घर-घर में घुसा इंटरनेट

इस बार अपने जन्मदिन पर मुझे सैकड़ों बधाइयां मिलीं. फेसबुक पर पड़े हुए मेरे प्रोफाइल ने बिल्कुल नियत समय पर मेरे फेसबुक-मित्रों को सजग किया कि यह बधाई देने का समय है. कुछ संकोच और आभार के साथ सबका धन्यवाद ज्ञापन करते हुए मैंने फेसबुक पर ही अपने अपेक्षया एक करीबी मित्र से चुटकी ली कि यह तो पूरा महोत्सव हो गया. जीवन में पहली बार बधाइयों की इस तरह बरसात हुई है.

निश्चय ही यह सुखद था. ढेर सारे जाने-पहचाने से लेकर अनजाने मित्रों तक फैला यह अदृश्य संसार अगर इतनी-सी शुभाशंसा का सरोकार रखता है और इसके लिए अवकाश निकालता है तो इस लगातार छीज रही सामाजिकता के समय में यह छोटी बात नहीं है. तकनीक अब तक लोगों को भौगोलिक रूप से ही करीब ला रही थी, लेकिन जिसे सामाजिक सेतुबंध या सोशल नेटवर्किंग कहते हैं वह लोगों को भावनात्मक रूप से भी करीब लाने का उद्यम कर रहा है. वह पुराने और बिछुड़े हुए मित्रों को तो मिला ही रहा है, नयी अनजान मित्रताओं के बीच भी कभी-कभार आत्मीयता और घनिष्ठता पैदा कर रहा है.

अब आंदोलन को सफल बनाने के लिए जगह-जगह सभाएं नहीं करनी पड़तीं, आप फेसबुक पर एक पेज बनाते हैं और लोग उसे एक मंच में बदल डालते हैं 

कायदे से देखें तो बीते एक दशक की सूचना क्रांति ने मध्यवर्गीय भारत में एक नयी सामाजिक क्रांति भी पैदा की है. निश्चय ही इसका वास्ता सिर्फ फेसबुक या कुछ दूसरी सोशल साइटों भर से नहीं है, तकनीक के जरिए हासिल हुई एक नयी समानता और स्वायत्तता से भी है. बल्कि हमारी लोकतांत्रिक क्रांति ने वयस्क मताधिकार के जरिए जो राजनीतिक बराबरी सबको देने की कोशिश की उसे कहीं ज्यादा वास्तविक अर्थों में इस सूचना क्रांति ने संभव किया है. एक मोबाइल सबकी जेब में है, एक नंबर सबकी मेमोरी में है और काम के लिए घर और शहर छोड़ने वाले अमीर-गरीब सब आश्वस्त हैं कि उनके पास अपनी खोज-खबर देने का एक जरिया आ गया है. पहले आरा-छपरा से दिल्ली-मुंबई और सूरत काम करने निकला गरीब 6 दिन बाद पोस्टकार्ड भेजकर अपना कुशल-क्षेम बताता था, अब वह ट्रेन पर बैठने से लेकर उतरने तक का हिसाब-किताब देता है. दस साल पहले तक दिल्ली की बसों में असुरक्षित-सा तना हुआ चेहरा लेकर बैठी दिखने वाली लड़कियां अब मोबाइल से चिपकी किसी और दुनिया में खोई दिखाई पड़ती हैं- आश्वस्त कि वे अकेली नहीं हैं और किसी संकट की घड़ी में अपनों को आवाज देने वाला एक यंत्र उनके हाथों में है.

मोबाइल के बाद इंटरनेट के विस्तार ने इस सूचना क्रांति को और भी कई आयाम दिए हैं. निजी ब्लॉगिंग हमें कोसी के बाढ़ पीड़ितों की तकलीफ से भी परिचित करा रही है, इराक की उस लड़की की तकलीफ बता रही है जो पढ़ना तो चाहती है लेकिन जिसका स्कूल तबाह हो गया है, और तालिबानी जुल्म के शिकार लोगों की दास्तान भी हम तक पहुंचा रही है. अचानक हम पा रहे हैं कि हमारी लोकतांत्रिक लड़ाइयां मंच और लाउडस्पीकर पर ही नहीं, ट्विटर और फेसबुक पर भी लड़ी जा रही हैं. करीब दो साल पहले मंगलौर में एक दक्षिणपंथी संगठन ने पब में बैठी लड़कियों के साथ जो मारपीट की थी उसके विरोध में फेसबुक पर जो तीखी लड़ाई चली उसने सबके छक्के छुड़ा दिए. रामसेना नाम के उस संगठन को गुलाबी पैंटी भेंट करने का आंदोलन ऐसा लोकप्रिय हुआ कि अगली बार किसी ने कम से कम मंगलौर में पब में बैठने वाली लड़कियों को रोकने की हिम्मत नहीं की.

यह पुरानी बात हो गई, नयी बात अण्णा हजारे का अनशन है जो जितना जंतर-मंतर पर दिखता रहा, उतना ही फेसबुक और ट्विटर पर भी छाया रहा. जाहिर है, अब आंदोलन और विरोध प्रदर्शन को सफल बनाने के लिए डुग्गी नहीं पिटवानी पड़ती, मुनादी नहीं करवानी पड़ती, जगह-जगह छोटी-छोटी सभाएं नहीं करनी पड़तीं, आप फेसबुक पर एक पेज बनाते हैं और धीरे-धीरे लोग उस पेज को एक मंच में बदल डालते हैं. जेसिका के इंसाफ से लेकर अण्णा के आंदोलन तक जितनी लड़ाइयां सड़क पर लड़ी गईं, उससे कम फेसबुक या ऐसे दूसरे वर्चुअल, यानी आभासी माध्यमों पर नहीं.

क़रीब से देखें तो हम पाते हैं कि तकनीक उन्हीं लड़ाइयों में मददगार है जो अंततः  व्यवस्था के हक में जानी हैं

हालांकि हाल-हाल तक इन माध्यमों की एक वैध आलोचना की जाती रही कि ये एक सीमित वर्ग की नुमाइंदगी करते हैं- उस महानगरीय भारत की जिसके पास तकनीक की सुविधा और अंग्रेजी की समझ है- और इनके सरोकार उन्हीं सवालों तक सीमित हैं जिनका इनके जीवन से वास्ता है. लेकिन यह आलोचना एक हद तक ही सही है. धीरे-धीरे, बल्कि बहुत तेजी के साथ इंटरनेट की घुसपैठ भारतीय समाज में कहीं ज्यादा गहरी हुई है, अब इसके बहुत सारे प्रमाणों की जरूरत नहीं. छोटे-छोटे कस्बों और शहरों के लोग, घरों में काम करने वाली महिलाएं और दूर-दूर रहकर अपनी सृजनात्मकता में लीन कलाकार या कार्यकर्ता इस माध्यम से महानगरों से, और मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं. यह शायद हिंदुस्तान में ही नहीं, सारी दुनिया में घटित होने वाली प्रक्रिया है- एक मायने में औद्योगिक क्रांति के बाद की सबसे बड़ी क्रांति- जिसने पिछली सदी के बहुत सारे मानकों को पूरी तरह नहीं, तो बहुत दूर तक बदल डाला है. राष्ट्रवादी हसरतें इस तकनीकी क्रांति के आगे खुद को असहाय पाती हैं, झंडे, नारे और जुलूस वाले जनांदोलन अब इसके आगे पुराने लगते हैं, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को इसके आगे अपने औजार नये सिरे से तलाशने और तराशने पड़ रहे हैं, प्रशासकीय गोपनीयता छिन्न-भिन्न हुई जा रही है और साम्राज्यवादी परियोजनाएं विकीलीक्स जैसे खुलासों के बाद बुरी तरह हास्यास्पद ढंग से दुनिया के सामने खुल कर सामने आ रही हैं.

लेकिन इंटरनेट की लगातार बढ़ रही इस अपरिहार्यता के बीच ही कई सवाल पैदा होते हैं क्योकि जब भी कोई नयी तकनीक आती है, जब भी उसकी मार्फत कोई नयी क्रांति घटित होती है तो अचानक वह सत्ता और शक्ति के समीकरण भी बदलती है और बहुत सारे लोग पीछे छूट जाते हैं.

मिसाल के तौर पर जब पहली बार मनुष्य ने अक्षरों की दुनिया संभव की होगी, लेखन की विधि विकसित की होगी तो ज्ञान और अनुभव की बहुत सारी शाखाओं का विकास हुआ होगा, लेकिन तब भी बहुत सारी मौखिक परंपराएं पीछे छूट गई होंगी. जब प्रिंटिग प्रेस आई तो उसने ज्ञान को कुछ उसी तरह की लोकतांत्रिकता प्रदान की, जैसी आज इंटरनेट कर रहा है. तब ज्ञान कंठस्थ करने की चीज नहीं रहा, वह किताबों और दस्तावेजों में बंद हो गया जिसका अवसर और जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल किया जा सकता था. तब भी लेखन की कई नयी शैलियां विकसित हुईं, उपन्यास जैसी विधा संभव हुई, लेकिन इसी के साथ-साथ बहुत सारी शैलियां मर गईं, बहुत सारा ज्ञान उन लोगों के साथ खत्म हो गया या पीछे छूट गया जो ज्ञान की लिखित परंपरा को संदेह की दृष्टि से देखते थे.

अब हमारे सामने इंटरनेट है और ज्ञान बिल्कुल हमारी चुटकियों पर है. बड़ी से बड़ी सूचना मिनटों में निकल आती है. अब कुछ भी याद रखना जरूरी नहीं है. लेकिन ज्ञान की यह सर्वसुलभता एक सीमा के बाद ज्ञान के लिए ही घातक हुई जा रही है. चूंकि पहले से कुछ भी जानना जरूरी नहीं रह गया है, इसलिए सोचना और विचार करना, उद्वेलित होना और प्रश्न खड़े करना भी छूट गया है. अब बने-बनाए प्रश्न हैं जिनके बने-बनाए उत्तर हैं. ज्ञान अब दुस्साहसी अन्वेषकों की सत्य-साधना से नहीं आता, वह बोधि वृक्ष के नीचे बैठे किसी बुद्ध की सात साल की प्रतीक्षा से नहीं आता, वह वैज्ञानिकों की प्रयोगधर्मी चेतना का नतीजा नहीं होता, वह एक पेशेवर उद्यम और सोचे-समझे निवेश का नतीजा होता है जिसके खोले हुए विश्वविद्यालयों, संस्थानों और केंद्रों में पूंजी को माकूल पड़ने वाला ज्ञान गढ़ा और बांटा जाता है- ऐसा ज्ञान नये टीवी, फ्रिज और कंप्यूटर बनाने के काम आता है, नया दिमाग और नया मनुष्य बनाने के काम नहीं.

निजी स्तर पर ज्ञान का जो सरलीकरण है वह सामाजिक स्तर पर संबंधों के सरलीकरण में बदल रहा है. फेसबुक के जरिए अब सब दोस्त हैं और एक जैसे दोस्त हैं. उन्हें जन्मदिन पर बधाई दी जानी है, उन्हें अपनी यात्राओं के बारे में बताना है, उन्हें अपनी पार्टियों के फोटो दिखाने हैं. यह बेताबी, यह उत्कंठा इतनी ज़्यादा है कि पार्टी चल रही होती है और कोई मोबाइलधारी उसका फोटो फेसबुक पर अपलोड कर रहा होता है. कहना मुश्किल है, एक-एक क्षण की यह रंगीन प्रस्तुति किसी आत्मीय साझेपन से उपजी है या एक अविचारित प्रदर्शनप्रियता की पैदाइश है.

दरअसल यही वह मोड़ है जहां तकनीक हमारी उंगली पकड़ कर नहीं चलती, हम उसकी उंगली पकड़ कर चलने लगते हैं. ज्ञान हम खोजते नहीं, वह तकनीक से मिल जाता है. संबंध हम सिरजते नहीं, वह तकनीक से मिल जाता है. सूचनाओं तक हम नहीं जाते, सूचनाएं हम तक दौड़ी चली आती हैं. जाहिर है, इसी से सूचनाएं छिप भी जाती हैं, क्योंकि दौड़ाने वालों को मालूम है कि कौन-सी सूचना भेजी जानी है, किसे आलमारियों में बंद रखना है. यहीं से यह तकनीक चुपके से हमारी राजनीतिक और सार्वजनिक पक्षधरताओं में भी दखल देने लगती है. वह विशेषाधिकारसंपन्न लोगों की अभिव्यक्ति का जरिया बन जाती है. ट्विटर बराक ओबामा, अमिताभ बच्चन, शशि थरूर और सुषमा स्वराज की बात हम तक पहुंचाता है, हमारी बात उन तक नहीं. ज्यादा करीब से देखें तो हम पाते हैं कि तकनीक उन्हीं लड़ाइयों में मददगार है जो अंततः व्यवस्था के हक में जानी हैं- न्याय की छोटी-छोटी पुकारों में, औरतों की छोटी-छोटी आजादियों में या फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाने की कोशिश में.

निश्चय ही ये लड़ाइयां छोटी नहीं हैं, लेकिन इनके आगे इंसाफ और बराबरी के वे बड़े सवाल दब जाते हैं जो अंततः सभ्यता की अब तक की सबसे बड़ी चुनौती बने हुए हैं. और उन वास्तविक संबंधों की जगह भी सिकुड़ती चली जाती है जो लगातार अमानवीय और ठंडी होती इस दुनिया को एक मानवीय और आत्मीय ऊष्मा प्रदान करते हैं, इसे जीने लायक बनाए रखते हैं.

फेसबुक पर बधाइयों की बरसात के बीच भी मैं उन चेहरों को याद करता रहा जिनका आत्मीय संस्पर्श अब तक मेरे जीने का संबल रहा है, इसे सार्थक बनाता रहा है. निश्चय ही इनमें कई चेहरे ऐसे थे जो फेसबुक के जरिए भी आए. दरअसल समझने की बात यही है, इंटरनेट माध्यम ही है, इससे ज्यादा कुछ नहीं.