' अपनी बालकनी से हमने गद्दाफी के टैंकों को देखा '

फरवरी, 2011 में मिस्र में फैली बदलाव की आग से लीबिया में भी विद्रोह की लपटें भड़क गईं. शुरू में जब मैंने अशांति की बातें सुनीं तो इन्हें कोरी अफवाह समझा. इसलिए कि तब तक लीबिया में रहते हुए मुझे तीन साल से ज्यादा हो चुके थे और मैंने वहां के लोगों को बेहद सुकून में रहते देखा था. लेकिन फरवरी के आखिर में जब मैंने बेंगाजी की सड़कों पर हजारों लोगों को हाथों में हथियार लिए विरोध के नारे बुलंद करते हुए देखा तो मुझे खुद को यह यकीन दिलाना पड़ा कि हालात पहले जैसे नहीं रहे. मार्च की शुरुआत तक तो भूमध्य सागर के किनारे बसा यह खूबसूरत देश पूरी तरह सुलग उठा था. बदलाव की चिंगारी को दबाने के कर्नल गद्दाफी के प्रयासों ने इसे और ज्यादा भड़का दिया.

मेरे मन में बस एक ही सवाल उठ रहा था. इस बेहद खूबसूरत देश में ऐसा कहर क्यों बरपा है जहां न खाने की दिक्कत है न रहने की कोई समस्या? जहां के लोग शायद दुनिया के सबसे भोले लोगों में से एक हैं. जहां आप रात में भी हजारों दीनार लेकर अकेले घर आ सकते हैं. जहां के लोग अपने मेहमान को बड़ा ऊंचा दर्जा देते हैं. आखिर उस देश में ऐसा क्यों हो रहा है?

मैं बेंगाजी के पॉश इलाके में पांचवी मंजिल पर किराये के मकान में रहती थी. मैंने और मेरे दोनों बच्चों ने बेंगाजी की सड़कों पर गुजरते गद्दाफी की सेनाओं के टैंकों को अपनी बालकनी से देखा. हम पूरे दिन विरोध प्रदर्शन देखते रहे. हमने देखा कि गद्दाफी के सैनिक विद्रोहियों को प्यार से मनाने का प्रयास कर रहे थे. शुरू में उन्होंने समझाने की कोशिशें की लेकिन बाद में वे हिंसक हो गए. हमने गोलियों की गूंज सुनी. फिर धमाकों की आवाजें. लेकिन हमें कभी डर नहीं लगा. क्योंकि हमारी मकान मालकिन हमेशा यह विश्वास दिलाती थीं कि वे अपनी जान की बाजी लगाकर भी हमें महफूज रखेंगी. संघर्ष के दिनों में स्थानीय लोग हमेशा मदद को तैयार थे. जब हवाई हमले हो रहे थे तब मुझसे बार-बार कहा जा रहा था कि मैं बच्चों के साथ नीचे वाले फ्लैट में शिफ्ट हो जाऊं. यह उनका भरोसा ही था कि गोलियों और धमाके के बीच भी हम खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे थे. लेकिन फिर हालात इतने बिगड़े कि हमें लीबिया छोड़ना पड़ा.

पूरे लीबिया में फैले असंतोष और धमाकों के बीच कहीं कोई लूटपाट या अभद्रता नहीं हुई, आम लोगों के भरोसे पूरी तरह महफूज थे भारतीय.फरवरी के अंतिम सप्ताह में हमने लीबिया छोड़ने की तैयारी शुरू की. स्थानीय परिचित लोगों ने हमें रोकने का हरसंभव प्रयास किया. वे बार-बार यही कहते रहे कि आप लोगों को कोई खतरा नहीं होगा. हम अपने भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन अपनी जान पर खेलकर भी हम आपकी हिफाजत करेंगे. उनका कहना था कि अगर आपकी सरकार वापस बुला रही है तो चले जाइए, लेकिन हम चाहते हैं कि आप लोग यहीं रहें. लेकिन रोज होते धमाके, सामने से ले जाए जाते घायल. हर दिन गूंजती गोलियों की आवाजें, एंबुलेंस के सायरन और सहमे से बच्चे. अंततः 28 फरवरी की शाम को जब हम लीबिया छोड़ रहे थे तो वहां के लोगों की आंखें नम थीं. मेरे साथी स्थानीय प्रोफेसरों और शिक्षकों ने लीबिया में जो हुआ उसके लिए माफी मांगी और विश्वास जताया कि जल्द ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा. बेहद बेमन से अपने दोनों बच्चों के साथ उसी शाम मैं जितना हो सकता था उतना सामान लेकर जहाज पर चढ़ी. जहाज पर हम सभी के पास अपनी कमाई थी, कीमती चीजें थीं लेकिन लूटमार तो दूर, किसी ने पूछा भी नहीं कि आप क्या ले जा रहे हैं. सहमे चेहरे क्षत-विक्षत होते देश का आईना बन गए थे.

भारत सरकार ने वापसी के लिए अच्छा इंतजाम किया था. हम एक मार्च की सुबह बेंगाजी से इजिप्ट के एलेक्जेंड्रिया के लिए चले. ढाई दिन बाद एलेक्जेंड्रिया पहुंचे. चार मार्च को एअर इंडिया की फ्लाइट हमें दिल्ली ले आई. मैं वापस हिंदुस्तान पहुंच चुकी थी. पीछे उस खूबसूरत देश को जलता छोड़ आई थी जहां मेरे ढेर सारे छात्र भविष्य में चमकने की तैयारी कर रहे थे. लौटते वक्त मुझे उनकी चिंता थी. वहां के भोले-भाले लोगों की चिंता थी, जो शायद दुनियादारी के लिए जरूरी कपट भी नहीं जानते.

आज जब हिंदुस्तान में मैं लीबिया पर पश्चिमी सेनाओं के हमले के बारे में पढ़ती हूं तो बस यही खयाल आता है कि वहां के लोग मानवाधिकारों के नाम पर किए जा रहे इन हमलों की अंतर्कथा को उसी शिद्दत से समझ पा रहे होंगे. बस यही दुआ है कि यह खूबसूरत देश बर्बाद न हो. लोगों में वही जिंदादिली बरकरार रहे.