तमाशा, रेस और प्वाइंट्स

 

बीती जुलाई की एक शाम बिहार की राजधानी पटना में केबल टेलीविजन पर दिखने वाले सारे खबरिया चैनल गायब हो गए. केवल एक को छोड़कर. यह चैनल था मौर्य टीवी जोकि बिहार और झारखंड में चलने वाला एक क्षेत्रीय समाचार चैनल है. बाकी चैनलों का प्रसारण बंद होने के बाद स्वाभाविक ही था कि संबंधित चैनलों के लोग पटना में केबल नेटवर्क चलाने वालों से संपर्क साधते. ऐसा करने पर जवाब मिला कि कुछ तकनीकी बदलाव किए जा रहे हैं इसलिए एक-दो घंटे में चैनल दिखने लगेंगे, लेकिन रात के ग्यारह बजे तक दूसरे चैनल नहीं दिखे. स्वाभाविक है ऐसे में दर्शकों के सामने खबर देखने के लिए सिर्फ एक ही विकल्प था. नतीजा यह हुआ कि उस हफ्ते बिहार में मौर्य टीवी रेटिंग के लिहाज से सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चैनल बन गया. वहीं दूसरे चैनलों की रेटिंग में कमी आई.

‘तहलका’ को यह कहानी बिहार के लिए क्षेत्रीय समाचार चैनल चलाने वाले चैनल प्रमुखों ने सुनाई. उनका यह भी आरोप है कि केबल नेटवर्क चलाने वालों के साथ मिलकर मौर्य टीवी को नंबर एक बनाने का यह खेल हुआ और इसमें उनके चैनलों को नुकसान उठाना पड़ा. उनके मुताबिक एक तरह से देखा जाए तो सुनियोजित ढंग से टीवी से चैनलों का विकल्प गायब कर दिया गया और विकल्पहीनता का फायदा उठाकर एक खास चैनल को रेटिंग के मामले में शीर्ष स्थान पर काबिज होने की पटकथा तैयार कर दी गई.

इस घटना ने एक बार फिर टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट तय करने की पूरी प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह उदाहरण 2011 का है, लेकिन इस तरह के सवाल एक दशक पहले 2001 में ही उठने लगे थे. दरअसल तब मुंबई के 625 घरों के बारे में यह बात सामने आई थी कि उन्हें टीआरपी तय करने की प्रक्रिया में शामिल किया गया है. रेटिंग तैयार करने वाली एजेंसी इन घरों की गोपनीयता बनाए रखने का दावा करती थी. उस वक्त खबरें आई थीं कि एक खास चैनल के लोगों ने इन घरों के दर्शकों को प्रभावित करने का काम किया और इसमें कामयाब भी हुए. इन घरों के लोगों को खास कार्यक्रम देखने के बदले कुछ उपहार देने की बात सामने आई थी. खबर आने के बाद हर तरफ हो-हल्ला मचा. विज्ञापनदाताओं ने भी सवाल उठाए और चैनल के लोगों ने भी. विज्ञापन के रूप में 2500 करोड़ रु (यह 2001 का आंकड़ा है जो आज 10 हजार करोड़ से भी ज्यादा हो गया है) की रकम जिस आधार  पर खर्च हो रही हो उसी में मिलावट की खबर मिले तो ऐसा होना स्वाभाविक ही था. रेटिंग तय करने वाली एजेंसी ने फिर गोपनीयता का भरोसा दिलाया. कहा कि जो गलतियां हुई हैं उन्हें सुधार लिया जाएगा. बात आई-गई हो गई. लेकिन 10 साल बाद पटना की घटना ने एक बार फिर टीआरपी नाम की इस व्यवस्था की खामियों का संकेत दे दिया है.
वैसे इन 10 वर्षों के दौरान भी कई मर्तबा टीआरपी पर सवाल उठते रहे हैं. 2001 के बाद से देश में समाचार चैनलों की संख्या तेजी से बढ़ी और समय के साथ खबरों की परिभाषा भी बदलती चली गई. आरोप लगे कि खबरों की जगह भूत-प्रेत और नाग-नागिन ने ले ली है. यह भी कि खबरिया चैनल मनोरंजन चैनलों की राह पर चल पड़े हैं. आलोचक मानते हैं कि इस दौरान खबरों से सरोकार गायब होते गए और इनकी जगह सनसनी और मनोरंजन ने ले ली. और यह पूरा खेल हुआ उस टीआरपी के नाम पर जिसकी व्यवस्था में खुद ही कई खामियां हैं.

हालांकि यह भी दिलचस्प है कि कुछ समय पहले तक समाचार चैनलों को चलाने वाले लोग अक्सर यह तर्क दिया करते थे कि समय के साथ खबरों की परिभाषा बदल गई है. लेकिन अब जब टीआरपी की पूरी प्रक्रिया की पोल धीरे-धीरे खुल रही है और उसी टीआरपी ने चैनल प्रमुखों की नौकरियों को चुनौती देना शुरू कर दिया है तो कई टीआरपी की व्यवस्था पर सवाल उठाने लगे हैं.
आगे बढ़ने से पहले टीआरपी से संबंधित कुछ बुनियादी बातों को समझना जरूरी है. अभी देश में टीआरपी तय करने का काम टैम मीडिया रिसर्च नामक कंपनी करती है. यहां टैम का मतलब है टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट. रेटिंग तय करने के लिए एक दूसरी कंपनी भी है जिसका नाम है एमैप. हालांकि, कुछ दिनों पहले ही यह खबर आई कि एमैप बंद हो रही है. इस बारे में कंपनी के प्रबंध निदेशक रविरतन अरोड़ा का कहना था कि वे अपना कारोबार समेट नहीं रहे बल्कि तकनीकी बदलावों के चलते इसे चार महीने तक रोक रहे हैं. 2004 में शुरू होने वाली कंपनी एमैप अभी तक 7,200 मीटरों के जरिए रेटिंग तैयार करने का काम कर रही थी. उधर, 1998 में शुरू हुई टैम के कुल मीटरों की संख्या 8,150 है. इनमें से 1,007 मीटर डीटीएच, कैस और आईपीटीवी वाले घरों में हैं. जबकि 5,532 मीटर एनालॉग केबल और 1,611 मीटर गैर केबल यानी दूरदर्शन वाले घरों में हैं. एक मीटर की लागत 75,000 रुपये से एक लाख रुपये के बीच बैठती है.

इन्हीं मीटरों के सहारे टीआरपी तय की जाती है. ये मीटर संबंधित घरों के टेलीविजन सेट से जोड़ दिए जाते हैं. इनमें यह दर्ज होता है कि किस घर में कितनी देर तक कौन-सा चैनल देखा गया. अलग-अलग मीटरों से मिलने वाले आंकड़ों के आधार पर रेटिंग तैयार की जाती है और बताया जाता है कि किस चैनल को कितने लोगों ने देखा. टैम सप्ताह में एक बार अपनी रेटिंग जारी करती है और इसमें पूरे हफ्ते के अलग-अलग कार्यक्रमों की रेटिंग दी जाती है. टैम यह रेटिंग अलग-अलग आयु और आय वर्ग के आधार पर देती है. इस रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल पर उन्हें कितना विज्ञापन देना है. रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाताओं को यह पता चल पाता है कि वे जिस वर्ग तक अपना उत्पाद पहुंचाना चाहते हैं वह वर्ग कौन-सा चैनल देखता है. चैनलों की आमदनी का सबसे अहम जरिया विज्ञापन ही हैं. इस वजह से चैनलों के लिए रेटिंग की काफी अहमियत है. जिस चैनल की रेटिंग ज्यादा होगी विज्ञापनदाता उसी चैनल को अधिक विज्ञापन देंगे. इस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि रेटिंग सीधे तौर पर चैनलों की कमाई से जुड़ी हुई है. जितनी अधिक रेटिंग उतनी अधिक कमाई. रेटिंग से ही चैनलों को यह पता चल पाता है कि किस तरह के कार्यक्रम को लोग पसंद कर रहे हैं और इसी के आधार पर उस सामग्री का स्वरूप तय होता है जो दर्शकों को टीवी के परदे पर दिखती है.

यानी खबरिया चैनलों की सामग्री के बदलाव में टीआरपी प्रमुख भूमिका निभा रही है. अब अगर टीआरपी तय करने की पूरी व्यवस्था में ही कई खामियां हों तो जाहिर है कि सामग्री के स्तर पर होने वाला बदलाव सकारात्मक नहीं होगा. यही बात खबरिया चैनलों के मामले में दिखती है. टैम की शुरुआत से संबंधित तथ्यों से यह बात स्थापित होती है कि यह विज्ञापनदाताओं के लिए काम करने वाली एजेंसी है. यह भले ही दर्शकों की पसंद-नापसंद की रिपोर्ट देने का दावा करती हो लेकिन इसका मकसद सीधे तौर पर विज्ञापनदाताओं की उनके हित साधने में मदद करना है. ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव और साधना न्यूज समूह के संपादक एनके सिंह के मुताबिक टीआरपी जिस तकनीकी बदलाव की नुमाइंदगी करती है उसका मकसद खपत के पैटर्न में बदलाव करना है. वे कहते हैं, ‘टीआरपी की शुरुआत विज्ञापन एजेंसियों ने की, इसलिए यह व्यवस्था उनके हितों की रक्षा करेगी. विज्ञापनदाताओं के लिए यह जरूरी है कि उनके उत्पाद की खपत बढ़े. इसके लिए वे टीआरपी का इस्तेमाल करते हैं. दरअसल, यह एक ऐसा औजार है जिसके जरिए बाजार में खपत के लिए माहौल तैयार किया जाता है. लोगों के लिए इसकी और कोई प्रासंगिकता नहीं है.’

टैम के वरिष्ठ उपाध्यक्ष (कम्यूनिकेशंस) सिद्धार्थ मुखर्जी ‘तहलका’ से बातचीत में स्वीकार करते हैं कि टैम की शुरुआत विज्ञापनदाताओं को ध्यान में रखकर की गई थी. ‘हमें कहा गया था कि हम ये बताएं किस कार्यक्रम को कितना देखा जाता है ताकि इसके आधार पर विज्ञापनदाता अपनी रणनीति तय कर सकें. इसलिए हम यह दावा नहीं करते कि हम दर्शकों के लिए काम करते हैं. हमारा आम आदमी से कोई लेना-देना नहीं है.’ सिद्धार्थ कहते हैं, ‘टैम के आंकड़ों में तो टेलीविजन और विज्ञापन उद्योग से जुड़े लोगों और शोध करने वालों को ही दिलचस्पी रखनी चाहिए. दूसरों की दिलचस्पी का कारण मुझे समझ में नहीं आता. हमारा काम मीटर वाले घरों में देखे जाने वाले चैनलों की जानकारी एकत्रित करना और उसके आधार पर रेटिंग तैयार करना है. इसके बाद हम ये आंकड़े विज्ञापन एजेंसियों और टेलीविजन चैनलों को दे देते हैं. यहीं हमारा काम खत्म हो जाता है. हमने समाचार चैनलों से कभी नहीं कहा कि हमारी रेटिंग की वजह से आप अपनी सामग्री में बदलाव कर दीजिए.’

लेकिन सवाल यह है कि क्या उनके यह कह देने भर से मुद्दा खत्म हो जाता है कि वे दर्शकों के लिए काम नहीं करते. टैम की टीआरपी के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल को कितना विज्ञापन देना है. आंकड़ों में देखा जाए तो हर साल करीब 10,000 करोड़ रु की रकम कैसे खर्च होगी इसका आधार एक बड़ी हद तक टीआरपी ही तय करती है. बाजार में हर चैनल मुनाफा कमाने के लिए ही चल रहा है. विज्ञापन या यों कहें कि चैनलों की कमाई जब टीआरपी के आधार पर ही तय हो रही हो तो जाहिर है कि चैनल टीआरपी के हिसाब से अपनी सामग्री में बदलाव करेंगे.

खबरिया चैनलों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों की सामग्री के मामले में भारत में यही हुआ. 2000 के बाद देश में तेजी से खबरिया चैनलों की संख्या बढ़ी और इस बढ़ोतरी के साथ खबरों की प्रकृति भी बदलती चली गई. कुछ चैनलों ने भूत-प्रेत-चुड़ैल और सनसनी वाली खबरों से टीआरपी क्या बटोरी बाकी ज्यादातर चैनल भी इसी राह पर चल पड़े. चलते भी क्यों नहीं. सवाल टीआरपी बटोरने का था. जिसकी जितनी अधिक टीआरपी उसकी उतनी अधिक कमाई. जो इस नई डगर पर चलने के लिए तैयार नहीं थे उनके लिए चैनल चलाने का खर्चा निकालना भी मुश्किल हो गया. खबरिया चैनलों की दुनिया में काम करने वाले लोग ही बताते हैं कि टीआरपी नाम के दैत्य ने कई पत्रकारों की नौकरी ली और कई संपादकों की फजीहत कराई. उनके मुताबिक टीआरपी को ही सब कुछ मान लेने का नतीजा यह हुआ कि गंभीर खबरें लाने वाले पत्रकारों की हैसियत कम होती गई और उन्हें अपमान का भी सामना करना पड़ा. दूसरी तरफ अनाप-शनाप खबरें लाकर टीआरपी बटोरने वाले पत्रकारों का सम्मान और तनख्वाह बढ़ती रही. जब-जब खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने पर सवाल उठा तब-तब इन चैनलों के संपादक यह कहकर अपना बचाव करते दिखे कि आलोचना करने वाले पुराने जमाने के पत्रकार हैं और वे नए जमाने को समझ नहीं पाए हैं. ये संपादक दावा करते रहे कि समाज बदला है इसलिए खबरों का मिजाज भी बदलेगा.

लेकिन आज वही संपादक खुद ही टीआरपी पर सवाल उठा रहे हैं. आईबीएन-7 के संपादक आशुतोष ने कुछ समय पहले एक अखबार में छपे अपने लेख में टीआरपी की व्यवस्था को फौरन बंद करने की मांग की है. ‘तहलका’ से बातचीत में वे कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी व्यवस्था दोषपूर्ण और अवैज्ञानिक है. इसमें न तो हर तबके की भागीदारी है और न ही हर क्षेत्र की. लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं और ऐसे में विकास की दौड़ में अब तक पीछे रहे लोगों और क्षेत्रों की उपेक्षा हो रही है. खबरों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों में खबरों के भटकाव के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार टीआरपी है. अच्छी खबरों की टीआरपी नहीं है. कोई चैनल किसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय खबर को दिखा रहा हो या फिर राष्ट्रीय महत्व की किसी खबर को उठा रहा हो, उसकी टीआरपी नहीं आती. भूत-प्रेत दिखाने वाले चैनल की अच्छी टीआरपी आ जाती है.’ बकौल आशुतोष, ‘एक अदना-सा लड़का भी जानता है कि टीवी में तीन सी, यानी क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा बिकता है और प्रस्तुतीकरण जितना सनसनीखेज होगा उतनी ही टीआरपी टूटेगी. और टीआरपी माने विज्ञापन, विज्ञापन माने पैसा, पैसा माने प्रॉफिट, प्रॉफिट माने बाजार में जलवा. जिस हफ्ते टीआरपी गिर जाती है उस हफ्ते एडिटर को नींद नहीं आती, उसको अपनी नौकरी जाती हुई नजर आती है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, वह न्यूज रूम में ज्यादा चिल्लाने लगता है. और फिर टीआरपी बढ़ाने के नए-नए तरीके ईजाद करता है.’

सवाल सरकारी स्तर पर भी उठ रहे हैं. 2008 में एक स्थायी संसदीय समिति ने भी टीआरपी की व्यवस्था को दोषपूर्ण बताते हुए एक रपट संसद में दी थी. इस समिति को दी गई जानकारी में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने भी माना था कि एजेंसियों द्वारा तैयार की जा रही टीआरपी में कई तरह की कमियां हैं. प्रसार भारती के मुताबिक टैम के आंकड़ों की विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं. इसमें साप्ताहिक आधार पर आंकडे़ जारी करना, घरों की चयन पद्धति में पारदर्शिता की कमी और मीटर वाले घरों के नामों की गोपनीयता शामिल हैं. इसके अलावा स्वयं टैम द्वारा आंकड़ों से छेड़खानी की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इन आंकड़ों का किसी बाहरी संस्था द्वारा ऑडिट नहीं कराया जाता. एक चैनल के प्रमुख बताते हैं कि कुछ महीने पहले उनके चैनल की जो पहली रेटिंग आई उस पर प्रबंधन को संदेह हुआ. इसके बाद जब दोबारा रेटिंग मंगवाई गई तो पहले और बाद के आंकड़ों में काफी फर्क था. उधर, भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने भी इस व्यवस्था को गलत बताया है. अभी हाल ही में फिक्की के पूर्व महासचिव और पश्चिम बंगाल के मौजूदा वित्त मंत्री अमित मित्रा की अध्यक्षता में भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा गठित टीआरपी समिति की रिपोर्ट आई है. इसमें भी बताया गया है कि टीआरपी की पूरी व्यवस्था में कई खामियां हैं. इसके बावजूद टीवी और मनोरंजन उद्योग इन्हीं की रेटिंग के आधार पर अपने व्यावसायिक फैसले लेता है.

जानकार मानते हैं कि इस उद्योग की बुनियाद ही ऐसी व्यवस्था पर टिकी हुई है जिसमें जबर्दस्त खामियां हैं. अब इन खामियों को एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं. पहली और सबसे बड़ी खामी तो यही है कि 121 करोड़ की आबादी वाले इस देश में टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद तय करने का काम टैम 165 शहरों में लगे महज 8,150 मीटरों के जरिए कर रही है. सहारा समय बिहार-झारखंड के प्रमुख प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही है. आखिर सैंपल के इतने छोटे आकार के बूते कैसे सभी टेलीविजन दर्शकों की पसंद-नापसंद को तय किया जा सकता है.’

प्रबुद्ध राज जो सवाल उठा रहे हैं वह सवाल अक्सर उठता रहता है. कुछ समय पहले केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा था, ‘टेलीविजन कार्यक्रमों की रेटिंग तय करने के लिए न्यूनतम जरूरी मीटर तो लगने ही चाहिए. 8,000 मीटर टीआरपी तय करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.’ यह बात सोनी ने तब कही थी जब अमित मित्रा समिति की टीआरपी रिपोर्ट नहीं आई थी. इस रिपोर्ट को आए अब सात महीने होने को हैं, लेकिन अब तक समिति की सिफारिशों पर कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है.

हालांकि सिद्धार्थ दावा करते हैं कि वे 8,150 मीटरों के जरिए तकरीबन 36,000 लोगों की पसंद-नापसंद को इकट्ठा करते हैं. वे कहते हैं, ‘दुनिया में इतना बड़ा सैंपल किसी देश में टीआरपी के लिए इस्तेमाल नहीं होता. जिस तरह से शरीर के किसी भी हिस्से से एक बूंद खून लेने से यह पता चल जाता है कि ब्लड ग्रुप क्या है, उसी तरह इतने मीटरों के सहारे टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद का अंदाजा भी लगाया जा सकता है.’

लेकिन आलोचकों के इस पर अपने तर्क हैं. पहला तो यह कि टीआरपी की ब्लड ग्रुप से तुलना करना ही गलत है. क्योंकि इस आधार पर तो सिर्फ कुछ हजार लोगों की राय लेकर सरकार भी बनाई जा सकती है, फिर चुनाव का क्या काम है? जाहिर है कि सिद्धार्थ इस तरह के तर्कों का सहारा अपनी एजेंसी की खामियों पर पर्दा डालने के लिए कर रहे हैं. सिद्धार्थ तो यह भी कहते हैं कि अगर अमित मित्रा समिति की सिफारिशों के मुताबिक मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 कर दी जाए तो भी क्या गारंटी है कि टीआरपी की पूरी प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठेंगे. आलोचक इस पर तर्क देते हैं कि सवाल तो तब भी उठेंगे लेकिन टीआरपी की विश्वसनीयता बढ़ेगी.
सवाल केवल मीटरों की कम संख्या का ही नहीं है बल्कि इनका बंटवारा भी भेदभावपूर्ण है. अब भी पूर्वोत्तर के राज्यों और जम्मू-कश्मीर में टीआरपी मीटर नहीं पहुंचे हैं. ज्यादा मीटर वहीं लगे हैं जहां के लोगों की क्रय क्षमता अधिक है. आशुतोष कहते हैं, ‘लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं. यह सही नहीं है. सबसे ज्यादा मीटर दिल्ली और मुंबई में हैं. जबकि बिहार की आबादी काफी अधिक होने के बावजूद वहां सिर्फ 165 मीटर ही हैं. पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर तक तो मीटर पहुंचे ही नहीं हैं. इससे पता चलता है कि टीआरपी की व्यवस्था कितनी खोखली है.’

एनके सिंह इस बात को कुछ इस तरह रखते हैं, ‘35 लाख की आबादी वाले शहर अहमदाबाद में टीआरपी के 180 मीटर लगे हुए हैं. जबकि 10.5 करोड़ की आबादी वाले राज्य बिहार में सिर्फ 165 टीआरपी मीटर ही हैं. देश के आठ बड़े शहरों में तकरीबन चार करोड़ लोग रहते हैं और इन लोगों के लिए टीआरपी के 2,690 मीटर लगे हैं. जबकि देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले 118 करोड़ लोगों के लिए 5,310 टीआरपी मीटर हैं.’ सिंह ने यह हिसाब टीआरपी के 8,000 मीटरों के आधार पर लगाया है. अब टैम ने इसमें 150 मीटर और जोड़ दिए हैं.

मीटरों के इस भेदभावपूर्ण बंटवारे के नतीजे की ओर इशारा करते हुए सिंह कहते हैं, ‘आप देखते होंगे कि दिल्ली या मुंबई की कोई छोटी-सी खबर भी राष्ट्रीय खबर बन जाती है लेकिन आजमगढ़ या गोपालगंज की बड़ी घटना को भी खबरिया चैनलों पर जगह पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. इसलिए कि टीआरपी के मीटर वहां नहीं हैं जबकि मुंबई में 501 और दिल्ली में 530 टीआरपी मीटर हैं. टीआरपी बड़े शहरों के आधार पर तय होती है, इसलिए खबरों के मामले में भी इन शहरों का प्रभुत्व दिखता है. इसके आधार पर कहा जा सकता है कि खबर और टीआरपी के लिए चलाई जा रही खबर में फर्क होता है.’

एनके सिंह ने जो तथ्य रखे हैं वे इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि टीआरपी कुछ ही शहरों के लोगों की पसंद-नापसंद के आधार पर तय की जा रही है. जबकि डीटीएच के प्रसार के बाद टीवी देखने वाले लोगों की संख्या छोटे शहरों और गांवों में भी तेजी से बढ़ी है. इसके बावजूद वहां तक टैम के वे मीटर नहीं पहुंचे हैं जिनके आधार पर टीआरपी तय की जा रही है. मीटर उन्हीं जगहों पर लगे हैं जहां की आबादी एक लाख से अधिक है. इसलिए बड़े शहरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को ही छोटे शहरों और गांव के लोगों की पसंद-नापसंद मान लिया जा रहा है. स्थायी संसदीय समिति के सामने सूचना और प्रसारण मंत्रालय, ट्राई, प्रसार भारती, प्रसारण निगम और इंडियन ब्राॅडकास्टिंग फाउंडेशन ने भी माना है कि ग्रामीण भारत को दर्शाए बगैर कोई भी रेटिंग पूरी तरह सही नहीं हो सकती.

2003-04 में प्रसार भारती ने टैम से मीटरों की संख्या बढ़ाने का अनुरोध किया था, ताकि ग्रामीण दर्शकों को भी कवर किया जा सके. टैम ने एक ही घर में एक से ज्यादा मीटर भी लगा रखे हैं. इस बाबत प्रसार भारती ने कहा था कि जिन घरों में दूसरा मीटर है उन्हें हटाकर वैसे घरों में लगाया जाना चाहिए जहां एक भी मीटर नहीं है. उस वक्त टैम ने ग्रामीण क्षेत्रों में मीटर लगाने के लिए दूरदर्शन से पौने आठ करोड़ रुपये की मांग की थी. प्रसार भारती ने उस वक्त यह कहकर इस प्रस्ताव को टाल दिया था कि यह खर्चा पूरा टेलीविजन उद्योग वहन करे न कि सिर्फ दूरदर्शन. लेकिन निजी चैनलों ने इस विस्तार के प्रति उत्साह नहीं दिखाया. इस वजह से सबसे ज्यादा नुकसान दूरदर्शन का हुआ. दूरदर्शन के कार्यक्रमों की रेटिंग कम हो गई, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षाकृत ज्यादा लोग दूरदर्शन देखते हैं.

गांवों में टीआरपी मीटर लगाने के सवाल पर सिद्धार्थ कहते हैं, ‘अब विज्ञापन एजेंसियां और टेलीविजन उद्योग गांवों के आंकड़े भी मांग रहे हैं, इसलिए हमने शुरुआत महाराष्ट्र के कुछ गांवों से की है. अभी यह योजना प्रायोगिक स्तर पर है. 60-70 गांवों में अभी हम अध्ययन कर रहे हैं. इसके व्यापक विस्तार में काफी वक्त लगेगा, क्योंकि गांवों में कई तरह की समस्याएं हैं. कहीं बिजली नहीं है तो कहीं वोल्टेज में काफी उतार-चढ़ाव है. इन समस्याओं के अध्ययन और समाधान के बाद ही गांवों में विस्तार के बारे में ठोस तौर पर टैम कुछ बता सकती है.’

टीआरपी मीटर लगाने में न सिर्फ शहरी और ग्रामीण खाई है बल्कि वर्ग विभेद भी साफ दिखता है. अभी ज्यादातर मीटर उन घरों में लगे हैं जो सामाजिक और आर्थिक लिहाज से संपन्न कहे जाते हैं. ये मीटर आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़े हुए लोगों के घरों में नहीं लगे हैं. हालांकि, आज टेलीविजन ऐसे घरों में भी हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि संपन्न तबके की पसंद-नापसंद को हर वर्ग पर थोप दिया जा रहा है. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अगर बक्से उच्च वर्ग के घरों में लगाए जाएं तो जाहिर है कि टीवी कार्यक्रमों को लेकर उस वर्ग की पसंद देश के आम तबके से थोड़ी अलग होगी ही, लेकिन इसके बावजूद टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था में उसे ही सबकी पसंद बता दिया जाता है और इसी के आधार पर उस तरह के कार्यक्रमों की बाढ़ टीवी पर आ जाती है.

वरिष्ठ पत्रकार और हाल तक भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य रहे परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘भारत के संविधान में 22 भाषाओं की बात की गई है. देश में जो नोट चलते हैं उनमें 17 भाषाएं होती हैं. ऐसे में आखिर कुछ संभ्रांत वर्ग के लोगों के यहां टीआरपी मीटर लगाकर उनकी पसंद-नापसंद को पूरे देश के टीवी दर्शकों पर थोपना कहां का न्याय है.’ वे कहते हैं, ‘टीआरपी की आड़ लेकर चैनल भी अनाप-शनाप दिखाना शुरू कर देते हैं. सवाल उठाने पर कहते हैं कि जो दर्शक पसंद कर रहे हैं वही हम दिखा रहे हैं. अब अगर किसी सर्वेक्षण में यह बात सामने आ जाए कि दर्शक पोर्नोग्राफी देखना पसंद करते हैं तो क्या चैनलवाले ऐसी सामग्री भी दिखाना शुरू कर देंगे?’

टीआरपी तय करने की पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है. यही वजह है कि समय-समय पर टीआरपी के आंकड़ों में हेर-फेर के आरोप भी लगते रहे हैं. अगर ऐसी किसी गड़बड़ी की वजह से किसी खराब कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ जाती है तो खतरा इस बात का भी है कि दूसरे चैनल भी ऐसे ही कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगेंगे. ऐसे में एक गलत चलन की शुरुआत होगी. हिंदी खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने को इससे जोड़कर देखा और समझा जा सकता है.

नौ चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को बिल्कुल पाक-साफ नहीं कहा जा सकता है. यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं. राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाता है कि चैनलों की रैंकिंग में कोई खास फर्क नहीं होता है. चोटी के तीन चैनल हर हफ्ते अपना स्थान बदल लेते हैं लेकिन शीर्ष पर यही तीन चैनल रहते हैं. ऐसा नहीं होता कि पहले नंबर का चैनल अगले सप्ताह छठे या सातवें स्थान पर चला जाए. जबकि बिहार में ऐसा खूब हो रहा है. इस सप्ताह जो चैनल पहले पायदान पर है वह अगले सप्ताह छठे स्थान पर पहुंच जाता है और छठे-सातवें वाला पहले पायदान पर. ऐसा नहीं है कि बिहार के दर्शकों की पसंद इतनी तेजी से बदल रही है बल्कि कहीं न कहीं यह टीआरपी की प्रक्रिया में मौजूद खामियों की ओर इशारा करता है.’

प्रबुद्ध राज अचानक होने वाले इस तरह के बदलाव को लेकर जिन खामियों की ओर इशारा कर रहे हैं, वे दो स्तर पर संभव हैं. पहली बात तो यह है कि बिहार के जिन घरों में मीटर लगे हुए हैं उन घरों से मिलने वाले आंकड़ों के साथ टैम में छेड़छाड़ होती हो. ऑफ दि रिकॉर्ड बातचीत में कई खबरिया चैनलों के संपादक ऐसे आरोप लगाते हैं, लेकिन खुलकर कोई इसलिए नहीं बोलता कि इसी टीआरपी के जरिए उनके चैनल के दर्शकों की संख्या भी तय होनी है.

दूसरी  संभावना यह है कि जिन घरों में टैम के मीटर लगे हुए हैं वे रेटिंग को प्रभावित करने वाले तत्वों के प्रभाव में हों. 2001 में जब मीटर वाले घरों की बात खुली थी तो उस वक्त यह बात सामने आई थी कि इन घरों को खास चैनल देखने के लिए उपहार दिए जा रहे थे. एक चैनल के संपादक बताते हैं कि आज भी यह प्रवृत्ति जारी है. अमित मित्रा समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि उसके सामने कुछ ऐसे मामले लाए गए जिनमें यह कहा गया कि उपहार देकर मीटर वाले घरों को प्रभावित करने की कोशिश की गई. कुछ ऐसी शिकायतें भी आई हैं जिनमें यह कहा गया है कि चैनलों के एजेंट मीटर वाले घरों के मालिकों को देखने के लिए अपनी ओर से एक टीवी दे देते हैं और जिस टीवी में मीटर लगा होता है उस पर अपने हिसाब से चैनल चलवाकर रेटिंग को प्रभावित करते हैं.

तीसरी बात थोड़ी तकनीकी है. टैम के मीटर में देखे जाने वाले चैनल का नाम नहीं दर्ज होता बल्कि यह दर्ज होता है कि किस फ्रीक्वेंसी वाले चैनल को देखा जा रहा है. बाद में इसका मिलान उस फ्रीक्वेंसी पर प्रसारित होने वाले चैनलों की सूची से कर लिया जाता है. इसमें खेल यह है कि जिस चैनल की टीआरपी गिरानी हो तो केबल ऑपरेटर उस चैनल की फ्रीक्वेंसी बार-बार बदलते रहेंगे. आसान शब्दों में समझें तो आपके टेलीविजन में जो चैनल पांच नंबर पर दिखता है उसे उठाकर 165 नंबर पर दिखने वाले चैनल की जगह पर रख देंगे. जाहिर है कि ऐसे में जब आपको पांच पर आपका चैनल नहीं मिलेगा तो आप उसे खोजते-खोजते 165 तक नहीं जाएंगे और पांच नंबर पर दिखाए जाने वाले चैनल को भी नहीं देखेंगे. ऐसी स्थिति में पांच नंबर वाले चैनल की रेटिंग गिर जाएगी. चैनल के वितरण से जुड़े लोगों के प्रभाव में आकर यह खेल अक्सर स्थानीय स्तर पर केबल ऑपरेटर करते हैं. हालांकि, टैम का कहना है कि वह फ्रीक्वेंसी में होने वाले इस तरह के बदलावों पर नजर रखती है और उसके हिसाब से रेटिंग तय करती है. पर इस क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि व्यावहारिक तौर पर यह संभव नहीं है कि ऑपरेटर द्वारा हर बार फ्रीक्वेंसी में किए जाने वाले बदलाव को टैम के लोग पकड़ सकें.

सवाल यह भी है कि जो मीटर किसी घर में लगाए जाते हैं वे कितने समय तक वहां रहते हैं और मीटर लगने वाले घरों में बदलाव की क्या स्थिति है. इस बाबत टैम ने कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी. वैसे टैम यह दावा करती है कि हर साल वह 20 फीसदी मीटर घरों में बदलाव करती है. टैम ने गोपनीयता का वास्ता देते हुए यह बताने से भी इनकार कर दिया कि किन घरों में उसने मीटर लगाए हुए हैं. टैम के अधिकारी उन घरों का पता बताने के लिए भी तैयार नहीं हुए जहां पहले मीटर लगे हुए थे लेकिन अब हटा लिए गए हैं. हालांकि, अमित मित्रा समिति ने इस बात की सिफारिश जरूर की है कि टीआरपी की प्रक्रिया में पारदर्शिता और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए जरूरी उपाय किए जाएं.

एक और अहम बात यह है कि टैम के आंकड़ों का कोई स्वतंत्र ऑडिट नहीं होता. यह सवाल समय-समय पर उठता रहा है. इसके जवाब में एजेंसी कहती रही है कि वह अपनी प्रक्रियाओं में अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन करती है और रहा सवाल ऑडिट का तो कंपनी खुद तो ऑडिट करती ही है जिसमें काफी सख्ती और पारदर्शिता बरती जाती है. जहां तक विदेशों का सवाल है तो अमेरिका में टेलीविजन रेटिंग जारी करने का काम मीडिया रिसर्च काउंसिल (एमआरसी) करती है. यह एजेंसी जो आंकड़े एकत्रित करती है उसकी ऑडिटिंग प्रमाणित लोक लेखा एजेंसियां करती हैं. इसके बाद काफी विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाती है.

मुद्दा यह भी है कि अगर किसी व्यक्ति या संस्था को रेटिंग एजेंसियों के काम-काज पर संदेह है तो वह इन एजेंसियों के खिलाफ अपनी शिकायत तक नहीं दर्ज करा सकता. अभी तक भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई है कि इन एजेंसियों के खिलाफ कहीं शिकायत दर्ज करवाई जा सके. इस बदहाली के लिए स्थायी संसदीय समिति ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को आड़े हाथों लेते हुए कहा है, ‘डेढ़ दशक से सरकार अत्यधिक हिंसा और अश्लीलता के प्रसार और भारतीय संस्कृति के क्षरण को इस निरर्थक दलील के सहारे मूकदर्शक बनकर देखती रही कि अभी तक रेटिंग प्रणाली विनियमित नहीं है और कोई नीति/दिशानिर्देश इसलिए नहीं बनाए गए हैं क्योंकि रेटिंग एक व्यापारिक गतिविधि है और जब तक आम आदमी के हित का कोई बड़ा सवाल न हो तब तक सरकार किसी व्यापारिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं करती. मंत्रालय यह सोच कर आराम से बैठा रहा कि इसे अधिक व्यापक आधार वाला और प्रातिनिधिक बनाने का काम खुद उद्योग करेगा. भारत में टीवी प्रसार को देखते हुए स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि प्रचलित रेटिंग केवल और केवल एक व्यापारिक गतिविधि नहीं है.’

मीडिया के कुछ लोग टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को दोषपूर्ण मानते हुए इसमें सरकारी दखल की मांग करते रहे हैं. हालांकि, कुछ समय पहले तक सरकार यह कहती थी कि सर्वेक्षण के काम में वह दखल नहीं दे सकती क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ मामला है. इस सरकारी तर्क को खारिज करते हुए एनके सिंह कहते हैं, ‘यह बात सही है कि संविधान के अनुच्छेद-19(1)(जी) के तहत हर किसी को अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करने का अधिकार है लेकिन अनुच्छेद-19(6) में यह साफ लिखा हुआ है कि अगर कोई व्यवसाय जनता के हितों को प्रभावित करता है तो सरकार उसमें दखल दे सकती है. टीआरपी से देश की जनता प्रभावित हो रही है क्योंकि इसके हिसाब से खबरें प्रसारित हो रही हैं और जनता के मुद्दे बदले जा रहे हैं.’ अमित मित्रा समिति ने भी इस ओर यह कहते हुए इशारा किया है कि रेटिंग एजेंसियों के स्वामित्व में प्रसारकों, विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों की हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए ताकि हितों का टकराव नहीं हो. केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक हालिया साक्षात्कार में संकेत दिया था कि सरकार दखल के विकल्प पर विचार कर रही है. उनका कहना था, ‘यह सरकार की जिम्मेदारी है कि लोगों को सही चीजें देखने को मिलें. दूसरी बात यह है कि विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) देश का सबसे बड़ा विज्ञापनदाता है तो ऐसे में आखिर लोग यह कैसे कह सकते हैं कि सरकार इस मामले में पक्षकार नहीं है. देश का सबसे बड़ा चैनल दूरदर्शन भी सरकारी है.’ अंबिका सोनी की बात उम्मीद बंधाने वाली लगती तो है लेकिन टीआरपी समिति की सिफारिशों जो हश्र हुआ है उसे देखकर निराशा ही होती है.

एक बात तो साफ है कि टीआरपी मापने की मौजूदा प्रक्रिया टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसलिए हर तरफ यह बात उठती है कि टीआरपी मीटरों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए, पर सैंपल विस्तार में बढ़ोतरी नहीं होने के लिए मीटर की लागत को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. अमित मित्रा समिति ने टीआरपी की प्रक्रिया में सुधार के लिए मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 करने की सिफारिश की है. गांवों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए समिति ने इनमें से 15,000 मीटर गांवों में लगाने की बात कही है. समिति के मुताबिक इस क्षमता विस्तार में तकरीबन 660 करोड़ रुपये खर्च होंगे.
इस बारे में सिद्धार्थ कहते हैं, ‘हम इसके लिए तैयार हैं कि मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस काम को करने के लिए पैसा कौन देगा. अगर विज्ञापन और टेलीविजन उद्योग इसके लिए पैसा देने या फिर सब्सक्रिप्शन शुल्क बढ़ाने को तैयार हो जाते हैं तो हम मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए तैयार हैं.’ गौरतलब है कि विज्ञापन एजेंसियां और खबरिया चैनल टैम से मिलने वाले टीआरपी आंकड़ों के लिए सब्सक्रिप्शन शुल्क के तौर पर चार लाख रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक खर्च करती हैं. जो जितना अधिक पैसा देता है उसे उतने ही विस्तृत आंकड़े मिलते हैं.

एक तबका मानता है कि टीवी उद्योग को हर साल 10,300 करोड़ रुपये के विज्ञापन मिलते हैं इसलिए सही और विश्वसनीय आंकड़े हासिल करने के लिए 660 करोड़ रुपये खर्च करने में इस उद्योग को बहुत परेशानी नहीं होनी चाहिए. ठाकुरता कहते हैं, ‘टेलीविजन उद्योग के पास पैसे की कमी नहीं है. मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए होने वाला खर्च वह आसानी से जुटा सकता है. पर यहां मामला नीयत का है. अगर टैम की नीयत ठीक होती तो मीटरों की संख्या बढ़ाने या इसमें हर वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की बात चलती लेकिन अब तक ऐसा होता नहीं दिखा. जब भी मीटरों की संख्या बढ़ी है तब यह देखा गया है कि ऐसा विज्ञापनदाताओं के हितों को ध्यान में रखकर किया गया. इससे साबित होता है कि टैम जो टीआरपी देती है उसका दर्शकों के हितों से कोई लेना-देना नहीं है.’

भारत में टीआरपी के क्षेत्र में मची अंधेरगर्दी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां रेटिंग करने वाली कंपनियों के पंजीकरण के लिए कोई निर्धारित प्रणाली नहीं बनाई गई. यह बात खुद सूचना और प्रसारण मंत्रालय और प्रसार भारती ने संसदीय समिति के समक्ष स्वीकार की है. संसदीय समिति ने इस बात की सिफारिश की है कि रेटिंग प्रणाली में पारदर्शिता लाने के लिए स्वतंत्र, योग्य और विशेषज्ञ ऑडिट फर्मों द्वारा रेटिंग एजेंसियों की ऑडिटिंग करवाई जाए. अमित मित्रा समिति ने भी यह सिफारिश की है. ऐसा करने से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि आंकड़ों के साथ हेरा-फेरी नहीं हो रही है. हालांकि, टैम यह दावा करती है कि वह अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से आंतरिक ऑडिटिंग करवाती है.
ठाकुरता कहते हैं, ‘अगर टैम चाहती है कि टीआरपी पर लोगों का भरोसा बना रहे तो उसे कई कदम उठाने होंगे. सबसे पहले तो यह जरूरी है कि वह अपने मीटरों की संख्या बढ़ाए. मीटर हर वर्ग के घरों में लगें. गांवों तक इनका विस्तार हो और पूरे मामले में जितना संभव हो सके उतनी पारदर्शिता बरती जाए. कोई ऐसी व्यवस्था भी बने जहां टीआरपी से संबंधित शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्ध हो.’ सुधार की बाबत एनके सिंह कहते हैं, ‘पिछले दिनों ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के बैनर तले कई खबरिया चैनलों के संपादकों की बैठक हुई. इसमें यह तय किया गया कि हम टीआरपी की चिंता किए बगैर खबर दिखाएंगे.’
लेकिन विज्ञापन और आमदनी के दबाव के बीच क्या संपादक ऐसा कर पाएंगे? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘यह काफी कठिन काम है क्योंकि बाजार का दबाव हर तरफ है, लेकिन अब ज्यादातर समाचार चैनलों के संपादक इस बात पर सहमत हैं कि टीआरपी की चिंता किए बगैर अपना चैनल चलाना होगा. क्योंकि टीआरपी संभ्रांत वर्ग की पसंद-नापसंद को दिखाता है न कि हमारे सभी दर्शकों की रुचि को.’ आशुतोष कहते हैं, ‘ऐसा बिल्कुल संभव है कि खबरिया चैनल टीआरपी पर ध्यान न देते हुए खबरों का चयन करें. इसके लिए संपादक और प्रबंधन दोनों को अपने-अपने स्तर पर मजबूती दिखानी होगी. यह समझना होगा कि टीआरपी किसी भी खबरिया चैनलों का मापदंड नहीं हो सकता.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘अगर आप पिछले डेढ़ साल में समाचार चैनलों में सामग्री के स्तर पर आए बदलाव को देखेंगे तो पता चलेगा कि सुधार हो रहा है. यह सुधार रातोंरात नहीं हुआ है. बल्कि टीवी चैनलों पर सिविल सोसायटी, सरकार और सबसे अधिक दर्शकों का दबाव पड़ा है. दर्शक चैनलों को गाली देने लगे और समाचार चैनलों के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया. इसके बाद बीईए बना और आपस में समाचार चैनलों के संपादक बातचीत करने लगे और सुधार की कोशिश की गई. इस बीच न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने भी आत्मनियमन की दिशा में काम किया. इसका असर अब दिख रहा है और समाचार चैनलों में खबर एक बार फिर से लौट रही है. कुछ चैनल अब भी टीआरपी के लिए खबरों को फैंटेसी की दुनिया में ले जाकर दिखा रहे हैं. इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है. लेकिन समय के साथ वे भी सुधरेंगे.’

अमित मित्रा समिति ने यह भी कहा है कि हर रोज और हर हफ्ते रेटिंग जारी करने से चैनलों पर अतिरिक्त दबाव बनता है इसलिए इसे 15 दिन में एक बार जारी करने के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है. कुछ ऐसी ही बात आशुतोष भी कहते हैं, ‘या तो टीआरपी की व्यवस्था को पूरी तरह से बंद किया जाए. अगर ऐसा संभव नहीं हो तो हर हफ्ते टीआरपी के आंकड़े जारी करने की व्यवस्था बंद हो. हर छह महीने पर आंकड़े जारी हों. इससे दबाव घटेगा और खबरों की वापसी का रास्ता खुलेगा. टीआरपी के मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए और इसका बंटवारा आबादी के आधार पर हो. साथ ही हर क्षेत्र के मीटर को बराबर महत्व (वेटेज) दिया जाए.’
इस बीच एनबीए ने टैम मीडिया रिसर्च से आंकड़े जारी करने की समय-सीमा में बदलाव की मांग की है. एनबीए का कहना है कि टीआरपी आंकड़े जारी करने की अवधि को साप्ताहिक से मासिक कर दिए जाने से यह मीडिया के लिए ज्यादा लाभप्रद रहेगा. एनबीए द्वारा टैम से यह बातचीत पिछले कुछ दिनों से हो रही थी, लेकिन अब एनबीए ने टैम को पत्र देकर टीआरपी जारी करने की अवधि में बदलाव करने की गुजारिश की है.

कुल मिलाकर मौजूदा व्यवस्था टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसमें सुधार की जरूरत है. बात सिर्फ हजारों करोड़ का विज्ञापन देने वालों के हित की नहीं है. करोड़ों दर्शकों के भले की भी है. l