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कौन कितने पानी में?

न्यूज  चैनलों को अचानक इलहाम हुआ है कि उत्तर प्रदेश बलात्कार प्रदेश बन गया है. दलित और महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद राज्य में महिलाओं खासकर दलित और कमजोर वर्गों की महिलाओं की इज्जत सुरक्षित नहीं है. हर 24 घंटे में बलात्कार की पांच घटनाएं हो रही हैं. चैनलों के मुताबिक, मायावती के राज में कानून-व्यवस्था की स्थिति पूरी तरह से चरमरा गई है. बसपा से जुड़े गुंडे और अपराधी बेलगाम हो गए हैं. भ्रष्टाचार और अराजकता चरम पर है.

चैनलों ने जिस अंदाज में उत्तर प्रदेश से जुड़ी खबरों को उछाला है, उसमें उनकी अतिरिक्त आक्रामकता को अनदेखा करना मुश्किल है

अचानक छा गई इन सुर्खियों और प्राइम टाइम चर्चाओं से ऐसा लगता है जैसे उत्तर प्रदेश देश का सबसे असुरक्षित और कानून-व्यवस्था की दृष्टि से बदतर राज्य बन गया है. खुद मुख्यमंत्री का कहना है कि यह विपक्ष का कुप्रचार है. उत्तर प्रदेश में कानून- व्यवस्था की स्थिति दिल्ली, महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश से ज्यादा खराब नहीं है. बहन जी का सवाल है कि फिर उत्तर प्रदेश को लेकर इतना शोर क्यों मचाया जा रहा है? वे इसे सवर्ण मनुवादी मीडिया की साजिश बता रही हैं.

लेकिन क्या सचमुच मायावती के प्रति पूर्वाग्रह के कारण न्यूज चैनलों में ये घटनाएं उछाली जा रही हैं? सरसरी तौर पर देखने पर इस शिकायत में कोई खास दम नहीं दिखता. सच यह है कि चैनलों पर दिखाई जा रही रिपोर्टें तथ्यतः गलत नहीं हैं. इसे अनदेखा करना मुश्किल है कि बहन जी जिस गुंडाराज को खत्म करने के वायदे के साथ सत्ता में आई थीं, उसमें कोई खास कमी नहीं आई है. खासकर जिस तरह से बसपा से जुड़े विधायकों-सांसदों-मंत्रियों आदि के नाम संगीन अपराधों और भ्रष्टाचार के मामलों में आए हैं, उसे देखते हुए मीडिया और न्यूज चैनलों का शोर मचाना गलत कैसे कहा जा सकता है? आखिर सरकारों के कामकाज की पहरेदारी करना और उनकी कमियों-गलतियों-धतकरमों पर उंगली उठाना न्यूज चैनलों का काम है. अगर न्यूज चैनल अपना यह काम कर रहे हैं तो मायावती को नाराज क्यों होना चाहिए? चैनल आईना भर हैं. वे यह कहकर कैसे बच सकती हैं कि कानून-व्यवस्था की इतनी ही बदतर स्थिति अन्य राज्यों में भी है? अगर तथ्यतः यह सही भी है तो मुख्यमंत्री होने के नाते उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति बहाल करना, महिलाओं को पूरी सुरक्षा देना, अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करना और लूट-खसोट पर अंकुश लगाना उनकी जिम्मेदारी है. फिर बलात्कार और एक के बाद एक तीन वरिष्ठ डॉक्टरों की हत्याएं सामान्य अपराध की घटनाएं नहीं हैं. सिर्फ दलित होने के कारण मायावती के ‘सात खून’ माफ नहीं किए जा सकते.

कहने का मतलब यह कि न्यूज चैनलों की शिकायत करने से पहले बहन जी को अपने अंदर झांकना होगा. उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि उन्हीं चैनलों पर आजकल उनकी सरकार की कामयाबियों का गुणगान करता सात मिनट से ज्यादा लंबा विज्ञापन धड़ल्ले से चल रहा है. लेकिन यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि सारे चैनल उत्तर प्रदेश के बारे में पूर्वाग्रह से मुक्त होकर जनहित में रिपोर्टिंग कर रहे हैं. यह मान भी लिया जाए कि तथ्यों के मामले में अधिकांश रिपोर्टें सही हैं तो भी उनकी भाषा, प्रस्तुति और टोन इस तरह का है कि उसमें पूर्वाग्रह सहज ही दिख जाता है. असल में, चैनलों ने जिस तरह और जिस अंदाज में उत्तर प्रदेश से जुड़ी खबरों को उछाला है, उसमें उनकी अतिरिक्त आक्रामकता को अनदेखा करना मुश्किल है. सवाल यह भी पैदा होता है कि चैनलों को केवल उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था, गुंडाराज और भ्रष्टाचार क्यों दिख रहे हैं? क्या दिल्ली, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में ‘रामराज्य’ है? जब चैनल उत्तर प्रदेश के गुंडाराज को लेकर सिर आसमान पर उठाए हुए थे, उसी समय बिहार के अररिया में पुलिस की गुंडागर्दी और अमानवीयता को लेकर नीतीश कुमार के ‘सुशासन’ पर चैनलों की चुप्पी हैरान करने वाली थी. यही नहीं, मुंबई की हाल की घटनाओं खासकर पत्रकार जेडे की दिन दहाड़े हत्या के बाद साफ हो गया है कि वहां का कुख्यात अंडरवर्ल्ड और उसके सरगना फिर जोर शोर से सक्रिय हो गए हैं. लेकिन वहां चैनलों की वह आक्रामकता नहीं दिखाई दे रही है जो उत्तर प्रदेश के मामले में छोटी से छोटी आपराधिक घटना पर दिखाई दे रही है. यानी उत्तर प्रदेश के मामले में कई हिंदी न्यूज चैनलों की रिपोर्टिंग और चर्चाओं में वह संतुलन और अनुपातबोध नहीं दिख रहा जो वस्तुनिष्ठ और पक्षपातविहीन पत्रकारिता के लिए जरूरी शर्त है. उलटे उनकी एकतरफा और अतिरिक्त रूप से आक्रामक रिपोर्टिंग के कारण कई बार वे सिर्फ रिपोर्टिंग करते नहीं बल्कि बसपा सरकार के खिलाफ अभियान चलाते मालूम होते हैं.

क्या इसका एक बड़ा कारण यह है कि चैनलों के अंदर काम करने वाले पत्रकारों-संपादकों-एंकरों में दलित और पिछड़े समुदायों की भागीदारी लगभग नगण्य है? निश्चय ही, चैनलों के न्यूज रूम और उसमें निर्णायक पदों पर बैठे संपादकों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि खबरों के चयन और उनकी प्रस्तुति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. उत्तर प्रदेश पर चैनलों की हालिया हाहाकारी रिपोर्टिंग इसका एक और सबूत है. साफ है कि मायावती के साथ चैनलों को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है.    

जीवन के संघर्ष को स्वर देता फिल्मकार

50 साल की उम्र में जब अमूमन लोग रिटायरमेंट की उम्र की ओर बढ़ रहे होते हैं और सुखद भविष्य के ताने-बाने बुनने में अपनी ऊर्जा लगा रहे होते हैं, उस उम्र में एक आदमी कैमरे की एबीसीडी जानना शुरू करता है. कैमरे की भाषा को समझने के साथ-साथ उसका प्रयोग शुरू करता है. इस उम्र में फिल्मकार बनने की सोचता है और आठ साल में कैमरे और मानवीय संवेदना, सामाजिक सरोकार और संघर्ष के स्वरों का मेलजोल कराने में इतना माहिर हो जाता है कि जब 58वें राष्ट्रीय पुरस्कार की घोषणा होती है तो उसकी दो फिल्मों को एक साथ रजत कमल श्रेणी में रख लिया जाता है. सोशल ऐक्टिविज्म करते-करते वीडियो ऐक्टिविज्म करने वाले इस 58 वर्षीय शख्स का नाम है मेघनाथ, जिनकी दो फिल्में ‘लोहा गरम है’ और ‘एक रोपा धान’ को इस साल राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा की गई है.

उनकी फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा इस साल हुई है. लेकिन इसके काफी पहले ही उनकी फिल्मों की पहचान राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो चुकी है. दुनिया भर में इनकी या इनकी फिल्मों की ख्याति को आंकना हो तो इसे 2003 में इनके द्वारा बनाई गई फिल्म ‘विकास बंदूक की नाल से’ से समझा जा सकता है. मेघनाथ ने यह फिल्म बनाई तो थी हिंदी में लेकिन उस फिल्म की ताकत को समझने वाले लोगों ने उसे अपनी भाषाओं में तेजी से ढाल लिया. इंग्लिश, फ्रेंच, स्पेनिश में उसे बनाया जा चुका है. दुनिया के 50 से अधिक विश्वविद्यालयों में उसका प्रदर्शन हो चुका है. विकास का एजेंडा सेट करने से पहले उस फिल्म को दिखाया जाता है. यूट्यूब पर जाएं तो पता चलता है कि अब तक 5,26,000 से ज्यादा लोग उस एक फिल्म को देख चुके हैं.

लेकिन यह सब मेघनाथ की बाहरी दुनिया है. रांची, जहां वे रहते हैं, उस छोटे-से शहर में उन्हें जानने-पहचानने वालों की जमात कुछ ज्यादा नहीं. कुछ ही लोग हैं, जो उनके नाम के साथ-साथ काम से भी परिचित हैं. कई ऐसे भी हैं जिनके बीच उनकी पहचान खद्दर वाला हाफ कुरता पहनकर झकझक सफेद दाढ़ी-बाल लहराते हुए हीरो पुक पर सवार शहर की सड़कों पर इधर-उधर घूमते रहनेवाले एक बुजुर्ग शख्स भर की है. मेघनाथ जान-पहचान के इस दायरे को और ज्यादा बढ़ाना भी नहीं चाहते. रांची शहर के बाहरी हिस्से में एक छोटे से घर में कैद होकर अपने फिल्मकार साथी बिजू टोप्पो के साथ फिल्मों की दुनिया मे खोए रहना ही उन्हें ज्यादा भाता है. उस छोटे-से मकान को लोग ‘अखड़ा’ के नाम से जानते हैं और बिजू टोप्पो मेघनाथ के वे साथी हैं जिनके साथ उन्होंने फिल्मी यात्रा शुरू की थी जो अब भी जारी है. इस साल मेघनाथ और बिजू दोनों को संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पुरस्कार मिलेगा. मेघनाथ कहते हैं, ‘सब बिजू ही करता है, मैं तो उसके साथ रहता हूं.’ बिजू से पूछिए तो कहते हैं, ‘सब दादा करते हैं, मैं तो उनके कहे अनुसार करता हूं.’ दोनों एक-दूसरे को क्रेडिट देते रहते हैं.

मेघनाथ और बिजू हमेशा एक साथ फिल्मों पर काम करते हैं, एक साथ फिल्में बनाते हैं. लेकिन एक विषय पर दोनों की सोच में बड़ा फर्क है. मेघनाथ फीचर फिल्मों के निर्माण से तौबा करते नजर आते हैं तो बिजू कहते हैं, ‘क्यों नहीं बनाएंगे फीचर फिल्म, जरूर बनाएंगे लेकिन वह अपने तरीके की फिल्म होगी. अपना विषय होगा, अपने लोग नायक-नायिका होंगे, परिवेश भी अपना होगा, लेकिन बनाएंगे तो जरूर.’ इस बात पर मेघनाथ हंसते हुए कहते हैं, ‘जब बिजू बनाएगा तो समझिए मैं भी बनाऊंगा.’

मेघनाथ अपने बारे में बात करने से बचते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं बंबई का बंगाली हूं लेकिन मुझे झारखंडी कहलाना ज्यादा संतोष प्रदान करता है.’ मेघनाथ पिछले दो दशक से झारखंड में रच-बस गए हैं. बंबई में पिताजी उद्योगपति थे. वहां से कोलकाता चले आए. सेंट जेवियर्स कॉलेज से पढ़ाई-लिखाई पूरी हुई. पढ़ाई के दौरान ही सेंट जेवियर्स कॉलेज के केमिस्ट्री विभाग के अध्यक्ष मशहूर समाजसेवी फादर जेराल्ड बेकर्स से मुलाकात हुई. मेघनाथ बताते हैं, ‘बेकर्स से पहली मुलाकात 1971 के रिफ्यूजी कैंप में हुई, उनसे ही समाजसेवा की प्रेरणा मिली और फिर एमए की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर झारखंड के पलामू इलाके में चले आए. छोटे-छोटे चेक डैमों के निर्माण के लिए ग्रामीणों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर आंदोलन करने में लग गए. फिर कोयलकारो आंदोलन हुआ तो उसमें भी शरीक हुए और जब अलग राज्य निर्माण के लिए झारखंड आंदोलन चला तो उसमें भी भाग लिया.’ यह पूछने पर कि फिल्मों मंे अचानक कैसे टर्न हो गए, कहते हैं, ‘अचानक कुछ नहीं हुआ. बचपन से ही फिल्मों के परिवेश से परिचित था. पलामू में काम करने के दौरान ही लगा कि फिल्मों से इन बातों को स्वर दिया जा सकता है. फिर मैंने किसी छात्र की तरह इसे सीखने का निर्णय लिया. 1988-89 में एेक्टिविस्ट फिल्म वर्कशॉप हुआ तो उसमें भाग लिया.

फिर दिल्ली जाकर आनंद पटवर्धन के साथ रहा. उनसे बहुत कुछ सीखा. वहीं पर ‘फ्रॉम बीहाइंड द बैरिकेट’ फिल्म को असिस्ट किया. बाद में पुणे में जाकर फिल्म एप्रेसिएशन कोर्स किया. एक छात्र की तरह सब सीखता रहा और फिर जब झारखंड लौटा तो बिजू, सुनील मिंज, जेवियर आदि मित्रों के साथ फिल्म बनाने में लग गया. साथी फिल्म बनाते रहे, उसमें मैं भी अपनी भूमिका का निर्वहन करता रहा.’ जनजीवन के संघर्ष को ही प्रमुख विषय बनाए जाने के सवाल पर मेघनाथ हंसते हुए बताते हैं कि अनजाने में ही सही, बचपन में उन्होंने पहला संघर्ष और आंदोलन अपने पिताजी के खिलाफ ही किया था. पिताजी की बंबई में फैक्टरी थी. मजदूर उनके खिलाफ अंादोलनरत थे. मेघनाथ भी उनके आंदोलन में शामिल हो गए. वे बताते हैं, ‘बाद में जाना कि मैं अपने पिता के खिलाफ ही आंदोलन में चला गया था. संघर्ष को सामूहिक स्वर देना ही तो फिल्मों का काम है, फिल्में मनोरंजन का साधन नहीं हैं, यही तो समझाने की कोशिश करता हूं, नए लड़कों को. सौ में दस भी समझ जाएंगे तो समझूंगा कि फिल्मों को कॉलेजों में पढ़ाते रहने का मेरा मकसद सफल हो रहा है…’

 

‘सिनेमा के सामाजिक, सांस्कृतिक प्रयोग की संभावनाएं तलाश रहा हूं’­

 

मशहूर फिल्म ऐक्टिविस्ट मेघनाथ से अनुपमा की बातचीत

आपकी दो फिल्मों को इस बार राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए चुना गया है. आपकी नजर में इन दोनों फिल्मों की खासियत क्या है?

सम्मान या पुरस्कार मिलना, न मिलना अलग बात है लेकिन हर फिल्म की अपनी खासियतें तो होती ही है. राष्ट्रीय पुरस्कार समारोह के लिए हमारी दो फिल्में ‘एक रोपा धान’ और ‘आयरन इज हॉट’ का चयन हुआ है. एक संघर्ष की फिल्म है, दूसरी रचना की. आयरन इज हॉट यानी ‘लोहा गरम है’ में संघर्ष है, ‘एक रोपा धान’ में रचना है. ‘लोहा गरम है’ में हमने यह दिखाने की कोशिश की है कि स्पंज आयरन फैक्टरियां कैसे झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में लोगों की जिंदगियां खत्म कर रही हैं. ‘एक रोपा धान’ किसानों को प्रेरित करने वाली फिल्म है.

जिनके सवालों को लेकर आप फिल्में बनाते हैं, वही उन्हें न देख सकें तो फिर डॉक्यूमेंट्री फिल्मों खासकर अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों का मकसद क्या है?

यह सच है कि भारत में मुख्यधारा की सिनेमा की जो ताकत है, उसका जो चक्रव्यूह है, उसके सामने डॉक्यूमेंट्री या अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों की कोई औकात नहीं. हमारे पास सबसे बड़ी चुनौती स्क्रीनिंग की है. लेकिन तकनीक के विकास से चीजें अब आसान हो रही हैं. अब आप उनके बीच फिल्में दिखा सकते हैं जिनके सवालों पर या जिन्हें प्रेरित करने के लिए फिल्में बनाते हैं. रही बात मकसद की तो मेरा मानना है कि ऐसी फिल्मों का मकसद सिनेमा के सामाजिक व शैक्षणिक प्रयोग के आधार को मजबूत करना है. भारत में यह होना अभी बाकी है. सिनेमा मनोरंजन के लिए होता है, मनोरंजन का माध्यम है, ऐसा मानने वाले तो अधिकतर मिलेंगे ही. दक्षिण के राज्यों में एमजी रामचंद्रन, करुणानिधि, एनटी रामाराव जैसे लोग सिनेमा का राजनीतिक प्रयोग भी मजबूती से कर इस परंपरा को स्थापित कर चुके हैं. लेकिन इस सशक्त विधा के सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक प्रयोग का अध्याय शुरू होना अभी बाकी है.

जनता की प्रतिक्रिया के आधार पर देखें तो आपको अपनी किस फिल्म को बनाकर सबसे ज्यादा संतुष्टि मिली?

हमें सबसे ज्यादा सुकून तो ‘कोड़ा राजी’ बनाते हुए मिला. अपने इलाके के लोग कैसे चाय बगान में काम करने बंगाल व पूर्वोत्तर के हिस्से में पहुंचे और वहां पहुंचने पर किन मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं, यह करीब से देखने-समझने का मौका मिला. आज भी चाय बगान इलाके से मजदूर आते हैं और कोड़ा राजी की चर्चा करते हैं. वैसे ‘विकास बंदूक की नाल से’ फिल्म का अपना महत्व रहा. उस फिल्म को देखने के बाद उड़ीसा के कोरापुट, पुरसिल आदि इलाके के ग्रामीणों ने कॉरपोरेट लुटेरों से बचने के लिए अपने-अपने गांव में गेट लगा दिए. ‘चींटी लड़े पहाड़ से’ फिल्म का व्यापक स्तर पर पलामू के महुआडांड़, कोयलकारो आदि इलाके में प्रदर्शन हुआ. ‘आयरन इज हॉट’ और ‘गांव छोड़ब नाहीं’ जैसी फिल्में जिंदल और मित्तल जैसी कंपनियों से लड़ रहे आंदोलनकारियों को ऊर्जा प्रदान करती हैं.

क्या भविष्य में फीचर फिल्म बनाने के बारे में भी सोचते हैं?

ना, कतई नहीं. उस बारे में तो कभी सोचते ही नहीं. जो कर रहा हूं, यदि उसे ही अच्छे से कर सकंू तो यही मेरे लिए ज्यादा होगा.

मोरानी भाइयों की अनकही कहानी

जब 2009 में करीम मोरानी 50 साल के हुए तो उनके जन्मदिन की पार्टी दो दिन तक चली. कहा जाता है कि पहले दिन शाहरुख खान और उनके खेमे के लोग आए और दूसरा दिन आमिर खान के नाम रहा. उनके एक पारिवारिक जानकार बताते हैं, ‘मोरानी हर कैंप का हिस्सा हैं.’

बीती 30 मई को मोरानी की जो तस्वीर अखबारों मंे दिखी उसके साथ छपी खबर बता रही थी कि उन्हें गिरफ्तार  करके न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है. उन पर यह आरोप लगा है कि द्रमुक के कलैनार टीवी को 200 करोड़ रुपये पहुंचाने में उन्होंने मदद की है और इसके बदले उन्हें छह करोड़ रुपये मिले हैं. मोरानी पर यह भी आरोप है कि घोटाले में रिश्वत की रकम किसके पास कैसे जानी है, इसका इंतजाम भी उन्होंने ही किया जिससे सरकारी खजाने को 180 करोड़ रुपये की चपत लगी.

इस हालिया विवाद के बाद एक बार फिर बॉलीवुड में मोरानी बंधुओं के रसूख की चर्चा होने लगी. करीम मोरानी के दो भाई और हैं- अली मोरानी और मोहम्मद मोरानी. सुपरस्टार शाहरुख खान को उनका बहुत अच्छा दोस्त बताया जाता है. बॉलीवुड के इनके दोस्तों की फेहरिस्त में आमिर खान, रानी मुखर्जी, रितिक रोशन, प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर और शिल्पा शेट्टी जैसे नाम भी शामिल हैं. मोरानी की दोस्ती की बात खबर बन रही है लेकिन इस बारे में लोगों को ज्यादा पता नहीं है कि आखिर मोरानी बॉलीवुड के लिए इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं.

मोरानी परिवार की पहली पीढ़ी ने 1937 में बड़े बेटे (दूसरे मोरानी बंधुओं के सौतेले भाई) के नाम पर आमिर मोरानी फायरवर्क्स की शुरुआत की. 2006 में इनमें बंटवारा हो गया. बड़े भाई के हिस्से में आमिर मोरानी फायरवर्क्स आया और दूसरे भाइयों ने मोरानी फायरवर्क्स चलाना शुरू कर दिया. इससे पहले पारिवारिक कारोबार जमने के बाद मोरानी बंधु निर्देशक बंटी सूरमा के साथ मिलकर 1980 के दशक में बॉलीवुड में कदम रख चुके थे और उन्होंने सिनेयुग फिल्म्स की शुरुआत की थी. हालांकि, इनके सौतेले भाई इस काम में शामिल नहीं थे. 1997 में उन्होंने सिनेयुग इंटरटेनमेंट की शुरुआत की. इनकी कई शुरुआती फिल्मों में इनके अच्छे मित्र रहे सन्नी देओल ने काम किया. मोरानी बंधुओं और सन्नी देओल ने एक ही स्कूल जमनाबाई नरसी में पढ़ाई की है. इस स्कूल में बॉलीवुड की कई और हस्तियों के बच्चे भी पढ़ते थे. इन लोगों ने अर्जुन, वर्दी, दामिनी और राजा हिंदुस्तानी जैसी फिल्में बनाईं. अफवाह तो यह भी है कि जब 2002 में हार्ट अटैक से सूरमा की मौत हुई तो इसके बाद करीम को भी दिल का दौरा पड़ा और फिर इस वजह से ही फिल्म निर्माण का काम रुक गया. हालांकि सिनेयुग इंटरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड ने इवेंट मैनेजमेंट कंपनी के तौर पर कुछ बड़े लाइव शो और अवार्ड समारोह आयोजित करवाकर इस पेशे में चोटी की जगह हासिल कर ली.

इस उद्योग के जानकार करीम की गिरफ्तारी के बावजूद मोरानी बंधुओं को सर्वश्रेष्ठ इवेंट मैनेजर मानते हैं. सिनेयुग कई सालों से फिल्म फेयर अवॉर्ड आयोजित कर रही है. इन लोगों ने 2004 का टेंपटेशन वर्ल्ड टूर भी आयोजित कराया. इसमें शाहरुख खान, प्रीति जिंटा, प्रियंका चोपड़ा और रानी मुखर्जी शामिल थे. मोरानी बंधुओं ने हर्षद मेहता के बेटे की शादी के आयोजन की जिम्मेदारी भी संभाली थी जिसमें 7,000 मेहमान आए थे. सिनेयुग ने सैफ अली खान और करीना कपूर के शारजाह के शो का भी आयोजन किया और 2009 में दक्षिण अफ्रीका में इंडियन प्रीमियर लीग के समापन समारोह का भी.

मोरानी बंधुओं ने अभिनेत्रियों का भरोसा जीता. उन्होंने इवेंट मैनेजमेंट जैसे कारोबार को एक अलग साख दी

बॉलीवुड में मोरानी बंधुओं की साख इसलिए है कि इन्होंने बिना साख वाले इवेंट मैनेजमेंट के काम में पेशेवर रुख अपनाया. फिल्म लेखिका  अनुपमा चोपड़ा कहती हैं, ‘वे यहां लंबे समय से हैं और उन्हें उनकी कार्यक्षमता के लिए जाना जाता है.’ फिल्म समीक्षक भावना सोमैया का मानना है कि इनके शो में कोई कमी नहीं होती. महिला कलाकारों का भरोसा जीतने के मामले में मोरानी सबसे आगे रहे. उन्होंने अभिनेत्रियों को यह यकीन दिलाया कि विदेशों में शो करने में कोई जोखिम नहीं है. कलाकारों के लिए बिना किसी हायतौबा के वीजा का बंदोबस्त किया गया और यह भी सुनिश्चित किया गया कि कई कलाकारों वाले टूर में भी हर कलाकार को पर्याप्त समय मिले.

बॉलीवुड में कोई भी औपचारिक तौर पर मोरानी बंधुओं के खिलाफ कुछ बोलने को तैयार नहीं है क्योंकि सभी को लगता है कि ये भाई जल्द ही कारोबार में लौटेंगे. कहा जाता है कि मोरानी फिल्मी कलाकारों के चहेते इसलिए हैं कि उन्होंने फिल्मी कलाकारों को अमीर बनाने का काम किया. मोरानी पर यह आरोप भी लगा कि उन्होंने हवाला के जरिए फिल्मी कलाकारों को विदेशों की कमाई देश से बाहर रखने में मदद की.

मोरानी बंधुओं को राजसी जिंदगी जीने और बड़ी पार्टियां आयोजित करने के लिए जाना जाता है. सभी भाई जुहू जैसे महंगे इलाके में एक बहुमंजिली इमारत में रहते हैं. इनके बारे में कई लोग कई बातें बताते हैं. जैसा कि इनके एक जानकार बताते हैं, ‘अगर आप शाहरुख खान से मिलना चाहते हैं तो सीधे मोरानी बंधुओं से बात कीजिए. शाहरुख जिस भी शादी और शो में शिरकत करते हैं उसका आयोजन मोरानी बंधु ही करते हैं. आईपीएल के दौरान भी मोरानी उनके साथ थे. इनका उनके घर में रोज का आना-जाना है.’ एक दूसरे जानकार बताते हैं, ‘करीम की पत्नी जारा समेत सभी मोरानी बंधुओं की पत्नियां गौरी खान की तरह ही कपड़े पहनती हैं. उनके हैंडबैग और जूतियां भी एक ही ब्रांड की होती हैं.’

दि मेकिंग ऑफ अशोका और स्टिल रीडिंग खान लिखने वाले और पटकथा लेखक मुस्ताक शेख कहते हैं, ‘मैं उन्हें लंबे समय से जानता हूं और मुझे नहीं लगता कि वे कोई अति कर रहे हैं. अगर कोई अवसर होता है तो वे पार्टी करते हैं. इसमें बुरा क्या है? करीम एक अच्छे इंसान हैं. सब लोग उन्हें आजकल इसलिए निशाना बना रहे हैं कि वे अभी मुश्किल में हैं.’ शेख कहते हैं, ‘उन्होंने स्टेज शो को बहुत बढ़िया बना दिया है और कई कलाकारों को एक मंच पर लाने का काम किया है. पहली बार ऐसा प्रयोग करने का साहस इन लोगों ने जुटाया, इसलिए ये इस क्षेत्र में सबसे आगे हैं. ऐसी सफलता तब मिलती है जब लोग आप पर भरोसा करते हैं. कुछ मौके तो ऐसे भी होते हैं जब फिल्मी कलाकार यह कहते हैं कि अगर मोरानी बंधु शामिल हैं तब ही वे शो करेंगे.’ करीम के सौतेले भाई अमीर मोरानी कहते हैं, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन करीम ऐसे कामों में शामिल नहीं हो सकता. वह बेहद समझदार और खुदा से डरने वाला इंसान है.’
बॉलीवुड में मोरानी के अंडरवर्ल्ड और खास तौर पर दाऊद इब्राहिम से संबंध होने की चर्चा भी चलती रही है. हालांकि इसका कोई सबूत नहीं है. विवाद उनके लिए नयी बात भी नहीं है. कुछ समय पहले जी अवॉर्ड्स के आयोजन के दौरान अमर सिंह के साथ मोरानी का झगड़ा बड़ा चर्चित रहा था. कहा जाता है कि अमिताभ बच्चन को बैठने की जो जगह दी गई थी उससे अमर सिंह नाराज थे और उन्होंने करीम को थप्पड़ जड़ दिया था. कुछ लोग यह भी कहते हैं कि यह थप्पड़ जी समूह के कर्ताधर्ता सुभाष चंद्रा ने मारा था. कहा तो यह भी जाता है कि बाद में सुब्रत सहारा ने भी मोरानी का बहिष्कार कर दिया.

करीम मोरानी शाहरुख खान की फिल्म रा-वन के कार्यकारी निर्माता हैं. शाहरुख ने भी दोस्ती निभाते हुए करीम की बेटी जोया को अपने बैनर रेड चिल्लिज के तहत ऑलवेज कभी कभी के जरिए लॉन्च किया. हाल ही में मुंबई के एक अखबार से बात करते हुए वे इस बारे में चर्चा होने पर लगभग बिफर पड़े और बोले, ‘हां, है दोस्त (मोरानी). तो जान ले लोगे क्या? आप करीम को सजा देंगे या दोस्त होने के नाते मुझे. हां, हम दोस्त थे और हैं. कानून के तहत जो किया जाना है वह किया जाना चाहिए.’ सलमान भी मोरानी बंधुओं के समर्थन में सामने आ गए. उनका कहना था, ‘मैंने मोरानी के साथ सालों से काम किया है और जब तक गुनाह साबित नहीं होता तब तक वे बेगुनाह हैं.’

सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी  तहलका को बताते हैं कि करीम चाहते तो जेल जाने से बच सकते थे. करीम की भूमिका छोटी थी, इसलिए सीबीआई ने गवाह बनने का विकल्प उन्हें दिया था लेकिन करीम ने इस बात पर जोर दिया कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया. काफी प्रयास करने के बावजूद मोरानी बंधुओं से संपर्क नहीं हो पाया.

अभी ऐसा लगता है कि करीम के लिए वक्त थोड़ा मुश्किल चल रहा है. यह संभव है कि करीम के सारे कारोबार और इससे संबंधित दस्तावेजों की जांच हो. ऐसा होता है तो कई बॉलीवुड कलाकारों के दस्तावेजों की भी पड़ताल होगी. बॉलीवुड की स्थिति को शेख समझाते हैं, ‘यहां लोग स्टूडियो और थिएटर की दीवारों के बीच रहने के अभ्यस्त हैं. ऐसे में जब भी ऐसा कुछ होता है लोग घबरा जाते हैं. ऐसा संजय दत्त और शाइनी आहूजा के साथ हुआ. जल्द ही सब ठीक हो जाएगा. वे अच्छे पेशेवर हैं और एक बार जब वे काम करना शुरू करेंगे तो सब कुछ सामान्य हो जाएगा. कहते भी हैं न, शो मस्ट गो ऑन.’

ठुमकों का नया ठौर

यह सुनकर कोई भी चौंक सकता है कि बॉलीवुड के कोरियोग्राफर अब फिल्मी दुनिया की बजाय टेलीविजन में डांस का भविष्य देख रहे हैं. कई महत्वाकांक्षी डांसरों की पहली पसंद टेलीविजन बन गया है. बॉलीवुड में सर खपाने की बजाय डांसर समय-समय पर आयोजित होने वाले शो में भागीदारी और बच्चों को ट्रेनिंग देने को तरजीह दे रहे हैं.

डैनी फर्नांडिस, कुंजन जानी और सैवियो बार्नेस ने दस साल पहले तब डांसिंग शुरू की थी जब वे किशोर थे. इन लोगों ने काम की शुरुआत सहयोगी डांसर के तौर पर की. उन्होंने फराह खान और सरोज खान जैसे नामी कोरियाग्राफरों के साथ काम किया. इन लोगों ने खुद म्यूजिक वीडियो कोरियोग्राफ भी किया. पर हमेशा इनका लक्ष्य यह रहा कि कभी असली मौका मिलेगा. दूसरी चीजों की तरह बॉलीवुड में कोरियोग्राफी का मौका भी कुछ किस्मत के धनी और पहुंच वाले लोगों को ही मिलता है. पिछले कुछ सालों से इन लोगों ने बॉलीवुड से उम्मीद रखना छोड़ दिया. नच बलिये के पहले सीजन के विजेताओं में शामिल ये लोग एक बार फिर से रियल्टी टेलीविजन पर आयोजित होने वाले डांस कार्यक्रमों में हिस्सा ले रहे हैं. इस तिकड़ी ने बॉलीवुड का मोह इसलिए भी छोड़ा कि इसे पता चल गया था कि वहां क्या होता है. ये तीनों जो कहते हैं उसका लब्बोलुआब यह है कि नये प्रयोग करने की बजाय बॉलीवुड में किसी अमेरिकी पॉप गाने में दिखने वाले डांस की नकल कर ली जाती है. इसलिए कि इसकी जिद करने वालों को यह सुरक्षित विकल्प लगता है.

जब हम इनसे मिले तो यह तिकड़ी डांस के सुपरस्टार्स के लिए एक गाने को कोरियोग्राफ कर रही थी. डैनी का कहना था, ‘हमने इस गाने पर प्रस्तुति के लिए भावना और मयूरेश को इसलिए चुना कि इन दोनों ने पहले भी हवा में उछलने वाली प्रस्तुतियां दी हैं. मयूरेश एक योग्य मल्लखंभ डांसर है.’ मल्लखंभ भारतीय मार्शल आर्ट का एक प्रकार है और इसमें खंभे और रस्सी के सहारे प्रस्तुति दी जाती है. भावना और मयूरेश हवा में जिस तरह से नाचते हैं उसे डैनी ‘सिल्क क्लॉथ एेक्ट’ कहते हैं. क्योंकि छत से लटक रहे सिर्फ दो सिल्क पैनलों की मदद से दोनों अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं. यह प्रस्तुति जितनी अच्छी लगती है उतनी ही खतरनाक भी. इसके अलावा इसमें काफी मेहनत की झलक भी मिलती है.

प्रेरणा के लिए यह तिकड़ी एस्टड डेबो जैसे बड़े और आधुनिक कोरियोग्राफरों की तरफ देखती है लेकिन आम तौर पर यह यूट्यूब पर मुख्यधारा के कलाकारों के वीडियो पर भी काफी गौर करती है. मैडोना, जस्टिन टिंबरलेक और अशर के वीडियो खास तौर पर इन्हें पसंद हैं, खासकर हिपहॉप की प्रेरणा लेने के लिए. उनका सपना एक ऐसी विशाल नृत्य नाटिका बनाने का है हिपहॉप और पॉप नृत्य शैली के अलावा हवा और पानी में ढेर सारी कलाबाजियां देखने को मिलें.

क्या युवा और प्रतिभाशाली कोरियोग्राफरों को मौका नहीं देकर बॉलीवुड खुद को डांस के मामले में जड़ता की ओर ले जा रहा है? टेरेंस लेविस तो ऐसा ही मानते हैं. पिछले 15 साल से डांसिंग का प्रशिक्षण देने वाले लेविस ने कुछ फिल्मों की कोरियाग्राफी भी की है. इनमें रामगोपाल वर्मा की नाच भी शामिल है. लेविस अभी कोरियाेग्राफी तो करते ही हैं साथ में जी टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘डांस इंडिया डांस’ में जज की भूमिका में भी हैं. शिकायती लहजे में वे कहते हैं, ‘या तो हमें नये लोगों की जरूरत है या फिर ऐसे स्थापित कोरियोग्राफरों की जो अपनी सुविधा को छोड़कर अलग प्रयोग कर सकें. कोरियोग्राफरों को अपने प्रदर्शन का दायरा बढ़ाना चाहिए और कलाकारों को भी रिहर्सल करने और नयी चीजों को सीखने के लिए कहना चाहिए. आजकल लोग नहीं नाचते हैं बल्कि यह काम कैमरा करता है.’ लेविस आगे कहते हैं, ‘मुझे टेलीविजन पर जो सफलता मिली, उससे मुझे संतुष्टि मिलती है क्योंकि यहां काफी प्रयोग की गुंजाइश है और नयी प्रतिभाओं को देखने का मौका मिलता है. टीवी पर डांसिंग का स्तर काफी ऊंचा होता है.’ वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि अब उन्हें कभी-कभार ही फिल्मों में काम का मौका मिलता है. लेविस बताते हैं , ‘ज्यादातर समय मेरे पास काम नहीं होता. क्योंकि मैं समकालीन नृत्य को लेकर कुछ प्रयोग करना चाहता हूं लेकिन इसके लिए रिहर्सल करने वाला कलाकार भी तो चाहिए.’

लेविस का असंतोष इस बात को साबित करता है कि स्थापित कोरियाग्राफरों को भी अब बॉलीवुड में बने रहने के लिए अपनी क्रिएटिविटी की कुर्बानी देनी होगी. हालांकि, बॉलीवुड में कुछ ऐसे लोग हैं जो सब कुछ सही होने का दंभ भर रहे हैं. स्लमडॉग मिलेनियर के ‘जय हो’ से नाम कमाने वाले लांगिनस फर्नांडिस इन्हीं लोगों में से एक हैं. वे कहते हैं, ‘दर्शक ही तय करते हैं कि क्या हिट होगा. झटके इसलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि लोग इन्हें पसंद करते हैं. बॉलीवुड की मानसिकता को समझना जरूरी है. शायद सौ में कोई एक इसे समझ पाता है.’

फर्नांडिस खुद के व्यावहारिक बनने के पीछे की कहानी भी बताते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं मोक्ष फिल्म के लिए ‘जानलेवा’ गाना कोरियाग्राफ कर रहा था और इसमें मैं बरछी का इस्तेमाल करना चाहता था. मैं चाहता था कि डांसर्स इसे खास ढंग से इस्तेमाल करें. पर मुझे बताया गया कि ऐसा करने के लिए पर्याप्त समय नहीं है. इसके बाद हमने सिर्फ छोटे-छोटे ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल किया. इसी गाने में मैं चाहता था कि अर्जुन रामपाल एक जटिल डांस स्टेप करें लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें ज्यादा वक्त चाहिए. हमारे पास वक्त था नहीं और मैं जैसा चाह रहा था, वैसा हुआ नहीं. हालांकि, यह गाना बहुत अच्छा बना लेकिन उस दिन मुझे यह अहसास हुआ कि आप सब कुछ नहीं चाह सकते. आपको समझौता करना पड़ेगा. अगर ऋतिक रोशन जैसा अभिनेता हो तो मैं अपनी कोरियोग्राफी में सारे प्रयोग कर सकता हूं.’

बॉस्को-सीजर कोरियोग्राफर युगल ने थ्री इडियट्स, लव आज कल और जब वी मेट के लिए काम किया है. इस जोड़ी के बॉस्को थोड़े उम्मीद से भरे हुए हैं. उनका कहना है, ‘बॉलीवुड में कोई नियम नहीं है. इसलिए आप हर तरह के प्रयोग कर सकते हैं. पर कलाकारों और समय की अपनी सीमा है. हम गानों में ऐसे स्टेप इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं जो लोगों को अच्छे लगें या फिर पुराने तरीके पर ही निर्भर रहते हैं. इसका मकसद यह है कि डांस लोगों को पसंद आए और लोग झूमें.’ डांस स्टेप जितने सरल होंगे उतना ही अधिक लोग इसे पसंद करेंगे. क्योंकि लोग किसी गाने के डांस स्टेप को इस आधार पर पसंद या नापसंद करते हैं कि वे अगली पार्टी में उस डांस स्टेप को खुद कर सकते हैं या नहीं.

हर कोई वादा करता है कि एक बार मौका मिलने पर वे सब कुछ बदल देंगे. यह बात इनसे पहले भी बहुत लोगों ने कही थी. उम्मीद है कि नये लोग अपना वादा निभाएंगेबॉस्को की राय से गीता कपूर भी सहमति जताती हैं. कपूर ने साथिया और कभी खुशी कभी गम जैसी फिल्मों के लिए कोरियोग्राफी की है. उन्होंने लंबे समय तक फराह खान के साथ भी काम किया है. शीला की जवानी में भी कपूर फराह की सहयोगी थीं. वे कहती हैं, ‘कोरियोग्राफरों को बड़े या छोटे बैनर की चिंता नहीं करनी चाहिए. जो भी काम मिले कर लेना चाहिए. मैंने कई बड़े बैनरों के साथ काम किया है लेकिन कई बार मुझे क्रेडिट तक नहीं मिला. मैं अक्सर कोई गाना करने से इनकार कर देती हूं क्योंकि हर कोई शीला जैसा कुछ चाहता है. ऐसे में वे ऐसे कोरियाेग्राफर के पास जाते हैं तो मुझसे आधी कीमत पर मेरे काम की नकल कर दे. क्या यह ठीक है?’ यह पूछे जाने पर कि क्या वे फॉर्मूला चलन को बदलना पसंद करेंगी, गीता जवाब देती हैं, ‘इसे क्यों बदलना है? फॉर्मूला चलता है. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे किसी की क्रिएटिविटी पर कितना बुरा असर पड़ता है.’

टीवी आजकल पैसे के साथ-साथ पहचान भी दे रहा है. एक दिन के टीवी शूट के लिए 50,000 रुपये से 1.5 लाख रुपये तक मिल रहे हैं. आपको जो भी पसंद हो वह चुन सकते हैं. यहां डांस इंडिया डांस में खुद प्रस्तुति देने का विकल्प है तो झलक दिखला जा में किसी सेलीब्रिटी को कोरियोग्राफ करने का विकल्प भी है. डांस पर आधारित टेलीविजन कार्यक्रमों का जादू खत्म होता नहीं दिख रहा. खास तौर पर ऐसे समय में जब ऋतिक रोशन जस्ट डांस के जरिए टेलीविजन की दुनिया में कदम रखने जा रहे हैं. डांस इंडिया डांस बनाने वाले जी के वरिष्ठ क्रिएटिव निदेशक (नॉन फिक्शन) रंजीत ठाकुर कहते हैं, ‘डांस इंडिया डांस मौलिक काम के लिए एक प्लेटफॉर्म है. चूंकि बॉलीवुड में काफी कुछ दांव पर लगा होता है इसलिए निर्देशक और निर्माता नये लोगों को मौका देने से हिचकते हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘टेलीविजन की वजह से कई कोरियोग्राफरों को पहचान मिली है. छोटे शहरों में उनके पीछे लोग भागने लगे हैं. उन्हें काफी पैसा मिल रहा है और वह भी समय पर. सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी क्रिएटिविटी को जगह मिल रही है. ऐसे में आखिर क्यों वे बॉलीवुड में जाना चाहेंगे?’

इससे ऐसा लगता है कि बॉलीवुड को नुकसान होने लगा है. नामी कोरियोग्राफर रहे गोपी कृष्णा की बेटी और ‘झलक दिखला जा’ की उपविजेता रही शांपा सोंथालिया टेलीविजन पर ही काम करते रहना चाहती हैं. वे बताती हैं, ‘यहां मुझे डांसिंग में कई तरह के प्रयोग करने के अवसर मिल रहे हैं. मुन्नी और शीला की मैं प्रशंसक हूं लेकिन बॉलीवुड में आइटम नंबर में अब कुछ नया नहीं है.’

ज्यादातर कोरियोग्राफर सबसे बड़ी बाधा बॉलीवुड के कलाकारों को मानते हैं. कोरियोग्राफरों का कहना है कि कलाकार उन कोरियोग्राफरों के साथ ही काम करना चाहते हैं जो बिना अधिक मेहनत के उन्हें अच्छा दिखा सकें. कुंजन कहते हैं, ‘गोविंदा सिर्फ गणेश हेगड़े के साथ काम करते हैं और अभिषेक बच्चन वैभवी मर्चेंट के साथ.’ कोरियोग्राफर और डांस का प्रशिक्षण देने वाली सारिका शिरोडकर कहती हैं, ‘शाहिद कपूर बहुत अच्छा डांस करते हैं. पर अब उनके सारे डांस स्टेप एक जैसे ही लगते हैं क्योंकि वे अहमद खान के अलावा किसी और के साथ काम ही नहीं करते. वहीं सभी अभिनेत्रियां एक ही आइटम सांग करते रहना चाहती हैं.’

गीता कपूर भी यह मानती हैं कि बॉलीवुड में ज्यादातर कलाकार डांस नहीं कर रहे क्योंकि उनमें उसके लिए जरूरी काबिलियत ही नहीं है. उनके मुताबिक उन्हें डांस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत भी नहीं क्योंकि सारा काम कोरियोग्राफर और कैमरा कर देता है. कपूर कहती हैं, ‘मुझे डांस इंडिया डांस इसलिए पसंद है कि यहां मुझे उन नये लोगों के साथ काम करने का मौका मिल रहा है जो प्रयोग के लिए तैयार हैं. अगर कैटरीना कैफ और रानी मुखर्जी जैसे मेहनती कलाकार हों तो मैं कुछ तकनीकी प्रयोग करना पसंद करती हूं. ज्यादातर कलाकार आसान डांस स्टेप चाहते हैं.’

प्रशिक्षण और रियल्टी शो की ओर रुख करने के बावजूद अब भी बॉलीवुड का ख्वाब कई लोगों ने नहीं छोड़ा है. यही बॉलीवुड की खासियत है. कुंजन का सपना फिल्मफेयर पुरस्कार पाना है. अगर यह पाने के लिए फॉर्मूला पर चलना पड़ा तो इसके लिए वे तैयार हैं. ज्यादातर लोग कहते हैं कि अगर एक बार उन्हें अच्छा मौका मिला तो बाद में वे सब कुछ बदल देंगे. यह बात इनसे पहले भी बहुत लोगों ने कही थी. उम्मीद यही है कि कोई अपना वादा निभाए.

भारतीय लोकतंत्र के नाजी पहरुए

घायल मुस्तफा के शरीर पर एक पुलिसवाला जब लांग जंप, हाई जंप लगाते हुए तरह-तरह की स्टंटबाजी और कलाबाजियां दिखाता है तो वह क्रूरतम पुलिसिया स्टंट मानवीय संवेदना को गहराई तक चोट पहुंचाता है. मुश्किल से दो मिनट के वीडियो फुटेज के इस दृश्य की भयावहता ही ऐसी है कि इसे देखने का असर कई दिनों तक मन-मस्तिष्क पर बना रह सकता है. फिर भजनपुर के लोगों ने तो इसे अपनी नंगी आंखों से देखा था. मुस्तफा के पिता फटकन अंसारी तहलका से बातचीत के क्रम में बेटे की मौत की चर्चा छेड़ते ही जोर-जोर से रोने लगते हैं. कहते हैं, ‘किसने मारा, क्यों मारा, क्या होगा आगे, इन सवालों का क्या जवाब दूं. मेरा बेटा तो नहीं लौट सकता न! ‘ इतना कहकर वे फिर बात करने की स्थिति में नहीं रहते. जबान बंद हो जाती है.

मातमी सन्नाटे में डूबे भजनपुर में फटकन की तरह कइयों की जुबान अभी ऐसे ही बंद है क्योंकि केवल मुस्तफा के साथ ही ऐसा नहीं हुआ था. तीन जून को पुलिस की गोलियों और कुकृत्यों ने एक साथ चार जिंदगियों को खत्म कर दिया था. इनमें एक गर्भवती महिला भी शामिल थी, एक सात-आठ माह का बच्चा भी. आने-जाने के लिए एक रास्ते की मांग या जिद कई जिंदगियों के रास्ते बंद कर देगी, इसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की होगी!

भजनपुर बिहार के सीमांचल के अररिया जिले के फारबिसगंज का एक गुमनाम-सा गांव है. गांव के नाम पर गौर करें तो यह साझी संस्कृति की अनोखी पहचान का अहसास कराता है. लेकिन यह सब अहसास भर की बात है. फिलहाल बिहार के एक बेहद पिछड़े जिले का यह गांव सांप्रदायिक राजनीति का सबसे बड़ा अखाड़ा बना हुआ है. तीन जून को इस गांव में पुलिस की गोली से मारे गए चारों लोग अल्पसंख्यक समुदाय के थे. अररिया जिले को केंद्र सरकार ने देश के 90 जिलों की उस विशेष सूची में स्थान दिया है जो निर्धनता और पिछड़ेपन के शिकार अल्पसंख्यक समुदाय के लिए विशेष कल्याणकारी योजना चलाने के लिए है.

एक कड़वा सच यह भी है कि यदि मुस्तफा के शरीर के साथ क्रूरता से खेलते पुलिसवाले की वीडियो क्लिपिंग बनी और जारी नहीं हुई होती और मामला राजनीतिक नहीं होता तो पुलिसिया कार्रवाई की इस नृशंस घटना का भी वही हश्र हुआ होता जैसा कि इसी अररिया जिले में 17 दिसंबर, 2010 को घटी एक इतनी ही नृशंस घटना का हुआ था. सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल बताते हैं कि कुरसाकाटा ब्लॉक के बटराहा गांव में उस रोज अर्धसैनिक बल के कुछ जवानों ने महिलाओं से छेड़खानी की थी. सुबह विवाद निपटाने के नाम पर लोगों को इकट्ठा किया गया. फिर पुलिस फायरिंग हुई जिसमें तीन महिलाओं और एक पुरुष की मृत्यु हो गई. अरशद कहते हैं, ‘ऐसी कई पुलिस कार्रवाइयां दफन होकर रह जाती हैं.’

भजनपुर में पुलिस फायरिंग की यह उग्र घटना एक रास्ते को लेकर हुई. वहां एक रास्ते का इस्तेमाल ग्रामीण पिछले 60 साल से कर रहे थे. उस गांव के पास ग्लूकोज व स्टार्च फैक्टरी लगाने के लिए बिहार इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी यानी बियाडा ने सुंदरम इंटरनेशनल कंपनी को 36.65 एकड़ जमीन मुहैया कराई. जमीन पर निर्माण कार्य शुरू होने के बाद ग्रामीण उपयोग का वह रास्ता कंपनी के अधिकार क्षेत्र में आ गया. कंपनी ने रास्ते की घेराबंदी शुरू की. विवाद शुरू हुआ. जानकारी के अनुसार, एक जून को सड़क का बंदोबस्त कहीं और किए जाने के सवाल पर ग्रामीणों और कंपनी प्रबंधन के बीच समझौता भी हुआ, लेकिन तीन जून को सारे समझौते धरे रह गए और जो कुछ हुआ वह अब फारबिसगंज गोली कांड के रूप में स्थापित हो चुका है.

इस कांड के बाद भजनपुर में आसपास के दर्जन भर थानाध्यक्षों, तीन-चार आईपीएस अधिकारियों, कई प्रशासनिक अधिकारियों का जमावड़ा लगा. गुमनाम गांव कैंप में तब्दील हो गया. पुलिस की ओर से कहा गया कि ग्रामीणों ने पथराव किया, मशीनों को आग के हवाले किया, अपने-अपने घरों से हथियार और असलहे निकाल पुलिस पर गोलियां चलाईं तो आत्मरक्षार्थ पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं. पुलिस जितनी आसानी से यह तर्क देकर धैर्य टूट जाने का सबब बता रही है, मामला उतना आसान नहीं. आत्मरक्षार्थ लाठियां चलाई जाती हैं. कभी-कभी गोलियां भी. लेकिन घायल मुस्तफा के शरीर पर जिस सनक के साथ एक पुलिसवाला नृशंसतापूर्वक कूद-फांद कर रहा था, उसको कैसे जायज ठहराया जा सकता है?

सुंदरम कंपनी के निदेशक मंडल में भाजपा के विधान पार्षद अशोक अग्रवाल के पुत्र भी शामिल हैं. अग्रवाल राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के काफी करीबी माने जाते हैंजिस सुंदरम इंटरनेशनल कंपनी द्वारा भजनपुर के पास ग्लूकोज व स्टार्च फैक्टरी लगाई जा रही है, उसके निदेशक मंडल में भाजपा के विधान पार्षद अशोक अग्रवाल के पुत्र सौरव अग्रवाल भी शामिल हैं. अग्रवाल राज्य के उपमुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी के काफी करीबी माने जाते हैं, इसलिए अग्रवाल के साथ-साथ सीधे निशाने पर मोदी को भी लिया जा रहा है. मोदी ने अब तक इस घटना पर खुलकर कुछ नहीं कहा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इस घटना की न्यायिक जांच के आदेश देने के बाद अपने नियमित कार्यक्रम में लग गए हैं. सात दिन बाद मानवीय आधार पर सात-आठ माह के बच्चे नौशाद अंसारी के परिजनों को तीन लाख रुपये देने की घोषणा हुई. गृह सचिव आमिर सुबहानी ने घटना के बाद कहा कि जब कंपनी और ग्रामीणों के बीच रास्ते को लेकर समझौता हो गया था तो अचानक ग्रामीण उग्र कैसे हुए, इसकी जांच भी प्राथमिकता से होगी. सुबहानी का इशारा स्थानीय छुटभैये नेताओं और कुछ दलालों के बहकावे की ओर है.

भजनपुर घटना के बाद विपक्षी राजनीतिक दलों ने जुबानी जंग तेज कर दी है. इलाके का भ्रमण करके लौटे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष महबूब अली कैसर ने मुआवजे की मांग करते हुए 23 जून से प्रदर्शन व आंदोलन की बात कही है. माकपा ने 14 जून से आंदोलन चलाने की घोषणा की है. विपक्षी दल ही नहीं, नीतीश के खुद के साथी भी इस मामले में आलोचना कर रहे हैं. सीमांचल इलाके के चर्चित व वरिष्ठ जदयू नेता तसलीमुद्दीन इसे प्रशासनिक चूक बता रहे हैं लेकिन तसलीमुद्दीन की बातों से उनके ही दल के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शायद इत्तेफाक नहीं रखते, वरना एक ही दिन में पुलिसिया गोली से चार अल्पसंख्यकों को मार दिए जाने की घटना को इतनी सहजता से नहीं लेते.

सीएम नीतीश कुमार खुद तो इस मामले में ज्यादा नहीं बोल रहे लेकिन विरोधियों के बयान तेज होने के बाद उनकी ओर से कमान संभालते हुए जदयू के प्रवक्ता सह सांसद शिवानंद तिवारी विरोधियों के स्वर को दूसरी जगह से जोड़ते हैं. वे कहते हैं कि पूर्णिया उपचुनाव को ध्यान में रखकर फारबिसगंज कांड को बैसाखी बनाने की जुगत में कांग्रेस और राजद जैसे दल लगे हुए हैं. जो दल यह कह रहे हैं कि अल्पसंख्यकों से जुड़ा मामला होने की वजह से पुलिस ने ऐसा क्रूर रवैया अख्तियार किया, ऐसा कहने वाले विकलांग और सांप्रदायिक मानसिकता के लोग हैं. तिवारी कहते हैं कि जांच चल रही है, उसके पहले मुआवजा देना कहीं से भी वैधिक नहीं होगा. सात माह के बच्चे के नाम पर मुआवजा इसलिए दिया गया कि उस छोटे बच्चे की भूमिका इसमें कहीं से भी नहीं हो सकती थी.

शिवानंद तिवारी जदयू के हैं, नीतीश के सिपहसालार माने जाते हैं इसलिए वह इसी तरह की बात करेंगे, लेकिन राजनीति का आकलन करने वाले इसे दूसरे नजरिये से भी देख रहे हैं. भाजपा के साथ रहते हुए भी अल्पसंख्यकों के मामले में अलग राजनीतिक स्टैंड रखने वाले नीतीश कुमार यदि पुलिस द्वारा चार अल्पसंख्यकों के मारे जाने के सवाल पर भी चलताऊ रवैया अपनाते दिख रहे हैं तो रहस्य की इस राजनीति का खेल समझना इतना आसान भी नहीं है.

विरोधी दलों के साथ-साथ अब सामाजिक संगठन भी इस मामले में आगे आ चुके हैं. 10 जून को इस मसले पर प्रेस कांफ्रेंस करने फिल्मकार महेश भट्ट और अनहद संस्था की शबनम हाशमी भी पटना पहुंचीं. शबनम ने भजनपुर गांव जाकर, वहां की स्थितियों का अध्ययन करके एक रिपोर्ट तैयार की है. वे कहती हैं कि जिस तरह की कार्रवाई आरएसएस के इशारे पर गुजरात सरकार करती रही है, बिहार में भी वैसा ही हो रहा है. वे चुनौती देते हुए कहती हैं कि नीतीश कुमार यदि गुजरात वाले मोदी के साथ एक तसवीर लग जाने से हंगामा खड़ा कर देते हैं तो बिहार के अपने मोदी के संरक्षण में हो रहे कृत्यों पर क्यों चुप्पी साधे हुए हैं. शबनम यह सवाल भी पूछती हैं कि यदि ग्रामीण हिंदू समुदाय से होते तो क्या तब भी पुलिस इतनी ही बर्बर होती.

ऐसे ही सवालों-जवाबों और आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच भजनपुर का मामला पटना के राजनीतिक गलियारे में, चौपाली बहसबाजी में अठखेलियां खा रहा है. और इस सबके बीच भजनपुर के भुक्तभोगी मातमी सन्नाटे में डूबे हुए हैं. रफीक अंसारी, जिनका आठ माह का नाती नौशाद पुलिस की गोली का शिकार हुआ, कहते हैं, ‘मेरे बच्चे की कमर से दो गोलियां निकलीं. मैं जिंदगी भर उस दृश्य को नहीं भूल पाऊंगा.’ रफीक की बहू रहीना भी गंभीर रूप से घायल हुई हैं और फिलहाल पटना मेडिकल कॉलेज में भर्ती हैं. मोहम्मद शमशुल का 7 वर्षीय भतीजा मंजूर भी अस्पताल में भरती है. शमशुल कहते हैं, ‘हमें इंसाफ दिलवा दें मुख्यमंत्री जी, और गांव का भविष्य सुरक्षित रहे, यही मांग प्रमुख है.’

लेकिन नीतीश कुमार इस मामले पर फिलहाल कुछ ठोस कहेंगे या करेंगे, इसकी उम्मीद कम है. नीतीश जानते हैं कि यह मामला विकास से जुड़ा हुआ है. सुशासन ब्रांड बन चुका है, विकास को ब्रांड बनाना अभी बाकी है. यदि एक भजनपुर कांड को लेकर वे कोई घोषणा करेंगे तो कई भजनपुरा अभी बिहार में बनने बाकी हैं. हत्या के मामले में न सही, भूमि अधिग्रहण और कंपनियों की मनमानी के सवाल पर. मुजफ्फरपुर के मड़वन से लेकर औरंगाबाद के नबीनगर तक ऐसी लड़ाई पहले से ही अंगड़ाई ले चुकी है. मड़वन में भी पुलिस लोगों पर लाठियां बरसा चुकी है और नबीनगर में भी 14 जनवरी को पुलिस बल ने प्रदर्शन कर रहे ग्रामीणों को खदेड़-खदेड़ कर मारा था, जिनमें से एक की मौत हो गई थी.

फिर सरकारी तंत्रों को यह भी पता है कि विरोध के ऐसे स्वर लोगों के जेहन में ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रहते वरना विगत वर्ष भागलपुर में बिजली की मांग कर रहे तीन लोगों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर मार डाला था, उसे लेकर बाद में कहां कोई आंदोलन चल सका. औरंगजेब नामक एक शख्स को पुलिस ने मोटरसाइकिल में बांधकर घसीटते हुए स्पीडी ट्रायल की कार्रवाई भी चार साल पहले इसी बिहार में की थी. वह भी कोई कम दर्दनाक, हृदयविदारक घटना नहीं थी. गया में एक व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मौत पिछले माह ही हुई है. लेकिन उस मसले पर उठी आवाज गया में ही दबकर रह जाती है.

इतने पहले की बात छोड़ भी दें तो कुछ दिनों पहले ही छह जून को खगड़िया जिले के अलौली थाना क्षेत्र के अंतर्गत शुंभा गांव में जमीन विवाद को लेकर सैप के जवान ने दो बच्चों को गोली मारकर गंभीर रूप से घायल कर दिया, वह कहां चर्चा में है? उसके दो दिन पहले चार जून को गोपालगंज के हथुआ अनुमंडल के जादोपिपर गांव में लगे उर्स के मेले में तैनात बीएमपी के जवानों ने नशे में धुत होकर बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों पर जमकर लाठियां बरसाईं, पर उसका क्या हुआ? इससे एक दिन पहले तीन जून को और उसके पहले भी राजधानी पटना के अशोक राजपथ पर छात्रों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ाकर मारा.

पुलिसिया कार्रवाई अलग-अलग हिस्से में कुछ-कुछ इसी अंदाज में चल रही है. कह सकते हैं कि विपक्ष की राजनीति  करने वाले हवा-हवाई बातें करने में ही इतने गुम हैं कि वे इस तरह की घटनाओं पर नजर ही नहीं डालते वरना भजनपुर के पहले इसी अररिया में बटराहा गांव में तंत्र की क्रूर कार्रवाई पर सरकार की घेराबंदी हो सकती थी. या उसके बाद की कई घटनाओं पर भी.

बाबा, बवाल और कुछ जरूरी सवाल

तकरीबन महीना भर पहले की बात होगी. चिलचिलाती धूप में खड़े 20,000 से भी ज्यादा अनुयायियों के समूह को संबोधित करने के बाद बाबा रामदेव महाराष्ट्र के जलगांव से औरंगाबाद जा रहे थे. जैसे-जैसे यह खबर फैली कि रामदेव इस रास्ते से जा रहे हैं, वैसे-वैसे सड़क के किनारे लोगों का जमावड़ा शुरू हो गया. जगह-जगह लोग उनकी गाड़ी रोक लेते और एक झलक पाने के लिए कार की खिड़की के शीशे से आंखें सटा लेते. ऐसे ही एक पड़ाव पर रामदेव की कार रुकी. वे बाहर निकलकर कार की छत पर चढ़ गए. अपनी चिरपरिचित शैली में हाथ हिलाने और हंसने के बाद उन्होंने भीड़ की तरफ देखा और कहा, ‘चार जून, पता है न, उस दिन क्या करना है?’

सम्मोहित भीड़ ने एक स्वर में जवाब दिया, ‘हां.’

इसके बाद रामदेव फिर से कार में बैठ गए और आगे चल पड़े. बताया जाता है कि उन्होंने अपने सहयोगियों से कहा कि चार जून को जब उनका सत्याग्रह शुरू होगा तो पूरा देश पागल हो जाएगा. शायद ही उन्हें अंदाजा रहा हो कि यह पागलपन किस हद तक जाने वाला है. दरअसल शुरुआती दिनों से ही रामदेव इसे लेकर लेकर स्पष्ट लग रहे थे कि उनके अनशन का उद्देश्य क्या है. यह सिर्फ काले धन और भ्रष्टाचार से जुड़ा हुआ नहीं था. इसका लेना-देना मुख्यतः शक्ति प्रदर्शन से था और बाबा यह काम अपने सबसे बड़े हथियार यानी दो करोड़ समर्पित भक्तों के जरिए करना चाहते थे.

इसके बाद क्या हुआ वह तो सबको मालूम ही है. अब रामदेव के रहस्यमय योग साम्राज्य से संबंधित खबरों की बाढ़ है. राजनीतिक बयानबाजी और दो खेमों में बंटे नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चल रहा है. हर खेमे में यह साबित करने को लेकर रस्साकशी हो रही है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ असली लड़ाई कौन लड़ रहा है. यहीं यह जरूरत पैदा होती है कि अलग-अलग बयानों और परिस्थितियों के इस घालमेल से जो जटिल परिदृश्य उभर रहा है उसमें चीजों को अलग-अलग करके देखा जाए. सियासी और रामदेव के खेमे के दोहरे आचरण को, रामदेव के दो करोड़ अनुयायियों को अपने पाले में करने के लिए बोले जा रहे झूठ को, गुस्से में भरी जनता के पीछे के सच को और अन्ना हजारे से लेकर रामदेव तक मचे बवाल से अब तक क्या हासिल हुआ है, इसको भी. यह इसलिए भी जरूरी है कि कुछ चीजें स्पष्ट रूप से समझी जा सकें.  सबसे पहले झूठ की बात.

अगर रामदेव का आंदोलन सिर्फ भ्रष्टाचार के विरोध में था तो सरकार ने तो पहले ही उनकी मांगें मान ली थीं

जो भी बाबा रामदेव को टेलीविजन पर देखता होगा वह जानता होगा कि अतिशयोक्ति और झूठ उनके लिए नयी बात नहीं. मसलन कुछ समय पहले एक योग सत्र के बाद भीड़ में से एक महिला खड़ी हुई और बताने लगी कि उसके जीवन को बदलने में बाबा रामदेव का कितना बड़ा योगदान रहा. इस महिला ने कहा कि उसे पॉलीसिस्ट ओवरीज (प्रजनन तंत्र से जुड़ी एक बीमारी) थी और इस वजह से वह आठ साल से मां नहीं बन पा रही थी. महिला के मुताबिक इसके बाद उसने योग करना शुरू किया. इतने में रामदेव अपनी जगह से उठे और उन्होंने बताना शुरू किया कि यह बीमारी कितनी खतरनाक है और इसके लिए मेडिकल साइंस में कोई इलाज नहीं है. पर अगर आप इस बारे में किसी भी प्रसूति रोग विशेषज्ञ से पूछें तो आपको पता चल जाएगा कि यह बीमारी आज कितनी आम है और इसका इलाज बिल्कुल संभव है.

बाबा के राजनीतिक संबोधनों और खास तौर पर विदेशी बैंकों में जमा काले धन के बारे में बात करते हुए भी रामदेव आधे-अधूरे सच का सहारा लेते हैं. बाबा रामदेव लोगों को आसानी से काले धन का गणित समझाते हुए कहते हैं कि विदेशी बैंकों और कर पनाहगाहों में भारतीयों के कुल 400 लाख करोड़ रुपये जमा हैं और अगर यह पैसा वापस आ जाता है तो हर जिले को 60,000 करोड़ रुपये या दूसरी तरह से देखें तो हर गांव को 100 करोड़ रुपये मिलेंगे.

हाल ही में एक साक्षात्कार के दौरान तहलका ने रामदेव से पूछा कि अगर व्यवस्था पूरी तरह भ्रष्ट है तो विदेशों में जमा पैसा वापस आने के बाद भी इस बात की क्या गारंटी है कि आम लोगों तक पहुंचने से पहले यह फिर से भ्रष्टाचार की भेंट नहीं चढ़ जाएगा. इस पर बाबा ने जवाब दिया, ‘इसका सबसे बड़ा समाधान तो यही है कि हर व्यक्ति सुबह-सुबह योग करे और ध्यान लगाए. अगर कोई हर रोज अपने शरीर और दिमाग पर काम करता है तो उसके विचारों में इतनी शुद्धता आएगी कि वह किसी और को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहेगा. समाज के आध्यात्मिक स्तर को सुधारना बदलाव का अहम जरिया है.’

सवाल साफ था लेकिन जवाब गोल-मोल. काला धन वापस आएगा तो आम जनता तक उसका फायदा  कैसे पहुंचेगा, इस बारे में रामदेव के पास भी कोई स्पष्ट सोच नहीं थी. लेकिन उनके समर्थकों के लिए यह अहम नहीं था. उनके हिसाब से तो उनके गुरु एक जायज मांग कर रहे थे जिसका बिना सवाल समर्थन करना उनका फर्ज था.

चार जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव का सत्याग्रह शुरू होने के दो दिन पहले से ही उनके समर्थक जुटने लगे थे और कुछ ने तो एक दिन पहले से अनशन भी शुरू कर दिया था. इन्हीं लोगों में से एक थे गुजरात स्थित मेहसाणा के जगजीवन चोकसी. चोकसी 97 साल के हैं और उनका जन्मदिन चार जून को ही पड़ता है. चोकसी ने तय किया कि इस बार वह अपना जन्मदिन अपने गुरु के साथ अनशन करते हुए मनाएंगे. वे इससे अनजान थे कि उनके गुरु ने पहले ही सरकार के साथ समझौता कर लिया है. इसकी गवाही बाबा के सहयोगी बालकृष्ण के दस्तखत वाली चिट्ठी दे रही है. इस पत्र में रामदेव ने साफ-साफ कहा है कि उनकी सभी मांगों को सरकार ने मान लिया है इसलिए वे दो दिन का तप करेंगे. सरकार से हुए इस समझौते के बारे में बाबा ने रामलीला मैदान में एकत्रित अपने भक्तों को कुछ नहीं बताया.

बाबा ने सोचा कि अगर इंडिया अगेंस्ट करप्शन के अभियान के केंद्र में मैं नहीं हूं तो फिर मुझे खुद का इससे कहीं बड़ा अभियान खड़ा करना चाहिए

इसके बाद जब चार जून की शाम सरकार ने उनके पत्र को मीडिया के सामने रखा तो हमेशा मुस्कुराते रहने वाले रामदेव की भाव-भंगिमाएं बदल गईं. आक्रामक तेवरों के साथ उन्होंने दावा किया कि दस्तखत करने के लिए उन पर दबाव डाला गया और उन्हें ठगा गया. पर सच को छिपाने वाले सिर्फ रामदेव नहीं थे. केंद्र की संप्रग सरकार भी थी जिसने पहले तो अपने चार प्रमुख मंत्रियों को बाबा से मिलने हवाई अड्डे भेजकर उनसे अगले दो दिनों तक वार्ता की और इसके बाद अचानक अपना पैंतरा बदल लिया. चार केंद्रीय मंत्रियों के गिरोह में से सबसे ज्यादा बोलने का काम मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल कर रहे थे. जैसे-जैसे बाबा के साथ बातचीत आगे बढ़ी वैसे-वैसे शुरुआत में रक्षात्मक रवैया अपनाने वाले सिब्बल आक्रामक होते गए और खुद को सही साबित करने में लग गए. उन्होंने दावा किया कि बाबा को राजनीतिक रैली के लिए अनुमति नहीं मिली थी और न ही उन्हें इतनी बड़ी संख्या में लोगों को जुटाने के लिए मंजूरी दी गई थी.

जैसे-जैसे पांच जून को आधी रात को हुई पुलिसिया ज्यादती के बारे में जानकारी आती गई वैसे-वैसे झूठ का सिलसिला आगे बढ़ता गया. हरियाणा में योग का प्रशिक्षण देने वाली राजबाला उस रात पुलिसिया कार्रवाई में बुरी तरह से घायल हुईं और अभी वे राजधानी के लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच झूल रही हैं. उसी रात बुरी तरह घायल हुए सुनील कुमार ने तहलका को बताया कि मैदान के ज्यादातर बाहर निकलने वाले रास्तों को पुलिस ने बंद कर दिया था और हम कहीं भाग नहीं सकते थे. इसके बावजूद कार्रवाई के बाद कपिल सिब्बल ने इसे सही ठहराते हुए कहा कि पुलिसिया दमन के बारे में वे कुछ नहीं जानते. उन्होंने कहा कि गलती रामदेव की है क्योंकि उन्होंने अनुमति योग शिविर के लिए ली थी लेकिन वे इस तक ही सीमित नहीं रहे. उसी दिन कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने यह भी जोड़ दिया कि रामदेव एक ठग और धोखेबाज हैं.

अब इसे मुद्दा बनाकर सरकार पर हमला कर रही भाजपा की बात. ऊपरी तौर पर भले ही भाजपा पुलिसिया कार्रवाई की निंदा करके सरकार को घेरती दिखी हो मगर अंदरखाने से आ रही जानकारियों पर यकीन करें तो पार्टी का मानना है कि बाबा नौसिखिया तरीके से राजनीति कर रहे हैं. सूत्रों के मुताबिक पार्टी इससे चिंतित है कि बाबा एक तरफ तो सरकार के साथ समझौता कर चुके थे और दूसरी तरफ अपने समर्थकों को अनशन करने के लिए कह रहे थे. बताया जाता है कि इससे भी ज्यादा चिंतित करने वाली बात उनके लिए यह रही कि अपने समर्थकों को पुलिस की लाठियों के सामने अकेला छोड़कर बाबा ने महिला वेश में भागने की कोशिश की.

सवाल उठता है कि आखिर रामदेव का आंदोलन क्यों हुआ था. अगर यह सिर्फ भ्रष्टाचार के विरोध के लिए था तो सरकार ने तो आंदोलन शुरू होने से पहले ही मांगें मान ली थीं. ऐसे में इस सवाल का सही जवाब यही लगता है कि यह आंदोलन शक्ति प्रदर्शन के लिए था. किसी भी राजनीतिक दल के लिए देश भर के लाखों लोगों को एक जगह एकत्रित करना आसान नहीं है लेकिन बाबा में यह क्षमता है. इस सवाल का दूसरा पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है. आखिर सरकार रामदेव में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही थी? खास तौर पर तब जब वह खुद भ्रष्टाचार-निरोधी कानून का मसौदा तैयार कर रही थी. इसका जवाब भी यही है कि उसकी नजर रामदेव के समर्थन में खड़ी भीड़ पर थी.

दरअसल यह सिलसिला ही संख्या बल की वजह से शुरू हुआ. इस साल जनवरी में जब अरविंद केजरीवाल और उनके इंडिया अगेंस्ट करप्शन के साथी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की शुरुआत कर रहे थे तब उन्हें जनसमर्थन की जरूरत थी. इसलिए वे बाबा रामदेव के पास समर्थन के लिए गए. बात बन गई. जनवरी से शुरू हुए अन्ना हजारे के आंदोलन में शामिल लोगों में से एक बड़ी संख्या बाबा रामदेव के समर्थकों की थी. यहां अन्ना की टीम इस बात को समझ नहीं पाई कि इस संख्याबल के लिए बाबा रामदेव की अलिखित शर्त क्या थी. यह शर्त थी खुद को पूरे आंदोलन के केंद्र में रखने की.

संकट तब पैदा होने लगा जब रामदेव के साथ संघ की विचारधारा के लोग दिखने लगे. अन्ना हजारे के अभियान के दौरान तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता राम माधव भी मंच पर पहुंच गए. इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सूत्र बताते हैं कि राम माधव को तुरंत मंच छोड़ने के लिए कहा गया क्योंकि इस अभियान के संचालक यह चाहते नहीं थे कि उनके गैरराजनीतिक अभियान पर संघ की कोई छाप पड़े. इन लोगों का यह दावा है कि मतभेद की शुरुआत यहीं से हुई.

हालांकि, राम माधव इस बात से इनकार करते हैं.  रामदेव भी अपने अभियान की शुरुआत की वजह इसे नहीं मानते. पर इस बात पर हर सियासी खेमे में सहमति है कि बाबा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठने का फैसला इसी वजह से किया. बाबा ने सोचा कि अगर इंडिया अगेंस्ट करप्शन के अभियान के केंद्र में वे नहीं हैं तो फिर उन्हें खुद का इससे कहीं बड़ा अभियान खड़ा करना चाहिए.

अमीर और ताकतवर लोग वैसा कोई भी सबूत पीछे नहीं छोड़ते जिससे यह पता लगाने में मदद मिले कि किसका पैसा विदेशी बैंकों में जमा है

अब यहां यह सवाल उठ सकता है कि इस रस्साकशी में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का क्या हुआ. अभी जो हालत है उसके हिसाब से यह कई हिस्सों में बिखरी हुई दिख रही है. सबसे पहले अन्ना की टीम की बात. अभी जन लोकपाल विधेयक को लेकर जो स्थिति है उसमें तो यही लग रहा है कि इसके जरिए 15,000 लोगों की एक एजेंसी बन जाएगी जो देश भर के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करेगी. अन्ना की टीम चाहती है कि लोकपाल प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्रियों और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के खिलाफ लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों की भी जांच करे.

यह पूछे जाने पर कि इस विभाग को चलाएगा कौन, लोकपाल मसौदा समिति के सदस्य अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि इस मोर्चे पर विधेयक के मसौदे में अब तक कोई खास प्रगति नहीं हुई है और इस पर काफी काम करने की जरूरत है. वे इस काम के लिए एक अलग स्वतंत्र संस्था बनाने की बात कर रहे हैं जिसमें सेवानिवृत्त न्यायाधीश, भारत के सीएजी और ऐसे ही अन्य वरिष्ठ अधिकारी हों. इससे अन्ना की टीम द्वारा तैयार किए गए मसौदे में एक नया पेंच आ गया है. अगर लोकपाल सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की जांच कर सकता है और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश लोकपाल की जांच कर सकते हैं तो ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है कि यह व्यवस्था बदले का औजार नहीं बनेगी? ऐसी व्यवस्था में एक भ्रष्ट लोकपाल खुद पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाए गए आरोपों के बदले में संबंधित न्यायाधीश पर आरोप लगाकर बच सकता है.

दूसरी बात आती है रामदेव की योजना पर. उनका कहना है कि सिर्फ मजबूत लोकपाल विधेयक से भ्रष्टाचार नहीं मिटाया जा सकता लेकिन इसकी अहम भूमिका होगी. रामदेव कहते हैं कि देश में और देश से बाहर जमा काले धन को आर्थिक तंत्र में डाला जाना चाहिए और इसका राष्ट्रीयकरण कर देना चाहिए. वे यह भी कहते हैं कि भ्रष्टाचार में जो भी दोषी पाए जाए उसे मृत्युदंड जैसी कड़ी सजा दी जानी चाहिए.

वहीं सिविल सोसाइटी के दूसरे समूहों जैसे अरुणा राय की किसान मजदूर शक्ति संगठन और नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फॉरमेशन की राय कुछ अलग है. जन लोकपाल का इनके विरोध का आधार इसका आकार, इसमें न्यायाधीशों को शामिल किया जाना और लोकपाल की निगरानी व्यवस्था है. ये लोग अन्ना की टीम के साथ इस विधेयक पर बातचीत के लिए नहीं बैठ रहे हैं. इससे यह मतलब निकाला जा रहा है कि भ्रष्टाचार-निरोधी विधेयक तैयार करने को लेकर अलग राय रखने वाला एक खेमा यह भी है. इस मामले में सरकार भी एक पक्ष है. सरकार अभी अन्ना की टीम के साथ मिलकर यह कानून तैयार करने की कोशिश कर रही है. सरकार और अन्ना की टीम में मतभेद प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने को लेकर है. इसी मसले पर पिछली बैठक में बात टूट गई थी. वहीं भारतीय जनता पार्टी भ्रष्टाचार-निरोधी कानून तैयार करने के मसले पर संयुक्त संसदीय सत्र बुलाने की मांग कर रही है.

दूसरी तरफ माकपा की नेता वृंदा करात जैसे लोग भी हैं जिनके पास कई और सवाल हैं. मसलन कॉरपोरेट अपराध पर क्या रुख अपनाया जाएगा? कॉरपोरेट अपराध के खिलाफ आवाज उठाने वालों की रक्षा कौन करेगा? हाल के समय में आई घोटालों की बाढ़ को देखते हुए कानून बनाने वाले क्या हर्षद मेहता जैसे मामलों को भूल गए हैं? क्या वे आधुनिक भारतीय भ्रष्टाचार के गॉडफादर को भूल गए हैं जिसने शेयर बाजार में खेल करके हजारों लोगों को चूना लगाया था?

सबसे अहम सवाल तो यह है कि क्या पुराने लोगों के सहारे नये कानून को लागू कर देने से कोई परिणाम निकल पाएगा. या फिर गंभीर प्रशासनिक सुधार हमारी समस्या को हल करने के लिए जरूरी हैं? हाल ही में केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड से सेवानिवृत्त हुए दुर्गेश शंकर कहते हैं, ‘बाबा रामदेव बीमारी के लिए एलोपैथिक इलाज बता रहे हैं. वे बीमारी के लक्षणों को खत्म करने की बात तो कर रहे हैं लेकिन समस्या की बुनियादी चीजों जैसे खराब प्रशासन और क्रियान्वयन की लचर व्यवस्था को ठीक करने की बात नहीं कर रहे.’
शंकर कहते हैं कि हमारी आर्थिक जिंदगी बेहद जटिल है. कई कंपनियां, ट्रस्ट, सोसाइटी या लोग हैं जो कानूनी तरीके से कारोबार करने के लिए विदेशों में बैंक खाता खुलवाते हैं. स्विस बैंक पिछले 800 साल से अस्तित्व में है और यह उस देश की अर्थव्यवस्था का आधार है. वे आसानी से भारतीय अधिकारियों को वे नाम नहीं बताएंगे. उदाहरण के तौर पर, महाराजा रणजीत सिंह के बेटे दलीप सिंह की संपत्ति स्विस बैंकों में रखी हुई है. शंकर कहते हैं, ‘बेशक हम इसे वापस ले सकते हैं लेकिन यह एक आपराधिक मामला नहीं है. इसलिए हमें विभिन्न कानूनों के तहत काम करना होगा.’

शंकर ने कहा, ‘सरकारी तंत्र में कानून का पालन करने के लिए बहुत ठंडे दिमाग से और प्रतिबद्धता के साथ काम करना पड़ता है क्योंकि दूसरे देशों की सरकारें और वहां के बैंक आपके भावनात्मक आक्रोश पर कुछ करने वाले नहीं हैं.’ शंकर का कहना है कि वे तथ्य मांगेंगे. अमीर और ताकतवर लोग वैसे भी पीछे कोई सबूत नहीं छोड़ते जिसके जरिए यह पता लगाने में मदद मिले कि किसका पैसा विदेशी बैंकों में जमा है. ऐसे सबूत मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा. इसके बावजूद भ्रष्टाचार के मसले पर कुछ प्रगति तो हुई है. भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों के बढ़ते आक्रोश की वजह से 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में द्रमुक के ए राजा और कनिमोझी समेत राष्ट्रमंडल खेल आयोजन में धांधली के मामले में सुरेश कलमाड़ी जेल पहुंच गए हैं. इसी कड़ी में अगला नाम पूर्व दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन का है. इसके बावजूद कोई भी मामला अदालत में तभी टिक पाएगा जब जांच एजेंसियों के पास ठोस सबूत हों जो पैसे के लेन-देन को पूरी तरह से स्थापित कर दें.

यही वजह है कि शंकर जैसे कर मामलों के जानकार और प्रशासनिक सेवाओं से जुड़े और भी कई लोग सिविल सोसाइटी समूह और बाबा रामदेव के सुझावों को पर्याप्त नहीं मान रहे हैं. उनके मुताबिक ज्यादा एजेंसियां और ज्यादा कानून इस समस्या का समाधान नहीं कर सकते. जरूरत साफ-सुथरे प्रशासन और कानून की है. लेकिन सत्याग्रह के लिए तैयार बैठा मध्यवर्ग यह सुनने के लिए तैयार नहीं है. यह वर्ग पहले अन्ना हजारे के साथ अनशन पर बैठा, फिर इसने बाबा रामदेव का साथ दिया और जब अन्ना दोबारा अनशन पर बैठे तो ये लोग फिर उनके साथ बैठेंगे. इस वर्ग ने बड़े खतरनाक ढंग से अपने आसपास की दुनिया को बढ़ते, बिखरते और सिमटते देखा है. भूमंडलीकरण के दौर में पली-बढ़ी नयी पीढ़ी पैसे कमाना चाहती है और इसने पुराने पारिवारिक और सामाजिक बंधनों को टूटते देखा है. यही वर्ग बाबा रामदेव जैसे नये जमाने के गुरुओं के पास जा रहा है. यह वर्ग यह मानने को तैयार नहीं कि लोकतंत्र में चीजें एक निश्चित प्रक्रिया के साथ ही होती हैं और जो बीमारी सदियों पुरानी हो उससे छुटकारा पाने का कोई त्वरित समाधान नहीं हो सकता. शंकर कहते हैं कि इस वर्ग में वे लोग हैं जो एक तरफ तो भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे और दूसरी तरफ अखबारों के प्रॉपर्टी पेजों पर सबसे बढ़िया सौदे तलाशेंगे, यह जानते हुए भी कि जब वे ये संपत्तियां खरीद रहे होंगे तो इसके लिए वे कुछ रकम ब्लैक में भी चुका रहे होंगे. अगर भ्रष्टाचारियों को फांसी देना ही एकमात्र िवकल्प है, जैसा कि रामदेव कहते हैं तो इस देश में हर प्रॉपर्टी एजेंट और मकान मालिक को फांसी पर चढ़ाना पड़ेगा.

रामदेव के 1,100 करोड़ रुपये के साम्राज्य पर भी सवाल उठ रहे हैं. जो उनके समर्थक नहीं हैं, उनमें से कुछ लोग इस वजह से बाबा को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए सही व्यक्ति नहीं मानते. इस तरह से देखा जाए तो भ्रष्टाचार के खिलाफ उदार और वाम विचारधारा के कुछ लोगों द्वारा शुरू किया गया अभियान धार्मिक अनुष्ठान तक पहुंच गया है. अन्ना हजारे और रामदेव के आंदोलन पर संप्रग सरकार की अकड़ और अकुशलता ने भाजपा, संघ और रामदेव को बैठे-बिठाए एक मुद्दा थमा दिया है. 1991 में इसी मध्यवर्ग के आक्रोश ने अयोध्या आंदोलन और मंडल आयोग विरोधी आंदोलन का रूप लिया था.

भारत का उभरता हुआ नया मध्यवर्ग एक ऐसे मोड़ पर है जहां उसके सामने दो रास्ते हैं. इसमें पहला है नए जमाने के इन गुरुओं की शरण जिनके विचारों में संपूर्ण दृष्टि का अभाव है. लेकिन अगर वह चरणबद्ध बदलाव चाहता है तो उसे चटपट समाधान वाली शैली को पीछे छोड़कर लोकतंत्र को एक विस्तृत दृष्टि के साथ समझना होगा. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले एक योद्धा जयप्रकाश नारायण ने कभी कहा था, ‘अगर आप स्वतंत्रता की बात करते हैं तो कोई भी लोकतंत्र या संस्थाएं राजनीति से अलग नहीं रह सकतीं. राजनीतिक विसंगति का इकलौता इलाज और भी अधिक व साफ-सुथरी राजनीति है, न कि राजनीति को नकारना.’  

तमाशा बने बाबा रामदेव

न्यूज  चैनलों को तमाशा पसंद है. वजह यह कि तमाशे में नाटकीयता और दर्शकों को खींचने वाले उसके भांति-भांति के रंग-रहस्य, रोमांच, उठा-पटक, टकराव, धूम-धड़ाका, करुणा और आक्रोश सभी कुछ शामिल रहता है. चैनलों की जान तमाशे में बसती है. इसलिए वे हमेशा तमाशे की तलाश में रहते हैं. कुछ इस हद तक कि अगर कहीं कोई तमाशा न हो तो वे तमाशा बनाने से भी पीछे नहीं रहते हैं.

लेकिन चैनलों का भाग्य देखिए कि उन्हें तमाशे की कभी कमी नहीं पड़ती है. वैसे भी भारत जैसे विशाल और बहुरंगी देश में कभी तमाशों का टोटा नहीं रहता. इस चक्कर में वे अच्छी-खासी और गंभीर चीजों का भी तमाशा बना देने में माहिर हो गए हैं. राजनीति उन्हीं में से एक है. जब से राजनीति लोगों के लिए कम और टीवी के लिए अधिक होने लगी है, वह राजनीति नहीं, तमाशा बन गई है. सच पूछिए तो न्यूज चैनलों का पर्दा राजनीति का नया अखाड़ा बन गया है. हालत यह हो गई है कि जिसने टीवी को साध लिया वह रातों-रात बड़ा नेता बन जा रहा है. मतलब यह कि ‘जो दिखता है वह बिकता है.’

चैनलों की दिलचस्पी तमाशे में है. वह किसी को आसमान में चढ़ाकर मिले या गिराकर, उन्हें इससे खास फर्क नहीं पड़ता. आखिर यह उनका धंधा है

ऐसे ही, दिखने और बिकने वालों में एक अपने ‘योगगुरु’ रामदेव भी हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि रामदेव को योगगुरु और बाबा रामदेव बनाने में धार्मिक चैनलों के साथ-साथ न्यूज चैनलों की बहुत बड़ी भूमिका रही है. खुद बाबा रामदेव भी इस सच्चाई से परिचित हैं. यही कारण है कि बाबा के हजारों करोड़ के विशाल कारोबारी साम्राज्य में एक अपना धार्मिक चैनल भी है. इसके अलावा रामदेव बड़ी उदारता से न्यूज चैनलों खासकर हिंदी चैनलों को समय देते रहे हैं. चैनल भी उन्हें इस्तेमाल करने में पीछे नहीं रहे हैं.
चैनलों को रामदेव का तमाशाई व्यक्तित्व आकर्षित करता रहा है. खासकर उनका बड़बोलापन, मजाकिया अदाएं और तमाशाई अंदाज न्यूज चैनलों को अपने स्वभाव के माफिक लगते रहे हैं. कहते हैं कि उनके कार्यक्रमों और इंटरव्यू आदि की अच्छी-खासी टीआरपी भी आती रही है. इससे रामदेव की अपनी रेटिंग भी बढ़ती रही है. इस तरह, पिछले कुछ वर्षों में दोनों एक-दूसरे की जरूरत बन गए हैं. चैनलों की मदद से रामदेव देश के उन मध्यमवर्गीय घरों में पहुंचने और अपने प्रशंसकों का एक बड़ा समुदाय तैयार करने में कामयाब हुए हैं जो अपनी आरामतलब/तनावपूर्ण जीवनशैली के कारण भांति-भांति के रोगों/तनाव/बेचैनी से परेशान और राहत की तलाश में था.

इसमें कोई शक नहीं है कि उसे रामदेव के योग अभ्यासों से थोड़ी राहत भी मिली है. लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में रामदेव ने योग के नाम पर एक तरह की ‘फेथ हीलिंग’ और डायबिटीज जैसे असाध्य रोगों को ठीक करने के अनाप-शनाप दावे करने शुरू कर दिए. यही नहीं, प्रशंसकों की भीड़ और चैनलों के कैमरे देखकर उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी पैदा हो गईं. वे योग शिविरों में कसरत करते हुए देश और राजनीति पर प्रवचन के बहाने नेताओं और राजनीतिक दलों को गरियाने लगे. राजनेताओं के भ्रष्टाचार और काला धन जैसे मुद्दों पर उनकी आधी सच्ची-आधी झूठी कहानियां उनके प्रशंसकों की तालियां बटोरने लगीं. निश्चय ही, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर राजनीतिक दलों और राजनेताओं की पाताल छूती साख से रामदेव जैसों को भ्रष्टाचार और काला धन के मुद्दे पर खुद को एक ‘धर्मयोद्धा’ की तरह पेश करने में मदद मिली है. न्यूज चैनलों ने भी इन ‘धर्मयोद्धाओं’ को हाथों-हाथ लिया है. वैसे भी खुद को देश का स्वयंभू प्रवक्ता मानने वाले न्यूज चैनल आजकल ‘राष्ट्रहित’ के सबसे बड़े रक्षक और पैरोकार हो गए हैं. उन्हें लगता है कि देश वही चला रहे हैं. इस भ्रम में वे कई बार किसी को आसमान पर चढ़ा देते हैं.

चैनल जिन्हें चढ़ाते हैं उनमें से भी कई लोगों को अपने बारे में नाहक भ्रम हो जाता है. ऐसा लगता है कि योग गुरु रामदेव भी इस भ्रम के शिकार हो गए. नतीजा, हमारे सामने है. तमाशा करते-करते बाबा रामदेव खुद तमाशा बन गए. चैनलों ने उनके अनशन को जिस तरह से उछाला और जिस तरह से मनमोहन सिंह सरकार उनके आगे दंडवत नजर आई, उससे बाबा झांसे में आ गए. वे अपने तमाशे को हकीकत मान बैठे जबकि तमाशे की पूर्व लिखित स्क्रिप्ट कुछ और थी. वे उस स्क्रिप्ट से अलग जाकर तमाशे को फैलाने लगे. इसके बाद जो हुआ उसकी उम्मीद बाबा को भी नहीं थी. चौबे जी छब्बे बनने चले और दुब्बे बनकर रह गए. जो चैनल उन्हें आसमान पर चढ़ाने में लगे हुए थे, वे उनकी हवा निकालने में लग गए. चैनलों की भाषा रातों-रात बदल गई है. बाबा का मजाक उड़ रहा है. उनके सत्याग्रह का पोस्टमार्टम हो रहा है. वे बाबा से उनके कारोबारी साम्राज्य का हिसाब-किताब मांगने लगे हैं और सरकार से काला धन का हिसाब मांग रहे बाबा का हलक सूख रहा है. हमेशा चहकने वाले बाबा निढाल दिखाई दे रहे हैं. इस कहानी का सबक: चैनलों की दिलचस्पी तमाशे में है. वह किसी को आसमान में चढ़ाकर मिले या गिराकर, उन्हें इससे खास फर्क नहीं पड़ता. आखिर यह उनका धंधा है. 

गांधी होते तो खुश नहीं होते

भाजपा नेता सुषमा स्वराज का यह तमतमाया हुआ एतराज बिल्कुल जायज है कि राजघाट पर सत्याग्रह के दौरान अपने कार्यकर्ताओं के अनुरोध पर उन्होंने दो-तीन मिनट तक जो नृत्य किया, उसे मीडिया गैरजरूरी तूल दे रहा है. हालांकि मीडिया किस मामले को ऐसा तूल देकर उसका तेल नहीं निकाल देता है? बल्कि भारतीय राजनीति को भी यह बात समझ में आ चुकी है कि मीडिया का कैसे और कितना इस्तेमाल करना है. इसी इस्तेमाल के तहत बाबा रामदेव रामलीला मैदान पहुंचे थे और भाजपा उनके समर्थन में राजघाट. गड़बड़ सिर्फ यह हो गई कि 24 घंटे जागने वाले मीडिया के रिपोर्टरों ने रात के दो बजे भी राजघाट में चल रहे सांस्कृतिक कार्यक्रम को शूट कर लिया और सबको समझ में आ गया कि भाजपा के 24 घंटे के प्रदर्शन में महत्व की चीज बस यही चंद लम्हों का टुकड़ा है.

यह कांग्रेस या भाजपा का नहीं, उस सांस्कृतिक बंजर का मामला है जो हमारे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में लगातार बड़ा होता जा रहा है

फिर भी सुषमा स्वराज के साथ हमदर्दी होती है और एक हद तक उनकी बात सही मालूम पड़ती है. इस छोटे से दृश्य के आधार पर भाजपा को नचनियों की पार्टी बताने वाले दिग्विजय सिंह को भी उन्होंने उचित ही याद दिलाया है कि इंटरनेट पर इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक के नृत्य के कई दृश्य मौजूद हैं. सुषमा स्वराज का कहना है कि वे एक देशभक्ति गीत पर नृत्य कर रही थीं और ऐसा करने में शर्म की कोई बात नहीं है. यह सारी बातें एक स्तर पर ठीक हैं. लेकिन इन सबके बावजूद सुषमा स्वराज का नृत्य हो या दिग्विजय सिंह की छींटाकशी- इन दोनों में कोई ऐसी चीज है जो लोगों को खटकती मालूम पड़ती है. ध्यान से देखें तो ये दोनों चीजें दरअसल एक ही तरह के सांस्कृतिक सतहीपन की उपज हैं जो हमारी राजनीति में इन दिनों बहुत गहरे व्याप्त है. इस सतहीपन में समझ जितनी कम है, सरोकार उससे भी कम, और संवेदना सबसे कम, जिसका नतीजा यह होता है कि हर चीज- चाहे वह नाच हो या उस पर दिया गया बयान- या तो प्रदर्शन की वस्तु मालूम होती है या पाखंड की.

दरअसल इस प्रक्रिया को करीब से समझने की जरूरत है. सुषमा स्वराज का तर्क है कि वे एक देशभक्ति गीत पर नृत्य कर रही थीं. सबको मालूम है कि यह देशभक्ति गीत, ‘यह देश है वीर जवानों का’ मूलतः एक फिल्मी गीत है जो अक्सर शादियों के सड़क-नाच में बैंड बाजे के साथ खूब बजाया जाता है और जिस पर देश के वीर जवानों और अब वीरांगनाओं का आड़े-तिरछे उछलना और हाथ-पांव फेंकना हुआ करता है जिसे वे डांस कहते हैं.

कुछ ऐसा ही डांस राजघाट के सामने रात दो बजे के आसपास सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ध्वजधारी पार्टी भाजपा करे और उसमें अपने कार्यकर्ताओं का मन रखने के लिए पार्टी की सबसे बड़ी नेत्री कुछ ठुमके लगा लें तो इसमें अश्लील या एतराज लायक भले कुछ न हो, लेकिन एक सांस्कृतिक दीवालियापन दिखाई पड़ता है. निश्चय ही यह दीवालियापन सिर्फ भाजपा के भीतर नहीं है, बल्कि उतनी ही मात्रा में कांग्रेस के भीतर भी है, यह दिग्विजय सिंह की टिप्पणी बताती है.

इसी सांस्कृतिक दीवालियेपन का एक दूसरा प्रमाण सुषमा स्वराज की यह जवाबी छींटाकशी है कि सोनिया गांधी और इंदिरा गांधी तक के क्लिप इंटरनेट पर मौजूद हैं. सोनिया गांधी और इंदिरा गांधी ने कहां ये नृत्य किए? राजघाट के सामने नहीं, बल्कि उन जन सभाओं और कार्यक्रमों के दौरान, जब उनके सामने ऐसी नृत्यरत टीमें आईं. निश्चय ही इसके पीछे भी इन नेताओं की अपनी प्रदर्शनप्रियता रही होगी, लेकिन अगर सुषमा को अपने कार्यकर्ताओं का मन रखने के लिए राजघाट के सामने एक फिल्मी धुन पर थिरकने का अधिकार है तो सोनिया और इंदिरा गांधी को अपने लोगों के बीच जाकर उनके ढंग से उनके नृत्य में शामिल होने का हक भी है. अफसोस यह है कि अपने नृत्य को लेकर मीडिया के अतिचार और दिग्विजय सिंह की अनावश्यक टिप्पणी में निहित एक लैंगिक पूर्वाग्रह को सुषमा ठीक से समझ तक नहीं पाईं और इसे दलगत मुद्दे की तरह पेश करते हुए उन्होंने वैसे ही लैंगिक पूर्वाग्रह का परिचय दिया.

आखिर सुषमा के नृत्य पर यह बवाल बस इसलिए नहीं हुआ कि यह भारतीय जनता पार्टी की नेता का नृत्य है, यह इसलिए भी हुआ कि कहीं मेल शॉवेनिज्म यानी पुरुष मदांधता की मारी हमारी मानसिकता को अब भी यह गवारा नहीं है कि स्त्री सार्वजनिक तौर पर नृत्य करे और अपने पुरुष हमजोलियों के साथ करे. हो सकता है, यह भी एक वजह हो कि भाजपा के अन्यथा वाचाल नेताओं में कोई एक भी सुषमा के बचाव में खड़ा होता नजर नहीं आया.

लेकिन यह कांग्रेस या भाजपा का नहीं, उस सांस्कृतिक बंजर का मामला है जो हमारे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में लगातर बड़ा होता जा रहा है. एक समाज के तौर पर हमने अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति खो दी है. गीत-संगीत, कविता, चित्र या नाटक जैसी विधाएं बहुत ही छोटे-से वर्ग तक सिमट कर रह गई हैं. भारतीय मध्यवर्ग पहले भी गाने-बजाने को शरीफ घरानों की चीज नहीं मानता था. हालांकि आधुनिकता के साथ-साथ जो बदलाव हमारे समाज में आए थे, उनके बीच शास्त्रीय विधाओं के प्रति एक नयी समझ और संवेदना पैदा हुई थी. लेकिन नया उपभोक्ता दौर इस समूची समझ और संवेदना पर हावी है और इस दौर में नृत्य संगीत अगर कामयाबी और शोहरत दिला सकें तो उनका बस इतना ही इस्तेमाल है. टीवी चैनलों पर दिखने वाले टैलेंट हंट्स की मार्फत निश्चय ही कई प्रतिभाएं दूर-दूर से उभरी हैं, लेकिन अंततः इनकी वजह से नृत्य-संगीत में संस्कृति घटी है, दिखावा बढ़ा है और इससे भी ज्यादा नकल की प्रवृत्ति बढ़ी है.

हमारे राजनीतिक दलों के पास ऐसी कोई परिकल्पना ही नहीं बची है कि उन्हें कहां पहुंचना है. यह बहुत खतरनाक किस्म की सांस्कृतिक जड़ता है

कुल मिलाकर हमारी समूची सांस्कृतिक समझ हॉलीवुड की तर्ज पर पुकारे बॉलीवुड से बुरी तरह आक्रांत है. संस्कृति के नाम पर हमारे पास बस हिंदी फिल्में हैं जो ज्यादातर बुरी और बेशर्म नकल का नतीजा होती हैं. यह सिनेमा भी अब संस्कृति नहीं, उद्योग है जो जैसे प्रयत्नपूर्वक हमारे मूल सांस्कृतिक उपादानों को नष्ट कर मनोरंजन का एक ऐसा सपाट मैदान बना रहा है जिसमें जवान और बदनाम होती नायिकाओं पर ताली पीटते और पैसे फेंकते एक अघाए हुए उपभोक्तावादी वर्ग का मजमा लगाने की गुंजाइश हो. इस मजमे में देशभक्ति की भी छौंक होती है और प्रेम का मसाला भी मिला होता है.

मुश्किल यह है कि अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति खो चुके समाजों को भी उनकी जरूरत तो पड़ती ही है. अपनी खुशी या उदासी या तकलीफ या उपलब्धि के एहसास को सबके साथ साझा करने के लिए वे एक माध्यम खोजते हैं. ऐसे में उन्हें एक शून्य हाथ लगता है और इस शून्य को भरती हुई हिंदी फिल्मों के गाने मिलते हैं.  राजघाट के सामने दो बजे रात को भाजपा और सुषमा स्वराज को भी अपनी देशभक्ति के इजहार के लिए दरअसल ऐसी ही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की जरूरत पड़ी और उन्होंने एक फिल्मी गाने की शरण ली. सुषमा स्वराज का कहना है कि बापू भी इस पर खुश होते कि उन्होंने देशभक्ति गीत पर नृत्य किया. लेकिन सुषमा को यह ध्यान नहीं आया कि गांधी बहुत सख्त किस्म के प्रयोगकर्ता थे और अपने आंदोलन की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए वे बहुत जतन से कविताएं, भजन और गीत चुना करते थे. फिल्में तब भी बनती थीं और चुनने लायक लुभावने गाने तब भी हुआ करते थे, लेकिन गांधी ने वैष्णव जण को चुना, क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनकी राजनीति को जहां पहुंचना है, वहां उनके साथ ऐसा ही करुण गान होना चाहिए.

दुर्भाग्य से हमारे राजनीतिक दलों के पास ऐसी कोई परिकल्पना ही नहीं बची है कि उन्हें कहां पहुंचना है. 2020 या 2050 की एक महाशक्ति के तौर पर जिस तरह के भारत की वे कल्पना करते हैं, उसमें मॉल और दुकानें है, उछलता हुआ शेयर बाजार और समृद्धि के कालीन पर लोटता हुआ एक उपभोक्ता वर्ग है और वह सारा अपसांस्कृतिक कचरा है जो इन दिनों मनोरंजन उद्योग के नाम पर आयात किया जा रहा है. लेकिन उसमें किसी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की जगह नहीं है.

भारतीय जनता पार्टी कभी खुद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पार्टी बताया करती थी. लेकिन उसका राष्ट्रवाद इतना इकहरा है कि उसमें दूसरों के लिए तो दूर, अपने लिए भी गुंजाइश नहीं रहती. यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बाबरी मस्जिद तोड़ता है, हबीब तनवीर के नाटकों पर हमले करता है, मकबूल फिदा हुसेन जैसे कलाकार को 90 पार की उम्र में देश छोड़ने और बाहर मरने को मजबूर करता है और फिर मनोज कुमार की 40 साल पुरानी फिल्मों की धुन पर थिरकता हुआ अपनी देशभक्ति जगाता है. यह एक बहुत खतरनाक किस्म की सांस्कृतिक जड़ता है, जिसमें नयी सोच, नयी विधाओं, नये रूपाकारों और प्रयोगों के लिए कोई गुंजाइश नहीं है. चाहें तो जोड़ सकते हैं कि यह जड़ता सिर्फ भारतीय जनता पार्टी में नहीं है, कांग्रेस में भी है जिसे वह अपने ढुलमुलपन से ढकती भर है.
कुल मिलाकर हम एक ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं जो न खुद को पहचानता है, न खुद पर भरोसा करता है.

ऐसे आत्महीन समाज से जो सरोकारहीन राजनीति पैदा होती है, उसमें हम सुषमा का डांस देखते हैं और दिग्विजय सिंह की छींटाकशी. निश्चय ही गांधी होते तो इन सब पर खुश नहीं होते. उनमें एक विश्वजनीनता थी, लेकिन वह निहायत भारतीय परिस्थितियों की उपज थी. वे सुषमा स्वराज को सलाह देते कि वह कोई अच्छा-सा नृत्य सीखें या खुद न करें तो भाजपा के भीतर ऐसी नृत्यांगनाओं की टीम तैयार करें जिसे लोक और शास्त्रीय धुनों की ठीक से समझ हो. लेकिन क्या सुषमा बापू की सलाह मानतीं? यह उम्मीद नहीं लगती. भारतीय जनता पार्टी महात्मा गांधी को ढाल की तरह इस्तेमाल करना चाहती है, हथियार की तरह नहीं.  वरना सुषमा स्वराज और भाजपा अगर गांधी का मान रखना चाहती तो सिर्फ अपने नृत्य पर नहीं, अपनी पूरी राजनीति पर पुनर्विचार करने को बाध्य होती.  

घोटाले का असली सूत्रधार?

तमिलनाडु की सत्ता एक बार फिर संभालने के बाद मुख्यमंत्री जयललिता 14 जून को प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली आई थीं. इस मुलाकात के बाद उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की जिसमें तमाम बातों के अलावा उन्होंने यह मांग भी कर डाली कि केंद्र सरकार में कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन अगर खुद इस्तीफा नहीं देते तो प्रधानमंत्री को ही उन्हें हटा देना चाहिए.

जयललिता की यह मांग तहलका की उस तहकीकात के बाद आई थी जो साफ इशारा करती है कि संचार मंत्री रहते हुए मारन ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए एयरसेल कंपनी के पूर्व प्रमुख शिवशंकरन पर इस बात के लिए दबाव डाला कि वे अपनी कंपनी मैक्सिस समूह को बेच दें. इसके एवज में इस मलेशियाई कारोबारी समूह ने मारन बंधुओं को 700 करोड़ रु का फायदा पहुंचाया. कोई भ्रष्टाचार यदि सरकारी अधिकारियों और निजी क्षेत्र के लोगों की सांठ-गांठ से हुआ हो तो जांच एजेंसियां उसकी जांच करते हुए अक्सर लेन-देन का साक्ष्य जुटाने की कोशिश करती हैं. यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि सरकारी अधिकारी को घूस कैसे दी गई. नकद या फिर किसी और तरीके से.

इस साल जनवरी में सीबीआई ने एक रियल एस्टेट कंपनी के मालिक शाहिद उस्मान बलवा और कलैनार टीवी के बीच हुए लेन-देन का पता लगाया था. जब बलवा की कंपनी स्वान टेलीकॉम को बेशकीमती 2जी स्पेक्ट्रम आवंटित हो गया तो इसके बाद बलवा की कंपनी ने द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि के परिवार के स्वामित्व वाले कलैनार टीवी को 200 करोड़ रुपये हस्तांतरित किए थे. सीबीआई ने करुणानिधि की बेटी और इस टीवी चैनल में 20 फीसदी की हिस्सेदार कनिमोरी को गिरफ्तार करने के लिए इस साक्ष्य को पर्याप्त माना था. 26 अप्रैल को दाखिल किए गए पूरक आरोपपत्र में जांच एजेंसी ने कहा था कि यह लेन-देन वैध नहीं था बल्कि इसकी प्रकृति से पता चलता है कि यह यूनिफाइड एक्सिस सर्विस लाइसेंस (यूएएसएल), स्पेक्ट्रम और गलत तरीके मिले अन्य फायदों के एवज में स्वान टेलीकॉम द्वारा दी गई घूस थी.

अहम सवाल यह है कि क्या मैक्सिस-सन टीवी और मैक्सिस-सन एफएम सौदा इस हाथ दे-उस हाथ ले वाली तर्ज पर हुआ था

सूत्रों के मुताबिक सीबीआई अब केंद्रीय कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन के परिवार के स्वामित्व वाले सन टीवी नेटवर्क और मलेशियाई कंपनी मैक्सिस ग्रुप के बीच हुए एक ऐसे ही सौदे की जांच में जुटी है. इसमें बलवा और कलैनार टीवी के बीच हुए लेन-देन की रकम से कहीं ज्यादा लेन-देन हुआ है. सौदे में शामिल मैक्सिस ग्रुप के पास देश की सातवीं सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी एयरसेल की 74 फीसदी हिस्सेदारी है.

नवंबर, 2006 में उस समय दूरसंचार मंत्री रहे मारन ने एयरसेल को 14 यूएएसएल दिए थे. 2जी स्पेक्ट्रम के ये लाइसेंस उसी कीमत पर दिए गए थे जिस कीमत पर राजा ने 2008 में स्वान, यूनिटेक और दूसरी कंपनियों को 2जी लाइसेंस दिए. एयरसेल ने 14 टेलीकॉम सर्कलों के लिए 1,399 करोड़ रुपये चुकाए थे. यह कीमत बोली की प्रक्रिया द्वारा 2001 में ही तय की गई थी जब भारत में दूरसंचार उद्योग शुरुआती चरण में था.

एयरसेल को ये लाइसेंस दो साल की ‘बेवजह’ देरी के बाद मिले थे और देरी मारन की अगुवाई वाले दूरसंचार विभाग की तरफ से की गई थी. नये क्षेत्रों में लाइसेंस पाने के लिए एयरसेल ने मई, 2004 में ही तब आवेदन कर दिया था जब मारन ने दूरसंचार मंत्री के तौर पर कार्यभार संभाला था. 2001 से 2009 के बीच हुए दूरसंचार लाइसेंसों के आवंटन के लिए गठित न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) शिवराज पाटिल की एक सदस्यीय समिति ने कहा है कि विभाग ने एयरसेल के आवेदन पर ‘गैरजरूरी’, ‘आधारहीन’ और ‘बेवजह’ आपत्तियां दर्ज की थीं. पाटिल ने यह रिपोर्ट 31 जनवरी को मौजूदा दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल को सौंपी है.

जब मार्च, 2006 में मलेशियाई कारोबारी टी. आनंद कृष्णन ने एयरसेल में 74 फीसदी हिस्सेदारी खरीद ली तब जाकर कहीं कंपनी की फाइल ने गति पकड़ी. कृष्णन मूल रूप से श्रीलंकाई तमिल हैं. इसके पहले तक इस कंपनी का स्वामित्व शिवा समूह के प्रमुख सी. शिवशंकरन के पास था. इस कंपनी का पुराना नाम स्टर्लिंग इन्फोटेक ग्रुप था. कृष्णन ने एयरसेल की 74 फीसदी हिस्सेदारी के लिए 3,390.82 करोड़ रुपये चुकाए. आज करीब आठ अरब डॉलर की कुल कीमत के साथ एयरसेल देश की सातवीं सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी है. आनंद कृष्णन द्वारा एयरसेल को खरीदे जाने के छह महीने के अंदर मंत्रालय ने इस कंपनी को 14 कमाऊ सर्कलों के लिए लाइसेंस जारी कर दिए थे. इसके बाद एयरटेल एक छोटी कंपनी से काफी बड़ी कंपनी में तब्दील हो गई जिसकी मौजूदगी भारत के कई हिस्सों में थी. कैग द्वारा 2जी लाइसेंसों की कीमतों के निर्धारण को पैमाना माना जाए तो एयरसेल को दिए गए इन लाइसेंसों की कीमत तकरीबन 22,000 करोड़ रुपये होनी चाहिए थी. पर एयरसेल ने इसके लिए महज 1,399 करोड़ रुपये चुकाए.

और दिलचस्प संयोग देखिए कि लाइसेंस मिलने के ठीक चार महीने बाद यानी फरवरी 2007 में आनंद कृष्णन ने अपने समूह की एक दूसरी कंपनी साउथ एशिया इंटरटेनमेंट होल्डिंग लिमिटेड (एसएईएचएल) के जरिए सन डायरेक्ट टीवी प्राइवेट लिमिटेड में चरणबद्ध तरीके से तकरीबन 600 करोड़ रुपये निवेश कर 20 फीसदी हिस्सेदारी हासिल कर ली. सन टीवी को दयानिधि के भाई कलानिधि और उनकी पत्नी कावेरी मारन चलाती हैं. इस निवेश को हरी झंडी आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने दी थी.

और लगभग इसी समय मारन परिवार को सन डायरेक्ट टीवी के 12.6 करोड़ अतिरिक्त शेयर आवंटित किए गए ताकि उनकी हिस्सेदारी 80 फीसदी के स्तर पर बनी रहे.  हैरानी की बात थी कि मारन परिवार को ये 10 रुपये प्रति शेयर के भाव पर दिए गए जबकि मैक्सिस ग्रुप ने इन शेयरों के लिए इससे कहीं ऊंची कीमत चुकाई थी. कहा जा सकता है कि दोनों तरह से फायदा मारन परिवार को ही हुआ. मैक्सिस समूह ने जब महंगी कीमत पर शेयर खरीदे तो इसका फायदा मारन परिवार को ही मिलना था क्योंकि कंपनी की अधिकांश हिस्सेदारी उनके पास ही थी. इस सौदे से उन्हें सन डायरेक्ट टीवी की गतिविधियों के विस्तार के लिए रकम मिली जिसकी उन्हें उस समय सख्त जरूरत थी. जब यह सौदा हुआ था तो उस वक्त सन की डीटीएच कंपनी घाटे में थी. सन डायरेक्ट टीवी की 2007-08 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी का कुल राजस्व 61.16 करोड़ रुपये था जबकि कंपनी को उस साल 73.27 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था.दूसरी तरफ कम कीमत पर शेयर आवंटित होने का फायदा भी मारन परिवार को ही होना था.

फरवरी, 2008 से जुलाई, 2009 के बीच मैक्सिस समूह ने मारन परिवार की दूसरी कंपनी साउथ एशिया एफएम लिमिटेड में 100 करोड़ रुपये का निवेश और किया. सन एफएम रेडियो नेटवर्क का स्वामित्व इसी कंपनी के पास है. मैक्सिस समूह की सहयोगी कंपनी साउथ एशिया मल्टीमीडिया टेक्नोलॉजीज लिमिटेड (एसएएमटी) ने साउथ एशिया एफएम लिमिटेड में 50 करोड़ रुपये की इक्विटी खरीदी. उसने प्रेफरेंस शेयर्स (ऐसे शेयर जिनके धारकों को लाभांश में प्राथमिकता दी जाती है.) में भी 43.9 करोड़ रुपये का निवेश किया. अब अहम सवाल यह है कि क्या मैक्सिस-सन टीवी और मैक्सिस-सन एफएम के सौदे इस हाथ दे-उस हाथ ले वाली उसी तर्ज पर हुए थे जिस पर बलवा और कलैनार टीवी के बीच 200 करोड़ रुपये का सौदा हुआ था? लगता तो ऐसा ही है. दोनों सौदे संबंधित दूरसंचार कंपनी को लाइसेंस और स्पेक्ट्रम आवंटित होने के बाद ही हुए. दोनों ही मौकों पर करुणानिधि के करीबी परिजनों को ही फायदा मिला.

मारन के समय मंत्रालय ने न सिर्फ एयरसेल को नये लायसेंस जारी करने में देर की बल्कि पिछले लाइसेंसों के लिए स्पेक्ट्रम देने में भी देर लगाई

कलैनार टीवी में ए राजा और उनके परिवार की कोई हिस्सेदारी नहीं है जबकि सन डायरेक्ट टीवी में दयानिधि के भाई कलानिधि और उनकी पत्नी की 80 फीसदी हिस्सेदारी है. इसलिए जहां तक लेन-देन से जुड़ी घटनाओं की बात है तो उन पर गौर करने पर पहली नजर में मारन ए राजा के मुकाबले कहीं ज्यादा साफ तरीके से संदेह के घेरे में दिखते हैं. जब केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी और अरुण शौरी दूरसंचार मंत्री थे तो पांच मार्च 2004 को एयरसेल की सहयोगी और मुख्य कंपनी शिवा वेंचर्स लिमिटेड की सहयोगी डिशनेट वायरलेस लिमिटेड ने मध्य प्रदेश समेत कुल आठ सर्कलों में यूएएसएल के लिए आवेदन किया था. उस समय तक एयरसेल सिर्फ चेन्नई और तमिलनाडु सर्कल में ही सेवाएं दे रही थी. आवेदन के ठीक एक महीने बाद दूरसंचार विभाग ने आठों सर्कलों के लिए आशय पत्र (एलओआई) जारी कर दिए. पर सात सर्कलों के लाइसेंस पर ही दस्तखत हुए. इनमें मध्य प्रदेश शामिल नहीं था. एयरसेल लिमिटेड के पास तमिलनाडु क्षेत्र का लाइसेंस था, एयरसेल सेल्युलर लिमिटेड के पास चेन्नई सर्कल का लाइसेंस था और बाद में डिशनेट वायरलेस लिमिटेड के पास अन्य सर्कलों का लाइसेंस था. ये तीनों कंपनियां एयरसेल के नाम से ही दूरसंचार सेवाएं मुहैया करा रही थीं और इन तीनों कंपनियों का स्वामित्व सी. शिवशंकरन के स्टर्लिंग इन्फोटेक समूह के पास था जो अब शिवा ग्रुप बन गया है.

21 अप्रैल, 2004 को डिशनेट ने पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में लाइसेंस के लिए आवेदन किया. तब तक उसे मध्य प्रदेश के लिए आशय पत्र जारी हो चुका था, पांच मई, 2004 को दूरसंचार विभाग ने पहली बार डिशनेट की फंडिंग पर सवाल उठाए. इसका परिणाम यह हुआ कि मध्य प्रदेश में इसके लाइसेंस और दूसरे क्षेत्रों के लिए किए गए इसके आवेदनों पर रोक लगा दी गई.

26 मई, 2004 को मारन ने बतौर दूरसंचार मंत्री कार्यभार संभाला.

जून, 2004 में डिशनेट ने दूरसंचार विभाग द्वारा उठाए गए सारे सवालों का विस्तृत जवाब भेज दिया.

आठ जुलाई, 2004 को दूरसंचार विभाग के सचिव ने पूर्वी और पश्चिम उत्तर प्रदेश के लिए कंपनी को आशय पत्र जारी करने और मध्य प्रदेश के लिए लाइसेंस पर दस्तखत के लिए समय बढ़ाने की सिफारिश की. इस प्रस्ताव को मारन के पास मंजूरी के लिए भेजा गया.

24 अगस्त, 2004 को मारन के निजी सचिव ने एक नोट में कहा कि उन्हें यह निर्देश दिया गया है कि डिशनेट और अन्य जगहों पर लाइसेंस रखने वाली उसकी सहयोगी कंपनी के स्वामित्व संबंधी विवरण मुहैया कराए जाएं. खास तौर पर तमिलनाडु और चेन्नई के लाइसेंस के बारे में जानकारी मांगी गई थी. यह भी पूछा गया था कि क्या डिशनेट और उसकी सहयोगी कंपनी ने कानूनों का उल्लंघन तो नहीं किया है. इस नोट के आधार पर डिशनेट को एक नोटिस जारी किया गया जिसका विस्तृत जवाब कंपनी ने विभाग को सौंपा.

अगले चार महीने तक दूरसंचार विभाग ने विभिन्न स्तरों पर कंपनी के सामने कई कानूनी मसले उठाए. इसके बाद फाइल कानूनी सलाहकार को सौंपी गई लेकिन इसे 17 दिसंबर, 2004 को वापस ले लिया गया.

1 मार्च, 2005 को डिशनेट ने हरियाणा, केरल, कोलकाता और पंजाब सर्कल के लाइसेंस के लिए भी आवेदन किया. यह फाइल दूरसंचार विभाग में घूमती रही और कोई निर्णय नहीं लिया गया. इस बीच दूरसंचार क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 49 से बढ़ाकर 74 फीसदी कर दी गई.

अक्टूबर 2005 में मैक्सिस समूह ने एयरसेल के अधिग्रहण के लिए शिवशंकरण से संपर्क साधा.

14 दिसंबर 2005 को दूरसंचार विभाग ने नये यूएएसएल दिशानिर्देश जारी किए जिनके अनुसार अब किसी भी सर्कल में कितनी भी कंपनियां सेवा मुहैया करा सकती थीं. इसके अलावा किसी भी कंपनी के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक ही सर्कल में सेवा दे रही एक से ज्यादा कंपनियों में 10 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी खरीदना भी प्रतिबंधित कर दिया गया.

30 दिसंबर, 2005 को एयरसेल और मैक्सिस के बीच अधिग्रहण के सौदे पर दस्तखत हो गए. इसके बाद डिशनेट के लंबित आवेदन पर मंत्रालय में तेजी से काम शुरू हो गया.

दो जनवरी, 2006 को डिशनेट को नये दिशानिर्देशों के मुताबिक जानकारी मुहैया कराने को कहा गया. कंपनी ने यह काम 17 दिन में कर दिया.

12 जनवरी 2006 को एयरसेल ने कर्नाटक, राजस्थान, मुंबई और महाराष्ट्र सर्कल में यूएएस लाइसेंस हासिल करने के लिए आवेदन किया.

फरवरी, 2006 में बिहार के लिए एयरसेल की सहयोगी कंपनी डिशनेट को शुरुआती स्पेक्ट्रम दिया गया. यह आवेदन 2004 के मई से लंबित था.

तीन मार्च, 2006 को एयरसेल ने तीन और सर्कलों(दिल्ली, आंध्र प्रदेश और गुजरात) के लिए आवेदन किया.

13 मार्च 2006 को कंपनी को हिमाचल प्रदेश के लिए स्पेक्ट्रम आवंटित हो गया. यह भी तब से ही लंबित पड़ा था जब से मारन दूरसंचार मंत्री बने थे.

मार्च, 2006 में टी आनंद कृष्णन ने कंपनी के शेयरधारकों को बताया कि कंपनी ने स्टरलिंग इन्फोटेक समूह से एयरसेल की 74 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने का काम पूरा कर लिया है.

एक नवंबर, 2006 को 14 सर्कलों के लिए आशय पत्र जारी करने को हरी झंडी मिल गई. एक पखवाड़े के अंदर सभी 14 लाइसेंस जारी कर दिए गए. एयरसेल ने इसके लिए 1,399.47 करोड़ रुपये चुकाए और एयरसेल एक झटके में छोटी क्षेत्रीय कंपनी से पूरे भारत में मौजूदगी वाली बड़ी कंपनी बन गई.न्यायामूर्ति शिवराज पाटिल ने अपनी रिपोर्ट में मारन की देरी करने की कवायद पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा है, ‘अलग-अलग मौकों पर डिशनेट से मांगी गई सफाई अस्पष्ट और अप्रासंगिक थी.’ न्यायमूर्ति पाटिल ने यह भी कहा है कि कई मौकों पर मारन ने तय प्रक्रियाओं का भी पालन नहीं किया.

क्या शिवशंकरन पर कंपनी बेचने के लिए दबाव डाला गया ?

शिवशंकरन को अपनी कंपनी के बदले में 80 करोड़ डॉलर मिले थे. उस समय एयरसेल टेलीकॉम नौ सर्कलों में सेवाएं द रही थी और सात सर्कलों में सेवाएं शुरू करने के लिए लाइसेंस के उसके आवेदन मंत्रालय में लंबित थे. उस समय एयरसेल और ज्यादा सर्कलों में लाइसेंस आवेदन करना चाहती थी लेकिन वह ऐसा इसलिए नहीं कर पा रही थी क्योंकि उसके पहले के आवेदनों पर दूरसंचार मंत्रालय ने कोई फैसला नहीं लिया था. यदि एयरसेल को ये लाइसेंस मिलने के बाद बेचा जाता तो शिवशंकरन को और ज्यादा पैसा मिल सकता था. मारन से मिली 14 लाइसेंसों की अनुमति के बाद आज एयरसेल की मौजूदगी भारत के बड़े टेलीकॉम सर्कलों में है और इसका बाजार  मूल्य 7.5 – 8.0 अरब डॉलर है.

2005 में मारन जब दूरसंचार मंत्री थे उस दौरान एक जून को शिवशंकरन ने उन्हें एक चिट्ठी (अगले पन्ने पर देखें) लिखी. इसमें यह आरोप लगाया गया था कि मंत्रालय में मौजूद कुछ शक्तिशाली तत्व पूरी कोशिश कर रहे हैं कि उनके आवेदनों को मंजूरी न मिले.मारन के कार्यकाल में उनके मंत्रालय ने न सिर्फ एयरसेल को नये लाइसेंस जारी करने में देर की बल्कि जिन सर्कलों के लिए कंपनी को उनके मंत्री बनने के पहले ही लाइसेंस मिल गए थे उनके लिए जरूरी शुरुआती स्पेक्ट्रम देने में भी देर की गई. जस्टिस पाटिल ने इसे अपनी रिपोर्ट में अतार्किक बताया है.

मार्च, 2004 में (एनडीए शासन के दौरान) डिशनेट को बिहार और हिमाचल सर्कल के लिए लाइसेंस आवंटित किए गए थे (पांच और सर्कलों में लाइसेंस के अलावा). लेकिन उसे सेवाएं शुरू करने के लिए शुरुआती स्पेक्ट्रम नहीं दिया गया जो लाइसेंस के साथ ही जारी किया जाना चाहिए था. बिहार में स्पेक्ट्रम फरवरी, 2006 में दिया गया तो हिमाचल प्रदेश में मार्च, 2006 में. पाटिल ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया है. स्पेक्ट्रम उपलब्ध होने के बावजूद बिहार के लिए डिशनेट को यह आवंटित नहीं किया गया.

इस संबंध में शिवशंकरन की बार-बार की दरख्वास्तों का दूरसंचार मंत्रालय पर कोई असर नहीं पड़ा. इसी बीच अक्टूबर, 2005 में मलेशिया की एक कंपनी मैक्सिस कम्यूनिकेशन से एयरसेल खरीदने का प्रस्ताव दे दिया.  उस समय तक दूरसंचार क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 74 फीसदी बढ़ाई जा चुकी थी. 30 दिसंबर, 2005 को मैक्सिस और एयरसेल के बीच कंपनी की हिस्सेदारी खरीदने का समझौता हुआ. कंपनी की बाकी 26 फीसदी हिस्सेदारी अपोलो हॉस्पिटल के रेड्डी परिवार ने खरीदी.

हाल ही में खबरें आई हैं जिनके मुताबिक सीबीआई के सामने शिवशंकरन ने गवाही दी है कि मारन ने उन्हें अपनी कंपनी मैक्सिस समूह को बेचने के लिए मजबूर किया. एयरसेल बेचने के बाद शिव ग्रुप ने एक और टेलीकॉम कंपनी एस-टेल बना ली थी जिसे ए राजा के कार्यकाल में छह सर्कलों के लिए लाइसेंस मिला है. 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में यह कंपनी भी सीबीआई की जांच के दायरे में है. तहलका ने जब शिवशंकरन से संपर्क किया तो उन्होंने कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

सौदे से जुड़ी गुत्थियां 

मार्च, 2006 में मैक्सिस ने एयरसेल में कुल 7,880.82 करोड़ रुपये का निवेश किया. मैक्सिस ने अपनी पूर्ण स्वामित्व वाली सहयोगी इकाई ग्लोबल कम्यूनिकेशन सर्विसेज होल्डिंग लिमिटेड के जरिए एयरसेल के 65 फीसदी शेयर खरीदे और नौ फीसदी शेयर अपनी एक और कंपनी डेक्कन डिजिटल प्राइवेट लिमिटेड के जरिए खरीदे. डेक्कन डिजिटल प्राइवेट लिमिटेड में मैक्सिस की 26 फीसदी की हिस्सेदारी है.

टेलीकॉम क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नियमों के मुताबिक कोई भी विदेशी कंपनी भारत में किसी कंपनी में 74 फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदार नहीं हो सकती. मैक्सिस ने 3390.82 करोड़ रुपये में एयरसेल की सीधी हिस्सेदारी खरीदी थी जबकि 4490 करोड़ रुपये प्रिफ्रेंस शेयर की खरीद के जरिए निवेश किए गए थे. अब सवाल यह है कि एयरसेल में मैक्सिस के इतने भारी निवेश के बाद क्या अप्रत्यक्ष रूप से एयरसेल का नियंत्रण कंपनी के हाथ में नहीं आ गया था और क्या यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़े नियमों का उल्लंघन नहीं है? मैक्सिस के 7880.82 करोड़ रुपये के निवेश के मुकाबले रेड्डी परिवार ने डेक्कन डिजिटल के जरिए एयरसेल में 26 फीसदी की अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी के लिए सिर्फ 34.17 करोड़ रुपये का निवेश किया था. मैक्सिस-एयरसेल का सौदा होने के बाद मार्च, 2006 में मलेशिया स्टॉक एक्सचेंज, बुरसा मलेशिया को सूचना देते हुए मैक्सिस ने सेल्फडिक्लेरेशन दाखिल किया था कि एयरसेल में अपने निवेश से हुए मुनाफे में उसका हिस्सा 99.3 फीसदी होगा.

सवाल ये भी हैं कि क्या  रेड्डी परिवार ने, अपने बड़े साझीदार के साथ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़े नियमों का उल्लंघन नहीं किया? मैक्सिस ने बतौर भारतीय साझीदार रेड्डी परिवार क्यों चुना? इस मामले में एक बात तो साफ है कि इसकी वजह रेड्डी परिवार की आर्थिक हैसियत कतई नहीं है. उन्होंने एयरसेल की एक होल्डिंग कंपनी में महज 34.17 करोड़ रुपये का निवेश किया है. तो क्या रेड्डी बंधु किसी तीसरे और प्रभावशाली व्यक्ति की तरफ से काम कर रहे थे जो सीधा इस सौदे में शामिल नहीं हो सकता था? (गौरतलब है कि दयानिधि के पिता मुरासोली मारन का 2003 में चेन्नई के अपोलो हॉस्पिटल में काफी लंबे समय तक इलाज चला था. यह माना जाता है कि इस दौरान उनकी काफी अच्छी देखभाल की गई थी और तभी से मारन और रेड्डी परिवार की नजदीकियां बढ़ीं).

सीबीआई इन गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश कर रही है. दिसंबर, 2010 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आधार पर वह 2001 के बाद आवंटित लाइसेंस और स्पेक्ट्रम के मामलों की जांच भी कर रही है. इस सिलसिले में उसने कुछ अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ जांच भी शुरू की है. सूत्रों के मुताबिक जांच अब  खत्म होने वाली है और सीबीआई जल्द ही यह तय करेगी कि 2जी घोटाले में और नये लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज किए जाने की जरूरत है या नहीं.

अपोलो हॉस्पिटल की निदेशक सुनीता रेड्डी ने तहलका के भेजे अपने लिखित स्पष्टीकरण में कहा है, ‘ हम आपको सूचित कर रहे हैं कि अपोलो हॉस्पिटल और डॉ प्रताप सी रेड्डी का टेलीकॉम सेक्टर में कोई निवेश नहीं है. हम आगे यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि सिंद्या सिक्युरिटीज एंड इनवेस्टमेंट प्राइवेट लिमिटेड, जिनके प्रोमोटर पी द्वारकानाथ रेड्डी और श्रीमति सुनीता रेड्डी हैं, ने एयरसेल में निवेश किया है और टेलीकॉम सेक्टर एक उभरता हुआ क्षेत्र है इसलिए यह पूरी तरह रणनीतिक निवेश है…हम आगे यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि सिंद्या सिक्युरिटीज एंड इनवेस्टमेंट प्राइवेट लिमिटेड का एयरसेल में निवेश पूरी तरह भारतीय नियमों और सभी विनियामकों की मंजूरी/सहमति से हुआ था.’ तहलका ने कलानिधि मारन और दयानिधि मारन को भी कुछ सवाल भेजे थे लेकिन उनकी तरफ से हमें कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.

मैक्स ने सन डायरेक्ट और सन रेडियो में भारी निवेश किया

जैसा कि बताया जा चुका है मैक्सिस द्वारा एयरसेल के टेकओवर के बाद न सिर्फ एयरसेल के वे आवेदन मंजूर हो गए जो दो साल से भी ज्यादा वक्त से लटके पड़े थे, बल्कि सात नये टेल्कॉम सर्कलों में ऑपरेट करने के लिए दिए गए कंपनी के नये आवेदनों को भी चटपट मंजूरी मिल गई. पहले के सात और नये सात आवेदनों को मिलाकर कंपनी ने कुल 14 लाइसेंसों के लिए 1,399 करोड़ रु अदा किए. कैग के आकलन के मुताबिक अगर बोली के जरिये नीलामी होती तो इन 14 लाइसेंसों के एवज में सरकार की झोली में 22,000 करोड़ रु से भी ज्यादा की रकम आ सकती थी.

मार्च 2007 में, यानी लाइसेंस मिलने के तीन महीने बाद मैक्सिस ग्रुप की एक कंपनी एस्ट्रो ऑल एशिया नेटवर्क्स ने अपनी एक सबसिडियरी साउथ एशिया एंटरटेनमेंट लि. के जरिए भारत में डीटीएच सेवा उपलब्ध कराने के लिए सन डायरेक्ट टीवी के साथ एक साझे उपक्रम का एलान किया.

दो मार्च और 19 मार्च, 2007 को विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एस्ट्रो को सन डायरेक्ट में 20 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने के लिए जरूरी मंजूरियां दे दीं.

10 दिसंबर, 2007 को एस्ट्रो ने सन डायरेक्ट के 39,677,420 शेयर खरीद लिए. इसके लिए 315.71 करोड़ रुपये चुकाए गए. अब एस्ट्रो की सन डायरेक्ट में 20 फीसदी हिस्सेदारी हो चुकी थी. फरवरी, 2008 से जनवरी, 2009 के दौरान एस्ट्रो ने सन डायरेक्ट में और 29,319,882 नये शेयर खरीद लिए जिसके लिए उसने 233.3 करोड़ रुपये चुकाए. नए शेयरों की खरीद इस तरह से की गई कि सन डायरेक्ट में मारन परिवार की हिस्सेदारी 80 फीसदी से नीचे न जाए और एस्ट्रो की 20 फीसदी से ऊपर. पांच दिसंबर, 2009 को एस्ट्रो ने 6,283,775 अतिरिक्त शेयर और खरीदे और इसके लिए कुल 50 करोड़ रुपये चुकाए. यह भी इसी अंदाज में हुआ कि एस्ट्रो की हिस्सेदारी 20 फीसदी ही बनी रहे.

28 फरवरी, 2008 को एस्ट्रो ने अपनी सबसिडियरी साउथ एशिया मल्टीमीडिया टेक्नॉलॉजीज लि. के जरिए मारन ग्रुप के स्वामित्व वाली साउथ एशिया एफएम लि. (एसएएफएल) में 6.98 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी. इसके लिए 14.92 करोड़ रु चुकाए गए. एसएएफएल के पास भारत में 23 एफएम रेडियो स्टेशनों के लाइसेंस थे. 

जुलाई, 2009 में रेडियो उद्योग के क्षेत्र प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़े नियमों में बदलाव से एस्ट्रो को एसएएफएल में अपनी सीधी हिस्सेदारी बढ़ाने की छूट मिल गई. जुलाई, 2009 में हिस्सेदारी का यह आंकड़ा 20 फीसदी तक पहुंच गया. यह कुछ इस क्रम में हुआ.

22 जून, 2009 को 19.23 करोड़ रु में एसएएफएल के 1,922,854 के नए इक्विटी शेयरों की खरीद की गई

23 जुलाई, 2009 को 19.39 करोड़ में एसएएफएल के 19,389,198 नये इक्विटी शेयर खरीदे गए

23 जुलाई 2009 को ही 13.84 करोड़ रु चुकाकर एएच मल्टीसॉफ्ट प्राइवेट लि. से एसएएफएल के 13,836,296 शेयरों की खरीद की गई. तीन अगस्त 2009 को एसएएफएल में 43,900, 136 सीसीपी शेयरों की खरीद के एवज में कुल 43.90 करोड़ रु चुकाए गए. 

रिश्वत के आरोपों को नकारते हुए मैक्सिस कम्युनिकेशन ने 24 मई को एक बयान जारी किया. इसमें उनसे कहा है कि एयरसेल में अपनी हिस्सेदारी बेचने के लिए शिवा ग्रुप पर कोई दबाव नहीं डाला गया था. कंपनी ने इस पर भी जोर दिया कि एयरसेल में मैक्सिस के निवेश और सन डायरेक्ट टीवी में एस्ट्रो के निवेश का आपस में कोई संबंध नहीं है.

मैक्सिस-सन डायरेक्ट सौदे में सीबीआई क्या तलाश रही है ?

सीबीआई ने ए राजा पर लाइसेंस जारी करने में पहले आओ पहले पाओ नीति के गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया है. जांच एजेंसी का आरोप है कि राजा ने 2001 की दरों पर ही लाइसेंस जारी कर दिए, बिना यह विचार किए हुए कि दूरसंचार क्षेत्र में इस दौरान अपार विस्तार हो चुका है. सीबीआई के मुताबिक स्वान और यूनिटेक जैसी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए राजा ने मनमाने तरीके से फैसले लिए. उन्हें 2001 की कीमत पर लाइसेंस दिए गए और आवेदनों में कई झोल होने के बावजूद. जांच एजेंसी के मुताबिक इसके एवज में उन्हें और कनिमोरी को कथित रूप से 200 करोड़ रु मिले जिन्हें डीएमके के टीवी चैनल कलैनार टीवी में निवेश की तरह दिखाया गया.
अब सवाल उठता है कि क्या मारन ने भी ऐसा ही किया था. क्या उन्होंने भी पहले आओ- पहले पाओ की नीति का दुरुपयोग करते हुए मैक्सिस-एयरसेल सौदे के बाद एयरसेल को कथित रूप से फायदा पहुंचाया?

कनीमोरी और अन्य के खिलाफ अपने पूरक आरोपपत्र में सीबीआई ने अपने इस दावे के समर्थन में 14 कारण गिनाए हैं कि कलैनार टीवी में 200 करोड़ का निवेश एक वास्तविक कारोबारी सौदा नहीं था. इसमें शेयरहोल्डरों के बीच कोई समझौता नहीं हुआ. बलवा ने अपनी सबसिडियरी कंपनी कूसेगांव फ्रूट्स एेंड वेजीटेबल्स में पैसा हस्तांतरित किया था जिसने इसे सिनेयुग को हस्तांतरित किया और यहां से पैसा कलैनार टीवी को गया. कलैनार और सिनेयुग का दावा था कि पैसे का हस्तांतरण कलैनार टीवी में 20 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने के लिए हुआ. उधर 2009 में कलैनार टीवी की बैलेंस शीट देखी जाए तो इसमें उस पैसे का एक हिस्सा ही दर्ज दिखता है. 25 करोड़ की इस रकम को असुरक्षित कर्ज के रूप में दिखाया गया है. आखिर में पूरी रकम इक्विटी यानी हिस्सेदारी में नहीं बदली गई बल्कि इसे कर्ज के रूप में दिखाया गया और वापस कर दिया गया. यह वापसी भी तब हुई जब 2010 में सीबीआई ने राजा को पूछताछ के लिए बुलाया.
अब सवाल उठता है कि क्या मैक्सिस-सन डायरेक्ट टीवी सौदे और मैक्सिस-सन रेडियो सौदे में सब कुछ ठीक तरीके से हुआ. क्या सीबीआई को यह साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मिल पाएंगे कि ये सौदे भी बलवा-सिनेयुग-कलैनार सौदे की तरह आपसी फायदे के सौदे थे? जहां सीबीआई ने अपने पत्ते अभी नहीं खोले हैं वहीं जस्टिस पाटिल ने इस साल 31 मई को दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में मारन की भूमिका कई मौकों पर दोषपूर्ण पाई है. रिपोर्ट में एयरसेल के आवेदनों को बिना वजह लटकाए रखने का जिक्र तो है ही यह मारन की मनमानी के कई और उदाहरण भी उजागर करती है.

रिपोर्ट कहती है कि आइडिया सेल्यूलर को इसके यूएएसएल आवेदन में हुई गड़बड़ियों को सुधारने के लिए एक साल का विस्तार दिया गया था. गौरतलब है कि आइडिया ने मुंबई सर्विस एरिया के लिए यूएएसएल के लिए तीन अगस्त, 2005 को आवेदन किया था. यह विस्तार सदस्य (वित्त) की मंजूरी के बिना दिया गया. उस समय के दिशानिर्देश कहते थे कि आवेदनों में हुई गड़बड़ियां सुधारने के लिए अधिकतम समय सीमा ज्यादा से ज्यादा तीस दिन की ही हो सकती है और वह भी सदस्य (वित्त) की मंजूरी के साथ ही मान्य होगी. मगर आइडिया सेल्यूलर के मामले में जो हुआ वह साफ तौर पर बताता है कि नियमों का उल्लंघन हुआ. जस्टिस पाटिल ने कहा भी है कि स्पष्ट तौर पर तय दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया गया.

14 दिसंबर, 2004 को एस्सार स्पेसटेल प्रा. लि. ने असम, बिहार, हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, पूर्वोत्तर, उड़ीसा, मध्य प्रदेश के लिए यूएएसल के लिए आवेदन किया था. 12 जनवरी, 2005 को दूरसंचार मंत्रालय ने एस्सार को इक्विटी स्ट्रक्चर में कमियों का ध्यान दिलाते हुए एक पत्र लिखा. पत्राचार 18 मई , 2006 तक चलता रहा. जस्टिस पाटिल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ‘सूचना मांगने और कमियां बताने का काम चरणबद्ध तरीके से हुआ.’ इससे मारन की नीतियों के संदेहास्पद होने का संकेत मिलता है.

कैसे मारन ने स्पेक्ट्रम की कीमतों को वित्त मंत्रालय के दायरे से बाहर रखा

डिशनेट-एयरसेल के आवेदन में हो रही असामान्य देरी और लाइसेंस से जुड़े कई दूसरे मामलों में मारन द्वारा की गई गड़बड़ी के अलावा जस्टिस पाटिल ने इस पहलू पर भी विस्तार से रोशनी डाली है कि किस तरह से मारन स्पेक्ट्रम की कीमत जैसे महत्वपूर्ण मसले को वित्त मंत्रालय के दायरे से बाहर रखवाने में सफल रहे. 23 फरवरी, 2006 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हरी झंडी मिलने के बाद मंत्रियों के एक समूह का गठन किया गया था. इसका काम था स्पेक्ट्रम के प्रभावी और अधिकतम इस्तेमाल से जुड़े मुद्दों तो देखना. इस समूह में रक्षामंत्री, गृहमंत्री, वित्तमंत्री, संसदीय कार्यमंत्री और दूरसंचार मंत्री शामिल थे. इसके कार्यक्षेत्र में स्पेक्ट्रम कीमतों के निर्धारण संबंधी सुझाव देना भी शामिल था.

लेकिन 28 फरवरी, 2006 को मारन ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर स्पेक्ट्रम की कीमत को मंत्रिमंडलीय समूह के कार्यक्षेत्र से बाहर करने के लिए कहा. उन्होंने लिखा, ‘एक फरवरी, 2006 को हुई हमारी मुलाकात आपको याद होगी. उस दौरान यह बात हुई थी कि मंत्रिमंडलीय समूह का दायरा सिर्फ रक्षा विभाग द्वारा खाली किए गए स्पेक्ट्रम तक ही होगा. आपने मुझे आश्वासन दिया था कि इसका कार्यक्षेत्र हमारे मनमुताबिक ही होगा और उस वक्त यह दायरा रक्षा विभाग द्वारा खाली किए जा रहे स्पेक्ट्रम तक ही सीमित था. अब मुझे यह जानकर हैरानी है कि इसका दायरा फैलता ही जा रहा है. इनमें से कुछ चीजें तो ऐसी हैं कि उनका मंत्रालय के सामान्य कामकाज से सीधा टकराव हो रहा है. यदि आप  संबंधित पक्ष को कार्यक्षेत्र की सीमाओं में हमारे द्वारा सुझाए गए सुधार करने के लिए निर्देश दे सकें तो मैं आपका अत्यंत आभारी रहूंगा.’

कैग के मुताबिक अगर बोली के जरिए नीलामी होती तो इन 14 लाइसेंसों के लिए सरकार को 22000 करोड़ रु से भी ज्यादा मिलते

प्रधानमंत्री ने उनकी बात मान ली और सात दिसंबर, 2006 को मंत्रिमंडलीय समूह के कार्यक्षेत्र का पुनर्निर्धारण करते हुए स्पेक्ट्रम की कीमतों से जुड़े प्रावधान को खत्म कर दिया गया. इसके छह महीने बाद, छह जून, 2007 को (13 मई, 2007 को मारन को हटाकर ए राजा को दूरसंचार मंत्री बना दिया गया था) वित्त मंत्रालय ने स्पेक्ट्रम की कीमत को मंत्रिमंडलीय समूह के कार्यक्षेत्र में शामिल करने की मांग की. लेकिन दूरसंचार विभाग के सचिव ने किसी भी तरह के फेरबदल से इनकार कर दिया. इस तरह मारन ने जो राह चुनी थी राजा उसी पर आगे बढ़ते रहे. यूएएसएल और स्पेक्ट्रम की कीमत से जुड़े सभी फैसले दूरसंचार विभाग ने वित्त मंत्रालय की मंजूरी के बिना ही लिए जबकि भारत सरकार के नियमों के मुताबिक यह जरूरी था.
दोनों मंत्रियों ने स्पेक्ट्रम की कीमत का मुद्दा कैबिनेट और मंत्रियों के समूह के दायरे से दूर ही रखा. इसके बाद भी यह बाद हैरान करती है कि न तो सरकार और न ही प्रधानमंत्री कार्यालय में से किसी ने इस पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया.

संचार भवन में मारन का तीन वर्षीय कार्यकाल विवादों से भरपूर रहा था. उनके रतन टाटा के साथ बेहद तनावपूर्ण संबंध रहे. ये चर्चा चौफेर थी कि मारन बंधु टाटा स्काई में मोटी हिस्सेदारी चाहते थे. लेकिन जब टाटा ने उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया तब दूरसंचार विभाग ने टाटा टेलीसर्विसेज के विस्तार की राह में रोड़े अटकाना शुरू कर दिया. साल 2010 के मध्य में सामने आए नीरा राडिया और रतन टाटा की बातचीत के टेप में टाटा की मारन के प्रति गहरी नाराजगी और दूरसंचार मंत्री के रूप में ए राजा की पसंदगी जाहिर होती है. उसमें टाटा ने चिंता जताई थी कि अब मारन राजा के पीछे हाथ धोकर पड़ जाएंगे.

इसी साल एक और पूर्व दूरसंचार मंत्री अरुण शौरी ने यह कहकर मारन को कटघरे में खड़ा किया कि टूजी घोटाले के असली सूत्रधार मारन थे. उनका कहना था, ‘मारन के समय में ही शर्तों में एक और वाक्य जोड़ा गया जिसके मुताबिक एक सर्कल में ऑपरेटरों की अधिकतम संख्या पर कोई रोक-टोक नहीं होगी. इस तरह के बदलाव सिर्फ दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (टीआरएआई) के द्वारा ही प्रस्तावित हो सकते हैं. ‘शर्तों में यह परिवर्तन 2005 में ही हो गया था जबकि ट्राई ने 2007 में जाकर इसकी संस्तुति की. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर किस ज्योतिष ज्ञान की बदौलत मारन ने दो साल पहले ही यह संस्तुति कर दी थी? इससे साफ संकेत मिलता है कि असल में कुछ योजनाएं बनी थीं जो पूरी नहीं हो सकीं और जिन्हें बाद में ए राजा ने अंजाम दिया.’

तो क्या मारन ने टूजी घोटाले की नींव रखी थी? क्या एयरसेल-मैक्सिस-सन डाइरेक्ट टीवी के बीच हुआ सौदा उस पूरे घोटाले का एक नमूना भर था जिसे बाद में ए राजा ने बड़े पैमाने पर अंजाम दिया? इसका जवाब पुख्ता सबूतों में छिपा है और यहीं पर सीबीआई की असल परीक्षा होनी है.

नदियों के सूबे में पेयजल का संकट

उत्तर भारत की अधिकांश बारहमासी नदियों का उद्गम स्थल होने के बावजूद उत्तराखंड में गर्मी का मौसम शुरू होते ही पेयजल संकट पैदा हो गया है. इससे ग्रामीण के साथ-साथ शहरी इलाकों के लोग भी जूझ रहे हैं. देहरादून से महिपाल कुंवर की रिपोर्ट

पिछले साल पर्याप्त बारिश और बर्फबारी के बावजूद भी उत्तराखंड की कई बस्तियां बढ़ती गर्मी में पानी के लिए तरस रही हैं. उत्तराखंड उत्तर भारत की अधिकांश बारहमासी नदियों का उद्गम स्थल है. पहाड़ों से निकली इन नदियों का पानी दिल्ली से लेकर कोलकाता तक देश की आबादी के बड़े हिस्से की प्यास बुझाता है लेकिन हर साल पारा चढ़ते ही गंगा, यमुना, सरयू आदि नदियों के मायके के लोग पेयजल की समस्या से जूझने लगते हैं.

गढ़वाल जल संस्थान के अप्रैजल सचिव पी.सी. किमोठी के अनुसार राज्य के 63 नगरों और 39,000 गांवों में से अभी 27 नगर और 14,000 गांव पेयजल की समस्या से प्रभावित हैं. पर इन नगरों या गांवों में पेयजल ने संकट का रूप नहीं लिया है. राज्य सरकार के मानकों के अनुसार गर्मी में शहरों में प्रति व्यक्ति 135 लीटर और गांवों में 70 लीटर पानी दिया जाना चाहिए. राज्य के लोगों तक पानी पहुंचाने की जिम्मेदारी जल संस्थान पर है. प्रदेश की तकरीबन एक लाख किलोमीटर लंबी पेयजल लाइनों से 3.99 लाख बस्तियों तक पानी पहुंचाया जाता है. सरकारी मशीनरी के अनुसार इन बस्तियों में से 416 में पेयजल की किल्लत है. पेयजल किल्लत वाली इन बस्तियों में से कुमायूं के 142 ग्रामीण इलाके और 25 शहरी क्षेत्र के हैं. सरकारी दावों के हिसाब से गढ़वाल मंडल में 27 शहरों के अलावा 222 ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी की समस्या है. किमोठी बताते हैं कि इन इलाकों में पानी की आपूर्ति टैंकरों पर निर्भर रखी गई है. आम जन को पानी की आपूर्ति के लिए राज्य में 58,476 स्टैंड पोस्ट और 8,078 हैंड पंप लगाए गए हैं. राज्य में 98 मिनी नलकूप और 490 संचालित नलकूप भी पेयजल आपूर्ति करते है.

गढ़वाल जल संस्थान के अप्रैजल सचिव पी.सी. किमोठी के अनुसार राज्य के 63 नगरों और 39,000 गांवों में से अभी 27 नगर और 14,000 गांव पेयजल की समस्या से प्रभावित हैं.

पेयजल मंत्री प्रकाश पंत के गृहक्षेत्र में भी पानी की समुचित आपूर्ति नहीं हो रही है. शहर में 11 मिलीयन लीटर प्रतिदन (एमएलडी) पानी की मांग है. शहर में 20 किलोमीटर लंबी घाट पंपिंग पेयजल योजना से केवल 5.9 एमएलडी पानी की आपूर्ति हो रही है. जिससे शहर में पानी की समस्या बढ़ रही है. पिथौरागढ़ जल संस्थान के अधिक्षण अभियंता डी.के. मिश्रा भी स्वीकारते हैं कि शहर में पानी की कमी है. मिश्रा बताते हैं कि लोगों को उनकी आवश्यकता के अनुसार पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. मिश्रा बताते हैं कि अब भी पिथौरागढ़ शहर और आस-पास के गांवों को 32 साल पुरानी घाट पंपिंग पेयजल योजना से पानी की आपूर्ति की जा रही है. शहर के निवासी वसंत वल्लभ भट्ट बताते हैं कि उस समय घाट पपिंग योजना एशिया की सबसे बड़ी पेयजल योजना थी लेकिन वह 32 साल पहले शहर के 30,000 लोगों के लिए बनी थी लेकिन अब आबादी 1.30 लाख हो गई है. इसलिए दिन-प्रतिदिन इस पहाड़ी कस्बे में पानी का संकट गहराता जा रहा है. वसंत वल्लभ भट्ट का आरोप है कि शहर के धनी होटल व्यवसायी सीधे पेयजल लाइन से हजारों लीटर के टैंक भरते हैं. जिस कारण पानी की कमी हो जाती है और शहर के आम लोगों को पानी नहीं मिल पा रहा है. भट्ट बताते हैं कि शहर की सीवर लाइनें लीक होने के कारण पारंपरिक धारे-नौलों का पानी भी अब पीने लायक नहीं रह गया है. भट्ट का मानना है कि आपूर्ति में कमी के बावजूद भी पिथौरागढ़ में पानी की यह कृत्रिम समस्या है. इसके लिए जल संस्थान, नेता और सरकार जिम्मेदार है.

मुख्यमंत्री के गृह जनपद के मुख्यालय और गढवाल मंडल के मुख्यालय पौड़ी शहर में पानी की समस्या चिरस्थाई है. पौड़ी में पानी की आपूर्ति के लिए श्रीनगर के निकट अलकनंदा नदी से पेयजल योजना चल रही है. जिस योजना पर जल संस्थान ने बीते कुछ दिनों पहले नए पंप भी लगाए. अपनी उम्र पार कर चुकी इस पंपिग योजना द्वारा श्रीनगर से 16 किलोमीटर ऊपर पौड़ी तक पानी चढ़ाना सरकार के लिए एक चुनौती है. इसलिए गर्मी तो क्या सर्दी में भी पौड़ी जिला मुख्यालय सहित आस-पास के गांवों में पानी का संकट छाया रहता है. जल संस्थान के अधिशासी अभियंता आर.के. रोहिला बताते हैं कि पौड़ी के नगर और ग्रामीण इलाकों में पानी की किल्लत को दूर करने के लिए एक नई योजना नानघाट गधेरे से बन रही है. जिसकी लागत 43.57 करोड़ है. पत्रकार संदीप गुसांई बताते हैं कि अब भी पौड़ी शहर में लोगों को तीन-तीन दिनों तक पानी का इंतजार करना पड़ता है. वे बताते हैं कि पौड़ी मुख्यालय में पानी की समस्या की शिकायत दर्ज कराने के लिए जल संस्थान ने एक नियंत्रण कक्ष खोला है. यहां बड़ी संख्या में हर रोज शिकायतें आ रही हैं. गुसांई बताते हैं कि पौड़ी बाजार और आसपास के लोग लक्ष्मी नारायण मंदिर के पास बने स्टैंड पोस्ट से कनस्तरों और डब्बों में पानी भर कर गुजारा कर रहे हैं तो होटल व्यवसायियों ने तो पानी लाने के लिए मजदूर लगा रखे हैं. आर.के. रोहिला सफाई देते हैं कि पौड़ी शहर में पानी की दिक्कत नहीं है लेकिन पानी की आपूर्ति जरूर कम है.
एशिया के सबसे बड़े टिहरी बांध की झील के आसपास के गांवों में भी पेयजल संकट छाया हुआ है.

पानी के स्रोत सूखने के कारण चंबा, गजा-चाका, पीपलडाली में पानी की किल्लत से लोग परेशान हैं. प्रताप नगर तहसील के कुड़ियाल गांव निवासी प्रदीप थलवाल बताते हैं कि रैका पट्टी और औण पट्टी के कई गांवों के हजारों लोग पानी की समस्या से जूझ रहे हैं. थलवाल का आरोप है कि जल संस्थान मनुष्यों तक को पीने का पानी ही नहीं दे पा रहा है फिर पशुओं की क्या बिसात. जल संस्थान टिहरी के अधिशासी अभियंता जी.बी. डिमरी भी स्वीकारते हैं कि जिले में सबसे अधिक पानी की समस्या प्रताप नगर ब्लॉक के गांवों में है. जहां साल भर जल संस्थान टैंकरों के माध्यम से पानी की आपूर्ति करता है. वे बताते हैं कि प्रताप नगर बाजार में 4,000 लीटर की क्षमता वाले टैंकर से दिन में चार बार जनता के लिए पानी की आपूर्ति की जा रही है. डिमरी बताते हैं कि नई टिहरी शहर में भी छह एमएलडी पानी की आवश्यकता है. पर आवश्यकता के अनुरूप अधिकांश जगहों पर पानी की आपूर्ति नहीं हो पा रही है.

महिला समाख्या चंपावत की जिला समन्वयक भगवती पांडे बताती हैं कि जिला मुख्यालय और लोहाघाट ब्लॉक में पानी की समस्या है. उनके अनुसार पानी की कमी होने से सबसे अधिक महिलाऐं प्रभावित होती हैं. जल संस्थान के स्टैंड पोस्टों पर पानी न आने से पहाड़ी क्षेत्रों में गांव की महिलाओं को कई किलोमीटर दूर प्राकृतिक स्रोतों से पानी लाने जाना पड़ता है. चंपावत के जल संस्थान के अधिशासी अभियंता पी.सी. करगेती बताते हैं कि पूरे जिले में 73 एमएलडी पानी की आवश्यकता है. जबकि आपूर्ति महज 44 एमएलडी ही है. इस वजह से चंपावत जिला मुख्यालय के आसपास और जिले के लोहाघाट ब्लॉक के कई गांवों में लोगों को पानी की समस्या से जूझना पड़ रहा है.

देहरादून जिले के 82 मोहल्लों में भी पेयजल संकट है. इनमें 36 कॉलोनियां शहरी और 46 ग्रामीण इलाके के हैं. इससे यही कहा जा सकता है कि प्रदेश की राजधानी भी पेयजल संकट से अछूती नहीं है. राजधानी देहरादून में मांग 190 एमएलडी पानी की है जबकि आपूर्ति 230 एमएलडी हो रही है. इसके बावजूद शहर की अधिकांश कॉलोनियों में रोज पानी की समस्या से लोग परेशान रहते हैं. रेस कोर्स के पार्षद गणेश डंगवाल का आरोप है कि जल संस्थान देहरादून को शहर में बिछी पेयजल लाइनों की सही स्थिति के बारे में पता ही नहीं है. जिससे कई किलोमीटर लंबी पेयजल लाइनें आए दिन रिसती रहती है. पिछले तीन सालों में देहरादून में पानी की आपूर्ति बढ़ाने के लिए 70 करोड़ रुपये विभिन्न योजनाओं पर खर्च किए गए.

देहरादून जिले के 82 मोहल्लों में भी पेयजल संकट है. इनमें 36 कॉलोनियां शहरी और 46 ग्रामीण इलाके के हैं. इससे यही कहा जा सकता है कि प्रदेश की राजधानी भी पेयजल संकट से अछूती नहीं है.

डंगवाल का आरोप है कि करोड़ो रुपये खर्च करने के बाद शुरू हुई अतिरिक्त जल आपूर्ति के प्रबंधन के लिए जल संस्थान ने कोई प्रयास नहीं किए हैं. जिस कारण नगर निगम के 60 वार्डों में से अधिकांश में पानी की समस्या बनी रहती है. जल संस्थान देहरादून के अधीक्षण अभियंता (नगर) एच.के. पांडे भी स्वीकारते हैं कि पानी का एक बड़ा हिस्सा रिसकर बर्बाद हो रहा है. जिससे पानी की आपूर्ति व्यवस्था चरमरा जाती है. राजधानी देहरादून की 70 साल पुरानी पेयजल लाइनों को बदलने का बीड़ा शहरी विकास निदेशालय ने उठाया है. इसके लिए विभाग ने शहर में तकरीबन 300 किलोमीटर लंबी पानी की लाइन बिछाने के लिए 80 करोड़ रुपये का प्रस्ताव सरकार को भेजा है.

उत्तराखंड के 3,550 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में तकरीबन 917 ग्लेशियर हैं. इन्हें नदियों का उद्गम स्थल भी माना जाता है. इसके बाद भी जल स्रोत सूख रहे हैं. एचएनबी गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर के भू-गर्भ विभाग के विभागाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह राणा बताते हैं, ‘भूकंप या विस्फोटों से पृथ्वी के भीतर के फॉल्ट खुल जाते हैं या बंद हो जाते हैं जिससे पानी का स्तर बदल जाता है और पानी जमीन के भीतर अपना रास्ता बदल देता है. यह भी पानी के स्रोतों के सूखने का एक बड़ा कारण है.’

उत्तराखंड सरकार कुछ सालों से परंपरागत कुओं, धारों, चाल-खालों और नौलों के संरक्षण की बात कर रही है लेकिन सरकारी अधिकारी यह जबाब नहीं दे पा रहे हैं कि सरकार कुल कितना धन इन परंपरागत स्रोतों के संवर्धन पर खर्च कर रही है. उत्तराखंड में पानी के परंपरागत स्रोतों को पुनर्जीवित करने में लगे सुरेश भाई का मानना है कि पाइप लाइनों से पहले पहाड़ो में परंरागत स्रोतों से ही पीने के पानी के साथ-साथ सिंचाई का पानी भी लिया जाता था. अब भी ऊंचाई के जिन ढालदार स्थानों पर कच्चे खालें बनाई गई हैं, वहां नीचे सूखे स्थानों पर फिर से पानी फूट पड़ा है. वे बताते हैं कि सच्चिदानन्द भारती की अगुवाई में पौड़ी के उफरैंखाल क्षेत्र में 8.9 हजार खालों को बनाने से वहां सूखी नदी में पानी फूट पड़ा है. काश सरकार भी इन सफल प्रयोगों से प्रेरणा लेती!