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‘तकलीफ हो, न हो फिर भी बीपी की दवायें लें?’

इस बार हम ब्लड प्रेशर की बीमारी के कुछ ऐसे पक्षों की बातें करेंगे जिनके बारे में आपको लगता है कि हमें सब पता है पर वास्तव में कुछ भी पता नहीं रहता. कदाचित, हायपरटेंशन (हाई ब्लड प्रेशर) ही एक ऐसी बीमारी है जिसके विषय में सभी को अपनी-अपनी तरह की इतनी गलतफहमियां हैं कि गिनाना कठिन. बहरहाल मैं तनिक कोशिश करके देख लेता हूं.

थोड़ा-बहुत हाई बीपी के विषय में

हाई बीपी बहुत कॉमन बीमारी है. हो सकता है कि आपको भी निकल आए. आपको अभी नहीं है क्योंकि आपने कभी चेक ही नहीं कराया. कभी कराया तो एकाध बार ज्यादा तो निकला था. पर दूसरे डॉक्टर ने बाद में नार्मल नापा और दोनों ने नापकर या तो कुछ ठीक से बताया नहीं, या दवाएं लिख दीं या कहा कि आपको कुछ नहीं है, या कहा कि इत्ता बीपी तो इस उम्र में रहता ही है. जान लें कि लगभग सात से सैंतीस प्रतिशत तक लोगों को यह बीमारी भारत में बताई जाती है. सो, बहुत कॉमन बीमारी है. जरूर चेक कराते रहें. यदि आपके परिवार में किसी को हाई बीपी है, या आप मोटे हैं, पड़े-पड़े खटिया या बैठे-बैठे कुर्सी तोड़ते रहते हैं, निष्ठापूर्वक दारू-सिगरेट आदि पीते हैं और आपकी कमर फैलती जा रही है (औरतों में 80 सेंटीमीटर, आदमियोंे में 90 सेंटीमीटर से ज्यादा हो गई हो) तो अपना बीपी नियमित चेक कराते रहें. इसी ग्रुप में हाई बीपी ज्यादातर पाया जाता है. ‘मेंटल टेंशन’ बहुत हल्का है सर – मुझे बीपी तो नहीं हो जाएगा? ऐसा कहने वाले मिलते हैं. ऐसे भी मिलते हैं जो विश्वास ही नहीं करते कि उन्हें बीपी हो सकता है क्योंकि, ‘मैं तो टेंशन पालता ही नहीं सर.’ मित्रों, ‘टेंशन’ (मानसिक तनाव) का हाई बीपी करने में सीधा कोई रोल नहीं होता है. बस, इतना जान लें कि हाई बीपी बहुत कॉमन बीमारी है.

पर मुझे तो कोई तकलीफ ही नहीं?

डॉक्टर साहब, आप बता रहे हैं कि तुम्हें हाई बीपी है पर मुझे तो कोई कष्ट ही नहीं? मैंने तो यूं ही मेडिकल चेकअप करा लिया और फंस गया. न सिर दर्द, न चक्कर, न छाती में दर्द, न और कुछ. अरे, यदि 160/100 बीपी है तो कुछ तो हो? जरूर, आपका बीपी यंत्र खराब है. मरीज को भ्रम है. कई बार उसे डॉक्टर पर ही संदेह होता है. पर याद रखें कि हाई बीपी से कोई तकलीफ हो ही, यह आवश्यक नहीं.

जब तकलीफ ही नहीं तो दवाएं/परहेज क्यों?

बात ऊपर से एकदम सही लगती है. तकलीफ नहीं है, तब भी दवाई खाते जाएं, बल्कि आपकी सलाह तो है कि जीवन भर खाते चले जाएं तो ऐसे निपट बेवकूफ तो हम हैं नहीं. जब तकलीफ होगी, खा लेंगे. जब कभी सिर दर्द वगैरह लगता है तो आपकी बताई बीपी की दवाएं दो-तीन दिन खा लेते हैं, बस. माना कि हाई बीपी रहता है पर रोज-रोज दवाएं क्यों खाएं साहब?
कठिन है यह समझा पाना कि अभी कुछ नहीं लगे तो भी दवाएं लें. इसे यूं समझें कि आज जो आप दवाएं ले रहे हैं वह जीवन बीमा की किस्त चुकाने जैसा है. चुकाने में कष्ट होता है, चुकाते हैं न मालूम है कि कभी मुसीबत से बचाएगी. जीवन बीमा में तो फिर भी वैसी मुसीबत शायद ही कभी आती हो परंतु हाई बीपी की दवाइयों की किस्त आपको निश्चित ही बहुत-सी मुसीबतों से बचाएगी. क्या आपको पता है कि यदि आप बीपी की दवाइयां लेकर अपना हाई बीपी कंट्रोल में नहीं रखते हैं तो कितना बड़ा खतरा उठा रहे हैं? बीपी कंट्रोल में न रहने पर आपको हार्ट अटैक की आशंका दो गुनी, लकवे की सात गुनी, हार्ट फेल्योर की तीन गुनी तथा किडनी फेल होने की दोगुनी बढ़ जाती है – और इनमें से ज्यादा चीजों का कोई खास इलाज उपलब्ध ही नहीं.

तो क्या करूं

यदि डॉक्टर ने हल्का -सा, बार्डर लाइन (सीमा रेखा को छूता हुआ) हाई बीपी भी बताया है तो आपको नियमित दवाएं लेकर, नियमित जांचें कराके पक्का कर लेना चाहिये कि बीपी हमेशा 140/90 के नीचे ही रहे. यदि साथ में मधुमेह वगैरह भी है तो बीपी और भी कम रहना चाहिए. कुछ बातें और याद रखें. दवाएं लगभग जीवन भर चलनी हैं परंतु उनका डोज, मात्रा आदि आवश्यकतानुसार बदल सकती है. इसीलिए नियमित बीपी जांच आवश्यक है. बीपी का व्यवहार बदलता रहता है. जीवन भर डॉक्टर से चेक कराते रहना पड़ेगा. एक बार जो दवा या डोज फिक्स हो गया, यदि मैं उसी को खाता रहूं तो? नहीं, आप यह न करें क्योंकि आगे का हर डोज अगली जांच से तय होगा. जब डॉक्टर बुलाए तो तकलीफ हो, न हो जाकर अवश्य दिखाएं. वजन कम करें. सिगरेट (या किसी भी तरह का भी तंबाकू) का सेवन एकदम बंद कर दें. दारू या तो बंद कर दें, या इतनी कम तो कर दें जो शराफत तथा बीपी का तकाजा होता है. कई बार हल्का बीपी तो इतना करने से ही कंट्रोल हो जाता है. नियमित व्यायाम करें. मुगदर घुमाने को नहीं कह रहा. नियमित चालीस मिनट घूम लिया करें बस. बैठे न रहें. एेक्टिव रहें. क्या मैं नमक पूरा बंद कर दूं? कतई नहीं. नमक भी शरीर के लिए जरूरी है. हां, ज्यादा न लें. सलाद में न डालें. अचार-चटनी-पापड़ में नमक होता है – बस, कभी-कभी लें. क्या होम्योपैथी या आयुर्वेदिक या योग थैरेपी ट्राई करें? मैंने इनसे कभी किसी का ठीक होते तो देखा नहीं. पर कभी ट्राई करें भी तो किसी दूसरे डॉक्टर से बीपी चेक करवा लें. यदि आपका बीपी 140/90 के नीचे रहता है तो जो ले रहे हैं, ले सकते हैं. मूल मुद्दा आपका हाई बीपी कंट्रोल में रखने का है. वह जिससे भी हो. 

‘होरी’ के नाम एक बिचौलिए का खत

मेरे प्रिय भाई ‘होरी’!

अबे तू उद्दंड काहे होता जा रहा है बे! सरकार जब-जब तेरी जमीन का अधिग्रहण करने जाती है, तब-तब तू बवाल काटता है, फिर शिकायत करता है कि पुलिस-प्रशासन ने तुझे पीटा. उद्दंड को दंड नहीं तो क्या पेड़ा मिलेगा! साले आसानी से जमीन क्यों नहीं छोड़ देता? जमीन में तेरी नाल गड़ी है क्या? जमाना चांद से मिट्टी खोद ला रहा है, एक तू है कि आज भी जमीन को अपनी मां कहता है. जमीन के एक छोटे-से टुकड़े के लिए अपनी मिट्टी पलीद कराने पर क्यों लगा है!

मैं पूछता हूं कि उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक का फैसला करने वाला तू कौन होता है? नीतिगत मामले में अपनी सूखी टांग न अड़ा. तू भूल रहा है तूने इन सब कामों के लिए चुनाव में अपना नुमाइंदा छांटा है. और वह ‘छंटा हुआ’ तेरा नुमाइंदा विधानसभा-संसद में तेरे लिए चिंतामग्न है. अरे, तुझे तो गांव का महाजन ही सारी उम्र सूद की चक्की में पीसता रहता है. उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं पाता और चला है सरकार से पंगा लेने. अरे, तेरी अक्ल ठिकाने लगाने के लिए तो लेखपाल-कानूनगो ही काफी हैं.

एक बात बता.. इस देश में किसान की जरूरत क्या है? यह सही है कि खेती किसान करता है, मगर क्या सिर्फ इतनी-सी बात पर सर माथे धर लिया जाए? अगर वह खेती नहीं करेगा तो मगरमच्छनुमा बड़ी-बड़ी कंपनियां करेंगी. कर ही रही हैं. तू शायद इस मुगालते में है कि कृषि प्रधान देश को तेरी बहुत जरूरत है. बेशक भारत एक कृषिप्रधान देश है. मगर यहां का इतिहास क्या कहता है, यह भी तो जानो मेरे मिट्टी के माधव. यहां मजे में प्रधान रहता है या तो किसान नेता. किसान तो आयोगों में रहता है. रपटों में रहता है. योजनाओं में रहता है. कर्ज में रहता है. अगर तू मजे में दिखना चाहता है तो सरकारी विज्ञापन या ट्रैक्टर के विज्ञापन में दिख. खेत में तू बेजार ही दिखेगा, अभागे.

तुझ पर किसी कवि ने कविता ‘हे कृषक देवता नमस्कार’ क्या लिख मारी, तू अपने को देवता समझ रहा है! तेरी शान में किसी शायर ने ‘जिस खेत से दहका को मयस्सर न हो रोटी, उस खेत के हर खोश-ए-गंदुम को जला दो’ शेर दे मारा, तो तू हवा में उड़ने लगा है क्या! बहुत पहले किसी बूढ़-पुरनिया ने ‘उत्तम खेती मध्यम बान’ की कहावत चला दी, तो तू कल्पनालोक में भ्रमण करने लगा है क्या! किसी गीतकार ने ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरा मोती’ क्या लिखा, तू सच मान बैठा है क्या! किसी राजनेता के नारे में तुम्हारी जय क्या हो गई, तू अपने को खुदमुख्तार समझने लगा है क्या!

अबे, तू समझता क्यों नहीं! वास्तविकता से आंख मिला. देखता नहीं सरकारी गोदामों में पडे़-पडे़ करोड़ों टन अन्न सड़ रहा है. यहां न अन्न की कदर है, न उसको उगाने वाले की. यहां कद्र है तो बस क्रिकेट की और क्रिकेटरों की. देखता नहीं, रत्ती भर मुआवजा मिलने के इंतजार में विस्थापितों की पहाड़ जैसी जिंदगी कट जाती है, मगर क्रिकेटरों के ऊपर इनाम की बारिश पल भर में हो जाती है. अबे गंवई ! तू राई है और रोड़ा बनने की जुर्रत करता है! और उस विकास की राह में, जिसे बनाने के लिए सरकार पूरी तरह से कटिबद्ध है. तू अपनी जमीन दे और विकास का एक हिस्सा बन, मगर तू तो विकास में से हिस्सेदारी मांग रहा है. अबे! ऐसे में तुझे कौन छोडे़गा? कमबख्त तू पिटेगा ही पिटेगा.

अनूपमणि त्रिपाठी

भूल जाइए कि ऐसी फिल्म कभी बनी थी : डबल धमाल

फिल्‍म डबल धमाल

निर्देशक  इंद्र कुमार        

कलाकार  संजय दत्त, अरशद वारसी, रितेश देशमुख, कंगना, मल्लिका शेरावत

यूं तो ऐसी फिल्मों के बारे में लिखने को कुछ खास नया नहीं होता लेकिन रस्म है ही तो निभानी ही पड़ेगी और वह भी अच्छे से. अब हम इंद्र कुमार की तरह उस माध्यम का अपमान तो नहीं कर सकते ना जो हमारा जीवन है. आपने सिंगल धमाल देखी हो तो डबल धमाल मत देखिए और नहीं देखी हो, तब भी मत देखिए. क्योंकि बच्चों के अलावा इसे शायद ही कोई और झेल पाए और बच्चे भी झेल पाएंगे, यह ऐसा कोई भी आदमी यकीन से नहीं कह सकता जो बच्चा नहीं है. और वैसे भी बच्चों को यही सब देखना है तो कार्टून चैनलों पर इससे कहीं बेहतर विकल्प हैं. कम से कम उसमें इंसानों को तो बेवकूफी करते हुए नहीं देखना पड़ता. अगर आपके बच्चे या बड़े झेल भी सकते हों तो भी ऐसी फिल्में नहीं दिखाई जानी चाहिए. सेंसर बोर्ड जाने किस आधार पर इन्हें पास करता है. बेचने के लिए रखे गए नंगे बदन और जबरदस्ती का सेक्स ही अश्लीलता नहीं हैं.

अनीस बज्मी की शैली की ये द्वि या शून्य अर्थी तथाकथित कॉमेडी भी अश्लील है. कला के एक खूबसूरत माध्यम के साथ मजाक. और दुर्भाग्य से रितेश देशमुख, अरशद वारसी और कंगना जैसे काबिल एेक्टर इस मजाक का हिस्सा हैं. ऐसी फिल्में देखने के बाद कमजोर दिल के कुछ लोगों को तो मानवता से भी नफरत हो सकती है. ऐसी हर फिल्म में किसी चिड़ियाघर का और गुरिल्ले का एक दृश्य जरूर होता है और जिसमें फिल्म का कोई किरदार भी गुरिल्ले की खाल पहनकर जानवर बन जाता है और सोचता है कि आप खुश होंगे.

ऐसी हर फिल्म में कहीं न कहीं किसी काले, गंजे, मोटे, अपाहिज और पागल का मजाक जरूर बनाया जाता है. हद तो तब हो जाती है, जब मिमिक्री की सीमाएं लांघते हुए फिल्म ‘तारे जमीन पर’ जैसे संवेदनशील विषय का मजाक उड़ाने लगती है. तकनीकी तौर पर भी ऐसी फिल्में बंडल होती हैं. कहानी में पांच मुख्य पुरुष किरदार हैं तो पांचों को फ्रेम में रखे बिना कोई सीन शूट ही नहीं होगा. फिर वे बारी-बारी से बंदर जैसा चेहरा बनाएंगे और इस तरह बंदर का अपमान करके उसे अपने किरदारों के बराबर ले आएंगे.
यूं तो इन फिल्मों में सभी लोग किसी अजायबघर के प्राणी होते हैं लेकिन लड़कियों के किरदार ऐसे रखे जाते हैं कि वे महाबेवकूफ हों और उनका पति नकली बाल लगाकर आए तो वे उसे पहचान न सकें. इसके अलावा वे बस कुछ वाहियात से गानों में कुछ और कम कपड़ों वाली लड़कियों के साथ नाचती हैं.

ऐसी फिल्में इस समय में बन रही हैं तो यह हम सबके लिए शर्म की बात है. इतने बड़े बजट पर इनके बन सकने के लिए हमारे समाज का बेवकूफी स्तर ही जिम्मेदार है. ऐसी फिल्में भी कभी बनती थीं, इस पर बीस साल बाद हमारे बच्चे हंसते-हंसते दोहरे हो जाएंगे.

-गौरव सोलंकी 

असल संत की अंत कथा

बाबा रामदेव को ध्यान खींचने की कला आती थी. स्वामी निगमानंद के पास यह हुनर नहीं था. इसलिए एक ओर रामदेव विदेशों में जमा काला धन वापस लाने और भ्रष्टाचारियों को फांसी देने जैसे मुद्दे उठाकर सुर्खियों में छाए हुए थे तो दूसरी तरफ 38 साल के निगमानंद उतनी ही गुमनामी के बीच 68 दिन से भूख हड़ताल पर थे. जबकि जिस मांग को लेकर वे यह अनशन कर रहे थे उसका महत्व अगर राष्ट्रीय हित के पैमाने से ही देखा जाए तो रामदेव द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों से कहीं ज्यादा ही था. उनकी लड़ाई गंगा को बचाने की थी.

आखिरकार 13 जून को निगमानंद चल बसे. संयोग देखिए कि उनकी मौत उसी अस्पताल के उसी वार्ड में हुई जहां सिर्फ सात दिन के अनशन के बाद रामदेव को भर्ती किया गया था. कुछ दिन हल्ला हुआ. रामदेव और उनकी कहानी के विरोधाभास की चर्चाएं हुईं और फिर सब शांत हो गया. जिस मुद्दे को लेकर निगमानंद ने अपनी जान दी थी उसे भुला दिया गया.

लेकिन भूलकर आगे बढ़ जाना एक बड़ी गलती होगी. इसलिए क्योंकि स्विस बैंकों में भारत का कितना काला धन जमा है इसे लेकर दिए जा रहे आंकड़े एक बड़ी सीमा तक अंदाजे ही हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि इस पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए और यह पैसा देश में वापस आना चाहिए. लेकिन गंगा की इस देश के लिए क्या कीमत है, इसे किसी आंकड़े से नहीं बताया जा सकता. एक सभ्यता को सींचने की भला क्या कीमत लगाई जा सकती है? सदियों से गंगा एक बड़ी जनसंख्या का भौतिक और आध्यात्मिक पोषण करती आई है. इसके पारिस्थितिक तंत्र और इसके सहारे चल रही बिजली और सिंचाई परियोजनाओं को देखा जाए तो आज भी करोड़ों लोगों की जिंदगी इसके सहारे ही चल रही है. ऐसे में कल्पना कीजिए कि गंगा खत्म हो जाए तो क्या होगा. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, बंगाल जैसे राज्य बड़ी मुश्किल में आ जाएंगे. इनमें से कुछ देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य हैं.

गंगा किनारे अवैध खनन जिस तरह से हो रहा है वह बताता है कि अगर आप लूट में शामिल हैं तो मुनाफा बड़ा है और अगर आप कानून के साथ हैं तो आपके लिए खतरा खड़ा हैसाफ है कि गंगा के बचे रहने की कीमत उस पूरी रकम से कहीं ज्यादा है जो भारतीयों के काले धन के रूप में स्विस बैंकों में पड़ी है. इस तरह देखा जाए तो स्वामी निगमानंद की लड़ाई के मायने कहीं आगे तक जाते हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ यह दूसरी तरह की लड़ाई थी. इसका वास्ता दूसरे देश और उनके साथ हमारी जटिल संधियों से भले न जुड़ता हो मगर इसका पैमाना और इस पर व्यवस्था द्वारा दिखाई गई बेशर्मी, दोनों उतने ही बड़े हैं.

बिहार के दरभंगा में जन्मे और 1995 में ‘सत्य’ की खोज में अपने मध्यवर्गीय परिवार को छोड़ने वाले निगमानंद और उनके आश्रम मातृसदन ने पिछले काफी समय से हरिद्वार के खनन माफिया के खिलाफ एक असाधारण लड़ाई छेड़ी हुई थी. उनका सबसे ज्यादा विरोध हिमालय स्टोन क्रशर नाम की एक स्थानीय क्रशिंग कंपनी को लेकर था. लेकिन इस विरोध को सिर्फ एक स्थानीय और अलग-थलग मुद्दे के रूप में देखना सही नहीं होगा. चावल कितना पक गया है इसका पता जैसे सिर्फ एक दाने को हाथ में लेकर लगाया जा सकता है उसी तरह निगमानंद की कहानी भी एक उदाहरण है कि राजनीतिक मिलीभगत के चलते भ्रष्टाचार किस कदर खुलेआम हो रहा है.

निगमानंद के साथ जो हुआ वह भारतीय जनता पार्टी के दोहरे मापदंडों को भी साफ दिखाता है जो इस बात की पूरी कोशिश करती रही है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में वह सबसे आगे दिखे. भाजपा खुद को हमेशा से हिंदू स्वाभिमान के स्वघोषित संरक्षक के तौर पर भी पेश करती रही है. लेकिन जब गंगा के मुद्दे पर लड़ाई में बाबाओं और खनन माफिया में से एक का साथ देने की बात आई तो पार्टी साफ तौर पर माफिया के साथ खड़ी नजर आई. एक बार नहीं. कई बार. देखा जाए तो भारी विरोध के बावजूद अगर हिमालय स्टोन क्रशर का कुछ नहीं बिगड़ा तो इसकी सबसे बड़ी वजह कंपनी की भाजपा और संघ के नेताओं से नजदीकी ही थी. लेकिन इसकी बात बाद में. सबसे पहले निगमानंद की लड़ाई को समझने की कोशिश करते हैं.

इस लड़ाई को समझने के लिए तहलका ने बहुत से लोगों से बात की, कई स्रोतों से जानकारियां जुटाईं और ये जानकारियां कितनी सही हैं, इसके लिए अनेक जगहों पर जाकर खुद पड़ताल भी की. सूचनाओं, और दस्तावेजों के विस्तृत विश्लेषण से स्वामी निगमानंद की लड़ाई की तस्वीर कुछ यों बनती है. महाकुंभ के दौरान 30 मार्च, 2010 की सुबह जब लाखों तीर्थयात्री हर की पैड़ी पर गंगा में पवित्र डुबकी लगा रहे थे तो उस जगह से महज एक किलोमीटर की दूरी पर वन अधिकारी नदी के किनारे बने एक स्टोन क्रशिंग प्लांट का औचक निरीक्षण कर रहे थे. प्लांट का नाम था एपी एसोसिएट्स स्टोन क्रशर. हरिद्वार में ऐसे 41 और पूरे उत्तराखंड में कुल 124 प्लांट हैं. राज्य में अवैध रेत और बजरी कारोबार के लिए काफी हद तक ये ही जिम्मेदार हैं. इनके द्वारा निर्मित रेत और बजरी की तेजी से फल-फूल रहे निर्माण उद्योग में काफी मांग है और इस तरह ये प्लांट उत्तराखंड के खनन माफिया के लिए करोड़ों की कमाई का साधन बन गए हैं.

छापा मारने वाली टीम को उस दिन प्लांट वाली जगह पर 45,000 टन पत्थर मिला जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं था. प्लांट के मालिक से जब पूछा गया कि यह पत्थर कहां से आया है तो उसके पास न कोई जवाब था और न ही दस्तावेज. उत्तराखंड में नदी किनारे से पत्थरों का चुगान सिर्फ सरकारी निगम कर सकते हैं जो फिर इस पत्थर को निजी क्रशरों को बेचते हैं. लेकिन यह चुगान भी हाथ से होना चाहिए. इसके लिए नदी तट की खुदाई पर कड़ा प्रतिबंध है. चुगान और क्रशिंग में सभी नियम-कायदों का पालन हो रहा है या नहीं यह सुनिश्चित करने के लिए करीब आधा दर्जन सरकारी एजेंसियां हैं. खनन विभाग, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, केंद्रीय पर्यावरण आकलन समिति, वन विभाग सहित कई ऐसे अधिकारी भी हैं जिनका काम अवैध खनन रोकना और नदी के पारिस्थितिक तंत्र की सेहत सुनिश्चित करना है. इसके बावजूद हरिद्वार में हर दिन खनन माफिया द्वारा पत्थरों की लूट होती है. नियम कहते हैं कि चुगान का काम हाथ से हो, नदी का पाट न खोदा जाए. मगर हो ठीक उल्टा हो रहा है. विशाल मशीनें नदी का पाट खोखला कर रही हैं.

उत्तराखंड के पास खनिज संपदा के नाम पर सिर्फ तीन ही चीजें हैं. बालू, बजरी और खड़िया पत्थर.  अवैध खनन से एक तरफ जहां खनन माफिया अपनी झोली भर रहे हैं वहीं दूसरी ओर सरकारी खजाने को चपत भी लग रही है. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. लगातार और बड़े पैमाने पर खनन ने कई और समस्याएं भी पैदा की हैं. इसके चलते भूजल स्तर नीचे चला गया है, नदी का पाट गहरा हो गया है, हजारों एकड़ खेती की जमीन बंजर हो गई है, जंगल का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया है और हवा प्रदूषित हो गई है. एक और अहम बात यह है कि क्रशरों से निकलने वाली धूल से जब किसानों की खेती बेकार हो रही है तो मजबूरी में उन्हें अपनी जमीनें कौड़ियों के भाव क्रशर मालिकों को ही बेचनी पड़ रही हैं.

एपी एसोसिएट्स की बात करते हैं. यह साफ था कि गंगा किनारे से यह पत्थर अवैध रूप से निकाला गया था. कई साल में पहली बार ऐसा हुआ था कि हरिद्वार में किसी स्टोन क्रशर पर छापा पड़ा. यह काम वहां नये-नये तैनात हुए डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर आरडी पाठक ने अंजाम दिया था. पाठक हरिद्वार में सोए पड़े वन विभाग में नयी जान फूंकना चाहते थे.

मगर उनकी टीम निरीक्षण कर ही रही थी कि तभी पाठक को एक फोन आया. फोन करने वाले एक कैबिनेट मंत्री थे जिनके पास पांच अहम विभागों का जिम्मा है. पाठक को अंदाजा था कि उनके छापे की सूचना फैलते ही उनके पास कई फोन आने वाले हैं इसलिए उन्होंने फोन अपने एक सहकर्मी को दे दिया था और उनसे मंत्री को यह बताने के लिए कहा था कि वे जंगल में हैं और अपना फोन पीछे ही भूल गए हैं. लेकिन मंत्री जी इस बात पर अड़े रहे कि उन्हें पाठक से बात करनी है. वे लगातार फोन करते रहे. कुछ घंटे बाद आखिरकार पाठक ने उनका फोन खुद उठाया.

उधर से मंत्री जी की आवाज आई, ‘पाठक साहब, कृपया अपने अधिकारियों को वापस बुला लें. आपको पता है कि क्रशर मेरे आदमियों का है. आपके अधिकारी बिन बात मेरे लोगों को परेशान कर रहे हैं.’ तब तक पाठक की टीम अपना काम पूरा करके रिपोर्ट तैयार कर चुकी थी. बाद में जब क्रशर के मालिक जितेंद्र सिंह से बिना हिसाब-किताब के इस पत्थर के दस्तावेज पेश करने को कहा गया तो कानून के फंदे से बचने की पुरानी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए वे खुद को बीमार बताते हुए अस्पताल में भर्ती हो गए. चार दिन बाद उन्होंने कुछ रसीदों की फोटोकॉपी पेश की जिनके बारे में उनका दावा था कि ये उस पत्थर की खरीद की रसीदें हैं. पाठक ने इन्हें इस आधार पर खारिज कर दिया कि जहां से इस पत्थर को खरीदने का दावा किया गया है वहां इस पत्थर की बिक्री का कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है. भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 26 के तहत पाठक ने क्रशर मालिक पर करीब सवा करोड़ रु की पेनल्टी लगाई – 58 लाख प्राकृतिक संपदा की चोरी के लिए और 57 लाख पर्यावरण को पहुंचाए गए नुकसान के लिए.
लेकिन दो महीने बाद नौ जून को हरिद्वार के जिला मजिस्ट्रेट आर मीनाक्षी सुंदरम ने पाठक के आदेश को निरस्त कर दिया. जिन रसीदों को पाठक ने नकली पाया था उनमें सुंदरम को आश्चर्यजनक रूप से कुछ भी गड़बड़ नहीं लगा. इसके महीने बर बाद आठ जुलाई को पाठक का तबादला हो गया. सुंदरम अभी भी हरिद्वार के डीएम हैं. पाठक की जगह आए नए डीएफओ गोपाल सिंह राणा ने अपना चार्ज संभालने के बाद से खनन माफिया के खिलाफ एक भी छापा नहीं मारा है.

भारतीय वन अधिनियम के अंतर्गत एक जिला मजिस्ट्रेट, जिसकी प्राथमिक जिम्मेदारी राजस्व है, को एक डीएफओ द्वारा पारित किसी आदेश को रद्द करने का अधिकार ही नहीं है. इसके खिलाफ अपील सुनने का अधिकार वन संरक्षक को होता है. लेकिन सुंदरम ने अपील सिर्फ सुनी ही नहीं बल्कि स्टोन क्रशर के पक्ष में एक आदेश भी पारित कर दिया. इस बारे में सुंदरम का तहलका से कहना था, ‘वन विभाग आरक्षित वन भूमि पर ही छापे की कार्रवाई कर सकता है. स्टोन क्रशर की जांच करने का काम राजस्व विभाग, उद्योग विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या खनन इंस्पेक्टर का है. फिर भी जब डीएफओ की रिपोर्ट आई तो हमने इसे नजरअंदाज नहीं किया. हमने एक समिति बनाई जिसमें राजस्व, खनन और उद्योग विभाग के लोग थे. इस समिति ने जो रिपोर्ट दी वह बिल्कुल अलग थी.’ पाठक ने सुंदरम के इस बयान पर प्रतिक्रिया देने से इनकार कर दिया. वे बस यही बोले कि उन्होंने तो बस अपना काम किया था.

निगमानंद के लंबे संघर्ष  ने भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा के विरोध की कलई खोल दी है. यह इस बात को भी दिखाता है कि त्रासदियों के बरक्स हमारी दिलचस्पी सर्कस में है

अगर सुंदरम की बात सही भी हो तो भी बड़ी समस्या यह है कि वे जिन विभागों को अवैध खनन पर निगरानी रखने के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं उनमें से कोई भी इस समस्या से निपटने के लिए गंभीर नहीं दिखता. तहलका ने हरिद्वार में तीन स्टोन क्रशरों का दौरा किया. हमने पाया कि ये सभी प्रदूषण नियंत्रण संबंधी नियमों को धता बताकर चल रहे थे. स्थानीय लोगों का कहना था कि इनसे निकलने वाली धूल से इलाके के लोगों को न सिर्फ टीबी जैसी सांस की बीमारियां हो रही हैं बल्कि उनकी खेती भी चौपट हो रही है. सज्जनपुर-पिल्ली गांव में हमें किशन सिंह मिले. 55 वर्षीय सिंह किसान हैं और उनके पास सात बीघा जमीन है जिस पर वे गेहूं और चावल उगाते हैं. उनका कहना था, ‘हमारे खेतों पर धूल की चादर बिछी रहती है जिससे फसलों को नुकसान हो रहा है. जिनके खेत क्रशर के पास हैं वे तो खेती कर ही नहीं पाते. अगर कभी इंस्पेक्शन होता है तो क्रशर मालिक दिखाने के लिए वाटर स्प्रिंकलर (धूल बैठ जाए इसके लिए छोड़े जाने वाले पानी के फव्वारे) चालू कर देता है लेकिन निरीक्षण खत्म हुआ नहीं कि हालत वही ढाक के तीन पात जैसी हो जाती है.’ उनकी पत्नी भगवती आगे जोड़ती हैं, ‘ये क्रशर गंगा में खुदाई के लिए जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल करते हैं. हमने सुना है कि किसी महात्मा की मौत हुई है इसलिए पिछले कुछ दिनों से काम बंद पड़ा है.’  जगजीतपुर में प्रैक्टिस करने वाले डॉ विजेंद्र सिंह कहते हैं कि उनके गांव में पेड़ों पर अब फल नहीं लगते. वे बताते हैं, ‘यहां चल रहे दो क्रशरों से इतना ज्यादा ध्वनि और वायु प्रदूषण हो रहा है कि बर्दाश्त करना मुश्किल है. गांववालों में दमा, टीबी और पेट की बीमारियां आम हो चली हैं.’

लेकिन इस सबके बावजूद पर्यावरण संबंधी नियमों का पालन सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार संस्था उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इन सभी क्रशरों को अनापत्ति प्रमाण पत्र यानी एनओसी दे रखे हैं.  तहलका ने जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुखिया डॉ अजय गैरोला से उन क्रशरों की सूची मांगी जिन्हें उनके विभाग ने एनओसी दिए हैं या फिर नियमों के उल्लंघन के लिए जुर्माना ठोका है तो हमें कोई जवाब नहीं मिला.

हैरान करने वाले तथ्य यहीं खत्म नहीं होते. यह बात भी आश्चर्य में डालने वाली है कि हरिद्वार और पौड़ी जैसे दो बड़े जिलों के लिए सिर्फ एक ही खनन निरीक्षक है. इस पद पर इन दिनों शैलेंद्र सिंह तैनात हैं. वे बताते हैं कि मदद के लिए उनके पास कोई और स्टाफ नहीं है. एक चपरासी तक नहीं. वे मानते हैं कि पिछले दो वर्षों में उन्होंने एक बार भी किसी क्रशर का निरीक्षण नहीं किया है. वे बताते हैं कि आखिरी बार बीती 11 मई को उन्होंने अवैध खनन से निकाले गए पत्थरों से भरे ट्रकों के एक काफिले को रोकने की कोशिश की थी. इसका नतीजा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन्हें डकैती और आपराधिक हमले के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. रुड़की के एसडीएम और एडिशनल एसपी के मौके पर पहुंचने के बाद ही वे छूट सके. हालांकि खनन माफिया तब भी सहारनपुर के बिहारीगढ़ थाने में सिंह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने में सफल हो गया जहां उनके खिलाफ मामला अब भी लंबित है.

आप जहां भी जाएं आपको व्यवस्था की सड़न साफ दिखेगी. अगर आप लूट में शामिल हैं तो मुनाफा बड़ा है और अगर आप कानून के साथ हैं तो आपके लिए खतरा खड़ा है. हरिद्वार के एसडीएम हरदेव सिंह बताते हैं कि एक नहीं बल्कि तीन बार ऐसा हुआ कि उनकी टीम ने जेसीबी मशीनों से खुदाई कर रहे खनन माफिया पर छापा मारकर उन्हें रंगे हाथ पकड़ा लेकिन उल्टे उनकी टीम पर ही हमला हो गया. सिंह कहते हैं, ‘हमने एफआईआर दर्ज करवाई. एक मामले में एक आरोपित की गिरफ्तारी हुई. मगर उसके बाद कुछ नहीं हुआ.’ छापा मारने वाली इस टीम के एक सदस्य नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि अब उन पर खनन माफिया के साथ समझौता करके केस वापस लेने के लिए दबाव डाला जा रहा है. वे कहते हैं, ‘अगर हम अवैध पत्थर से लदा एक खच्चर भी पकड़ लें तो हमें तुरंत ऊपर से फोन आ जाता है कि उसे छोड़ दिया जाए.’

हिमालय स्टोन क्रशर के हितों की रक्षा के लिए उत्तराखंड सरकार द्वारा किये गये प्रयास और अवैध खनन को लेकर उसके द्वारा दिखाई गई उपेक्षा, दोनों हैरान करते हैं

अपने तबादले से पहले पाठक ने एक रिपोर्ट तैयार की थी. इसमें अवैध खनन में लगी 18 क्रशर कंपनियों की एक सूची थी. अपनी बात साबित करने के लिए उन्होंने रिपोर्ट के साथ क्रशर मालिकों द्वारा गंगा में जेसीबी मशीनों से हो रही खुदाई की तस्वीरें भी लगाई थीं. जब तहलका ने सुंदरम से इस रिपोर्ट के बारे में पूछा तो उनका कहना था, ‘हां, ऐसी एक रिपोर्ट थी तो. इसमें कुछ बातें ठीक थीं. कुछ सही साबित नहीं हुईं.’ लेकिन सुंदरम कोई कार्रवाई गिनाने में असफल रहे.

मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की अगुवाई में चल रही राज्य की भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान उत्तराखंड में अवैध खनन विनाशकारी स्तर तक पहुंच गया है. खनन माफिया गंगा, यमुना, गौला और शारदा जैसी नदियों और पहाड़ पर स्थित खड़िया खदानों से हर साल अवैध रूप से लाखों घन मीटर पत्थर निकालकर अपनी जेबें भर रहे हैं. उनके इस काम को मंत्रियों का भी समर्थन है और वह भी सक्रिय तौर पर. कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता,  यह भावना इतना गहरे समाई हुई है कि कुछ मामलों में तो खदानें और स्टोन क्रशर सत्ताधारी नेताओं के नाम पर ही हैं.

अब दिवाकर भट्ट का ही उदाहरण लें. उनके पास तीन प्रभार हैं–राजस्व, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति और सैनिक कल्याण. उनके पुत्र ललित हरिद्वार के सजनपुर-पीली गांव में लगे स्टोश क्रशर ओम श्री कैलापीर के मालिक हैं. जब तहलका ने भट्ट से उनके क्रशर द्वारा किए जा रहे अवैध खनन के बारे में पूछा तो उन्होंने इस आरोप को खारिज कर दिया. उनका कहना था, ‘मैं इस बात से इनकार नहीं कर रहा कि राज्य में अवैध खनन नहीं हो रहा. मगर लोग उनकी बात क्यों नहीं करते जो हर दिन हजारों टन पत्थर का अवैध खनन कर रहे हैं? मैं कोई गलत काम नहीं करता.’

जगदीश कालाकोटी भी सत्ताधारी पार्टी के नेता हैं. इन दिनों वे भाजपा की प्रदेश कार्यकारिणी के सदस्य हैं. बागेश्वर के छातीखेत गांव में करीब तीन एकड़ में उनकी खड़िया खदान है. खनन के लिए उन्हें लाइसेंस 2002 में तब मिला था जब भाजपा राज्य की सत्ता में थी. कालाकोटी ने तहलका को बताया कि उनकी खदान से राज्य को हर साल 25 से 30 लाख रु का राजस्व प्राप्त होता है जबकि इससे उन्हें करीब एक करोड़ रु की आय होती है.

राज्य के चिकित्सा शिक्षा मंत्री बलवंत सिंह भौर्याल भी बागेश्वर स्थित एक खड़िया खदान के मालिक हैं. उनकी कंपनी का नाम है वैष्णवी सोपस्टोन प्राइवेट लिमिटेड. इसी जिले के भाजपा नेताओं ठाकुर सिंह गडिया और विक्रम सिंह शाही के पास भी खड़िया खदानें हैं. बागेश्वर में कुल मिलाकर 45 और पिथौरागढ़ में कुल 15 खदानें हैं.

सामाजिक संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के राज्य उपाध्यक्ष नंदावल्लभ भट्ट का आरोप है कि पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों में लापरवाह और अवैध तरीके से हो रहे खनन ने यहां के कई गांवों को वीरान कर दिया है. ज्यादातर मामलों में जमीन स्थानीय किसानों की है मगर भाजपा नेताओं द्वारा वास्तविक भूस्वामी से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने के बाद उस पर खनन के लिए लाइसेंस ले लिया गया है. कालाकोटी कहते हैं, ‘यह एक गलत धारणा है कि खड़िया के खनन से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है. इससे लाइसेंस धारक को ही नहीं बल्कि सरकार और जमीन के मालिक यानी किसान को भी फायदा होता है.’ इनकार या बेपरवाही का यह रवैया उत्तराखंड में हर जगह दिखता है. नियम कहते हैं कि सात या आठ फुट की गहराई तक ही खनन हो सकता है मगर खनन करने वाले 65 से लेकर 80 फुट तक खोदे जा रहे हैं.

दिनेश कुमार जिला खनन अधिकारी हैं. उनके पास बागेश्वर, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिलों का प्रभार है. वे भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि खनन लाइसेंसधारक तय सीमा से बहुत ज्यादा गहराई तक खनन कर रहे हैं. कुमार यह भी बताते हैं कि खनन के बाद गड्ढों को भरने और वहां पेड़ लगाने का नियम है मगर शायद ही कोई इस नियम का पालन करता हो. हालांकि इसके बावजूद वे खुद मानते हैं कि पिछले दो साल के दौरान न तो उन्होंने एक भी  नोटिस जारी किया है और न ही किसी पर जुर्माना लगाया है. एक और  मंत्री जिन पर अक्सर खनन माफिया को शह देने का आरोप लगता रहा है, वे हैं मदन कौशिक. वर्तमान में उनके पास पांच अहम विभाग हैं. शहरी विकास, आबकारी, पर्यटन, गन्ना विकास एवं गन्ना उद्योग. कौशिक हरिद्वार से विधायक हैं. 1998 में भाजपा में आने से पहले वे बजरंग दल की हरिद्वार इकाई के जिला समन्वयक हुआ करते थे. भाजपा के अंदरूनी लोग बताते हैं कि उन पर सुषमा स्वराज जैसी बड़ी पार्टी नेता का वरदहस्त है जिन्हें वे अपना राजनीतिक मार्गदर्शक भी मानते हैं.
जिस हिमालय स्टोन क्रशर के विरोध में निगमानंद ने जान दे दी उसके बारे में बताया जाता है कि उसे कौशिक का संरक्षण प्राप्त है. इस बारे में बात करने पर कौशिक कहते हैं, ‘मैं हरिद्वार से चुना गया हूं और कई स्थानीय लोगों के साथ मेरी मित्रता है. इसमें हिमालय के मालिक भी शामिल हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं किसी को संरक्षण दे रहा हूं. मेरा एक भी पैसा न तो हिमालय में लगा हुआ है और न ही उस इलाके में चल रहे किसी दूसरे क्रशर में.

अपने आदेश में अदालत ने साफ-साफ कहा है कि क्रशर मालिकों ने न सिर्फ आसपास के समाज बल्कि बड़े परिदृश्य में देखा जाए तो पूरी मानवता का नुकसान किया

हालांकि हिमालय स्टोन क्रशर के मालिक की ऐसी कई मित्रताएं लंबे समय से चर्चित रही हैं. यह क्रशर आबादी के काफी नजदीक स्थित था. इस पर लंबे समय से कानून का उल्लंघन करने के आरोप लगते रहे थे. फिर भी यह 14 साल से निर्बाध चलता रहा और  तभी बंद हुआ जब इस साल 26 मई को अपने आदेश में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने ऐसा करने का आदेश दिया. निगमानंद को कोमा में गए तब तक 25 दिन हो चुके थे. इसके 16 दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गई. मुख्य न्यायाधीश बारिन घोष की अध्यक्षता में बने उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने इस मामले में अपना जो आदेश दिया उसमें अदालत की नाराजगी तो दिखती ही है, पूरी कहानी भी साफ हो जाती है. आदेश कहता है, ‘आसपास के गांवों के प्रतिनिधियों और कई सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रतिरोध के बावजूद क्रशर मालिक संबंधित अधिकारियों से अपने लाइसेंस का समय-समय पर नवीनीकरण करवाने में सफल रहे. सबसे मुख्य प्रतिरोधों में से एक मातृ सदन आश्रम के संतों द्वारा किया गया था जो क्रशर से ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन अपने ऊंचे संपर्कों के चलते क्रशर मालिकों का जो प्रभाव था, उसके आगे उनकी आवाज का कोई असर नहीं हुआ.’ अदालत ने साफ-साफ कहा है कि पत्थरों के चुगान की आड़ में क्रशर मालिकों ने राष्ट्रीय नदी गंगा के तल और इसके किनारे की खुदाई शुरू कर दी जिससे न सिर्फ आसपास के समाज बल्कि बड़े परिदृश्य में देखा जाए तो पूरी मानवता का नुकसान हुआ. यह एक महत्वपूर्ण फैसला था. दुर्भाग्य से  निगमानंद  इसे सुन पाने की अवस्था में नहीं थे. भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वामी निगमानंद और बाबा रामदेव की लड़ाई के फर्क को इन दोनों संन्यासियों के आश्रम पर एक नजर डालकर भी समझा जा सकता है.

अगर आप हरिद्वार जाएं तो एक सर्पीली सड़क आपको रामदेव के विशाल आश्रम पतंजलि योगपीठ फेज-1 तक ले जाएगी. आश्रम तक पहुंचने से पहले आपको जगह-जगह पर रामदेव और उनके सहयोगी बालकृष्ण की मुस्कुराती तस्वीरों वाले विशाल होर्डिंग भी दिखेंगे. पतंजलि योगपीठ फेज-1 के अलावा रामदेव के दो और आश्रम हैं. 30 एकड़ में फैला पंतजील योगपीठ फेज-2 और योगग्राम. हरिद्वार के औरंगाबाद गांव में करीब 125 एकड़ में फैला योगग्राम एक प्राकृतिक और आयुर्वेदिक चिकित्सा केंद्र है जो किसी भी प्राइवेट अस्पताल जितना ही महंगा है.

रामदेव जिस तरह से और जितने बड़े स्तर पर काम कर रहे हैं उसे देखते हुए उनकी इन जगहों को आश्रम नहीं बल्कि कारोबारी साम्राज्य कहा जाना चाहिए. पंतजलि योग पीठ फेज-1 में एक आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज, एक आयुर्वेद विश्वविद्यालय, वातानुकूलित प्रशासनिक एवं आवासीय ब्लॉक हैं. इसमें अलग से एक और ब्लॉक भी है जिसमें रामदेव खुद रहते हैं. इसके अलावा तीन ऑडिटोरियम भी हैं जिनमें से एक तो एशिया में सबसे बड़ा है. भारत स्वाभिमान ट्रस्ट का कार्यालय भी यहीं है जिसे रामदेव ने अपने कथित काले धन विरोधी अभियान के लिए बनाया था. इसमें संत रविदास लंगर और महर्षि वाल्मीकि धर्मशाला भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां तीन दिन तक ठहरने और खाने के लिए कोई पैसा नहीं लिया जाता. हालांकि रामदेव के इस दावे की सत्यता की कभी कोई पुष्टि नहीं हुई है. जमीन और वित्तीय सौदों की तरह रामदेव के धर्मार्थ कार्य भी एक रहस्य ही हैं.

हरिद्वार में ही एक और सड़क है जो जगजीतपुर गांव की तरफ जाती है. संकरी और गड्ढों से भरी इस टूटी-फूटी सड़क पर चलकर आप मातृसदन पहुंचते हैं. गंगा किनारे बसे इस आश्रम की स्थापना 1997 में 64 वर्षीय स्वामी शिवानंद ने की थी. इसका मकसद वैदिक परंपराओं को प्रोत्साहन देना और प्रकृति और विशेषकर गंगा के संरक्षण के प्रयास करना था. शिवानंद ने आश्रम के लिए 10 लाख रु. में चार एकड़ जमीन खरीदी थी. तब उनके साथ उनके सात शिष्य थे. उन्हीं में से एक थे निगमानंद जिनकी उम्र तब 24 साल थी.

हरिद्वार के एसडीएम हरदेव सिंह बताते हैं कि एक नहीं बल्कि तीन बार ऐसा हुआ कि उनकी टीम ने जेसीबी मशीनों से खुदाई कर रहे खनन माफिया पर छापा मारकर उन्हें रंगे हाथ पकड़ा लेकिन उल्टे उनकी टीम पर ही हमला हो गया

आश्रम में कोई भी प्रवेश कर सकता है. पतंजलि योगपीठ की तरह यहां कोई विशाल चहारदीवारी नहीं है जिसके भीतर घुसने के लिए 10 रु प्रति वाहन शुल्क लिया जाता हो. मातृसदन में प्रवेश निशुल्क है. वैसे भी इस आश्रम के भीतर कुछ खास है भी नहीं. बस चंद खस्ताहाल कमरे, एक गौशाला और एक यज्ञशाला है. अगर कोई आगंतुक भोजनावकाश के समय मौजूद हो तो स्वामी और उनके शिष्यों का आग्रह रहता है कि वह रुके और खाना खाकर जाए. इसके लिए किसी को पैसा नहीं देना पड़ता. रामदेव का रेस्टोरेंट हरिद्वार में सबसे महंगा है.  आश्रमों की तरह इन आश्रमों के निवासियों द्वारा चलाए गए भ्रष्टाचार विरोधी अभियान भी अलग थे. रामदेव ने बड़ी रकम खर्च करके दिल्ली के रामलीला मैदान में विशाल एवं भव्य पंडाल लगवाए. उनके दावे भी उतने ही विशाल थे. उधर, निगमानंद का विरोध कहीं ज्यादा व्यावहारिक और जमीन से जुड़ा था.

19 फरवरी की ठिठुरन भरी सुबह निगमानंद आश्रम परिसर में बने एक आम के पेड़ के नीचे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठ गए. वह उच्च-न्यायालय के उस स्थगनादेश का विरोध कर रहे थे जिससे हिमालय स्टोन क्रशर को अपनी गतिविधियां जारी रखने की इजाजत मिल गई थी. मातृसदन का आरोप था कि स्टोन क्रशर कुंभ मेला क्षेत्र में चल रहा है जो राज्य सरकार के ही नियमों के मुताबिक पत्थरों के उत्खनन या क्रशिंग जैसी गतिविधियों से मुक्त होना चाहिए. बालू और पत्थर के अवैध खनन के खिलाफ पिछले 14 वर्षों के दौरान मातृसदन का यह 30वां सत्याग्रह था. निगमानंद इससे पहले ऐसे पांच अनशनों में हिस्सा ले चुके थे जिसमें एक बार तो उनकी भूख हड़ताल की अवधि कुछ महीनों तक खिंच गई थी.

मातृसदन के अलावा किसी भी संगठन या राजनीतिक दल ने गंगा किनारे व्यापक स्तर पर चल रहे इस अवैध खनन का विरोध नहीं किया था. इन विरोध अभियानों के लिए पिछले 10 वर्षों के दौरान राज्य सरकार ने शिवानंद और उनके शिष्यों को
तीन बार जेल भेजा. तीनों बार सत्ता में भाजपा की सरकार थी. मातृसदन ने तीन मार्च 1998 को कुंभ मेले के दौरान अपना पहला आंदोलन शुरू किया. पूरे मेला क्षेत्र में पत्थरों और बालू के खनन पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए निगमानंद एक और स्वामी गोकुलानंद के साथ आमरण अनशन पर बैठे. उस समय पूरे मेला क्षेत्र में पांच घाट ऐसे थे, जो इससे प्रभावित थे. मेला अधिकारी द्वारा मांगों को मानने का लिखित आश्वासन दिए जाने पर एक हफ्ते बाद अनशन समाप्त हुआ. खनन और क्रशिंग रोक दी गई. लेकिन मेला खत्म होते ही ये फिर शुरू हो गए और इसी के साथ मातृसदन का आंदोलन भी शुरू हो गया.

निगमानंद और स्वामी गुणानंद सरस्वती ने 27 मई, 1998 को फिर से अनशन शुरू कर दिया. अनशन के 12वें दिन प्रशासन ने लिखित आश्वासन दिया कि मेला क्षेत्र में खनन और क्रशिंग का काम पूरी तरह बंद होगा. चांदी घाट, धोबी घाट और जगजीतपुर घाट पर प्रशासन ने अपना वादा निभाया भी. लेकिन बाकी दो घाटों मिस्सरपुर और अजीतपुर पर गैरकानूनी खनन का काम जारी रहा. सरकार परस्पर विरोधी और विचित्र किस्म के नोटिफिकेशन जारी करती रही, जिसमें इन घाटों को मेला क्षेत्र से बाहर बताया जा रहा था ताकि यहां गैरकानूनी खनन जारी रह सके. इसका सबसे बड़ा फायदा हिमालय स्टोन क्रशर को हुआ.  हिमालय स्टोन क्रशर के हितों की रक्षा के लिए सरकार द्वारा किये गये प्रयास हैरान करते हैं. इस क्रशर के मालिक ज्ञानेश अग्रवाल हरिद्वार के निवासी हैं और कहा जाता है कि उन्हें भाजपा मंत्री मदन कौशिक का संरक्षण प्राप्त है. अग्रवाल का परिवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से काफी करीब से जुड़ा हुआ है. 2006 में जब तत्कालीन सर संघ चालक केएस सुदर्शन हरिद्वार आये थे तो वे शहर के बीचोंबीच मौजूद अग्रवाल की भव्य कोठी में ही रुके थे. अग्रवाल के पिता हजारी लाल अग्रवाल संघ और विश्व हिंदू परिषद से घनिष्ठ रूप से संबद्घ भारत विकास परिषद के सदस्य हैं. ज्ञानेश और उनके भाई हरिद्वार में संघ और विहिप के कार्यक्रमों में अक्सर ही मुख्य अतिथि के रूप में बुलाए जाते हैं. अग्रवाल मानते हैं कि सिर्फ सुदर्शन ही नहीं वर्तमान सर संघ चालक मोहन भागवत भी कई बार उनके घर में रुक चुके हैं. वे कहते हैं ‘लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम संघ के सदस्य हैं. कारोबारी होने के नाते मैं सभी तरह के संगठनों से करीबी रिश्ता रखता हूं.’

ज्यादातर मामलों में जमीन स्थानीय किसानों की है मगर भाजपा नेताओं द्वारा वास्तविक भूस्वामी से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने के बाद उस पर खनन के लिए लाइसेंस ले लिया गया है

अग्रवाल ने 1998 में अजीतपुर गांव में बहुत बड़ा क्रशिंग प्लांट लगाया, जो मेला क्षेत्र में आता है. मातृ सदन लगातार इसके खिलाफ आंदोलन कर रहा था. 19 जून को जब तहलका की टीम अजीतपुर पहुंची तो गांव वालों ने बताया कि प्लांट नदी के दोनों किनारों से खुले आम पत्थरों की खुदाई किया करता था.  20 जनवरी 2008 को मातृसदन ने अपना सत्याग्रह फिर शुरू कर दिया. सरकार ने कई नोटिफिकेशनों के जरिये अजीतपुर को चिह्नित मेला क्षेत्र से बाहर रख दिया था. स्वामी शिवानंद ने 1998 के कुंभ मेले के दौरान सरकार द्वारा तैयार किया गया नक्शा दिखाया जिसमें मेला क्षेत्र अजीतपुर तक फैला हुआ है.

निगमानंद के 73 दिनों के अनशन के बाद आखिरकार भाजपा सरकार झुकी और उसने कुंभ मेला क्षेत्र के मामले को सुलझाने के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति गठित की जिसने सुझाव दिया कि अजीतपुर को मेला क्षेत्र में शामिल किया जाए. लेकिन सरकार ने अपनी ही कमेटी की सिफारिशें नहीं मानीं. तंग आकर छह फरवरी, 2009 को मातृसदन ने फिर आंदोलन शुरू कर दिया. इस बार ब्रह्मचारी दयानंद नाम के एक दूसरे संत अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे. सात मार्च को सरकार को झुकना पड़ा और गढ़वाल के कमिश्नर ने मिसरपुर और अजीतपुर घाटों से भी पत्थरों की निकासी अस्थाई तौर पर बंद कराने कि घोषणा की. लेकिन हिमालय स्टोन क्रशर पर कोई रोक नहीं लगी. कुछ हफ्तों बाद ही इन दोनों घाटों से भी पत्थर का खनन फिर शुरू हो गया.

15 अक्टूबर, 2009 से 25 मार्च 2010 तक मातृ सदन के चार और संत अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे. 173 दिन तक आंदोलन चला. इस बीच 29 दिसंबर  2009 को उत्तराखंड सरकार ने 2010 के कुंभ मेले के लिए मेला क्षेत्र चिह्नित करने के लिए एक नया नोटिफिकेशन जारी किया. लेकिन एक बार फिर मेला क्षेत्र इस तरह से निर्धारित किया गया कि हिमालय स्टोन क्रशर वाला इलाका इसके बाहर रहे.  आंदोलन के दौरान ही केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने आश्रम का दौरा किया था. उन्होंने गंगा के किनारों पर गैरकानूनी खनन के मातृ सदन के दावों की तहकीकात के लिए एक टीम भी भेजी थी. टीम ने गंगा के किनारों पर भयानक अवैध खनन देखा और मातृसदन के दावों की पुष्टि करते हुए रिपोर्ट भेजी.

जनवरी, 2010 में रमेश ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को चिट्ठी तक लिखी जिसमें उन्होंने अनुरोध किया था कि मिस्सरपुर और अजीतपुर सहित पूरे उत्तराखंड में हो रहे अवैध खनन को रोकने के लिए संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिए जाएं. अंततः सरकार ने मिसरपुर और अतीजपुर घाट से खनन पर रोक लगा दी लेकिन हिमालय स्टोन क्रशर को चलने दिया गया. मातृसदन ने विरोध जारी रखा. 20 जनवरी से शिवानंद खुद भूख हड़ताल पर बैठ गए. पांच फरवरी को सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी किया जिसमें कुंभ मेला क्षेत्र में हिमालय स्टोन क्रशर के क्षेत्र को भी दिखाया गया था. पिछले 12 साल में ऐसा पहली बार हुआ था. छह फरवरी को शिवानंद ने अपना अनशन समाप्त किया. लेकिन उन्हें पता नहीं था कि सरकार ने नोटिफिकेशन तो जारी कर दिया है, लेकिन उसे लागू करने के लिए जरूरी प्रावधान नहीं बनाए हैं. क्रशर के मालिक ने हाईकोर्ट से सरकार के आदेश पर स्टे ऑर्डर ले लिया. अप्रैल में कोर्ट ने आदेश को रद्द कर दिया और हिमालय स्टोन क्रशर के पक्ष में यह कहते हुए फैसला सुना दिया कि स्टोन-क्रशिंग की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए नियम नहीं बनाए गये हैं. आश्चर्यजनक रूप से सरकार ने अदालत में अपना पक्ष नहीं रखा. उसने शपथपत्र तक नहीं दायर किया.  18 नवंबर 2010 को शिवानंद ने अपना अनशन फिर शुरू कर दिया और मांग की
कि सरकार इस सिलसिले में स्पष्ट नियम बनाये और आदेश दे.

10 दिसंबर को सरकार ने एक एकदम स्पष्ट नोटिफिकेशन जारी किया. इसने जरूरी नियम भी बनाये. शिवानंद ने 11 दिसंबर को अपना अनशन समाप्त कर दिया. 14 दिसंबर 2010 को पहली बार हिमालय स्टोन क्रशर की गतिविधियां थम गईं. लेकिन बहुत कम वक्त के लिए. उसी दिन इसने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की. अदालत ने सरकार को जवाब देने के लिए छह हफ्तों का समय दिया. तब तक के लिए सरकार के आदेश पर रोक लगा दी गई.

इस अन्याय के खिलाफ स्वामी शिवानंद ने सरकारी आदेश पर आए स्टे ऑर्डर के खिलाफ विशेष याचिका दायर की. साथ ही एक दूसरे संत स्वामी यजनानंद हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठ गये. उन्होंने 19 फरवरी 2011 तक भूख हड़ताल की.  इसके बाद निगमानंद ने उनकी जगह ली. 68 दिनों की जबर्दस्त भूख हड़ताल के बाद 27 अप्रैल से उनकी तबीयत बिगड़ने लगी. आश्रम ने मुख्य सचिव को एसएमएस भेजा. जिला प्रशासन ने आश्रम पहुंचकर निगमानंद को हरिद्वार जिला अस्पताल पहुंचा दिया. उस दिन तक न कोई सरकारी अधिकारी और न ही कोई मंत्री निगमानंद को देखने गया और न ही किसी ने उनकी भूख हड़ताल समाप्त करवाने की कोशिश की. हालांकि सुंदरम कहते हैं, ‘हम वहां 27 अप्रैल के पहले भी एक-दो बार गये थे. लेकिन हमने गलती यह की कि वहां एंट्री नहीं की. इसलिए इसका कोई प्रमाण नहीं है.’

अस्पताल में निगमानंद को जबरन नाक में नली डालकर सूप और दूध दिया गया. 30 अप्रैल तक वे कुछ ठीक होने लगे थे. शिवानंद बताते हैं,  ‘वे होश में थे और हमसे बातचीत कर रहे थे. उन्होंने बताया कि वे बेहतर महसूस कर रहे हैं. हममें से जब कोई भूख हड़ताल पर बैठता है तो हम दृढ़ रहने की शपथ लेते हैं, मृत्यु की नहीं.’शिवानंद का दावा है कि 30 अप्रैल को एक नर्स वार्ड में आयी और निगमानंद को इंजेक्शन लगाने के बाद सिरिंज अपने साथ ले गई. उसी रात से उनकी हालत फिर बिगड़ने लगी. दो मई को वे कोमा में चले गये. उन्हें कई अस्पतालों में रखने के बाद अंततः हिमालयन सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल ले जाया गया. दो मई से 13 जून तक (जिस दिन निगमानंद की मृत्यु हुई) कोई मंत्री या नौकरशाह निगमानंद को देखने नहीं गया.

इससे तीन दिन पहले 10 जून को रामदेव को उसी अस्पताल के उसी वार्ड में भर्ती कराया गया था. रामदेव के लिए तुरंत ही आईसीयू को वीआईपी रूम में तब्दील कर दिया गया. मुख्यमंत्री निशंक उन्हें देखने के लिए अगले ही दिन पहुंच गये. अस्पताल से निकलते समय उन्होंने मीडिया को बताया, ‘रामदेव का जीवन देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. मैं भगवान से उनके जल्दी स्वस्थ होने की प्रार्थना कर रहा हूं. उनका जीवन बचाने के लिए राज्य सरकार जो भी कर सकती है, करेगी.’ 12 जून को मुख्यमंत्री रामदेव को दोबारा देखने पहुंचे. उसी दिन दोपहर के बाद रामदेव ने मीडिया के सामने पूरे तामझाम के साथ अपना अनशन समाप्त किया. उनके अगल-बगल श्री श्री रविशंकर, मोरारी बापू और रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण मौजूद थे. जैसे ही रामदेव ने एक गिलास जूस पिया टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज आयी ‘बाबा रामदेव का अनशन समाप्त’ वहीं पास में निगमानंद अंतिम सांसें ले रहे थे.

2007 में उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक तीखे व्यंग्यात्मक गीत ने एनडी तिवारी की सरकार के जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. भाजपा ने बड़े चाव से तिवारी की यौन उच्छृंखलता के बारे में नेगी के इस गीत का इस्तेमाल किया था. अब भाजपा की बारी है. नेगी ने मुख्यमंत्री निशंक की तरफ इशारा करते हुए एक गीत लिखा है जिसका शीर्षक है, ‘अब कथग्या खैल्यो तू ‘ (अब और कितना खाओगे?) इस गीत में उन सभी कथित स्कैंडलों और घोटालों की सूची है जिनके साथ मुख्यमंत्री का नाम जुड़ा रहा है.

निगमानंद और मातृसदन के भ्रष्टा­­­चार के खिलाफ लंबे संघर्ष  ने भ्रष्टाचार के  खिलाफ भाजपा के विरोध की कलई खोल दी है. यह इस बात का भी सबूत है कि पीपली लाइव की तरह हमारी रुचि त्रासदियों के बरक्स सर्कस में है. इन संतों ने आंखों के आगे फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ पिछले 14 सालों में जो लंबा संघर्ष चलाया है उसकी सुध राष्ट्रीय मीडिया तो छोड़िए स्थानीय मीडिया ने भी नहीं ली.

एक ऐसे देश में जहां लोगों की बड़ी जमात स्वेच्छा से आध्यात्मिक धूर्तों और दिखावेबाज बाबाओं के आगे झुकने को तैयार रहती है, यह हैरत नहीं कि  किसी ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ इन वास्तविक संतों के 14 साल लंबे अहिंसक संघर्ष की ओर ध्यान ही नहीं दिया. इस पूरी कहानी में उम्मीद की शायद एक ही किरण है कि काले धन के खिलाफ भावनाओं के मामले में बड़े और जमीनी तथ्यों के मामले में कमजोर अभियान में जहां अब भी कई अस्पष्टताएं हैं वहीं मातृसदन के संतों के संघर्ष ने एक असल जीत हासिल की है. 26 मई को जब निगमानंद कोमा में थे, उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बारिन घोष और उनके सहयोगी न्यायमूर्ति सर्वेश कुमार गुप्ता ने हिमालय स्टोन क्रशर को बंद करने का आदेश दिया. अदालत ने जो कुछ भी कहा उससे मातृसदन द्वारा एक दशक से भी ज्यादा समय पहले लगाए गए सारे आरोप सही साबित होते हैं.  आदेश में कहा गया है, ‘हिमालय स्टोन क्रशर और अन्य के द्वारा गंगा में लगातार खनन के चलते नदी गहरी हो गई है. इससे आसपास के हजारों एकड़ के क्षेत्र में भूजल का स्तर बहुत नीचे चला गया है. यहां तक कि इलाके के हैंडपंप भी पानी के बिना सूख गए हैं. क्रशर से निकलने वाली धूल के चलते इलाके के गांवों में कृषि उत्पादन लगभग खत्म हो गया है. यही हालत आस-पास के बगीचों की है. खासतौर पर आम के बगीचों की जिसके चलते उनके मालिकों को अपनी जमीन क्रशर मालिकों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. अवैध खनन के चलते गंगा की लंबी पट्टी में भूमि का क्षरण भी हो रहा है.

आदेश यह भी कहता है, ‘हिमालय स्टोन क्रशर, 2001 से खनन संबंधी नियमों का उल्लंघन करते हुए चल रहा था जिसमें प्रावधान है कि क्रशर रिहायशी इलाकों से कम से कम पांच किलोमीटर दूर होना चाहिए. क्रशर से निकले हुए धूल के कण स्थानीय ग्रामीणों में टीबी, अस्थमा और सांस की दूसरी बीमारियां पैदा कर रहे हैं.’ अदालत का यह भी कहना था कि कृषि के लिहाज से हरे-भरे क्षेत्र और पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील इलाके में स्थित इस क्रशर को हरिद्वार विकास प्राधिकरण ने कभी अनापत्ति प्रमाणपत्र नहीं दिया.

निगमानंद अब इस दुनिया में नहीं हैं. लेकिन हिमालय स्टोन क्रशर भी बंद हो चुका है.

पर इसके लिए क्या निगमानंद की जान जाना जरूरी था?

(महिपाल कुंवर के योगदान के साथ) 

एक साध्वी की राजनीतिक परिक्रमा

उमा का पूरा जीवन मानवीय संसार के विभिन्न रंगों से सराबोर है. आठ साल की उम्र में भाजपा से जुड़ने वाली उमा धर्म और राजनीति के घालमेल तथा धर्म की ताकत और उसकी सीमाओं का सबसे सटीक उदाहरण हैं. टीकमगढ़ के एक लोध परिवार में जन्मी उमा रागिनी भारती ने जब बहुत छोटी उम्र में ही धार्मिक प्रवचन देने की शुरुआत की तो अपेक्षाकृत स्त्री विरोधी समझा जाने वाला बुंदेलखंडी समाज नतमस्तक हो गया. जिस उम्र में बच्चे पढ़ने-लिखने की शुरुआत करते हैं, उस समय वह रामायण और गीता सहित दूसरे धर्मग्रंथों को कंठस्थ करके जनता को उसका मर्म समझा रही थी. उस बच्ची की चहुंओर इतनी ख्याति हुई कि वह जहां भी जाती उसे देखने और सुनने के लिए लाखों की संख्या में भीड़ आया करती थी. उसी समय उस बच्ची पर ग्वालियर घराने की राजमाता विजयराजे सिंधिया की नजर पड़ी. यहीं पर धर्मसत्ता का राजनीति और राजसत्ता से मेल हुआ. वह विलक्षण बच्ची अब अपने राजनीतिक गुरु के संरक्षण में थी. समय का पहिया घूमता गया और प्रवचन देने वाली लड़की धीरे-धीरे राजनीतिक भाषण देने लगी. 25 साल की उम्र में मध्य प्रदेश की खजुराहो लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर उमा ने पहली बार औपचारिक रूप से चुनावी राजनीति में कदम रखा. चूंकि वह समय इंदिरा गांधी की हत्या के बाद का था इसलिए कांग्रेस के प्रति उपजी सहानुभूति की लहर में उमा की नयी नवेली राजनीतिक कश्ती डूब गई. बाद में उसी सीट से खजुराहो की जनता ने उन्हें लगातार चार बार संसद भेजा. इसके बाद उमा ने राजधानी भोपाल का रुख किया. यहां से चुनाव लड़ा और जीतीं.

धर्म और राजनीति के घालमेल का व्यक्ति के तौर अगर पर सबसे सटीक उदाहरण उमा हैं तो पार्टी के तौर पर भाजपा

धर्म और राजनीति के घालमेल का व्यक्ति के तौर पर अगर पर सबसे सटीक उदाहरण उमा हैं तो पार्टी के तौर पर भाजपा. चूंकि 90 के दशक में पार्टी का एकमात्र एजेंडा राम और अयोध्या था, इसलिए वहां उमा का एक बड़ा रोल तो तय होना ही था. आडवाणी और बाकी दूसरे नेताओं की उम्मीदों पर 5 साल की उम्र से ही राम नाम जपने वाली उमा बिलकुल खरी उतरीं. गेरुए वस्त्रों वाली उमा ने जब दूसरे नेताओं के साथ मिलकर अयोध्या में ‘एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो’ का नारा दिया तो उन्मादी भीड़ ने उसका अक्षरश: पालन किया. एक तरफ मस्जिद का ढांचा टूट कर जमीन पर आ रहा था दूसरी तरफ उमा और भाजपा का राजनीतिक कद ऊपर जा रहा था. उमा के जीवन का यह टर्निंग प्वाइंट था. अब उमा केवल उमा नहीं थीं बल्कि अयोध्या आंदोलन फिल्म की प्रमुख पात्र भी थीं. जाहिर था जहां-जहां भी इस फिल्म के पोस्टर लगे उसमें आडवाणी के संग उमा भी थीं. फिल्म हिट हो गई. फिल्म के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर अब उन्हें और बड़ा रोल देना चाहते थे. इधर उमा को भी एहसास हो गया था कि वह कोई छोटी-मोटी अदाकारा नहीं है. आत्मविश्वास में अति जुड़ने की शुरुआत हो चुकी थी. इसके बाद बनने वाली एनडीए सरकारों में उमा ने मानव संसाधन, पर्यटन, युवा एवं खेल तथा कोयला मंत्रालय तक संभाला. अपनी राजनीति की शुरुआत ही उमा ने केंद्र से की.

इधर मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह दस साल से मुख्यमंत्री बने हुए थे. जनता में सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में नकारात्मक विकास के कारण रोष था, जिसकी वजह से उनके खिलाफ एक मजबूत सत्ता विरोधी लहर थी. लेकिन भाजपा में कोई ऐसा नेता नहीं था जो दिग्गी राजा की इस कमी को अपनी ताकत बना सके. मध्य प्रदेश में पार्टी ने दिग्गी को हराने की जिम्मेदारी अपनी उस नेता को दी जिसके पैर कभी दिग्गी भी छुआ करते थे. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एनडी शर्मा कहते हैं, ‘जब उमा भारती को हाईकमान ने राज्य में भेजा तो दबी जुबान में कुछ लोगों ने उसका विरोध किया था. प्रदेश में हमेशा एक वर्ग ऐसा रहा जो उमा का विरोधी रहा. लेकिन चूंकि उमा को दिल्ली से भेजा गया था इसलिए इन नेताओं ने इस निर्णय को स्वीकार कर लिया.’
 मानव संसाधन मंत्रालय में राज्य मंत्री रही उमा ने प्रदेश के मानव संसाधन को ऐसे मैनेज किया कि दिग्गी राजा के पैरों तले जमीन खिसक गई. धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाला राजा एक भगवा महिला के हाथों पराजित हो चुका था. इतनी बड़ी जीत के बाद उमा को मुख्यमंत्री तो बनना ही था. साध्वी का स्वर्णिम युग प्रारंभ हो चुका था, लेकिन उसकी उम्र गर्भ में पलने वाले शिशु जितनी ही थी. सिर्फ नौ महीने में इस युग को अनिश्चितकाल के लिए ग्रहण लगने वाला था. उमा इधर जीत के जश्न में मगन थीं वहीं दूसरी तरफ सतह के नीचे कुछ और भी घट रहा था. इसकी खबर उमा को पहले से थी तो लेकिन उन्होंने इसके प्रभाव को कम करके आंका था. उमा ने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि सन, 96 बीजेपी के जीवन में एक निर्णायक मोड़ था. 13 दिन की सरकार में राजनीतिक मैनेजरों तथा पार्टी के लिए पैसा उगाही करने वाले न सिर्फ मजबूत हुए बल्कि वे पार्टी और वरिष्ठ नेताओं को दिशानिर्देश तक देने लगे थे. मुख्यमंत्री बनने से पूर्व उमा जब केंद्र की राजनीति में थीं तो उन्होंने ऐसे लोगों के खिलाफ मोर्चा भी खोला था. जैसा उमा बताती हैं कि इस संबंध में उन्होंने आडवाणी से भी कहा था, ‘दादा आप ऐसे लोगों की संगत में आज हैं जो आपके स्वभाव के ठीक विपरीत हैं.’ पॉलिटिकल और फ्रंट मैनेजरों को इसकी जानकारी हो गई थी. जाहिर है वे इससे नाराज हुए. लेकिन अयोध्या आंदोलन से निकली उमा को सबक सिखाना तब उनके बूते से बाहर था. कभी कोयला मंत्रालय में राज्य मंत्री रहीं उमा भारती ने मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही प्रदेश में भी काले कारनामे करने वालों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया. इस शिकंजे की गिरफ्त में सिर्फ कांग्रेसी ही नहीं बल्कि भाजपा के भी लोग आए.

मध्य प्रदेश में पक्ष और विपक्ष के बीच अद्भुत जुगलबंदी चल रही थी, लेकिन उमा भारती के मुख्यमंत्री बनने के बाद खेल बिगड़ने लगा

उमा के मुख्यमंत्री बनने के पूर्व तक मध्य प्रदेश की राजनीति में कमाल का मैनेजमेंट था. शर्मा कहते हैं, ‘उमा के आने से पहले दोनों प्रमुख दलों अर्थात कांग्रेस और बीजेपी ने एक ऐसा सिस्टम विकसित कर लिया था जिसके आधार पर दोनों मिलकर प्रदेश को लूटते थे. विपक्ष जैसी कोई चीज नहीं थी. विपक्ष सत्ता पक्ष को छेड़ता नहीं था और न ही उनकी काली करतूतों के खिलाफ उतना बोलता था कि कोई सुन ले. इसके बदले में सत्ता पक्ष विपक्ष को वही सुविधाएं देता था जो उसे खुद हासिल थीं.’ इस अद्भुत समाजवाद में सब मजे से खा-कमा रहे थे. किसी को किसी से भय नहीं था. पक्ष और विपक्ष के बीच इस प्रकार की आपराधिक सहमति की परंपरा 90 के दशक में अर्जुन सिंह के कार्यकाल में शुरू हुई थी. उनके सुंदरलाल पटवा से हमेशा अच्छे संबंध रहे. जब पटवा मुख्यमंत्री बने उस दौरान श्यामा चरण शुक्ल नेता प्रतिपक्ष थे. लेकिन विधानसभा में कांग्रेस के अधिकांश विधायक अर्जुन सिंह कैंप से थे. पटवा की सरकार बाबरी मस्जिद टूटने के बाद भले बर्खास्त हो गई लेकिन जब तक वे मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह ने उन्हें सदन के भीतर कभी कोई असुविधा नहीं होने दी. दिग्विजय सिंह के दूसरे कार्यकाल में बाबूलाल गौर नेता प्रतिपक्ष थे. गौर के न केवल दिग्गी से संबंध अच्छे थे वरन अर्जुन सिंह, कमलनाथ समेत कांग्रेस के अन्य नेताओं से भी उनकी जबर्दस्त पटरी बैठती थी. बाद में जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनके इस व्यवहार के कारण भाजपा के ही नेता कहने लगे थे कि वे भाजपा सरकार के कांग्रेसी मुख्यमंत्री हैं.

पक्ष और विपक्ष के बीच की यह अद्भुत जुगलबंदी ठीक-ठाक चल रही थी कि उमा भारती बीच में आ गईं. उन्होंने भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई करनी शुरु कर दी. सबसे पहले उन्होंने सहकारिता के भ्रष्टाचार पर निशाना साधा, जो लंबे समय से कांग्रेसियों के कब्जे में था. उमा के कार्यकाल में सहकारिता मंत्री थे गोपाल भार्गव. भार्गव ने जांच में तेजी दिखाई और जल्द ही अर्जुन सिंह के एक करीबी नेता को जेल जाने की नौबत आ गई. भार्गव पर कुछ नेताओं ने मामले को ठंडे बस्ते में डालने के लिए दबाव बनाना शुरू किया, लेकिन उमा से इस मामले के लिए ग्रीन सिग्नल पा चुके भार्गव इसके लिए तैयार नहीं थे. तभी 1994 के हुबली दंगा मामले में एक गिरफ्तारी वारंट उमा के खिलाफ जारी होता है. केंद्र से लेकर राज्य तक उमा से खार खाए नेताओं के लिए उमा से निपटने का यह एक बड़ा मौका था.दिल्ली से लेकर भोपाल तक उमा की राजनीतिक हत्या की साजिश रची जाने लगी. उमा को समझाया गया कि वे कुछ समय के लिए अपना पद छोड़ दें और जैसे ही मामले से बरी होंगी उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा. कभी केंद्र में खेल राज्य मंत्री रही उमा भारती अपनी ही पार्टी के नेताओं के खेल नहीं समझ पाईं. उन्होंने इस्तीफा दे दिया. 
अगस्त, 2004 का वह दिन उमा के जीवन का एक टर्निंग प्वाइंट था. इस दिन वे अनिश्चितकाल के लिए सत्ता से बाहर कर दी गई थीं. मामले से बरी होकर जब उन्होंने वापस मुख्यमंत्री पद की मांग की, तो उन्हें मायूसी हाथ लगी. उनके विरोधियों ने अपनी चालें चल दी थीं. उन्होंने पहले बाबूलाल गौर को सीएम बनाया फिर शिवराज को स्थापित कर दिया. भावुक और ज़ज्बाती उमा के लिए यह सब बर्दाश्त कर पाना असंभव हो गया. पीड़ा जब हद से गुजर गई तो उसने व्यवहार को हिंसक और अशोभनीय बना दिया. उमा ने एक-एक कर केंद्र और राज्य के लगभग सभी बड़े नेताओं को गरियाना शुरू कर दिया. गौर जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में गौर पर दुराचारी और व्याभिचारी होने तक का आरोप लगा दिया था.

उमा को यह पता था कि इस षड्यंत्र की रचना दिल्ली में हुई थी. उन्हें सर्वाधिक पीड़ा इस बात की थी कि आखिर अटल और आडवाणी उनके खिलाफ हुए इस षड्यंत्र में कैसे भागीदार बन गए. यही असहनीय पीड़ा उस दिन खुलकर उनकी जुबान पर आ गई जब आडवाणी भाजपा के सभी बड़े नेताओं के साथ बैठक कर रहे थे. इस बैठक में वे आडवाणी से ही उलझ पड़ीं, और नाराज होकर मीटिंग से बाहर निकल गईं. जाते-जाते कह गईं कि आडवाणी जी मेरे इस व्यवहार के लिए आप मेरे खिलाफ कार्रवाई कीजिए. पूरे मीडिया के सामने हुई इस घटना के बाद उमा पार्टी से निलंबित कर दी गईं. मई 2005 में संघ में दबाव में उमा का निलंबन तो वापस ले लिया गया मगर एक बार फिर भोपाल में हुई विधायक दल की मीटिंग में शिवराज के सीएम बनने के प्रस्ताव का विरोध करते हुए वे मीटिंग से बाहर चली गईं. इस बार उनके विरोधी उन्हें पार्टी से निकालने में सफल रहे.

इसके बाद उमा भोपाल से अयोध्या तक राम-रोटी यात्रा पर निकल पड़ीं. शर्मा उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं,  ‘वे जहां जाती थीं हर तरफ लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता था. हर तरफ से बच्चे, बूढे, जवान और महिलाएं उनके चरण छूने और उन्हें देखने के लिए दौड़ पड़ते थे.’  जानकारों के मुताबिक लोगों के इस सैलाब ने ही उमा के अंदर यह भाव भर दिया कि बीजेपी को उनकी शर्तों पर उन्हें वापस लेना पड़ेगा. लेकिन जब लंबे इंतजार के बाद भी ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी बना ली. उमा को पूरा यकीन था कि जो विशाल भीड़ राम-रोटी यात्रा में उनकी एक झलक भर पाने को बेताब है वह उन्हें जरूर वोट देगी. उमा को यह विश्वास था कि या तो वे बीजेपी को नाकों चने चबवा देंगी जिसके कारण या तो वह उन्हें पार्टी में दुबारा स्वीकार कर लेगी या फिर वे प्रदेश में बीजेपी का विकल्प बन कर उभरेंगी. लेकिन यहीं वे चुनावी राजनीति को समझने में भूल कर गईं. दर्शन करने आई जनता ने साध्वी से आशीर्वाद तो लिया लेकिन बदले में अपने वोटों की श्रद्धा उन्हें अर्पित नहीं की. उमा चुनाव दर चुनाव हारती चली गईं. एक वक्त ऐसा भी आया कि यह करिश्माई नेता अपनी सीट तक नहीं जीत पाईं. भाजपा को छोड़कर जो नेता उनके साथ गए थे वे भी बाद में एक-एककर वापस भाजपा में आ गए. इसके बाद भाजपा में वापस आना ही एकमात्र विकल्प उनके सामने बचा रह गया था.

विश्लेषक इस बात पर एकमत हैं कि उमा ने अपनी क्षमता को अधिक आंक लिया था. उमा कभी कहा करती थीं कि वे बीजेपी के पास नहीं जाएंगी बल्कि बीजेपी उनके पास आएगी. अब यह तो वही बता पाएंगी कि इस बार कौन किसके पास गया था. यह जग जाहिर है कि राज्य से लेकर केंद्र तक कोई भी बड़ा नेता उमा की वापसी के पक्ष में नहीं था लेकिन संघ के दबाव और गडकरी की उमा के प्रति श्रद्धा भाव के कारण वे वापस आईं हैं. वरिष्ठ राजनीतिक प्रेक्षक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘उमा के मामले में निर्णय हमेशा या तो संघ ने किया है या फिर हाईकमान ने. उमा के पूरे राजनीतिक करियर में स्टेट लीडरशीप का कोई रोल नहीं रहा. 2003 में भी उमा को मध्य प्रदेश भेजने से पूर्व हाईकमान ने स्थानीय नेताओं से उनकी राय जानने की कोशिश नहीं की. इस बार भी लगभग वही हुआ है.’ इस बार खास बात यह है कि यह निर्णय बीजेपी ने नहीं वरन संघ ने बीजेपी के राज्य से लेकर केंद्र तक के सभी नेताओं को सुनाया और स्वीकार करने पर मजबूर किया है.

क्या उमा को उत्तर प्रदेश की सीमाओं में बांधा जा सकता है?

‘दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों.’ बशीर बद्र के इस शेर को उमा भारती ने पहले जरूर पढ़ा और सुना होगा लेकिन इसमें छिपे मर्म को बहुत अच्छे से महसूस वे आज कर पा रही होंगी. 2005 में पार्टी से निकाले जाने के बाद अटल-आडवाणी से लेकर शायद ही पार्टी का कोई बड़ा नेता ऐसा होगा जिसे उन्होंने जमकर बुरा-भला न कहा हो. छह साल के राजनीतिक वनवास के बाद वे एक बार फिर भाजपा में वापस आ गई हैं. इस दौरान भाजपा के अन्य नेताओं के साथ उनके रिश्ते कितने नीचे चले गए थे इसकी झलक उस कार्यक्रम में बखूबी दिखी जिसमें गडकरी ने उमा की घर वापसी की घोषणा की.

उमा के घर वापसी कार्यक्रम में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को छोड़ कोई बड़ा नेता नहीं था. न तो उमा के गृह राज्य से जहां उन्होंने दिग्गी के दस साल के शासन को तीन चौथाई बहुमत के साथ उखाड़ फेंका था और न ही उस उत्तर प्रदेश से जहां की राजनीतिक जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई है. पार्टी में वापस लेने का उत्साह न तो गडकरी के चेहरे पर दिख रहा था और न ही घर वापसी की खुशी उमा के चेहरे पर. बोझिलता से भरे उस कार्यक्रम में उमा और गडकरी दोनों का चेहरा बता रहा था कि अभी घर वापसी हुई है दिल वापसी नहीं.

‘मध्य प्रदेश में असली खेल 2013 में होगा जब विधानसभा के टिकट बांटने की बारी आएगी. क्या तब इनमें उमा का कोई रोल नहीं होगा?’

पिछले छह साल में भाजपा में काफी बदलाव आ चुका है. इस अवधि में जहां उमा पार्टी की पहली–दूसरी पांत के नेताओं को भला-बुरा कहती रहीं, वहीं भोपाल से लेकर दिल्ली तक उनके राजनीतिक विरोधी और मजबूत होकर स्थापित होते चले गए. जहां शिवराज सिंह चौहान एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य और पार्टी में स्थापित हो चुके हैं वहीं केंद्र में अटल-आडवाणी युग लगभग समाप्ति की कगार पर है. अटल जी कब का संन्यास ले चुके हैं और आडवाणी परिवार के एक ऐसे बुजुर्ग मुखिया के तौर पर बने हुए हैं जिनका सम्मान तो हर कोई करता है लेकिन सुनता कोई नहीं है. पार्टी की कमान अब पूरी तरह से दूसरी पंक्ति के नेताओं के हाथ में है. ये वही नेता हैं जिनसे उमा की कभी पटरी नहीं बैठी. इन्हीं नेताओं ने मिलकर उमा की राजनीतिक हत्या की स्क्रिप्ट भी लिखी थी. अब इस स्थिति में उमा राज्य से लेकर केंद्र तक दिल पर जख्म देने वाले उन नेताओं से कैसे तालमेल बिठाएंगी यह देखने वाली बात होगी. भाजपा के जिन नेताओं की हैसियत उनके आसपास भी नहीं थी वे आज पार्टी में टॉप पोस्ट पर हैं. उदाहरण के लिए, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. जिस समय चौहान ने राजनीति का ककहरा सीखना शुरू किया था उस समय उमा राजनीति के क्षितिज पर छाई हुई थीं.

लोगों में इस बात पर चर्चा है कि जिस स्थिति में उमा की पार्टी में वापसी हुई है उससे क्या उमा के व्यवहार पर प्रभाव पड़ेगा? क्या अब वे पार्टी की ‘अनुशासित’ सिपाही बनकर, पहले का हुआ भूलकर, उनसे जो कहा जाएगा वह करेंगी? क्या अब वे पहले की तरह मुखर और आक्रामक नहीं रहेंगी क्योंकि अपने इन्हीं गुणों या अवगुणों की कीमत उन्हें छह साल का वनवास झेलकर चुकानी पड़ी था. ज्यादातर जानकारों का मानना है कि आज भले ही उमा पर विभिन्न शर्तें थोपकर उनकी घर वापसी हुई है लेकिन वे आने वाले समय में अपने मूल स्वरूप में फिर से दिखाई देंगी. तो क्या उनकी घर वापसी, शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के कुछ राष्ट्रीय नेताओं के लिए खतरे की वह घंटी है जिसे बजने से रोकने के लिए इन नेताओं ने पिछले कुछ समय से आकाश-पाताल एक किया हुआ था. पत्रिका के मध्य प्रदेश ब्यूरो चीफ धनंजय सिंह कहते हैं, ‘भले ही उमा ने वापसी को ध्यान में रखकर पार्टी और संघ की सभी शर्तों को स्वीकार कर लिया है लेकिन वे बहुत दिनों तक इसे निभा नहीं पाएंगी. जो लोग उमा को जानते हैं वे उस बात को भी बेहतर तरीके से जानते हैं कि उन्हें किसी शर्त और सीमा में नहीं बांधा जा सकता.’

उमा और उनका आंगन

मध्य प्रदेश के राजनीतिक गलियारों से लेकर कॉफी हाउस और चाय की दुकानों पर इस समय एक ही चर्चा चल रही है कि उमा की वापसी का प्रदेश की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा. कुछ लोग शिवराज सिंह पर चुटकी लेते हुए कह रहे हैं ‘अब तेरा क्या होगा रे कालिया!’  वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एनडी शर्मा कहते हैं कि भले ही उमा को अभी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई है लेकिन उन्हें मध्य प्रदेश पर प्रभाव डालने से कोई नहीं रोक सकता. देर   सवेर वे प्रदेश की राजनीति और यहां के राजनेताओं को जरूर प्रभावित करेंगी. इसे थोड़ा स्पष्ट करते हुए शर्मा बताते हैं कि प्रदेश भाजपा में बड़ी संख्या में ऐसे विधायक और कार्यकर्ता हैं जो उमा से जुड़ाव रखते हैं. पहले वे उमा से मिल नहीं सकते थे क्योंकि वे पार्टी में नहीं थीं और मामला अनुशासन का बन जाता. लेकिन अब उन्हें रोका नहीं जा सकता. अब वे उमा से किसी भी बहाने से मिल सकते हैं. उमा को उत्तर प्रदेश तक सीमित रखकर मध्य प्रदेश से दूर करने की भाजपाई कोशिश पर शर्मा कहते हैं कि अब पार्टी का कोई नेता या कार्यकर्ता यह कहे कि हम लखनऊ होते हुए बनारस जा रहे हैं, गंगा नहाने तो कोई क्या कर लेगा.

उमा के करीबी रहे प्रदेश भाजपा के एक नेता बताते हैं कि उनकी वापसी का असर जल्द ही पार्टी और सरकार के निर्णयों पर भी दिखने लगेगा. अब पार्टी और सरकार से नाराज किसी भी भाजपा नेता और कार्यकर्ता के पास एक नया ठिकाना है, जहां जाकर वह अपना दुखड़ा रो सकता है. शर्मा कहते हैं कि शिवराज भी अब उस तरह फ्री होकर काम नहीं कर पाएंगे और उमा के समर्थकों को साथ लेकर चलने की कोशिश करेंगे. उनके मुताबिक असली खेल तो 2013 में होगा जब विधानसभा के टिकट बांटने की बारी आएगी. इस असली खेल की बाबत सवाल के जवाब में उल्टे शर्मा ही सवाल करते हैं, ‘क्या आपको लगता है कि इनमें उमा का कोई रोल नहीं होगा?’

‘अब पार्टी और सरकार से नाराज किसी भी भाजपा नेता और कार्यकर्ता के पास एक नया ठिकाना है, जहां जाकर वह अपना दुखड़ा रो सकता है’

अगर मोटा-मोटा समझा जाए तो मान लीजिए टीकमगढ़ के लोग उमा के पास आकर उनसे कोई शिकायत करते हैं या मदद मांगते हैं तो क्या वह उनसे यह कहेंगी कि मैं कुछ नहीं कर सकती क्योंकि मैं अभी यूपी देख रही हूं. राजनीतिक पंडितों के मुताबित यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि उमा के कद का प्रदेश भाजपा में और कोई नेता नहीं है. उनके कद के आगे ये सब बहुत बौने हैं. नदी में बड़ी नाव अगर उतरेगी तो छोटी कश्तियों पर असर पड़ना तय है. शर्मा कहते हैं कि कुछ भी हो जाए लेकिन उमा के मन में प्रदेश के नेताओं के प्रति जो कड़वाहट है वह कम नहीं होगी. हां, यह हो सकता है कि वे उसे कुछ समय के लिए छिपा ले जाएं लेकिन उसे भूल नहीं सकतीं. उसका प्रभाव आगे दिखेगा ही.

वहीं वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘उमा के आने का प्रदेश बीजेपी पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि पिछले छह साल में काफी कुछ बदल चुका है. भारतीय जनशक्ति पार्टी का प्रदेश में जो हश्र हुआ वह बताता है कि उन्होंने अपनी क्षमता को बहुत ज्यादा आंक लिया था…’ लेकिन धनंजय सिंह, गिरिजाशंकर की बात से इत्तेफाक नहीं रखते. ‘उमा की वापसी का प्रदेश की राजनीति पर प्रभाव न पड़े यह असंभव है. भले ही वे लखनऊ में रह कर काम करें लेकिन क्या वे राज्य से बाहर रहकर राज्य की राजनीति को प्रभावित नहीं करेंगी’ धनंजय सिंह कहते हैं, ‘इस समय शिवराज सिंह चौहान एक बड़े क्षत्रप बन चुके हैं. ऐसे में क्या भाजपा में एक वैकल्पिक केंद्र बिंदु तलाश रहे नेता उमा के इर्द-गिर्द इकट्ठे नहीं होंगे…यूपी में जो राजनीतिक कॉकटेल तैयार होगा, मध्य प्रदेश उसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता. प्रदेश की राजधानी में उमा की वापसी के साथ बजे ढोल-नगाड़े इसकी गवाही देते हैं.’

उधर पार्टी उमा के मामले में फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि लोध बहुल जबेरा सीट पर उपचुनाव होने वाला है लेकिन बीजेपी ने उमा को स्टार प्रचारकों की सूची में जगह ही नहीं दी है. मध्य प्रदेश पर उमा के दूरगामी और अवश्यंभावी प्रभाव पड़ने की बात को द टेलीग्राफ के एसोसिएट एडिटर रशीद किदवई कूट-सी भाषा में कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं, ‘उमा ट्रेन से ही प्राय: सफर करती हैं और आप तो जानते हैं कि दिल्ली से भोपाल आने वाली ट्रेन यूपी होकर ही आती है.’ यदि इसे कुछ स्पष्ट करें तो कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में मिलने वाली हर चुनौती से पार पाकर यदि उमा वहां कुछ कमाल करने में सफल हो जाती हैं तो मध्य प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर के अपने विरोधियों के लिए वे नयी मुसीबत का सबब बन सकती हैं. और अगर वे वहां कुछ खास नहीं कर पाती हैं या उन्हें नहीं करने दिया जाता है तो अपने घर में तो सबको शरण चाहिए ही.

उमा और उत्तर प्रदेश

उमा की वापसी के समय पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन्हें फूलों का गुलदस्ता देने के साथ ही कांटो भरा ताज पहना दिया. गडकरी ने घोषणा की कि उमा 2012 में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी को मजबूत करने का काम करेंगी. उत्तर प्रदेश में पार्टी चौथे पायदान पर है. उत्तर प्रदेश ही वह स्थान है, जहां के अयोध्या आंदोलन ने दो सीट वाली पार्टी को आगे चलकर सत्ता में पहुंचा दिया. पार्टी इस बार भी कुछ इसी तरह के करिश्मे की राह देख रही है. हाल ही में लखनऊ में हुई पार्टी कार्यसमिति की बैठक में राजनीति की चाशनी में हिंदुत्व का घोल मिलाने की इच्छा फिर मजबूत होती दिखाई दी. और जब चुनावी वैतरणी हिंदुत्व की नाव के सहारे पार करने की इच्छा हो तो उमा से बेहतर नाविक कोई और नहीं हो सकता. बताने की जरूरत नहीं कि 90 के दशक के अयोध्या आंदोलन की आग सुलगाने और लगातार उसमें घी डालने का काम उमा ने बखूबी किया. आग से भले ही काफी कुछ जल कर राख हो गया लेकिन उस आग की लपटों से उमा के राजनीतिक करियर को जो चमक मिली वह आज भी कायम है. उत्तर प्रदेश ने ही उमा के राजनीतिक कद को रातों-रात इतना ऊंचा कर दिया कि उनके नाम के साथ फायरब्रांड जुड़ गया और वे अपने समकालीन नेताओं से सालों आगे निकल गईं.

आज उमा को उसी राज्य की जिम्मेदारी सौंपी गई है. हालांकि 92 से लेकर अब तक हालात काफी बदल चुके हैं.  प्रदेश में भाजपा आज बड़े बुरे हाल में हैं. यहां के बड़े भाजपा नेता अतीत के खोल से बाहर ही नहीं आना चाहते. मुरली मनोहर जोशी को लगता है कि वे राष्ट्रीय अध्यक्ष और  केंद्र में मंत्री रह चुके हैं, उनका उत्तर प्रदेश में क्या काम. राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, केंद्र में मंत्री और फिर राष्ट्रीय अध्यक्ष की खुमारी में डूबे हैं. कलराज मिश्र उत्तर प्रदेश भाजपा के सफलतम अध्यक्षों में एक माने जाते थे, अब उससे ऊपर उठकर किंग मेकर बन चुके हैं. विनय कटियार राम मंदिर आंदोलन के सबसे तेज-तर्रार नेता थे. उन पर भी वही बजरंगी अतीत हावी है. ऐसा ही कुछ हाल लालजी टंडन, केशरीनाथ त्रिपाठी, ओमप्रकाश सिंह आदि पूर्व अध्यक्षों का भी है. कोई भी वर्तमान परिस्थितियों के मुताबिक अपनी भूमिका निभाना ही नहीं चाहता. सब अपने पुराने रिकॉर्ड को सीने से चिपकाए हुए हैं. नयी भूमिका में आने के लिए न तो उनके पास दम बचा है और न ही वे कोई जोखिम उठाना चाहते हैं. पूर्व मुख्यमंत्री एवं पार्टी के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह पहले ही पार्टी से बाहर हैं.

उमा भारती महिला, साध्वी और पिछड़े वर्ग से हैं, इस वजह से वे माया की सोशल इंजीनियरिंग को चुनौती देने के बारे में सोच सकती हैं

उत्तर प्रदेश की राजनीति पर लंबे समय से नजर रखने वाले वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं, ‘भाजपा प्रदेश में बहुत ही दयनीय स्थिति में है. ऊपर से आपसी गुटबाजी कोढ में खाज का काम कर रही है.” प्रधान मानते हैं कि उमा को प्रदेश की कमान सौंपने का भाजपा को निश्चित तौर पर फायदा होगा. उमा पूरे यूपी में किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. पूरे राज्य में लोग उन्हें जानते हैं. वहीं प्रदेश के नेताओं का एक सीमित क्षेत्र में ही प्रभाव है. प्रधान के मुताबिक यूपी में उमा के आने से प्रदेश बीजेपी को दो बड़े फायदे होंगे. पहला कल्याण सिंह के पार्टी से बाहर होने के कारण बुंदेलखंड और रुहेलखंड की 20 से 22 सीटों पर लोध वोटों के नुकसान होने की संभावना को उमा भारती काफी हद तक कम कर पाएंगी. दूसरा उमा की छवि एक कट्टर हिंदू नेता की है, जो आक्रामक है, महिला, साध्वी और पिछड़े वर्ग से है. हिंदुओं को फिर से भाजपा से जोड़ने में वे कामयाब हो सकती हैं. इसके अलावा भीड़ खींचने में उनका कोई सानी नहीं है. वे बताते हैं कि विनय कटियार ने भी अपनी छवि एक कट्टर हिंदू की बनाई है लेकिन समस्या यह है कि लोग उन्हें गंभीरता से नहीं लेते. इसके अतिरिक्त माया की सोशल इंजीनियरिंग को चुनौती देने के बारे में उमा सोच सकती हैं. माया बनाम उमा की लड़ाई रोचक होगी.

लेकिन ऐसा होगा तो तभी जब उमा भारती को उत्तर प्रदेश में खुलकर काम करने का मौका दिया जाएगा. प्रधान कहते हैं, ‘उमा की राह यहां भी मुश्किलों से भरी है क्योंकि यहां के नेता उमा की उपस्थिति से खुश नहीं हैं. दबी जुबान में उनका कहना है कि पार्टी ने एक बाहरी को यहां नेता बना कर भेज दिया. हम लोग क्या इतने सालों से घास छील रहे हैं.’ उमा के बेहद करीबी एक सज्जन बताते हैं, ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौखिक घोषणा के अतिरिक्त पार्टी ने उमाजी के लिए अभी कोई जिम्मेदारी स्पष्ट नहीं की है. अगर पार्टी की ऐसी मंशा है तो उन्हें पार्टी के संविधान के तहत बाकायदा लिखित घोषणा करनी चाहिए, किसी समिति का सदस्य बनाकर या फिर प्रदेश प्रभारी घोषित करके. यहां तो सारी बातें हवा में हो रही हैं.’ यह खीज इशारा है कि गडकरी और संघ को जितना जोर उमा को पार्टी में लाने के लिए लगाना पड़ा है उससे ज्यादा जोर उन्हें पार्टी में आगे बढ़ाने के लिए लगाना होगा.

उमा और राष्ट्रीय राजनीति

जब उमा छह साल पहले पार्टी में थीं तब की भाजपा और छह साल बाद की भाजपा में काफी कुछ बदल चुका है. जब वे इसे छोड़ कर गईं थी तब पार्टी अटल-आडवाणी युग में थी, अब सुषमा स्वराज और अरुण जेटली का युग चल रहा है. पार्टी को दशा और दिशा देने की जिम्मेदारी दूसरी पंक्ति के नेताओं के हाथों में आ गई है जिनसे उमा की कभी पटरी नहीं बैठी और वे उनके खिलाफ लगातार बोलती रहीं. एनडी शर्मा कहते हैं, ‘केंद्र की राजनीति कर रहे इन दूसरी पंक्ति के नेताओं को उमा के कद और क्षमता का अच्छी तरह अहसास है. उनमें से ज्यादातर उमा के आगे कहीं नहीं ठहरते. इसीलिए तो उन्होंने उमा की वापसी की राह में रोड़े अटका रखे थे…पार्टी में कोई बड़ा नेता ऐसा नहीं है जो उमा की वापसी के पक्ष में था. सभी के बीच एक आम राय बन चुकी थी कि उन्हें वापस पार्टी में नहीं आने देना है क्योंकि उमा पार्टी में वापस आएंगी तो इन सभी पर भारी पड़ जाएंगी.’

‘आज नहीं तो कल उमा का दूसरे पंक्ति के नेताओं से संघर्ष होकर रहेगा. क्योंकि उनका अपना एक कद और इतिहास है’

धनंजय सिंह कहते हैं, ‘अटल-आडवाणी के बाद कोई दूसरा नेता जो उनके कद के आसपास भी दिखता था तो वो थीं उमा भारती. दूसरी पंक्ति के नेताओं में वे सबसे आगे थीं. अटल-आडवाणी के बाद उमा ही भाजपा की एकमात्र नेता थीं जिन्हें कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हर शख्स पहचानता था. इसलिए यह स्वाभाविक था कि अटल-आडवाणी युग के बाद उमा के हाथों में पार्टी की कमान होती. इस बात का पार्टी के हर नेता को आभास था इसीलिए तो उनकी वापसी न हो पाए इसके लिए सभी ने एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा था. आज भले ही शिवराज से लेकर रमन सिंह तक कई नेता उभर आए हों, लेकिन ये लोग पिछले पांच से दस साल की पैदावार हैं. और उमा सन 90 में ही राजनीति में एक मजबूत स्तंभ बन चुकी थीं. शर्मा कहते हैं कि अगर हम भाजपा की दो महिला नेताओं अर्थात सुषमा स्वराज और उमा की तुलना करें तो पाएंगे कि उमा के मुकाबले सुषमा कहीं नहीं ठहरतीं. उनकी स्थिति यह है कि वे अपनी बदौलत विदिशा की अपनी लोकसभा सीट तक नहीं जीत सकतीं. आज भी अटल-आडवाणी के बाद भाजपा में उमा के कद को टक्कर देने वाला कोई नहीं है. हालांकि नरेंद्र मोदी जैसे नेता भी पिछले दस साल में काफी ताकतवर होकर उभरे हैं. शर्मा कहते हैं कि आज नहीं तो कल उमा का दूसरे पंक्ति के नेताओं से संघर्ष होकर रहेगा. क्योंकि उनका अपना एक कद और इतिहास है. भविष्य में पार्टी के नेताओं में पार्टी पर वर्चस्व को लेकर युद्ध झिड़ने की प्रबल संभावना है. अभी तो पार्टी ने उमा को यूपी भेज दिया है लेकिन यूपी चुनाव समाप्त होने के बाद क्या.

जानकार उमा के खिलाफ एक और षड्यंत्र रचे जाने की ओर इशारा करते हैं. उनके मुताबिक चूंकि यह स्पष्ट है कि उमा की भाजपा में वापसी संघ के दबाव में हुई है और कोई नेता उनकी वापसी के पक्ष में नहीं था तो जाहिर है कि ये सारे नेता नहीं चाहेंगे कि उमा भारती मजबूत हों. इसलिए वे उन्हें राजनीतिक रूप से कभी सफल होने नहीं देंगे और लगातार कमजोर करने की कोशिश करते रहेंगे. ऐसे में उमा की राह बड़ी मुश्किलों भरी है. दूसरी ओर कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि नितिन गडकरी भी उमा की तरह संघ द्वारा अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठाए गए हैं और पार्टी में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उन्हें भी उमा भारती सरीखे सहारे की जरूरत है. उमा भी साफ छवि के चलते उन्हें पसंद करती हैं. तो ऐसे में गडकरी, उनके समर्थक और वर्तमान में हाशिये की ओर जाते कुछ नेता एक बार फिर से भाजपा में स्थापित होने में उमा के बहुत काम आ सकते हैं. 

अपने ही शोर में भटकी शैतान : शैतान

फिल्म शैतान
निर्देशक  बिजॉय नाम्बियार      
कलाकार  कल्कि कोएक्लिन, राजीव खंडेलवाल, नील भूपालम, कीर्ति

शैतान का एक छोटा-सा हिस्सा है जिसमें कहानी फ्लैशबैक के अंदर फ्लैशबैक में जाती है. कहानी को सुनाते हुए आपको बताते रहना कि हम कहानी सुना रहे हैं और उसकी संरचनात्मक बातें मजेदार ढंग से अपने दर्शकों के साथ बांटना, यह बहुत कम कहानियों में होता है. आप सोचते हैं कि काश, पूरी फिल्म ही ऐसी होती तो क्या कमाल होता!

लेकिन ऐसा नहीं है. खासकर इंटरवल के बाद तो धीरे-धीरे शैतान अपनी हरकतों के लिए शर्मिंदा-सी होने लगती है. मैं यह नहीं चाहता कि यह ड्रग्स और दिग्भ्रमित युवाओं का समर्थन करती लेकिन आखिर में यह रूटीन की मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय जिंदगी का समर्थन करती है. शैतान आखिर में सब सामाजिक चीजों के साथ खड़ी हो जाती है. यहां तक कि पुलिस के भी साथ. यह समाज के आगे व्यक्ति के हारने की कहानी है और धीरे-धीरे यह उन अनुभवों की कहानी बन जाती है जिन्हें लेखक-निर्देशक खुद ठीक से नहीं पहचानते. उनकी बारीकियों में न उतर पाने की अपनी कमी को वे शोर और उस सुंदर सिनेमेटोग्राफी से छिपा लेना चाहते हैं जिसमें लगभग सब मुख्य किरदारों के पहले सीन उन्हें उल्टा देखने से शुरू होते हैं. संगीत भी फिल्म की जान है. चार-पांच लोग पुलिस से बचते हुए छतों पर भाग रहे हैं और पीछे ‘खोया खोया चांद’ बजता है. ऐसा ही असर ‘फरीदा’ और ‘साउंड ऑफ शैतान’ पैदा करते हैं. शैतान का एक और मजबूत पहलू उसके एेक्टर हैं. कल्कि से लेकर राजीव खंडेलवाल और राजकुमार यादव तक.
अपने शोर और चकाचौंध के बीच शैतान दरअसल खालीपन की फिल्म है. शैतान के युवा अपनी दुनिया में उस कबूतर की तरह हो जाते हैं जो आंखें बंद करने के बाद सोचता है कि बिल्ली उसे नहीं खाएगी.

इस आंखें बंद करने के बाद की अपनी बंद रंगीन दुनिया में वे हीरो हैं. अय्याशी उनका राष्ट्रगान है. शैतान बाहर की दुनिया से उनके फिर से मिलने और टकराने की बात करती है. उसका गुस्सा अनुराग की रिलीज न हो पाई फिल्म ‘पांच’ के युवाओं का गुस्सा ही है. शैतान उनकी बंद दुनिया की कहानी सुनाते हुए पूरी ईमानदार है और साहसी भी लेकिन बाहर की दुनिया से टकराव शुरू होते ही वह बिखरने लगती है.

शैतान पलायन की फिल्म है. पहले हाफ में यह अच्छा है क्योंकि उसके किरदार यथार्थ से पलायन कर रहे हैं और उन्हें यह पूरी सच्चाई से दिखाती है. दूसरे हाफ में फिल्म खुद ही यथार्थ से पलायन कर जाती है. एक और नजरिए से देखें तो शैतान शुद्ध सिनेमा होने की कोशिश है. एक पुलिसवाले का दूसरे पुलिसवाले का पीछा करने का लंबा सीक्वेंस उसके सबसे खूबसूरत हिस्सों में से है. शैतान वैसी ही होना चाहती है. अपने वर्तमान को जीती हुई और कहानी कहने की टेंशन से बेफिक्र. लेकिन इसे भी वह साध नहीं पाती. बल्कि इस चक्कर में वह खोखली होती जाती है और चमत्कार करने के अपने बेवज़ह के ओवर कॉन्फिडेंस की वजह से साधारण.      

– गौरव सोलंकी

सहानुभूति के बूते चुनावी जंग

‘आप एक शहीद के साथ हैं या उस व्यक्ति के साथ जिसका यौन दुराचार के आरोप में वध कर दिया गया है?’ पूर्णिया विधानसभा क्षेत्र का लगातार चार बार प्रतिनिधित्व करने वाले मार्क्सवादी पार्टी के विधायक अजित सरकार के शहादत दिवस यानी 14 जून को उनके बेटे अमित सरकार ने वहां मौजूद भीड़ से जब यह सवाल किया तो यह साफ लग रहा था कि 25 जून को होने वाले उपचुनाव का मुद्दा विकास या भ्रष्टाचार नहीं होगा बल्कि यहां दो तत्कालीन विधायकों की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर को वोट में बदलने की ही कोशिश होगी. 

पूर्णिया विधानसभा सीट पर भाजपा के विधायक राजकिशोर केसरी की चार जनवरी को हुई हत्या के बाद उपचुनाव कराया जा रहा है. केसरी की हत्या कथित तौर पर एक स्थानीय स्कूल संचालिका रूपम पाठक ने कर दी थी. पाठक का आरोप था कि केसरी उनका लगातार यौन उत्पीड़न किया करते थे. रूपम इस समय जेल में हैं और उन पर गैरइरादतन हत्या का आरोप है.

पूर्णिया विधानसभा क्षेत्र के लिए यह एक संयोग ही है कि यहां का प्रतिनिधित्व करने वाले दो तत्कालीन विधायकों की हत्या कर दी गई. राजकिशोर केसरी के पहले 1998 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन विधायक अजित सरकार की भी हत्या कर दी गई थी. शायद पूर्णिया की जनता में सहानुभूति की भावना को देखते हुए ही भाजपा और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने एक ही तरह की रणनीति अपनाई है. भाजपा ने जहां इस बार राजकिशोर केसरी की पत्नी किरण केसरी को अपना उम्मीदवार बनाया है वहीं माकपा ने अजित सरकार के पुत्र अमित सरकार को मैदान में उतारा है. एक तरफ माकपा अपने नेता अजित सरकार की हत्या की सहानुभूति पर नैया पार लगाना चाहती है तो दूसरी तरफ ऐसी ही कोशिश भाजपा की भी है.

माकपा, भाजपा, कांग्रेस और भाकपा (माले) चुनाव में कूद पड़े हैं वहीं राजद-लोजपा ने उम्मीदवार खड़ा नहीं किया हैभाजपा उम्मीदवार किरण केसरी ने तो पहले ही इस तरह का संकेत दे दिया था. किरण ने अपनी नामजदगी का पर्चा भरते समय कहा था, ‘मेरे पति ने वर्षों तक इस क्षेत्र की जनता की सेवा की है, इसलिए मैं उम्मीद करती हूं कि यहां की जनता उनके योगदान को देखते हुए हमें जरूर जीत दिलाएगी.’ हालांकि इस चुनाव में कांग्रेस विकास को ही मुद्दा बनाना चाहती है. पर कांग्रेस के स्थानीय नेता भी मान रहे हैं कि यह एक बड़ी चुनौती है. पूर्णिया से कांग्रेस विधायक रहे अमरनाथ तिवारी कहते हैं, ‘पूर्णिया विधानसभा क्षेत्र की यह बदकिस्मती है कि जनता के सामने विकास की बजाय सहानुभूति जैसी बातों को चुनावी मुद्दा बना कर पेश किया जा रहा है.’  कांग्रेस ने रामचरित यादव पर दोबारा भरोसा जताते हुए उन्हें टिकट दिया है जो 2010 के विधानसभा चुनाव में दूसरे स्थान पर थे. इसी तरह भाकपा (माले) ने इस्लामुद्दीन को जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा ने ओमप्रकाश भगत को उम्मीदवार बनाया है. 

एक तरफ जहां माकपा, भाजपा, कांग्रेस, भाकपा (माले) के उम्मीदवार चुनावी अभियान में कूद पड़े हैं वहीं राष्ट्रीय जनता दल-लोकजनशक्ति गठबंधन ने अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है. इस संबंध में राजद के प्रदेश अध्यक्ष अब्दुल बारी सिद्दीकी कहते हैं, ‘राजद-लोजपा गठबंधन इस बार भाजपा को वॉक ओवर देने नहीं जा रहा बल्कि हम यह सुनिश्चित करने में लगे हैं कि किसी ऐसे उम्मीदवार का समर्थन किया जाए जो भाजपा को हरा सके.’ हालांकि सूत्रों का कहना है कि राजद-लोजपा इस चुनाव के बहाने कांग्रेस से निकटता बढ़ाने की जुगत में हैं. राजद के एक नेता इशारों में कहते हैं, ‘पार्टी कोशिश कर रही है कि वह कांग्रेस का समर्थन करे. इसके लिए बातचीत चल रही है.’ कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया लोकजनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान भी देते हैं. उन्होंने 13 जून को कहा, ‘भाजपा और कांग्रेस में से किसी एक को चुनना पड़ा तो हम निश्चित तौर पर कांग्रेस के साथ जाएंगे.’ इधर अभी तक कांग्रेसी खेमे से कोई अधिकृत प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन कांग्रेस के एक नेता का कहना है कि पार्टी इस मुद्दे पर अगले कुछ दिनों में ही फैसला करेगी.

पिछले छह महीने से किसी न किसी तरह रूपम पाठक भी एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बनी रही हैं. राजकिशोर केसरी की हत्या की आरोपित रूपम ने पहले घोषणा की थी कि वे भी चुनाव लड़ेंगी. आठ जून को नामजदगी का पर्चा दाखिल करने की आखिरी तिथि समाप्त होने से पहले तक पूर्णिया विधानसभा क्षेत्र में यह चर्चा जोरों पर थी कि वे भी चुनाव मैदान में कूदेंगी. पर आखिरी वक्त में पाठक ने चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया.

जमशेदपुर में झकझूमर

कुछ दिनों बाद जब जमशेदपुर लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान शुरू होगा तो उस समय के नजारे की कल्पना कीजिए. अगर अर्जुन मुंडा या भाजपा के कोई दूसरे नेता प्रचार करने जाएंगे तो वे किस अंदाज में अपनी बात रखेंगे? क्या कोई एक पूरा वाक्य बोल पाएगा या आधे पर ही ब्रेक लगा देना होगा जैसे यह जो झामुमो है, वह .. झामुमो के शिबू सोरेन जब अपने बेटे हेमंत सोरेन के साथ प्रचार करेंगे तो क्या भाजपा को खुल कर कोस सकेंगे कि वह सांप्रदायिक पार्टी है, इससे बचकर रहिए ! और सत्तारूढ़ गठबंधन के तीसरे साझेदार आजसू के सर्वेसर्वा सुदेश महतो क्या कह सकेंगे कि झामुमो और भाजपा दोनों ही धोखेबाज और चालबाज पार्टियां हैं.

जाहिर-सी बात है, एक-दूसरे को मैदान में पटखनी देने के लिए उतर जाने के बावजूद तीनों पार्टियों के नेताओं को एक-दूसरे के बारे में कुछ कहने से पहले कई बार सोचना होगा. दरअसल जमशेदपुर लोकसभा सीट पर होने वाले उप चुनाव में स्थितियां ही ऐसी बनी हैं कि सारे दोस्त, दुश्मन में बदलते नजर आ रहे हैं. भले ही वह मौसमी  तौर पर या दिखावे के लिए हों. वैसे चुनावी घमासान सिर्फ भाजपा, झामुमो, आजसू गठबंधन के बीच ही नहीं होना है बल्कि विपक्ष की राजनीति करनेवाले कांग्रेस और झारखंड विकास मोर्चा भी ऐसे ही आपस में गुत्थमगुत्था हो रहे हैं.

जमशेदपुर सीट पर चुनाव एक जुलाई को होना है, इस बीच आपसी मुकाबले के कैसे-कैसे रंग सामने आते हैं, आपसी रिश्ते में खटास कितनी गहराती है और इससे सरकार पर आगामी दिनों में कैसा असर पड़ता है, यह देखना दिलचस्प होगा. हालांकि अभी रांची में बैठकर भाजपा, झामुमो और आजसू के आलाअलम यह कह रहे हैं कि इस चुनाव से सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

वैसे देखा जाए तो इस चुनाव में भाजपा की प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा दांव पर लगी है, क्योंकि यह सीट राज्य के मुखिया अर्जुन मुंडा ने खाली की है. झामुमो ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है, क्योंकि भाजपा के पहले यह सीट उसके पास ही थी. रही बात कांग्रेस की तो जमशेदपुर में एक सीट की विधायकी उसे पिछले विधानसभा चुनाव में मिली थी और अब विधायक को ही सांसद बनाकर वह इस चुनाव के जरिये अपने दायरे का विस्तार करने की कोशिश में है. बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो ने गत माह खरसांवा विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को कड़ी चुनौती देकर यह संकेत दे दिया था कि मरांडी इस इलाके में तेजी से जनाधार बढ़ा रहे हैं. और इन सबके बीच आजसू जैसी पार्टी है, जिसके पास खोने के लिए तो कुछ नहीं लेकिन पाने के लिए बहुत कुछ है.

अब अगर दलों के प्रत्याशियों की बात करें भाजपा की ओर से खुद प्रदेश अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी मैदान में हैं. कहा जा रहा है कि अर्जुन मुंडा की कोशिशों से उन्हें टिकट मिला है. भाजपा की ओर से  पूर्व विधायक सरयू राय, पूर्व मंत्री दिनेश षाडंगी, मुंडा के खासमखास अमरप्रीत सिंह काले आदि के नामों की चर्चा भी कोई कम नहीं थी. मुख्यमंत्री के पसंदीदा उम्मीदवार के खिलाफ टिकट पाने से चूके हुए इन भाजपाइयों द्वारा भीतरघात की संभावना तो कम है लेकिन मुंडा का विरोधी खेमा भी जमशेदपुर में खासा प्रभाव रखनेवाला है, जो छिपकर अपना खेल खेल सकता है. झामुमो से यहां स्वाभाविक तौर पर सुमन महतो के नामों की उम्मीद की जा रही थी. वे पहले भी सांसद रह चुकी हैं. स्व. सुनील महतो का अपना प्रभाव रहा है, इसका फायदा भी उन्हें मिल सकता था. सुमन के बाद जिस नाम की चर्चा थी, वह नाम दुलाल भुइयां का था, लेकिन पार्टी ने इन दोनों नामों को परे कर राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री और विधानसभा चुनाव में हारे हुए प्रत्याशी सुधीर महतो को टिकट थमा दिया है. नाराज सुमन तृणमूल का दामन थामने को तैयार हैं जबकि दुलाल भुइयां ने  टिकट नहीं मिलने के बावजूद अपनी कसक मन में ही दबा ली है. झामुमो के ही सबसे ज्यादा भितरघात का सामना करने की संभावना है.

चुनाव के पहले उसे पहला झटका तो उसके सहयोगी दल आजसू ने ही दिया है जिसने उसके नेता आस्तिक महतो को अपने पाले में कर उन्हें टिकट दे दिया है. बाबूलाल मरांडी ने सधी हुई चाल चलते हुए, डॉ अजय कुमार को, जो  पूर्व में जमशेदपुर में चर्चित आइपीएस अधिकारी रह चुके हैं, टिकट दिया है. सबसे ज्यादा हास्यास्पद स्थिति तो कांग्रेस की है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बलमुचु टिकट चाहते थे पर कांग्रेस ने बन्ना गुप्ता पर ज्यादा भरोसा दिखाया. बताया जा रहा है कि बन्ना गुप्ता को राहुल गांधी से नजदीकियों का फायदा मिला. लेकिन चुनाव आते-आते बलमुचु मन में दबी आकांक्षाओं को कैसा स्वर देते हैं, यह देखना भी कोई कम दिलचस्प नहीं होगा.

‘डॉक्टर के पास जाने से पहले’

कभी आपने भी डॉक्टर को गाली दी होगी, या कोसा होगा कि हमारी बीमारी को ठीक से समझ ही नहीं पाए डॉक्टर साहब. गलत डायग्नोसिस बना दी और केस खराब कर दिया. ऐसी बातें प्रायः सुनते ही हैं हम. डॉक्टर द्वारा बीमारी की सही डायग्नोसिस न कर पाना स्वयं में अलग सा विषय है जिसकी चर्चा आज नहीं करेंगे. आज तो हम आपको यह बताएंगे कि कैसे बीमारी के गलत डायग्नोसिस या इलाज के अपराध में आप भी कई बार शामिल होते हैं. डॉक्टर कोई जादूगर नहीं है. उसका काम जासूस टाइप है, या कि कंप्यूटर जैसा. घटनास्थल की जांच करना उसका काम है परंतु चश्मदीद या अन्य गवाहों द्वारा दी गई जानकारी उतनी ही अहम है वरना शरलक होम्स भी फेल हो सकता है. कंप्यूटर में यदि गलत आंकड़े डालेंगे तो उम्मीद न करें कि सही विश्लेषण करके देगा. और डॉक्टरी के केस में यह गवाही देना या सही आंकड़े देना आपका (मरीज का) काम है. जब तक आप अपना यह दायित्व नहीं निभाते तब तक डॉक्टर से बहुत उम्मीद न करें. एक अच्छा डॉक्टर मरीज की व्यथा कथा (हिस्टरी) सुनकर ही अस्सी-नब्बे प्रतिशत तक डायग्नोसिस बना लेता है. खून की जांच, एक्स-रे इत्यादि तो इस डायग्नोसिस की पुष्टि के तरीके हैं.

मेरा मानना है कि यदि मरीज डॉक्टर के पास जाते हुए कुछ बातों का पालन करे तो डॉक्टर का काम बहुत आसान हो जाए. मरीज को निम्नलिखित बातें याद रखनी चाहिएः

1. कि डॉक्टर के पास बहुत टाइम नहीं हैः और भी मरीज देखने हैं उसे. हो सकता है कि राउंड लेना हो, ऑपरेशन के लिए जाना हो या पहले ही बहुत-से मरीज देखकर वह हलकान बैठा हो. कई मरीज यह मान कर आते हैं कि डॉक्टर एकदम फुर्सत में है. ऐसा नहीं होता. डॉक्टर तथा मरीजों की संख्या के बीच इतना असंतुलन है कि आप उसे फुर्सत में पाने की उम्मीद कभी न करें.

2. कि अपनी तकलीफ को ठीक बताएं: ठीक-ठीक बताने का मतलब? मतलब यह कि न तो अनावश्यक विस्तार में जाएं, न ही भटकें और न ही इतना संक्षिप्त हों कि कुछ बताएं ही न. मेरे पास सब तरह के मरीज आते हैं. यह पूछने पर कि आपको क्या हो गया सर, कुछ तो यही कहते हैं कि हम क्या बताएं, आप डॉक्टर हैं – खुद समझ लीजिए! बताना तो आपको पड़ेगा ही. डॉक्टर जादूगर नहीं है. उसे आपकी सहायता चाहिए. फिर कुछ लोग बजाय यह बताने के, कि चार दिन से गला खराब है, कहानी को बचपन से शुरू करते हैं, बीच में मौसम पर चर्चा भी करेंगे और असली तकलीफ तक पहुंचते-पहुंचते डॉक्टर को इतना थका डालते हैं कि वह सुनना ही बंद कर देता है. तकलीफ बयान करते समय इन बातों का ख्याल करें 1. पहले बताएं कि कितने दिन पहले आप ठीक थे. 2. फिर बताएं कि सबसे पहले क्या चालू हुआ, कैसे बढ़ा और अब क्या तथा कैसा है. एक के बाद एक के क्रम में बताएंगे तो डॉक्टर के सामने आपकी बीमारी की मुकम्मल-सी तस्वीर बनने लगेगी. 3. यह भी बताएं कि पहले से कोई अन्य बीमारी का कोई इलाज तो नहीं चल रहा. डॉक्टर पूछे, न पूछे, आप बता दें. डायबिटीज, हार्ट, बीपी, थॉयरायड, आर्थराइटिस आदि की अनेक दवाइयां भी आपकी अभी की तकलीफ का कारण हो सकती हैं. फिर हर बीमारी दूसरी बीमारी पर असर डाल सकती है या डॉक्टर द्वारा दी जा रही दवाई से बिगड़ सकती है. स्टेरायड से डायबिटीज बिगड़ जाएगी, बीटा ब्लाकर से दमे का अटैक हो सकता है और आर्थराइटिस की दवाएं पेट के अल्सर को बिगाड़ सकती हैं.

3. अपनी बीमारी का पुराना रिकॉर्ड साथ लेकर जाएं: यह जरूरी है कि डॉक्टर के पास जाते समय पुराने मेडिकल रिकॉर्ड साथ रखें. पर डॉक्टर मांगे तो दिखा दें. इससे कई बार बड़ी मदद मिलती है. डॉक्टर की भाषा और पर्चा डॉक्टर ही समझ पाता है. अपनी याददाश्त से न बताएं. कागजात रखें. पर यह उम्मीद तथा जिद भी न करें कि डॉक्टर इतनी-सी देर में आपकी मोटी मेडिकल फाइल या थैली के एक-एक पन्ने को देखे ही. कई मरीज अपने ब्लड शुगर तथा कॉलस्ट्राल आदि का बीस वर्ष का रिकॉर्ड करीने से रखे लाते हैं और चाहते हैं कि डॉक्टर आज का अपना दिन इसी काम में गुजारे. यह जरूरी नहीं है. जो उसे चाहिए देख लेगा.

4. कभी भी, डॉक्टर को कहीं भी पकड़कर अपनी बीमारी पर चर्चा शुरू न कर दें: डॉक्टरी सलाह के लिए उसके चेम्बर में जाएं और बाकायदा समय लेकर जाएं. आपका पुराना परिचित डाॅक्टर हो, तब भी. यह न करें कि वह किसी शादी के रिसेप्शन में मिला है, या स्विमिंग पूल में आपके बगल में तैर रहा है या रेलवे स्टेशन पर किसी को छोड़ने आया है – और आप उसे फुर्सत में मानकर उसे दबोच लें और अपनी बीमारी के बारे में बातें करने लगे. यहां मिली डॉक्टरी सलाह की क्या कीमत हो सकती है. बेचारा डॉक्टर एक सामान्य मनुष्य भी है. उसे ठीक से जीने दें.

5. कि अन्य किसी और पैथी या तरीके से कोई इलाज ले रहे हों तो वह भी जरूर बता दें: कई बार आयुर्वेद, यूनानी तथा इसी किस्म की देसी दवाएं भी वर्तमान बीमारी का कारण हो सकती हैं. इस छलावे में न आएं कि अंग्रेजी दवाएं गर्मी करती हैं परंतु ये दवाएं तो एकदम सुरक्षित हैं.
इन बातों का ख्याल रखेंगे तो आप डॉक्टर की बड़ी मदद करेंगे. अच्छे डॉक्टरों को इस मदद की बड़ी आवश्यकता रहती है.