Home Blog Page 136

'मुझे संघ का करीबी क्यों समझ लिया जाता है'

आप जन लोकपाल आंदोलन में शामिल हैं. फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ सत्याग्रह करने की क्या जरूरत है?

इस मामले पर मीडिया में कुछ भ्रम रहा है जिसे दूर किया जाना जरूरी है. हम पिछले पांच साल से काम कर रहे हैं. दिल्ली में हुए एक अनशन को आंदोलन नहीं माना जा सकता. मैं हर रोज दो लाख लोगों को संबोधित करता हूं. मेरे रोजाना शिविर भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान के हिस्से हैं.

आप किन मांगों को लेकर चार जून से अनशन पर बैठने जा रहे हैं?

पहली मांग तो यह है कि विदेशों में जमा भारत के पैसे को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जाए. विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने को राष्ट्र के खिलाफ अपराध की श्रेणी में डाला जाए. वहीं विदेशों में जमा पैसे को भारत वापस लाया जाए. इन मांगों के साथ मैं अनशन पर बैठने वाला हूं.

क्या आपने ये मांगे पहले सरकार के सामने उठाई हैं?

जी हां, मैंने 27 फरवरी को दस करोड़ लोगों के दस्तखत वाली चिट्ठी प्रधानमंत्री को भेजी थी. मैंने कहा था कि इन मांगों को माना जाना चाहिए नहीं तो बड़े स्तर पर देशव्यापी आंदोलन होगा. मुझे इसका कोई जवाब नहीं मिला.

आपने कहा है कि आपका भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान अहिंसक सत्याग्रह के रूप में होगा?

हां

पर दूसरी तरफ आप भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने वाले लोगों को फांसी पर लटकाने की मांग करते हैं. क्या यह अहिंसा के खिलाफ नहीं है?

देखिए, ये वे लोग हैं जो भारत में हर घंटे हो रहे दो किसानों की खुदकुशी के लिए जिम्मेदार हैं. भारत में हर साल 20,000 किसान आत्महत्या कर रहे हैं. यानी पिछले दस साल में भारत में तकरीबन दो लाख किसानों ने आत्महत्या की है. हर साल 70 लाख लोग भूख और कुपोषण जैसी समस्याओं से काल के गाल में समा जाते हैं. इसके लिए कहीं न कहीं भ्रष्टाचार ही जिम्मेदार है और इसके जरिए उगाहा जाने वाले पैसा विदेशी बैंकों में जमा किया जा रहा है. मैं इस बदहाली के लिए भ्रष्ट अधिकारियों को जिम्मेदार मानता हूं.

मौत की सजा के खिलाफ तर्क दिया जाता है कि आमतौर पर किसी को दोषी ठहराने के लिए शत प्रतिशत साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते. अगर किसी निर्दोष व्यक्ति को सजा मिल जाती है तो इस गलती को सुधारने का कोई अवसर नहीं बचता.

भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने में हम लोग कुछ ज्यादा ही सावधानी दिखा रहे हैं. मैं यह कहां कह रहा हूं कि जो दोषी नहीं हैं, उन्हें भी मौत की सजा दे दो? हर साल देश के 70 लाख लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार और भ्रष्ट लोगों के खिलाफ हम कुछ ज्यादा ही उदारता दिखा रहे हैं.

आपके ये सारे बयान राजनीतिक हैं. इसके बावजूद आप लगातार कह रहे हैं कि आप गैर राजनीतिक हैं. आखिर ऐसा कैसे हो सकता है?

मेरी राजनीतिक दृष्टि साफ है. न तो मैं दो तरह की बात कर रहा हूं और न ही मैं गोलमोल जवाब दे रहा हूं. व्यवस्था बदलने के दो रास्ते हैं. एक तो यह है कि आप राजनीति में सीधे उतरें. वहीं दूसरा रास्ता यह है कि आपके द्वारा बनाए गए माहौल से सरकार पर लोगों का इतना दबाव बढ़े कि व्यवस्था जिम्मेदारी से काम करने लगे.

राजीव दीक्षित और गोविंदाचार्य जैसे लोगों से आप जुड़े रहे हैं. ये संघ परिवार के नजदीकी रहे हैं. ऐसे में संघ परिवार की राजनीति के बारे में आप क्या सोचते हैं?

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब मैं देवबंद जाता हूं तो मीडिया में इसके बारे में खबर नहीं आती. मनमोहन सिंह से मैं कई बार मिला लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया. जब मैंने राहुल गांधी से घंटों बातचीत की तो भी किसी ने ध्यान नहीं दिया. प्रियंका गांधी और मौलान महमूद मदनी से मेरी मुलाकात को भी भाव नहीं दिया गया. मेरी समझ में यह नहीं आता कि आखिर मुझे क्यों संघ परिवार का नजदीकी माना जाता है. मैं आध्यात्मिक गुरू हूं लेकिन सांप्रदायिक नहीं.

हर राजनीतिक दल में अच्छे और बुरे लोग हैं. वैसे, मोटे तौर पर मैं यह कहूंगा कि भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस सबसे अधिक जिम्मेदार है. क्योंकि इस पार्टी ने सबसे अधिक राज किया है.

क्या आप संघ परिवार को सांप्रदायिक कह रहे हैं?

मैं किसी को सांप्रदायिक नहीं कह रहा. मैं अपने बारे में बात कर रहा हूं और मैं सांप्रदायिक नहीं हूं.

अभी की राजनीति में आपकी विचारधारा के करीब कौन है? आपके हिसाब से भ्रष्टाचार के लिए सबसे अधिक कौन जिम्मेदार है?

हर राजनीतिक दल में अच्छे और बुरे लोग हैं. वैसे, मोटे तौर पर मैं यह कहूंगा कि भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस सबसे अधिक जिम्मेदार है. क्योंकि इस पार्टी ने सबसे अधिक राज किया है.

अगर विदेशों में जमा काला धन इसी भ्रष्ट व्यवस्था में वापस आता है तो यह लोगों तक आखिर कैसे पहुंचेगा?

इसी वजह से व्यवस्था बदलने की जरूरत है. इसका सबसे बड़ा समाधान तो यही है कि हर व्यक्ति सुबह-सुबह योग करे और ध्यान लगाए. अगर कोई हर रोज अपने शरीर और दिमाग पर काम करता है तो उसके विचारों में इतनी शुद्धता आएगी कि वह किसी और को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहेगा. समाज के आध्यात्मिक स्तर को सुधारना बदलाव का अहम जरिया है.

क्या आपको यह नहीं लगता कि व्यवस्था को साफ करने का आपका ढंग कुछ ज्यादा ही सरल है?

योग तो बदलाव की प्रक्रिया का एक हिस्सा है. दूसरा काम है आध्यात्मिक शिक्षा का. अभी हमारे साथ एक करोड़ कार्यकर्ता काम कर रहे हैं.

ये कार्यकर्ता कर क्या रहे हैं?

ये गांव-गांव जाकर योग का प्रशिक्षण दे रहे हैं और लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग बना रहे हैं. इसके जरिये हमारी कोशिश है कि लोग आत्म अनुशासन, आत्म विश्वास और ईमानदारी पर काम करें.

अगर आप देश को समस्यामुक्त बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं तो फिर आप राजनीति में प्रत्यक्ष तौर पर शामिल होने से इनकार क्यों करते हैं? इसमें आखिर क्या बुराई है?

इसमें कोई बुराई नहीं है. पर व्यवस्था को साफ करने के दो तरीके हैं. या तो राजनीति में सीधे शामिल हों या लोगों के बीच काम कर सामाजिक बदलाव लाएं. अगर मेरे पास जनता का समर्थन है तो फिर में कम क्षमता वाला रास्ता क्यों अपनाऊं.

क्या बाबा रामदेव कभी भी सक्रिय राजनीति में नहीं उतरेंगे?

स्वामी रामदेव कभी भी सक्रिय राजनीति में नहीं उतरेगा. यह मेरा संकल्प है.

क्या आप किसी राजनीतिक दल को समर्थन देने के करीब हैं?

यह अनसुलझा सवाल है. मैं अपनी मांगें रख रहा हूं. जो भी इनका समर्थन करेगा या इसके लिए काम करेगा उसे फायदा मिलेगा.

देश में हो रहे धर्मांतरण पर आपकी क्या राय है?

यह बेहद पेचीदा मामला है. मैं धर्मांतरण के पक्ष में नहीं हूं. मैं लोगों के विचार और उनकी जिंदगी बदलने में यकीन करता हूं. लोगों का धर्म बदलने में मैं यकीन नहीं करता.

पर धर्मांतरण के नाम पर देश में काफी हिंसा हुई है. ग्राहम स्टेंस को उड़ीसा में जिंदा इसलिए जला दिया गया क्योंकि कुछ लोगों को लगता था कि वे धर्मांतरण में शामिल थे.

मैंने कहा न कि मैं धर्मांतरण के पक्ष में नहीं हूं. इसके साथ ही मैं धर्मांतरण के नाम पर होने वाली हिंसा को भी सही नहीं मानता.

आपने कहा कि आप धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा के खिलाफ हैं तो आयोध्य में बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने को आप क्या कहेंगे? क्या वहां राम मंदिर बनना चाहिए?

अदालत ने इस मामले में फैसला दिया है और इस फैसले पर कुछ नहीं कहूंगा. पर अदालत ने यह भी कहा कि एक मंदिर बनना चाहिए. मैं भी ऐसा मानता हूं. मैंने देश भर के मुसलमानों से बात की है. इनमें आम से लेकर खास तक और धर्म गुरू भी शामिल हैं. इन सभी का कहना है कि मंदिर बनने से इन्हें कोई समस्या नहीं है. इन लोगों का कहना है कि इन्हें सिर्फ समस्या उन लोगों से है जो मंदिर के नाम पर हिंसा फैला रहे हैं.

मुसलमान यह भी कहते हैं कि भले ही वे भगवान राम की पूजा नहीं करते हों लेकिन राम उनके भी पूर्वज हैं. जिस तरह से इस देश के हिंदू भगवान राम को अपना मानते हैं, उसी तरह मुसलमान भी मानते हैं.

क्या आप कह रहे हैं कि मंदिर बनाए जाने से मुसलमानों को कोई समस्या नहीं है?

इस देश के मुसलमान भी इस बात पर सहमत हैं कि बाबर का जन्म अयोध्या में नहीं हुआ था जबकि राम का जन्म यहीं हुआ था. मुसलमान यह भी कहते हैं कि भले ही वे भगवान राम की पूजा नहीं करते हों लेकिन राम उनके भी पूर्वज हैं. जिस तरह से इस देश के हिंदू भगवान राम को अपना मानते हैं, उसी तरह मुसलमान भी मानते हैं. अगर हिंदू और मुसलमान दोनों मंदिर चाहते हैं तो अंततः ऐसा ही होगा. हिंदू और मुसलमान दोनों ही हिंसा के खिलाफ हैं.

पर मंदिर बनाने का रास्ता साफ करने के लिए बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी?

मुझे इस मसले पर जो भी कहना था, मैंने कह दिया. अब मैं इस पर कुछ और नहीं कहूंगा.

समलैंगिकता पर अपने विचारों के लिए भी आप विवाद में रहे हैं.

मैं समलैंगिकता को अप्राकृतिक और मानसिक विकार मानता हूं. यह एक बुरी आदत है. कई लोगों को बुरी चीजों की लत लग जाती है. मैंने इस मसले पर सारे वैज्ञानिक शोध पढ़े हैं और इसके बाद ही मैं इस विषय पर आपसे बात कर रहा हूं.

एक बार फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ आपके अभियान पर लौटते हैं. आपने कहा कि संतोष हेगड़े आपके अनशन का समर्थन कर रहे हैं और उन्होंने कहा कि वे अनशन नहीं करेंगे. आखिर मामला क्या है?

संतोष हेगड़े मेरा समर्थन कर रहे हैं और वे हमारे साथ रहेंगे. मैंने अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे से भी बात की है और इन लोगों ने भी कहा है कि वे पूरी तरह से मेरे साथ हैं.

आपने योग का प्रशिक्षण लिया है. आपने सामाजिक और राजनीति सुधारों में दिलचस्पी लेना कब शुरू किया?

मैं बचपन से ही सुधारों में दिलचस्पी लेता था. पर उस वक्त मुझे यह पता नहीं था कि इसका स्वरूप क्या होगा. जब मैं नौ साल का था तब से ही मुझे यह लगता रहा है कि शिक्षा व्यवस्था को बदले जाने की जरूरत है. उसी समय मैं घर से भागा था, औपचारिक स्कूली शिक्षा छोड़ी थी और गुरूकुल में आ गया था. सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का विचार पिछले पांच साल में मेरे अंदर काफी गहरा हुआ.

धातु से जुड़े विनाश की कहानी : आउट ऑफ दिस अर्थ

यह किताब अल्युमिनियम उद्योग द्वारा जल-जंगल-जमीन और उन पर आश्रित लोगों का जीवन नष्ट किए जाने की महागाथा है

पुस्तक आउट ऑफ दिस अर्थ

लेखक  फेलिक्स पैडेल एवं  समरेंद्र दास

प्रकाशक ओरियंट ब्लैक स्वान, नोएडा

गरीबों के हलके तसले और पतीलों से लेकर विशालकाय वायुयानों की काया बनाने वाले अल्युमिनियम के उत्पादन और विपणन के पीछे घोर शोषण और विध्वंस की जो गाथा छिपी है, उससे हममें से बहुत थोड़े लोग ही वाकिफ होंगे.  आधुनिक औद्योगीकरण आदम के आदिम अभिशाप की अभिव्यक्ति भर नहीं है. यह मनुष्य के परिवेश के बार-बार नष्ट होने, इससे विस्थापित होकर आजीविका की तलाश में संसार भर में भटकने और अमानवीय स्थितियों में काम करने के लिए मजबूर होने वाले आदिवासियों और कृषकों की कहानी भी है.

ऐसी त्रासदियों के पीछे एक धातु अल्युमिनियम का दूसरी धातु और उत्पादों से कहीं बड़ा हाथ है. फेलिक्स पैडेल और समरेंद्र दास की पुस्तक ‘आउट ऑफ दिस अर्थ’ जल-जंगल-जमीन और उन पर आश्रित लोगों के जीवन को अल्युमिनियम उद्योग द्वारा नष्ट किए जाने की महागाथा है. छह सौ पृष्ठों के ग्रंथ और लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों के नोट और संदर्भ स्रोत में औद्योगीकरण और विशेषकर अल्युमिनियम उद्योग के पीछे के अनेक अनजाने और प्रायः आक्रोशित करने वाले तथ्य उजागर होते हैं.

अल्युमिनियम की विशेषता यह है कि यह न सिर्फ युद्धक वायुयानों और तरह-तरह के गोलों का बाहरी आवरण तैयार करता है बल्कि स्वयं भी घातक विस्फोटकों, जैसे नापाम बम के रासायनिक यौगिक का हिस्सा बन जाता है. इसके उपयोग की विविधता और घातक गुणों के कारण प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से ही संसार भर में बॉक्साइट को खोदने और इससे अल्युमिनियम उद्योग को विकसित करने की होड़ लगी रही है.

बॉक्साइट से अल्युमिना उत्पादन और फिर स्मेल्टिंग की प्रक्रिया से अल्युमिनियम तैयार करना दूसरे धातुओं को तैयार करने से अधिक जल एवं ऊर्जा गटकने वाला होता है. दूसरे खनिजों के विपरीत, जिन्हें प्रायः गहराई से खोदना होता है, बॉक्साइड धरती की ऊपरी परत और पर्वत चोटियों की उन ऊपरी परतों पर ही उपलब्ध होता है, जहां वन होते हैं. इस कारण इसके खनन से विशाल पैमाने पर पर्वतों और समतल भूमि पर फैले वन प्रदेशों को उजाड़ना पड़ता हैै. लेखक बताते हैं कि मिस्र का आस्वान डैम, जिससे एकलाख नुबियाई मूल के लोग विस्थापित हुए, चीन का थ्री गॉर्जेज डैम, पूर्व के सोवियत यूनियन के 16 में से 13 डैम एक हद तक अल्युमिनियम स्मेल्टर को बिजली आपूर्ति करते थे. भारत में कोयना की योजना के पीछे भी प्रारंभ में ऐसे ही उद्देश्य थे. तमिलनाडु में आंशिक रूप से मेट्टायूल डैम भी इस प्रयोजन को सिद्ध करता था. रिहंद का डैम, रेणुकुट स्थित बिड़ला की हिंडाल्को की जरूरत पूरा करता था, जिससे उत्पादित बिजली नामलिहाजी कीमत पर उपलब्ध कराई जाती थी. लेखकों के अनुसार वर्ष 2009 ईस्वी में उड़ीसा में 131 बड़े डैम थे जो प्रायः इस उद्योग से संबद्ध थे. चाहे यह ब्रिटिश गुयाना हो, सूरिनाम, हैती  या फिर जमैका, संसार भर में इस उद्योग से स्थानीय आबादियों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है.

पुस्तक के केंद्र में उड़ीसा के बॉक्साइट खनन की कहानी है जिसे हम आज माओवादी उभार का नाम देते हैं. वह दरअसल उड़ीसा के खनन उद्योग से निर्वासित हो रहे आदिवासी और कृषकों की जीवन रक्षा का अंतिम और प्रायः निराश अभियान है. इसके पीछे असफल, अहिंसक प्रतिरोधों का इतिहास भी रहा है. वैसे तो पुस्तक मूलतः उड़ीसा के चप्पे-चप्पे के अध्ययन पर आधारित अल्युमिनियम उत्पादन की त्रासद कहानी है लेकिन यह संसार भर में आदिवासियों और मूलवासियों के औद्योगीकरण के क्रम में विस्थापन की कहानी बन जाती है.

-सच्चिदानंद सिन्हा

गौवध विरोधी आंदोलन : गुलजारीलाल नंदा का इस्तीफा

भारत में गौवध विरोध और आंदोलन आज का मसला नहीं है. देश की आजादी के समय कांग्रेस पार्टी के कई सदस्यों सहित सभी हिंदूवादी संगठनों का मानना था कि गौवध पर संसद प्रतिबंध लागू करे. संविधान के तहत यह राज्यों के अधिकार क्षेत्र का विषय है, इसलिए बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं का खयाल रखते हुए आजादी के बाद कुछ राज्यों ने गौवध पर प्रतिबंध लागू किया था. उस समय न सिर्फ नेता और धार्मिक संगठनों से जुड़े व्यक्ति बल्कि सेठ रामकृष्ण डालमिया जैसे भारत के शीर्ष उद्योगपति भी गौवध पर राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध लगवाने की मुहिम में जुटे हुए थे.

हालांकि 1947 के बाद युद्ध, अकाल और गरीबी से जुड़ी चुनौतियों से पार पाने की कोशिश के चलते यह आंदोलन उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ पाया. इसकी एक वजह यह भी थी कि इस पर फैसला धार्मिक रूप से संवेदनशील था. 60 के दशक में गौवध प्रतिबंध से जुड़ा आंदोलन अचानक तेजी से फैलने लगा. यह 1966 की बात है जब आंदोलन अपने चरम पर पहुंचा. तब तक इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बन चुकी थीं और कांग्रेस में अपनी स्थिति मजबूत करने की जद्दोजहद में जुटी थीं. गौरक्षा समिति के नेतृत्व में कुछ साधुओं ने उस साल नवंबर में संसद का घेराव करने और प्रधानमंत्री से राष्ट्रीय स्तर पर गौवध पर प्रतिबंध लगाने की मांग की. इस मांग को जनसंघ का व्यापक समर्थन तो था ही साथ में कांग्रेस के कई भीतरी लोग इंदिरा गांधी की मुश्किलें बढ़ाने के लिए इसका समर्थन कर रहे थे. केंद्र सरकार में तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा भी इस आंदोलन के प्रबल समर्थक थे. उस समय केंद्र सरकार समिति की घोषणा को हल्के में ले रही थी क्योंकि पहले भी कई बार इस तरह की घोषणाएं हो चुकी थीं. लेकिन जैसे-जैसे नवंबर की सात तारीख नजदीक आने लगी, आंदोलन जोर पकड़ने लगा. इस दिन देश भर से लगभग एक लाख कार्यकर्ता और साधु-संत संसद के आसपास इकट्ठे हो गए. संसद की ओर उमड़ी इस भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी. इसी बीच कुछ आंदोलनकारियों ने तोड़फोड़ शुरू कर दी. इसके बाद लोगों को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी. इसमें कुछ साधुओं की मौत हो गई.

इस घटना का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी के लिए सरकार के बाहर और भीतर काफी मुश्किलें खड़ी हो गईं. लेकिन तब कांग्रेस में अपनी पकड़ साबित नहीं कर पाईं इंदिरा ने इस घटना के लिए जिम्मेदार मानते हुए गुलजारी लाल नंदा को गृहमंत्री के पद से हटा दिया. इसके अलावा उन्होंने पहली बार अपने मंत्रिमंडल में बड़े पैमाने पर फेरबदल कर दिए. यह पहली बार हुआ था जब इंदिरा गांधी ने अपने स्तर से इतने बड़े फैसले लिए थे. अपने इन फैसलों से उन्होंने पार्टी में अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन तो किया लेकिन वे इस धार्मिक आंदोलन को अपने विरोध में हवा बनाने से नहीं रोक पाईं. कहा जाता है कि अगले ही साल हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को कई सीटों पर हार का सामना करना पड़ा और इसकी बड़ी वजह इंदिरा गांधी का गौवध विरोधी आंदोलन से सफलतापूर्वक न निपट पाना था. 

                                                                                                                                                                                                                                                                                      – पवन वर्मा

' अपनी बालकनी से हमने गद्दाफी के टैंकों को देखा '

फरवरी, 2011 में मिस्र में फैली बदलाव की आग से लीबिया में भी विद्रोह की लपटें भड़क गईं. शुरू में जब मैंने अशांति की बातें सुनीं तो इन्हें कोरी अफवाह समझा. इसलिए कि तब तक लीबिया में रहते हुए मुझे तीन साल से ज्यादा हो चुके थे और मैंने वहां के लोगों को बेहद सुकून में रहते देखा था. लेकिन फरवरी के आखिर में जब मैंने बेंगाजी की सड़कों पर हजारों लोगों को हाथों में हथियार लिए विरोध के नारे बुलंद करते हुए देखा तो मुझे खुद को यह यकीन दिलाना पड़ा कि हालात पहले जैसे नहीं रहे. मार्च की शुरुआत तक तो भूमध्य सागर के किनारे बसा यह खूबसूरत देश पूरी तरह सुलग उठा था. बदलाव की चिंगारी को दबाने के कर्नल गद्दाफी के प्रयासों ने इसे और ज्यादा भड़का दिया.

मेरे मन में बस एक ही सवाल उठ रहा था. इस बेहद खूबसूरत देश में ऐसा कहर क्यों बरपा है जहां न खाने की दिक्कत है न रहने की कोई समस्या? जहां के लोग शायद दुनिया के सबसे भोले लोगों में से एक हैं. जहां आप रात में भी हजारों दीनार लेकर अकेले घर आ सकते हैं. जहां के लोग अपने मेहमान को बड़ा ऊंचा दर्जा देते हैं. आखिर उस देश में ऐसा क्यों हो रहा है?

मैं बेंगाजी के पॉश इलाके में पांचवी मंजिल पर किराये के मकान में रहती थी. मैंने और मेरे दोनों बच्चों ने बेंगाजी की सड़कों पर गुजरते गद्दाफी की सेनाओं के टैंकों को अपनी बालकनी से देखा. हम पूरे दिन विरोध प्रदर्शन देखते रहे. हमने देखा कि गद्दाफी के सैनिक विद्रोहियों को प्यार से मनाने का प्रयास कर रहे थे. शुरू में उन्होंने समझाने की कोशिशें की लेकिन बाद में वे हिंसक हो गए. हमने गोलियों की गूंज सुनी. फिर धमाकों की आवाजें. लेकिन हमें कभी डर नहीं लगा. क्योंकि हमारी मकान मालकिन हमेशा यह विश्वास दिलाती थीं कि वे अपनी जान की बाजी लगाकर भी हमें महफूज रखेंगी. संघर्ष के दिनों में स्थानीय लोग हमेशा मदद को तैयार थे. जब हवाई हमले हो रहे थे तब मुझसे बार-बार कहा जा रहा था कि मैं बच्चों के साथ नीचे वाले फ्लैट में शिफ्ट हो जाऊं. यह उनका भरोसा ही था कि गोलियों और धमाके के बीच भी हम खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे थे. लेकिन फिर हालात इतने बिगड़े कि हमें लीबिया छोड़ना पड़ा.

पूरे लीबिया में फैले असंतोष और धमाकों के बीच कहीं कोई लूटपाट या अभद्रता नहीं हुई, आम लोगों के भरोसे पूरी तरह महफूज थे भारतीय.फरवरी के अंतिम सप्ताह में हमने लीबिया छोड़ने की तैयारी शुरू की. स्थानीय परिचित लोगों ने हमें रोकने का हरसंभव प्रयास किया. वे बार-बार यही कहते रहे कि आप लोगों को कोई खतरा नहीं होगा. हम अपने भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन अपनी जान पर खेलकर भी हम आपकी हिफाजत करेंगे. उनका कहना था कि अगर आपकी सरकार वापस बुला रही है तो चले जाइए, लेकिन हम चाहते हैं कि आप लोग यहीं रहें. लेकिन रोज होते धमाके, सामने से ले जाए जाते घायल. हर दिन गूंजती गोलियों की आवाजें, एंबुलेंस के सायरन और सहमे से बच्चे. अंततः 28 फरवरी की शाम को जब हम लीबिया छोड़ रहे थे तो वहां के लोगों की आंखें नम थीं. मेरे साथी स्थानीय प्रोफेसरों और शिक्षकों ने लीबिया में जो हुआ उसके लिए माफी मांगी और विश्वास जताया कि जल्द ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा. बेहद बेमन से अपने दोनों बच्चों के साथ उसी शाम मैं जितना हो सकता था उतना सामान लेकर जहाज पर चढ़ी. जहाज पर हम सभी के पास अपनी कमाई थी, कीमती चीजें थीं लेकिन लूटमार तो दूर, किसी ने पूछा भी नहीं कि आप क्या ले जा रहे हैं. सहमे चेहरे क्षत-विक्षत होते देश का आईना बन गए थे.

भारत सरकार ने वापसी के लिए अच्छा इंतजाम किया था. हम एक मार्च की सुबह बेंगाजी से इजिप्ट के एलेक्जेंड्रिया के लिए चले. ढाई दिन बाद एलेक्जेंड्रिया पहुंचे. चार मार्च को एअर इंडिया की फ्लाइट हमें दिल्ली ले आई. मैं वापस हिंदुस्तान पहुंच चुकी थी. पीछे उस खूबसूरत देश को जलता छोड़ आई थी जहां मेरे ढेर सारे छात्र भविष्य में चमकने की तैयारी कर रहे थे. लौटते वक्त मुझे उनकी चिंता थी. वहां के भोले-भाले लोगों की चिंता थी, जो शायद दुनियादारी के लिए जरूरी कपट भी नहीं जानते.

आज जब हिंदुस्तान में मैं लीबिया पर पश्चिमी सेनाओं के हमले के बारे में पढ़ती हूं तो बस यही खयाल आता है कि वहां के लोग मानवाधिकारों के नाम पर किए जा रहे इन हमलों की अंतर्कथा को उसी शिद्दत से समझ पा रहे होंगे. बस यही दुआ है कि यह खूबसूरत देश बर्बाद न हो. लोगों में वही जिंदादिली बरकरार रहे.

' यह विज्ञापन के दौर है जिसमें किताबों का बेवजह नाम हो जाता है'

आपकी पसंदीदा विधा कौन-सी है?

शुरू में कविताएं लिखता था. अब आलोचना और संस्मरण लिखता हूं. हाल में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की संस्मरणात्मक जीवनी लिखी है.

इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं?

शम्सुर्रहमान फारुकी का उपन्यास कई चांद थे सरे आसमां. यह उपन्यास बताता है कि जब कोई विद्वान कोई रचनात्मक चीज लिखता है तो वह अपने जमाने के ज्ञान को कथानक में कैसे ढालता है. हिंदी में यह क्षमता (हजारी प्रसाद) द्विवेदी जी में थी. फारूकी जितने बड़े विद्वान हैं, उतनी ही खूबसूरती से उन्होंने अपने ज्ञान को कथानक में ढाला है.

आपके पसंदीदा रचनाकार कौन से हैं?

कविताओं में तुलसीदास और अवधी के मर्सिए. कबीर, गालिब, निराला, प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी. बाहर के लेखकों में शेक्सपीयर और टॉल्सटाय मुझे बहुत पसंद हैं.

आपकी पसंदीदा कृतियां कौन-सी हैं?

रामचरितमानस, दीवाने गालिब, निराला की अनामिका और कुल्लीभाट, शेक्सपियर का किंग लियर, कबीर बीजक और द्विवेदी जी का अनामदास का पोथा. चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा और वॉन गाग की जीवनी लस्ट फॉर लाइफ.

ऐसे रचनाकार या रचनाएं जिन पर नजर नहीं गई?

अवधी के एक कवि थे पढ़ीस. वैसे इस सवाल का तत्काल जवाब मांगना बेइंसाफी है. पर मुझे कुछेक नाम याद आ रहे हैं. जैसे गीतकार शंकर शैलेंद्र को एक कवि के रूप में नजरअंदाज किया गया. इसी तरह शायर यगाना चंगेजी, मखदूम और मजाज का भी कम जिक्र होता है.

ऐसी रचनाएं जो बेवजह मशहूर हुईं?

कई हैं. पर नाम मैं नहीं लूंगा. आजकल ऐसी बहुत किताबें हैं जिनका बहुत नाम हो जाता है क्योंकि यह विज्ञापन का दौर है.

पढ़ने की रवायत कायम रहे इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?

एक तो किताबें सस्ती हों और दूसरे, लेखक ऐसा लिखें जिसे लोग पढ़ें. किताबें कम लिखी जाएं पर अच्छी लिखी जाएं.

-रेयाज उल हक

किसे आवाज दें

पप्पू जायसवाल गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के इमरजेंसी वार्ड में पड़े हैं. कमर में गोली लगने से गंभीर रूप से घायल यह शख्स अब अपने बच्चों का पेट पालने के लिए शायद ही पहले की तरह मजदूरी कर पाए. जायसवाल की अनपढ़ पत्नी संगीता और उनके रिश्तेदार हर आने-जाने वाले से बस एक ही सवाल करते हैं, ‘क्या मजदूर को अपने हक की बात करने का कोई अधिकार नहीं?’ जायसवाल उन डेढ़ दर्जन मजदूरों में से हैं जिन्हें अपने हक के लिए आवाज उठाने की सजा भुगतनी पड़ी. तीन मई को अंकुर उद्योग धागा फैक्टरी के बाहर सभा कर अपने अधिकार मांग रहे इन निहत्थे मजदूरों पर गोलियां चलीं जिसमें वे और उनके कई साथी घायल हो गए.

सवाल उठता है कि कमरतोड़ मेहनत करने के बाद परिवार के लिए दो जून की रोटी का बंदोबस्त करने वाले मजदूर आखिर इतने मजबूर क्यों हुए कि उन्हें आंदोलन की राह पकड़नी पड़ी. मजदूर चंद्र भूषण बताते हैं, ‘तीन साल पहले मजदूरों को 12 घंटे काम करना पड़ता था. किसी भी मजदूर को न तो साप्ताहिक अवकाश मिलता था न ही किसी का पीएफ व ईएसआई कटता था. अधिकांश मजदूरों का नाम हाजिरी रजिस्टर पर भी अंकित नहीं होता था. न्यूनतम वेतन से कम वेतन मिलना आम बात थी. मालिक जब चाहे किसी को भी निकाल बाहर कर देता. कुछ संगठनों ने मजदूरों को संगठित कर उन्हें श्रम कानूनों से अवगत कराने का प्रयास किया. मजदूर जागरूक हुए. अपने हक-हुकूक के लिए आवाज उठाने लगे. दो साल के शांतिपूर्ण आंदोलन के बाद उद्योगों में काम के आठ घंटे निर्धारित होने के साथ ही मजदूरों को साप्ताहिक अवकाश आदि की सुविधा तो मिल गई लेकिन सरकार की ओर से मजदूरों के लिए लागू न्यूनतम वेतन, ओवर टाइम का अतिरिक्त भुगतान, काम की जगह पर सुरक्षा के व्यापक प्रबंध जैसी मूलभूत सुविधाएं फिर भी अनदेखी रहीं. इन्हें लागू किए जाने को लेकर कामगार अभी भी संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा के बैनर तले अपनी आवाज उठाते रहते हैं.’

मोर्चे की अगअाई कर रहे तपिश बताते हैं, ‘हजारों कामगार अपनी मांगों से संबंधित एक मांगपत्रक संसद को सौंपने के लिए मजदूर दिवस के दिन एक मई को दिल्ली गए हुए थे. इससे पहले उन्होंने लिखित रूप से प्रबंधन को बता दिया था कि 30 अप्रैल व दो मई को वे सभी अवकाश पर रहेंगे. दिल्ली से लौटकर अंकुर उद्योग के सभी मजदूर जब तीन मई की सुबह छह बजे कंपनी में पहुंचे तो उन्हें भीतर नहीं जाने दिया गया.’ प्रबंधन ने कंपनी के मुख्यद्वार पर ही 18 मजदूरों के निलंबन का नोटिस चस्पा कर दिया था. इससे नाराज होकर सारे मजदूर मुख्यद्वार पर ही सभा करने लगे. करीब एक घंटे बाद कंपनी के एक प्रतिनिधि बाहर आए और बताया कि जिन लोगों को निलंबित किया गया है उनको छोड़कर सभी मजदूर काम पर वापस आ सकते हैं. तपिश बताते हैं, ‘कंपनी प्रबंधन की इस बात से मजदूर सहमत नहीं थे, इसलिए हम गेट के पास ही धरने पर बैठे रहे. इस बीच श्रम विभाग के अधिकारियों को भी पूरी जानकारी फोन से दे दी गई लेकिन कोई नहीं आया.’

मजदूर वीरेंद्र कुमार बताते हैं, ‘आठ बजे कंपनी से कुछ हथियारबंद लोग बाहर आए और मजदूरों को जबरन पकड़कर गेट के अंदर ले जाने लगे. साथियों को छुड़ाने के लिए जैसे ही मजदूर आगे बढ़े, हथियारबंद लोगों ने फायरिंग शुरू कर दी. अफरा-तफरी मच गई. मजदूर इधर-उधर भागने लगे. थोड़ी देर बाद पता चला कि वहां हमारे 18 साथियों को गोली के छर्रे लगे थे.’ 

सबसे हैरत भरा रहा पुलिस-प्रशासन का रवैया. घायल मजदूर ध्रुव सिंह के मुताबिक जिस स्थान पर घटना हुई उससे कुछ दूरी पर स्थानीय थाने के दो पुलिसकर्मी मोटरसाइकिल पर खड़े थे लेकिन उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया. कुछ मजदूर भागकर जब सिपाहियों के पास मदद मांगने गए तो जवाब मिला कि क्या अपनी जान भी गंवा दें. मजदूरों का आरोप है कि घटना के करीब एक घंटे बाद पुलिस मौके पर पहुंची. ‘

उधर, अंकुर उद्योग के मालिक अशोक जालान तीन मई की घटना के लिए मजदूरों को कम उन लोगों को अधिक जिम्मेदार ठहराते हैं जिनके इशारे पर मजदूरों ने 30 अप्रैल से दो मई तक कंपनी में तालाबंदी की थी. जालान कहते हैं, ‘दिल्ली जाने वाले कामगारों की संख्या महज 35-40 थी. 30 अप्रैल को जब मजदूर काम पर आए तो कुछ लोग झंडे बैनर आदि लेकर गेट के बाहर खड़े थे और जो भी मजदूर काम करने के लिए आता था उसे वापस यह कहकर भेज देते थे कि कंपनी दो मई तक बंद है.’ जालान का आरोप है कि तीन मई की सुबह पहले मजदूरों से वार्ता का प्रयास किया गया था जिस पर उन्होंने पथराव शुरू कर दिया और जबरन कंपनी में घुसने लगे. उन्होंने बताया कि मजदूरों को उपद्रव करते देखकर गार्ड ने हवाई फायरिंग कर दी.

फिलहाल गंभीर रूप से घायल जायसवाल अस्पताल में हैं और औद्योगिक क्षेत्र में एसएलआर और इंसास जैसे स्वचालित हथियारों से लैस पुलिस व पीएसी के जवान मजदूरों की निगरानी में ऐसे मुस्तैद हैं मानो वे गरीब कामगार नहीं बल्कि आतंकवादी हों.

लोकतंत्र का लट्ठ

अगर यह लोकतंत्र है तो भट्टा-पारसौल के लोगों ने इसका मतलब देखा और महसूस किया है. देश की संसद से बमुश्किल 70 किलोमीटर दूर बसे 6000 जनों की आबादी वाले इस गांव ने लोकतंत्र को गोलियों के रूप में चलते और लाठियों के रूप में बरसते देखा है.भट्टा जाने वाली सड़क पर मुड़ते ही पुलिस की गाड़ियों की लंबी कतार दिखती है. खेतों में, पेड़ों के नीचे, खाली पड़े घरों में पीएसी और रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने डेरा डाल रखा है. गांव में दाखिल होने से पहले पूछताछ से गुजरना पड़ता है.

सात मई को ग्रेटर नोएडा के भट्टा, पारसौल और आछेपुर गांवों में सुबह की शुरुआत जिस खबर से हुई, उसने सारे लोगों को सकते में डाल दिया. इससे पिछली शाम आछेपुर के हरिओम (25 वर्ष) की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अब फरार घोषित हो चुके आंदोलनकारी किसानों के नेता मनवीर सिंह तेवतिया का आरोप है कि रात में जब वे धरने पर बैठे थे तो जिला प्रशासन के तीन लोगों ने उन पर फायरिंग की और उन्हें बचाने की कोशिश में हरिओम को गोली लग गई. हरिओम के घरवालों को नहीं पता कि उनकी मौत ठीक-ठीक कैसे हुई. उनके द्वारा दर्ज एफआईआर में बताया गया है कि वे भट्टा में एक शादी में शामिल होकर लौट रहे थे. लेकिन हरिओम के भाई विनोद कुमार का संदेह पुलिस पर है. वे कहते हैं, ‘पुलिस का रवैया बताता है कि उसी ने मेरे भाई की हत्या की है. जब हम दनकौर थाना में रिपोर्ट लिखाने गए तो उन्होंने रिपोर्ट लिखने से मना कर दिया. फिर हम कासना गए. वहां दिन भर कोशिश करने के बाद शाम को रिपोर्ट लिखी गई.

तेवतिया पर हमले और हरिओम की हत्या की खबर पाकर सात मई की सुबह से ही आसपास के गांवों के लोग भट्टा में चल रहे चार महीने पुराने धरने की जगह पर शोक के लिए जमा होने लगे थे. गांववालों के अनुसार वहां 3-4 हजार लोग मौजूद थे. तभी इलाके के डीएम के नेतृत्व में पुलिस भट्टा गांव आई और लोगों पर लाठी बरसाना शुरू कर दिया. लोगों ने जब इसका विरोध किया तो पुलिस ने फायरिंग भी शुरू कर दी.

मोंटिल की उम्र 16 वर्ष है. घटना के वक्त वह वहां मौजूद था. वह बताता है, ‘फायरिंग शुरू होने के बाद लोग गांव की तरफ भागने लगे. गांव के भीतर लौटकर लोगों ने पलटवार किया.’ किसानों के जवाबी हमले में दो पुलिसकर्मियों की मौत हो गई और ग्रेटर नोएडा के डीएम, एसपी समेत छह दूसरे पुलिसकर्मी घायल हो गए.

मोंटिल ने अपने पिता राजपाल के पैर में गोली लगते और उन्हें पुलिस द्वारा गाड़ी पर बैठाकर ले जाते देखा. अगले दिन की पूरी भागदौड़ के बाद मोंटिल और उसकी मां को राजपाल की लाश मिली, जो गाजियाबाद में हिंडन नदी के पास पड़ी थी. मोंटिल बताता है, ‘मैंने उनके सिर में गोली का निशान देखा. जब मैंने उन्हें अंतिम बार देखा था तो सिर्फ उनके पैर में गोली लगी थी. पुलिस ने ले जाकर उन्हें सिर में गोली मार दी.’ ै. मोंटिल की मां ओममति कहती हैं, ‘वे तो बस बैलगाड़ी चलाते थे और भूसा बेचते थे. वे धरने पर बैठे लोगों को पानी पिलाने गए थे. उनके पास तो कोई हथियार भी नहीं था. फिर पुलिस ने उन्हें क्यों मार दिया?’

धीरे-धीरे किसानों को समझ में आने लगा कि मुआवजा बढ़ाना उनकी समस्या का समाधान नहीं है

यमुना एक्सप्रेस वे और इसके साथ बन रहे रिहायशी व व्यावसायिक परिसरों के लिए भट्टा और सक्का गांवों को मिलाकर छह हजार बीघा जमीन सरकार ने लेकर एक निजी कंपनी को सौंप दी है. इसका लगातार विरोध कर रहे भट्टा, पारसौल और आछेपुर सहित आसपास के  किसानों ने आखिरकार  इस साल 17 जनवरी को भट्टा गांव के बाहर धरना शुरू किया था. उनका नेतृत्व कर रहे तेवतिया के साथ पांच किसानों ने प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी से मिलकर उन्हें इस संबंध में ज्ञापन भी सौंपा. इसके बाद लखनऊ में ही उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और वे दो हफ्तों बाद ही छूट सके.

एक्सप्रेस वे परियोजना अपने अंतिम चरण में है. सवाल उठता है कि किसानों ने तब विरोध क्यों नहीं किया जब जमीन ली जा रही थी. राजपाल के भाई श्रीपाल कहते हैं, ‘शुरू में बड़े-बड़े अफसर आए. डीलर आए. उन्होंने समझाया कि सरकार तो जमीन लेगी ही. अगर मर्जी से करार करके जमीन नहीं दोगे तो मुआवजा भी नहीं मिलेगा. हम डर गए व जमीन दे दी.’

किसानों का विरोध मुआवजा बढ़ाने की मांग से शुरू हुआ था. अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, बुलंद शहर और आगरा जिलों में एक्सप्रेस वे से लगे गांवों के किसानों ने उतने मुआवजे की मांग रखी, जितना ग्रेटर नोएडा के पास के किसानों को दिया गया था. लेकिन धीरे-धीरे किसान समझ गए कि मुआवजा बढ़ाना उनकी समस्या का समाधान नहीं है. उन्हें जमीन की असली कीमत का पता लगा. हाथरस के नगला कुशल गांव के रणवीर सिंह  एक हिसाब के जरिए इसे समझाने की कोशिश करते हैं, ‘मान लीजिए हमें पैसा मिल भी जाए तो वह तो कुछ ही साल में खर्च हो जाएगा. फिर अगली पीढ़ी कैसे जिएगी. उसके घर, नौकरी, शादी और इलाज का इंतजाम कैसे होगा? नौकरी का तो यह हाल है कि फौज में भरती होने के लिए तीन लाख रुपये देने पड़ रहे हैं. जमीन ही नहीं रहेगी तो हमलोग तो उजड़ जाएंगे.

वैसे मुआवजा बढ़ाने की मांग बड़े किसानों के एक छोटे-से हिस्से से ही उठ रही है, जबकि इस आंदोलन में शामिल किसानों का बड़ा हिस्सा उन मंझोले-छोटे और भूमिहीन किसानों का है जो जमीन छीने जाने का विरोध कर रहे हैं. ये छोटे और भूमिहीन किसान बंटाई पर खेती करते हैं जो उनकी आजीविका का एकमात्र जरिया है. सरकारी कोशिशें यह  रही है कि बड़े किसानों को थोड़ा अधिक मुआवजा देकर इस आंदोलन को दबा दिया जाए. इसीलिए सरकारी अधिकारियों की तरफ से जो भी बयान आते हैं वे मुआवजा बढ़ाने की किसानों की मांगों के संदर्भ में ही होते हैं. लेकिन इस आंदोलन को मजबूती छोटे-मंझोले तथा भूमिहीन किसानों से मिल रही है, जो मुआवजे की नहीं, जमीन अधिग्रहण को रद्द करने की मांग कर रहे हैं. भट्टा के सुनील कहते हैं, ‘बड़े किसानों के पास तो कमाई का और भी रास्ता है. वे अपने खेतों को बंटाई पर उठा देते हैं. हम जैसे भूमिहीन लोगों के पास तो पर बंटाई पर खेती करने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है. इसलिए हम जमीन छीने जाने का विरोध कर रहे हैं. वैसे भी मुआवजा मिलेगा तो जमीन के मालिकों को. हमें क्या मिलेगा? हमारी तो खेती बंद हो जाएगी.’ भट्टा के ही श्रीपाल कहते हैं, ‘हम जमीन देना नहीं चाहते. जमीन दे देंगे तो हम बेकार हो जाएंगे. जब जमीन ही नहीं रहेगी तो हम क्या करेंगे? तब तो हमें भीख भी नहीं मिलेगी.

इस बड़े जनसमर्थन के साथ शुरू हुए भट्टा के किसानों के अनशन पर किसी का ध्यान नहीं गया. उन दिनों जब देश को अन्ना हजारे के अनशन की सफलता के जश्न में डुबो दिया गया था- भट्टा, पारसौल और आछेपुर के किसान अपने विरोध की कीमत अपमान और दमन से चुका रहे थे. राजपाल बताते हैं, ‘दो महीने पहले अधिकारियों ने कुछ गांव वालों को बातचीत करने के लिए दनकौर बुलाया. कई महिलाओं समेत 50 लोग बात करने गए. लेकिन वहां उनके साथ मारपीट हुई.

धरने का कोई असर नहीं होता देख किसानों ने छह मई को परिवहन निगम के तीन कर्मचारियों को बंधक बना लिया था. अगले दिन भट्टा के आंदोलनकारी किसानों पर डीएम और दूसरे अधिकारियों के नेतृत्व में जो फायरिंग हुई उसे इन बंधकों को छुड़ाने की कार्रवाई बताया गया. किसी ने किसानों के विरोध की वजह जानने और उनकी समस्या पर बात करने की गंभीर कोशिश नहीं की. गांववालों का कहना है कि उनके नेता तेवतिया ने बंधक बनाए गए कर्मचारियों के परिजनों को आश्वासन दिया था कि वे उन्हें सात मई की सुबह 11 बजे तक छोड़ देंगे. इसके बावजूद पुलिस धरना स्थल पर पहुंची और उन पर फायरिंग की गई. गांव में पुलिस और पीएसी के जवानों ने आतंक का माहौल बना दिया. उन्होंने लोगों को पीटा, घर फूंक डाले, सामान की तोड़-फोड़ की. इस आतंक के कारण गांव के मर्दों को घर छोड़कर खेतों, जंगलों और रिश्तेदारों की शरण लेनी पड़ी. भट्टा, पारसौल और आछेपुर गांवों के अधिकतर पुरुष लापता हैं. गांववालों को संदेह है कि पुलिस द्वारा बताई जा रही मृतकों की संख्या सही नहीं है. पारसौल की संतोष कहती हैं, ‘पता नहीं कितने लोग मारे गए. गांव से पुलिस निकलने नहीं दे रही है, इसलिए कुछ पता नहीं लग पा रहा है कि कौन कहां है.’ तोड़-फोड़ अधिकतर घरों में हुई है. घर में घुसकर लोगों को पीटा भी गया है. मुकुटलाल शर्मा की उम्र भी उन्हें और उनके घर को नहीं बचा पाई. 72 वर्षीय इस बुजुर्ग के शरीर पर चोट के गहरे नीले निशान हैं. गांव से कुल 22 लोग जेल में हैं.  नेतृत्व भूमिगत है. पुलिस ने गांवों को घेर रखा है.  फिर भी किसान आगे की लड़ाई के लिए तैयार हैं. पारसौल के विजेंद्र कहते हैं, ‘हमारी महिलाएं असुरक्षित हैं. हमारा सामान असुरक्षित है. ऐसे में सरकार अगर अब भी हमारी नहीं सुनती तो हम आगे की लड़ाई के लिए तैयार हैं.’

लेकिन सरकार के रवैये को देखकर नहीं लगता कि वह इन किसानों की सुनने जा रही है. इस एक्सप्रेस वे से जुड़े किसान आंदोलनों का ही इतिहास देखें तो एक साफ रणनीति उभर कर सामने आती है. जिन-जिन जगहों पर किसान जमीन छीने जाने के खिलाफ तथा अधिक मुआवजे के लिए आंदोलन कर रहे थे, वहां-वहां पुलिस ने हिंसक कार्रवाई की. इसके बाद बाहर से नेताओं के तूफानी दौरे हुए और किसानों का ध्यान जमीन और मुआवजे से हटाकर हत्याओं की जांच और उनके लिए इंसाफ पर केंद्रित करने की कोशिशें हुईं. बाजना में यही हुआ, टप्पल में यही हुआ और अब भट्टा-पारसौल में भी यही हो रहा है जहां हिंसक पुलिसिया कार्रवाई के बाद राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह आदि नेताओं ने दौरे किए.

लोकतंत्र का मतलब सिर्फ वोट देने का अधिकार नहीं होता. असहमति और विरोध का अधिकार भी लोकतंत्र का हिस्सा है. राज्य सरकार ने किसानों को बार-बार यह अनुभव कराया है कि उनके पास यह अधिकार नहीं है. जितनी जल्दी वह यह समझ लेगी कि जिस लोकतंत्र का प्रतिनिधि होने का वह दावा करती है, उसकी बुनियाद में ही ये अधिकार निहित हैं, लोकतंत्र की सेहत के लिए यह उतना ही अच्छा होगा. वरना भट्टा-पारसौल में सात मई को चली गोलियों के जरिए भविष्य के संकेत तो साफ हो ही गए हैं.

घर-घर में घुसा इंटरनेट

इस बार अपने जन्मदिन पर मुझे सैकड़ों बधाइयां मिलीं. फेसबुक पर पड़े हुए मेरे प्रोफाइल ने बिल्कुल नियत समय पर मेरे फेसबुक-मित्रों को सजग किया कि यह बधाई देने का समय है. कुछ संकोच और आभार के साथ सबका धन्यवाद ज्ञापन करते हुए मैंने फेसबुक पर ही अपने अपेक्षया एक करीबी मित्र से चुटकी ली कि यह तो पूरा महोत्सव हो गया. जीवन में पहली बार बधाइयों की इस तरह बरसात हुई है.

निश्चय ही यह सुखद था. ढेर सारे जाने-पहचाने से लेकर अनजाने मित्रों तक फैला यह अदृश्य संसार अगर इतनी-सी शुभाशंसा का सरोकार रखता है और इसके लिए अवकाश निकालता है तो इस लगातार छीज रही सामाजिकता के समय में यह छोटी बात नहीं है. तकनीक अब तक लोगों को भौगोलिक रूप से ही करीब ला रही थी, लेकिन जिसे सामाजिक सेतुबंध या सोशल नेटवर्किंग कहते हैं वह लोगों को भावनात्मक रूप से भी करीब लाने का उद्यम कर रहा है. वह पुराने और बिछुड़े हुए मित्रों को तो मिला ही रहा है, नयी अनजान मित्रताओं के बीच भी कभी-कभार आत्मीयता और घनिष्ठता पैदा कर रहा है.

अब आंदोलन को सफल बनाने के लिए जगह-जगह सभाएं नहीं करनी पड़तीं, आप फेसबुक पर एक पेज बनाते हैं और लोग उसे एक मंच में बदल डालते हैं 

कायदे से देखें तो बीते एक दशक की सूचना क्रांति ने मध्यवर्गीय भारत में एक नयी सामाजिक क्रांति भी पैदा की है. निश्चय ही इसका वास्ता सिर्फ फेसबुक या कुछ दूसरी सोशल साइटों भर से नहीं है, तकनीक के जरिए हासिल हुई एक नयी समानता और स्वायत्तता से भी है. बल्कि हमारी लोकतांत्रिक क्रांति ने वयस्क मताधिकार के जरिए जो राजनीतिक बराबरी सबको देने की कोशिश की उसे कहीं ज्यादा वास्तविक अर्थों में इस सूचना क्रांति ने संभव किया है. एक मोबाइल सबकी जेब में है, एक नंबर सबकी मेमोरी में है और काम के लिए घर और शहर छोड़ने वाले अमीर-गरीब सब आश्वस्त हैं कि उनके पास अपनी खोज-खबर देने का एक जरिया आ गया है. पहले आरा-छपरा से दिल्ली-मुंबई और सूरत काम करने निकला गरीब 6 दिन बाद पोस्टकार्ड भेजकर अपना कुशल-क्षेम बताता था, अब वह ट्रेन पर बैठने से लेकर उतरने तक का हिसाब-किताब देता है. दस साल पहले तक दिल्ली की बसों में असुरक्षित-सा तना हुआ चेहरा लेकर बैठी दिखने वाली लड़कियां अब मोबाइल से चिपकी किसी और दुनिया में खोई दिखाई पड़ती हैं- आश्वस्त कि वे अकेली नहीं हैं और किसी संकट की घड़ी में अपनों को आवाज देने वाला एक यंत्र उनके हाथों में है.

मोबाइल के बाद इंटरनेट के विस्तार ने इस सूचना क्रांति को और भी कई आयाम दिए हैं. निजी ब्लॉगिंग हमें कोसी के बाढ़ पीड़ितों की तकलीफ से भी परिचित करा रही है, इराक की उस लड़की की तकलीफ बता रही है जो पढ़ना तो चाहती है लेकिन जिसका स्कूल तबाह हो गया है, और तालिबानी जुल्म के शिकार लोगों की दास्तान भी हम तक पहुंचा रही है. अचानक हम पा रहे हैं कि हमारी लोकतांत्रिक लड़ाइयां मंच और लाउडस्पीकर पर ही नहीं, ट्विटर और फेसबुक पर भी लड़ी जा रही हैं. करीब दो साल पहले मंगलौर में एक दक्षिणपंथी संगठन ने पब में बैठी लड़कियों के साथ जो मारपीट की थी उसके विरोध में फेसबुक पर जो तीखी लड़ाई चली उसने सबके छक्के छुड़ा दिए. रामसेना नाम के उस संगठन को गुलाबी पैंटी भेंट करने का आंदोलन ऐसा लोकप्रिय हुआ कि अगली बार किसी ने कम से कम मंगलौर में पब में बैठने वाली लड़कियों को रोकने की हिम्मत नहीं की.

यह पुरानी बात हो गई, नयी बात अण्णा हजारे का अनशन है जो जितना जंतर-मंतर पर दिखता रहा, उतना ही फेसबुक और ट्विटर पर भी छाया रहा. जाहिर है, अब आंदोलन और विरोध प्रदर्शन को सफल बनाने के लिए डुग्गी नहीं पिटवानी पड़ती, मुनादी नहीं करवानी पड़ती, जगह-जगह छोटी-छोटी सभाएं नहीं करनी पड़तीं, आप फेसबुक पर एक पेज बनाते हैं और धीरे-धीरे लोग उस पेज को एक मंच में बदल डालते हैं. जेसिका के इंसाफ से लेकर अण्णा के आंदोलन तक जितनी लड़ाइयां सड़क पर लड़ी गईं, उससे कम फेसबुक या ऐसे दूसरे वर्चुअल, यानी आभासी माध्यमों पर नहीं.

क़रीब से देखें तो हम पाते हैं कि तकनीक उन्हीं लड़ाइयों में मददगार है जो अंततः  व्यवस्था के हक में जानी हैं

हालांकि हाल-हाल तक इन माध्यमों की एक वैध आलोचना की जाती रही कि ये एक सीमित वर्ग की नुमाइंदगी करते हैं- उस महानगरीय भारत की जिसके पास तकनीक की सुविधा और अंग्रेजी की समझ है- और इनके सरोकार उन्हीं सवालों तक सीमित हैं जिनका इनके जीवन से वास्ता है. लेकिन यह आलोचना एक हद तक ही सही है. धीरे-धीरे, बल्कि बहुत तेजी के साथ इंटरनेट की घुसपैठ भारतीय समाज में कहीं ज्यादा गहरी हुई है, अब इसके बहुत सारे प्रमाणों की जरूरत नहीं. छोटे-छोटे कस्बों और शहरों के लोग, घरों में काम करने वाली महिलाएं और दूर-दूर रहकर अपनी सृजनात्मकता में लीन कलाकार या कार्यकर्ता इस माध्यम से महानगरों से, और मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं. यह शायद हिंदुस्तान में ही नहीं, सारी दुनिया में घटित होने वाली प्रक्रिया है- एक मायने में औद्योगिक क्रांति के बाद की सबसे बड़ी क्रांति- जिसने पिछली सदी के बहुत सारे मानकों को पूरी तरह नहीं, तो बहुत दूर तक बदल डाला है. राष्ट्रवादी हसरतें इस तकनीकी क्रांति के आगे खुद को असहाय पाती हैं, झंडे, नारे और जुलूस वाले जनांदोलन अब इसके आगे पुराने लगते हैं, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को इसके आगे अपने औजार नये सिरे से तलाशने और तराशने पड़ रहे हैं, प्रशासकीय गोपनीयता छिन्न-भिन्न हुई जा रही है और साम्राज्यवादी परियोजनाएं विकीलीक्स जैसे खुलासों के बाद बुरी तरह हास्यास्पद ढंग से दुनिया के सामने खुल कर सामने आ रही हैं.

लेकिन इंटरनेट की लगातार बढ़ रही इस अपरिहार्यता के बीच ही कई सवाल पैदा होते हैं क्योकि जब भी कोई नयी तकनीक आती है, जब भी उसकी मार्फत कोई नयी क्रांति घटित होती है तो अचानक वह सत्ता और शक्ति के समीकरण भी बदलती है और बहुत सारे लोग पीछे छूट जाते हैं.

मिसाल के तौर पर जब पहली बार मनुष्य ने अक्षरों की दुनिया संभव की होगी, लेखन की विधि विकसित की होगी तो ज्ञान और अनुभव की बहुत सारी शाखाओं का विकास हुआ होगा, लेकिन तब भी बहुत सारी मौखिक परंपराएं पीछे छूट गई होंगी. जब प्रिंटिग प्रेस आई तो उसने ज्ञान को कुछ उसी तरह की लोकतांत्रिकता प्रदान की, जैसी आज इंटरनेट कर रहा है. तब ज्ञान कंठस्थ करने की चीज नहीं रहा, वह किताबों और दस्तावेजों में बंद हो गया जिसका अवसर और जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल किया जा सकता था. तब भी लेखन की कई नयी शैलियां विकसित हुईं, उपन्यास जैसी विधा संभव हुई, लेकिन इसी के साथ-साथ बहुत सारी शैलियां मर गईं, बहुत सारा ज्ञान उन लोगों के साथ खत्म हो गया या पीछे छूट गया जो ज्ञान की लिखित परंपरा को संदेह की दृष्टि से देखते थे.

अब हमारे सामने इंटरनेट है और ज्ञान बिल्कुल हमारी चुटकियों पर है. बड़ी से बड़ी सूचना मिनटों में निकल आती है. अब कुछ भी याद रखना जरूरी नहीं है. लेकिन ज्ञान की यह सर्वसुलभता एक सीमा के बाद ज्ञान के लिए ही घातक हुई जा रही है. चूंकि पहले से कुछ भी जानना जरूरी नहीं रह गया है, इसलिए सोचना और विचार करना, उद्वेलित होना और प्रश्न खड़े करना भी छूट गया है. अब बने-बनाए प्रश्न हैं जिनके बने-बनाए उत्तर हैं. ज्ञान अब दुस्साहसी अन्वेषकों की सत्य-साधना से नहीं आता, वह बोधि वृक्ष के नीचे बैठे किसी बुद्ध की सात साल की प्रतीक्षा से नहीं आता, वह वैज्ञानिकों की प्रयोगधर्मी चेतना का नतीजा नहीं होता, वह एक पेशेवर उद्यम और सोचे-समझे निवेश का नतीजा होता है जिसके खोले हुए विश्वविद्यालयों, संस्थानों और केंद्रों में पूंजी को माकूल पड़ने वाला ज्ञान गढ़ा और बांटा जाता है- ऐसा ज्ञान नये टीवी, फ्रिज और कंप्यूटर बनाने के काम आता है, नया दिमाग और नया मनुष्य बनाने के काम नहीं.

निजी स्तर पर ज्ञान का जो सरलीकरण है वह सामाजिक स्तर पर संबंधों के सरलीकरण में बदल रहा है. फेसबुक के जरिए अब सब दोस्त हैं और एक जैसे दोस्त हैं. उन्हें जन्मदिन पर बधाई दी जानी है, उन्हें अपनी यात्राओं के बारे में बताना है, उन्हें अपनी पार्टियों के फोटो दिखाने हैं. यह बेताबी, यह उत्कंठा इतनी ज़्यादा है कि पार्टी चल रही होती है और कोई मोबाइलधारी उसका फोटो फेसबुक पर अपलोड कर रहा होता है. कहना मुश्किल है, एक-एक क्षण की यह रंगीन प्रस्तुति किसी आत्मीय साझेपन से उपजी है या एक अविचारित प्रदर्शनप्रियता की पैदाइश है.

दरअसल यही वह मोड़ है जहां तकनीक हमारी उंगली पकड़ कर नहीं चलती, हम उसकी उंगली पकड़ कर चलने लगते हैं. ज्ञान हम खोजते नहीं, वह तकनीक से मिल जाता है. संबंध हम सिरजते नहीं, वह तकनीक से मिल जाता है. सूचनाओं तक हम नहीं जाते, सूचनाएं हम तक दौड़ी चली आती हैं. जाहिर है, इसी से सूचनाएं छिप भी जाती हैं, क्योंकि दौड़ाने वालों को मालूम है कि कौन-सी सूचना भेजी जानी है, किसे आलमारियों में बंद रखना है. यहीं से यह तकनीक चुपके से हमारी राजनीतिक और सार्वजनिक पक्षधरताओं में भी दखल देने लगती है. वह विशेषाधिकारसंपन्न लोगों की अभिव्यक्ति का जरिया बन जाती है. ट्विटर बराक ओबामा, अमिताभ बच्चन, शशि थरूर और सुषमा स्वराज की बात हम तक पहुंचाता है, हमारी बात उन तक नहीं. ज्यादा करीब से देखें तो हम पाते हैं कि तकनीक उन्हीं लड़ाइयों में मददगार है जो अंततः व्यवस्था के हक में जानी हैं- न्याय की छोटी-छोटी पुकारों में, औरतों की छोटी-छोटी आजादियों में या फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाने की कोशिश में.

निश्चय ही ये लड़ाइयां छोटी नहीं हैं, लेकिन इनके आगे इंसाफ और बराबरी के वे बड़े सवाल दब जाते हैं जो अंततः सभ्यता की अब तक की सबसे बड़ी चुनौती बने हुए हैं. और उन वास्तविक संबंधों की जगह भी सिकुड़ती चली जाती है जो लगातार अमानवीय और ठंडी होती इस दुनिया को एक मानवीय और आत्मीय ऊष्मा प्रदान करते हैं, इसे जीने लायक बनाए रखते हैं.

फेसबुक पर बधाइयों की बरसात के बीच भी मैं उन चेहरों को याद करता रहा जिनका आत्मीय संस्पर्श अब तक मेरे जीने का संबल रहा है, इसे सार्थक बनाता रहा है. निश्चय ही इनमें कई चेहरे ऐसे थे जो फेसबुक के जरिए भी आए. दरअसल समझने की बात यही है, इंटरनेट माध्यम ही है, इससे ज्यादा कुछ नहीं.  

‘झूठ और लूट की संस्कृति के खिलाफ जन संस्कृति की जरूरत’

साहित्य की दुनिया से आपका साबका कब और कैसे हुआ?

साहित्य से मेरा जुड़ाव दो-तीन स्थितियों में हुआ.  मिडिल स्कूल और हाईस्कूल के समय से ही मुझे कुछ ऐसे अध्यापक मिले जिनकी साहित्य में गहरी दिलचस्पी और गति भी थी. उनके कारण साहित्य में दिलचस्पी जगी. जब मैं बनारस आया तो उस समय बनारस में रहने वाले दो कवियों, त्रिलोचन शास्त्री और धूमिल से मेरा संबंध बना. काशीनाथ सिंह से मेरा संबंध था और उनके कारण ही नामवर सिंह से थोड़ा-बहुत परिचय हुआ. मैं स्वयं काशी हिंदू विश्वविद्यालय का हिंदी का छात्र था, इसलिए वहां के हिंदी विभाग की जो आलोचना की परंपरा थी- रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि, उससे भी जुड़ने की प्रेरणा मिली. बुनियादी तौर पर साहित्य से जुड़ाव बनारस में हुआ और यहीं से मैं कुछ लिखने की ओर भी गतिशील हुआ.

मौजूदा दौर में साहित्य और समाज के सामने कौन-सी बड़ी चुनौतियां देख रहे हैं?

भारतीय समाज पिछले बीस वर्षों से आंधी की गति से पूंजीवाद और अंतरराष्ट्रीय पूंजी की गिरफ्त में जिस तरह आया है उससे बहुत सारी चीजें उलट-पुलट गईं. पूंजीवाद स्मृतियों को महत्व नहीं देता क्योंकि उसके अपने इतिहास की स्मृतियां इतनी भयावह हैं कि उनसे गुजरना गहरा अपराधबोध पैदा करता है. इसलिए पूंजीवाद हमेशा वर्तमान और भविष्य की चिंता करता है. कुल मिलाकर पूंजीवाद के स्वभाव के अनुकूल ही राजनीति देश में चल रही है, जिसे मैं झूठ और लूट की राजनीति कहता हूं. एक संकट तो इस झूठ और लूट की राजनीति की वजह से है. इस अर्थव्यवस्था और राजनीति का असर सांस्कृतिक परिदृश्य पर पड़ रहा है, जिससे साहित्य और संस्कृति में भी अपने अतीत के प्रति कोई सच्चा लगाव दिखाई नहीं देता है और यदि कोई लगाव दिखाई भी देता है तो बाजार की दृष्टि से उपयोगी होने पर ही सामने आता है. खास तौर पर लोकभाषाओं का जीवन खतरे में है. तीसरे भारत का मध्यवर्ग धीरे-धीरे विकसित हुआ मध्यवर्ग नहीं है, यह अचानक हनुमान कूद की तरह उछलकर ऊपर आया मध्यवर्ग है, इसलिए उसमें कोई संयम और सामाजिक चेतना नहीं है. चिंता की बात यह है कि भारत में संस्कृति का क्षेत्र अधिकांशतः मध्यवर्ग के दायरे में सीमित है और यह मध्यवर्ग ब्रिटिश राज के दिनों में जितना अवसरवादी था उतना ही आज भी अवसरवादी है. हिंदी में मुक्तिबोध ने जीवन भर अपनी कविता और लेखों में सबसे अधिक आलोचना मध्यवर्ग के अवसरवाद की थी. अब वह आलोचना साहित्य से भी गायब हो गई है. हिंदुस्तान का मध्यवर्ग इस समय सेलीब्रेशन मतलब उत्सव मनाने की मानसिकता में है. इसलिए अवसरवाद को वह अवसरों की तलाश समझता है. इस सबके बावजूद इसी मध्यवर्ग में और उसके बाहर भी अब भी कुछ ऐसे लेखक व बुद्घिजीवी हैं, जिनमें सामाजिक चेतना है, मानवीय संवेदनशीलता है.

इस दौर में आम तौर पर लेखक संगठन साहित्य की दिशा निर्धारित करने में कितने सफल रहे हैं? आप स्वयं एक संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. क्या लेखक संगठनों की कोई सामाजिक भूमिका संभव लगती है?

हिंदी में तीन लेखक संगठन हैं. सबसे पुराना प्रगतिशील लेखक संघ, उसके बाद का जनवादी लेखक संघ और जनसंस्कृति मंच. जहां-तहां कुछ शहरों में इनके विरोधी लेखक संगठन भी हैं. बहुत छोटे और सीमित दायरे में काम करने वाले ही सही. लेकिन मैं इन्हीं तीन प्रमुख लेखक संगठनों के बारे में बात करूंगा. असल में आज का दौर सारी दुनिया में और अपने देश में भी मार्क्सवाद और उससे जुड़ी राजनीति, संस्कृति और सक्रियता के संकट का दौर है. उस संकट की छाया हिंदी के इन तीनों वामपंथी लेखक संगठनों पर भी बनती दिखाई देती है. प्रायः ये तीनों लेखक संगठन उत्साह या उत्थान की स्थिति में तब होते हैं जब देश में वामपंथी राजनीति और जनांदोलन उत्साह और उत्थान की स्थिति में हों. चूंकि पिछले एक दशक में वामपंथी राजनीति स्वयं उत्साह की स्थिति में नहीं है. इसलिए उससे जुड़े लेखक संगठन भी पस्ती की दिशा में दिखाई देते हैं.

लेकिन कहा तो यह जाता है कि जब राजनीति बुरे दौर से गुजर रही हो तब आगे बढ़कर रोशनी दिखाने की जिम्मेदारी भी साहित्य-संस्कृति के लोगों की होती है.

हां, ठीक कहा हिंदी में प्रेमचंद का एक वाक्य हजार बार दोहराया गया है कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल दिखाने वाली सच्चाई है. पर वास्तविक रूप से देखिए तो प्रेमचंद के इस कथन का अब उससे अधिक अर्थ नहीं रह गया है, जितना सरकारी दफ्तरों में टंगे हुए सत्यमेव जयते का.

आपने कबीर को भोजपुरी का कवि और भक्तिकाल को मातृभाषाओं के उत्थान का काल कहा है. क्या आपको मौजूदा दौर की चुनौतियों से निपटने के लिए ऐसे ही व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत लगती है?

जितना मूलगामी और व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन भक्ति आंदोलन था उससे थोड़ा ही कम व्यापक प्रगतिशील आंदोलन का आरंभिक दौर था, जिसके अंतर्गत केवल भारत की अधिकांश भाषाओं के साहित्य सृजन का ही समावेश नहीं था बल्कि रंगमंच के साथ फिल्म, संगीत, नृत्य और चित्रकला में भी प्रगतिशील आंदोलन से प्रेरित और प्रभावित सृजनशीलता के प्रमाण मौजूद थे. उस दौर की वामपंथी राजनीति ने जो हासिल नहीं किया उससे बहुत अधिक प्रभाव की व्यापकता प्रगतिशील आंदोलन के कारण पैदा हुई. फिर धीरे-धीरे प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े हुए लोगों की कमियों, कमजोरियों और दुविधाओं और दुर्नीतियों के कारण वह आंदोलन और उससे जुड़े संगठन बिखर गए. आजकल भारत का संपूर्ण सांस्कृतिक परिदृश्य जिस असमंजस, संकट और दिशाहीनता की दशा से गुजर रहा है उससे उसे उबारने और जनोन्मुखी बनाने के लिए पुराने प्रगतिशील आंदोलन की तरह का एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन जरूरी लगता है. अभी कुछ समय पहले यह बात हुई थी और अब भी प्रक्रिया चल रही है कि तीनों वामपंथी लेखक संगठन मिल-जुल कर काम करें. एक व्यापक जनतांत्रिक सांस्कृतिक परिवेश बनाने की कोशिश करें और जनोन्मुखी रचनाशीलता को शक्ति देने की भी कोशिश करें. लेकिन यह तभी संभव होगा जब ये वामपंथी संगठन आत्मालोचन करते हुए अपनी पुरानी कमियों, कमजोरियों और गलतियों को स्वीकार करें और भविष्य के लिए नयी नीति, सोच और दिशा की पहचान करें.

हिंदी रचनाशीलता में आपको वे कौन लोग लगते हैं जो इन समस्याओं से सीधे टकराने की कोशिश कर रहे हैं?

बहुत सारे जरूरी नामों के छूट जाने के खतरे के बावजूद भी मैं यह कहूंगा कि भारत में किसानों की आत्महत्या पर राजेश जोशी ने दो अत्यंत मार्मिक और महत्वपूर्ण कविताएं लिखी हैं, चंद्रकांत देवताले ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी और यातना पर एक अत्यंत प्रभावपूर्ण कविता लिखी है. झारखंड के आदिवासियों के शोषण और दमन पर रणेन्द्र ने ‘ग्लोबल गांव के देवता’ नाम का महत्वपूर्ण उपन्यास लिखा है और जून 2011 के अंक में सुभासचंद्र कुशवाहा की एक कहानी छपी है ‘केहू ना चीन्ही’ जिसमें गांवों में घटती सामूहिक सांस्कृतिक चेतना और बढ़ती सांप्रदायिक चेतना, जोगियों की खत्म होती गतिविधियों और गायकी के विनाश का मर्मस्पर्शी चित्रण है. हिंदी क्षेत्र में जोगी जाति वही है, जिसमें कहा जाता है कि कबीर पैदा हुए थे. जोगियों की संस्कृति और चेतना के अंत के साथ किसी और कबीर के पैदा होने की संभावना का भी अंत दिखाई देता है.

जुर्म के खबरची

पत्रकार पत्रकारों के बारे में तभी लिखते हैं, जब कुछ बहुत भयानक घटित होता है. उनके लिए सबसे अच्छे हालात तो यही होते हैं कि उनका नाम खबर की हेडलाइन के बड़े अक्षरों के नीचे दबा रहे. और सबसे बुरी स्थिति तब होती है जब वे ही पहले पन्ने की खबर बन जाते हैं.

‘धीरे-धीरे बहुत संवेदनशील रिपोर्टर भी बिना किसी भावुकता के पूछने लगता है, ‘कितनी गोलियां लगीं? क्या सिर एकदम कटा हुआ था? बॉडी कितनी बुरी तरह जली हुई है?’
मुंबई के पत्रकार ज्योतिर्मय डे के साथ ऐसा ही हुआ. उन्हें पिछले दिनों सरेआम गोली मार दी गई. अब मुंबई पुलिस का दावा है कि यह हत्या छोटा राजन गिरोह ने करवाई थी. डे की हत्या ने अंडरवर्ल्ड द्वारा पत्रकारों को आतंकित करने की घटनाओं के खिलाफ एक तीखे विरोध की शुरुआत कर दी है. हालांकि यह इस तरह की पहली घटना नहीं है. 1982 में मुंबई माफिया के पर खबरें छापने के लिए मारुति यादव ने उल्हासनगर के पत्रकार एके नारायण की हत्या कर दी थी. नारायण के शरीर के कई टुकड़े करके उन्हें दो बक्सों में भरकर उनके घर के दरवाजे पर फेंक दिया गया था. 1997 में अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन के गुर्गों ने मुंबई के अनूप हिल्स पर क्राइम रिपोर्टर बलजीत परमार की गोली मारकर हत्या कर दी. मुंबई पुलिस को हर महीने पत्रकारों को धमकी देने और उन पर हमला करने की सैकड़ों शिकायतें मिलती हैं.

क्राइम रिपोर्टरों की दुनिया में, खास तौर पर मुंबई में, धमकी मिलने का मतलब होता है कि आप सही दिशा में काम कर रहे हैं. मुंबई में रहने वाले मतीन हफीज पिछले दस साल से अपराध की रिपोर्टिंग कर रहे हैं. 30 साल के हफीज को 2004 की वह घटना भुलाए नहीं भूलती जिसने उन्हें इस काम से जुड़े खतरों का सही मायने में अहसास करवाया था. रमजान का महीना था और हफीज गैंगस्टर से विधायक बने अरुण गवली का इंटरव्यू कर रहे थे. इंटरव्यू जबरन वसूली करने वाले सुनील घाटे के साथ गवली के संबंधों को लेकर था. सवालों से गुस्साए गवली ने हफीज को थप्पड़ मार दिया और फिर उन्हें घर से निकल जाने के लिए कहा. वे बाहर निकल ही रहे थे कि सैकड़ों लोगों ने उन्हें घेर लिया. भीड़ ने उनका फोन छीन लिया, उनकी मोटरसाइकिल तोड़ दी और चार घंटे तक उनकी पिटाई की. अंततः लगभग अचेतावस्था में हफीज को पास की पुलिस चौकी ले जाया गया. यहां उल्टे उन पर ही आरोप लगाया गया कि वे विधायक के घर में चाकू लेकर घुस गए थे. हफीज बताते हैं,  ‘पुलिस ने चाकू पर मेरे फिंगर प्रिंट लेने की कोशिश की. उन्होंने यह मानने से ही इनकार कर दिया कि मैं एक रिपोर्टर हूं. जब मैंने उनमें से एक को बताया कि मैं पूरे दिन रोजे पर रहा हूं तो उसने मुझे पानी और खजूर दिया. साथ ही मां से बात करने के लिए एक फोन भी. सबसे पहले मैंने अपने संपादक से बात की. फिर मुंबई के पुलिस कमिश्नर से.’ हफीज को एफआईआर लिखवाने में आठ घंटे लगे. सात साल बाद वे हंसते हुए कहते हैं,  ‘क्या अपनी खबर ऐसे भी शुरू की जा सकती है?’

हफीज अपवाद नहीं हैं. 23 साल के आनंद पिछले डेढ़ साल से एक अखबार के लिए क्राइम बीट देख रहे हैं. उनका मानना है कि संपादक युवाओं के भरोसे इस बीट को चलाते हैं. वे खतरों से खेलने की उनकी प्रवृत्ति का फायदा उठाते हैं. आनंद मानते हैं कि यह बीट सिर्फ इसलिए ही चुनौतीपूर्ण नहीं है कि यह आपके भोलेपन को समाप्त कर देती है बल्कि इसलिए भी है कि एक दिन में ही आपको बड़ी तादाद में लोगों के साथ नेटवर्किंग करनी पड़ती है. वे कहते हैं, ‘शुरुआत में पुलिस थाने में जाकर यह पूछना भी कठिन था कि एसएचओ कहां बैठते हैं.’ वक्त के साथ उन्होंने अंदरूनी कामकाज के तौर-तरीके सीख लिए. वे बताते हैं, ‘छोटा और महत्वहीन अधिकारी चाहता है कि उसे  ‘सर’ कहकर बुलाया जाए. जो लोग आदेश देते हैं और जो जमीनी स्तर पर उन्हें लागू करते हैं, उनके बीच कोई समानता नहीं होती, फिर भी आपको एक साथ सबको साधना होता है.’

क्राइम रिपोर्टरों की दुनिया में, खास तौर पर मुंबई में, धमकी मिलने का मतलब होता है कि आप सही दिशा में काम कर रहे हैं

समाज की इस जटिल परत की पैमाइश के लिए आपको कोई पत्रकारिता स्कूल तैयार नहीं करता. हफीज बताते हैं कि कैसे शुरुआत में वे एक खबरी से मिलने के रोमांच में पूरी मुंबई घूम लेते थे. वे बताते हैं, ‘बाद में मुझे समझ में आया कि किसी को अपने ऑफिस के पास बुलाना ज्यादा सुरक्षित है.’ अंग्रेजी समाचार चैनल न्यूज-एक्स की ब्यूरोचीफ नीता कोल्हात्कर बताती हैं कि सात साल के क्राइम रिपोर्टिंग करियर में सबसे खरी सलाह उन्हें स्वर्गीय हेमंत करकरे से मिली थी. वह यह थी कि पुलिस का बर्ताव आपके साथ दोस्ताना हो सकता है लेकिन पुलिस आपकी दोस्त नहीं है. कोल्हात्कर कहती हैं, ‘जितनी बार पुलिस मेरी खबर का सूत्र होती है उतनी ही बार वह मेरे लिए बाधा भी होती है.’ बेंगलुरु के डेक्कन क्रॉनिकल के प्रिंसिपल करस्पांडेंट अंबरीश भट्ट का मानना है कि क्राइम रिपोर्टिंग का पहला सिद्घांत है कि पुलिस पर विश्वास मत करो. वे कहते हैं, ‘एक आलसी रिपोर्टर और एक भ्रष्ट सिपाही में एक खास रिश्ता होता है. रिपोर्टर स्टोरी को एक भी कदम आगे नहीं ले जाएगा और पुलिसवाला उसे ऐसा करने के लिए उत्साहित नहीं करेगा. स्टोरी के तीन पक्ष होते हैं- पुलिस का, आरोपित का और आरोपी का. एक क्राइम रिपोर्टर को गवाहों की भी छानबीन करनी चाहिए.’ कोबरा पोस्ट के इन्वेस्टिगेटिंग रिपोर्टर संजीव यादव कहते हैं कि पुलिस अपनी साख बचाने में ही सबसे ज्यादा व्यस्त रहती है इसलिए सबूतों को सामने लाने में रिपोर्टर को ज्यादा बड़ी भूमिका निभानी पड़ती है.

कोल्हात्कर रिपोर्टरों की तुलना डॉक्टरों से करते हुए कहती हैं कि दोनों का ही काम ‘समाज की बुराइयों को खोजना और उन्हें साफ करना है.’ अपने पेशे की मांग को पूरा करने के लिए दोनों को बाहर से कठोर होना चाहिए. आनंद कहते हैं, ‘मैंने वह घटना कवर की थी जिसमें प्रसादनगर में एक ड्राइवर ने तीन बच्चों के साथ 18 महीनों तक गैंगरेप किया था. आज से 50 साल बाद भी मैं उस घटना को याद करूंगा तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाएंगे.’ हालांकि वे यह भी कहते हैं कि धीरे-धीरे बहुत संवेदनशील रिपोर्टर भी बिना किसी भावुकता के पूछने लगता है कि कितनी गोलियां लगीं? क्या सिर एकदम कटा हुआ था? या बॉडी कितनी बुरी तरह जली है? वे कहते हैं, ‘यह स्वाभाविक है. इस तरह की पत्रकारिता आपको बदलकर रख देती है.’

अगर आपको लगता है कि अपराध की दुनिया के साथ महिलाएं तालमेल नहीं बैठा सकतीं तो आपको पूर्व क्राइम रिपोर्टर एस हुसैन जैदी की हालिया किताब ‘माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई’ जरूर पढ़नी चाहिए. इसमें वे अपराध की दुनिया के किरदारों की एक नयी जमात पेश करते हैं- कमाठीपुरा की डॉन गंगूबाई, हाजी मस्तान की सलाहकार जेनाबाई, और अशरफ जिसने अपने पति के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के बाद कयामत ही ढा दी थी. हफीज का अनुमान है कि भारत में महिला क्राइम रिपोर्टरों की तादाद 20 फीसदी है, आंकड़ा 20 फीसदी भले हो मगर हफीज इसे बड़ा मानते हैं.  कोल्हात्कर मानती हैं कि जागरूक मीडिया और तकनीकी विकास ने महिलाओं के लिए भी क्राइम रिपोर्टिंग की दुनिया बदल कर रख दी है. वे कहती हैं, ‘लोगों को अब खुफिया कैमरे का डर सताता है और वे फोन पर बात करना ज्यादा पसंद करते हैं. मुझे इससे कोई परेशानी नहीं होती.’

साहस के प्रदर्शन और दृढ़ निश्चय की अपनी एक अदृश्य कीमत भी होती है. राष्ट्रीय सहारा के राजीव रंजन ने अपने शुरुआती दिनों में बतौर क्राइम रिपोर्टर एक बेसहारा गर्भवती लड़की के बारे में लिखा था जो दिल्ली के अंबेडकर अस्पताल में प्रसूति के लिए आई थी लेकिन उसे भर्ती करने से इनकार कर दिया गया. जरूरी मेडिकल सहायता के अभाव में बच्चा मर गया. रंजन ने इस घटना पर इतनी बढ़िया खबर लिखी कि डॉक्टर को निलंबित कर दिया गया. कुछ साल बाद रंजन अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल गये और संयोग देखिए कि उन्हें बतौर इंचार्ज वही डॉक्टर मिला. रंजन बताते हैं कि ‘उसने मुझसे कहा कि मैंने उसकी जिंदगी बर्बाद कर दी.’ हालांकि बाद में वह डॉक्टर उनकी पत्नी का केस लेने के लिए राजी हो गया. इसके कुछ ही घंटे बाद उनकी पत्नी का गर्भपात हो गया. रंजन कहते हैं, ‘हो सकता है कि वे बहुत कमजोर रही हों. . .’ लेकिन उनकी प्रवृत्ति उन्हें इस बहाने की आड़ में चैन नहीं लेने देती. वे कहते हैं, ‘मुझे अब भी नहीं समझ में आता कि मैं क्यों तैयार हो गया. मेरे भीतर ही कहीं यह भी यकीन था कि वह अपने पेशे के साथ दगा नहीं करेगा.’

शायद कभी-कभी एक क्राइम रिपोर्टर को भूलने की जरूरत सबसे ज्यादा होती है.