्मा हुआ तो मैनेजमेंट गुरु बनने के चक्कर में वे फिर से इस कदर खोए कि अपनी ही पार्टी तक को भूल गए. रेल के गुरूर को एक झटके में ममता बनर्जी ने तोड़ा और इस बीच कांग्रेस से भी उन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में महज तीन सीटों का प्रस्ताव देकर रार छेड़ दी. लालू ने कांग्रेस से थोड़ा किनारा किया, कांग्रेस ने ज्यादा दूरी बना ली.

अब उन्हें रामविलास पासवान ज्यादा भरोसेमंद लगने लगे थे, यह जानते हुए भी कि बिहार के जातीय समीकरण में कभी भी यादव और पासवान जमीनी स्तर पर एक-दूसरे के दोस्त नहीं हो सकते. ऐसी कई गलतियों ने लालू  के सामने आज अस्तित्व का संकट ला खड़ा किया है. नीतीश ने उन्हें विकास और अतिपिछड़ों-महादलितों की राजनीति में घेर लिया. लालू उसी जाल में फंसकर अपनी उपलब्धि भी कायदे से नहीं बता सके कि मछुआरों का टैक्स माफ करके, भूमिहीनों को चार-चार डिसमिल जमीन देने की कवायद शुरू करके उन्होंने भी कोई कम बड़ा काम नहीं किया था. नीतीश ने उन्हें ये बातें कहने का मौका ही नहीं दिया. लालू प्रसाद तो कायदे से भ्रष्टाचार का मसला भी नहीं उठा सके. बाद में दूसरे चरण के चुनाव के बाद नीतीश ने खुद ही आगे बढ़कर भ्रष्टाचार का मसला उठाकर अपनी कमजोरी को अपनी ताकत में बदल लिया.

मुमताज अपनी बातों में आगे जोड़ते हैं, ‘मैंने वह समय भी देखा है जब लालू प्रसाद अपने लोगों को हमेशा नाम से याद रखते थे, संबोधित करते थे, जिससे हम जैसे कार्यकर्ताओं को भी अच्छा लगता था, लेकिन रेलमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री बनने के सपने में ऐसे खोए कि पूरा का पूरा संगठन ही बिखर गया. और जब तक इस बात को लालू समझ पाते, बहुत देर हो चुकी थी. मुमताज की बातों को यदि लालू के पिछले कुछ समय की गतिविधियों से जोड़कर देखें तो इधर वे लगातार प्रमंडल और जिला स्तर पर कार्यकर्ता सम्मेलन कर रहे थे. वे कार्यकर्ताओं से माफी मांग रहे थे कि रेल और मैनेजमेंट गुरु की फंडई में ऐसे फंसे कि जिलों में अपनी पार्टी के कार्यालय तक नहीं खोल सके. वे यहां तक कहने लगे थे कि जो जिले में पार्टी कार्यालय खोलने के लिए जमीन देगा उसे टिकट भी देंगे. चुनाव परिणाम आने के दो दिनों पहले जब उन्होंने पटना के मौर्या होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई थी तो पता नहीं कौन से खयाली पुलाव पकाते हुए वे जातीय गणित को जोड़-घटाकर अपनी जीत सुनिश्चित कर रहे थे. प्रो नवल चौधरी कहते हैं कि इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि लालू को जमीनी हकीकत का पता आखिरी दिनों तक नहीं था. यानी वे पूरी तरह से जमीनी राजनीति से कट गए थे वरना इस तरह का आकलन आखिरी दिनों तक नहीं करते.

समाजवादी नेता निवास इस प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए दुष्यंत कुमार का एक शेर सुनाते हैं-

तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं, गजब यह है कि तुम्हें यकीन नहीं…

निवास कहते हैं कि ऐसा ही लालू के साथ हुआ. लालू 1990 में चंद्रशेखर और बीपी सिंह के सौजन्य से नेता बन गए. 1995 का चुनाव उन्होंने अपने दम पर जीता. 2000 का चुनाव तो थुक्काफजीहत वाला रहा. तो कायदे से वे एक बार ही अपने दम पर चुनाव जीतकर जमीनी हकीकत भूल गए तो यह तय तो था कि उनका हश्र ऐसा ही होगा. दुष्यंत कुमार का शेर शायद लालू प्रसाद को अभी सुनने में ठीक नहीं लगेगा लेकिन उन्हें रह-रहकर वे सारे दिन तो अब याद आ ही रहे होंगे, जब उन्होंने ‘भूराबाल साफ करो’ का नारा दिया था या जब उन पर ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू’, ‘धन फुलवरिया, धन माई मरछिया, लालू भइया जिनके ललनवा कि जानेला जहनवां ए रामा… ‘ गीत रचे गए थे. तब पूरे बिहार में लालू चालीसा को बेचा और बांटा जाता था. अब कौन सुनेगा लालू चालीसा, कौन सुनाएगा ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू…?’

ऐसा भी नहीं कि लालू के लिए संभावनाओं के सारे द्वार बंद ही हो गए हैं. इस बार राबड़ी देवी को दोनों सीटों पर मिली मात, बेटे तेजस्वी की 100 सभाओं की बेअसरी और नए राजनीतिक साथी रामविलास पासवान के दो भाइयों और दो दामादों की करारी हार से लालू अगर सबक लेते हुए भविष्य की रणनीति तय करेंगे तो उनके लिए राजनीति में अब भी संभावनाएं शेष बचती हैं. यदि मॉडल के तौर पर ही सही लालू अपने पैतृक गांव फुलवरिया जाकर, रुककर सोचें तो उन्हें भविष्य की राजनीतिक यात्रा का खाका तैयार करने में सबसे ज्यादा मदद मिलेगी. उन्हें 20 वर्षों में फुलवरिया में हुए कार्यों का आकलन खुद करना होगा. बड़ा मंदिर, विशाल बरम बाबा का चबूतरा, हेलिपैड, छठ घाट वगैरह-वगैरह, लेकिन हाई स्कूल नहीं. अंधेरे से निकलने के लिए कोई रोशनदान नहीं. ऐसे ही कारणों ने उन्हें बिहार नहीं बल्कि अपने गृह जिले गोपालगंज में भी औंधे मुंह गिराया. लालू प्रसाद आज भी यहां सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति के सबसे मजबूत स्तंभ हैं. मुसलमान भी लालू के इस मजबूत पक्ष से अवगत हैं. सहमत हैं. लेकिन बदले हालात में उन्हें भी बाबरी-राम मंदिर से ज्यादा, दंगों की राजनीति से ज्यादा, जस्टिस रजिंदर सच्चर आयोग की रिपोर्ट व अनुशंसा पर काम करा सकने वाला नेता चाहिए. नीतीश को बड़ी जीत मिली है, बड़ी जिम्मेदारी मिली है, तो जनता के सपनों के मुताबिक चुनौतियां भी बड़ी होंगी. लालू सिर्फ सशक्त तरीके से विपक्ष की भूमिका में रहें तो संभावनाएं बनेंगी, बढ़ेंगी, बिखरे कुनबे एकजुट हो जाएंगे.

मगर सत्ता का कैसा भी स्वाद चखने के मौके के लिए उन्हें कम से कम 2014 के लोकसभा चुनावों तक इंतजार करना होगा और बिना रुके विधानसभा से बाहर सड़कों पर, गांव-देहात में संघर्ष करते रहना होगा. तब तक वे 67 साल के भी हो जाएंगे. इस दौरान उन्हें नीतीश की गलतियों से लड़ना है और नीतीश का हर अच्छा काम उनकी सत्ता की राह कुछ और मुश्किल बना सकता है. मगर लालू यह सोचकर खुश हो सकते हैं कि चूंकि अगले तीन-चार साल तक कोई चुनाव नहीं है इसलिए उनके पास अपनी गलतियां सुधारने और तैयारियों के लिए पर्याप्त समय है.